वाचनम्
भागसूचना
- श्रीरामके द्वारा जाबालिके नास्तिक मतका खण्डन करके आस्तिक मतका स्थापन
विश्वास-प्रस्तुतिः
जाबालेस्तु वचः श्रुत्वा रामः सत्यपराक्रमः ।
उवाच परया सूक्त्या बुद्ध्याविप्रतिपन्नया ॥ १ ॥
मूलम्
जाबालेस्तु वचः श्रुत्वा रामः सत्यपराक्रमः ।
उवाच परया सूक्त्या बुद्ध्याविप्रतिपन्नया ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जाबालिका यह वचन सुनकर सत्यपराक्रमी श्रीरामचन्द्रजीने अपनी संशयरहित बुद्धिके द्वारा श्रुतिसम्मत सदुक्तिका आश्रय लेकर कहा— ॥ १ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवान् मे प्रियकामार्थं वचनं यदिहोक्तवान् ।
अकार्यं कार्यसङ्काशमपथ्यं पथ्य सन्निभम् ॥ २ ॥
मूलम्
भवान् मे प्रियकामार्थं वचनं यदिहोक्तवान् ।
अकार्यं कार्यसङ्काशमपथ्यं पथ्य सन्निभम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘विप्रवर! आपने मेरा प्रिय करनेकी इच्छासे यहाँ जो बात कही है, वह कर्तव्य-सी दिखायी देती है; किंतु वास्तवमें करनेयोग्य नहीं है । वह पथ्य-सी दीखनेपर भी वास्तवमें अपथ्य है ॥ २ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्मर्यादस्तु पुरुषः पापाचारसमन्वितः ।
मानं न लभते सत्सु भिन्नचारित्रदर्शनः ॥ ३ ॥
मूलम्
निर्मर्यादस्तु पुरुषः पापाचारसमन्वितः ।
मानं न लभते सत्सु भिन्नचारित्रदर्शनः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो पुरुष धर्म अथवा वेदकी मर्यादाको त्याग देता है, वह पापकर्ममें प्रवृत्त हो जाता है । उसके आचार और विचार दोनों भ्रष्ट हो जाते हैं; इसलिये वह सत्पुरुषोंमें कभी सम्मान नहीं पाता है ॥ ३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुलीनमकुलीनं वा वीरं पुरुषमानिनम् ।
चारित्रमेव व्याख्याति शुचिं वा यदि वाशुचिम् ॥ ४ ॥
मूलम्
कुलीनमकुलीनं वा वीरं पुरुषमानिनम् ।
चारित्रमेव व्याख्याति शुचिं वा यदि वाशुचिम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आचार ही यह बताता है कि कौन पुरुष उत्तम कुलमें उत्पन्न हुआ है और कौन अधम कुलमें, कौन वीर है और कौन व्यर्थ ही अपनेको पुरुष मानता है तथा कौन पवित्र है और कौन अपवित्र? ॥ ४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनार्यस्त्वार्य संस्थानः शौचाद्धीनस्तथा शुचिः ।
लक्षण्यवदलक्षण्यो दुःशीलः शीलवानिव ॥ ५ ॥
मूलम्
अनार्यस्त्वार्य संस्थानः शौचाद्धीनस्तथा शुचिः ।
लक्षण्यवदलक्षण्यो दुःशीलः शीलवानिव ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आपने जो आचार बताया है, उसे अपनानेवाला पुरुष श्रेष्ठ-सा दिखायी देनेपर भी वास्तवमें अनार्य होगा । बाहरसे पवित्र दीखनेपर भी भीतरसे अपवित्र होगा । उत्तम लक्षणोंसे युक्त-सा प्रतीत होनेपर भी वास्तवमें उसके विपरीत होगा तथा शीलवान्-सा दीखनेपर भी वस्तुतः वह दुःशील ही होगा ॥ ५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधर्मं धर्मवेषेण यद्यहं लोकसङ्करम् ।
अभिपत्स्ये शुभं हित्वा क्रियां विधिविवर्जिताम् ॥ ६ ॥
कश्चेतयानः पुरुषः कार्याकार्यविचक्षणः ।
बहु मन्येत मां लोके दुर्वृत्तं लोकदूषणम् ॥ ७ ॥
मूलम्
अधर्मं धर्मवेषेण यद्यहं लोकसङ्करम् ।
अभिपत्स्ये शुभं हित्वा क्रियां विधिविवर्जिताम् ॥ ६ ॥
कश्चेतयानः पुरुषः कार्याकार्यविचक्षणः ।
बहु मन्येत मां लोके दुर्वृत्तं लोकदूषणम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आपका उपदेश चोला तो धर्मका पहने हुए है, किंतु वास्तवमें अधर्म है । इससे संसारमें वर्ण-संकरताका प्रचार होगा । यदि मैं इसे स्वीकार करके वेदोक्त शुभकर्मोंका अनुष्ठान छोड़ दूँ और विधिहीन कर्मोंमें लग जाऊँ तो कर्तव्य-अकर्तव्यका ज्ञान रखनेवाला कौन समझदार मनुष्य मुझे श्रेष्ठ समझकर आदर देगा? उस दशामें तो मैं इस जगत् में दुराचारी तथा लोकको कलङ्कित करनेवाला समझा जाऊँगा ॥ ६-७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कस्य यास्याम्यहं वृत्तं केन वा स्वर्गमाप्नुयाम् ।
अनया वर्तमानोऽहं वृत्त्या हीनप्रतिज्ञया ॥ ८ ॥
मूलम्
कस्य यास्याम्यहं वृत्तं केन वा स्वर्गमाप्नुयाम् ।
अनया वर्तमानोऽहं वृत्त्या हीनप्रतिज्ञया ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जहाँ अपनी की हुई प्रतिज्ञा तोड़ दी जाती है, उस वृत्तिके अनुसार बर्ताव करनेपर मैं किस साधनसे स्वर्गलोक प्राप्त करूँगा तथा आपने जिस आचारका उपदेश दिया है, वह किसका है, जिसका मुझे अनुसरण करना होगा; क्योंकि आपके कथनानुसार मैं पिता आदिमेंसे किसीका कुछ भी नहीं हूँ ॥ ८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामवृत्तोऽन्वयं लोकः कृत्स्नः समुपवर्तते ।
यद्धृत्ताः सन्ति राजानस्तद्वृत्ताः सन्ति हि प्रजाः ॥ ९ ॥
मूलम्
कामवृत्तोऽन्वयं लोकः कृत्स्नः समुपवर्तते ।
यद्धृत्ताः सन्ति राजानस्तद्वृत्ताः सन्ति हि प्रजाः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आपके बताये हुए मार्गसे चलनेपर पहले तो मैं स्वेच्छाचारी हूँगा । फिर यह सारा लोक स्वेच्छाचारी हो जायगा; क्योंकि राजाओंके जैसे आचरण होते हैं, प्रजा भी वैसा ही आचरण करने लगती है ॥ ९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्यमेवानृशंसं च राजवृत्तं सनातनम् ।
तस्मात् सत्यात्मकं राज्यं सत्ये लोकः प्रतिष्ठितः ॥ १० ॥
मूलम्
सत्यमेवानृशंसं च राजवृत्तं सनातनम् ।
तस्मात् सत्यात्मकं राज्यं सत्ये लोकः प्रतिष्ठितः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सत्यका पालन ही राजाओंका दयाप्रधान धर्म है— सनातन आचार है, अतः राज्य सत्यस्वरूप है । सत्यमें ही सम्पूर्ण लोक प्रतिष्ठित है ॥ १० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋषयश्चैव देवाश्च सत्यमेव हि मेनिरे ।
सत्यवादी हि लोकेऽस्मिन् परं गच्छति चाक्षयम् ॥ ११ ॥
मूलम्
ऋषयश्चैव देवाश्च सत्यमेव हि मेनिरे ।
सत्यवादी हि लोकेऽस्मिन् परं गच्छति चाक्षयम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ऋषियों और देवताओंने सदा सत्यका ही आदर किया है । इस लोकमें सत्यवादी मनुष्य अक्षय परम धाममें जाता है ॥ ११ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उद्विजन्ते यथा सर्पान्नरादनृतवादिनः ।
धर्मः सत्यपरो लोके मूलं सर्वस्य चोच्यते ॥ १२ ॥
मूलम्
उद्विजन्ते यथा सर्पान्नरादनृतवादिनः ।
धर्मः सत्यपरो लोके मूलं सर्वस्य चोच्यते ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘झूठ बोलनेवाले मनुष्यसे सब लोग उसी तरह डरते हैं, जैसे साँपसे । संसारमें सत्य ही धर्मकी पराकाष्ठा है और वही सबका मूल कहा जाता है ॥ १२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्यमेवेश्वरो लोके सत्ये धर्मः सदाश्रितः ।
सत्यमूलानि सर्वाणि सत्यान्नास्ति परं पदम् ॥ १३ ॥
मूलम्
सत्यमेवेश्वरो लोके सत्ये धर्मः सदाश्रितः ।
सत्यमूलानि सर्वाणि सत्यान्नास्ति परं पदम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जगत् में सत्य ही ईश्वर है । सदा सत्यके ही आधारपर धर्मकी स्थिति रहती है । सत्य ही सबकी जड़ है । सत्यसे बढ़कर दूसरा कोई परम पद नहीं है ॥ १३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दत्तमिष्टं हुतं चैव तप्तानि च तपांसि च ।
वेदाः सत्यप्रतिष्ठानास्तस्मात् सत्यपरो भवेत् ॥ १४ ॥
मूलम्
दत्तमिष्टं हुतं चैव तप्तानि च तपांसि च ।
वेदाः सत्यप्रतिष्ठानास्तस्मात् सत्यपरो भवेत् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘दान, यज्ञ, होम, तपस्या और वेद—इन सबका आधार सत्य ही है; इसलिये सबको सत्यपरायण होना चाहिये ॥ १४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकः पालयते लोकमेकः पालयते कुलम् ।
मज्जत्येको हि निरय एकः स्वर्गे महीयते ॥ १५ ॥
मूलम्
एकः पालयते लोकमेकः पालयते कुलम् ।
मज्जत्येको हि निरय एकः स्वर्गे महीयते ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘एक मनुष्य सम्पूर्ण जगत् का पालन करता है, एक समूचे कुलका पालन करता है, एक नरकमें डूबता है और एक स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है ॥ १५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽहं पितुर्निदेशं तु किमर्थं नानुपालये ।
सत्यप्रतिश्रवः सत्यं सत्येन समयीकृतम् ॥ १६ ॥
मूलम्
सोऽहं पितुर्निदेशं तु किमर्थं नानुपालये ।
सत्यप्रतिश्रवः सत्यं सत्येन समयीकृतम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं सत्यप्रतिज्ञ हूँ और सत्यकी शपथ खाकर पिताके सत्यका पालन स्वीकार कर चुका हूँ, ऐसी दशामें मैं पिताके आदेशका किसलिये पालन नहीं करूँ? ॥ १६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैव लोभान्न मोहाद् वा न चाज्ञानात् तमोऽन्वितः ।
सेतुं सत्यस्य भेत्स्यामि गुरोः सत्यप्रतिश्रवः ॥ १७ ॥
मूलम्
नैव लोभान्न मोहाद् वा न चाज्ञानात् तमोऽन्वितः ।
सेतुं सत्यस्य भेत्स्यामि गुरोः सत्यप्रतिश्रवः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पहले सत्यपालनकी प्रतिज्ञा करके अब लोभ, मोह अथवा अज्ञानसे विवेकशून्य होकर मैं पिताके सत्यकी मर्यादा भङ्ग नहीं करूँगा ॥ १७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असत्यसन्धस्य सतश्चलस्यास्थिरचेतसः ।
नैव देवा न पितरः प्रतीच्छन्तीति नः श्रुतम् ॥ १८ ॥
मूलम्
असत्यसन्धस्य सतश्चलस्यास्थिरचेतसः ।
नैव देवा न पितरः प्रतीच्छन्तीति नः श्रुतम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हमने सुना है कि जो अपनी प्रतिज्ञा झूठी करनेके कारण धर्मसे भ्रष्ट हो जाता है, उस चञ्चल चित्तवाले पुरुषके दिये हुए हव्य-कव्यको देवता और पितर नहीं स्वीकार करते हैं ॥ १८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रत्यगात्ममिमं धर्मं सत्यं पश्याम्यहं ध्रुवम् ।
भारः सत्पुरुषैश्चीर्णस्तदर्थमभिनन्द्यते ॥ १९ ॥
मूलम्
प्रत्यगात्ममिमं धर्मं सत्यं पश्याम्यहं ध्रुवम् ।
भारः सत्पुरुषैश्चीर्णस्तदर्थमभिनन्द्यते ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं इस सत्यरूपी धर्मको समस्त प्राणियोंके लिये हितकर और सब धर्मोंमें श्रेष्ठ समझता हूँ । सत्पुरुषोंने जटा-वल्कल आदिके धारणरूप तापस धर्मका पालन किया है, इसलिये मैं भी उसका अभिनन्दन करता हूँ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षात्रं धर्ममहं त्यक्ष्ये ह्यधर्मं धर्मसंहितम् ।
क्षुद्रैर्नृशंसैर्लुब्धैश्च सेवितं पापकर्मभिः ॥ २० ॥
मूलम्
क्षात्रं धर्ममहं त्यक्ष्ये ह्यधर्मं धर्मसंहितम् ।
क्षुद्रैर्नृशंसैर्लुब्धैश्च सेवितं पापकर्मभिः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो धर्मयुक्त प्रतीत हो रहा है, किंतु वास्तवमें अधर्मरूप है, जिसका नीच, क्रूर, लोभी और पापाचारी पुरुषोंने सेवन किया है, ऐसे क्षात्रधर्मका (पिताकी आज्ञा भङ्ग करके राज्य ग्रहण करनेका) मैं अवश्य त्याग करूँगा (क्योंकि वह न्याययुक्त नहीं है) ॥ २० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कायेन कुरुते पापं मनसा सम्प्रधार्य तत् ।
अनृतं जिह्वया चाह त्रिविधं कर्म पातकम् ॥ २१ ॥
मूलम्
कायेन कुरुते पापं मनसा सम्प्रधार्य तत् ।
अनृतं जिह्वया चाह त्रिविधं कर्म पातकम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मनुष्य अपने शरीरसे जो पाप करता है, उसे पहले मनके द्वारा कर्तव्यरूपसे निश्चित करता है । फिर जिह्वाकी सहायतासे उस अनृत कर्म (पाप) को वाणीद्वारा दूसरोंसे कहता है, तत्पश्चात् औरोंके सहयोगसे उसे शरीरद्वारा सम्पन्न करता है । इस तरह एक ही पातक कायिक, वाचिक और मानसिक भेदसे तीन प्रकारका होता है ॥ २१ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूमिः कीर्तिर्यशो लक्ष्मीः पुरुषं प्रार्थयन्ति हि ।
सत्यं समनुवर्तन्ते सत्यमेव भजेत् ततः ॥ २२ ॥
मूलम्
भूमिः कीर्तिर्यशो लक्ष्मीः पुरुषं प्रार्थयन्ति हि ।
सत्यं समनुवर्तन्ते सत्यमेव भजेत् ततः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पृथ्वी, कीर्ति, यश और लक्ष्मी—ये सब-की-सब सत्यवादी पुरुषको पानेकी इच्छा रखती हैं और शिष्ट पुरुष सत्यका ही अनुसरण करते हैं, अतः मनुष्यको सदा सत्यका ही सेवन करना चाहिये ॥ २२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रेष्ठं ह्यनार्यमेव स्याद् यद् भवानवधार्य माम् ।
आह युक्तिकरैर्वाक्यैरिदं भद्रं कुरुष्व ह ॥ २३ ॥
मूलम्
श्रेष्ठं ह्यनार्यमेव स्याद् यद् भवानवधार्य माम् ।
आह युक्तिकरैर्वाक्यैरिदं भद्रं कुरुष्व ह ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आपने उचित सिद्ध करके तर्कपूर्ण वचनोंके द्वारा मुझसे जो यह कहा है कि राज्य ग्रहण करनेमें ही कल्याण है; अतः इसे अवश्य स्वीकार करो । आपका यह आदेश श्रेष्ठ-सा प्रतीत होनेपर भी सज्जन पुरुषोंद्वारा आचरणमें लानेयोग्य नहीं है (क्योंकि इसे स्वीकार करनेसे सत्य और न्यायका उल्लङ्घन होता है) ॥ २३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं ह्यहं प्रतिज्ञाय वनवासमिमं गुरोः ।
भरतस्य करिष्यामि वचो हित्वा गुरोर्वचः ॥ २४ ॥
मूलम्
कथं ह्यहं प्रतिज्ञाय वनवासमिमं गुरोः ।
भरतस्य करिष्यामि वचो हित्वा गुरोर्वचः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं पिताजीके सामने इस तरह वनमें रहनेकी प्रतिज्ञा कर चुका हूँ । अब उनकी आज्ञाका उल्लङ्घन करके मैं भरतकी बात कैसे मान लूँगा ॥ २४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्थिरा मया प्रतिज्ञाता प्रतिज्ञा गुरुसन्निधौ ।
प्रहृष्टमानसा देवी कैकेयी चाभवत् तदा ॥ २५ ॥
मूलम्
स्थिरा मया प्रतिज्ञाता प्रतिज्ञा गुरुसन्निधौ ।
प्रहृष्टमानसा देवी कैकेयी चाभवत् तदा ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘गुरुके समीप की हुई मेरी वह प्रतिज्ञा अटल है— किसी तरह तोड़ी नहीं जा सकती । उस समय जब कि मैंने प्रतिज्ञा की थी, देवी कैकेयीका हृदय हर्षसे खिल उठा था ॥ २५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वनवासं वसन्नेव शुचिर्नियतभोजनः ।
मूलपुष्पफलैः पुण्यैः पितॄन् देवांश्च तर्पयन् ॥ २६ ॥
मूलम्
वनवासं वसन्नेव शुचिर्नियतभोजनः ।
मूलपुष्पफलैः पुण्यैः पितॄन् देवांश्च तर्पयन् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं वनमें ही रहकर बाहर-भीतरसे पवित्र हो नियमित भोजन करूँगा और पवित्र फल, मूल एवं पुष्पोंद्वारा देवताओं और पितरोंको तृप्त करता हुआ प्रतिज्ञाका पालन करूँगा ॥ २६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सन्तुष्टपञ्चवर्गोऽहं लोकयात्रां प्रवाहये ।
अकुहः श्रद्दधानः सन् कार्याकार्यविचक्षणः ॥ २७ ॥
मूलम्
सन्तुष्टपञ्चवर्गोऽहं लोकयात्रां प्रवाहये ।
अकुहः श्रद्दधानः सन् कार्याकार्यविचक्षणः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘क्या करना चाहिये और क्या नहीं, इसका निश्चय मैं कर चुका हूँ । अतः फल-मूल आदिसे पाँचों इन्द्रियोंको संतुष्ट करके निश्छल, श्रद्धापूर्वक लोकयात्रा (पिताकी आज्ञाके पालनरूप व्यवहार) का निर्वाह करूँगा ॥ २७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्मभूमिमिमां प्राप्य कर्तव्यं कर्म यच्छुभम् ।
अग्निर्वायुश्च सोमश्च कर्मणां फलभागिनः ॥ २८ ॥
मूलम्
कर्मभूमिमिमां प्राप्य कर्तव्यं कर्म यच्छुभम् ।
अग्निर्वायुश्च सोमश्च कर्मणां फलभागिनः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस कर्मभूमिको पाकर जो शुभ कर्म हो, उसका अनुष्ठान करना चाहिये; क्योंकि अग्नि, वायु तथा सोम भी कर्मोंके ही फलसे उन-उन पदोंके भागी हुए हैं ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शतं क्रतूनामाहृत्य देवराट् त्रिदिवं गतः ।
तपांस्युग्राणि चास्थाय दिवं प्राप्ता महर्षयः ॥ २९ ॥
मूलम्
शतं क्रतूनामाहृत्य देवराट् त्रिदिवं गतः ।
तपांस्युग्राणि चास्थाय दिवं प्राप्ता महर्षयः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘देवराज इन्द्र सौ यज्ञोंका अनुष्ठान करके स्वर्गलोकको प्राप्त हुए हैं । महर्षियोंने भी उग्र तपस्या करके दिव्य लोकोंमें स्थान प्राप्त किया है’ ॥ २९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अमृष्यमाणः पुनरुग्रतेजा
निशम्य तन्नास्तिकवाक्यहेतुम् ।
अथाब्रवीत् तं नृपतेस्तनूजो
विगर्हमाणो वचनानि तस्य ॥ ३० ॥
मूलम्
अमृष्यमाणः पुनरुग्रतेजा
निशम्य तन्नास्तिकवाक्यहेतुम् ।
अथाब्रवीत् तं नृपतेस्तनूजो
विगर्हमाणो वचनानि तस्य ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उग्र तेजस्वी राजकुमार श्रीराम परलोककी सत्ताका खण्डन करनेवाले जाबालिके पूर्वोक्त वचनोंको सुनकर उन्हें सहन न कर सकनेके कारण उन वचनोंकी निन्दा करते हुए पुनः उनसे बोले— ॥ ३० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्यं च धर्मं च पराक्रमं च
भूतानुकम्पां प्रियवादितां च ।
द्विजातिदेवातिथिपूजनं च
पन्थानमाहुस्त्रिदिवस्य सन्तः ॥ ३१ ॥
मूलम्
सत्यं च धर्मं च पराक्रमं च
भूतानुकम्पां प्रियवादितां च ।
द्विजातिदेवातिथिपूजनं च
पन्थानमाहुस्त्रिदिवस्य सन्तः ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सत्य, धर्म, पराक्रम, समस्त प्राणियोंपर दया, सबसे प्रिय वचन बोलना तथा देवताओं, अतिथियों और ब्राह्मणोंकी पूजा करना—इन सबको साधु पुरुषोंने स्वर्गलोकका मार्ग बताया है ॥ ३१ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेनैवमाज्ञाय यथावदर्थ-
मेकोदयं सम्प्रतिपद्य विप्राः ।
धर्मं चरन्तः सकलं यथावत्
काङ्क्षन्ति लोकागममप्रमत्ताः ॥ ३२ ॥
मूलम्
तेनैवमाज्ञाय यथावदर्थ-
मेकोदयं सम्प्रतिपद्य विप्राः ।
धर्मं चरन्तः सकलं यथावत्
काङ्क्षन्ति लोकागममप्रमत्ताः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सत्पुरुषोंके इस वचनके अनुसार धर्मका स्वरूप जानकर तथा अनुकूल तर्कसे उसका यथार्थ निर्णय करके एक निश्चयपर पहुँचे हुए सावधान ब्राह्मण भलीभाँति धर्माचरण करते हुए उन-उन उत्तम लोकोंको प्राप्त करना चाहते हैं ॥ ३२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निन्दाम्यहं कर्म कृतं पितुस्तद्
यस्त्वामगृह्णाद् विषमस्थबुद्धिम् ।
बुद्ध्यानयैवंविधया चरन्तं
सुनास्तिकं धर्मपथादपेतम् ॥ ३३ ॥
मूलम्
निन्दाम्यहं कर्म कृतं पितुस्तद्
यस्त्वामगृह्णाद् विषमस्थबुद्धिम् ।
बुद्ध्यानयैवंविधया चरन्तं
सुनास्तिकं धर्मपथादपेतम् ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आपकी बुद्धि विषम-मार्गमें स्थित है—आपने वेद-विरुद्ध मार्गका आश्रय ले रखा है । आप घोर नास्तिक और धर्मके रास्तेसे कोसों दूर हैं । ऐसी पाखण्डमयी बुद्धिके द्वारा अनुचित विचारका प्रचार करनेवाले आपको मेरे पिताजीने जो अपना याजक बना लिया, उनके इस कार्यकी मैं निन्दा करता हूँ ॥ ३३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा हि चोरः स तथा हि बुद्ध-
स्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि ।
तस्माद्धि यः शक्यतमः प्रजानां
स नास्तिके नाभिमुखो बुधः स्यात् ॥ ३४ ॥
मूलम्
यथा हि चोरः स तथा हि बुद्ध-
स्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि ।
तस्माद्धि यः शक्यतमः प्रजानां
स नास्तिके नाभिमुखो बुधः स्यात् ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जैसे चोर दण्डनीय होता है, उसी प्रकार (वेदविरोधी) बुद्ध (बौद्धमतावलम्बी) भी दण्डनीय है । तथागत (नास्तिकविशेष) और नास्तिक (चार्वाक्) को भी यहाँ इसी कोटिमें समझना चाहिये । इसलिये प्रजापर अनुग्रह करनेके लिये राजाद्वारा जिस नास्तिकको दण्ड दिलाया जा सके, उसे तो चोरके समान दण्ड दिलाया ही जाय; परंतु जो वशके बाहर हो, उस नास्तिकके प्रति विद्वान् ब्राह्मण कभी उन्मुख न हो—उससे वार्तालापतक न करे ॥ ३४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वत्तो जनाः पूर्वतरे द्विजाश्च
शुभानि कर्माणि बहूनि चक्रुः ।
छित्त्वा सदेमं च परं च लोकं
तस्माद् द्विजाः स्वस्ति कृतं हुतं च ॥ ३५ ॥
मूलम्
त्वत्तो जनाः पूर्वतरे द्विजाश्च
शुभानि कर्माणि बहूनि चक्रुः ।
छित्त्वा सदेमं च परं च लोकं
तस्माद् द्विजाः स्वस्ति कृतं हुतं च ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आपके सिवा पहलेके श्रेष्ठ ब्राह्मणोंने इहलोक और परलोककी फल-कामनाका परित्याग करके वेदोक्त धर्म समझकर सदा ही बहुत-से शुभकर्मोंका अनुष्ठान किया है । अतः जो भी ब्राह्मण हैं, वे वेदोंको ही प्रमाण मानकर स्वस्ति (अहिंसा और सत्य आदि), कृत (तप, दान और परोपकार आदि) तथा हुत (यज्ञ-याग आदि) कर्मोंका सम्पादन करते हैं ॥ ३५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मे रताः सत्पुरुषैः समेता-
स्तेजस्विनो दानगुणप्रधानाः ।
अहिंसका वीतमलाश्च लोके
भवन्ति पूज्या मुनयः प्रधानाः ॥ ३६ ॥
मूलम्
धर्मे रताः सत्पुरुषैः समेता-
स्तेजस्विनो दानगुणप्रधानाः ।
अहिंसका वीतमलाश्च लोके
भवन्ति पूज्या मुनयः प्रधानाः ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो धर्ममें तत्पर रहते हैं, सत्पुरुषोंका साथ करते हैं, तेजसे सम्पन्न हैं, जिनमें दानरूपी गुणकी प्रधानता है, जो कभी किसी प्राणीकी हिंसा नहीं करते तथा जो मलसंसर्गसे रहित हैं, ऐसे श्रेष्ठ मुनि ही संसारमें पूजनीय होते हैं’ ॥ ३६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति ब्रुवन्तं वचनं सरोषं
रामं महात्मानमदीनसत्त्वम् ।
उवाच पथ्यं पुनरास्तिकं च
सत्यं वचः सानुनयं च विप्रः ॥ ३७ ॥
मूलम्
इति ब्रुवन्तं वचनं सरोषं
रामं महात्मानमदीनसत्त्वम् ।
उवाच पथ्यं पुनरास्तिकं च
सत्यं वचः सानुनयं च विप्रः ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महात्मा श्रीराम स्वभावसे ही दैन्यभावसे रहित थे । उन्होंने जब रोषपूर्वक पूर्वोक्त बात कही, तब ब्राह्मण जाबालिने विनयपूर्वक यह आस्तिकतापूर्ण सत्य एवं हितकर वचन कहा— ॥ ३७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न नास्तिकानां वचनं ब्रवीम्यहं
न नास्तिकोऽहं न च नास्ति किञ्चन ।
समीक्ष्य कालं पुनरास्तिकोऽभवं
भवेय काले पुनरेव नास्तिकः ॥ ३८ ॥
मूलम्
न नास्तिकानां वचनं ब्रवीम्यहं
न नास्तिकोऽहं न च नास्ति किञ्चन ।
समीक्ष्य कालं पुनरास्तिकोऽभवं
भवेय काले पुनरेव नास्तिकः ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘रघुनन्दन! न तो मैं नास्तिक हूँ और न नास्तिकोंकी बात ही करता हूँ । परलोक आदि कुछ भी नहीं है, ऐसा मेरा मत नहीं है । मैं अवसर देखकर फिर आस्तिक हो गया और लौकिक व्यवहारके समय आवश्यकता होनेपर पुनः नास्तिक हो सकता हूँ—नास्तिकोंकी-सी बातें कर सकता हूँ ॥ ३८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स चापि कालोऽयमुपागतः शनै-
र्यथा मया नास्तिकवागुदीरिता ।
निवर्तनार्थं तव राम कारणात्
प्रसादनार्थं च मयैतदीरितम् ॥ ३९ ॥
मूलम्
स चापि कालोऽयमुपागतः शनै-
र्यथा मया नास्तिकवागुदीरिता ।
निवर्तनार्थं तव राम कारणात्
प्रसादनार्थं च मयैतदीरितम् ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस समय ऐसा अवसर आ गया था, जिससे मैंने धीरे-धीरे नास्तिकोंकी-सी बातें कह डालीं । श्रीराम! मैंने जो यह बात कही, इसमें मेरा उद्देश्य यही था कि किसी तरह आपको राजी करके अयोध्या लौटनेके लिये तैयार कर लूँ’ ॥ ३९ ॥
समाप्तिः
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे नवाधिकशततमः सर्गः ॥ १०९ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके अयोध्याकाण्डमें एक सौ नौवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ १०९ ॥