०२८ प्रावृड्वर्णनम्

वाचनम्
भागसूचना
  1. श्रीरामके द्वारा वर्षा-ऋतुका वर्णन
विश्वास-प्रस्तुतिः

स तदा वालिनं हत्वा सुग्रीवमभिषिच्य च ।
वसन् माल्यवतः पृष्ठे रामो लक्ष्मणमब्रवीत् ॥ १ ॥

मूलम्

स तदा वालिनं हत्वा सुग्रीवमभिषिच्य च ।
वसन् माल्यवतः पृष्ठे रामो लक्ष्मणमब्रवीत् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार वालीका वध और सुग्रीवका राज्याभिषेक करनेके अनन्तर माल्यवान् पर्वतके पृष्ठभागमें निवास करते हुए श्रीरामचन्द्रजी लक्ष्मणसे कहने लगे— ॥ १ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयं स कालः सम्प्राप्तः समयोऽद्य जलागमः ।
सम्पश्य त्वं नभो मेघैः संवृतं गिरिसन्निभैः ॥ २ ॥

मूलम्

अयं स कालः सम्प्राप्तः समयोऽद्य जलागमः ।
सम्पश्य त्वं नभो मेघैः संवृतं गिरिसन्निभैः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सुमित्रानन्दन! अब यह जलकी प्राप्ति करानेवाला वह प्रसिद्ध वर्षाकाल आ गया । देखो, पर्वतके समान प्रतीत होनेवाले मेघोंसे आकाशमण्डल आच्छन्न हो गया है ॥ २ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नव-मास-धृतं गर्भं
भास्करस्य गभस्तिभिः ।
पीत्वा रसं समुद्राणां
द्यौः प्रसूते रसायनम् ॥ ३ ॥ +++(5)+++

मानसतरङ्गिणीकृत्

Bearing for 9 months the embryo fertilized by the sun’s rays, having drunk the juice of the seas, the heaven births the elixir [of life]

मूलम्

नवमासधृतं गर्भं भास्करस्य गभस्तिभिः ।
पीत्वा रसं समुद्राणां द्यौः प्रसूते रसायनम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यह आकाशस्वरूपा तरुणी सूर्यकी किरणोंद्वारा समुद्रोंका रस पीकर कार्तिक आदि नौ मासोंतक धारण किये हुए गर्भके रूपमें जलरूपी रसायनको जन्म दे रही है ॥ ३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शक्यमम्बरमारुह्य मेघसोपानपङ्क्तिभिः ।
कुटजार्जुनमालाभिरलङ्कर्तुं दिवाकरः ॥ ४ ॥

मूलम्

शक्यमम्बरमारुह्य मेघसोपानपङ्क्तिभिः ।
कुटजार्जुनमालाभिरलङ्कर्तुं दिवाकरः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस समय मेघरूपी सोपानपंक्तियों (सीढ़ियों) द्वारा आकाशमें चढ़कर गिरिमल्लिका और अर्जुनपुष्पकी मालाओंसे सूर्यदेवको अलंकृत करना सरल-सा हो गया है ॥ ४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सन्ध्यारागोत्थितैस्ताम्रैरन्तेष्वपि च पाण्डुभिः ।
स्निग्धैरभ्रपटच्छेदैर्बद्धव्रणमिवाम्बरम् ॥ ५ ॥

मूलम्

सन्ध्यारागोत्थितैस्ताम्रैरन्तेष्वपि च पाण्डुभिः ।
स्निग्धैरभ्रपटच्छेदैर्बद्धव्रणमिवाम्बरम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘संध्याकालकी लाली प्रकट होनेसे बीचमें लाल तथा किनारेके भागोंमें श्वेत एवं स्निग्ध प्रतीत होनेवाले मेघखण्डोंसे आच्छादित हुआ आकाश ऐसा जान पड़ता है, मानो उसने अपने घावमें रक्तरञ्जित सफेद कपड़ोंकी पट्टी बाँध रखी हो ॥ ५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन्दमारुतिनिःश्वासं सन्ध्याचन्दनरञ्जितम् ।
आपाण्डुजलदं भाति कामातुरमिवाम्बरम् ॥ ६ ॥

मूलम्

मन्दमारुतिनिःश्वासं सन्ध्याचन्दनरञ्जितम् ।
आपाण्डुजलदं भाति कामातुरमिवाम्बरम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मन्द-मन्द हवा निःश्वास-सी प्रतीत होती है, संध्याकालकी लाली लाल चन्दन बनकर ललाट आदि अङ्गोंको अनुरञ्जित कर रही है तथा मेघरूपी कपोल कुछ-कुछ पाण्डुवर्णका प्रतीत होता है । इस तरह यह आकाश कामातुर पुरुषके समान जान पड़ता है ॥ ६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एषा घर्मपरिक्लिष्टा नववारिपरिप्लुता ।
सीतेव शोकसन्तप्ता मही बाष्पं विमुञ्चति ॥ ७ ॥

मूलम्

एषा घर्मपरिक्लिष्टा नववारिपरिप्लुता ।
सीतेव शोकसन्तप्ता मही बाष्पं विमुञ्चति ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो ग्रीष्म-ऋतुमें घामसे तप गयी थी, वह पृथ्वी वर्षाकालमें नूतन जलसे भीगकर (सूर्य-किरणोंसे तपी और आँसुओंसे भीगी हुई) शोकसंतप्त सीताकी भाँति बाष्प विमोचन (उष्णताका त्याग अथवा अश्रुपात) कर रही है ॥ ७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेघोदरविनिर्मुक्ताः कर्पूरदलशीतलाः ।
शक्यमञ्जलिभिः पातुं वाताः केतकगन्धिनः ॥ ८ ॥

मूलम्

मेघोदरविनिर्मुक्ताः कर्पूरदलशीतलाः ।
शक्यमञ्जलिभिः पातुं वाताः केतकगन्धिनः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेघके उदरसे निकली, कपूरकी डलीके समान ठंडी तथा केवड़ेकी सुगन्धसे भरी हुई इस बरसाती वायुको मानो अञ्जलियोंमें भरकर पीया जा सकता है ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष फुल्लार्जुनः शैलः केतकैरभिवासितः ।
सुग्रीव इव शान्तारिर्धाराभिरभिषिच्यते ॥ ९ ॥

मूलम्

एष फुल्लार्जुनः शैलः केतकैरभिवासितः ।
सुग्रीव इव शान्तारिर्धाराभिरभिषिच्यते ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यह पर्वत, जिसपर अर्जुनके वृक्ष खिले हुए हैं तथा जो केवड़ोंसे सुवासित हो रहा है, शान्त हुए शत्रुवाले सुग्रीवकी भाँति जलकी धाराओंसे अभिषिक्त हो रहा है ॥ ९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेघ-कृष्णाजिन-धरा
धारा-यज्ञोपवीतिनः ।
मारुतापूरित-गुहाः
प्राधीता इव पर्वताः ॥ १० ॥ +++(5)+++

मानसतरङ्गिणीकृत्

Wearing the black-antelope skin of [monsoon] clouds, the ritual thread of [rainfed] streams, with caves [resounding] with the winds, the mountains are like students.

मूलम्

मेघकृष्णाजिनधरा धारायज्ञोपवीतिनः ।
मारुतापूरितगुहाः प्राधीता इव पर्वताः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेघरूपी काले मृगचर्म तथा वर्षाकी धारारूप यज्ञोपवीत धारण किये वायुसे पूरित गुफा (या हृदय) वाले ये पर्वत ब्रह्मचारियोंकी भाँति मानो वेदाध्ययन आरम्भ कर रहे हैं ॥ १० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कशाभिरिव हैमीभिर्विद्युद्भिरभिताडितम् ।
अन्तःस्तनितनिर्घोषं सवेदनमिवाम्बरम् ॥ ११ ॥

मूलम्

कशाभिरिव हैमीभिर्विद्युद्भिरभिताडितम् ।
अन्तःस्तनितनिर्घोषं सवेदनमिवाम्बरम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ये बिजलियाँ सोनेके बने हुए कोड़ोंके समान जान पड़ती हैं । इनकी मार खाकर मानो व्यथित हुआ आकाश अपने भीतर व्यक्त हुई मेघोंकी गम्भीर गर्जनाके रूपमें आर्तनाद-सा कर रहा है ॥ ११ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नीलमेघाश्रिता विद्युत् स्फुरन्ती प्रतिभाति मे ।
स्फुरन्ती रावणस्याङ्के वैदेहीव तपस्विनी ॥ १२ ॥

मूलम्

नीलमेघाश्रिता विद्युत् स्फुरन्ती प्रतिभाति मे ।
स्फुरन्ती रावणस्याङ्के वैदेहीव तपस्विनी ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नील मेघका आश्रय लेकर प्रकाशित होती हुई यह विद्युत् मुझे रावणके अङ्कमें छटपटाती हुई तपस्विनी सीताके समान प्रतीत होती है ॥ १२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमास्ता मन्मथवतां हिताः प्रतिहता दिशः ।
अनुलिप्ता इव घनैर्नष्टग्रहनिशाकराः ॥ १३ ॥

मूलम्

इमास्ता मन्मथवतां हिताः प्रतिहता दिशः ।
अनुलिप्ता इव घनैर्नष्टग्रहनिशाकराः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बादलोंका लेप लग जानेसे जिनमें ग्रह, नक्षत्र और चन्द्रमा अदृश्य हो गये हैं, अतएव जो नष्ट-सी हो गयी है—जिनके पूर्व, पश्चिम आदि भेदोंका विवेक लुप्त-सा हो गया है, वे दिशाएँ, उन कामियोंको, जिन्हें प्रेयसीका संयोगसुख सुलभ है, हितकर प्रतीत होती हैं ॥ १३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्वचिद् बाष्पाभिसंरुद्धान् वर्षागमसमुत्सुकान् ।
कुटजान् पश्य सौमित्रे पुष्पितान् गिरिसानुषु ।
मम शोकाभिभूतस्य कामसन्दीपनान् स्थितान् ॥ १४ ॥

मूलम्

क्वचिद् बाष्पाभिसंरुद्धान् वर्षागमसमुत्सुकान् ।
कुटजान् पश्य सौमित्रे पुष्पितान् गिरिसानुषु ।
मम शोकाभिभूतस्य कामसन्दीपनान् स्थितान् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सुमित्रानन्दन! देखो, इस पर्वतके शिखरोंपर खिले हुए कुटज कैसी शोभा पाते हैं? कहीं तो पहली बार वर्षा होनेपर भूमिसे निकले हुए भापसे ये व्याप्त हो रहे हैं और कहीं वर्षाके आगमनसे अत्यन्त उत्सुक (हर्षोत्फुल्ल) दिखायी देते हैं । मैं तो प्रिया-विरहके शोकसे पीड़ित हूँ और ये कुटज पुष्प मेरी प्रेमाग्निको उद्दीप्त कर रहे हैं ॥ १४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रजः प्रशान्तं सहिमोऽद्य वायु-
र्निदाघदोषप्रसराः प्रशान्ताः ।
स्थिता हि यात्रा वसुधाधिपानां
प्रवासिनो यान्ति नराः स्वदेशान् ॥ १५ ॥

मूलम्

रजः प्रशान्तं सहिमोऽद्य वायु-
र्निदाघदोषप्रसराः प्रशान्ताः ।
स्थिता हि यात्रा वसुधाधिपानां
प्रवासिनो यान्ति नराः स्वदेशान् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘धरतीकी धूल शान्त हो गयी । अब वायुमें शीतलता आ गयी । गर्मीके दोषोंका प्रसार बंद हो गया । भूपालोंकी युद्धयात्रा रुक गयी और परदेशी मनुष्य अपने-अपने देशको लौट रहे हैं ॥ १५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम्प्रस्थिता मानसवासलुब्धाः
प्रियान्विताः सम्प्रति चक्रवाकाः ।
अभीक्ष्णवर्षोदकविक्षतेषु
यानानि मार्गेषु न सम्पतन्ति ॥ १६ ॥

मूलम्

सम्प्रस्थिता मानसवासलुब्धाः
प्रियान्विताः सम्प्रति चक्रवाकाः ।
अभीक्ष्णवर्षोदकविक्षतेषु
यानानि मार्गेषु न सम्पतन्ति ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मानसरोवरमें निवासके लोभी हंस वहाँके लिये प्रस्थित हो गये । इस समय चकवे अपनी प्रियाओंसे मिल रहे हैं । निरन्तर होनेवाली वर्षाके जलसे मार्ग टूट-फूट गये हैं, इसलिये उनपर रथ आदि नहीं चल रहे हैं ॥ १६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्वचित् प्रकाशं क्वचिदप्रकाशं
नभः प्रकीर्णाम्बुधरं विभाति ।
क्वचित् क्वचित् पर्वतसन्निरुद्धं
रूपं यथा शान्तमहार्णवस्य ॥ १७ ॥

मूलम्

क्वचित् प्रकाशं क्वचिदप्रकाशं
नभः प्रकीर्णाम्बुधरं विभाति ।
क्वचित् क्वचित् पर्वतसन्निरुद्धं
रूपं यथा शान्तमहार्णवस्य ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आकाशमें सब ओर बादल छिटके हुए हैं । कहीं तो उन बादलोंसे ढक जानेके कारण आकाश दिखायी नहीं देता है और कहीं उनके फट जानेपर वह स्पष्ट दिखायी देने लगता है । ठीक उसी तरह जैसे जिसकी तरङ्गमालाएँ शान्त हो गयी हों, उस महासागरका रूप कहीं तो पर्वतमालाओंसे छिप जानेके कारण नहीं दिखायी देता है और कहीं पर्वतोंका आवरण न होनेसे दिखायी देता है ॥ १७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यामिश्रितं सर्जकदम्बपुष्पै-
र्नवं जलं पर्वतधातुताम्रम् ।
मयूरकेकाभिरनुप्रयातं
शैलापगाः शीघ्रतरं वहन्ति ॥ १८ ॥

मूलम्

व्यामिश्रितं सर्जकदम्बपुष्पै-
र्नवं जलं पर्वतधातुताम्रम् ।
मयूरकेकाभिरनुप्रयातं
शैलापगाः शीघ्रतरं वहन्ति ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस समय पहाड़ी नदियाँ वर्षाके नूतन जलको बड़े वेगसे बहा रही हैं । वह जल सर्ज और कदम्बके फूलोंसे मिश्रित है, पर्वतके गेरू आदि धातुओंसे लाल रंगका हो गया है तथा मयूरोंकी केकाध्वनि उस जलके कलकलनादका अनुसरण कर रही है ॥ १८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रसाकुलं षट्पदसन्निकाशं
प्रभुज्यते जम्बुफलं प्रकामम् ।
अनेकवर्णं पवनावधूतं
भूमौ पतत्याम्रफलं विपक्वम् ॥ १९ ॥

मूलम्

रसाकुलं षट्पदसन्निकाशं
प्रभुज्यते जम्बुफलं प्रकामम् ।
अनेकवर्णं पवनावधूतं
भूमौ पतत्याम्रफलं विपक्वम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘काले-काले भौंरोंके समान प्रतीत होनेवाले जामुनके सरस फल आजकल लोग जी भरकर खाते हैं और हवाके वेगसे हिले हुए आमके पके हुए बहुरंगी फल पृथ्वीपर गिरते रहते है ॥ १९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विद्युत्पताकाः सबलाकमालाः
शैलेन्द्रकूटाकृतिसन्निकाशाः ।
गर्जन्ति मेघाः समुदीर्णनादा
मत्ता गजेन्द्रा इव संयुगस्थाः ॥ २० ॥

मूलम्

विद्युत्पताकाः सबलाकमालाः
शैलेन्द्रकूटाकृतिसन्निकाशाः ।
गर्जन्ति मेघाः समुदीर्णनादा
मत्ता गजेन्द्रा इव संयुगस्थाः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जैसे युद्धस्थलमें खड़े हुए मतवाले गजराज उच्चस्वरसे चिग्घाड़ते हैं, उसी प्रकार गिरिराजके शिखरोंकी-सी आकृतिवाले मेघ जोर-जोरसे गर्जना कर रहे हैं । चमकती हुई बिजलियाँ इन मेघरूपी गजराजोंपर पताकाओंके समान फहरा रही हैं और बगुलोंकी पंक्तियाँ मालाके समान शोभा देती हैं ॥ २० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वर्षोदकाप्यायितशाद्वलानि
प्रवृत्तनृत्तोत्सवबर्हिणानि ।
वनानि निर्वृष्टबलाहकानि
पश्यापराह्णेष्वधिकं विभान्ति ॥ २१ ॥

मूलम्

वर्षोदकाप्यायितशाद्वलानि
प्रवृत्तनृत्तोत्सवबर्हिणानि ।
वनानि निर्वृष्टबलाहकानि
पश्यापराह्णेष्वधिकं विभान्ति ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘देखो, अपराह्णकालमें इन वनोंकी शोभा अधिक बढ़ जाती है । वर्षाके जलसे इनमें हरी-हरी घासें बढ़ गयी हैं । झुंड-के-झुंड मोरोंने अपना नृत्योत्सव आरम्भ कर दिया है और मेघोंने इनमें निरन्तर जल बरसाया है ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समुद्वहन्तः सलिलातिभारं
बलाकिनो वारिधरा नदन्तः ।
महत्सु शृङ्गेषु महीधराणां
विश्रम्य विश्रम्य पुनः प्रयान्ति ॥ २२ ॥

मूलम्

समुद्वहन्तः सलिलातिभारं
बलाकिनो वारिधरा नदन्तः ।
महत्सु शृङ्गेषु महीधराणां
विश्रम्य विश्रम्य पुनः प्रयान्ति ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बक-पंक्तियोंसे सुशोभित ये जलधर मेघ जलका अधिक भार ढोते और गर्जते हुए बड़े-बड़े पर्वतशिखरोंपर मानो विश्राम ले-लेकर आगे बढ़ते हैं ॥ २२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेघाभिकामा परिसम्पतन्ती
सम्मोदिता भाति बलाकपङ्क्तिः ।
वातावधूता वरपौण्डरीकी
लम्बेव माला रुचिराम्बरस्य ॥ २३ ॥

मूलम्

मेघाभिकामा परिसम्पतन्ती
सम्मोदिता भाति बलाकपङ्क्तिः ।
वातावधूता वरपौण्डरीकी
लम्बेव माला रुचिराम्बरस्य ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘गर्भ धारणके लिये मेघोंकी कामना रखकर आकाशमें उड़ती हुई आनन्दमग्न बलाकाओंकी पंक्ति ऐसी जान पड़ती है, मानो आकाशके गलेमें हवासे हिलती हुई श्वेत कमलोंकी सुन्दर माला लटक रही हो ॥ २३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बालेन्द्रगोपान्तरचित्रितेन
विभाति भूमिर्नवशाद्वलेन ।
गात्रानुपृक्तेन शुकप्रभेण
नारीव लाक्षोक्षितकम्बलेन ॥ २४ ॥

मूलम्

बालेन्द्रगोपान्तरचित्रितेन
विभाति भूमिर्नवशाद्वलेन ।
गात्रानुपृक्तेन शुकप्रभेण
नारीव लाक्षोक्षितकम्बलेन ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘छोटे-छोटे इन्द्रगोप (वीरबहूटी) नामक कीड़ोंसे बीच-बीचमें चित्रित हुई नूतन घाससे आच्छादित भूमि उस नारीके समान शोभा पाती है, जिसने अपने अङ्गोंपर तोतेके समान रंगवाला एक ऐसा कम्बल ओढ रखा हो, जिसको बीच-बीचमें महावरके रंगसे रँगकर विचित्र शोभासे सम्पन्न कर दिया गया हो ॥ २४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निद्रा शनैः केशवमभ्युपैति
द्रुतं नदी सागरमभ्युपैति ।
हृष्टा बलाका घनमभ्युपैति
कान्ता सकामा प्रियमभ्युपैति ॥ २५ ॥

मूलम्

निद्रा शनैः केशवमभ्युपैति
द्रुतं नदी सागरमभ्युपैति ।
हृष्टा बलाका घनमभ्युपैति
कान्ता सकामा प्रियमभ्युपैति ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘चौमासेके इस आरम्भकालमें निद्रा धीरे-धीरे भगवान् केशवके समीप जा रही है । नदी तीव्र वेगसे समुद्रके निकट पहुँच रही है । हर्षभरी बलाका उड़कर मेघकी ओर जा रही है और प्रियतमा सकामभावसे अपने प्रियतमकी सेवामें उपस्थित हो रही है ॥ २५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जाता वनान्ताः शिखिसुप्रनृत्ता
जाताः कदम्बाः सकदम्बशाखाः ।
जाता वृषा गोषु समानकामा
जाता मही सस्यवनाभिरामा ॥ २६ ॥

मूलम्

जाता वनान्ताः शिखिसुप्रनृत्ता
जाताः कदम्बाः सकदम्बशाखाः ।
जाता वृषा गोषु समानकामा
जाता मही सस्यवनाभिरामा ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वनप्रान्त मोरोंके सुन्दर नृत्यसे सुशोभित हो गये हैं । कदम्बवृक्ष फूलों और शाखाओंसे सम्पन्न हो गये हैं । साँड़ गौओंके प्रति उन्हींके समान कामभावसे आसक्त हैं और पृथ्वी हरी-हरी खेती तथा हरे-भरे वनोंसे अत्यन्त रमणीय प्रतीत होने लगी है ॥ २६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वहन्ति वर्षन्ति नदन्ति भान्ति
ध्यायन्ति नृत्यन्ति समाश्वसन्ति ।
नद्यो घना मत्तगजा वनान्ताः
प्रियाविहीनाः शिखिनः प्लवङ्गमाः ॥ २७ ॥

मूलम्

वहन्ति वर्षन्ति नदन्ति भान्ति
ध्यायन्ति नृत्यन्ति समाश्वसन्ति ।
नद्यो घना मत्तगजा वनान्ताः
प्रियाविहीनाः शिखिनः प्लवङ्गमाः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नदियाँ बह रही हैं, बादल पानी बरसा रहे हैं, मतवाले हाथी चिग्घाड़ रहे हैं, वनप्रान्त शोभा पा रहे हैं, प्रियतमाके संयोगसे वञ्चित हुए वियोगी प्राणी चिन्तामग्न हो रहे हैं, मोर नाच रहे हैं और वानर निश्चिन्त एवं सुखी हो रहे हैं ॥ २७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रहर्षिताः केतकिपुष्पगन्ध-
माघ्राय मत्ता वननिर्झरेषु ।
प्रपातशब्दाकुलिता गजेन्द्राः
सार्धं मयूरैः समदा नदन्ति ॥ २८ ॥

मूलम्

प्रहर्षिताः केतकिपुष्पगन्ध-
माघ्राय मत्ता वननिर्झरेषु ।
प्रपातशब्दाकुलिता गजेन्द्राः
सार्धं मयूरैः समदा नदन्ति ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वनके झरनोंके समीप क्रीडासे उल्लसित हुए मदवर्षी गजराज केवड़ेके फूलकी सुगन्धको सूँघकर मतवाले हो उठे हैं और झरनेके जलके गिरनेसे जो शब्द होता है, उससे आकुल हो ये मोरोंके बोलनेके साथ-साथ स्वयं भी गर्जना करते हैं ॥ २८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धारानिपातैरभिहन्यमानाः
कदम्बशाखासु विलम्बमानाः ।
क्षणार्जितं पुष्परसावगाढं
शनैर्मदं षट्चरणास्त्यजन्ति ॥ २९ ॥

मूलम्

धारानिपातैरभिहन्यमानाः
कदम्बशाखासु विलम्बमानाः ।
क्षणार्जितं पुष्परसावगाढं
शनैर्मदं षट्चरणास्त्यजन्ति ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जलकी धारा गिरनेसे आहत होते और कदम्बकी डालियोंपर लटकते हुए भ्रमर तत्काल ग्रहण किये पुष्परससे उत्पन्न गाढ़ मदको धीरे-धीरे त्याग रहे हैं ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अङ्गारचूर्णोत्करसन्निकाशैः
फलैः सुपर्याप्तरसैः समृद्धैः ।
जम्बूद्रुमाणां प्रविभान्ति शाखा
निपीयमाना इव षट्पदौघैः ॥ ३० ॥

मूलम्

अङ्गारचूर्णोत्करसन्निकाशैः
फलैः सुपर्याप्तरसैः समृद्धैः ।
जम्बूद्रुमाणां प्रविभान्ति शाखा
निपीयमाना इव षट्पदौघैः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कोयलोंकी चूर्णराशिके समान काले और प्रचुर रससे भरे हुए बड़े-बड़े फलोंसे लदी हुई जामुन-वृक्षकी शाखाएँ ऐसी जान पड़ती हैं, मानो भ्रमरोंके समुदाय उनमें सटकर उनके रस पी रहे हैं ॥ ३० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तडित्पताकाभिरलङ्कृताना-
मुदीर्णगम्भीरमहारवाणाम् ।
विभान्ति रूपाणि बलाहकानां
रणोत्सुकानामिव वारणानाम् ॥ ३१ ॥

मूलम्

तडित्पताकाभिरलङ्कृताना-
मुदीर्णगम्भीरमहारवाणाम् ।
विभान्ति रूपाणि बलाहकानां
रणोत्सुकानामिव वारणानाम् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘विद्युत्-रूपी पताकाओंसे अलंकृत एवं जोर-जोरसे गम्भीर गर्जना करनेवाले इन बादलोंके रूपयुद्धके लिये उत्सुक हुए गजराजोंके समान प्रतीत होते हैं ॥ ३१ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मार्गानुगः शैलवनानुसारी
सम्प्रस्थितो मेघरवं निशम्य ।
युद्धाभिकामः प्रतिनादशङ्की
मत्तो गजेन्द्रः प्रतिसन्निवृत्तः ॥ ३२ ॥

मूलम्

मार्गानुगः शैलवनानुसारी
सम्प्रस्थितो मेघरवं निशम्य ।
युद्धाभिकामः प्रतिनादशङ्की
मत्तो गजेन्द्रः प्रतिसन्निवृत्तः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पर्वतीय वनोंमें विचरण करनेवाला तथा अपने प्रतिद्वन्द्वीके साथ युद्धकी इच्छा रखनेवाला मदमत्त गजराज, जो अपने मार्गका अनुसरण करके आगे बढ़ा जा रहा था, पीछेसे मेघकी गर्जना सुनकर प्रतिपक्षी हाथीके गर्जनेकी आशङ्का करके सहसा पीछेको लौट पड़ा ॥ ३२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्वचित् प्रगीता इव षट्पदौघैः
क्वचित् प्रनृत्ता इव नीलकण्ठैः ।
क्वचित् प्रमत्ता इव वारणेन्द्रै-
र्विभान्त्यनेकाश्रयिणो वनान्ताः ॥ ३३ ॥

मूलम्

क्वचित् प्रगीता इव षट्पदौघैः
क्वचित् प्रनृत्ता इव नीलकण्ठैः ।
क्वचित् प्रमत्ता इव वारणेन्द्रै-
र्विभान्त्यनेकाश्रयिणो वनान्ताः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कहीं भ्रमरोंके समूह गीत गा रहे हैं, कहीं मोर नाच रहे हैं और कहीं गजराज मदमत्त होकर विचर रहे हैं । इस प्रकार ये वनप्रान्त अनेक भावोंके आश्रय बनकर शोभा पा रहे हैं ॥ ३३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कदम्बसर्जार्जुनकन्दलाढ्या
वनान्तभूमिर्मधुवारिपूर्णा ।
मयूरमत्ताभिरुतप्रनृत्तै-
रापानभूमिप्रतिमा विभाति ॥ ३४ ॥

मूलम्

कदम्बसर्जार्जुनकन्दलाढ्या
वनान्तभूमिर्मधुवारिपूर्णा ।
मयूरमत्ताभिरुतप्रनृत्तै-
रापानभूमिप्रतिमा विभाति ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कदम्ब, सर्ज, अर्जुन और स्थल-कमलसे सम्पन्न वनके भीतरकी भूमि मधु-जलसे परिपूर्ण हो मोरोंके मदयुक्त कलरवों और नृत्योंसे उपलक्षित होकर आपानभूमि (मधुशाला) के समान प्रतीत होती है ॥ ३४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुक्तासमाभं सलिलं पतद् वै
सुनिर्मलं पत्रपुटेषु लग्नम् ।
हृष्टा विवर्णच्छदना विहङ्गाः
सुरेन्द्रदत्तं तृषिताः पिबन्ति ॥ ३५ ॥

मूलम्

मुक्तासमाभं सलिलं पतद् वै
सुनिर्मलं पत्रपुटेषु लग्नम् ।
हृष्टा विवर्णच्छदना विहङ्गाः
सुरेन्द्रदत्तं तृषिताः पिबन्ति ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आकाशसे गिरता हुआ मोतीके समान स्वच्छ एवं निर्मल जल पत्तोंके दोनोंमें संचित हुआ देख प्यासे पक्षी पपीहे हर्षसे भरकर देवराज इन्द्रके दिये हुए उस जलको पीते हैं । वर्षासे भीग जानेके कारण उनकी पाँखें विविध रंगकी दिखायी देती हैं ॥ ३५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

षट्-पाद-तन्त्री-मधुराभिधानं
+++(मण्डूक→)+++प्लवं-गमोदीरित-कण्ठ-तालम् ।
आविष्कृतं मेघ-मृदङ्ग-नादैर्
वनेषु सङ्गीतम् इव प्रवृत्तम् ॥ ३६ ॥+++(4)+++

मानसतरङ्गिणीकृत्

The sweet sounds of the six-legged string musicians, the frogs+++(5)+++ croaking the rhythms with their throats, revealed through the मृदङ्ग of the clouds,
It is as if an orchestra has commenced in the forest.

मूलम्

षट्पादतन्त्रीमधुराभिधानं
प्लवङ्गमोदीरितकण्ठतालम् ।
आविष्कृतं मेघमृदङ्गनादै-
र्वनेषु सङ्गीतमिव प्रवृत्तम् ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भ्रमररूप वीणाकी मधुर झंकार हो रही है । मेढकोंकी आवाज कण्ठताल-सी जान पड़ती है । मेघोंकी गर्जनाके रूपमें मृदङ्ग बज रहे हैं । इस प्रकार वनोंमें संगीतोत्सवका आरम्भ-सा हो रहा है ॥ ३६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्वचित् प्रनृत्तैः क्वचिदुन्नदद्भिः
क्वचिच्च वृक्षाग्रनिषण्णकायैः ।
व्यालम्बबर्हाभरणैर्मयूरै-
र्वनेषु सङ्गीतमिव प्रवृत्तम् ॥ ३७ ॥

मूलम्

क्वचित् प्रनृत्तैः क्वचिदुन्नदद्भिः
क्वचिच्च वृक्षाग्रनिषण्णकायैः ।
व्यालम्बबर्हाभरणैर्मयूरै-
र्वनेषु सङ्गीतमिव प्रवृत्तम् ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘विशाल पंखरूपी आभूषणोंसे विभूषित मोर वनोंमें कहीं नाच रहे हैं, कहीं जोर-जोरसे मीठी बोली बोल रहे हैं और कहीं वृक्षोंकी शाखाओंपर अपने सारे शरीरका बोझ डालकर बैठे हुए हैं । इस प्रकार उन्होंने संगीत (नाच-गान) का आयोजन-सा कर रखा है ॥ ३७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वनैर् घनानां प्लवगाः+++(=मण्डूकाः)+++ प्रबुद्धा,
विहाय निद्रां चिर-सन्निरुद्धाम् ।
अनेक-रूपाकृति-वर्ण-नादा
नवाम्बु-धाराभिहता नदन्ति ॥ ३८ ॥

मानसतरङ्गिणीकृत्

By the sounds of the dense clouds, the frogs are awakened, casting off the confinement of their long hibernation, of many sizes, shapes, colors & calls, struck by the fresh [monsoonal] streams the resound.

मानसतरङ्गिणीकृत् - टिप्पनी

Thus, we can see vAlmIki himself uses frog similes/metaphors. The second triShTubh hearkens to the long hibernation also mentioned by vasiShTha maitrAvaruNi in the shruti (aMvatsaraM shashayAnA |).

मूलम्

स्वनैर्घनानां प्लवगाः प्रबुद्धा
विहाय निद्रां चिरसन्निरुद्धाम् ।
अनेकरूपाकृतिवर्णनादा
नवाम्बुधाराभिहता नदन्ति ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेघोंकी गर्जना सुनकर चिरकालसे रोकी हुई निद्राको त्यागकर जागे हुए अनेक प्रकारके रूप, आकार, वर्ण और बोलीवाले मेढक नूतन जलकी धारासे अभिहत होकर जोर-जोरसे बोल रहे हैं ॥ ३८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नद्यः समुद्वाहितचक्रवाका-
स्तटानि शीर्णान्यपवाहयित्वा ।
दृप्ता नवप्रावृतपूर्णभोगा-
दृतं स्वभर्तारमुपोपयान्ति ॥ ३९ ॥

मूलम्

नद्यः समुद्वाहितचक्रवाका-
स्तटानि शीर्णान्यपवाहयित्वा ।
दृप्ता नवप्रावृतपूर्णभोगा-
दृतं स्वभर्तारमुपोपयान्ति ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(कामातुर युवतियोंकी भाँति) दर्पभरी नदियाँ अपने वक्षपर (उरोजोंके स्थानमें) चक्रवाकोंको वहन करती हैं और मर्यादामें रखनेवाले जीर्ण-शीर्ण कूलकगारोंको तोड़-फोड़ एवं दूर बहाकर नूतन पुष्प आदिके उपहारसे पूर्ण भोगके लिये सादर स्वीकृत अपने स्वामी समुद्रके समीप वेगपूर्वक चली जा रही हैं ॥ ३९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नीलेषु नीला नववारिपूर्णा
मेघेषु मेघाः प्रतिभान्ति सक्ताः ।
दवाग्निदग्धेषु दवाग्निदग्धाः
शैलेषु शैला इव बद्धमूलाः ॥ ४० ॥

मूलम्

नीलेषु नीला नववारिपूर्णा
मेघेषु मेघाः प्रतिभान्ति सक्ताः ।
दवाग्निदग्धेषु दवाग्निदग्धाः
शैलेषु शैला इव बद्धमूलाः ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नीले मेघोंमें सटे हुए नूतन जलसे परिपूर्ण नील मेघ ऐसे प्रतीत होते हैं, मानो दावानलसे जले हुए पर्वतोंमें दावानलसे दग्ध हुए दूसरे पर्वत बद्धमूल होकर सट गये हों ॥ ४० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रमत्तसन्नादितबर्हिणानि
सशक्रगोपाकुलशाद्वलानि ।
चरन्ति नीपार्जुनवासितानि
गजाः सुरम्याणि वनान्तराणि ॥ ४१ ॥

मूलम्

प्रमत्तसन्नादितबर्हिणानि
सशक्रगोपाकुलशाद्वलानि ।
चरन्ति नीपार्जुनवासितानि
गजाः सुरम्याणि वनान्तराणि ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जहाँ मतवाले मोर कलनाद कर रहे हैं, जहाँकी हरी-हरी घासें वीरबहूटियोंके समुदायसे व्याप्त हो रही हैं तथा जो नीप और अर्जुन-वृक्षोंके फूलोंकी सुगन्धसे सुवासित हैं, उन परम रमणीय वनप्रान्तोंमें बहुत-से हाथी विचरा करते हैं ॥ ४१ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नवाम्बुधाराहतकेसराणि
द्रुतं परित्यज्य सरोरुहाणि ।
कदम्बपुष्पाणि सकेसराणि
नवानि हृष्टा भ्रमराः पिबन्ति ॥ ४२ ॥

मूलम्

नवाम्बुधाराहतकेसराणि
द्रुतं परित्यज्य सरोरुहाणि ।
कदम्बपुष्पाणि सकेसराणि
नवानि हृष्टा भ्रमराः पिबन्ति ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भ्रमरोंके समुदाय नूतन जलकी धारासे नष्ट हुए केसरवाले कमल-पुष्पोंको तुरंत त्यागकर केसर-शोभित नवीन कदम्ब-पुष्पोंका रस बड़े हर्षके साथ पी रहे हैं ॥ ४२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मत्ता गजेन्द्रा मुदिता गवेन्द्रा
वनेषु विक्रान्ततरा मृगेन्द्राः ।
रम्या नगेन्द्राः निभृता नरेन्द्राः
प्रक्रीडितो वारिधरैः सुरेन्द्रः ॥ ४३ ॥

मूलम्

मत्ता गजेन्द्रा मुदिता गवेन्द्रा
वनेषु विक्रान्ततरा मृगेन्द्राः ।
रम्या नगेन्द्राः निभृता नरेन्द्राः
प्रक्रीडितो वारिधरैः सुरेन्द्रः ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘गजेन्द्र (हाथी) मतवाले हो रहे हैं । गवेन्द्र (वृषभ) आनन्दमें मग्न हैं, मृगेन्द्र (सिंह) वनोंमें अत्यन्त पराक्रम प्रकट करते हैं, नगेन्द्र (बड़े-बड़े पर्वत) रमणीय दिखायी देते हैं, नरेन्द्र (राजालोग) मौन हैं—युद्धविषयक उत्साह छोड़ बैठे हैं और सुरेन्द्र (इन्द्रदेव) जलधरोंके साथ क्रीडा कर रहे हैं ॥ ४३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेघाः समुद्भूतसमुद्रनादा
महाजलौघैर्गगनावलम्बाः ।
नदीस्तटाकानि सरांसि वापी-
र्महीं च कृत्स्नामपवाहयन्ति ॥ ४४ ॥

मूलम्

मेघाः समुद्भूतसमुद्रनादा
महाजलौघैर्गगनावलम्बाः ।
नदीस्तटाकानि सरांसि वापी-
र्महीं च कृत्स्नामपवाहयन्ति ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आकाशमें लटके हुए ये मेघ अपनी गर्जनासे समुद्रके कोलाहलको तिरस्कृत करके अपने जलके महान् प्रवाहसे नदी, तालाब, सरोवर, बावली तथा समूची पृथ्वीको आप्लावित कर रहे हैं ॥ ४४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वर्षप्रवेगा विपुलाः पतन्ति
प्रवान्ति वाताः समुदीर्णवेगाः ।
प्रणष्टकूलाः प्रवहन्ति शीघ्रं
नद्यो जलं विप्रतिपन्नमार्गाः ॥ ४५ ॥

मूलम्

वर्षप्रवेगा विपुलाः पतन्ति
प्रवान्ति वाताः समुदीर्णवेगाः ।
प्रणष्टकूलाः प्रवहन्ति शीघ्रं
नद्यो जलं विप्रतिपन्नमार्गाः ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बड़े वेगसे वर्षा हो रही है, जोरोंकी हवा चल रही है और नदियाँ अपने कगारोंको काटकर अत्यन्त तीव्र गतिसे जल बहा रही हैं । उन्होंने मार्ग रोक दिये हैं ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नरैर्नरेन्द्रा इव पर्वतेन्द्राः
सुरेन्द्रदत्तैः पवनोपनीतैः ।
घनाम्बुकुम्भैरभिषिच्यमाना
रूपं श्रियं स्वामिव दर्शयन्ति ॥ ४६ ॥

मूलम्

नरैर्नरेन्द्रा इव पर्वतेन्द्राः
सुरेन्द्रदत्तैः पवनोपनीतैः ।
घनाम्बुकुम्भैरभिषिच्यमाना
रूपं श्रियं स्वामिव दर्शयन्ति ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जैसे मनुष्य जलके कलशोंसे नरेशोंका अभिषेक करते हैं, उसी प्रकार इन्द्रके दिये और वायुदेवके द्वारा लाये गये मेघरूपी जल-कलशोंसे जिनका अभिषेक हो रहा है, वे पर्वतराज अपने निर्मल रूप तथा शोभा सम्पत्तिका दर्शन-सा करा रहे हैं ॥ ४६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

घनोपगूढं गगनं न तारा
न भास्करो दर्शनमभ्युपैति ।
नवैर्जलौघैर्धरणी वितृप्ता
तमोविलिप्ता न दिशः प्रकाशाः ॥ ४७ ॥

मूलम्

घनोपगूढं गगनं न तारा
न भास्करो दर्शनमभ्युपैति ।
नवैर्जलौघैर्धरणी वितृप्ता
तमोविलिप्ता न दिशः प्रकाशाः ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेघोंकी घटासे समस्त आकाश आच्छादित हो गया है । न रातमें तारे दिखायी देते हैं, न दिनमें सूर्य । नूतन जलराशि पाकर पृथ्वी पूर्ण तृप्त हो गयी है । दिशाएँ अन्धकारसे आच्छन्न हो रही हैं, अतएव प्रकाशित नहीं होती हैं—उनका स्पष्ट ज्ञान नहीं हो पाता है ॥ ४७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महान्ति कूटानि महीधराणां
धाराविधौतान्यधिकं विभान्ति ।
महाप्रमाणैर्विपुलैः प्रपातै-
र्मुक्ताकलापैरिव लम्बमानैः ॥ ४८ ॥

मूलम्

महान्ति कूटानि महीधराणां
धाराविधौतान्यधिकं विभान्ति ।
महाप्रमाणैर्विपुलैः प्रपातै-
र्मुक्ताकलापैरिव लम्बमानैः ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जलकी धाराओंसे घुले हुए पर्वतोंके विशाल शिखर मोतियोंके लटकते हुए हारोंकी भाँति एवं बहुसंख्यक झरनोंके कारण अधिक शोभा पाते हैं ॥ ४८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शैलोपलप्रस्खलमानवेगाः
शैलोत्तमानां विपुलाः प्रपाताः ।
गुहासु सन्नादितबर्हिणासु
हारा विकीर्यन्त इवावभान्ति ॥ ४९ ॥

मूलम्

शैलोपलप्रस्खलमानवेगाः
शैलोत्तमानां विपुलाः प्रपाताः ।
गुहासु सन्नादितबर्हिणासु
हारा विकीर्यन्त इवावभान्ति ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पर्वतीय प्रस्तरखण्डोंपर गिरनेसे जिनका वेग टूट गया है, वे श्रेष्ठ पर्वतोंके बहुतेरे झरने मयूरोंकी बोलीसे गूँजती हुई गुफाओंमें टूटकर बिखरते हुए मोतियोंके हारोंके समान प्रतीत होते हैं ॥ ४९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शीघ्रप्रवेगा विपुलाः प्रपाता
निर्धौतशृङ्गोपतला गिरीणाम् ।
मुक्ताकलापप्रतिमाः पतन्तो
महागुहोत्सङ्गतलैर्ध्रियन्ते ॥ ५० ॥

मूलम्

शीघ्रप्रवेगा विपुलाः प्रपाता
निर्धौतशृङ्गोपतला गिरीणाम् ।
मुक्ताकलापप्रतिमाः पतन्तो
महागुहोत्सङ्गतलैर्ध्रियन्ते ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिनके वेग शीघ्रगामी हैं, जिनकी संख्या अधिक है, जिन्होंने पर्वतीय शिखरोंके निम्न प्रदेशोंको धोकर स्वच्छ बना दिया है तथा जो देखनेमें मुक्तामालाओंके समान प्रतीत होते हैं, पर्वतोंके उन झरते हुए झरनोंको बड़ी-बड़ी गुफाएँ अपनी गोदमें धारण कर लेती हैं ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुरतामर्दविच्छिन्नाः स्वर्गस्त्रीहारमौक्तिकाः ।
पतन्ति चातुला दिक्षु तोयधाराः समन्ततः ॥ ५१ ॥

मूलम्

सुरतामर्दविच्छिन्नाः
स्वर्ग-स्त्री-हार-मौक्तिकाः ।
पतन्ति चातुला दिक्षु
तोयधाराः समन्ततः ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सुरत-क्रीडाके समय होनेवाले अङ्गोंके आमर्दनसे टूटे हुए देवाङ्गनाओंके मौक्तिक हारोंके समान प्रतीत होनेवाली जलकी अनुपम धाराएँ सम्पूर्ण दिशाओंमें सब ओर गिर रही हैं ॥ ५१ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विलीयमानैर्विहगैर्निमीलद्भिश्च पङ्कजैः ।
विकसन्त्या च मालत्या गतोऽस्तं ज्ञायते रविः ॥ ५२ ॥

मूलम्

विलीयमानैर्विहगैर्निमीलद्भिश्च पङ्कजैः ।
विकसन्त्या च मालत्या गतोऽस्तं ज्ञायते रविः ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पक्षी अपने घोसलोंमें छिप रहे हैं, कमल संकुचित हो रहे हैं और मालती खिलने लगी है; इससे जान पड़ता है कि सूर्यदेव अस्त हो गये ॥ ५२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

+++(यद्)+++ वृत्ता यात्रा नरेन्द्राणां,
+++(तत्र तत्र)+++ सेना पथ्येव वर्तते ।
वैराणि चैव मार्गाश् च
सलिलेन समीकृताः ॥ ५३ ॥ +++(4)+++

मूलम्

वृत्ता यात्रा नरेन्द्राणां सेना पथ्येव वर्तते ।
वैराणि चैव मार्गाश्च सलिलेन समीकृताः ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजाओंकी युद्ध-यात्रा रुक गयी । प्रस्थित हुई सेना भी रास्तेमें ही पड़ाव डाले पड़ी है । वर्षाके जलने राजाओंके वैर शान्त कर दिये हैं और मार्ग भी रोक दिये हैं । इस प्रकार वैर और मार्ग दोनोंकी एक-सी अवस्था कर दी है ॥ ५३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मासि प्रौष्ठपदे ब्रह्म
ब्राह्मणानां विवक्षताम् ।
अयम् अध्याय-समयः
सामगानाम् उपस्थितः ॥ ५४ ॥

मानसतरङ्गिणीकृत्

In the month of prauShTapada there is recitation of the mantra of the v1s. At this time of study the sAman songs are presented.

विश्वास-टिप्पनी

कुतः प्रौष्ठपद उच्यते?? यदा दक्षिणायनारम्भः, वर्षाकालः, वेदाध्ययनोपाकर्म च पुरा ऽसीद् युगपत्, प्रौष्ठपदासु तु तन्नासीत् ३५०० BCE तः परम् …

मूलम्

मासि प्रौष्ठपदे ब्रह्म ब्राह्मणानां विवक्षताम् ।
अयमध्यायसमयः सामगानामुपस्थितः ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भादोंका महीना आ गया । यह वेदोंके स्वाध्यायकी इच्छा रखनेवाले ब्राह्मणोंके लिये उपाकर्मका समय उपस्थित हुआ है । सामगान करनेवाले विद्वानोंके स्वाध्यायका भी यही समय है ॥ ५४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निवृत्तकर्मायतनो नूनं सञ्चितसञ्चयः ।
आषाढीमभ्युपगतो भरतः कोसलाधिपः ॥ ५५ ॥

मूलम्

निवृत्तकर्मायतनो नूनं सञ्चितसञ्चयः ।
आषाढीमभ्युपगतो भरतः कोसलाधिपः ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कोसलदेशके राजा भरतने चार महीनेके लिये आवश्यक वस्तुओंका संग्रह करके गत आषाढकी पूर्णिमाको निश्चय ही किसी उत्तम व्रतकी दीक्षा ली होगी ॥ ५५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नूनमापूर्यमाणायाः सरय्वा वर्धते रयः ।
मां समीक्ष्य समायान्तमयोध्याया इव स्वनः ॥ ५६ ॥

मूलम्

नूनमापूर्यमाणायाः सरय्वा वर्धते रयः ।
मां समीक्ष्य समायान्तमयोध्याया इव स्वनः ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मुझे वनकी ओर आते देख जिस प्रकार अयोध्यापुरीके लोगोंका आर्तनाद बढ़ गया था, उसी प्रकार इस समय वर्षाके जलसे परिपूर्ण होती हुई सरयू नदीका वेग अवश्य ही बढ़ रहा होगा ॥ ५६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमाः स्फीतगुणा वर्षाः सुग्रीवः सुखमश्नुते ।
विजितारिः सदारश्च राज्ये महति च स्थितः ॥ ५७ ॥

मूलम्

इमाः स्फीतगुणा वर्षाः सुग्रीवः सुखमश्नुते ।
विजितारिः सदारश्च राज्ये महति च स्थितः ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यह वर्षा अनेक गुणोंसे सम्पन्न है । इस समय सुग्रीव अपने शत्रुको परास्त करके विशाल वानर-राज्यपर प्रतिष्ठित हैं और अपनी स्त्रीके साथ रहकर सुख भोग रहे हैं ॥ ५७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं तु हृतदारश्च राज्याच्च महतश्च्युतः ।
नदीकूलमिव क्लिन्नमवसीदामि लक्ष्मण ॥ ५८ ॥

मूलम्

अहं तु हृतदारश्च राज्याच्च महतश्च्युतः ।
नदीकूलमिव क्लिन्नमवसीदामि लक्ष्मण ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘किंतु लक्ष्मण! मैं अपने महान् राज्यसे तो भ्रष्ट हो ही गया हूँ, मेरी स्त्री भी हर ली गयी है; इसलिये पानीसे गले हुए नदीके तटकी भाँति कष्ट पा रहा हूँ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शोकश्च मम विस्तीर्णो वर्षाश्च भृशदुर्गमाः ।
रावणश्च महाञ्छत्रुरपारः प्रतिभाति मे ॥ ५९ ॥

मूलम्

शोकश्च मम विस्तीर्णो वर्षाश्च भृशदुर्गमाः ।
रावणश्च महाञ्छत्रुरपारः प्रतिभाति मे ॥ ५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेरा शोक बढ़ गया है । मेरे लिये वर्षाके दिनोंको बिताना अत्यन्त कठिन हो गया है और मेरा महान् शत्रु रावण भी मुझे अजेय-सा प्रतीत होता है ॥ ५९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयात्रां चैव दृष्ट्वेमां मार्गांश्च भृशदुर्गमान् ।
प्रणते चैव सुग्रीवे न मया किञ्चिदीरितम् ॥ ६० ॥

मूलम्

अयात्रां चैव दृष्ट्वेमां मार्गांश्च भृशदुर्गमान् ।
प्रणते चैव सुग्रीवे न मया किञ्चिदीरितम् ॥ ६० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘एक तो यह यात्राका समय नहीं है, दूसरे मार्ग भी अत्यन्त दुर्गम है । इसलिये सुग्रीवके नतमस्तक होनेपर भी मैंने उनसे कुछ कहा नहीं है ॥ ६० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपि चापि परिक्लिष्टं चिराद् दारैः समागतम् ।
आत्मकार्यगरीयस्त्वाद् वक्तुं नेच्छामि वानरम् ॥ ६१ ॥

मूलम्

अपि चापि परिक्लिष्टं चिराद् दारैः समागतम् ।
आत्मकार्यगरीयस्त्वाद् वक्तुं नेच्छामि वानरम् ॥ ६१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वानर सुग्रीव बहुत दिनोंसे कष्ट भोगते थे और दीर्घकालके पश्चात् अब अपनी पत्नीसे मिले हैं । इधर मेरा कार्य बड़ा भारी है (थोड़े दिनोंमें सिद्ध होनेवाला नहीं है); इसलिये मैं इस समय उससे कुछ कहना नहीं चाहता हूँ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वयमेव हि विश्रम्य ज्ञात्वा कालमुपागतम् ।
उपकारं च सुग्रीवो वेत्स्यते नात्र संशयः ॥ ६२ ॥

मूलम्

स्वयमेव हि विश्रम्य ज्ञात्वा कालमुपागतम् ।
उपकारं च सुग्रीवो वेत्स्यते नात्र संशयः ॥ ६२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुछ दिनोंतक विश्राम करके उपयुक्त समय आया हुआ जान वे स्वयं ही मेरे उपकारको समझेंगे; इसमें संशय नहीं है ॥ ६२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात् कालप्रतीक्षोऽहं स्थितोऽस्मि शुभलक्षण ।
सुग्रीवस्य नदीनां च प्रसादमभिकाङ्क्षयन् ॥ ६३ ॥

मूलम्

तस्मात् कालप्रतीक्षोऽहं स्थितोऽस्मि शुभलक्षण ।
सुग्रीवस्य नदीनां च प्रसादमभिकाङ्क्षयन् ॥ ६३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अतः शुभलक्षण लक्ष्मण! मैं सुग्रीवकी प्रसन्नता और नदियोंके जलकी स्वच्छता चाहता हुआ शरत्कालकी प्रतीक्षामें चुपचाप बैठा हुआ हूँ ॥ ६३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपकारेण वीरो हि प्रतीकारेण युज्यते ।
अकृतज्ञोऽप्रतिकृतो हन्ति सत्त्ववतां मनः ॥ ६४ ॥

मूलम्

उपकारेण वीरो हि प्रतीकारेण युज्यते ।
अकृतज्ञोऽप्रतिकृतो हन्ति सत्त्ववतां मनः ॥ ६४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो वीर पुरुष किसीके उपकारसे उपकृत होता है, वह प्रत्युपकार करके उसका बदला अवश्य चुकाता है; किंतु यदि कोई उपकारको न मानकर या भुलाकर प्रत्युपकारसे मुँह मोड़ लेता है, वह शक्तिशाली श्रेष्ठ पुरुषोंके मनको ठेस पहुँचाता है’ ॥ ६४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथैवमुक्तः प्रणिधाय लक्ष्मणः
कृताञ्जलिस्तत् प्रतिपूज्य भाषितम् ।
उवाच रामं स्वभिरामदर्शनं
प्रदर्शयन् दर्शनमात्मनः शुभम् ॥ ६५ ॥

मूलम्

अथैवमुक्तः प्रणिधाय लक्ष्मणः
कृताञ्जलिस्तत् प्रतिपूज्य भाषितम् ।
उवाच रामं स्वभिरामदर्शनं
प्रदर्शयन् दर्शनमात्मनः शुभम् ॥ ६५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीके ऐसा कहनेपर लक्ष्मणने सोच-विचारकर उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की और दोनों हाथ जोड़कर अपनी शुभ दृष्टिका परिचय देते हुए वे नयनाभिराम श्रीरामसे इस प्रकार बोले ॥ ६५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदुक्तमेतत् तव सर्वमीप्सितं
नरेन्द्र कर्ता नचिराद्धरीश्वरः ।
शरत्प्रतीक्षः क्षमतामिमं भवान्
जलप्रपातं रिपुनिग्रहे धृतः ॥ ६६ ॥

मूलम्

यदुक्तमेतत् तव सर्वमीप्सितं
नरेन्द्र कर्ता नचिराद्धरीश्वरः ।
शरत्प्रतीक्षः क्षमतामिमं भवान्
जलप्रपातं रिपुनिग्रहे धृतः ॥ ६६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नरेश्वर! जैसा कि आपने कहा है, वानरराज सुग्रीव शीघ्र ही आपका यह सारा मनोरथ सिद्ध करेंगे । अतः आप शत्रुके संहार करनेका दृढ़ निश्चय लिये शरत्कालकी प्रतीक्षा कीजिये और इस वर्षाकालके विलम्बको सहन कीजिये’ ॥

समाप्तिः

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डेऽष्टाविंशः सर्गः ॥ २८ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके किष्किन्धाकाण्डमें अट्ठाईसवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ २८ ॥