वाचनम्
भागसूचना
- श्रीरामका राजाको उपालम्भ देते हुए कैकेयीसे कौसल्या आदिके अनिष्टकी आशङ्का बताकर लक्ष्मणको अयोध्या लौटानेके लिये प्रयत्न करना, लक्ष्मणका श्रीरामके बिना अपना जीवन असम्भव बताकर वहाँ जानेसे इनकार करना, फिर श्रीरामका उन्हें वनवासकी अनुमति देना
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तं वृक्षं समासाद्य सन्ध्यामन्वास्य पश्चिमाम् ।
रामो रमयतां श्रेष्ठ इति होवाच लक्ष्मणम् ॥ १ ॥
मूलम्
स तं वृक्षं समासाद्य सन्ध्यामन्वास्य पश्चिमाम् ।
रामो रमयतां श्रेष्ठ इति होवाच लक्ष्मणम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस वृक्षके नीचे पहुँचकर आनन्द प्रदान करनेवालोंमें श्रेष्ठ श्रीरामने सायंकालकी संध्योपासना करके लक्ष्मणसे इस प्रकार कहा— ॥ १ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अद्येयं प्रथमा रात्रिर्याता जनपदाद् बहिः ।
या सुमन्त्रेण रहिता तां नोत्कण्ठितुमर्हसि ॥ २ ॥
मूलम्
अद्येयं प्रथमा रात्रिर्याता जनपदाद् बहिः ।
या सुमन्त्रेण रहिता तां नोत्कण्ठितुमर्हसि ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सुमित्रानन्दन! आज हमें अपने जनपदसे बाहर यह पहली रात प्राप्त हुई है; जिसमें सुमन्त्र हमारे साथ नहीं हैं । इस रातको पाकर तुम्हें नगरकी सुख-सुविधाओंके लिये उत्कण्ठित नहीं होना चाहिये ॥ २ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जागर्तव्यमतन्द्रिभ्यामद्यप्रभृति रात्रिषु ।
योगक्षेमौ हि सीताया वर्तेते लक्ष्मणावयोः ॥ ३ ॥
मूलम्
जागर्तव्यमतन्द्रिभ्यामद्यप्रभृति रात्रिषु ।
योगक्षेमौ हि सीताया वर्तेते लक्ष्मणावयोः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘लक्ष्मण! आजसे हम दोनों भाइयोंको आलस्य छोड़कर रातमें जागना होगा; क्योंकि सीताके योगक्षेम हम दोनोंके ही अधीन हैं ॥ ३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रात्रिं कथञ्चिदेवेमां सौमित्रे वर्तयामहे ।
अपवर्तामहे भूमावास्तीर्य स्वयमर्जितैः ॥ ४ ॥
मूलम्
रात्रिं कथञ्चिदेवेमां सौमित्रे वर्तयामहे ।
अपवर्तामहे भूमावास्तीर्य स्वयमर्जितैः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सुमित्रानन्दन! यह रात हमलोग किसी तरह बितायँगे और स्वयं संग्रह करके लाये हुए तिनकों और पत्तोंकी शय्या बनाकर उसे भूमिपर बिछाकर उसपर किसी तरह सो लेंगे’ ॥ ४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तु संविश्य मेदिन्यां महार्हशयनोचितः ।
इमाः सौमित्रये रामो व्याजहार कथाः शुभाः ॥ ५ ॥
मूलम्
स तु संविश्य मेदिन्यां महार्हशयनोचितः ।
इमाः सौमित्रये रामो व्याजहार कथाः शुभाः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो बहुमूल्य शय्यापर सोनेके योग्य थे, वे श्रीराम भूमिपर ही बैठकर सुमित्राकुमार लक्ष्मणसे ये शुभ बातें कहने लगे—* ॥ ५ ॥
पादटिप्पनी
- श्लोक ६ से लेकर २६ तक श्रीरामचन्द्रजीने जो बातें कही हैं, वे लक्ष्मणकी परीक्षाके लिये तथा उन्हें अयोध्या लौटानेके लिये कही गयी हैं; वास्तवमें उनकी ऐसी मान्यता नहीं थी । यही बात यहाँ सभी व्याख्याकारोंने स्वीकार की है ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ध्रुवमद्य महाराजो दुःखं स्वपिति लक्ष्मण ।
कृतकामा तु कैकेयी तुष्टा भवितुमर्हति ॥ ६ ॥
मूलम्
ध्रुवमद्य महाराजो दुःखं स्वपिति लक्ष्मण ।
कृतकामा तु कैकेयी तुष्टा भवितुमर्हति ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘लक्ष्मण! आज महाराज निश्चय ही बड़े दुःखसे सो रहे होंगे; परंतु कैकेयी सफलमनोरथ होनेके कारण बहुत संतुष्ट होगी ॥ ६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा हि देवी महाराजं कैकेयी राज्यकारणात् ।
अपि न च्यावयेत् प्राणान् दृष्ट्वा भरतमागतम् ॥ ७ ॥
मूलम्
सा हि देवी महाराजं कैकेयी राज्यकारणात् ।
अपि न च्यावयेत् प्राणान् दृष्ट्वा भरतमागतम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कहीं ऐसा न हो कि रानी कैकेयी भरतको आया देख राज्यके लिये महाराजको प्राणोंसे भी वियुक्त कर दे ॥ ७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनाथश्च हि वृद्धश्च मया चैव विना कृतः ।
किं करिष्यति कामात्मा कैकेय्या वशमागतः ॥ ८ ॥
मूलम्
अनाथश्च हि वृद्धश्च मया चैव विना कृतः ।
किं करिष्यति कामात्मा कैकेय्या वशमागतः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाराजका कोई रक्षक न होनेके कारण वे इस समय अनाथ हैं, बूढ़े हैं और उन्हें मेरे वियोगका सामना करना पड़ा है । उनकी कामना मनमें ही रह गयी तथा वे कैकेयीके वशमें पड़ गये हैं; ऐसी दशामें वे बेचारे अपनी रक्षाके लिये क्या करेंगे? ॥ ८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदं व्यसनमालोक्य राज्ञश्च मतिविभ्रमम् ।
काम एवार्थधर्माभ्यां गरीयानिति मे मतिः ॥ ९ ॥
मूलम्
इदं व्यसनमालोक्य राज्ञश्च मतिविभ्रमम् ।
काम एवार्थधर्माभ्यां गरीयानिति मे मतिः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अपने ऊपर आये हुए इस संकटको और राजाकी मतिभ्रान्तिको देखकर मुझे ऐसा मालूम होता है कि अर्थ और धर्मकी अपेक्षा कामका ही गौरव अधिक है ॥ ९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
को ह्यविद्वानपि पुमान् प्रमदायाः कृते त्यजेत् ।
छन्दानुवर्तिनं पुत्रं तातो मामिव लक्ष्मण ॥ १० ॥
मूलम्
को ह्यविद्वानपि पुमान् प्रमदायाः कृते त्यजेत् ।
छन्दानुवर्तिनं पुत्रं तातो मामिव लक्ष्मण ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘लक्ष्मण! पिताजीने जिस तरह मुझे त्याग दिया है, उस प्रकार अत्यन्त अज्ञ होनेपर भी कौन ऐसा पुरुष होगा, जो एक स्त्रीके लिये अपने आज्ञाकारी पुत्रका परित्याग कर दे? ॥ १० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखी बत सुभार्यश्च भरतः केकयीसुतः ।
मुदितान् कोसलानेको यो भोक्ष्यत्यधिराजवत् ॥ ११ ॥
मूलम्
सुखी बत सुभार्यश्च भरतः केकयीसुतः ।
मुदितान् कोसलानेको यो भोक्ष्यत्यधिराजवत् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कैकेयीकुमार भरत ही सुखी और सौभाग्यवती स्त्रीके पति हैं, जो अकेले ही हृष्ट-पुष्ट मनुष्योंसे भरे हुए कोसलदेशका सम्राट्की भाँति पालन करेंगे ॥ ११ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स हि राज्यस्य सर्वस्य सुखमेकं भविष्यति ।
ताते तु वयसातीते मयि चारण्यमाश्रिते ॥ १२ ॥
मूलम्
स हि राज्यस्य सर्वस्य सुखमेकं भविष्यति ।
ताते तु वयसातीते मयि चारण्यमाश्रिते ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पिताजी अत्यन्त वृद्ध हो गये हैं और मैं वनमें चला आया हूँ, ऐसी दशामें केवल भरत ही समस्त राज्यके श्रेष्ठ सुखका उपभोग करेंगे ॥ १२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्थधर्मौ परित्यज्य यः काममनुवर्तते ।
एवमापद्यते क्षिप्रं राजा दशरथो यथा ॥ १३ ॥
मूलम्
अर्थधर्मौ परित्यज्य यः काममनुवर्तते ।
एवमापद्यते क्षिप्रं राजा दशरथो यथा ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सच है, जो अर्थ और धर्मका परित्याग करके केवल कामका अनुसरण करता है, वह उसी प्रकार शीघ्र ही आपत्तिमें पड़ जाता है, जैसे इस समय महाराज दशरथ पड़े हैं ॥ १३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन्ये दशरथान्ताय मम प्रव्राजनाय च ।
कैकेयी सौम्य सम्प्राप्ता राज्याय भरतस्य च ॥ १४ ॥
मूलम्
मन्ये दशरथान्ताय मम प्रव्राजनाय च ।
कैकेयी सौम्य सम्प्राप्ता राज्याय भरतस्य च ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सौम्य! मैं समझता हूँ कि महाराज दशरथके प्राणोंका अन्त करने, मुझे देशनिकाला देने और भरतको राज्य दिलानेके लिये ही कैकेयी इस राजभवनमें आयी थी ॥ १४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपीदानीं तु कैकेयी सौभाग्यमदमोहिता ।
कौसल्यां च सुमित्रां च सा प्रबाधेत मत्कृते ॥ १५ ॥
मूलम्
अपीदानीं तु कैकेयी सौभाग्यमदमोहिता ।
कौसल्यां च सुमित्रां च सा प्रबाधेत मत्कृते ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस समय भी सौभाग्यके मदसे मोहित हुई कैकेयी मेरे कारण कौसल्या और सुमित्राको कष्ट पहुँचा सकती है ॥ १५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मातास्मत्कारणाद् देवी सुमित्रा दुःखमावसेत् ।
अयोध्यामित एव त्वं काले प्रविश लक्ष्मण ॥ १६ ॥
मूलम्
मातास्मत्कारणाद् देवी सुमित्रा दुःखमावसेत् ।
अयोध्यामित एव त्वं काले प्रविश लक्ष्मण ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हमलोगोंके कारण तुम्हारी माता सुमित्रादेवीको बड़े दुःखके साथ वहाँ रहना पड़ेगा; अतः लक्ष्मण! तुम यहींसे कल प्रातःकाल अयोध्याको लौट जाओ ॥ १६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहम् एको गमिष्यामि
सीतया सह दण्डकान् ।
अनाथाया हि नाथस् त्वं
कौसल्याया भविष्यसि ॥ १७ ॥
मूलम्
अहमेको गमिष्यामि सीतया सह दण्डकान् ।
अनाथाया हि नाथस्त्वं कौसल्याया भविष्यसि ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं अकेला ही सीताके साथ दण्डकवनको जाऊँगा । तुम वहाँ मेरी असहाय माता कौसल्याके सहायक हो जाओगे ॥ १७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षुद्रकर्मा हि कैकेयी
द्वेषाद् अन्यायम् आचरेत् ।
परिदद्याद्+धि धर्मज्ञ
गरं ते मम मातरम् ॥ १८ ॥
मूलम्
क्षुद्रकर्मा हि कैकेयी द्वेषादन्यायमाचरेत् ।
परिदद्याद्धि धर्मज्ञ गरं ते मम मातरम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘धर्मज्ञ लक्ष्मण! कैकेयीके कर्म बड़े खोटे हैं । वह द्वेषवश अन्याय भी कर सकती है । तुम्हारी और मेरी माताको जहर भी दे सकती है ॥ १८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नूनं जात्यन्तरे तात स्त्रियः पुत्रैर्वियोजिताः ।
जनन्या मम सौमित्रे तदद्यैतदुपस्थितम् ॥ १९ ॥
मूलम्
नूनं जात्यन्तरे तात स्त्रियः पुत्रैर्वियोजिताः ।
जनन्या मम सौमित्रे तदद्यैतदुपस्थितम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तात सुमित्राकुमार! निश्चय ही पूर्वजन्ममें मेरी माताने कुछ स्त्रियोंका उनके पुत्रोंसे वियोग कराया होगा, उसी पापका यह पुत्र-बिछोहरूप फल आज उन्हें प्राप्त हुआ है ॥ १९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मया हि चिरपुष्टेन दुःखसंवर्धितेन च ।
विप्रयुज्यत कौसल्या फलकाले धिगस्तु माम् ॥ २० ॥
मूलम्
मया हि चिरपुष्टेन दुःखसंवर्धितेन च ।
विप्रयुज्यत कौसल्या फलकाले धिगस्तु माम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मेरी माताने चिरकालतक मेरा पालन-पोषण किया और स्वयं दुःख सहकर मुझे बड़ा किया । अब जब पुत्रसे प्राप्त होनेवाले सुखरूपी फलके भोगनेका अवसर आया, तब मैंने माता कौसल्याको अपनेसे बिलग कर दिया । मुझे धिक्कार है! ॥ २० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मा स्म सीमन्तिनी काचिज्जनयेत् पुत्रमीदृशम् ।
सौमित्रे योऽहमम्बाया दद्मि शोकमनन्तकम् ॥ २१ ॥
मूलम्
मा स्म सीमन्तिनी काचिज्जनयेत् पुत्रमीदृशम् ।
सौमित्रे योऽहमम्बाया दद्मि शोकमनन्तकम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सुमित्रानन्दन! कोई भी सौभाग्यवती स्त्री कभी ऐसे पुत्रको जन्म न दे, जैसा मैं हूँ; क्योंकि मैं अपनी माताको अनन्त शोक दे रहा हूँ ॥ २१ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन्ये प्रीतिविशिष्टा सा मत्तो लक्ष्मण सारिका ।
यत्तस्याः श्रूयते वाक्यं शुक पादमरेर्दश ॥ २२ ॥
मूलम्
मन्ये प्रीतिविशिष्टा सा मत्तो लक्ष्मण सारिका ।
यत्तस्याः श्रूयते वाक्यं शुक पादमरेर्दश ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘लक्ष्मण! मैं तो ऐसा मानता हूँ कि माता कौसल्यामें मुझसे अधिक प्रेम उनकी पाली हुई वह सारिका ही करती है; क्योंकि उसके मुखसे माँको सदा यह बात सुनायी देती है कि ‘ऐ तोते! तू शत्रुके पैरको काट खा’ (अर्थात् हमें पालनेवाली माता कौसल्याके शत्रुके पाँवको चोंच मार दे । वह पक्षिणी होकर माताका इतना ध्यान रखती है और मैं उनका पुत्र होकर भी उनके लिये कुछ नहीं कर पाता) ॥ २२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शोचन्त्याश्चाल्पभाग्याया न किञ्चिदुपकुर्वता ।
पुत्रेण किमपुत्राया मया कार्यमरिन्दम ॥ २३ ॥
मूलम्
शोचन्त्याश्चाल्पभाग्याया न किञ्चिदुपकुर्वता ।
पुत्रेण किमपुत्राया मया कार्यमरिन्दम ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शत्रुदमन! जो मेरे लिये शोकमग्न रहती है, मन्दभागिनी-सी हो रही है और पुत्रका कोई फल न पानेके कारण निपूती-सी हो गयी है, उस मेरी माताको कुछ भी उपकार न करनेवाले मुझ-जैसे पुत्रसे क्या प्रयोजन है? ॥ २३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अल्पभाग्या हि मे माता कौसल्या रहिता मया ।
शेते परमदुःखार्ता पतिता शोकसागरे ॥ २४ ॥
मूलम्
अल्पभाग्या हि मे माता कौसल्या रहिता मया ।
शेते परमदुःखार्ता पतिता शोकसागरे ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मुझसे बिछुड़ जानेके कारण माता कौसल्या वास्तवमें मन्दभागिनी हो गयी है और शोकके समुद्रमें पड़कर अत्यन्त दुःखसे आतुर हो उसीमें शयन करती है ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एको ह्यहमयोध्यां च पृथिवीं चापि लक्ष्मण ।
तरेयमिषुभिः क्रुद्धो ननु वीर्यमकारणम् ॥ २५ ॥
मूलम्
एको ह्यहमयोध्यां च पृथिवीं चापि लक्ष्मण ।
तरेयमिषुभिः क्रुद्धो ननु वीर्यमकारणम् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘लक्ष्मण! यदि मैं कुपित हो जाऊँ तो अपने बाणोंद्वारा अकेला ही अयोध्यापुरी तथा समस्त भूमण्डलको निष्कण्टक बनाकर अपने अधिकारमें कर लूँ; परंतु पारलौकिक हित-साधनमें बल-पराक्रम कारण नहीं होता है (इसीलिये मैं ऐसा नहीं कर रहा हूँ ।) ॥ २५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधर्मभयभीतश्च परलोकस्य चानघ ।
तेन लक्ष्मण नाद्याहमात्मानमभिषेचये ॥ २६ ॥
मूलम्
अधर्मभयभीतश्च परलोकस्य चानघ ।
तेन लक्ष्मण नाद्याहमात्मानमभिषेचये ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘निष्पाप लक्ष्मण! मैं अधर्म और परलोकके डरसे डरता हूँ; इसीलिये आज अयोध्याके राज्यपर अपना अभिषेक नहीं कराता हूँ’ ॥ २६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतदन्यच्च करुणं विलप्य विजने बहु ।
अश्रुपूर्णमुखो दीनो निशि तूष्णीमुपाविशत् ॥ २७ ॥
मूलम्
एतदन्यच्च करुणं विलप्य विजने बहु ।
अश्रुपूर्णमुखो दीनो निशि तूष्णीमुपाविशत् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह तथा और भी बहुत-सी बातें कहकर श्रीरामने उस निर्जन वनमें करुणाजनक विलाप किया । तत्पश्चात् वे उस रातमें चुपचाप बैठ गये । उस समय उनके मुखपर आँसुओंकी धारा बह रही थी और दीनता छा रही थी ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विलापोपरतं रामं गतार्चिषमिवानलम् ।
समुद्रमिव निर्वेगमाश्वासयत लक्ष्मणः ॥ २८ ॥
मूलम्
विलापोपरतं रामं गतार्चिषमिवानलम् ।
समुद्रमिव निर्वेगमाश्वासयत लक्ष्मणः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विलापसे निवृत्त होनेपर श्रीराम ज्वालारहित अग्नि और वेगशून्य समुद्रके समान शान्त प्रतीत होते थे । उस समय लक्ष्मणने उन्हें आश्वासन देते हुए कहा— ॥ २८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ध्रुवमद्य पुरी राम अयोध्याऽऽयुधिनां वर ।
निष्प्रभा त्वयि निष्क्रान्ते गतचन्द्रेव शर्वरी ॥ २९ ॥
मूलम्
ध्रुवमद्य पुरी राम अयोध्याऽऽयुधिनां वर ।
निष्प्रभा त्वयि निष्क्रान्ते गतचन्द्रेव शर्वरी ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ श्रीराम! आपके निकल आनेसे निश्चय ही आज अयोध्यापुरी चन्द्रहीन रात्रिके समान निस्तेज हो गयी ॥ २९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैतदौपयिकं राम यदिदं परितप्यसे ।
विषादयसि सीतां च मां चैव पुरुषर्षभ ॥ ३० ॥
मूलम्
नैतदौपयिकं राम यदिदं परितप्यसे ।
विषादयसि सीतां च मां चैव पुरुषर्षभ ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पुरुषोत्तम श्रीराम! आप जो इस तरह संतप्त हो रहे हैं, यह आपके लिये कदापि उचित नहीं है । आप ऐसा करके सीताको और मुझको भी खेदमें डाल रहे हैं ॥ ३० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न च सीता त्वया हीना न चाहमपि राघव ।
मुहूर्तमपि जीवावो जलान्मत्स्याविवोद्धृतौ ॥ ३१ ॥
मूलम्
न च सीता त्वया हीना न चाहमपि राघव ।
मुहूर्तमपि जीवावो जलान्मत्स्याविवोद्धृतौ ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘रघुनन्दन! आपके बिना सीता और मैं दोनों दो घड़ी भी जीवित नहीं रह सकते । ठीक उसी तरह, जैसे जलसे निकाले हुए मत्स्य नहीं जीते हैं ॥ ३१ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नहि तातं न शत्रुघ्नं न सुमित्रां परन्तप ।
द्रष्टुमिच्छेयमद्याहं स्वर्गं चापि त्वया विना ॥ ३२ ॥
मूलम्
नहि तातं न शत्रुघ्नं न सुमित्रां परन्तप ।
द्रष्टुमिच्छेयमद्याहं स्वर्गं चापि त्वया विना ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शत्रुओंको ताप देनेवाले रघुवीर! आपके बिना आज मैं न तो पिताजीको, न भाई शत्रुघ्नको, न माता सुमित्राको और न स्वर्गलोकको ही देखना चाहता हूँ’ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तत्र समासीनौ नातिदूरे निरीक्ष्य ताम् ।
न्यग्रोधे सुकृतां शय्यां भेजाते धर्मवत्सलौ ॥३३ ॥
मूलम्
ततस्तत्र समासीनौ नातिदूरे निरीक्ष्य ताम् ।
न्यग्रोधे सुकृतां शय्यां भेजाते धर्मवत्सलौ ॥३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर वहाँ बैठे हुए धर्मवत्सल सीता और श्रीरामने थोड़ी ही दूरपर वटवृक्षके नीचे लक्ष्मणद्वारा सुन्दर ढंगसे निर्मित हुई शय्या देखकर उसीका आश्रय लिया (अर्थात् वे दोनों वहाँ जाकर सो गये ।) ॥ ३३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स लक्ष्मणस्योत्तमपुष्कलं वचो
निशम्य चैवं वनवासमादरात् ।
समाः समस्ता विदधे परन्तपः
प्रपद्य धर्मं सुचिराय राघवः ॥ ३४ ॥
मूलम्
स लक्ष्मणस्योत्तमपुष्कलं वचो
निशम्य चैवं वनवासमादरात् ।
समाः समस्ता विदधे परन्तपः
प्रपद्य धर्मं सुचिराय राघवः ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुओंको संताप देनेवाले रघुनाथजीने इस प्रकार वनवासके प्रति आदरपूर्वक कहे हुए लक्ष्मणके अत्यन्त उत्तम वचनोंको सुनकर स्वयं भी दीर्घकालके लिये वनवासरूप धर्मको स्वीकार करके सम्पूर्ण वर्षोंतक लक्ष्मणको अपने साथ वनमें रहनेकी अनुमति दे दी ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तु तस्मिन् विजने महाबलौ
महावने राघववंशवर्धनौ ।
न तौ भयं सम्भ्रममभ्युपेयतु-
र्यथैव सिंहौ गिरिसानुगोचरौ ॥ ३५ ॥
मूलम्
ततस्तु तस्मिन् विजने महाबलौ
महावने राघववंशवर्धनौ ।
न तौ भयं सम्भ्रममभ्युपेयतु-
र्यथैव सिंहौ गिरिसानुगोचरौ ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर उस महान् निर्जन वनमें रघुवंशकी वृद्धि करनेवाले वे दोनों महाबली वीर पर्वतशिखरपर विचरनेवाले दो सिंहोंके समान कभी भय और उद्वेगको नहीं प्राप्त हुए ॥
समाप्तिः
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे त्रिपञ्चाशः सर्गः ॥ ५३ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके अयोध्याकाण्डमें तिरपनवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ५३ ॥