वाचनम्
भागसूचना
- श्रीरामकी कुश-शय्या देखकर भरतका शोकपूर्ण उद्गार तथा स्वयं भी वल्कल और जटाधारण करके वनमें रहनेका विचार प्रकट करना
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छ्रुत्वा निपुणं सर्वं भरतः सह मन्त्रिभिः ।
इङ्गुदीमूलमागम्य रामशय्यामवैक्षत ॥ १ ॥
मूलम्
तच्छ्रुत्वा निपुणं सर्वं भरतः सह मन्त्रिभिः ।
इङ्गुदीमूलमागम्य रामशय्यामवैक्षत ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निषादराजकी सारी बातें ध्यानसे सुनकर मन्त्रियोंसहित भरतने इंगुदी-वृक्षकी जड़के पास आकर श्रीरामचन्द्रजीकी शय्याका निरीक्षण किया ॥ १ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब्रवीज्जननीः सर्वा इह तस्य महात्मनः ।
शर्वरी शयिता भूमाविदमस्य विमर्दितम् ॥ २ ॥
मूलम्
अब्रवीज्जननीः सर्वा इह तस्य महात्मनः ।
शर्वरी शयिता भूमाविदमस्य विमर्दितम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर उन्होंने समस्त माताओंसे कहा—‘यहीं महात्मा श्रीरामने भूमिपर शयन करके रात्रि व्यतीत की थी । यही वह कुशसमूह है, जो उनके अङ्गोंसे विमर्दित हुआ था ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महाराजकुलीनेन महाभागेन धीमता ।
जातो दशरथेनोर्व्यां न रामः स्वप्तुमर्हति ॥ ३ ॥
मूलम्
महाराजकुलीनेन महाभागेन धीमता ।
जातो दशरथेनोर्व्यां न रामः स्वप्तुमर्हति ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाराजोंके कुलमें उत्पन्न हुए परम बुद्धिमान् महाभाग राजा दशरथने जिन्हें जन्म दिया है, वे श्रीराम इस तरह भूमिपर शयन करनेके योग्य नहीं हैं ॥ ३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अजिनोत्तरसंस्तीर्णे वरास्तरणसञ्चये ।
शयित्वा पुरुषव्याघ्रः कथं शेते महीतले ॥ ४ ॥
मूलम्
अजिनोत्तरसंस्तीर्णे वरास्तरणसञ्चये ।
शयित्वा पुरुषव्याघ्रः कथं शेते महीतले ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो पुरुषसिंह श्रीराम मुलायम मृगचर्मकी विशेष चादरसे ढके हुए तथा अच्छे-अच्छे बिछौनोंके समूहसे सजे हुए पलंगपर सदा सोते आये हैं, वे इस समय पृथ्वीपर कैसे शयन करते होंगे? ॥ ४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रासादाग्रविमानेषु वलभीषु च सर्वदा ।
हैमराजतभौमेषु वरास्तरणशालिषु ॥ ५ ॥
पुष्पसञ्चयचित्रेषु चन्दनागुरुगन्धिषु ।
पाण्डुराभ्रप्रकाशेषु शुकसङ्घरुतेषु च ॥ ६ ॥
प्रासादवरवर्येषु शीतवत्सु सुगन्धिषु ।
उषित्वा मेरुकल्पेषु कृतकाञ्चनभित्तिषु ॥ ७ ॥
मूलम्
प्रासादाग्रविमानेषु वलभीषु च सर्वदा ।
हैमराजतभौमेषु वरास्तरणशालिषु ॥ ५ ॥
पुष्पसञ्चयचित्रेषु चन्दनागुरुगन्धिषु ।
पाण्डुराभ्रप्रकाशेषु शुकसङ्घरुतेषु च ॥ ६ ॥
प्रासादवरवर्येषु शीतवत्सु सुगन्धिषु ।
उषित्वा मेरुकल्पेषु कृतकाञ्चनभित्तिषु ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो सदा विमानाकार प्रासादोंके श्रेष्ठ भवनों और अट्टालिकाओंमें सोते आये हैं तथा जिनकी फर्श सोने और चाँदीकी बनी हुई है, जो अच्छे बिछौनोंसे सुशोभित हैं, पुष्पराशिसे विभूषित होनेके कारण जिनकी विचित्र शोभा होती है, जिनमें चन्दन और अगुरुकी सुगन्ध फैली रहती है, जो श्वेत बादलोंके समान उज्ज्वल कान्ति धारण करते हैं, जिनमें शुकसमूहोंका कलरव होता रहता है, जो शीतल हैं एवं कपूर आदिकी सुगन्धसे व्याप्त होते हैं, जिनकी दीवारोंपर सुवर्णका काम किया गया है तथा जो ऊँचाईमें मेरु पर्वतके समान जान पड़ते हैं, ऐसे सर्वोत्तम राजमहलोंमें जो निवास कर चुके हैं, वे श्रीराम वनमें पृथ्वीपर कैसे सोते होंगे? ॥ ५—७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गीतवादित्रनिर्घोषैर्वराभरणनिःस्वनैः ।
मृदङ्गवरशब्दैश्च सततं प्रतिबोधितः ॥ ८ ॥
बन्दिभिर्वन्दितः काले बहुभिः सूतमागधैः ।
गाथाभिरनुरूपाभिः स्तुतिभिश्च परन्तपः ॥ ९ ॥
मूलम्
गीतवादित्रनिर्घोषैर्वराभरणनिःस्वनैः ।
मृदङ्गवरशब्दैश्च सततं प्रतिबोधितः ॥ ८ ॥
बन्दिभिर्वन्दितः काले बहुभिः सूतमागधैः ।
गाथाभिरनुरूपाभिः स्तुतिभिश्च परन्तपः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो गीतों और वाद्योंकी ध्वनियोंसे, श्रेष्ठ आभूषणोंकी झनकारोंसे तथा मृदङ्गोंके उत्तम शब्दोंसे सदा जगाये जाते थे, बहुत-से वन्दीगण समय-समयपर जिनकी वन्दना करते थे, सूत और मागध अनुरूप गाथाओं और स्तुतियोंसे जिनको जगाते थे, वे शत्रुसंतापी श्रीराम अब भूमिपर कैसे शयन करते होंगे? ॥ ८-९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अश्रद्धेयमिदं लोके न सत्यं प्रतिभाति मा ।
मुह्यते खलु मे भावः स्वप्नोऽयमिति मे मतिः ॥ १० ॥
मूलम्
अश्रद्धेयमिदं लोके न सत्यं प्रतिभाति मा ।
मुह्यते खलु मे भावः स्वप्नोऽयमिति मे मतिः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह बात जगत् में विश्वासके योग्य नहीं है । मुझे यह सत्य नहीं प्रतीत होती । मेरा अन्तःकरण अवश्य ही मोहित हो रहा है । मुझे तो ऐसा मालूम होता है कि यह कोई स्वप्न है ॥ १० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न नूनं दैवतं किञ्चित् कालेन बलवत्तरम् ।
यत्र दाशरथी रामो भूमावेवमशेत सः ॥ ११ ॥
मूलम्
न नूनं दैवतं किञ्चित् कालेन बलवत्तरम् ।
यत्र दाशरथी रामो भूमावेवमशेत सः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘निश्चय ही कालके समान प्रबल कोई दूसरा देवता नहीं है, जिसके प्रभावसे दशरथनन्दन श्रीरामको भी इस प्रकार भूमिपर सोना पड़ा ॥ ११ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्मिन् विदेहराजस्य सुता च प्रियदर्शना ।
दयिता शयिता भूमौ स्नुषा दशरथस्य च ॥ १२ ॥
मूलम्
यस्मिन् विदेहराजस्य सुता च प्रियदर्शना ।
दयिता शयिता भूमौ स्नुषा दशरथस्य च ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उस कालके ही प्रभावसे विदेहराजकी परम सुन्दरी पुत्री और महाराज दशरथकी प्यारी पुत्रवधू सीता भी पृथ्वीपर शयन करती हैं ॥ १२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इयं शय्या मम भ्रातुरिदमावर्तितं शुभम् ।
स्थण्डिले कठिने सर्वं गात्रैर्विमृदितं तृणम् ॥ १३ ॥
मूलम्
इयं शय्या मम भ्रातुरिदमावर्तितं शुभम् ।
स्थण्डिले कठिने सर्वं गात्रैर्विमृदितं तृणम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यही मेरे बड़े भाईकी शय्या है । यहीं उन्होंने करवटें बदली थीं । इस कठोर वेदीपर उनका शुभ शयन हुआ था, जहाँ उनके अङ्गोंसे कुचला गया सारा तृण अभीतक पड़ा है ॥ १३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन्ये साभरणा सुप्ता सीतास्मिन्शयने शुभा ।
तत्र तत्र हि दृश्यन्ते सक्ताः कनकबिन्दवः ॥ १४ ॥
मूलम्
मन्ये साभरणा सुप्ता सीतास्मिन्शयने शुभा ।
तत्र तत्र हि दृश्यन्ते सक्ताः कनकबिन्दवः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जान पड़ता है, शुभलक्षणा सीता शय्यापर आभूषण पहने ही सोयी थीं; क्योंकि यहाँ यत्र-तत्र सुवर्णके कण सटे दिखायी देते हैं ॥ १४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्तरीयमिहासक्तं सुव्यक्तं सीतया तदा ।
तथा ह्येते प्रकाशन्ते सक्ताः कौशेयतन्तवः ॥ १५ ॥
मूलम्
उत्तरीयमिहासक्तं सुव्यक्तं सीतया तदा ।
तथा ह्येते प्रकाशन्ते सक्ताः कौशेयतन्तवः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यहाँ उस समय सीताकी चादर उलझ गयी थी, यह साफ दिखायी दे रहा है; क्योंकि यहाँ सटे हुए ये रेशमके तागे चमक रहे हैं ॥ १५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन्ये भर्तुः सुखा शय्या येन बाला तपस्विनी ।
सुकुमारी सती दुःखं न विजानाति मैथिली ॥ १६ ॥
मूलम्
मन्ये भर्तुः सुखा शय्या येन बाला तपस्विनी ।
सुकुमारी सती दुःखं न विजानाति मैथिली ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं समझता हूँ कि पतिकी शय्या कोमल हो या कठोर, साध्वी स्त्रियोंके लिये वही सुखदायिनी होती है, तभी तो वह तपस्विनी एवं सुकुमारी बाला सती-साध्वी मिथिलेशकुमारी सीता यहाँ दुःखका अनुभव नहीं कर रही हैं ॥ १६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हा हतोऽस्मि नृशंसोऽस्मि यत् सभार्यः कृते मम ।
ईदृशीं राघवः शय्यामधिशेते ह्यनाथवत् ॥ १७ ॥
मूलम्
हा हतोऽस्मि नृशंसोऽस्मि यत् सभार्यः कृते मम ।
ईदृशीं राघवः शय्यामधिशेते ह्यनाथवत् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हाय! मैं मर गया—मेरा जीवन व्यर्थ है । मैं बड़ा क्रूर हूँ, जिसके कारण सीतासहित श्रीरामको अनाथकी भाँति ऐसी शय्यापर सोना पड़ता है ॥ १७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सार्वभौमकुले जातः सर्वलोकसुखावहः ।
सर्वप्रियकरस्त्यक्त्वा राज्यं प्रियमनुत्तमम् ॥ १८ ॥
कथमिन्दीवरश्यामो रक्ताक्षः प्रियदर्शनः ।
सुखभागी न दुःखार्हः शयितो भुवि राघवः ॥ १९ ॥
मूलम्
सार्वभौमकुले जातः सर्वलोकसुखावहः ।
सर्वप्रियकरस्त्यक्त्वा राज्यं प्रियमनुत्तमम् ॥ १८ ॥
कथमिन्दीवरश्यामो रक्ताक्षः प्रियदर्शनः ।
सुखभागी न दुःखार्हः शयितो भुवि राघवः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो चक्रवर्ती सम्राट्के कुलमें उत्पन्न हुए हैं, समस्त लोकोंको सुख देनेवाले हैं तथा सबका प्रिय करनेमें तत्पर रहते हैं, जिनका शरीर नीले कमलके समान श्याम, आँखें लाल और दर्शन सबको प्रिय लगनेवाला है तथा जो सुख भोगनेके ही योग्य हैं, दुःख भोगनेके कदापि योग्य नहीं हैं, वे ही श्रीरघुनाथजी परम उत्तम प्रिय राज्यका परित्याग करके इस समय पृथ्वीपर शयन करते हैं ॥ १८-१९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धन्यः खलु महाभागो लक्ष्मणः शुभलक्षणः ।
भ्रातरं विषमे काले यो राममनुवर्तते ॥ २० ॥
मूलम्
धन्यः खलु महाभागो लक्ष्मणः शुभलक्षणः ।
भ्रातरं विषमे काले यो राममनुवर्तते ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उत्तम लक्षणोंवाले लक्ष्मण ही धन्य एवं बड़भागी हैं, जो संकटके समय बड़े भाई श्रीरामके साथ रहकर उनकी सेवा करते हैं ॥ २० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिद्धार्था खलु वैदेही पतिं यानुगता वनम् ।
वयं संशयिताः सर्वे हीनास्तेन महात्मना ॥ २१ ॥
मूलम्
सिद्धार्था खलु वैदेही पतिं यानुगता वनम् ।
वयं संशयिताः सर्वे हीनास्तेन महात्मना ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘निश्चय ही विदेहनन्दिनी सीता भी कृतार्थ हो गयीं, जिन्होंने पतिके साथ वनका अनुसरण किया है । हम सब लोग उन महात्मा श्रीरामसे बिछुड़कर संशयमें पड़ गये हैं (हमें यह संदेह होने लगा है कि श्रीराम हमारी सेवा स्वीकार करेंगे या नहीं) ॥ २१ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अकर्णधारा पृथिवी शून्येव प्रतिभाति मे ।
गते दशरथे स्वर्गं रामे चारण्यमाश्रिते ॥ २२ ॥
मूलम्
अकर्णधारा पृथिवी शून्येव प्रतिभाति मे ।
गते दशरथे स्वर्गं रामे चारण्यमाश्रिते ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाराज दशरथ स्वर्गलोकको गये और श्रीराम वनवासी हो गये, ऐसी दशामें यह पृथ्वी बिना नाविककी नौकाके समान मुझे सूनी-सी प्रतीत हो रही है ॥ २२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न च प्रार्थयते कश्चिन्मनसापि वसुन्धराम् ।
वने निवसतस्तस्य बाहुवीर्याभिरक्षिताम् ॥ २३ ॥
मूलम्
न च प्रार्थयते कश्चिन्मनसापि वसुन्धराम् ।
वने निवसतस्तस्य बाहुवीर्याभिरक्षिताम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वनमें निवास करनेपर भी उन्हीं श्रीरामके बाहुबलसे सुरक्षित हुई इस वसुन्धराको कोई शत्रु मनसे भी नहीं लेना चाहता है ॥ २३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शून्यसंवरणारक्षामयन्त्रितहयद्विपाम् ।
अनावृतपुरद्वारां राजधानीमरक्षिताम् ॥ २४ ॥
अप्रहृष्टबलां शून्यां विषमस्थामनावृताम् ।
शत्रवो नाभिमन्यन्ते भक्ष्यान् विषकृतानिव ॥ २५ ॥
मूलम्
शून्यसंवरणारक्षामयन्त्रितहयद्विपाम् ।
अनावृतपुरद्वारां राजधानीमरक्षिताम् ॥ २४ ॥
अप्रहृष्टबलां शून्यां विषमस्थामनावृताम् ।
शत्रवो नाभिमन्यन्ते भक्ष्यान् विषकृतानिव ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस समय अयोध्याकी चहारदीवारीकी सब ओरसे रक्षाका कोई प्रबन्ध नहीं है, हाथी और घोड़े बँधे नहीं रहते हैं—खुले विचरते हैं, नगरद्वारका फाटक खुला ही रहता है, सारी राजधानी अरक्षित है, सेनामें हर्ष और उत्साहका अभाव है, समस्त नगरी रक्षकोंसे सूनी-सी जान पड़ती है, सङ्कटमें पड़ी हुई है, रक्षकोंके अभावसे आवरणरहित हो गयी है, तो भी शत्रु विषमिश्रित भोजनकी भाँति इसे ग्रहण करनेकी इच्छा नहीं करते हैं । श्रीरामके बाहुबलसे ही इसकी रक्षा हो रही है ॥ २४-२५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अद्यप्रभृति भूमौ तु शयिष्येऽहं तृणेषु वा ।
फलमूलाशनो नित्यं जटाचीराणि धारयन् ॥ २६ ॥
मूलम्
अद्यप्रभृति भूमौ तु शयिष्येऽहं तृणेषु वा ।
फलमूलाशनो नित्यं जटाचीराणि धारयन् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आजसे मैं भी पृथ्वीपर अथवा तिनकोंपर ही सोऊँगा, फल-मूलका ही भोजन करूँगा और सदा वल्कल वस्त्र तथा जटा धारण किये रहूँगा ॥ २६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्याहमुत्तरं कालं निवत्स्यामि सुखं वने ।
तत् प्रतिश्रुतमार्यस्य नैव मिथ्या भविष्यति ॥ २७ ॥
मूलम्
तस्याहमुत्तरं कालं निवत्स्यामि सुखं वने ।
तत् प्रतिश्रुतमार्यस्य नैव मिथ्या भविष्यति ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वनवासके जितने दिन बाकी हैं, उतने दिनोंतक मैं ही वहाँ सुखपूर्वक निवास करूँगा, ऐसा होनेसे आर्य श्रीरामकी की हुई प्रतिज्ञा झूठी नहीं होगी ॥ २७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वसन्तं भ्रातुरर्थाय शत्रुघ्नो मानुवत्स्यति ।
लक्ष्मणेन सहायोध्यामार्यो मे पालयिष्यति ॥ २८ ॥
मूलम्
वसन्तं भ्रातुरर्थाय शत्रुघ्नो मानुवत्स्यति ।
लक्ष्मणेन सहायोध्यामार्यो मे पालयिष्यति ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भाईके लिये वनमें निवास करते समय शत्रुघ्न मेरे साथ रहेंगे और मेरे बड़े भाई श्रीराम लक्ष्मणको साथ लेकर अयोध्याका पालन करेंगे ॥ २८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभिषेक्ष्यन्ति काकुत्स्थमयोध्यायां द्विजातयः ।
अपि मे देवताः कुर्युरिमं सत्यं मनोरथम् ॥ २९ ॥
मूलम्
अभिषेक्ष्यन्ति काकुत्स्थमयोध्यायां द्विजातयः ।
अपि मे देवताः कुर्युरिमं सत्यं मनोरथम् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अयोध्यामें ब्राह्मणलोग ककुत्स्थकुलभूषण श्रीरामका अभिषेक करेंगे । क्या देवता मेरे इस मनोरथको सत्य (सफल) करेंगे? ॥ २९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रसाद्यमानः शिरसा मया स्वयं
बहुप्रकारं यदि न प्रपत्स्यते ।
ततोऽनुवत्स्यामि चिराय राघवं
वनेचरं नार्हति मामुपेक्षितुम् ॥ ३० ॥
मूलम्
प्रसाद्यमानः शिरसा मया स्वयं
बहुप्रकारं यदि न प्रपत्स्यते ।
ततोऽनुवत्स्यामि चिराय राघवं
वनेचरं नार्हति मामुपेक्षितुम् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं उनके चरणोंपर मस्तक रखकर उन्हें मनानेकी चेष्टा करूँगा । यदि मेरे बहुत कहनेपर भी वे लौटनेको राजी न होंगे तो उन वनवासी श्रीरामके साथ मैं भी दीर्घकालतक वहीं निवास करूँगा । वे मेरी उपेक्षा नहीं करेंगे’ ॥ ३० ॥
समाप्तिः
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डेऽष्टाशीतितमः सर्गः ॥ ८८ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके अयोध्याकाण्डमें अट्ठासीवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ८८ ॥