०१ नम्र निवेदन

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामाय रामभद्राय रामचन्द्राय वेधसे ।
रघुनाथाय नाथाय सीतायाः पतये नमः ॥
रामं रामानुजं सीतां भरतं भरतानुजम् ।
सुग्रीवं वायुसूनुं च प्रणमामि पुनः पुनः ॥
वेदवेद्ये परे पुंसि जाते दशरथात्मजे ।
वेदः प्राचेतसादासीत् साक्षाद् रामायणात्मना ॥

मूलम्

रामाय रामभद्राय रामचन्द्राय वेधसे ।
रघुनाथाय नाथाय सीतायाः पतये नमः ॥
रामं रामानुजं सीतां भरतं भरतानुजम् ।
सुग्रीवं वायुसूनुं च प्रणमामि पुनः पुनः ॥
वेदवेद्ये परे पुंसि जाते दशरथात्मजे ।
वेदः प्राचेतसादासीत् साक्षाद् रामायणात्मना ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वेद जिस परमतत्त्वका वर्णन करते हैं, वही श्रीमन्नारायण-तत्त्व श्रीमद्रामायणमें श्रीरामरूपसे निरूपित है । वेदवेद्य परमपुरुषोत्तमके दशरथनन्दन श्रीरामके रूपमें अवतीर्ण होनेपर साक्षात् वेद ही श्रीवाल्मीकिके मुखसे श्रीरामायणरूपमें प्रकट हुए, ऐसी आस्तिकोंकी चिरकालसे मान्यता है । इसलिये श्रीमद्वाल्मीकीय रामायणकी वेदतुल्य ही प्रतिष्ठा है । यों भी महर्षि वाल्मीकि आदिकवि हैं, अतः विश्वके समस्त कवियोंके गुरु हैं । उनका ‘आदिकाव्य’ श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण भूतलका प्रथम काव्य है । वह सभीके लिये पूज्य वस्तु है । भारतके लिये तो वह परम गौरवकी वस्तु है और देशकी सच्ची बहुमूल्य राष्ट्रीय निधि है । इस नाते भी वह सबके लिये संग्रह, पठन, मनन एवं श्रवण करनेकी वस्तु है । इसका एक-एक अक्षर महापातकका नाश करनेवाला है—

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकैकमक्षरं पुंसां महापातकनाशनम् ।

मूलम्

एकैकमक्षरं पुंसां महापातकनाशनम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

यह समस्त काव्योंका बीज है—

विश्वास-प्रस्तुतिः

‘काव्यबीजं सनातनम् ।’

मूलम्

‘काव्यबीजं सनातनम् ।’

अनुवाद (हिन्दी)

(बृहद्धर्म० १ । ३० । ४७)
श्रीव्यासदेवादि सभी कवियोंने इसीका अध्ययन कर पुराण, महाभारतादिका निर्माण किया ।१ ‘बृहद्धर्मपुराण’ में यह बात विस्तारसे प्रतिपादित है । श्रीव्यासजीने अनेक पुराणोंमें रामायणका माहात्म्य गाया है । स्कन्दपुराणका रामायणमाहात्म्य तो इस ग्रन्थके आरम्भमें दिया ही है, कई छिट-पुट माहात्म्य अलग भी हैं । यह भी प्रसिद्ध है कि व्यासजीने युधिष्ठिरके अनुरोधसे एक व्याख्या वाल्मीकिरामायणपर लिखी थी और उसकी एक हस्तलिखित प्रति अब भी प्राप्य है ।२ इसका नाम ‘रामायणतात्पर्यदीपिका’ है । इसका उल्लेख दीवानबहादुर रामशास्त्रीने अपनी पुस्तक ‘स्टडीज इन रामायण’ के द्वितीय खण्डमें किया है । यह पुस्तक १९४४ ई०में बड़ौदासे प्रकाशित है । द्रोणपर्वके १४३ । ६६-६७ श्लोकोंमें महर्षि वाल्मीकिके युद्धकाण्डके ८१ । २८ को नामोल्लेखपूर्वक श्लोक हवाला दिया गया है ।३

पादटिप्पनी

१. (क) पठ रामायणं व्यास काव्यबीजं सनातनम् ।
यत्र रामचरित्रं स्यात् तदहं तत्र शक्तिमान् ॥
(बृहद्धर्मपुराण, प्रथमखण्ड ३० ।४७,५१)
(ख) रामायणं पाठितं मे प्रसन्नोऽस्मि कृतस्त्वया ।
करिष्यामि पुराणानि महाभारतमेव च ॥
(बृहद्धर्मपुराण १ ।३० ।५५) 2. A curious Ms. is that of ‘Rāmāyaṇatātparyadīpikā which is said to have been an exposition of the meaning of the Rāmāyaṇa’ by Vyāsa at the request of Yudhiṣṭhira.
(‘Studies in Rāmāyaṇa’, ‘Riddles of Rāmāyaṇa’ By K. S. Rāmaśāstrī, Book II, P.I.)
३. यह श्लोक इस प्रकार है—
अपि चायं पुरा गीतः श्लोको वाल्मीकिना भुवि ।
न हन्तव्याः स्त्रियश्चेति यद् ब्रवीषि प्लवङ्गम ।……….
पीडाकरममित्राणां यत्स्यात् कर्तव्यमेव तत् ॥
(महा० उद्योग० १४३ । ६७-६८)
भट्टिकाव्यका १७ । २२ श्लोक भी इसीपर आधारित है ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘अग्निपुराण’ के ५ से १३ तकके अध्यायोंमें ‘वाल्मीकि’ के नामोल्लेखपूर्वक रामायणसारका वर्णन है । गरुडपुराण, पूर्वखण्डके १४३ वें अध्यायमें भी ठीक इन्हीं श्लोकोंमें रामायणसार कथन है । इसी प्रकार हरिवंश (विष्णुपर्व ९३ । ६—३३) में भी यदुवंशियोंद्वारा वाल्मीकिरामायणके नाटक खेलनेका उल्लेख है—

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामायणं महाकाव्यमुद्दिश्य नाटकं कृतम् ।

मूलम्

रामायणं महाकाव्यमुद्दिश्य नाटकं कृतम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीव्यासदेवजीने वाल्मीकिकी जीवनी भी बड़ी श्रद्धासे ‘स्कन्दपुराण’ वैष्णवखण्ड, वैशाखमाहात्म्य १७ से २० अध्यायोंतक, आवन्त्यखण्ड अवन्तीक्षेत्रमाहात्म्यके २४ वें अध्यायमें, प्रभासखण्डके २७८ वें अध्यायमें तथा अध्यात्मरामायणके अयोध्याकाण्डमें वर्णन किया है । मत्स्यपुराण १२ । ६१ में वे इन्हें ‘भार्गवसत्तम’ से स्मरण करते हैं* और भागवत ६ । १८ । ५ में ‘महायोगी’ से ।

पादटिप्पनी
  • ‘वाल्मीकिर्यस्य चरितं चक्रे भार्गवसत्तमः ।’
अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार कविकुलतिलक कालिदासने रघुवंशमें आदिकविको दो बार स्मरण किया है । एक तो—‘कविः कुशेध्माहरणाय यातः । निषादविद्धाण्डजदर्शनोत्थः श्लोकत्वमापद्यत यस्य शोकः* ॥’ (१४ । ७०) इस श्लोकमें, दूसरे २ । ४ के ‘पूर्वसूरिभिः’ में । भवभूतिको करुणरसका आचार्य माना गया है, किंतु हम देखते हैं कि उन्हें इसकी शिक्षा आदिकविसे ही मिली है । वे भी उत्तररामचरितके दूसरे अङ्कमें ‘वाल्मीकिपार्श्वादिह पर्यटामि’ ‘मुनयस्तमेव हि पुराणब्रह्मवादिनं प्राचेतसमृषिं….. उपासते’ आदिसे उन्हींका स्मरण करते हैं । ‘सुभाषितपद्धति’ के निर्माता शार्ङ्गधर उनके इस ऋणको स्पष्ट व्यक्त करते हुए लिखते हैं—

विश्वास-प्रस्तुतिः

कवीन्द्रं नौमि वाल्मीकिं यस्य रामायणीकथाम् ।
चन्द्रिकामिव चिन्वन्ति चकोरा इव साधवः ॥

मूलम्

कवीन्द्रं नौमि वाल्मीकिं यस्य रामायणीकथाम् ।
चन्द्रिकामिव चिन्वन्ति चकोरा इव साधवः ॥

पादटिप्पनी
  • आदिकवि वाल्मीकि उस समय कुश, समिधा आदि लेने निकले थे । व्याधके द्वारा मारे गये क्रौञ्चको देखकर उन्हें बड़ा शोक हुआ और वही श्लोकरूपमें परिणत हो गया । ‘ध्वन्यालोक’ कार श्रीआनन्दवर्धनने भी इसीसे मिलते-जुलते शब्दोंमें कहा है—
    ‘क्रौञ्चद्वन्द्ववियोगोत्थः शोकः श्लोकत्वमागतः ।’ (ध्वन्यालोक १ ।५)
    वस्तुतः इन दोनों ही पद्योंका मूल स्वयं आदिकवि (वाल्मी०१ ।२ ।४०) का ही श्लोक है, जो इस प्रकार है—
    ‘सोऽनुव्याहरणाद् भूयः शोकः श्लोकत्वमागतः ।’
अनुवाद (हिन्दी)

इसी तरह महाकवि भास, आचार्य शङ्कर, रामानुजादि सभी सम्प्रदायाचार्य, राजा भोज आदि परवर्ती विद्वानोंसे लेकर हिंदीसाहित्यके प्राण गोस्वामी तुलसीदासजीतकने ‘बंदउँ मुनि पद कंजु रामायन जेहिं निरमयउ ।’ ‘जान आदिकबि नाम प्रतापू’, ‘बालमीकि भए ब्रह्म समाना’ (रामचरितमानस), ‘जहाँ बालमीकि भये ब्याधतें मुनिंदु साधु’ ‘मरा मरा’ ‘जपें सिख सुनि रिषि सातकी’ (कवितावली, उत्तरकाण्ड १३८ से १४०), ‘कहत मुनीस महेस महातम उलटे सीधे नामको’ ‘महिमा उलटे नामकी मुनि कियो किरातो ।’ (विनयपत्रिका १५१), ‘उलटा जपत कोलते भए ऋषिराव’ (बरवैरामा० ५४), ‘राम बिहाइ मरा जपते बिगरी सुधरी कबि कोकिलहू की’ (कवि० ७ । ८८) इत्यादि पदोंसे इनका बार-बार श्रद्धापूर्वक स्मरण किया है; कृतज्ञता ज्ञापन की है ।

भागसूचना

संक्षिप्त जीवनी

अनुवाद (हिन्दी)

महर्षि वाल्मीकिजीको कुछ लोग निम्न जातिका बतलाते हैं । पर वाल्मीकिरामायण ७ । ९६ । १९, ७ । ९३ ।१७ तथा अध्यात्मरामायण ७ । ७ । ३१ में इन्होंने स्वयं अपनेको प्रचेताका पुत्र कहा है ।* मनुस्मृति १ । ३५ में ‘प्रचेतसं वसिष्ठं च भृगुं नारदमेव च’ प्रचेताको वसिष्ठ, नारद, पुलस्त्य, कवि आदिका भाई लिखा है । स्कन्दपुराणके वैशाखमाहात्म्यमें इन्हें जन्मान्तरका व्याध बतलाया है । इससे सिद्ध है कि जन्मान्तरमें ये व्याध थे । व्याध-जन्मके पहले भी स्तम्भ नामके श्रीवत्सगोत्रीय ब्राह्मण थे । व्याध-जन्ममें शङ्ख ऋषिके सत्सङ्गसे, रामनामके जपसे ये दूसरे जन्ममें ‘अग्निशर्मा’ (मतान्तरसे रत्नाकर) हुए । वहाँ भी व्याधोंके सङ्गसे कुछ दिन प्राक्तन संस्कारवश व्याध-कर्ममें लगे । फिर, सप्तर्षियोंके सत्संगसे मरा-मरा जपकर—बाँबी पड़नेसे वाल्मीकि नामसे ख्यात हुए और वाल्मीकि-रामायणकी रचना की । बंगलाके कृत्तिवासरामायण, मानस, अध्यात्मरामा० २ । ६ । ६४ से ९२, आनन्दरामायण राज्यकाण्ड १४ । २१—४९, भविष्यपुराण प्रतिसर्ग० ४ । १० में भी यह कथा थोड़े हेर-फेरसे स्पष्ट है । गोस्वामी तुलसीदासजीने वस्तुतः यह कथा निराधार नहीं लिखी । अतएव इन्हें नीच जातिका मानना सर्वथा भ्रममूलक है ।

पादटिप्पनी

३. ‘प्रचेतसोऽहं दशमः पुत्रो राघवनन्दन ।’

भागसूचना

प्राचीन संस्कृत टीकाएँ

अनुवाद (हिन्दी)

वाल्मीकिरामायणपर अगणित प्राचीन टीकाएँ हैं, यथा—१ कतक टीका (इसका नागोजीभट्ट तथा गोविन्द-राजादिने बहुत उल्लेख किया है), २—नागोजीभट्टकी तिलक या रामाभिरामी व्याख्या, ३—गोविन्दराजकी भूषण टीका, ४—शिवसहायकी रामायण-शिरोमणि व्याख्या, (ये पूर्वोक्त तीनों टीकाएँ गुजराती प्रिंटिङ्ग प्रेस बम्बईसे एकमें ही छपी हैं ।) ५—माहेश्वरतीर्थकी तीर्थव्याख्या या तत्त्वदीप, ६—कन्दाल रामानुजकी रामानुजीयव्याख्या; (ये टीकाएँ वेंकटेश्वर प्रेस बम्बईसे छपी हैं ।) ७—वरदराजकृत विवेकतिलक, ८—त्र्यम्बकराज मखानीकी धर्माकूत व्याख्या (यह खण्डशः मद्रास एवं श्रीरङ्गम‍्से छपी है) और ९—रामानन्दतीर्थकी रामायणकूट-व्याख्या । इसके अतिरिक्त चतुरर्थदीपिका, रामायणविरोधपरिहार, रामायणसेतु, तात्पर्यतरणि, शृङ्गारसुधाकर रामायणसप्तबिम्ब, मनोरमा आदि अनेक टीकाएँ हैं । ‘रीडिंग्स इन रामायण’ के अनुसार इतनी टीकाएँ और हैं—अहोबलकी ‘वाल्मीकि-हृदय’ (तनिश्लोकी) व्याख्या, उनके शिष्यकी विरोधभञ्जिनी टीका, माधवाचार्यकी रामायणतात्पर्यनिर्णय-व्याख्या, श्रीअप्पय दीक्षितेन्द्रकी भी इसी नामकी एक अन्य व्याख्या (जिसमें उन्होंने रामायणको शिवपरक सिद्ध किया है), प्रवालमुकुन्दसूरिकी रामायणभूषण व्याख्या एवं श्रीरामभद्राश्रमकी सुबोधिनी टीका । डाक्टर एम० कृष्णमाचारीने अपनी पुस्तक ‘हिस्ट्री ऑफ क्लासिकल संस्कृत लिटरेचर’ में कई ऐसी टीकाओंका उल्लेख किया है, जिनके लेखकोंका पता नहीं है । उदाहरणार्थ—अमृतकतक, रामायणसारदीपिका, गुरुबाला चित्तरञ्जिनी, विद्वन्मनोरञ्जिनी आदि । उन्होंने वरदराजाचार्यके रामायणसारसंग्रह, देवरामभट्टकी विषयपदार्थव्याख्या, नृसिंह शास्त्रीकी कल्पवल्लिका, वेंकटाचार्यकी रामायणार्थप्रकाशिका, वेंकटाचार्यके रामायण-कथाविमर्श आदि व्याख्याग्रन्थोंका भी उल्लेख किया है । इसके अतिरिक्त कई टीकाएँ ‘मध्वविलास’ वाली प्रतिमें संग्रहीत हैं । ये सब तो ज्ञात संस्कृत व्याख्याएँ हैं । अज्ञात संस्कृत व्याख्याओं, हिन्दीके अनेकानेक द्वैत, अद्वैत, शुद्धाद्वैत, विशिष्टाद्वैतादि मतावलम्बियों, आर्यसमाजकी व्याख्याओं, बंगला, मराठी, गुजराती आदि विभिन्न प्रान्तीय भाषाओं तथा फ्रेंच, अंग्रेजी आदि अन्य विदेशी भाषाओंमें किये गये अनुवाद, टीका-टिप्पणियोंकी तो यहाँ कोई बात ही नहीं छेड़नी है; क्योंकि उनका अन्त ही नहीं होना है ।

भागसूचना

रामायणके काव्यगुण, अन्य विशेषताएँ

अनुवाद (हिन्दी)

कुछ लोगोंने तो यहाँतक कहा है कि रामायणके लक्षणोंके आधारपर ही दण्डी आदिने काव्योंकी परिभाषा बतलायी । त्र्यम्बकराज मखानीने सुन्दरकाण्डकी व्याख्यामें प्रायः सभी श्लोकोंको अलंकार, रसादियुक्त मानकर काण्डनामकी सार्थकता दिखलायी है । वास्तवमें बात भी ऐसी ही है । सुन्दरका ५वाँ सर्ग तो नितान्त सुन्दर है ही । श्रीमखानीने सभीके उदाहरण भी दिये हैं । यह बड़े आश्चर्यकी बात है कि आदिकविने किसी प्राचीन काव्यको बिना ही देखे, किसी ग्रन्थसे बिना ही सहारा लिये सर्वोत्तम काव्यका निर्माण किया । इनका प्राकृतिक चित्रण तो सुन्दर है ही, संवाद सर्वाधिक सुन्दर है । हनुमान् जी की वार्तालापकुशलता सर्वत्र देखते बनती है । श्रीरामकी प्रतिपादनशैली, दशरथजीकी संभाषणपद्धति, (अयोध्याकाण्ड २रा सर्ग) किमधिकं कहीं-कहीं रावणका भी कथन (लंकाकाण्ड १६वाँ सर्ग) बहुत सुन्दर है । इन्होंने ज्योतिषशास्त्रको भी परम प्रमाण माना है । त्रिजटाके स्वप्न, श्रीरामका यात्राकालिक मुहूर्तविचार, विभीषणद्वारा लंकाके अपशकुनोंका प्रतिपादन (लंकाकाण्ड १०वाँ सर्ग) आदि ज्योतिर्विज्ञानके ज्ञापक तथा समर्थक हैं । श्रीराम जब अयोध्यासे चलते हैं तो नौ ग्रह एकत्र हो जाते हैं१—इससे लंकायुद्ध होता है । दशरथजी श्रीरामसे ज्योतिषियोंद्वारा अपने अनिष्ट फलादेशकी बात बतलाते हैं । (अयोध्या० ४ । १८)२ । युद्धकाण्ड १०२ । ३२—३४ के श्लोकोंमें रावणमरणके समयकी ग्रहस्थिति भी ध्येय है । युद्धकाण्ड ९१वें सर्गमें आयुर्वेदविज्ञानकी बातें हैं । युद्ध १८ वें सर्ग तथा ६३ । २ से २५ श्लोकतक राजनीतिकी अत्यन्त सारभूत अद्भुत बातें हैं । युद्धकाण्ड ७३ । २४—२८ में तन्त्रशास्त्रकी भी प्रक्रियाएँ हैं । इसमें रावण तथा मेघनादको भारी तान्त्रिक दिखलाया गया है । मेघनादकी सब विजय तन्त्रमूलक है । जब वह जीवित कृष्णछागकी बलि देता है, तब तप्तकाञ्चनके तुल्य अग्निकी दक्षिणावर्त शिखाएँ उसे विजय सूचित करती हैं—‘प्रदक्षिणावर्तशिखस्तप्तकाञ्चनसन्निभः ।’ (६ । ७३ । २३) । रावण भी भारी तान्त्रिक है । उसकी ध्वजापर (तान्त्रिकका चिह्न) नरशिरकपाल—मनुष्यकी खोपड़ीका चिह्न था । (६ । १०० । १४) । किंतु उसके पराभव आदिद्वारा ऋषि वाममार्गके इन बलि-मांस-सुरादि क्रियाओंकी असमीचीनता प्रदर्शित करते हैं (गोस्वामी तुलसीदासजीने भी ‘तजि श्रुति पंथ बाम मग चलहीं,’ (अयोध्या०१६८ । ७-८), ‘कौल कामबस कृपन बिमूढा’ (लंका०)आदिसे इसी बातका समर्थन किया है) । इस तरह हमें महर्षिकी दृष्टिमें ज्यौतिष, तन्त्र, आयुर्वेद, शकुन आदि शास्त्रोंकी प्राचीनता एवं समीचीनता ज्ञात होती है । वस्तुतः यही परम आस्तिककी दृष्टि होती है । धर्मशास्त्रके लिये तो यह ग्रन्थ परम प्रमाण है ही, अन्य ऐतिहासिक कथाएँ भी बहुत हैं, अर्थशास्त्रकी भी पर्याप्त सामग्री है । व्यवहार तथा आचारकी भी बातें हैं, कुशलमार्गका भी प्रदर्शन है ।

पादटिप्पनी

१.देखिये—‘दारुणाः सोममभ्येत्य ग्रहाः सर्वे व्यवस्थिताः ।’(अयोध्या०४१ ।११) पर तिलक तथा शिरोमणि-व्याख्या ।
२.‘अवष्टब्धं च मे राम नक्षत्रं दारुणग्रहैः । आवेदयन्ति दैवज्ञाः सूर्याङ्गारकराहुभिः ॥’

भागसूचना

पवित्र दार्शनिकता

अनुवाद (हिन्दी)

महर्षि वाल्मीकिकी अद्भुत कविता एवं अन्यान्य महत्तामें उनकी तपस्या ही हेतु है । इसमें वाल्मीकिरामायण ही साक्षी है । ‘तपःस्वाध्यायनिरतं तपस्वी वाग्विदां वरम्’ से इस काव्यका ‘तप’ शब्दसे ही आरम्भ होता है और प्रथम अर्धालीमें ही दो बार ‘तप’ शब्द आया और ‘तपस्वी’ शब्दद्वारा महर्षिने एक प्रकारसे अपनी जीवनी भी लिख दी । तपद्वारा ही ब्रह्माजीका उन्होंने साक्षात् किया, रामायणकी दिव्यकाव्यताका आशीर्वाद लिया और रामचरित्रका दर्शन किया । बादमें विश्वामित्रके विचित्र तपका वर्णन, गङ्गाजीके आगमनमें भगीरथकी अद्भुत तपस्या, चूली ऋषिकी तपस्या, भृगुकी तपस्या आदिका भी वर्णन है । इनके मतसे स्वर्गादि सभी सुखभोगोंका हेतु तप है । किमधिकं; रावणादिके राज्य, सुख, शक्ति, आयु आदिका मूल भी तप है । श्रीराम तो शुद्ध तपस्वी हैं । वे तपस्वियोंके आश्रममें प्रवेश करते हैं । वहाँ वे वैखानस, बालखिल्य, सम्प्रक्षाल, मरीचिप (केवल चन्द्र-किरण पान करनेवाले), पत्राहारी, उन्मज्जक (सदा कण्ठतक पानीमें डूबकर तपस्या करनेवाले), पञ्चाग्निसेवी, वायुभक्षी, जलभक्षी, स्थण्डिलशायी, आकाशनिलयी एवं ऊर्ध्ववासी (पर्वत, शिखर-वृक्ष, मचान आदिपर रहनेवाले) तपस्वियोंको देखते हैं । ये सभी जपमें लीन थे । (अरण्यकाण्ड ६ठा सर्ग) इनका जप सम्भवतः ‘श्रीराम’ मन्त्र रहा हो, क्योंकि इनमेंसे अधिकांश श्रीरामको देखते ही योगाग्निमें शरीर छोड़ देते हैं । वस्तुतः काव्यविधिसे कान्तासम्मित मधुर वाणीमें वाल्मीकिका यही दार्शनिक उपदेश है । उनका मूल तत्त्व इस प्रकार पवित्रतापूर्वक रहकर तपोऽनुष्ठान करते हुए ईश्वरकी आराधना करना एवं अधर्मसे सदा दूर रहना ही है ।

भागसूचना

श्रीरामकी परब्रह्मता

अनुवाद (हिन्दी)

कुछ लोग रामायणमें नरचरित्र मानते हैं और श्रीरामके ईश्वरताप्रतिपादक (देखिये, बालकाण्ड १५ से १८ सर्ग, पुनः ७६ । १७, १९, अयोध्या० १ । ७, अरण्य० ३ । ३७, सुन्दर० २५ । २७, ३१; ५१ । ३८, युद्ध० ५९ । ११०; ९५ । २५; पूरा १११ तथा ११७ वाँ सर्ग ११९ । १८, ११९ । ३२ में सुस्पष्ट ‘ब्रह्म’ शब्द उत्तरका० ८ । २६, ५१ । १२—२२; १०४ । ४ आदि । बङ्ग तथा पश्चिमी शाखामें भी ये सब श्लोक हैं, बल्कि कहीं-कहीं तो इससे भी अधिक हैं ।) हजारों वचनोंको प्रक्षिप्त मानते हैं । किंतु ध्यानसे पढ़नेपर श्रीरामकी ईश्वरता सर्वत्र दीखती है । गम्भीर चिन्तनके बाद तो प्रत्येक श्लोक ही श्रीरामकी अचिन्त्य शक्तिमत्ता, लोकोत्तर धर्मप्रियता, आश्रितवत्सलता एवं ईश्वरताका प्रतिपादक दीखता है । विभीषणशरणागतिके समय यद्यपि कोई भी ऐश्वर्य प्रदर्शक वचन नहीं आया, पर श्रीरामके अप्रतिम मार्दव, कपोतके आतिथ्यसत्कारके उदाहरण देने, परमर्षि कण्डुकी गाथा पढ़ने एवं अपने शरणमें आये समस्त प्राणियोंको* समस्त प्राणियोंसे अभयदान देनेके स्वाभाविक नियमको घोषित करनेके बाद प्रतिवादी सुग्रीवको विवश होकर कहना ही पड़ा कि ‘धर्मज्ञ! लोकनाथोंके शिरोमणि! आपके इस कथनमें कोई आश्चर्य नहीं है; क्योंकि आप महान् शक्तिशाली एवं सत्पथपर आरूढ़ हैं—

विश्वास-प्रस्तुतिः

किमत्र चित्रं धर्मज्ञ लोकनाथशिखामणे ।
यत् त्वमार्यं प्रभाषेथाः सत्त्ववान् सत्पथे स्थितः ॥

मूलम्

किमत्र चित्रं धर्मज्ञ लोकनाथशिखामणे ।
यत् त्वमार्यं प्रभाषेथाः सत्त्ववान् सत्पथे स्थितः ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(६ । १८ । ३६)

पादटिप्पनी
  • यहाँ ‘सर्वभूतेभ्यः’ में प्रायः सभी प्राचीन टीकाकारोंने चतुर्थी और पञ्चमी दोनों मानकर इस पदका दो बार अर्थ किया है ।
अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार हनुमान् जी ने सीताजीके सामने और रावणके सामने जो श्रीरामके गुण कहे हैं, उनमें उन्हें ईश्वर तो नहीं बतलाया, किंतु ‘श्रीराममें यह सामर्थ्य है कि वे एक ही क्षणमें समस्त स्थावर-जंगमात्मक विश्वको संहृत कर दूसरे ही क्षण पुनः इस संसारका ज्यों-का-त्यों निर्माण कर सकते हैं’ इस कथनमें क्या ईश्वरताका भाव स्पष्ट नहीं हो जाता? कितनी स्पष्टता है—

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्यं राक्षसराजेन्द्र शृणुष्व वचनं मम ।
रामदासस्य दूतस्य वानरस्य विशेषतः ॥
सर्वाल्ँ लोकान् सुसंहृत्य सभूतान् सचराचरान् ।
पुनरेव तथा स्रष्टुं शक्तो रामो महायशाः ॥

मूलम्

सत्यं राक्षसराजेन्द्र शृणुष्व वचनं मम ।
रामदासस्य दूतस्य वानरस्य विशेषतः ॥
सर्वांल्लोकान् सुसंहृत्य सभूतान् सचराचरान् ।
पुनरेव तथा स्रष्टुं शक्तो रामो महायशाः ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(वाल्मी० सुन्दरकाण्ड ५१ । ३८-३९)
सच्ची बात तो यह है कि तपस्वी वाल्मीकि ‘राम’ के ही जापक थे । (उनके ‘मरा-मरा’ जपनेकी कथाको भी बहुतोंने निर्मूल माना है, किंतु यह कथा अध्यात्मरामायण अयोध्याकाण्ड, आनन्दरामायण राज्यकाण्ड १४ तथा स्कन्दपुराणमें भी कई बार आती है, तुलसीदास आदिने भी लिखा है) इसीसे उन्हें तथा अन्योंको सारी सिद्धियाँ मिली थीं, अतः इसमें ‘श्रीमन्नारायण’ को ही काव्यरूपमें गाया है । अन्यथा तत्कालीन कन्द-मूल-फलाशी वनवासी सर्वथा निरपेक्ष तपस्वीको किसी राजाके चरित्र-वर्णनसे कोई लाभ न था । ‘योगवासिष्ठ’ में भी, जो उनकी दूसरी विशाल रचना है, उन्होंने गुप्तरूपसे श्रीरामका विस्तृतचरित्र गाया है । किंतु प्रथम अध्यायमें तथा अन्यत्र भी यत्र्-तत्र उनका नारायणत्व स्पष्ट प्रतिपादन कर ही दिया है । वस्तुतः प्रेमकी मधुरता उसकी गूढ़तामें ही है । देवताओंके सम्बन्धमें तो यह प्रसिद्धि भी है कि वे ‘परोक्षप्रिय’ होते हैं—‘परोक्षप्रिया इव हि देवाः, प्रत्यक्षद्विषः’ (ऐतरेय० १ । ३ । १४; बृहदा० ४ । २ । २) अतः महर्षिकी यह वर्णनप्रणाली गूढ़ प्रेमकी ही है, किंतु साधकके लिये वह सर्वत्र स्पष्ट ही है, तिरोहित नहीं है । इसपर प्रायः सैकड़ों संस्कृत व्याख्याएँ भी इसीके साक्षी हैं ।

भागसूचना

ऐतिहासिक दृष्टि

अनुवाद (हिन्दी)

वाल्मीकिका वर्णन आधुनिक ऐतिहासिक शैलीसे नहीं है, इसलिये लोग उसे इतिहासरूपमें स्वीकार नहीं करते । किंतु वाल्मीकिका संसार हजार, दो हजार वर्षोंका न था । फिर भला अरबों वर्षोंका इतिहास क्या आजके विकासके चश्मेसे पढ़ा जा सकता है? ऐसी दशामें केवल उपयोगी व्यक्तियोंका इतिहास ही लाभदायक है । इसीलिये अपने यहाँ इतिहासकी परिभाषा ही दूसरी की गयी है—

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मार्थकाममोक्षाणामुपदेशसमन्वितम् ।
पूर्ववृत्तं कथायुक्तमितिहासं प्रचक्षते ॥

मूलम्

धर्मार्थकाममोक्षाणामुपदेशसमन्वितम् ।
पूर्ववृत्तं कथायुक्तमितिहासं प्रचक्षते ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(विष्णुधर्म० ३ । १५ । १)
और विस्तृत एवं दीर्घकालिक विश्वका इतिहास तो रामायण-महाभारतकी भाँति ही हो सकता है और धर्म, अर्थ, लोक-व्यवहार, परलोक-सुखकी दृष्टिसे वही लाभकर भी सिद्ध हो सकता है ।

भागसूचना

भौगोलिक विवरण

अनुवाद (हिन्दी)

रामायणके भूगोलपर भी बहुत अनुसंधान हुआ है । ‘कल्याण’ का रामायणाङ्क, कनिङ्घमकी ‘ऐन्शेन्ट डिक्शनरी’, श्रीदेके ‘जागरफिकल डिक्शनरी’ में इसपर बहुत अनुसंधान है । कई लोगोंने स्वतन्त्र लेख भी लिखे हैं । लंदनके ‘एशियाटिक सोसाइटी जर्नल’ में एक महत्त्वपूर्ण लेख छपा था । ‘वेद धरातल’ (पं गिरीशचन्द्र) में भी कुछ अच्छी सामग्री है । केवल ‘लंका’ पर ही कई प्रबन्ध हैं । ‘सर्वेश्वर’ के एक लेखमें ‘मालदीप’ को लंका सिद्ध किया है । कुछ लोग इसे ध्वस्त, मज्जित या दुर्ज्ञेय भी मानते हैं । वाल्मी० १ । २२ की कौशाम्बी प्रयागसे १४ मील दक्षिण-पश्चिम कोसम गाँव है । धर्मारण्य आजकी गया है । ‘महोदय’ नगर कुशनाभकी कन्याओंके कुब्ज होनेसे आगे चलकर कान्यकुब्ज, पुनः कन्नौज हुआ, गिरिव्रज ‘राजगिर’ (बिहार) है । १ । २४ के मलद-करूष आरा जिलेके उत्तरी भाग हैं । केकयदेश कुछ लोग ‘गजनी’ को और कुछ झेलम एवं कीकनाको कहते हैं । बालकाण्ड २ । ३-४ में आयी तमसा नदीपर वाल्मीकिजीका आश्रम था । यह उस तमसासे सर्वथा भिन्न है, जिसका उल्लेख गङ्गाके उत्तर तथा अयोध्याके दक्षिणमें मिलता है । वाल्मीकि-आश्रमका उल्लेख २ । ५६ । १६ में भी आया है । पश्चिमोत्तरशाखीय रामायणके २ । ११४ में भी इस आश्रमका उल्लेख है । बी० एच० वडेरने ‘कल्याण’ रामायणाङ्कमें इसे प्रयागसे २० मील दक्षिण लिखा है । सम्मेलनपत्रिका ४३ । २ में वाल्मीकि-आश्रम प्रयाग-झाँसीरोड और राजापुर-मानिकपुर रोडके सङ्गमपर स्थित बतलाया गया है । गोस्वामी तुलसीदासजीके मतसे इनका आश्रम ‘वारिपुर दिगपुर बीच (विलसतिभूमि)’ था । मूल गोसाईंचरितकार ‘दिगवारिपुरा बीच सीतामढ़ी’ को वाल्मीकि-आश्रम मानते हैं । कुछ लोग कानपुरके बिठूरको भी वाल्मीकाश्रम मानते हैं ।* २ । ५६ । १६ की टीकामें कतक, तीर्थ, गोविन्दराज, शिरोमणिकार आदि इनका समाधान करते हुए लिखते हैं कि ऋषि प्रायः घूमते रहते थे । श्रीरामके वनवासके समय वे चित्रकूटके समीप तथा राज्यारोहणकालमें गङ्गातटपर (बिठूर) रहते थे । वाल्मी० ७ । ६६ । १ तथा ७ । ७१ । १४ से भी वाल्मीकाश्रम बिठूरमें ही सिद्ध होता है । अन्य विवरण प्रायः प्रस्तुत ग्रन्थकी टिप्पणियोंमें ही दिये गये हैं ।

पादटिप्पनी
  • स्कन्दपुराण आवन्त्यखण्ड १ ।२४ में इनका आश्रम विदिशा (आजका मेलसा मध्यभारत) तथा भविष्यपुराण, प्रतिसर्गपर्व ४ । १० । ५४ में उत्पलारण्य-उत्पलावर्त (बिठूर, कानपुर) में माना है ।
भागसूचना

रामायणमें राजनीति, मनोविज्ञान

अनुवाद (हिन्दी)

वाल्मीकिकी राजनीति बहुत उच्च कोटिकी है । उसके सामने सभी राजनीतिक विचार तुच्छ प्रतीत होते हैं । हनुमान् जी तो नीतिकी मूर्ति ही प्रतीत होते हैं । विभीषणके आनेपर श्रीराम सबसे सम्मति माँगते हैं । सुग्रीव कहते हैं कि यह शत्रुका ही भाई है, पता नहीं क्यों अब अकस्मात् हमारी सेनामें प्रवेश पाना चाहता है । सम्भव है, अवसर पाकर उल्लू जैसे कौओंका वध कर देता है, वैसे यह हमें भी मार डाले । प्रकृतिसे राक्षस है, इसका क्या विश्वास? साथ ही नीति यह है कि मित्रकी भेजी हुई, मोल ली हुई तथा जंगली जातियोंकी भी सहायता ग्राह्य है, पर शत्रुकी सहायता तो सदा शंकनीय है । अङ्गदने भी प्रायः ऐसी ही बात कही । जाम्बवन्तने कहा कि हमें भी इसको अदेशकालमें आया देख बड़ी शंका हो रही है । शरभने कहा कि इसपर गुप्तचर छोड़ा जाय । अश्विपुत्र मैन्दने कहा कि इससे प्रश्न-प्रतिप्रश्न किये जायँ, जिसके उत्तरसे भाव जान लिये जायँगे ।
पर हनुमान् जी ने इनका ऐसा खण्डन किया, जो आज भी अभूतपूर्व है । वे बोले—‘प्रभो! आपके समक्ष बृहस्पतिका भाषण भी तुच्छ है । पर आपकी आज्ञा शिरोधार्य है । मैं विवाद, तर्क, स्पर्धा आदिके कारण नहीं, कार्यकी गुरुताके कारण कुछ निवेदन करना चाहता हूँ ।
‘आपके मन्त्रियोंमेंसे कुछने विभीषणके पीछे गुप्तचर लगानेकी राय दी है, पर गुप्तचर तो दूर रहनेवाले तथा ‘अदृष्ट अज्ञातवृत्त’ व्यक्तिके पीछे लगाया जाता है, यह तो प्रत्यक्ष ही सामने है, अपना नाम-काम भी स्वयं ही कह रहा है, यहाँ गुप्तचरका क्या उपयोग? कुछ लोगोंने कहा है कि ‘यह अदेशकालमें आया है’, किंतु मुझे तो लगता है कि यही इसके आनेका देशकाल है । आपके द्वारा वालीको मारा गया और सुग्रीवको अभिषिक्त सुनकर आपके परम शत्रु तथा वालीके मित्र रावणके संहारके लिये ही आया है । इससे प्रश्न करनेकी बात भी दोषयुक्त दीखती है, क्योंकि उससे इसके मैत्रीभावमें बाधा पहुँचेगी और यह मित्रदूषित करनेका कार्य हो जायगा । यों तो आप कुछ भी बात करते समय इसके स्वरभेद, आकार, मुखविक्रिया आदिसे इसकी मनःस्थिति भाँप ही लेंगे । सुतरां मैंने अपनी तुच्छ बुद्धिके अनुसार यह कुछ निवेदन किया, प्रमाण तो स्वयं आप ही हैं ।’ इसी तरह उनका लंकाप्रवेशके बाद १३वें सर्गका विमर्श, सीतासे बात करनेके पहले, ‘किस भाषामें किस प्रकार बात करूँ’ इत्यादि परामर्श, पुनः सीतासे बातें कर वापस चलनेके समय दूतादिके कर्तव्य एवं लङ्काके बलाबलकी जानकारीके लिये किया गया ऊहापोह, सुग्रीवको भोगलिप्त देखकर दिया गया परामर्श तथा रावणको जो उपदेश किया है, उसमें इनकी अपूर्व नीतिमत्ता, रामभक्ति, विचारप्रवणता, साधुता तथा अप्रतिम बुद्धिमत्ता प्रकट होती है । इन्हीं सब कारणोंसे उन्हें—‘बुद्धिमतां वरिष्ठम्’ कहा गया है । स्वयं श्रीराम भी बार-बार इनके भाषणचातुर्य, बुद्धिकौशलपर चकित होते हैं (किष्किन्धा० ४ । २५—३५; युद्धकाण्ड ११—१४) । श्रीरामकी नीतिमत्ता, साधुता, सद्‍गुणसम्पन्नता तो सर्वोपरि है ही । श्रीलक्ष्मण भी कम नहीं हैं । वे मारीचको पहले ही राक्षस बतलाकर सावधान करते हैं । सीतासे बार-बार कहते हैं कि ‘श्रीरामपर कोई संकट नहीं है, आपपर ही संकट आया दीखता है । यह सब राक्षसोंकी माया है’ इत्यादि । इसी प्रकार विभीषण आदिकी बातें भी स्थान-स्थानपर देखते बनती हैं ।

भागसूचना

उपसंहार

अनुवाद (हिन्दी)

इन सभी गुणोंके आकर होनेसे ही यह काव्य सर्वाधिक लोकप्रिय, अजर, अमर, दिव्य तथा कल्याणकर१ है । संतोंके शब्दोंमें यह ‘रामायण श्रीरामतनु’ है । इसका पठन, मनन, अनुष्ठान साक्षात् प्रभु श्रीरामका संनिधान प्राप्त करना है ।२ हनुमान् जी की प्रसन्नताके लिये इस श्रीरामचरितके गानसे बढ़कर दूसरा उपाय नहीं । (इसमें हनुमच्चरित्र भी निरुपम, उज्ज्वल तथा दिव्य है ।) इसलिये अनादिकालसे इसके श्रवण-पठन-अनुष्ठानादिकी परम्परा है । रामलीलाका भी पहले यही आधार रहा । हम पहले यदुवंशियोंद्वारा हरिवंशमें वर्णित रामायणनाटक खेलनेका उल्लेख कर चुके हैं । वहाँ इसका बड़ा रोचक वर्णन है । जब सुपुरमें इन्हें सफलता मिली तो वज्रनाभके वज्रपुरमें भी बुलाया गया । वहाँ इन्होंने लोमपादद्वारा शृङ्ग ऋषिका आनयन, पुनः दशरथ-यज्ञ, गङ्गावतरण, रम्भाभिसार आदि नाटक खेले ।

पादटिप्पनी

१. श्रीब्रह्माजी कहते हैं—
न ते वागनृता काव्ये काचिदत्र भविष्यति ॥
यावत् स्थास्यन्ति गिरयः सरितश्च महीतले ॥
तावद् रामायणकथा लोकेषु प्रचरिष्यति ॥
(बाल० २ । ३५-३६-३७)
२. वाल्मीकीय रामायणके पठन-श्रवण एवं अनुष्ठानसे क्या लाभ है, इसे आगेके रामायणमाहात्म्य, युद्धकाण्डके १२८वें सर्गके १०४ से १२२ श्लोकोंतक तथा बृहद्धर्मपुराण, पूर्वखण्डके २५ से ३० अध्यायोंतक देखना चाहिये ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामायणं महाकाव्यमुद्दिश्य नाटकं कृतम् ।
लोमपादो दशरथ ऋष्यशृङ्गं महामुनिम् ॥
शान्तामप्यानयामास गणिकाभिः सहानघ ।

मूलम्

रामायणं महाकाव्यमुद्दिश्य नाटकं कृतम् ।
लोमपादो दशरथ ऋष्यशृङ्गं महामुनिम् ॥
शान्तामप्यानयामास गणिकाभिः सहानघ ।

अनुवाद (हिन्दी)

(२ । ९३ । ८)

विश्वास-प्रस्तुतिः

लयतालसमं श्रुत्वा गङ्गावतरणं शुभम् ।

मूलम्

लयतालसमं श्रुत्वा गङ्गावतरणं शुभम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

(२ । ९३ । २५)
यहाँ प्रद्युम्न, गद एवं साम्ब नान्दी बाजा बजा रहे थे । (नगाड़ोंकी ध्वनिको ही यहाँ नान्दी कहा गया है ।) शूर नामके यादव ही ‘रावण’ का नाटक खेल रहे थे । (श्लोक २८) प्रद्युम्न नलकूबर बने और साम्ब विदूषक । इससे सिद्ध है कि भगवान् श्रीकृष्णके समयसे ही सफल रामलीला-कार्य आरम्भ था । यों तो ‘खेलउँ तहूँ बालकन्ह मीला । करउँ सकल रघुनायक लीला ॥’ से रामकथाकी तरह रामलीला आदिकी भी अनादिता सिद्ध है, तथापि इतिहासके विद्वानोंकी उत्सुकताके लिये इस घटनाका उल्लेख कर दिया गया । इसके बाद तो हनुमन्नाटक, प्रसन्नराघवनाटक, अनर्घराघवनाटक, महानाटक, बालरामायणनाटक आदि अगणित रामलीलानाटक ग्रन्थ ही लिख डाले गये । इन सभी नाटकग्रन्थोंका एकमात्र आधार यह वाल्मीकिरामायण ही रहा । इतना ही नहीं—इस वाल्मीकीय रामायण एवं रामकथाका प्रचार-विस्तार जावा, बाली आदि द्वीपोंतक हुआ । आशा है, सज्जनगण इनसे यथायोग्य लाभ उठायेंगे ।
—जानकीनाथ शर्मा