०३० शरद्वर्णनम्-रामविलापश्च

वाचनम्
भागसूचना
  1. शरद्-ऋतुका वर्णन तथा श्रीरामका लक्ष्मणको सुग्रीवके पास जानेका आदेश देना
विश्वास-प्रस्तुतिः

गृहं प्रविष्टे सुग्रीवे विमुक्ते गगने घनैः ।
वर्षरात्रे स्थितो रामः कामशोकाभिपीडितः ॥ १ ॥

मूलम्

गृहं प्रविष्टे सुग्रीवे विमुक्ते गगने घनैः ।
वर्षरात्रे स्थितो रामः कामशोकाभिपीडितः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्वोक्त आदेश देकर सुग्रीव तो अपने महलमें चले गये और उधर श्रीरामचन्द्रजी, जो वर्षाकी रातोंमें प्रस्रवणगिरिपर निवास करते थे, आकाशके मेघोंसे मुक्त एवं निर्मल हो जानेपर सीतासे मिलनेकी उत्कण्ठा लिये उनके विरहजन्य शोकसे अत्यन्त पीड़ाका अनुभव करने लगे ॥ १ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाण्डुरं गगनं दृष्ट्वा विमलं चन्द्रमण्डलम् ।
शारदीं रजनीं चैव दृष्ट्वा ज्योत्स्नानुलेपनाम् ॥ २ ॥

मूलम्

पाण्डुरं गगनं दृष्ट्वा विमलं चन्द्रमण्डलम् ।
शारदीं रजनीं चैव दृष्ट्वा ज्योत्स्नानुलेपनाम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने देखा, आकाश श्वेत वर्णका हो रहा है, चन्द्रमण्डल स्वच्छ दिखायी देता है तथा शरद्-ऋतुकी रजनीके अङ्गोंपर चाँदनीका अङ्गराग लगा हुआ है । यह सब देखकर वे सीतासे मिलनेके लिये व्याकुल हो उठे ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कामवृत्तं च सुग्रीवं नष्टां च जनकात्मजाम् ।
दृष्ट्वा कालमतीतं च मुमोह परमातुरः ॥ ३ ॥

मूलम्

कामवृत्तं च सुग्रीवं नष्टां च जनकात्मजाम् ।
दृष्ट्वा कालमतीतं च मुमोह परमातुरः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने सोचा ‘सुग्रीव काममें आसक्त हो रहा है, जनककुमारी सीताका अबतक कुछ पता नहीं लगा है और रावणपर चढ़ाई करनेका समय भी बीता जा रहा है ।’ यह सब देखकर अत्यन्त आतुर हुए श्रीरामका हृदय व्याकुल हो उठा ॥ ३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तु सञ्ज्ञामुपागम्य मुहूर्तान्मतिमान् नृपः ।
मनःस्थामपि वैदेहीं चिन्तयामास राघवः ॥ ४ ॥

मूलम्

स तु सञ्ज्ञामुपागम्य मुहूर्तान्मतिमान् नृपः ।
मनःस्थामपि वैदेहीं चिन्तयामास राघवः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दो घड़ीके बाद जब उनका मन कुछ स्वस्थ हुआ, तब वे बुद्धिमान् नरेश श्रीरघुनाथजी अपने मनमें बसी हुई विदेहनन्दिनी सीताका चिन्तन करने लगे ॥ ४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्वा च विमलं व्योम गतविद्युद‍्बलाहकम् ।
सारसारावसङ्घुष्टं विललापार्तया गिरा ॥ ५ ॥

मूलम्

दृष्ट्वा च विमलं व्योम गतविद्युद‍्बलाहकम् ।
सारसारावसङ्घुष्टं विललापार्तया गिरा ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने देखा, आकाश निर्मल है । न कहीं बिजलीकी गड़गड़ाहट है न मेघोंकी घटा । वहाँ सब ओर सारसोंकी बोली सुनायी देती है । यह सब देखकर वे आर्तवाणीमें विलाप करने लगे ॥ ५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसीनः पर्वतस्याग्रे हेमधातुविभूषिते ।
शारदं गगनं दृष्ट्वा जगाम मनसा प्रियाम् ॥ ६ ॥

मूलम्

आसीनः पर्वतस्याग्रे हेमधातुविभूषिते ।
शारदं गगनं दृष्ट्वा जगाम मनसा प्रियाम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुनहरे रंगकी धातुओंसे विभूषित पर्वतशिखरपर बैठे हुए श्रीरामचन्द्रजी शरत्कालके स्वच्छ आकाशकी ओर दृष्टिपात करके मन-ही-मन अपनी प्यारी पत्नी सीताका ध्यान करने लगे ॥ ६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सारसारावसन्नादैः सारसारावनादिनी ।
याऽऽश्रमे रमते बाला साद्य मे रमते कथम् ॥ ७ ॥

मूलम्

सारसारावसन्नादैः सारसारावनादिनी ।
याऽऽश्रमे रमते बाला साद्य मे रमते कथम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे बोले—‘जिसकी बोली सारसोंकी आवाजके समान मीठी थी तथा जो मेरे आश्रमपर सारसोंद्वारा परस्पर एक-दूसरेको बुलानेके लिये किये गये मधुर शब्दोंसे मन बहलाती थी, वह मेरी भोलीभाली स्त्री सीता आज किस तरह मनोरञ्जन करती होगी? ॥ ७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुष्पितांश्चासनान् दृष्ट्वा काञ्चनानिव निर्मलान् ।
कथं सा रमते बाला पश्यन्ती मामपश्यती ॥ ८ ॥

मूलम्

पुष्पितांश्चासनान् दृष्ट्वा काञ्चनानिव निर्मलान् ।
कथं सा रमते बाला पश्यन्ती मामपश्यती ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सुवर्णमय वृक्षोंके समान निर्मल और खिले हुए असन नामक वृक्षोंको देखकर बार-बार उन्हें निहारती हुई भोली-भाली सीता जब मुझे अपने पास नहीं देखती होगी, तब कैसे उसका मन लगता होगा? ॥ ८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

या पुरा कलहंसानां कलेन कलभाषिणी ।
बुध्यते चारुसर्वाङ्गी साद्य मे रमते कथम् ॥ ९ ॥

मूलम्

या पुरा कलहंसानां कलेन कलभाषिणी ।
बुध्यते चारुसर्वाङ्गी साद्य मे रमते कथम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिसके सभी अङ्ग मनोहर हैं तथा जो स्वभावसे ही मधुर भाषण करनेवाली है, वह सीता पहले कलहंसोंके मधुर शब्दसे जागा करती थी; किंतु आज वह मेरी प्रिया वहाँ कैसे प्रसन्न रहती होगी? ॥ ९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निःस्वनं चक्रवाकानां निशम्य सहचारिणाम् ।
पुण्डरीकविशालाक्षी कथमेषा भविष्यति ॥ १० ॥

मूलम्

निःस्वनं चक्रवाकानां निशम्य सहचारिणाम् ।
पुण्डरीकविशालाक्षी कथमेषा भविष्यति ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिसके विशाल नेत्र प्रफुल्ल कमलदलके समान शोभा पाते हैं, वह मेरी प्रिया जब साथ विचरनेवाले चकवोंकी बोली सुनती होगी, तब उसकी कैसी दशा हो जाती होगी? ॥ १० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सरांसि सरितो वापीः काननानि वनानि च ।
तां विना मृगशावाक्षीं चरन्नाद्य सुखं लभे ॥ ११ ॥

मूलम्

सरांसि सरितो वापीः काननानि वनानि च ।
तां विना मृगशावाक्षीं चरन्नाद्य सुखं लभे ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘हाय! मैं नदी, तालाब, बावली, कानन और वन सब जगह घूमता हूँ; परंतु कहीं भी उस मृगशावकनयनी सीताके बिना अब मुझे सुख नहीं मिलता है ॥ ११ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपि तां मद्वियोगाच्च सौकुमार्याच्च भामिनीम् ।
सुदूरं पीडयेत् कामः शरद‍्गुणनिरन्तरः ॥ १२ ॥

मूलम्

अपि तां मद्वियोगाच्च सौकुमार्याच्च भामिनीम् ।
सुदूरं पीडयेत् कामः शरद‍्गुणनिरन्तरः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि शरद्-ऋतुके गुणोंसे निरन्तर वृद्धिको प्राप्त होनेवाला काम भामिनी सीताको अत्यन्त पीड़ित कर दे; क्योंकि ऐसी सम्भावनाके दो कारण हैं—एक तो उसे मेरे वियोगका कष्ट है, दूसरे वह अत्यन्त सुकुमारी होनेके कारण इस कष्टको सहन नहीं कर पाती होगी’ ॥ १२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमादि नरश्रेष्ठो विललाप नृपात्मजः ।
विहङ्ग इव सारङ्गः सलिलं त्रिदशेश्वरात् ॥ १३ ॥

मूलम्

एवमादि नरश्रेष्ठो विललाप नृपात्मजः ।
विहङ्ग इव सारङ्गः सलिलं त्रिदशेश्वरात् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रसे पानीकी याचना करनेवाले प्यासे पपीहेकी भाँति नरश्रेष्ठ नरेन्द्रकुमार श्रीरामने इस तरहकी बहुत-सी बातें कहकर विलाप किया ॥ १३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततश्चञ्चूर्य रम्येषु फलार्थी गिरिसानुषु ।
ददर्श पर्युपावृत्तो लक्ष्मीवाल्ँ लक्ष्मणोऽग्रजम् ॥ १४ ॥

मूलम्

ततश्चञ्चूर्य रम्येषु फलार्थी गिरिसानुषु ।
ददर्श पर्युपावृत्तो लक्ष्मीवाल्ँ लक्ष्मणोऽग्रजम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय शोभाशाली लक्ष्मण फल लेनेके लिये गये थे । वे पर्वतके रमणीय शिखरोंपर घूम-फिरकर जब लौटे तब उन्होंने अपने बड़े भाईकी अवस्थापर दृष्टिपात किया ॥ १४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स चिन्तया दुस्सहया परीतं
विसञ्ज्ञमेकं विजने मनस्वी ।
भ्रातुर्विषादात् त्वरितोऽतिदीनः
समीक्ष्य सौमित्रिरुवाच दीनम् ॥ १५ ॥

मूलम्

स चिन्तया दुस्सहया परीतं
विसञ्ज्ञमेकं विजने मनस्वी ।
भ्रातुर्विषादात् त्वरितोऽतिदीनः
समीक्ष्य सौमित्रिरुवाच दीनम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे दुस्सह चिन्तामें मग्न होकर अचेत-से हो गये थे और एकान्तमें अकेले ही दुःखी होकर बैठे थे । उस समय मनस्वी सुमित्राकुमार लक्ष्मणने जब उन्हें देखा तब वे तुरंत ही भाईके विषादसे अत्यन्त दुःखी हो गये और उनसे इस प्रकार बोले— ॥ १५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किमार्य कामस्य वशङ्गतेन
किमात्मपौरुष्यपराभवेन ।
अयं ह्रिया संह्रियते समाधिः
किमत्र योगेन निवर्तते न ॥ १६ ॥

मूलम्

किमार्य कामस्य वशङ्गतेन
किमात्मपौरुष्यपराभवेन ।
अयं ह्रिया संह्रियते समाधिः
किमत्र योगेन निवर्तते न ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आर्य! इस प्रकार कामके अधीन होकर अपने पौरुषका तिरस्कार करनेसे—पराक्रमको भूल जानेसे क्या लाभ होगा? इस लज्जाजनक शोकके कारण आपके चित्तकी एकाग्रता नष्ट हो रही है । क्या इस समय योगका सहारा लेनेसे—मनको एकाग्र करनेसे यह सारी चिन्ता दूर नहीं हो सकती? ॥ १६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्रियाभियोगं मनसः प्रसादं
समाधियोगानुगतं च कालम् ।
सहायसामर्थ्यमदीनसत्त्वः
स्वकर्महेतुं च कुरुष्व तात ॥ १७ ॥

मूलम्

क्रियाभियोगं मनसः प्रसादं
समाधियोगानुगतं च कालम् ।
सहायसामर्थ्यमदीनसत्त्वः
स्वकर्महेतुं च कुरुष्व तात ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तात! आप आवश्यक कर्मोंके अनुष्ठानमें पूर्णरूपसे लग जाइये, मनको प्रसन्न कीजिये और हर समय चित्तकी एकाग्रता बनाये रखिये । साथ ही, अन्तःकरणमें दीनताको स्थान न देते हुए अपने पराक्रमकी वृद्धिके लिये सहायता और शक्तिको बढ़ानेका प्रयत्न कीजिये ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न जानकी मानववंशनाथ
त्वया सनाथा सुलभा परेण ।
न चाग्निचूडां ज्वलितामुपेत्य
न दह्यते वीर वरार्ह कश्चित् ॥ १८ ॥

मूलम्

न जानकी मानववंशनाथ
त्वया सनाथा सुलभा परेण ।
न चाग्निचूडां ज्वलितामुपेत्य
न दह्यते वीर वरार्ह कश्चित् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मानववंशके नाथ तथा श्रेष्ठ पुरुषोंके भी पूजनीय वीर रघुनन्दन! जिनके स्वामी आप हैं, वे जनकनन्दिनी सीता किसी भी दूसरे पुरुषके लिये सुलभ नहीं हैं; क्योंकि जलती हुई आगकी लपटके पास जाकर कोई भी दग्ध हुए बिना नहीं रह सकता’ ॥ १८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलक्षणं लक्ष्मणमप्रधृष्यं
स्वभावजं वाक्यमुवाच रामः ।
हितं च पथ्यं च नयप्रसक्तं
ससामधर्मार्थसमाहितं च ॥ १९ ॥
निस्संशयं कार्यमवेक्षितव्यं
क्रियाविशेषोऽप्यनुवर्तितव्यः ।
न तु प्रवृद्धस्य दुरासदस्य
कुमार वीर्यस्य फलं च चिन्त्यम् ॥ २० ॥

मूलम्

सलक्षणं लक्ष्मणमप्रधृष्यं
स्वभावजं वाक्यमुवाच रामः ।
हितं च पथ्यं च नयप्रसक्तं
ससामधर्मार्थसमाहितं च ॥ १९ ॥
निस्संशयं कार्यमवेक्षितव्यं
क्रियाविशेषोऽप्यनुवर्तितव्यः ।
न तु प्रवृद्धस्य दुरासदस्य
कुमार वीर्यस्य फलं च चिन्त्यम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

लक्ष्मण उत्तम लक्षणोंसे सम्पन्न थे । उन्हें कोई परास्त नहीं कर सकता था । भगवान् श्रीरामने उनसे यह स्वाभाविक बात कही—‘कुमार! तुमने जो बात कही है, वह वर्तमान समयमें हितकर, भविष्यमें भी सुख पहुँचानेवाली, राजनीतिके सर्वथा अनुकूल तथा सामके साथ-साथ धर्म और अर्थसे भी संयुक्त है । निश्चय ही सीताके अनुसंधान कार्यपर ध्यान देना चाहिये तथा उसके लिये विशेष कार्य या उपायका भी अनुसरण करना चाहिये; किंतु प्रयत्न छोड़कर पूर्णरूपसे बढ़े हुए दुर्लभ एवं बलवान् कर्मके फलपर ही दृष्टि रखना उचित नहीं है’ ॥ १९-२० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ पद्मपलाशाक्षीं मैथिलीमनुचिन्तयन् ।
उवाच लक्ष्मणं रामो मुखेन परिशुष्यता ॥ २१ ॥

मूलम्

अथ पद्मपलाशाक्षीं मैथिलीमनुचिन्तयन् ।
उवाच लक्ष्मणं रामो मुखेन परिशुष्यता ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर प्रफुल्ल कमलदलके समान नेत्रवाली मिथिलेशकुमारी सीताका बार-बार चिन्तन करते हुए श्रीरामचन्द्रजी लक्ष्मणको सम्बोधित करके सूखे हुए (उदास) मुँहसे बोले— ॥ २१ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तर्पयित्वा सहस्राक्षः सलिलेन वसुन्धराम् ।
निर्वर्तयित्वा सस्यानि कृतकर्मा व्यवस्थितः ॥ २२ ॥

मूलम्

तर्पयित्वा सहस्राक्षः सलिलेन वसुन्धराम् ।
निर्वर्तयित्वा सस्यानि कृतकर्मा व्यवस्थितः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सुमित्रानन्दन! सहस्रनेत्रधारी इन्द्र इस पृथ्वीको जलसे तृप्त करके यहाँके अनाजोंको पकाकर अब कृतकृत्य हो गये हैं ॥ २२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दीर्घगम्भीरनिर्घोषाः शैलद्रुमपुरोगमाः ।
विसृज्य सलिलं मेघाः परिशान्ता नृपात्मज ॥ २३ ॥

मूलम्

दीर्घगम्भीरनिर्घोषाः शैलद्रुमपुरोगमाः ।
विसृज्य सलिलं मेघाः परिशान्ता नृपात्मज ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजकुमार! देखो, जो अत्यन्त गम्भीर स्वरसे गर्जना किया करते और पर्वतों, नगरों तथा वृक्षोंके ऊपरसे होकर निकलते थे, वे मेघ अपना सारा जल बरसाकर शान्त हो गये हैं ॥ २३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नीलोत्पलदलश्यामाः श्यामीकृत्वा दिशो दश ।
विमदा इव मातङ्गाः शान्तवेगाः पयोधराः ॥ २४ ॥

मूलम्

नीलोत्पलदलश्यामाः श्यामीकृत्वा दिशो दश ।
विमदा इव मातङ्गाः शान्तवेगाः पयोधराः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नील कमलदलके समान श्यामवर्णवाले मेघ दसों दिशाओंको श्याम बनाकर मदरहित गजराजोंके समान वेगशून्य हो गये हैं; उनका वेग शान्त हो गया है ॥ २४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जलगर्भा महावेगाः कुटजार्जुनगन्धिनः ।
चरित्वा विरताः सौम्य वृष्टिवाताः समुद्यताः ॥ २५ ॥

मूलम्

जलगर्भा महावेगाः कुटजार्जुनगन्धिनः ।
चरित्वा विरताः सौम्य वृष्टिवाताः समुद्यताः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सौम्य! जिनके भीतर जल विद्यमान था तथा जिनमें कुटज और अर्जुनके फूलोंकी सुगन्ध भरी हुई थी, वे अत्यन्त वेगशाली झंझावात उमड़-घुमड़कर सम्पूर्ण दिशाओंमें विचरण करके अब शान्त हो गये हैं ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

घनानां वारणानां च मयूराणां च लक्ष्मण ।
नादः प्रस्रवणानां च प्रशान्तः सहसानघ ॥ २६ ॥

मूलम्

घनानां वारणानां च मयूराणां च लक्ष्मण ।
नादः प्रस्रवणानां च प्रशान्तः सहसानघ ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘निष्पाप लक्ष्मण! बादलों, हाथियों, मोरों और झरनोंके शब्द इस समय सहसा शान्त हो गये हैं ॥ २६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिवृष्टा महामेघैर्निर्मलाश्चित्रसानवः ।
अनुलिप्ता इवाभान्ति गिरयश्चन्द्ररश्मिभिः ॥ २७ ॥

मूलम्

अभिवृष्टा महामेघैर्निर्मलाश्चित्रसानवः ।
अनुलिप्ता इवाभान्ति गिरयश्चन्द्ररश्मिभिः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महान् मेघोंद्वारा बरसाये हुए जलसे घुल जानेके कारण ये विचित्र शिखरोंवाले पर्वत अत्यन्त निर्मल हो गये हैं । इन्हें देखकर ऐसा जान पड़ता है, मानो चन्द्रमाकी किरणोंद्वारा इनके ऊपर सफेदी कर दी गयी है ॥ २७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शाखासु सप्तच्छदपादपानां
प्रभासु तारार्कनिशाकराणाम् ।
लीलासु चैवोत्तमवारणानां
श्रियं विभज्याद्य शरत्प्रवृत्ता ॥ २८ ॥

मूलम्

शाखासु सप्तच्छदपादपानां
प्रभासु तारार्कनिशाकराणाम् ।
लीलासु चैवोत्तमवारणानां
श्रियं विभज्याद्य शरत्प्रवृत्ता ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आज शरद्-ऋतु सप्तच्छद (छितवन) की डालियोंमें, सूर्य, चन्द्रमा और तारोंकी प्रभामें तथा श्रेष्ठ गजराजोंकी लीलाओंमें अपनी शोभा बाँटकर आयी है ॥ २८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम्प्रत्यनेकाश्रयचित्रशोभा
लक्ष्मीः शरत्कालगुणोपपन्ना ।
सूर्याग्रहस्तप्रतिबोधितेषु
पद्माकरेष्वभ्यधिकं विभाति ॥ २९ ॥

मूलम्

सम्प्रत्यनेकाश्रयचित्रशोभा
लक्ष्मीः शरत्कालगुणोपपन्ना ।
सूर्याग्रहस्तप्रतिबोधितेषु
पद्माकरेष्वभ्यधिकं विभाति ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस समय शरत्कालके गुणोंसे सम्पन्न हुई लक्ष्मी यद्यपि अनेक आश्रयोंमें विभक्त होकर विचित्र शोभा धारण करती हैं, तथापि सूर्यकी प्रथम किरणोंसे विकसित हुए कमल-वनोंमें वे सबसे अधिक सुशोभित होती हैं ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सप्तच्छदानां कुसुमोपगन्धी
षट्पादवृन्दैरनुगीयमानः ।
मत्तद्विपानां पवनानुसारी
दर्पं विनेष्यन्नधिकं विभाति ॥ ३० ॥

मूलम्

सप्तच्छदानां कुसुमोपगन्धी
षट्पादवृन्दैरनुगीयमानः ।
मत्तद्विपानां पवनानुसारी
दर्पं विनेष्यन्नधिकं विभाति ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘छितवनके फूलोंकी सुगन्ध धारण करनेवाला शरत्काल स्वभावतः वायुका अनुसरण कर रहा है । भ्रमरोंके समूह उसके गुणगान कर रहे हैं । वह मार्गके जलको सोखता और मतवाले हाथियोंके दर्पको बढ़ाता हुआ अधिक शोभा पा रहा है ॥ ३० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभ्यागतैश्चारुविशालपक्षैः
स्मरप्रियैः पद्मरजोऽवकीर्णैः ।
महानदीनां पुलिनोपयातैः
क्रीडन्ति हंसाः सह चक्रवाकैः ॥ ३१ ॥

मूलम्

अभ्यागतैश्चारुविशालपक्षैः
स्मरप्रियैः पद्मरजोऽवकीर्णैः ।
महानदीनां पुलिनोपयातैः
क्रीडन्ति हंसाः सह चक्रवाकैः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिनके पंख सुन्दर और विशाल हैं, जिन्हें कामक्रीडा अधिक प्रिय है, जिनके ऊपर कमलोंके पराग बिखरे हुए हैं, जो बड़ी-बड़ी नदियोंके तटोंपर उतरे हैं और मानसरोवरसे साथ ही आये हैं, उन चक्रवाकोंके साथ हंस क्रीडा कर रहे हैं ॥ ३१ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मदप्रगल्भेषु च वारणेषु
गवां समूहेषु च दर्पितेषु ।
प्रसन्नतोयासु च निम्नगासु
विभाति लक्ष्मीर्बहुधा विभक्ता ॥ ३२ ॥

मूलम्

मदप्रगल्भेषु च वारणेषु
गवां समूहेषु च दर्पितेषु ।
प्रसन्नतोयासु च निम्नगासु
विभाति लक्ष्मीर्बहुधा विभक्ता ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मदमत्त गजराजोंमें, दर्प-भरे वृषभोंके समूहोंमें तथा स्वच्छ जलवाली सरिताओंमें नाना रूपोंमें विभक्त हुई लक्ष्मी विशेष शोभा पा रही है ॥ ३२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नभः समीक्ष्याम्बुधरैर्विमुक्तं
विमुक्तबर्हाभरणा वनेषु ।
प्रियास्वरक्ता विनिवृत्तशोभा
गतोत्सवा ध्यानपरा मयूराः ॥ ३३ ॥

मूलम्

नभः समीक्ष्याम्बुधरैर्विमुक्तं
विमुक्तबर्हाभरणा वनेषु ।
प्रियास्वरक्ता विनिवृत्तशोभा
गतोत्सवा ध्यानपरा मयूराः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आकाशको बादलोंसे शून्य हुआ देख वनोंमें पंखरूपी आभूषणोंका परित्याग करनेवाले मोर अपनी प्रियतमाओंसे विरक्त हो गये हैं । उनकी शोभा नष्ट हो गयी है और वे आनन्दशून्य हो ध्यानमग्न होकर बैठे हैं ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनोज्ञगन्धैः प्रियकैरनल्पैः
पुष्पातिभारावनताग्रशाखैः ।
सुवर्णगौरैर्नयनाभिरामै-
रुद्योतितानीव वनान्तराणि ॥ ३४ ॥

मूलम्

मनोज्ञगन्धैः प्रियकैरनल्पैः
पुष्पातिभारावनताग्रशाखैः ।
सुवर्णगौरैर्नयनाभिरामै-
रुद्योतितानीव वनान्तराणि ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वनके भीतर बहुत-से असन नामक वृक्ष खड़े हैं, जिनकी डालियोंके अग्रभाग फूलोंके अधिक भारसे झुक गये हैं । उनपर मनोहर सुगन्ध छा रही है । वे सभी वृक्ष सुवर्णके समान गौर तथा नेत्रोंको आनन्द प्रदान करनेवाले हैं । उनके द्वारा वनप्रान्त प्रकाशित-से हो रहे हैं ॥ ३४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रियान्वितानां नलिनीप्रियाणां
वने प्रियाणां कुसुमोद‍्गतानाम् ।
मदोत्कटानां मदलालसानां
गजोत्तमानां गतयोऽद्य मन्दाः ॥ ३५ ॥

मूलम्

प्रियान्वितानां नलिनीप्रियाणां
वने प्रियाणां कुसुमोद‍्गतानाम् ।
मदोत्कटानां मदलालसानां
गजोत्तमानां गतयोऽद्य मन्दाः ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो अपनी प्रियतमाओंके साथ विचरते हैं, जिन्हें कमलके पुष्प तथा वन अधिक प्रिय हैं, जो छितवनके फूलोंको सूँघकर उन्मत्त हो उठे हैं, जिनमें अधिक मद है तथा जिन्हें मदजनित कामभोगकी लालसा बनी हुई है, उन गजराजोंकी गति आज मन्द हो गयी है ॥ ३५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यक्तं नभः शस्त्रविधौतवर्णं
कृशप्रवाहानि नदीजलानि ।
कह्लारशीताः पवनाः प्रवान्ति
तमो विमुक्ताश्च दिशः प्रकाशाः ॥ ३६ ॥

मूलम्

व्यक्तं नभः शस्त्रविधौतवर्णं
कृशप्रवाहानि नदीजलानि ।
कह्लारशीताः पवनाः प्रवान्ति
तमो विमुक्ताश्च दिशः प्रकाशाः ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस समय आकाशका रंग शानपर चढ़े हुए शस्त्रकी धारके समान स्वच्छ दिखायी देता है, नदियोंके जल मन्दगतिसे प्रवाहित हो रहे हैं, श्वेत कमलकी सुगन्ध लेकर शीतल मन्द वायु चल रही है, दिशाओंका अन्धकार दूर हो गया है और अब उनमें पूर्ण प्रकाश छा रहा है ॥ ३६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सूर्यातपक्रामणनष्टपङ्का
भूमिश्चिरोद‍्घाटितसान्द्ररेणुः ।
अन्योन्यवैरेण समायुताना-
मुद्योगकालोऽद्य नराधिपानाम् ॥ ३७ ॥

मूलम्

सूर्यातपक्रामणनष्टपङ्का
भूमिश्चिरोद‍्घाटितसान्द्ररेणुः ।
अन्योन्यवैरेण समायुताना-
मुद्योगकालोऽद्य नराधिपानाम् ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘घाम लगनेसे धरतीका कीचड़ सूख गया है । अब उसपर बहुत दिनोंके बाद घनी धूल प्रकट हुई है । परस्पर वैर रखनेवाले राजाओंके लिये युद्धके निमित्त उद्योग करनेका समय अब आ गया है ॥ ३७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरद‍्गुणाप्यायितरूपशोभाः
प्रहर्षिताः पांसुसमुत्थिताङ्गाः ।
मदोत्कटाः सम्प्रति युद्धलुब्धा
वृषा गवां मध्यगता नदन्ति ॥ ३८ ॥

मूलम्

शरद‍्गुणाप्यायितरूपशोभाः
प्रहर्षिताः पांसुसमुत्थिताङ्गाः ।
मदोत्कटाः सम्प्रति युद्धलुब्धा
वृषा गवां मध्यगता नदन्ति ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शरद्-ऋतुके गुणोंने जिनके रूप और शोभाको बढ़ा दिया है, जिनके सारे अङ्गोंपर धूल छा रही है, जिनके मदकी अधिक वृद्धि हुई है तथा जो युद्धके लिये लुभाये हुए हैं, वे साँड़ इस समय गौओंके बीचमें खड़े होकर अत्यन्त हर्षपूर्वक हँकड़ रहे हैं ॥ ३८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समन्मथा तीव्रतरानुरागा
कुलान्विता मन्दगतिः करेणुः ।
मदान्वितं सम्परिवार्य यान्तं
वनेषु भर्तारमनुप्रयाति ॥ ३९ ॥

मूलम्

समन्मथा तीव्रतरानुरागा
कुलान्विता मन्दगतिः करेणुः ।
मदान्वितं सम्परिवार्य यान्तं
वनेषु भर्तारमनुप्रयाति ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिसमें कामभावका उदय हुआ है, इसीलिये जो अत्यन्त तीव्र अनुरागसे युक्त है और अच्छे कुलमें उत्पन्न हुई है, वह मन्दगतिसे चलनेवाली हथिनी वनोंमें जाते हुए अपने मदमत्त स्वामीको घेरकर उसका अनुगमन करती है ॥ ३९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्यक्त्वा वराण्यात्मविभूषितानि
बर्हाणि तीरोपगता नदीनाम् ।
निर्भर्त्स्यमाना इव सारसौघैः
प्रयान्ति दीना विमना मयूराः ॥ ४० ॥

मूलम्

त्यक्त्वा वराण्यात्मविभूषितानि
बर्हाणि तीरोपगता नदीनाम् ।
निर्भर्त्स्यमाना इव सारसौघैः
प्रयान्ति दीना विमना मयूराः ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अपने आभूषणरूप श्रेष्ठ पंखोंको त्यागकर नदियोंके तटोंपर आये हुए मोर मानो सारस-समूहोंकी फटकार सुनकर दुःखी और खिन्नचित्त हो पीछे लौट जाते हैं ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वित्रास्य कारण्डवचक्रवाकान्
महारवैर्भिन्नकटा गजेन्द्राः ।
सरस्सुबद्धाम्बुजभूषणेषु
विक्षोभ्य विक्षोभ्य जलं पिबन्ति ॥ ४१ ॥

मूलम्

वित्रास्य कारण्डवचक्रवाकान्
महारवैर्भिन्नकटा गजेन्द्राः ।
सरस्सुबद्धाम्बुजभूषणेषु
विक्षोभ्य विक्षोभ्य जलं पिबन्ति ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिनके गण्डस्थलसे मदकी धारा बह रही है, वे गजराज अपनी महती गर्जनासे कारण्डवों तथा चक्रवाकोंको भयभीत करके विकसित कमलोंसे विभूषित सरोवरोंमें जलको हिलोर-हिलोरकर पी रहे हैं ॥ ४१ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यपेतपङ्कासु सवालुकासु
प्रसन्नतोयासु सगोकुलासु ।
ससारसारावविनादितासु
नदीषु हंसा निपतन्ति हृष्टाः ॥ ४२ ॥

मूलम्

व्यपेतपङ्कासु सवालुकासु
प्रसन्नतोयासु सगोकुलासु ।
ससारसारावविनादितासु
नदीषु हंसा निपतन्ति हृष्टाः ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिनके कीचड़ दूर हो गये हैं । जो बालुकाओंसे सुशोभित हैं, जिनका जल बहुत ही स्वच्छ है तथा गौओंके समुदाय जिनके जलका सेवन करते हैं, सारसोंके कलरवोंसे गूँजती हुई उन सरिताओंमें हंस बड़े हर्षके साथ उतर रहे हैं ॥ ४२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नदीघनप्रस्रवणोदकाना-
मतिप्रवृद्धानिलबर्हिणानाम् ।
प्लवङ्गमानां च गतोत्सवानां
ध्रुवं रवाः सम्प्रति सम्प्रणष्टाः ॥ ४३ ॥

मूलम्

नदीघनप्रस्रवणोदकाना-
मतिप्रवृद्धानिलबर्हिणानाम् ।
प्लवङ्गमानां च गतोत्सवानां
ध्रुवं रवाः सम्प्रति सम्प्रणष्टाः ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नदी, मेघ, झरनोंके जल, प्रचण्ड वायु, मोर और हर्षरहित मेढकोंके शब्द निश्चय ही इस समय शान्त हो गये हैं ॥ ४३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनेकवर्णाः सुविनष्टकाया
नवोदितेष्वम्बुधरेषु नष्टाः ।
क्षुधार्दिता घोरविषा बिलेभ्य-
श्चिरोषिता विप्रसरन्ति सर्पाः ॥ ४४ ॥

मूलम्

अनेकवर्णाः सुविनष्टकाया
नवोदितेष्वम्बुधरेषु नष्टाः ।
क्षुधार्दिता घोरविषा बिलेभ्य-
श्चिरोषिता विप्रसरन्ति सर्पाः ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नूतन मेघोंके उदित होनेपर जो चिरकालसे बिलोंमें छिपे बैठे थे, जिनकी शरीरयात्रा नष्टप्राय हो गयी थी और इस प्रकार जो मृतवत् हो रहे थे, वे भयंकर विषवाले बहुरंगे सर्प भूखसे पीड़ित होकर अब बिलोंसे बाहर निकल रहे हैं ॥ ४४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चञ्चच्चन्द्रकरस्पर्शहर्षोन्मीलिततारका ।
अहो रागवती सन्ध्या जहाति स्वयमम्बरम् ॥ ४५ ॥

मूलम्

चञ्चच्चन्द्रकरस्पर्शहर्षोन्मीलिततारका ।
अहो रागवती सन्ध्या जहाति स्वयमम्बरम् ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शोभाशाली चन्द्रमाकी किरणोंके स्पर्शसे होनेवाले हर्षके कारण जिसके तारे किंचित् प्रकाशित हो रहे हैं (अथवा प्रियतमके करस्पर्शजनित हर्षसे जिसके नेत्रोंकी पुतली किंचित् खिल उठी है) वह रागयुक्त संध्या (अथवा अनुरागभरी नायिका) स्वयं ही अम्बर (आकाश अथवा वस्त्र) का त्याग कर रही है, यह कैसे आश्चर्यकी बात है!* ॥ ४५ ॥

पादटिप्पनी
  • यहाँ संध्यामें कामुकी नायिकाके व्यवहारका आरोप होनेसे समासोक्ति अलंकार समझना चाहिये ।
विश्वास-प्रस्तुतिः

रात्रिः शशाङ्कोदितसौम्यवक्त्रा
तारागणोन्मीलितचारुनेत्रा ।
ज्योत्स्नांशुकप्रावरणा विभाति
नारीव शुक्लांशुकसंवृताङ्गी ॥ ४६ ॥

मूलम्

रात्रिः शशाङ्कोदितसौम्यवक्त्रा
तारागणोन्मीलितचारुनेत्रा ।
ज्योत्स्नांशुकप्रावरणा विभाति
नारीव शुक्लांशुकसंवृताङ्गी ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘चाँदनीकी चादर ओढ़े हुए शरत्कालकी यह रात्रि श्वेत साड़ीसे ढके हुए अङ्गवाली एक सुन्दरी नारीके समान शोभा पाती है । उदित हुआ चन्द्रमा ही उसका सौम्य मुख है और तारे ही उसकी खुली हुई मनोहर आँखें हैं ॥ ४६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विपक्वशालिप्रसवानि भुक्त्वा
प्रहर्षिता सारसचारुपङ्‍‍क्तिः ।
नभः समाक्रामति शीघ्रवेगा
वातावधूता ग्रथितेव माला ॥ ४७ ॥

मूलम्

विपक्वशालिप्रसवानि भुक्त्वा
प्रहर्षिता सारसचारुपङ्‍‍क्तिः ।
नभः समाक्रामति शीघ्रवेगा
वातावधूता ग्रथितेव माला ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पके हुए धानकी बालोंको खाकर हर्षसे भरी हुई और तीव्र वेगसे चलनेवाली सारसोंकी वह सुन्दर पंक्ति वायुकम्पित गुँथी हुई पुष्पमालाकी भाँति आकाशमें उड़ रही है ॥ ४७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुप्तैकहंसं कुमुदैरुपेतं
महाह्रदस्थं सलिलं विभाति ।
घनैर्विमुक्तं निशि पूर्णचन्द्रं
तारागणाकीर्णमिवान्तरिक्षम् ॥ ४८ ॥

मूलम्

सुप्तैकहंसं कुमुदैरुपेतं
महाह्रदस्थं सलिलं विभाति ।
घनैर्विमुक्तं निशि पूर्णचन्द्रं
तारागणाकीर्णमिवान्तरिक्षम् ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुमुदके फूलोंसे भरा हुआ उस महान् तालाबका जल जिसमें एक हंस सोया हुआ है, ऐसा जान पड़ता है मानो रातके समय बादलोंके आवरणसे रहित आकाश सब ओर छिटके हुए तारोंसे व्याप्त होकर पूर्ण चन्द्रमाके साथ शोभा पा रहा हो ॥ ४८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रकीर्णहंसाकुलमेखलानां
प्रबुद्धपद्मोत्पलमालिनीनाम् ।
वाप्युत्तमानामधिकाद्य लक्ष्मी-
र्वराङ्गनानामिव भूषितानाम् ॥ ४९ ॥

मूलम्

प्रकीर्णहंसाकुलमेखलानां
प्रबुद्धपद्मोत्पलमालिनीनाम् ।
वाप्युत्तमानामधिकाद्य लक्ष्मी-
र्वराङ्गनानामिव भूषितानाम् ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सब ओर बिखरे हुए हंस ही जिनकी फैली हुई मेखला (करधनी) हैं, जो खिले हुए कमलों और उत्पलोंकी मालाएँ धारण करती हैं । उन उत्तम बावड़ियोंकी शोभा आज वस्त्राभूषणोंसे विभूषित हुई सुन्दरी वनिताओंके समान हो रही है ॥ ४९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेणुस्वरव्यञ्जिततूर्यमिश्रः
प्रत्यूषकालेऽनिलसम्प्रवृत्तः ।
सम्मूर्छितो गर्गरगोवृषाणा-
मन्योन्यमापूरयतीव शब्दः ॥ ५० ॥

मूलम्

वेणुस्वरव्यञ्जिततूर्यमिश्रः
प्रत्यूषकालेऽनिलसम्प्रवृत्तः ।
सम्मूर्छितो गर्गरगोवृषाणा-
मन्योन्यमापूरयतीव शब्दः ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वेणुके स्वरके रूपमें व्यक्त हुए वाद्यघोषसे मिश्रित और प्रातःकालकी वायुसे वृद्धिको प्राप्त होकर सब ओर फैला हुआ दही मथनेके बड़े-बड़े भाण्डों और साँड़ोंका शब्द, मानो एक-दूसरेका पूरक हो रहा है ॥ ५० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नवैर्नदीनां कुसुमप्रहासै-
र्व्याधूयमानैर्मृदुमारुतेन ।
धौतामलक्षौमपटप्रकाशैः
कूलानि काशैरुपशोभितानि ॥ ५१ ॥

मूलम्

नवैर्नदीनां कुसुमप्रहासै-
र्व्याधूयमानैर्मृदुमारुतेन ।
धौतामलक्षौमपटप्रकाशैः
कूलानि काशैरुपशोभितानि ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नदियोंके तट मन्द-मन्द वायुसे कम्पित, पुष्परूपी हाससे सुशोभित और धुले हुए निर्मल रेशमी वस्त्रोंके समान प्रकाशित होनेवाले नूतन कासोंसे बड़ी शोभा पा रहे हैं ॥ ५१ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वनप्रचण्डा मधुपानशौण्डाः
प्रियान्विताः षट्चरणाः प्रहृष्टाः ।
वनेषु मत्ताः पवनानुयात्रां
कुर्वन्ति पद्मासनरेणुगौराः ॥ ५२ ॥

मूलम्

वनप्रचण्डा मधुपानशौण्डाः
प्रियान्विताः षट्चरणाः प्रहृष्टाः ।
वनेषु मत्ताः पवनानुयात्रां
कुर्वन्ति पद्मासनरेणुगौराः ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वनमें ढिठाईके साथ घूमनेवाले तथा कमल और असनके परागोंसे गौरवर्णको प्राप्त हुए मतवाले भ्रमर, जो पुष्पोंके मकरन्दका पान करनेमें बड़े चतुर हैं, अपनी प्रियाओंके साथ हर्षमें भरकर वनोंमें (गन्धके लोभसे) वायुके पीछे-पीछे जा रहे हैं ॥ ५२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जलं प्रसन्नं कुसुमप्रहासं
क्रौञ्चस्वनं शालिवनं विपक्वम् ।
मृदुश्च वायुर्विमलश्च चन्द्रः
शंसन्ति वर्षव्यपनीतकालम् ॥ ५३ ॥

मूलम्

जलं प्रसन्नं कुसुमप्रहासं
क्रौञ्चस्वनं शालिवनं विपक्वम् ।
मृदुश्च वायुर्विमलश्च चन्द्रः
शंसन्ति वर्षव्यपनीतकालम् ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जल स्वच्छ हो गया है, धानकी खेती पक गयी है, वायु मन्दगतिसे चलने लगी है और चन्द्रमा अत्यन्त निर्मल दिखायी देता है—ये सब लक्षण उस शरत्कालके आगमनकी सूचना देते हैं । जिसमें वर्षाकी समाप्ति हो जाती है, क्रौञ्च पक्षी बोलने लगते हैं और फूल उस ऋतुके हासकी भाँति खिल उठते हैं ॥ ५३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मीनोपसन्दर्शितमेखलानां
नदीवधूनां गतयोऽद्य मन्दाः ।
कान्तोपभुक्तालसगामिनीनां
प्रभातकालेष्विव कामिनीनाम् ॥ ५४ ॥

मूलम्

मीनोपसन्दर्शितमेखलानां
नदीवधूनां गतयोऽद्य मन्दाः ।
कान्तोपभुक्तालसगामिनीनां
प्रभातकालेष्विव कामिनीनाम् ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘रातको प्रियतमके उपभोगमें आकर प्रातःकाल अलसायी गतिसे चलनेवाली कामिनियोंकी भाँति उन नदीस्वरूपा वधुओंकी गति भी आज मन्द हो गयी है, जो मछलियोंकी मेखला-सी धारण किये हुए हैं ॥ ५४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सचक्रवाकानि सशैवलानि
काशैर्दुकूलैरिव संवृतानि ।
सपत्ररेखाणि सरोचनानि
वधूमुखानीव नदीमुखानि ॥ ५५ ॥

मूलम्

सचक्रवाकानि सशैवलानि
काशैर्दुकूलैरिव संवृतानि ।
सपत्ररेखाणि सरोचनानि
वधूमुखानीव नदीमुखानि ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नदियोंके मुख नव वधुओंके मुँहके समान शोभा पाते हैं । उनमें जो चक्रवाक हैं, वे गोरोचनद्वारा निर्मित तिलकके समान प्रतीत होते हैं, जो सेवार हैं, वे वधूके मुखपर बनी हुई पत्रभङ्गीके समान जान पड़ते हैं तथा जो काश हैं, वे ही मानो श्वेत दुकूल बनकर नदीरूपिणी वधूके मुँहको ढके हुए हैं ॥ ५५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रफुल्लबाणासनचित्रितेषु
प्रहृष्टषट्पादनिकूजितेषु ।
गृहीतचापोद्यतदण्डचण्डः
प्रचण्डचापोऽद्य वनेषु कामः ॥ ५६ ॥

मूलम्

प्रफुल्लबाणासनचित्रितेषु
प्रहृष्टषट्पादनिकूजितेषु ।
गृहीतचापोद्यतदण्डचण्डः
प्रचण्डचापोऽद्य वनेषु कामः ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘फूले हुए सरकण्डों और असनके वृक्षोंसे जिनकी विचित्र शोभा हो रही है तथा जिनमें हर्षभरे भ्रमरोंकी आवाज गूँजती रहती है, उन वनोंमें आज प्रचण्ड धनुर्धर कामदेव प्रकट हुआ है, जो धनुष हाथमें लेकर विरही जनोंको दण्ड देनेके लिये उद्यत हो अत्यन्त कोपका परिचय दे रहा है ॥ ५६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोकं सुवृष्ट्या परितोषयित्वा
नदीस्तटाकानि च पूरयित्वा ।
निष्पन्नसस्यां वसुधां च कृत्वा
त्यक्त्वा नभस्तोयधराः प्रणष्टाः ॥ ५७ ॥

मूलम्

लोकं सुवृष्ट्या परितोषयित्वा
नदीस्तटाकानि च पूरयित्वा ।
निष्पन्नसस्यां वसुधां च कृत्वा
त्यक्त्वा नभस्तोयधराः प्रणष्टाः ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अच्छी वर्षासे लोगोंको संतुष्ट करके नदियों और तालाबोंको पानीसे भरकर तथा भूतलको परिपक्व धानकी खेतीसे सम्पन्न करके बादल आकाश छोड़कर अदृश्य हो गये ॥ ५७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दर्शयन्ति शरन्नद्यः पुलिनानि शनैः शनैः ।
नवसङ्गमसव्रीडा जघनानीव योषितः ॥ ५८ ॥

मूलम्

दर्शयन्ति शरन्नद्यः पुलिनानि शनैः शनैः ।
नवसङ्गमसव्रीडा जघनानीव योषितः ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शरद्-ऋतुकी नदियाँ धीरे-धीरे जलके हटनेसे अपने नग्न तटोंको दिखा रही हैं । ठीक उसी तरह जैसे प्रथम समागमके समय लजीली युवतियाँ शनैः-शनैः अपने जघन-स्थलको दिखानेके लिये विवश होती हैं ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रसन्नसलिलाः सौम्य कुरराभिविनादिताः ।
चक्रवाकगणाकीर्णा विभान्ति सलिलाशयाः ॥ ५९ ॥

मूलम्

प्रसन्नसलिलाः सौम्य कुरराभिविनादिताः ।
चक्रवाकगणाकीर्णा विभान्ति सलिलाशयाः ॥ ५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सौम्य! सभी जलाशयोंके जल स्वच्छ हो गये हैं । वहाँ कुरर पक्षियोंके कलनाद गूँज रहे हैं और चक्रवाकोंके समुदाय चारों ओर बिखरे हुए हैं । इस प्रकार उन जलाशयोंकी बड़ी शोभा हो रही है ॥ ५९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्योन्यबद्धवैराणां जिगीषूणां नृपात्मज ।
उद्योगसमयः सौम्य पार्थिवानामुपस्थितः ॥ ६० ॥

मूलम्

अन्योन्यबद्धवैराणां जिगीषूणां नृपात्मज ।
उद्योगसमयः सौम्य पार्थिवानामुपस्थितः ॥ ६० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सौम्य! राजकुमार! जिनमें परस्पर वैर बँधा हुआ है और जो एक-दूसरेको जीतनेकी इच्छा रखते हैं, उन भूमिपालोंके लिये यह युद्धके निमित्त उद्योग करनेका समय उपस्थित हुआ है ॥ ६० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इयं सा प्रथमा यात्रा पार्थिवानां नृपात्मज ।
न च पश्यामि सुग्रीवमुद्योगं च तथाविधम् ॥ ६१ ॥

मूलम्

इयं सा प्रथमा यात्रा पार्थिवानां नृपात्मज ।
न च पश्यामि सुग्रीवमुद्योगं च तथाविधम् ॥ ६१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नरेशनन्दन! राजाओंकी विजय-यात्राका यह प्रथम अवसर है, किंतु न तो मैं सुग्रीवको यहाँ उपस्थित देखता हूँ और न उनका कोई वैसा उद्योग ही दृष्टिगोचर होता है ॥ ६१ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असनाः सप्तपर्णाश्च कोविदाराश्च पुष्पिताः ।
दृश्यन्ते बन्धुजीवाश्च श्यामाश्च गिरिसानुषु ॥ ६२ ॥

मूलम्

असनाः सप्तपर्णाश्च कोविदाराश्च पुष्पिताः ।
दृश्यन्ते बन्धुजीवाश्च श्यामाश्च गिरिसानुषु ॥ ६२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पर्वतके शिखरोंपर असन, छितवन, कोविदार, बन्धु-जीव तथा श्याम तमाल खिले दिखायी देते हैं ॥ ६२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हंससारसचक्राह्वैः कुररैश्च समन्ततः ।
पुलिनान्यवकीर्णानि नदीनां पश्य लक्ष्मण ॥ ६३ ॥

मूलम्

हंससारसचक्राह्वैः कुररैश्च समन्ततः ।
पुलिनान्यवकीर्णानि नदीनां पश्य लक्ष्मण ॥ ६३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘लक्ष्मण! देखो तो सही, नदियोंके तटोंपर सब ओर हंस, सारस, चक्रवाक और कुरर नामक पक्षी फैले हुए हैं ॥ ६३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चत्वारो वार्षिका मासा गता वर्षशतोपमाः ।
मम शोकाभितप्तस्य तथा सीतामपश्यतः ॥ ६४ ॥

मूलम्

चत्वारो वार्षिका मासा गता वर्षशतोपमाः ।
मम शोकाभितप्तस्य तथा सीतामपश्यतः ॥ ६४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं सीताको न देखनेके कारण शोकसे संतप्त हो रहा हूँ; अतः ये वर्षाके चार महीने मेरे लिये सौ वर्षोंके समान बीते हैं ॥ ६४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चक्रवाकीव भर्तारं पृष्ठतोऽनुगता वनम् ।
विषमं दण्डकारण्यमुद्यानमिव चाङ्गना ॥ ६५ ॥

मूलम्

चक्रवाकीव भर्तारं पृष्ठतोऽनुगता वनम् ।
विषमं दण्डकारण्यमुद्यानमिव चाङ्गना ॥ ६५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जैसे चकवी अपने स्वामीका अनुसरण करती है, उसी प्रकार कल्याणी सीता इस भयंकर एवं दुर्गम दण्डकारण्यको उद्यान-सा समझकर मेरे पीछे यहाँतक चली आयी थी ॥ ६५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रियाविहीने दुःखार्ते हृतराज्ये विवासिते ।
कृपां न कुरुते राजा सुग्रीवो मयि लक्ष्मण ॥ ६६ ॥

मूलम्

प्रियाविहीने दुःखार्ते हृतराज्ये विवासिते ।
कृपां न कुरुते राजा सुग्रीवो मयि लक्ष्मण ॥ ६६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘लक्ष्मण! मैं अपनी प्रियतमासे बिछुड़ा हुआ हूँ । मेरा राज्य छीन लिया गया है और मैं देशसे निकाल दिया गया हूँ । इस अवस्थामें भी राजा सुग्रीव मुझपर कृपा नहीं कर रहा है ॥ ६६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनाथो हृतराज्योऽहं रावणेन च धर्षितः ।
दीनो दूरगृहः कामी मां चैव शरणं गतः ॥ ६७ ॥
इत्येतैः कारणैः सौम्य सुग्रीवस्य दुरात्मनः ।
अहं वानरराजस्य परिभूतः परन्तपः ॥ ६८ ॥

मूलम्

अनाथो हृतराज्योऽहं रावणेन च धर्षितः ।
दीनो दूरगृहः कामी मां चैव शरणं गतः ॥ ६७ ॥
इत्येतैः कारणैः सौम्य सुग्रीवस्य दुरात्मनः ।
अहं वानरराजस्य परिभूतः परन्तपः ॥ ६८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सौम्यलक्ष्मण! मैं अनाथ हूँ । राज्यसे भ्रष्ट हो गया हूँ । रावणने मेरा तिरस्कार किया है । मैं दीन हूँ । मेरा घर यहाँसे बहुत दूर है । मैं कामना लेकर यहाँ आया हूँ तथा सुग्रीव यह भी समझता है कि राम मेरी शरणमें आये हैं । इन्हीं सब कारणोंसे वानरोंका राजा दुरात्मा सुग्रीव मेरा तिरस्कार कर रहा है; किंतु उसे पता नहीं है कि मैं सदा शत्रुओंको संताप देनेमें समर्थ हूँ ॥ ६७-६८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स कालं परिसङ्ख्याय सीतायाः परिमार्गणे ।
कृतार्थः समयं कृत्वा दुर्मतिर्नाववुध्यते ॥ ६९ ॥

मूलम्

स कालं परिसङ्ख्याय सीतायाः परिमार्गणे ।
कृतार्थः समयं कृत्वा दुर्मतिर्नाववुध्यते ॥ ६९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उसने सीताकी खोजके लिये समय निश्चित कर दिया था; किंतु उसका तो अब काम निकल गया है, इसीलिये वह दुर्बुद्धि वानर प्रतिज्ञा करके भी उसका कुछ खयाल नहीं कर रहा है ॥ ६९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स किष्किन्धां प्रविश्य त्वं ब्रूहि वानरपुङ्गवम् ।
मूर्खं ग्राम्यसुखे सक्तं सुग्रीवं वचनान्मम ॥ ७० ॥

मूलम्

स किष्किन्धां प्रविश्य त्वं ब्रूहि वानरपुङ्गवम् ।
मूर्खं ग्राम्यसुखे सक्तं सुग्रीवं वचनान्मम ॥ ७० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अतः लक्ष्मण! तुम मेरी आज्ञासे किष्किन्धापुरीमें जाओ और विषयभोगमें फँसे हुए मूर्ख वानरराज सुग्रीवसे इस प्रकार कहो— ॥ ७० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्थिनामुपपन्नानां पूर्वं चाप्युपकारिणाम् ।
आशां संश्रुत्य यो हन्ति स लोके पुरुषाधमः ॥ ७१ ॥

मूलम्

अर्थिनामुपपन्नानां पूर्वं चाप्युपकारिणाम् ।
आशां संश्रुत्य यो हन्ति स लोके पुरुषाधमः ॥ ७१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो बल-पराक्रमसे सम्पन्न तथा पहले ही उपकार करनेवाले कार्यार्थी पुरुषोंको प्रतिज्ञापूर्वक आशा देकर पीछे उसे तोड़ देता है, वह संसारके सभी पुरुषोंमें नीच है ॥ ७१ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुभं वा यदि वा पापं यो हि वाक्यमुदीरितम् ।
सत्येन परिगृह्णाति स वीरः पुरुषोत्तमः ॥ ७२ ॥

मूलम्

शुभं वा यदि वा पापं यो हि वाक्यमुदीरितम् ।
सत्येन परिगृह्णाति स वीरः पुरुषोत्तमः ॥ ७२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो अपने मुखसे प्रतिज्ञाके रूपमें निकले हुए भले या बुरे सभी तरहके वचनोंको अवश्य पालनीय समझकर सत्यकी रक्षाके उद्देश्यसे उनका पालन करता है, वह वीर समस्त पुरुषोंमें श्रेष्ठ माना जाता है ॥ ७२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृतार्था ह्यकृतार्थानां मित्राणां न भवन्ति ये ।
तान् मृतानपि क्रव्यादाः कृतघ्नान् नोपभुञ्जते ॥ ७३ ॥

मूलम्

कृतार्था ह्यकृतार्थानां मित्राणां न भवन्ति ये ।
तान् मृतानपि क्रव्यादाः कृतघ्नान् नोपभुञ्जते ॥ ७३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो अपना स्वार्थ सिद्ध हो जानेपर, जिनके कार्य नहीं पूरे हुए हैं । उन मित्रोंके सहायक नहीं होते—उनके कार्यको सिद्ध करनेकी चेष्टा नहीं करते, उन कृतघ्न पुरुषोंके मरनेपर मांसाहारी जन्तु भी उनका मांस नहीं खाते हैं ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नूनं काञ्चनपृष्ठस्य विकृष्टस्य मया रणे ।
द्रष्टुमिच्छसि चापस्य रूपं विद्युद‍्गणोपमम् ॥ ७४ ॥

मूलम्

नूनं काञ्चनपृष्ठस्य विकृष्टस्य मया रणे ।
द्रष्टुमिच्छसि चापस्य रूपं विद्युद‍्गणोपमम् ॥ ७४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सुग्रीव! निश्चय ही तुम युद्धमें मेरे द्वारा खींचे गये सोनेकी पीठवाले धनुषका कौंधती हुई बिजलीके समान रूप देखना चाहते हो ॥ ७४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

घोरं ज्यातलनिर्घोषं क्रुद्धस्य मम संयुगे ।
निर्घोषमिव वज्रस्य पुनः संश्रोतुमिच्छसि ॥ ७५ ॥

मूलम्

घोरं ज्यातलनिर्घोषं क्रुद्धस्य मम संयुगे ।
निर्घोषमिव वज्रस्य पुनः संश्रोतुमिच्छसि ॥ ७५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘संग्राममें कुपित होकर मेरे द्वारा खींची गयी प्रत्यञ्चाकी भयंकर टङ्कारको, जो वज्रकी गड़गड़ाहटको भी मात करनेवाली है, अब फिर तुम्हें सुननेकी इच्छा हो रही है ॥ ७५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काममेवङ्गतेऽप्यस्य परिज्ञाते पराक्रमे ।
त्वत्सहायस्य मे वीर न चिन्ता स्यान्नृपात्मज ॥ ७६ ॥

मूलम्

काममेवङ्गतेऽप्यस्य परिज्ञाते पराक्रमे ।
त्वत्सहायस्य मे वीर न चिन्ता स्यान्नृपात्मज ॥ ७६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वीर राजकुमार! सुग्रीवको तुम-जैसे सहायकके साथ रहनेवाले मेरे पराक्रमका ज्ञान हो चुका है, ऐसी दशामें भी यदि उसे यह चिन्ता न हो कि ये वालीकी भाँति मुझे मार सकते हैं तो यह आश्चर्यकी ही बात है! ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदर्थमयमारम्भः कृतः परपुरञ्जय ।
समयं नाभिजानाति कृतार्थः प्लवगेश्वरः ॥ ७७ ॥

मूलम्

यदर्थमयमारम्भः कृतः परपुरञ्जय ।
समयं नाभिजानाति कृतार्थः प्लवगेश्वरः ॥ ७७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शत्रु-नगरीपर विजय पानेवाले लक्ष्मण! जिसके लिये यह मित्रता आदिका सारा आयोजन किया गया, सीताकी खोजविषयक उस प्रतिज्ञाको इस समय वानरराज सुग्रीव भूल गया है—उसे याद नहीं कर रहा है; क्योंकि उसका अपना काम सिद्ध हो चुका ॥ ७७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वर्षाः समयकालं तु प्रतिज्ञाय हरीश्वरः ।
व्यतीतांश्चतुरो मासान् विहरन् नावबुध्यते ॥ ७८ ॥

मूलम्

वर्षाः समयकालं तु प्रतिज्ञाय हरीश्वरः ।
व्यतीतांश्चतुरो मासान् विहरन् नावबुध्यते ॥ ७८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सुग्रीवने यह प्रतिज्ञा की थी कि वर्षाका अन्त होते ही सीताकी खोज आरम्भ कर दी जायगी, किंतु वह क्रीड़ा-विहारमें इतना तन्मय हो गया है कि इन बीते हुए चार महीनोंका उसे कुछ पता ही नहीं है ॥ ७८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सामात्यपरिषत्क्रीडन् पानमेवोपसेवते ।
शोकदीनेषु नास्मासु सुग्रीवः कुरुते दयाम् ॥ ७९ ॥

मूलम्

सामात्यपरिषत्क्रीडन् पानमेवोपसेवते ।
शोकदीनेषु नास्मासु सुग्रीवः कुरुते दयाम् ॥ ७९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सुग्रीव मन्त्रियों तथा परिजनोंसहित क्रीडाजनित आमोद-प्रमोदमें फँसकर विविध पेय पदार्थोंका ही सेवन कर रहा है । हमलोग शोकसे व्याकुल हो रहे हैं । तो भी वह हमपर दया नहीं करता है ॥ ७९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उच्यतां गच्छ सुग्रीवस्त्वया वीर महाबल ।
मम रोषस्य यद्रूपं ब्रूयाश्चैनमिदं वचः ॥ ८० ॥

मूलम्

उच्यतां गच्छ सुग्रीवस्त्वया वीर महाबल ।
मम रोषस्य यद्रूपं ब्रूयाश्चैनमिदं वचः ॥ ८० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाबली वीर लक्ष्मण! तुम जाओ । सुग्रीवसे बात करो । मेरे रोषका जो स्वरूप है, वह उसे बताओ और मेरा यह संदेश भी कह सुनाओ ॥ ८० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न स सङ्कुचितः पन्था येन वाली हतो गतः ।
समये तिष्ठ सुग्रीव मा वालिपथमन्वगाः ॥ ८१ ॥

मूलम्

न स सङ्कुचितः पन्था येन वाली हतो गतः ।
समये तिष्ठ सुग्रीव मा वालिपथमन्वगाः ॥ ८१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुग्रीव! वाली मारा जाकर जिस रास्तेसे गया है, वह आज भी बंद नहीं हुआ है । इसलिये तुम अपनी प्रतिज्ञापर डटे रहो । वालीके मार्गका अनुसरण न करो ॥ ८१ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एक एव रणे वाली शरेण निहतो मया ।
त्वां तु सत्यादतिक्रान्तं हनिष्यामि सबान्धवम् ॥ ८२ ॥

मूलम्

एक एव रणे वाली शरेण निहतो मया ।
त्वां तु सत्यादतिक्रान्तं हनिष्यामि सबान्धवम् ॥ ८२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वाली तो रणक्षेत्रमें अकेला ही मेरे बाणसे मारा गया था, परंतु यदि तुम सत्यसे विचलित हुए तो मैं तुम्हें बन्धु-बान्धवोंसहित कालके गालमें डाल दूँगा ॥ ८२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदेवं विहिते कार्ये यद्धितं पुरुषर्षभ ।
तत् तद् ब्रूहि नरश्रेष्ठ त्वर कालव्यतिक्रमः ॥ ८३ ॥

मूलम्

यदेवं विहिते कार्ये यद्धितं पुरुषर्षभ ।
तत् तद् ब्रूहि नरश्रेष्ठ त्वर कालव्यतिक्रमः ॥ ८३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पुरुषप्रवर! नरश्रेष्ठ लक्ष्मण! जब इस तरह कार्य बिगड़ने लगे, ऐसे अवसरपर और भी जो-जो बातें कहनी उचित हों— जिनके कहनेसे अपना हित होता हो, वे सब बातें कहना । जल्दी करो; क्योंकि कार्य आरम्भ करनेका समय बीता जा रहा है ॥ ८३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुरुष्व सत्यं मम वानरेश्वर
प्रतिश्रुतं धर्ममवेक्ष्य शाश्वतम् ।
मा वालिनं प्रेतगतो यमक्षये
त्वमद्य पश्येर्मम चोदितः शरैः ॥ ८४ ॥

मूलम्

कुरुष्व सत्यं मम वानरेश्वर
प्रतिश्रुतं धर्ममवेक्ष्य शाश्वतम् ।
मा वालिनं प्रेतगतो यमक्षये
त्वमद्य पश्येर्मम चोदितः शरैः ॥ ८४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सुग्रीवसे कहो—‘वानरराज! तुम सनातन धर्मपर दृष्टि रखकर अपनी की हुई प्रतिज्ञाको सत्य कर दिखाओ, अन्यथा ऐसा न हो कि तुम्हें आज ही मेरे बाणोंसे प्रेरित हो प्रेतभावको प्राप्त होकर यमलोकमें वालीका दर्शन करना पड़े’ ॥ ८४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स पूर्वजं तीव्रविवृद्धकोपं
लालप्यमानं प्रसमीक्ष्य दीनम् ।
चकार तीव्रां मतिमुग्रतेजा
हरीश्वरे मानववंशवर्धनः ॥ ८५ ॥

मूलम्

स पूर्वजं तीव्रविवृद्धकोपं
लालप्यमानं प्रसमीक्ष्य दीनम् ।
चकार तीव्रां मतिमुग्रतेजा
हरीश्वरे मानववंशवर्धनः ॥ ८५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मानव-वंशकी वृद्धि करनेवाले उग्र तेजस्वी लक्ष्मणने जब अपने बड़े भाईको दुःखी, बढ़े हुए तीव्र रोषसे युक्त तथा अधिक बोलते देखा, तब वानरराज सुग्रीवके प्रति कठोर भाव धारण कर लिया ॥ ८५ ॥

समाप्तिः

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डे त्रिंशः सर्गः ॥ ३० ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके किष्किन्धाकाण्डमें तीसवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ३० ॥