०६० राम-लक्ष्मणयोः पर्णशाला-आगमनम्

वाचनम्
भागसूचना
  1. श्रीरामका विलाप करते हुए वृक्षों और पशुओंसे सीताका पता पूछना, भ्रान्त होकर रोना और बारंबार उनकी खोज करना
विश्वास-प्रस्तुतिः

भृशमाव्रजमानस्य तस्याधो वामलोचनम् ।
प्रास्फुरच्चास्खलद् रामो वेपथुश्चास्य जायते ॥ १ ॥

मूलम्

भृशमाव्रजमानस्य तस्याधो वामलोचनम् ।
प्रास्फुरच्चास्खलद् रामो वेपथुश्चास्य जायते ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आश्रमकी ओर आते समय श्रीरामकी बायीं आँखकी नीचेवाली पलक जोर-जोरसे फड़कने लगी । श्रीराम चलते-चलते लड़खड़ा गये और उनके शरीरमें कम्प होने लगा ॥ १ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपालक्ष्य निमित्तानि सोऽशुभानि मुहुर्मुहुः ।
अपि क्षेमं तु सीताया इति वै व्याजहार ह ॥ २ ॥

मूलम्

उपालक्ष्य निमित्तानि सोऽशुभानि मुहुर्मुहुः ।
अपि क्षेमं तु सीताया इति वै व्याजहार ह ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बारंबार इन अपशकुनोंको देखकर वे कहने लगे—क्या सीता सकुशल होगी? ॥ २ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वरमाणो जगामाथ सीतादर्शनलालसः ।
शून्यमावसथं दृष्ट्वा बभूवोद्विग्नमानसः ॥ ३ ॥

मूलम्

त्वरमाणो जगामाथ सीतादर्शनलालसः ।
शून्यमावसथं दृष्ट्वा बभूवोद्विग्नमानसः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सीताको देखनेके लिये उत्कण्ठित हो वे बड़ी उतावलीके साथ आश्रमपर गये । वहाँ कुटिया सूनी देख उनका मन अत्यन्त उद्विग्न हो उठा ॥ ३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उद‍्भ्रमन्निव वेगेन विक्षिपन् रघुनन्दनः ।
तत्र तत्रोटजस्थानमभिवीक्ष्य समन्ततः ॥ ४ ॥
ददर्श पर्णशालां च सीतया रहितां तदा ।
श्रिया विरहितां ध्वस्तां हेमन्ते पद्मिनीमिव ॥ ५ ॥

मूलम्

उद‍्भ्रमन्निव वेगेन विक्षिपन् रघुनन्दनः ।
तत्र तत्रोटजस्थानमभिवीक्ष्य समन्ततः ॥ ४ ॥
ददर्श पर्णशालां च सीतया रहितां तदा ।
श्रिया विरहितां ध्वस्तां हेमन्ते पद्मिनीमिव ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रघुनन्दन बड़े वेगसे इधर-उधर चक्कर लगाने और हाथ-पैर चलाने लगे । उन्होंने वहाँ जहाँ-तहाँ बनी हुई एक-एक पर्णशालाको चारों ओरसे देख डाला, किंतु उस समय उसे सीतासे सूनी ही पाया । जैसे हेमन्त-ऋतुमें कमलिनी हिमसे ध्वस्त हो श्रीहीन हो जाती है, उसी प्रकार प्रत्येक पर्णशाला शोभाशून्य हो गयी थी ॥ ४-५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रुदन्तमिव वृक्षैश्च ग्लानपुष्पमृगद्विजम् ।
श्रिया विहीनं विध्वस्तं सन्त्यक्तं वनदैवतैः ॥ ६ ॥

मूलम्

रुदन्तमिव वृक्षैश्च ग्लानपुष्पमृगद्विजम् ।
श्रिया विहीनं विध्वस्तं सन्त्यक्तं वनदैवतैः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह स्थान वृक्षों (की सनसनाहट) के द्वारा मानो रो रहा था, फूल मुरझा गये थे, मृग और पक्षी मन मारे बैठे थे । वहाँकी सम्पूर्ण शोभा नष्ट हो गयी थी । सारी कुटी उजाड़ दिखायी देती थी । वनके देवता भी उस स्थानको छोड़कर चले गये थे ॥ ६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विप्रकीर्णाजिनकुशं विप्रविद्धबृसीकटम् ।
दृष्ट्वा शून्योटजस्थानं विललाप पुनः पुनः ॥ ७ ॥

मूलम्

विप्रकीर्णाजिनकुशं विप्रविद्धबृसीकटम् ।
दृष्ट्वा शून्योटजस्थानं विललाप पुनः पुनः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सब ओर मृगचर्म और कुश बिखरे हुए थे । चटाइयाँ अस्त-व्यस्त पड़ी थीं । पर्णशालाको सूनी देख भगवान् श्रीराम बारंबार विलाप करने लगे— ॥ ७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हृता मृता वा नष्टा वा भक्षिता वा भविष्यति ।
निलीनाप्यथवा भीरुरथवा वनमाश्रिता ॥ ८ ॥

मूलम्

हृता मृता वा नष्टा वा भक्षिता वा भविष्यति ।
निलीनाप्यथवा भीरुरथवा वनमाश्रिता ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘हाय! सीताको किसीने हर तो नहीं लिया । उसकी मृत्यु तो नहीं हो गयी अथवा वह खो तो नहीं गयी या किसी राक्षसने उसे खा तो नहीं लिया । वह भीरु कहीं छिप तो नहीं गयी है अथवा फल-फूल लानेके लिये वनके भीतर तो नहीं चली गयी ॥ ८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गता विचेतुं पुष्पाणि फलान्यपि च वा पुनः ।
अथवा पद्मिनीं याता जलार्थं वा नदीं गता ॥ ९ ॥

मूलम्

गता विचेतुं पुष्पाणि फलान्यपि च वा पुनः ।
अथवा पद्मिनीं याता जलार्थं वा नदीं गता ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सम्भव है, फल-फूल लानेके लिये ही गयी हो या जल लानेके लिये किसी पुष्करिणी अथवा नदीके तटपर गयी हो’ ॥ ९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्नान्मृगयमाणस्तु नाससाद वने प्रियाम् ।
शोकरक्तेक्षणः श्रीमानुन्मत्त इव लक्ष्यते ॥ १० ॥

मूलम्

यत्नान्मृगयमाणस्तु नाससाद वने प्रियाम् ।
शोकरक्तेक्षणः श्रीमानुन्मत्त इव लक्ष्यते ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीने प्रयत्नपूर्वक अपनी प्रिय पत्नी सीताको वनमें चारों ओर ढूँढ़ा, किंतु कहीं भी उनका पता न लगा । शोकके कारण श्रीमान् रामकी आँखें लाल हो गयीं । वे उन्मत्तके समान दिखायी देने लगे ॥ १० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृक्षाद् वृक्षं प्रधावन् स गिरींश्चापि नदीनदम् ।
बभ्राम विलपन् रामः शोकपङ्कार्णवप्लुतः ॥ ११ ॥

मूलम्

वृक्षाद् वृक्षं प्रधावन् स गिरींश्चापि नदीनदम् ।
बभ्राम विलपन् रामः शोकपङ्कार्णवप्लुतः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक वृक्षसे दूसरे वृक्षके पास दौड़ते हुए वे पर्वतों, नदियों और नदोंके किनारे घूमने लगे । शोकसे समुद्रमें डूबे हुए श्रीरामचन्द्रजी विलाप करते-करते वृक्षोंसे पूछने लगे— ॥ ११ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्ति कच्चित्त्वया दृष्टा सा कदम्बप्रिया प्रिया ।
कदम्ब यदि जानीषे शंस सीतां शुभाननाम् ॥ १२ ॥
स्निग्धपल्लवसङ्काशां पीतकौशेयवासिनीम् ।
शंसस्व यदि सा दृष्टा बिल्व बिल्वोपमस्तनी ॥ १३ ॥

मूलम्

अस्ति कच्चित्त्वया दृष्टा सा कदम्बप्रिया प्रिया ।
कदम्ब यदि जानीषे शंस सीतां शुभाननाम् ॥ १२ ॥
स्निग्धपल्लवसङ्काशां पीतकौशेयवासिनीम् ।
शंसस्व यदि सा दृष्टा बिल्व बिल्वोपमस्तनी ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कदम्ब! मेरी प्रिया सीता तुम्हारे पुष्पसे बहुत प्रेम करती थी, क्या वह यहाँ है? क्या तुमने उसे देखा है? यदि जानते हो तो उस शुभानना सीताका पता बताओ । उसके अङ्ग सुस्निग्ध पल्लवोंके समान कोमल हैं तथा शरीरपर पीले रंगकी रेशमी साड़ी शोभा पाती है । बिल्व! मेरी प्रियाके स्तन तुम्हारे ही समान हैं । यदि तुमने उसे देखा हो तो बताओ ॥ १२-१३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथवार्जुन शंस त्वं प्रियां तामर्जुनप्रियाम् ।
जनकस्य सुता तन्वी यदि जीवति वा न वा ॥ १४ ॥

मूलम्

अथवार्जुन शंस त्वं प्रियां तामर्जुनप्रियाम् ।
जनकस्य सुता तन्वी यदि जीवति वा न वा ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अथवा अर्जुन! तुम्हारे फूलोंपर मेरी प्रियाका विशेष अनुराग था, अतः तुम्हीं उसका कुछ समाचार बताओ । कृशाङ्गी जनककिशोरी जीवित है या नहीं ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ककुभः ककुभोरुं तां व्यक्तं जानाति मैथिलीम् ।
लतापल्लवपुष्पाढ्यो भाति ह्येष वनस्पतिः ॥ १५ ॥
भ्रमरैरुपगीतश्च यथा द्रुमवरो ह्यसि ।
एष व्यक्तं विजानाति तिलकस्तिलकप्रियाम् ॥ १६ ॥

मूलम्

ककुभः ककुभोरुं तां व्यक्तं जानाति मैथिलीम् ।
लतापल्लवपुष्पाढ्यो भाति ह्येष वनस्पतिः ॥ १५ ॥
भ्रमरैरुपगीतश्च यथा द्रुमवरो ह्यसि ।
एष व्यक्तं विजानाति तिलकस्तिलकप्रियाम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यह ककुभ* अपने ही समान ऊरुवाली मिथिलेशकुमारीको अवश्य जानता होगा; क्योंकि यह वनस्पति लता, पल्लव तथा फूलोंसे सम्पन्न हो बड़ी शोभा पा रहा है । ककुभ! तुम सब वृक्षोंमें श्रेष्ठ हो, क्योंकि ये भ्रमर तुम्हारे समीप आकर अपने झंकारोंद्वारा तुम्हारा यशोगान करते हैं । (तुम्हीं सीताका पता बताओ, अहो! यह भी कोई उत्तर नहीं दे रहा है ।) यह तिलक वृक्ष अवश्य सीताके विषयमें जानता होगा; क्योंकि मेरी प्रिया सीताको भी तिलकसे प्रेम था ॥ १५-१६ ॥

पादटिप्पनी
  • रामायणके व्याख्याकारोंमेंसे किसीने ककुभका अर्थ मरुवक लिखा है और किसीने अर्जुनविशेष, किंतु कोषोंमें यह कुटजका पर्याय बताया गया है ।
विश्वास-प्रस्तुतिः

अशोक शोकापनुद शोकोपहतचेतनम् ।
त्वन्नामानं कुरु क्षिप्रं प्रियासन्दर्शनेन माम् ॥ १७ ॥

मूलम्

अशोक शोकापनुद शोकोपहतचेतनम् ।
त्वन्नामानं कुरु क्षिप्रं प्रियासन्दर्शनेन माम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अशोक! तुम शोक दूर करनेवाले हो । इधर मैं शोकसे अपनी चेतना खो बैठा हूँ । मुझे मेरी प्रियतमाका दर्शन कराकर शीघ्र ही अपने-जैसे नामवाला बना दो—मुझे अशोक (शोकहीन) कर दो ॥ १७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि ताल त्वया दृष्टा पक्वतालोपमस्तनी ।
कथयस्व वरारोहां कारुण्यं यदि ते मयि ॥ १८ ॥

मूलम्

यदि ताल त्वया दृष्टा पक्वतालोपमस्तनी ।
कथयस्व वरारोहां कारुण्यं यदि ते मयि ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ताल वृक्ष! तुम्हारे पके हुए फलके समान स्तनवाली सीताको यदि तुमने देखा हो तो बताओ । यदि मुझपर तुम्हें दया आती हो तो उस सुन्दरीके विषयमें अवश्य कुछ कहो ॥ १८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि दृष्टा त्वया जम्बो जाम्बूनदसमप्रभा ।
प्रियां यदि विजानासि निःशङ्क कथयस्व मे ॥ १९ ॥

मूलम्

यदि दृष्टा त्वया जम्बो जाम्बूनदसमप्रभा ।
प्रियां यदि विजानासि निःशङ्क कथयस्व मे ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जामुन! जाम्बूनद (सुवर्ण) के समान कान्तिवाली मेरी प्रिया यदि तुम्हारी दृष्टिमें पड़ी हो, यदि तुम उसके विषयमें कुछ जानते हो तो निःशङ्क होकर मुझे बताओ ॥ १९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहो त्वं कर्णिकाराद्य पुष्पितः शोभसे भृशम् ।
कर्णिकारप्रियां साध्वीं शंस दृष्टा यदि प्रिया ॥ २० ॥

मूलम्

अहो त्वं कर्णिकाराद्य पुष्पितः शोभसे भृशम् ।
कर्णिकारप्रियां साध्वीं शंस दृष्टा यदि प्रिया ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कनेर! आज तो फूलोंके लगनेसे तुम्हारी बड़ी शोभा हो रही है । अहो! मेरी प्रिया साध्वी सीताको तुम्हारे ये पुष्प बहुत पसंद थे । यदि तुमने उसे कहीं देखा हो तो मुझसे कहो’ ॥ २० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चूतनीपमहासालान् पनसान् कुरवान् धवान् ।
दाडिमानपि तान् गत्वा दृष्ट्वा रामो महायशाः ॥ २१ ॥
बकुलानथ पुन्नागांश्चन्दनान् केतकांस्तथा ।
पृच्छन् रामो वने भ्रान्त उन्मत्त इव लक्ष्यते ॥ २२ ॥

मूलम्

चूतनीपमहासालान् पनसान् कुरवान् धवान् ।
दाडिमानपि तान् गत्वा दृष्ट्वा रामो महायशाः ॥ २१ ॥
बकुलानथ पुन्नागांश्चन्दनान् केतकांस्तथा ।
पृच्छन् रामो वने भ्रान्त उन्मत्त इव लक्ष्यते ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार आम, कदम्ब, विशाल शाल, कटहल, कुरव, धव और अनार आदि वृक्षोंको भी देखकर महायशस्वी श्रीरामचन्द्रजी उनके पास गये और वकुल, पुन्नाग, चन्दन तथा केवड़े आदिके वृक्षोंसे भी पूछते फिरे । उस समय वे वनमें पागलकी तरह इधर-उधर भटकते दिखायी देते थे ॥ २१-२२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथवा मृगशावाक्षीं मृग जानासि मैथिलीम् ।
मृगविप्रेक्षणी कान्ता मृगीभिः सहिता भवेत् ॥ २३ ॥

मूलम्

अथवा मृगशावाक्षीं मृग जानासि मैथिलीम् ।
मृगविप्रेक्षणी कान्ता मृगीभिः सहिता भवेत् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने सामने हरिणको देखकर वे बोले—‘मृग! अथवा तुम्हीं बताओ! मृगनयनी मैथिलीको जानते हो । मेरी प्रियाकी दृष्टि भी तुम हरिणोंकी-सी है, अतः सम्भव है, वह हरिणियोंके ही साथ हो ॥ २३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गज सा गजनासोरुर्यदि दृष्टा त्वया भवेत् ।
तां मन्ये विदितां तुभ्यमाख्याहि वरवारण ॥ २४ ॥

मूलम्

गज सा गजनासोरुर्यदि दृष्टा त्वया भवेत् ।
तां मन्ये विदितां तुभ्यमाख्याहि वरवारण ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘श्रेष्ठ गजराज! तुम्हारी सूँड़के समान ही जिसके दोनों ऊरु हैं, उस सीताको सम्भवतः तुमने देखा होगा । मालूम होता है, तुम्हें उसका पता विदित है, अतः बताओ! वह कहाँ है? ॥ २४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शार्दूल यदि सा दृष्टा प्रिया चन्द्रनिभानना ।
मैथिली मम विस्रब्धः कथयस्व न ते भयम् ॥ २५ ॥

मूलम्

शार्दूल यदि सा दृष्टा प्रिया चन्द्रनिभानना ।
मैथिली मम विस्रब्धः कथयस्व न ते भयम् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘व्याघ्र! यदि तुमने मेरी प्रिया चन्द्रमुखी मैथिलीको देखा हो तो निःशङ्क होकर बता दो, मुझसे तुम्हें कोई भय नहीं होगा’ ॥ २५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं धावसि प्रिये नूनं दृष्टासि कमलेक्षणे ।
वृक्षैराच्छाद्य चात्मानं किं मां न प्रतिभाषसे ॥ २६ ॥

मूलम्

किं धावसि प्रिये नूनं दृष्टासि कमलेक्षणे ।
वृक्षैराच्छाद्य चात्मानं किं मां न प्रतिभाषसे ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(इतनेहीमें उनको भ्रम हुआ कि सीता उधर भागकर छिप रही है, तब वे बोले—) ‘प्रिये! क्यों भागी जा रही हो । कमललोचने! निश्चय ही मैंने तुम्हें देख लिया है । तुम वृक्षोंकी ओटमें अपने-आपको छिपाकर मुझसे बात क्यों नहीं करती हो? ॥ २६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिष्ठ तिष्ठ वरारोहे न तेऽस्ति करुणा मयि ।
नात्यर्थं हास्यशीलासि किमर्थं मामुपेक्षसे ॥ २७ ॥

मूलम्

तिष्ठ तिष्ठ वरारोहे न तेऽस्ति करुणा मयि ।
नात्यर्थं हास्यशीलासि किमर्थं मामुपेक्षसे ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वरारोहे! ठहरो, ठहरो । क्या तुम्हें मुझपर दया नहीं आती है । अधिक हास-परिहास करनेका तुम्हारा स्वभाव तो नहीं था, फिर किसलिये मेरी उपेक्षा करती हो? ॥ २७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पीतकौशेयकेनासि सूचिता वरवर्णिनि ।
धावन्त्यपि मया दृष्टा तिष्ठ यद्यस्ति सौहृदम् ॥ २८ ॥

मूलम्

पीतकौशेयकेनासि सूचिता वरवर्णिनि ।
धावन्त्यपि मया दृष्टा तिष्ठ यद्यस्ति सौहृदम् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सुन्दरि! पीली रेशमी साड़ीसे ही, तुम कहाँ हो—यह सूचना मिल जाती है । भागी जाती हो तो भी मैंने तुम्हें देख लिया है । यदि मेरे प्रति स्नेह एवं सौहार्द हो तो खड़ी हो जाओ’ ॥ २८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैव सा नूनमथवा हिंसिता चारुहासिनी ।
कृच्छ्रं प्राप्तं न मां नूनं यथोपेक्षितुमर्हति ॥ २९ ॥

मूलम्

नैव सा नूनमथवा हिंसिता चारुहासिनी ।
कृच्छ्रं प्राप्तं न मां नूनं यथोपेक्षितुमर्हति ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(फिर भ्रम दूर होनेपर बोले—) ‘अथवा निश्चय ही वह नहीं है । उस मनोहर मुसकानवाली सीताको राक्षसोंने मार डाला, अन्यथा इस तरह संकटमें पड़े हुएकी (मेरी) वह कदापि उपेक्षा नहीं कर सकती थी ॥ २९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यक्तं सा भक्षिता बाला राक्षसैः पिशिताशनैः ।
विभज्याङ्गानि सर्वाणि मया विरहिता प्रिया ॥ ३० ॥

मूलम्

व्यक्तं सा भक्षिता बाला राक्षसैः पिशिताशनैः ।
विभज्याङ्गानि सर्वाणि मया विरहिता प्रिया ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘स्पष्ट जान पड़ता है कि मांसभक्षी राक्षसोंने मुझसे बिछुड़ी हुई मेरी भोली-भाली प्रिया मैथिलीको उसके सारे अङ्ग बाँटकर खा लिया ॥ ३० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नूनं तच्छुभदन्तोष्ठं सुनासं शुभकुण्डलम् ।
पूर्णचन्द्रनिभं ग्रस्तं मुखं निष्प्रभतां गतम् ॥ ३१ ॥

मूलम्

नूनं तच्छुभदन्तोष्ठं सुनासं शुभकुण्डलम् ।
पूर्णचन्द्रनिभं ग्रस्तं मुखं निष्प्रभतां गतम् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सुन्दर दाँत, मनोहर ओष्ठ, सुघड़ नासिकासे युक्त तथा रुचिर कुण्डलोंसे अलंकृत वह पूर्ण चन्द्रमाके समान अभिराम मुख राक्षसोंका ग्रास बनकर निश्चय ही अपनी प्रभा खो बैठा होगा ॥ ३१ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा हि चम्पकवर्णाभा ग्रीवा ग्रैवेयकोचिता ।
कोमला विलपन्त्यास्तु कान्ताया भक्षिता शुभा ॥ ३२ ॥

मूलम्

सा हि चम्पकवर्णाभा ग्रीवा ग्रैवेयकोचिता ।
कोमला विलपन्त्यास्तु कान्ताया भक्षिता शुभा ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘रोती-विलखती हुई प्रियतमा सीताकी वह चम्पाके समान वर्णवाली कोमल एवं सुन्दर ग्रीवा, जो हार और हँसली आदि आभूषण पहननेके योग्य थी, निशाचरोंका आहार बन गयी ॥ ३२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नूनं विक्षिप्यमाणौ तौ बाहू पल्लवकोमलौ ।
भक्षितौ वेपमानाग्रौ सहस्ताभरणाङ्गदौ ॥ ३३ ॥

मूलम्

नूनं विक्षिप्यमाणौ तौ बाहू पल्लवकोमलौ ।
भक्षितौ वेपमानाग्रौ सहस्ताभरणाङ्गदौ ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वे नूतन पल्लवोंके समान कोमल भुजाएँ, जो इधर-उधर पटकी जा रही होंगी और जिनके अग्रभाग काँप रहे होंगे, हाथोंके आभूषण तथा बाजूबंदसहित निश्चय ही राक्षसोंके पेटमें चली गयीं ॥ ३३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मया विरहिता बाला रक्षसां भक्षणाय वै ।
सार्थेनेव परित्यक्ता भक्षिता बहुबान्धवा ॥ ३४ ॥

मूलम्

मया विरहिता बाला रक्षसां भक्षणाय वै ।
सार्थेनेव परित्यक्ता भक्षिता बहुबान्धवा ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैंने राक्षसोंका भक्ष्य बननेके लिये ही उस बालाको अकेली छोड़ दिया । यद्यपि उसके बन्धु-बान्धव बहुत हैं, तथापि वह यात्रियोंके समुदायसे विलग हुई किसी अकेली स्त्रीकी भाँति निशाचरोंका ग्रास बन गयी ॥ ३४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हा लक्ष्मण महाबाहो पश्यसे त्वं प्रियां क्वचित् ।
हा प्रिये क्व गता भद्रे हा सीतेति पुनः पुनः ॥ ३५ ॥
इत्येवं विलपन् रामः परिधावन् वनाद् वनम् ।
क्वचिदुद‍्भ्रमते वेगात् क्वचिद् विभ्रमते बलात् ॥ ३६ ॥

मूलम्

हा लक्ष्मण महाबाहो पश्यसे त्वं प्रियां क्वचित् ।
हा प्रिये क्व गता भद्रे हा सीतेति पुनः पुनः ॥ ३५ ॥
इत्येवं विलपन् रामः परिधावन् वनाद् वनम् ।
क्वचिदुद‍्भ्रमते वेगात् क्वचिद् विभ्रमते बलात् ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘हा महाबाहु लक्ष्मण! क्या तुम कहीं मेरी प्रियतमाको देखते हो! हा प्रिये! हा भद्रे! हा सीते! तुम कहाँ चली गयी?’ इस तरह बारंबार विलाप करते हुए श्रीरामचन्द्रजी एक वनसे दूसरे वनमें दौड़ने लगे । वे कहीं सीताकी समानता पाकर उद्‍भ्रान्त हो उठते (उछल पड़ते थे) और कहीं शोककी प्रबलताके कारण विभ्रान्त हो जाते (बवंडरकी भाँति चक्कर काटने लगते) थे ॥ ३५-३६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्वचिन्मत्त इवाभाति कान्तान्वेषणतत्परः ।
स वनानि नदीः शैलान् गिरिप्रस्रवणानि च ।
काननानि च वेगेन भ्रमत्यपरिसंस्थितः ॥ ३७ ॥

मूलम्

क्वचिन्मत्त इवाभाति कान्तान्वेषणतत्परः ।
स वनानि नदीः शैलान् गिरिप्रस्रवणानि च ।
काननानि च वेगेन भ्रमत्यपरिसंस्थितः ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपनी प्रियतमाकी खोज करते हुए वे कभी-कभी पागलोंकी-सी चेष्टा करने लगते थे । उन्होंने बड़ी दौड़-धूप करके कहीं भी विश्राम न करते हुए वनों, नदियों, पर्वतों, पहाड़ी झरनों और विभिन्न काननोंमें घूम-घूमकर अन्वेषण किया ॥ ३७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदा स गत्वा विपुलं महद् वनं
परीत्य सर्वं त्वथ मैथिलीं प्रति ।
अनिष्ठिताशः स चकार मार्गणे
पुनः प्रियायाः परमं परिश्रमम् ॥ ३८ ॥

मूलम्

तदा स गत्वा विपुलं महद् वनं
परीत्य सर्वं त्वथ मैथिलीं प्रति ।
अनिष्ठिताशः स चकार मार्गणे
पुनः प्रियायाः परमं परिश्रमम् ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय मिथिलेशकुमारीको ढूँढ़नेके लिये वे उस विशाल एवं विस्तृत वनमें गये और सबमें चक्कर लगाकर थक गये तो भी निराश नहीं हुए । उन्होंने पुनः अपनी प्रियतमाके अनुसंधानके लिये बड़ा भारी परिश्रम किया ॥ ३८ ॥

समाप्तिः

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डे षष्टितमः सर्गः ॥ ६० ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके अरण्यकाण्डमें साठवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ६० ॥