वाचनम्
भागसूचना
- हनुमान् जी का लंकापुरी एवं रावणके अन्तःपुरमें प्रवेश
विश्वास-प्रस्तुतिः
स निर्जित्य पुरीं लङ्कां श्रेष्ठां तां कामरूपिणीम् ।
विक्रमेण महातेजा हनूमान् कपिसत्तमः ॥ १ ॥
अद्वारेण महावीर्यः प्राकारमवपुप्लुवे ।
निशि लङ्कां महासत्त्वो विवेश कपिकुञ्जरः ॥ २ ॥
मूलम्
स निर्जित्य पुरीं लङ्कां श्रेष्ठां तां कामरूपिणीम् ।
विक्रमेण महातेजा हनूमान् कपिसत्तमः ॥ १ ॥
अद्वारेण महावीर्यः प्राकारमवपुप्लुवे ।
निशि लङ्कां महासत्त्वो विवेश कपिकुञ्जरः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इच्छानुसार रूप धारण करनेवाली श्रेष्ठ राक्षसी लंकापुरीको अपने पराक्रमसे परास्त करके महातेजस्वी महाबली महान् सत्त्वशाली वानरशिरोमणि कपिकुञ्जर हनुमान् बिना दरवाजेके ही रातमें चहारदीवारी फाँद गये और लंकाके भीतर घुस गये ॥ १-२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रविश्य नगरीं लङ्कां कपिराजहितङ्करः ।
चक्रेऽथ पादं सव्यं च शत्रूणां स तु मूर्धनि ॥ ३ ॥
मूलम्
प्रविश्य नगरीं लङ्कां कपिराजहितङ्करः ।
चक्रेऽथ पादं सव्यं च शत्रूणां स तु मूर्धनि ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कपिराज सुग्रीवका हित करनेवाले हनुमान् जी ने इस तरह लंकापुरीमें प्रवेश करके मानो शत्रुओंके सिरपर अपना बायाँ पैर रख दिया ॥ ३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रविष्टः सत्त्वसम्पन्नो निशायां मारुतात्मजः ।
स महापथमास्थाय मुक्तपुष्पविराजितम् ॥ ४ ॥
ततस्तु तां पुरीं लङ्कां रम्यामभिययौ कपिः ।
मूलम्
प्रविष्टः सत्त्वसम्पन्नो निशायां मारुतात्मजः ।
स महापथमास्थाय मुक्तपुष्पविराजितम् ॥ ४ ॥
ततस्तु तां पुरीं लङ्कां रम्यामभिययौ कपिः ।
अनुवाद (हिन्दी)
सत्त्वगुणसे सम्पन्न पवनपुत्र हनुमान् उस रातमें परकोटेके भीतर प्रवेश करके बिखेरे गये फूलोंसे सुशोभित राजमार्गका आश्रय ले उस रमणीय लंकापुरीकी ओर चले ॥ ४ १/२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हसितोत्कृष्टनिनदैस्तूर्यघोषपुरस्कृतैः ॥ ५ ॥
वज्राङ्कुशनिकाशैश्च वज्रजालविभूषितैः ।
गृहमेघैः पुरी रम्या बभासे द्यौरिवाम्बुदैः ॥ ६ ॥
मूलम्
हसितोत्कृष्टनिनदैस्तूर्यघोषपुरस्कृतैः ॥ ५ ॥
वज्राङ्कुशनिकाशैश्च वज्रजालविभूषितैः ।
गृहमेघैः पुरी रम्या बभासे द्यौरिवाम्बुदैः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे आकाश श्वेत बादलोंसे सुशोभित होता है, उसी प्रकार वह रमणीय पुरी अपने श्वेत मेघसदृश गृहोंसे उत्तम शोभा पा रही थी । वे गृह अट्टहासजनित उत्कृष्ट शब्दों तथा वाद्यघोषोंसे मुखरित थे । उनमें वज्रों तथा अंकुशोंके चित्र अङ्कित थे और हीरोंके बने हुए झरोखे उनकी शोभा बढ़ाते थे ॥ ५-६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रजज्वाल तदा लङ्का रक्षोगणगृहैः शुभैः ।
सिताभ्रसदृशैश्चित्रैः पद्मस्वस्तिकसंस्थितैः ॥ ७ ॥
वर्धमानगृहैश्चापि सर्वतः सुविभूषितैः ।
मूलम्
प्रजज्वाल तदा लङ्का रक्षोगणगृहैः शुभैः ।
सिताभ्रसदृशैश्चित्रैः पद्मस्वस्तिकसंस्थितैः ॥ ७ ॥
वर्धमानगृहैश्चापि सर्वतः सुविभूषितैः ।
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय लंका श्वेत बादलोंके समान सुन्दर एवं विचित्र राक्षस-गृहोंसे प्रकाशित हो रही थी । उन गृहोंमेंसे कोई तो कमलके आकारमें बने हुए थे । कोई१ स्वस्तिकके चिह्न या आकारसे युक्त थे और किन्हींका निर्माण वर्धमानसंज्ञक२ गृहोंके रूपमें हुआ था । वे सभी सब ओरसे सजाये गये थे ॥ ७ १/२ ॥
पादटिप्पनी
१-२ वाराहमिहिरकी संहितामें गृहोंके विभिन्न संस्थानों (आकृतियों) का वर्णन किया गया है । उन्हीं संस्थानोंके अनुसार उनके नाम दिये गये हैं । जहाँ स्वस्तिकसंस्थान और वर्धमानसंज्ञक गृहका उल्लेख हुआ है, इनके लक्षणोंको स्पष्ट करनेवाले वचनोंको यहाँ उद्धृत किया जाता है—
चतुःशालं चतुर्द्वारं सर्वतोभद्रसंज्ञितम् ।
पश्चिमद्वाररहितं नन्द्यावर्ताह्वयन्तु तत् ॥
दक्षिणद्वाररहितं वर्धमानं धनप्रदम् ।
प्राग्द्वाररहितं स्वस्तिकाख्यं पुत्रधनप्रदम् ॥
चार शालाओंसे युक्त गृहको, जिसके प्रत्येक दिशामें एक-एक करके चार द्वार हों, ‘सर्वतोभद्र’ कहते हैं । जिसमें तीन ही द्वार हों, पश्चिम दिशाकी ओर द्वार न हो, उसका नाम ‘नन्द्यावर्त’ है । जिसमें दक्षिणके सिवा अन्य तीन दिशाओंमें द्वार हों, उसे ‘वर्धमान्’ गृह कहते हैं । वह धन देनेवाला होता है तथा जिसमें केवल पूर्व दिशाकी ओर द्वार न हो, उस गृहका नाम ‘स्वस्तिक’ है । वह पुत्र और धन देनेवाला होता है ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां चित्रमाल्याभरणां कपिराजहितङ्करः ॥ ८ ॥
राघवार्थे चरन् श्रीमान् ददर्श च ननन्द च ।
मूलम्
तां चित्रमाल्याभरणां कपिराजहितङ्करः ॥ ८ ॥
राघवार्थे चरन् श्रीमान् ददर्श च ननन्द च ।
अनुवाद (हिन्दी)
वानरराज सुग्रीवका हित करनेवाले श्रीमान् हनुमान् श्रीरघुनाथजीकी कार्यसिद्धिके लिये विचित्र पुष्पमय आभरणोंसे अलंकृत लंकामें विचरने लगे । उन्होंने उस पुरीको अच्छी तरह देखा और देखकर प्रसन्नताका अनुभव किया ॥ ८ १/२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवनाद् भवनं गच्छन् ददर्श कपिकुञ्जरः ॥ ९ ॥
विविधाकृतिरूपाणि भवनानि ततस्ततः ।
शुश्राव रुचिरं गीतं त्रिस्थानस्वरभूषितम् ॥ १० ॥
मूलम्
भवनाद् भवनं गच्छन् ददर्श कपिकुञ्जरः ॥ ९ ॥
विविधाकृतिरूपाणि भवनानि ततस्ततः ।
शुश्राव रुचिरं गीतं त्रिस्थानस्वरभूषितम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन कपिश्रेष्ठने जहाँ-तहाँ एक घरसे दूसरे घरपर जाते हुए विविध आकार-प्रकारके भवन देखे तथा हृदय, कण्ठ और मूर्धा—इन तीन स्थानोंसे निकलनेवाले मन्द, मध्यम और उच्च स्वरसे विभूषित मनोहर गीत सुने ॥ ९-१० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्त्रीणां मदनविद्धानां दिवि चाप्सरसामिव ।
शुश्राव काञ्चीनिनदं नूपुराणां च निःस्वनम् ॥ ११ ॥
मूलम्
स्त्रीणां मदनविद्धानां दिवि चाप्सरसामिव ।
शुश्राव काञ्चीनिनदं नूपुराणां च निःस्वनम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने स्वर्गीय अप्सराओंके समान सुन्दरी तथा कामवेदनासे पीड़ित कामिनियोंकी करधनी और पायजेबोंकी झनकार सुनी ॥ ११ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोपाननिनदांश्चापि भवनेषु महात्मनाम् ।
आस्फोटितनिनादांश्च क्ष्वेडितांश्च ततस्ततः ॥ १२ ॥
मूलम्
सोपाननिनदांश्चापि भवनेषु महात्मनाम् ।
आस्फोटितनिनादांश्च क्ष्वेडितांश्च ततस्ततः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी तरह जहाँ-तहाँ महामनस्वी राक्षसोंके घरोंमें सीढ़ियोंपर चढ़ते समय स्त्रियोंकी काञ्ची और मंजीरकी मधुरध्वनि तथा पुरुषोंके ताल ठोकने और गर्जनेकी भी आवाजें उन्हें सुनायी दीं ॥ १२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुश्राव जपतां तत्र मन्त्रान् रक्षोगृहेषु वै ।
स्वाध्यायनिरतांश्चैव यातुधानान् ददर्श सः ॥ १३ ॥
मूलम्
शुश्राव जपतां तत्र मन्त्रान् रक्षोगृहेषु वै ।
स्वाध्यायनिरतांश्चैव यातुधानान् ददर्श सः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राक्षसोंके घरोंमें बहुतोंको तो उन्होंने वहाँ मन्त्र जपते हुए सुना और कितने ही निशाचरोंको स्वाध्यायमें तत्पर देखा ॥ १३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रावणस्तवसंयुक्तान् गर्जतो राक्षसानपि ।
राजमार्गं समावृत्य स्थितं रक्षोगणं महत् ॥ १४ ॥
मूलम्
रावणस्तवसंयुक्तान् गर्जतो राक्षसानपि ।
राजमार्गं समावृत्य स्थितं रक्षोगणं महत् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कई राक्षसोंको उन्होंने रावणकी स्तुतिके साथ गर्जना करते और निशाचरोंकी एक बड़ी भीड़को राजमार्ग रोककर खड़ी हुई देखा ॥ १४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ददर्श मध्यमे गुल्मे राक्षसस्य चरान् बहून् ।
दीक्षिताञ्जटिलान् मुण्डान् गोजिनाम्बरवाससः ॥ १५ ॥
दर्भमुष्टिप्रहरणानग्निकुण्डायुधांस्तथा ।
कूटमुद्गरपाणींश्च दण्डायुधधरानपि ॥ १६ ॥
मूलम्
ददर्श मध्यमे गुल्मे राक्षसस्य चरान् बहून् ।
दीक्षिताञ्जटिलान् मुण्डान् गोजिनाम्बरवाससः ॥ १५ ॥
दर्भमुष्टिप्रहरणानग्निकुण्डायुधांस्तथा ।
कूटमुद्गरपाणींश्च दण्डायुधधरानपि ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नगरके मध्यभागमें उन्हें रावणके बहुत-से गुप्तचर दिखायी दिये । उनमें कोई योगकी दीक्षा लिये हुए, कोई जटा बढ़ाये, कोई मूड़ मुँड़ाये, कोई गोचर्म या मृगचर्म धारण किये और कोई नंग-धड़ंग थे । कोई मुट्ठीभर कुशोंको ही अस्त्र-रूपसे धारण किये हुए थे । किन्हींका अग्निकुण्ड ही आयुध था । किन्हींके हाथमें कूट या मुद्गर था । कोई डंडेको ही हथियाररूपमें लिये हुए थे ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकाक्षानेकवर्णांश्च लम्बोदरपयोधरान् ।
करालान् भुग्नवक्त्रांश्च विकटान् वामनांस्तथा ॥ १७ ॥
मूलम्
एकाक्षानेकवर्णांश्च लम्बोदरपयोधरान् ।
करालान् भुग्नवक्त्रांश्च विकटान् वामनांस्तथा ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किन्हींके एक ही आँख थी तो किन्हींके रूप बहुरंगे थे । कितनोंके पेट और स्तन बहुत बड़े थे । कोई बड़े विकराल थे । किन्हींके मुँह टेढ़े-मेढ़े थे । कोई विकट थे तो कोई बौने ॥ १७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धन्विनः खड्गिनश्चैव शतघ्नीमुसलायुधान् ।
परिघोत्तमहस्तांश्च विचित्रकवचोज्ज्वलान् ॥ १८ ॥
मूलम्
धन्विनः खड्गिनश्चैव शतघ्नीमुसलायुधान् ।
परिघोत्तमहस्तांश्च विचित्रकवचोज्ज्वलान् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किन्हींके पास धनुष, खड्ग, शतघ्नी और मूसलरूप आयुध थे । किन्हींके हाथोंमें उत्तम परिघ विद्यमान थे और कोई विचित्र कवचोंसे प्रकाशित हो रहे थे ॥ १८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नातिस्थूलान् नातिकृशान् नातिदीर्घातिह्रस्वकान् ।
नातिगौरान् नातिकृष्णान्नातिकुब्जान्न वामनान् ॥ १९ ॥
मूलम्
नातिस्थूलान् नातिकृशान् नातिदीर्घातिह्रस्वकान् ।
नातिगौरान् नातिकृष्णान्नातिकुब्जान्न वामनान् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुछ निशाचर न तो अधिक मोटे थे, न अधिक दुर्बल, न बहुत लंबे थे न अधिक छोटे, न बहुत गोरे थे न अधिक काले तथा न अधिक कुबड़े थे न विशेष बौने ही ॥ १९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विरूपान् बहुरूपांश्च सुरूपांश्च सुवर्चसः ।
ध्वजिनः पताकिनश्चैव ददर्श विविधायुधान् ॥ २० ॥
मूलम्
विरूपान् बहुरूपांश्च सुरूपांश्च सुवर्चसः ।
ध्वजिनः पताकिनश्चैव ददर्श विविधायुधान् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कोई बड़े कुरूप थे, कोई अनेक प्रकारके रूप धारण कर सकते थे, किन्हींका रूप सुन्दर था, कोई बड़े तेजस्वी थे तथा किन्हींके पास ध्वजा, पताका और अनेक प्रकारके अस्त्र-शस्त्र थे ॥ २० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शक्तिवृक्षायुधांश्चैव पट्टिशाशनिधारिणः ।
क्षेपणीपाशहस्तांश्च ददर्श स महाकपिः ॥ २१ ॥
मूलम्
शक्तिवृक्षायुधांश्चैव पट्टिशाशनिधारिणः ।
क्षेपणीपाशहस्तांश्च ददर्श स महाकपिः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कोई शक्ति और वृक्षरूप आयुध धारण किये देखे जाते थे तथा किन्हींके पास पट्टिश, वज्र, गुलेल और पाश थे । महाकपि हनुमान् ने उन सबको देखा ॥ २१ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्रग्विणस्त्वनुलिप्तांश्च वराभरणभूषितान् ।
नानावेषसमायुक्तान् यथास्वैरचरान् बहून् ॥ २२ ॥
मूलम्
स्रग्विणस्त्वनुलिप्तांश्च वराभरणभूषितान् ।
नानावेषसमायुक्तान् यथास्वैरचरान् बहून् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किन्हींके गलेमें फूलोंके हार थे और ललाट आदि अंग चन्दनसे चर्चित थे । कोई श्रेष्ठ आभूषणोंसे सजे हुए थे । कितने ही नाना प्रकारके वेशभूषासे संयुक्त थे और बहुतेरे स्वेच्छानुसार विचरनेवाले जान पड़ते थे ॥ २२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तीक्ष्णशूलधरांश्चैव वज्रिणश्च महाबलान् ।
शतसाहस्रमव्यग्रमारक्षं मध्यमं कपिः ॥ २३ ॥
रक्षोऽधिपतिनिर्दिष्टं ददर्शान्तःपुराग्रतः ।
मूलम्
तीक्ष्णशूलधरांश्चैव वज्रिणश्च महाबलान् ।
शतसाहस्रमव्यग्रमारक्षं मध्यमं कपिः ॥ २३ ॥
रक्षोऽधिपतिनिर्दिष्टं ददर्शान्तःपुराग्रतः ।
अनुवाद (हिन्दी)
कितने ही राक्षस तीखे शूल तथा वज्र लिये हुए थे । वे सब-के-सब महान् बलसे सम्पन्न थे । इनके सिवा कपिवर हनुमान् ने एक लाख रक्षक सेनाको राक्षसराज रावणकी आज्ञासे सावधान होकर नगरके मध्यभागकी रक्षामें संलग्न देखा । वे सारे सैनिक रावणके अन्तःपुरके अग्रभागमें स्थित थे ॥ २३ १/२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तदा तद् गृहं दृष्ट्वा महाहाटकतोरणम् ॥ २४ ॥
राक्षसेन्द्रस्य विख्यातमद्रिमूर्ध्नि प्रतिष्ठितम् ।
पुण्डरीकावतंसाभिः परिखाभिः समावृतम् ॥ २५ ॥
प्राकारावृतमत्यन्तं ददर्श स महाकपिः ।
त्रिविष्टपनिभं दिव्यं दिव्यनादविनादितम् ॥ २६ ॥
मूलम्
स तदा तद् गृहं दृष्ट्वा महाहाटकतोरणम् ॥ २४ ॥
राक्षसेन्द्रस्य विख्यातमद्रिमूर्ध्नि प्रतिष्ठितम् ।
पुण्डरीकावतंसाभिः परिखाभिः समावृतम् ॥ २५ ॥
प्राकारावृतमत्यन्तं ददर्श स महाकपिः ।
त्रिविष्टपनिभं दिव्यं दिव्यनादविनादितम् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रक्षक सेनाके लिये जो विशाल भवन बना था, उसका फाटक बहुमूल्य सुवर्णद्वारा निर्मित हुआ था । उस आरक्षाभवनको देखकर महाकपि हनुमान् जी ने राक्षसराज रावणके सुप्रसिद्ध राजमहलपर दृष्टिपात किया, जो त्रिकूट पर्वतके एक शिखरपर प्रतिष्ठित था । वह सब ओरसे श्वेत कमलोंद्वारा अलंकृत खाइयोंसे घिरा हुआ था । उसके चारों ओर बहुत ऊँचा परकोटा था, जिसने उस राजभवनको घेर रखा था । वह दिव्य भवन स्वर्गलोकके समान मनोहर था और वहाँ संगीत आदिके दिव्य शब्द गूँज रहे थे ॥ २४—२६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाजिह्रेषितसङ्घुष्टं नादितं भूषणैस्तथा ।
रथैर्यानैर्विमानैश्च तथा हयगजैः शुभैः ॥ २७ ॥
वारणैश्च चतुर्दन्तैः श्वेताभ्रनिचयोपमैः ।
भूषितै रुचिरद्वारं मत्तैश्च मृगपक्षिभिः ॥ २८ ॥
मूलम्
वाजिह्रेषितसङ्घुष्टं नादितं भूषणैस्तथा ।
रथैर्यानैर्विमानैश्च तथा हयगजैः शुभैः ॥ २७ ॥
वारणैश्च चतुर्दन्तैः श्वेताभ्रनिचयोपमैः ।
भूषितै रुचिरद्वारं मत्तैश्च मृगपक्षिभिः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
घोड़ोंकी हिनहिनाहटकी आवाज भी वहाँ सब ओर फैली हुई थी । आभूषणोंकी रुनझुन भी कानोंमें पड़ती रहती थी । नाना प्रकारके रथ, पालकी आदि सवारी, विमान, सुन्दर हाथी, घोड़े, श्वेत बादलोंकी घटाके समान दिखायी देनेवाले चार दाँतोंसे युक्त सजे-सजाये मतवाले हाथी तथा मदमत्त पशु-पक्षियोंके संचरणसे उस राजमहलका द्वार बड़ा सुन्दर दिखायी देता था ॥ २७-२८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रक्षितं सुमहावीर्यैर्यातुधानैः सहस्रशः ।
राक्षसाधिपतेर्गुप्तमाविवेश गृहं कपिः ॥ २९ ॥
मूलम्
रक्षितं सुमहावीर्यैर्यातुधानैः सहस्रशः ।
राक्षसाधिपतेर्गुप्तमाविवेश गृहं कपिः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सहस्रों महापराक्रमी निशाचर राक्षसराजके उस महलकी रक्षा करते थे । उस गुप्त भवनमें भी कपिवर हनुमान् जी जा पहुँचे ॥ २९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स हेमजाम्बूनदचक्रवालं
महार्हमुक्तामणि भूषितान्तम् ।
परार्घ्यकालागुरुचन्दनार्हं
स रावणान्तःपुरमाविवेश ॥ ३० ॥
मूलम्
स हेमजाम्बूनदचक्रवालं
महार्हमुक्तामणि भूषितान्तम् ।
परार्घ्यकालागुरुचन्दनार्हं
स रावणान्तःपुरमाविवेश ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर जिसके चारों ओर सुवर्ण एवं जाम्बूनदका परकोटा था, जिसका ऊपरी भाग बहुमूल्य मोती और मणियोंसे विभूषित था तथा अत्यन्त उत्तम काले अगुरु एवं चन्दनसे जिसकी अर्चना की जाती थी, रावणके उस अन्तःपुरमें हनुमान् जी ने प्रवेश किया ॥ ३० ॥
समाप्तिः
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे चतुर्थः सर्गः ॥ ४ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके सुन्दरकाण्डमें चौथा सर्ग पूरा हुआ ॥ ४ ॥