११४ अयोध्याप्रवेशः

वाचनम्
भागसूचना
  1. भरतके द्वारा अयोध्याकी दुरवस्थाका दर्शन तथा अन्तःपुरमें प्रवेश करके भरतका दुःखी होना
विश्वास-प्रस्तुतिः

स्निग्धगम्भीरघोषेण स्यन्दनेनोपयान् प्रभुः ।
अयोध्यां भरतः क्षिप्रं प्रविवेश महायशाः ॥ १ ॥

मूलम्

स्निग्धगम्भीरघोषेण स्यन्दनेनोपयान् प्रभुः ।
अयोध्यां भरतः क्षिप्रं प्रविवेश महायशाः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद प्रभावशाली महायशस्वी भरतने स्निग्ध, गम्भीर घर्घर घोषसे युक्त रथके द्वारा यात्रा करके शीघ्र ही अयोध्यामें प्रवेश किया ॥ १ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिडालोलूकचरितामालीननरवारणाम् ।
तिमिराभ्याहतां कालीमप्रकाशां निशामिव ॥ २ ॥

मूलम्

बिडालोलूकचरितामालीननरवारणाम् ।
तिमिराभ्याहतां कालीमप्रकाशां निशामिव ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय वहाँ बिलाव और उल्लू विचर रहे थे । घरोंके किवाड़ बंद थे । सारे नगरमें अन्धकार छा रहा था । प्रकाश न होनेके कारण वह पुरी कृष्णपक्षकी काली रातके समान जान पड़ती थी ॥ २ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राहुशत्रोः प्रियां पत्नीं श्रिया प्रज्वलितप्रभाम् ।
ग्रहेणाभ्युदितेनैकां रोहिणीमिव पीडिताम् ॥ ३ ॥

मूलम्

राहुशत्रोः प्रियां पत्नीं श्रिया प्रज्वलितप्रभाम् ।
ग्रहेणाभ्युदितेनैकां रोहिणीमिव पीडिताम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे चन्द्रमाकी प्रिय पत्नी और अपनी शोभासे प्रकाशित कान्तिवाली रोहिणी उदित हुए राहु नामक ग्रहके द्वारा अपने पतिके ग्रस लिये जानेपर अकेली—असहाय हो जाती है, उसी प्रकार दिव्य ऐश्वर्यसे प्रकाशित होनेवाली अयोध्या राजाके कालकवलित हो जानेके कारण पीड़ित एवं असहाय हो रही थी ॥ ३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अल्पोष्णक्षुब्धसलिलां घर्मतप्तविहङ्गमाम् ।
लीनमीनझषग्राहां कृशां गिरिनदीमिव ॥ ४ ॥

मूलम्

अल्पोष्णक्षुब्धसलिलां घर्मतप्तविहङ्गमाम् ।
लीनमीनझषग्राहां कृशां गिरिनदीमिव ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह पुरी उस पर्वतीय नदीकी भाँति कृशकाय दिखायी देती थी, जिसका जल सूर्यकी किरणोंसे तपकर कुछ गरम और गँदला हो रहा हो, जिसके पक्षी धूपसे संतप्त होकर भाग गये हों तथा जिसके मीन, मत्स्य और ग्राह गहरे जलमें छिप गये हों ॥ ४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विधूमामिव हेमाभां शिखामग्नेः समुत्थिताम् ।
हविरभ्युक्षितां पश्चाच्छिखां विप्रलयं गताम् ॥ ५ ॥

मूलम्

विधूमामिव हेमाभां शिखामग्नेः समुत्थिताम् ।
हविरभ्युक्षितां पश्चाच्छिखां विप्रलयं गताम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अयोध्या पहले धूमरहित सुनहरी कान्तिवाली प्रज्वलित अग्निशिखाके समान प्रकाशित होती थी, वही श्रीरामवनवासके बाद हवनीय दुग्धसे सींची गयी अग्निकी ज्वालाके समान बुझकर विलीन-सी हो गयी है ॥ ५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विध्वस्तकवचां रुग्णगजवाजिरथध्वजाम् ।
हतप्रवीरामापन्नां चमूमिव महाहवे ॥ ६ ॥

मूलम्

विध्वस्तकवचां रुग्णगजवाजिरथध्वजाम् ।
हतप्रवीरामापन्नां चमूमिव महाहवे ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय अयोध्या महासमरमें संकटग्रस्त हुई उस सेनाके समान प्रतीत होती थी, जिसके कवच कटकर गिर गये हों, हाथी, घोड़े, रथ और ध्वजा छिन्न-भिन्न हो गये हों और मुख्य-मुख्य वीर मार डाले गये हों ॥ ६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सफेनां सस्वनां भूत्वा सागरस्य समुत्थिताम् ।
प्रशान्तमारुतोद‍्धूतां जलोर्मिमिव निःस्वनाम् ॥ ७ ॥

मूलम्

सफेनां सस्वनां भूत्वा सागरस्य समुत्थिताम् ।
प्रशान्तमारुतोद‍्धूतां जलोर्मिमिव निःस्वनाम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रबल वायुके वेगसे फेन और गर्जनाके साथ उठी हुई समुद्रकी उत्ताल तरंग सहसा वायुके शान्त हो जानेपर जैसे शिथिल और नीरव हो जाती है, उसी प्रकार कोलाहलपूर्ण अयोध्या अब शब्दशून्य-सी जान पड़ती थी ॥ ७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्यक्तां यज्ञायुधैः सर्वैरभिरूपैश्च याजकैः ।
सुत्याकाले सुनिर्वृत्ते वेदिं गतरवामिव ॥ ८ ॥

मूलम्

त्यक्तां यज्ञायुधैः सर्वैरभिरूपैश्च याजकैः ।
सुत्याकाले सुनिर्वृत्ते वेदिं गतरवामिव ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यज्ञकाल समाप्त होनेपर ‘स्फ्य’ आदि यज्ञसम्बन्धी आयुधों तथा श्रेष्ठ याजकोंसे सूनी हुई वेदी जैसे मन्त्रोच्चारणकी ध्वनिसे रहित हो जाती है, उसी प्रकार अयोध्या सुनसान दिखायी देती थी ॥ ८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोष्ठमध्ये स्थितामार्तामचरन्तीं नवं तृणम् ।
गोवृषेण परित्यक्तां गवां पत्नीमिवोत्सुकाम् ॥ ९ ॥

मूलम्

गोष्ठमध्ये स्थितामार्तामचरन्तीं नवं तृणम् ।
गोवृषेण परित्यक्तां गवां पत्नीमिवोत्सुकाम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे कोई गाय साँड़के साथ समागमके लिये उत्सुक हो, उसी अवस्थामें उसे साँड़से अलग कर दिया गया हो और वह नूतन घास चरना छोड़कर आर्त भावसे गोष्ठमें बँधी हुई खड़ी हो, उसी तरह अयोध्यापुरी भी आन्तरिक वेदनासे पीड़ित थी ॥ ९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाकराद्यैः सुस्निग्धैः प्रज्वलद्भिरिवोत्तमैः ।
वियुक्तां मणिभिर्जात्यैर्नवां मुक्तावलीमिव ॥ १० ॥

मूलम्

प्रभाकराद्यैः सुस्निग्धैः प्रज्वलद्भिरिवोत्तमैः ।
वियुक्तां मणिभिर्जात्यैर्नवां मुक्तावलीमिव ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीराम आदिसे रहित हुई अयोध्या मोतियोंकी उस नूतन मालाके समान श्रीहीन हो गयी थी, जिसकी अत्यन्त चिकनी-चमकीली, उत्तम तथा अच्छी जातिकी पद्मराग आदि मणियाँ उससे निकालकर अलग कर दी गयी हों ॥ १० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहसाचरितां स्थानान्महीं पुण्यक्षयाद् गताम् ।
संहृतद्युतिविस्तारां तारामिव दिवश्च्युताम् ॥ ११ ॥

मूलम्

सहसाचरितां स्थानान्महीं पुण्यक्षयाद् गताम् ।
संहृतद्युतिविस्तारां तारामिव दिवश्च्युताम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पुण्य-क्षय होनेके कारण सहसा अपने स्थानसे भ्रष्ट हो पृथ्वीपर आ पहुँची हो, अतएव जिसकी विस्तृत प्रभा क्षीण हो गयी हो, आकाशसे गिरी हुई उस तारिकाकी भाँति अयोध्या शोभाहीन हो गयी थी ॥ ११ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुष्पनद्धां वसन्तान्ते मत्तभ्रमरशालिनीम् ।
द्रुतदावाग्निविप्लुष्टां क्लान्तां वनलतामिव ॥ १२ ॥

मूलम्

पुष्पनद्धां वसन्तान्ते मत्तभ्रमरशालिनीम् ।
द्रुतदावाग्निविप्लुष्टां क्लान्तां वनलतामिव ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो ग्रीष्म-ऋतुमें पहले फूलोंसे लदी हुई होनेके कारण मतवाले भ्रमरोंसे सुशोभित होती रही हो और फिर सहसा दावानलके लपेटमें आकर मुरझा गयी हो, वनकी उस लताके समान पहलेकी उल्लासपूर्ण अयोध्या अब उदास हो गयी थी ॥ १२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम्मूढनिगमां सर्वां सङ्क्षिप्तविपणापणाम् ।
प्रच्छन्नशशिनक्षत्रां द्यामिवाम्बुधरैर्युताम् ॥ १३ ॥

मूलम्

सम्मूढनिगमां सर्वां सङ्क्षिप्तविपणापणाम् ।
प्रच्छन्नशशिनक्षत्रां द्यामिवाम्बुधरैर्युताम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँके व्यापारी वणिक् शोकसे व्याकुल होनेके कारण किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये थे, बाजार-हाट और दूकानें बहुत कम खुली थीं । उस समय सारी पुरी उस आकाशकी भाँति शोभाहीन हो गयी थी, जहाँ बादलोंकी घटाएँ घिर आयी हों और तारे तथा चन्द्रमा ढक गये हों ॥ १३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षीणपानोत्तमैर्भग्नैः शरावैरभिसंवृताम् ।
हतशौण्डामिव ध्वस्तां पानभूमिमसंस्कृताम् ॥ १४ ॥

मूलम्

क्षीणपानोत्तमैर्भग्नैः शरावैरभिसंवृताम् ।
हतशौण्डामिव ध्वस्तां पानभूमिमसंस्कृताम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(उन दिनों अयोध्यापुरीकी सड़कें झाड़ी-बुहारी नहीं गयी थीं, इसलिये यत्र-तत्र कूड़े-करकटके ढेर पड़े थे । उस अवस्थामें) वह नगरी उस उजड़ी हुई पानभूमि (मधुशाला) के समान श्रीहीन दिखायी देती थी, जिसकी सफाई न की गयी हो, जहाँ मधुसे खाली टूटी-फूटी प्यालियाँ पड़ी हों और जहाँके पीनेवाले भी नष्ट हो गये हों ॥ १४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृक्णभूमितलां निम्नां वृक्णपात्रैः समावृताम् ।
उपयुक्तोदकां भग्नां प्रपां निपतितामिव ॥ १५ ॥

मूलम्

वृक्णभूमितलां निम्नां वृक्णपात्रैः समावृताम् ।
उपयुक्तोदकां भग्नां प्रपां निपतितामिव ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस पुरीकी दशा उस पौंसलेकी-सी हो रही थी, जो खम्भोंके टूट जानेसे ढह गया हो, जिसका चबूतरा छिन्न-भिन्न हो गया हो, भूमि नीची हो गयी हो, पानी चुक गया हो और जलपात्र टूट-फूटकर इधर-उधर सब ओर बिखरे पड़े हों ॥ १५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विपुलां विततां चैव युक्तपाशां तरस्विनाम् ।
भूमौ बाणैर्विनिष्कृत्तां पतितां ज्यामिवायुधात् ॥ १६ ॥

मूलम्

विपुलां विततां चैव युक्तपाशां तरस्विनाम् ।
भूमौ बाणैर्विनिष्कृत्तां पतितां ज्यामिवायुधात् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो विशाल और सम्पूर्ण धनुषमें फैली हुई हो, उसकी दोनों कोटियों (किनारों) में बाँधनेके लिये जिसमें रस्सी जुड़ी हुई हो, किंतु वेगशाली वीरोंके बाणोंसे कटकर धनुषसे पृथ्वीपर गिर पड़ी हो, उस प्रत्यञ्चाके समान ही अयोध्यापुरी भी स्थानभ्रष्ट हुई-सी दिखायी देती थी ॥ १६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहसा युद्धशौण्डेन हयारोहेण वाहिताम् ।
निहतां प्रतिसैन्येन वडवामिव पातिताम् ॥ १७ ॥

मूलम्

सहसा युद्धशौण्डेन हयारोहेण वाहिताम् ।
निहतां प्रतिसैन्येन वडवामिव पातिताम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसपर युद्धकुशल घुड़सवारने सवारी की हो और जिसे शत्रुपक्षकी सेनाने सहसा मार गिराया हो, युद्धभूमिमें पड़ी हुई उस घोड़ीकी जो दशा होती है, वही उस समय अयोध्यापुरीकी भी थी (कैकेयीके कुचक्रसे उसके संचालक नरेशका स्वर्गवास और युवराजका वनवास हो गया था) ॥ १७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भरतस्तु रथस्थः सन् श्रीमान् दशरथात्मजः ।
वाहयन्तं रथश्रेष्ठं सारथिं वाक्यमब्रवीत् ॥ १८ ॥

मूलम्

भरतस्तु रथस्थः सन् श्रीमान् दशरथात्मजः ।
वाहयन्तं रथश्रेष्ठं सारथिं वाक्यमब्रवीत् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रथपर बैठे हुए श्रीमान् दशरथनन्दन भरतने उस समय श्रेष्ठ रथका संचालन करनेवाले सारथि सुमन्त्रसे इस प्रकार कहा— ॥ १८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं नु खल्वद्य गम्भीरो मूर्च्छितो न निशाम्यते ।
यथापुरमयोध्यायां गीतवादित्रनिःस्वनः ॥ १९ ॥

मूलम्

किं नु खल्वद्य गम्भीरो मूर्च्छितो न निशाम्यते ।
यथापुरमयोध्यायां गीतवादित्रनिःस्वनः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अब अयोध्यामें पहलेकी भाँति सब ओर फैला हुआ गाने-बजानेका गम्भीर नाद नहीं सुनायी पड़ता; यह कितने कष्टकी बात है! ॥ १९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वारुणीमदगन्धश्च माल्यगन्धश्च मूर्च्छितः ।
चन्दनागुरुगन्धश्च न प्रवाति समन्ततः ॥ २० ॥

मूलम्

वारुणीमदगन्धश्च माल्यगन्धश्च मूर्च्छितः ।
चन्दनागुरुगन्धश्च न प्रवाति समन्ततः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अब चारों ओर वारुणी (मधु) की मादक गन्ध, व्याप्त हुई फूलोंकी सुगन्ध तथा चन्दन और अगुरुकी पवित्र गन्ध नहीं फैल रही है ॥ २० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यानप्रवरघोषश्च सुस्निग्धहयनिःस्वनः ।
प्रमत्तगजनादश्च महांश्च रथनिःस्वनः ॥ २१ ॥

मूलम्

यानप्रवरघोषश्च सुस्निग्धहयनिःस्वनः ।
प्रमत्तगजनादश्च महांश्च रथनिःस्वनः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अच्छी-अच्छी सवारियोंकी आवाज, घोड़ोंके हींसनेका सुस्निग्ध शब्द, मतवाले हाथियोंका चिग्घाड़ना तथा रथोंकी घर्घराहटका महान् शब्द—ये सब नहीं सुनायी दे रहे हैं ॥ २१ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नेदानीं श्रूयते पुर्यामस्यां रामे विवासिते ।
चन्दनागुरुगन्धांश्च महार्हाश्च वनस्रजः ॥ २२ ॥
गते रामे हि तरुणाः सन्तप्ता नोपभुञ्जते ।
बहिर्यात्रां न गच्छन्ति चित्रमाल्यधरा नराः ॥ २३ ॥

मूलम्

नेदानीं श्रूयते पुर्यामस्यां रामे विवासिते ।
चन्दनागुरुगन्धांश्च महार्हाश्च वनस्रजः ॥ २२ ॥
गते रामे हि तरुणाः सन्तप्ता नोपभुञ्जते ।
बहिर्यात्रां न गच्छन्ति चित्रमाल्यधरा नराः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘श्रीरामचन्द्रजीके निर्वासित होनेके कारण ही इस पुरीमें इस समय इन सब प्रकारके शब्दोंका श्रवण नहीं हो रहा है । श्रीरामके चले जानेसे यहाँके तरुण बहुत ही संतप्त हैं । वे चन्दन और अगुरुकी सुगन्धका सेवन नहीं करते तथा बहुमूल्य वनमालाएँ भी नहीं धारण करते । अब इस पुरीके लोग विचित्र फूलोंके हार पहनकर बाहर घूमनेके लिये नहीं निकलते हैं ॥ २२-२३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नोत्सवाः सम्प्रवर्तन्ते रामशोकार्दिते पुरे ।
सा हि नूनं मम भ्रात्रा पुरस्यास्य द्युतिर्गता ॥ २४ ॥

मूलम्

नोत्सवाः सम्प्रवर्तन्ते रामशोकार्दिते पुरे ।
सा हि नूनं मम भ्रात्रा पुरस्यास्य द्युतिर्गता ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘श्रीरामके शोकसे पीड़ित हुए इस नगरमें अब नाना प्रकारके उत्सव नहीं हो रहे हैं । निश्चय ही इस पुरीकी वह सारी शोभा मेरे भाईके साथ ही चली गयी ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नहि राजत्ययोध्येयं सासारेवार्जुनी क्षपा ।
कदा नु खलु मे भ्राता महोत्सव इवागतः ॥ २५ ॥
जनयिष्यत्ययोध्यायां हर्षं ग्रीष्म इवाम्बुदः ।

मूलम्

नहि राजत्ययोध्येयं सासारेवार्जुनी क्षपा ।
कदा नु खलु मे भ्राता महोत्सव इवागतः ॥ २५ ॥
जनयिष्यत्ययोध्यायां हर्षं ग्रीष्म इवाम्बुदः ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘जैसे वेगयुक्त वर्षाके कारण शुक्लपक्षकी चाँदनी रात भी शोभा नहीं पाती है, उसी प्रकार नेत्रोंसे आँसू बहाती हुई यह अयोध्या भी शोभित नहीं हो रही है । अब कब मेरे भाई महोत्सवकी भाँति अयोध्यामें पधारेंगे और ग्रीष्म-ऋतुमें प्रकट हुए मेघकी भाँति सबके हृदयमें हर्षका संचार करेंगे ॥ २५ १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तरुणैश्चारुवेषैश्च नरैरुन्नतगामिभिः ॥ २६ ॥
सम्पतद्भिरयोध्यायां नाभिभान्ति महापथाः ।

मूलम्

तरुणैश्चारुवेषैश्च नरैरुन्नतगामिभिः ॥ २६ ॥
सम्पतद्भिरयोध्यायां नाभिभान्ति महापथाः ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘अब अयोध्याकी बड़ी-बड़ी सड़कें हर्षसे उछलकर चलते हुए मनोहर वेषधारी तरुणोंके शुभागमनसे शोभा नहीं पा रही हैं’ ॥ २६ १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति ब्रुवन् सारथिना दुःखितो भरतस्तदा ॥ २७ ॥
अयोध्यां सम्प्रविश्यैव विवेश वसतिं पितुः ।
तेन हीनां नरेन्द्रेण सिंहहीनां गुहामिव ॥ २८ ॥

मूलम्

इति ब्रुवन् सारथिना दुःखितो भरतस्तदा ॥ २७ ॥
अयोध्यां सम्प्रविश्यैव विवेश वसतिं पितुः ।
तेन हीनां नरेन्द्रेण सिंहहीनां गुहामिव ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार सारथिके साथ बातचीत करते हुए दुःखी भरत उस समय सिंहसे रहित गुफाकी भाँति राजा दशरथसे हीन पिताके निवासस्थान राजमहलमें गये ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदा तदन्तःपुरमुज्झितप्रभं
सुरैरिवोत्कृष्टमभास्करं दिनम् ।
निरीक्ष्य सर्वत्र विभक्तमात्मवान्
मुमोच बाष्पं भरतः सुदुःखितः ॥ २९ ॥

मूलम्

तदा तदन्तःपुरमुज्झितप्रभं
सुरैरिवोत्कृष्टमभास्करं दिनम् ।
निरीक्ष्य सर्वत्र विभक्तमात्मवान्
मुमोच बाष्पं भरतः सुदुःखितः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे सूर्यके छिप जानेसे दिनकी शोभा नष्ट हो जाती है और देवता शोक करने लगते हैं, उसी प्रकार उस समय वह अन्तःपुर शोभाहीन हो गया था और वहाँके लोग शोकमग्न थे । उसे सब ओरसे स्वच्छता और सजावटसे हीन देख भरत धैर्यवान् होनेपर भी अत्यन्त दुःखी हो आँसू बहाने लगे ॥ २९ ॥

समाप्तिः

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे चतुर्दशाधिकशततमः सर्गः ॥ ११४ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके अयोध्याकाण्डमें एक सौ चौदहवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ११४ ॥