०३२ बलस्तुतिः

वाचनम्
भागसूचना
  1. शूर्पणखाका लंकामें रावणके पास जाना
विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः शूर्पणखा दृष्ट्वा सहस्राणि चतुर्दश ।
हतान्येकेन रामेण रक्षसां भीमकर्मणाम् ॥ १ ॥
दूषणं च खरं चैव हतं त्रिशिरसं रणे ।
दृष्ट्वा पुनर्महानादान् ननाद जलदोपमा ॥ २ ॥

मूलम्

ततः शूर्पणखा दृष्ट्वा सहस्राणि चतुर्दश ।
हतान्येकेन रामेण रक्षसां भीमकर्मणाम् ॥ १ ॥
दूषणं च खरं चैव हतं त्रिशिरसं रणे ।
दृष्ट्वा पुनर्महानादान् ननाद जलदोपमा ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उधर शूर्पणखाने जब देखा कि श्रीरामने भयंकर कर्म करनेवाले चौदह हजार राक्षसोंको अकेले ही मार गिराया तथा युद्धके मैदानमें दूषण, खर और त्रिशिराको भी मौतके घाट उतार दिया, तब वह शोकके कारण मेघ-गर्जनाके समान पुनः बड़े जोर-जोरसे घोर चीत्कार करने लगी ॥ १-२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा दृष्ट्वा कर्म रामस्य कृतमन्यैः सुदुष्करम् ।
जगाम परमोद्विग्ना लङ्कां रावणपालिताम् ॥ ३ ॥

मूलम्

सा दृष्ट्वा कर्म रामस्य कृतमन्यैः सुदुष्करम् ।
जगाम परमोद्विग्ना लङ्कां रावणपालिताम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामने वह कर्म कर दिखाया, जो दूसरोंके लिये अत्यन्त दुष्कर है; यह अपनी आँखों देखकर वह अत्यन्त उद्विग्न हो उठी और रावणद्वारा सुरक्षित लंकापुरीको गयी ॥ ३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा ददर्श विमानाग्रे रावणं दीप्ततेजसम् ।
उपोपविष्टं सचिवैर्मरुद्भिरिव वासवम् ॥ ४ ॥

मूलम्

सा ददर्श विमानाग्रे रावणं दीप्ततेजसम् ।
उपोपविष्टं सचिवैर्मरुद्भिरिव वासवम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ पहुँचकर उसने देखा, रावण पुष्पक विमान (या सतमहले मकान) के ऊपरी भागमें बैठा हुआ है । उसका राजोचित तेज उद्दीप्त हो रहा है तथा मरुद‍्गणोंसे घिरे हुए इन्द्रकी भाँति वह आस-पास बैठे हुए मन्त्रियोंसे घिरा है ॥ ४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसीनं सूर्यसङ्काशे काञ्चने परमासने ।
रुक्मवेदिगतं प्राज्यं ज्वलन्तमिव पावकम् ॥ ५ ॥

मूलम्

आसीनं सूर्यसङ्काशे काञ्चने परमासने ।
रुक्मवेदिगतं प्राज्यं ज्वलन्तमिव पावकम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रावण जिस उत्तम सुवर्णमय सिंहासनपर विराजमान था, वह सूर्यके समान जगमगा रहा था । जैसे सोनेकी ईंटोंसे बनी हुई वेदीपर स्थापित अग्निदेव घीकी अधिक आहुति पाकर प्रज्वलित हो उठे हों, उसी प्रकार उस स्वर्णसिंहासनपर रावण शोभा पा रहा था ॥ ५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवगन्धर्वभूतानामृषीणां च महात्मनाम् ।
अजेयं समरे घोरं व्यात्ताननमिवान्तकम् ॥ ६ ॥
देवासुरविमर्देषु वज्राशनिकृतव्रणम् ।
ऐरावतविषाणाग्रैरुत्कृष्टकिणवक्षसम् ॥ ७ ॥

मूलम्

देवगन्धर्वभूतानामृषीणां च महात्मनाम् ।
अजेयं समरे घोरं व्यात्ताननमिवान्तकम् ॥ ६ ॥
देवासुरविमर्देषु वज्राशनिकृतव्रणम् ।
ऐरावतविषाणाग्रैरुत्कृष्टकिणवक्षसम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवता, गन्धर्व, भूत और महात्मा ऋषि भी उसे जीतनेमें असमर्थ थे । समरभूमिमें वह मुँह फैलाकर खड़े हुए यमराजकी भाँति भयानक जान पड़ता था । देवताओं और असुरोंके संग्रामके अवसरोंपर उसके शरीरमें वज्र और अशनिके जो घाव हुए थे, उनके चिह्न अबतक विद्यमान थे । उसकी छातीमें ऐरावत हाथीने जो अपने दाँत गड़ाये थे, उसके निशान अब भी दिखायी देते थे ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विंशद्भुजं दशग्रीवं दर्शनीयपरिच्छदम् ।
विशालवक्षसं वीरं राजलक्षणलक्षितम् ॥ ८ ॥
नद्धवैदूर्यसङ्काशं तप्तकाञ्चनभूषणम् ।
सुभुजं शुक्लदशनं महास्यं पर्वतोपमम् ॥ ९ ॥

मूलम्

विंशद्भुजं दशग्रीवं दर्शनीयपरिच्छदम् ।
विशालवक्षसं वीरं राजलक्षणलक्षितम् ॥ ८ ॥
नद्धवैदूर्यसङ्काशं तप्तकाञ्चनभूषणम् ।
सुभुजं शुक्लदशनं महास्यं पर्वतोपमम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके बीस भुजाएँ और दस मस्तक थे । उसके छत्र, चँवर और आभूषण आदि उपकरण देखने ही योग्य थे । वक्षःस्थल विशाल था । वह वीर राजोचित लक्षणोंसे सम्पन्न दिखायी देता था । वह अपने शरीरमें जो वैदूर्यमणि (नीलम) का आभूषण पहने हुए था, उसके समान ही उसके शरीरकी कान्ति भी थी । उसने तपाये हुए सोनेके आभूषण भी पहन रखे थे । उसकी भुजाएँ सुन्दर, दाँत सफेद, मुँह बहुत बड़ा और शरीर पर्वतके समान विशाल था ॥ ८-९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विष्णुचक्रनिपातैश्च शतशो देवसंयुगे ।
अन्यैः शस्त्रैः प्रहारैश्च महायुद्धेषु ताडितम् ॥ १० ॥

मूलम्

विष्णुचक्रनिपातैश्च शतशो देवसंयुगे ।
अन्यैः शस्त्रैः प्रहारैश्च महायुद्धेषु ताडितम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवताओंके साथ युद्ध करते समय उसके अङ्गोंपर सैकड़ों बार भगवान् विष्णुके चक्रका प्रहार हुआ था । बड़े-बड़े युद्धोंमें अन्यान्य अस्त्र-शस्त्रोंकी भी उसपर मार पड़ी थी (उन सबके चिह्न दृष्टिगोचर होते थे) ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहताङ्गैः समस्तैस्तं देवप्रहरणैस्तदा ।
अक्षोभ्याणां समुद्राणां क्षोभणं क्षिप्रकारिणम् ॥ ११ ॥

मूलम्

अहताङ्गैः समस्तैस्तं देवप्रहरणैस्तदा ।
अक्षोभ्याणां समुद्राणां क्षोभणं क्षिप्रकारिणम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवताओंके समस्त आयुधोंके प्रहारोंसे भी जो खण्डित न हो सके थे, उन्हीं अङ्गोंसे वह अक्षोभ्य समुद्रोंमें भी क्षोभ (हलचल) पैदा कर देता था । वह सभी कार्य बड़ी शीघ्रतासे करता था ॥ ११ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षेप्तारं पर्वताग्राणां सुराणां च प्रमर्दनम् ।
उच्छेत्तारं च धर्माणां परदाराभिमर्शनम् ॥ १२ ॥

मूलम्

क्षेप्तारं पर्वताग्राणां सुराणां च प्रमर्दनम् ।
उच्छेत्तारं च धर्माणां परदाराभिमर्शनम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पर्वतशिखरोंको भी तोड़कर फेंक देता था,देवताओंको भी रौंद डालता था । धर्मकी तो वह जड़ ही काट देता था और परायी स्त्रियोंके सतीत्वका नाश करनेवाला था ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वदिव्यास्त्रयोक्तारं यज्ञविघ्नकरं सदा ।
पुरीं भोगवतीं गत्वा पराजित्य च वासुकिम् ॥ १३ ॥
तक्षकस्य प्रियां भार्यां पराजित्य जहार यः ।

मूलम्

सर्वदिव्यास्त्रयोक्तारं यज्ञविघ्नकरं सदा ।
पुरीं भोगवतीं गत्वा पराजित्य च वासुकिम् ॥ १३ ॥
तक्षकस्य प्रियां भार्यां पराजित्य जहार यः ।

अनुवाद (हिन्दी)

वह सब प्रकारके दिव्यास्त्रोंका प्रयोग करनेवाला और सदा यज्ञोंमें विघ्न डालनेवाला था । एक समय पातालकी भोगवती पुरीमें जाकर नागराज वासुकिको परास्त करके तक्षकको भी हराकर उसकी प्यारी पत्नीको वह हर ले आया था ॥ १३ १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कैलासं पर्वतं गत्वा विजित्य नरवाहनम् ॥ १४ ॥
विमानं पुष्पकं तस्य कामगं वै जहार यः ।

मूलम्

कैलासं पर्वतं गत्वा विजित्य नरवाहनम् ॥ १४ ॥
विमानं पुष्पकं तस्य कामगं वै जहार यः ।

अनुवाद (हिन्दी)

इसी तरह कैलास पर्वतपर जाकर कुबेरको युद्धमें पराजित करके उसने उनके इच्छानुसार चलनेवाले पुष्पकविमानको अपने अधिकारमें कर लिया ॥ १४ १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वनं चैत्ररथं दिव्यं नलिनीं नन्दनं वनम् ॥ १५ ॥
विनाशयति यः क्रोधाद् देवोद्यानानि वीर्यवान् ।

मूलम्

वनं चैत्ररथं दिव्यं नलिनीं नन्दनं वनम् ॥ १५ ॥
विनाशयति यः क्रोधाद् देवोद्यानानि वीर्यवान् ।

अनुवाद (हिन्दी)

वह पराक्रमी निशाचर क्रोधपूर्वक कुबेरके दिव्य चैत्ररथ वनको, सौगन्धिक कमलोंसे युक्त नलिनी नामवाली पुष्करिणीको, इन्द्रके नन्दनवनको तथा देवताओंके दूसरे-दूसरे उद्यानोंको नष्ट करता रहता था ॥ १५ १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चन्द्रसूर्यौ महाभागावुत्तिष्ठन्तौ परन्तपौ ॥ १६ ॥
निवारयति बाहुभ्यां यः शैलशिखरोपमः ।

मूलम्

चन्द्रसूर्यौ महाभागावुत्तिष्ठन्तौ परन्तपौ ॥ १६ ॥
निवारयति बाहुभ्यां यः शैलशिखरोपमः ।

अनुवाद (हिन्दी)

वह पर्वत-शिखरके समान आकार धारण करके शत्रुओंको संताप देनेवाले महाभाग चन्द्रमा और सूर्यको उनके उदयकालमें अपने हाथोंसे रोक देता था ॥ १६ १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दशवर्षसहस्राणि तपस्तप्त्वा महावने ॥ १७ ॥
पुरा स्वयम्भुवे धीरः शिरांस्युपजहार यः ।

मूलम्

दशवर्षसहस्राणि तपस्तप्त्वा महावने ॥ १७ ॥
पुरा स्वयम्भुवे धीरः शिरांस्युपजहार यः ।

अनुवाद (हिन्दी)

उस धीर स्वभाववाले रावणने पूर्वकालमें एक विशाल वनके भीतर दस हजार वर्षोंतक घोर तपस्या करके ब्रह्माजीको अपने मस्तकोंकी बलि दे दी थी ॥ १७ १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवदानवगन्धर्वपिशाचपतगोरगैः ॥ १८ ॥
अभयं यस्य सङ्ग्रामे मृत्युतो मानुषादृते ।

मूलम्

देवदानवगन्धर्वपिशाचपतगोरगैः ॥ १८ ॥
अभयं यस्य सङ्ग्रामे मृत्युतो मानुषादृते ।

अनुवाद (हिन्दी)

उसके प्रभावसे उसे देवता, दानव, गन्धर्व, पिशाच, पक्षी और सर्पोंसे भी संग्राममें अभय प्राप्त हो गया था । मनुष्यके सिवा और किसीके हाथसे उसे मृत्युका भय नहीं था ॥ १८ १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन्त्रैरभिष्टुतं पुण्यमध्वरेषु द्विजातिभिः ॥ १९ ॥
हविर्धानेषु यः सोममुपहन्ति महाबलः ।

मूलम्

मन्त्रैरभिष्टुतं पुण्यमध्वरेषु द्विजातिभिः ॥ १९ ॥
हविर्धानेषु यः सोममुपहन्ति महाबलः ।

अनुवाद (हिन्दी)

वह महाबली राक्षस सोमसवनकर्मविशिष्ट यज्ञोंमें द्विजातियोंद्वारा वेदमन्त्रोंके उच्चारणपूर्वक निकाले गये तथा वैदिक मन्त्रोंसे ही सुसंस्कृत एवं स्तुत हुए पवित्र सोमरसको वहाँ पहुँचकर नष्ट कर देता था ॥ १९ १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राप्तयज्ञहरं दुष्टं ब्रह्मघ्नं क्रूरकारिणम् ॥ २० ॥
कर्कशं निरनुक्रोशं प्रजानामहिते रतम् ।

मूलम्

प्राप्तयज्ञहरं दुष्टं ब्रह्मघ्नं क्रूरकारिणम् ॥ २० ॥
कर्कशं निरनुक्रोशं प्रजानामहिते रतम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

समाप्तिके निकट पहुँचे हुए यज्ञोंका विध्वंस करनेवाला वह दुष्ट निशाचर ब्राह्मणोंकी हत्या तथा दूसरे-दूसरे क्रूर कर्म करता था । वह बड़े ही रूखे स्वभावका और निर्दय था । सदा प्रजाजनोंके अहितमें ही लगा रहता था ॥ २० १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रावणं सर्वभूतानां सर्वलोकभयावहम् ॥ २१ ॥
राक्षसी भ्रातरं क्रूरं सा ददर्श महाबलम् ।

मूलम्

रावणं सर्वभूतानां सर्वलोकभयावहम् ॥ २१ ॥
राक्षसी भ्रातरं क्रूरं सा ददर्श महाबलम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

समस्त लोकोंको भय देनेवाले और सम्पूर्ण प्राणियोंको रुलानेवाले अपने इस महाबली क्रूर भाईको राक्षसी शूर्पणखाने उस समय देखा ॥ २१ १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं दिव्यवस्त्राभरणं दिव्यमाल्योपशोभितम् ॥ २२ ॥
आसने सूपविष्टं तं काले कालमिवोद्यतम् ।
राक्षसेन्द्रं महाभागं पौलस्त्यकुलनन्दनम् ॥ २३ ॥

मूलम्

तं दिव्यवस्त्राभरणं दिव्यमाल्योपशोभितम् ॥ २२ ॥
आसने सूपविष्टं तं काले कालमिवोद्यतम् ।
राक्षसेन्द्रं महाभागं पौलस्त्यकुलनन्दनम् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह दिव्य वस्त्रों और आभूषणोंसे विभूषित था । दिव्य पुष्पोंकी मालाएँ उसकी शोभा बढ़ा रही थीं । सिंहासनपर बैठा हुआ राक्षसराज पुलस्त्यकुलनन्दन महाभाग दशग्रीव प्रलयकालमें संहारके लिये उद्यत हुए महाकालके समान जान पड़ता था ॥ २२-२३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपगम्याब्रवीद् वाक्यं राक्षसी भयविह्वला ।
रावणं शत्रुहन्तारं मन्त्रिभिः परिवारितम् ॥ २४ ॥

मूलम्

उपगम्याब्रवीद् वाक्यं राक्षसी भयविह्वला ।
रावणं शत्रुहन्तारं मन्त्रिभिः परिवारितम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मन्त्रियोंसे घिरे हुए शत्रुहन्ता भाई रावणके पास जाकर भयसे विह्वल हुई वह राक्षसी कुछ कहनेको उद्यत हुई ॥ २४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमब्रवीद् दीप्तविशाललोचनं
प्रदर्शयित्वा भयलोभमोहिता ।
सुदारुणं वाक्यमभीतचारिणी
महात्मना शूर्पणखा विरूपिता ॥ २५ ॥

मूलम्

तमब्रवीद् दीप्तविशाललोचनं
प्रदर्शयित्वा भयलोभमोहिता ।
सुदारुणं वाक्यमभीतचारिणी
महात्मना शूर्पणखा विरूपिता ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महात्मा लक्ष्मणने नाक-कान काटकर जिसे कुरूप कर दिया था तथा जो निर्भय विचरनेवाली थी, वह भय और लोभसे मोहित हुई शूर्पणखा बड़े-बड़े चमकीले नेत्रोंवाले अत्यन्त क्रूर रावणको अपनी दुर्दशा दिखाकर उससे बोली ॥ २५ ॥

समाप्तिः

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डे द्वात्रिंशः सर्गः ॥ ३२ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके अरण्यकाण्डमें बत्तीसवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ३२ ॥