वाचनम्
भागसूचना
- श्रीरामका सीताके प्रति मन्दाकिनी नदीकी शोभाका वर्णन
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ शैलाद् विनिष्क्रम्य मैथिलीं कोसलेश्वरः ।
अदर्शयच्छुभजलां रम्यां मन्दाकिनीं नदीम् ॥ १ ॥
मूलम्
अथ शैलाद् विनिष्क्रम्य मैथिलीं कोसलेश्वरः ।
अदर्शयच्छुभजलां रम्यां मन्दाकिनीं नदीम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर उस पर्वतसे निकलकर कोसलनरेश श्रीरामचन्द्रजी-ने मिथिलेशकुमारी सीताको पुण्यसलिला रमणीय मन्दाकिनी नदीका दर्शन कराया ॥ १ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब्रवीच्च वरारोहां चन्द्रचारुनिभाननाम् ।
विदेहराजस्य सुतां रामो राजीवलोचनः ॥ २ ॥
मूलम्
अब्रवीच्च वरारोहां चन्द्रचारुनिभाननाम् ।
विदेहराजस्य सुतां रामो राजीवलोचनः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
और उस समय कमलनयन श्रीरामने चन्द्रमाके समान मनोहर मुख तथा सुन्दर कटिप्रदेशवाली विदेहराजनन्दिनी सीतासे इस प्रकार कहा— ॥ २ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विचित्रपुलिनां रम्यां हंससारससेविताम् ।
कुसुमैरुपसम्पन्नां पश्य मन्दाकिनीं नदीम् ॥ ३ ॥
मूलम्
विचित्रपुलिनां रम्यां हंससारससेविताम् ।
कुसुमैरुपसम्पन्नां पश्य मन्दाकिनीं नदीम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्रिये! अब मन्दाकिनी नदीकी शोभा देखो, हंस और सारसोंसे सेवित होनेके कारण यह कितनी सुन्दर जान पड़ती है । इसका किनारा बड़ा ही विचित्र है । नाना प्रकारके पुष्प इसकी शोभा बढ़ा रहे हैं ॥ ३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानाविधैस्तीररुहैर्वृतां पुष्पफलद्रुमैः ।
राजन्तीं राजराजस्य नलिनीमिव सर्वतः ॥ ४ ॥
मूलम्
नानाविधैस्तीररुहैर्वृतां पुष्पफलद्रुमैः ।
राजन्तीं राजराजस्य नलिनीमिव सर्वतः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘फल और फूलोंके भारसे लदे हुए नाना प्रकारके तटवर्ती वृक्षोंसे घिरी हुई यह मन्दाकिनी कुबेरके सौगन्धिक सरोवरकी भाँति सब ओरसे सुशोभित हो रही है ॥ ४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृगयूथनिपीतानि कलुषाम्भांसि साम्प्रतम् ।
तीर्थानि रमणीयानि रतिं सञ्जनयन्ति मे ॥ ५ ॥
मूलम्
मृगयूथनिपीतानि कलुषाम्भांसि साम्प्रतम् ।
तीर्थानि रमणीयानि रतिं सञ्जनयन्ति मे ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हरिनोंके झुंड पानी पीकर इस समय यद्यपि यहाँका जल गँदला कर गये हैं तथापि इसके रमणीय घाट मेरे मनको बड़ा आनन्द दे रहे हैं ॥ ५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जटाजिनधराः काले वल्कलोत्तरवाससः ।
ऋषयस्त्ववगाहन्ते नदीं मन्दाकिनीं प्रिये ॥ ६ ॥
मूलम्
जटाजिनधराः काले वल्कलोत्तरवाससः ।
ऋषयस्त्ववगाहन्ते नदीं मन्दाकिनीं प्रिये ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्रिये! वह देखो, जटा, मृगचर्म और वल्कलका उत्तरीय धारण करनेवाले महर्षि उपयुक्त समयमें आकर इस मन्दाकिनी नदीमें स्नान कर रहे हैं ॥ ६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आदित्यमुपतिष्ठन्ते नियमादूर्ध्वबाहवः ।
एते परे विशालाक्षि मुनयः संशितव्रताः ॥ ७ ॥
मूलम्
आदित्यमुपतिष्ठन्ते नियमादूर्ध्वबाहवः ।
एते परे विशालाक्षि मुनयः संशितव्रताः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘विशाललोचने! ये दूसरे मुनि, जो कठोर व्रतका पालन करनेवाले हैं, नैत्यिक नियमके कारण दोनों भुजाएँ ऊपर उठाकर सूर्यदेवका उपस्थान कर रहे हैं ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारुतोद्धूतशिखरैः प्रनृत्त इव पर्वतः ।
पादपैः पुष्पपत्राणि सृजद्भिरभितो नदीम् ॥ ८ ॥
मूलम्
मारुतोद्धूतशिखरैः प्रनृत्त इव पर्वतः ।
पादपैः पुष्पपत्राणि सृजद्भिरभितो नदीम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हवाके झोंकेसे जिनकी शिखाएँ झूम रही हैं, अतएव जो मन्दाकिनी नदीके उभय तटोंपर फूल और पत्ते बिखेर रहे हैं, उन वृक्षोंसे उपलक्षित हुआ यह पर्वत मानो नृत्य-सा करने लगा है ॥ ८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्वचिन्मणिनिकाशोदां क्वचित् पुलिनशालिनीम् ।
क्वचित् सिद्धजनाकीर्णां पश्य मन्दाकिनीं नदीम् ॥ ९ ॥
मूलम्
क्वचिन्मणिनिकाशोदां क्वचित् पुलिनशालिनीम् ।
क्वचित् सिद्धजनाकीर्णां पश्य मन्दाकिनीं नदीम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘देखो! मन्दाकिनी नदीकी कैसी शोभा है; कहीं तो इसमें मोतियोंके समान स्वच्छ जल बहता दिखायी देता है, कहीं यह ऊँचे कगारोंसे ही शोभा पाती है (वहाँका जल कगारोंमें छिप जानेके कारण दिखायी नहीं देता है) और कहीं सिद्धजन इसमें अवगाहन कर रहे हैं तथा यह उनसे व्याप्त दिखायी देती है ॥ ९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्धूतान् वायुना पश्य विततान् पुष्पसञ्चयान् ।
पोप्लूयमानानपरान् पश्य त्वं तनुमध्यमे ॥ १० ॥
मूलम्
निर्धूतान् वायुना पश्य विततान् पुष्पसञ्चयान् ।
पोप्लूयमानानपरान् पश्य त्वं तनुमध्यमे ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सूक्ष्म कटिप्रदेशवाली सुन्दरि! देखो, वायुके द्वारा उड़ाकर लाये हुए ये ढेर-के-ढेर फूल किस तरह मन्दाकिनीके दोनों तटोंपर फैले हुए हैं और वे दूसरे पुष्पसमूह कैसे पानीपर तैर रहे हैं ॥ १० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्यैतद्वल्गुवचसो रथाङ्गाह्वयना द्विजाः ।
अधिरोहन्ति कल्याणि निष्कूजन्तः शुभा गिरः ॥ ११ ॥
मूलम्
पश्यैतद्वल्गुवचसो रथाङ्गाह्वयना द्विजाः ।
अधिरोहन्ति कल्याणि निष्कूजन्तः शुभा गिरः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कल्याणि! देखो तो सही, ये मीठी बोली बोलनेवाले चक्रवाक पक्षी सुन्दर कलरव करते हुए किस तरह नदीके तटोंपर आरूढ़ हो रहे हैं ॥ ११ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दर्शनं चित्रकूटस्य मन्दाकिन्याश्च शोभने ।
अधिकं पुरवासाच्च मन्ये तव च दर्शनात् ॥ १२ ॥
मूलम्
दर्शनं चित्रकूटस्य मन्दाकिन्याश्च शोभने ।
अधिकं पुरवासाच्च मन्ये तव च दर्शनात् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शोभने! यहाँ जो प्रतिदिन चित्रकूट और मन्दाकिनीका दर्शन होता है, वह नित्य-निरन्तर तुम्हारा दर्शन होनेके कारण अयोध्यानिवासकी अपेक्षा भी अधिक सुखदजान पड़ता है ॥ १२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विधूतकल्मषैः सिद्धैस्तपोदमशमान्वितैः ।
नित्यविक्षोभितजलां विगाहस्व मया सह ॥ १३ ॥
मूलम्
विधूतकल्मषैः सिद्धैस्तपोदमशमान्वितैः ।
नित्यविक्षोभितजलां विगाहस्व मया सह ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस नदीमें प्रतिदिन तपस्या, इन्द्रियसंयम और मनोनिग्रहसे सम्पन्न निष्पाप सिद्ध महात्माओंके अवगाहन करनेसे इसका जल विक्षुब्ध होता रहता है । चलो, तुम भी मेरे साथ इसमें स्नान करो ॥ १३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सखीवच्च विगाहस्व सीते मन्दाकिनीं नदीम् ।
कमलान्यवमज्जन्ती पुष्कराणि च भामिनि ॥ १४ ॥
मूलम्
सखीवच्च विगाहस्व सीते मन्दाकिनीं नदीम् ।
कमलान्यवमज्जन्ती पुष्कराणि च भामिनि ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भामिनि सीते! एक सखी दूसरी सखीके साथ जैसे क्रीड़ा करती है, उसी प्रकार तुम मन्दाकिनी नदीमें उतरकर इसके लाल और श्वेत कमलोंको जलमें डुबोती हुई इसमें स्नान-क्रीड़ा करो ॥ १४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं पौरजनवद् व्यालानयोध्यामिव पर्वतम् ।
मन्यस्व वनिते नित्यं सरयूवदिमां नदीम् ॥ १५ ॥
मूलम्
त्वं पौरजनवद् व्यालानयोध्यामिव पर्वतम् ।
मन्यस्व वनिते नित्यं सरयूवदिमां नदीम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्रिये! तुम इस वनके निवासियोंको पुरवासी मनुष्योंके समान समझो, चित्रकूट पर्वतको अयोध्याके तुल्य मानो और इस मन्दाकिनी नदीको सरयूके सदृश जानो ॥ १५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लक्ष्मणश्चैव धर्मात्मा मन्निदेशे व्यवस्थितः ।
त्वं चानुकूला वैदेहि प्रीतिं जनयती मम ॥ १६ ॥
मूलम्
लक्ष्मणश्चैव धर्मात्मा मन्निदेशे व्यवस्थितः ।
त्वं चानुकूला वैदेहि प्रीतिं जनयती मम ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘विदेहनन्दिनि! धर्मात्मा लक्ष्मण सदा मेरी आज्ञाके अधीन रहते हैं और तुम भी मेरे मनके अनुकूल ही चलती हो; इससे मुझे बड़ी प्रसन्नता होती है ॥ १६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपस्पृशंस्त्रिषवणं मधुमूलफलाशनः ।
नायोध्यायै न राज्याय स्पृहये च त्वया सह ॥ १७ ॥
मूलम्
उपस्पृशंस्त्रिषवणं मधुमूलफलाशनः ।
नायोध्यायै न राज्याय स्पृहये च त्वया सह ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्रिये! तुम्हारे साथ तीनों काल स्नान करके मधुर फल-मूलका आहार करता हुआ मैं न तो अयोध्या जानेकी इच्छा रखता हूँ और न राज्य पानेकी ही ॥ १७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इमां हि रम्यां गजयूथलोडितां
निपीततोयां गजसिंहवानरैः ।
सुपुष्पितां पुष्पभरैरलङ्कृतां
न सोऽस्ति यः स्यान्न गतक्लमः सुखी ॥ १८ ॥
मूलम्
इमां हि रम्यां गजयूथलोडितां
निपीततोयां गजसिंहवानरैः ।
सुपुष्पितां पुष्पभरैरलङ्कृतां
न सोऽस्ति यः स्यान्न गतक्लमः सुखी ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिसे हाथियोंके समूह मथे डालते हैं तथा सिंह और वानर जिसका जल पिया करते हैं, जिसके तटपर सुन्दर पुष्पोंसे लदे वृक्ष शोभा पाते हैं तथा जो पुष्पसमूहोंसे अलंकृत है, ऐसी इस रमणीय मन्दाकिनी नदीमें स्नान करके जो ग्लानिरहित और सुखी न हो जाय—ऐसा मनुष्य इस संसारमें नहीं है’ ॥ १८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इतीव रामो बहुसङ्गतं वचः
प्रियासहायः सरितं प्रति ब्रुवन् ।
चचार रम्यं नयनाञ्जनप्रभं
स चित्रकूटं रघुवंशवर्धनः ॥ १९ ॥
मूलम्
इतीव रामो बहुसङ्गतं वचः
प्रियासहायः सरितं प्रति ब्रुवन् ।
चचार रम्यं नयनाञ्जनप्रभं
स चित्रकूटं रघुवंशवर्धनः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रघुवंशकी वृद्धि करनेवाले श्रीरामचन्द्रजी मन्दाकिनी नदीके प्रति ऐसी अनेक प्रकारकी सुसंगत बातें कहते हुए नील-कान्तिवाले रमणीय चित्रकूट पर्वतपर अपनी प्रिया पत्नी सीताके साथ विचरने लगे ॥ १९ ॥
समाप्तिः
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे पञ्चनवतितमः सर्गः ॥ ९५ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके अयोध्याकाण्डमें पंचानबेवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ९५ ॥