वाचनम्
भागसूचना
- लक्ष्मणके द्वारा हेमन्त ऋतुका वर्णन और भरतकी प्रशंसा तथा श्रीरामका उन दोनोंके साथ गोदावरी नदीमें स्नान
विश्वास-प्रस्तुतिः
वसतस्तस्य तु सुखं राघवस्य महात्मनः ।
शरद्व्यपाये हेमन्तऋतुरिष्टः प्रवर्तत ॥ १ ॥
मूलम्
वसतस्तस्य तु सुखं राघवस्य महात्मनः ।
शरद्व्यपाये हेमन्तऋतुरिष्टः प्रवर्तत ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महात्मा श्रीरामको उस आश्रममें रहते हुए शरद् ऋतु बीत गयी और प्रिय हेमन्तका आरम्भ हुआ ॥ १ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स कदाचित् प्रभातायां शर्वर्यां रघुनन्दनः ।
प्रययावभिषेकार्थं रम्यां गोदावरीं नदीम् ॥ २ ॥
मूलम्
स कदाचित् प्रभातायां शर्वर्यां रघुनन्दनः ।
प्रययावभिषेकार्थं रम्यां गोदावरीं नदीम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक दिन प्रातःकाल रघुकुलनन्दन श्रीराम स्नान करनेके लिये परम रमणीय गोदावरी नदीके तटपर गये ॥ २ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रह्वः कलशहस्तस्तु सीतया सह वीर्यवान् ।
पृष्ठतोऽनुव्रजन् भ्राता सौमित्रिरिदमब्रवीत् ॥ ३ ॥
मूलम्
प्रह्वः कलशहस्तस्तु सीतया सह वीर्यवान् ।
पृष्ठतोऽनुव्रजन् भ्राता सौमित्रिरिदमब्रवीत् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके छोटे भाई लक्ष्मण भी, जो बड़े ही विनीत और पराक्रमी थे, सीताके साथ-साथ हाथमें घड़ा लिये उनके पीछे-पीछे गये । जाते-जाते वे श्रीरामचन्द्रजीसे इस प्रकार बोले— ॥ ३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयं स कालः सम्प्राप्तः प्रियो यस्ते प्रियंवद ।
अलङ्कृत इवाभाति येन संवत्सरः शुभः ॥ ४ ॥
मूलम्
अयं स कालः सम्प्राप्तः प्रियो यस्ते प्रियंवद ।
अलङ्कृत इवाभाति येन संवत्सरः शुभः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रिय वचन बोलनेवाले भैया श्रीराम! यह वही हेमन्तकाल आ पहुँचा है, जो आपको अधिक प्रिय है और जिससे यह शुभ संवत्सर अलंकृत-सा प्रतीत होता है ॥ ४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नीहारपरुषो लोकः पृथिवी सस्यमालिनी ।
जलान्यनुपभोग्यानि सुभगो हव्यवाहनः ॥ ५ ॥
मूलम्
नीहारपरुषो लोकः पृथिवी सस्यमालिनी ।
जलान्यनुपभोग्यानि सुभगो हव्यवाहनः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस ऋतुमें अधिक ठण्डक या पालेके कारण लोगोंका शरीर रूखा हो जाता है । पृथ्वीपर रबीकी खेती लहलहाने लगती है । जल अधिक शीतल होनेके कारण पीनेके योग्य नहीं रहता और आग बड़ी प्रिय लगती है ॥ ५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नवाग्रयणपूजाभिरभ्यर्च्य पितृदेवताः ।
कृताग्रयणकाः काले सन्तो विगतकल्मषाः ॥ ६ ॥
मूलम्
नवाग्रयणपूजाभिरभ्यर्च्य पितृदेवताः ।
कृताग्रयणकाः काले सन्तो विगतकल्मषाः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘नवसस्येष्टि’ कर्मके अनुष्ठानकी इस वेलामें नूतन अन्न ग्रहण करनेके लिये की गयी आग्रयणकर्मरूप पूजाओंद्वारा देवताओं तथा पितरोंको संतुष्ट करके उक्त आग्रयणकर्मका सम्पादन करनेवाले सत्पुरुष निष्पाप हो गये हैं ॥ ६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राज्यकामा जनपदाः सम्पन्नतरगोरसाः ।
विचरन्ति महीपाला यात्रार्थं विजिगीषवः ॥ ७ ॥
मूलम्
प्राज्यकामा जनपदाः सम्पन्नतरगोरसाः ।
विचरन्ति महीपाला यात्रार्थं विजिगीषवः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस ऋतुमें प्रायः सभी जनपदोंके निवासियोंकी अन्नप्राप्तिविषयक कामनाएँ प्रचुररूपसे पूर्ण हो जाती हैं । गोरसकी भी बहुतायत होती है तथा विजयकी इच्छा रखनेवाले भूपालगण युद्ध-यात्राके लिये विचरते रहते हैं ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सेवमाने दृढं सूर्ये दिशमन्तकसेविताम् ।
विहीनतिलकेव स्त्री नोत्तरा दिक् प्रकाशते ॥ ८ ॥
मूलम्
सेवमाने दृढं सूर्ये दिशमन्तकसेविताम् ।
विहीनतिलकेव स्त्री नोत्तरा दिक् प्रकाशते ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सूर्यदेव इन दिनों यमसेवित दक्षिण दिशाका दृढ़तापूर्वक सेवन करने लगे हैं । इसलिये उत्तरदिशा सिंदूरविन्दुसे वञ्चित हुई नारीकी भाँति सुशोभित या प्रकाशित नहीं हो रही है ॥ ८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रकृत्या हिमकोशाढ्यो दूरसूर्यश्च साम्प्रतम् ।
यथार्थनामा सुव्यक्तं हिमवान् हिमवान् गिरिः ॥ ९ ॥
मूलम्
प्रकृत्या हिमकोशाढ्यो दूरसूर्यश्च साम्प्रतम् ।
यथार्थनामा सुव्यक्तं हिमवान् हिमवान् गिरिः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हिमालयपर्वत तो स्वभावसे ही घनीभूत हिमके खजानेसे भरा-पूरा होता है, परंतु इस समय सूर्यदेव भी दक्षिणायनमें चले जानेके कारण उससे दूर हो गये हैं; अतः अब अधिक हिमके संचयसे सम्पन्न होकर हिमवान् गिरि स्पष्ट ही अपने नामको सार्थक कर रहा है ॥ ९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्यन्तसुखसञ्चारा मध्याह्ने स्पर्शतः सुखाः ।
दिवसाः सुभगादित्याश्छायासलिलदुर्भगाः ॥ १० ॥
मूलम्
अत्यन्तसुखसञ्चारा मध्याह्ने स्पर्शतः सुखाः ।
दिवसाः सुभगादित्याश्छायासलिलदुर्भगाः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मध्याह्नकालमें धूपका स्पर्श होनेसे हेमन्तके सुखमय दिन अत्यन्त सुखसे इधर-उधर विचरनेके योग्य होते हैं । इन दिनों सुसेव्य होनेके कारण सूर्यदेव सौभाग्यशाली जान पड़ते हैं और सेवनके योग्य न होनेके कारण छाँह तथा जल अभागे प्रतीत होते हैं ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृदुसूर्याः सुनीहाराः पटुशीताः समारुताः ।
शून्यारण्या हिमध्वस्ता दिवसा भान्ति साम्प्रतम् ॥ ११ ॥
मूलम्
मृदुसूर्याः सुनीहाराः पटुशीताः समारुताः ।
शून्यारण्या हिमध्वस्ता दिवसा भान्ति साम्प्रतम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आजकलके दिन ऐसे हैं कि सूर्यकी किरणोंका स्पर्श कोमल (प्रिय) जान पड़ता है । कुहासे अधिक पड़ते हैं । सरदी सबल होती है, कड़ाकेका जाड़ा पड़ने लगता है । साथ ही ठण्डी हवा चलती रहती है । पाला पड़नेसे पत्तोंके झड़ जानेके कारण जंगल सूने दिखायी देते हैं और हिमके स्पर्शसे कमल गल जाते हैं ॥ ११ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निवृत्ताकाशशयनाः पुष्यनीता हिमारुणाः ।
शीतवृद्धतरायामास्त्रियामा यान्ति साम्प्रतम् ॥ १२ ॥
मूलम्
निवृत्ताकाशशयनाः पुष्यनीता हिमारुणाः ।
शीतवृद्धतरायामास्त्रियामा यान्ति साम्प्रतम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस हेमन्तकालमें रातें बड़ी होने लगती हैं । इनमें सरदी बहुत बढ़ जाती है । खुले आकाशमें कोई नहीं सोते हैं । पौषमासकी ये रातें हिमपातके कारण धूसर प्रतीत होती हैं ॥ १२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रविसङ्क्रान्तसौभाग्यस्तुषारारुणमण्डलः ।
निःश्वासान्ध इवादर्शश्चन्द्रमा न प्रकाशते ॥ १३ ॥
मूलम्
रविसङ्क्रान्तसौभाग्यस्तुषारारुणमण्डलः ।
निःश्वासान्ध इवादर्शश्चन्द्रमा न प्रकाशते ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हेमन्तकालमें चन्द्रमाका सौभाग्य सूर्यदेवमें चला गया है (चन्द्रमा सरदीके कारण असेव्य और सूर्य मन्दरश्मि होनेके कारण सेव्य हो गये हैं) । चन्द्रमण्डल हिमकणोंसे आच्छन्न होकर धूमिल जान पड़ता है; अतः चन्द्रदेव निःश्वासवायुसे मलिन हुए दर्पणकी भाँति प्रकाशित नहीं हो रहे हैं ॥ १३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्योत्स्ना तुषारमलिना पौर्णमास्यां न राजते ।
सीतेव चातपश्यामा लक्ष्यते न च शोभते ॥ १४ ॥
मूलम्
ज्योत्स्ना तुषारमलिना पौर्णमास्यां न राजते ।
सीतेव चातपश्यामा लक्ष्यते न च शोभते ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इन दिनों पूर्णिमाकी चाँदनी रात भी तुहिन-बिन्दुओंसे मलिन दिखायी देती है—प्रकाशित नहीं होती है । ठीक उसी तरह, जैसे सीता अधिक धूप लगनेसे साँवली-सी दीखती है—पूर्ववत् शोभा नहीं पाती ॥ १४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रकृत्या शीतलस्पर्शो हिमविद्धश्च साम्प्रतम् ।
प्रवाति पश्चिमो वायुः काले द्विगुणशीतलः ॥ १५ ॥
मूलम्
प्रकृत्या शीतलस्पर्शो हिमविद्धश्च साम्प्रतम् ।
प्रवाति पश्चिमो वायुः काले द्विगुणशीतलः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘स्वभावसे ही जिसका स्पर्श शीतल है, वह पछुआ हवा इस समय हिमकणोंसे व्याप्त हो जानेके कारण दूनी सरदी लेकर बड़े वेगसे बह रही है ॥ १५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाष्पच्छन्नान्यरण्यानि यवगोधूमवन्ति च ।
शोभन्तेऽभ्युदिते सूर्ये नदद्भिः क्रौञ्चसारसैः ॥ १६ ॥
मूलम्
बाष्पच्छन्नान्यरण्यानि यवगोधूमवन्ति च ।
शोभन्तेऽभ्युदिते सूर्ये नदद्भिः क्रौञ्चसारसैः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जौ और गेहूँके खेतोंसे युक्त ये बहुसंख्यक वन भापसे ढँके हुए हैं तथा क्रौञ्च और सारस इनमें कलरव कर रहे हैं । सूर्योदयकालमें इन वनोंकी बड़ी शोभा हो रही है ॥ १६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
खर्जूरपुष्पाकृतिभिः शिरोभिः पूर्णतण्डुलैः ।
शोभन्ते किञ्चिदालम्बाः शालयः कनकप्रभाः ॥ १७ ॥
मूलम्
खर्जूरपुष्पाकृतिभिः शिरोभिः पूर्णतण्डुलैः ।
शोभन्ते किञ्चिदालम्बाः शालयः कनकप्रभाः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ये सुनहरे रंगके जड़हन धान खजूरके फूलके-से आकारवाली बालोंसे, जिनमें चावल भरे हुए हैं, कुछ लटक गये हैं । इन बालोंके कारण इनकी बड़ी शोभा होती है ॥ १७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मयूखैरुपसर्पद्भिर्हिमनीहारसंवृतैः ।
दूरमभ्युदितः सूर्यः शशाङ्क इव लक्ष्यते ॥ १८ ॥
मूलम्
मयूखैरुपसर्पद्भिर्हिमनीहारसंवृतैः ।
दूरमभ्युदितः सूर्यः शशाङ्क इव लक्ष्यते ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कुहासेसे ढकी और फैलती हुई किरणोंसे उपलक्षित होनेवाले दूरोदित सूर्य चन्द्रमाके समान दिखायी देते हैं ॥ १८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आग्राह्यवीर्यः पूर्वाह्णे मध्याह्ने स्पर्शतः सुखः ।
संरक्तः किञ्चिदापाण्डुरातपः शोभते क्षितौ ॥ १९ ॥
मूलम्
आग्राह्यवीर्यः पूर्वाह्णे मध्याह्ने स्पर्शतः सुखः ।
संरक्तः किञ्चिदापाण्डुरातपः शोभते क्षितौ ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस समय अधिक लाल और कुछ-कुछ श्वेत, पीत वर्णकी धूप पृथ्वीपर फैलकर शोभा पा रही है । पूर्वाह्णकालमें तो कुछ इसका बल जान ही नहीं पड़ता है, परंतु मध्याह्नकालमें इसके स्पर्शसे सुखका अनुभव होता है ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवश्यायनिपातेन किञ्चित्प्रक्लिन्नशाद्वला ।
वनानां शोभते भूमिर्निविष्टतरुणातपा ॥ २० ॥
मूलम्
अवश्यायनिपातेन किञ्चित्प्रक्लिन्नशाद्वला ।
वनानां शोभते भूमिर्निविष्टतरुणातपा ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ओसकी बूँदें पड़नेसे जहाँकी घासें कुछ-कुछ भीगी हुई जान पड़ती हैं, वह वनभूमि नवोदित सूर्यकी धूपका प्रवेश होनेसे अद्भुत शोभा पा रही है ॥ २० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्पृशन् सुविपुलं शीतमुदकं द्विरदः सुखम् ।
अत्यन्ततृषितो वन्यः प्रतिसंहरते करम् ॥ २१ ॥
मूलम्
स्पृशन् सुविपुलं शीतमुदकं द्विरदः सुखम् ।
अत्यन्ततृषितो वन्यः प्रतिसंहरते करम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह जंगली हाथी बहुत प्यासा हुआ है । यह सुखपूर्वक प्यास बुझानेके लिये अत्यन्त शीतल जलका स्पर्श तो करता है, किंतु उसकी ठंडक असह्य होनेके कारण अपनी सूँड़को तुरंत ही सिकोड़ लेता है ॥ २१ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एते हि समुपासीना विहगा जलचारिणः ।
नावगाहन्ति सलिलमप्रगल्भा इवाहवम् ॥ २२ ॥
मूलम्
एते हि समुपासीना विहगा जलचारिणः ।
नावगाहन्ति सलिलमप्रगल्भा इवाहवम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ये जलचर पक्षी जलके पास ही बैठे हैं; परंतु जैसे डरपोक मनुष्य युद्धभूमिमें प्रवेश नहीं करते हैं, उसी प्रकार ये पानीमें नहीं उतर रहे हैं ॥ २२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवश्यायतमोनद्धा नीहारतमसावृताः ।
प्रसुप्ता इव लक्ष्यन्ते विपुष्पा वनराजयः ॥ २३ ॥
मूलम्
अवश्यायतमोनद्धा नीहारतमसावृताः ।
प्रसुप्ता इव लक्ष्यन्ते विपुष्पा वनराजयः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘रातमें ओसविन्दुओं और अन्धकारसे आच्छादित तथा प्रातःकाल कुहासेके अँधेरेसे ढकी हुई ये पुष्पहीन वनश्रेणियाँ सोयी हुई-सी दिखायी देती हैं ॥ २३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाष्पसञ्छन्नसलिला रुतविज्ञेयसारसाः ।
हिमार्द्रवालुकैस्तीरैः सरितो भान्ति साम्प्रतम् ॥ २४ ॥
मूलम्
बाष्पसञ्छन्नसलिला रुतविज्ञेयसारसाः ।
हिमार्द्रवालुकैस्तीरैः सरितो भान्ति साम्प्रतम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस समय नदियोंके जल भापसे ढके हुए हैं । इनमें विचरनेवाले सारस केवल अपने कलरवोंसे पहचाने जाते हैं तथा ये सरिताएँ भी ओससे भीगी हुई बालूवाले अपने तटोंसे ही प्रकाशमें आती हैं (जलसे नहीं) ॥ २४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुषारपतनाच्चैव मृदुत्वाद् भास्करस्य च ।
शैत्यादगाग्रस्थमपि प्रायेण रसवज्जलम् ॥ २५ ॥
मूलम्
तुषारपतनाच्चैव मृदुत्वाद् भास्करस्य च ।
शैत्यादगाग्रस्थमपि प्रायेण रसवज्जलम् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘बर्फ पड़नेसे और सूर्यकी किरणोंके मन्द होनेसे अधिक सर्दीके कारण इन दिनों पर्वतके शिखरपर पड़ा हुआ जल भी प्रायः स्वादिष्ट प्रतीत होता है ॥ २५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जराजर्जरितैः पत्रैः शीर्णकेसरकर्णिकैः ।
नालशेषा हिमध्वस्ता न भान्ति कमलाकराः ॥ २६ ॥
मूलम्
जराजर्जरितैः पत्रैः शीर्णकेसरकर्णिकैः ।
नालशेषा हिमध्वस्ता न भान्ति कमलाकराः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो पुराने पड़ जानेके कारण जर्जर हो गये हैं, जिनकी कर्णिका और केसर जीर्ण-शीर्ण हो गये हैं, ऐसे दलोंसे उपलक्षित होनेवाले कमलोंके समूह पाला पड़नेसे गल गये हैं । उनमें डंठलमात्र शेष रह गये हैं । इसीलिये उनकी शोभा नष्ट हो गयी है ॥ २६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्मिंस्तु पुरुषव्याघ्र काले दुःखसमन्वितः ।
तपश्चरति धर्मात्मा त्वद्भक्त्या भरतः पुरे ॥ २७ ॥
मूलम्
अस्मिंस्तु पुरुषव्याघ्र काले दुःखसमन्वितः ।
तपश्चरति धर्मात्मा त्वद्भक्त्या भरतः पुरे ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पुरुषसिंह श्रीराम! इस समय धर्मात्मा भरत आपके लिये बहुत दुःखी हैं और आपमें भक्ति रखते हुए नगरमें ही तपस्या कर रहे हैं ॥ २७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्यक्त्वा राज्यं च मानं च भोगांश्च विविधान् बहून् ।
तपस्वी नियताहारः शेते शीते महीतले ॥ २८ ॥
मूलम्
त्यक्त्वा राज्यं च मानं च भोगांश्च विविधान् बहून् ।
तपस्वी नियताहारः शेते शीते महीतले ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वे राज्य, मान तथा नाना प्रकारके बहुसंख्यक भोगोंका परित्याग करके तपस्यामें संलग्न हैं एवं नियमित आहार करते हुए इस शीतल महीतलपर बिना विस्तरके ही शयन करते हैं ॥ २८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽपि वेलामिमां नूनमभिषेकार्थमुद्यतः ।
वृतः प्रकृतिभिर्नित्यं प्रयाति सरयूं नदीम् ॥ २९ ॥
मूलम्
सोऽपि वेलामिमां नूनमभिषेकार्थमुद्यतः ।
वृतः प्रकृतिभिर्नित्यं प्रयाति सरयूं नदीम् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘निश्चय ही भरत भी इसी बेलामें स्नानके लिये उद्यत हो मन्त्री एवं प्रजाजनोंके साथ प्रतिदिन सरयू नदीके तटपर जाते होंगे ॥ २९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्यन्तसुखसंवृद्धः सुकुमारो हिमार्दितः ।
कथं त्वपररात्रेषु सरयूमवगाहते ॥ ३० ॥
मूलम्
अत्यन्तसुखसंवृद्धः सुकुमारो हिमार्दितः ।
कथं त्वपररात्रेषु सरयूमवगाहते ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अत्यन्त सुखमें पले हुए सुकुमार भरत जाड़ेका कष्ट सहते हुए रातके पिछले पहरमें कैसे सरयूजीके जलमें डुबकी लगाते होंगे ॥ ३० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पद्मपत्रेक्षणः श्यामः श्रीमान् निरुदरो महान् ।
धर्मज्ञः सत्यवादी च ह्रीनिषेवी जितेन्द्रियः ॥ ३१ ॥
प्रियाभिभाषी मधुरो दीर्घबाहुररिन्दमः ।
सन्त्यज्य विविधान् सौख्यानार्यं सर्वात्मनाश्रितः ॥ ३२ ॥
मूलम्
पद्मपत्रेक्षणः श्यामः श्रीमान् निरुदरो महान् ।
धर्मज्ञः सत्यवादी च ह्रीनिषेवी जितेन्द्रियः ॥ ३१ ॥
प्रियाभिभाषी मधुरो दीर्घबाहुररिन्दमः ।
सन्त्यज्य विविधान् सौख्यानार्यं सर्वात्मनाश्रितः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिनके नेत्र कमलदलके समान शोभा पाते हैं, जिनकी अङ्गकान्ति श्याम है और जिनके उदरका कुछ पता ही नहीं लगता है, ऐसे महान् धर्मज्ञ, सत्यवादी, लज्जाशील, जितेन्द्रिय, प्रिय वचन बोलनेवाले, मृदुल स्वभाववाले महाबाहु शत्रुदमन श्रीमान् भरतने नाना प्रकारके सुखोंको त्यागकर सर्वथा आपका ही आश्रय ग्रहण किया है ॥ ३१-३२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जितः स्वर्गस्तव भ्रात्रा भरतेन महात्मना ।
वनस्थमपि तापस्ये यस्त्वामनुविधीयते ॥ ३३ ॥
मूलम्
जितः स्वर्गस्तव भ्रात्रा भरतेन महात्मना ।
वनस्थमपि तापस्ये यस्त्वामनुविधीयते ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आपके भाई महात्मा भरतने निश्चय ही स्वर्ग-लोकपर विजय प्राप्त कर ली है; क्योंकि वे भी तपस्यामें स्थित होकर आपके वनवासी जीवनका अनुसरण कर रहे हैं ॥ ३३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न पित्र्यमनुवर्तन्ते मातृकं द्विपदा इति ।
ख्यातो लोकप्रवादोऽयं भरतेनान्यथा कृतः ॥ ३४ ॥
मूलम्
न पित्र्यमनुवर्तन्ते मातृकं द्विपदा इति ।
ख्यातो लोकप्रवादोऽयं भरतेनान्यथा कृतः ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मनुष्य प्रायः माताके गुणोंका ही अनुवर्तन करते हैं पिताके नहीं; इस लौकिक उक्तिको भरतने अपने बर्तावसे मिथ्या प्रमाणित कर दिया है ॥ ३४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भर्ता दशरथो यस्याः साधुश्च भरतः सुतः ।
कथं नु साम्बा कैकेयी तादृशी क्रूरदर्शिनी ॥ ३५ ॥
मूलम्
भर्ता दशरथो यस्याः साधुश्च भरतः सुतः ।
कथं नु साम्बा कैकेयी तादृशी क्रूरदर्शिनी ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाराज दशरथ जिसके पति हैं और भरत-जैसा साधु जिसका पुत्र है, वह माता कैकेयी वैसी क्रूरतापूर्ण दृष्टिवाली कैसे हो गयी?’ ॥ ३५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येवं लक्ष्मणे वाक्यं स्नेहाद् वदति धार्मिके ।
परिवादं जनन्यास्तमसहन् राघवोऽब्रवीत् ॥ ३६ ॥
मूलम्
इत्येवं लक्ष्मणे वाक्यं स्नेहाद् वदति धार्मिके ।
परिवादं जनन्यास्तमसहन् राघवोऽब्रवीत् ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मपरायण लक्ष्मण जब स्नेहवश इस प्रकार कह रहे थे, उस समय श्रीरामचन्द्रजीसे माता कैकेयीकी निन्दा नहीं सही गयी । उन्होंने लक्ष्मणसे कहा— ॥ ३६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न तेऽम्बा मध्यमा तात गर्हितव्या कदाचन ।
तामेवेक्ष्वाकुनाथस्य भरतस्य कथां कुरु ॥ ३७ ॥
मूलम्
न तेऽम्बा मध्यमा तात गर्हितव्या कदाचन ।
तामेवेक्ष्वाकुनाथस्य भरतस्य कथां कुरु ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तात! तुम्हें मझली माता कैकेयीकी कभी निन्दा नहीं करनी चाहिये । (यदि कुछ कहना हो तो) पहलेकी भाँति इक्ष्वाकुवंशके स्वामी भरतकी ही चर्चा करो ॥ ३७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निश्चितैव हि मे बुद्धिर्वनवासे दृढव्रता ।
भरतस्नेहसन्तप्ता बालिशीक्रियते पुनः ॥ ३८ ॥
मूलम्
निश्चितैव हि मे बुद्धिर्वनवासे दृढव्रता ।
भरतस्नेहसन्तप्ता बालिशीक्रियते पुनः ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यद्यपि मेरी बुद्धि दृढ़तापूर्वक व्रतका पालन करते हुए वनमें रहनेका अटल निश्चय कर चुकी है, तथापि भरतके स्नेहसे संतप्त होकर पुनः चञ्चल हो उठती है ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संस्मराम्यस्य वाक्यानि प्रियाणि मधुराणि च ।
हृद्यान्यमृतकल्पानि मनःप्रह्लादनानि च ॥ ३९ ॥
मूलम्
संस्मराम्यस्य वाक्यानि प्रियाणि मधुराणि च ।
हृद्यान्यमृतकल्पानि मनःप्रह्लादनानि च ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मुझे भरतकी वे परम प्रिय, मधुर, मनको भानेवाली और अमृतके समान हृदयको आह्लाद प्रदान करनेवाली बातें याद आ रही हैं ॥ ३९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कदा ह्यहं समेष्यामि भरतेन महात्मना ।
शत्रुघ्नेन च वीरेण त्वया च रघुनन्दन ॥ ४० ॥
मूलम्
कदा ह्यहं समेष्यामि भरतेन महात्मना ।
शत्रुघ्नेन च वीरेण त्वया च रघुनन्दन ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘रघुकुलनन्दन लक्ष्मण! कब वह दिन आयेगा, जब मैं तुम्हारे साथ चलकर महात्मा भरत और वीरवर शत्रुघ्नसे मिलूँगा’ ॥ ४० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येवं विलपंस्तत्र प्राप्य गोदावरीं नदीम् ।
चक्रेऽभिषेकं काकुत्स्थः सानुजः सह सीतया ॥ ४१ ॥
मूलम्
इत्येवं विलपंस्तत्र प्राप्य गोदावरीं नदीम् ।
चक्रेऽभिषेकं काकुत्स्थः सानुजः सह सीतया ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार विलाप करते हुए ककुत्स्थकुलभूषण भगवान् श्रीरामने लक्ष्मण और सीताके साथ गोदावरी नदीके तटपर जाकर स्नान किया ॥ ४१ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तर्पयित्वाथ सलिलैस्तैः पितॄन् दैवतानपि ।
स्तुवन्ति स्मोदितं सूर्यं देवताश्च तथानघाः ॥ ४२ ॥
मूलम्
तर्पयित्वाथ सलिलैस्तैः पितॄन् दैवतानपि ।
स्तुवन्ति स्मोदितं सूर्यं देवताश्च तथानघाः ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ स्नान करके उन्होंने गोदावरीके जलसे देवताओं और पितरोंका तर्पण किया । तदनन्तर जब सूर्योदय हुआ, तब वे तीनों निष्पाप व्यक्ति भगवान् सूर्यका उपस्थान करके अन्य देवताओंकी भी स्तुति करने लगे ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृताभिषेकः स रराज रामः
सीताद्वितीयः सह लक्ष्मणेन ।
कृताभिषेकस्त्वगराजपुत्र्या
रुद्रः सनन्दिर्भगवानिवेशः ॥ ४३ ॥
मूलम्
कृताभिषेकः स रराज रामः
सीताद्वितीयः सह लक्ष्मणेन ।
कृताभिषेकस्त्वगराजपुत्र्या
रुद्रः सनन्दिर्भगवानिवेशः ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सीता और लक्ष्मणके साथ स्नान करके भगवान् श्रीराम उसी प्रकार शोभा पाने लगे, जैसे पर्वतराजपुत्री उमा और नन्दीके साथ गङ्गाजीमें अवगाहन करके भगवान् रुद्र सुशोभित होते हैं ॥ ४३ ॥
समाप्तिः
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽरण्यकाण्डे षोडशः सर्गः ॥ १६ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके अरण्यकाण्डमें सोलहवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ १६ ॥