वाचनम्
भागसूचना
- पम्पासरोवरके दर्शनसे श्रीरामकी व्याकुलता, श्रीरामका लक्ष्मणसे पम्पाकी शोभा तथा वहाँकी उद्दीपनसामग्रीका वर्णन करना, लक्ष्मणका श्रीरामको समझाना तथा दोनों भाइयोंको ऋष्यमूककी ओर आते देख सुग्रीव तथा अन्य वानरोंका भयभीत होना
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तां पुष्करिणीं गत्वा पद्मोत्पलझषाकुलाम् ।
रामः सौमित्रिसहितो विललापाकुलेन्द्रियः ॥ १ ॥
मूलम्
स तां पुष्करिणीं गत्वा पद्मोत्पलझषाकुलाम् ।
रामः सौमित्रिसहितो विललापाकुलेन्द्रियः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कमल, उत्पल तथा मत्स्योंसे भरी हुई उस पम्पा नामक पुष्करिणीके पास पहुँचकर सीताकी सुधि आ जानेके कारण श्रीरामकी इन्द्रियाँ शोकसे व्याकुल हो उठीं । वे विलाप करने लगे । उस समय सुमित्राकुमार लक्ष्मण उनके साथ थे ॥ १ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र दृष्ट्वैव तां हर्षादिन्द्रियाणि चकम्पिरे ।
स कामवशमापन्नः सौमित्रिमिदमब्रवीत् ॥ २ ॥
मूलम्
तत्र दृष्ट्वैव तां हर्षादिन्द्रियाणि चकम्पिरे ।
स कामवशमापन्नः सौमित्रिमिदमब्रवीत् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ पम्पापर दृष्टि पड़ते ही (कमल-पुष्पोंमें सीताके नेत्रमुख आदिका किञ्चित् सादृश्य पाकर) हर्षोल्लाससे श्रीरामकी सारी इन्द्रियाँ चञ्चल हो उठीं । उनके मनमें सीताके दर्शनकी प्रबल इच्छा जाग उठी । उस इच्छाके अधीन-से होकर वे सुमित्राकुमार लक्ष्मणसे इस प्रकार बोले— ॥ २ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सौमित्रे शोभते पम्पा वैदूर्यविमलोदका ।
फुल्लपद्मोत्पलवती शोभिता विविधैर्द्रुमैः ॥ ३ ॥
मूलम्
सौमित्रे शोभते पम्पा वैदूर्यविमलोदका ।
फुल्लपद्मोत्पलवती शोभिता विविधैर्द्रुमैः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सुमित्रानन्दन! यह पम्पा कैसी शोभा पा रही है? इसका जल वैदूर्यमणिके समान स्वच्छ एवं श्याम है । इसमें बहुत-से पद्म और उत्पल खिले हुए हैं । तटपर उत्पन्न हुए नाना प्रकारके वृक्षोंसे इसकी शोभा और भी बढ़ गयी है ॥ ३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सौमित्रे पश्य पम्पायाः काननं शुभदर्शनम् ।
यत्र राजन्ति शैला वा द्रुमाः सशिखरा इव ॥ ४ ॥
मूलम्
सौमित्रे पश्य पम्पायाः काननं शुभदर्शनम् ।
यत्र राजन्ति शैला वा द्रुमाः सशिखरा इव ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सुमित्राकुमार! देखो तो सही, पम्पाके किनारेका वन कितना सुन्दर दिखायी दे रहा है । यहाँके ऊँचे-ऊँचे वृक्ष अपनी फैली हुई शाखाओंके कारण अनेक शिखरोंसे युक्त पर्वतोंके समान सुशोभित होते हैं ॥ ४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मां तु शोकाभिसन्तप्तमाधयः पीडयन्ति वै ।
भरतस्य च दुःखेन वैदेह्या हरणेन च ॥ ५ ॥
मूलम्
मां तु शोकाभिसन्तप्तमाधयः पीडयन्ति वै ।
भरतस्य च दुःखेन वैदेह्या हरणेन च ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘परंतु मैं इस समय भरतके दुःख और सीताहरणकी चिन्ताके शोकसे संतप्त हो रहा हूँ । मानसिक वेदनाएँ मुझे बहुत कष्ट पहुँचा रही हैं ॥ ५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शोकार्तस्यापि मे पम्पा शोभते चित्रकानना ।
व्यवकीर्णा बहुविधैः पुष्पैः शीतोदका शिवा ॥ ६ ॥
मूलम्
शोकार्तस्यापि मे पम्पा शोभते चित्रकानना ।
व्यवकीर्णा बहुविधैः पुष्पैः शीतोदका शिवा ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यद्यपि मैं शोकसे पीड़ित हूँ तो भी मुझे यह पम्पा बड़ी सुहावनी लग रही है । इसके निकटवर्ती वन बड़े विचित्र दिखायी देते हैं । यह नाना प्रकारके फूलोंसे व्याप्त है । इसका जल बहुत शीतल है और यह बहुत सुखदायिनी प्रतीत होती है ॥ ६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नलिनैरपि सञ्छन्ना ह्यत्यर्थशुभदर्शना ।
सर्पव्यालानुचरिता मृगद्विजसमाकुला ॥ ७ ॥
मूलम्
नलिनैरपि सञ्छन्ना ह्यत्यर्थशुभदर्शना ।
सर्पव्यालानुचरिता मृगद्विजसमाकुला ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कमलोंसे यह सारी पुष्करिणी ढकी हुई है । इसलिये बड़ी सुन्दर दिखायी देती है । इसके आस-पास सर्प तथा हिंसक जन्तु विचर रहे हैं । मृग आदि पशु और पक्षी भी सब ओर छा रहे हैं ॥ ७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधिकं प्रविभात्येतन्नीलपीतं तु शाद्वलम् ।
द्रुमाणां विविधैः पुष्पैः परिस्तोमैरिवार्पितम् ॥ ८ ॥
मूलम्
अधिकं प्रविभात्येतन्नीलपीतं तु शाद्वलम् ।
द्रुमाणां विविधैः पुष्पैः परिस्तोमैरिवार्पितम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘नयी-नयी घासोंसे ढका हुआ यह स्थान अपनी नीली-पीली आभाके कारण अधिक शोभा पा रहा है । यहाँ वृक्षोंके नाना प्रकारके पुष्प सब ओर बिखरे हुए हैं । इससे ऐसा जान पड़ता है मानो यहाँ बहुत-से गलीचे बिछा दिये गये हों ॥ ८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुष्पभारसमृद्धानि शिखराणि समन्ततः ।
लताभिः पुष्पिताग्राभिरुपगूढानि सर्वतः ॥ ९ ॥
मूलम्
पुष्पभारसमृद्धानि शिखराणि समन्ततः ।
लताभिः पुष्पिताग्राभिरुपगूढानि सर्वतः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘चारों ओर वृक्षोंके अग्रभाग फूलोंके भारसे लदे होनेके कारण समृद्धिशाली प्रतीत होते हैं । ऊपरसे खिली हुई लताएँ उनमें सब ओरसे लिपटी हुई हैं ॥ ९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखानिलोऽयं सौमित्रे कालः प्रचुरमन्मथः ।
गन्धवान् सुरभिर्मासो जातपुष्पफलद्रुमः ॥ १० ॥
मूलम्
सुखानिलोऽयं सौमित्रे कालः प्रचुरमन्मथः ।
गन्धवान् सुरभिर्मासो जातपुष्पफलद्रुमः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सुमित्रानन्दन! इस समय मन्द-मन्द सुखदायिनी हवा चल रही है, जिससे कामनाका उद्दीपन हो रहा है (सीताको देखनेकी इच्छा प्रबल हो उठी है) । यह चैत्रका महीना है । वृक्षोंमें फूल और फल लग गये हैं और सब ओर मनोहर सुगन्ध छा रही है ॥ १० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्य रूपाणि सौमित्रे वनानां पुष्पशालिनाम् ।
सृजतां पुष्पवर्षाणि वर्षं तोयमुचामिव ॥ ११ ॥
मूलम्
पश्य रूपाणि सौमित्रे वनानां पुष्पशालिनाम् ।
सृजतां पुष्पवर्षाणि वर्षं तोयमुचामिव ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘लक्ष्मण! फूलोंसे सुशोभित होनेवाले इन वनोंके रूप तो देखो । ये उसी तरह फूलोंकी वर्षा कर रहे हैं जैसे मेघ जलकी वृष्टि करते हैं ॥ ११ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रस्तरेषु च रम्येषु विविधाः काननद्रुमाः ।
वायुवेगप्रचलिताः पुष्पैरवकिरन्ति गाम् ॥ १२ ॥
मूलम्
प्रस्तरेषु च रम्येषु विविधाः काननद्रुमाः ।
वायुवेगप्रचलिताः पुष्पैरवकिरन्ति गाम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वनके ये विविध वृक्ष वायुके वेगसे झूम-झूमकर रमणीय शिलाओंपर फूल बरसा रहे हैं और यहाँकी भूमिको ढक देते हैं ॥ १२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पतितैः पतमानैश्च पादपस्थैश्च मारुतः ।
कुसुमैः पश्य सौमित्रे क्रीडतीव समन्ततः ॥ १३ ॥
मूलम्
पतितैः पतमानैश्च पादपस्थैश्च मारुतः ।
कुसुमैः पश्य सौमित्रे क्रीडतीव समन्ततः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सुमित्राकुमार! उधर तो देखो, जो वृक्षोंसे झड़ गये हैं, झड़ रहे हैं तथा जो अभी डालियोंमें ही लगे हुए हैं, उन सभी फूलोंके साथ सब ओर वायु खेल-सा कर रही है ॥ १३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विक्षिपन् विविधाः शाखां नगानां कुसुमोत्कटाः ।
मारुतश्चलितस्थानैः षट्पदैरनुगीयते ॥ १४ ॥
मूलम्
विक्षिपन् विविधाः शाखां नगानां कुसुमोत्कटाः ।
मारुतश्चलितस्थानैः षट्पदैरनुगीयते ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘फूलोंसे भरी हुई वृक्षोंकी विभिन्न शाखाओंको झकझोरती हुई वायु जब आगेको बढ़ती है, तब अपने-अपने स्थानसे विचलित हुए भ्रमर मानो उसका यशोगान करते हुए उसके पीछे-पीछे चलने लगते हैं ॥ १४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मत्तकोकिलसन्नादैर्नर्तयन्निव पादपान् ।
शैलकन्दर निष्क्रान्तः प्रगीत इव चानिलः ॥ १५ ॥
मूलम्
मत्तकोकिलसन्नादैर्नर्तयन्निव पादपान् ।
शैलकन्दर निष्क्रान्तः प्रगीत इव चानिलः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पर्वतकी कन्दरासे विशेष ध्वनिके साथ निकली हुई वायु मानो उच्च स्वरसे गीत गा रही है । मतवाले कोकिलोंके कलनाद वाद्यका काम देते हैं और उन वाद्योंकी ध्वनिके साथ वह वायु इन झूमते हुए वृक्षोंको मानो नृत्यकी शिक्षा-सी दे रही है ॥ १५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेन विक्षिपतात्यर्थं पवनेन समन्ततः ।
अमी संसक्तशाखाग्रा ग्रथिता इव पादपाः ॥ १६ ॥
मूलम्
तेन विक्षिपतात्यर्थं पवनेन समन्ततः ।
अमी संसक्तशाखाग्रा ग्रथिता इव पादपाः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वायुके वेगपूर्वक हिलानेसे जिनकी शाखाओंके अग्रभाग सब ओरसे परस्पर सट गये हैं, वे वृक्ष एक-दूसरेसे गुँथे हुएकी भाँति जान पड़ते हैं ॥ १६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एव सुखसंस्पर्शो वाति चन्दनशीतलः ।
गन्धमभ्यवहन् पुण्यं श्रमापनयनोऽनिलः ॥ १७ ॥
मूलम्
स एव सुखसंस्पर्शो वाति चन्दनशीतलः ।
गन्धमभ्यवहन् पुण्यं श्रमापनयनोऽनिलः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मलयचन्दनका स्पर्श करके बहनेवाली यह शीतलवायु शरीरसे छू जानेपर कितनी सुखद जान पड़ती है । यह थकावट दूर करती हुई बह रही है और सर्वत्र पवित्र सुगन्ध फैला रही है ॥ १७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अमी पवनविक्षिप्ता विनदन्तीव पादपाः ।
षट्पदैरनुकूजद्भिर्वनेषु मधुगन्धिषु ॥ १८ ॥
मूलम्
अमी पवनविक्षिप्ता विनदन्तीव पादपाः ।
षट्पदैरनुकूजद्भिर्वनेषु मधुगन्धिषु ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मधुर मकरन्द और सुगन्धसे भरे हुए इन वनोंमें गुनगुनाते हुए भ्रमरोंके व्याजसे ये वायुद्वारा हिलाये गये वृक्ष मानो नृत्यके साथ गान कर रहे हैं ॥ १८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गिरिप्रस्थेषु रम्येषु पुष्पवद्भिर्मनोरमैः ।
संसक्तशिखराः शैला विराजन्ति महाद्रुमैः ॥ १९ ॥
मूलम्
गिरिप्रस्थेषु रम्येषु पुष्पवद्भिर्मनोरमैः ।
संसक्तशिखराः शैला विराजन्ति महाद्रुमैः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अपने रमणीय पृष्ठभागोंपर उत्पन्न फूलोंसे सम्पन्न तथा मनको लुभानेवाले विशाल वृक्षोंसे सटे हुए शिखरवाले पर्वत अद्भुत शोभा पा रहे हैं ॥ १९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुष्पसञ्छन्नशिखरा मारुतोत्क्षेपचञ्चलाः ।
अमी मधुकरोत्तंसाः प्रगीता इव पादपाः ॥ २० ॥
मूलम्
पुष्पसञ्छन्नशिखरा मारुतोत्क्षेपचञ्चलाः ।
अमी मधुकरोत्तंसाः प्रगीता इव पादपाः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिनकी शाखाओंके अग्रभाग फूलोंसे ढके हैं, जो वायुके झोंकेसे हिल रहे हैं तथा भ्रमरोंको पगड़ीके रूपमें सिरपर धारण किये हुए हैं, वे वृक्ष ऐसे जान पड़ते हैं मानो इन्होंने नाचना-गाना आरम्भ कर दिया है ॥ २० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुपुष्पितांस्तु पश्यैतान् कर्णिकारान् समन्ततः ।
हाटकप्रतिसञ्छन्नान् नरान् पीताम्बरानिव ॥ २१ ॥
मूलम्
सुपुष्पितांस्तु पश्यैतान् कर्णिकारान् समन्ततः ।
हाटकप्रतिसञ्छन्नान् नरान् पीताम्बरानिव ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘देखो, सब ओर सुन्दर फूलोंसे भरे हुए ये कनेर सोनेके आभूषणोंसे विभूषित पीताम्बरधारी मनुष्योंके समान शोभा पा रहे हैं ॥ २१ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयं वसन्तः सौमित्रे नानाविहगनादितः ।
सीतया विप्रहीणस्य शोकसन्दीपनो मम ॥ २२ ॥
मूलम्
अयं वसन्तः सौमित्रे नानाविहगनादितः ।
सीतया विप्रहीणस्य शोकसन्दीपनो मम ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सुमित्रानन्दन! नाना प्रकारके विहङ्गमोंके कलरवोंसे गूँजता हुआ यह वसन्तका समय सीतासे बिछुड़े हुए मेरे लिये शोकको बढ़ानेवाला हो गया है ॥ २२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मां हि शोकसमाक्रान्तं सन्तापयति मन्मथः ।
हृष्टं प्रवदमानश्च समाह्वयति कोकिलः ॥ २३ ॥
मूलम्
मां हि शोकसमाक्रान्तं सन्तापयति मन्मथः ।
हृष्टं प्रवदमानश्च समाह्वयति कोकिलः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वियोगके शोकसे तो मैं पीड़ित हूँ ही, यह कामदेव (सीता-विषयक अनुराग) मुझे और भी संताप दे रहा है । कोकिल बड़े हर्षके साथ कलनाद करता हुआ मानो मुझे ललकार रहा है ॥ २३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष दात्यूहको हृष्टो रम्ये मां वननिर्झरे ।
प्रणदन्मन्मथाविष्टं शोचयिष्यति लक्ष्मण ॥ २४ ॥
मूलम्
एष दात्यूहको हृष्टो रम्ये मां वननिर्झरे ।
प्रणदन्मन्मथाविष्टं शोचयिष्यति लक्ष्मण ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘लक्ष्मण! वनके रमणीय झरनेके निकट बड़े हर्षके साथ बोलता हुआ यह जलकुक्कुट सीतासे मिलनेकी इच्छावाले मुझ रामको शोकमग्न किये देता है ॥ २४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वैतस्य पुरा शब्दमाश्रमस्था मम प्रिया ।
मामाहूय प्रमुदिताः परमं प्रत्यनन्दत ॥ २५ ॥
मूलम्
श्रुत्वैतस्य पुरा शब्दमाश्रमस्था मम प्रिया ।
मामाहूय प्रमुदिताः परमं प्रत्यनन्दत ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पहले मेरी प्रिया जब आश्रममें रहती थी, उन दिनों इसका शब्द सुनकर आनन्दमग्न हो जाती थी और मुझे भी निकट बुलाकर अत्यन्त आनन्दित कर देती थी ॥ २५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं विचित्राः पतगा नानारावविराविणः ।
वृक्षगुल्मलताः पश्य सम्पतन्ति समन्ततः ॥ २६ ॥
मूलम्
एवं विचित्राः पतगा नानारावविराविणः ।
वृक्षगुल्मलताः पश्य सम्पतन्ति समन्ततः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘देखो, इस प्रकार भाँति-भाँतिकी बोली बोलनेवाले विचित्र पक्षी चारों ओर वृक्षों, झाड़ियों और लताओंकी ओर उड़ रहे हैं ॥ २६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विमिश्रा विहगाः पुम्भिरात्मव्यूहाभिनन्दिताः ।
भृङ्गराजप्रमुदिताः सौमित्रे मधुरस्वराः ॥ २७ ॥
मूलम्
विमिश्रा विहगाः पुम्भिरात्मव्यूहाभिनन्दिताः ।
भृङ्गराजप्रमुदिताः सौमित्रे मधुरस्वराः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सुमित्रानन्दन! देखो, ये पक्षिणियाँ नर पक्षियोंसे संयुक्त हो अपने झुंडमें आनन्दका अनुभव कर रही हैं, भौंरोंका गुञ्जारव सुनकर प्रसन्न हो रही हैं और स्वयं भी मीठी बोली बोल रही हैं ॥ २७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्याः कूले प्रमुदिताः सङ्घशः शकुनास्त्विह ।
दात्यूहरतिविक्रन्दैः पुंस्कोकिलरुतैरपि ॥ २८ ॥
स्वनन्ति पादपाश्चेमे ममानङ्गप्रदीपकाः ।
मूलम्
अस्याः कूले प्रमुदिताः सङ्घशः शकुनास्त्विह ।
दात्यूहरतिविक्रन्दैः पुंस्कोकिलरुतैरपि ॥ २८ ॥
स्वनन्ति पादपाश्चेमे ममानङ्गप्रदीपकाः ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस पम्पाके तटपर यहाँ झुंड-के-झुंड पक्षी आनन्दमग्न होकर चहक रहे हैं । जलकुक्कुटोंके रतिसम्बन्धी कूजन तथा नर कोकिलोंके कलनादके व्याजसे मानो ये वृक्ष ही मधुर बोली बोलते हैं और मेरी अनङ्ग वेदनाको उद्दीप्त कर रहे हैं ॥ २८ १/२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अशोकस्तबकाङ्गारः षट्पदस्वननिःस्वनः ॥ २९ ॥
मां हि पल्लवताम्रार्चिर्वसन्ताग्निः प्रधक्ष्यति ।
मूलम्
अशोकस्तबकाङ्गारः षट्पदस्वननिःस्वनः ॥ २९ ॥
मां हि पल्लवताम्रार्चिर्वसन्ताग्निः प्रधक्ष्यति ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘जान पड़ता है, यह वसन्तरूपी आग मुझे जलाकर भस्म कर देगी । अशोक पुष्पके लाल-लाल गुच्छे ही इस अग्निके अङ्गार हैं, नूतन पल्लव ही इसकी लाल-लाल लपटें हैं तथा भ्रमरोंका गुञ्जारव ही इस जलती आगका ‘चट-चट’ शब्द है ॥ २९ १/२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नहि तां सूक्ष्मपक्ष्माक्षीं सुकेशीं मृदुभाषिणीम् ॥ ३० ॥
अपश्यतो मे सौमित्रे जीवितेऽस्ति प्रयोजनम् ।
मूलम्
नहि तां सूक्ष्मपक्ष्माक्षीं सुकेशीं मृदुभाषिणीम् ॥ ३० ॥
अपश्यतो मे सौमित्रे जीवितेऽस्ति प्रयोजनम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘सुमित्रानन्दन! यदि मैं सूक्ष्म बरौनियों और सुन्दर केशोंवाली मधुरभाषिणी सीताको न देख सका तो मुझे इस जीवनसे कोई प्रयोजन नहीं है ॥ ३० १/२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयं हि रुचिरस्तस्याः कालो रुचिरकाननः ॥ ३१ ॥
कोकिलाकुलसीमान्तो दयिताया ममानघ ।
मूलम्
अयं हि रुचिरस्तस्याः कालो रुचिरकाननः ॥ ३१ ॥
कोकिलाकुलसीमान्तो दयिताया ममानघ ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘निष्पाप लक्ष्मण! वसन्त ऋतुमें वनकी शोभा बड़ी मनोहर हो जाती है, इसकी सीमामें सब ओर कोयलकी मधुर कूक सुनायी पड़ती है । मेरी प्रिया सीताको यह समय बड़ा ही प्रिय लगता था ॥ ३१ १/२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन्मथायाससम्भूतो वसन्तगुणवर्धितः ॥ ३२ ॥
अयं मां धक्ष्यति क्षिप्रं शोकाग्निर्नचिरादिव ।
मूलम्
मन्मथायाससम्भूतो वसन्तगुणवर्धितः ॥ ३२ ॥
अयं मां धक्ष्यति क्षिप्रं शोकाग्निर्नचिरादिव ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘अनङ्गवेदनासे उत्पन्न हुई शोकाग्नि वसन्तऋतुके गुणोंका* ईंधन पाकर बढ़ गयी है; जान पड़ता है, यह मुझे शीघ्र ही अविलम्ब जला देगी ॥ ३२ १/२ ॥
पादटिप्पनी
- मन्द-मन्द मलयानिलका चलना, वनके वृक्षोंका नूतन पल्लवों और फूलोंसे सज जाना, कोकिलोंका कूकना, कमलोंका खिल जाना तथा सब ओर मधुर सुगन्धका छा जाना आदि वसन्तके गुण हैं, जो विरहीकी शोकाग्निको उद्दीप्त करते हैं ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपश्यतस्तां वनितां पश्यतो रुचिरान् द्रुमान् ॥ ३३ ॥
ममायमात्मप्रभवो भूयस्त्वमुपयास्यति ।
मूलम्
अपश्यतस्तां वनितां पश्यतो रुचिरान् द्रुमान् ॥ ३३ ॥
ममायमात्मप्रभवो भूयस्त्वमुपयास्यति ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘अपनी उस प्रियतमा पत्नीको मैं नहीं देख पाता हूँ और इन मनोहर वृक्षोंको देख रहा हूँ, इसलिये मेरा यह अनङ्गज्वर अब और बढ़ जायगा ॥ ३३ १/२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अदृश्यमाना वैदेही शोकं वर्धयतीह मे ॥ ३४ ॥
दृश्यमानो वसन्तश्च स्वेदसंसर्गदूषकः ।
मूलम्
अदृश्यमाना वैदेही शोकं वर्धयतीह मे ॥ ३४ ॥
दृश्यमानो वसन्तश्च स्वेदसंसर्गदूषकः ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘विदेहनन्दिनी सीता यहाँ मुझे नहीं दिखायी दे रही है, इसलिये मेरा शोक बढ़ाती है तथा मन्द मलयानिलके द्वारा स्वेदसंसर्गका निवारण करनेवाला यह वसन्त भी मेरे शोककी वृद्धि कर रहा है ॥ ३४ १/२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मां हि सा मृगशावाक्षी चिन्ताशोकबलात्कृतम् ॥ ३५ ॥
सन्तापयति सौमित्रे क्रूरश्चैत्रवनानिलः ।
मूलम्
मां हि सा मृगशावाक्षी चिन्ताशोकबलात्कृतम् ॥ ३५ ॥
सन्तापयति सौमित्रे क्रूरश्चैत्रवनानिलः ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘सुमित्राकुमार! मृगनयनी सीता चिन्ता और शोकसे बलपूर्वक पीडित किये गये मुझ रामको और भी संताप दे रही है । साथ ही यह वनमें बहनेवाली चैत्रमासकी वायु भी मुझे पीड़ा दे रही है ॥ ३५ १/२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अमी मयूराः शोभन्ते प्रनृत्यन्तस्ततस्ततः ॥ ३६ ॥
स्वैः पक्षैः पवनोद्धूतैर्गवाक्षैः स्फाटिकैरिव ।
मूलम्
अमी मयूराः शोभन्ते प्रनृत्यन्तस्ततस्ततः ॥ ३६ ॥
स्वैः पक्षैः पवनोद्धूतैर्गवाक्षैः स्फाटिकैरिव ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘ये मोर स्फटिकमणिके बने हुए गवाक्षों (झरोखों) के समान प्रतीत होनेवाले अपने फैले हुए पंखोंसे, जो वायुसे कम्पित हो रहे हैं, इधर-उधर नाचते हुए कैसी शोभा पा रहे हैं? ॥ ३६ १/२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शिखिनीभिः परिवृतास्त एते मदमूर्च्छिताः ॥ ३७ ॥
मन्मथाभिपरीतस्य मम मन्मथवर्धनाः ।
मूलम्
शिखिनीभिः परिवृतास्त एते मदमूर्च्छिताः ॥ ३७ ॥
मन्मथाभिपरीतस्य मम मन्मथवर्धनाः ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘मयूरियोंसे घिरे हुए ये मदमत्त मयूर अनङ्गवेदनासे संतप्त हुए मेरी इस कामपीड़ाको और भी बढ़ा रहे हैं ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्य लक्ष्मण नृत्यन्तं मयूरमुपनृत्यति ॥ ३८ ॥
शिखिनी मन्मथार्तैषा भर्तारं गिरिसानुनि ।
मूलम्
पश्य लक्ष्मण नृत्यन्तं मयूरमुपनृत्यति ॥ ३८ ॥
शिखिनी मन्मथार्तैषा भर्तारं गिरिसानुनि ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘लक्ष्मण! वह देखो, पर्वतशिखरपर नाचते हुए अपने स्वामी मयूरके साथ-साथ वह मोरनी भी कामपीड़ित होकर नाच रही है ॥ ३८ १/२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तामेव मनसा रामां मयूरोऽप्यनुधावति ॥ ३९ ॥
वितत्य रुचिरौ पक्षौ रुतैरुपहसन्निव ।
मूलम्
तामेव मनसा रामां मयूरोऽप्यनुधावति ॥ ३९ ॥
वितत्य रुचिरौ पक्षौ रुतैरुपहसन्निव ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘मयूर भी अपने दोनों सुन्दर पंखोंको फैलाकर मन-ही-मन अपनी उसी रामा (प्रिया) का अनुसरण कर रहा है तथा अपने मधुर स्वरोंसे मेरा उपहास करता-सा जान पड़ता है ॥ ३९ १/२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मयूरस्य वने नूनं रक्षसा न हृता प्रिया ॥ ४० ॥
तस्मान्नृत्यति रम्येषु वनेषु सह कान्तया ।
मूलम्
मयूरस्य वने नूनं रक्षसा न हृता प्रिया ॥ ४० ॥
तस्मान्नृत्यति रम्येषु वनेषु सह कान्तया ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘निश्चय ही वनमें किसी राक्षसने मोरकी प्रियाका अपहरण नहीं किया है, इसीलिये यह रमणीय वनोंमें अपनी वल्लभाके साथ नृत्य कर रहा है* ॥ ४० १/२ ॥
पादटिप्पनी
- रामायणशिरोमणिकार इस श्लोकके पूर्वार्धका अर्थ यों लिखते हैं—निश्चय ही इस मोरके निवासभूत वनमें उस राक्षसने मेरी प्रिया सीताका अपहरण नहीं किया; नहीं तो यह भी उसीके शोकमें डूबा रहता ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मम त्वयं विना वासः पुष्पमासे सुदुःसहः ॥ ४१ ॥
पश्य लक्ष्मण संरागस्तिर्यग्योनिगतेष्वपि ।
यदेषा शिखिनी कामाद् भर्तारमभिवर्तते ॥ ४२ ॥
मूलम्
मम त्वयं विना वासः पुष्पमासे सुदुःसहः ॥ ४१ ॥
पश्य लक्ष्मण संरागस्तिर्यग्योनिगतेष्वपि ।
यदेषा शिखिनी कामाद् भर्तारमभिवर्तते ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘फूलोंसे भरे हुए इस चैत्रमासमें सीताके बिना यहाँ निवास करना मेरे लिये अत्यन्त दुःसह है । लक्ष्मण! देखो तो सही, तिर्यग्योनिमें पड़े हुए प्राणियोंमें भी परस्पर कितना अधिक अनुराग है । इस समय यह मोरनी कामभावसे अपने स्वामीके सामने उपस्थित हुई है ॥ ४१-४२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ममाप्येवं विशालाक्षी जानकी जातसम्भ्रमा ।
मदनेनाभिवर्तेत यदि नापहृता भवेत् ॥ ४३ ॥
मूलम्
ममाप्येवं विशालाक्षी जानकी जातसम्भ्रमा ।
मदनेनाभिवर्तेत यदि नापहृता भवेत् ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि विशाल नेत्रोंवाली सीताका अपहरण न हुआ होता तो वह भी इसी प्रकार बड़े प्रेमसे वेगपूर्वक मेरे पास आती ॥ ४३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्य लक्ष्मण पुष्पाणि निष्फलानि भवन्ति मे ।
पुष्पभारसमृद्धानां वनानां शिशिरात्यये ॥ ४४ ॥
मूलम्
पश्य लक्ष्मण पुष्पाणि निष्फलानि भवन्ति मे ।
पुष्पभारसमृद्धानां वनानां शिशिरात्यये ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘लक्ष्मण! इस वसन्त ऋतुमें फूलोंके भारसे सम्पन्न हुए इन वनोंके ये सारे फूल मेरे लिये निष्फल हो रहे हैं । प्रिया सीताके यहाँ न होनेसे इनका मेरे लिये कोई प्रयोजन नहीं रह गया है ॥ ४४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रुचिराण्यपि पुष्पाणि पादपानामतिश्रिया ।
निष्फलानि महीं यान्ति समं मधुकरोत्करैः ॥ ४५ ॥
मूलम्
रुचिराण्यपि पुष्पाणि पादपानामतिश्रिया ।
निष्फलानि महीं यान्ति समं मधुकरोत्करैः ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अत्यन्त शोभासे मनोहर प्रतीत होनेवाले ये वृक्षोंके फूल भी निष्फल होकर भ्रमरसमूहोंके साथ ही पृथ्वीपर गिर जाते हैं ॥ ४५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नदन्ति कामं शकुना मुदिताः सङ्घशः कलम् ।
आह्वयन्त इवान्योन्यं कामोन्मादकरा मम ॥ ४६ ॥
मूलम्
नदन्ति कामं शकुना मुदिताः सङ्घशः कलम् ।
आह्वयन्त इवान्योन्यं कामोन्मादकरा मम ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हर्षमें भरे हुए ये झुंड-के-झुंड पक्षी एक-दूसरेको बुलाते हुए-से इच्छानुसार कलरव कर रहे हैं और मेरे मनमें प्रेमोन्माद उत्पन्न किये देते हैं ॥ ४६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वसन्तो यदि तत्रापि यत्र मे वसति प्रिया ।
नूनं परवशा सीता सापि शोचत्यहं यथा ॥ ४७ ॥
मूलम्
वसन्तो यदि तत्रापि यत्र मे वसति प्रिया ।
नूनं परवशा सीता सापि शोचत्यहं यथा ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जहाँ मेरी प्रिया सीता निवास करती है, वहाँ भी यदि इसी तरह वसन्त छा रहा हो तो उसकी क्या दशा होगी? निश्चय ही वहाँ पराधीन हुई सीता मेरी ही तरह शोक कर रही होगी ॥ ४७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नूनं न तु वसन्तस्तं देशं स्पृशति यत्र सा ।
कथं ह्यसितपद्माक्षी वर्तयेत् सा मया विना ॥ ४८ ॥
मूलम्
नूनं न तु वसन्तस्तं देशं स्पृशति यत्र सा ।
कथं ह्यसितपद्माक्षी वर्तयेत् सा मया विना ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अवश्य ही जहाँ सीता है, उस एकान्त स्थानमें वसन्तका प्रवेश नहीं है तो भी मेरे बिना वह कजरारे नेत्रोंवाली कमलनयनी सीता कैसे जीवित रह सकेगी ॥ ४८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथवा वर्तते तत्र वसन्तो यत्र मे प्रिया ।
किं करिष्यति सुश्रोणी सा तु निर्भर्त्सिता परैः ॥ ४९ ॥
मूलम्
अथवा वर्तते तत्र वसन्तो यत्र मे प्रिया ।
किं करिष्यति सुश्रोणी सा तु निर्भर्त्सिता परैः ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अथवा सम्भव है जहाँ मेरी प्रिया है वहाँ भी इसी तरह वसन्त छा रहा हो, परंतु उसे तो शत्रुओंकी डाँटफटकार सुननी पड़ती होगी; अतः वह बेचारी सुन्दरी सीता क्या कर सकेगी ॥ ४९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्यामा पद्मपलाशाक्षी मृदुभाषा च मे प्रिया ।
नूनं वसन्तमासाद्य परित्यक्ष्यति जीवितम् ॥ ५० ॥
मूलम्
श्यामा पद्मपलाशाक्षी मृदुभाषा च मे प्रिया ।
नूनं वसन्तमासाद्य परित्यक्ष्यति जीवितम् ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिसकी अभी नयी-नयी अवस्था है और प्रफुल्ल कमलदलके समान मनोहर नेत्र हैं, वह मीठी बोली बोलनेवाली मेरी प्राणवल्लभा जानकी निश्चय ही इस वसन्त ऋतुको पाकर अपने प्राण त्याग देगी ॥ ५० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृढं हि हृदये बुद्धिर्मम सम्परिवर्तते ।
नालं वर्तयितुं सीता साध्वी मद्विरहं गता ॥ ५१ ॥
मूलम्
दृढं हि हृदये बुद्धिर्मम सम्परिवर्तते ।
नालं वर्तयितुं सीता साध्वी मद्विरहं गता ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मेरे हृदयमें यह विचार दृढ़ होता जा रहा है कि साध्वी सीता मुझसे अलग होकर अधिक कालतक जीवित नहीं रह सकती ॥ ५१ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मयि भावो हि वैदेह्यास्तत्त्वतो विनिवेशितः ।
ममापि भावः सीतायां सर्वथा विनिवेशितः ॥ ५२ ॥
मूलम्
मयि भावो हि वैदेह्यास्तत्त्वतो विनिवेशितः ।
ममापि भावः सीतायां सर्वथा विनिवेशितः ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वास्तवमें विदेहकुमारीका हार्दिक अनुराग मुझमें और मेरा सम्पूर्ण प्रेम सर्वथा विदेहनन्दिनी सीतामें ही प्रतिष्ठित है ॥ ५२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष पुष्पवहो वायुः सुखस्पर्शो हिमावहः ।
तां विचिन्तयतः कान्तां पावकप्रतिमो मम ॥ ५३ ॥
मूलम्
एष पुष्पवहो वायुः सुखस्पर्शो हिमावहः ।
तां विचिन्तयतः कान्तां पावकप्रतिमो मम ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘फूलोंकी सुगन्ध लेकर बहनेवाली यह शीतलवायु, जिसका स्पर्श बहुत ही सुखद है, प्राणवल्लभा सीताकी याद आनेपर मुझे आगकी भाँति तपाने लगती है ॥ ५३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सदा सुखमहं मन्ये यं पुरा सह सीतया ।
मारुतः स विना सीतां शोकसञ्जननो मम ॥ ५४ ॥
मूलम्
सदा सुखमहं मन्ये यं पुरा सह सीतया ।
मारुतः स विना सीतां शोकसञ्जननो मम ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पहले जानकीके साथ रहनेपर जो मुझे सदा सुखद जान पड़ती थी, वही वायु आज सीताके विरहमें मेरे लिये शोकजनक हो गयी है ॥ ५४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां विनाथ विहङ्गोऽसौ पक्षी प्रणदितस्तदा ।
वायसः पादपगतः प्रहृष्टमभिकूजति ॥ ५५ ॥
मूलम्
तां विनाथ विहङ्गोऽसौ पक्षी प्रणदितस्तदा ।
वायसः पादपगतः प्रहृष्टमभिकूजति ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जब सीता मेरे साथ थी उन दिनों जो पक्षी कौआ आकाशमें जाकर काँव-काँव करता था, वह उसके भावी वियोगको सूचित करनेवाला था । अब सीताके वियोगकालमें वह कौआ वृक्षपर बैठकर बड़े हर्षके साथ अपनी बोली बोल रहा है (इससे सूचित हो रहा है कि सीताका संयोग शीघ्र ही सुलभ होगा) ॥ ५५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष वै तत्र वैदेह्या विहगः प्रतिहारकः ।
पक्षी मां तु विशालाक्ष्याः समीपमुपनेष्यति ॥ ५६ ॥
मूलम्
एष वै तत्र वैदेह्या विहगः प्रतिहारकः ।
पक्षी मां तु विशालाक्ष्याः समीपमुपनेष्यति ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यही वह पक्षी है, जो आकाशमें स्थित होकर बोलनेपर वैदेहीके अपहरणका सूचक हुआ; किंतु आज यह जैसी बोली बोल रहा है, उससे जान पड़ता है कि यह मुझे विशाललोचना सीताके समीप ले जायगा ॥ ५६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्य लक्ष्मण सन्नादं वने मदविवर्धनम् ।
पुष्पिताग्रेषु वृक्षेषु द्विजानामवकूजताम् ॥ ५७ ॥
मूलम्
पश्य लक्ष्मण सन्नादं वने मदविवर्धनम् ।
पुष्पिताग्रेषु वृक्षेषु द्विजानामवकूजताम् ॥ ५७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘लक्ष्मण! देखो, जिनकी ऊपरी डालियाँ फूलोंसे लदी हैं, वनमें उन वृक्षोंपर कलरव करनेवाले पक्षियोंका यह मधुर शब्द विरहीजनोंके मदनोन्मादको बढ़ानेवाला है ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विक्षिप्तां पवनेनैतामसौ तिलकमञ्जरीम् ।
षट्पदः सहसाभ्येति मदोद्धूतामिव प्रियाम् ॥ ५८ ॥
मूलम्
विक्षिप्तां पवनेनैतामसौ तिलकमञ्जरीम् ।
षट्पदः सहसाभ्येति मदोद्धूतामिव प्रियाम् ॥ ५८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वायुके द्वारा हिलायी जाती हुई उस तिलक वृक्षकी मंजरीपर भ्रमर सहसा जा बैठा है । मानो कोई प्रेमी काममदसे कम्पित हुई प्रेयसीसे मिल रहा हो ॥ ५८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामिनामयमत्यन्तमशोकः शोकवर्धनः ।
स्तबकैः पवनोत्क्षिप्तैस्तर्जयन्निव मां स्थितः ॥ ५९ ॥
मूलम्
कामिनामयमत्यन्तमशोकः शोकवर्धनः ।
स्तबकैः पवनोत्क्षिप्तैस्तर्जयन्निव मां स्थितः ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह अशोक प्रियाविरही कामी पुरुषोंके लिये अत्यन्त शोक बढ़ानेवाला है । यह वायुके झोंकेसे कम्पित हुए पुष्पगुच्छोंद्वारा मुझे डाँट बताता हुआ-सा खड़ा है ॥ ५९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अमी लक्ष्मण दृश्यन्ते चूताः कुसुमशालिनः ।
विभ्रमोत्सिक्तमनसः साङ्गरागा नरा इव ॥ ६० ॥
मूलम्
अमी लक्ष्मण दृश्यन्ते चूताः कुसुमशालिनः ।
विभ्रमोत्सिक्तमनसः साङ्गरागा नरा इव ॥ ६० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘लक्ष्मण! ये मञ्जरियोंसे सुशोभित होनेवाले आमके वृक्ष शृङ्गार-विलाससे मदमत्तहृदय होकर चन्दन आदि अङ्गराग धारण करनेवाले मनुष्योंके समान दिखायी देते हैं ॥ ६० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सौमित्रे पश्य पम्पायाश्चित्रासु वनराजिषु ।
किन्नरा नरशार्दूल विचरन्ति यतस्ततः ॥ ६१ ॥
मूलम्
सौमित्रे पश्य पम्पायाश्चित्रासु वनराजिषु ।
किन्नरा नरशार्दूल विचरन्ति यतस्ततः ॥ ६१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘नरश्रेष्ठ सुमित्राकुमार! देखो, पम्पाकी विचित्र वन-श्रेणियोंमें इधर-उधर किन्नर विचर रहे हैं ॥ ६१ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इमानि शुभगन्धीनि पश्य लक्ष्मण सर्वशः ।
नलिनानि प्रकाशन्ते जले तरुणसूर्यवत् ॥ ६२ ॥
मूलम्
इमानि शुभगन्धीनि पश्य लक्ष्मण सर्वशः ।
नलिनानि प्रकाशन्ते जले तरुणसूर्यवत् ॥ ६२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘लक्ष्मण! देखो, पम्पाके जलमें सब ओर खिले हुए ये सुगन्धित कमल प्रातःकालके सूर्यकी भाँति प्रकाशित हो रहे हैं ॥ ६२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एषा प्रसन्नसलिला पद्मनीलोत्पलायुता ।
हंसकारण्डवाकीर्णा पम्पा सौगन्धिकायुता ॥ ६३ ॥
मूलम्
एषा प्रसन्नसलिला पद्मनीलोत्पलायुता ।
हंसकारण्डवाकीर्णा पम्पा सौगन्धिकायुता ॥ ६३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पम्पाका जल बड़ा ही स्वच्छ है । इसमें लालकमल और नील कमल खिले हुए हैं । हंस और कारण्डव आदि पक्षी सब ओर फैले हुए हैं तथा सौगन्धिक कमल इसकी शोभा बढ़ा रहे हैं ॥ ६३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जले तरुणसूर्याभैः षट्पदाहतकेसरैः ।
पङ्कजैः शोभते पम्पा समन्तादभिसंवृता ॥ ६४ ॥
मूलम्
जले तरुणसूर्याभैः षट्पदाहतकेसरैः ।
पङ्कजैः शोभते पम्पा समन्तादभिसंवृता ॥ ६४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जलमें प्रातःकालके सूर्यकी भाँति प्रकाशित होनेवाले कमलोंके द्वारा सब ओरसे घिरी हुई पम्पा बड़ी शोभा पा रही है । उन कमलोंके केसरोंको भ्रमरोंने चूस लिया है ॥ ६४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चक्रवाकयुता नित्यं चित्रप्रस्थवनान्तरा ।
मातङ्गमृगयूथैश्च शोभते सलिलार्थिभिः ॥ ६५ ॥
मूलम्
चक्रवाकयुता नित्यं चित्रप्रस्थवनान्तरा ।
मातङ्गमृगयूथैश्च शोभते सलिलार्थिभिः ॥ ६५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इसमें चक्रवाक सदा निवास करते हैं । यहाँके वनोंमें विचित्र-विचित्र स्थान हैं तथा पानी पीनेके लिये आये हुए हाथियों और मृगोंके समूहोंसे इस पम्पाकी शोभा और भी बढ़ जाती है ॥ ६५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पवनाहतवेगाभिरूर्मिभिर्विमलेऽम्भसि ।
पङ्कजानि विराजन्ते ताड्यमानानि लक्ष्मण ॥ ६६ ॥
मूलम्
पवनाहतवेगाभिरूर्मिभिर्विमलेऽम्भसि ।
पङ्कजानि विराजन्ते ताड्यमानानि लक्ष्मण ॥ ६६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘लक्ष्मण! वायुके थपेड़ेसे जिनमें वेग पैदा होता है, उन लहरोंसे ताड़ित होनेवाले कमल पम्पाके निर्मल जलमें बड़ी शोभा पाते हैं ॥ ६६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पद्मपत्रविशालाक्षीं सततं प्रियपङ्कजाम् ।
अपश्यतो मे वैदेहीं जीवितं नाभिरोचते ॥ ६७ ॥
मूलम्
पद्मपत्रविशालाक्षीं सततं प्रियपङ्कजाम् ।
अपश्यतो मे वैदेहीं जीवितं नाभिरोचते ॥ ६७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्रफुल्ल कमलदलके समान विशाल नेत्रोंवाली विदेहराजकुमारी सीताको कमल सदा ही प्रिय रहे हैं । उसे न देखनेके कारण मुझे जीवित रहना अच्छा नहीं लगता है ॥ ६७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहो कामस्य वामत्वं यो गतामपि दुर्लभाम् ।
स्मारयिष्यति कल्याणीं कल्याणतरवादिनीम् ॥ ६८ ॥
मूलम्
अहो कामस्य वामत्वं यो गतामपि दुर्लभाम् ।
स्मारयिष्यति कल्याणीं कल्याणतरवादिनीम् ॥ ६८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अहो! काम कितना कुटिल है, जो अन्यत्र गयी हुई एवं परम दुर्लभ होनेपर भी कल्याणमय वचन बोलनेवाली उस कल्याणस्वरूपा सीताका बारंबार स्मरण दिला रहा है ॥ ६८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शक्यो धारयितुं कामो भवेदभ्यागतो मया ।
यदि भूयो वसन्तो मां न हन्यात् पुष्पितद्रुमः ॥ ६९ ॥
मूलम्
शक्यो धारयितुं कामो भवेदभ्यागतो मया ।
यदि भूयो वसन्तो मां न हन्यात् पुष्पितद्रुमः ॥ ६९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि खिले हुए वृक्षोंवाला यह वसन्त मुझपर पुनः प्रहार न करे तो प्राप्त हुई कामवेदनाको मैं किसी तरह मनमें ही रोके रह सकता हूँ ॥ ६९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यानि स्म रमणीयानि तया सह भवन्ति मे ।
तान्येवारमणीयानि जायन्ते मे तया विना ॥ ७० ॥
मूलम्
यानि स्म रमणीयानि तया सह भवन्ति मे ।
तान्येवारमणीयानि जायन्ते मे तया विना ॥ ७० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सीताके साथ रहनेपर जो-जो वस्तुएँ मुझे रमणीय प्रतीत होती थीं, वे ही आज उसके बिना असुन्दर जान पड़ती हैं ॥ ७० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पद्मकोशपलाशानि द्रष्टुं दृष्टिर्हि मन्यते ।
सीताया नेत्रकोशाभ्यां सदृशानीति लक्ष्मण ॥ ७१ ॥
मूलम्
पद्मकोशपलाशानि द्रष्टुं दृष्टिर्हि मन्यते ।
सीताया नेत्रकोशाभ्यां सदृशानीति लक्ष्मण ॥ ७१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘लक्ष्मण! ये कमलकोशोंके दल सीताके नेत्रकोशोंके समान हैं । इसलिये मेरी आँखें इन्हें ही देखना चाहती हैं ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पद्मकेसरसंसृष्टो वृक्षान्तरविनिःसृतः ।
निःश्वास इव सीताया वाति वायुर्मनोहरः ॥ ७२ ॥
मूलम्
पद्मकेसरसंसृष्टो वृक्षान्तरविनिःसृतः ।
निःश्वास इव सीताया वाति वायुर्मनोहरः ॥ ७२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कमलकेसरोंका स्पर्श करके दूसरे वृक्षोंके बीचसे निकली हुई यह सौरभयुक्त मनोहर वायु सीताके निःश्वासकी भाँति चल रही है ॥ ७२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सौमित्रे पश्य पम्पाया दक्षिणे गिरिसानुषु ।
पुष्पितां कर्णिकारस्य यष्टिं परमशोभिताम् ॥ ७३ ॥
मूलम्
सौमित्रे पश्य पम्पाया दक्षिणे गिरिसानुषु ।
पुष्पितां कर्णिकारस्य यष्टिं परमशोभिताम् ॥ ७३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सुमित्रानन्दन! वह देखो, पम्पाके दक्षिण भागमें पर्वत-शिखरोंपर खिली हुई कनेरकी डाल कितनी अधिक शोभा पा रही है ॥ ७३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधिकं शैलराजोऽयं धातुभिस्तु विभूषितः ।
विचित्रं सृजते रेणुं वायुवेगविघट्टितम् ॥ ७४ ॥
मूलम्
अधिकं शैलराजोऽयं धातुभिस्तु विभूषितः ।
विचित्रं सृजते रेणुं वायुवेगविघट्टितम् ॥ ७४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘विभिन्न धातुओंसे विभूषित हुआ यह पर्वतराज ऋष्यमूक वायुके वेगसे लायी हुई विचित्र धूलिकी सृष्टि कर रहा है ॥ ७४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गिरिप्रस्थास्तु सौमित्रे सर्वतः सम्प्रपुष्पितैः ।
निष्पत्रैः सर्वतो रम्यैः प्रदीप्ता इव किंशुकैः ॥ ७५ ॥
मूलम्
गिरिप्रस्थास्तु सौमित्रे सर्वतः सम्प्रपुष्पितैः ।
निष्पत्रैः सर्वतो रम्यैः प्रदीप्ता इव किंशुकैः ॥ ७५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सुमित्राकुमार! चारों ओर खिले हुए और सब ओरसे रमणीय प्रतीत होनेवाले पत्रहीन पलाश वृक्षोंसे उपलक्षित इस पर्वतके पृष्ठभाग आगमें जलते हुए-से जान पड़ते हैं ॥ ७५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पम्पातीररुहाश्चेमे संसिक्ता मधुगन्धिनः ।
मालतीमल्लिकापद्मकरवीराश्च पुष्पिताः ॥ ७६ ॥
मूलम्
पम्पातीररुहाश्चेमे संसिक्ता मधुगन्धिनः ।
मालतीमल्लिकापद्मकरवीराश्च पुष्पिताः ॥ ७६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पम्पाके तटपर उत्पन्न हुए ये वृक्ष इसीके जलसे अभिषिक्त हो बढ़े हैं और मधुर मकरन्द एवं गन्धसे सम्पन्न हुए हैं । इनके नाम इस प्रकार हैं—मालती, मल्लिका, पद्म और करवीर । ये सब-के-सब फूलोंसे सुशोभित हैं ॥ ७६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
केतक्यः सिन्दुवाराश्च वासन्त्यश्च सुपुष्पिताः ।
माधव्यो गन्धपूर्णाश्च कुन्दगुल्माश्च सर्वशः ॥ ७७ ॥
मूलम्
केतक्यः सिन्दुवाराश्च वासन्त्यश्च सुपुष्पिताः ।
माधव्यो गन्धपूर्णाश्च कुन्दगुल्माश्च सर्वशः ॥ ७७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘केतकी (केवड़े), सिन्दुवार तथा वासन्ती लताएँ भी सुन्दर फूलोंसे भरी हुई हैं! गन्धभरी माधवी लता तथा कुन्द-कुसुमोंकी झाड़ियाँ सब ओर शोभा पा रही हैं ॥ ७७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चिरिबिल्वा मधूकाश्च वञ्जुला बकुलास्तथा ।
चम्पकास्तिलकाश्चैव नागवृक्षाश्च पुष्पिताः ॥ ७८ ॥
मूलम्
चिरिबिल्वा मधूकाश्च वञ्जुला बकुलास्तथा ।
चम्पकास्तिलकाश्चैव नागवृक्षाश्च पुष्पिताः ॥ ७८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘चिरिबिल्व (चिलबिल), महुआ, बेंत, मौलसिरी, चम्पा, तिलक और नागकेसर भी खिले दिखायी देते हैं ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पद्मकाश्चैव शोभन्ते नीलाशोकाश्च पुष्पिताः ।
लोध्राश्च गिरिपृष्ठेषु सिंहकेसरपिञ्जराः ॥ ७९ ॥
मूलम्
पद्मकाश्चैव शोभन्ते नीलाशोकाश्च पुष्पिताः ।
लोध्राश्च गिरिपृष्ठेषु सिंहकेसरपिञ्जराः ॥ ७९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पर्वतके पृष्ठभागोंपर पद्मक और खिले हुए नील अशोक भी शोभा पाते हैं । वहीं सिंहके अयालकी भाँति पिङ्गल वर्णवाले लोध्र भी सुशोभित हो रहे हैं ॥ ७९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अङ्कोलाश्च कुरण्टाश्च चूर्णकाः पारिभद्रकाः ।
चूताः पाटलयश्चापि कोविदाराश्च पुष्पिताः ॥ ८० ॥
मुचुकुन्दार्जुनाश्चैव दृश्यन्ते गिरिसानुषु ।
मूलम्
अङ्कोलाश्च कुरण्टाश्च चूर्णकाः पारिभद्रकाः ।
चूताः पाटलयश्चापि कोविदाराश्च पुष्पिताः ॥ ८० ॥
मुचुकुन्दार्जुनाश्चैव दृश्यन्ते गिरिसानुषु ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘अङ्कोल, कुरंट, चूर्णक (सेमल), पारिभद्रक(नीम या मदार), आम, पाटलि, कोविदार, मुचुकुन्द (नारङ्ग) और अर्जुन नामक वृक्ष भी पर्वत-शिखरोंपर फूलोंसे लदे दिखायी देते हैं ॥ ८० १/२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
केतकोद्दालकाश्चैव शिरीषाः शिंशपा धवाः ॥ ८१ ॥
शाल्मल्यः किंशुकाश्चैव रक्ताः कुरबकास्तथा ।
तिनिशा नक्तमालाश्च चन्दनाः स्यन्दनास्तथा ॥ ८२ ॥
हिन्तालास्तिलकाश्चैव नागवृक्षाश्च पुष्पिताः ।
मूलम्
केतकोद्दालकाश्चैव शिरीषाः शिंशपा धवाः ॥ ८१ ॥
शाल्मल्यः किंशुकाश्चैव रक्ताः कुरबकास्तथा ।
तिनिशा नक्तमालाश्च चन्दनाः स्यन्दनास्तथा ॥ ८२ ॥
हिन्तालास्तिलकाश्चैव नागवृक्षाश्च पुष्पिताः ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘केतक, उद्दालक (लसोड़ा), शिरीष, शीशम, धव, सेमल, पलाश, लाल कुरबक, तिनिश, नक्तमाल, चन्दन, स्यन्दन, हिन्ताल, तिलक तथा नागकेसरके पेड़ भी फूलोंसे भरे दिखायी देते हैं ॥ ८१-८२ १/२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुष्पितान् पुष्पिताग्राभिर्लताभिः परिवेष्टितान् ॥ ८३ ॥
द्रुमान् पश्येह सौमित्रे पम्पाया रुचिरान् बहून् ।
मूलम्
पुष्पितान् पुष्पिताग्राभिर्लताभिः परिवेष्टितान् ॥ ८३ ॥
द्रुमान् पश्येह सौमित्रे पम्पाया रुचिरान् बहून् ।
अनुवाद (हिन्दी)
सुमित्रानन्दन! जिनके अग्रभाग फूलोंसे भरे हुए हैं, उन लता-वल्लरियोंसे लिपटे हुए पम्पाके इन मनोहर और बहुसंख्यक वृक्षोंको तो देखो । वे सब-के-सब यहाँ फूलोंके भारसे लदे हुए हैं ॥ ८३ १/२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वातविक्षिप्तविटपान् यथासन्नान् द्रुमानिमान् ॥ ८४ ॥
लताः समनुवर्तन्ते मत्ता इव वरस्त्रियः ।
मूलम्
वातविक्षिप्तविटपान् यथासन्नान् द्रुमानिमान् ॥ ८४ ॥
लताः समनुवर्तन्ते मत्ता इव वरस्त्रियः ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘हवाके झोंके खाकर जिनकी डालें हिल रही हैं, वे ये वृक्ष झुककर इतने निकट आ जाते हैं कि हाथसे इनकी डालियोंका स्पर्श किया जा सके । सलोनी लताएँ मदमत्त सुन्दरियोंकी भाँति इनका अनुसरण करती हैं ॥ ८४ १/२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पादपात् पादपं गच्छन् शैलाच्छैलं वनाद् वनम् ॥ ८५ ॥
वाति नैकरसास्वादसम्मोदित इवानिलः ।
मूलम्
पादपात् पादपं गच्छन् शैलाच्छैलं वनाद् वनम् ॥ ८५ ॥
वाति नैकरसास्वादसम्मोदित इवानिलः ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘एक वृक्षसे दूसरे वृक्षपर, एक पर्वतसे दूसरे पर्वतपर तथा एक वनसे दूसरे वनमें जाती हुई वायु अनेक रसोंके आस्वादनसे आनन्दित-सी होकर बह रही है ॥ ८५ १/२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
केचित् पर्याप्तकुसुमाः पादपा मधुगन्धिनः ॥ ८६ ॥
केचिन्मुकुलसंवीताः श्यामवर्णा इवाबभुः ।
मूलम्
केचित् पर्याप्तकुसुमाः पादपा मधुगन्धिनः ॥ ८६ ॥
केचिन्मुकुलसंवीताः श्यामवर्णा इवाबभुः ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘कुछ वृक्ष प्रचुर पुष्पोंसे भरे हुए हैं और मधु एवं सुगन्धसे सम्पन्न हैं । कुछ मुकुलोंसे आवेष्टित हो श्यामवर्ण-से प्रतीत हो रहे हैं ॥ ८६ १/२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदं मृष्टमिदं स्वादु प्रफुल्लमिदमित्यपि ॥ ८७ ॥
रागरक्तो मधुकरः कुसुमेष्वेव लीयते ।
मूलम्
इदं मृष्टमिदं स्वादु प्रफुल्लमिदमित्यपि ॥ ८७ ॥
रागरक्तो मधुकरः कुसुमेष्वेव लीयते ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘वह भ्रमर रागसे रँगा हुआ है और ‘यह मधुर है, यह स्वादिष्ट है तथा यह अधिक खिला हुआ है’ इत्यादि बातें सोचता हुआ फूलोंमें ही लीन हो रहा है ॥ ८७ १/२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निलीय पुनरुत्पत्य सहसान्यत्र गच्छति ।
मधुलुब्धो मधुकरः पम्पातीरद्रुमेष्वसौ ॥ ८८ ॥
मूलम्
निलीय पुनरुत्पत्य सहसान्यत्र गच्छति ।
मधुलुब्धो मधुकरः पम्पातीरद्रुमेष्वसौ ॥ ८८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पुष्पोंमें छिपकर फिर ऊपरको उड़ जाता है और सहसा अन्यत्र चल देता है । इस प्रकार मधुका लोभी भ्रमर पम्पातीरवर्ती वृक्षोंपर विचर रहा है ॥ ८८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इयं कुसुमसङ्घातैरुपस्तीर्णा सुखाकृता ।
स्वयं निपतितैर्भूमिः शयनप्रस्तरैरिव ॥ ८९ ॥
मूलम्
इयं कुसुमसङ्घातैरुपस्तीर्णा सुखाकृता ।
स्वयं निपतितैर्भूमिः शयनप्रस्तरैरिव ॥ ८९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘स्वयं झड़कर गिरे हुए पुष्पसमूहोंसे आच्छादित हुई यह भूमि ऐसी सुखदायिनी हो गयी है, मानो इसपर शयन करनेके लिये मुलायम बिछौने बिछा दिये गये हों ॥ ८९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विविधा विविधैः पुष्पैस्तैरेव नगसानुषु ।
विस्तीर्णाः पीतरक्ताभाः सौमित्रे प्रस्तराः कृताः ॥ ९० ॥
मूलम्
विविधा विविधैः पुष्पैस्तैरेव नगसानुषु ।
विस्तीर्णाः पीतरक्ताभाः सौमित्रे प्रस्तराः कृताः ॥ ९० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सुमित्रानन्दन! पर्वतके शिखरोंपर जो नानाप्रकारकी विशाल शिलाएँ हैं, उनपर झड़े हुए भाँति-भाँतिके फूलोंने उन्हें लाल-पीले रंगकी शय्याओंके समान बना दिया है ॥ ९० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हिमान्ते पश्य सौमित्रे वृक्षाणां पुष्पसम्भवम् ।
पुष्पमासे हि तरवः सङ्घर्षादिव पुष्पिताः ॥ ९१ ॥
मूलम्
हिमान्ते पश्य सौमित्रे वृक्षाणां पुष्पसम्भवम् ।
पुष्पमासे हि तरवः सङ्घर्षादिव पुष्पिताः ॥ ९१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सुमित्राकुमार! वसन्त ऋतुमें वृक्षोंके फूलोंका यह वैभव तो देखो । इस चैत्र मासमें ये वृक्ष मानो परस्पर होड़ लगाकर फूले हुए हैं ॥ ९१ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आह्वयन्त इवान्योन्यं नगाः षट्पदनादिताः ।
कुसुमोत्तंसविटपाः शोभन्ते बहु लक्ष्मण ॥ ९२ ॥
मूलम्
आह्वयन्त इवान्योन्यं नगाः षट्पदनादिताः ।
कुसुमोत्तंसविटपाः शोभन्ते बहु लक्ष्मण ॥ ९२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘लक्ष्मण! वृक्ष अपनी ऊपरी डालियोंपर फूलोंका मुकुट धारण करके बड़ी शोभा पा रहे हैं तथा वे भ्रमरोंके गुञ्जारवसे इस तरह कोलाहलपूर्ण हो रहे हैं, मानो एक-दूसरेका आह्वान कर रहे हों ॥ ९२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष कारण्डवः पक्षी विगाह्य सलिलं शुभम् ।
रमते कान्तया सार्धं काममुद्दीपयन्निव ॥ ९३ ॥
मूलम्
एष कारण्डवः पक्षी विगाह्य सलिलं शुभम् ।
रमते कान्तया सार्धं काममुद्दीपयन्निव ॥ ९३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह कारण्डव पक्षी पम्पाके स्वच्छ जलमें प्रवेश करके अपनी प्रियतमाके साथ रमण करता हुआ कामका उद्दीपन-सा कर रहा है ॥ ९३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन्दाकिन्यास्तु यदिदं रूपमेतन्मनोरमम् ।
स्थाने जगति विख्याता गुणास्तस्या मनोरमाः ॥ ९४ ॥
मूलम्
मन्दाकिन्यास्तु यदिदं रूपमेतन्मनोरमम् ।
स्थाने जगति विख्याता गुणास्तस्या मनोरमाः ॥ ९४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मन्दाकिनीके समान प्रतीत होनेवाली इस पम्पाका जब ऐसा मनोरम रूप है, तब संसारमें उसके जो मनोरम गुण विख्यात हैं, वे उचित ही हैं ॥ ९४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि दृश्येत सा साध्वी यदि चेह वसेमहि ।
स्पृहयेयं न शक्राय नायोध्यायै रघूत्तम ॥ ९५ ॥
मूलम्
यदि दृश्येत सा साध्वी यदि चेह वसेमहि ।
स्पृहयेयं न शक्राय नायोध्यायै रघूत्तम ॥ ९५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘रघुश्रेष्ठ लक्ष्मण! यदि साध्वी सीता दीख जाय और यदि उसके साथ हम यहाँ निवास करने लगें तो हमें न इन्द्रलोकमें जानेकी इच्छा होगी और न अयोध्यामें लौटनेकी ही ॥ ९५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ह्येवं रमणीयेषु शाद्वलेषु तया सह ।
रमतो मे भवेच्चिन्ता न स्पृहान्येषु वा भवेत् ॥ ९६ ॥
मूलम्
न ह्येवं रमणीयेषु शाद्वलेषु तया सह ।
रमतो मे भवेच्चिन्ता न स्पृहान्येषु वा भवेत् ॥ ९६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हरी-हरी घासोंसे सुशोभित ऐसे रमणीय प्रदेशोंमें सीताके साथ सानन्द विचरनेका अवसर मिले तो मुझे (अयोध्याका राज्य न मिलनेके कारण) कोई चिन्ता नहीं होगी और न दूसरे ही दिव्य भोगोंकी अभिलाषा हो सकेगी ॥ ९६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अमी हि विविधैः पुष्पैस्तरवो विविधच्छदाः ।
काननेऽस्मिन् विना कान्तां चिन्तामुत्पादयन्ति मे ॥ ९७ ॥
मूलम्
अमी हि विविधैः पुष्पैस्तरवो विविधच्छदाः ।
काननेऽस्मिन् विना कान्तां चिन्तामुत्पादयन्ति मे ॥ ९७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस वनमें भाँति-भाँतिके पल्लवोंसे सुशोभित और नाना प्रकारके फूलोंसे उपलक्षित ये वृक्ष प्राणवल्लभा सीताके बिना मेरे मनमें चिन्ता उत्पन्न कर देते हैं ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्य शीतजलां चेमां सौमित्रे पुष्करायुताम् ।
चक्रवाकानुचरितां कारण्डवनिषेविताम् ॥ ९८ ॥
प्लवैः क्रौञ्चैश्च सम्पूर्णां महामृगनिषेविताम् ।
मूलम्
पश्य शीतजलां चेमां सौमित्रे पुष्करायुताम् ।
चक्रवाकानुचरितां कारण्डवनिषेविताम् ॥ ९८ ॥
प्लवैः क्रौञ्चैश्च सम्पूर्णां महामृगनिषेविताम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘सुमित्राकुमार! देखो, इस पम्पाका जल कितना शीतल है । इसमें असंख्य कमल खिले हुए हैं । चकवे विचरते हैं और कारण्डव निवास करते हैं । इतना ही नहीं, जलकुक्कुट तथा क्रौञ्च भरे हुए हैं एवं बड़े-बड़े मृग इसका सेवन करते हैं ॥ ९८ १/२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधिकं शोभते पम्पा विकूजद्भिर्विहङ्गमैः ॥ ९९ ॥
दीपयन्तीव मे कामं विविधा मुदिता द्विजाः ।
श्यामां चन्द्रमुखीं स्मृत्वा प्रियां पद्मनिभेक्षणाम् ॥ १०० ॥
मूलम्
अधिकं शोभते पम्पा विकूजद्भिर्विहङ्गमैः ॥ ९९ ॥
दीपयन्तीव मे कामं विविधा मुदिता द्विजाः ।
श्यामां चन्द्रमुखीं स्मृत्वा प्रियां पद्मनिभेक्षणाम् ॥ १०० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘चहकते हुए पक्षियोंसे इस पम्पाकी बड़ी शोभा हो रही है । आनन्दमें निमग्न हुए ये नाना प्रकारके पक्षी मेरे सीताविषयक अनुरागको उद्दीप्त कर देते हैं; क्योंकि इनकी बोली सुनकर मुझे नूतन अवस्थावाली कमलनयनी चन्द्रमुखी प्रियतमा सीताका स्मरण हो आता है ॥ ९९-१०० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्य सानुषु चित्रेषु मृगीभिः सहितान् मृगान् ।
मां पुनर्मृगशावाक्ष्या वैदेह्या विरहीकृतम् ।
व्यथयन्तीव मे चित्तं सञ्चरन्तस्ततस्ततः ॥ १०१ ॥
मूलम्
पश्य सानुषु चित्रेषु मृगीभिः सहितान् मृगान् ।
मां पुनर्मृगशावाक्ष्या वैदेह्या विरहीकृतम् ।
व्यथयन्तीव मे चित्तं सञ्चरन्तस्ततस्ततः ॥ १०१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘लक्ष्मण! देखो, पर्वतके विचित्र शिखरोंपर ये हरिण अपनी हरिणियोंके साथ विचर रहे हैं और मैं मृगनयनी सीतासे बिछुड़ गया हूँ । इधर-उधर विचरते हुए ये मृग मेरे चित्तको व्यथित किये देते हैं ॥ १०१ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्मिन् सानुनि रम्ये हि मत्तद्विजगणाकुले ।
पश्येयं यदि तां कान्तां ततः स्वस्ति भवेन्मम ॥ १०२ ॥
मूलम्
अस्मिन् सानुनि रम्ये हि मत्तद्विजगणाकुले ।
पश्येयं यदि तां कान्तां ततः स्वस्ति भवेन्मम ॥ १०२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मतवाले पक्षियोंसे भरे हुए इस पर्वतके रमणीय शिखरपर यदि प्राणवल्लभा सीताका दर्शन पा सकूँ तभी मेरा कल्याण होगा ॥ १०२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीवेयं खलु सौमित्रे मया सह सुमध्यमा ।
सेवेत यदि वैदेही पम्पायाः पवनं शुभम् ॥ १०३ ॥
मूलम्
जीवेयं खलु सौमित्रे मया सह सुमध्यमा ।
सेवेत यदि वैदेही पम्पायाः पवनं शुभम् ॥ १०३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सुमित्रानन्दन! यदि सुमध्यमा सीता मेरे साथ रहकर इस पम्पासरोवरके तटपर सुखद समीरका सेवन कर सके तो मैं निश्चय ही जीवित रह सकता हूँ ॥ १०३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पद्मसौगन्धिकवहं शिवं शोकविनाशनम् ।
धन्या लक्ष्मण सेवन्ते पम्पाया वनमारुतम् ॥ १०४ ॥
मूलम्
पद्मसौगन्धिकवहं शिवं शोकविनाशनम् ।
धन्या लक्ष्मण सेवन्ते पम्पाया वनमारुतम् ॥ १०४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘लक्ष्मण! जो लोग अपनी प्रियतमाके साथ रहकर पद्म और सौगन्धिक कमलोंकी सुगन्ध लेकर बहनेवाली शीतल, मन्द एवं शोकनाशन पम्पा-वनकी वायुका सेवन करते हैं, वे धन्य हैं ॥ १०४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्यामा पद्मपलाशाक्षी प्रिया विरहिता मया ।
कथं धारयति प्राणान् विवशा जनकात्मजा ॥ १०५ ॥
मूलम्
श्यामा पद्मपलाशाक्षी प्रिया विरहिता मया ।
कथं धारयति प्राणान् विवशा जनकात्मजा ॥ १०५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हाय! वह नयी अवस्थावाली कमललोचना जनकनन्दिनी प्रिया सीता मुझसे बिछुड़कर बेबसीकी दशामें अपने प्राणोंको कैसे धारण करती होगी ॥ १०५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं नु वक्ष्यामि धर्मज्ञं राजानं सत्यवादिनम् ।
जनकं पृष्टसीतं तं कुशलं जनसंसदि ॥ १०६ ॥
मूलम्
किं नु वक्ष्यामि धर्मज्ञं राजानं सत्यवादिनम् ।
जनकं पृष्टसीतं तं कुशलं जनसंसदि ॥ १०६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘लक्ष्मण! धर्मके जाननेवाले सत्यवादी राजा जनक जब जन-समुदायमें बैठकर मुझसे सीताका कुशल-समाचार पूछेंगे, उस समय मैं उन्हें क्या उत्तर दूँगा ॥ १०६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
या मामनुगता मन्दं पित्रा प्रस्थापितं वनम् ।
सीता धर्मं समास्थाय क्व नु सा वर्तते प्रिया ॥ १०७ ॥
मूलम्
या मामनुगता मन्दं पित्रा प्रस्थापितं वनम् ।
सीता धर्मं समास्थाय क्व नु सा वर्तते प्रिया ॥ १०७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हाय! पिताके द्वारा वनमें भेजे जानेपर जो धर्मका आश्रय ले मेरे पीछे-पीछे यहाँ चली आयी, वह मेरी प्रिया इस समय कहाँ है? ॥ १०७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तया विहीनः कृपणः कथं लक्ष्मण धारये ।
या मामनुगता राज्याद् भ्रष्टं विहतचेतसम् ॥ १०८ ॥
मूलम्
तया विहीनः कृपणः कथं लक्ष्मण धारये ।
या मामनुगता राज्याद् भ्रष्टं विहतचेतसम् ॥ १०८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘लक्ष्मण! जिसने राज्यसे वञ्चित और हताश हो जानेपर भी मेरा साथ नहीं छोड़ा—मेरा ही अनुसरण किया, उसके बिना अत्यन्त दीन होकर मैं कैसे जीवन धारण करूँगा ॥ १०८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्चार्वाञ्चितपद्माक्षं सुगन्धि शुभमव्रणम् ।
अपश्यतो मुखं तस्याः सीदतीव मतिर्मम ॥ १०९ ॥
मूलम्
तच्चार्वाञ्चितपद्माक्षं सुगन्धि शुभमव्रणम् ।
अपश्यतो मुखं तस्याः सीदतीव मतिर्मम ॥ १०९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो कमलदलके समान सुन्दर, मनोहर एवं प्रशंसनीय नेत्रोंसे सुशोभित है, जिससे मीठी-मीठी सुगन्ध निकलती रहती है, जो निर्मल तथा चेचक आदिके चिह्नसे रहित है, जनककिशोरीके उस दर्शनीय मुखको देखे बिना मेरी सुध-बुध खोयी जा रही है ॥ १०९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्मितहास्यान्तरयुतं गुणवन्मधुरं हितम् ।
वैदेह्या वाक्यमतुलं कदा श्रोष्यामि लक्ष्मण ॥ ११० ॥
मूलम्
स्मितहास्यान्तरयुतं गुणवन्मधुरं हितम् ।
वैदेह्या वाक्यमतुलं कदा श्रोष्यामि लक्ष्मण ॥ ११० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘लक्ष्मण! वैदेहीके द्वारा कभी हँसकर और कभी मुसकराकर कही हुई वे मधुर, हितकर एवं लाभदायक बातें जिनकी कहीं तुलना नहीं है, मुझे अब कब सुननेको मिलेंगी? ॥ ११० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राप्य दुःखं वने श्यामा मां मन्मथविकर्शितम् ।
नष्टदुःखेव हृष्टेव साध्वी साध्वभ्यभाषत ॥ १११ ॥
मूलम्
प्राप्य दुःखं वने श्यामा मां मन्मथविकर्शितम् ।
नष्टदुःखेव हृष्टेव साध्वी साध्वभ्यभाषत ॥ १११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सोलह वर्षकी-सी अवस्थावाली साध्वी सीता यद्यपि वनमें आकर कष्ट उठा रही थी, तथापि जब मुझे अनङ्गवेदना या मानसिक कष्टसे पीड़ित देखती, तब मानो उसका अपना सारा दुःख नष्ट हो गया हो, इस प्रकार प्रसन्न-सी होकर मेरी पीड़ा दूर करनेके लिये अच्छी-अच्छी बातें करने लगती थी ॥ १११ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं नु वक्ष्याम्ययोध्यायां कौसल्यां हि नृपात्मज ।
क्व सा स्नुषेति पृच्छन्तीं कथं चापि मनस्विनीम् ॥ ११२ ॥
मूलम्
किं नु वक्ष्याम्ययोध्यायां कौसल्यां हि नृपात्मज ।
क्व सा स्नुषेति पृच्छन्तीं कथं चापि मनस्विनीम् ॥ ११२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजकुमार! अयोध्यामें चलनेपर जब मनस्विनी माता कौसल्या पूछेंगी कि ‘मेरी बहूरानी कहाँ है?’ तो मैं उन्हें क्या उत्तर दूँगा? ॥ ११२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गच्छ लक्ष्मण पश्य त्वं भरतं भ्रातृवत्सलम् ।
नह्यहं जीवितुं शक्तस्तामृते जनकात्मजाम् ॥ ११३ ॥
इति रामं महात्मानं विलपन्तमनाथवत् ।
उवाच लक्ष्मणो भ्राता वचनं युक्तमव्ययम् ॥ ११४ ॥
मूलम्
गच्छ लक्ष्मण पश्य त्वं भरतं भ्रातृवत्सलम् ।
नह्यहं जीवितुं शक्तस्तामृते जनकात्मजाम् ॥ ११३ ॥
इति रामं महात्मानं विलपन्तमनाथवत् ।
उवाच लक्ष्मणो भ्राता वचनं युक्तमव्ययम् ॥ ११४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘लक्ष्मण! तुम जाओ, भ्रातृवत्सल भरतसे मिलो । मैं तो जनकनन्दिनी सीताके बिना जीवित नहीं रह सकता ।’ इस प्रकार महात्मा श्रीरामको अनाथकी भाँति विलाप करते देख भाई लक्ष्मणने युक्तियुक्त एवं निर्दोष वाणीमें कहा— ॥ ११२-११४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संस्तम्भ राम भद्रं ते मा शुचः पुरुषोत्तम ।
नेदृशानां मतिर्मन्दा भवत्यकलुषात्मनाम् ॥ ११५ ॥
मूलम्
संस्तम्भ राम भद्रं ते मा शुचः पुरुषोत्तम ।
नेदृशानां मतिर्मन्दा भवत्यकलुषात्मनाम् ॥ ११५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पुरुषोत्तम श्रीराम! आपका भला हो । आप अपनेको सँभालिये । शोक न कीजिये । आप-जैसे पुण्यात्मा पुरुषोंकी बुद्धि उत्साहशून्य नहीं होती ॥ ११५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्मृत्वा वियोगजं दुःखं त्यज स्नेहं प्रिये जने ।
अतिस्नेहपरिष्वङ्गाद् वर्तिरार्द्रापि दह्यते ॥ ११६ ॥
मूलम्
स्मृत्वा वियोगजं दुःखं त्यज स्नेहं प्रिये जने ।
अतिस्नेहपरिष्वङ्गाद् वर्तिरार्द्रापि दह्यते ॥ ११६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘स्वजनोंके अवश्यम्भावी वियोगका दुःख सभीको सहना पड़ता है, इस बातको स्मरण करके अपने प्रिय जनोंके प्रति अधिक स्नेह (आसक्ति) को त्याग दीजिये; क्योंकि जल आदिसे भीगी हुई बत्ती भी अधिक स्नेह (तेल) में डुबो दी जानेपर जलने लगती है ॥ ११६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि गच्छति पातालं ततोऽभ्यधिकमेव वा ।
सर्वथा रावणस्तात न भविष्यति राघव ॥ ११७ ॥
मूलम्
यदि गच्छति पातालं ततोऽभ्यधिकमेव वा ।
सर्वथा रावणस्तात न भविष्यति राघव ॥ ११७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तात रघुनन्दन! यदि रावण पातालमें या उससे भी अधिक दूर चला जाय तो भी वह अब किसी तरह जीवित नहीं रह सकता ॥ ११७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रवृत्तिर्लभ्यतां तावत् तस्य पापस्य रक्षसः ।
ततो हास्यति वा सीतां निधनं वा गमिष्यति ॥ ११८ ॥
मूलम्
प्रवृत्तिर्लभ्यतां तावत् तस्य पापस्य रक्षसः ।
ततो हास्यति वा सीतां निधनं वा गमिष्यति ॥ ११८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पहले उस पापी राक्षसका पता लगाइये । फिर या तो वह सीताको वापस करेगा या अपने प्राणोंसे हाथ धो बैठेगा ॥ ११८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि याति दितेर्गर्भं रावणं सह सीतया ।
तत्राप्येनं हनिष्यामि न चेद् दास्यति मैथिलीम् ॥ ११९ ॥
मूलम्
यदि याति दितेर्गर्भं रावणं सह सीतया ।
तत्राप्येनं हनिष्यामि न चेद् दास्यति मैथिलीम् ॥ ११९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘रावण यदि सीताको साथ लेकर दितिके गर्भमें जाकर छिप जाय तो भी यदि मिथिलेशकुमारीको लौटा न देगा तो मैं वहाँ भी उसे मार डालूँगा ॥ ११९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वास्थ्यं भद्रं भजस्वार्य त्यज्यतां कृपणा मतिः ।
अर्थो हि नष्टकार्यार्थैरयत्नेनाधिगम्यते ॥ १२० ॥
मूलम्
स्वास्थ्यं भद्रं भजस्वार्य त्यज्यतां कृपणा मतिः ।
अर्थो हि नष्टकार्यार्थैरयत्नेनाधिगम्यते ॥ १२० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अतः आर्य! आप कल्याणकारी धैर्यको अपनाइये । वह दीनतापूर्ण विचार त्याग दीजिये । जिनका प्रयत्न और धन नष्ट हो गया है, वे पुरुष यदि उत्साहपूर्वक उद्योग न करें तो उन्हें उस अभीष्ट अर्थकी प्राप्ति नहीं हो सकती ॥ १२० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्साहो बलवानार्य नास्त्युत्साहात् परं बलम् ।
सोत्साहस्य हि लोकेषु न किञ्चिदपि दुर्लभम् ॥ १२१ ॥
मूलम्
उत्साहो बलवानार्य नास्त्युत्साहात् परं बलम् ।
सोत्साहस्य हि लोकेषु न किञ्चिदपि दुर्लभम् ॥ १२१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भैया! उत्साह ही बलवान् होता है । उत्साहसे बढ़कर दूसरा कोई बल नहीं है । उत्साही पुरुषके लिये संसारमें कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं है ॥ १२१ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्साहवन्तः पुरुषा नावसीदन्ति कर्मसु ।
उत्साहमात्रमाश्रित्य प्रतिलप्स्याम जानकीम् ॥ १२२ ॥
मूलम्
उत्साहवन्तः पुरुषा नावसीदन्ति कर्मसु ।
उत्साहमात्रमाश्रित्य प्रतिलप्स्याम जानकीम् ॥ १२२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिनके हृदयमें उत्साह होता है वे पुरुष कठिन-से-कठिन कार्य आ पड़नेपर हिम्मत नहीं हारते । हमलोग केवल उत्साहका आश्रय लेकर ही जनकनन्दिनीको प्राप्त कर सकते हैं ॥ १२२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्यजतां कामवृत्तत्वं शोकं सन्न्यस्य पृष्ठतः ।
महात्मानं कृतात्मानमात्मानं नावबुध्यसे ॥ १२३ ॥
मूलम्
त्यजतां कामवृत्तत्वं शोकं सन्न्यस्य पृष्ठतः ।
महात्मानं कृतात्मानमात्मानं नावबुध्यसे ॥ १२३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शोकको पीछे छोड़कर कामीके-से व्यवहारका त्याग कीजिये । आप महात्मा एवं कृतात्मा (पवित्र अन्तःकरणवाले) हैं, किंतु इस समय अपने-आपको भूल गये हैं—अपने स्वरूपका स्मरण नहीं कर रहे हैं’ ॥ १२३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं सम्बोधितस्तेन शोकोपहतचेतनः ।
त्यज्य शोकं च मोहं च रामो धैर्यमुपागमत् ॥ १२४ ॥
मूलम्
एवं सम्बोधितस्तेन शोकोपहतचेतनः ।
त्यज्य शोकं च मोहं च रामो धैर्यमुपागमत् ॥ १२४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
लक्ष्मणके इस प्रकार समझानेपर शोकसे संतप्तचित्त हुए श्रीरामने शोक और मोहका परित्याग करके धैर्य धारण किया ॥ १२४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽभ्यतिक्रामदव्यग्रस्तामचिन्त्यपराक्रमः ।
रामः पम्पां सुरुचिरां रम्यां पारिप्लवद्रुमाम् ॥ १२५ ॥
मूलम्
सोऽभ्यतिक्रामदव्यग्रस्तामचिन्त्यपराक्रमः ।
रामः पम्पां सुरुचिरां रम्यां पारिप्लवद्रुमाम् ॥ १२५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर व्यग्रतारहित (शान्तस्वरूप) अचिन्त्य-पराक्रमी श्रीरामचन्द्रजी जिसके तटवर्ती वृक्ष वायुके झोंके खाकर झूम रहे थे, उस परम सुन्दर रमणीय पम्पासरोवरको लाँघकर आगे बढ़े ॥ १२५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरीक्षमाणः सहसा महात्मा
सर्वं वनं निर्झरकन्दरं च ।
उद्विग्नचेताः सह लक्ष्मणेन
विचार्य दुःखोपहतः प्रतस्थे ॥ १२६ ॥
मूलम्
निरीक्षमाणः सहसा महात्मा
सर्वं वनं निर्झरकन्दरं च ।
उद्विग्नचेताः सह लक्ष्मणेन
विचार्य दुःखोपहतः प्रतस्थे ॥ १२६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सीताके स्मरणसे जिनका चित्त उद्विग्न हो गया था, अतएव जो दुःखमें डूबे हुए थे, वे महात्मा श्रीराम लक्ष्मणकी कही हुई बातोंपर विचार करके सहसा सावधान हो गये और झरनों तथा कन्दराओंसहित उस सम्पूर्ण वनका निरीक्षण करते हुए वहाँसे आगेको प्रस्थित हुए ॥ १२६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं मत्तमातङ्गविलासगामी
गच्छन्तमव्यग्रमना महात्मा ।
स लक्ष्मणो राघवमिष्टचेष्टो
ररक्ष धर्मेण बलेन चैव ॥ १२७ ॥
मूलम्
तं मत्तमातङ्गविलासगामी
गच्छन्तमव्यग्रमना महात्मा ।
स लक्ष्मणो राघवमिष्टचेष्टो
ररक्ष धर्मेण बलेन चैव ॥ १२७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मतवाले हाथीके समान विलासपूर्ण गतिसे चलनेवाले शान्तचित्त महात्मा लक्ष्मण आगे-आगे चलते हुए श्रीरघुनाथजीकी उनके अनुकूल चेष्टा करते धर्म और बलके द्वारा रक्षा करने लगे ॥ १२७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तावृष्यमूकस्य समीपचारी
चरन् ददर्शाद्भुतदर्शनीयौ ।
शाखामृगाणामधिपस्तरस्वी
वितत्रसे नैव विचेष्ट चेष्टाम् ॥ १२८ ॥
मूलम्
तावृष्यमूकस्य समीपचारी
चरन् ददर्शाद्भुतदर्शनीयौ ।
शाखामृगाणामधिपस्तरस्वी
वितत्रसे नैव विचेष्ट चेष्टाम् ॥ १२८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऋष्यमूक पर्वतके समीप विचरनेवाले बलवान् वानरराज सुग्रीव पम्पाके निकट घूम रहे थे । उसी समय उन्होंने उन अद्भुत दर्शनीय वीर श्रीराम और लक्ष्मणको देखा । देखते ही उनके मनमें यह भय हो गया कि हो न हो इन्हें मेरे शत्रु वालीने ही भेजा होगा, फिर तो वे इतने डर गये कि खाने-पीने आदिकी भी चेष्टा न कर सके ॥ १२८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तौ महात्मा गजमन्दगामी
शाखामृगस्तत्र चरंश्चरन्तौ ।
दृष्ट्वा विषादं परमं जगाम
चिन्तापरीतो भयभारभग्नः ॥ १२९ ॥
मूलम्
स तौ महात्मा गजमन्दगामी
शाखामृगस्तत्र चरंश्चरन्तौ ।
दृष्ट्वा विषादं परमं जगाम
चिन्तापरीतो भयभारभग्नः ॥ १२९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हाथीके समान मन्दगतिसे चलनेवाले महामना वानरराज सुग्रीव जो वहाँ विचर रहे थे, उस समय एक साथ आगे बढ़ते हुए उन दोनों भाइयोंको देखकर चिन्तित हो उठे । भयके भारी भारसे उनका उत्साह नष्ट हो गया । वे महान् दुःखमें पड़ गये ॥ १२९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमाश्रमं पुण्यसुखं शरण्यं
सदैव शाखामृगसेवितान्तम् ।
त्रस्ताश्च दृष्ट्वा हरयोऽभिजग्मु-
र्महौजसौ राघवलक्ष्मणौ तौ ॥ १३० ॥
मूलम्
तमाश्रमं पुण्यसुखं शरण्यं
सदैव शाखामृगसेवितान्तम् ।
त्रस्ताश्च दृष्ट्वा हरयोऽभिजग्मु-
र्महौजसौ राघवलक्ष्मणौ तौ ॥ १३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मतङ्ग मुनिका वह आश्रम परम पवित्र एवं सुखदायक था । मुनिके शापसे उसमें वालीका प्रवेश होना कठिन था, इसलिये वह दूसरे वानरोंका आश्रय बना हुआ था । उस आश्रम या वनके भीतर सदा ही अनेकानेक शाखामृग निवास करते थे । उस दिन उन महातेजस्वी श्रीराम और लक्ष्मणको देखकर दूसरे-दूसरे वानर भी भयभीत हो आश्रमके भीतर चले गये ॥ १३० ॥
समाप्तिः
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये किष्किन्धाकाण्डे प्रथमः सर्गः ॥ १ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके किष्किन्धाकाण्डमें पहला सर्ग पूरा हुआ ॥ १ ॥