०५६ चित्रकूटदर्शनम्

वाचनम्
भागसूचना
  1. वनकी शोभा देखते-दिखाते हुए श्रीराम आदिका चित्रकूटमें पहुँचना, वाल्मीकिजीका दर्शन करके श्रीरामकी आज्ञासे लक्ष्मणद्वारा पर्णशालाका निर्माण तथा उसकी वास्तुशान्ति करके उन सबका कुटीमें प्रवेश
विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ रात्र्यां व्यातीतायामवसुप्तमनन्तरम् ।
प्रबोधयामास शनैर्लक्ष्मणं रघुपुङ्गवः ॥ १ ॥

मूलम्

अथ रात्र्यां व्यातीतायामवसुप्तमनन्तरम् ।
प्रबोधयामास शनैर्लक्ष्मणं रघुपुङ्गवः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर रात्रि व्यतीत होनेपर रघुकुल-शिरोमणि श्रीरामने अपने जागनेके बाद वहाँ सोये हुए लक्ष्मणको धीरेसे जगाया (और इस प्रकार कहा—) ॥ १ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सौमित्रे शृणु वन्यानां वल्गु व्याहरतां स्वनम् ।
सम्प्रतिष्ठामहे कालः प्रस्थानस्य परन्तप ॥ २ ॥

मूलम्

सौमित्रे शृणु वन्यानां वल्गु व्याहरतां स्वनम् ।
सम्प्रतिष्ठामहे कालः प्रस्थानस्य परन्तप ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शत्रुओंको संताप देनेवाले सुमित्राकुमार! मीठी बोली बोलनेवाले शुक-पिक आदि जंगली पक्षियोंका कलरव सुनो । अब हमलोग यहाँसे प्रस्थान करें; क्योंकि प्रस्थानके योग्य समय आ गया है’ ॥ २ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रसुप्तस्तु ततो भ्रात्रा समये प्रतिबोधितः ।
जहौ निद्रां च तन्द्रां च प्रसक्तं च परिश्रमम् ॥ ३ ॥

मूलम्

प्रसुप्तस्तु ततो भ्रात्रा समये प्रतिबोधितः ।
जहौ निद्रां च तन्द्रां च प्रसक्तं च परिश्रमम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सोये हुए लक्ष्मणने अपने बड़े भाईद्वारा ठीक समयपर जगा दिये जानेपर निद्रा, आलस्य तथा राह चलनेकी थकावटको दूर कर दिया ॥ ३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत उत्थाय ते सर्वे स्पृष्ट्वा नद्याः शिवं जलम् ।
पन्थानमृषिभिर्जुष्टं चित्रकूटस्य तं ययुः ॥ ४ ॥

मूलम्

तत उत्थाय ते सर्वे स्पृष्ट्वा नद्याः शिवं जलम् ।
पन्थानमृषिभिर्जुष्टं चित्रकूटस्य तं ययुः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर सब लोग उठे और यमुना नदीके शीतल जलमें स्नान आदि करके ऋषि-मुनियोंद्वारा सेवित चित्रकूटके उस मार्गपर चल दिये ॥ ४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सम्प्रस्थितः काले रामः सौमित्रिणा सह ।
सीतां कमलपत्राक्षीमिदं वचनमब्रवीत् ॥ ५ ॥

मूलम्

ततः सम्प्रस्थितः काले रामः सौमित्रिणा सह ।
सीतां कमलपत्राक्षीमिदं वचनमब्रवीत् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय लक्ष्मणके साथ वहाँसे प्रस्थित हुए श्रीरामने कमलनयनी सीतासे इस प्रकार कहा— ॥ ५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आदीप्तान् इव वैदेहि
सर्वतः पुष्पितान् नगान् ।
स्वैः पुष्पैः किंशुकान् पश्य
मालिनः शिशिरात्यये ॥ ६ ॥+++(4)+++

मूलम्

आदीप्तानिव वैदेहि सर्वतः पुष्पितान् नगान् ।
स्वैः पुष्पैः किंशुकान् पश्य मालिनः शिशिरात्यये ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘विदेहराजनन्दिनी! इस वसन्त-ऋतुमें सब ओरसे खिले हुए इन पलाश-वृक्षोंको तो देखो । ये अपने ही पुष्पोंसे पुष्पमालाधारी-से प्रतीत होते हैं और उन फूलोंकी अरुण प्रभाके कारण प्रज्वलित होते-से दिखायी देते हैं ॥ ६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पश्य भल्लातकान् बिल्वान् नरैरनुपसेवितान् ।
फलपुष्पैरवनतान् नूनं शक्ष्याम जीवितुम् ॥ ७ ॥

मूलम्

पश्य भल्लातकान् बिल्वान् नरैरनुपसेवितान् ।
फलपुष्पैरवनतान् नूनं शक्ष्याम जीवितुम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘देखो, ये भिलावे और बेलके पेड़ अपने फूलों और फलोंके भारसे झुके हुए हैं । दूसरे मनुष्योंका यहाँतक आना सम्भव न होनेसे ये उनके द्वारा उपयोगमें नहीं लाये गये हैं; अतः निश्चय ही इन फलोंसे हम जीवन निर्वाह कर सकेंगे’ ॥ ७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पश्य द्रोणप्रमाणानि लम्बमानानि लक्ष्मण ।
मधूनि मधुकारीभिः सम्भृतानि नगे नगे ॥ ८ ॥

मूलम्

पश्य द्रोणप्रमाणानि लम्बमानानि लक्ष्मण ।
मधूनि मधुकारीभिः सम्भृतानि नगे नगे ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(फिर लक्ष्मणसे कहा—) ‘लक्ष्मण! देखो, यहाँके एक-एक वृक्षमें मधुमक्खियोंद्वारा लगाये और पुष्ट किये गये मधुके छत्ते कैसे लटक रहे हैं । इन सबमें एक-एक द्रोण (लगभग सोलह सेर) मधु भरा हुआ है ॥ ८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष क्रोशति नत्यूहस्तं शिखी प्रतिकूजति ।
रमणीये वनोद्देशे पुष्पसंस्तरसङ्कटे ॥ ९ ॥

मूलम्

एष क्रोशति नत्यूहस्तं शिखी प्रतिकूजति ।
रमणीये वनोद्देशे पुष्पसंस्तरसङ्कटे ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वनका यह भाग बड़ा ही रमणीय है, यहाँ फूलोंकी वर्षा-सी हो रही है और सारी भूमि पुष्पोंसे आच्छादित दिखायी देती है । इस वनप्रान्तमें यह चातक ‘पी कहाँ’ ‘पी कहाँ’ की रट लगा रहा है । उधर वह मोर बोल रहा है, मानो पपीहेकी बातका उत्तर दे रहा हो ॥ ९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मातङ्गयूथानुसृतं पक्षिसङ्घानुनादितम् ।
चित्रकूटमिमं पश्य प्रवृद्धशिखरं गिरिम् ॥ १० ॥

मूलम्

मातङ्गयूथानुसृतं पक्षिसङ्घानुनादितम् ।
चित्रकूटमिमं पश्य प्रवृद्धशिखरं गिरिम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यह रहा चित्रकूट पर्वत—इसका शिखर बहुत ऊँचा है । झुंड-के-झुंड हाथी उसी ओर जा रहे हैं और वहाँ बहुत-से पक्षी चहक रहे हैं ॥ १० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समभूमितले रम्ये द्रुमैर्बहुभिरावृते ।
पुण्ये रंस्यामहे तात चित्रकूटस्य कानने ॥ ११ ॥

मूलम्

समभूमितले रम्ये द्रुमैर्बहुभिरावृते ।
पुण्ये रंस्यामहे तात चित्रकूटस्य कानने ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तात! जहाँकी भूमि समतल है और जो बहुत-से वृक्षोंसे भरा हुआ है, चित्रकूटके उस पवित्र काननमें हमलोग बड़े आनन्दसे विचरेंगे’ ॥ ११ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तौ पादचारेण गच्छन्तौ सह सीतया ।
रम्यमासेदतुः शैलं चित्रकूटं मनोरमम् ॥ १२ ॥

मूलम्

ततस्तौ पादचारेण गच्छन्तौ सह सीतया ।
रम्यमासेदतुः शैलं चित्रकूटं मनोरमम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सीताके साथ दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण पैदल ही यात्रा करते हुए यथासमय रमणीय एवं मनोरम पर्वत चित्रकूटपर जा पहुँचे ॥ १२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं तु पर्वतमासाद्य नानापक्षिगणायुतम् ।
बहुमूलफलं रम्यं सम्पन्नसरसोदकम् ॥ १३ ॥

मूलम्

तं तु पर्वतमासाद्य नानापक्षिगणायुतम् ।
बहुमूलफलं रम्यं सम्पन्नसरसोदकम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह पर्वत नाना प्रकारके पक्षियोंसे परिपूर्ण था । वहाँ फल-मूलोंकी बहुतायत थी और स्वादिष्ट जल पर्याप्त मात्रामें उपलब्ध होता था । उस रमणीय शैलके समीप जाकर श्रीरामने कहा— ॥ १३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनोज्ञोऽयं गिरिः सौम्य नानाद्रुमलतायुतः ।
बहुमूलफलो रम्यः स्वाजीवः प्रतिभाति मे ॥ १४ ॥

मूलम्

मनोज्ञोऽयं गिरिः सौम्य नानाद्रुमलतायुतः ।
बहुमूलफलो रम्यः स्वाजीवः प्रतिभाति मे ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सौम्य! यह पर्वत बड़ा मनोहर है । नाना प्रकारके वृक्ष और लताएँ इसकी शोभा बढ़ाती हैं । यहाँ फल-मूल भी बहुत हैं; यह रमणीय तो है ही । मुझे जान पड़ता है कि यहाँ बड़े सुखसे जीवन-निर्वाह हो सकता है ॥ १४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुनयश्च महात्मानो वसन्त्यस्मिन् शिलोच्चये ।
अयं वासो भवेत् तात वयमत्र वसेमहि ॥ १५ ॥

मूलम्

मुनयश्च महात्मानो वसन्त्यस्मिन् शिलोच्चये ।
अयं वासो भवेत् तात वयमत्र वसेमहि ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस पर्वतपर बहुत-से महात्मा मुनि निवास करते हैं । तात! यही हमारा वासस्थान होनेयोग्य है । हम यहीं निवास करेंगे’ ॥ १५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति सीता च रामश्च लक्ष्मणश्च कृताञ्जलिः ।
अभिगम्याश्रमं सर्वे वाल्मीकिमभिवादयन् ॥ १६ ॥

मूलम्

इति सीता च रामश्च लक्ष्मणश्च कृताञ्जलिः ।
अभिगम्याश्रमं सर्वे वाल्मीकिमभिवादयन् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा निश्चय करके सीता, श्रीराम और लक्ष्मणने हाथ जोड़कर महर्षि वाल्मीकिके आश्रममें प्रवेश किया और सबने उनके चरणोंमें मस्तक झुकाया ॥ १६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तान् महर्षिः प्रमुदितः पूजयामास धर्मवित् ।
आस्यतामिति चोवाच स्वागतं तं निवेद्य च ॥ १७ ॥

मूलम्

तान् महर्षिः प्रमुदितः पूजयामास धर्मवित् ।
आस्यतामिति चोवाच स्वागतं तं निवेद्य च ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मको जाननेवाले महर्षि उनके आगमनसे बहुत प्रसन्न हुए और ‘आपलोगोंका स्वागत है । आइये,बैठिये ।’ ऐसा कहते हुए उन्होंने उनका आदर-सत्कार किया ॥ १७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽब्रवीन् महाबाहुर्
लक्ष्मणं लक्ष्मणाग्रजः ।
सन्निवेद्य यथान्यायम्
आत्मानम् ऋषये प्रभुः ॥ १८ ॥

मूलम्

ततोऽब्रवीन्महाबाहुर्लक्ष्मणं लक्ष्मणाग्रजः ।
सन्निवेद्य यथान्यायमात्मानमृषये प्रभुः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर महाबाहु भगवान् श्रीरामने महर्षिको अपना यथोचित परिचय दिया और लक्ष्मणसे कहा— ॥ १८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लक्ष्मणानय दारूणि
दृढानि च वराणि च ।
कुरुष्वावसथं सौम्य
वासे मेऽभिरतं मनः ॥ १९ ॥

मूलम्

लक्ष्मणानय दारूणि दृढानि च वराणि च ।
कुरुष्वावसथं सौम्य वासे मेऽभिरतं मनः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सौम्य लक्ष्मण! तुम जंगलसे अच्छी-अच्छी मजबूत लकड़ियाँ ले आओ और रहनेके लिये एक कुटी तैयार करो । यहीं निवास करनेको मेरा जी चाहता है’ ॥ १९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा
सौमित्रिर्विविधान् द्रुमान् ।
आजहार ततश्चक्रे
पर्णशालाम् अरिन्दमः ॥ २० ॥

मूलम्

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा सौमित्रिर्विविधान् द्रुमान् ।
आजहार ततश्चक्रे पर्णशालामरिन्दमः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामकी यह बात सुनकर शत्रुदमन लक्ष्मण अनेक प्रकारके वृक्षोंकी डालियाँ काट लाये और उनके द्वारा एक पर्णशाला तैयार की ॥ २० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तां निष्ठितां बद्धकटां दृष्ट्वा रामः सुदर्शनाम् ।
शुश्रूषमाणमेकाग्रमिदं वचनमब्रवीत् ॥ २१ ॥

मूलम्

तां निष्ठितां बद्धकटां दृष्ट्वा रामः सुदर्शनाम् ।
शुश्रूषमाणमेकाग्रमिदं वचनमब्रवीत् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह कुटी बाहर-भीतरसे लकड़ीकी ही दीवारसे सुस्थिर बनायी गयी थी और उसे ऊपरसे छा दिया गया था, जिससे वर्षा आदिका निवारण हो । वह देखनेमें बड़ी सुन्दर लगती थी । उसे तैयार हुई देखकर एकाग्रचित्त होकर अपनी बात सुननेवाले लक्ष्मणसे श्रीरामने इस प्रकार कहा— ॥ २१ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐणेयं मांसमाहृत्य शालां यक्ष्यामहे वयम् ।
कर्तव्यं वास्तुशमनं सौमित्रे चिरजीविभिः ॥ २२ ॥

मूलम्

ऐणेयं मांसमाहृत्य शालां यक्ष्यामहे वयम् ।
कर्तव्यं वास्तुशमनं सौमित्रे चिरजीविभिः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सुमित्राकुमार! हम गजकन्दका गूदा लेकर उसीसे पर्णशालाके अधिष्ठाता देवताओंका पूजन करेंगे;* क्योंकि दीर्घ जीवनकी इच्छा करनेवाले पुरुषोंको वास्तुशान्ति अवश्य करनी चाहिये ॥ २२ ॥

पादटिप्पनी
  • यहाँ ‘ऐणेयं मांसम्’ का अर्थ है—गजकन्द नामक कन्द विशेषका गूदा । इस प्रसंगमें मांसपरक अर्थ नहीं लेना चाहिये; क्योंकि ऐसा अर्थ लेनेपर ‘हित्वा मुनिवदामिषम्’ (२ । २० । २९), ‘फलानि मूलानि च भक्षयन् वने’ (२ । ३४ । ५९) तथा ‘धर्ममेवाचरिष्यामस्तत्र मूलफलाशनाः’ (२ । ५४ । १६) इत्यादि रूपसे की हुई श्रीरामकी प्रतिज्ञाओंसे विरोध पड़ेगा । इन वचनोंमें निरामिष रहने और फल-मूल खाकर धर्माचरण करनेकी ही बात कही गयी है । ‘रामो द्विर्नाभिभाषते’ (श्रीराम दो तरहकी बात नहीं कहते हैं, एक बार जो कह दिया, वह अटल है) इस कथनके अनुसार श्रीरामकी प्रतिज्ञा टलनेवाली नहीं है ।
विश्वास-प्रस्तुतिः

मृगं हत्वाऽऽनय क्षिप्रं लक्ष्मणेह शुभेक्षण ।
कर्तव्यः शास्त्रदृष्टो हि विधिर्धर्ममनुस्मर ॥ २३ ॥

मूलम्

मृगं हत्वाऽऽनय क्षिप्रं लक्ष्मणेह शुभेक्षण ।
कर्तव्यः शास्त्रदृष्टो हि विधिर्धर्ममनुस्मर ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कल्याणदर्शी लक्ष्मण! तुम ‘गजकन्द’ नामक कन्दको* उखाड़कर या खोदकर शीघ्र यहाँ ले आओ; क्योंकि शास्त्रोक्त विधिका अनुष्ठान हमारे लिये अवश्य-कर्तव्य है । तुम धर्मका ही सदा चिन्तन किया करो’ ॥ २३ ॥

पादटिप्पनी
  • मदनपाल-निघण्टुके अनुसार ‘मृग’ का अर्थ गजकन्द है ।
विश्वास-प्रस्तुतिः

भ्रातुर्वचनमाज्ञाय लक्ष्मणः परवीरहा ।
चकार च यथोक्तं हि तं रामः पुनरब्रवीत् ॥ २४ ॥

मूलम्

भ्रातुर्वचनमाज्ञाय लक्ष्मणः परवीरहा ।
चकार च यथोक्तं हि तं रामः पुनरब्रवीत् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भाईकी इस बातको समझकर शत्रुवीरोंका वध करनेवाले लक्ष्मणने उनके कथनानुसार कार्य किया । तब श्रीरामने पुनः उनसे कहा— ॥ २४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐणेयं श्रपयस्वैतच्छालां यक्ष्यामहे वयम् ।
त्वर सौम्यमुहूर्तोऽयं ध्रुवश्च दिवसो ह्ययम् ॥ २५ ॥

मूलम्

ऐणेयं श्रपयस्वैतच्छालां यक्ष्यामहे वयम् ।
त्वर सौम्यमुहूर्तोऽयं ध्रुवश्च दिवसो ह्ययम् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘लक्ष्मण! इस गजकन्दको पकाओ । हम पर्णशालाके अधिष्ठाता देवताओंका पूजन करेंगे । जल्दी करो । यह सौम्यमुहूर्त है और यह दिन भी ‘ध्रुव’* संज्ञक है (अतः इसीमें यह शुभ कार्य होना चाहिये)’ ॥ २५ ॥

पादटिप्पनी
  • ‘उत्तरात्रयरोहिण्यो भास्करश्च ध्रुवं स्थिरम् ।’ (मुहूर्तचिन्तामणि)
    अर्थात तीनों उत्तरा और रोहिणी नक्षत्र तथा रविवार—ये ‘ध्रुव’ एवं ‘स्थिर’ संज्ञक हैं । इसमें गृहशान्ति या वास्तुशान्ति आदि कार्य अच्छे माने गये हैं ।
विश्वास-प्रस्तुतिः

स लक्ष्मणः कृष्णमृगं हत्वा मेध्यं प्रतापवान् ।
अथ चिक्षेप सौमित्रिः समिद्धे जातवेदसि ॥ २६ ॥

मूलम्

स लक्ष्मणः कृष्णमृगं हत्वा मेध्यं प्रतापवान् ।
अथ चिक्षेप सौमित्रिः समिद्धे जातवेदसि ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रतापी सुमित्राकुमार लक्ष्मणने पवित्र और काले छिलकेवाले गजकन्दको उखाड़कर प्रज्वलित आगमें डाल दिया ॥ २६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत् तु पक्वं समाज्ञाय निष्टप्तं छिन्नशोणितम् ।
लक्ष्मणः पुरुषव्याघ्रमथ राघवमब्रवीत् ॥ २७ ॥

मूलम्

तत् तु पक्वं समाज्ञाय निष्टप्तं छिन्नशोणितम् ।
लक्ष्मणः पुरुषव्याघ्रमथ राघवमब्रवीत् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रक्तविकारका नाश करनेवाले* उस गजकंदको भलीभाँति पका हुआ जानकर लक्ष्मणने पुरुषसिंह श्रीरघुनाथजीसे कहा— ॥ २७ ॥

पादटिप्पनी
  • ‘छिन्नशोणितम्’ की व्युत्पत्ति इस प्रकार है—‘छिन्नं शोणितं रक्तविकाररूपं रोगजातं येन सः तम् ।’ ‘गजकन्द’ रोगविकारका नाशक है’ यह वैद्यकमें प्रसिद्ध है । मदनपाल-निघण्टुके ‘षड्दोषादिकुष्ठहन्ता’ आदि वचनसे भी यह चर्मदोष तथा कुष्ठ आदि रक्तविकारका नाशक सिद्ध होता है ।
विश्वास-प्रस्तुतिः

अयं सर्वः समस्ताङ्गः शृतः कृष्णमृगो मया ।
देवता देवसङ्काश यजस्व कुशलो ह्यसि ॥ २८ ॥

मूलम्

अयं सर्वः समस्ताङ्गः शृतः कृष्णमृगो मया ।
देवता देवसङ्काश यजस्व कुशलो ह्यसि ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘देवोपम तेजस्वी श्रीरघुनाथजी! यह काले छिलकेवाला गजकन्द, जो बिगड़े हुए सभी अङ्गोंको ठीक करनेवाला है,* मेरे द्वारा सम्पूर्णतः पका दिया गया है । अब आप वास्तुदेवताओंका यजन कीजिये; क्योंकि आप इस कर्ममें कुशल हैं ॥ २८ ॥

पादटिप्पनी
  • ‘समस्ताङ्गः’ की व्युत्पत्ति यों समझनी चाहिये—‘सम्यग् भवन्ति अस्तानि अङ्गानि येन सः ।’
विश्वास-प्रस्तुतिः

रामः स्नात्वा तु नियतो गुणवाञ्जपकोविदः ।
सङ्ग्रहेणाकरोत् सर्वान् मन्त्रान् सत्रावसानिकान् ॥ २९ ॥

मूलम्

रामः स्नात्वा तु नियतो गुणवाञ्जपकोविदः ।
सङ्ग्रहेणाकरोत् सर्वान् मन्त्रान् सत्रावसानिकान् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सद‍्गुणसम्पन्न तथा जपकर्मके ज्ञाता श्रीरामचन्द्रजीने स्नान करके शौच-संतोषादि नियमोंके पालनपूर्वक संक्षेपसे उन सभी मन्त्रोंका पाठ एवं जप किया, जिनसे वास्तुयज्ञकी पूर्ति हो जाती है ॥ २९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इष्ट्वा देवगणान् सर्वान् विवेशावसथं शुचिः ।
बभूव च मनोह्लादो रामस्यामिततेजसः ॥ ३० ॥

मूलम्

इष्ट्वा देवगणान् सर्वान् विवेशावसथं शुचिः ।
बभूव च मनोह्लादो रामस्यामिततेजसः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

समस्त देवताओंका पूजन करके पवित्र भावसे श्रीरामने पर्णकुटीमें प्रवेश किया । उस समय अमित-तेजस्वी श्रीरामके मनमें बड़ा आह्लाद हुआ ॥ ३० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वैश्वदेवबलिं कृत्वा रौद्रं वैष्णवमेव च ।
वास्तुसंशमनीयानि मङ्गलानि प्रवर्तयन् ॥ ३१ ॥

मूलम्

वैश्वदेवबलिं कृत्वा रौद्रं वैष्णवमेव च ।
वास्तुसंशमनीयानि मङ्गलानि प्रवर्तयन् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् बलिवैश्वदेव कर्म, रुद्रयाग तथा वैष्णवयाग करके श्रीरामने वास्तुदोषकी शान्तिके लिये मङ्गलपाठ किया ॥ ३१ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जपं च न्यायतः कृत्वा स्नात्वा नद्यां यथाविधि ।
पापसंशमनं रामश्चकार बलिमुत्तमम् ॥ ३२ ॥

मूलम्

जपं च न्यायतः कृत्वा स्नात्वा नद्यां यथाविधि ।
पापसंशमनं रामश्चकार बलिमुत्तमम् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नदीमें विधिपूर्वक स्नान करके न्यायतः गायत्री आदि मन्त्रोंका जप करनेके अनन्तर श्रीरामने पञ्चसूना आदि दोषोंकी शान्तिके लिये उत्तम बलिकर्म सम्पन्न किया ॥ ३२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेदिस्थलविधानानि चैत्यान्यायतनानि च ।
आश्रमस्यानुरूपाणि स्थापयामास राघवः ॥ ३३ ॥

मूलम्

वेदिस्थलविधानानि चैत्यान्यायतनानि च ।
आश्रमस्यानुरूपाणि स्थापयामास राघवः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रघुनाथजीने अपनी छोटी-सी कुटीके अनुरूप ही वेदिस्थलों (आठ दिक्पालोंके लिये बलि-समर्पणके स्थानों), चैत्यों (गणेश आदिके स्थानों) तथा आयतनों (विष्णु आदि देवोंके स्थानों) का निर्माण एवं स्थापना की ॥ ३३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तां वृक्षपर्णच्छदनां मनोज्ञां
यथाप्रदेशं सुकृतां निवाताम् ।
वासाय सर्वे विविशुः समेताः
सभां यथा देवगणाः सुधर्माम् ॥ ३४ ॥

मूलम्

तां वृक्षपर्णच्छदनां मनोज्ञां
यथाप्रदेशं सुकृतां निवाताम् ।
वासाय सर्वे विविशुः समेताः
सभां यथा देवगणाः सुधर्माम् ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह मनोहर कुटी उपयुक्त स्थानपर बनी थी । उसे वृक्षोंके पत्तोंसे छाया गया था और उसके भीतर प्रचण्ड वायुसे बचनेका पूरा प्रबन्ध था । सीता, लक्ष्मण और श्रीराम सबने एक साथ उसमें निवासके लिये प्रवेश किया । ठीक वैसे ही, जैसे देवतालोग सुधर्मा सभामें प्रवेश करते हैं ॥ ३४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुरम्यमासाद्य तु चित्रकूटं
नदीं च तां माल्यवतीं सुतीर्थाम् ।
ननन्द हृष्टो मृगपक्षिजुष्टां
जहौ च दुःखं पुरविप्रवासात् ॥ ३५ ॥

मूलम्

सुरम्यमासाद्य तु चित्रकूटं
नदीं च तां माल्यवतीं सुतीर्थाम् ।
ननन्द हृष्टो मृगपक्षिजुष्टां
जहौ च दुःखं पुरविप्रवासात् ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

चित्रकूट पर्वत बड़ा ही रमणीय था । वहाँ उत्तमतीर्थों (तीर्थस्थान, सीढ़ी और घाटों) से सुशोभित माल्यवती (मन्दाकिनी) नदी बह रही थी, जिसका बहुत-से पशुपक्षी सेवन करते थे । उस पर्वत और नदीका सांनिध्य पाकर श्रीरामचन्द्रजीको बड़ा हर्ष और आनन्द हुआ । वे नगरसे दूर वनमें आनेके कारण होनेवाले कष्टको भूल गये ॥ ३५ ॥

समाप्तिः

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे षट्पञ्चाशः सर्गः ॥ ५६ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके अयोध्याकाण्डमें छप्पनवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ५६ ॥