०१८ रामेण दशरथसान्त्वनम्

वाचनम्
भागसूचना
  1. श्रीरामका कैकेयीसे पिताके चिन्तित होनेका कारण पूछना और कैकेयीका कठोरतापूर्वक अपने माँगे हुए वरोंका वृत्तान्त बताकर श्रीरामको वनवासके लिये प्रेरित करना
विश्वास-प्रस्तुतिः

स ददर्शासने रामो विषण्णं पितरं शुभे ।
कैकेय्या सहितं दीनं मुखेन परिशुष्यता ॥ १ ॥

मूलम्

स ददर्शासने रामो विषण्णं पितरं शुभे ।
कैकेय्या सहितं दीनं मुखेन परिशुष्यता ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महलमें जाकर श्रीरामने पिताको कैकेयीके साथ एक सुन्दर आसनपर बैठे देखा । वे विषादमें डूबे हुए थे, उनका मुँह सूख गया था और वे बड़े दयनीय दिखायी देते थे ॥ २ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स पितुश्चरणौ पूर्वमभिवाद्य विनीतवत् ।
ततो ववन्दे चरणौ कैकेय्याः सुसमाहितः ॥ २ ॥

मूलम्

स पितुश्चरणौ पूर्वमभिवाद्य विनीतवत् ।
ततो ववन्दे चरणौ कैकेय्याः सुसमाहितः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

निकट पहुँचनेपर श्रीरामने विनीतभावसे पहले अपने पिताके चरणोंमें प्रणाम किया; उसके बाद बड़ी सावधानीके साथ उन्होंने कैकेयीके चरणोंमें भी मस्तक झुकाया ॥ २ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामेत्युक्त्वा तु वचनं बाष्पपर्याकुलेक्षणः ।
शशाक नृपतिर्दीनो नेक्षितुं नाभिभाषितुम् ॥ ३ ॥

मूलम्

रामेत्युक्त्वा तु वचनं बाष्पपर्याकुलेक्षणः ।
शशाक नृपतिर्दीनो नेक्षितुं नाभिभाषितुम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय दीनदशामें पड़े हुए राजा दशरथ एक बार ‘राम!’ ऐसा कहकर चुप हो गये (इससे आगे उनसे बोला नहीं गया) । उनके नेत्रोंमें आँसू भर आये, अतः वे श्रीरामकी ओर न तो देख सके और न उनसे कोई बात ही कर सके ॥ ३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद् अपूर्वं नरपतेर् दृष्ट्वा रूपं भयावहम् ।
रामोऽपि भयम् आपन्नः पदा स्पृष्ट्वेव पन्नगम् ॥ ४ ॥+++(5)+++

मूलम्

तदपूर्वं नरपतेर्दृष्ट्वा रूपं भयावहम् ।
रामोऽपि भयमापन्नः पदा स्पृष्ट्वेव पन्नगम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाका वह अभूतपूर्व भयंकर रूप देखकर श्रीरामको भी भय हो गया, मानो उन्होंने पैरसे किसी सर्पको छू दिया हो ॥ ४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन्द्रियैरप्रहृष्टैस् तं शोकसन्तापकर्शितम् ।
निःश्वसन्तं महाराजं व्यथिताकुलचेतसम् ॥ ५ ॥
ऊर्मिमालिनमक्षोभ्यं क्षुभ्यन्तमिव सागरम् ।
उपप्लुतम् इवादित्यम् उक्तानृतम् ऋषिं यथा ॥ ६ ॥

मूलम्

इन्द्रियैरप्रहृष्टैस्तं शोकसन्तापकर्शितम् ।
निःश्वसन्तं महाराजं व्यथिताकुलचेतसम् ॥ ५ ॥
ऊर्मिमालिनमक्षोभ्यं क्षुभ्यन्तमिव सागरम् ।
उपप्लुतमिवादित्यमुक्तानृतमृषिं यथा ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाकी इन्द्रियोंमें प्रसन्नता नहीं थी; वे शोक और संतापसे दुर्बल हो रहे थे, बारंबार लंबी साँसें भरते थे तथा उनके चित्तमें बड़ी व्यथा और व्याकुलता थी । वे ऐसे दीखते थे, मानो तरङ्गमालाओंसे उपलक्षित अक्षोभ्य समुद्र क्षुब्ध हो उठा हो, सूर्यको राहुने ग्रस लिया हो अथवा किसी महर्षिने झूठ बोल दिया हो ॥ ६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अचिन्त्यकल्पं नृपतेस्तं शोकमुपधारयन् ।
बभूव संरब्धतरः समुद्र इव पर्वणि ॥ ७ ॥

मूलम्

अचिन्त्यकल्पं नृपतेस्तं शोकमुपधारयन् ।
बभूव संरब्धतरः समुद्र इव पर्वणि ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाका वह शोक सम्भावनासे परे था । इस शोकका क्या कारण है—यह सोचते हुए श्रीरामचन्द्रजी पूर्णिमाके समुद्रकी भाँति अत्यन्त विक्षुब्ध हो उठे ॥ ७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चिन्तयामास चतुरो रामः पितृहिते रतः ।
किंस्विदद्यैव नृपतिर्न मां प्रत्यभिनन्दति ॥ ८ ॥

मूलम्

चिन्तयामास चतुरो रामः पितृहिते रतः ।
किंस्विदद्यैव नृपतिर्न मां प्रत्यभिनन्दति ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पिताके हितमें तत्पर रहनेवाले परम चतुर श्रीराम सोचने लगे कि ‘आज ही ऐसी क्या बात हो गयी’ जिससे महाराज मुझसे प्रसन्न होकर बोलते नहीं हैं ॥ ८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्यदा मां पिता दृष्ट्वा कुपितोऽपि प्रसीदति ।
तस्य मामद्य सम्प्रेक्ष्य किमायासः प्रवर्तते ॥ ९ ॥

मूलम्

अन्यदा मां पिता दृष्ट्वा कुपितोऽपि प्रसीदति ।
तस्य मामद्य सम्प्रेक्ष्य किमायासः प्रवर्तते ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘और दिन तो पिताजी कुपित होनेपर भी मुझे देखते ही प्रसन्न हो जाते थे, आज मेरी ओर दृष्टिपात करके इन्हें क्लेश क्यों हो रहा है’ ॥ ९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स दीन इव शोकार्तो विषण्णवदनद्युतिः ।
कैकेयीमभिवाद्यैव रामो वचनमब्रवीत् ॥ १० ॥

मूलम्

स दीन इव शोकार्तो विषण्णवदनद्युतिः ।
कैकेयीमभिवाद्यैव रामो वचनमब्रवीत् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सब सोचकर श्रीराम दीन-से हो गये, शोकसे कातर हो उठे, विषादके कारण उनके मुखकी कान्ति फीकी पड़ गयी । वे कैकेयीको प्रणाम करके उसीसे पूछने लगे— ॥ १० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कच्चिन्मया नापराद्धमज्ञानाद् येन मे पिता ।
कुपितस्तन्ममाचक्ष्व त्वमेवैनं प्रसादय ॥ ११ ॥

मूलम्

कच्चिन्मया नापराद्धमज्ञानाद् येन मे पिता ।
कुपितस्तन्ममाचक्ष्व त्वमेवैनं प्रसादय ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मा! मुझसे अनजानमें कोई अपराध तो नहीं हो गया, जिससे पिताजी मुझपर नाराज हो गये हैं । तुम यह बात मुझे बताओ और तुम्हीं इन्हें मना दो ॥ ११ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अप्रसन्नमनाः किं नु सदा मां प्रति वत्सलः ।
विषण्णवदनो दीनो नहि मां प्रति भाषते ॥ १२ ॥

मूलम्

अप्रसन्नमनाः किं नु सदा मां प्रति वत्सलः ।
विषण्णवदनो दीनो नहि मां प्रति भाषते ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ये तो सदा मुझे प्यार करते थे, आज इनका मन अप्रसन्न क्यों हो गया? देखता हूँ, ये आज मुझसे बोलते तक नहीं हैं, इनके मुखपर विषाद छा रहा है और ये अत्यन्त दुःखी हो रहे हैं ॥ १२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शारीरो मानसो वापि कच्चिदेनं न बाधते ।
सन्तापो वाभितापो वा दुर्लभं हि सदा सुखम् ॥ १३ ॥

मूलम्

शारीरो मानसो वापि कच्चिदेनं न बाधते ।
सन्तापो वाभितापो वा दुर्लभं हि सदा सुखम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कोई शारीरिक व्याधिजनित संताप अथवा मानसिक अभिताप (चिन्ता) तो इन्हें पीड़ित नहीं कर रहा है? क्योंकि मनुष्यको सदा सुख-ही-सुख मिले—ऐसा सुयोग प्रायः दुर्लभ होता है ॥१३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कच्चिन्न किञ्चिद् भरते कुमारे प्रियदर्शने ।
शत्रुघ्ने वा महासत्त्वे मातॄणां वा ममाशुभम् ॥ १४ ॥

मूलम्

कच्चिन्न किञ्चिद् भरते कुमारे प्रियदर्शने ।
शत्रुघ्ने वा महासत्त्वे मातॄणां वा ममाशुभम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्रियदर्शन कुमार भरत, महाबली शत्रुघ्न अथवा मेरी माताओंका तो कोई अमङ्गल नहीं हुआ है? ॥ १४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतोषयन् महाराजमकुर्वन् वा पितुर्वचः ।
मुहूर्तमपि नेच्छेयं जीवितुं कुपिते नृपे ॥ १५ ॥

मूलम्

अतोषयन् महाराजमकुर्वन् वा पितुर्वचः ।
मुहूर्तमपि नेच्छेयं जीवितुं कुपिते नृपे ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाराजको असंतुष्ट करके अथवा इनकी आज्ञा न मानकर इन्हें कुपित कर देनेपर मैं दो घड़ी भी जीवित रहना नहीं चाहूँगा ॥ १५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यतोमूलं नरः पश्येत् प्रादुर्भावमिहात्मनः ।
कथं तस्मिन् न वर्तेत प्रत्यक्षे सति दैवते ॥ १६ ॥

मूलम्

यतोमूलं नरः पश्येत् प्रादुर्भावमिहात्मनः ।
कथं तस्मिन् न वर्तेत प्रत्यक्षे सति दैवते ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मनुष्य जिसके कारण इस जगत् में अपना प्रादुर्भाव (जन्म) देखता है, उस प्रत्यक्ष देवता पिताके जीते-जी वह उसके अनुकूल बर्ताव क्यों न करेगा? ॥ १६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कच्चित्ते परुषं किञ्चिदभिमानात् पिता मम ।
उक्तो भवत्या रोषेण येनास्य लुलितं मनः ॥ १७ ॥

मूलम्

कच्चित्ते परुषं किञ्चिदभिमानात् पिता मम ।
उक्तो भवत्या रोषेण येनास्य लुलितं मनः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कहीं तुमने तो अभिमान या रोषके कारण मेरे पिताजीसे कोई कठोर बात नहीं कह डाली, जिससे इनका मन दुःखी हो गया है? ॥ १७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतदाचक्ष्व मे देवि तत्त्वेन परिपृच्छतः ।
किन्निमित्तम् अपूर्वोऽयं विकारो मनुजाधिपे ॥ १८ ॥

मूलम्

एतदाचक्ष्व मे देवि तत्त्वेन परिपृच्छतः ।
किन्निमित्तमपूर्वोऽयं विकारो मनुजाधिपे ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘देवि! मैं सच्ची बात पूछता हूँ, बताओ, किस कारणसे महाराजके मनमें आज इतना विकार (संताप) है? इनकी ऐसी अवस्था तो पहले कभी नहीं देखी गयी थी’ ॥ १८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्ता तु कैकेयी राघवेण महात्मना ।
उवाचेदं सुनिर्लज्जा धृष्टमात्महितं वचः ॥ १९ ॥

मूलम्

एवमुक्ता तु कैकेयी राघवेण महात्मना ।
उवाचेदं सुनिर्लज्जा धृष्टमात्महितं वचः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महात्मा श्रीरामके इस प्रकार पूछनेपर अत्यन्त निर्लज्ज कैकेयी बड़ी ढिठाईके साथ अपने मतलबकी बात इस प्रकार बोली— ॥ १९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न राजा कुपितो राम,
व्यसनं नास्य किञ्चन ।
किञ्चिन् मनोगतं त्वस्य
त्वद्भयान्नानुभाषते ॥ २० ॥

मूलम्

न राजा कुपितो राम व्यसनं नास्य किञ्चन ।
किञ्चिन्मनोगतं त्वस्य त्वद्भयान्नानुभाषते ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राम! महाराज कुपित नहीं हैं और न इन्हें कोई कष्ट ही हुआ है । इनके मनमें कोई बात है, जिसे तुम्हारे डरसे ये कह नहीं पा रहे हैं ॥ २० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रियं त्वामप्रियं वक्तुं
वाणी नास्य प्रवर्तते
तद् अवश्यं त्वया कार्यं
यदनेनाश्रुतं मम ॥ २१ ॥

मूलम्

प्रियं त्वामप्रियं वक्तुं वाणी नास्य प्रवर्तते ।
तदवश्यं त्वया कार्यं यदनेनाश्रुतं मम ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम इनके प्रिय हो, तुमसे कोई अप्रिय बात कहनेके लिये इनकी जबान नहीं खुलती; किंतु इन्होंने जिस कार्यके लिये मेरे सामने प्रतिज्ञा की है, उसका तुम्हें अवश्य पालन करना चाहिये ॥ २१ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष मह्यं वरं दत्त्वा पुरा मामभिपूज्य च ।
स पश्चात् तप्यते राजा यथान्यः प्राकृतस्तथा ॥ २२ ॥

मूलम्

एष मह्यं वरं दत्त्वा पुरा मामभिपूज्य च ।
स पश्चात् तप्यते राजा यथान्यः प्राकृतस्तथा ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इन्होंने पहले तो मेरा सत्कार करते हुए मुझे मुँहमाँगा वरदान दे दिया और अब ये दूसरे गँवार मनुष्योंकी भाँति उसके लिये पश्चात्ताप करते हैं ॥ २२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतिसृज्य ददानीति वरं मम विशाम्पतिः ।
स निरर्थं गतजले सेतुं बन्धितुमिच्छति ॥ २३ ॥

मूलम्

अतिसृज्य ददानीति वरं मम विशाम्पतिः ।
स निरर्थं गतजले सेतुं बन्धितुमिच्छति ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ये प्रजानाथ पहले ‘मैं दूँगा’—ऐसी प्रतिज्ञा करके मुझे वर दे चुके हैं और अब उसके निवारणके लिये व्यर्थ प्रयत्न कर रहे हैं, पानी निकल जानेपर उसे रोकनेके लिये बाँध बाँधनेकी निरर्थक चेष्टा करते हैं ॥ २३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्ममूलमिदं राम विदितं च सतामपि ।
तत् सत्यं न त्यजेद् राजा कुपितस्त्वत्कृते यथा ॥ २४ ॥

मूलम्

धर्ममूलमिदं राम विदितं च सतामपि ।
तत् सत्यं न त्यजेद् राजा कुपितस्त्वत्कृते यथा ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राम! सत्य ही धर्मकी जड़ है, यह सत्पुरुषोंका भी निश्चय है । कहीं ऐसा न हो कि ये महाराज तुम्हारे कारण मुझपर कुपित होकर अपने उस सत्यको ही छोड़ बैठें । जैसे भी इनके सत्यका पालन हो, वैसा तुम्हें करना चाहिये ॥ २४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि तद् वक्ष्यते राजा शुभं वा यदि वाशुभम् ।
करिष्यसि ततः सर्वमाख्यास्यामि पुनस्त्वहम् ॥ २५ ॥

मूलम्

यदि तद् वक्ष्यते राजा शुभं वा यदि वाशुभम् ।
करिष्यसि ततः सर्वमाख्यास्यामि पुनस्त्वहम् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि राजा जिस बातको कहना चाहते हैं, वह शुभ हो या अशुभ, तुम सर्वथा उसका पालन करो तो मैं सारी बात पुनः तुमसे कहूँगी ॥ २५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि त्वभिहितं राज्ञा त्वयि तन्न विपत्स्यते ।
ततोऽहमभिधास्यामि न ह्येष त्वयि वक्ष्यति ॥ २६ ॥

मूलम्

यदि त्वभिहितं राज्ञा त्वयि तन्न विपत्स्यते ।
ततोऽहमभिधास्यामि न ह्येष त्वयि वक्ष्यति ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि राजाकी कही हुई बात तुम्हारे कानोंमें पड़कर वहीं नष्ट न हो जाय—यदि तुम उनकी प्रत्येक आज्ञाका पालन कर सको तो मैं तुमसे सब कुछ खोलकर बता दूँगी, ये स्वयं तुमसे कुछ नहीं कहेंगे’ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतत् तु वचनं श्रुत्वा कैकेय्या समुदाहृतम् ।
उवाच व्यथितो रामस्तां देवीं नृपसन्निधौ ॥ २७ ॥

मूलम्

एतत् तु वचनं श्रुत्वा कैकेय्या समुदाहृतम् ।
उवाच व्यथितो रामस्तां देवीं नृपसन्निधौ ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कैकेयीकी कही हुई यह बात सुनकर श्रीरामके मनमें बड़ी व्यथा हुई । उन्होंने राजाके समीप ही देवी कैकेयीसे इस प्रकार कहा— ॥ २७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहो धिङ् नार्हसे देवि वक्तुं मामीदृशं वचः ।
अहं हि वचनाद् राज्ञः पतेयमपि पावके ॥ २८ ॥
भक्षयेयं विषं तीक्ष्णं पतेयमपि चार्णवे ।
नियुक्तो गुरुणा पित्रा नृपेण च हितेन च ॥ २९ ॥
तद् ब्रूहि वचनं देवि राज्ञो यदभिकाङ्क्षितम् ।
करिष्ये प्रतिजाने च रामो द्विर्नाभिभाषते ॥ ३० ॥

मूलम्

अहो धिङ् नार्हसे देवि वक्तुं मामीदृशं वचः ।
अहं हि वचनाद् राज्ञः पतेयमपि पावके ॥ २८ ॥
भक्षयेयं विषं तीक्ष्णं पतेयमपि चार्णवे ।
नियुक्तो गुरुणा पित्रा नृपेण च हितेन च ॥ २९ ॥
तद् ब्रूहि वचनं देवि राज्ञो यदभिकाङ्क्षितम् ।
करिष्ये प्रतिजाने च रामो द्विर्नाभिभाषते ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अहो! धिक्कार है! देवि! तुम्हें मेरे प्रति ऐसी बात मुँहसे नहीं निकालनी चाहिये । मैं महाराजके कहनेसे आगमें भी कूद सकता हूँ, तीव्र विषका भी भक्षण कर सकता हूँ और समुद्रमें भी गिर सकता हूँ! महाराज मेरे गुरु, पिता और हितैषी हैं, मैं उनकी आज्ञा पाकर क्या नहीं कर सकता? इसलिये देवि! राजाको जो अभीष्ट है, वह बात मुझे बताओ! मैं प्रतिज्ञा करता हूँ, उसे पूर्ण करूँगा । राम दो तरहकी बात नहीं करता है’ ॥ २८—३० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमार्जवसमायुक्तमनार्या सत्यवादिनम् ।
उवाच रामं कैकेयी वचनं भृशदारुणम् ॥ ३१ ॥

मूलम्

तमार्जवसमायुक्तमनार्या सत्यवादिनम् ।
उवाच रामं कैकेयी वचनं भृशदारुणम् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीराम सरल स्वभावसे युक्त और सत्यवादी थे, उनकी बात सुनकर अनार्या कैकेयीने अत्यन्त दारुण वचन कहना आरम्भ किया— ॥ ३१ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरा देवासुरे युद्धे पित्रा ते मम राघव ।
रक्षितेन वरौ दत्तौ सशल्येन महारणे ॥ ३२ ॥

मूलम्

पुरा देवासुरे युद्धे पित्रा ते मम राघव ।
रक्षितेन वरौ दत्तौ सशल्येन महारणे ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘रघुनन्दन! पहलेकी बात है, देवासुरसंग्राममें तुम्हारे पिता शत्रुओंके बाणोंसे बिंध गये थे, उस महासमरमें मैंने इनकी रक्षा की थी, उससे प्रसन्न होकर इन्होंने मुझे दो वर दिये थे ॥ ३२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र मे याचितो राजा भरतस्याभिषेचनम् ।
गमनं दण्डकारण्ये तव चाद्यैव राघव ॥ ३३ ॥

मूलम्

तत्र मे याचितो राजा भरतस्याभिषेचनम् ।
गमनं दण्डकारण्ये तव चाद्यैव राघव ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राघव! उन्हींमेंसे एक वरके द्वारा तो मैंने महाराजसे यह याचना की है कि भरतका राज्याभिषेक हो और दूसरा वर यह माँगा है कि तुम्हें आज ही दण्डकारण्यमें भेज दिया जाय ॥ ३३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि सत्यप्रतिज्ञं त्वं पितरं कर्तुमिच्छसि ।
आत्मानं च नरश्रेष्ठ मम वाक्यमिदं शृणु ॥ ३४ ॥

मूलम्

यदि सत्यप्रतिज्ञं त्वं पितरं कर्तुमिच्छसि ।
आत्मानं च नरश्रेष्ठ मम वाक्यमिदं शृणु ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नरश्रेष्ठ! यदि तुम अपने पिताको सत्यप्रतिज्ञ बनाना चाहते हो और अपनेको भी सत्यवादी सिद्ध करनेकी इच्छा रखते हो तो मेरी यह बात सुनो ॥ ३४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सन्निदेशे पितुस्तिष्ठ यथानेन प्रतिश्रुतम् ।
त्वयारण्यं प्रवेष्टव्यं नव वर्षाणि पञ्च च ॥ ३५ ॥

मूलम्

सन्निदेशे पितुस्तिष्ठ यथानेन प्रतिश्रुतम् ।
त्वयारण्यं प्रवेष्टव्यं नव वर्षाणि पञ्च च ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम पिताकी आज्ञाके अधीन रहो, जैसी इन्होंने प्रतिज्ञा की है, उसके अनुसार तुम्हें चौदह वर्षोंके लिये वनमें प्रवेश करना चाहिये ॥ ३५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भरतश्चाभिषिच्येत यदेतदभिषेचनम् ।
त्वदर्थे विहितं राज्ञा तेन सर्वेण राघव ॥ ३६ ॥

मूलम्

भरतश्चाभिषिच्येत यदेतदभिषेचनम् ।
त्वदर्थे विहितं राज्ञा तेन सर्वेण राघव ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘रघुनन्दन! राजाने तुम्हारे लिये जो यह अभिषेकका सामान जुटाया है, उस सबके द्वारा यहाँ भरतका अभिषेक किया जाय ॥ ३६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सप्त सप्त च वर्षाणि दण्डकारण्यमाश्रितः ।
अभिषेकमिदं त्यक्त्वा जटाचीरधरो भव ॥ ३७ ॥

मूलम्

सप्त सप्त च वर्षाणि दण्डकारण्यमाश्रितः ।
अभिषेकमिदं त्यक्त्वा जटाचीरधरो भव ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘और तुम इस अभिषेकको त्यागकर चौदहवर्षोंतक दण्डकारण्यमें रहते हुए जटा और चीर धारण करो ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भरतः कोसलपतेः प्रशास्तु वसुधामिमाम् ।
नानारत्नसमाकीर्णां सवाजिरथसङ्कुलाम् ॥ ३८ ॥

मूलम्

भरतः कोसलपतेः प्रशास्तु वसुधामिमाम् ।
नानारत्नसमाकीर्णां सवाजिरथसङ्कुलाम् ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कोसलनरेशकी इस वसुधाका, जो नाना प्रकारके रत्नोंसे भरी-पूरी और घोड़े तथा रथोंसे व्याप्त है, भरत शासन करें ॥ ३८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतेन त्वां नरेन्द्रोऽयं कारुण्येन समाप्लुतः ।
शोकैः सङ्क्लिष्टवदनो न शक्नोति निरीक्षितुम् ॥ ३९ ॥

मूलम्

एतेन त्वां नरेन्द्रोऽयं कारुण्येन समाप्लुतः ।
शोकैः सङ्क्लिष्टवदनो न शक्नोति निरीक्षितुम् ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बस इतनी ही बात है, ऐसा करनेसे तुम्हारे वियोगका कष्ट सहन करना पड़ेगा, यह सोचकर महाराज करुणामें डूब रहे हैं । इसी शोकसे इनका मुख सूख गया है और इन्हें तुम्हारी ओर देखनेका साहस नहीं होता ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतत् कुरु नरेन्द्रस्य वचनं रघुनन्दन ।
सत्येन महता राम तारयस्व नरेश्वरम् ॥ ४० ॥

मूलम्

एतत् कुरु नरेन्द्रस्य वचनं रघुनन्दन ।
सत्येन महता राम तारयस्व नरेश्वरम् ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘रघुनन्दन राम! तुम राजाकी इस आज्ञाका पालन करो और इनके महान् सत्यकी रक्षा करके इन नरेशको संकटसे उबार लो’ ॥ ४० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इतीव तस्यां परुषं वदन्त्यां
न चैव रामः प्रविवेश शोकम् ।
प्रविव्यथे चापि महानुभावो
राजा च पुत्रव्यसनाभितप्तः ॥ ४१ ॥

मूलम्

इतीव तस्यां परुषं वदन्त्यां
न चैव रामः प्रविवेश शोकम् ।
प्रविव्यथे चापि महानुभावो
राजा च पुत्रव्यसनाभितप्तः ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कैकेयीके इस प्रकार कठोर वचन कहनेपर भी श्रीरामके हृदयमें शोक नहीं हुआ, परंतु महानुभाव राजा दशरथ पुत्रके भावी वियोगजनित दुःखसे संतप्त एवं व्यथित हो उठे ॥ ४१ ॥

समाप्तिः

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्येऽयोध्याकाण्डेऽष्टादशः सर्गः ॥ १८ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके अयोध्याकाण्डमें अठारहवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ १८ ॥