वाचनम्
भागसूचना
- श्रीरामका विलाप
विश्वास-प्रस्तुतिः
स राजपुत्रः प्रियया विहीनः
शोकेन मोहेन च पीड्यमानः ।
विषादयन् भ्रातरमार्तरूपो
भूयो विषादं प्रविवेश तीव्रम् ॥ १ ॥
मूलम्
स राजपुत्रः प्रियया विहीनः
शोकेन मोहेन च पीड्यमानः ।
विषादयन् भ्रातरमार्तरूपो
भूयो विषादं प्रविवेश तीव्रम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपनी प्रिया सीतासे रहित हो राजकुमार श्रीराम शोक और मोहसे पीड़ित होने लगे । वे स्वयं तो पीड़ित थे ही, अपने भाई लक्ष्मणको भी विषादमें डालते हुए पुनः तीव्र शोकमें मग्न हो गये ॥ १ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स लक्ष्मणं शोकवशाभिपन्नं
शोके निमग्नो विपुले तु रामः ।
उवाच वाक्यं व्यसनानुरूप-
मुष्णं विनिःश्वस्य रुदन् सशोकम् ॥ २ ॥
मूलम्
स लक्ष्मणं शोकवशाभिपन्नं
शोके निमग्नो विपुले तु रामः ।
उवाच वाक्यं व्यसनानुरूप-
मुष्णं विनिःश्वस्य रुदन् सशोकम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
लक्ष्मण शोकके अधीन हो रहे थे, उनसे महान् शोकमें डूबे हुए श्रीराम दुःखके साथ रोते हुए गरम उच्छ्वास लेकर अपने ऊपर पड़े हुए संकटके अनुरूप वचन बोले— ॥ २ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न मद्विधो दुष्कृतकर्मकारी
मन्ये द्वितीयोऽस्ति वसुन्धरायाम् ।
शोकानुशोको हि परम्पराया
मामेति भिन्दन् हृदयं मनश्च ॥ ३ ॥
मूलम्
न मद्विधो दुष्कृतकर्मकारी
मन्ये द्वितीयोऽस्ति वसुन्धरायाम् ।
शोकानुशोको हि परम्पराया
मामेति भिन्दन् हृदयं मनश्च ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सुमित्रानन्दन! मालूम होता है, मेरे-जैसा पापकर्म करनेवाला मनुष्य इस पृथ्वीपर दूसरा कोई नहीं है; क्योंकि एकके बाद दूसरा शोक मेरे हृदय (प्राण) और मनको विदीर्ण करता हुआ लगातार मुझपर आता जा रहा है ॥ ३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूर्वं मया नूनमभीप्सितानि
पापानि कर्माण्यसकृत्कृतानि ।
तत्रायमद्यापतितो विपाको
दुःखेन दुःखं यदहं विशामि ॥ ४ ॥
मूलम्
पूर्वं मया नूनमभीप्सितानि
पापानि कर्माण्यसकृत्कृतानि ।
तत्रायमद्यापतितो विपाको
दुःखेन दुःखं यदहं विशामि ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘निश्चय ही पूर्वजन्ममें मैंने अपनी इच्छाके अनुसार बारंबार बहुत-से पापकर्म किये हैं; उन्हींमेंसे कुछ कर्मोंका यह परिणाम आज प्राप्त हुआ है, जिससे मैं एक दुःखसे दूसरे दुःखमें पड़ता जा रहा हूँ ॥ ४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राज्यप्रणाशः स्वजनैर्वियोगः
पितुर्विनाशो जननीवियोगः ।
सर्वाणि मे लक्ष्मण शोकवेग-
मापूरयन्ति प्रविचिन्तितानि ॥ ५ ॥
मूलम्
राज्यप्रणाशः स्वजनैर्वियोगः
पितुर्विनाशो जननीवियोगः ।
सर्वाणि मे लक्ष्मण शोकवेग-
मापूरयन्ति प्रविचिन्तितानि ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पहले तो मैं राज्यसे वञ्चित हुआ; फिर मेरा स्वजनोंसे वियोग हुआ । तत्पश्चात् पिताजीका परलोकवास हुआ, फिर मातासे भी मुझे बिछुड़ जाना पड़ा । लक्ष्मण! ये सारी बातें जब मुझे याद आती हैं, तब मेरे शोकके वेगको बढ़ा देती हैं ॥ ५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वं तु दुःखं मम लक्ष्मणेदं
शान्तं शरीरे वनमेत्य क्लेशम् ।
सीतावियोगात् पुनरप्युदीर्णं
काष्ठैरिवाग्निः सहसोपदीप्तः ॥ ६ ॥
मूलम्
सर्वं तु दुःखं मम लक्ष्मणेदं
शान्तं शरीरे वनमेत्य क्लेशम् ।
सीतावियोगात् पुनरप्युदीर्णं
काष्ठैरिवाग्निः सहसोपदीप्तः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘लक्ष्मण! वनमें आकर क्लेशका अनुभव करके भी यह सारा दुःख सीताके समीप रहनेसे मेरे शरीरमें ही शान्त हो गया था, परंतु सीताके वियोगसे वह फिर उद्दीप्त हो उठा है, जैसे सूखे काठका संयोग पाकर आग सहसा प्रज्वलित हो उठती है ॥ ६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा नूनमार्या मम राक्षसेन
ह्यभ्याहृता खं समुपेत्य भीरुः ।
अपस्वरं सुस्वरविप्रलापा
भयेन विक्रन्दितवत्यभीक्ष्णम् ॥ ७ ॥
मूलम्
सा नूनमार्या मम राक्षसेन
ह्यभ्याहृता खं समुपेत्य भीरुः ।
अपस्वरं सुस्वरविप्रलापा
भयेन विक्रन्दितवत्यभीक्ष्णम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हाय! मेरी श्रेष्ठ स्वभाववाली भीरु पत्नीको अवश्य ही राक्षसने आकाशमार्गसे हर लिया । उस समय सुमधुर स्वरमें विलाप करनेवाली सीता भयके मारे बारंबार विकृत स्वरमें क्रन्दन करने लगी होगी ॥ ७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तौ लोहितस्य प्रियदर्शनस्य
सदोचितावुत्तमचन्दनस्य ।
वृत्तौ स्तनौ शोणितपङ्कदिग्धौ
नूनं प्रियाया मम नाभिपातः ॥ ८ ॥
मूलम्
तौ लोहितस्य प्रियदर्शनस्य
सदोचितावुत्तमचन्दनस्य ।
वृत्तौ स्तनौ शोणितपङ्कदिग्धौ
नूनं प्रियाया मम नाभिपातः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मेरी प्रियाके वे दोनों गोल-गोल स्तन, जो सदा लाल चन्दनसे चर्चित होनेयोग्य थे, निश्चय ही रक्तकी कीचमें सन गये होंगे । हाय! इतनेपर भी मेरे शरीरका पतन नहीं होता ॥ ८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छ्लक्ष्णसुव्यक्तमृदुप्रलापं
तस्या मुखं कुञ्चितकेशभारम् ।
रक्षोवशं नूनमुपागताया
न भ्राजते राहुमुखे यथेन्दुः ॥ ९ ॥
मूलम्
तच्छ्लक्ष्णसुव्यक्तमृदुप्रलापं
तस्या मुखं कुञ्चितकेशभारम् ।
रक्षोवशं नूनमुपागताया
न भ्राजते राहुमुखे यथेन्दुः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राक्षसके वशमें पड़ी हुई मेरी प्रियाका वह मुख जो स्निग्ध एवं सुस्पष्ट मधुर वार्तालाप करनेवाला तथा काले-काले घुँघराले केशोंके भारसे सुशोभित था, वैसे ही श्रीहीन हो गया होगा, जैसे राहुके मुखमें पड़ा हुआ चन्द्रमा शोभा नहीं पाता है ॥ ९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां हारपाशस्य सदोचितान्तां
ग्रीवां प्रियाया मम सुव्रतायाः ।
रक्षांसि नूनं परिपीतवन्ति
शून्ये हि भित्त्वा रुधिराशनानि ॥ १० ॥
मूलम्
तां हारपाशस्य सदोचितान्तां
ग्रीवां प्रियाया मम सुव्रतायाः ।
रक्षांसि नूनं परिपीतवन्ति
शून्ये हि भित्त्वा रुधिराशनानि ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हाय! उत्तम व्रतका पालन करनेवाली मेरी प्रियतमाका कण्ठ हर समय हारसे सुशोभित होनेयोग्य था, किंतु रक्तभोजी राक्षसोंने सूने वनमें अवश्य उसे फाड़कर उसका रक्त पिया होगा ॥ १० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मया विहीना विजने वने सा
रक्षोभिराहृत्य विकृष्यमाणा ।
नूनं विनादं कुररीव दीना
सा मुक्तवत्यायतकान्तनेत्रा ॥ ११ ॥
मूलम्
मया विहीना विजने वने सा
रक्षोभिराहृत्य विकृष्यमाणा ।
नूनं विनादं कुररीव दीना
सा मुक्तवत्यायतकान्तनेत्रा ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मेरे न रहनेके कारण निर्जन वनमें राक्षसोंने उसे ले-लेकर घसीटा होगा और विशाल एवं मनोहर नेत्रोंवाली वह जानकी अत्यन्त दीनभावसे कुररीकी भाँति विलाप करती रही होगी ॥ ११ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्मिन् मया सार्धमुदारशीला
शिलातले पूर्वमुपोपविष्टा ।
कान्तस्मिता लक्ष्मण जातहासा
त्वामाह सीता बहुवाक्यजातम् ॥ १२ ॥
मूलम्
अस्मिन् मया सार्धमुदारशीला
शिलातले पूर्वमुपोपविष्टा ।
कान्तस्मिता लक्ष्मण जातहासा
त्वामाह सीता बहुवाक्यजातम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘लक्ष्मण! यह वही शिलातल है, जिसपर उदार स्वभाववाली सीता पहले एक दिन मेरे साथ बैठी हुई थी । उसकी मुसकान कितनी मनोहर थी, उस समय उसने हँस-हँसकर तुमसे भी बहुत-सी बातें कही थीं ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोदावरीयं सरितां वरिष्ठा
प्रिया प्रियाया मम नित्यकालम् ।
अप्यत्र गच्छेदिति चिन्तयामि
नैकाकिनी याति हि सा कदाचित् ॥ १३ ॥
मूलम्
गोदावरीयं सरितां वरिष्ठा
प्रिया प्रियाया मम नित्यकालम् ।
अप्यत्र गच्छेदिति चिन्तयामि
नैकाकिनी याति हि सा कदाचित् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सरिताओंमें श्रेष्ठ यह गोदावरी मेरी प्रियतमाको सदा ही प्रिय रही है । सोचता हूँ, शायद वह इसीके तटपर गयी हो, किंतु अकेली तो वह कभी वहाँ नहीं जाती थी ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पद्मानना पद्मपलाशनेत्रा
पद्मानि वानेतुमभिप्रयाता ।
तदप्ययुक्तं नहि सा कदाचि-
न्मया विना गच्छति पङ्कजानि ॥ १४ ॥
मूलम्
पद्मानना पद्मपलाशनेत्रा
पद्मानि वानेतुमभिप्रयाता ।
तदप्ययुक्तं नहि सा कदाचि-
न्मया विना गच्छति पङ्कजानि ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उसका मुख और विशाल नेत्र प्रफुल्ल कमलोंके समान सुन्दर हैं, सम्भव है, वह कमलपुष्प लानेके लिये ही गोदावरीतटपर गयी हो, परंतु यह भी ठीक नहीं है; क्योंकि वह मुझे साथ लिये बिना कभी कमलोंके पास नहीं जाती थी ॥ १४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामं त्विदं पुष्पितवृक्षषण्डं
नानाविधैः पक्षिगणैरुपेतम् ।
वनं प्रयाता नु तदप्ययुक्त-
मेकाकिनी सातिबिभेति भीरुः ॥ १५ ॥
मूलम्
कामं त्विदं पुष्पितवृक्षषण्डं
नानाविधैः पक्षिगणैरुपेतम् ।
वनं प्रयाता नु तदप्ययुक्त-
मेकाकिनी सातिबिभेति भीरुः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हो सकता है कि वह इन पुष्पित वृक्षसमूहोंसे युक्त और नाना प्रकारके पक्षियोंसे सेवित वनमें भ्रमणके लिये गयी हो; परंतु यह भी ठीक नहीं लगता; क्योंकि वह भीरु तो अकेली वनमें जानेसे बहुत डरती थी ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आदित्य भो लोककृताकृतज्ञ
लोकस्य सत्यानृतकर्मसाक्षिन् ।
मम प्रिया सा क्व गता हृता वा
शंसस्व मे शोकहतस्य सर्वम् ॥ १६ ॥
मूलम्
आदित्य भो लोककृताकृतज्ञ
लोकस्य सत्यानृतकर्मसाक्षिन् ।
मम प्रिया सा क्व गता हृता वा
शंसस्व मे शोकहतस्य सर्वम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सूर्यदेव! संसारमें किसने क्या किया और क्या नहीं किया—इसे तुम जानते हो; लोगोंके सत्य-असत्य (पुण्य और पाप) कर्मोंके तुम्हीं साक्षी हो । मेरी प्रिया सीता कहाँ गयी अथवा उसे किसने हर लिया, यह सब मुझे बताओ; क्योंकि मैं उसके शोकसे पीड़ित हूँ ॥ १६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोकेषु सर्वेषु न नास्ति किञ्चिद्
यत् ते न नित्यं विदितं भवेत् तत् ।
शंसस्व वायो कुलपालिनीं तां
मृता हृता वा पथि वर्तते वा ॥ १७ ॥
मूलम्
लोकेषु सर्वेषु न नास्ति किञ्चिद्
यत् ते न नित्यं विदितं भवेत् तत् ।
शंसस्व वायो कुलपालिनीं तां
मृता हृता वा पथि वर्तते वा ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वायुदेव! समस्त विश्वमें ऐसी कोई बात नहीं है, जो तुम्हें सदा ज्ञात न रहती हो । मेरी कुलपालिका सीता कहाँ है, यह बता दो । वह मर गयी, हर ली गयी अथवा मार्गमें ही है’ ॥ १७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इतीव तं शोकविधेयदेहं
रामं विसञ्ज्ञं विलपन्तमेव ।
उवाच सौमित्रिरदीनसत्त्वो
न्याय्ये स्थितः कालयुतं च वाक्यम् ॥ १८ ॥
मूलम्
इतीव तं शोकविधेयदेहं
रामं विसञ्ज्ञं विलपन्तमेव ।
उवाच सौमित्रिरदीनसत्त्वो
न्याय्ये स्थितः कालयुतं च वाक्यम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार शोकके अधीन होकर जब श्रीरामचन्द्रजी संज्ञाशून्य हो विलाप करने लगे, तब उनकी ऐसी अवस्था देख न्यायोचित मार्गपर स्थित रहनेवाले उदारचित्त सुमित्राकुमार लक्ष्मणने उनसे यह समयोचित बात कही— ॥ १८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शोकं विसृज्याद्य धृतिं भजस्व
सोत्साहता चास्तु विमार्गणेऽस्याः ।
उत्साहवन्तो हि नरा न लोके
सीदन्ति कर्मस्वतिदुष्करेषु ॥ १९ ॥
मूलम्
शोकं विसृज्याद्य धृतिं भजस्व
सोत्साहता चास्तु विमार्गणेऽस्याः ।
उत्साहवन्तो हि नरा न लोके
सीदन्ति कर्मस्वतिदुष्करेषु ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आर्य! आप शोक छोड़कर धैर्य धारण करें; सीताकी खोजके लिये मनमें उत्साह रखें; क्योंकि उत्साही मनुष्य जगत् में अत्यन्त दुष्कर कार्य आ पड़नेपर भी कभी दुःखी नहीं होते हैं’ ॥ १९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इतीव सौमित्रिमुदग्रपौरुषं
ब्रुवन्तमार्तो रघुवंशवर्धनः ।
न चिन्तयामास धृतिं विमुक्तवान्
पुनश्च दुःखं महदभ्युपागमत् ॥ २० ॥
मूलम्
इतीव सौमित्रिमुदग्रपौरुषं
ब्रुवन्तमार्तो रघुवंशवर्धनः ।
न चिन्तयामास धृतिं विमुक्तवान्
पुनश्च दुःखं महदभ्युपागमत् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बढ़े हुए पुरुषार्थवाले सुमित्राकुमार लक्ष्मण जब इस प्रकारकी बातें कह रहे थे, उस समय रघुकुलकी वृद्धि करनेवाले श्रीरामने आर्त होकर उनके कथनके औचित्यपर कोई ध्यान नहीं दिया; उन्होंने धैर्य छोड़ दिया और वे पुनः महान् दुःखमें पड़ गये ॥ २० ॥
समाप्तिः
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डे त्रिषष्टितमः सर्गः ॥ ६३ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके अरण्यकाण्डमें तिरसठवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ६३ ॥