वाचनम्
भागसूचना
- श्रीरामका मार्गमें अयोध्यापुरीसे वनवासकी आज्ञा माँगना और शृङ्गवेरपुरमें गङ्गातटपर पहुँचकर रात्रिमें निवास करना, वहाँ निषादराज गुहद्वारा उनका सत्कार
विश्वास-प्रस्तुतिः
विशालान् कोसलान् रम्यान् यात्वा लक्ष्मणपूर्वजः ।
अयोध्यामुन्मुखो धीमान् प्राञ्जलिर्वाक्यमब्रवीत् ॥ १ ॥
मूलम्
विशालान् कोसलान् रम्यान् यात्वा लक्ष्मणपूर्वजः ।
अयोध्यामुन्मुखो धीमान् प्राञ्जलिर्वाक्यमब्रवीत् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार विशाल और रमणीय कोसलदेशकी सीमाको पार करके लक्ष्मणके बड़े भाई बुद्धिमान् श्रीरामचन्द्रजीने अयोध्याकी ओर अपना मुख किया और हाथ जोड़कर कहा— ॥ १ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपृच्छे त्वां पुरिश्रेष्ठे काकुत्स्थपरिपालिते ।
दैवतानि च यानि त्वां पालयन्त्यावसन्ति च ॥ २ ॥
मूलम्
आपृच्छे त्वां पुरिश्रेष्ठे काकुत्स्थपरिपालिते ।
दैवतानि च यानि त्वां पालयन्त्यावसन्ति च ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ककुत्स्थवंशी राजाओंसे परिपालित पुरीशिरोमणि अयोध्ये! मैं तुमसे तथा जो-जो देवता तुम्हारी रक्षा करते और तुम्हारे भीतर निवास करते हैं, उनसे भी वनमें जानेकी आज्ञा चाहता हूँ ॥ २ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निवृत्तवनवासस्त्वामनृणो जगतीपतेः ।
पुनर्द्रक्ष्यामि मात्रा च पित्रा च सह सङ्गतः ॥ ३ ॥
मूलम्
निवृत्तवनवासस्त्वामनृणो जगतीपतेः ।
पुनर्द्रक्ष्यामि मात्रा च पित्रा च सह सङ्गतः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वनवासकी अवधि पूरी करके महाराजके ऋणसे उऋण हो मैं पुनः लौटकर तुम्हारा दर्शन करूँगा और अपने माता-पितासे भी मिलूँगा’ ॥ ३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो रुचिरताम्राक्षो भुजमुद्यम्य दक्षिणम् ।
अश्रुपूर्णमुखो दीनोऽब्रवीज्जानपदं जनम् ॥ ४ ॥
मूलम्
ततो रुचिरताम्राक्षो भुजमुद्यम्य दक्षिणम् ।
अश्रुपूर्णमुखो दीनोऽब्रवीज्जानपदं जनम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद सुन्दर एवं अरुण नेत्रवाले श्रीरामने दाहिनी भुजा उठाकर नेत्रोंसे आँसू बहाते हुए दुःखी होकर जनपदके लोगोंसे कहा— ॥ ४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुक्रोशो दया चैव यथार्हं मयि वः कृतः ।
चिरं दुःखस्य पापीयो गम्यतामर्थसिद्धये ॥ ५ ॥
मूलम्
अनुक्रोशो दया चैव यथार्हं मयि वः कृतः ।
चिरं दुःखस्य पापीयो गम्यतामर्थसिद्धये ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आपने मुझपर बड़ी कृपा की और यथोचित दया दिखायी । मेरे लिये आपलोगोंने बहुत देरतक कष्ट सहन किया । इस तरह आपका देरतक दुःखमें पड़े रहना अच्छा नहीं है; इसलिये अब आपलोग अपना-अपना कार्य करनेके लिये जाइये’ ॥ ५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेऽभिवाद्य महात्मानं कृत्वा चापि प्रदक्षिणम् ।
विलपन्तो नरा घोरं व्यतिष्ठंश्च क्वचित् क्वचित् ॥ ६ ॥
मूलम्
तेऽभिवाद्य महात्मानं कृत्वा चापि प्रदक्षिणम् ।
विलपन्तो नरा घोरं व्यतिष्ठंश्च क्वचित् क्वचित् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सुनकर उन मनुष्योंने महात्मा श्रीरामको प्रणाम करके उनकी परिक्रमा की और घोर विलाप करते हुए वे जहाँ-तहाँ खड़े हो गये ॥ ६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा विलपतां तेषामतृप्तानां च राघवः ।
अचक्षुर्विषयं प्रायाद् यथार्कः क्षणदामुखे ॥ ७ ॥
मूलम्
तथा विलपतां तेषामतृप्तानां च राघवः ।
अचक्षुर्विषयं प्रायाद् यथार्कः क्षणदामुखे ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनकी आँखें अभी श्रीरामके दर्शनसे तृप्त नहीं हुई थीं और वे पूर्वोक्त रूपसे विलाप कर ही रहे थे, इतनेमें श्रीरघुनाथजी उनकी दृष्टिसे ओझल हो गये, जैसे सूर्य प्रदोषकालमें छिप जाते हैं ॥ ७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो धान्यधनोपेतान् दानशीलजनान् शिवान् ।
अकुतश्चिद्भयान् रम्यांश्चैत्ययूपसमावृतान् ॥ ८ ॥
उद्यानाम्रवणोपेतान् सम्पन्नसलिलाशयान् ।
तुष्टपुष्टजनाकीर्णान् गोकुलाकुलसेवितान् ॥ ९ ॥
रक्षणीयान् नरेन्द्राणां ब्रह्मघोषाभिनादितान् ।
रथेन पुरुषव्याघ्रः कोसलानत्यवर्तत ॥ १० ॥
मूलम्
ततो धान्यधनोपेतान् दानशीलजनान् शिवान् ।
अकुतश्चिद्भयान् रम्यांश्चैत्ययूपसमावृतान् ॥ ८ ॥
उद्यानाम्रवणोपेतान् सम्पन्नसलिलाशयान् ।
तुष्टपुष्टजनाकीर्णान् गोकुलाकुलसेवितान् ॥ ९ ॥
रक्षणीयान् नरेन्द्राणां ब्रह्मघोषाभिनादितान् ।
रथेन पुरुषव्याघ्रः कोसलानत्यवर्तत ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद पुरुषसिंह श्रीराम रथके द्वारा ही उस कोसल जनपदको लाँघ गये, जो धन-धान्यसे सम्पन्न और सुखदायक था । वहाँके सब लोग दानशील थे । उस जनपदमें कहींसे कोई भय नहीं था । वहाँके भूभाग रमणीय एवं चैत्य-वृक्षों तथा यज्ञ-सम्बन्धी यूपोंसे व्याप्त थे । बहुत-से उद्यान और आमोंके वन उस जनपदकी शोभा बढ़ाते थे । वहाँ जलसे भरे हुए बहुत-से जलाशय सुशोभित थे । सारा जनपद हृष्ट-पुष्ट मनुष्योंसे भरा था; गौओंके समूहोंसे व्याप्त और सेवित था । वहाँके ग्रामोंकी बहुत-से नरेश रक्षा करते थे तथा वहाँ वेदमन्त्रोंकी ध्वनि गूँजती रहती थी ॥ ८—१० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मध्येन मुदितं स्फीतं रम्योद्यानसमाकुलम् ।
राज्यं भोज्यं नरेन्द्राणां ययौ धृतिमतां वरः ॥ ११ ॥
मूलम्
मध्येन मुदितं स्फीतं रम्योद्यानसमाकुलम् ।
राज्यं भोज्यं नरेन्द्राणां ययौ धृतिमतां वरः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कोसलदेशसे आगे बढ़नेपर धैर्यवानोंमें श्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजी मध्यमार्गसे ऐसे राज्यमें होकर निकले, जो सुख-सुविधासे युक्त, धन-धान्यसे सम्पन्न, रमणीय उद्यानोंसे व्याप्त तथा सामन्त नरेशोंके उपभोगमें आनेवाला था ॥ ११ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र त्रिपथगां दिव्यां शीततोयामशैवलाम् ।
ददर्श राघवो गङ्गां रम्यामृषिनिषेविताम् ॥ १२ ॥
मूलम्
तत्र त्रिपथगां दिव्यां शीततोयामशैवलाम् ।
ददर्श राघवो गङ्गां रम्यामृषिनिषेविताम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस राज्यमें श्रीरघुनाथजीने त्रिपथगामिनी दिव्य नदी गङ्गाका दर्शन किया, जो शीतल जलसे भरी हुई, सेवारोंसे रहित तथा रमणीय थीं । बहुत-से महर्षि उनका सेवन करते थे ॥ १२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आश्रमैरविदूरस्थैः श्रीमद्भिः समलङ्कृताम् ।
कालेऽप्सरोभिर्हृष्टाभिः सेविताम्भोह्रदां शिवाम् ॥ १३ ॥
मूलम्
आश्रमैरविदूरस्थैः श्रीमद्भिः समलङ्कृताम् ।
कालेऽप्सरोभिर्हृष्टाभिः सेविताम्भोह्रदां शिवाम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके तटपर थोड़ी-थोड़ी दूरपर बहुत-से सुन्दर आश्रम बने थे, जो उन देवनदीकी शोभा बढ़ाते थे । समय-समयपर हर्षभरी अप्सराएँ भी उतरकर उनके जलकुण्डका सेवन करती हैं । वे गङ्गा सबका कल्याण करनेवाली हैं ॥ १३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवदानवगन्धर्वैः किन्नरैरुपशोभिताम् ।
नागगन्धर्वपत्नीभिः सेवितां सततं शिवाम् ॥ १४ ॥
मूलम्
देवदानवगन्धर्वैः किन्नरैरुपशोभिताम् ।
नागगन्धर्वपत्नीभिः सेवितां सततं शिवाम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवता, दानव, गन्धर्व और किन्नर उन शिवस्वरूपा भागीरथीकी शोभा बढ़ाते हैं । नागों और गन्धर्वोंकी पत्नियाँ उनके जलका सदा सेवन करती हैं ॥ १४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवाक्रीडशताकीर्णां देवोद्यानयुतां नदीम् ।
देवार्थमाकाशगतां विख्यातां देवपद्मिनीम् ॥ १५ ॥
मूलम्
देवाक्रीडशताकीर्णां देवोद्यानयुतां नदीम् ।
देवार्थमाकाशगतां विख्यातां देवपद्मिनीम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गङ्गाके दोनों तटोंपर देवताओंके सैकड़ों पर्वतीय क्रीड़ास्थल हैं । उनके किनारे देवताओंके बहुत-से उद्यान भी हैं । वे देवताओंकी क्रीड़ाके लिये आकाशमें भी विद्यमान हैं और वहाँ देवपद्मिनीके रूपमें विख्यात हैं ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जलाघाताट्टहासोग्रां फेननिर्मलहासिनीम् ।
क्वचिद् वेणीकृतजलां क्वचिदावर्तशोभिताम् ॥ १६ ॥
मूलम्
जलाघाताट्टहासोग्रां फेननिर्मलहासिनीम् ।
क्वचिद् वेणीकृतजलां क्वचिदावर्तशोभिताम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रस्तरखण्डोंसे गङ्गाके जलके टकरानेसे जो शब्द होता है, वही मानो उनका उग्र अट्टहास है । जलसे जो फेन प्रकट होता है, वही उन दिव्य नदीका निर्मल हास है । कहीं तो उनका जल वेणीके आकारका है और कहीं वे भँवरोंसे सुशोभित होती हैं ॥ १६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्वचित् स्तिमितगम्भीरां क्वचिद् वेगसमाकुलाम् ।
क्वचिद् गम्भीरनिर्घोषां क्वचिद् भैरवनिःस्वनाम् ॥ १७ ॥
मूलम्
क्वचित् स्तिमितगम्भीरां क्वचिद् वेगसमाकुलाम् ।
क्वचिद् गम्भीरनिर्घोषां क्वचिद् भैरवनिःस्वनाम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कहीं उनका जल निश्चल एवं गहरा है । कहीं वे महान् वेगसे व्याप्त हैं । कहीं उनके जलसे मृदङ्ग आदिके समान गम्भीर घोष प्रकट होता है और कहीं वज्रपात आदिके समान भयंकर नाद सुनायी पड़ता है ॥ १७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवसङ्घाप्लुतजलां निर्मलोत्पलसङ्कुलाम् ।
क्वचिदाभोगपुलिनां क्वचिन्निर्मलवालुकाम् ॥ १८ ॥
मूलम्
देवसङ्घाप्लुतजलां निर्मलोत्पलसङ्कुलाम् ।
क्वचिदाभोगपुलिनां क्वचिन्निर्मलवालुकाम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके जलमें देवताओंके समुदाय गोते लगाते हैं । कहीं-कहीं उनका जल नील कमलों अथवा कुमुदोंसे आच्छादित होता है । कहीं विशाल पुलिनका दर्शन होता है तो कहीं निर्मल बालुका-राशिका ॥ १८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हंससारससङ्घुष्टां चक्रवाकोपशोभिताम् ।
सदामत्तैश्च विहगैरभिपन्नामनिन्दिताम् ॥ १९ ॥
मूलम्
हंससारससङ्घुष्टां चक्रवाकोपशोभिताम् ।
सदामत्तैश्च विहगैरभिपन्नामनिन्दिताम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हंसों और सारसोंके कलरव वहाँ गूँजते रहते हैं । चकवे उन देवनदीकी शोभा बढ़ाते हैं । सदा मदमत्त रहनेवाले विहंगम उनके जलपर मँडराते रहते हैं । वे उत्तम शोभासे सम्पन्न हैं ॥ १९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्वचित् तीररुहैर्वृक्षैर्मालाभिरिव शोभिताम् ।
क्वचित् फुल्लोत्पलच्छन्नां क्वचित् पद्मवनाकुलाम् ॥ २० ॥
मूलम्
क्वचित् तीररुहैर्वृक्षैर्मालाभिरिव शोभिताम् ।
क्वचित् फुल्लोत्पलच्छन्नां क्वचित् पद्मवनाकुलाम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कहीं तटवर्ती वृक्ष मालाकार होकर उनकी शोभा बढ़ाते हैं । कहीं तो उनका जल खिले हुए उत्पलोंसे आच्छादित है और कहीं कमलवनोंसे व्याप्त ॥ २० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्वचित् कुमुदखण्डैश्च कुड्मलैरुपशोभिताम् ।
नानापुष्परजोध्वस्तां समदामिव च क्वचित् ॥ २१ ॥
मूलम्
क्वचित् कुमुदखण्डैश्च कुड्मलैरुपशोभिताम् ।
नानापुष्परजोध्वस्तां समदामिव च क्वचित् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कहीं कुमुदसमूह तथा कहीं कलिकाएँ उन्हें सुशोभित करती हैं । कहीं नाना प्रकारके पुष्पोंके परागोंसे व्याप्त होकर वे मदमत्त नारीके समान प्रतीत होती हैं ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्यपेतमलसङ्घातां मणिनिर्मलदर्शनाम् ।
दिशागजैर्वनगजैर्मत्तैश्च वरवारणैः ॥ २२ ॥
देवराजोपवाह्यैश्च सन्नादितवनान्तराम् ।
मूलम्
व्यपेतमलसङ्घातां मणिनिर्मलदर्शनाम् ।
दिशागजैर्वनगजैर्मत्तैश्च वरवारणैः ॥ २२ ॥
देवराजोपवाह्यैश्च सन्नादितवनान्तराम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
वे मलसमूह (पापराशि) दूर कर देती हैं । उनका जल इतना स्वच्छ है कि मणिके समान निर्मल दिखायी देता है । उनके तटवर्ती वनका भीतरी भाग मदमत्त दिग्गजों, जंगली हाथियों तथा देवराजकी सवारीमें आनेवाले श्रेष्ठ गजराजोंसे कोलाहलपूर्ण बना रहता है ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रमदामिव यत्नेन भूषितां भूषणोत्तमैः ॥ २३ ॥
फलपुष्पैः किसलयैर्वृतां गुल्मैर्द्विजैस्तथा ।
विष्णुपादच्युतां दिव्यामपापां पापनाशिनीम् ॥ २४ ॥
मूलम्
प्रमदामिव यत्नेन भूषितां भूषणोत्तमैः ॥ २३ ॥
फलपुष्पैः किसलयैर्वृतां गुल्मैर्द्विजैस्तथा ।
विष्णुपादच्युतां दिव्यामपापां पापनाशिनीम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे फलों, फूलों, पल्लवों, गुल्मों तथा पक्षियोंसे आवृत होकर उत्तम आभूषणोंसे यत्नपूर्वक विभूषित हुई युवतीके समान शोभा पाती हैं । उनका प्राकट्य भगवान् विष्णुके चरणोंसे हुआ है । उनमें पापका लेश भी नहीं है । वे दिव्य नदी गङ्गा जीवोंके समस्त पापोंका नाश कर देनेवाली हैं ॥ २३-२४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शिंशुमारैश्च नक्रैश्च भुजङ्गैश्च समन्विताम् ।
शङ्करस्य जटाजूटाद् भ्रष्टां सागरतेजसा ॥ २५ ॥
समुद्रमहिषीं गङ्गां सारसक्रौञ्चनादिताम् ।
आससाद महाबाहुः शृङ्गवेरपुरं प्रति ॥ २६ ॥
मूलम्
शिंशुमारैश्च नक्रैश्च भुजङ्गैश्च समन्विताम् ।
शङ्करस्य जटाजूटाद् भ्रष्टां सागरतेजसा ॥ २५ ॥
समुद्रमहिषीं गङ्गां सारसक्रौञ्चनादिताम् ।
आससाद महाबाहुः शृङ्गवेरपुरं प्रति ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके जलमें सूँस, घड़ियाल और सर्प निवास करते हैं । सगरवंशी राजा भगीरथके तपोमय तेजसे जिनका शंकरजीके जटाजूटसे अवतरण हुआ था, जो समुद्रकी रानी हैं तथा जिनके निकट सारस और क्रौञ्च पक्षी कलरव करते रहते हैं, उन्हीं देवनदी गङ्गाके पास महाबाहु श्रीरामजी पहुँचे । गङ्गाकी वह धारा शृङ्गवेरपुरमें बह रही थी ॥ २५-२६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तामूर्मिकलिलावर्तामन्ववेक्ष्य महारथः ।
सुमन्त्रमब्रवीत् सूतमिहैवाद्य वसामहे ॥ २७ ॥
मूलम्
तामूर्मिकलिलावर्तामन्ववेक्ष्य महारथः ।
सुमन्त्रमब्रवीत् सूतमिहैवाद्य वसामहे ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनके आवर्त (भँवरें) लहरोंसे व्याप्त थे, उन गङ्गाजीका दर्शन करके महारथी श्रीरामने सारथि सुमन्त्रसे कहा— ‘सूत! आज हमलोग यहीं रहेंगे’ ॥ २७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अविदूरादयं नद्या बहुपुष्पप्रवालवान् ।
सुमहानिङ्गुदीवृक्षो वसामोऽत्रैव सारथे ॥ २८ ॥
मूलम्
अविदूरादयं नद्या बहुपुष्पप्रवालवान् ।
सुमहानिङ्गुदीवृक्षो वसामोऽत्रैव सारथे ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सारथे! गङ्गाजीके समीप ही जो यह बहुत-से फूलों और नये-नये पल्लवोंसे सुशोभित महान् इङ्गुदीका वृक्ष है, इसीके नीचे आज रातमें हम निवास करेंगे ॥ २८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रेक्षामि सरितां श्रेष्ठां सम्मान्यसलिलां शिवाम् ।
देवमानवगन्धर्वमृगपन्नगपक्षिणाम् ॥ २९ ॥
मूलम्
प्रेक्षामि सरितां श्रेष्ठां सम्मान्यसलिलां शिवाम् ।
देवमानवगन्धर्वमृगपन्नगपक्षिणाम् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिनका जल देवताओं, मनुष्यों, गन्धर्वों, सर्पों, पशुओं तथा पक्षियोंके लिये भी समादरणीय है, उन कल्याणस्वरूपा, सरिताओंमें श्रेष्ठ गङ्गाजीका भी मुझे यहाँसे दर्शन होता रहेगा’ ॥ २९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लक्ष्मणश्च सुमन्त्रश्च बाढमित्येव राघवम् ।
उक्त्वा तमिङ्गुदीवृक्षं तदोपययतुर्हयैः ॥ ३० ॥
मूलम्
लक्ष्मणश्च सुमन्त्रश्च बाढमित्येव राघवम् ।
उक्त्वा तमिङ्गुदीवृक्षं तदोपययतुर्हयैः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब लक्ष्मण और सुमन्त्र भी श्रीरामचन्द्रजीसे बहुत अच्छा कहकर अश्वोंद्वारा उस इंगुदी-वृक्षके समीप गये ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामोऽभियाय तं रम्यं वृक्षमिक्ष्वाकुनन्दनः ।
रथादवतरत् तस्मात् सभार्यः सहलक्ष्मणः ॥ ३१ ॥
मूलम्
रामोऽभियाय तं रम्यं वृक्षमिक्ष्वाकुनन्दनः ।
रथादवतरत् तस्मात् सभार्यः सहलक्ष्मणः ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस रमणीय वृक्षके पास पहुँचकर इक्ष्वाकुनन्दन श्रीराम अपनी पत्नी सीता और भाई लक्ष्मणके साथ रथसे उतर गये ॥ ३१ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुमन्त्रोऽप्यवतीर्याथ मोचयित्वा हयोत्तमान् ।
वृक्षमूलगतं राममुपतस्थे कृताञ्जलिः ॥ ३२ ॥
मूलम्
सुमन्त्रोऽप्यवतीर्याथ मोचयित्वा हयोत्तमान् ।
वृक्षमूलगतं राममुपतस्थे कृताञ्जलिः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर सुमन्त्रने भी उतरकर उत्तम घोड़ोंको खोल दिया और वृक्षकी जड़पर बैठे हुए श्रीरामचन्द्रजीके पास जाकर वे हाथ जोड़कर खड़े हो गये ॥ ३२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र राजा गुहो नाम रामस्यात्मसमः सखा ।
निषादजात्यो बलवान् स्थपतिश्चेति विश्रुतः ॥ ३३ ॥
मूलम्
तत्र राजा गुहो नाम रामस्यात्मसमः सखा ।
निषादजात्यो बलवान् स्थपतिश्चेति विश्रुतः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शृङ्गवेरपुरमें गुह नामका राजा राज्य करता था । वह श्रीरामचन्द्रजीका प्राणोंके समान प्रिय मित्र था । उसका जन्म निषादकुलमें हुआ था । वह शारीरिक शक्ति और सैनिक शक्तिकी दृष्टिसे भी बलवान् था तथा वहाँके निषादोंका सुविख्यात राजा था ॥ ३३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स श्रुत्वा पुरुषव्याघ्रं रामं विषयमागतम् ।
वृद्धैः परिवृतोऽमात्यैर्ज्ञातिभिश्चाप्युपागतः ॥ ३४ ॥
मूलम्
स श्रुत्वा पुरुषव्याघ्रं रामं विषयमागतम् ।
वृद्धैः परिवृतोऽमात्यैर्ज्ञातिभिश्चाप्युपागतः ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसने जब सुना कि पुरुषसिंह श्रीराम मेरे राज्यमें पधारे हैं, तब वह बूढ़े मन्त्रियों और बन्धु-बान्धवोंसे घिरा हुआ वहाँ आया ॥ ३४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो निषादाधिपतिं दृष्ट्वा दूरादुपस्थितम् ।
सह सौमित्रिणा रामः समागच्छद् गुहेन सः ॥ ३५ ॥
मूलम्
ततो निषादाधिपतिं दृष्ट्वा दूरादुपस्थितम् ।
सह सौमित्रिणा रामः समागच्छद् गुहेन सः ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निषादराजको दूरसे आया हुआ देख श्रीरामचन्द्रजी लक्ष्मणके साथ आगे बढ़कर उससे मिले ॥ ३५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमार्तः सम्परिष्वज्य गुहो राघवमब्रवीत् ।
यथायोध्या तथेदं ते राम किं करवाणि ते ॥ ३६ ॥
ईदृशं हि महाबाहो कः प्राप्स्यत्यतिथिं प्रियम् ।
मूलम्
तमार्तः सम्परिष्वज्य गुहो राघवमब्रवीत् ।
यथायोध्या तथेदं ते राम किं करवाणि ते ॥ ३६ ॥
ईदृशं हि महाबाहो कः प्राप्स्यत्यतिथिं प्रियम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामचन्द्रजीको वल्कल आदि धारण किये देख गुहको बड़ा दुःख हुआ । उसने श्रीरघुनाथजीको हृदयसे लगाकर कहा—‘श्रीराम! आपके लिये जैसे अयोध्याका राज्य है, उसी प्रकार यह राज्य भी है । बताइये, मैं आपकी क्या सेवा करूँ? महाबाहो! आप-जैसा प्रिय अतिथि किसको सुलभ होगा?’ ॥ ३६ १/२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो गुणवदन्नाद्यमुपादाय पृथग्विधम् ॥ ३७ ॥
अर्घ्यं चोपानयच्छीघ्रं वाक्यं चेदमुवाच ह ।
स्वागतं ते महाबाहो तवेयमखिला मही ॥ ३८ ॥
वयं प्रेष्या भवान् भर्ता साधु राज्यं प्रशाधि नः ।
भक्ष्यं भोज्यं च पेयं च लेह्यं चैतदुपस्थितम् ।
शयनानि च मुख्यानि वाजिनां खादनं च ते ॥ ३९ ॥
मूलम्
ततो गुणवदन्नाद्यमुपादाय पृथग्विधम् ॥ ३७ ॥
अर्घ्यं चोपानयच्छीघ्रं वाक्यं चेदमुवाच ह ।
स्वागतं ते महाबाहो तवेयमखिला मही ॥ ३८ ॥
वयं प्रेष्या भवान् भर्ता साधु राज्यं प्रशाधि नः ।
भक्ष्यं भोज्यं च पेयं च लेह्यं चैतदुपस्थितम् ।
शयनानि च मुख्यानि वाजिनां खादनं च ते ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर भाँति-भाँतिका उत्तम अन्न लेकर वह सेवामें उपस्थित हुआ । उसने शीघ्र ही अर्घ्य निवेदन किया और इस प्रकार कहा—‘महाबाहो! आपका स्वागत है । यह सारी भूमि, जो मेरे अधिकारमें है, आपकी ही है । हम आपके सेवक हैं और आप हमारे स्वामी, आजसे आप ही हमारे इस राज्यका भलीभाँति शासन करें । यह भक्ष्य (अन्न आदि), भोज्य (खीर आदि), पेय(पानकरस आदि) तथा लेह्य (चटनी आदि) आपकी सेवामें उपस्थित है, इसे स्वीकार करें । ये उत्तमोत्तम शय्याएँ हैं तथा आपके घोड़ोंके खानेके लिये चने और घास आदि भी प्रस्तुत हैं—ये सब सामग्री ग्रहण करें’ ॥ ३७—३९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुहमेवं ब्रुवाणं तु राघवः प्रत्युवाच ह ।
अर्चिताश्चैव हृष्टाश्च भवता सर्वदा वयम् ॥ ४० ॥
पद्भ्यामभिगमाच्चैव स्नेहसन्दर्शनेन च ।
मूलम्
गुहमेवं ब्रुवाणं तु राघवः प्रत्युवाच ह ।
अर्चिताश्चैव हृष्टाश्च भवता सर्वदा वयम् ॥ ४० ॥
पद्भ्यामभिगमाच्चैव स्नेहसन्दर्शनेन च ।
अनुवाद (हिन्दी)
गुहके ऐसा कहनेपर श्रीरामचन्द्रजीने उसे इस प्रकार उत्तर दिया—‘सखे! तुम्हारे यहाँतक पैदल आने और स्नेह दिखानेसे ही हमारा सदाके लिये भलीभाँति पूजन—स्वागत-सत्कार हो गया । तुमसे मिलकर हमें बड़ी प्रसन्नता हुई है’ ॥ ४० १/२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भुजाभ्यां साधुवृत्ताभ्यां पीडयन् वाक्यमब्रवीत् ॥ ४१ ॥
दिष्ट्या त्वां गुह पश्यामि ह्यरोगं सह बान्धवैः ।
अपि ते कुशलं राष्ट्रे मित्रेषु च वनेषु च ॥ ४२ ॥
मूलम्
भुजाभ्यां साधुवृत्ताभ्यां पीडयन् वाक्यमब्रवीत् ॥ ४१ ॥
दिष्ट्या त्वां गुह पश्यामि ह्यरोगं सह बान्धवैः ।
अपि ते कुशलं राष्ट्रे मित्रेषु च वनेषु च ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर श्रीरामने अपनी दोनों गोल-गोल भुजाओंसे गुहका अच्छी तरह आलिङ्गन करते हुए कहा—‘गुह! सौभाग्यकी बात है कि मैं आज तुम्हें बन्धु-बान्धवोंके साथ स्वस्थ एवं सानन्द देख रहा हूँ । बताओ, तुम्हारे राज्यमें, मित्रोंके यहाँ तथा वनोंमें सर्वत्र कुशल तो है? ॥ ४१-४२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत् त्विदं भवता किञ्चित् प्रीत्या समुपकल्पितम् ।
सर्वं तदनुजानामि नहि वर्ते प्रतिग्रहे ॥ ४३ ॥
मूलम्
यत् त्विदं भवता किञ्चित् प्रीत्या समुपकल्पितम् ।
सर्वं तदनुजानामि नहि वर्ते प्रतिग्रहे ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुमने प्रेमवश यह जो कुछ सामग्री प्रस्तुत की है, इसे स्वीकार करके मैं तुम्हें वापिस ले जानेकी आज्ञा देता हूँ; क्योंकि इस समय दूसरोंकी दी हुई कोई भी वस्तु मैं ग्रहण नहीं करता—अपने उपयोगमें नहीं लाता ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुशचीराजिनधरं फलमूलाशनं च माम् ।
विद्धि प्रणिहितं धर्मे तापसं वनगोचरम् ॥ ४४ ॥
मूलम्
कुशचीराजिनधरं फलमूलाशनं च माम् ।
विद्धि प्रणिहितं धर्मे तापसं वनगोचरम् ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वल्कल और मृगचर्म धारण करके फल-मूलका आहार करता हूँ और धर्ममें स्थित रहकर तापसवेशमें वनके भीतर ही विचरता हूँ । इन दिनों तुम मुझे इसी नियममें स्थित जानो ॥ ४४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अश्वानां खादनेनाहमर्थी नान्येन केनचित् ।
एतावतात्र भवता भविष्यामि सुपूजितः ॥ ४५ ॥
मूलम्
अश्वानां खादनेनाहमर्थी नान्येन केनचित् ।
एतावतात्र भवता भविष्यामि सुपूजितः ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इन सामग्रियोंमें जो घोड़ोंके खाने-पीनेकी वस्तु है, उसीकी इस समय मुझे आवश्यकता है, दूसरी किसी वस्तुकी नहीं । घोड़ोंको खिला-पिला देनेमात्रसे तुम्हारे द्वारा मेरा पूर्ण सत्कार हो जायगा ॥ ४५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एते हि दयिता राज्ञः पितुर्दशरथस्य मे ।
एतैः सुविहितैरश्वैर्भविष्याम्यहमर्चितः ॥ ४६ ॥
मूलम्
एते हि दयिता राज्ञः पितुर्दशरथस्य मे ।
एतैः सुविहितैरश्वैर्भविष्याम्यहमर्चितः ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ये घोड़े मेरे पिता महाराज दशरथको बहुत प्रिय हैं । इनके खाने-पीनेका सुन्दर प्रबन्ध कर देनेसे मेरा भलीभाँति पूजन हो जायगा’ ॥ ४६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अश्वानां प्रतिपानं च खादनं चैव सोऽन्वशात् ।
गुहस्तत्रैव पुरुषांस्त्वरितं दीयतामिति ॥ ४७ ॥
मूलम्
अश्वानां प्रतिपानं च खादनं चैव सोऽन्वशात् ।
गुहस्तत्रैव पुरुषांस्त्वरितं दीयतामिति ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब गुहने अपने सेवकोंको उसी समय यह आज्ञा दी कि तुम घोड़ोंके खाने-पीनेके लिये आवश्यक वस्तुएँ शीघ्र लाकर दो ॥ ४७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततश्चीरोत्तरासङ्गः सन्ध्यामन्वास्य पश्चिमाम् ।
जलमेवाददे भोज्यं लक्ष्मणोनाहृतं स्वयम् ॥ ४८ ॥
मूलम्
ततश्चीरोत्तरासङ्गः सन्ध्यामन्वास्य पश्चिमाम् ।
जलमेवाददे भोज्यं लक्ष्मणोनाहृतं स्वयम् ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् वल्कलका उत्तरीय-वस्त्र धारण करनेवाले श्रीरामने सायंकालकी संध्योपासना करके भोजनके नामपर स्वयं लक्ष्मणका लाया हुआ केवल जलमात्र पी लिया ॥ ४८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य भूमौ शयानस्य पादौ प्रक्षाल्य लक्ष्मणः ।
सभार्यस्य ततोऽभ्येत्य तस्थौ वृक्षमुपाश्रितः ॥ ४९ ॥
मूलम्
तस्य भूमौ शयानस्य पादौ प्रक्षाल्य लक्ष्मणः ।
सभार्यस्य ततोऽभ्येत्य तस्थौ वृक्षमुपाश्रितः ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर पत्नीसहित श्रीराम भूमिपर ही तृणकी शय्या बिछाकर सोये । उस समय लक्ष्मण उनके दोनों चरणोंको धो-पोंछकर वहाँसे कुछ दूरपर हट आये और एक वृक्षका सहारा लेकर बैठ गये ॥ ४९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुहोऽपि सह सूतेन सौमित्रिमनुभाषयन् ।
अन्वजाग्रत् ततो राममप्रमत्तो धनुर्धरः ॥ ५० ॥
मूलम्
गुहोऽपि सह सूतेन सौमित्रिमनुभाषयन् ।
अन्वजाग्रत् ततो राममप्रमत्तो धनुर्धरः ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गुह भी सावधानीके साथ धनुष धारण करके सुमन्त्रके साथ बैठकर सुमित्राकुमार लक्ष्मणसे बातचीत करता हुआ श्रीरामकी रक्षाके लिये रातभर जागता रहा ॥ ५० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा शयानस्य ततो यशस्विनो
मनस्विनो दाशरथेर्महात्मनः ।
अदृष्टदुःखस्य सुखोचितस्य सा
तदा व्यतीता सुचिरेण शर्वरी ॥ ५१ ॥
मूलम्
तथा शयानस्य ततो यशस्विनो
मनस्विनो दाशरथेर्महात्मनः ।
अदृष्टदुःखस्य सुखोचितस्य सा
तदा व्यतीता सुचिरेण शर्वरी ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार सोये हुए यशस्वी मनस्वी दशरथनन्दन महात्मा श्रीरामकी, जिन्होंने कभी दुःख नहीं देखा था तथा जो सुख भोगनेके ही योग्य थे, वह रात उस समय (नींद न आनेके कारण) बहुत देरके बाद व्यतीत हुई ॥
समाप्तिः
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे पञ्चाशः सर्गः ॥ ५० ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके अयोध्याकाण्डमें पचासवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ५० ॥