०२७ रामेण प्रस्रवणगिरिनिवासः

वाचनम्
भागसूचना
  1. प्रस्रवणगिरिपर श्रीराम और लक्ष्मणकी परस्पर बातचीत
विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिषिक्ते तु सुग्रीवे प्रविष्टे वानरे गुहाम् ।
आजगाम सह भ्रात्रा रामः प्रस्रवणं गिरिम् ॥ १ ॥

मूलम्

अभिषिक्ते तु सुग्रीवे प्रविष्टे वानरे गुहाम् ।
आजगाम सह भ्रात्रा रामः प्रस्रवणं गिरिम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब वानर सुग्रीवका राज्याभिषेक हो गया और वे किष्किन्धामें जाकर रहने लगे, उस समय अपने भाई लक्ष्मणके साथ श्रीरामजी प्रस्रवणगिरिपर चले गये ॥ १ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शार्दूलमृगसङ्घुष्टं सिंहैर्भीमरवैर्वृतम् ।
नानागुल्मलतागूढं बहुपादपसङ्कुलम् ॥ २ ॥

मूलम्

शार्दूलमृगसङ्घुष्टं सिंहैर्भीमरवैर्वृतम् ।
नानागुल्मलतागूढं बहुपादपसङ्कुलम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ चीतों और मृगोंकी आवाज गूँजती रहती थी । भयंकर गर्जना करनेवाले सिंहोंसे वह स्थान भरा था । नाना प्रकारकी झाड़ियाँ और लताएँ उस पर्वतको आच्छादित किये हुए थीं और घने वृक्षोंके द्वारा वह सब ओरसे व्याप्त था ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋक्षवानरगोपुच्छैर्मार्जारैश्च निषेवितम् ।
मेघराशिनिभं शैलं नित्यं शुचिकरं शिवम् ॥ ३ ॥

मूलम्

ऋक्षवानरगोपुच्छैर्मार्जारैश्च निषेवितम् ।
मेघराशिनिभं शैलं नित्यं शुचिकरं शिवम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रीछ, वानर, लंगूर और बिलाव आदि जन्तु वहाँ निवास करते थे । वह पर्वत मेघोंके समूह-सा जान पड़ता था । दर्शन करनेवाले लोगोंके लिये वह सदा ही मङ्गलमय और पवित्रकारक था ॥ ३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य शैलस्य शिखरे महतीमायतां गुहाम् ।
प्रत्यगृह्णीत वासार्थं रामः सौमित्रिणा सह ॥ ४ ॥

मूलम्

तस्य शैलस्य शिखरे महतीमायतां गुहाम् ।
प्रत्यगृह्णीत वासार्थं रामः सौमित्रिणा सह ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस पर्वतके शिखरपर एक बहुत बड़ी और विस्तृत गुफा थी । लक्ष्मणसहित श्रीरामने उसीका अपने रहनेके लिये आश्रय लिया ॥ ४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृत्वा च समयं रामः सुग्रीवेण सहानघः ।
कालयुक्तं महद्वाक्यमुवाच रघुनन्दनः ॥ ५ ॥
विनीतं भ्रातरं भ्राता लक्ष्मणं लक्ष्मिवर्धनम् ।

मूलम्

कृत्वा च समयं रामः सुग्रीवेण सहानघः ।
कालयुक्तं महद्वाक्यमुवाच रघुनन्दनः ॥ ५ ॥
विनीतं भ्रातरं भ्राता लक्ष्मणं लक्ष्मिवर्धनम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

रघुकुलका आनन्द बढ़ानेवाले निष्पाप श्रीरामचन्द्रजी वर्षाका अन्त होनेपर सुग्रीवके साथ रावणपर चढ़ाई करनेका निश्चय करके वहाँ आये थे । उन्होंने लक्ष्मीकी वृद्धि करनेवाले अपने विनययुक्त भ्राता लक्ष्मणसे यह समयोचित बात कही— ॥ ५ १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इयं गिरिगुहा रम्या विशाला युक्तमारुता ॥ ६ ॥
अस्यां वत्स्याम सौमित्रे वर्षरात्रमरिन्दम ।

मूलम्

इयं गिरिगुहा रम्या विशाला युक्तमारुता ॥ ६ ॥
अस्यां वत्स्याम सौमित्रे वर्षरात्रमरिन्दम ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘शत्रुदमन सुमित्राकुमार! यह पर्वतकी गुफा बड़ी ही सुन्दर और विशाल है । यहाँ हवाके आने-जानेका भी मार्ग है । हमलोग वर्षाकी रातमें इसी गुफाके भीतर निवास करेंगे ॥ ६ १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गिरिशृङ्गमिदं रम्यमुत्तमं पार्थिवात्मज ॥ ७ ॥
श्वेताभिः कृष्णताम्राभिः शिलाभिरुपशोभितम् ।

मूलम्

गिरिशृङ्गमिदं रम्यमुत्तमं पार्थिवात्मज ॥ ७ ॥
श्वेताभिः कृष्णताम्राभिः शिलाभिरुपशोभितम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजकुमार! पर्वतका यह शिखर बहुत ही उत्तम और रमणीय है । सफेद, काले और लाल हर तरहके प्रस्तर-खण्ड इसकी शोभा बढ़ा रहे हैं ॥ ७ १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानाधातुसमाकीर्णं नदीदर्दुरसंयुतम् ॥ ८ ॥
विविधैर्वृक्षषण्डैश्च चारुचित्रलतायुतम् ।
नानाविहगसङ्घुष्टं मयूरवरनादितम् ॥ ९ ॥

मूलम्

नानाधातुसमाकीर्णं नदीदर्दुरसंयुतम् ॥ ८ ॥
विविधैर्वृक्षषण्डैश्च चारुचित्रलतायुतम् ।
नानाविहगसङ्घुष्टं मयूरवरनादितम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यहाँ नाना प्रकारके धातुओंकी खानें हैं । पास ही नदी बहती है । उसमें रहनेवाले मेढक यहाँ भी उछलते-कूदते चले आते हैं । नाना प्रकारके वृक्ष-समूह इसकी शोभा बढ़ाते हैं । सुन्दर और विचित्र लताओंसे यह शैल-शिखर हरा-भरा दिखायी देता है । भाँति-भाँतिके पक्षी यहाँ चहक रहे हैं तथा सुन्दर मोरोंकी मीठी बोली गूँज रही है ॥ ८-९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मालतीकुन्दगुल्मैश्च सिन्दुवारैः शिरीषकैः ।
कदम्बार्जुनसर्जैश्च पुष्पितैरुपशोभितम् ॥ १० ॥

मूलम्

मालतीकुन्दगुल्मैश्च सिन्दुवारैः शिरीषकैः ।
कदम्बार्जुनसर्जैश्च पुष्पितैरुपशोभितम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मालती और कुन्दकी झाड़ियाँ, सिन्दुवार, शिरीष, कदम्ब, अर्जुन और सर्जके फूले हुए वृक्ष इस स्थानकी शोभा बढ़ा रहे हैं ॥ १० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इयं च नलिनी रम्या फुल्लपङ्कजमण्डिता ।
नातिदूरे गुहाया नौ भविष्यति नृपात्मज ॥ ११ ॥

मूलम्

इयं च नलिनी रम्या फुल्लपङ्कजमण्डिता ।
नातिदूरे गुहाया नौ भविष्यति नृपात्मज ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजकुमार! यह पुष्करिणी खिले हुए कमलोंसे अलंकृत हो बड़ी रमणीय दिखायी देती है । यह हमलोगोंकी गुफासे अधिक दूर नहीं होगी ॥ ११ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रागुदक्प्रवणे देशे गुहा साधु भविष्यति ।
पश्चाच्चैवोन्नता सौम्य निवातेयं भविष्यति ॥ १२ ॥

मूलम्

प्रागुदक्प्रवणे देशे गुहा साधु भविष्यति ।
पश्चाच्चैवोन्नता सौम्य निवातेयं भविष्यति ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सौम्य! यहाँका स्थान ईशानकोणकी ओरसे नीचा है, अतः यहाँ यह गुफा हमारे निवासके लिये बहुत अच्छी रहेगी । पश्चिम-दक्षिणके कोणकी ओरसे ऊँची यह गुफा हवा और वर्षासे बचानेके लिये अच्छी होगी* ॥ १२ ॥

पादटिप्पनी
  • ईशानकोणकी ओर नीची तथा नैर्ऋत्यकोणकी ओरसे ऊँची होनेसे उसका द्वार नैर्ऋत्यकोणकी ओर था—यह प्रतीत होता है, इससे उसमें पूर्वी हवा और उधरसे आनेवाली वर्षाका प्रवेश नहीं था ।
विश्वास-प्रस्तुतिः

गुहाद्वारे च सौमित्रे शिला समतला शिवा ।
कृष्णा चैवायता चैव भिन्नाञ्जनचयोपमा ॥ १३ ॥

मूलम्

गुहाद्वारे च सौमित्रे शिला समतला शिवा ।
कृष्णा चैवायता चैव भिन्नाञ्जनचयोपमा ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सुमित्रानन्दन! इस गुफाके द्वारपर समतल शिला है, जो बाहर बैठनेके लिये सुविधाजनक होनेके कारण सुखदायिनी है । यह लंबी-चौड़ी होनेके साथ ही खानसे काटकर निकाले हुए कोयलोंकी राशिके समान काली है ॥ १३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गिरिशृङ्गमिदं तात पश्य चोत्तरतः शुभम् ।
भिन्नाञ्जनचयाकारमम्भोधरमिवोदितम् ॥ १४ ॥

मूलम्

गिरिशृङ्गमिदं तात पश्य चोत्तरतः शुभम् ।
भिन्नाञ्जनचयाकारमम्भोधरमिवोदितम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तात! देखो, यह सुन्दर पर्वत-शिखर उत्तरकी ओरसे कटे हुए कोयलोंकी राशि तथा घुमड़े हुए मेघोंकी घटाके समान काला दिखायी देता है ॥ १४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दक्षिणस्यामपि दिशि स्थितं श्वेतमिवाम्बरम् ।
कैलासशिखरप्रख्यं नानाधातुविराजितम् ॥ १५ ॥

मूलम्

दक्षिणस्यामपि दिशि स्थितं श्वेतमिवाम्बरम् ।
कैलासशिखरप्रख्यं नानाधातुविराजितम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसी तरह दक्षिण दिशामें भी इसका जो शिखर है, वह श्वेत वस्त्र और कैलास-शृङ्गके समान श्वेत दिखायी देता है । नाना प्रकारकी धातुएँ उसकी शोभा बढ़ाती हैं ॥ १५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राचीनवाहिनीं चैव नदीं भृशमकर्दमाम् ।
गुहायाः परतः पश्य त्रिकूटे जाह्नवीमिव ॥ १६ ॥

मूलम्

प्राचीनवाहिनीं चैव नदीं भृशमकर्दमाम् ।
गुहायाः परतः पश्य त्रिकूटे जाह्नवीमिव ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वह देखो, इस गुफाके दूसरी ओर त्रिकूट पर्वतके समीप बहनेवाली मन्दाकिनीके समान तुङ्गभद्रा नदी बह रही है । उसकी धारा पश्चिमसे पूर्वकी ओर जा रही है । उसमें कीचड़का नाम भी नहीं है ॥ १६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चन्दनैस्तिलकैः सालैस्तमालैरतिमुक्तकैः ।
पद्मकैः सरलैश्चैव अशोकैश्चैव शोभिताम् ॥ १७ ॥

मूलम्

चन्दनैस्तिलकैः सालैस्तमालैरतिमुक्तकैः ।
पद्मकैः सरलैश्चैव अशोकैश्चैव शोभिताम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘चन्दन, तिलक, साल, तमाल, अतिमुक्तक, पद्मक, सरल और शोक आदि नाना प्रकारके वृक्षोंसे उस नदीकी कैसी शोभा हो रही है? ॥ १७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वानीरैस्तिमिदैश्चैव बकुलैः केतकैरपि ।
हिन्तालैस्तिनिशैर्नीपैर्वेतसैः कृतमालकैः ॥ १८ ॥
तीरजैः शोभिता भाति नानारूपैस्ततस्ततः ।
वसनाभरणोपेता प्रमदेवाभ्यलङ्कृता ॥ १९ ॥

मूलम्

वानीरैस्तिमिदैश्चैव बकुलैः केतकैरपि ।
हिन्तालैस्तिनिशैर्नीपैर्वेतसैः कृतमालकैः ॥ १८ ॥
तीरजैः शोभिता भाति नानारूपैस्ततस्ततः ।
वसनाभरणोपेता प्रमदेवाभ्यलङ्कृता ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जलबेंत, तिमिद, बकुल, केतक, हिन्ताल, तिनिश, नीप, स्थलबेंत, कृतमाल (अमिलतास) आदि भाँति-भाँतिके तटवर्ती वृक्षोंसे जहाँ-तहाँ सुशोभित हुई यह नदी वस्त्राभूषणोंसे विभूषित शृङ्गारसज्जित युवती स्त्रीके समान जान पड़ती है ॥ १८-१९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शतशः पक्षिसङ्घैश्च नानानादविनादिता ।
एकैकमनुरक्तैश्च चक्रवाकैरलङ्कृता ॥ २० ॥

मूलम्

शतशः पक्षिसङ्घैश्च नानानादविनादिता ।
एकैकमनुरक्तैश्च चक्रवाकैरलङ्कृता ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सैकड़ों पक्षिसमूहोंसे संयुक्त हुई यह नदी उनके नाना प्रकारके कलरवोंसे गूँजती रहती है । परस्पर अनुरक्त हुए चक्रवाक इस सरिताकी शोभा बढ़ाते हैं ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुलिनैरतिरम्यैश्च हंससारससेविता ।
प्रहसन्त्येव भात्येषा नानारत्नसमन्विता ॥ २१ ॥

मूलम्

पुलिनैरतिरम्यैश्च हंससारससेविता ।
प्रहसन्त्येव भात्येषा नानारत्नसमन्विता ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अत्यन्त रमणीय तटोंसे अलंकृत, नाना प्रकारके रत्नोंसे सम्पन्न तथा हंस और सारसोंसे सेवित यह नदी अपनी हास्यच्छटा बिखेरती हुई-सी जान पड़ती है ॥ २१ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्वचिन्नीलोत्पलैश्छन्ना भातिरक्तोत्पलैः क्वचित् ।
क्वचिदाभाति शुक्लैश्च दिव्यैः कुमुदकुड्मलैः ॥ २२ ॥

मूलम्

क्वचिन्नीलोत्पलैश्छन्ना भातिरक्तोत्पलैः क्वचित् ।
क्वचिदाभाति शुक्लैश्च दिव्यैः कुमुदकुड्मलैः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कहीं तो यह नील कमलोंसे ढकी हुई है, कहीं लाल कमलोंसे सुशोभित होती है और कहीं श्वेत एवं दिव्य कुमुदकलिकाओंसे शोभा पाती है ॥ २२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पारिप्लवशतैर्जुष्टा बर्हिक्रौञ्चविनादिता ।
रमणीया नदी सौम्य मुनिसङ्घनिषेविता ॥ २३ ॥

मूलम्

पारिप्लवशतैर्जुष्टा बर्हिक्रौञ्चविनादिता ।
रमणीया नदी सौम्य मुनिसङ्घनिषेविता ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सैकड़ों जल-पक्षियोंसे सेवित तथा मोर एवं क्रौञ्चके कलरवोंसे मुखरित हुई यह सौम्य नदी बड़ी रमणीय प्रतीत होती है । मुनियोंके समुदाय इसके जलका सेवन करते हैं ॥ २३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पश्य चन्दनवृक्षाणां पङ्‍क्तिः सुरुचिरा इव ।
ककुभानां च दृश्यन्ते मनसैवोदिताः समम् ॥ २४ ॥

मूलम्

पश्य चन्दनवृक्षाणां पङ्‍क्तिः सुरुचिरा इव ।
ककुभानां च दृश्यन्ते मनसैवोदिताः समम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वह देखो, अर्जुन और चन्दन वृक्षोंकी पंक्तियाँ कितनी सुन्दर दिखायी देती हैं । मालूम होता है ये मनके संकल्पके साथ ही प्रकट हो गयी हैं ॥ २४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहो सुरमणीयोऽयं देशः शत्रुनिषूदन ।
दृढं रंस्याव सौमित्रे साध्वत्र निवसावहे ॥ २५ ॥

मूलम्

अहो सुरमणीयोऽयं देशः शत्रुनिषूदन ।
दृढं रंस्याव सौमित्रे साध्वत्र निवसावहे ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शत्रुसूदन सुमित्राकुमार! यह स्थान अत्यन्त रमणीय और अद्भुत है । यहाँ हमलोगोंका मन खूब लगेगा । अतः यहीं रहना ठीक होगा ॥ २५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इतश्च नातिदूरे सा किष्किन्धा चित्रकानना ।
सुग्रीवस्य पुरी रम्या भविष्यति नृपात्मज ॥ २६ ॥

मूलम्

इतश्च नातिदूरे सा किष्किन्धा चित्रकानना ।
सुग्रीवस्य पुरी रम्या भविष्यति नृपात्मज ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजकुमार! विचित्र काननोंसे सुशोभित सुग्रीवकी रमणीय किष्किन्धापुरी भी यहाँसे अधिक दूर नहीं होगी ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गीतवादित्रनिर्घोषः श्रूयते जयतां वर ।
नदतां वानराणां च मृदङ्गाडम्बरैः सह ॥ २७ ॥

मूलम्

गीतवादित्रनिर्घोषः श्रूयते जयतां वर ।
नदतां वानराणां च मृदङ्गाडम्बरैः सह ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘विजयी वीरोंमें श्रेष्ठ लक्ष्मण! मृदङ्गकी मधुर ध्वनिके साथ गर्जते हुए वानरोंके गीत और वाद्यका गम्भीर घोष यहाँसे सुनायी देता है ॥ २७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लब्ध्वा भार्यां कपिवरः प्राप्य राज्यं सुहृद्‍वृतः ।
ध्रुवं नन्दति सुग्रीवः सम्प्राप्य महतीं श्रियम् ॥ २८ ॥

मूलम्

लब्ध्वा भार्यां कपिवरः प्राप्य राज्यं सुहृद्‍वृतः ।
ध्रुवं नन्दति सुग्रीवः सम्प्राप्य महतीं श्रियम् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘निश्चय ही कपिश्रेष्ठ सुग्रीव अपनी पत्नीको पाकर, राज्यको हस्तगत करके और बड़ी भारी लक्ष्मीपर अधिकार प्राप्त करके सुहृदोंके साथ आनन्दोत्सव मना रहे हैं’ ॥ २८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा न्यवसत् तत्र राघवः सहलक्ष्मणः ।
बहुदृश्यदरीकुञ्जे तस्मिन् प्रस्रवणे गिरौ ॥ २९ ॥

मूलम्

इत्युक्त्वा न्यवसत् तत्र राघवः सहलक्ष्मणः ।
बहुदृश्यदरीकुञ्जे तस्मिन् प्रस्रवणे गिरौ ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर श्रीरामचन्द्रजी लक्ष्मणके साथ उस प्रस्रवण पर्वतपर जहाँ बहुत-सी कन्दराओं और कुञ्जोंके दर्शन होते थे, निवास करने लगे ॥ २९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुसुखे हि बहुद्रव्ये तस्मिन् हि धरणीधरे ।
वसतस्तस्य रामस्य रतिरल्पापि नाभवत् ॥ ३० ॥
हृतां हि भार्यां स्मरतः प्राणेभ्योऽपि गरीयसीम् ।

मूलम्

सुसुखे हि बहुद्रव्ये तस्मिन् हि धरणीधरे ।
वसतस्तस्य रामस्य रतिरल्पापि नाभवत् ॥ ३० ॥
हृतां हि भार्यां स्मरतः प्राणेभ्योऽपि गरीयसीम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि उस पर्वतपर परम सुख प्रदान करनेवाले बहुत-से फल-फूल आदि आवश्यक पदार्थ थे, तथापि राक्षसद्वारा हरी गयी प्राणोंसे भी बढ़कर आदरणीय सीताका स्मरण करते हुए भगवान् श्रीरामको वहाँ तनिक भी सुख नहीं मिलता था ॥ ३० १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उदयाभ्युदितं दृष्ट्वा शशाङ्कं च विशेषतः ॥ ३१ ॥
आविवेश न तं निद्रा निशासु शयनं गतम् ।

मूलम्

उदयाभ्युदितं दृष्ट्वा शशाङ्कं च विशेषतः ॥ ३१ ॥
आविवेश न तं निद्रा निशासु शयनं गतम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

विशेषतः उदयाचलपर उदित हुए चन्द्रदेवका दर्शन करके रातमें शय्यापर लेट जानेपर भी उन्हें नींद नहीं आती थी ॥ ३१ १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्समुत्थेन शोकेन बाष्पोपहतचेतनम् ॥ ३२ ॥
तं शोचमानं काकुत्स्थं नित्यं शोकपरायणम् ।
तुल्यदुःखोऽब्रवीद्‍भ्राता लक्ष्मणोऽनुनयं वचः ॥ ३३ ॥

मूलम्

तत्समुत्थेन शोकेन बाष्पोपहतचेतनम् ॥ ३२ ॥
तं शोचमानं काकुत्स्थं नित्यं शोकपरायणम् ।
तुल्यदुःखोऽब्रवीद्‍भ्राता लक्ष्मणोऽनुनयं वचः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सीताके वियोगजनित शोकसे आँसू बहाते हुए वे अचेत हो जाते थे । श्रीरामको निरन्तर शोकमग्न रहकर चिन्ता करते देख उनके दुःखमें समानरूपसे भाग लेनेवाले भाई लक्ष्मणने उनसे विनयपूर्वक कहा— ॥ ३२-३३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अलं वीर व्यथां गत्वा न त्वं शोचितुमर्हसि ।
शोचतो ह्यवसीदन्ति सर्वार्था विदितं हि ते ॥ ३४ ॥

मूलम्

अलं वीर व्यथां गत्वा न त्वं शोचितुमर्हसि ।
शोचतो ह्यवसीदन्ति सर्वार्था विदितं हि ते ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वीर! इस प्रकार व्यथित होनेसे कोई लाभ नहीं है । अतः आपको शोक नहीं करना चाहिये; क्योंकि शोक करनेवाले पुरुषके सभी मनोरथ नष्ट हो जाते हैं, यह बात आपसे छिपी नहीं है ॥ ३४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भवान् क्रियापरो लोके भवान् देवपरायणः ।
आस्तिको धर्मशीलश्च व्यवसायी च राघव ॥ ३५ ॥

मूलम्

भवान् क्रियापरो लोके भवान् देवपरायणः ।
आस्तिको धर्मशीलश्च व्यवसायी च राघव ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘रघुनन्दन! आप जगत् में कर्मठ-वीर तथा देवताओंका समादर करनेवाले हैं । आस्तिक, धर्मात्मा और उद्योगी हैं ॥ ३५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न ह्यव्यवसितः शत्रुं राक्षसं तं विशेषतः ।
समर्थस्त्वं रणे हन्तुं विक्रमे जिह्मकारिणम् ॥ ३६ ॥

मूलम्

न ह्यव्यवसितः शत्रुं राक्षसं तं विशेषतः ।
समर्थस्त्वं रणे हन्तुं विक्रमे जिह्मकारिणम् ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि आप शोकवश उद्यम छोड़ बैठते हैं तो पराक्रमके स्थानस्वरूप समराङ्गणमें कुटिल कर्म करनेवाले उस शत्रुका, जो विशेषतः राक्षस है, वध करनेमें समर्थ न हो सकेंगे ॥ ३६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समुन्मूलय शोकं त्वं व्यवसायं स्थिरीकुरु ।
ततः सपरिवारं तं राक्षसं हन्तुमर्हसि ॥ ३७ ॥

मूलम्

समुन्मूलय शोकं त्वं व्यवसायं स्थिरीकुरु ।
ततः सपरिवारं तं राक्षसं हन्तुमर्हसि ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अतः आप अपने शोकको जड़से उखाड़ फेंकिये और उद्योगके विचारको सुस्थिर कीजिये । तभी आप परिवारसहित उस राक्षसका विनाश कर सकते हैं ॥ ३७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पृथिवीमपि काकुत्स्थ ससागरवनाचलाम् ।
परिवर्तयितुं शक्तः किं पुनस्तं हि रावणम् ॥ ३८ ॥

मूलम्

पृथिवीमपि काकुत्स्थ ससागरवनाचलाम् ।
परिवर्तयितुं शक्तः किं पुनस्तं हि रावणम् ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘काकुत्स्थ! आप तो समुद्र, वन और पर्वतोंसहित समूची पृथ्वीको भी उलट सकते हैं; फिर उस रावणका संहार करना आपके लिये कौन बड़ी बात है? ॥ ३८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरत्कालं प्रतीक्षस्व प्रावृट्कालोऽयमागतः ।
ततः सराष्ट्रं सगणं रावणं तं वधिष्यसि ॥ ३९ ॥

मूलम्

शरत्कालं प्रतीक्षस्व प्रावृट्कालोऽयमागतः ।
ततः सराष्ट्रं सगणं रावणं तं वधिष्यसि ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यह वर्षाकाल आ गया है । अब शरद्-ऋतुकी प्रतीक्षा कीजिये । फिर राज्य और सेनासहित रावणका वध कीजियेगा ॥ ३९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं तु खलु ते वीर्यं प्रसुप्तं प्रतिबोधये ।
दीप्तैराहुतिभिः काले भस्मच्छन्नमिवानलम् ॥ ४० ॥

मूलम्

अहं तु खलु ते वीर्यं प्रसुप्तं प्रतिबोधये ।
दीप्तैराहुतिभिः काले भस्मच्छन्नमिवानलम् ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जैसे राखमें छिपी हुई आगको हवनकालमें आहुतियोंद्वारा प्रज्वलित किया जाता है, उसी प्रकार मैं आपके सोये हुए पराक्रमको जगा रहा हूँ—भूले हुए बल-विक्रमकी याद दिला रहा हूँ’ ॥ ४० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लक्ष्मणस्य हि तद् वाक्यं प्रतिपूज्य हितं शुभम् ।
राघवः सुहृदं स्निग्धमिदं वचनमब्रवीत् ॥ ४१ ॥

मूलम्

लक्ष्मणस्य हि तद् वाक्यं प्रतिपूज्य हितं शुभम् ।
राघवः सुहृदं स्निग्धमिदं वचनमब्रवीत् ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

लक्ष्मणके इस शुभ एवं हितकर वचनकी सराहना करके श्रीरघुनाथजीने अपने स्नेही सुहृत् सुमित्राकुमारसे इस प्रकार कहा— ॥ ४१ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वाच्यं यदनुरक्तेन स्निग्धेन च हितेन च ।
सत्यविक्रमयुक्तेन तदुक्तं लक्ष्मण त्वया ॥ ४२ ॥

मूलम्

वाच्यं यदनुरक्तेन स्निग्धेन च हितेन च ।
सत्यविक्रमयुक्तेन तदुक्तं लक्ष्मण त्वया ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘लक्ष्मण! अनुरागी, स्नेही, हितैषी और सत्यपराक्रमी वीरको जैसी बात कहनी चाहिये वैसी ही तुमने कही है ॥ ४२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष शोकः परित्यक्तः सर्वकार्यावसादकः ।
विक्रमेष्वप्रतिहतं तेजः प्रोत्साहयाम्यहम् ॥ ४३ ॥

मूलम्

एष शोकः परित्यक्तः सर्वकार्यावसादकः ।
विक्रमेष्वप्रतिहतं तेजः प्रोत्साहयाम्यहम् ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘लो, सब तरहके काम बिगाड़नेवाले शोकको मैंने त्याग दिया । अब मैं पराक्रमविषयक दुर्धर्ष तेजको प्रोत्साहित करता हूँ (बढ़ाता हूँ) ॥ ४३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरत्कालं प्रतीक्षिष्ये स्थितोऽस्मि वचने तव ।
सुग्रीवस्य नदीनां च प्रसादमनुपालयन् ॥ ४४ ॥

मूलम्

शरत्कालं प्रतीक्षिष्ये स्थितोऽस्मि वचने तव ।
सुग्रीवस्य नदीनां च प्रसादमनुपालयन् ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम्हारी बात मान लेता हूँ । सुग्रीवके प्रसन्न होकर सहायता करने और नदियोंके जलके स्वच्छ होनेकी बाट देखता हुआ मैं शरत्-कालकी प्रतीक्षा करूँगा ॥ ४४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपकारेण वीरस्तु प्रतिकारेण युज्यते ।
अकृतज्ञोऽप्रतिकृतो हन्ति सत्त्ववतां मनः ॥ ४५ ॥

मूलम्

उपकारेण वीरस्तु प्रतिकारेण युज्यते ।
अकृतज्ञोऽप्रतिकृतो हन्ति सत्त्ववतां मनः ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो वीर पुरुष किसीके उपकारसे उपकृत होता है, वह प्रत्युपकार करके उसका बदला अवश्य चुकाता है, किंतु यदि कोई उपकारको न मानकर या भुलाकर प्रत्युपकारसे मुँह मोड़ लेता है, वह शक्तिशाली श्रेष्ठ पुरुषोंके मनको ठेस पहुँचाता है ॥ ४५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदेव युक्तं प्रणिधाय लक्ष्मणः
कृताञ्जलिस्तत् प्रतिपूज्य भाषितम् ।
उवाच रामं स्वभिरामदर्शनं
प्रदर्शयन् दर्शनमात्मनः शुभम् ॥ ४६ ॥

मूलम्

तदेव युक्तं प्रणिधाय लक्ष्मणः
कृताञ्जलिस्तत् प्रतिपूज्य भाषितम् ।
उवाच रामं स्वभिरामदर्शनं
प्रदर्शयन् दर्शनमात्मनः शुभम् ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘श्रीरामजीके उस कथनको ही युक्तियुक्त मानकर लक्ष्मणने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की और दोनों हाथ जोड़कर अपनी शुभ दृष्टिका परिचय देते हुए वे नयनाभिराम श्रीरामसे इस प्रकार बोले— ॥ ४६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथोक्तमेतत् तव सर्वमीप्सितं
नरेन्द्र कर्ता नचिरात् तु वानरः ।
शरत्प्रतीक्षः क्षमतामिमं भवान्
जलप्रपातं रिपुनिग्रहे धृतः ॥ ४७ ॥

मूलम्

यथोक्तमेतत् तव सर्वमीप्सितं
नरेन्द्र कर्ता नचिरात् तु वानरः ।
शरत्प्रतीक्षः क्षमतामिमं भवान्
जलप्रपातं रिपुनिग्रहे धृतः ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नरेश्वर! जैसा कि आपने कहा है, वानरराज सुग्रीव शीघ्र ही आपका यह सारा मनोरथ सिद्ध करेंगे । अतः आप शत्रुके संहार करनेका दृढ़ निश्चय लिये शरत्कालकी प्रतीक्षा कीजिये और इस वर्षाकालके विलम्बको सहन कीजिये ॥ ४७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नियम्य कोपं परिपाल्यतां शरत्
क्षमस्व मासांश्चतुरो मया सह ।
वसाचलेऽस्मिन् मृगराजसेविते
संवर्तयन् शत्रुवधे समर्थः ॥ ४८ ॥

मूलम्

नियम्य कोपं परिपाल्यतां शरत्
क्षमस्व मासांश्चतुरो मया सह ।
वसाचलेऽस्मिन् मृगराजसेविते
संवर्तयन् शत्रुवधे समर्थः ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘क्रोधको काबूमें रखकर शरत्कालकी राह देखिये । बरसातके चार महीनोंतक जो भी कष्ट हो, उसे सहन कीजिये तथा शत्रुवधमें समर्थ होनेपर भी इस वर्षाकालको व्यतीत करते हुए मेरे साथ इस सिंहसेवित पर्वतपर निवास कीजिये’ ॥ ४८ ॥

समाप्तिः

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डे सप्तविंशः सर्गः ॥ २७ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके किष्किन्धाकाण्डमें सत्ताईसवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ २७ ॥