०२७ सीतायाः वनगमननिश्चयः

वाचनम्
भागसूचना
  1. सीताकी श्रीरामसे अपनेको भी साथ ले चलनेके लिये प्रार्थना
विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्ता तु वैदेही प्रियार्हा प्रियवादिनी ।
प्रणयादेव सङ्क्रुद्धा भर्तारमिदमब्रवीत् ॥ १ ॥

मूलम्

एवमुक्ता तु वैदेही प्रियार्हा प्रियवादिनी ।
प्रणयादेव सङ्क्रुद्धा भर्तारमिदमब्रवीत् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामके ऐसा कहनेपर प्रियवादिनी विदेहकुमारी सीताजी, जो सब प्रकारसे अपने स्वामीका प्यार पाने योग्य थीं, प्रेमसे ही कुछ कुपित होकर पतिसे इस प्रकार बोलीं— ॥ १ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किमिदं भाषसे राम वाक्यं लघुतया ध्रुवम् ।
त्वया यदपहास्यं मे श्रुत्वा नरवरोत्तम ॥ २ ॥

मूलम्

किमिदं भाषसे राम वाक्यं लघुतया ध्रुवम् ।
त्वया यदपहास्यं मे श्रुत्वा नरवरोत्तम ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नरश्रेष्ठ श्रीराम! आप मुझे ओछी समझकर यह क्या कह रहे हैं? आपकी ये बातें सुनकर मुझे बहुत हँसी आती है ॥ २ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वीराणां राजपुत्राणां शस्त्रास्त्रविदुषां नृप ।
अनर्हमयशस्यं च न श्रोतव्यं त्वयेरितम् ॥ ३ ॥

मूलम्

वीराणां राजपुत्राणां शस्त्रास्त्रविदुषां नृप ।
अनर्हमयशस्यं च न श्रोतव्यं त्वयेरितम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नरेश्वर! आपने जो कुछ कहा है, वह अस्त्र-शस्त्रोंके ज्ञाता वीर राजकुमारोंके योग्य नहीं है । वह अपयशका टीका लगानेवाला होनेके कारण सुनने योग्य भी नहीं है ॥ ३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आर्यपुत्र पिता माता भ्राता पुत्रस्तथा स्नुषा ।
स्वानि पुण्यानि भुञ्जानाः स्वं स्वं भाग्यमुपासते ॥ ४ ॥

मूलम्

आर्यपुत्र पिता माता भ्राता पुत्रस्तथा स्नुषा ।
स्वानि पुण्यानि भुञ्जानाः स्वं स्वं भाग्यमुपासते ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आर्यपुत्र! पिता, माता, भाई, पुत्र और पुत्रवधू—ये सब पुण्यादि कर्मोंका फल भोगते हुए अपने-अपने भाग्य (शुभाशुभ कर्म) के अनुसार जीवन-निर्वाह करते हैं ॥ ४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भर्तुर्भाग्यं तु नार्येका प्राप्नोति पुरुषर्षभ ।
अतश्चैवाहमादिष्टा वने वस्तव्यमित्यपि ॥ ५ ॥+++(5)+++

मूलम्

भर्तुर्भाग्यं तु नार्येका प्राप्नोति पुरुषर्षभ ।
अतश्चैवाहमादिष्टा वने वस्तव्यमित्यपि ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पुरुषप्रवर! केवल पत्नी ही अपने पतिके भाग्यका अनुसरण करती है, अतः आपके साथ ही मुझे भी वनमें रहनेकी आज्ञा मिल गयी है ॥ ५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न पिता नात्मजो वात्मा न माता न सखीजनः ।
इह प्रेत्य च नारीणां पतिरेको गतिः सदा ॥ ६ ॥+++(5)+++

मूलम्

न पिता नात्मजो वात्मा न माता न सखीजनः ।
इह प्रेत्य च नारीणां पतिरेको गतिः सदा ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नारियोंके लिये इस लोक और परलोकमें एकमात्र पति ही सदा आश्रय देनेवाला है । पिता, पुत्र, माता, सखियाँ तथा अपना यह शरीर भी उसका सच्चा सहायक नहीं है ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि त्वं प्रस्थितो दुर्गं वनमद्यैव राघव ।
अग्रतस्ते गमिष्यामि मृद्नन्ती कुशकण्टकान् ॥ ७ ॥

मूलम्

यदि त्वं प्रस्थितो दुर्गं वनमद्यैव राघव ।
अग्रतस्ते गमिष्यामि मृद्नन्ती कुशकण्टकान् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘रघुनन्दन! यदि आप आज ही दुर्गम वनकी ओर प्रस्थान कर रहे हैं तो मैं रास्तेके कुश और काँटोंको कुचलती हुई आपके आगे-आगे चलूँगी ॥ ७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ईर्ष्यां रोषं बहिष्कृत्य भुक्तशेषमिवोदकम् ।
नय मां वीर विस्रब्धः पापं मयि न विद्यते ॥ ८ ॥

मूलम्

ईर्ष्यां रोषं बहिष्कृत्य भुक्तशेषमिवोदकम् ।
नय मां वीर विस्रब्धः पापं मयि न विद्यते ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अतः वीर! आप ईर्ष्या१ और रोषको२ दूर करके पीनेसे३ बचे हुए जलकी भाँति मुझे निःशङ्क होकर साथ ले चलिये । मुझमें ऐसा कोई पाप—अपराध नहीं है, जिसके कारण आप मुझे यहाँ त्याग दें ॥ ८ ॥

पादटिप्पनी

१. स्त्री होकर यह वनमें जानेका साहस कैसे करती है? इस विचारसे ईर्ष्या होती है ।
२. यह मेरी बात नहीं मान रही है, यह सोचकर रोष प्रकट होता है । इन दोनोंका त्याग अपेक्षित है ।
३. जैसे किसी जलहीन बीहड़ पथमें लोग अपने पीनेसे बचे हुए पानीको साथ ले चलते हैं, उसी प्रकार मुझे भी आप साथ ले चलें—यह सीताका अनुरोध है ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रासादाग्रे विमानैर्वा वैहायसगतेन वा ।
सर्वावस्थागता भर्तुः पादच्छाया विशिष्यते ॥ ९ ॥

मूलम्

प्रासादाग्रे विमानैर्वा वैहायसगतेन वा ।
सर्वावस्थागता भर्तुः पादच्छाया विशिष्यते ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ऊँचे-ऊँचे महलोंमें रहना, विमानोंपर चढ़कर घूमना अथवा अणिमा आदि सिद्धियोंके द्वारा आकाशमें विचरना—इन सबकी अपेक्षा स्त्रीके लिये सभी अवस्थाओंमें पतिके चरणोंकी छायामें रहना विशेष महत्त्व रखता है ॥ ९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुशिष्टास्मि मात्रा च पित्रा च विविधाश्रयम् ।
नास्मि सम्प्रति वक्तव्या वर्तितव्यं यथा मया ॥ १० ॥

मूलम्

अनुशिष्टास्मि मात्रा च पित्रा च विविधाश्रयम् ।
नास्मि सम्प्रति वक्तव्या वर्तितव्यं यथा मया ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मुझे किसके साथ कैसा बर्ताव करना चाहिये, इस विषयमें मेरी माता और पिताने मुझे अनेक प्रकारसे शिक्षा दी है । इस समय इसके विषयमें मुझे कोई उपदेश देनेकी आवश्यकता नहीं है ॥ १० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं दुर्गं गमिष्यामि वनं पुरुषवर्जितम् ।
नानामृगगणाकीर्णं शार्दूलगणसेवितम् ॥ ११ ॥

मूलम्

अहं दुर्गं गमिष्यामि वनं पुरुषवर्जितम् ।
नानामृगगणाकीर्णं शार्दूलगणसेवितम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अतः नाना प्रकारके वन्य पशुओंसे व्याप्त तथा सिंहों और व्याघ्रोंसे सेवित उस निर्जन एवं दुर्गम वनमें मैं अवश्य चलूँगी ॥ ११ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुखं वने निवत्स्यामि यथैव भवने पितुः ।
अचिन्तयन्ती त्रील्ँ लोकांश्चिन्तयन्ती पतिव्रतम् ॥ १२ ॥

मूलम्

सुखं वने निवत्स्यामि यथैव भवने पितुः ।
अचिन्तयन्ती त्रील्ँ लोकांश्चिन्तयन्ती पतिव्रतम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं तो जैसे अपने पिताके घरमें रहती थी, उसी प्रकार उस वनमें भी सुखपूर्वक निवास करूँगी । वहाँ तीनों लोकोंके ऐश्वर्यको भी कुछ न समझती हुई मैं सदा पतिव्रत-धर्मका चिन्तन करती हुई आपकी सेवामें लगी रहूँगी ॥ १२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुश्रूषमाणा ते नित्यं नियता ब्रह्मचारिणी ।
सह रंस्ये त्वया वीर वनेषु मधुगन्धिषु ॥ १३ ॥

मूलम्

शुश्रूषमाणा ते नित्यं नियता ब्रह्मचारिणी ।
सह रंस्ये त्वया वीर वनेषु मधुगन्धिषु ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वीर! नियमपूर्वक रहकर ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करूँगी और सदा आपकी सेवामें तत्पर रहकर आपहीके साथ मीठी-मीठी सुगन्धसे भरे हुए वनोंमें विचरूँगी ॥ १३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं हि कर्तुं वने शक्तो राम सम्परिपालनम् ।
अन्यस्यापि जनस्येह किं पुनर्मम मानद ॥ १४ ॥

मूलम्

त्वं हि कर्तुं वने शक्तो राम सम्परिपालनम् ।
अन्यस्यापि जनस्येह किं पुनर्मम मानद ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दूसरोंको मान देनेवाले श्रीराम! आप तो वनमें रहकर दूसरे लोगोंकी भी रक्षा कर सकते हैं, फिर मेरी रक्षा करना आपके लिये कौन बड़ी बात है? ॥ १४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

साहं त्वया गमिष्यामि वनमद्य न संशयः ।
नाहं शक्या महाभाग निवर्तयितुमुद्यता ॥ १५ ॥

मूलम्

साहं त्वया गमिष्यामि वनमद्य न संशयः ।
नाहं शक्या महाभाग निवर्तयितुमुद्यता ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाभाग! अतः मैं आपके साथ आज अवश्य वनमें चलूँगी । इसमें संशय नहीं है । मैं हर तरह चलनेको तैयार हूँ । मुझे किसी तरह भी रोका नहीं जा सकता ॥ १५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

फलमूलाशना नित्यं भविष्यामि न संशयः ।
न ते दुःखं करिष्यामि निवसन्ती त्वया सदा ॥ १६ ॥

मूलम्

फलमूलाशना नित्यं भविष्यामि न संशयः ।
न ते दुःखं करिष्यामि निवसन्ती त्वया सदा ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वहाँ चलकर मैं आपको कोई कष्ट नहीं दूँगी, सदा आपके साथ रहूँगी और प्रतिदिन फल-मूल खाकर ही निर्वाह करूँगी । मेरे इस कथनमें किसी प्रकारके संदेहके लिये स्थान नहीं है ॥ १६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्रतस्ते गमिष्यामि भोक्ष्ये भुक्तवति त्वयि ।
इच्छामि परतः शैलान् पल्वलानि सरांसि च ॥ १७ ॥
द्रष्टुं सर्वत्र निर्भीता त्वया नाथेन धीमता ।

मूलम्

अग्रतस्ते गमिष्यामि भोक्ष्ये भुक्तवति त्वयि ।
इच्छामि परतः शैलान् पल्वलानि सरांसि च ॥ १७ ॥
द्रष्टुं सर्वत्र निर्भीता त्वया नाथेन धीमता ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘आपके आगे-आगे चलूँगी और आपके भोजन कर लेनेपर जो कुछ बचेगा, उसे ही खाकर रहूँगी । प्रभो! मेरी बड़ी इच्छा है कि मैं आप बुद्धिमान् प्राणनाथके साथ निर्भय हो वनमें सर्वत्र घूमकर पर्वतों, छोटे-छोटे तालाबों और सरोवरोंको देखूँ ॥ १७ १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हंसकारण्डवाकीर्णाः
पद्मिनीः साधुपुष्पिताः ॥ १८ ॥
इच्छेयं सुखिनी द्रष्टुं
त्वया वीरेण सङ्गता ।

मूलम्

हंसकारण्डवाकीर्णाः पद्मिनीः साधुपुष्पिताः ॥ १८ ॥
इच्छेयं सुखिनी द्रष्टुं त्वया वीरेण सङ्गता ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘आप मेरे वीर स्वामी हैं । मैं आपके साथ रहकर सुखपूर्वक उन सुन्दर सरोवरोंकी शोभा देखना चाहती हूँ, जो श्रेष्ठ कमलपुष्पोंसे सुशोभित हैं तथा जिनमें हंस और कारण्डव आदि पक्षी भरे रहते हैं ॥ १८ १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिषेकं करिष्यामि तासु नित्यमनुव्रता ॥ १९ ॥
सह त्वया विशालाक्ष रंस्ये परमनन्दिनी ।

मूलम्

अभिषेकं करिष्यामि तासु नित्यमनुव्रता ॥ १९ ॥
सह त्वया विशालाक्ष रंस्ये परमनन्दिनी ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘विशाल नेत्रोंवाले आर्यपुत्र! आपके चरणोंमें अनुरक्त रहकर मैं प्रतिदिन उन सरोवरोंमें स्नान करूँगी और आपके साथ वहाँ सब ओर विचरूँगी, इससे मुझे परम आनन्दका अनुभव होगा ॥ १९ १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं वर्षसहस्राणि शतं वापि त्वया सह ॥ २० ॥
व्यतिक्रमं न वेत्स्यामि स्वर्गोऽपि हि न मे मतः ।

मूलम्

एवं वर्षसहस्राणि शतं वापि त्वया सह ॥ २० ॥
व्यतिक्रमं न वेत्स्यामि स्वर्गोऽपि हि न मे मतः ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस तरह सैकड़ों या हजारों वर्षोंतक भी यदि आपके साथ रहनेका सौभाग्य मिले तो मुझे कभी कष्टका अनुभव नहीं होगा । यदि आप साथ न हों तो मुझे स्वर्गलोककी प्राप्ति भी अभीष्ट नहीं है ॥ २० १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वर्गेऽपि च विना वासो भविता यदि राघव ।
त्वया विना नरव्याघ्र नाहं तदपि रोचये ॥ २१ ॥

मूलम्

स्वर्गेऽपि च विना वासो भविता यदि राघव ।
त्वया विना नरव्याघ्र नाहं तदपि रोचये ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पुरुषसिंह रघुनन्दन! आपके बिना यदि मुझे स्वर्गलोकका निवास भी मिल रहा हो तो वह मेरे लिये रुचिकर नहीं हो सकता—मैं उसे लेना नहीं चाहूँगी ॥ २१ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं गमिष्यामि वनं सुदुर्गमं
मृगायुतं वानरवारणैश्च ।
वने निवत्स्यामि यथा पितुर्गृहे
तवैव पादाव् उपगृह्य सम्मता ॥ २२ ॥

मूलम्

अहं गमिष्यामि वनं सुदुर्गमं
मृगायुतं वानरवारणैश्च ।
वने निवत्स्यामि यथा पितुर्गृहे
तवैव पादावुपगृह्य सम्मता ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्राणनाथ! अतः उस अत्यन्त दुर्गम वनमें, जहाँ सहस्रों मृग, वानर और हाथी निवास करते हैं, मैं अवश्य चलूँगी और आपके ही चरणोंकी सेवामें रहकर आपके अनुकूल चलती हुई उस वनमें उसी तरह सुखसे रहूँगी, जैसे पिताके घरमें रहा करती थी ॥ २२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनन्यभावामनुरक्तचेतसं
त्वया वियुक्तां मरणाय निश्चिताम् ।
नयस्व मां साधु कुरुष्व याचनां
नातो मया ते गुरुता भविष्यति ॥ २३ ॥

मूलम्

अनन्यभावामनुरक्तचेतसं
त्वया वियुक्तां मरणाय निश्चिताम् ।
नयस्व मां साधु कुरुष्व याचनां
नातो मया ते गुरुता भविष्यति ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेरे हृदयका सम्पूर्ण प्रेम एकमात्र आपको ही अर्पित है, आपके सिवा और कहीं मेरा मन नहीं जाता, यदि आपसे वियोग हुआ तो निश्चय ही मेरी मृत्यु हो जायगी । इसलिये आप मेरी याचना सफल करें, मुझे साथ ले चलें, यही अच्छा होगा; मेरे रहनेसे आपपर कोई भार नहीं पड़ेगा’ ॥ २३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा ब्रुवाणामपि धर्मवत्सलां
च स्म सीतां नृवरो निनीषति
उवाच चैनां बहु सन्निवर्तने
वने निवासस्य च दुःखितां प्रति ॥ २४ ॥

मूलम्

तथा ब्रुवाणामपि धर्मवत्सलां
न च स्म सीतां नृवरो निनीषति ।
उवाच चैनां बहु सन्निवर्तने
वने निवासस्य च दुःखितां प्रति ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्ममें अनुरक्त रहनेवाली सीताके इस प्रकार प्रार्थना करनेपर भी नरश्रेष्ठ श्रीरामको उन्हें साथ ले जानेकी इच्छा नहीं हुई । वे उन्हें वनवासके विचारसे निवृत्त करनेके लिये वहाँके कष्टोंका अनेक प्रकारसे विस्तारपूर्वक वर्णन करने लगे ॥ २४ ॥

समाप्तिः

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डे सप्तविंशः सर्गः ॥ २७ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके अयोध्याकाण्डमें सत्ताईसवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ २७ ॥