वाचनम्
भागसूचना
- लंकापुरीका अवलोकन करके हनुमान् जी का विस्मित होना, उसमें प्रवेश करते समय निशाचरी लंकाका उन्हें रोकना और उनकी मारसे विह्वल होकर उन्हें पुरीमें प्रवेश करनेकी अनुमति देना
विश्वास-प्रस्तुतिः
स लम्बशिखरे लम्बे लम्बतोयदसन्निभे ।
सत्त्वमास्थाय मेधावी हनुमान् मारुतात्मजः ॥ १ ॥
निशि लङ्कां महासत्त्वो विवेश कपिकुञ्जरः ।
रम्यकाननतोयाढ्यां पुरीं रावणपालिताम् ॥ २ ॥
मूलम्
स लम्बशिखरे लम्बे लम्बतोयदसन्निभे ।
सत्त्वमास्थाय मेधावी हनुमान् मारुतात्मजः ॥ १ ॥
निशि लङ्कां महासत्त्वो विवेश कपिकुञ्जरः ।
रम्यकाननतोयाढ्यां पुरीं रावणपालिताम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऊँचे शिखरवाले लंब (त्रिकूट) पर्वतपर जो महान् मेघोंकी घटाके समान जान पड़ता था, बुद्धिमान् महाशक्तिशाली कपिश्रेष्ठ पवनकुमार हनुमान् ने सत्त्व-गुणका आश्रय ले रातके समय रावणपालित लंकापुरीमें प्रवेश किया । वह नगरी सुरम्य वन और जलाशयोंसे सुशोभित थी ॥ १-२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शारदाम्बुधरप्रख्यैर्भवनैरुपशोभिताम् ।
सागरोपमनिर्घोषां सागरानिलसेविताम् ॥ ३ ॥
मूलम्
शारदाम्बुधरप्रख्यैर्भवनैरुपशोभिताम् ।
सागरोपमनिर्घोषां सागरानिलसेविताम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शरत्कालके बादलोंकी भाँति श्वेत कान्तिवाले सुन्दर भवन उसकी शोभा बढ़ाते थे । वहाँ समुद्रकी गर्जनाके समान गम्भीर शब्द होता रहता था । सागरकी लहरोंको छूकर बहनेवाली वायु इस पुरीकी सेवा करती थी ॥ ३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुपुष्टबलसम्पुष्टां यथैव विटपावतीम् ।
चारुतोरणनिर्यूहां पाण्डुरद्वारतोरणाम् ॥ ४ ॥
मूलम्
सुपुष्टबलसम्पुष्टां यथैव विटपावतीम् ।
चारुतोरणनिर्यूहां पाण्डुरद्वारतोरणाम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह अलकापुरीके समान शक्तिशालिनी सेनाओंसे सुरक्षित थी । उस पुरीके सुन्दर फाटकोंपर मतवाले हाथी शोभा पाते थे । उस पुरीके अन्तर्द्वार और बहिर्द्वार दोनों ही श्वेत कान्तिसे सुशोभित थे ॥ ४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भुजगाचरितां गुप्तां शुभां भोगवतीमिव ।
तां सविद्युद्घनाकीर्णां ज्योतिर्गणनिषेविताम् ॥ ५ ॥
चण्डमारुतनिर्ह्रादां यथा चाप्यमरावतीम् ।
मूलम्
भुजगाचरितां गुप्तां शुभां भोगवतीमिव ।
तां सविद्युद्घनाकीर्णां ज्योतिर्गणनिषेविताम् ॥ ५ ॥
चण्डमारुतनिर्ह्रादां यथा चाप्यमरावतीम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
उस नगरीकी रक्षाके लिये बड़े-बड़े सर्पोंका संचरण (आना-जाना) होता रहता है, इसलिये वह नागोंसे सुरक्षित सुन्दर भोगवतीपुरीके समान जान पड़ती थी । अमरावतीपुरीके समान वहाँ आवश्यकताके अनुसार बिजलियोंसहित मेघ छाये रहते थे । ग्रहों और नक्षत्रोंके सदृश विद्युत्-दीपोंके प्रकाशसे वह पुरी प्रकाशित थी तथा प्रचण्ड वायुकी ध्वनि वहाँ सदा होती रहती थी ॥ ५ १/२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शातकुम्भेन महता प्राकारेणाभिसंवृताम् ॥ ६ ॥
किङ्किणीजालघोषाभिः पताकाभिरलङ्कृताम् ।
मूलम्
शातकुम्भेन महता प्राकारेणाभिसंवृताम् ॥ ६ ॥
किङ्किणीजालघोषाभिः पताकाभिरलङ्कृताम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
सोनेके बने हुए विशाल परकोटेसे घिरी हुई लंकापुरी क्षुद्र घंटिकाओंकी झनकारसे युक्त पताकाओंद्वारा अलंकृत थी ॥ ६ १/२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसाद्य सहसा हृष्टः प्राकारमभिपेदिवान् ॥ ७ ॥
विस्मयाविष्टहृदयः पुरीमालोक्य सर्वतः ।
मूलम्
आसाद्य सहसा हृष्टः प्राकारमभिपेदिवान् ॥ ७ ॥
विस्मयाविष्टहृदयः पुरीमालोक्य सर्वतः ।
अनुवाद (हिन्दी)
उस पुरीके समीप पहुँचकर हर्ष और उत्साहसे भरे हुए हनुमान् जी सहसा उछलकर उसके परकोटेपर चढ़ गये । वहाँ सब ओरसे लंकापुरीका अवलोकन करके हनुमान् जी का चित्त आश्चर्यसे चकित हो उठा ॥ ७ १/२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जाम्बूनदमयैर्द्वारैर्वैदूर्यकृतवेदिकैः ॥ ८ ॥
वज्रस्फटिकमुक्ताभिर्मणिकुट्टिमभूषितैः ।
तप्तहाटकनिर्यूहै राजतामलपाण्डुरैः ॥ ९ ॥
वैदूर्यकृतसोपानैः स्फाटिकान्तरपांसुभिः ।
चारुसञ्जवनोपेतैः खमिवोत्पतितैः शुभैः ॥ १० ॥
मूलम्
जाम्बूनदमयैर्द्वारैर्वैदूर्यकृतवेदिकैः ॥ ८ ॥
वज्रस्फटिकमुक्ताभिर्मणिकुट्टिमभूषितैः ।
तप्तहाटकनिर्यूहै राजतामलपाण्डुरैः ॥ ९ ॥
वैदूर्यकृतसोपानैः स्फाटिकान्तरपांसुभिः ।
चारुसञ्जवनोपेतैः खमिवोत्पतितैः शुभैः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुवर्णके बने हुए द्वारोंसे उस नगरीकी अपूर्व शोभा हो रही थी । उन सभी द्वारोंपर नीलमके चबूतरे बने हुए थे । वे सब द्वार हीरों, स्फटिकों और मोतियोंसे जड़े गये थे । मणिमयी फर्शें उनकी शोभा बढ़ा रही थीं । उनके दोनों ओर तपाये सुवर्णके बने हुए हाथी शोभा पाते थे । उन द्वारोंका ऊपरी भाग चाँदीसे निर्मित होनेके कारण स्वच्छ और श्वेत था । उनकी सीढ़ियाँ नीलमकी बनी हुई थीं । उन द्वारोंके भीतरी भाग स्फटिक मणिके बने हुए और धूलसे रहित थे । वे सभी द्वार रमणीय सभा-भवनोंसे युक्त और सुन्दर थे तथा इतने ऊँचे थे कि आकाशमें उठे हुए-से जान पड़ते थे ॥ ८—१० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रौञ्चबर्हिणसङ्घुष्टै राजहंसनिषेवितैः ।
तूर्याभरणनिर्घोषैः सर्वतः परिनादिताम् ॥ ११ ॥
मूलम्
क्रौञ्चबर्हिणसङ्घुष्टै राजहंसनिषेवितैः ।
तूर्याभरणनिर्घोषैः सर्वतः परिनादिताम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ क्रौञ्च और मयूरोंके कलरव गूँजते रहते थे, उन द्वारोंपर राजहंस नामक पक्षी भी निवास करते थे । वहाँ भाँति-भाँतिके वाद्यों और आभूषणोंकी मधुर ध्वनि होती रहती थी, जिससे लंकापुरी सब ओरसे प्रतिध्वनित हो रही थी ॥ ११ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वस्वोकसारप्रतिमां समीक्ष्य नगरीं ततः ।
खमिवोत्पतितां लङ्कां जहर्ष हनुमान् कपिः ॥ १२ ॥
मूलम्
वस्वोकसारप्रतिमां समीक्ष्य नगरीं ततः ।
खमिवोत्पतितां लङ्कां जहर्ष हनुमान् कपिः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुबेरकी अलकाके समान शोभा पानेवाली लंकानगरी त्रिकूटके शिखरपर प्रतिष्ठित होनेके कारण आकाशमें उठी हुई-सी प्रतीत होती थी । उसे देखकर कपिवर हनुमान् को बड़ा हर्ष हुआ ॥ १२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां समीक्ष्य पुरीं लङ्कां राक्षसाधिपतेः शुभाम् ।
अनुत्तमामृद्धिमतीं चिन्तयामास वीर्यवान् ॥ १३ ॥
मूलम्
तां समीक्ष्य पुरीं लङ्कां राक्षसाधिपतेः शुभाम् ।
अनुत्तमामृद्धिमतीं चिन्तयामास वीर्यवान् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राक्षसराजकी वह सुन्दर पुरी लंका सबसे उत्तम और समृद्धिशालिनी थी । उसे देखकर पराक्रमी हनुमान् इस प्रकार सोचने लगे— ॥ १३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नेयमन्येन नगरी शक्या धर्षयितुं बलात् ।
रक्षिता रावणबलैरुद्यतायुधपाणिभिः ॥ १४ ॥
मूलम्
नेयमन्येन नगरी शक्या धर्षयितुं बलात् ।
रक्षिता रावणबलैरुद्यतायुधपाणिभिः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘रावणके सैनिक हाथोंमें अस्त्र-शस्त्र लिये इस पुरीकी रक्षा करते हैं, अतः दूसरा कोई बलपूर्वक इसे अपने काबूमें नहीं कर सकता ॥ १४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुमुदाङ्गदयोर्वापि सुषेणस्य महाकपेः ।
प्रसिद्धेयं भवेद् भूमिर्मैन्दद्विविदयोरपि ॥ १५ ॥
विवस्वतस्तनूजस्य हरेश्च कुशपर्वणः ।
ऋक्षस्य कपिमुख्यस्य मम चैव गतिर्भवेत् ॥ १६ ॥
मूलम्
कुमुदाङ्गदयोर्वापि सुषेणस्य महाकपेः ।
प्रसिद्धेयं भवेद् भूमिर्मैन्दद्विविदयोरपि ॥ १५ ॥
विवस्वतस्तनूजस्य हरेश्च कुशपर्वणः ।
ऋक्षस्य कपिमुख्यस्य मम चैव गतिर्भवेत् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘केवल कुमुद, अंगद, महाकपि सुषेण, मैन्द, द्विविद, सूर्यपुत्र सुग्रीव, वानर कुशपर्वा और वानरसेनाके प्रमुख वीर ऋक्षराज जाम्बवान् की तथा मेरी भी पहुँच इस पुरीके भीतर हो सकती है’ ॥ १५-१६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समीक्ष्य च महाबाहो राघवस्य पराक्रमम् ।
लक्ष्मणस्य च विक्रान्तमभवत् प्रीतिमान् कपिः ॥ १७ ॥
मूलम्
समीक्ष्य च महाबाहो राघवस्य पराक्रमम् ।
लक्ष्मणस्य च विक्रान्तमभवत् प्रीतिमान् कपिः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर महाबाहु श्रीराम और लक्ष्मणके पराक्रमका विचार करके कपिवर हनुमान् को बड़ी प्रसन्नता हुई ॥ १७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां रत्नवसनोपेतां गोष्ठागारावतंसिकाम् ।
यन्त्रागारस्तनीमृद्धां प्रमदामिव भूषिताम् ॥ १८ ॥
तां नष्टतिमिरां दीपैर्भास्वरैश्च महाग्रहैः ।
नगरीं राक्षसेन्द्रस्य स ददर्श महाकपिः ॥ १९ ॥
मूलम्
तां रत्नवसनोपेतां गोष्ठागारावतंसिकाम् ।
यन्त्रागारस्तनीमृद्धां प्रमदामिव भूषिताम् ॥ १८ ॥
तां नष्टतिमिरां दीपैर्भास्वरैश्च महाग्रहैः ।
नगरीं राक्षसेन्द्रस्य स ददर्श महाकपिः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाकपि हनुमान् ने देखा, राक्षसराज रावणकी नगरी लंका वस्त्राभूषणोंसे विभूषित सुन्दरी युवतीके समान जान पड़ती है । रत्नमय परकोटे ही इसके वस्त्र हैं, गोष्ठ (गोशाला) तथा दूसरे-दूसरे भवन आभूषण हैं । परकोटोंपर लगे हुए यन्त्रोंके जो गृह हैं, ये ही मानो इस लंकारूपी युवतीके स्तन हैं । यह सब प्रकारकी समृद्धियोंसे सम्पन्न है । प्रकाशपूर्ण द्वीपों और महान् ग्रहोंने यहाँका अन्धकार नष्ट कर दिया है ॥ १८-१९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ सा हरिशार्दूलं प्रविशन्तं महाकपिम् ।
नगरी स्वेन रूपेण ददर्श पवनात्मजम् ॥ २० ॥
मूलम्
अथ सा हरिशार्दूलं प्रविशन्तं महाकपिम् ।
नगरी स्वेन रूपेण ददर्श पवनात्मजम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर वानरश्रेष्ठ महाकपि पवनकुमार हनुमान् उस पुरीमें प्रवेश करने लगे । इतनेमें ही उस नगरीकी अधिष्ठात्री देवी लंकाने अपने स्वाभाविक रूपमें प्रकट होकर उन्हें देखा ॥ २० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा तं हरिवरं दृष्ट्वा लङ्का रावणपालिता ।
स्वयमेवोत्थिता तत्र विकृताननदर्शना ॥ २१ ॥
मूलम्
सा तं हरिवरं दृष्ट्वा लङ्का रावणपालिता ।
स्वयमेवोत्थिता तत्र विकृताननदर्शना ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वानरश्रेष्ठ हनुमान् को देखते ही रावणपालित लंका स्वयं ही उठ खड़ी हुई । उसका मुँह देखनेमें बड़ा विकट था ॥ २१ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरस्तात् तस्य वीरस्य वायुसूनोरतिष्ठत ।
मुञ्चमाना महानादमब्रवीत् पवनात्मजम् ॥ २२ ॥
मूलम्
पुरस्तात् तस्य वीरस्य वायुसूनोरतिष्ठत ।
मुञ्चमाना महानादमब्रवीत् पवनात्मजम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह उन वीर पवनकुमारके सामने खड़ी हो गयी और बड़े जोरसे गर्जना करती हुई उनसे इस प्रकार बोली— ॥ २२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कस्त्वं केन च कार्येण इह प्राप्तो वनालय ।
कथयस्वेह यत् तत्त्वं यावत् प्राणा धरन्ति ते ॥ २३ ॥
मूलम्
कस्त्वं केन च कार्येण इह प्राप्तो वनालय ।
कथयस्वेह यत् तत्त्वं यावत् प्राणा धरन्ति ते ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वनचारी वानर! तू कौन है और किस कार्यसे यहाँ आया है? तुम्हारे प्राण जबतक बने हुए हैं, तबतक ही यहाँ आनेका जो यथार्थ रहस्य है, उसे ठीक-ठीक बता दो ॥ २३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न शक्यं खल्वियं लङ्का प्रवेष्टुं वानर त्वया ।
रक्षिता रावणबलैरभिगुप्ता समन्ततः ॥ २४ ॥
मूलम्
न शक्यं खल्वियं लङ्का प्रवेष्टुं वानर त्वया ।
रक्षिता रावणबलैरभिगुप्ता समन्ततः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वानर! रावणकी सेना सब ओरसे इस पुरीकी रक्षा करती है, अतः निश्चय ही तू इस लंकामें प्रवेश नहीं कर सकता’ ॥ २४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ तामब्रवीद् वीरो हनुमानग्रतः स्थिताम् ।
कथयिष्यामि तत् तत्त्वं यन्मां त्वं परिपृच्छसे ॥ २५ ॥
का त्वं विरूपनयना पुरद्वारेऽवतिष्ठसे ।
किमर्थं चापि मां क्रोधान्निर्भर्त्सयसि दारुणे ॥ २६ ॥
मूलम्
अथ तामब्रवीद् वीरो हनुमानग्रतः स्थिताम् ।
कथयिष्यामि तत् तत्त्वं यन्मां त्वं परिपृच्छसे ॥ २५ ॥
का त्वं विरूपनयना पुरद्वारेऽवतिष्ठसे ।
किमर्थं चापि मां क्रोधान्निर्भर्त्सयसि दारुणे ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब वीरवर हनुमान् अपने सामने खड़ी हुई लंकासे बोले—‘क्रूर स्वभाववाली नारी! तू मुझसे जो कुछ पूछ रही है, उसे मैं ठीक-ठीक बता दूँगा; किंतु पहले यह तो बता, तू है कौन? तेरी आँखें बड़ी भयंकर हैं । तू इस नगरके द्वारपर खड़ी है । क्या कारण है कि तू इस प्रकार क्रोध करके मुझे डाँट रही है’ ॥ २५-२६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हनुमद्वचनं श्रुत्वा लङ्का सा कामरूपिणी ।
उवाच वचनं क्रुद्धा परुषं पवनात्मजम् ॥ २७ ॥
मूलम्
हनुमद्वचनं श्रुत्वा लङ्का सा कामरूपिणी ।
उवाच वचनं क्रुद्धा परुषं पवनात्मजम् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हनुमान् जी की यह बात सुनकर इच्छानुसार रूप धारण करनेवाली लंका कुपित हो उन पवनकुमारसे कठोर वाणीमें बोली— ॥ २७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं राक्षसराजस्य रावणस्य महात्मनः ।
आज्ञाप्रतीक्षा दुर्धर्षा रक्षामि नगरीमिमाम् ॥ २८ ॥
मूलम्
अहं राक्षसराजस्य रावणस्य महात्मनः ।
आज्ञाप्रतीक्षा दुर्धर्षा रक्षामि नगरीमिमाम् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं महामना राक्षसराज रावणकी आज्ञाकी प्रतीक्षा करनेवाली उनकी सेविका हूँ । मुझपर आक्रमण करना किसीके लिये भी अत्यन्त कठिन है । मैं इस नगरीकी रक्षा करती हूँ ॥ २८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न शक्यं मामवज्ञाय प्रवेष्टुं नगरीमिमाम् ।
अद्य प्राणैः परित्यक्तः स्वप्स्यसे निहतो मया ॥ २९ ॥
मूलम्
न शक्यं मामवज्ञाय प्रवेष्टुं नगरीमिमाम् ।
अद्य प्राणैः परित्यक्तः स्वप्स्यसे निहतो मया ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मेरी अवहेलना करके इस पुरीमें प्रवेश करना किसीके लिये भी सम्भव नहीं है । आज मेरे हाथसे मारा जाकर तू प्राणहीन हो इस पृथ्वीपर शयन करेगा ॥ २९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं हि नगरी लङ्का स्वयमेव प्लवङ्गम ।
सर्वतः परिरक्षामि अतस्ते कथितं मया ॥ ३० ॥
मूलम्
अहं हि नगरी लङ्का स्वयमेव प्लवङ्गम ।
सर्वतः परिरक्षामि अतस्ते कथितं मया ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वानर! मैं स्वयं ही लंका नगरी हूँ, अतः सब ओरसे इसकी रक्षा करती हूँ । यही कारण है कि मैंने तेरे प्रति कठोर वाणीका प्रयोग किया है’ ॥ ३० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लङ्काया वचनं श्रुत्वा हनुमान् मारुतात्मजः ।
यत्नवान् स हरिश्रेष्ठः स्थितः शैल इवापरः ॥ ३१ ॥
मूलम्
लङ्काया वचनं श्रुत्वा हनुमान् मारुतात्मजः ।
यत्नवान् स हरिश्रेष्ठः स्थितः शैल इवापरः ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
लंकाकी यह बात सुनकर पवनकुमार कपिश्रेष्ठ हनुमान् उसे जीतनेके लिये यत्नशील हो दूसरे पर्वतके समान वहाँ खड़े हो गये ॥ ३१ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तां स्त्रीरूपविकृतां दृष्ट्वा वानरपुङ्गवः ।
आबभाषेऽथ मेधावी सत्त्ववान् प्लवगर्षभः ॥ ३२ ॥
मूलम्
स तां स्त्रीरूपविकृतां दृष्ट्वा वानरपुङ्गवः ।
आबभाषेऽथ मेधावी सत्त्ववान् प्लवगर्षभः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
लंकाको विकराल राक्षसीके रूपमें देखकर बुद्धिमान् वानरशिरोमणि शक्तिशाली कपिश्रेष्ठ हनुमान् ने उससे इस प्रकार कहा— ॥ ३२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रक्ष्यामि नगरीं लङ्कां साट्टप्राकारतोरणाम् ।
इत्यर्थमिह सम्प्राप्तः परं कौतूहलं हि मे ॥ ३३ ॥
मूलम्
द्रक्ष्यामि नगरीं लङ्कां साट्टप्राकारतोरणाम् ।
इत्यर्थमिह सम्प्राप्तः परं कौतूहलं हि मे ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं अट्टालिकाओं, परकोटों और नगरद्वारोंसहित इस लंका नगरीको देखूँगा । इसी प्रयोजनसे यहाँ आया हूँ । इसे देखनेके लिये मेरे मनमें बड़ा कौतूहल है ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वनान्युपवनानीह लङ्कायाः काननानि च ।
सर्वतो गृहमुख्यानि द्रष्टुमागमनं हि मे ॥ ३४ ॥
मूलम्
वनान्युपवनानीह लङ्कायाः काननानि च ।
सर्वतो गृहमुख्यानि द्रष्टुमागमनं हि मे ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस लंकाके जो वन, उपवन, कानन और मुख्य-मुख्य भवन हैं, उन्हें देखनेके लिये ही यहाँ मेरा आगमन हुआ है’ ॥ ३४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा लङ्का सा कामरूपिणी ।
भूय एव पुनर्वाक्यं बभाषे परुषाक्षरम् ॥ ३५ ॥
मूलम्
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा लङ्का सा कामरूपिणी ।
भूय एव पुनर्वाक्यं बभाषे परुषाक्षरम् ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हनुमान् जी का यह कथन सुनकर इच्छानुसार रूप धारण करनेवाली लंका पुनः कठोर वाणीमें बोली— ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मामनिर्जित्य दुर्बुद्धे राक्षसेश्वरपालिताम् ।
न शक्यं ह्यद्य ते द्रष्टुं पुरीयं वानराधम ॥ ३६ ॥
मूलम्
मामनिर्जित्य दुर्बुद्धे राक्षसेश्वरपालिताम् ।
न शक्यं ह्यद्य ते द्रष्टुं पुरीयं वानराधम ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘खोटी बुद्धिवाले नीच वानर! राक्षसेश्वर रावणके द्वारा मेरी रक्षा हो रही है । तू मुझे परास्त किये बिना आज इस पुरीको नहीं देख सकता’ ॥ ३६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः स हरिशार्दूलस्तामुवाच निशाचरीम् ।
दृष्ट्वा पुरीमिमां भद्रे पुनर्यास्ये यथागतम् ॥ ३७ ॥
मूलम्
ततः स हरिशार्दूलस्तामुवाच निशाचरीम् ।
दृष्ट्वा पुरीमिमां भद्रे पुनर्यास्ये यथागतम् ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब उन वानरशिरोमणिने उस निशाचरीसे कहा—‘भद्रे! इस पुरीको देखकर मैं फिर जैसे आया हूँ, उसी तरह लौट जाऊँगा’ ॥ ३७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः कृत्वा महानादं सा वै लङ्का भयङ्करम् ।
तलेन वानरश्रेष्ठं ताडयामास वेगिता ॥ ३८ ॥
मूलम्
ततः कृत्वा महानादं सा वै लङ्का भयङ्करम् ।
तलेन वानरश्रेष्ठं ताडयामास वेगिता ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सुनकर लंकाने बड़ी भयंकर गर्जना करके वानरश्रेष्ठ हनुमान् को बड़े जोरसे एक थप्पड़ मारा ॥ ३८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः स हरिशार्दूलो लङ्कया ताडितो भृशम् ।
ननाद सुमहानादं वीर्यवान् मारुतात्मजः ॥ ३९ ॥
मूलम्
ततः स हरिशार्दूलो लङ्कया ताडितो भृशम् ।
ननाद सुमहानादं वीर्यवान् मारुतात्मजः ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
लंकाद्वारा इस प्रकार जोरसे पीटे जानेपर उन परम पराक्रमी पवनकुमार कपिश्रेष्ठ हनुमान् ने बड़े जोरसे सिंहनाद किया ॥ ३९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः संवर्तयामास वामहस्तस्य सोऽङ्गुलीः ।
मुष्टिनाभिजघानैनां हनुमान् क्रोधर्मूच्छितः ॥ ४० ॥
मूलम्
ततः संवर्तयामास वामहस्तस्य सोऽङ्गुलीः ।
मुष्टिनाभिजघानैनां हनुमान् क्रोधर्मूच्छितः ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर उन्होंने अपने बायें हाथकी अंगुलियोंको मोड़कर मुट्ठी बाँध ली और अत्यन्त कुपित हो उस लंकाको एक मुक्का जमा दिया ॥ ४० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्त्री चेति मन्यमानेन नातिक्रोधः स्वयं कृतः ।
सा तु तेन प्रहारेण विह्वलाङ्गी निशाचरी ।
पपात सहसा भूमौ विकृताननदर्शना ॥ ४१ ॥
मूलम्
स्त्री चेति मन्यमानेन नातिक्रोधः स्वयं कृतः ।
सा तु तेन प्रहारेण विह्वलाङ्गी निशाचरी ।
पपात सहसा भूमौ विकृताननदर्शना ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसे स्त्री समझकर हनुमान् जी ने स्वयं ही अधिक क्रोध नहीं किया । किंतु उस लघु प्रहारसे ही उस निशाचरीके सारे अंग व्याकुल हो गये । वह सहसा पृथ्वीपर गिर पड़ी । उस समय उसका मुख बड़ा विकराल दिखायी देता था ॥ ४१ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तु हनुमान् वीरस्तां दृष्ट्वा विनिपातिताम् ।
कृपां चकार तेजस्वी मन्यमानः स्त्रियं च ताम् ॥ ४२ ॥
मूलम्
ततस्तु हनुमान् वीरस्तां दृष्ट्वा विनिपातिताम् ।
कृपां चकार तेजस्वी मन्यमानः स्त्रियं च ताम् ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने ही द्वारा गिरायी गयी उस लंकाकी ओर देखकर और उसे स्त्री समझकर तेजस्वी वीर हनुमान् को उसपर दया आ गयी । उन्होंने उसपर बड़ी कृपा की ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो वै भृशमुद्विग्ना लङ्का सा गद्गदाक्षरम् ।
उवाचागर्वितं वाक्यं हनुमन्तं प्लवङ्गमम् ॥ ४३ ॥
मूलम्
ततो वै भृशमुद्विग्ना लङ्का सा गद्गदाक्षरम् ।
उवाचागर्वितं वाक्यं हनुमन्तं प्लवङ्गमम् ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उधर अत्यन्त उद्विग्न हुई लंका उन वानरवीर हनुमान् से अभिमानशून्य गद्गदवाणीमें इस प्रकार बोली— ॥ ४३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रसीद सुमहाबाहो त्रायस्व हरिसत्तम ।
समये सौम्य तिष्ठन्ति सत्त्ववन्तो महाबलाः ॥ ४४ ॥
मूलम्
प्रसीद सुमहाबाहो त्रायस्व हरिसत्तम ।
समये सौम्य तिष्ठन्ति सत्त्ववन्तो महाबलाः ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाबाहो! प्रसन्न होइये । कपिश्रेष्ठ! मेरी रक्षा कीजिये । सौम्य! महाबली सत्त्वगुणशाली वीर पुरुष शास्त्रकी मर्यादापर स्थिर रहते हैं (शास्त्रमें स्त्रीको अवध्य बताया है, इसलिये आप मेरे प्राण न लीजिये) ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं तु नगरी लङ्का स्वयमेव प्लवङ्गम ।
निर्जिताहं त्वया वीर विक्रमेण महाबल ॥ ४५ ॥
मूलम्
अहं तु नगरी लङ्का स्वयमेव प्लवङ्गम ।
निर्जिताहं त्वया वीर विक्रमेण महाबल ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाबली वीर वानर! मैं स्वयं लंकापुरी ही हूँ, आपने अपने पराक्रमसे मुझे परास्त कर दिया है ॥ ४५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदं च तथ्यं शृणु मे ब्रुवन्त्या वै हरीश्वर ।
स्वयं स्वयम्भुवा दत्तं वरदानं यथा मम ॥ ४६ ॥
मूलम्
इदं च तथ्यं शृणु मे ब्रुवन्त्या वै हरीश्वर ।
स्वयं स्वयम्भुवा दत्तं वरदानं यथा मम ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वानरेश्वर! मैं आपसे एक सच्ची बात कहती हूँ । आप इसे सुनिये । साक्षात् स्वयम्भू ब्रह्माजीने मुझे जैसा वरदान दिया था, वह बता रही हूँ ॥ ४६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा त्वां वानरः कश्चिद् विक्रमाद् वशमानयेत् ।
तदा त्वया हि विज्ञेयं रक्षसां भयमागतम् ॥ ४७ ॥
मूलम्
यदा त्वां वानरः कश्चिद् विक्रमाद् वशमानयेत् ।
तदा त्वया हि विज्ञेयं रक्षसां भयमागतम् ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उन्होंने कहा था—‘जब कोई वानर तुझे अपने पराक्रमसे वशमें कर ले, तब तुझे यह समझ लेना चाहिये कि अब राक्षसोंपर बड़ा भारी भय आ पहुँचा है ॥ ४७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स हि मे समयः सौम्य प्राप्तोऽद्य तव दर्शनात् ।
स्वयम्भूविहितः सत्यो न तस्यास्ति व्यतिक्रमः ॥ ४८ ॥
मूलम्
स हि मे समयः सौम्य प्राप्तोऽद्य तव दर्शनात् ।
स्वयम्भूविहितः सत्यो न तस्यास्ति व्यतिक्रमः ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सौम्य! आपका दर्शन पाकर आज मेरे सामने वही घड़ी आ गयी है । ब्रह्माजीने जिस सत्यका निश्चय कर दिया है, उसमें कोई उलट-फेर नहीं हो सकता ॥ ४८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सीतानिमित्तं राज्ञस्तु रावणस्य दुरात्मनः ।
रक्षसां चैव सर्वेषां विनाशः समुपागतः ॥ ४९ ॥
मूलम्
सीतानिमित्तं राज्ञस्तु रावणस्य दुरात्मनः ।
रक्षसां चैव सर्वेषां विनाशः समुपागतः ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अब सीताके कारण दुरात्मा राजा रावण तथा समस्त राक्षसोंके विनाशका समय आ पहुँचा है ॥ ४९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत् प्रविश्य हरिश्रेष्ठ पुरीं रावणपालिताम् ।
विधत्स्व सर्वकार्याणि यानि यानीह वाञ्छसि ॥ ५० ॥
मूलम्
तत् प्रविश्य हरिश्रेष्ठ पुरीं रावणपालिताम् ।
विधत्स्व सर्वकार्याणि यानि यानीह वाञ्छसि ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कपिश्रेष्ठ! अतः आप इस रावणपालित पुरीमें प्रवेश कीजिये और यहाँ जो-जो कार्य करना चाहते हों, उन सबको पूर्ण कर लीजिये ॥ ५० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रविश्य शापोपहतां हरीश्वर
पुरीं शुभां राक्षसमुख्यपालिताम् ।
यदृच्छया त्वं जनकात्मजां सतीं
विमार्ग सर्वत्र गतो यथासुखम् ॥ ५१ ॥
मूलम्
प्रविश्य शापोपहतां हरीश्वर
पुरीं शुभां राक्षसमुख्यपालिताम् ।
यदृच्छया त्वं जनकात्मजां सतीं
विमार्ग सर्वत्र गतो यथासुखम् ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वानरेश्वर! राक्षसराज रावणके द्वारा पालित यह सुन्दर पुरी अभिशापसे नष्टप्राय हो चुकी है । अतः इसमें प्रवेश करके आप स्वेच्छानुसार सुखपूर्वक सर्वत्र सती-साध्वी जनकनन्दिनी सीताकी खोज कीजिये’ ॥ ५१ ॥
समाप्तिः
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे तृतीयः सर्गः ॥ ३ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके सुन्दरकाण्डमें तीसरा सर्ग पूरा हुआ ॥ ३ ॥