वाचनम्
भागसूचना
- श्रीरामके आश्रममें शूर्पणखाका आना, उनका परिचय जानना और अपना परिचय देकर उनसे अपनेको भार्याके रूपमें ग्रहण करनेके लिये अनुरोध करना
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृताभिषेको रामस्तु सीता सौमित्रिरेव च ।
तस्माद् गोदावरीतीरात् ततो जग्मुः स्वमाश्रमम् ॥ १ ॥
मूलम्
कृताभिषेको रामस्तु सीता सौमित्रिरेव च ।
तस्माद् गोदावरीतीरात् ततो जग्मुः स्वमाश्रमम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्नान करके श्रीराम, लक्ष्मण और सीता तीनों ही उस गोदावरीतटसे अपने आश्रममें लौट आये ॥ १ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आश्रमं तमुपागम्य राघवः सहलक्ष्मणः ।
कृत्वा पौर्वाह्णिकं कर्म पर्णशालामुपागमत् ॥ २ ॥
मूलम्
आश्रमं तमुपागम्य राघवः सहलक्ष्मणः ।
कृत्वा पौर्वाह्णिकं कर्म पर्णशालामुपागमत् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस आश्रममें आकर लक्ष्मणसहित श्रीरामने पूर्वाह्णकालके होम-पूजन आदि कार्य पूर्ण किये, फिर वे दोनों भाई पर्णशालामें आकर बैठे ॥ २ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उवास सुखितस्तत्र पूज्यमानो महर्षिभिः ।
स रामः पर्णशालायामासीनः सह सीतया ॥ ३ ॥
विरराज महाबाहुश्चित्रया चन्द्रमा इव ।
लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा चकार विविधाः कथाः ॥ ४ ॥
मूलम्
उवास सुखितस्तत्र पूज्यमानो महर्षिभिः ।
स रामः पर्णशालायामासीनः सह सीतया ॥ ३ ॥
विरराज महाबाहुश्चित्रया चन्द्रमा इव ।
लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा चकार विविधाः कथाः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ सीताके साथ वे सुखपूर्वक रहने लगे । उन दिनों बड़े-बड़े ऋषि-मुनि आकर वहाँ उनका सत्कार करते थे । पर्णशालामें सीताके साथ बैठे हुए महाबाहु श्रीरामचन्द्रजी चित्राके साथ विराजमान चन्द्रमाकी भाँति शोभा पा रहे थे । वे अपने भाई लक्ष्मणके साथ वहाँ तरह-तरहकी बातें किया करते थे ॥ ३-४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदासीनस्य रामस्य कथासंसक्तचेतसः ।
तं देशं राक्षसी काचिदाजगाम यदृच्छया ॥ ५ ॥
सा तु शूर्पणखा नाम दशग्रीवस्य रक्षसः ।
भगिनी राममासाद्य ददर्श त्रिदशोपमम् ॥ ६ ॥
मूलम्
तदासीनस्य रामस्य कथासंसक्तचेतसः ।
तं देशं राक्षसी काचिदाजगाम यदृच्छया ॥ ५ ॥
सा तु शूर्पणखा नाम दशग्रीवस्य रक्षसः ।
भगिनी राममासाद्य ददर्श त्रिदशोपमम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय जब कि श्रीरामचन्द्रजी लक्ष्मणके साथ बातचीतमें लगे हुए थे, एक राक्षसी अकस्मात् उस स्थानपर आ पहुँची । वह दशमुख राक्षस रावणकी बहिन शूर्पणखा थी । उसने वहाँ आकर देवताओंके समान मनोहर रूपवाले श्रीरामचन्द्रजीको देखा ॥ ५-६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीप्तास्यं च महाबाहुं पद्मपत्रायतेक्षणम् ।
गजविक्रान्तगमनं जटामण्डलधारिणम् ॥ ७ ॥
मूलम्
दीप्तास्यं च महाबाहुं पद्मपत्रायतेक्षणम् ।
गजविक्रान्तगमनं जटामण्डलधारिणम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनका मुख तेजस्वी, भुजाएँ बड़ी-बड़ी और नेत्र प्रफुल्ल कमलदलके समान विशाल एवं सुन्दर थे । वे हाथीके समान मन्द गतिसे चलते थे । उन्होंने मस्तकपर जटामण्डल धारण कर रखा था ॥ ७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुकुमारं महासत्त्वं पार्थिवव्यञ्जनान्वितम् ।
राममिन्दीवरश्यामं कन्दर्पसदृशप्रभम् ॥ ८ ॥
बभूवेन्द्रोपमं दृष्ट्वा राक्षसी काममोहिता ।
मूलम्
सुकुमारं महासत्त्वं पार्थिवव्यञ्जनान्वितम् ।
राममिन्दीवरश्यामं कन्दर्पसदृशप्रभम् ॥ ८ ॥
बभूवेन्द्रोपमं दृष्ट्वा राक्षसी काममोहिता ।
अनुवाद (हिन्दी)
परम सुकुमार, महान् बलशाली, राजोचित लक्षणोंसे युक्त, नील कमलके समान श्याम कान्तिसे सुशोभित, कामदेवके सदृश सौन्दर्यशाली तथा इन्द्रके समान तेजस्वी श्रीरामको देखते ही वह राक्षसी कामसे मोहित हो गयी ॥ ८ १/२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुमुखं दुर्मुखी रामं वृत्तमध्यं महोदरी ॥ ९ ॥
विशालाक्षं विरूपाक्षी सुकेशं ताम्रमूर्धजा ।
प्रियरूपं विरूपा सा सुस्वरं भैरवस्वना ॥ १० ॥
मूलम्
सुमुखं दुर्मुखी रामं वृत्तमध्यं महोदरी ॥ ९ ॥
विशालाक्षं विरूपाक्षी सुकेशं ताम्रमूर्धजा ।
प्रियरूपं विरूपा सा सुस्वरं भैरवस्वना ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामका मुख सुन्दर था और शूर्पणखाका मुख बहुत ही भद्दा एवं कुरूप था । उनका मध्यभाग (कटिप्रदेश और उदर) क्षीण था; किंतु शूर्पणखा बेडौल लंबे पेटवाली थी । श्रीरामकी आँखें बड़ी-बड़ी होनेके कारण मनोहर थीं, परंतु उस राक्षसीके नेत्र कुरूप और डरावने थे । श्रीरघुनाथजीके केश चिकने और सुन्दर थे, परंतु उस निशाचरीके सिरके बाल ताँबे-जैसे लाल थे । श्रीरामका रूप बड़ा प्यारा लगता था, किंतु शूर्पणखाका रूप बीभत्स और विकराल था । श्रीराघवेन्द्र मधुर स्वरमें बोलते थे, किंतु वह राक्षसी भैरवनाद करनेवाली थी ॥ ९-१० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तरुणं दारुणा वृद्धा दक्षिणं वामभाषिणी ।
न्यायवृत्तं सुदुर्वृत्ता प्रियमप्रियदर्शना ॥ ११ ॥
मूलम्
तरुणं दारुणा वृद्धा दक्षिणं वामभाषिणी ।
न्यायवृत्तं सुदुर्वृत्ता प्रियमप्रियदर्शना ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये देखनेमें सौम्य और नित्य नूतन तरुण थे, किंतु वह निशाचरी क्रूर और हजारों वर्षोंकी बुढ़िया थी । ये सरलतासे बात करनेवाले और उदार थे, किंतु उसकी बातोंमें कुटिलता भरी रहती थी । ये न्यायोचित सदाचारका पालन करनेवाले थे और वह अत्यन्त दुराचारिणी थी । श्रीराम देखनेमें प्यारे लगते थे और शूर्पणखाको देखते ही घृणा पैदा होती थी ॥ ११ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरीरजसमाविष्टा राक्षसी राममब्रवीत् ।
जटी तापसवेषेण सभार्यः शरचापधृक् ॥ १२ ॥
आगतस्त्वमिमं देशं कथं राक्षससेवितम् ।
किमागमनकृत्यं ते तत्त्वमाख्यातुमर्हसि ॥ १३ ॥
मूलम्
शरीरजसमाविष्टा राक्षसी राममब्रवीत् ।
जटी तापसवेषेण सभार्यः शरचापधृक् ॥ १२ ॥
आगतस्त्वमिमं देशं कथं राक्षससेवितम् ।
किमागमनकृत्यं ते तत्त्वमाख्यातुमर्हसि ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तो वह राक्षसी कामभावसे आविष्ट हो (मनोहररूप बनाकर) श्रीरामके पास आयी और बोली—‘तपस्वीके वेशमें मस्तकपर जटा धारण किये, साथमें स्त्रीको लिये और हाथमें धनुष-बाण ग्रहण किये, इस राक्षसोंके देशमें तुम कैसे चले आये? यहाँ तुम्हारे आगमनका क्या प्रयोजन है? यह सब मुझे ठीक-ठीक बताओ’ ॥ १२-१३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तस्तु राक्षस्या शूर्पणख्या परन्तपः ।
ऋजुबुद्धितया सर्वमाख्यातुमुपचक्रमे ॥ १४ ॥
मूलम्
एवमुक्तस्तु राक्षस्या शूर्पणख्या परन्तपः ।
ऋजुबुद्धितया सर्वमाख्यातुमुपचक्रमे ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राक्षसी शूर्पणखाके इस प्रकार पूछनेपर शत्रुओंको संताप देनेवाले श्रीरामचन्द्रजीने अपने सरलस्वभावके कारण सब कुछ बताना आरम्भ किया— ॥ १४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसीद् दशरथो नाम राजा त्रिदशविक्रमः ।
तस्याहमग्रजः पुत्रो रामो नाम जनैः श्रुतः ॥ १५ ॥
मूलम्
आसीद् दशरथो नाम राजा त्रिदशविक्रमः ।
तस्याहमग्रजः पुत्रो रामो नाम जनैः श्रुतः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘देवि! दशरथ नामसे प्रसिद्ध एक चक्रवर्ती राजा हो गये हैं, जो देवताओंके समान पराक्रमी थे । मैं उन्हींका ज्येष्ठ पुत्र हूँ और लोगोंमें राम नामसे विख्यात हूँ ॥ १५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भ्रातायं लक्ष्मणो नाम यवीयान् मामनुव्रतः ।
इयं भार्या च वैदेही मम सीतेति विश्रुता ॥ १६ ॥
मूलम्
भ्रातायं लक्ष्मणो नाम यवीयान् मामनुव्रतः ।
इयं भार्या च वैदेही मम सीतेति विश्रुता ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ये मेरे छोटे भाई लक्ष्मण हैं, जो सदा मेरी आज्ञाके अधीन रहते हैं और ये मेरी पत्नी हैं, जो विदेहराज जनककी पुत्री तथा सीता नामसे प्रसिद्ध हैं ॥ १६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नियोगात् तु नरेन्द्रस्य पितुर्मातुश्च यन्त्रितः ।
धर्मार्थं धर्मकाङ्क्षी च वनं वस्तुमिहागतः ॥ १७ ॥
मूलम्
नियोगात् तु नरेन्द्रस्य पितुर्मातुश्च यन्त्रितः ।
धर्मार्थं धर्मकाङ्क्षी च वनं वस्तुमिहागतः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अपने पिता महाराज दशरथ और माता कैकेयीकी आज्ञासे प्रेरित होकर मैं धर्मपालनकी इच्छा रखकर धर्मरक्षाके ही उद्देश्यसे इस वनमें निवास करनेके लिये यहाँ आया हूँ ॥ १७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वां तु वेदितुमिच्छामि कस्य त्वं कासि कस्य वा ।
त्वं हि तावन्मनोज्ञाङ्गी राक्षसी प्रतिभासि मे ॥ १८ ॥
इह वा किन्निमित्तं त्वमागता ब्रूहि तत्त्वतः ।
मूलम्
त्वां तु वेदितुमिच्छामि कस्य त्वं कासि कस्य वा ।
त्वं हि तावन्मनोज्ञाङ्गी राक्षसी प्रतिभासि मे ॥ १८ ॥
इह वा किन्निमित्तं त्वमागता ब्रूहि तत्त्वतः ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘अब मैं तुम्हारा परिचय प्राप्त करना चाहता हूँ । तुम किसकी पुत्री हो? तुम्हारा नाम क्या है? और तुम किसकी पत्नी हो? तुम्हारे अङ्ग इतने मनोहर हैं कि तुम मुझे इच्छानुसार रूप धारण करनेवाली कोई राक्षसी प्रतीत होती हो । यहाँ किस लिये तुम आयी हो? यह ठीक-ठीक बताओ’ ॥ १८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साब्रवीद् वचनं श्रुत्वा राक्षसी मदनार्दिता ॥ १९ ॥
श्रूयतां राम तत्त्वार्थं वक्ष्यामि वचनं मम ।
अहं शूर्पणखा नाम राक्षसी कामरूपिणी ॥ २० ॥
मूलम्
साब्रवीद् वचनं श्रुत्वा राक्षसी मदनार्दिता ॥ १९ ॥
श्रूयतां राम तत्त्वार्थं वक्ष्यामि वचनं मम ।
अहं शूर्पणखा नाम राक्षसी कामरूपिणी ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामचन्द्रजीकी यह बात सुनकर वह राक्षसी कामसे पीड़ित होकर बोली—‘श्रीराम! मैं सब कुछ ठीक-ठीक बता रही हूँ । तुम मेरी बात सुनो । मेरा नाम शूर्पणखा है और मैं इच्छानुसार रूप धारण करनेवाली राक्षसी हूँ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अरण्यं विचरामीदमेका सर्वभयङ्करा ।
रावणो नाम मे भ्राता यदि ते श्रोत्रमागतः ॥ २१ ॥
मूलम्
अरण्यं विचरामीदमेका सर्वभयङ्करा ।
रावणो नाम मे भ्राता यदि ते श्रोत्रमागतः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं समस्त प्राणियोंके मनमें भय उत्पन्न करती हुई इस वनमें अकेली विचरती हूँ । मेरे भाईका नाम रावण है । सम्भव है, उसका नाम तुम्हारे कानोंतक पहुँचा हो ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वीरो विश्रवसः पुत्रो यदि ते श्रोत्रमागतः ।
प्रवृद्धनिद्रश्च सदा कुम्भकर्णो महाबलः ॥ २२ ॥
मूलम्
वीरो विश्रवसः पुत्रो यदि ते श्रोत्रमागतः ।
प्रवृद्धनिद्रश्च सदा कुम्भकर्णो महाबलः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘रावण विश्रवा मुनिका वीर पुत्र है, यह बात भी तुम्हारे सुननेमें आयी होगी । मेरा दूसरा भाई महाबली कुम्भकर्ण है, जिसकी निद्रा सदा ही बढ़ी रहती है ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विभीषणस्तु धर्मात्मा न तु राक्षसचेष्टितः ।
प्रख्यातवीर्यौ च रणे भ्रातरौ खरदूषणौ ॥ २३ ॥
मूलम्
विभीषणस्तु धर्मात्मा न तु राक्षसचेष्टितः ।
प्रख्यातवीर्यौ च रणे भ्रातरौ खरदूषणौ ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मेरे तीसरे भाईका नाम विभीषण है, परंतु वह धर्मात्मा है, राक्षसोंके आचार-विचारका वह कभी पालन नहीं करता । युद्धमें जिनका पराक्रम विख्यात है, वे खर और दूषण भी मेरे भाई ही हैं ॥ २३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तानहं समतिक्रान्तां राम त्वापूर्वदर्शनात् ।
समुपेतास्मि भावेन भर्तारं पुरुषोत्तमम् ॥ २४ ॥
मूलम्
तानहं समतिक्रान्तां राम त्वापूर्वदर्शनात् ।
समुपेतास्मि भावेन भर्तारं पुरुषोत्तमम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘श्रीराम! बल और पराक्रममें मैं अपने उन सभी भाइयोंसे बढ़कर हूँ । तुम्हारे प्रथम दर्शनसे ही मेरा मन तुममें आसक्त हो गया है । (अथवा तुम्हारा रूप-सौन्दर्य अपूर्व है । आजसे पहले देवताओंमें भी किसीका ऐसा रूप मेरे देखनेमें नहीं आया है, अतः इस अपूर्व रूपके दर्शनसे मैं तुम्हारे प्रति आकृष्ट हो गयी हूँ ।) यही कारण है कि मैं तुम-जैसे पुरुषोत्तमके प्रति पतिकी भावना रखकर बड़े प्रेमसे पास आयी हूँ ॥ २४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं प्रभावसम्पन्ना स्वच्छन्दबलगामिनी ।
चिराय भव भर्ता मे सीतया किं करिष्यसि ॥ २५ ॥
मूलम्
अहं प्रभावसम्पन्ना स्वच्छन्दबलगामिनी ।
चिराय भव भर्ता मे सीतया किं करिष्यसि ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं प्रभाव (उत्कृष्ट भाव—अनुराग अथवा महान् बल-पराक्रम) से सम्पन्न हूँ और अपनी इच्छा तथा शक्तिसे समस्त लोकोंमें विचरण कर सकती हूँ, अतः अब तुम दीर्घकालके लिये मेरे पति बन जाओ । इस अबला सीताको लेकर क्या करोगे? ॥ २५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विकृता च विरूपा च न सेयं सदृशी तव ।
अहमेवानुरूपा ते भार्यारूपेण पश्य माम् ॥ २६ ॥
मूलम्
विकृता च विरूपा च न सेयं सदृशी तव ।
अहमेवानुरूपा ते भार्यारूपेण पश्य माम् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह विकारयुक्त और कुरूपा है, अतः तुम्हारे योग्य नहीं है । मैं ही तुम्हारे अनुरूप हूँ, अतः मुझे अपनी भार्याके रूपमें देखो ॥ २६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इमां विरूपामसतीं करालां निर्णतोदरीम् ।
अनेन सह ते भ्रात्रा भक्षयिष्यामि मानुषीम् ॥ २७ ॥
मूलम्
इमां विरूपामसतीं करालां निर्णतोदरीम् ।
अनेन सह ते भ्रात्रा भक्षयिष्यामि मानुषीम् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह सीता मेरी दृष्टिमें कुरूप, ओछी, विकृत, धँसे हुए पेटवाली और मानवी है, मैं इसे तुम्हारे इस भाईके साथ ही खा जाऊँगी ॥ २७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः पर्वतशृङ्गाणि वनानि विविधानि च ।
पश्यन् सह मया कामी दण्डकान् विचरिष्यसि ॥ २८ ॥
मूलम्
ततः पर्वतशृङ्गाणि वनानि विविधानि च ।
पश्यन् सह मया कामी दण्डकान् विचरिष्यसि ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘फिर तुम कामभावयुक्त हो मेरे साथ पर्वतीय शिखरों और नाना प्रकारके वनोंकी शोभा देखते हुए दण्डकवनमें विहार करना’ ॥ २८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येवमुक्तः काकुत्स्थः प्रहस्य मदिरेक्षणाम् ।
इदं वचनमारेभे वक्तुं वाक्यविशारदः ॥ २९ ॥
मूलम्
इत्येवमुक्तः काकुत्स्थः प्रहस्य मदिरेक्षणाम् ।
इदं वचनमारेभे वक्तुं वाक्यविशारदः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शूर्पणखाके ऐसा कहनेपर बातचीत करनेमें कुशल ककुत्स्थकुलभूषण श्रीरामचन्द्रजी जोर-जोरसे हँसने लगे, फिर उन्होंने उस मतवाले नेत्रोंवाली निशाचरीसे इस प्रकार कहना आरम्भ किया ॥ २९ ॥
समाप्तिः
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डे सप्तदशः सर्गः ॥ १७ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके अरण्यकाण्डमें सत्रहवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ १७ ॥