०३० वनगमनानुज्ञा

वाचनम्
भागसूचना
  1. सीताका वनमें चलनेके लिये अधिक आग्रह, विलाप और घबराहट देखकर श्रीरामका उन्हें साथ ले चलनेकी स्वीकृति देना, पिता-माता और गुरुजनोंकी सेवाका महत्त्व बताना तथा सीताको वनमें चलनेकी तैयारीके लिये घरकी वस्तुओंका दान करनेकी आज्ञा देना
विश्वास-प्रस्तुतिः

सान्त्व्यमाना तु रामेण मैथिली जनकात्मजा ।
वनवासनिमित्तार्थं भर्तारमिदमब्रवीत् ॥ १ ॥

मूलम्

सान्त्व्यमाना तु रामेण मैथिली जनकात्मजा ।
वनवासनिमित्तार्थं भर्तारमिदमब्रवीत् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामके समझानेपर मिथिलेशकुमारी जानकी वनवासकी आज्ञा प्राप्त करनेके लिये अपने पतिसे फिर इस प्रकार बोलीं ॥ १ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा तमुत्तमसंविग्ना सीता विपुलवक्षसम् ।
प्रणयाच्चाभिमानाच्च परिचिक्षेप राघवम् ॥ २ ॥

मूलम्

सा तमुत्तमसंविग्ना सीता विपुलवक्षसम् ।
प्रणयाच्चाभिमानाच्च परिचिक्षेप राघवम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सीता अत्यन्त डरी हुई थीं । वे प्रेम और स्वाभिमानके कारण विशाल वक्षःस्थलवाले श्रीरामचन्द्रजीपर आक्षेप-सा करती हुई कहने लगीं— ॥ २ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं त्वामन्यत वैदेहः पिता मे मिथिलाधिपः ।
राम जामातरं प्राप्य स्त्रियं पुरुषविग्रहम् ॥ ३ ॥

मूलम्

किं त्वामन्यत वैदेहः पिता मे मिथिलाधिपः ।
राम जामातरं प्राप्य स्त्रियं पुरुषविग्रहम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘श्रीराम! क्या मेरे पिता मिथिलानरेश विदेहराज जनकने आपको जामाताके रूपमें पाकर कभी यह भी समझा था कि आप केवल शरीरसे ही पुरुष हैं; कार्यकलापसे तो स्त्री ही हैं ॥ ३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनृतं बत लोकोऽयमज्ञानाद् यदि वक्ष्यति ।
तेजो नास्ति परं रामे तपतीव दिवाकरे ॥ ४ ॥

मूलम्

अनृतं बत लोकोऽयमज्ञानाद् यदि वक्ष्यति ।
तेजो नास्ति परं रामे तपतीव दिवाकरे ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नाथ! आपके मुझे छोड़कर चले जानेपर संसारके लोग अज्ञानवश यदि यह कहने लगें कि सूर्यके समान तपनेवाले श्रीरामचन्द्रमें तेज और पराक्रमका अभाव है तो उनकी यह असत्य धारणा मेरे लिये कितने दुःखकी बात होगी ॥ ४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं हि कृत्वा विषण्णस्त्वं कुतो वा भयमस्ति ते ।
यत् परित्यक्तुकामस्त्वं मामनन्यपरायणाम् ॥ ५ ॥

मूलम्

किं हि कृत्वा विषण्णस्त्वं कुतो वा भयमस्ति ते ।
यत् परित्यक्तुकामस्त्वं मामनन्यपरायणाम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आप क्या सोचकर विषादमें पड़े हुए हैं अथवा किससे आपको भय हो रहा है, जिसके कारण आप अपनी पत्नी मुझ सीताका, जो एकमात्र आपके ही आश्रित है, परित्याग करना चाहते हैं ॥ ५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्युमत्सेनसुतं वीरं सत्यवन्तमनुव्रताम् ।
सावित्रीमिव मां विद्धि त्वमात्मवशवर्तिनीम् ॥ ६ ॥

मूलम्

द्युमत्सेनसुतं वीरं सत्यवन्तमनुव्रताम् ।
सावित्रीमिव मां विद्धि त्वमात्मवशवर्तिनीम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जैसे सावित्री द्युमत्सेनकुमार वीरवर सत्यवान‍्की ही अनुगामिनी थी, उसी प्रकार आप मुझे भी अपनी ही आज्ञाके अधीन समझिये ॥ ६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न त्वहं मनसा त्वन्यं द्रष्टास्मि त्वदृतेऽनघ ।
त्वया राघव गच्छेयं यथान्या कुलपांसनी ॥ ७ ॥

मूलम्

न त्वहं मनसा त्वन्यं द्रष्टास्मि त्वदृतेऽनघ ।
त्वया राघव गच्छेयं यथान्या कुलपांसनी ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘निष्पाप रघुनन्दन! जैसी दूसरी कोई कुलकलङ्किनी स्त्री परपुरुषपर दृष्टि रखती है, वैसी मैं नहीं हूँ । मैं तो आपके सिवा किसी दूसरे पुरुषको मनसे भी नहीं देख सकती । इसलिये आपके साथ ही चलूँगी (आपके बिना अकेली यहाँ नहीं रहूँगी) ॥ ७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वयं तु भार्यां कौमारीं
चिरम् अध्युषितां सतीम् ।
शैलूष इव मां राम
परेभ्यो दातुम् इच्छसि ॥ ८ ॥+++(5)+++

मूलम्

स्वयं तु भार्यां कौमारीं चिरमध्युषितां सतीम् ।
शैलूष इव मां राम परेभ्यो दातुमिच्छसि ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘श्रीराम! जिसका कुमारावस्थामें ही आपके साथ विवाह हुआ है और जो चिरकालतक आपके साथ रह चुकी है, उसी मुझ अपनी सती-साध्वी पत्नीको आप औरतकी कमाई खानेवाले नटकी भाँति दूसरोंके हाथमें सौंपना चाहते हैं? ॥ ८ ॥

गणेशोऽवधानी

ಹಿಂದಿನ ಕಾಲದಲ್ಲಿ ವೃತ್ತಿಪರ ನಟವರ್ಗವು
ತನ್ನ ಕುಟುಂಬವನ್ನು ತವರಿನಲ್ಲಿಯೋ
ಮತ್ತಾವ ಬಂಧುಗಳಲ್ಲಿಯೋ ಬಿಟ್ಟು
ಊರೂರು ಸುತ್ತಿ ಹೊಟ್ಟೆಹೊರೆಯುತ್ತಿತ್ತಂತೆ.
ಇದೀಗ ರಾಮ
ಒಂಟಿಯಾಗಿ ವನವಾಸಕ್ಕೆ ತೆರಳಿದರೆ
ಅವನಿಗೆ ಈ ಪರಿಯ ಕಲಂಕವಂಟೀತೆಂದು
ಸೀತೆಯ ಇಂಗಿತ:

ಶೈಲೂಷ ಇವ ಮಾಂ ರಾಮ ಪರೇಭೋ ದಾತುಮರ್ಹಸಿ | (೨.೩೦.೮)

ಸಂಸ್ಕೃತದಲ್ಲಿ ನಟರಿಗೆ ‘ಕುಶೀಲವ’ ಎಂದೂ ಹೆಸರುಂಟು.
ಇವರ ಶೀಲವು ಶಿಥಿಲವೆಂದು ಲೋಕಪ್ರಥೆ,
ಹೀಗಾಗಿ ರಾಮನಂಥ ಮರ್ಯಾದಾಪುರುಷೋತ್ತಮನಿಗೆ
ಶೈಲೂಷರ ಸಾದೃಶ್ಯ ಸಂದಲ್ಲಿ ಅದು ಅವನಿಗೆ ಸಲ್ಲದ ಆರೋಪ.
ಇಂತಾದರೂ ಮಾನಕ್ಕಂಜಿದ
ಪತಿಯು ತನ್ನನ್ನು ಜೊತೆಗೆ ಕರೆದೊಯ್ದಾನೆಂದು ಸೀತೆಯ ಹವಣು.
ಹೀಗೆ ಆಕೆಯ ಆಕ್ಷೇಪದ ಹಿಂದಿರುವುದು ಅನುರಾಗವು ಹೂಡಿದ ತಂತ್ರವಲ್ಲದೆ ಕುತ್ತಿತವಾದ ನಿಂದೆಯಲ್ಲ.

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्य पथ्यञ्चरामात्थ यस्य चार्थेऽवरुध्यसे ।
त्वं तस्य भव वश्यश्च विधेयश्च सदानघ ॥ ९ ॥

मूलम्

यस्य पथ्यञ्चरामात्थ यस्य चार्थेऽवरुध्यसे ।
त्वं तस्य भव वश्यश्च विधेयश्च सदानघ ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘निष्पाप रघुनन्दन! आप मुझे जिसके अनुकूल चलनेकी शिक्षा दे रहे हैं और जिसके लिये आपका राज्याभिषेक रोक दिया गया है, उस भरतके सदा ही वशवर्ती और आज्ञापालक बनकर आप ही रहिये, मैं नहीं रहूँगी ॥ ९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स मामनादाय वनं न त्वं प्रस्थितुमर्हसि ।
तपो वा यदि वारण्यं स्वर्गो वा स्यात् त्वया सह ॥ १० ॥

मूलम्

स मामनादाय वनं न त्वं प्रस्थितुमर्हसि ।
तपो वा यदि वारण्यं स्वर्गो वा स्यात् त्वया सह ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसलिये आपका मुझे अपने साथ लिये बिना वनकी ओर प्रस्थान करना उचित नहीं है । यदि तपस्या करनी हो, वनमें रहना हो अथवा स्वर्गमें जाना हो तो सभी जगह मैं आपके साथ रहना चाहती हूँ ॥ १० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न च मे भविता तत्र कश्चित् पथि परिश्रमः ।
पृष्ठतस्तव गच्छन्त्या विहारशयनेष्विव ॥ ११ ॥

मूलम्

न च मे भविता तत्र कश्चित् पथि परिश्रमः ।
पृष्ठतस्तव गच्छन्त्या विहारशयनेष्विव ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जैसे बगीचेमें घूमने और पलंगपर सोनेमें कोई कष्ट नहीं होता, उसी प्रकार आपके पीछे-पीछे वनके मार्गपर चलनेमें भी मुझे कोई परिश्रम नहीं जान पड़ेगा ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुशकाशशरेषीका ये च कण्टकिनो द्रुमाः ।
तूलाजिनसमस्पर्शा मार्गे मम सह त्वया ॥ १२ ॥

मूलम्

कुशकाशशरेषीका ये च कण्टकिनो द्रुमाः ।
तूलाजिनसमस्पर्शा मार्गे मम सह त्वया ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘रास्तेमें जो कुश-कास, सरकंडे, सींक और काँटेदार वृक्ष मिलेंगे, उनका स्पर्श मुझे आपके साथ रहनेसे रूई और मृगचर्मके समान सुखद प्रतीत होगा ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महावातसमुद्भूतं यन्मामवकरिष्यति ।
रजो रमण तन्मन्ये परार्घ्यमिव चन्दनम् ॥ १३ ॥

मूलम्

महावातसमुद्भूतं यन्मामवकरिष्यति ।
रजो रमण तन्मन्ये परार्घ्यमिव चन्दनम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्राणवल्लभ! प्रचण्ड आँधीसे उड़कर मेरे शरीरपर जो धूल पड़ेगी, उसे मैं उत्तम चन्दनके समान समझूँगी ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शाद्वलेषु यदा शिश्ये वनान्तर्वनगोचरा ।
कुथास्तरणयुक्तेषु किं स्यात् सुखतरं ततः ॥ १४ ॥

मूलम्

शाद्वलेषु यदा शिश्ये वनान्तर्वनगोचरा ।
कुथास्तरणयुक्तेषु किं स्यात् सुखतरं ततः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जब वनके भीतर रहूँगी, तब आपके साथ घासोंपर भी सो लूँगी । रंग-बिरंगे कालीनों और मुलायम बिछौनोंसे युक्त पलंगोंपर क्या उससे अधिक सुख हो सकता है? ॥ १४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पत्रं मूलं फलं यत्तु अल्पं वा यदि वा बहु ।
दास्यसे स्वयमाहृत्य तन्मेऽमृतरसोपमम् ॥ १५ ॥

मूलम्

पत्रं मूलं फलं यत्तु अल्पं वा यदि वा बहु ।
दास्यसे स्वयमाहृत्य तन्मेऽमृतरसोपमम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आप अपने हाथसे लाकर थोड़ा या बहुत फल, मूल या पत्ता, जो कुछ दे देंगे, वही मेरे लिये अमृत-रसके समान होगा ॥ १५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न मातुर्न पितुस्तत्र स्मरिष्यामि न वेश्मनः ।
आर्तवान्युपभुञ्जाना पुष्पाणि च फलानि च ॥ १६ ॥

मूलम्

न मातुर्न पितुस्तत्र स्मरिष्यामि न वेश्मनः ।
आर्तवान्युपभुञ्जाना पुष्पाणि च फलानि च ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ऋतुके अनुकूल जो भी फल-फूल प्राप्त होंगे, उन्हें खाकर रहूँगी और माता-पिता अथवा महलको कभी याद नहीं करूँगी ॥ १६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न च तत्र ततः किञ्चिद् द्रष्टुमर्हसि विप्रियम् ।
मत्कृते न च ते शोको न भविष्यामि दुर्भरा ॥ १७ ॥

मूलम्

न च तत्र ततः किञ्चिद् द्रष्टुमर्हसि विप्रियम् ।
मत्कृते न च ते शोको न भविष्यामि दुर्भरा ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वहाँ रहते समय मेरा कोई भी प्रतिकूल व्यवहार आप नहीं देख सकेंगे । मेरे लिये आपको कोई कष्ट नहीं उठाना पड़ेगा । मेरा निर्वाह आपके लिये दूभर नहीं होगा ॥ १७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्त्वया सह स स्वर्गो निरयो यस्त्वया विना ।
इति जानन् परां प्रीतिं गच्छ राम मया सह ॥ १८ ॥

मूलम्

यस्त्वया सह स स्वर्गो निरयो यस्त्वया विना ।
इति जानन् परां प्रीतिं गच्छ राम मया सह ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आपके साथ जहाँ भी रहना पड़े, वही मेरे लिये स्वर्ग है और आपके बिना जो कोई भी स्थान हो, वह मेरे लिये नरकके समान है । श्रीराम! मेरे इस निश्चयको जानकर आप मेरे साथ अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक वनको चलें ॥ १८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ मामेवमव्यग्रां वनं नैव नयिष्यसे ।
विषमद्यैव पास्यामि मा वशं द्विषतां गमम् ॥ १९ ॥

मूलम्

अथ मामेवमव्यग्रां वनं नैव नयिष्यसे ।
विषमद्यैव पास्यामि मा वशं द्विषतां गमम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मुझे वनवासके कष्टसे कोई घबराहट नहीं है । यदि इस दशामें भी आप अपने साथ मुझे वनमें नहीं ले चलेंगे तो मैं आज ही विष पी लूँगी, परंतु शत्रुओंके अधीन होकर नहीं रहूँगी ॥ १९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पश्चादपि हि दुःखेन मम नैवास्ति जीवितम् ।
उज्झितायास्त्वया नाथ तदैव मरणं वरम् ॥ २० ॥

मूलम्

पश्चादपि हि दुःखेन मम नैवास्ति जीवितम् ।
उज्झितायास्त्वया नाथ तदैव मरणं वरम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नाथ! यदि आप मुझे त्यागकर वनको चले जायँगे तो पीछे भी इस भारी दुःखके कारण मेरा जीवित रहना सम्भव नहीं है; ऐसी दशामें मैं इसी समय आपके जाते ही अपना प्राण त्याग देना अच्छा समझती हूँ ॥ २० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमं हि सहितुं शोकं मुहूर्तमपि नोत्सहे ।
किं पुनर्दश वर्षाणि त्रीणि चैकं च दुःखिता ॥ २१ ॥

मूलम्

इमं हि सहितुं शोकं मुहूर्तमपि नोत्सहे ।
किं पुनर्दश वर्षाणि त्रीणि चैकं च दुःखिता ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आपके विरहका यह शोक मैं दो घड़ी भी नहीं सह सकूँगी । फिर मुझ दुःखियासे यह चौदह वर्षोंतक कैसे सहा जायगा?’ ॥ २१ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति सा शोकसन्तप्ता विलप्य करुणं बहु ।
चुक्रोश पतिमायस्ता भृशमालिङ्ग्य सस्वरम् ॥ २२ ॥

मूलम्

इति सा शोकसन्तप्ता विलप्य करुणं बहु ।
चुक्रोश पतिमायस्ता भृशमालिङ्ग्य सस्वरम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार बहुत देरतक करुणाजनक विलाप करके शोकसे संतप्त हुई सीता शिथिल हो अपने पतिको जोरसे पकड़कर—उनका गाढ़ आलिङ्गन करके फूट-फूटकर रोने लगीं ॥ २२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा विद्धा बहुभिर्वाक्यैर्दिग्धैरिव गजाङ्गना ।
चिरसन्नियतं बाष्पं मुमोचाग्निमिवारणिः ॥ २३ ॥

मूलम्

सा विद्धा बहुभिर्वाक्यैर्दिग्धैरिव गजाङ्गना ।
चिरसन्नियतं बाष्पं मुमोचाग्निमिवारणिः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे कोई हथिनी विषमें बुझे हुए बहुसंख्यक बाणोंद्वारा घायल कर दी गयी हो, उसी प्रकार सीता श्रीरामचन्द्रजीके पूर्वोक्त अनेकानेक वचनोंद्वारा मर्माहत हो उठी थीं; अतः जैसे अरणी आग प्रकट करती है, उसी प्रकार वे बहुत देरसे रोके हुए आँसुओंको बरसाने लगीं ॥ २३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्याः स्फटिकसङ्काशं वारि सन्तापसम्भवम् ।
नेत्राभ्यां परिसुस्राव पङ्कजाभ्यामिवोदकम् ॥ २४ ॥

मूलम्

तस्याः स्फटिकसङ्काशं वारि सन्तापसम्भवम् ।
नेत्राभ्यां परिसुस्राव पङ्कजाभ्यामिवोदकम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके दोनों नेत्रोंसे स्फटिकके समान निर्मल संतापजनित अश्रुजल झर रहा था, मानो दो कमलोंसे जलकी धारा गिर रही हो ॥ २४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्सितामलचन्द्राभं मुखमायतलोचनम् ।
पर्यशुष्यत बाष्पेण जलोद्‍धृतमिवाम्बुजम् ॥ २५ ॥

मूलम्

तत्सितामलचन्द्राभं मुखमायतलोचनम् ।
पर्यशुष्यत बाष्पेण जलोद्‍धृतमिवाम्बुजम् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बड़े-बड़े नेत्रोंसे सुशोभित और पूर्णिमाके निर्मल चन्द्रमाके समान कान्तिमान् उनका वह मनोहर मुख संतापजनित तापके कारण पानीसे बाहर निकाले हुए कमलके समान सूख-सा गया था ॥ २५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तां परिष्वज्य बाहुभ्यां विसञ्ज्ञामिव दुःखिताम् ।
उवाच वचनं रामः परिविश्वासयंस्तदा ॥२६ ॥

मूलम्

तां परिष्वज्य बाहुभ्यां विसञ्ज्ञामिव दुःखिताम् ।
उवाच वचनं रामः परिविश्वासयंस्तदा ॥२६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सीताजी दुःखके मारे अचेत-सी हो रही थीं । श्रीरामचन्द्रजीने उन्हें दोनों हाथोंसे सँभालकर हृदयसे लगा लिया और उस समय उन्हें सान्त्वना देते हुए कहा— ॥ २६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न देवि बत दुःखेन स्वर्गमप्यभिरोचये ।
नहि मेऽस्ति भयं किञ्चित् स्वयम्भोरिव सर्वतः ॥ २७ ॥

मूलम्

न देवि बत दुःखेन स्वर्गमप्यभिरोचये ।
नहि मेऽस्ति भयं किञ्चित् स्वयम्भोरिव सर्वतः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘देवि! तुम्हें दुःख देकर मुझे स्वर्गका सुख मिलता हो तो मैं उसे भी लेना नहीं चाहूँगा । स्वयम्भू ब्रह्माजीकी भाँति मुझे किसीसे किञ्चित् भी भय नहीं है ॥ २७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तव सर्वमभिप्रायमविज्ञाय शुभानने ।
वासं न रोचयेऽरण्ये शक्तिमानपि रक्षणे ॥ २८ ॥

मूलम्

तव सर्वमभिप्रायमविज्ञाय शुभानने ।
वासं न रोचयेऽरण्ये शक्तिमानपि रक्षणे ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शुभानने! यद्यपि वनमें तुम्हारी रक्षा करनेके लिये मैं सर्वथा समर्थ हूँ तो भी तुम्हारे हार्दिक अभिप्रायको पूर्णरूपसे जाने बिना तुमको वनवासिनी बनाना मैं उचित नहीं समझता था ॥ २८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत् सृष्टासि मया सार्धं वनवासाय मैथिलि ।
न विहातुं मया शक्या प्रीतिरात्मवता यथा ॥ २९ ॥

मूलम्

यत् सृष्टासि मया सार्धं वनवासाय मैथिलि ।
न विहातुं मया शक्या प्रीतिरात्मवता यथा ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मिथिलेशकुमारी! जब तुम मेरे साथ वनमें रहनेके लिये ही उत्पन्न हुई हो तो मैं तुम्हें छोड़ नहीं सकता, ठीक उसी तरह जैसे आत्मज्ञानी पुरुष अपनी स्वाभाविक प्रसन्नताका त्याग नहीं करते ॥ २९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मस्तु गजनासोरु सद्भिराचरितः पुरा ।
तं चाहमनुवर्तिष्ये यथा सूर्यं सुवर्चला ॥ ३० ॥

मूलम्

धर्मस्तु गजनासोरु सद्भिराचरितः पुरा ।
तं चाहमनुवर्तिष्ये यथा सूर्यं सुवर्चला ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘हाथीकी सूँड़के समान जाँघवाली जनककिशोरी! पूर्वकालके सत्पुरुषोंने अपनी पत्नीके साथ रहकर जिस धर्मका आचरण किया था, उसीका मैं भी तुम्हारे साथ रहकर अनुसरण करूँगा तथा जैसे सुवर्चला (संज्ञा) अपने पति सूर्यका अनुगमन करती है, उसी प्रकार तुम भी मेरा अनुसरण करो ॥ ३० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न खल्वहं न गच्छेयं वनं जनकनन्दिनि ।
वचनं तन्नयति मां पितुः सत्योपबृंहितम् ॥ ३१ ॥

मूलम्

न खल्वहं न गच्छेयं वनं जनकनन्दिनि ।
वचनं तन्नयति मां पितुः सत्योपबृंहितम् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जनकनन्दिनि! यह तो किसी प्रकार सम्भव ही नहीं है कि मैं वनको न जाऊँ; क्योंकि पिताजीका वह सत्ययुक्त वचन ही मुझे वनकी ओर ले जा रहा है ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष धर्मश्च सुश्रोणि पितुर्मातुश्च वश्यता ।
आज्ञां चाहं व्यतिक्रम्य नाहं जीवितुमुत्सहे ॥ ३२ ॥

मूलम्

एष धर्मश्च सुश्रोणि पितुर्मातुश्च वश्यता ।
आज्ञां चाहं व्यतिक्रम्य नाहं जीवितुमुत्सहे ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सुश्रोणि! पिता और माताकी आज्ञाके अधीन रहना पुत्रका धर्म है, इसलिये मैं उनकी आज्ञाका उल्लङ्घन करके जीवित नहीं रह सकता ॥ ३२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्वाधीनं कथं दैवं प्रकारैरभिराध्यते ।
स्वाधीनं समतिक्रम्य मातरं पितरं गुरुम् ॥ ३३ ॥

मूलम्

अस्वाधीनं कथं दैवं प्रकारैरभिराध्यते ।
स्वाधीनं समतिक्रम्य मातरं पितरं गुरुम् ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो अपनी सेवाके अधीन हैं, उन प्रत्यक्ष देवता माता, पिता एवं गुरुका उल्लङ्घन करके जो सेवाके अधीन नहीं है, उस अप्रत्यक्ष देवता दैवकी विभिन्न प्रकारसे किस तरह आराधना की जा सकती है ॥ ३३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्र त्रयं त्रयो लोकाः पवित्रं तत्समं भुवि ।
नान्यदस्ति शुभापाङ्गे तेनेदमभिराध्यते ॥ ३४ ॥

मूलम्

यत्र त्रयं त्रयो लोकाः पवित्रं तत्समं भुवि ।
नान्यदस्ति शुभापाङ्गे तेनेदमभिराध्यते ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सुन्दर नेत्रप्रान्तवाली सीते! जिनकी आराधना करनेपर धर्म, अर्थ और काम तीनों प्राप्त होते हैं तथा तीनों लोकोंकी आराधना सम्पन्न हो जाती है, उन माता, पिता और गुरुके समान दूसरा कोई पवित्र देवता इस भूतलपर नहीं है । इसीलिये भूतलके निवासी इन तीनों देवताओंकी आराधना करते हैं ॥ ३४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न सत्यं दानमानौ वा यज्ञो वाप्याप्तदक्षिणाः ।
तथा बलकराः सीते यथा सेवा पितुर्मता ॥ ३५ ॥

मूलम्

न सत्यं दानमानौ वा यज्ञो वाप्याप्तदक्षिणाः ।
तथा बलकराः सीते यथा सेवा पितुर्मता ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सीते! पिताकी सेवा करना कल्याणकी प्राप्तिका जैसा प्रबल साधन माना गया है, वैसा न सत्य है, न दान है, न मान है और न पर्याप्त दक्षिणावाले यज्ञ ही हैं ॥ ३५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वर्गो धनं वा धान्यं वा विद्या पुत्राः सुखानि च ।
गुरुवृत्त्यनुरोधेन न किञ्चिदपि दुर्लभम् ॥ ३६ ॥

मूलम्

स्वर्गो धनं वा धान्यं वा विद्या पुत्राः सुखानि च ।
गुरुवृत्त्यनुरोधेन न किञ्चिदपि दुर्लभम् ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘गुरुजनोंकी सेवाका अनुसरण करनेसे स्वर्ग, धन-धान्य, विद्या, पुत्र और सुख—कुछ भी दुर्लभ नहीं है ॥ ३६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवगन्धर्वगोलोकान् ब्रह्मलोकांस्तथापरान् ।
प्राप्नुवन्ति महात्मानो मातापितृपरायणाः ॥ ३७ ॥

मूलम्

देवगन्धर्वगोलोकान् ब्रह्मलोकांस्तथापरान् ।
प्राप्नुवन्ति महात्मानो मातापितृपरायणाः ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘माता-पिताकी सेवामें लगे रहनेवाले महात्मा पुरुष देवलोक, गन्धर्वलोक, ब्रह्मलोक, गोलोक तथा अन्य लोकोंको भी प्राप्त कर लेते हैं ॥ ३७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स मा पिता यथा शास्ति सत्यधर्मपथे स्थितः ।
तथा वर्तितुमिच्छामि स हि धर्मः सनातनः ॥ ३८ ॥

मूलम्

स मा पिता यथा शास्ति सत्यधर्मपथे स्थितः ।
तथा वर्तितुमिच्छामि स हि धर्मः सनातनः ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसीलिये सत्य और धर्मके मार्गपर स्थित रहनेवाले पूज्य पिताजी मुझे जैसी आज्ञा दे रहे हैं, मैं वैसा ही बर्ताव करना चाहता हूँ; क्योंकि वह सनातनधर्म है ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मम सन्ना मतिः सीते नेतुं त्वां दण्डकावनम् ।
वसिष्यामीति सा त्वं मामनुयातुं सुनिश्चिता ॥ ३९ ॥

मूलम्

मम सन्ना मतिः सीते नेतुं त्वां दण्डकावनम् ।
वसिष्यामीति सा त्वं मामनुयातुं सुनिश्चिता ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सीते! ‘मैं आपके साथ वनमें निवास करूँगी’—ऐसा कहकर तुमने मेरे साथ चलनेका दृढ़ निश्चय कर लिया है, इसलिये तुम्हें दण्डकारण्य ले चलनेके सम्बन्धमें जो मेरा पहला विचार था, वह अब बदल गया है ॥ ३९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा हि दिष्टानवद्याङ्गि वनाय मदिरेक्षणे ।
अनुगच्छस्व मां भीरु सहधर्मचरी भव ॥ ४० ॥

मूलम्

सा हि दिष्टानवद्याङ्गि वनाय मदिरेक्षणे ।
अनुगच्छस्व मां भीरु सहधर्मचरी भव ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मदभरे नेत्रोंवाली सुन्दरी! अब मैं तुम्हें वनमें चलनेके लिये आज्ञा देता हूँ । भीरु! तुम मेरी अनुगामिनी बनो और मेरे साथ रहकर धर्मका आचरण करो ॥ ४० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वथा सदृशं सीते मम स्वस्य कुलस्य च ।
व्यवसायमनुक्रान्ता कान्ते त्वमतिशोभनम् ॥ ४१ ॥

मूलम्

सर्वथा सदृशं सीते मम स्वस्य कुलस्य च ।
व्यवसायमनुक्रान्ता कान्ते त्वमतिशोभनम् ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्राणवल्लभे सीते! तुमने मेरे साथ चलनेका जो यह परम सुन्दर निश्चय किया है, यह तुम्हारे और मेरे कुलके सर्वथा योग्य ही है ॥ ४१ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आरभस्व शुभश्रोणि वनवासक्षमाः क्रियाः ।
नेदानीं त्वदृते सीते स्वर्गोऽपि मम रोचते ॥ ४२ ॥

मूलम्

आरभस्व शुभश्रोणि वनवासक्षमाः क्रियाः ।
नेदानीं त्वदृते सीते स्वर्गोऽपि मम रोचते ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सुश्रोणि! अब तुम वनवासके योग्य दान आदि कर्म प्रारम्भ करो । सीते! इस समय तुम्हारे इस प्रकार दृढ़ निश्चय कर लेनेपर तुम्हारे बिना स्वर्ग भी मुझे अच्छा नहीं लगता है ॥ ४२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणेभ्यश्च रत्नानि भिक्षुकेभ्यश्च भोजनम् ।
देहि चाशंसमानेभ्यः सन्त्वरस्व च मा चिरम् ॥ ४३ ॥

मूलम्

ब्राह्मणेभ्यश्च रत्नानि भिक्षुकेभ्यश्च भोजनम् ।
देहि चाशंसमानेभ्यः सन्त्वरस्व च मा चिरम् ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ब्राह्मणोंको रत्नस्वरूप उत्तम वस्तुएँ दान करो और भोजन माँगनेवाले भिक्षुकोंको भोजन दो । शीघ्रता करो, विलम्ब नहीं होना चाहिये ॥ ४३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूषणानि महार्हाणि वरवस्त्राणि यानि च ।
रमणीयाश्च ये केचित् क्रीडार्थाश्चाप्युपस्कराः ॥ ४४ ॥
शयनीयानि यानानि मम चान्यानि यानि च ।
देहि स्वभृत्यवर्गस्य ब्राह्मणानामनन्तरम् ॥ ४५ ॥

मूलम्

भूषणानि महार्हाणि वरवस्त्राणि यानि च ।
रमणीयाश्च ये केचित् क्रीडार्थाश्चाप्युपस्कराः ॥ ४४ ॥
शयनीयानि यानानि मम चान्यानि यानि च ।
देहि स्वभृत्यवर्गस्य ब्राह्मणानामनन्तरम् ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम्हारे पास जितने बहुमूल्य आभूषण हों, जो-जो अच्छे-अच्छे वस्त्र हों, जो कोई भी रमणीय पदार्थ हों तथा मनोरञ्जनकी जो-जो सुन्दर सामग्रियाँ हों, मेरे और तुम्हारे उपयोगमें आनेवाली जो उत्तमोत्तम शय्याएँ, सवारियाँ तथा अन्य वस्तुएँ हों, उनमेंसे ब्राह्मणोंको दान करनेके पश्चात् जो बचें उन सबको अपने सेवकोंको बाँट दो’ ॥ ४४-४५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुकूलं तु सा भर्तुर्ज्ञात्वा गमनमात्मनः ।
क्षिप्रं प्रमुदिता देवी दातुमेव प्रचक्रमे ॥ ४६ ॥

मूलम्

अनुकूलं तु सा भर्तुर्ज्ञात्वा गमनमात्मनः ।
क्षिप्रं प्रमुदिता देवी दातुमेव प्रचक्रमे ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘स्वामीने वनमें मेरा जाना स्वीकार कर लिया—मेरा वनगमन उनके मनके अनुकूल हो गया’ यह जानकर देवी सीता बहुत प्रसन्न हुईं और शीघ्रतापूर्वक सब वस्तुओंका दान करनेमें जुट गयीं ॥ ४६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रहृष्टा प्रतिपूर्णमानसा
यशस्विनी भर्तुरवेक्ष्य भाषितम् ।
धनानि रत्नानि च दातुमङ्गना
प्रचक्रमे धर्मभृतां मनस्विनी ॥ ४७ ॥

मूलम्

ततः प्रहृष्टा प्रतिपूर्णमानसा
यशस्विनी भर्तुरवेक्ष्य भाषितम् ।
धनानि रत्नानि च दातुमङ्गना
प्रचक्रमे धर्मभृतां मनस्विनी ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर अपना मनोरथ पूर्ण हो जानेसे अत्यन्त हर्षमें भरी हुई यशस्विनी एवं मनस्विनी सीता देवी स्वामीके आदेशपर विचार करके धर्मात्मा ब्राह्मणोंको धन और रत्नोंका दान करनेके लिये उद्यत हो गयीं ॥

समाप्तिः

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे त्रिंशः सर्गः ॥ ३० ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके अयोध्याकाण्डमें तीसवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ३० ॥