०३० खरवधः

वाचनम्
भागसूचना
  1. श्रीरामके व्यङ्ग करनेपर खरका उन्हें फटकारकर उनके ऊपर सालवृक्षका प्रहार करना, श्रीरामका उस वृक्षको काटकर एक तेजस्वी बाणसे खरको मार गिराना तथा देवताओं और महर्षियोंद्वारा श्रीरामकी प्रशंसा
विश्वास-प्रस्तुतिः

भित्त्वा तु तां गदां बाणै राघवो धर्मवत्सलः ।
स्मयमान इदं वाक्यं संरब्धमिदमब्रवीत् ॥ १ ॥

मूलम्

भित्त्वा तु तां गदां बाणै राघवो धर्मवत्सलः ।
स्मयमान इदं वाक्यं संरब्धमिदमब्रवीत् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मप्रेमी भगवान् श्रीरामने अपने बाणोंद्वारा खरकी उस गदाको विदीर्ण करके मुसकराते हुए यह रोषसूचक बात कही— ॥ १ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतत् ते बलसर्वस्वं दर्शितं राक्षसाधम ।
शक्तिहीनतरो मत्तो वृथा त्वमुपगर्जसि ॥ २ ॥

मूलम्

एतत् ते बलसर्वस्वं दर्शितं राक्षसाधम ।
शक्तिहीनतरो मत्तो वृथा त्वमुपगर्जसि ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राक्षसाधम! यही तेरा सारा बल है, जिसे तूने इस गदाके साथ दिखाया है । अब सिद्ध हो गया कि तू मुझसे अत्यन्त शक्तिहीन है, व्यर्थ ही अपने बलकी डींग हाँक रहा था ॥ २ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एषा बाणविनिर्भिन्ना गदा भूमितलं गता ।
अभिधानप्रगल्भस्य तव प्रत्ययघातिनी ॥ ३ ॥

मूलम्

एषा बाणविनिर्भिन्ना गदा भूमितलं गता ।
अभिधानप्रगल्भस्य तव प्रत्ययघातिनी ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेरे बाणोंसे छिन्न-भिन्न होकर तेरी यह गदा पृथ्वीपर पड़ी हुई है । तेरे मनमें जो यह विश्वास था कि मैं इस गदासे शत्रुका वध कर डालूँगा, इसका खण्डन तेरी इस गदाने ही कर दिया । अब यह स्पष्ट हो गया कि तू केवल बातें बनानेमें ढीठ है (तुझसे कोई पराक्रम नहीं हो सकता) ॥ ३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत् त्वयोक्तं विनष्टानामिदमश्रुप्रमार्जनम् ।
राक्षसानां करोमीति मिथ्या तदपि ते वचः ॥ ४ ॥

मूलम्

यत् त्वयोक्तं विनष्टानामिदमश्रुप्रमार्जनम् ।
राक्षसानां करोमीति मिथ्या तदपि ते वचः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तूने जो यह कहा था कि मैं तुम्हारा वध करके तुम्हारे हाथसे मारे गये राक्षसोंका अभी आँसू पोछूँगा, तेरी वह बात भी झूठी हो गयी ॥ ४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नीचस्य क्षुद्रशीलस्य मिथ्यावृत्तस्य रक्षसः ।
प्राणानपहरिष्यामि गरुत्मानमृतं यथा ॥ ५ ॥

मूलम्

नीचस्य क्षुद्रशीलस्य मिथ्यावृत्तस्य रक्षसः ।
प्राणानपहरिष्यामि गरुत्मानमृतं यथा ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तू नीच, क्षुद्रस्वभावसे युक्त और मिथ्याचारी राक्षस है । मैं तेरे प्राणोंको उसी प्रकार हर लूँगा, जैसे गरुड़ने देवताओंके यहाँसे अमृतका अपहरण किया था ॥ ५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्य ते भिन्नकण्ठस्य फेनबुद‍्बुदभूषितम् ।
विदारितस्य मद‍्बाणैर्मही पास्यति शोणितम् ॥ ६ ॥

मूलम्

अद्य ते भिन्नकण्ठस्य फेनबुद‍्बुदभूषितम् ।
विदारितस्य मद‍्बाणैर्मही पास्यति शोणितम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अब मैं अपने बाणोंसे तेरे शरीरको विदीर्ण करके तेरा गला भी काट डालूँगा । फिर यह पृथ्वी फेन और बुदबुदोंसे युक्त तेरे गरम-गरम रक्तका पान करेगी ॥ ६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पांसुरूषितसर्वाङ्गः स्रस्तन्यस्तभुजद्वयः ।
स्वप्स्यसे गां समाश्लिष्य दुर्लभां प्रमदामिव ॥ ७ ॥

मूलम्

पांसुरूषितसर्वाङ्गः स्रस्तन्यस्तभुजद्वयः ।
स्वप्स्यसे गां समाश्लिष्य दुर्लभां प्रमदामिव ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तेरे सारे अङ्ग धूलसे धूसर हो जायँगे, तेरी दोनों भुजाएँ शरीरसे अलग होकर पृथ्वीपर गिर जायँगी और उस दशामें तू दुर्लभ युवतीके समान इस पृथ्वीका आलिङ्गन करके सदाके लिये सो जायगा ॥ ७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रवृद्धनिद्रे शयिते त्वयि राक्षसपांसने ।
भविष्यन्ति शरण्यानां शरण्या दण्डका इमे ॥ ८ ॥

मूलम्

प्रवृद्धनिद्रे शयिते त्वयि राक्षसपांसने ।
भविष्यन्ति शरण्यानां शरण्या दण्डका इमे ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तेरे-जैसे राक्षसकुलकलङ्कके सदाके लिये महानिद्रामें सो जानेपर ये दण्डकवनके प्रदेश शरणार्थियोंको शरण देनेवाले हो जायँगे ॥ ८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जनस्थाने हतस्थाने तव राक्षस मच्छरैः ।
निर्भया विचरिष्यन्ति सर्वतो मुनयो वने ॥ ९ ॥

मूलम्

जनस्थाने हतस्थाने तव राक्षस मच्छरैः ।
निर्भया विचरिष्यन्ति सर्वतो मुनयो वने ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राक्षस! मेरे बाणोंसे जनस्थानमें बने हुए तेरे निवासस्थानके नष्ट हो जानेपर मुनिगण इस वनमें सब ओर निर्भय विचर सकेंगे ॥ ९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्य विप्रसरिष्यन्ति राक्षस्यो हतबान्धवाः ।
बाष्पार्द्रवदना दीना भयादन्यभयावहाः ॥ १० ॥

मूलम्

अद्य विप्रसरिष्यन्ति राक्षस्यो हतबान्धवाः ।
बाष्पार्द्रवदना दीना भयादन्यभयावहाः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो अबतक दूसरोंको भय देती थीं, वे राक्षसियाँ आज अपने बान्धवजनोंके मारे जानेसे दीन हो आँसुओंसे भींगे मुँह लिये जनस्थानसे स्वयं ही भयके कारण भाग जायँगी ॥ १० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्य शोकरसज्ञास्ता भविष्यन्ति निरर्थिकाः ।
अनुरूपकुलाः पत्न्यो यासां त्वं पतिरीदृशः ॥ ११ ॥

मूलम्

अद्य शोकरसज्ञास्ता भविष्यन्ति निरर्थिकाः ।
अनुरूपकुलाः पत्न्यो यासां त्वं पतिरीदृशः ॥ ११ ॥

Misc Detail

‘जिनका तुझ-जैसा दुराचारी पति है, वे तदनुरूप कुलवाली तेरी पत्नियाँ आज तेरे मारे जानेपर काम आदि पुरुषार्थोंसे वञ्चित हो शोकरूपी स्थायी भाववाले करुणरसका अनुभव करनेवाली होंगी ॥ ११ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नृशंसशील क्षुद्रात्मन् नित्यं ब्राह्मणकण्टक ।
त्वत्कृते शङ्कितैरग्नौ मुनिभिः पात्यते हविः ॥ १२ ॥

मूलम्

नृशंसशील क्षुद्रात्मन् नित्यं ब्राह्मणकण्टक ।
त्वत्कृते शङ्कितैरग्नौ मुनिभिः पात्यते हविः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘क्रूरस्वभाववाले निशाचर! तेरा हृदय सदा ही क्षुद्र विचारोंसे भरा रहता है । तू ब्राह्मणोंके लिये कण्टकरूप है । तेरे ही कारण मुनिलोग शङ्कित रहकर ही अग्निमें हविष्यकी आहुतियाँ डालते हैं’ ॥ १२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमेवमभिसंरब्धं ब्रुवाणं राघवं वने ।
खरो निर्भर्त्सयामास रोषात् खरतरस्वरः ॥ १३ ॥

मूलम्

तमेवमभिसंरब्धं ब्रुवाणं राघवं वने ।
खरो निर्भर्त्सयामास रोषात् खरतरस्वरः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वनमें श्रीरामचन्द्रजी जब इस प्रकार रोषपूर्ण बातें कह रहे थे, उस समय क्रोधके कारण खरका भी स्वर अत्यन्त कठोर हो गया और उसने उन्हें फटकारते हुए कहा— ॥ १३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृढं खल्ववलिप्तोऽसि भयेष्वपि च निर्भयः ।
वाच्यावाच्यं ततो हि त्वं मृत्योर्वश्यो न बुध्यसे ॥ १४ ॥

मूलम्

दृढं खल्ववलिप्तोऽसि भयेष्वपि च निर्भयः ।
वाच्यावाच्यं ततो हि त्वं मृत्योर्वश्यो न बुध्यसे ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अहो! निश्चय ही तुम बड़े घमंडी हो, भयके अवसरोंपर भी निर्भय बने हुए हो । जान पड़ता है कि तुम मृत्युके अधीन हो गये हो, इस कारणसे ही तुम्हें यह भी पता नहीं है कि कब क्या कहना चाहिये और क्या नहीं कहना चाहिये? ॥ १४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कालपाशपरिक्षिप्ता भवन्ति पुरुषा हि ये ।
कार्याकार्यं न जानन्ति ते निरस्तषडिन्द्रियाः ॥ १५ ॥

मूलम्

कालपाशपरिक्षिप्ता भवन्ति पुरुषा हि ये ।
कार्याकार्यं न जानन्ति ते निरस्तषडिन्द्रियाः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो पुरुष कालके फन्देमें फँस जाते हैं, उनकी छहों इन्द्रियाँ बेकाम हो जाती हैं; इसीलिये उन्हें कर्तव्य और अकर्तव्यका ज्ञान नहीं रह जाता है’ ॥ १५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा ततो रामं संरुध्य भृकुटिं ततः ।
स ददर्श महासालमविदूरे निशाचरः ॥ १६ ॥
रणे प्रहरणस्यार्थे सर्वतो ह्यवलोकयन् ।
स तमुत्पाटयामास सन्दष्टदशनच्छदम् ॥ १७ ॥

मूलम्

एवमुक्त्वा ततो रामं संरुध्य भृकुटिं ततः ।
स ददर्श महासालमविदूरे निशाचरः ॥ १६ ॥
रणे प्रहरणस्यार्थे सर्वतो ह्यवलोकयन् ।
स तमुत्पाटयामास सन्दष्टदशनच्छदम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर उस निशाचरने एक बार श्रीरामकी ओर भौंहें टेंढ़ी करके देखा और रणभूमिमें उनपर प्रहार करनेके लिये वह चारों ओर दृष्टिपात करने लगा । इतनेमें ही उसे एक विशाल साखूका वृक्ष दिखायी दिया, जो निकट ही था । खरने अपने होठोंको दाँतोंसे दबाकर उस वृक्षको उखाड़ लिया ॥ १६-१७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं समुत्क्षिप्य बाहुभ्यां विनर्दित्वा महाबलः ।
राममुद्दिश्य चिक्षेप हतस्त्वमिति चाब्रवीत् ॥ १८ ॥

मूलम्

तं समुत्क्षिप्य बाहुभ्यां विनर्दित्वा महाबलः ।
राममुद्दिश्य चिक्षेप हतस्त्वमिति चाब्रवीत् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर उस महाबली निशाचरने विकट गर्जना करके दोनों हाथोंसे उस वृक्षको उठा लिया और श्रीरामपर दे मारा । साथ ही यह भी कहा—‘लो, अब तुम मारे गये’ ॥ १८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमापतन्तं बाणौघैश्छित्त्वा रामः प्रतापवान् ।
रोषमाहारयत् तीव्रं निहन्तुं समरे खरम् ॥ १९ ॥

मूलम्

तमापतन्तं बाणौघैश्छित्त्वा रामः प्रतापवान् ।
रोषमाहारयत् तीव्रं निहन्तुं समरे खरम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परमप्रतापी भगवान् श्रीरामने अपने ऊपर आते हुए उस वृक्षको बाण-समूहोंसे काट गिराया और उस समरभूमिमें खरको मार डालनेके लिये अत्यन्त क्रोध प्रकट किया ॥ १९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जातस्वेदस्ततो रामो रोषरक्तान्तलोचनः ।
निर्बिभेद सहस्रेण बाणानां समरे खरम् ॥ २० ॥

मूलम्

जातस्वेदस्ततो रामो रोषरक्तान्तलोचनः ।
निर्बिभेद सहस्रेण बाणानां समरे खरम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय श्रीरामके शरीरमें पसीना आ गया । उनके नेत्रप्रान्त रोषसे रक्तवर्णके हो गये । उन्होंने सहस्रों बाणोंका प्रहार करके समराङ्गणमें खरको क्षत-विक्षत कर दिया ॥ २० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य बाणान्तराद् रक्तं बहु सुस्राव फेनिलम् ।
गिरेः प्रस्रवणस्येव धाराणां च परिस्रवः ॥ २१ ॥

मूलम्

तस्य बाणान्तराद् रक्तं बहु सुस्राव फेनिलम् ।
गिरेः प्रस्रवणस्येव धाराणां च परिस्रवः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके बाणोंके आघातसे उस निशाचरके शरीरमें जो घाव हुए थे, उनसे अधिक मात्रामें फेनयुक्त रक्त प्रवाहित होने लगा, मानो पर्वतके झरनेसे जलकी धाराएँ गिर रही हों ॥ २१ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विकलः स कृतो बाणैः खरो रामेण संयुगे ।
मत्तो रुधिरगन्धेन तमेवाभ्यद्रवद् द्रुतम् ॥ २२ ॥

मूलम्

विकलः स कृतो बाणैः खरो रामेण संयुगे ।
मत्तो रुधिरगन्धेन तमेवाभ्यद्रवद् द्रुतम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामने युद्धस्थलमें अपने बाणोंकी मारसे खरको व्याकुल कर दिया; तो भी (उसका साहस कम नहीं हुआ ।) वह खूनकी गन्धसे उन्मत्त होकर बड़े वेगसे श्रीरामकी ओर ही दौड़ा ॥ २२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमापतन्तं सङ्क्रुद्धं कृतास्त्रो रुधिराप्लुतम् ।
अपासर्पद् द्वित्रिपदं किञ्चित्त्वरितविक्रमः ॥ २३ ॥

मूलम्

तमापतन्तं सङ्क्रुद्धं कृतास्त्रो रुधिराप्लुतम् ।
अपासर्पद् द्वित्रिपदं किञ्चित्त्वरितविक्रमः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अस्त्र-विद्याके ज्ञाता भगवान् श्रीरामने देखा कि यह राक्षस खूनसे लथपथ होनेपर भी अत्यन्त क्रोधपूर्वक मेरी ही ओर बढ़ा आ रहा है तो वे तुरंत चरणोंका संचालन करके दो-तीन पग पीछे हट गये (क्योंकि बहुत निकट होनेपर बाण चलाना सम्भव नहीं हो सकता था) ॥ २३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः पावकसङ्काशं वधाय समरे शरम् ।
खरस्य रामो जग्राह ब्रह्मदण्डमिवापरम् ॥ २४ ॥

मूलम्

ततः पावकसङ्काशं वधाय समरे शरम् ।
खरस्य रामो जग्राह ब्रह्मदण्डमिवापरम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर श्रीरामने समराङ्गणमें खरका वध करनेके लिये एक अग्निके समान तेजस्वी बाण हाथमें लिया, जो दूसरे ब्रह्मदण्डके समान भयंकर था ॥ २४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तद् दत्तं मघवता सुरराजेन धीमता ।
सन्दधे च स धर्मात्मा मुमोच च खरं प्रति ॥ २५ ॥

मूलम्

स तद् दत्तं मघवता सुरराजेन धीमता ।
सन्दधे च स धर्मात्मा मुमोच च खरं प्रति ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह बाण बुद्धिमान् देवराज इन्द्रका दिया हुआ था । धर्मात्मा श्रीरामने उसे धनुषपर रखा और खरको लक्ष्य करके छोड़ दिया ॥ २५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स विमुक्तो महाबाणो निर्घातसमनिःस्वनः ।
रामेण धनुरायम्य खरस्योरसि चापतत् ॥ २६ ॥

मूलम्

स विमुक्तो महाबाणो निर्घातसमनिःस्वनः ।
रामेण धनुरायम्य खरस्योरसि चापतत् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस महाबाणके छूटते ही वज्रपातके समान भयानक शब्द हुआ । श्रीरामने अपने धनुषको कानतक खींचकर उसे छोड़ा था । वह खरकी छातीमें जा लगा ॥ २६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स पपात खरो भूमौ दह्यमानः शराग्निना ।
रुद्रेणेव विनिर्दग्धः श्वेतारण्ये यथान्धकः ॥ २७ ॥

मूलम्

स पपात खरो भूमौ दह्यमानः शराग्निना ।
रुद्रेणेव विनिर्दग्धः श्वेतारण्ये यथान्धकः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे श्वेतवनमें भगवान् रुद्रने अन्धकासुरको जलाकर भस्म किया था, उसी प्रकार दण्डकवनमें श्रीरामके उस बाणकी आगमें जलता हुआ निशाचर खर पृथ्वीपर गिर पड़ा ॥ २७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स वृत्र इव वज्रेण फेनेन नमुचिर्यथा ।
बलो वेन्द्राशनिहतो निपपात हतः खरः ॥ २८ ॥

मूलम्

स वृत्र इव वज्रेण फेनेन नमुचिर्यथा ।
बलो वेन्द्राशनिहतो निपपात हतः खरः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे वज्रसे वृत्रासुर, फेनसे नमुचि और इन्द्रकी अशनिसे बलासुर मारा गया था, उसी प्रकार श्रीरामके उस बाणसे आहत होकर खर धराशायी हो गया ॥ २८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतस्मिन्नन्तरे देवाश्चारणैः सह सङ्गताः ।
दुन्दुभींश्चाभिनिघ्नन्तः पुष्पवर्षं समन्ततः ॥ २९ ॥
रामस्योपरि संहृष्टा ववर्षुर्विस्मितास्तदा ।
अर्धाधिकमुहूर्तेन रामेण निशितैः शरैः ॥ ३० ॥
चतुर्दश सहस्राणि रक्षसां कामरूपिणाम् ।
खरदूषणमुख्यानां निहतानि महामृधे ॥ ३१ ॥

मूलम्

एतस्मिन्नन्तरे देवाश्चारणैः सह सङ्गताः ।
दुन्दुभींश्चाभिनिघ्नन्तः पुष्पवर्षं समन्ततः ॥ २९ ॥
रामस्योपरि संहृष्टा ववर्षुर्विस्मितास्तदा ।
अर्धाधिकमुहूर्तेन रामेण निशितैः शरैः ॥ ३० ॥
चतुर्दश सहस्राणि रक्षसां कामरूपिणाम् ।
खरदूषणमुख्यानां निहतानि महामृधे ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी समय देवता चारणोंके साथ मिलकर आये और हर्षमें भरकर दुन्दुभि बजाते हुए वहाँ श्रीरामके ऊपर चारों ओरसे फूलोंकी वर्षा करने लगे । उस समय उन्हें यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ था कि श्रीरामने अपने पैने बाणोंसे डेढ़ मुहूर्तमें ही इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले खर-दूषण आदि चौदह हजार राक्षसोंका इस महासमरमें संहार कर डाला ॥ २९—३१ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहो बत महत्कर्म रामस्य विदितात्मनः ।
अहो वीर्यमहो दार्ढ्यं विष्णोरिव हि दृश्यते ॥ ३२ ॥

मूलम्

अहो बत महत्कर्म रामस्य विदितात्मनः ।
अहो वीर्यमहो दार्ढ्यं विष्णोरिव हि दृश्यते ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे बोले—‘अहो! अपने स्वरूपको जाननेवाले भगवान् श्रीरामका यह कर्म महान् और अद्भुत है, इनका बल-पराक्रम भी अद्भुत है और इनमें भगवान् विष्णुकी भाँति आश्चर्यजनक दृढ़ता दिखायी देती है’ ॥ ३२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येवमुक्त्वा ते सर्वे ययुर्देवा यथागतम् ।
ततो राजर्षयः सर्वे सङ्गताः परमर्षयः ॥ ३३ ॥
सभाज्य मुदिता रामं सागस्त्या इदमब्रुवन् ।

मूलम्

इत्येवमुक्त्वा ते सर्वे ययुर्देवा यथागतम् ।
ततो राजर्षयः सर्वे सङ्गताः परमर्षयः ॥ ३३ ॥
सभाज्य मुदिता रामं सागस्त्या इदमब्रुवन् ।

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर वे सब देवता जैसे आये थे, वैसे ही चले गये । तदनन्तर बहुत-से राजर्षि और अगस्त्य आदि महर्षि मिलकर वहाँ आये तथा प्रसन्नतापूर्वक श्रीरामका सत्कार करके उनसे इस प्रकार बोले— ॥ ३३ १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतदर्थं महातेजा महेन्द्रः पाकशासनः ॥ ३४ ॥
शरभङ्गाश्रमं पुण्यमाजगाम पुरन्दरः ।
आनीतस्त्वमिमं देशमुपायेन महर्षिभिः ॥ ३५ ॥

मूलम्

एतदर्थं महातेजा महेन्द्रः पाकशासनः ॥ ३४ ॥
शरभङ्गाश्रमं पुण्यमाजगाम पुरन्दरः ।
आनीतस्त्वमिमं देशमुपायेन महर्षिभिः ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘रघुनन्दन! इसीलिये महातेजस्वी पाकशासन पुरंदर इन्द्र शरभङ्ग मुनिके पवित्र आश्रमपर आये थे और इसी कार्यकी सिद्धिके लिये महर्षियोंने विशेष उपाय करके आपको पञ्चवटीके इस प्रदेशमें पहुँचाया था ॥ ३४-३५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एषां वधार्थं शत्रूणां रक्षसां पापकर्मणाम् ।
तदिदं नः कृतं कार्यं त्वया दशरथात्मज ॥ ३६ ॥
स्वधर्मं प्रचरिष्यन्ति दण्डकेषु महर्षयः ।

मूलम्

एषां वधार्थं शत्रूणां रक्षसां पापकर्मणाम् ।
तदिदं नः कृतं कार्यं त्वया दशरथात्मज ॥ ३६ ॥
स्वधर्मं प्रचरिष्यन्ति दण्डकेषु महर्षयः ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘मुनियोंके शत्रुरूप इन पापाचारी राक्षसोंके वधके लिये ही आपका यहाँ शुभागमन आवश्यक समझा गया था । दशरथनन्दन! आपने हमलोगोंका यह बहुत बड़ा कार्य सिद्ध कर दिया । अब बड़े-बड़े ऋषि-मुनि दण्डकारण्यके विभिन्न प्रदेशोंमें निर्भय होकर अपने धर्मका अनुष्ठान करेंगे’ ॥ ३६ १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतस्मिन्नन्तरे वीरो लक्ष्मणः सह सीतया ।
गिरिदुर्गाद् विनिष्क्रम्य संविवेशाश्रमे सुखी ॥ ३७ ॥

मूलम्

एतस्मिन्नन्तरे वीरो लक्ष्मणः सह सीतया ।
गिरिदुर्गाद् विनिष्क्रम्य संविवेशाश्रमे सुखी ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी बीचमें वीर लक्ष्मण भी सीताके साथ पर्वतकी कन्दरासे निकलकर प्रसन्नतापूर्वक आश्रममें आ गये ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो रामस्तु विजयी पूज्यमानो महर्षिभिः ॥ ३८ ॥
प्रविवेशाश्रमं वीरो लक्ष्मणेनाभिपूजितः ।

मूलम्

ततो रामस्तु विजयी पूज्यमानो महर्षिभिः ॥ ३८ ॥
प्रविवेशाश्रमं वीरो लक्ष्मणेनाभिपूजितः ।

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् महर्षियोंसे प्रशंसित और लक्ष्मणसे पूजित विजयी वीर श्रीरामने आश्रममें प्रवेश किया ॥ ३८ १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं दृष्ट्वा शत्रुहन्तारं महर्षीणां सुखावहम् ॥ ३९ ॥
बभूव हृष्टा वैदेही भर्तारं परिषस्वजे ।
मुदा परमया युक्ता दृष्ट्वा रक्षोगणान् हतान् ।
रामं चैवाव्ययं दृष्ट्वा तुतोष जनकात्मजा ॥ ४० ॥

मूलम्

तं दृष्ट्वा शत्रुहन्तारं महर्षीणां सुखावहम् ॥ ३९ ॥
बभूव हृष्टा वैदेही भर्तारं परिषस्वजे ।
मुदा परमया युक्ता दृष्ट्वा रक्षोगणान् हतान् ।
रामं चैवाव्ययं दृष्ट्वा तुतोष जनकात्मजा ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महर्षियोंको सुख देनेवाले अपने शत्रुहन्ता पतिका दर्शन करके विदेहराजनन्दिनी सीताको बड़ा हर्ष हुआ । उन्होंने परमानन्दमें निमग्न होकर अपने स्वामीका आलिङ्गन किया । राक्षस-समूह मारे गये और श्रीरामको कोई क्षति नहीं पहुँची—यह देख और जानकर जानकीजीको बहुत संतोष हुआ ॥ ३९-४० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तु तं राक्षससङ्घमर्दनं
सम्पूज्यमानं मुदितैर्महात्मभिः ।
पुनः परिष्वज्य मुदान्वितानना
बभूव हृष्टा जनकात्मजा तदा ॥ ४१ ॥

मूलम्

ततस्तु तं राक्षससङ्घमर्दनं
सम्पूज्यमानं मुदितैर्महात्मभिः ।
पुनः परिष्वज्य मुदान्वितानना
बभूव हृष्टा जनकात्मजा तदा ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रसन्नतासे भरे हुए महात्मा मुनि जिनकी भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहे थे तथा जिन्होंने राक्षसोंके समुदायको कुचल डाला था, उन प्राणवल्लभ, श्रीरामका बारम्बार आलिङ्गन करके उस समय जनकनन्दिनी सीताको बड़ा हर्ष हुआ । उनका मुख प्रसन्नतासे खिल उठा ॥ ४१ ॥

समाप्तिः

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डे त्रिंशः सर्गः ॥ ३० ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके अरण्यकाण्डमें तीसवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ३० ॥