०४९ सीतापहरणम्

वाचनम्
भागसूचना
  1. रावणद्वारा सीताका अपहरण, सीताका विलाप और उनके द्वारा जटायुका दर्शन
विश्वास-प्रस्तुतिः

सीताया वचनं श्रुत्वा दशग्रीवः प्रतापवान् ।
हस्ते हस्तं समाहत्य चकार सुमहद् वपुः ॥ १ ॥

मूलम्

सीताया वचनं श्रुत्वा दशग्रीवः प्रतापवान् ।
हस्ते हस्तं समाहत्य चकार सुमहद् वपुः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सीताके इस वचनको सुनकर प्रतापी दशमुखरावणने अपने हाथपर हाथ मारकर शरीरको बहुत बड़ा बना लिया ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स मैथिलीं पुनर्वाक्यं बभाषे वाक्यकोविदः ।
नोन्मत्तया श्रुतौ मन्ये मम वीर्यपराक्रमौ ॥ २ ॥

मूलम्

स मैथिलीं पुनर्वाक्यं बभाषे वाक्यकोविदः ।
नोन्मत्तया श्रुतौ मन्ये मम वीर्यपराक्रमौ ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह बातचीत करनेकी कला जानता था । उसने मिथिलेशकुमारी सीतासे फिर इस प्रकार कहना आरम्भ किया—‘मेरी समझमें तुम पागल हो गयी हो, इसीलिये तुमने मेरे बल और पराक्रमकी बातें अनसुनी कर दी हैं ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उद्वहेयं भुजाभ्यां तु मेदिनीमम्बरे स्थितः ।
आपिबेयं समुद्रं च मृत्युं हन्यां रणे स्थितः ॥ ३ ॥

मूलम्

उद्वहेयं भुजाभ्यां तु मेदिनीमम्बरे स्थितः ।
आपिबेयं समुद्रं च मृत्युं हन्यां रणे स्थितः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अरी! मैं आकाशमें खड़ा हो इन दोनों भुजाओंसे ही सारी पृथ्वीको उठा ले जा सकता हूँ । समुद्रको पी सकता हूँ और युद्धमें स्थित हो मौतको भी मार सकता हूँ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्कं तुद्यां शरैस्तीक्ष्णैर्विभिन्द्यां हि महीतलम् ।
कामरूपेण उन्मत्ते पश्य मां कामरूपिणम् ॥ ४ ॥

मूलम्

अर्कं तुद्यां शरैस्तीक्ष्णैर्विभिन्द्यां हि महीतलम् ।
कामरूपेण उन्मत्ते पश्य मां कामरूपिणम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘काम तथा रूपसे उन्मत्त रहनेवाली नारी! यदि चाहूँ तो अपने तीखे बाणोंसे सूर्यको भी व्यथित कर दूँ और इस भूतलको भी विदीर्ण कर डालूँ । मैं इच्छानुसार रूप धारण करनेमें समर्थ हूँ । तुम मेरी ओर देखो’ ॥ ४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तवतस्तस्य रावणस्य शिखिप्रभे ।
क्रुद्धस्य हरिपर्यन्ते रक्ते नेत्रे बभूवतुः ॥ ५ ॥

मूलम्

एवमुक्तवतस्तस्य रावणस्य शिखिप्रभे ।
क्रुद्धस्य हरिपर्यन्ते रक्ते नेत्रे बभूवतुः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहते-कहते क्रोधसे भरे हुए रावणकी आँखें, जिनके प्रान्तभाग काले थे, जलती आगके समान लाल हो गयीं ॥ ५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सद्यः सौम्यं परित्यज्य तीक्ष्णरूपं स रावणः ।
स्वं रूपं कालरूपाभं भेजे वैश्रवणानुजः ॥ ६ ॥

मूलम्

सद्यः सौम्यं परित्यज्य तीक्ष्णरूपं स रावणः ।
स्वं रूपं कालरूपाभं भेजे वैश्रवणानुजः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुबेरके छोटे भाई रावणने तत्काल अपने सौम्य रूपको त्यागकर तीखा एवं कालके समान विकराल अपना स्वाभाविक रूप धारण कर लिया ॥ ६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संरक्तनयनः श्रीमांस्तप्तकाञ्चनभूषणः ।
क्रोधेन महताविष्टो नीलजीमूतसन्निभः ॥ ७ ॥

मूलम्

संरक्तनयनः श्रीमांस्तप्तकाञ्चनभूषणः ।
क्रोधेन महताविष्टो नीलजीमूतसन्निभः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय श्रीमान् रावणके सभी नेत्र लाल हो रहे थे । वह पक्के सोनेके आभूषणोंसे अलंकृत था और महान् क्रोधसे आविष्ट हो नीलमेघके समान काला दिखायी देने लगा ॥ ७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दशास्यो विंशतिभुजो बभूव क्षणदाचरः ।
स परिव्राजकच्छद्म महाकायो विहाय तत् ॥ ८ ॥

मूलम्

दशास्यो विंशतिभुजो बभूव क्षणदाचरः ।
स परिव्राजकच्छद्म महाकायो विहाय तत् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह विशालकाय निशाचर परिव्राजकके उस छद्मवेशको त्यागकर दस मुखों और बीस भुजाओंसे संयुक्त हो गया ॥ ८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतिपेदे स्वकं रूपं रावणो राक्षसाधिपः ।
रक्ताम्बरधरस्तस्थौ स्त्रीरत्नं प्रेक्ष्य मैथिलीम् ॥ ९ ॥

मूलम्

प्रतिपेदे स्वकं रूपं रावणो राक्षसाधिपः ।
रक्ताम्बरधरस्तस्थौ स्त्रीरत्नं प्रेक्ष्य मैथिलीम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय राक्षसराज रावणने अपने सहज रूपको ग्रहण कर लिया और लाल रंगके वस्त्र पहनकर वह स्त्री-रत्न सीताकी ओर देखता हुआ खड़ा हो गया ॥ ९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तामसितकेशान्तां भास्करस्य प्रभामिव ।
वसनाभरणोपेतां मैथिलीं रावणोऽब्रवीत् ॥ १० ॥

मूलम्

स तामसितकेशान्तां भास्करस्य प्रभामिव ।
वसनाभरणोपेतां मैथिलीं रावणोऽब्रवीत् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

काले केशवाली मैथिली वस्त्राभूषणोंसे विभूषित हो सूर्यकी प्रभा-सी जान पड़ती थीं । रावणने उनसे कहा— ॥ १० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिषु लोकेषु विख्यातं यदि भर्तारमिच्छसि ।
मामाश्रय वरारोहे तवाहं सदृशः पतिः ॥ ११ ॥

मूलम्

त्रिषु लोकेषु विख्यातं यदि भर्तारमिच्छसि ।
मामाश्रय वरारोहे तवाहं सदृशः पतिः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वरारोहे! यदि तुम तीनों लोकोंमें विख्यात पुरुषको अपना पति बनाना चाहती हो तो मेरा आश्रय लो । मैं ही तुम्हारे योग्य पति हूँ ॥ ११ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मां भजस्व चिराय त्वमहं श्लाघ्यः पतिस्तव ।
नैव चाहं क्वचिद् भद्रे करिष्ये तव विप्रियम् ॥ १२ ॥

मूलम्

मां भजस्व चिराय त्वमहं श्लाघ्यः पतिस्तव ।
नैव चाहं क्वचिद् भद्रे करिष्ये तव विप्रियम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भद्रे! मुझे सुदीर्घकालके लिये स्वीकार करो । मैं तुम्हारे लिये स्पृहणीय एवं प्रशंसनीय पति होऊँगा तथा कभी तुम्हारे मनके प्रतिकूल कोई बर्ताव नहीं करूँगा ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्यज्यतां मानुषो भावो मयि भावः प्रणीयताम् ।
राज्याच्च्युतमसिद्धार्थं रामं परिमितायुषम् ॥ १३ ॥
कैर्गुणैरनुरक्तासि मूढे पण्डितमानिनि ।

मूलम्

त्यज्यतां मानुषो भावो मयि भावः प्रणीयताम् ।
राज्याच्च्युतमसिद्धार्थं रामं परिमितायुषम् ॥ १३ ॥
कैर्गुणैरनुरक्तासि मूढे पण्डितमानिनि ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘मनुष्य रामके विषयमें जो तुम्हारा अनुराग है, उसे त्याग दो और मुझसे स्नेह करो । अपनेको पण्डित (बुद्धिमती) माननेवाली मूढ़ नारी! जो राज्यसे भ्रष्ट है, जिसका मनोरथ सफल नहीं हुआ तथा जिसकी आयु सीमित है, उस राममें किन गुणोंके कारण तुम अनुरक्त हो ॥ १३ १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यः स्त्रियो वचनाद् राज्यं विहाय ससुहृज्जनम् ॥ १४ ॥
अस्मिन् व्यालानुचरिते वने वसति दुर्मतिः ।

मूलम्

यः स्त्रियो वचनाद् राज्यं विहाय ससुहृज्जनम् ॥ १४ ॥
अस्मिन् व्यालानुचरिते वने वसति दुर्मतिः ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो एक स्त्रीके कहनेसे सुहृदोंसहित सारे राज्यका त्याग करके इस हिंसक जन्तुओंसे सेवित वनमें निवास करता है, उसकी बुद्धि कैसी खोटी है? (वह सर्वथा मूढ़ है)’ ॥ १४ १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा मैथिलीं वाक्यं प्रियार्हां प्रियवादिनीम् ॥ १५ ॥
अभिगम्य सुदुष्टात्मा राक्षसः काममोहितः ।
जग्राह रावणः सीतां बुधः खे रोहिणीमिव ॥ १६ ॥

मूलम्

इत्युक्त्वा मैथिलीं वाक्यं प्रियार्हां प्रियवादिनीम् ॥ १५ ॥
अभिगम्य सुदुष्टात्मा राक्षसः काममोहितः ।
जग्राह रावणः सीतां बुधः खे रोहिणीमिव ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो प्रिय वचन सुननेके योग्य और सबसे प्रिय वचन बोलनेवाली थीं, उन मिथिलेशकुमारी सीतासे ऐसा अप्रिय वचन कहकर कामसे मोहित हुए उस अत्यन्त दुष्टात्मा राक्षस रावणने निकट जाकर (माताके समान आदरणीया) सीताको पकड़ लिया, मानो बुधने आकाशमें अपनी माता रोहिणीको पकड़नेका दुस्साहस किया हो* ॥ १५-१६ ॥

पादटिप्पनी
  • यहाँ अभूतोपमालंकार है । बुध चन्द्रमाके पुत्र हैं और रोहिणी चन्द्रमाकी पत्नी । बुधने न तो कभी रोहिणीको पकड़ा है और न वे ऐसा कर ही सकते हैं । यहाँ यह दिखाया गया है कि यदि कदाचित् बुध कामवश अपनी माता रोहिणीको पकड़ लें तो वह जैसा घोर पाप होगा, वही पाप रावणने सीताको पकड़नेके कारण किया था ।
विश्वास-प्रस्तुतिः

वामेन सीतां पद्माक्षीं मूर्धजेषु करेण सः ।
ऊर्वोस्तु दक्षिणेनैव परिजग्राह पाणिना ॥ १७ ॥

मूलम्

वामेन सीतां पद्माक्षीं मूर्धजेषु करेण सः ।
ऊर्वोस्तु दक्षिणेनैव परिजग्राह पाणिना ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने बायें हाथसे कमलनयनी सीताके केशोंसहित मस्तकको पकड़ा तथा दाहिना हाथ उनकी दोनों जाँघोंके नीचे लगाकर उसके द्वारा उन्हें उठा लिया ॥ १७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं दृष्ट्वा गिरिशृङ्गाभं तीक्ष्णदंष्ट्रं महाभुजम् ।
प्राद्रवन् मृत्युसङ्काशं भयार्ता वनदेवताः ॥ १८ ॥

मूलम्

तं दृष्ट्वा गिरिशृङ्गाभं तीक्ष्णदंष्ट्रं महाभुजम् ।
प्राद्रवन् मृत्युसङ्काशं भयार्ता वनदेवताः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय तीखी दाढ़ों और विशाल भुजाओंसे युक्त पर्वतशिखरके समान प्रतीत होनेवाले उस कालके समान विकराल राक्षसको देखकर वनके समस्त देवता भयभीत होकर भाग गये ॥ १८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स च मायामयो दिव्यः खरयुक्तः खरस्वनः ।
प्रत्यदृश्यत हेमाङ्गो रावणस्य महारथः ॥ १९ ॥

मूलम्

स च मायामयो दिव्यः खरयुक्तः खरस्वनः ।
प्रत्यदृश्यत हेमाङ्गो रावणस्य महारथः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इतनेहीमें गधोंसे जुता हुआ और गधोंके समान ही शब्द करनेवाला रावणका वह विशाल सुवर्णमय मायानिर्मित दिव्य रथ वहाँ दिखायी दिया ॥ १९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तां परुषैर्वाक्यैरभितर्ज्य महास्वनः ।
अङ्केनादाय वैदेहीं रथमारोपयत् तदा ॥ २० ॥

मूलम्

ततस्तां परुषैर्वाक्यैरभितर्ज्य महास्वनः ।
अङ्केनादाय वैदेहीं रथमारोपयत् तदा ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रथके प्रकट होते ही जोर-जोरसे गर्जना करनेवाले रावणने कठोर वचनोंद्वारा विदेहनन्दिनी सीताको डाँटा और पूर्वोक्त रूपसे गोदमें उठाकर तत्काल रथपर बिठा दिया ॥ २० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा गृहीतातिचुक्रोश रावणेन यशस्विनी ।
रामेति सीता दुःखार्ता रामं दूरं गतं वने ॥ २१ ॥

मूलम्

सा गृहीतातिचुक्रोश रावणेन यशस्विनी ।
रामेति सीता दुःखार्ता रामं दूरं गतं वने ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रावणके द्वारा पकड़ी जानेपर यशस्विनी सीता दुःखसे व्याकुल हो गयीं और वनमें दूर गये हुए श्रीरामचन्द्रजीको ‘हे राम!’ कहकर जोर-जोरसे पुकारने लगीं ॥ २१ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तामकामां स कामार्तः पन्नगेन्द्रवधूमिव ।
विचेष्टमानामादाय उत्पपाताथ रावणः ॥ २२ ॥

मूलम्

तामकामां स कामार्तः पन्नगेन्द्रवधूमिव ।
विचेष्टमानामादाय उत्पपाताथ रावणः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सीताके मनमें रावणकी कामना नहीं थी—वे उसकी ओरसे सर्वथा विरक्त थीं और उसकी कैदसे अपनेको छुड़ानेके लिये चोट खायी हुई नागिनकी तरह उस रथपर छटपटा रही थीं । उसी अवस्थामें कामपीड़ित राक्षस उन्हें लेकर आकाशमें उड़ चला ॥ २२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सा राक्षसेन्द्रेण ह्रियमाणा विहायसा ।
भृशं चुक्रोश मत्तेव भ्रान्तचित्ता यथातुरा ॥ २३ ॥

मूलम्

ततः सा राक्षसेन्द्रेण ह्रियमाणा विहायसा ।
भृशं चुक्रोश मत्तेव भ्रान्तचित्ता यथातुरा ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राक्षसराज जब सीताको हरकर आकाशमार्गसे ले जाने लगा, उस समय उनका चित्त भ्रमित हो उठा । वे पगली-सी हो गयीं और दुःखसे आतुर-सी होकर जोर-जोरसे विलाप करने लगीं— ॥ २३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हा लक्ष्मण महाबाहो गुरुचित्तप्रसादक ।
ह्रियमाणां न जानीषे रक्षसा कामरूपिणा ॥ २४ ॥

मूलम्

हा लक्ष्मण महाबाहो गुरुचित्तप्रसादक ।
ह्रियमाणां न जानीषे रक्षसा कामरूपिणा ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘हा महाबाहु लक्ष्मण! तुम गुरुजनोंके मनको प्रसन्न करनेवाले हो । इस समय इच्छानुसार रूप धारण करनेवाला राक्षस मुझे हरकर लिये जाता है, किंतु तुम्हें इसका पता नहीं है ॥ २४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जीवितं सुखमर्थं च धर्महेतोः परित्यजन् ।
ह्रियमाणामधर्मेण मां राघव न पश्यसि ॥ २५ ॥

मूलम्

जीवितं सुखमर्थं च धर्महेतोः परित्यजन् ।
ह्रियमाणामधर्मेण मां राघव न पश्यसि ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘हा रघुनन्दन! आपने धर्मके लिये प्राणोंका मोह, शरीरका सुख तथा राज्य-वैभव सब कुछ छोड़ दिया है । यह राक्षस मुझे अधर्मपूर्वक हरकर लिये जा रहा है, परंतु आप नहीं देखते हैं ॥ २५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ननु नामाविनीतानां विनेतासि परन्तप ।
कथमेवंविधं पापं न त्वं शाधि हि रावणम् ॥ २६ ॥

मूलम्

ननु नामाविनीतानां विनेतासि परन्तप ।
कथमेवंविधं पापं न त्वं शाधि हि रावणम् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शत्रुओंको संताप देनेवाले आर्यपुत्र! आप तो कुमार्गपर चलनेवाले उद्दण्ड पुरुषोंको दण्ड देकर उन्हें राहपर लानेवाले हैं, फिर ऐसे पापी रावणको क्यों नहीं दण्ड देते हैं ॥ २६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तु सद्योऽविनीतस्य दृश्यते कर्मणः फलम् ।
कालोऽप्यङ्गीभवत्यत्र सस्यानामिव पक्तये ॥ २७ ॥

मूलम्

न तु सद्योऽविनीतस्य दृश्यते कर्मणः फलम् ।
कालोऽप्यङ्गीभवत्यत्र सस्यानामिव पक्तये ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उद्दण्ड पुरुषके उद्दण्डतापूर्ण कर्मका फल तत्काल मिलता नहीं दिखायी देता है; क्योंकि इसमें काल भी सहकारी कारण होता है, जैसे कि खेतीके पकनेके लिये तदनुकूल समयकी अपेक्षा होती है ॥ २७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं कर्म कृतवानेतत् कालोपहतचेतनः ।
जीवितान्तकरं घोरं रामाद् व्यसनमाप्नुहि ॥ २८ ॥

मूलम्

त्वं कर्म कृतवानेतत् कालोपहतचेतनः ।
जीवितान्तकरं घोरं रामाद् व्यसनमाप्नुहि ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘रावण! तेरे सिरपर काल नाच रहा है । उसीने तेरी विचारशक्तिको नष्ट कर दी है, इसीलिये तूने ऐसा पापकर्म किया है । तुझे श्रीरामसे वह भयंकर संकट प्राप्त हो, जो तेरे प्राणोंका अन्त कर डाले ॥ २८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हन्तेदानीं सकामा तु कैकेयी बान्धवैः सह ।
ह्रियेयं धर्मकामस्य धर्मपत्नी यशस्विनः ॥ २९ ॥

मूलम्

हन्तेदानीं सकामा तु कैकेयी बान्धवैः सह ।
ह्रियेयं धर्मकामस्य धर्मपत्नी यशस्विनः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘हाय! इस समय कैकेयी अपने बन्धु-बान्धवोंसहित सफलमनोरथ हो गयी; क्योंकि धर्मकी अभिलाषा रखनेवाले यशस्वी श्रीरामकी धर्मपत्नी होकर भी मैं एक राक्षसद्वारा हरी जा रही हूँ ॥ २९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आमन्त्रये जनस्थाने कर्णिकारांश्च पुष्पितान् ।
क्षिप्रं रामाय शंसध्वं सीतां हरति रावणः ॥ ३० ॥

मूलम्

आमन्त्रये जनस्थाने कर्णिकारांश्च पुष्पितान् ।
क्षिप्रं रामाय शंसध्वं सीतां हरति रावणः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं जनस्थानमें खिले हुए कनेर वृक्षोंसे प्रार्थना करती हूँ, तुमलोग शीघ्र ही श्रीरामसे कहना कि सीताको रावण हर ले जा रहा है ॥ ३० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हंससारससङ्घुष्टां वन्दे गोदावरीं नदीम् ।
क्षिप्रं रामाय शंस त्वं सीतां हरति रावणः ॥ ३१ ॥

मूलम्

हंससारससङ्घुष्टां वन्दे गोदावरीं नदीम् ।
क्षिप्रं रामाय शंस त्वं सीतां हरति रावणः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘हंसों और सारसोंके कलरवोंसे मुखरित हुई गोदावरी नदीको मैं प्रणाम करती हूँ । माँ! तुम श्रीरामसे शीघ्र ही कह देना, सीताको रावण हर ले जा रहा है ॥ ३१ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दैवतानि च यान्यस्मिन् वने विविधपादपे ।
नमस्करोम्यहं तेभ्यो भर्तुः शंसत मां हृताम् ॥ ३२ ॥

मूलम्

दैवतानि च यान्यस्मिन् वने विविधपादपे ।
नमस्करोम्यहं तेभ्यो भर्तुः शंसत मां हृताम् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस वनके विभिन्न वृक्षोंपर निवास करनेवाले जो-जो देवता हैं, उन सबको मैं नमस्कार करती हूँ । आप सब लोग शीघ्र ही मेरे स्वामीको सूचना दे दें कि आपकी स्त्रीको राक्षस हर ले गया ॥ ३२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यानि कानिचिदप्यत्र सत्त्वानि विविधानि च ।
सर्वाणि शरणं यामि मृगपक्षिगणानि वै ॥ ३३ ॥
ह्रियमाणां प्रियां भर्तुः प्राणेभ्योऽपि गरीयसीम् ।
विवशा ते हृता सीता रावणेनेति शंसत ॥ ३४ ॥

मूलम्

यानि कानिचिदप्यत्र सत्त्वानि विविधानि च ।
सर्वाणि शरणं यामि मृगपक्षिगणानि वै ॥ ३३ ॥
ह्रियमाणां प्रियां भर्तुः प्राणेभ्योऽपि गरीयसीम् ।
विवशा ते हृता सीता रावणेनेति शंसत ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यहाँ पशु-पक्षी आदि जो कोई भी नाना प्रकारके प्राणी रहते हों, उन सबकी मैं शरण लेती हूँ । वे मेरे स्वामी श्रीरामचन्द्रजीसे कहें कि जो आपको प्राणोंसे भी बढ़कर प्रिय थी, वह सीता हरी गयी । आपकी सीताको असहाय अवस्थामें रावण हर ले गया ॥ ३३-३४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विदित्वा तु महाबाहुरमुत्रापि महाबलः ।
आनेष्यति पराक्रम्य वैवस्वतहृतामपि ॥ ३५ ॥

मूलम्

विदित्वा तु महाबाहुरमुत्रापि महाबलः ।
आनेष्यति पराक्रम्य वैवस्वतहृतामपि ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाबाहु श्रीराम बड़े बलवान् हैं । वे मुझे परलोकमें भी गयी हुई जान लें तो यमराजके द्वारा अपहृत होनेपर भी मुझको पराक्रमपूर्वक वहाँसे लौटा लायेंगे’ ॥ ३५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा तदा करुणा वाचो विलपन्ती सुदुःखिता ।
वनस्पतिगतं गृध्रं ददर्शायतलोचना ॥ ३६ ॥

मूलम्

सा तदा करुणा वाचो विलपन्ती सुदुःखिता ।
वनस्पतिगतं गृध्रं ददर्शायतलोचना ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय अत्यन्त दुःखी हो करुणाजनक बातें कहकर विलाप करती हुई विशाललोचना सीताने एक वृक्षपर बैठे हुए गृध्रराज जटायुको देखा ॥ ३६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा तमुद्वीक्ष्य सुश्रोणी रावणस्य वशङ्गता ।
समाक्रन्दद् भयपरा दुःखोपहतया गिरा ॥ ३७ ॥

मूलम्

सा तमुद्वीक्ष्य सुश्रोणी रावणस्य वशङ्गता ।
समाक्रन्दद् भयपरा दुःखोपहतया गिरा ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रावणके वशमें पड़ जानेके कारण सुन्दरी सीता अत्यन्त भयभीत हो रही थीं । जटायुको देखकर वे दुःखभरी वाणीमें करुण क्रन्दन करने लगीं— ॥ ३७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जटायो पश्य मामार्य ह्रियमाणामनाथवत् ।
अनेन राक्षसेन्द्रेणाकरुणं पापकर्मणा ॥ ३८ ॥

मूलम्

जटायो पश्य मामार्य ह्रियमाणामनाथवत् ।
अनेन राक्षसेन्द्रेणाकरुणं पापकर्मणा ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आर्य जटायो! देखिये, यह पापाचारी राक्षसराज अनाथकी भाँति मुझे निर्दयतापूर्वक हरकर लिये जा रहा है ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैष वारयितुं शक्यस्त्वया क्रूरो निशाचरः ।
सत्ववाञ्जितकाशी च सायुधश्चैव दुर्मतिः ॥ ३९ ॥

मूलम्

नैष वारयितुं शक्यस्त्वया क्रूरो निशाचरः ।
सत्ववाञ्जितकाशी च सायुधश्चैव दुर्मतिः ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘परंतु आप इस क्रूर निशाचरको रोक नहीं सकते; क्योंकि यह बलवान् है, अनेक युद्धोंमें विजय पानेके कारण इसका दुस्साहस बढ़ा हुआ है । इसके हाथोंमें हथियार है और इसके मनमें दुष्टता भी भरी हुई है ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामाय तु यथातत्त्वं जटायो हरणं मम ।
लक्ष्मणाय च तत् सर्वमाख्यातव्यमशेषतः ॥ ४० ॥

मूलम्

रामाय तु यथातत्त्वं जटायो हरणं मम ।
लक्ष्मणाय च तत् सर्वमाख्यातव्यमशेषतः ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आर्य जटायो! जिस प्रकार मेरा अपहरण हुआ है, यह सब समाचार आप श्रीराम और लक्ष्मणसे ज्यों-का-ज्यों पूर्णरूपसे बता दीजियेगा’ ॥ ४० ॥

समाप्तिः

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डे एकोनपञ्चाशः सर्गः ॥ ४९ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके अरण्यकाण्डमें उनचासवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ४९ ॥