०९२ भरतप्रस्थानम्

वाचनम्
भागसूचना
  1. भरतका भरद्वाज मुनिसे जानेकी आज्ञा लेते हुए श्रीरामके आश्रमपर जानेका मार्ग जानना और मुनिको अपनी माताओंका परिचय देकर वहाँसे चित्रकूटके लिये सेनासहित प्रस्थान करना
विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तां रजनीं व्युष्य भरतः सपरिच्छदः ।
कृतातिथ्यो भरद्वाजं कामादभिजगाम ह ॥ १ ॥

मूलम्

ततस्तां रजनीं व्युष्य भरतः सपरिच्छदः ।
कृतातिथ्यो भरद्वाजं कामादभिजगाम ह ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परिवारसहित भरत इच्छानुसार मुनिका आतिथ्य ग्रहण करके रातभर आश्रममें ही रहे । फिर सबेरे जानेकी आज्ञा लेनेके लिये वे महर्षि भरद्वाजके पास गये ॥ १ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमृषिः पुरुषव्याघ्रं प्रेक्ष्य प्राञ्जलिमागतम् ।
हुताग्निहोत्रो भरतं भरद्वाजोऽभ्यभाषत ॥ २ ॥

मूलम्

तमृषिः पुरुषव्याघ्रं प्रेक्ष्य प्राञ्जलिमागतम् ।
हुताग्निहोत्रो भरतं भरद्वाजोऽभ्यभाषत ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषसिंह भरतको हाथ जोड़े अपने पास आया देख भरद्वाजजी अग्निहोत्रका कार्य करके उनसे बोले— ॥ २ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कच्चिदत्र सुखा रात्रिस्तवास्मद्विषये गता ।
समग्रस्ते जनः कच्चिदातिथ्ये शंस मेऽनघ ॥ ३ ॥

मूलम्

कच्चिदत्र सुखा रात्रिस्तवास्मद्विषये गता ।
समग्रस्ते जनः कच्चिदातिथ्ये शंस मेऽनघ ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘निष्पाप भरत! क्या हमारे इस आश्रममें तुम्हारी यह रात सुखसे बीती है? क्या तुम्हारे साथ आये हुए सब लोग इस आतिथ्यसे संतुष्ट हुए हैं? यह बताओ’ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमुवाचाञ्जलिं कृत्वा भरतोऽभिप्रणम्य च ।
आश्रमादुपनिष्क्रान्तमृषिमुत्तमतेजसम् ॥ ४ ॥

मूलम्

तमुवाचाञ्जलिं कृत्वा भरतोऽभिप्रणम्य च ।
आश्रमादुपनिष्क्रान्तमृषिमुत्तमतेजसम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब भरतने आश्रमसे बाहर निकले हुए उन उत्तम तेजस्वी महर्षिको प्रणाम करके उनसे हाथ जोड़कर कहा— ॥ ४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुखोषितोऽस्मि भगवन् समग्रबलवाहनः ।
बलवत्तर्पितश्चाहं बलवान् भगवंस्त्वया ॥ ५ ॥

मूलम्

सुखोषितोऽस्मि भगवन् समग्रबलवाहनः ।
बलवत्तर्पितश्चाहं बलवान् भगवंस्त्वया ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भगवन्! मैं सम्पूर्ण सेना और सवारीके साथ यहाँ सुखपूर्वक रहा हूँ तथा सैनिकोंसहित मुझे पूर्णरूपसे तृप्त किया गया है ॥ ५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपेतक्लमसन्तापाः सुभिक्षाः सुप्रतिश्रयाः ।
अपि प्रेष्यानुपादाय सर्वे स्म सुसुखोषिताः ॥ ६ ॥

मूलम्

अपेतक्लमसन्तापाः सुभिक्षाः सुप्रतिश्रयाः ।
अपि प्रेष्यानुपादाय सर्वे स्म सुसुखोषिताः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सेवकोंसहित हम सब लोग ग्लानि और संतापसे रहित हो उत्तम अन्न-पान ग्रहण करके सुन्दर गृहोंका आश्रय ले बड़े सुखसे यहाँ रातभर रहे हैं ॥ ६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आमन्त्रयेऽहं भगवन् कामं त्वामृषिसत्तम ।
समीपं प्रस्थितं भ्रातुर्मैत्रेणेक्षस्व चक्षुषा ॥ ७ ॥

मूलम्

आमन्त्रयेऽहं भगवन् कामं त्वामृषिसत्तम ।
समीपं प्रस्थितं भ्रातुर्मैत्रेणेक्षस्व चक्षुषा ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भगवन्! मुनिश्रेष्ठ! अब मैं अपनी इच्छाके अनुसार आपसे आज्ञा लेने आया हूँ और अपने भाईके समीप प्रस्थान कर रहा हूँ; आप मुझे स्नेहपूर्ण दृष्टिसे देखिये ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आश्रमं तस्य धर्मज्ञ धार्मिकस्य महात्मनः ।
आचक्ष्व कतमो मार्गः कियानिति च शंस मे ॥ ८ ॥

मूलम्

आश्रमं तस्य धर्मज्ञ धार्मिकस्य महात्मनः ।
आचक्ष्व कतमो मार्गः कियानिति च शंस मे ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘धर्मज्ञ मुनीश्वर! बताइये, धर्मपरायण महात्मा श्रीरामका आश्रम कहाँ है? कितनी दूर है? और वहाँ पहुँचनेके लिये कौन-सा मार्ग है? इसका भी मुझसे स्पष्टरूपसे वर्णन कीजिये’ ॥ ८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति पृष्टस्तु भरतं भ्रातुर्दर्शनलालसम् ।
प्रत्युवाच महातेजा भरद्वाजो महातपाः ॥ ९ ॥

मूलम्

इति पृष्टस्तु भरतं भ्रातुर्दर्शनलालसम् ।
प्रत्युवाच महातेजा भरद्वाजो महातपाः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार पूछे जानेपर महातपस्वी, महातेजस्वी भरद्वाज मुनिने भाईके दर्शनकी लालसावाले भरतको इस प्रकार उत्तर दिया— ॥ ९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भरतार्धतृतीयेषु योजनेष्वजने वने ।
चित्रकूटगिरिस्तत्र रम्यनिर्झरकाननः ॥ १० ॥

मूलम्

भरतार्धतृतीयेषु योजनेष्वजने वने ।
चित्रकूटगिरिस्तत्र रम्यनिर्झरकाननः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरत! यहाँसे ढाई योजन (दस कोस)* की दूरीपर एक निर्जन वनमें चित्रकूट नामक पर्वत है, जहाँके झरने और वन बड़े ही रमणीय हैं (प्रयागसे चित्रकूटकी आधुनिक दूरी लगभग २८ कोस है) ॥ १० ॥

पादटिप्पनी
  • सर्ग ५४ के श्लोक २८ में मूल ग्रन्थमें दस कोसकी दूरी लिखी है और यहाँ ढाई योजन । दोनों स्थलोंमें दस कोसका ही संकेत है । रामायणशिरोमणि नामक व्याख्यामें दोनों जगह कपि-जलाधिकरणन्यायसे अथवा एकशेषके द्वारा यह दूरी तिगुनी करके दिखायी गयी है । प्रयागसे चित्रकूटकी दूरी लगभग २८ कोसकी मानी जाती है । रामायणशिरोमणिकारकी मान्यताके अनुसार ३० कोसकी दूरीमें और इस दूरीमें अधिक अन्तर नहीं है । मीलका माप पुराने क्रोश-मानकी अपेक्षा छोटा है, इसलिये ८० मीलकी यह दूरी मानी जाती है ।
विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्तरं पार्श्वमासाद्य तस्य मन्दाकिनी नदी ।
पुष्पितद्रुमसञ्छन्ना रम्यपुष्पितकानना ॥ ११ ॥
अनन्तरं तत्सरितश्चित्रकूटं च पर्वतम् ।
तयोः पर्णकुटीं तात तत्र तौ वसतो ध्रुवम् ॥ १२ ॥

मूलम्

उत्तरं पार्श्वमासाद्य तस्य मन्दाकिनी नदी ।
पुष्पितद्रुमसञ्छन्ना रम्यपुष्पितकानना ॥ ११ ॥
अनन्तरं तत्सरितश्चित्रकूटं च पर्वतम् ।
तयोः पर्णकुटीं तात तत्र तौ वसतो ध्रुवम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उसके उत्तरी किनारेसे मन्दाकिनी नदी बहती है, जो फूलोंसे लदे सघन वृक्षोंसे आच्छादित रहती है, उसके आस-पासका वन बड़ा ही रमणीय और नाना प्रकारके पुष्पोंसे सुशोभित है । उस नदीके उस पार चित्रकूट पर्वत है । तात! वहाँ पहुँचकर तुम नदी और पर्वतके बीचमें श्रीरामकी पर्णकुटी देखोगे । वे दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण निश्चय ही उसीमें निवास करते हैं ॥ ११-१२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दक्षिणेन च मार्गेण सव्यदक्षिणमेव च ।
गजवाजिसमाकीर्णां वाहिनीं वाहिनीपते ॥ १३ ॥
वाहयस्व महाभाग ततो द्रक्ष्यसि राघवम् ।

मूलम्

दक्षिणेन च मार्गेण सव्यदक्षिणमेव च ।
गजवाजिसमाकीर्णां वाहिनीं वाहिनीपते ॥ १३ ॥
वाहयस्व महाभाग ततो द्रक्ष्यसि राघवम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘सेनापते! तुम यहाँसे हाथी-घोड़ोंसे भरी हुई अपनी सेना लेकर पहले यमुनाके दक्षिणी किनारेसे जो मार्ग गया है, उससे जाओ । आगे जाकर दो रास्ते मिलेंगे, उनमेंसे जो रास्ता बायें दाबकर दक्षिण दिशाकी ओर गया है, उसीसे सेनाको ले जाना । महाभाग! उस मार्गसे चलकर तुम शीघ्र ही श्रीरामचन्द्रजीका दर्शन पा जाओगे’ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रयाणमिति च श्रुत्वा राजराजस्य योषितः ॥ १४ ॥
हित्वा यानानि यानार्हा ब्राह्मणं पर्यवारयन् ।

मूलम्

प्रयाणमिति च श्रुत्वा राजराजस्य योषितः ॥ १४ ॥
हित्वा यानानि यानार्हा ब्राह्मणं पर्यवारयन् ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘अब यहाँसे प्रस्थान करना है’—यह सुनकर महाराज दशरथकी स्त्रियाँ, जो सवारीपर ही रहने योग्य थीं, सवारियोंको छोड़कर ब्रह्मर्षि भरद्वाजको प्रणाम करनेके लिये उन्हें चारों ओरसे घेरकर खड़ी हो गयीं ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेपमाना कृशा दीना
सह देव्या सुमित्रया ॥ १५ ॥
कौसल्या तत्र जग्राह
कराभ्यां चरणौ मुनेः ।

मूलम्

वेपमाना कृशा दीना सह देव्या सुमित्रया ॥ १५ ॥
कौसल्या तत्र जग्राह कराभ्यां चरणौ मुनेः ।

अनुवाद (हिन्दी)

उपवासके कारण अत्यन्त दुर्बल एवं दीन हुई देवी कौसल्याने, जो काँप रही थीं, सुमित्रा देवीके साथ अपने दोनों हाथोंसे भरद्वाज मुनिके पैर पकड़ लिये ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अ-समृद्धेन कामेन
सर्व-लोकस्य गर्हिता ॥ १६ ॥
कैकेयी तत्र जग्राह
चरणौ स-व्यपत्रपा ।
तं प्रदक्षिणम् आगम्य
भगवन्तं महामुनिम् ॥ १७ ॥
अदूराद् भरतस्यैव
तस्थौ दीनमनास्तदा ।

मूलम्

असमृद्धेन कामेन सर्वलोकस्य गर्हिता ॥ १६ ॥
कैकेयी तत्र जग्राह चरणौ सव्यपत्रपा ।
तं प्रदक्षिणमागम्य भगवन्तं महामुनिम् ॥ १७ ॥
अदूराद् भरतस्यैव तस्थौ दीनमनास्तदा ।

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् जो अपनी असफल कामनाके कारण सब लोगोंके लिये निन्दित हो गयी थी, उस कैकेयीने लज्जित होकर वहाँ मुनिके चरणोंका स्पर्श किया और उन महामुनि भगवान् भरद्वाजकी परिक्रमा करके वह दीनचित्त हो उस समय भरतके ही पास आकर खड़ी हो गयी ॥ १६-१७ १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र पप्रच्छ भरतं भरद्वाजो महामुनिः ॥ १८ ॥
विशेषं ज्ञातुमिच्छामि मातॄणां तव राघव ।

मूलम्

तत्र पप्रच्छ भरतं भरद्वाजो महामुनिः ॥ १८ ॥
विशेषं ज्ञातुमिच्छामि मातॄणां तव राघव ।

अनुवाद (हिन्दी)

तब महामुनि भरद्वाजने वहाँ भरतसे पूछा—‘रघुनन्दन! तुम्हारी इन माताओंका विशेष परिचय क्या है? यह मैं जानना चाहता हूँ’ ॥ १८ १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तस्तु भरतो भरद्वाजेन धार्मिकः ॥ १९ ॥
उवाच प्राञ्जलिर्भूत्वा वाक्यं वचनकोविदः ।

मूलम्

एवमुक्तस्तु भरतो भरद्वाजेन धार्मिकः ॥ १९ ॥
उवाच प्राञ्जलिर्भूत्वा वाक्यं वचनकोविदः ।

अनुवाद (हिन्दी)

भरद्वाजके इस प्रकार पूछनेपर बोलनेकी कलामें कुशल धर्मात्मा भरतने हाथ जोड़कर कहा— ॥ १९ १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यामिमां भगवन् दीनां शोकानशनकर्शिताम् ॥ २० ॥
पितुर्हि महिषीं देवीं देवतामिव पश्यसि ।
एषां तं पुरुषव्याघ्रं सिंहविक्रान्तगामिनम् ॥ २१ ॥
कौसल्या सुषुवे रामं धातारमदितिर्यथा ।

मूलम्

यामिमां भगवन् दीनां शोकानशनकर्शिताम् ॥ २० ॥
पितुर्हि महिषीं देवीं देवतामिव पश्यसि ।
एषां तं पुरुषव्याघ्रं सिंहविक्रान्तगामिनम् ॥ २१ ॥
कौसल्या सुषुवे रामं धातारमदितिर्यथा ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘भगवन्! आप जिन्हें शोक और उपवासके कारण अत्यन्त दुर्बल एवं दुःखी देख रहे हैं, जो देवी-सी दृष्टिगोचर हो रही हैं’ ये मेरे पिताकी सबसे बड़ी महारानी कौसल्या हैं । जैसे अदितिने धाता नामक आदित्यको उत्पन्न किया था, उसी प्रकार इन कौसल्या देवीने सिंहके समान पराक्रमसूचक गतिसे चलनेवाले पुरुषसिंह श्रीरामको जन्म दिया है ॥ २०-२१ १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्या वामभुजं श्लिष्टा या सा तिष्ठति दुर्मनाः ॥ २२ ॥
इयं सुमित्रा दुःखार्ता देवी राज्ञश्च मध्यमा ।
कर्णिकारस्य शाखेव शीर्णपुष्पा वनान्तरे ॥ २३ ॥
एतस्यास्तौ सुतौ देव्याः कुमारौ देववर्णिनौ ।
उभौ लक्ष्मणशत्रुघ्नौ वीरौ सत्यपराक्रमौ ॥ २४ ॥

मूलम्

अस्या वामभुजं श्लिष्टा या सा तिष्ठति दुर्मनाः ॥ २२ ॥
इयं सुमित्रा दुःखार्ता देवी राज्ञश्च मध्यमा ।
कर्णिकारस्य शाखेव शीर्णपुष्पा वनान्तरे ॥ २३ ॥
एतस्यास्तौ सुतौ देव्याः कुमारौ देववर्णिनौ ।
उभौ लक्ष्मणशत्रुघ्नौ वीरौ सत्यपराक्रमौ ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इनकी बायीं बाँहसे सटकर जो उदास मनसे खड़ी हैं तथा दुःखसे आतुर हो रही हैं और आभूषणशून्य होनेसे वनके भीतर झड़े हुए पुष्पवाले कनेरकी डालके समान दिखायी देती हैं, ये महाराजकी मझली रानी देवी सुमित्रा हैं । सत्यपराक्रमी वीर तथा देवताओंके तुल्य कान्तिमान् वे दोनों भाई राजकुमार लक्ष्मण और शत्रुघ्न इन्हीं सुमित्रा देवीके पुत्र हैं ॥ २२—२४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्याः कृते नरव्याघ्रौ जीवनाशमितो गतौ ।
राजा पुत्रविहीनश्च स्वर्गं दशरथो गतः ॥ २५ ॥
क्रोधनामकृतप्रज्ञां दृप्तां सुभगमानिनीम् ।
ऐश्वर्यकामां कैकेयीमनार्यामार्यरूपिणीम् ॥ २६ ॥
ममैतां मातरं विद्धि नृशंसां पापनिश्चयाम् ।
यतोमूलं हि पश्यामि व्यसनं महदात्मनः ॥ २७ ॥

मूलम्

यस्याः कृते नरव्याघ्रौ जीवनाशमितो गतौ ।
राजा पुत्रविहीनश्च स्वर्गं दशरथो गतः ॥ २५ ॥
क्रोधनामकृतप्रज्ञां दृप्तां सुभगमानिनीम् ।
ऐश्वर्यकामां कैकेयीमनार्यामार्यरूपिणीम् ॥ २६ ॥
ममैतां मातरं विद्धि नृशंसां पापनिश्चयाम् ।
यतोमूलं हि पश्यामि व्यसनं महदात्मनः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘और जिसके कारण पुरुषसिंह श्रीराम और लक्ष्मण यहाँसे प्राण-सङ्कटकी अवस्था (वनवास) में जा पहुँचे हैं तथा राजा दशरथ पुत्रवियोगका कष्ट पाकर स्वर्गवासी हुए हैं, जो स्वभावसे ही क्रोध करनेवाली, अशिक्षित बुद्धिवाली, गर्वीली, अपने-आपको सबसे अधिक सुन्दरी और भाग्यवती समझनेवाली तथा राज्यका लोभ रखनेवाली है, जो शक्ल-सूरतसे आर्या होनेपर भी वास्तवमें अनार्या है, इस कैकेयीको मेरी माता समझिये । यह बड़ी ही क्रूर और पापपूर्ण विचार रखनेवाली है । मैं अपने ऊपर जो महान् संकट आया हुआ देख रहा हूँ, इसका मूल कारण यही है’ ॥ २५—२७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा नरशार्दूलो बाष्पगद्‍गदया गिरा ।
विनिःश्वस्य स ताम्राक्षः क्रुद्धो नाग इव श्वसन् ॥ २८ ॥

मूलम्

इत्युक्त्वा नरशार्दूलो बाष्पगद्‍गदया गिरा ।
विनिःश्वस्य स ताम्राक्षः क्रुद्धो नाग इव श्वसन् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अश्रुगद्‍गद वाणीसे इस प्रकार कहकर लाल आँखें किये पुरुषसिंह भरत रोषसे भरकर फुफकारते हुए सर्पकी भाँति लंबी साँस खींचने लगे ॥ २८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भरद्वाजो महर्षिस्तं ब्रुवन्तं भरतं तदा ।
प्रत्युवाच महाबुद्धिरिदं वचनमर्थवित् ॥ २९ ॥

मूलम्

भरद्वाजो महर्षिस्तं ब्रुवन्तं भरतं तदा ।
प्रत्युवाच महाबुद्धिरिदं वचनमर्थवित् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय ऐसी बातें कहते हुए भरतसे श्रीरामावतारके प्रयोजनको जाननेवाले महाबुद्धिमान् महर्षि भरद्वाजने उनसे यह बात कही— ॥ २९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न दोषेणावगन्तव्या
कैकेयी भरत त्वया ।
रामप्रव्राजनं ह्येतत्
सुखोदर्कं भविष्यति ॥ ३० ॥

मूलम्

न दोषेणावगन्तव्या कैकेयी भरत त्वया ।
रामप्रव्राजनं ह्येतत् सुखोदर्कं भविष्यति ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरत! तुम कैकेयीके प्रति दोष-दृष्टि न करो । श्रीरामका यह वनवास भविष्यमें बड़ा ही सुखद होगा ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवानां दानवानां च ऋषीणां भावितात्मनाम् ।
हितमेव भविष्यद्धि रामप्रव्राजनादिह ॥ ३१ ॥

मूलम्

देवानां दानवानां च ऋषीणां भावितात्मनाम् ।
हितमेव भविष्यद्धि रामप्रव्राजनादिह ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘श्रीरामके वनमें जानेसे देवताओं, दानवों तथा परमात्माका चिन्तन करनेवाले महर्षियोंका इस जगत् में हित ही होनेवाला है’ ॥ ३१ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिवाद्य तु संसिद्धः कृत्वा चैनं प्रदक्षिणम् ।
आमन्त्र्य भरतः सैन्यं युज्यतामिति चाब्रवीत् ॥ ३२ ॥

मूलम्

अभिवाद्य तु संसिद्धः कृत्वा चैनं प्रदक्षिणम् ।
आमन्त्र्य भरतः सैन्यं युज्यतामिति चाब्रवीत् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामका पता जानकर और मुनिका आशीर्वाद पाकर कृतकृत्य हुए भरतने मुनिको मस्तक झुका उनकी प्रदक्षिणा करके जानेकी आज्ञा ले सेनाको कूचके लिये तैयार होनेका आदेश दिया ॥ ३२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो वाजिरथान् युक्त्वा दिव्यान् हेमविभूषितान् ।
अध्यारोहत् प्रयाणार्थं बहून् बहुविधो जनः ॥ ३३ ॥

मूलम्

ततो वाजिरथान् युक्त्वा दिव्यान् हेमविभूषितान् ।
अध्यारोहत् प्रयाणार्थं बहून् बहुविधो जनः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर अनेक प्रकारकी वेश-भूषावाले लोग बहुत-से दिव्य घोड़ों और दिव्य रथोंको, जो सुवर्णसे विभूषित थे, जोतकर यात्राके लिये उनपर सवार हुए ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गजकन्या गजाश्चैव हेमकक्ष्याः पताकिनः ।
जीमूता इव घर्मान्ते सघोषाः सम्प्रतस्थिरे ॥ ३४ ॥

मूलम्

गजकन्या गजाश्चैव हेमकक्ष्याः पताकिनः ।
जीमूता इव घर्मान्ते सघोषाः सम्प्रतस्थिरे ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बहुत-सी हथिनियाँ और हाथी, जो सुनहरे रस्सोंसे कसे गये थे और जिनके ऊपर पताकाएँ फहरा रही थीं, वर्षा-कालके गरजते हुए मेघोंके समान घण्टानाद करते हुए वहाँसे प्रस्थित हुए ॥ ३४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विविधान्यपि यानानि महान्ति च लघूनि च ।
प्रययुः सुमहार्हाणि पादैरपि पदातयः ॥ ३५ ॥

मूलम्

विविधान्यपि यानानि महान्ति च लघूनि च ।
प्रययुः सुमहार्हाणि पादैरपि पदातयः ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नाना प्रकारके छोटे-बड़े बहुमूल्य वाहनोंपर सवार हो उनके अधिकारी चले और पैदल सैनिक अपने पैरोंसे ही यात्रा करने लगे ॥ ३५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ यानप्रवेकैस्तु कौसल्याप्रमुखाः स्त्रियः ।
रामदर्शनकाङ्क्षिण्यः प्रययुर्मुदितास्तदा ॥ ३६ ॥

मूलम्

अथ यानप्रवेकैस्तु कौसल्याप्रमुखाः स्त्रियः ।
रामदर्शनकाङ्क्षिण्यः प्रययुर्मुदितास्तदा ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् कौसल्या आदि रानियाँ उत्तम सवारियोंपर बैठकर श्रीरामचन्द्रजीके दर्शनकी अभिलाषासे प्रसन्नतापूर्वक चलीं ॥ ३६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चन्द्रार्कतरुणाभासां नियुक्तां शिबिकां शुभाम् ।
आस्थाय प्रययौ श्रीमान् भरतः सपरिच्छदः ॥ ३७ ॥

मूलम्

चन्द्रार्कतरुणाभासां नियुक्तां शिबिकां शुभाम् ।
आस्थाय प्रययौ श्रीमान् भरतः सपरिच्छदः ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार श्रीमान् भरत नवोदित चन्द्रमा और सूर्यके समान कान्तिमती शिविकामें बैठकर आवश्यक सामग्रियोंके साथ प्रस्थित हुए । उस शिविकाको कहाँरोंने अपने कंधोंपर उठा रखा था ॥ ३७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा प्रयाता महासेना गजवाजिसमाकुला ।
दक्षिणां दिशमावृत्य महामेघ इवोत्थितः ॥ ३८ ॥

मूलम्

सा प्रयाता महासेना गजवाजिसमाकुला ।
दक्षिणां दिशमावृत्य महामेघ इवोत्थितः ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हाथी-घोड़ोंसे भरी हुई वह विशाल वाहिनी दक्षिण दिशाको घेरकर उमड़ी हुई महामेघोंकी घटाके समान चल पड़ी ॥ ३८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वनानि च व्यतिक्रम्य जुष्टानि मृगपक्षिभिः ।
गङ्गायाः परवेलायां गिरिष्वथ नदीष्वपि ॥ ३९ ॥

मूलम्

वनानि च व्यतिक्रम्य जुष्टानि मृगपक्षिभिः ।
गङ्गायाः परवेलायां गिरिष्वथ नदीष्वपि ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गङ्गाके उस पार पर्वतों तथा नदियोंके निकटवर्ती वनोंको, जो मृगों और पक्षियोंसे सेवित थे, लाँघकर वह आगे बढ़ गयी ॥ ३९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा सम्प्रहृष्टद्विपवाजियूथा
वित्रासयन्ती मृगपक्षिसङ्घान् ।
महद्वनं तत् प्रविगाहमाना
रराज सेना भरतस्य तत्र ॥ ४० ॥

मूलम्

सा सम्प्रहृष्टद्विपवाजियूथा
वित्रासयन्ती मृगपक्षिसङ्घान् ।
महद्वनं तत् प्रविगाहमाना
रराज सेना भरतस्य तत्र ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस सेनाके हाथी और घोड़ोंके समुदाय बड़े प्रसन्न थे । जंगलके मृगों और पक्षिसमूहोंको भयभीत करती हुई भरतकी वह सेना उस विशाल वनमें प्रवेश करके वहाँ बड़ी शोभा पा रही थी ॥ ४० ॥

समाप्तिः

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे द्विनवतितमः सर्गः ॥ ९२ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके अयोध्याकाण्डमें बानबेवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ९२ ॥