वाचनम्
भागसूचना
- राजा दशरथद्वारा सुरक्षित अयोध्यापुरीका वर्णन
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वा पूर्वमियं येषामासीत् कृत्स्ना वसुन्धरा ।
प्रजापतिमुपादाय नृपाणां जयशालिनाम् ॥ १ ॥
येषां स सगरो नाम सागरो येन खानितः ।
षष्टिपुत्रसहस्राणि यं यान्तं पर्यवारयन् ॥ २ ॥
इक्ष्वाकूणामिदं तेषां राज्ञां वंशे महात्मनाम् ।
महदुत्पन्नमाख्यानं रामायणमिति श्रुतम् ॥ ३ ॥
मूलम्
सर्वा पूर्वमियं येषामासीत् कृत्स्ना वसुन्धरा ।
प्रजापतिमुपादाय नृपाणां जयशालिनाम् ॥ १ ॥
येषां स सगरो नाम सागरो येन खानितः ।
षष्टिपुत्रसहस्राणि यं यान्तं पर्यवारयन् ॥ २ ॥
इक्ष्वाकूणामिदं तेषां राज्ञां वंशे महात्मनाम् ।
महदुत्पन्नमाख्यानं रामायणमिति श्रुतम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सारी पृथ्वी पूर्वकालमें प्रजापति मनुसे लेकर अबतक जिस वंशके विजयशाली नरेशोंके अधिकारमें रही है, जिन्होंने समुद्रको खुदवाया था और जिन्हें यात्राकालमें साठ हजार पुत्र घेरकर चलते थे, वे महाप्रतापी राजा सगर जिनके कुलमें उत्पन्न हुए, इन्हीं इक्ष्वाकुवंशी महात्मा राजाओंकी कुलपरम्परामें रामायणनामसे प्रसिद्ध इस महान् ऐतिहासिक काव्यकी अवतारणा हुई है ॥ १—३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदिदं वर्तयिष्यावः सर्वं निखिलमादितः ।
धर्मकामार्थसहितं श्रोतव्यमनसूयता ॥ ४ ॥
मूलम्
तदिदं वर्तयिष्यावः सर्वं निखिलमादितः ।
धर्मकामार्थसहितं श्रोतव्यमनसूयता ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हम दोनों आदिसे अन्ततक इस सारे काव्यका पूर्णरूपसे गान करेंगे । इसके द्वारा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थोंकी सिद्धि होती है; अतः आपलोग दोषदृष्टिका परित्याग करके इसका श्रवण करें ॥ ४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोशलो नाम मुदितः स्फीतो जनपदो महान् ।
निविष्टः सरयूतीरे प्रभूतधनधान्यवान् ॥ ५ ॥
मूलम्
कोशलो नाम मुदितः स्फीतो जनपदो महान् ।
निविष्टः सरयूतीरे प्रभूतधनधान्यवान् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कोशल नामसे प्रसिद्ध एक बहुत बड़ा जनपद है, जो सरयू नदीके किनारे बसा हुआ है । वह प्रचुर धन-धान्यसे सम्पन्न, सुखी और समृद्धिशाली है ॥ ५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयोध्या नाम नगरी तत्रासील्लोकविश्रुता ।
मनुना मानवेन्द्रेण या पुरी निर्मिता स्वयम् ॥ ६ ॥
मूलम्
अयोध्या नाम नगरी तत्रासील्लोकविश्रुता ।
मनुना मानवेन्द्रेण या पुरी निर्मिता स्वयम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसी जनपदमें अयोध्या नामकी एक नगरी है, जो समस्त लोकोंमें विख्यात है । उस पुरीको स्वयं महाराज मनुने बनवाया और बसाया था ॥ ६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आयता दश च द्वे च योजनानि महापुरी ।
श्रीमती त्रीणि विस्तीर्णा सुविभक्तमहापथा ॥ ७ ॥
मूलम्
आयता दश च द्वे च योजनानि महापुरी ।
श्रीमती त्रीणि विस्तीर्णा सुविभक्तमहापथा ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह शोभाशालिनी महापुरी बारह योजन लम्बी और तीन योजन चौड़ी थी । वहाँ बाहरके जनपदोंमें जानेका जो विशाल राजमार्ग था, वह उभयपार्श्वमें विविध वृक्षावलियोंसे विभूषित होनेके कारण सुस्पष्टतया अन्य मार्गोंसे विभक्त जान पड़ता था ॥ ७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजमार्गेण महता सुविभक्तेन शोभिता ।
मुक्तपुष्पावकीर्णेन जलसिक्तेन नित्यशः ॥ ८ ॥
मूलम्
राजमार्गेण महता सुविभक्तेन शोभिता ।
मुक्तपुष्पावकीर्णेन जलसिक्तेन नित्यशः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुन्दर विभागपूर्वक बना हुआ महान् राजमार्ग उस पुरीकी शोभा बढ़ा रहा था । उसपर खिले हुए फूल बिखेरे जाते थे तथा प्रतिदिन उसपर जलका छिड़काव होता था ॥ ८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां तु राजा दशरथो महाराष्ट्रविवर्धनः ।
पुरीमावासयामास दिवि देवपतिर्यथा ॥ ९ ॥
मूलम्
तां तु राजा दशरथो महाराष्ट्रविवर्धनः ।
पुरीमावासयामास दिवि देवपतिर्यथा ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे स्वर्गमें देवराज इन्द्रने अमरावतीपुरी बसायी थी, उसी प्रकार धर्म और न्यायके बलसे अपने महान् राष्ट्रकी वृद्धि करनेवाले राजा दशरथने अयोध्यापुरीको पहलेकी अपेक्षा विशेषरूपसे बसाया था ॥ ९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कपाटतोरणवतीं सुविभक्तान्तरापणाम् ।
सर्वयन्त्रायुधवतीमुषितां सर्वशिल्पिभिः ॥ १० ॥
मूलम्
कपाटतोरणवतीं सुविभक्तान्तरापणाम् ।
सर्वयन्त्रायुधवतीमुषितां सर्वशिल्पिभिः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह पुरी बड़े-बड़े फाटकों और किवाड़ोंसे सुशोभित थी । उसके भीतर पृथक्-पृथक् बाजारें थीं । वहाँ सब प्रकारके यन्त्र और अस्त्र-शस्त्र संचित थे । उस पुरीमें सभी कलाओंके शिल्पी निवास करते थे ॥ १० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूतमागधसम्बाधां श्रीमतीमतुलप्रभाम् ।
उच्चाट्टालध्वजवतीं शतघ्नीशतसङ्कुलाम् ॥ ११ ॥
मूलम्
सूतमागधसम्बाधां श्रीमतीमतुलप्रभाम् ।
उच्चाट्टालध्वजवतीं शतघ्नीशतसङ्कुलाम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्तुति-पाठ करनेवाले सूत और वंशावलीका बखान करनेवाले मागध वहाँ भरे हुए थे । वह पुरी सुन्दर शोभासे सम्पन्न थी । उसकी सुषमाकी कहीं तुलना नहीं थी । वहाँ ऊँची-ऊँची अट्टालिकाएँ थीं, जिनके ऊपर ध्वज फहराते थे । सैकड़ों शतघ्नियों (तोपों) से वह पुरी व्याप्त थी ॥ ११ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वधूनाटकसङ्घैश्च संयुक्तां सर्वतः पुरीम् ।
उद्यानाम्रवणोपेतां महतीं सालमेखलाम् ॥ १२ ॥
मूलम्
वधूनाटकसङ्घैश्च संयुक्तां सर्वतः पुरीम् ।
उद्यानाम्रवणोपेतां महतीं सालमेखलाम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस पुरीमें ऐसी बहुत-सी नाटक-मण्डलियाँ थीं, जिनमें केवल स्त्रियाँ ही नृत्य एवं अभिनय करती थीं । उस नगरीमें चारों ओर उद्यान तथा आमोंके बगीचे थे । लम्बाई और चौड़ाईकी दृष्टिसे वह पुरी बहुत विशाल थी तथा साखूके वन उसे सब ओरसे घेरे हुए थे ॥ १२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्गगम्भीरपरिखां दुर्गामन्यैर्दुरासदाम् ।
वाजिवारणसम्पूर्णां गोभिरुष्ट्रैः खरैस्तथा ॥ १३ ॥
मूलम्
दुर्गगम्भीरपरिखां दुर्गामन्यैर्दुरासदाम् ।
वाजिवारणसम्पूर्णां गोभिरुष्ट्रैः खरैस्तथा ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके चारों ओर गहरी खाई खुदी थी, जिसमें प्रवेश करना या जिसे लाँघना अत्यन्त कठिन था । वह नगरी दूसरोंके लिये सर्वथा दुर्गम एवं दुर्जय थी । घोड़े, हाथी, गाय-बैल, ऊँट तथा गदहे आदि उपयोगी पशुओंसे वह पुरी भरी-पूरी थी ॥ १३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सामन्तराजसङ्घैश्च बलिकर्मभिरावृताम् ।
नानादेशनिवासैश्च वणिग्भिरुपशोभिताम् ॥ १४ ॥
मूलम्
सामन्तराजसङ्घैश्च बलिकर्मभिरावृताम् ।
नानादेशनिवासैश्च वणिग्भिरुपशोभिताम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर देनेवाले सामन्त नरेशोंके समुदाय उसे सदा घेरे रहते थे । विभिन्न देशोंके निवासी वैश्य उस पुरीकी शोभा बढ़ाते थे ॥ १४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रासादै रत्नविकृतैः पर्वतैरिव शोभिताम् ।
कूटागारैश्च सम्पूर्णामिन्द्रस्येवामरावतीम् ॥ १५ ॥
मूलम्
प्रासादै रत्नविकृतैः पर्वतैरिव शोभिताम् ।
कूटागारैश्च सम्पूर्णामिन्द्रस्येवामरावतीम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँके महलोंका निर्माण नाना प्रकारके रत्नोंसे हुआ था । वे गगनचुम्बी प्रासाद पर्वतोंके समान जान पड़ते थे । उनसे उस पुरीकी बड़ी शोभा हो रही थी । बहुसंख्यक कूटागारों (गुप्तगृहों अथवा स्त्रियोंके क्रीड़ाभवनों) से परिपूर्ण वह नगरी इन्द्रकी अमरावतीके समान जान पड़ती थी ॥ १५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चित्रामष्टापदाकारां वरनारीगणायुताम् ।
सर्वरत्नसमाकीर्णां विमानगृहशोभिताम् ॥ १६ ॥
मूलम्
चित्रामष्टापदाकारां वरनारीगणायुताम् ।
सर्वरत्नसमाकीर्णां विमानगृहशोभिताम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसकी शोभा विचित्र थी । उसके महलोंपर सोनेका पानी चढ़ाया गया था (अथवा वह पुरी द्यूतफलकके* आकारमें बसायी गयी थी) । श्रेष्ठ एवं सुन्दरी नारियोंके समूह उस पुरीकी शोभा बढ़ाते थे । वह सब प्रकारके रत्नोंसे भरी-पूरी तथा सतमहले प्रासादोंसे सुशोभित थी ॥
पादटिप्पनी
- गोविन्दराजकी टीकामें अष्टापदका अर्थ शारिफल या द्यूतफलक किया गया है । वह चौकी जिसपर पासा बिछाया या खेला जाय, द्यूतफलक कहलाती है । पुरीके बीचमें राजमहल था । उसके चारों ओर राजबीथियाँ थीं और बीचमें खाली जगहें थीं । यही ‘अष्टापदाकारा’ का भाव है ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गृहगाढामविच्छिद्रां समभूमौ निवेशिताम् ।
शालितण्डुलसम्पूर्णामिक्षुकाण्डरसोदकाम् ॥ १७ ॥
मूलम्
गृहगाढामविच्छिद्रां समभूमौ निवेशिताम् ।
शालितण्डुलसम्पूर्णामिक्षुकाण्डरसोदकाम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरवासियोंके घरोंसे उसकी आबादी इतनी घनी हो गयी थी कि कहीं थोड़ा-सा भी अवकाश नहीं दिखायी देता था । उसे समतल भूमिपर बसाया गया था । वह नगरी जड़हन धानके चावलोंसे भरपूर थी । वहाँका जल इतना मीठा या स्वादिष्ट था, मानो ईखका रस हो ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुन्दुभीभिर्मृदङ्गैश्च वीणाभिः पणवैस्तथा ।
नादितां भृशमत्यर्थं पृथिव्यां तामनुत्तमाम् ॥ १८ ॥
मूलम्
दुन्दुभीभिर्मृदङ्गैश्च वीणाभिः पणवैस्तथा ।
नादितां भृशमत्यर्थं पृथिव्यां तामनुत्तमाम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भूमण्डलकी वह सर्वोत्तम नगरी दुन्दुभि, मृदंग, वीणा, पणव आदि वाद्योंकी मधुर ध्वनिसे अत्यन्त गूँजती रहती थी ॥ १८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विमानमिव सिद्धानां तपसाधिगतं दिवि ।
सुनिवेशितवेश्मान्तां नरोत्तमसमावृताम् ॥ १९ ॥
मूलम्
विमानमिव सिद्धानां तपसाधिगतं दिवि ।
सुनिवेशितवेश्मान्तां नरोत्तमसमावृताम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवलोकमें तपस्यासे प्राप्त हुए सिद्धोंके विमानकी भाँति उस पुरीका भूमण्डलमें सर्वोत्तम स्थान था । वहाँके सुन्दर महल बहुत अच्छे ढंगसे बनाये और बसाये गये थे । उनके भीतरी भाग बहुत ही सुन्दर थे । बहुत-से श्रेष्ठ पुरुष उस पुरीमें निवास करते थे ॥ १९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये च बाणैर्न विध्यन्ति विविक्तमपरापरम् ।
शब्दवेध्यं च विततं लघुहस्ता विशारदाः ॥ २० ॥
सिंहव्याघ्रवराहाणां मत्तानां नदतां वने ।
हन्तारो निशितैः शस्त्रैर्बलाद् बाहुबलैरपि ॥ २१ ॥
तादृशानां सहस्रैस्तामभिपूर्णां महारथैः ।
पुरीमावासयामास राजा दशरथस्तदा ॥ २२ ॥
मूलम्
ये च बाणैर्न विध्यन्ति विविक्तमपरापरम् ।
शब्दवेध्यं च विततं लघुहस्ता विशारदाः ॥ २० ॥
सिंहव्याघ्रवराहाणां मत्तानां नदतां वने ।
हन्तारो निशितैः शस्त्रैर्बलाद् बाहुबलैरपि ॥ २१ ॥
तादृशानां सहस्रैस्तामभिपूर्णां महारथैः ।
पुरीमावासयामास राजा दशरथस्तदा ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो अपने समूहसे बिछुड़कर असहाय हो गया हो, जिसके आगे-पीछे कोई न हो (अर्थात् जो पिता और पुत्र दोनोंसे हीन हो) तथा जो शब्दवेधी बाणद्वारा बेधने योग्य हों अथवा युद्धसे हारकर भागे जा रहे हों, ऐसे पुरुषोंपर जो लोग बाणोंका प्रहार नहीं करते, जिनके सधे-सधाये हाथ शीघ्रतापूर्वक लक्ष्यवेध करनेमें समर्थ हैं, अस्त्र-शस्त्रोंके प्रयोगमें कुशलता प्राप्त कर चुके हैं तथा जो वनमें गर्जते हुए मतवाले सिंहों, व्याघ्रों और सूअरोंको तीखे शस्त्रोंसे एवं भुजाओंके बलसे भी बलपूर्वक मार डालनेमें समर्थ हैं, ऐसे सहस्रों महारथी वीरोंसे अयोध्यापुरी भरी-पूरी थी । उसे महाराज दशरथने बसाया और पाला था ॥ २०—२२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तामग्निमद्भिर्गुणवद्भिरावृतां
द्विजोत्तमैर्वेदषडङ्गपारगैः ।
सहस्रदैः सत्यरतैर्महात्मभि-
र्महर्षिकल्पैर्ऋषिभिश्च केवलैः ॥ २३ ॥
मूलम्
तामग्निमद्भिर्गुणवद्भिरावृतां
द्विजोत्तमैर्वेदषडङ्गपारगैः ।
सहस्रदैः सत्यरतैर्महात्मभि-
र्महर्षिकल्पैर्ऋषिभिश्च केवलैः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अग्निहोत्री, शम-दम आदि उत्तम गुणोंसे सम्पन्न तथा छहों अंगोंसहित सम्पूर्ण वेदोंके पारंगत विद्वान् श्रेष्ठ ब्राह्मण उस पुरीको सदा घेरे रहते थे । वे सहस्रोंका दान करनेवाले और सत्यमें तत्पर रहनेवाले थे । ऐसे महर्षिकल्प महात्माओं तथा ऋषियोंसे अयोध्यापुरी सुशोभित थी तथा राजा दशरथ उसकी रक्षा करते थे ॥
समाप्तिः
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये बालकाण्डे पञ्चमः सर्गः ॥ ५ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें पाँचवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ५ ॥