०६३ दशरथेन पूर्वकृतबालवधकथनम्

वाचनम्
भागसूचना
  1. राजा दशरथका शोक और उनका कौसल्यासे अपने द्वारा मुनिकुमारके मारे जानेका प्रसङ्ग सुनाना
विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतिबुद्धो मुहूर्तेन शोकोपहतचेतनः ।
अथ राजा दशरथः स चिन्तामभ्यपद्यत ॥ १ ॥

मूलम्

प्रतिबुद्धो मुहूर्तेन शोकोपहतचेतनः ।
अथ राजा दशरथः स चिन्तामभ्यपद्यत ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा दशरथ दो ही घड़ीके बाद फिर जाग उठे । उस समय उनका हृदय शोकसे व्याकुल हो रहा था । वे मन-ही-मन चिन्ता करने लगे ॥ १ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामलक्ष्मणयोश्चैव विवासाद् वासवोपमम् ।
आपेदे उपसर्गस्तं तमः सूर्यमिवासुरम् ॥ २ ॥

मूलम्

रामलक्ष्मणयोश्चैव विवासाद् वासवोपमम् ।
आपेदे उपसर्गस्तं तमः सूर्यमिवासुरम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीराम और लक्ष्मणके वनमें चले जानेसे इन इन्द्रतुल्य तेजस्वी महाराज दशरथको शोकने उसी प्रकार धर दबाया था, जैसे राहुका अन्धकार सूर्यको ढक देता है ॥ २ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभार्ये हि गते रामे कौसल्यां कोसलेश्वरः ।
विवक्षुरसितापाङ्गीं स्मृत्वा दुष्कृतमात्मनः ॥ ३ ॥

मूलम्

सभार्ये हि गते रामे कौसल्यां कोसलेश्वरः ।
विवक्षुरसितापाङ्गीं स्मृत्वा दुष्कृतमात्मनः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पत्नीसहित श्रीरामके वनमें चले जानेपर कोसलनरेश दशरथने अपने पुरातन पापका स्मरण करके कजरारे नेत्रोंवाली कौसल्यासे कहनेका विचार किया ॥ ३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स राजा रजनीं षष्ठीं रामे प्रव्राजिते वनम् ।
अर्धरात्रे दशरथः सोऽस्मरद् दुष्कृतं कृतम् ॥ ४ ॥

मूलम्

स राजा रजनीं षष्ठीं रामे प्रव्राजिते वनम् ।
अर्धरात्रे दशरथः सोऽस्मरद् दुष्कृतं कृतम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय श्रीरामचन्द्रजीको वनमें गये छठी रात बीत रही थी । जब आधी रात हुई, तब राजा दशरथको उस पहलेके किये हुए दुष्कर्मका स्मरण हुआ ॥ ४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स राजा पुत्रशोकार्तः स्मृत्वा दुष्कृतमात्मनः ।
कौसल्यां पुत्रशोकार्तामिदं वचनमब्रवीत् ॥ ५ ॥

मूलम्

स राजा पुत्रशोकार्तः स्मृत्वा दुष्कृतमात्मनः ।
कौसल्यां पुत्रशोकार्तामिदं वचनमब्रवीत् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुत्रशोकसे पीड़ित हुए महाराजने अपने उस दुष्कर्मको याद करके पुत्रशोकसे व्याकुल हुई कौसल्यासे इस प्रकार कहना आरम्भ किया— ॥ ५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदाचरति कल्याणि शुभं वा यदि वाशुभम् ।
तदेव लभते भद्रे कर्ता कर्मजमात्मनः ॥ ६ ॥

मूलम्

यदाचरति कल्याणि शुभं वा यदि वाशुभम् ।
तदेव लभते भद्रे कर्ता कर्मजमात्मनः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कल्याणि! मनुष्य शुभ या अशुभ जो भी कर्म करता है, भद्रे! अपने उसी कर्मके फलस्वरूप सुख या दुःख कर्ताको प्राप्त होते हैं ॥ ६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरुलाघवमर्थानामारम्भे कर्मणां फलम् ।
दोषं वा यो न जानाति स बाल इति होच्यते ॥ ७ ॥

मूलम्

गुरुलाघवमर्थानामारम्भे कर्मणां फलम् ।
दोषं वा यो न जानाति स बाल इति होच्यते ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो कर्मोंका आरम्भ करते समय उनके फलोंकी गुरुता या लघुताको नहीं जानता, उनसे होनेवाले लाभरूपी गुण अथवा हानिरूपी दोषको नहीं समझता, वह मनुष्य बालक (मूर्ख) कहा जाता है ॥ ७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कश्चिदाम्रवणं छित्त्वा पलाशांश्च निषिञ्चति ।
पुष्पं दृष्ट्वा फले गृध्नुः स शोचति फलागमे ॥ ८ ॥

मूलम्

कश्चिदाम्रवणं छित्त्वा पलाशांश्च निषिञ्चति ।
पुष्पं दृष्ट्वा फले गृध्नुः स शोचति फलागमे ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कोई मनुष्य पलाशका सुन्दर फूल देखकर मन-ही-मन यह अनुमान करके कि इसका फल और भी मनोहर तथा सुस्वादु होगा, फलकी अभिलाषासे आमके बगीचेको काटकर वहाँ पलाशके पौधे लगाता और सींचता है, वह फल लगनेके समय पश्चात्ताप करता है (क्योंकि उससे अपनी आशाके अनुरूप फल वह नहीं पाता है) ॥ ८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अविज्ञाय फलं यो हि कर्म त्वेवानुधावति ।
स शोचेत् फलवेलायां यथा किंशुकसेचकः ॥ ९ ॥

मूलम्

अविज्ञाय फलं यो हि कर्म त्वेवानुधावति ।
स शोचेत् फलवेलायां यथा किंशुकसेचकः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो क्रियमाण कर्मके फलका ज्ञान या विचार न करके केवल कर्मकी ओर ही दौड़ता है, उसे उसका फल मिलनेके समय उसी तरह शोक होता है, जैसा कि आम काटकर पलाश सींचनेवालेको हुआ करता है ॥ ९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽहमाम्रवणं छित्त्वा पलाशांश्च न्यषेचयम् ।
रामं फलागमे त्यक्त्वा पश्चाच्छोचामि दुर्मतिः ॥ १० ॥

मूलम्

सोऽहमाम्रवणं छित्त्वा पलाशांश्च न्यषेचयम् ।
रामं फलागमे त्यक्त्वा पश्चाच्छोचामि दुर्मतिः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैंने भी आमका वन काटकर पलाशोंको ही सींचा है, इस कर्मके फलकी प्राप्तिके समय अब श्रीरामको खोकर मैं पश्चात्ताप कर रहा हूँ । मेरी बुद्धि कैसी खोटी है? ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लब्धशब्देन कौसल्ये कुमारेण धनुष्मता ।
कुमारः शब्दवेधीति मया पापमिदं कृतम् ॥ ११ ॥

मूलम्

लब्धशब्देन कौसल्ये कुमारेण धनुष्मता ।
कुमारः शब्दवेधीति मया पापमिदं कृतम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कौसल्ये! पिताके जीवनकालमें जब मैं केवल राजकुमार था, एक अच्छे धनुर्धरके रूपमें मेरी ख्याति फैल गयी थी । सब लोग यही कहते थे कि ‘राजकुमार दशरथ शब्द-वेधी बाण चलाना जानते हैं ।’ इसी ख्यातिमें पड़कर मैंने यह एक पाप कर डाला था (जिसे अभी बताऊँगा) ॥ ११ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदिदं मेऽनुसम्प्राप्तं देवि दुःखं स्वयङ्कृतम् ।
सम्मोहादिह बालेन यथा स्याद् भक्षितं विषम् ॥ १२ ॥

मूलम्

तदिदं मेऽनुसम्प्राप्तं देवि दुःखं स्वयङ्कृतम् ।
सम्मोहादिह बालेन यथा स्याद् भक्षितं विषम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘देवि! उस अपने ही किये हुए कुकर्मका फल मुझे इस महान् दुःखके रूपमें प्राप्त हुआ है । जैसे कोई बालक अज्ञानवश विष खा ले तो उसे भी वह विष मार ही डालता है, उसी प्रकार मोह या अज्ञानवश किये हुए दुष्कर्मका फल भी यहाँ मुझे भोगना पड़ रहा है ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथान्यः पुरुषः कश्चित् पलाशैर्मोहितो भवेत् ।
एवं मयाप्यविज्ञातं शब्दवेध्यमिदं फलम् ॥ १३ ॥

मूलम्

यथान्यः पुरुषः कश्चित् पलाशैर्मोहितो भवेत् ।
एवं मयाप्यविज्ञातं शब्दवेध्यमिदं फलम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जैसे दूसरा कोई गँवार मनुष्य पलाशके फूलोंपर ही मोहित हो उसके कड़वे फलको नहीं जानता, उसी प्रकार मैं भी ‘शब्दवेधी बाण-विद्या’ की प्रशंसा सुनकर उसपर लट्टू हो गया । उसके द्वारा ऐसा क्रूरतापूर्ण पापकर्म बन सकता है और ऐसा भयंकर फल प्राप्त हो सकता है, इसका ज्ञान मुझे नहीं हुआ ॥ १३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देव्यनूढा त्वमभवो युवराजो भवाम्यहम् ।
ततः प्रावृडनुप्राप्ता मम कामविवर्धिनी ॥ १४ ॥

मूलम्

देव्यनूढा त्वमभवो युवराजो भवाम्यहम् ।
ततः प्रावृडनुप्राप्ता मम कामविवर्धिनी ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘देवि! तुम्हारा विवाह नहीं हुआ था और मैं अभी युवराज ही था, उन्हीं दिनोंकी बात है । मेरी कामभावनाको बढ़ानेवाली वर्षा ऋतु आयी ॥ १४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपास्य हि रसान् भौमांस्तप्त्वा च जगदंशुभिः ।
परेताचरितां भीमां रविराचरते दिशम् ॥ १५ ॥

मूलम्

अपास्य हि रसान् भौमांस्तप्त्वा च जगदंशुभिः ।
परेताचरितां भीमां रविराचरते दिशम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सूर्यदेव पृथ्वीके रसोंको सुखाकर और जगत् को अपनी किरणोंसे भलीभाँति संतप्त करके जिसमें यमलोकवर्ती प्रेत विचरा करते हैं, उस भयंकर दक्षिण दिशामें संचरण करते थे ॥ १५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उष्णमन्तर्दधे सद्यः स्निग्धा ददृशिरे घनाः ।
ततो जहृषिरे सर्वे भेकसारङ्गबर्हिणः ॥ १६ ॥

मूलम्

उष्णमन्तर्दधे सद्यः स्निग्धा ददृशिरे घनाः ।
ततो जहृषिरे सर्वे भेकसारङ्गबर्हिणः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सब ओर सजल मेघ दृष्टिगोचर होने लगे और गरमी तत्काल शान्त हो गयी; इससे समस्त मेढकों, चातकों और मयूरोंमें हर्ष छा गया ॥ १६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्लिन्नपक्षोत्तराः स्नाताः कृच्छ्रादिव पतत्त्रिणः ।
वृष्टिवातावधूताग्रान् पादपानभिपेदिरे ॥ १७ ॥

मूलम्

क्लिन्नपक्षोत्तराः स्नाताः कृच्छ्रादिव पतत्त्रिणः ।
वृष्टिवातावधूताग्रान् पादपानभिपेदिरे ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पक्षियोंकी पाँखें ऊपरसे भींग गयी थीं । वे नहा उठे थे और बड़ी कठिनाईसे उन वृक्षोंतक पहुँच पाते थे, जिनकी डालियोंके अग्रभाग वर्षा और वायुके झोकोंसे झूम रहे थे ॥ १७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पतितेनाम्भसाऽऽच्छन्नः पतमानेन चासकृत् ।
आबभौ मत्तसारङ्गस्तोयराशिरिवाचलः ॥ १८ ॥

मूलम्

पतितेनाम्भसाऽऽच्छन्नः पतमानेन चासकृत् ।
आबभौ मत्तसारङ्गस्तोयराशिरिवाचलः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘गिरे हुए और बारंबार गिरते हुए जलसे आच्छादित हुआ मतवाला हाथी तरङ्गरहित प्रशान्त समुद्र तथा भीगे पर्वतके समान प्रतीत होता था ॥ १८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाण्डुरारुणवर्णानि स्रोतांसि विमलान्यपि ।
सुस्रुवुर्गिरिधातुभ्यः सभस्मानि भुजङ्गवत् ॥ १९ ॥

मूलम्

पाण्डुरारुणवर्णानि स्रोतांसि विमलान्यपि ।
सुस्रुवुर्गिरिधातुभ्यः सभस्मानि भुजङ्गवत् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पर्वतोंसे गिरनेवाले स्रोत या झरने निर्मल होनेपर भी पर्वतीय धातुओंके सम्पर्कसे श्वेत, लाल और भस्मयुक्त होकर सर्पोंकी भाँति कुटिल गतिसे बह रहे थे ॥ १९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन्नतिसुखे काले धनुष्मानिषुमान् रथी ।
व्यायामकृतसङ्कल्पः सरयूमन्वगां नदीम् ॥ २० ॥

मूलम्

तस्मिन्नतिसुखे काले धनुष्मानिषुमान् रथी ।
व्यायामकृतसङ्कल्पः सरयूमन्वगां नदीम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वर्षा ऋतुके उस अत्यन्त सुखद सुहावने समयमें मैं धनुष-बाण लेकर रथपर सवार हो शिकार खेलनेके लिये सरयू नदीके तटपर गया ॥ २० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निपाने महिषं रात्रौ गजं वाभ्यागतं मृगम् ।
अन्यद् वा श्वापदं किञ्चिज्जिघांसुरजितेन्द्रियः ॥ २१ ॥

मूलम्

निपाने महिषं रात्रौ गजं वाभ्यागतं मृगम् ।
अन्यद् वा श्वापदं किञ्चिज्जिघांसुरजितेन्द्रियः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेरी इन्द्रियाँ मेरे वशमें नहीं थीं । मैंने सोचा था कि पानी पीनेके घाटपर रातके समय जब कोई उपद्रवकारी भैंसा, मतवाला हाथी अथवा सिंह-व्याघ्र आदि दूसरा कोई हिंसक जन्तु आवेगा तो उसे मारूँगा ॥ २१ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथान्धकारे त्वश्रौषं जले कुम्भस्य पूर्यतः ।
अचक्षुर्विषये घोषं वारणस्येव नर्दतः ॥ २२ ॥

मूलम्

अथान्धकारे त्वश्रौषं जले कुम्भस्य पूर्यतः ।
अचक्षुर्विषये घोषं वारणस्येव नर्दतः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उस समय वहाँ सब ओर अन्धकार छा रहा था । मुझे अकस्मात् पानीमें घड़ा भरनेकी आवाज सुनायी पड़ी । मेरी दृष्टि तो वहाँतक पहुँचती नहीं थी, किंतु वह आवाज मुझे हाथीके पानी पीते समय होनेवाले शब्दके समान जान पड़ी ॥ २२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽहं शरमुद‍्धृत्य दीप्तमाशीविषोपमम् ।
शब्दं प्रति गजप्रेप्सुरभिलक्ष्यमपातयम् ॥ २३ ॥

मूलम्

ततोऽहं शरमुद‍्धृत्य दीप्तमाशीविषोपमम् ।
शब्दं प्रति गजप्रेप्सुरभिलक्ष्यमपातयम् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तब मैंने यह समझकर कि हाथी ही अपनी सूँड़में पानी खींच रहा होगा; अतः वही मेरे बाणका निशाना बनेगा । तरकससे एक तीर निकाला और उस शब्दको लक्ष्य करके चला दिया । वह दीप्तिमान् बाण विषधर सर्पके समान भयंकर था ॥ २३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमुञ्चं निशितं बाणमहमाशीविषोपमम् ।
तत्र वागुषसि व्यक्ता प्रादुरासीद् वनौकसः ॥ २४ ॥
हा हेति पततस्तोये बाणाद् व्यथितमर्मणः ।
तस्मिन्निपतिते भूमौ वागभूत् तत्र मानुषी ॥ २५ ॥

मूलम्

अमुञ्चं निशितं बाणमहमाशीविषोपमम् ।
तत्र वागुषसि व्यक्ता प्रादुरासीद् वनौकसः ॥ २४ ॥
हा हेति पततस्तोये बाणाद् व्यथितमर्मणः ।
तस्मिन्निपतिते भूमौ वागभूत् तत्र मानुषी ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वह उषःकालकी वेला थी । विषैले सर्पके सदृश उस तीखे बाणको मैंने ज्यों ही छोड़ा, त्यों ही वहाँ पानीमें गिरते हुए किसी वनवासीका हाहाकार मुझे स्पष्टरूपसे सुनायी दिया । मेरे बाणसे उसके मर्ममें बड़ी पीड़ा हो रही थी । उस पुरुषके धराशायी हो जानेपर वहाँ यह मानव-वाणी प्रकट हुई—सुनायी देने लगी— ॥ २४-२५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथमस्मद्विधे शस्त्रं निपतेच्च तपस्विनि ।
प्रविविक्तां नदीं रात्रावुदाहारोऽहमागतः ॥ २६ ॥

मूलम्

कथमस्मद्विधे शस्त्रं निपतेच्च तपस्विनि ।
प्रविविक्तां नदीं रात्रावुदाहारोऽहमागतः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘आह! मेरे-जैसे तपस्वीपर शस्त्रका प्रहार कैसे सम्भव हुआ? मैं तो नदीके इस एकान्त तटपर रातमें पानी लेनेके लिये आया था ॥ २६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इषुणाभिहतः केन कस्य वापकृतं मया ।
ऋषेर्हि न्यस्तदण्डस्य वने वन्येन जीवतः ॥ २७ ॥
कथं नु शस्त्रेण वधो मद्विधस्य विधीयते ।
जटाभारधरस्यैव वल्कलाजिनवाससः ॥ २८ ॥
को वधेन ममार्थी स्यात् किं वास्यापकृतं मया ।
एवं निष्फलमारब्धं केवलानर्थसंहितम् ॥ २९ ॥

मूलम्

इषुणाभिहतः केन कस्य वापकृतं मया ।
ऋषेर्हि न्यस्तदण्डस्य वने वन्येन जीवतः ॥ २७ ॥
कथं नु शस्त्रेण वधो मद्विधस्य विधीयते ।
जटाभारधरस्यैव वल्कलाजिनवाससः ॥ २८ ॥
को वधेन ममार्थी स्यात् किं वास्यापकृतं मया ।
एवं निष्फलमारब्धं केवलानर्थसंहितम् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘किसने मुझे बाण मारा है? मैंने किसका क्या बिगाड़ा था? मैं तो सभी जीवोंको पीड़ा देनेकी वृत्तिका त्याग करके ऋषि-जीवन बिताता था, वनमें रहकर जंगली फल-मूलोंसे ही जीविका चलाता था । मुझ-जैसे निरपराध मनुष्यका शस्त्रसे वध क्यों किया जा रहा है? मैं वल्कल और मृगचर्म पहननेवाला जटाधारी तपस्वी हूँ । मेरा वध करनेमें किसने अपना क्या लाभ सोचा होगा? मैंने मारनेवालेका क्या अपराध किया था? मेरी हत्याका प्रयत्न व्यर्थ ही किया गया! इससे किसीको कुछ लाभ नहीं होगा, केवल अनर्थ ही हाथ लगेगा ॥ २७—२९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न क्वचित् साधु मन्येत यथैव गुरुतल्पगम् ।
नेमं तथानुशोचामि जीवितक्षयमात्मनः ॥ ३० ॥
मातरं पितरं चोभावनुशोचामि मद्वधे ।
तदेतन्मिथुनं वृद्धं चिरकालभृतं मया ॥ ३१ ॥
मयि पञ्चत्वमापन्ने कां वृत्तिं वर्तयिष्यति ।
वृद्धौ च मातापितरावहं चैकेषुणा हतः ॥ ३२ ॥
केन स्म निहताः सर्वे सुबालेनाकृतात्मना ।

मूलम्

न क्वचित् साधु मन्येत यथैव गुरुतल्पगम् ।
नेमं तथानुशोचामि जीवितक्षयमात्मनः ॥ ३० ॥
मातरं पितरं चोभावनुशोचामि मद्वधे ।
तदेतन्मिथुनं वृद्धं चिरकालभृतं मया ॥ ३१ ॥
मयि पञ्चत्वमापन्ने कां वृत्तिं वर्तयिष्यति ।
वृद्धौ च मातापितरावहं चैकेषुणा हतः ॥ ३२ ॥
केन स्म निहताः सर्वे सुबालेनाकृतात्मना ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘इस हत्यारेको संसारमें कहीं भी कोई उसी तरह अच्छा नहीं समझेगा, जैसे गुरुपत्नीगामीको । मुझे अपने इस जीवनके नष्ट होनेकी उतनी चिन्ता नहीं है; मेरे मारे जानेसे मेरे माता-पिताको जो कष्ट होगा, उसीके लिये मुझे बारंबार शोक हो रहा है । मैंने इन दोनों वृद्धोंका बहुत समयसे पालन-पोषण किया है; अब मेरे शरीरके न रहनेपर ये किस प्रकार जीवन-निर्वाह करेंगे? घातकने एक ही बाणसे मुझे और मेरे बूढ़े माता-पिताको भी मौतके मुखमें डाल दिया । किस विवेकहीन और अजितेन्द्रिय पुरुषने हम सब लोगोंका एक साथ ही वध कर डाला?’ ॥ ३०—३२ १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तां गिरं करुणं श्रुत्वा मम धर्मानुकाङ्क्षिणः ॥ ३३ ॥
कराभ्यां सशरं चापं व्यथितस्यापतद् भुवि ।

मूलम्

तां गिरं करुणं श्रुत्वा मम धर्मानुकाङ्क्षिणः ॥ ३३ ॥
कराभ्यां सशरं चापं व्यथितस्यापतद् भुवि ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘ये करुणाभरे वचन सुनकर मेरे मनमें बड़ी व्यथा हुई । कहाँ तो मैं धर्मकी अभिलाषा रखनेवाला था और कहाँ यह अधर्मका कार्य बन गया । उस समय मेरे हाथोंसे धनुष और बाण छूटकर पृथ्वीपर गिर पड़े ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्याहं करुणं श्रुत्वा ऋषेर्विलपतो निशि ॥ ३४ ॥
सम्भ्रान्तः शोकवेगेन भृशमासं विचेतनः ।

मूलम्

तस्याहं करुणं श्रुत्वा ऋषेर्विलपतो निशि ॥ ३४ ॥
सम्भ्रान्तः शोकवेगेन भृशमासं विचेतनः ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘रातमें विलाप करते हुए ऋषिका वह करुण वचन सुनकर मैं शोकके वेगसे घबरा उठा । मेरी चेतना अत्यन्त विलुप्त-सी होने लगी ॥ ३४ १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं देशमहमागम्य दीनसत्त्वः सुदुर्मनाः ॥ ३५ ॥
अपश्यमिषुणा तीरे सरय्वास्तापसं हतम् ।
अवकीर्णजटाभारं प्रविद्धकलशोदकम् ॥ ३६ ॥
पांसुशोणितदिग्धाङ्गं शयानं शल्यवेधितम् ।
स मामुद्वीक्ष्य नेत्राभ्यां त्रस्तमस्वस्थचेतनम् ॥ ३७ ॥
इत्युवाच वचः क्रूरं दिधक्षन्निव तेजसा ।

मूलम्

तं देशमहमागम्य दीनसत्त्वः सुदुर्मनाः ॥ ३५ ॥
अपश्यमिषुणा तीरे सरय्वास्तापसं हतम् ।
अवकीर्णजटाभारं प्रविद्धकलशोदकम् ॥ ३६ ॥
पांसुशोणितदिग्धाङ्गं शयानं शल्यवेधितम् ।
स मामुद्वीक्ष्य नेत्राभ्यां त्रस्तमस्वस्थचेतनम् ॥ ३७ ॥
इत्युवाच वचः क्रूरं दिधक्षन्निव तेजसा ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेरे हृदयमें दीनता छा गयी, मन बहुत दुःखी हो गया । सरयूके किनारे उस स्थानपर जाकर मैंने देखा—एक तपस्वी बाणसे घायल होकर पड़े हैं । उनकी जटाएँ बिखरी हुई हैं, घड़ेका जल गिर गया है तथा सारा शरीर धूल और खूनमें सना हुआ है । वे बाणसे बिंधे हुए पड़े थे । उनकी अवस्था देखकर मैं डर गया, मेरा चित्त ठिकाने नहीं था । उन्होंने दोनों नेत्रोंसे मेरी ओर इस प्रकार देखा, मानो अपने तेजसे मुझे भस्म कर देना चाहते हों । वे कठोर वाणीमें यों बोले— ॥ ३५—३७ १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं तवापकृतं राजन् वने निवसता मया ॥ ३८ ॥
जिहीर्षुरम्भो गुर्वर्थं यदहं ताडितस्त्वया ।

मूलम्

किं तवापकृतं राजन् वने निवसता मया ॥ ३८ ॥
जिहीर्षुरम्भो गुर्वर्थं यदहं ताडितस्त्वया ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘राजन्! वनमें रहते हुए मैंने तुम्हारा कौन-सा अपराध किया था, जिससे तुमने मुझे बाण मारा? मैं तो माता-पिताके लिये पानी लेनेकी इच्छासे यहाँ आया था ॥ ३८ १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकेन खलु बाणेन मर्मण्यभिहते मयि ॥ ३९ ॥
द्वावन्धौ निहतौ वृद्धौ माता जनयिता च मे ।

मूलम्

एकेन खलु बाणेन मर्मण्यभिहते मयि ॥ ३९ ॥
द्वावन्धौ निहतौ वृद्धौ माता जनयिता च मे ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘तुमने एक ही बाणसे मेरा मर्म विदीर्ण करके मेरे दोनों अन्धे और बूढ़े माता-पिताको भी मार डाला ॥ ३९ १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तौ नूनं दुर्बलावन्धौ मत्प्रतीक्षौ पिपासितौ ॥ ४० ॥
चिरमाशां कृतां कष्टां तृष्णां सन्धारयिष्यतः ।

मूलम्

तौ नूनं दुर्बलावन्धौ मत्प्रतीक्षौ पिपासितौ ॥ ४० ॥
चिरमाशां कृतां कष्टां तृष्णां सन्धारयिष्यतः ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘वे दोनों बहुत दुबले और अन्धे हैं । निश्चय ही प्याससे पीड़ित होकर वे मेरी प्रतीक्षामें बैठे होंगे । वे देरतक मेरे आगमनकी आशा लगाये दुःखदायिनी प्यास लिये बाट जोहते रहेंगे ॥ ४० १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न नूनं तपसो वास्ति फलयोगः श्रुतस्य वा ॥ ४१ ॥
पिता यन्मां न जानीते शयानं पतितं भुवि ।

मूलम्

न नूनं तपसो वास्ति फलयोगः श्रुतस्य वा ॥ ४१ ॥
पिता यन्मां न जानीते शयानं पतितं भुवि ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘अवश्य ही मेरी तपस्या अथवा शास्त्रज्ञानका कोई फल यहाँ प्रकट नहीं हो रहा है; क्योंकि पिताजीको यह नहीं मालूम है कि मैं पृथ्वीपर गिरकर मृत्युशय्यापर पड़ा हुआ हूँ ॥ ४१ १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जानन्नपि च किं कुर्यादशक्तश्चापरिक्रमः ॥ ४२ ॥
भिद्यमानमिवाशक्तस्त्रातुमन्यो नगो नगम् ।

मूलम्

जानन्नपि च किं कुर्यादशक्तश्चापरिक्रमः ॥ ४२ ॥
भिद्यमानमिवाशक्तस्त्रातुमन्यो नगो नगम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘यदि जान भी लें तो क्या कर सकते हैं; क्योंकि असमर्थ हैं और चल-फिर भी नहीं सकते हैं । जैसे वायु आदिके द्वारा तोड़े जाते हुए वृक्षको कोई दूसरा वृक्ष नहीं बचा सकता, उसी प्रकार मेरे पिता भी मेरी रक्षा नहीं कर सकते ॥ ४२ १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पितुस्त्वमेव मे गत्वा शीघ्रमाचक्ष्व राघव ॥ ४३ ॥
न त्वामनुदहेत् क्रुद्धो वनमग्निरिवैधितः ।

मूलम्

पितुस्त्वमेव मे गत्वा शीघ्रमाचक्ष्व राघव ॥ ४३ ॥
न त्वामनुदहेत् क्रुद्धो वनमग्निरिवैधितः ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘अतः रघुकुलनरेश! अब तुम्हीं जाकर शीघ्र ही मेरे पिताको यह समाचार सुना दो । (यदि स्वयं कह दोगे तो) जैसे प्रज्वलित अग्नि समूचे वनको जला डालती है, उस प्रकार वे क्रोधमें भरकर तुमको भस्म नहीं करेंगे ॥ ४३ १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इयमेकपदी राजन् यतो मे पितुराश्रमः ॥ ४४ ॥
तं प्रसादय गत्वा त्वं न त्वा सङ्कुपितः शपेत् ।

मूलम्

इयमेकपदी राजन् यतो मे पितुराश्रमः ॥ ४४ ॥
तं प्रसादय गत्वा त्वं न त्वा सङ्कुपितः शपेत् ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘राजन्! यह पगडंडी उधर ही गयी है, जहाँ मेरे पिताका आश्रम है । तुम जाकर उन्हें प्रसन्न करो, जिससे वे कुपित होकर तुम्हें शाप न दें ॥ ४४ १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विशल्यं कुरु मां राजन् मर्म मे निशितः शरः ॥ ४५ ॥
रुणद्धि मृदु सोत्सेधं तीरमम्बुरयो यथा ।

मूलम्

विशल्यं कुरु मां राजन् मर्म मे निशितः शरः ॥ ४५ ॥
रुणद्धि मृदु सोत्सेधं तीरमम्बुरयो यथा ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘राजन्! मेरे शरीरसे इस बाणको निकाल दो । यह तीखा बाण मेरे मर्मस्थानको उसी प्रकार पीड़ा दे रहा है, जैसे नदीके जलका वेग उसके कोमल बालुकामय ऊँचे तटको छिन्न-भिन्न कर देता है’ ॥ ४५ १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सशल्यः क्लिश्यते प्राणैर्विशल्यो विनशिष्यति ॥ ४६ ॥
इति मामविशच्चिन्ता तस्य शल्यापकर्षणे ।
दुःखितस्य च दीनस्य मम शोकातुरस्य च ॥ ४७ ॥
लक्षयामास स ऋषिश्चिन्तां मुनिसुतस्तदा ।

मूलम्

सशल्यः क्लिश्यते प्राणैर्विशल्यो विनशिष्यति ॥ ४६ ॥
इति मामविशच्चिन्ता तस्य शल्यापकर्षणे ।
दुःखितस्य च दीनस्य मम शोकातुरस्य च ॥ ४७ ॥
लक्षयामास स ऋषिश्चिन्तां मुनिसुतस्तदा ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘मुनिकुमारकी यह बात सुनकर मेरे मनमें यह चिन्ता समायी कि यदि बाण नहीं निकालता हूँ तो इन्हें क्लेश होता है और निकाल देता हूँ तो ये अभी प्राणोंसे भी हाथ धो बैठते हैं । इस प्रकार बाणको निकालनेके विषयमें मुझ दीन-दुःखी और शोकाकुल दशरथकी इस चिन्ताको उस समय मुनिकुमारने लक्ष्य किया ॥ ४६-४७ १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ताम्यमानं स मां कृच्छ्रादुवाच परमार्थवित् ॥ ४८ ॥
सीदमानो विवृत्ताङ्गोऽचेष्टमानो गतः क्षयम् ।
संस्तभ्य शोकं धैर्येण स्थिरचित्तो भवाम्यहम् ॥ ४९ ॥

मूलम्

ताम्यमानं स मां कृच्छ्रादुवाच परमार्थवित् ॥ ४८ ॥
सीदमानो विवृत्ताङ्गोऽचेष्टमानो गतः क्षयम् ।
संस्तभ्य शोकं धैर्येण स्थिरचित्तो भवाम्यहम् ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यथार्थ बातको समझ लेनेवाले उन महर्षिने मुझे अत्यन्त ग्लानिमें पड़ा हुआ देख बड़े कष्टसे कहा—‘राजन्! मुझे बड़ा कष्ट हो रहा है । मेरी आँखें चढ़ गयी हैं, अङ्ग-अङ्गमें तड़पन हो रही है । मुझसे कोई चेष्टा नहीं बन पाती । अब मैं मृत्युके समीप पहुँच गया हूँ, फिर भी धैर्यके द्वारा शोकको रोककर अपने चित्तको स्थिर करता हूँ (अब मेरी बात सुनो) ॥ ४८-४९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्महत्याकृतं तापं हृदयादपनीयताम् ।
न द्विजातिरहं राजन् मा भूत् ते मनसो व्यथा ॥ ५० ॥

मूलम्

ब्रह्महत्याकृतं तापं हृदयादपनीयताम् ।
न द्विजातिरहं राजन् मा भूत् ते मनसो व्यथा ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘मुझसे ब्रह्महत्या हो गयी—इस चिन्ताको अपने हृदयसे निकाल दो । राजन्! मैं ब्राह्मण नहीं हूँ, इसलिये तुम्हारे मनमें ब्राह्मणवधको लेकर कोई व्यथा नहीं होनी चाहिये ॥ ५० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शूद्रायामस्मि वैश्येन जातो नरवराधिप ।
इतीव वदतः कृच्छ्राद् बाणाभिहतमर्मणः ॥ ५१ ॥
विघूर्णतो विचेष्टस्य वेपमानस्य भूतले ।
तस्य त्वाताम्यमानस्य तं बाणमहमुद्धरम् ।
स मामुद्वीक्ष्य सन्त्रस्तो जहौ प्राणांस्तपोधनः ॥ ५२ ॥

मूलम्

शूद्रायामस्मि वैश्येन जातो नरवराधिप ।
इतीव वदतः कृच्छ्राद् बाणाभिहतमर्मणः ॥ ५१ ॥
विघूर्णतो विचेष्टस्य वेपमानस्य भूतले ।
तस्य त्वाताम्यमानस्य तं बाणमहमुद्धरम् ।
स मामुद्वीक्ष्य सन्त्रस्तो जहौ प्राणांस्तपोधनः ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘नरश्रेष्ठ! मैं वैश्य पिताद्वारा शूद्रजातीय माताके गर्भसे उत्पन्न हुआ हूँ ।’ बाणसे मर्ममें आघात पहुँचनेके कारण वे बड़े कष्टसे इतना ही कह सके । उनकी आँखें घूम रही थीं । उनसे कोई चेष्टा नहीं बनती थी । वे पृथ्वीपर पड़े-पड़े छटपटा रहे थे और अत्यन्त कष्टका अनुभव करते थे । उस अवस्थामें मैंने उनके शरीरसे उस बाणको निकाल दिया । फिर तो अत्यन्त भयभीत हो उन तपोधनने मेरी ओर देखकर अपने प्राण त्याग दिये ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जलार्द्रगात्रं तु विलप्य कृच्छ्रं
मर्मव्रणं सन्ततमुच्छ्वसन्तम् ।
ततः सरय्वां तमहं शयानं
समीक्ष्य भद्रे सुभृशं विषण्णः ॥ ५३ ॥

मूलम्

जलार्द्रगात्रं तु विलप्य कृच्छ्रं
मर्मव्रणं सन्ततमुच्छ्वसन्तम् ।
ततः सरय्वां तमहं शयानं
समीक्ष्य भद्रे सुभृशं विषण्णः ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पानीमें गिरनेके कारण उनका सारा शरीर भीग गया था । मर्ममें आघात लगनेके कारण बड़े कष्टसे विलाप करके और बारंबार उच्छ्वास लेकर उन्होंने प्राणोंका त्याग किया था । कल्याणी कौसल्ये! उस अवस्थामें सरयूके तटपर मरे पड़े मुनिपुत्रको देखकर मुझे बड़ा दुःख हुआ’ ॥ ५३ ॥

समाप्तिः

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे त्रिषष्टितमः सर्गः ॥ ६३ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके अयोध्याकाण्डमें तिरसठवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ६३ ॥