०९४ चित्रकूटे सीतारामसंवादः

वाचनम्
भागसूचना
  1. श्रीरामका सीताको चित्रकूटकी शोभा दिखाना
विश्वास-प्रस्तुतिः

दीर्घकालोषितस्तस्मिन् गिरौ गिरिवरप्रियः ।
वैदेह्याः प्रियमाकाङ्क्षन् स्वं च चित्तं विलोभयन् ॥ १ ॥
अथ दाशरथिश्चित्रं चित्रकूटमदर्शयत् ।
भार्याममरसङ्काशः शचीमिव पुरन्दरः ॥ २ ॥

मूलम्

दीर्घकालोषितस्तस्मिन् गिरौ गिरिवरप्रियः ।
वैदेह्याः प्रियमाकाङ्क्षन् स्वं च चित्तं विलोभयन् ॥ १ ॥
अथ दाशरथिश्चित्रं चित्रकूटमदर्शयत् ।
भार्याममरसङ्काशः शचीमिव पुरन्दरः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गिरिवर चित्रकूट श्रीरामको बहुत ही प्रिय लगता था । वे उस पर्वतपर बहुत दिनोंसे रह रहे थे । एक दिन अमरतुल्य तेजस्वी दशरथनन्दन श्रीराम विदेहराजकुमारी सीताका प्रिय करनेकी इच्छासे तथा अपने मनको भी बहलानेके लिये अपनी भार्याको विचित्र चित्रकूटकी शोभाका दर्शन कराने लगे, मानो देवराज इन्द्र अपनी पत्नी शचीको पर्वतीय सुषमाका दर्शन करा रहे हों ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न राज्यभ्रंशनं भद्रे न सुहृद्भिर्विनाभवः ।
मनो मे बाधते दृष्ट्वा रमणीयमिमं गिरिम् ॥ ३ ॥

मूलम्

न राज्यभ्रंशनं भद्रे न सुहृद्भिर्विनाभवः ।
मनो मे बाधते दृष्ट्वा रमणीयमिमं गिरिम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(वे बोले—) ‘भद्रे! यद्यपि मैं राज्यसे भ्रष्ट हो गया हूँ तथा मुझे अपने हितैषी सुहृदोंसे विलग होकर रहना पड़ता है, तथापि जब मैं इस रमणीय पर्वतकी ओर देखता हूँ, तब मेरा सारा दुःख दूर हो जाता है—राज्यका न मिलना और सुहृदोंका विछोह होना भी मेरे मनको व्यथित नहीं कर पाता है ॥ ३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पश्येममचलं भद्रे नानाद्विजगणायुतम् ।
शिखरैः खमिवोद्विद्धैर्धातुमद्भिर्विभूषितम् ॥ ४ ॥

मूलम्

पश्येममचलं भद्रे नानाद्विजगणायुतम् ।
शिखरैः खमिवोद्विद्धैर्धातुमद्भिर्विभूषितम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कल्याणि! इस पर्वतपर दृष्टिपात तो करो, नाना प्रकारके असंख्य पक्षी यहाँ कलरव कर रहे हैं । नाना प्रकारके धातुओंसे मण्डित इसके गगन-चुम्बी शिखर मानो आकाशको बेध रहे हैं । इन शिखरोंसे विभूषित हुआ यह चित्रकूट कैसी शोभा पा रहा है! ॥ ४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

केचिद् रजतसङ्काशाः केचित् क्षतजसन्निभाः ।
पीतमाञ्जिष्ठवर्णाश्च केचिन्मणिवरप्रभाः ॥ ५ ॥
पुष्पार्ककेतकाभाश्च केचिज्ज्योतीरसप्रभाः ।
विराजन्तेऽचलेन्द्रस्य देशा धातुविभूषिताः ॥ ६ ॥

मूलम्

केचिद् रजतसङ्काशाः केचित् क्षतजसन्निभाः ।
पीतमाञ्जिष्ठवर्णाश्च केचिन्मणिवरप्रभाः ॥ ५ ॥
पुष्पार्ककेतकाभाश्च केचिज्ज्योतीरसप्रभाः ।
विराजन्तेऽचलेन्द्रस्य देशा धातुविभूषिताः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘विभिन्न धातुओंसे अलंकृत अचलराज चित्रकूटके प्रदेश कितने सुन्दर लगते हैं! इनमेंसे कोई तो चाँदीके समान चमक रहे हैं । कोई लोहूकी लाल आभाका विस्तार करते हैं । किन्हीं प्रदेशोंके रंग पीले और मंजिष्ठ वर्णके हैं । कोई श्रेष्ठ मणियोंके समान उद्भासित होते हैं । कोई पुखराजके समान, कोई स्फटिकके सदृश और कोई केवड़ेके फूलके समान कान्तिवाले हैं तथा कुछ प्रदेश नक्षत्रों और पारेके समान प्रकाशित होते हैं ॥ ५-६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानामृगगणैर्द्वीपितरक्ष्वृक्षगणैर्वृतः ।
अदुष्टैर्भात्ययं शैलो बहुपक्षिसमाकुलः ॥ ७ ॥

मूलम्

नानामृगगणैर्द्वीपितरक्ष्वृक्षगणैर्वृतः ।
अदुष्टैर्भात्ययं शैलो बहुपक्षिसमाकुलः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यह पर्वत बहुसंख्यक पक्षियोंसे व्याप्त है तथा नाना प्रकारके मृगों, बड़े-बड़े व्याघ्रों, चीतों और रीछोंसे भरा हुआ है । वे व्याघ्र आदि हिंसक जन्तु अपने दुष्टभावका परित्याग करके यहाँ रहते हैं और इस पर्वतकी शोभा बढ़ाते हैं ॥ ७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आम्रजम्ब्वसनैर्लोध्रैः प्रियालैः पनसैर्धवैः ।
अङ्कोलैर्भव्यतिनिशैर्बिल्वतिन्दुकवेणुभिः ॥ ८ ॥
काश्मर्यारिष्टवरणैर्मधूकैस्तिलकैरपि ।
बदर्यामलकैर्नीपैर्वेत्रधन्वनबीजकैः ॥ ९ ॥
पुष्पवद्भिः फलोपेतैश्छायावद्भिर्मनोरमैः ।
एवमादिभिराकीर्णः श्रियं पुष्यत्ययं गिरिः ॥ १० ॥

मूलम्

आम्रजम्ब्वसनैर्लोध्रैः प्रियालैः पनसैर्धवैः ।
अङ्कोलैर्भव्यतिनिशैर्बिल्वतिन्दुकवेणुभिः ॥ ८ ॥
काश्मर्यारिष्टवरणैर्मधूकैस्तिलकैरपि ।
बदर्यामलकैर्नीपैर्वेत्रधन्वनबीजकैः ॥ ९ ॥
पुष्पवद्भिः फलोपेतैश्छायावद्भिर्मनोरमैः ।
एवमादिभिराकीर्णः श्रियं पुष्यत्ययं गिरिः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आम, जामुन, असन, लोध, प्रियाल, कटहल, धव, अंकोल, भव्य, तिनिश, बेल, तिन्दुक, बाँस, काश्मरी (मधुपर्णिका), अरिष्ट (नीम), वरण, महुआ, तिलक, बेर, आँवला, कदम्ब, बेत, धन्वन (इन्द्रजौ), बीजक (अनार) आदि घनी छायावाले वृक्षोंसे, जो फूलों और फलोंसे लदे होनेके कारण मनोरम प्रतीत होते थे, व्याप्त हुआ यह पर्वत अनुपम शोभाका पोषण एवं विस्तार कर रहा है ॥ ८—१० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शैलप्रस्थेषु रम्येषु पश्येमान् कामहर्षणान् ।
किन्नरान् द्वन्द्वशो भद्रे रममाणान् मनस्विनः ॥ ११ ॥

मूलम्

शैलप्रस्थेषु रम्येषु पश्येमान् कामहर्षणान् ।
किन्नरान् द्वन्द्वशो भद्रे रममाणान् मनस्विनः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इन रमणीय शैलशिखरोंपर उन प्रदेशोंको देखो, जो प्रेम-मिलनकी भावनाका उद्दीपन करके आन्तरिक हर्षको बढ़ानेवाले हैं । वहाँ मनस्वी किन्नर दो-दो एक साथ होकर टहल रहे हैं ॥ ११ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शाखावसक्तान् खड्गांश्च प्रवराण्यम्बराणि च ।
पश्य विद्याधरस्त्रीणां क्रीडोद्देशान् मनोरमान् ॥ १२ ॥

मूलम्

शाखावसक्तान् खड्गांश्च प्रवराण्यम्बराणि च ।
पश्य विद्याधरस्त्रीणां क्रीडोद्देशान् मनोरमान् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इन किन्नरोंके खड्ग पेड़ोंकी डालियोंमें लटक रहे हैं । इधर विद्याधरोंकी स्त्रियोंके मनोरम क्रीड़ास्थलों तथा वृक्षोंकी शाखाओंपर रखे हुए उनके सुन्दर वस्त्रोंकी ओर भी देखो ॥ १२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जलप्रपातैरुद्भेदैर्निष्पन्दैश्च क्वचित् क्वचित् ।
स्रवद्भिर्भात्ययं शैलः स्रवन्मद इव द्विपः ॥ १३ ॥

मूलम्

जलप्रपातैरुद्भेदैर्निष्पन्दैश्च क्वचित् क्वचित् ।
स्रवद्भिर्भात्ययं शैलः स्रवन्मद इव द्विपः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसके ऊपर कहीं ऊँचेसे झरने गिर रहे हैं, कहीं जमीनके भीतरसे सोते निकले हैं और कहीं-कहीं छोटे-छोटे स्रोत प्रवाहित हो रहे हैं । इन सबके द्वारा यह पर्वत मदकी धारा बहानेवाले हाथीके समान शोभा पाता है ॥ १३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुहासमीरणो गन्धान् नानापुष्पभवान् बहून् ।
घ्राणतर्पणमभ्येत्य कं नरं न प्रहर्षयेत् ॥ १४ ॥

मूलम्

गुहासमीरणो गन्धान् नानापुष्पभवान् बहून् ।
घ्राणतर्पणमभ्येत्य कं नरं न प्रहर्षयेत् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘गुफाओंसे निकली हुई वायु नाना प्रकारके पुष्पोंकी प्रचुर गन्ध लेकर नासिकाको तृप्त करती हुई किस पुरुषके पास आकर उसका हर्ष नहीं बढ़ा रही है ॥ १४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदीह शरदोऽनेकास्त्वया सार्धमनिन्दिते ।
लक्ष्मणेन च वत्स्यामि न मां शोकः प्रधर्षति ॥ १५ ॥

मूलम्

यदीह शरदोऽनेकास्त्वया सार्धमनिन्दिते ।
लक्ष्मणेन च वत्स्यामि न मां शोकः प्रधर्षति ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सती-साध्वी सीते! यदि तुम्हारे और लक्ष्मणके साथ मैं यहाँ अनेक वर्षोंतक रहूँ तो भी नगरत्यागका शोक मुझे कदापि पीड़ित नहीं करेगा ॥ १५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहुपुष्पफले रम्ये नानाद्विजगणायुते ।
विचित्रशिखरे ह्यस्मिन् रतवानस्मि भामिनि ॥ १६ ॥

मूलम्

बहुपुष्पफले रम्ये नानाद्विजगणायुते ।
विचित्रशिखरे ह्यस्मिन् रतवानस्मि भामिनि ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भामिनि! बहुतेरे फूलों और फलोंसे युक्त तथा नाना प्रकारके पक्षियोंसे सेवित इस विचित्र शिखरवाले रमणीय पर्वतपर मेरा मन बहुत लगता है ॥ १६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनेन वनवासेन मम प्राप्तं फलद्वयम् ।
पितुश्चानृण्यता धर्मे भरतस्य प्रियं तथा ॥ १७ ॥

मूलम्

अनेन वनवासेन मम प्राप्तं फलद्वयम् ।
पितुश्चानृण्यता धर्मे भरतस्य प्रियं तथा ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्रिये! इस वनवाससे मुझे दो फल प्राप्त हुए हैं—दो लाभ हुए हैं—एक तो धर्मानुसार पिताकी आज्ञाका पालनरूप ऋण चुक गया और दूसरा भाई भरतका प्रिय हुआ ॥ १७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वैदेहि रमसे कच्चिच्चित्रकूटे मया सह ।
पश्यन्ती विविधान् भावान् मनोवाक्कायसम्मतान् ॥ १८ ॥

मूलम्

वैदेहि रमसे कच्चिच्चित्रकूटे मया सह ।
पश्यन्ती विविधान् भावान् मनोवाक्कायसम्मतान् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘विदेहकुमारी! क्या चित्रकूट पर्वतपर मेरे साथ मन, वाणी और शरीरको प्रिय लगनेवाले भाँति-भाँतिके पदार्थोंको देखकर तुम्हें आनन्द प्राप्त होता है? ॥ १८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदमेवामृतं प्राहू राज्ञि राजर्षयः परे ।
वनवासं भवार्थाय प्रेत्य मे प्रपितामहाः ॥ १९ ॥

मूलम्

इदमेवामृतं प्राहू राज्ञि राजर्षयः परे ।
वनवासं भवार्थाय प्रेत्य मे प्रपितामहाः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘रानी! मेरे प्रपितामह मनु आदि उत्कृष्ट राजर्षियोंने नियमपूर्वक किये गये इन वनवासको ही अमृत बतलाया है; इससे शरीरत्यागके पश्चात् परम कल्याणकी प्राप्ति होती है ॥ १९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शिलाः शैलस्य शोभन्ते विशालाः शतशोऽभितः ।
बहुला बहुलैर्वर्णैर्नीलपीतसितारुणैः ॥ २० ॥

मूलम्

शिलाः शैलस्य शोभन्ते विशालाः शतशोऽभितः ।
बहुला बहुलैर्वर्णैर्नीलपीतसितारुणैः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘चारों ओर इस पर्वतकी सैकड़ों विशाल शिलाएँ शोभा पा रही हैं, जो नीले, पीले, सफेद और लाल आदि विविध रंगोंसे अनेक प्रकारकी दिखायी देती हैं ॥ २० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निशि भान्त्यचलेन्द्रस्य हुताशनशिखा इव ।
ओषध्यः स्वप्रभालक्ष्म्या भ्राजमानाः सहस्रशः ॥ २१ ॥

मूलम्

निशि भान्त्यचलेन्द्रस्य हुताशनशिखा इव ।
ओषध्यः स्वप्रभालक्ष्म्या भ्राजमानाः सहस्रशः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘रातमें इस पर्वतराजके ऊपर लगी हुई सहस्रों ओषधियाँ अपनी प्रभासम्पत्तिसे प्रकाशित होती हुई अग्निशिखाके समान उद्भासित होती हैं ॥ २१ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

केचित् क्षयनिभा देशाः केचिदुद्यानसन्निभाः ।
केचिदेकशिला भान्ति पर्वतस्यास्य भामिनि ॥ २२ ॥

मूलम्

केचित् क्षयनिभा देशाः केचिदुद्यानसन्निभाः ।
केचिदेकशिला भान्ति पर्वतस्यास्य भामिनि ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भामिनि! इस पर्वतके कई स्थान घरकी भाँति दिखायी देते हैं (क्योंकि वे वृक्षोंकी घनी छायासे आच्छादित हैं) और कई स्थान चम्पा, मालती आदि फूलोंकी अधिकताके कारण उद्यानके समान सुशोभित होते हैं तथा कितने ही स्थान ऐसे हैं जहाँ बहुत दूरतक एक ही शिला फैली हुई है । इन सबकी बड़ी शोभा होती है ॥ २२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भित्त्वेव वसुधां भाति चित्रकूटः समुत्थितः ।
चित्रकूटस्य कूटोऽयं दृश्यते सर्वतः शुभः ॥ २३ ॥

मूलम्

भित्त्वेव वसुधां भाति चित्रकूटः समुत्थितः ।
चित्रकूटस्य कूटोऽयं दृश्यते सर्वतः शुभः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ऐसा जान पड़ता है कि यह चित्रकूट पर्वत पृथ्वीको फाड़कर ऊपर उठ आया है । चित्रकूटका यह शिखर सब ओरसे सुन्दर दिखायी देता है ॥ २३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुष्ठस्थगरपुन्नागभूर्जपत्रोत्तरच्छदान् ।
कामिनां स्वास्तरान् पश्य कुशेशयदलायुतान् ॥ २४ ॥

मूलम्

कुष्ठस्थगरपुन्नागभूर्जपत्रोत्तरच्छदान् ।
कामिनां स्वास्तरान् पश्य कुशेशयदलायुतान् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्रिये! देखो, ये विलासियोंके बिस्तर हैं, जिनपर उत्पल, पुत्रजीवक, पुन्नाग और भोजपत्र—इनके पत्ते ही चादरका काम देते हैं तथा इनके ऊपर सब ओरसे कमलोंके पत्ते बिछे हुए हैं ॥ २४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मृदिताश्चापविद्धाश्च दृश्यन्ते कमलस्रजः ।
कामिभिर्वनिते पश्य फलानि विविधानि च ॥ २५ ॥

मूलम्

मृदिताश्चापविद्धाश्च दृश्यन्ते कमलस्रजः ।
कामिभिर्वनिते पश्य फलानि विविधानि च ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्रियतमे! ये कमलोंकी मालाएँ दिखायी देती हैं, जो विलासियोंद्वारा मसलकर फेंक दी गयी हैं । उधर देखो, वृक्षोंमें नाना प्रकारके फल लगे हुए हैं ॥ २५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वस्वौकसारां नलिनीमतीत्यैवोत्तरान् कुरून् ।
पर्वतश्चित्रकूटोऽसौ बहुमूलफलोदकः ॥ २६ ॥

मूलम्

वस्वौकसारां नलिनीमतीत्यैवोत्तरान् कुरून् ।
पर्वतश्चित्रकूटोऽसौ बहुमूलफलोदकः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बहुत-से फल, मूल और जलसे सम्पन्न यह चित्रकूट पर्वत कुबेर-नगरी वस्वौकसारा (अलका), इन्द्रपुरी नलिनी (अमरावती अथवा नलिनी नामसे प्रसिद्ध कुबेरकी सौगन्धिक कमलोंसे युक्त पुष्करिणी) तथा उत्तर कुरुको भी अपनी शोभासे तिरस्कृत कर रहा है ॥ २६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमं तु कालं वनिते विजह्रिवां-
स्त्वया च सीते सह लक्ष्मणेन ।
रतिं प्रपत्स्ये कुलधर्मवर्धिनीं
सतां पथि स्वैर्नियमैः परैः स्थितः ॥ २७ ॥

मूलम्

इमं तु कालं वनिते विजह्रिवां-
स्त्वया च सीते सह लक्ष्मणेन ।
रतिं प्रपत्स्ये कुलधर्मवर्धिनीं
सतां पथि स्वैर्नियमैः परैः स्थितः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्राणवल्लभे सीते! अपने उत्तम नियमोंको पालन करते हुए सन्मार्गपर स्थित रहकर यदि तुम्हारे और लक्ष्मणके साथ यह चौदह वर्षोंका समय मैं सानन्द व्यतीत कर लूँगा तो मुझे वह सुख प्राप्त होगा जो कुलधर्मको बढ़ानेवाला है’ ॥ २७ ॥

समाप्तिः

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे चतुर्नवतितमः सर्गः ॥ ९४ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके अयोध्याकाण्डमें चौरानबेवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ९४ ॥