शबरी-प्रसंग - करपात्र-मत-खंडन

शबरी - प्रसंग - करपात्र - मत - खंडन
-कुशाग्र अनिकेत

पूर्वमीमांसा का मत है कि जब किसी शब्द का प्रसिद्ध अर्थ संभव हो तो उस प्रसिद्ध अर्थ को छोड़कर किसी अप्रसिद्ध अर्थ की कल्पना नहीं करनी चाहिए-

प्रसिद्धहानिः शब्दानाम् अ–प्रसिद्धे च कल्पना ।
न कार्या वृत्तिकारेण सति सिद्धार्थ-सम्भवे ॥
(श्लोकवार्त्तिक, प्रतिज्ञासूत्र, श्लोक ३५)

किंतु कभी-कभी बड़े-बड़े मनीषी भी आचार्य कुमारिल भट्ट के इस हितोपदेश को भूल जाते हैं। ऐसा ही एक प्रपंच “शबरी” के विषय में भी रचा गया है। श्रीराम की परम नैष्ठिक भक्त माता शबरी को कौन नहीं जानता? उनके अभिधान से ही स्पष्ट है कि वे वनवासी शबर समुदाय की महिला थीं । किंतु विगत दशकों में कुछ विद्वानों द्वारा उन्हें ब्राह्मणी सिद्ध करने का प्रयास किया गया है। सौभाग्यवश सामान्य जनता आज भी इन प्रयासों से अनभिज्ञ है और शबरी को शबरजातीया ही मानती है। फिर भी, इस विषय पर चल रहे विवाद का उपशमन करना आवश्यक है।

तात्त्विक दृष्टि से सभी वर्ण ब्राह्मण ही हैं - यह महाभारत में महर्षि याज्ञवल्क्य का युधिष्ठिर को उपदेश है-

सर्वे वर्णा ब्राह्मणा ब्रह्मजाश्च सर्वे नित्यं व्याहरन्ते च ब्रह्म।
तत्त्वं शास्त्रं ब्रह्मबुद्ध्या ब्रवीमि सर्वं विश्वं ब्रह्म चैतत् समस्तम्॥

1 यह लेख स्वामी करपात्री और उनके दो अनुयायियों - श्री गंगाधर पाठक और स्वामी निश्चलानंद सरस्वती के शबरी-विषयक मत का खंडन है | Email : ka337@cornell.edul इस निबंध के लेखन में डॉ॰ सत्यन् शर्मा के शोध से बहुमूल्य सहायता प्राप्त हुई है, जिसके लिए मैं उनका आभारी हूँ ।

(महाभारत १२.३१८.८८)

अतः यदि तत्त्वतः पूर्वपक्षी समस्त संसार को ब्रह्म से उत्पन्न होने के कारण ब्राह्मण मानना चाहें तो वे स्वतंत्र हैं। किंतु उनका आग्रह केवल ज्ञानी और चरित्रवान् सज्जनों को ब्राह्मण मानने पर है, जिसमें शबरी जी प्रमुख हैं। यदि शबरी का यश और चारित्र्य उज्ज्वल नहीं होता तो संभवतः पूर्वपक्षी उन्हें शबरजातीया ही रहने देते।

१. रामायण के प्राचीन टीकाकार

“शबरी” शब्द का क्या अर्थ है? इस प्रश्न का उत्तर हम वाल्मीकीय रामायण के प्राचीन और मान्य टीकाकारों से ही पूछ लेते हैं। वाल्मीकीय रामायण के मूल - रामायण में शबरी की कथा संक्षेप में कही गई है। वहीं एक श्लोक आया है, जिसमें शबरी के लिए तीन विशेषणों का उल्लेख किया गया है - “धर्मचारिणी”, “श्रमणी ” और “धर्मनिपुणा ” ।

स चास्य कथयामास शबरीं धर्मचारिणीम् ।
श्रमणीं धर्मनिपुणामभिगच्छेति राघव ॥
(वाल्मीकीय-रामायण १.१.५६)

इस श्लोक पर तीन टीकाकारों की व्याख्या देखते हैं। भूषण - टीका के प्रणेता गोविंदराज लिखते हैं-

“शबरीं प्रतिलोमस्त्रियम्।
तदुक्तं नारदीये-

नृपायां वैश्यतो जातः शबरः परिकीर्तितः। मधूनि वृक्षादानीय विक्रीणीते स्ववृत्तये॥

इति जातेरस्त्रीविषयात् - इति ङीष् । ”

2 “शबरी को अर्थात् प्रतिलोमजा स्त्री को । यथा नारद-पुराण में कहा गया है- क्षत्रिय कन्या में वैश्य पुरुष द्वारा उत्पन्न पुत्र शबर कहलाता है। यह स्ववृत्ति के लिए वृक्ष से मधु निकाल कर बेचता है | (इस “शबर” शब्द पर) ‘जातेरस्त्रीविषयादयोपधात् ’ ( पाणिनि - सूत्र ४.१.६३) से (स्त्रीलिंग में) ङीष् प्रत्यय होता है।”

उपर्युक्त उद्धरण से कोई संशय नहीं रह जाता कि आचार्य गोविंदराज शबरी को शबर-जाति की स्त्री मानते थे।

अब महेश्वर तीर्थ का मत देखते हैं। उन्होंने लिखा है - “शबरीं शबरस्त्रियम्” (“शबरी को अर्थात् शबर की स्त्री को “) । यहाँ “शबर” शब्द शबर- जाति के अतिरिक्त किसी अन्य का वाचक नहीं हो सकता । तीसरे टीकाकार माधव योगी ने अल्प शब्दों में यही बात कही है - “शबरीम् उच्यमानविशेषणाम्” ( " शबरी - इस विशेषण द्वारा सूचित स्त्री को " ) । स्पष्ट है कि माधव योगी “शबरी” शब्द को एक विशेषण मानते हैं (नाम नहीं) । विशेषण के रूप में “शबरी” का वही अर्थ निकलता है जो अन्य दोनों टीकाकारों ने माना है।

२. पूर्वाचार्यों की परंपरा

अब दो अन्य आचार्यों के मत को जान लेते हैं - विशिष्टाद्वैती रामानुज संप्रदाय के स्वामी वेदांतदेशिक और अद्वैती शांकर-संप्रदाय के आचार्य श्री अप्पय दीक्षित । स्वामी वेदांतदेशिक श्रीमद्भगवद्गीता (१८.४५ ) पर अपनी टीका में विष्णुधर्म-पुराण के एक श्लोक को उद्धृत करते हैं- धर्मव्याधादयोऽप्यन्ये पूर्वाभ्यासाज्जगुप्सिते। वर्णावरत्वे सम्प्राप्ताः संसिद्धिं श्रमणी यथा ॥ (विष्णुधर्म-पुराण, ९८ अथवा १०१ वाँ अध्याय, श्लोक ३१) “धर्मव्याध आदि अन्य लोग भी, जो जुगुप्सित अवर वर्ण में जन्मे थे, पूर्व के अभ्यास के कारण सिद्धि को प्राप्त हुए, जिस प्रकार श्रमणी हुई थी। ” 3 यही श्लोक श्री अप्पय दीक्षित ने ब्रह्मसूत्र (१.३.३८ ) की अपनी टीका में भी उद्धृत किया है। 2 यहाँ “श्रमणी” शबरी का विशेषण है - इस पर मतैक्य है। श्लोक से सिद्ध है कि शबरी की गणना अवर वर्ण में जन्मे हुए साधुजनों में की जाती थी। विष्णुधर्म-पुराण के श्लोक की व्याख्या के विरोध में पूर्वपक्षी कहते हैं- “यहाँ शबरी का उल्लेख अवर वर्ण में उत्पन्न होने के कारण नहीं अपितु स्त्री होने के कारण ही किया गया है।” हम इसका समाधान विष्णुधर्म-पुराण को ही करने देते हैं। ऊपर उद्धृत श्लोक पुराण के “योग-प्रशंसा” नामक अध्याय से है, जिसके पूर्वापर श्लोक इस प्रकार हैं-

जैगीषव्यो यथा विप्रो यथा चैवासितादयः ।
हिरण्यनाभो राजन्यस्तथा वै जनकादयः ॥
पूर्वाभ्यस्तेन योगेन तुलाधारादयो विशः ।
सम्प्राप्ताः परमां सिद्धिं शूद्राः पैलवकादयः ॥
मैत्रेयी सुलभा गार्गी शाण्डिली च तपस्विनी ।
स्त्रीत्वे प्राप्ताः परां सिद्धिमन्यजन्मसमाधितः ॥
धर्मव्याधादयोऽप्यन्ये पूर्वाभ्यासाज्जुगुप्सिते ।
वर्णावरत्वे सम्प्राप्ताः संसिद्धिं श्रमणी तथा ॥
पूर्वाभ्यस्तं च तत्तेषां योगज्ञानं महात्मनाम् ।
सुप्तोत्थितप्रत्ययवदुपदेशादिना विना ॥

2“श्रवणाध्ययनार्थप्रतिषेधात् स्मृतेश्च” (ब्रह्मसूत्र १.३.३८), “कथं तर्हि विदुरधर्मव्याधप्रभृतीनां ब्रह्मज्ञत्वम्? पूर्वजन्माधिगतज्ञानाप्रमोषात् । ‘धर्मव्याधादयोऽप्यन्ये पूर्वाभ्यासाज्जगुप्सिते। वर्णावरत्वे संप्राप्तास्संसिद्धिं श्रमणी यथा’ इति हि स्मरन्ति ब्रह्मज्ञानमपि तेषाम् । हीनजातिषु जननं तु प्रारब्धबलात्।” - अप्पयदीक्षित 4 (विष्णुधर्म-पुराण, ९८ अथवा १०१ वाँ अध्याय, श्लोक २८-३२) अर्थात् “जैसे जैगीषव्य नामक ब्राह्मण और असित आदि ब्रह्मर्षियों ने सिद्धि प्राप्त की, वैसे ही हिरण्यनाभ नामक क्षत्रिय और जनक आदि राजर्षियों ने भी की । तुलाधार आदि वैश्यों और पैलवक आदि शूद्रों ने पूर्वजन्म के योगाभ्यास से परम सिद्धि प्राप्त की। मैत्रेयी, सुलभा, गार्गी और तपस्विनी शांडिली - इन सभी स्त्रियों ने अन्य जन्मों की समाधि के कारण परम सिद्धि को प्राप्त किया। धर्मव्याध आदि अन्य लोग भी, जो जुगुप्सित अवर वर्ण में जन्मे थे, पूर्व के अभ्यास के कारण सिद्धि को प्राप्त हुए, जिस प्रकार श्रमणी हुई थी। इन सभी महात्माओं को योग का ज्ञान पूर्व जन्मों से अभ्यस्त था, और जैसे नींद से जागने पर स्मृति लौट आती है, वैसे ही उपदेश आदि के बिना ही उन्हें ज्ञान की पुनः प्राप्ति हो गई । ”

इन श्लोकों से सिद्धि प्राप्त करने वाले महात्माओं की सूची स्पष्ट है-

ब्राह्मण - जैगीषव्य, असित
क्षत्रिय - हिरण्यनाभ, जनक
वैश्य - तुलाधार
शूद्र - पैलवक
स्त्री - मैत्रेयी, सुलभा, गार्गी, शांडिली
अंत्यज - धर्मव्याध, श्रमणी ( शबरी)

यदि इस सूची में शबरी की गणना उनके स्त्री होने के कारण ही होती तो उनका नाम मैत्रेयी, सुलभा, गार्गी और शांडिली के साथ पिछले श्लोक में आना चाहिए था। किंतु ऐसा नहीं है। शबरी का नाम धर्मव्याध के साथ अत्यंज महात्माओं में परिगणित हुआ है। मध्व संप्रदाय के श्रीनारायण पंडिताचार्य द्वारा विरचित संग्रह - रामायण में शबरी के लिए “अवैदिकी” विशेषण आया है- अवैदिक्यै शबर्यै च दयालुः स्वगतिं ददौ । 5 तस्या भक्त्या भृशं प्रीतो भक्तिर्हि भवमोचनी ॥ (संग्रह-रामायण ३.६.३९) अब पूर्वपक्षी कहीं “स्त्रीशूद्रद्विजबन्धूनां त्रयी न श्रुतिगोचरा” (भागवत पुराण १.४.२५) से स्त्री - मात्र के लिए “अवैदिकी” विशेषण नहीं मान लें, इसके लिए संग्रह - रामायण की भावदीपिका टीका देखते हैं- “वैदिकी न भवतीत्यवैदिकी तस्यै, नीचजातित्वेन वेदवाक्यश्रवणानहार्या इत्यर्थः । " इस टीका से स्पष्ट है कि “अवैदिकी” का अर्थ नीच जाति (शबर जाति) में उत्पन्न स्त्री है, जिसे वेदवाक्य के श्रवण का अधिकार नहीं था। यदि “वैदिक” का शाब्दिक अर्थ “वैदिक कर्म में अधिकृत” मानें तो ब्राह्मण-कन्या विवाह-रूपी व्रतबंध के पूर्व विहित सभी वैदिक संस्कारों में और विवाह के पश्चात् पति के साथ गृहस्थाश्रम के सभी वैदिक कर्मों में अधिकृत है। अतः ब्राह्मणी-मात्र के लिए “ अवैदिकी” विशेषण का प्रयोग अनुचित है। किंतु शबरजातीया स्त्री किसी वैदिक कर्म में अधिकृत नहीं है, अतः उसके लिए “ अवैदिकी” विशेषण सार्थक है।

३. भुशुण्डि - रामायण के प्रमाण

इस मत की पुष्टि भुशुण्डि - रामायण से भी हो जाती है, जहाँ शबरी के वर्णन से यह स्पष्ट है कि वे शबर अर्थात् भिल्ल जाति की स्त्री थी। भुशुण्डि - रामायण में शबरी के लिए आए १३ विशेषण द्रष्टव्य हैं १.“भिल्लसुन्दरी” (२.१६५.५) २.“भिल्लजातिजा” (२.१६५.१०) ३.“भिल्लजातीया” (२.१६६.८) ४. “शबराङ्गना” (२.१६६.१७) ५. “भिल्लपुरन्ध्री” (२.१६५.१३) ६. “भिल्ली” (२.१६६.२२) ७. “शबरसुन्दरी” (२.१६६.२४, २.१६८.२०) ८. “भिल्लपत्नी” (२.१६८.१४) 6 ९. “किराती” (२.१७०.४, २.१७०.८) १०. “किरातजा” (२.१७०.१०) ११. “भिल्लजातिः” (२.१७१.२०) १२. “किरातिनी” (२.१७१.३३, २.१७२.२०, २.१७२.३५, २.१७२.३९) १३. “किरातवंशप्रभवा” (२.१७२.५१) इन विशेषणों से संशय का कोई स्थान शेष नहीं रहता। भुशुण्डि रामायण के शबरी - प्रसंग के उपसंहार में आया यह श्लोक भी शबरी के किरात वंश में उत्पन्न होने की पुष्टि करता है - जात्या निषिद्धा क्रिययाऽपि हीना किरातवंशप्रभवाऽपि सा स्त्री । सीतापतेर्भक्तिभरप्रभावाद् बभूव मान्या नितरां मुनीनाम् ॥ (भुशुण्डि - रामायण २.१७२.५१) शबरी का शबरजातीया होना ऐसी सर्वविदित बात थी कि गोस्वामी तुलसीदास ने विनयपत्रिका (१८३.२) में इनका दृष्टांत दिया है- गीध को कियो सराध, भीलनी को खायो फल, सोऊ साधु-सभा भलीभाँति भनियत है। विचारणीय है कि वाल्मीकीय रामायण के तीन प्राचीन टीकाकार (गोविंदराज, महेश्वर तीर्थ, और माधव योगी), विष्णुधर्म-पुराण, स्वामी वेदांतदेशिक, आचार्य अप्पय दीक्षित, भुशुंडि रामायण और गोस्वामी तुलसीदास - इन सबकी निर्विवाद परंपरा की उपेक्षा करना कहाँ तक उपयुक्त है?

४. श्रमणी

शबरी को ब्राह्मणी बताने वाले पूर्वपक्षी का तर्क वाल्मीकीय रामायण में शबरी के लिए आए चार विशेषणों पर आश्रित है - श्रमणी, तपस्विनी, तपोधना और चीरकृष्णाजिनाम्बरा । अतः इन विशेषणों में हम सर्वप्रथम “श्रमणी " शब्द पर विचार करते हैं। यद्यपि आज “श्रमण” शब्द बौद्ध और जैन परिव्राजकों के लिए प्रयुक्त होता है, तथापि वैदिक वाङ्मय में “श्रमण” का सामान्य अर्थ “तपस्वी” है। तैत्तिरीय आरण्यक (२.७.१) में “ श्रमण ” शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख प्राप्त होता है- “वातरशना ह वा ऋषयः श्रमणा ऊर्ध्वमन्थिनो बभूवुस्तानृषयोऽर्थमायंस्ते…।” उपर्युक्त श्रुति-वाक्य में तीन प्रकार के ऋषियों का उल्लेख है - १. वातरशन - वायु को ही मेखला के रूप में धारण करने वाले दिगंबर, २. ऊर्ध्वमन्थी - स्वर्गादि लोकों का उत्क्रमण करने वाले अथवा ब्रह्मचर्य के द्वारा अगले आश्रम (गृहस्थाश्रम) को मथ देने वाले ऊर्ध्वरेता, ३. श्रमण - भट्ट भास्कर के भाष्य के अनुसार “ श्रमण " का एक अर्थ “महातपस्वी ” है - “ श्रमणाः श्रमवन्तः महातपसः”। दूसरा अर्थ “परिश्रमशील” है - “यद्वा श्रमेः छान्दसो युच्, श्रमशीला श्रमणाः”। सायण के भाष्य के अनुसार “ श्रमण” का अर्थ " तपस्वी” है। “श्रमण” शब्द बृहदारण्यकोपनिषद् (४.३.२२) में “ तापस” के साथ आया है.

“श्रमणोऽश्रमणस्तापसोऽतापसः” । इस उपनिषद्वाक्य पर शांकर भाष्य के अनुसार “ श्रमण” का अर्थ “परिव्राजक ” और “ तापस” का अर्थ “वानप्रस्थ” है। वाल्मीकीय-रामायण (१.१.८) में भी एक स्थान पर “ श्रमण ” शब्द आया है- ब्राह्मणा भुञ्जते नित्यं नाथवन्तश्च भुञ्जते । तापसा भुञ्जते चापि श्रमणा भुञ्जते तथा ॥ 8 यहाँ विभिन्न टीकाकारों ने “ श्रमण” के चार अर्थ उपस्थापित किए हैं- १. दिगम्बर २. संन्यासी ३. बौद्धसंन्यासी ४. संसार का परित्याग करने वाले शूद्र यदि “ श्रमण” का अर्थ ही “संसार का त्याग करने वाले शूद्र” ले लिया जाए तब तो शबरी को “श्रमणी” अभिधान से शूद्र ही मानना पड़ेगा। ध्यातव्य है तिलक और अमृतकतक टीकाओं के अनुसार उपर्युक्त श्लोक में " तापस” का अर्थ शैव आदि मार्गों में दीक्षित शूद्र है। 7 आगे चलकर ब्राह्मण और श्रमण परस्पर विरोधी धार्मिक समुदायों के रूप में प्रसिद्ध हुए। पतंजलि ने महाभाष्य में “येषां च विरोधः शाश्वतिक इत्यस्यावकाशः श्रमणब्राह्मणम्” लिखकर इस प्रबल स्पर्धा का उल्लेख किया है। उपर्युक्त प्राचीन प्रमाणों के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि “ श्रमण " शब्द का रामायण- कालीन और सामान्य अर्थ " तपस्वी” ही था। यह भी स्पष्ट है कि भारतीय इतिहास में श्रमणों की एक विशिष्ट परंपरा रही है, जो यज्ञानुष्ठान में प्रवृत्त गृहस्थों की परंपरा से भिन्न है। वाल्मीकीय-रामायण (१.१.४६, ३.६९.१९, ३.७०.७) में शबरी को प्रायः “ श्रमणी” कहा गया है । आचार्य गोविन्दराज के अनुसार “ श्रमणी” का अर्थ “परिव्राजिका” है, जो संन्यासाश्रम में स्थित थी ।’ यहाँ प्रश्न उठता है कि यदि शबरी शबर जाति में उत्पन्न हुई थीं तो उन्हें संन्यासाधिकार कैसे प्राप्त था? कई 3 “श्रमणाः दिगम्बराः, ‘श्रमणा वातवसनाः’ इति निघण्टुः - गोविन्दराज 4 ““चतुर्थमाश्रमं प्राप्ताः श्रमणा नाम ते स्मृताः’ इति स्मृतिः” - गोविन्दराज; “ श्रमणाः चतुर्थाश्रमं प्राप्ताः " - महेश्वर तीर्थ; “श्रमणाः सन्यासिनः " - शिवसहाय ; “ श्रमणपदं सन्यास्युपलक्षणम्” - नागेशभट्ट 5 “श्रमणा बौद्धसन्यासिनः " - नागेशभट्ट “ “श्रमणाः त्यक्तपुत्रभृत्यादिसंसाराः काषायाम्बराः शूद्रविशेषाः” - अमृतकतक 7 “तापसा अदासाः शैवादिमार्गमाश्रिताः शूद्राः” - तिलक; “शैवमार्गगाः शूद्राः ” - अमृतकतक 8 पाणिनि-सूत्र (२.४.१२) पर महाभाष्य । १ “श्रमणीं परिव्राजिकाम्, ‘चतुर्थाश्रमं प्राप्ताः श्रमणा नाम ते स्मृताः’ इति स्मरणात्” - गोविन्दराज 9 मतों में क्षत्रियों और वैश्यों को भी संन्यास का अधिकार नहीं है। किंतु यदि शबरी ब्राह्मणी होती तब भी यह प्रश्न यथावत् बना रहता, क्योंकि पूर्वपक्षी के अनुसार स्त्रियों के लिए भी विधिपूर्वक संन्यास लेने का विधान नहीं है। यदि शबरजातीया शबरी को संन्यासाधिकार नहीं है तो ब्राह्मणी शबरी को भी नहीं है। यहाँ पूर्वपक्षी के शिष्यों को अपवाद का आश्रय लेकर कहना पड़ता है कि पुराकल्प की ब्रह्मवादिनियों के ही समान शबरी ने भी संन्यासाश्रम में प्रवेश किया था। तब प्रतिप्रश्न उठता है कि यदि ब्राह्मणी शबरी के लिए अपवाद है तो शबरजातीया शबरी के लिए क्यों नहीं? निषेध दोनों के लिए और अपवाद केवल एक के लिए! आह, रामायण-मीमांसक को यहाँ सावधान हो जाना चाहिए कि कहीं वे शबरी को ब्राह्मणी सिद्ध करने के प्रकल्प में स्त्रियों के वेदाधिकार और संन्यासाधिकार को भी स्वीकार न कर बैठें। दूसरा तर्क यह मिलता है कि स्त्रियों के लिए वैधव्य अथवा पति से संबंध का त्याग ही संन्यास है। यह बात तो और भी विलक्षण है, क्योंकि एक ओर पूर्वपक्षी विधवा - मात्र को संन्यासिनी कहने के पक्षधर हो रहे हैं तो दूसरी ओर स्त्रियों के द्वारा पति का परित्याग कर संन्यास लेने का विधान कर रहे हैं! अपनी जीवन-भर की विचारधारा से प्रतिज्ञा- संन्यास लेने का इससे बड़ा उदाहरण और क्या होगा? इन सब तर्क-वितर्कों का समाधान करने के लिए हम “ श्रमण" के प्राचीन अर्थ “तपस्वी" का आश्रय लेते हैं। रामायण के तीन टीकाकार इस व्याख्या से सहमत हैं। महेश्वर तीर्थ लिखते हैं कि शबरी अपनी इंद्रियों को वश में रखकर मोक्ष के उपयुक्त आचरण में निष्ठ रहती थीं - “ श्रमणी चतुर्थाश्रमं प्राप्ताम्, जितेन्द्रियत्वपूर्वकमोक्षोपयुक्ताचारनिष्ठामित्यर्थः।” शिवसहाय ने भी “श्रमणी " का अर्थ " तपस्विनी” माना है, न कि विधिपूर्वक संन्यासाश्रम ग्रहण करने वाली स्त्री। माधव योगी “ श्रमणी " का अर्थ केवल " तापसी” करते हैं। अतः इन तीन टीकाओं के आधार पर हमें शबरी को आतुर - संन्यास में स्थित, विरक्त और शम - दमादि मोक्ष के साधनों में निरत मानना चाहिए। अन्यथा यदि “ श्रमणी ” शब्द से विधिवत् संन्यास ग्रहण करने वाली स्त्री ही अभिप्रेत हो, तब भी आगम और तंत्र शास्त्रों में इसका विधान है। विवादरत्नाकर में चंडेश्वर लिखते हैं कि यद्यपि श्रुति और स्मृति के विधान में शूद्रों को संन्यास का अधिकार नहीं है, तथापि शैवागमों में इसका प्रावधान है और राजा को ऐसे परिव्राजकों का पालन करना चाहिए। 10 महानिर्वाण तंत्र में भी शूद्र के लिए कौल संन्यास ग्रहण करने की विधि है। 10 “प्रव्रज्या उत्तराश्रमपरिग्रहरूपा, सा च यद्यपि श्रुतिस्मृतिभ्यां शूद्रस्य नोक्ता, तथापि शैवागमोक्तामपि तां गृहीत्वा यस्त्वेष शूद्रः प्रव्रज्यावसितः । श्रुतिस्मृत्यनुक्ता अपि शैवादिवर्णा राज्ञा परिपाल्या एव । ” - विवादरत्नाकर 10एक अन्य मत के अनुसार शबरी का नाम ही “ श्रमणा” अथवा “श्रमणी " था। इस मत के संकेत हमें महाकवि भवभूति के नाटकों में मिलते हैं, जहाँ दो स्थानों पर शबरी का नाम “श्रमणा” (“ श्रमणा”) बताया गया है-

“ तत्र श्रमणी नाम सिद्धा शबरतापसी”
(उत्तररामचरित १)

अहं हि श्रमणा नाम सिद्धा शबरतापसी ।
मतङ्गाश्रमवास्तव्या रामान्वेषिण्युपागता ॥
(महावीरचरित ५.२७)

यदि शबरी का नाम ही “ श्रमणी ” मानें, तब भी संन्यासाधिकार का प्रश्न शेष नहीं रहता है। किंतु वाल्मीकीय-रामायण (३.७०.१९) की उक्ति “श्रमणी शबरी नाम” को वरीयता देते हुए हम “शबरी” को ही नाम मानें और “श्रमणी” को उनका विशेषण। तब यहाँ “शबरी” का अर्थ “तपस्विनी” ही स्वीकार्य है। क्या शबरी को तपस्या करने का अधिकार था और उनकी तपस्या कैसी थी ? - इसपर हम अगले भाग में विचार करेंगे।

५. तपस्विनी

अब हम वाल्मीकीय-रामायण में शबरी के लिए प्रयुक्त दो अन्य विशेषणों पर विचार करते हैं - “तपस्विनी” और “तपोधना” । इन विशेषणों से संबद्ध एक प्रश्न उठता है - क्या शबरी को तपस्या करने का अधिकार था ? गीता (१७.१४-१६) के अनुसार तप तीन प्रकार का होता है - शारीर, वाङ्मय और मानस। इनके निम्नलिखित आयाम हैं- 11 १. शारीर - देवता, गुरु, द्विज और विद्वान् की पूजा, शुचिता, सरलता, ब्रह्मचर्य, अहिंसा २. वाङ्मय - अनुद्वेगकर, सत्य, प्रिय, और हितकर वाक्य बोलना; स्वाध्याय और अभ्यास करना ३. मानस - मन की प्रसन्नता, सौम्यता, मौन, आत्म-निग्रह और भावों की शुद्धि । क्या उपर्युक्त में से कोई तप ऐसा है, जिसे केवल ब्राह्मण अथवा त्रैवर्णिक ही कर सकते हैं? क्या कोई ऐसा है जिसे करने का अधिकार केवल पुरुषों को है? नहीं, प्रत्युत उपर्युक्त त्रिविध तपस्या को करने का अधिकार मानव मात्र को है। केवल “स्वाध्याय” के विषय में संशय हो सकता है, क्योंकि उसका विशिष्ट अर्थ वेदाध्ययन है। वेदाधिकार के अभाव में पंचम वेद स्वरूप इतिहास - पुराण का अध्ययन, स्तोत्र आदि भक्ति - साहित्य का अनुशीलन अथवा केवल भगवन्नाम का जप भी स्वाध्याय कहलाता है। शबरी के प्रसंग में उनके गुरु मतंग मुनि द्वारा दिए गए गुरु-मंत्र के जप को स्वाध्याय मानना चाहिए। इसका क्या प्रमाण है कि शबरी ब्राह्मणेतरों के लिए अविहित और शास्त्र - विरुद्ध उग्र तप न करके उपर्युक्त त्रिविध तप का आचरण करती थीं? इसका प्रथम प्रमाण तो यह है कि शबरी श्रीराम के अनुग्रह और सम्मान का पात्र बनीं। दूसरा प्रमाण वाल्मीकीय रामायण (३.७०.७-८) में श्रीराम द्वारा शबरी से पूछे गए सात कुशल-प्रश्न हैं- तामुवाच ततो रामः श्रमणीं संशितव्रताम् । कच्चित्ते निर्जिता विघ्नाः कच्चित्ते वर्धते तपः ॥ कच्चित्ते नियतः कोप आहारश्च तपोधने । कच्चित्ते नियमाः प्राप्ताः कच्चित्ते मनसः सुखम् । कच्चित्ते गुरुशुश्रूषा सफला चारुभाषिणि ॥ अर्थात् “तब श्रीराम ने उस संयमित व्रत वाली श्रमणी से कहा - हे चारुभाषिणी! क्या आपने विघ्नों को जीत लिया है? क्या आपका तप बढ़ रहा है? क्या आपके क्रोध और आहार नियंत्रण में हैं? क्या आपने नियमों का पालन किया है? क्या आपके मन में सुख है? क्या आपकी गुरुसेवा सफल हुई है?” इन प्रश्नों में तप के विविध अंगों का समावेश है। 12 १. क्रोध पर नियंत्रण - यह मन की सौम्यता का लक्षण है। २. आहार पर नियंत्रण - “आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः” (छांदोग्योपनिषद् ७.२६.२) के श्रुतिवाक्य के अनुसार आहार की शुद्धि से भावों की शुद्धि प्राप्त होती है, जो मानस तप का अंग है। ३. नियमों का पालन - पातंजल योगदर्शन ( २.३२ ) के अनुसार नियम पाँच हैं - शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान । ये भी गीता द्वारा प्रदत्त तप की परिभाषा में समाहित हैं। ४. मन की प्रसन्नता ५. गुरुसेवा

इस प्रकार यदि देह, वचन और मन से तपस्या में निरत रहने के कारण शबरी को “तपस्विनी” और “ तपोधना” कहा जाए तो उसमें क्या अनुचित है? कर्तव्य पालन, सदाचरण और आत्म-संयम-रूपी तपस्या करने का अधिकार सभी को है। शास्त्रों के अनुसार सत्य का आचरण ही परम तप है- “सत्यमेव परं तपः” (नारदस्मृति २.१.१९७, पद्मपुराण ६.२७.१९, विष्णुधर्मोत्तर - पुराण ३.२६५.१) । अहिंसा भी सर्वोच्च तप है - " अहिंसा परं तपः” ( महाभारत १३.१९३.२५) । क्षमा को भी तप कहा गया है - “क्षमा तपः” (महाभारत ३.३०.३७) । इन स्मृति-वाक्यों के आधार पर हम आजीवन सत्य, अहिंसा और क्षमा का आचरण करने वाले को भी तपस्वी कहेंगे । यहाँ तक कि अपने-अपने वर्णाश्रमोचित धर्म का पालन करना भी तप है-

ब्राह्मणस्य तपो ज्ञानं तपः क्षत्रस्य रक्षणम् । वैश्यस्य तु तपो वार्ता तपः शूद्रस्य सेवनम् ॥ (मनुस्मृति ११.२३५) एतदनुरूप शबरी द्वारा की गई अपने गुरु मतंग मुनि की शुश्रूषा और वनवासी मुनियों की सेवा भी तप ही है - तेषामद्यापि तत्रैव दृश्यते परिचारिणी । 11 “धर्मचारिणीं गुरुशुश्रूषादिधर्माचरणशीलाम् आचार्याभिमानरूपचरमपर्वनिष्ठामित्यर्थः ‘पादमूलं गमिष्यामि यानहं पर्यचारिषम्’ इति वक्ष्यमाणत्वात् ” - गोविन्दराज 13 श्रमणी शबरी नाम काकुत्स्थ चिरजीविनी ॥ (वाल्मीकीय-रामायण ३.६९.१९) तेषामिच्छाम्यहं गन्तुं समीपं भावितात्मनाम् । मुनीनामाश्रमो येषामहं च परिचारिणी ॥ (वाल्मीकीय-रामायण ३.७०.२४) तपश्चर्या पर किसी वर्ण का एकाधिकार नहीं है । इतिहास - पुराणों में अनेक पुरुष - स्त्रियों को “तपस्वी” अथवा “तपस्विनी” कहा गया है, जिनमें श्रवण कुमार 2, उनकी माता’, कौसल्या, देवी सीता, कुंती, गांधारी, द्रौपदी, सत्यभामा, उत्तरा, और अम्बा भी सम्मिलित हैं। इनमें से प्रथम वैश्य, द्वितीय शूद्र और शेष क्षत्रिय वर्ण के हैं। शब्दापशब्दविवेक का तर्क है कि शबरी शूद्रा इसलिए नहीं थीं क्योंकि उनकी तपस्या से किसी की अकाल-मृत्यु नहीं हुई।14 यह मत निस्संदेह ही अपरिपक्व है क्योंकि एक व्यक्ति के सदाचार को किसी अन्य की अकाल-मृत्यु का कारण मानना युक्तियुक्त नहीं है। यदि शबरी शास्त्र - विरुद्ध उग्र तप कर रही होतीं तब उनके आचरण को सदाचरण नहीं, दुराचरण कहा जाता । दुराचरण से ही लोगों की क्षति होती है, सदाचरण से नहीं ।

शुक्ल यजुर्वेद में शूद्र को तप को समर्पित बताया गया है। यहाँ तप का अर्थ अशास्त्रीय अथवा उग्र कृच्छ्र आदि कर्म नहीं, अपितु श्रमपूर्वक कर्तव्य पालन है। 15 जैसा कि हम ऊपर देख चुके हैं, वाल्मीकीय-रामायण की कुछ टीकाओं के अनुसार शैव आदि मार्गों में दीक्षित शूद्रों के लिए “ तापस” शब्द आया है। दीक्षा के अनंतर शूद्रेतर अंत्यजों के लिए भी “ तापस” शब्द का प्रयोग करने में कोई 12 “वैश्योऽहं तपसि स्थितः” (अध्यात्मरामायण ७.२७) 13 “इमामन्धां च वृद्धां च मातरं ते तपस्विनीम्” (वाल्मीकीय रामायण, २.६४.३६) 14 “शूद्रातापस्यफलस्वरूपे क्वचिद्रामायणेऽकालमृयुर्वक्तव्य आसीत्स च नोक्त इति शबरी शूद्रा नेति कश्चित्” (शब्दापशब्दविवेक १६०) 15 “ब्रह्मणे ब्राह्मणं क्षत्राय राजन्यं मरुद्भ्यो वैश्यं तपसे शूद्रं तमसे तस्करं नारकाय …” (शुक्लयजुर्वेद ३०.५) 14 विप्रतिपत्ति नहीं है। एतदनुरूप भी शबरी के लिए प्रयुक्त “तापसी” का औचित्य सिद्ध किया जा सकता है- रामेण तापसी पृष्टा सा सिद्धा सिद्धसम्मता । शशंस शबरी वृद्धा रामाय प्रत्युपस्थिता ॥ (वाल्मीकीय-रामायण ३.७०.९) इस प्रकार शबरी को शबरजातीया और तपस्विनी - दोनों मानने में परस्पर विरोध नहीं है। विरोधाभास देखना पूर्वपक्षी की अनभिज्ञता है।

६. चीरकृष्णाजिनाम्बरा

शबरी को ब्राह्मणी सिद्ध करने हेतु तर्कों का कोश लगभग रिक्त देखकर पूर्वपक्षी एक साहसिक तर्क अपनाते हैं। वाल्मीकीय-रामायण में शबरी को “ चीरकृष्णाजिनाम्बरा” अर्थात् कृष्ण-मृगचर्म-धारिणी कहा गया है, जिसके आधार पर पूर्वपक्षी तर्क करते हैं कि शबरी ब्राह्मणी थी क्योंकि कृष्ण- मृगचर्म धारण करने का अधिकार केवल ब्राह्मण को है। इसके लिए पूर्वपक्षी धर्मशास्त्रों का प्रमाण देते हैं । 16 इन प्रमाणों का सार यह है कि उपनयन के समय ब्राह्मण कृष्ण मृग का चर्म, क्षत्रिय रुरु मृग का चर्म और वैश्य अज का चर्म धारण करे । पूर्वपक्षी के अनुसार चूँकि किसी ब्राह्मणेतर को कृष्ण मृगचर्म धारण करने का अधिकार नहीं है, इसलिए शबरी शबरजातीया नहीं, अपितु ब्राह्मणी हैं। 16 “हारिणमैणेयं वा कृष्णं ब्राह्मणस्य…” (आपस्तम्ब धर्मसूत्र १.३.३); “ऐणेयमजिनमुत्तरीयं ब्राह्मणस्य, रौरवं राजन्यस्य, आजं गव्यं वा वैश्यस्य, सर्वेषां वा गव्यमसति प्रधानत्वात्” (पारस्करगृह्यसूत्र २.५.१७-२०); “वाससा संवीतमैणेयेन वाजिनेन ब्राह्मणं रौरवेण क्षत्रियमाजेन वैश्यम्…” (आश्वलायन गृह्यसूत्र १.१९.८); “अथास्मा अजिनं प्रतिमुञ्चन्वाचयति कृष्णाजिनं ब्राह्मणस्य, रौरवं राजन्यस्य, वस्ताजिनं वैश्यस्य, सर्वेषां वा कृष्णाजिनम्” (बौधायन- गृह्यसूत्र २.५.१६) कार्ष्णरौरवबास्तानि चर्माणि ब्रह्मचारिणः । वसीरन्नानुपूर्व्येण शाणक्षौमाविकानि च ॥ (मनुस्मृति २.४१) 15 इस तर्क का प्रत्युत्तर देने से पूर्व यह उल्लेखनीय है कि जब पूर्वपक्षी का संपूर्ण तर्क “चीरकृष्णाजिनाम्बरा” - इस शब्द मात्र पर आश्रित रह गया हो तब उनके तर्क का खंडन निश्चित है। सर्वप्रथम तो वाल्मीकीय रामायण के समीक्षित पाठ में शबरी के लिए “ चीरकृष्णाजिनाम्बरा” विशेषण नहीं मिलता है। यह विशेषण वाल्मीकीय रामायण के गीताप्रेस संस्करण ( ३.७४.३२) में आया है। किंतु कृष्ण-मृगचर्म धारण करने वाले ब्राह्मण ही अकेले नहीं होते। वाल्मीकीय रामायण में वनवास के समय श्रीराम और लक्ष्मण जी को स्थान-स्थान पर कृष्ण - मृगचर्म धारण करने वाला बताया गया है। 7 यहाँ पूर्वपक्षी तर्क देते हैं कि केवल ब्राह्मकर्म के समय ही भगवान् राम कृष्ण - मृगचर्म धारण करते थे। यदि ऐसा सत्य भी हो, तब ही “केवल ब्राह्मण को ही कृष्ण - मृगचर्म धारण करने का अधिकार है” - इस दुराग्रह का स्वतः खंडन हो जाता है। किंतु ऐसा सत्य नहीं है। दंडकारण्य में प्रवेश और वन में विचरते समय भी श्रीराम और लक्ष्मण ने कृष्ण - मृगचर्म धारण किया था। मुनि-वृत्ति का आश्रय लेने वाले भरत जी ने तो १४ वर्षों की संपूर्ण अवधि को कृष्ण - मृगचर्म धारण करते हुए व्यतीत किया। 18 17 तं तु कृष्णाजिनधरं चीरवल्कलवाससं । ददर्श राममासीनमभितः पावकोपमम् ॥ (वाल्मीकीय-रामायण २.९३.२५) तरुणौ रूपसंपन्नौ सुकुमारौ महाबलौ । पुण्डरीकविशालाक्षौ चीरकृष्णाजिनाम्बरौ ॥ (वाल्मीकीय-रामायण ३.१८.११) मानुषौ शस्त्रसंपन्नौ चीरकृष्णाजिनाम्बरौ । प्रविष्टौ दण्डकारण्यं घोरं प्रमदया सह ॥ (वाल्मीकीय-रामायण ३.१८.१८) दीर्घबाहुर्विशालाक्षश्चीरकृष्णाजिनाम्बरः । कन्दर्पसमरूपश्च रामो दशरथात्मजः ॥ (वाल्मीकीय रामायण ३.३२.५) वृक्षे वृक्षे हि पश्यामि चीरकृष्णाजिनाम्बरम् । गृहीतधनुषं रामं पाशहस्तमिवान्तकम् ॥ (वाल्मीकीय रामायण ३.३७.१५) 18 यन्निमित्तमिमं देशं कृष्णाजिनजटाधरः । हित्वा राज्यं प्रविष्टस्त्वं तत्सर्वं वक्तुमर्हसि ॥ (वाल्मीकीय-रामायण २.९७.३) क्रोशमात्रे त्वयोध्यायाश्चीरकृष्णाजिनाम्बरम् । ददर्श भरतं दीनं कृशमाश्रमवासिनम् ॥ (वाल्मीकीय-रामायण ६.११३.२६) न हि ते राजपुत्रं तं चीरकृष्णाजिनाम्बरम् । 16

इस पर पूर्वपक्षी पुनः तर्क देते हैं - “तेजीयसां न दोषाय” (भागवत पुराण १०.३३.२९)। भगवान् तो सर्वसमर्थ हैं, फिर उन्हें कृष्ण- मृगचर्म धारण करने से दोष नहीं लगा। किंतु यदि शबरी ब्राह्मणेतर होकर यही काम करतीं तो उन्हें मर्यादा व्यतिक्रम का दोष अवश्य लगता । अस्तु, रामायण में तो राक्षस मारीच भी कृष्णाजिन धारण करते वर्णित है।" यदि महाभारत का अनुशीलन करें तो एकलव्य", वनवास के समय पांडव “, अश्वमेध यज्ञ के अवसर पर युधिष्ठिर 22 और कौरव पक्ष के कुछ राजाओं 23 ने भी कृष्ण - मृगचर्म धारण किया था। पुराणों में तो अनेक ब्राह्मणेतर कृष्णाजिन धारण करते देखे गए हैं। क्या ये सभी भगवान् राम के समान सर्व-समर्थ थे? परिमोक्तुं व्यवस्यन्ति पौरा वै धर्मवत्सलाः ॥ (वाल्मीकीय-रामायण ६.११३.३१) शुक्ले च वालव्यजने राजार्हे हेमभूषिते । उपवासकृशो दीनश्चीरकृष्णाजिनाम्बरः ॥ (वाल्मीकीय रामायण ६. ११५.१५) 19 तत्र कृष्णाजिनधरं जटावल्कलधारिणम् । ददर्श नियताहारं मारीचं नाम राक्षसं ॥ (वाल्मीकीय-रामायण ३.३३.३७) 20 स कृष्णं मलदिग्धाङ्गं कृष्णाजिनधरं वने । नैषादिं श्वा समालक्ष्य भषंस्तस्थौ तदन्तिके ॥ (महाभारत १.१२३.१८) योऽसौ युवा स्वायतलोहिताक्षः कृष्णाजिनी देवसमानरूपः । यः कार्मुकाग्र्यं कृतवानधिज्यं लक्ष्यं च तत्पातितवान्पृथिव्याम् ।। ( महाभारत १.१८५.२) 21 स दृष्ट्वा पाण्डवान्दूरात्कृष्णाजिनसमावृतान् । आवृणोत्तद्वनद्वारं मैनाक इव पर्वतः ॥ ( महाभारत ३.१२.१५) अमर्षितो हि कृष्णोऽपि दृष्ट्वा पार्थांस्तथागतान् । कृष्णाजिनोत्तरासङ्गानब्रवीच्च युधिष्ठिरम् ॥ (महाभारत ३.४८.१६) 22 कृष्णाजिनी दण्डपाणिः क्षौमवासाः स धर्मजः । विबभौ द्युतिमान्भूयः प्रजापतिरिवाध्वरे ॥ (महाभारत १४.७२.५) कृष्णाजिनोपसंवीतो हृताभरणभूषणः । सार्धं पाञ्चालपुत्र्या त्वं राजानमुपजग्मिवान् । क्व तदा द्रोणभीष्मौ तौ सोमदत्तोऽपि वाभवत् ॥ (महाभारत १५.१७.२०) 23 संनद्धाः समदृश्यन्त स्वेष्वनीकेष्ववस्थिताः । बद्धकृष्णाजिनाः सर्वे ध्वजिनो मुञ्जमालिनः ॥ 17

पूर्वपक्षी का यह कुतर्क - प्रांगण - नर्तन उन्हें कहाँ तक ले जाएगा? सत्य तो यह है कि धर्मशास्त्रों ने जो त्रिविध मृगचर्म का विधान किया है, वह केवल उपनयन संस्कार के लिए है। यदि कोई ब्राह्मणेतर बालक कृष्ण-मृगचर्म पहनकर उपनयन करवाता हो तो उसके कर्म को शास्त्र - विरुद्ध माना जाएगा। किंतु यदि किसी भिन्न अवसर पर अथवा सामान्य व्यवहार में भी कोई कृष्ण-मृगचर्म धारण करे तो उसमें कैसा दोष? इसीलिए इतिहास - पुराणों में क्षत्रिय, निषाद, राक्षस आदि विभिन्न जातियों के लोग कृष्ण-मृगचर्म धारण करते देखे गए हैं। यदि कृष्ण-मृगचर्म पर सार्वत्रिक और सार्वकालिक अधिकार केवल ब्राह्मणों का है, रुरु- मृगचर्म पर क्षत्रियों का और अज-चर्म पर वैश्यों का, तो वनवासी जन क्या पहनेंगे? वनवासियों के अतिरिक्त यदि कोई गड़रिया अथवा चरवाहा अज का चर्म धारण कर ले तो क्या उसे भी पाप लगेगा? और यदि कृष्ण-मृगचर्म पर ब्राह्मणों का सार्वत्रिक और सार्वकालिक एकाधिकार मान भी लिया जाए, तब भी ब्राह्मण स्त्री का अधिकार सिद्ध नहीं होता है । पूर्वपक्षी द्वारा उद्धृत धर्मशास्त्रों के सभी वचन पुरुषों के लिए हैं, स्त्रियों के लिए नहीं । यदि उन वचनों में प्रयुक्त पुरुष - वाचक शब्दों में स्त्रियों का भी समन्वय कर लिया जाए, तब तो पूर्वपक्षी के लिए परम प्रतिज्ञा- संन्यास का संकट प्रकट हो जाएगा। क्या आजीवन स्त्री-उपनयन का विरोध करने वाले पूर्वपक्षी अब धर्मशास्त्रों के उपनयन-संबंधी वचनों से स्त्री-उपनयन को मान्यता देने के लिए प्रस्तुत हैं? शास्त्र और लोक - दोनों की दृष्टि से प्रायः वन में रहने वाले लोग कृष्ण- मृगचर्म धारण करते रहे हैं। तदनुरूप श्रीराम-लक्ष्मण और पांडवों ने अपने-अपने वनवास की अवधि में कृष्ण-मृगचर्म धारण किया था। शबरी भी वनवासिनी थीं। अतः उनका कृष्ण - मृगचर्म धारण करना कोई विलक्षण बात नहीं है। प्रत्युत, केवल एक शब्द की अति मीमांसा कर उन्हें ब्राह्मणी बताना एक नितांत विलक्षण प्रकल्प है जो " न भूतो न भविष्यति !”

७. विज्ञाने अबहिष्कृता

एक अनुयायी पूछते हैं कि यदि शबरी शबरजातीया थीं तो उन्हें “विज्ञान में अबहिष्कृत” (“विज्ञाने अबहिष्कृता”, वाल्मीकीय रामायण ३.७४.१८) क्यों कहा गया है? दूसरे अनुयायी पूछते हैं कि यदि शबरी शूद्र अथवा अंत्यज थीं तो वे मुनियों के आश्रम के समीप कैसे रहती थीं? क्या उनकी उपस्थिति से आश्रम के मुनियों की दिनचर्या में बाधा नहीं पहुँचती होगी? ये दोनों प्रश्न अनुयायी की (महाभारत ६.१६.३७) 18 अपरिपक्व और जातिवादी विचारधारा के परिचायक हैं। सभी तर्कों के निरस्त हो जाने पर इन प्रश्नों को उठाने का अर्थ है यह स्वीकार करना कि आपका मत परिपुष्ट तो है किंतु हमारा मन नहीं मानता।

वस्तुतः इन दोनों प्रश्नों का समाधान वाल्मीकीय रामायण से ही हो जाता है। शबरी के लिए प्रयुक्त दो विशेषण ध्यातव्य हैं - “धर्मचारिणी” (वाल्मीकीय रामायण १.१.४६) और “धर्मनिपुणा” (वाल्मीकीय- रामायण १.१.४६)। यदि इन विशेषणों में प्रयुक्त “धर्म” शब्द पर प्राचीन टीकाकारों की व्याख्याएँ देखें, तो “धर्म” के विविध अर्थ प्रकाशित होते हैं- १. गुरु-शुश्रूषा - आचार्य गोविन्दराज के अनुसार अपने गुरु मतंग मुनि की शुश्रूषा करना ही शबरी का धर्म था, जिसका नित्य पालन करने के कारण वे “धर्मचारिणी” थीं। २. अतिथि-सत्कार - आचार्य गोविन्दराज अतिथि सत्कार रूपी धर्म के सूक्ष्म तत्त्व को जानने के कारण शबरी को “धर्मनिपुणा” मानते हैं | 24 ३. भगवान् की भक्ति - महेश्वर तीर्थ के अनुसार भगवान् की श्रवण-कीर्तन आदि साधनों से भक्ति करने के कारण शबरी “धर्मचारिणी” थीं 125 ४. संपूर्ण सामान्य और विशेष धर्म - महेश्वर तीर्थ के अनुसार शबरी सामान्य और विशेष धर्मों में भी निपुण थीं 126 उपर्युक्त धर्मों का निष्ठापूर्वक पालन करने का शबरी को क्या फल मिला? इसका उत्तर शबरी के लिए प्रयुक्त तीन अन्य विशेषणों से मिल जाता है - “विज्ञाने अबहिष्कृता”, “सिद्धा” और “सिद्धसम्मता” । आचार्य गोविन्दराज के अनुसार “विज्ञाने अबहिष्कृता” का अर्थ है “ तत्त्वज्ञान में अंतरंग ” । जाति से हीन होने पर भी अपने आचार्य (मतंग मुनि) के कृपा प्रसाद से ब्रह्मज्ञान को प्राप्त करने के कारण शबरी को “विज्ञान में अबहिष्कृत" कहा गया है। इस कारण वे भगवान् राम के द्वारा भी आदरणीय थीं। 27 यदि पूर्वपक्षी के अनुयायी इस वृत्तांत पर विश्वास नहीं करते तो क्या वे धर्मव्याध आदि के द्वारा प्राप्त ब्रह्मज्ञान पर भी शंका करते हैं? बौधायन - धर्मसूत्र (१.५.१०.२०) की टीका में गोविंदस्वामी 24 “धर्मे अतिथिसत्काररूपे निपुणां समर्थां धर्मसूक्ष्मज्ञामित्यर्थः। रामः समागमिष्यतीति स्वादूनि फलान्यास्वाद्य परीक्ष्य निक्षिप्तवतीति प्रसिद्धिः ।” - गोविन्दराज 25 “धर्मचारिणीं श्रवणकीर्तनादिभगवद्धर्माचरणशीलाम्।” - महेश्वरतीर्थ 26 “धर्मनिपुणां सामान्यविशेषरूपधर्मनिपुणाम्” - महेश्वरतीर्थ 27 “विज्ञाने विषये, अबहिष्कृताम् अन्तरङ्गभूताम्। जात्या हीनामप्याचार्यप्रसादलब्धब्रह्मज्ञानामिति भगवताप्यादरणीयत्वोक्तिः” - गोविन्दराज 19 शूद्र द्वारा ब्राह्मण आदि की सेवा करने का फल शास्त्र श्रवण बताते हैं। 28 यदि इसी प्रकार इतिहास- पुराणादि के श्रवण से शबरी ने ब्रह्मज्ञान प्राप्त का लिया तो क्या आश्चर्य? उपर्युक्त धर्मों की सूची में सेवा ही प्रधान है। इसी सेवाधर्न में समर्पित रहने के कारण शबरी ने ब्रह्म- संसिद्धि प्राप्त की और “सिद्धा” कहलाईं। स्वयं भगवद्गीता ( १८.४५ ) में भगवान् ने कहा है कि अपने- अपने कर्तव्य में निष्ठ मनुष्य सिद्धि प्राप्त कर लेता है- स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः । स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु ॥ यदि गुरु-सेवा, मुनि-परिचर्या, और अतिथि सत्कार आदि अपने कर्तव्यों के साथ-साथ भगवान् की भक्ति में निमग्न रहने के कारण शबरी भी सिद्ध हो गईं तो इसमें कैसा आश्चर्य है? जो स्वयं “सिद्धा” है, वह “सिद्धसम्मता” अर्थात् सिद्ध मुनियों के द्वारा सम्मानित भी है। यहाँ पूर्वपक्षी के अनुयायी यह प्रश्न करते हैं कि यदि शबरी शूद्र वर्ण में उत्पन्न हुई थीं तो उनके संसर्ग में आश्रम में अध्ययन का कार्य कैसे चलता था? इसके लिए वे आपस्तम्ब धर्मसूत्र का उद्धरण देते हैं- १. “श्मशानवच्छूद्रपतितौ” (आपस्तम्ब धर्मसूत्र १.३.९.९) अर्थात् “श्मशान के समान ही शूद्र अथवा पतित पुरुषों के समीप वेदाध्ययन नहीं करना चाहिए।” २. “शूद्रायां तु प्रेक्षणप्रतिपेक्षणयोरेवानध्यायः” (आपस्तम्ब धर्मसूत्र १.३.९.११) अर्थात् “शूद्र स्त्री को देखने और उसके द्वारा देखे जाने पर अध्ययन नहीं करना चाहिए।” किंतु केवल इतना कह देना ही पूर्वपक्षी के लिए पर्याप्त नहीं है। सर्वविदित है कि धर्मसूत्रों के मतों में वैविध्य है। पूर्वपक्षी को यह सिद्ध करना होगा कि मतंग मुनि के आश्रम के निवासी आपस्तम्ब- धर्मसूत्र के अनुपालक थे। तदनंतर उन्हें यह भी दिखाना होगा कि शबरी वेदाध्ययन के समय आश्रमवासियों के समीप ही विद्यमान रहती थीं। ब्रह्मसंसिद्धि प्राप्त कर लेने पर क्या शबरी इस बंधन 28 “आर्याधिष्ठिता आर्याच्छास्त्रादि शुश्रूशवः” - गोविंदस्वामी ( विवरण टीका) 20के अधीन थीं - यह भी विचारणीय है। जब तक पूर्वपक्षी इन प्रश्नों का उत्तर नहीं दे दें, तब तक आश्रमवासी शिष्ट-महात्माओं के आचरण पर संदेह करने का कोई अवकाश नहीं है। ब्रह्मज्ञानियों के संसर्ग से शबरी को भी ब्राह्मणी मानना एक स्वाभाविक भ्रांति है, जिससे पूर्वपक्षी भी अस्पृष्ट नहीं रहे। मनुस्मृति (१०.१२२ ) में कहा गया है कि पारलौकिक अथवा दोनों (लौकिक और पारलौकिक) श्रेय की प्राप्ति के लिए शूद्र ब्राह्मणों की आराधना करे। जब उसे “ब्राह्मण” की उपाधि प्राप्त हो जाए, तब उसका प्रयोजन सफल हो जाता है- स्वर्गार्थमुभयार्थं वा ब्राह्मणानभिधारयेत् । जातब्राह्मणशब्दस्य सा ह्यस्य कृतकृत्यता ॥ इस श्लोक की टीका में मेधातिथि लिखते हैं कि जब ऐसे कर्तव्यपरायण शूद्र को कहा जाता है कि “यह ब्राह्मण है” तब उसे कृतकृत्य मानना चाहिए। तात्पर्य यह है कि ब्राह्मण के संसर्ग से शूद्र भी सदाचार आदि से युक्त होकर ब्राह्मणवत् प्रतीत होता है। इसमें आश्चर्य नहीं यदि मुनियों के सान्निध्य के कारण ही पूर्वपक्षी शबरी को ब्राह्मणी मानने की भूल कर बैठे हैं। अब मेरे संज्ञान में करपात्री जी और उनके अनुयायियों के संपूर्ण तर्कों का खंडन किया जा चुका है। किंतु “रामायण-मीमांसा” ग्रंथ के नाम के उपयुक्त ही करपात्र - मत का एक मीमांसा - परक खंडन भी अवश्य होना चाहिए। यह अतिरिक्त खंडन हम आगामी भागों में देखेंगे।

८. मीमांसक की मीमांसा

यद्यपि पूर्व में दिए गए प्रमाणों से शबरी के शबर जाति की स्त्री होने में कोई संदेह नहीं रह जाता, तथापि पूर्वपक्षी के एक अन्य तर्क का समाधान करना आवश्यक है। मीमांसा दर्शन के जिस मत से पूर्वपक्षी अपना पक्ष स्थापित करता है, हम उसी से उसके पक्ष का खंडन करेंगे।

श्लोकवार्त्तिक (प्रत्यक्षसूत्र, श्लोक ९) में कुमारिल भट्ट लिखते हैं- “सम्भवत्येकवाक्यत्वे वाक्यभेदस्तु नेष्यते”

अर्थात् जहाँ एक वाक्य का होना संभव हो, वहाँ वाक्य भेद की अपेक्षा नहीं की जाती है। एक से अधिक अवांतर वाक्यों से बने वाक्य को “महावाक्य " कहते हैं। ये अवांतर वाक्य “साकांक्ष” होते हैं, अर्थात् अर्थ का बोध कराने हेतु एक - एक अवांतर वाक्य अन्य अवांतर वाक्यों की आकांक्षा [[21]] रखता है। सभी अवांतर वाक्य मिलकर एक अर्थ का बोध कराते हैं। अवांतर वाक्यों में “एकवाक्यत्व” होता है । “एकवाक्यत्व" का अर्थ है “एकार्थबोधकत्व" । एकवाक्यत्व होने पर वाक्यभेद मानना दोष है। आदि शंकराचार्य ने ब्रह्मसूत्र (३.३.५७) के भाष्य में स्वयं इस तर्क का प्रयोग किया है

“एकवाक्यतावगतौ वाक्यभेदकल्पनस्यान्याय्यत्वात्”।

यदि एक वाक्य दो श्लोकों में विभक्त हो तो प्रत्येक श्लोक को एक अवांतर वाक्य मानना चाहिए। दोनों अवांतर वाक्यों के अंतःसंबंध को समझकर और उनके युग्म को एक वाक्य मानकर ही अर्थ-बोध हो सकता है। इस प्रक्रिया के आधार पर ही श्रीमद्भगवद्गीता (९.३२ ) के निम्न श्लोक का एक विशिष्ट अर्थ किया जा सकता है, जो पूर्वपक्षी को अभीष्ट है-

मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः ।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ॥

पूर्वपक्षी का कहना है कि इस श्लोक में “पापयोनि” शब्द “स्त्री”, “वैश्य” और “शूद्र” - इन तीनों का विशेषण है। यदि ऐसा सिद्ध हो गया तो स्त्री - मात्र को हीनजन्मा सिद्ध किया जा सकेगा । पुनश्च जहाँ- जहाँ शबरी को हीनजन्मा कहा गया है, वहाँ-वहाँ उनके स्त्रीत्व से ही प्रयोजन माना जाएगा, शबरजातीया होने से नहीं । इस प्रकार शबरी के ब्राह्मणी होने का रक्षण हो जाएगा। अब हम पूर्वपक्षी के समान उपर्युक्त श्लोक को एक महावाक्य का अवांतर वाक्य मान लेते हैं। दूसरा अवांतर वाक्य अगला श्लोक है-

किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्याः भक्ता राजर्षयस्तथा ।
अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम् ॥
(श्रीमद्भगवद्गीता ९.३३)

दोनों अवांतर वाक्य निम्नलिखित महावाक्य के अंश हैं-

[[22]]

“हे पार्थ! ये अपि पापयोनयः स्त्रियः वैश्याः तथा शूद्राः स्युः ते अपि मां व्यपाश्रित्य परां गतिं यान्ति, किं पुनः पुण्याः भक्ताः ब्राह्मणाः तथा राजर्षयः ? (तेषां तु परा गतिः सिद्धा एव) । (तस्मात्) अनित्यम् इमं लोकं प्राप्य मां भजस्व ।”

अर्थात् “हे पार्थ! यदि स्त्रियाँ, वैश्य और शूद्र जैसे पापयोनि में जीव भी मेरा आश्रय लेकर परम गति को प्राप्त कर लेते हैं, तो फिर पुण्यात्मा और भक्त ब्राह्मण और राजर्षि - गण निश्चित ही परम गति को प्राप्त करते हैं। अतः इस नश्वर संसार को पाकर मुझे भजो ।” " इस प्रकार प्रथम अवांतर वाक्य के “पापयोनि” स्त्री - वैश्य - शूद्र का संबंध द्वितीय अवांतर वाक्य के “पुण्य” (अर्थात् पुण्ययोनि) ब्राह्मण-राजर्षि से स्थापित हो जाता है। यदि “ पापयोनि” को स्त्री - वैश्य - शूद्र का विशेषण नहीं मानकर पशु आदि अन्य अधम जीवों का द्योतक मानें तो दोनों अवांतर वाक्यों को जोड़ा नहीं जा सकेगा। 29 एकवाक्यता होने पर भी वाक्य भेद का दोष उत्पन्न हो जाएगा। इस दोष के निराकरण हेतु “पापयोनि" को स्त्री - वैश्य शूद्र का विशेषण मानना होगा । अतः स्त्रियों को हीनजन्मा सिद्ध करने के लिए पूर्वपक्षी द्वारा एकवाक्यता का आश्रय लेना आवश्यक है। अब एक अन्य स्थान पर यही प्रक्रिया लगाकर देखते हैं। अध्यात्म रामायण (३.१०.४२-४३) में शबरी-प्रसंग के अंत में दो श्लोक आते हैं- किं दुर्लभं जगन्नाथे श्रीरामे भक्तवत्सले । प्रसन्नेऽधमजन्माऽपि शबरी मुक्तिमाप सा ॥ किं पुनर्ब्राह्मणा मुख्या पुण्याः श्रीरामचिन्तकाः । मुक्तिं यान्तीति तद्भक्तिर्मुक्तिरेव न संशयः ॥ उपर्युक्त श्लोकों से निम्नलिखित महावाक्य बनता है-

29

“पापयोनयः पशुपक्षिसरीसृपादयः (अभिनवगुप्त), “पापयोनयोऽन्त्यजास्तिर्यञ्चो वा जातिदोषेण दुष्टाः” (मधुसूदन सरस्वती), “पापयोनयः स्युः निकृष्टजन्मानोऽन्त्यजादयः” (श्रीधर स्वामी)।

[[23]]

“(प्रसन्ने जगन्नाथे भक्तवत्सले श्रीरामे किं दुर्लभम् ?) सा अधमजन्मा अपि शबरी मुक्तिम् आप, किं पुनः मुख्याः पुण्याः श्रीरामचिन्तकाः ब्राह्मणाः? (ते निश्चयेन) मुक्तिं यान्ति । (इति तद्भक्तिः मुक्तिः एव न संशयः । ) ”

अर्थात्

“(भक्तवत्सल जगन्नाथ श्रीराम के प्रसन्न होने पर संसार में क्या दुर्लभ है?) उस अधमजन्मा शबरी ने भी मुक्ति को प्राप्त कर लिया, फिर श्रीराम का ध्यान करने वाले पुण्यजन्मा मुख्य ब्राह्मण तो निश्चित ही मुक्ति को प्राप्त कर लेते हैं। (उनकी (श्रीराम की भक्ति ही मुक्ति है - इसमें संशय नहीं है।)”

यहाँ प्रथम अवांतर वाक्य (“सा अधमजन्मा…") के “ अधमजन्मा" का संबंध द्वितीय अवांतर वाक्य (“किं पुनः मुख्याः…”) के “मुख्य” और “पुण्य” से है। “मुख्य” के दो अर्थ हो सकते हैं- “मुख्यजन्मा” (अर्थात् “अग्रजन्मा”) और “मुखजन्मा” (अर्थात् “ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न ) । दोनों ही ब्राह्मण वर्ण के गुण हैं। “पुण्य” का अर्थ “पुण्यजन्मा” है। यदि एकवाक्यता मानें तो द्वितीय अवांतर वाक्य के “मुख्याः पुण्याः” को प्रथम अवांतर वाक्य के “ अधमजन्मा" का विपरीत मानना होगा। यह वैपरीत्य वर्ण-गत ही हो सकता है - अवर वर्ण में उत्पन्न शबरी और अग्रिम वर्ण में उत्पन्न ब्राह्मणों के मध्य । यदि शबरी ब्राह्मणी होती और वैपरीत्य लिंग-गत होता तो द्वितीय अवांतर वाक्य में पुण्यजन्मा ब्राह्मणों का उल्लेख अनुपयुक्त होता, क्योंकि ब्राह्मण वर्ण में उत्पन्न होने के कारण ये गुण शबरी में भी पाए जाते। तब एकार्थ-बोध में बाधा उत्पन्न होती और वाक्य भेद का दोष उत्पन्न हो जाता। अतः शबरी और ब्राह्मणों में वर्ण-साम्य नहीं हो सकता है।

अध्यात्म-रामायण (३.१०.१७) में अन्यत्र भी “ हीनजातिसमुद्भवा” जैसे विशेषण शबरी के अवर वर्ण में उत्पन्न होने का समर्थन करते हैं। इस प्रकार अध्यात्म रामायण के संदर्भ में पूर्वपक्षी द्वारा अन्यत्र स्वीकृत एकवाक्यता के कारण भी शबरी ब्राह्मणेतर जाति की स्त्री सिद्ध होती है।

९. रामचरितमानस में भीलजातीया शबरी

अब हम गोस्वामी तुलसीदास द्वारा विरचित रामचरितमानस के शबरी - प्रसंग पर विचार करते हैं। लेख के इस भाग में हम रामचरितमानस के विभिन्न टीकाकारों के मत को देखेंगे। यहाँ इन टीकाकारों को केवल परपक्षखंडन के लिए उद्धृत किया जा रहा है। उद्धृत शब्द टीकाकारों के हैं, मेरे नहीं। मैं किसी जाति अथवा समुदाय को नीचा मानने का पूर्णतः विरोध करता हूँ। 24 गोस्वामी जी ने शबरी के ही द्वारा उनका परिचय इस प्रकार दिलवाया है- अधम ते अधम अधम अति नारी । तिन्ह महँ मैं मतिमंद अघारी ॥ (रामचरितमानस, ३.३५) यद्यपि श्रीराम के प्रति दास्य-भक्ति की पराकाष्ठा पर स्थित शबरी द्वारा कहे गए ये शब्द उनके ही उपयुक्त हैं, तथापि इनसे शबरी की पृष्ठभूमि भी उजागर हो जाती है। उपर्युक्त चौपाई में अपकर्ष का एक क्रम है - अधम, अधमाधम, और अधमाधम से भी अधम । इनमें से तृतीय सोपान “अधमाधम से भी अधम" से तात्पर्य स्पष्ट है - “नारी” । तब प्रश्न उठता है कि शबरी के प्रसंग में “ अधम" और “अधमाधम” के क्या अर्थ हैं? यहाँ मानस के ५ टीकाकारों का मत देखते हैं- १. विजया टीका - “पहिले अधम से जातिहीन कहा। दूसरे अधम शब्द से ‘अघ जन्म महि’ कहा। तीसरा अधम शब्द नारी होने के नाते कहा है । " अर्थात् अधम - जातिहीन, अधमाधम - पापी, अधमाधम से भी अधम - नारी । २. मानस-सिद्धांत-विवरण (तिलक टीका) - " जाति की अधम तो पहले ही कह चुकी है कि भील की जाति अधम है। उन अधर्मी में भी मैं अधम हूँ, अर्थात् जाति से भी निकाली हुई भ्रष्ट हूँ, यथा - ‘जाति हीन अघ जन्म महि’ (दो° ३६); अथवा नारी होने से मैं अधम हूँ फिर मैं तो वर्णसंकर जाति में हूँ, इससे अति अधम हूँ । ” अर्थात् अधम - वर्णसंकर, अधमाधम - जाति - बहिष्कृत, अधमाधम से भी अधम - नारी । जड़ ३. भावार्थबोधिनी टीका - “हे प्रभु, अत्यंत जड़ बुद्धि वाली अधम जाति में उत्पन्न हुई मैं आपकी स्तुति कैसे कर सकती हूँ? मैं वर्ण से अधम, आश्रम से अधम और कुल से अत्यंत अधम नारी हूँ । ” 25 अर्थात् अधम - वर्ण से अधम, अधमाधम आश्रम से अधम, अधमाधम से भी अधम - कुल से अधम।

४. बालविनोदिनी टीका “हे महाराज रामचंद्र जू मैं अधम से महा अधम नीच जाति शबर स्त्री, फिर तो मैं अति ही मतिमंद मूर्खा हूँ।”

अर्थात् अधम - अधम जाति में उत्पन्न, अधमाधम समस्त अधम जातियों में भी शबर जाति में उत्पन्न, अधमाधम से भी अधम - नारी ।

५. मानस-पीयूष टीका - “जाति से अधम पहले कह चुकीं । भील की जाति अधम कही गई है; यथा ‘जासु छाँह हुइ लेइय सींचा’, ‘जे बरनाधम तेलि कुम्हारा। श्वपच किरात कोल कलवारा ॥’ (७।१००)। अब कहती है कि मैं अधम से भी अधम हूँ, अर्थात् अपनी जाति में भी भ्रष्ट हूँ, यथा ‘जातिहीन अघजन्म महि… ।” अर्थात् अधम - अधम जाति में उत्पन्न, अधमाधम - अपनी जाति में भ्रष्ट, अधमाधम से भी अधम - नारी । इस प्रकार रामचरितमानस के सभी प्रमुख टीकाकारों ने इस चौपाई से उत्तरोत्तर अपकर्ष का अर्थ लिया है। वस्तुतः सभी ने प्रथम " अधम" का अर्थ " जाति से अधम” माना है। आगे चलकर मानस (३.३६) में शबरी-प्रसंग का सारांश - स्वरूप यह अंतिम दोहा भी इस बात की पुष्टि कर देता है - जाति हीन अघ जन्म महि मुक्त कीन्हि असि नारि । महामंद मन सुख चहसि ऐसे प्रभुहि बिसारि ॥ यहाँ भी अपकर्ष का पहला सोपान जाति - हीनता ही है। जिस प्रकार वाल्मीकीय रामायण की प्राचीन टीका-परंपरा में किसी टीकाकार ने शबरी को ब्राह्मणी नहीं माना है, उसी प्रकार रामचरितमानस की अर्वाचीन टीका-परंपरा में भी किसी ने यह तर्क नहीं दिया है। परंपरा में सर्वत्र मतैक्य है। अतः शबरी को ब्राह्मणी मानना ही परंपरा - बाह्य है। 26

१०. कुछ मूलभूत प्रतिप्रश्न

“रामायण-मीमांसा” करपात्री जी की प्रसिद्ध रचना है। अत्यधिक पुनरावृत्ति के कारण इस ग्रंथ का कलेवर बहुत बृहत् हो गया है। संभवतः इसी कारण “रामायण-मीमांसा” को आद्योपांत पढ़ने वाले पाठक दुर्लभ हैं। ग्रंथ में जो बुल्के का खंडन किया गया है, वह सम्मान्य है। किंतु जहाँ स्खलन हुआ है, क्या वह भी सुधीजनों के लिए ध्यातव्य नहीं है? “रामायण-मीमांसा” में भुशुण्डि - रामायण का उल्लेख ६ बार किया गया है। प्रत्येक अवसर पर भुशुण्डि- रामायण का नाम आदर सहित लिया गया है। कहीं भी इसे अप्रामाणिक नहीं माना गया है, प्रत्युत इस ग्रंथ से प्रमाण दिए गए हैं। किंतु शबरी की कथा का सर्वाधिक विस्तृत निरूपण जिस रामायण में मिलता है, शबरी को ब्राह्मणी दर्शाने के पूर्व उसी भुशुण्डि - रामायण की उपेक्षा की गई है। भुशुण्डि- रामायण के आठ अध्यायों में निबद्ध शबरी - प्रसंग भक्ति और माधुर्य से परिपूर्ण किसी खंडकाव्य के समान है। इस ग्रंथ में शबरी को पौनःपुन्येन शबरजातीया बताया गया है। जब पूर्वाचार्य - परंपरा और जनश्रुति भी इसी पक्ष में है, तब संशय का कोई स्थान शेष नहीं रहता । फिर भी करपात्री जी द्वारा ऐसे पुष्ट प्रमाणों की उपेक्षा आश्चर्य का विषय है। करपात्री जी के अनुयायी गंगाधर पाठक तो आगे बढ़कर भुशुण्डि - रामायण को परवर्ती-कालीन, अप्रसिद्ध और रसिक - संप्रदाय - विशेष का ग्रंथ बताते हैं। सरल शब्दों में कहें तो पाठक जी के अनुसार भुशुण्डि रामायण अप्रामाणिक है। यह तो और भी चिंतनीय है। जिस प्रकार करपात्री जी अन्यान्य पूर्वाचार्यों की निर्विवाद परंपरा के विरुद्ध मत का प्रतिपादन कर रहे हैं, उसी प्रकार पाठक जी भी अपने ही आचार्य द्वारा प्रामाणिक माने गए ग्रंथ को अप्रामाणिक बता रहे हैं। निश्चय ही एक दुराग्रह अन्य दुराग्रहों को जन्म देता है। पं° गंगाधर पाठक भुशुण्डि - रामायण को १९ वीं शताब्दी की रचना बताते हैं। किंतु यह स्वीकार करना कठिन है क्योंकि ग्रंथ की भाषा और शैली में ऐसा कुछ नहीं दीखता जो इसे आनन्दरामायण के बहुत बाद का सिद्ध कर सके। “ निश्चलानंद सरस्वती जी इस प्रसंग के निर्धारण में भुशुण्डि - रामायण से इतर रामायणों के उद्धरण देने में संकोच नहीं करते हैं। अपने “ आक्षेपपरिहार - तत्त्वप्रकाश” (पृष्ठ १६) में वे आनन्द - रामायण (राज्यकांड, पूर्वार्ध, ३.४४) का एक श्लोकार्थ उद्धृत करते हैं- “न सा दासी तु शबरी मुनिसेवनतत्परा” । इसी आधार पर वे शबरी को शूद्रा नहीं मानते हैं । किंतु यह तर्क भी बड़ा विस्मयास्पद है। आनन्द- रामायण में यह श्लोकार्ध दो वैष्णवों - रामदास और कृष्णदास के मध्य चले माधुर्यपूर्ण विवाद में आया है। दोनों वैष्णव भक्त अपने - अपने इष्ट को सर्वोच्च बताना चाहते हैं, किंतु अंततः श्रीराम और श्रीकृष्ण में अभेद-दर्शन की अवस्था को प्राप्त करते हैं। जब कृष्णदास आक्षेप करते हैं कि श्रीराम तो 27 एक दासी के द्वारा पूजित हुए थे (“दास्या प्रपूजितः “), तब रामदास कहते हैं कि शबरी दासी नहीं, अपितु मुनिजनों की सेवा में तत्पर रहने वाली स्त्री थीं। रामदास के इस वचन से शबरी “ अशूद्रा” कैसे सिद्ध हो सकती है? यह तभी संभव है जब पूर्वपक्षी “दासी” को “शूद्रा” का पर्याय सिद्ध कर दें। किंतु क्या ऐसा हो सकता है? वाल्मीकीय रामायण में ही लक्ष्मण, भरत और हनुमान् जी ने भी स्वयं को श्रीराम का दास बताया है । 30 क्या केवल “दास” कहलाए जाने से ये तीनों महापुरुष शूद्र सिद्ध हो जाते हैं? वस्तुतः नारद-स्मृति (५.२४-२६) के अनुसार दास १५ प्रकार के होते हैं- गृहजातस्तथा क्रीतो लब्धो दायादुपागतः । अनाकालभृतस्तद्वदाहितः स्वामिना च यः ॥ मोक्षितो महतश्चर्णात्प्राप्तो युद्धात्पणे जितः । तवाहमित्युपगतः प्रव्रज्यावसितः कृतः ॥ भक्तदासश्च विज्ञेयस्तथैव वडवाभृतः । विक्रेता चात्मनः शास्त्रे दासाः पञ्चदशा स्मृताः ॥ १. घर में उत्पन्न २. ख़रीदा गया ३. कहीं से पाया गया 30 यो मे भ्राता पिता बन्धुर्यस्य दासोऽस्मि धीमतः । तस्य मां शीघ्रमाख्याहि रामस्याक्लिष्टकर्मणः । (वाल्मीकीय-रामायण २.६६.२६) । प्रसादं कुरु मे क्षिप्रं वश्यो दासोऽहमस्मि ते । नेमाः शून्या मया वाचः शुष्यमाणेन भाषिताः || (वाल्मीकीय रामायण ३.५३.३३) दासोऽहं कोसलेन्द्रस्य रामस्याक्लिष्टकर्मणः । हनुमाञ्शत्रुसैन्यानां निहन्ता मारुतात्मजः || (वाल्मीकीय-रामायण ५.४१.७) 28 ४. उत्तराधिकार में मिला ५. दुर्भिक्ष में पोषित किया गया ६. स्वामी के द्वारा बंधक बनाया गया ७. महान् ऋण से छुड़ाया गया ८. युद्ध में पाया गया ९. दाँव में जीता गया १०. स्वयं दास बनने आया ११. संन्यासाश्रम से भ्रष्ट १२. कुछ काल अथवा प्रयोजन के पूर्ण होने तक दास १३. अन्न-मात्र के लिए बना दास १४. दासी के लोभ से बना दास १५. स्वयं को बेचनेवाला अब उपर्युक्त परिभाषा के अनुसार शबरी किसी प्रकार भी दासी नहीं सिद्ध होती है। वे दासत्व में बँधे बिना ही स्वेच्छा से वनवासी मुनियों की सेवा करती थीं। सामान्यतः सेवा करने मात्र से कोई दास नहीं हो जाता। गौतम - धर्म-सूत्र (१०.६५) के अनुसार सभी वर्गों को उत्तरोत्तर वर्णों की सेवा करनी चाहिए - “सर्वे चोत्तरोत्तरं परिचरेयुः” । इस सूत्र की टीकाओं के अनुसार समान वर्ण में भी जो गुणों में वृद्ध हों, उनकी सेवा करनी चाहिए | इसका यह अर्थ तो नहीं निकाला जा सकता कि सभी वर्ण के लोग किसी-न-किसी के दास हैं। दूसरी ओर शूद्र के लिए भी दास्य-कर्म नित्य नहीं है। केवल फल-विशेष चाहने वालों के लिए यह विहित है। यदि कोई शूद्र ऐसे फल की इच्छा नहीं करता है अथवा अनाश्रित रहकर जीवन व्यतीत करना चाहता है तो भी वह दोषी नहीं है | 32 31 “समानेऽपि वर्णे यो योऽपि गुणत उत्तरस्तं तमवराऽवरः परिचरेत्” - मस्करी; “समानजातीयमप्यधिकगुणं हीनः परिचरेत्।” - हरदत्त 32 “न तस्यौत्पत्तिकं दासत्वम्। इच्छाधीनत्वाद् धर्मार्थिनः । न हि तस्य दानाधानक्रिया युज्यते क्रीतगृहजादिदासवत्। एवं ह्युक्तं - " यथायथां हि सद्वृत्तमिति” । तेनैवं ब्रुवतैतत्प्रदर्शितं भवति - न तस्य नित्यं दास्यं किं तर्हि फलविशेषार्थिनः। ततश्चानिच्छतो न दास्यमिति । अतो यदि शूद्रो विद्यमानधनः स्वातन्त्र्येण जीवेद् ब्राह्मणाद्यनपाश्रितो न जातु दुष्येत् ॥” - मेधातिथि (मनुस्मृति (८.४१५ ) की टीका) । 29 दासी नहीं होकर भी शबरी मुनियों की सेवा क्यों करती थीं? आनन्द - रामायण (राज्यकांड, पूर्वार्ध, ३.४५) अगले ही श्लोक में इस तथ्य की ओर संकेत करता है- “जीवन्मुक्ता तत्कृपया मोक्षमाप शुचिव्रता”। शबरी जीवन्मुक्त थीं, उनके सभी गुरु - परिचर्या आदि कर्म जीवन्मुक्त के लक्षण थे, किसी दासी के नहीं। स्मृतियों में प्रदत्त “दास” की परिभाषा से यह भी स्पष्ट है कि सभी दास शूद्र नहीं होते थे, अपितु अन्य वर्ण के लोग भी दास बनाए जा सकते थे | 33 यदि पूर्वपक्षी “दासी” शब्द को “शूद्रा” के लिए रूढ़ ही मानते हैं तो वे शबरी के लिए वाल्मीकीय- रामायण (३.६९.१९, ३.७०.२४) में दो बार आए “परिचारिणी” विशेषण का क्या करेंगे? क्या वे यह मान लेंगे कि परिचर्या करना किसी ब्राह्मणी का भी धर्म हो सकता है? क्या भगवान् ने नहीं कहा है - “परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्” (भगवद्गीता १८.४४ ) ? अतः निश्चलानंद सरस्वती जी द्वारा उद्धृत श्लोक से शबरी ब्राह्मणी सिद्ध नहीं होती है। एक और मूलभूत भ्रांति तो यह है कि शबरी को " अशूद्रा” सिद्ध करने से वे ब्राह्मणी ही सिद्ध हो जाएँगीं। क्या वे क्षत्रिया अथवा वैश्या नहीं हो सकतीं? हमारा तो मत है कि शबरी शबर-जाति की महिला थीं, शूद्र जाति की नहीं । शबर जाति एक व्रात्य क्षत्रिय जाति है - मेकला द्रमिडाः काशाः पौण्ड्राः कोल्लगिरास्तथा । शौण्डिका दरदा दर्वाश्चौराः शबरबर्बराः ॥ किराता यवनाश्चैव तास्ताः क्षत्रियजातयः । वृषलत्वमनुप्राप्ता ब्राह्मणानामदर्शनात् ॥ (महाभारत १३.३५.१८) यदि कदाचिद् व्रात्यस्तोम के माध्यम से किसी शबर को वैदिक धर्म में समाविष्ट भी कर लिया जाए, तो उसकी क्षत्रिय संज्ञा होगी, न कि ब्राह्मण । 33 ध्वजाहृतो भक्तदासो गृहजः क्रीतदत्त्रिमौ । पैत्रिको दण्डदासश्च सप्तैते दासयोनयः ॥ (मनुस्मृति ८.४१५) 30यदि “शबरी” को जातिवाचक संज्ञा न मानकर व्यक्तिवाचक नाम मानें तब भी पूर्वपक्षी का पक्ष दुर्बल है। नाम-करण के विषय में मनुस्मृति (२.३१) का स्पष्ट मत है कि ब्राह्मण का नाम मंगलसूचक, क्षत्रिय का बल-युक्त, वैश्य का धनयुक्त और शूद्र का जुगुप्सित होना चाहिए- मङ्गल्यं ब्राह्मणस्य स्यात् क्षत्रियस्य बलान्वितम् । वैश्यस्य धनसंयुक्तं शूद्रस्य तु जुगुप्सितम् ॥ इस श्लोक की टीका में मेधातिथि जुगुप्सित नामों के तीन उदाहरण देते हैं- “कृपण”, “दीन” और “शबरक”। मनुस्मृति का श्लोक सामान्य नियम है। कदाचित् किसी शूद्र का नाम बल का सूचक मिल भी जाए (यथा - “वीरसेन ” 34, “वीरविक्रम” 35 अथवा “द्विजवर्मा ” 36 ), किंतु इतिहास - पुराणों में किसी ब्राह्मण का जुगुप्सित नाम मिलना दुर्लभ है। मेधातिथि के उदाहरण “शबरक" के अनुरूप ही “शबरी” एक जुगुप्सित नाम माना जाएगा, जो शूद्रा के लिए उपयुक्त है। यहाँ निश्चलानंद जी मीमांसादर्शन के भाष्यकार शबर स्वामी के नाम का उदाहरण देते हैं। शबर स्वामी के नामकरण के विषय में कई जनश्रुतियाँ हैं, किंतु कोई भी पुष्ट प्रमाण मेरे संज्ञान में नहीं है। अतः यथासंभव इस नाम का शास्त्रीय समाधान गवेषणीय है। एक समाधान यहाँ प्रस्तुत है - “गोत्र- प्रवर-निबन्ध-कदम्ब” नामक निबन्ध संग्रह के अनुसार ब्राह्मणों में दासकायन ( वासिष्ठ), कैरात (गौतम), सैरन्ध्रि (काश्यप), चाण्डालि (वासिष्ठ) और दाशेरक ( वासिष्ठ) जैसे गोत्र- गण पाए जाते हैं। बृहद्देवता (७.८६) में किरात नामक द्विज का उल्लेख मिलता है, जिनका संबंध संभवतः कैरात गोत्र- गण से है। इसी प्रकार शबर स्वामी के नाम में प्रयुक्त “शबर” भी उनके गोत्र- गण का परिचायक हो सकता है, जिसके प्रवर्तक काक्षीवत शबर नामक वैदिक ऋषि हैं। काक्षीवत शबर ऋग्वेद के एक मंत्र (१०.१६९) के द्रष्टा हैं। यद्यपि गोत्र - गण प्रवर्तक ऋषियों के नाम विभिन्न ब्राह्मणेतर जातियों के नामों पर होते रहे हैं, तथापि न तो शबरी किसी गोत्र - गण की प्रवर्तिका थीं और न ही कहीं किसी ब्राह्मण स्त्री को ऐसे अभिधान से संयुक्त पाया गया है। क्या इतिहास-पुराणों में कहीं भी “शबरी” नाम से अभिहित किसी ऐसी स्त्री का उल्लेख है जो शबरजातीया नहीं हो? पुराणों में अनेक शबरियों का उल्लेख मिलता है, किंतु वे सभी शबरजातीया हैं (स्कंदपुराण, ब्रह्मखंड, ब्रह्मोत्सव - खंड १७; स्कंदपुराण, अवंतीखंड, रेवाखंड ५६ ; वराहपुराण १७०)। कदाचित् भगवती का नाम भी “शबरी” प्राप्त होता है। स्कंदपुराण (माहेश्वर-खंड, केदार- खंड, ३५) में 34 स्कंदपुराण, नागरखंड १७७.३६ 35 पद्मपुराण, ब्रह्मखंड २६.१५ 36 ब्रह्मांडपुराण, उत्तरभाग ७.५८ 31 देवी पार्वती ने शबरी का रूप धारण किया है । हरविजय - महाकाव्य (१.५७) में भी इस चरित का उल्लेख है।” यह शबरी भी वनवासिनी और शबर - कुलोत्पन्न ही है। स्कंदपुराण के गंगासहस्रनाम में “शबरी” भी देवी गंगा का ९४० वाँ नाम है (स्कंदपुराण, काशीखंड, २९.१५९)। इस स्तोत्र की टीका के अनुसार “शबरी” का अर्थ शबर की पत्नी है। देवी गंगा का नाम " शबरी” इसलिए पड़ा क्योंकि क्रीड़ा-काल में जब भगवान् शिव ने किरात का वेष धारण किया था, तब देवी भी किराती के रूप में प्रकट हुई थीं। 38 आनंद- रामायण (मनोहरकांड, सर्ग १२) में ही एक अन्य शबरी का उल्लेख है, जिससे राज्याभिषेक के पश्चात् श्रीराम वन में मृगया के समय भेंट करते हैं। यह शबरी भी प्रसिद्ध रामभक्त शबरी के समान ही वन में रहने वाली शबरजातीया स्त्री है। ऐसे नामों से “शबरी” के प्रधान अर्थ (“शबरजातीया स्त्री) का समर्थन ही होता है, निषेध नहीं । गंगाधर पाठक “किरातिनी” शब्द का उदाहरण देकर कहते हैं कि इसका अर्थ “किरात- बहुल क्षेत्र में उत्पन्न होने वाली” (किरात + णिनि + ङीष्) होता है, तदनुरूप शबरी भी शबर - बहुल क्षेत्र में रहने वाली ब्राह्मणी थीं। यह तर्क अद्भुत है। वस्तुतः “किरातिनी” शब्द की जो निरुक्ति पाठक जी ने बतलाई है, वह “किरातिनी” नामक पौधे के लिए है। यह जटामांसी का ही दूसरा नाम है। कहीं किसी स्त्री के लिए “किरातिनी” का ऐसा निर्वचन नहीं मिलता है। यदि किसी ग्रंथ में किसी स्त्री को “किरातिनी” कहा गया हो तो वहाँ उसका सामान्य अर्थ “किरात की स्त्री” ही होगा । पुनश्च “किरातिनी” के अर्थ में यदि पाठक जी का मत स्वीकार भी कर लिया जाए तो उससे “शबरी” अर्थ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। रामायण में प्रयुक्त शब्द " शबरी” है, “शबरिणी” नहीं। निश्चलानंद सरस्वती जी कहते हैं कि शबरी को शबरजातीया बताना विधर्मियों की चाल है। यह कथन खेदपूर्ण है। क्या आचार्य गोविन्दराज और महेश्वर तीर्थ विधर्मी थे? अब तक की चर्चा से यह तो स्पष्ट ही है कि अशास्त्रीय मत के प्रतिपादन में एक वाक्य से अधिक शब्द-राशि व्यय नहीं होती । किंतु ऐसे मत के खंडन में वाग्विस्तार के साथ-साथ शताधिक शास्त्रीय संदर्भों का विनियोग करना पड़ता है। करपात्री जी और निश्चलानंद सरस्वती जी हमारे समकालीन हैं। अतः यदि उनका कोई वक्तव्य शास्त्र- विरुद्ध होता है तो उसका शास्त्र- प्रमाणों के आधार पर खंडन करना और भी आवश्यक हो जाता है। सनातन धर्म व्यक्तिवाद से ऊपर है। 37 यस्य व्यभिद्यत मनः सुतरां किरात- रूपस्य शैलसुतया शबरीभवन्त्या। कर्णावतंसितमनोहरकेकिपिच्छ- सच्छायदीर्घतरलोचनशङ्कपातैः॥ 38 “शबरी शबराङ्गना किरातरूपधारिणी महेश्वरस्य पत्नीत्वेन ” - श्रीरामानंद 32 ११. शबरी के जूठे बेर क्या शबरी ने श्रीराम को जूठे बेर खिलाए थे? यद्यपि यह प्रश्न बहुधा उठाया जाता है, तथापि इसका उत्तर खोजने में विशेष लाभ नहीं है। यदि खिलाए थे तो यह घटना भगवान् राम के ऐश्वर्य-प्रदर्शनार्थ ही मानी जाएगी, न कि सामान्य जनों के शिक्षणार्थ । यदि नहीं खिलाए थे तो भी इसके कारण शबरी के माहात्म्य में कोई न्यूनता नहीं आएगी । फिर भी जब प्रश्न उठा है तो समाधान अपेक्षित है। वाल्मीकीय-रामायण में शबरी द्वारा उच्छिष्ट फल दिए जाने का वर्णन नहीं है। वहाँ शबरी केवल वन्य- फलों को संगृहीत कर श्रीराम को समर्पित करती हैं- मया तु विविधं वन्यं सञ्चितं पुरुषर्षभ । तवार्थे पुरुषव्याघ्र पम्पायास्तीरसम्भवम् ॥ (वाल्मीकीय-रामायण ३.७४.१७) इस श्लोक की भूषण टीका में कहा गया है कि शबरी ने प्रत्येक जाति के फलों के माधुर्य का परीक्षण कर उन्हें संचित किया था। पद्मपुराण में यह प्रसंग कुछ विस्तार से आया है। वहाँ शबरी पके हुए फलों को चखकर उनके माधुर्य का परीक्षण करती हैं। तदनंतर श्रीराम को निवेदित करती हैं- अर्चयामास भक्त्या वै हर्षनिर्भरमानसा । फलानि च सुगन्धीनि मूलानि मधुराणि च ॥ निवेदयामास तदा राघवाभ्यां दृढव्रता । फलान्यास्वाद्य काकुत्स्थस्तस्यै मुक्तिं ददौ पराम् ॥ 39 39 तिलक-टीका में निम्नलिखित पाठभेद है- 33 (पद्मपुराण, उत्तर- खंड २४२.२६९-२७०) इन श्लोकों को उद्धृत करते हुए तिलक - टीकाकार गोविन्दराज लिखते हैं कि शबरी ने वन्य फलों का सम्यक् परीक्षण कर पहले ही मधुर फलों को संगृहीत कर लिया था। अतः उच्छिष्ट परोसने का प्रश्न ही नहीं उठता है। यदि गोस्वामी तुलसीदास का रामचरितमानस (३.३४) देखें तो वहाँ केवल इतना कहा गया है कि श्रीराम ने शबरी द्वारा प्रदत्त कंद, मूल और फल को प्रेमपूर्वक ग्रहण किया। जूठे फल खाने का उल्लेख नहीं है- कंद मूल फल सुरस अति दिए राम कहँ आनि। प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि ॥ इनके अतिरिक्त आनन्द - रामायण, अध्यात्म रामायण, कम्ब - रामायाण, भास्कर-रामायण, रंगनाथ- रामायण, मोल्ल-रामायण, कृत्तिवास - रामायण आदि रामायणों में भी जूठे फल खिलाने का प्रसंग नहीं है।

किंतु भक्त-कवियों की एक विशिष्ट परंपरा रही है, जिसके अनुसार शबरी ने श्रीराम को जूठे फल निवेदित किए थे। १६ वीं शताब्दी के उड़िया भाषा के प्रख्यात कवि बलराम दास के द्वारा प्रणीत जगमोहन - रामायण में शबरी द्वारा जूठे आम खिलाने का वर्णन है। सूरदास का पद प्रसिद्ध ही है “जूठे फल शबरी के खाए, बहु विधि स्वाद बताई ” । १७ वीं शताब्दी के भक्त - कवि रसिकोत्तंस द्वारा विरचित काव्य-ग्रंथ “प्रेमपत्तन” (श्लोक २४) में कहा गया है कि शबरी द्वारा प्रेमपूर्वक समर्पित अवशिष्ट और उच्छिष्ट चार फलों का आस्वाद लेकर श्रीराम ने उन्हें भक्तों की शिरोमणि बना दिया- फलानि च सुपक्वानि मूलानि मधुराणि च ॥ स्वयमास्वाद्य माधुर्यं परीक्ष्य परिभक्ष्य च । पश्चान्निवेदयामास राघवाभ्यां दृढव्रता ॥ फलमास्वाद्य काकुत्स्थस्तस्यै मुक्तिं परां ददौ || 34 प्रेम्नावशिष्टमुच्छिष्टं भुक्त्वा फलचतुष्टयम्। कृता रामेण भक्तानां शबरी कबरीमणिः ॥ बड़ी विलक्षण बात है कि श्रीकेशवमणि शास्त्री द्वारा अनूदित और कृष्णाश्रम, वृंदावन से १९७२ में प्रकाशित “प्रेमपत्तन” के जिस संस्करण से मैंने उपर्युक्त श्लोक उद्धृत किया है, उसकी सम्मति करपात्री जी ने ही लिखी है! प्रो॰ राधावल्लभ त्रिपाठी ने मध्यकालीन हिंदी साहित्य में शबरी द्वारा जूठे फल खिलाए जाने के दो अन्य उल्लेखों का निर्देश किया है 10 - १. भक्तमाल पर प्रियादास की काव्यात्मक टीका में शबरी प्रसंग का ३५ वाँ छंद, २. गीताप्रेस के कल्याण भक्तचरितांक के पृष्ठ २९४ में उद्धृत कवि रसिकबिहारी का पद्य । उपर्युक्त उल्लेखों से यह तो स्पष्ट है कि श्रीराम के द्वारा शबरी के जूठे फलों का आस्वादन संस्कृत, हिंदी और उड़िया के भक्ति-साहित्य में अनेकशः वर्णित है। क्या इस परंपरा के कोई शास्त्रीय प्रमाण भी मिलते है? शबरी द्वारा जूठे फल अर्पित किए जाने की कथा हमें भुशुण्डि-रामायण में प्राप्त होती है- फलानि कानिचित् तत्र प्रभवे मुग्धयाऽनया । परीक्षार्थं समास्वाद्य मिष्टानि जगृहेतमाम् ॥ तान्येष हृदि जानानः प्रेमाक्तानि स्वभावतः। बुभुजेऽभ्यधिकप्रीतिरास्वादनविचक्षणः॥ सस्वदेऽतितरां रामः श्लाघमानो मुहुर्मुहुः । शबरीवदनोच्छिष्टान्यतिस्वादूनि हर्षितः ॥ शबरीवदनोच्छिष्टैः प्रेमपूतैः फलैरसौ । आत्मानं तर्पयामास सर्वाभ्यधिकसारवित्॥ 40 https://pashyantee.com/रामायण-में-शबरी-प्रसंग-एक/ 35

(भुशुण्डि दक्षिण-खण्ड,

  • रामायण, दक्षिण खण्ड, १६७.२०-२३)

    “कुछ फल वहाँ उस भोली स्त्री ( शबरी) द्वारा एकत्र किए गए थे, जिन्हें उसने चखकर उनकी परीक्षा की, और फिर जो मीठे लगे, उन्हें अर्पित किया । रसास्वादन में कुशल श्रीराम हृदय में जानते हुए कि ये फल स्वभावतः प्रेमयुक्त हैं, उन्हें अत्यधिक आनंद के साथ खाया। हर्षित होकर श्रीराम ने शबरी के मुख से उच्छिष्ट उन सुस्वादु फलों की बार-बार सराहना करते हुए उनका आस्वादन किया । शबरी के मुख से उच्छिष्ट और प्रेम से पवित्र उन फलों द्वारा श्रीराम ने स्वयं को तृप्त किया, क्योंकि वे उनके भीतर अन्य सभी फलों की तुलना में विद्यमान अधिक सार को पहचानते थे । " ब्रह्मोवाच ललज्जेऽतितरां सा तु तत्त्वज्ञानवती क्षणात् । स्वोच्छिष्टानि फलान्यस्य समर्प्य जगदीशितुः ॥ पूर्वं तु प्रेमरभसादविचारितमाचरत्। उत्पन्नतत्त्वधीः पश्चाच्छुशोच शबरी हृदि ॥ अहो मया कृतमिदं किं तु साक्षाज्जगत्पतौ । यदुच्छिष्टफलान्यस्मै समर्पितवती कुधीः ॥ क्वायं महामहाराजमौक्तिरत्नमरीचिभिः। नीराजिताङ्घ्रिकमलो रामस्त्रिभुवनेश्वरः॥ क्वाहं जात्याधमा मूढा स्त्रीधर्मेण विदूषिता । अनुग्रहोऽस्यैव परो नीताहं येन पात्रताम् ॥ अपराधमहं चक्रे स्वोच्छिष्टविनिवेदनात्। प्रेममत्तमतिः किञ्चिन्न विचारितवत्यपि॥ इति तामनुशोचन्तीं राम आत्माखिलात्मनाम्। उवाच तत्परप्रेमवशीभूतोऽखिलार्थदः॥ (भुशुण्डि - रामायण, दक्षिण-खण्ड, १६८.१-७) 36 — “ब्रह्मा जी ने कहा तब तत्काल तत्त्वज्ञान से युक्त होकर शबरी अत्यधिक लज्जित हो उठीं, क्योंकि उन्होंने जगदीश्वर राम को अपने जूठे फल अर्पित किए थे। पहले तो शबरी ने प्रेम के उत्कट आवेग में बिना सोचे-विचारे यह आचरण किया था, परंतु जब उनमें तत्त्व - बुद्धि उत्पन्न हुई, तब उन्होंने हृदय में पश्चात्ताप किया। शबरी ने सोचा - “ अहो! मैंने यह क्या कर डाला? मुझ दुर्बुद्धि ने स्वयं जगत् के स्वामी को जूठे फल अर्पित कर दिए ! कहाँ ये त्रिलोकी के स्वामी श्रीराम, जिनके चरण कमलों की आरती बड़े-बड़े महाराजाओं के मुकुटों के रत्नों के प्रकाश से की जाती है और कहाँ मैं - जाति से हीन, अज्ञानी, और स्त्रीधर्म के कारण अपवित्र ! निश्चित ही यह उनका महान् अनुग्रह है जो उन्होंने मुझ जैसी को भी पात्रता प्रदान कर दी और मैंने जूठे फलों का निवेदन कर इनका ही अपराध कर दिया। प्रेम से प्रमत्त मति वाली मैं कुछ भी विचार नहीं कर सकी ।” इस प्रकार जब शबरी पश्चात्ताप करते हुए दुःखी हो रही थी, तब सर्वात्मा और सभी मनोरथों को पूर्ण करने वाले श्रीराम शबरी के परम प्रेम के वशीभूत होकर बोले – ” श्रीराम उवाच त्वयाऽऽहृतानि स्वादूनि प्रेम्णैवानन्यवृत्तिना । खण्डितानि फलान्येतान्यखण्डानि मुदे मम ॥ जाने प्रेमवनीवास्तुः कापि धन्यतमा शुकी । आस्वादयत् फलान्येतान्यतिमाधुर्यभाञ्जि यत् ॥ अथ त्वमतिपुण्यासि भिल्लजातिरपि स्फुटम्। वेदविद्भ्योऽपि विप्रेभ्यो मदनुग्रहभाजनम्॥ जातासि सपदि त्वं तु तीर्थपावनपावनी। तु परमेण मयि प्रेम्णा तवानेतातिभूयसा ॥ श्रौतं स्मार्तं तान्त्रिकं वापि कर्म पुण्योपायस्तद्विशुद्धं तपो वा । ज्ञानं ब्रह्मात्मैक्यसंविद्विशुद्धं न मे तुष्ट्यै जायते भाग्यपूर्णे ॥ प्रेमैवैकमप्यसाधारणं यत्तैस्तैर्भावैः सुविशुद्धैरुपेतम्। स्वभावेनासोढविश्लेषलेशं तेनैवाहं स्यां वशीभूतचित्तः॥ (भुशुण्डि - रामायण, दक्षिण-खण्ड, १६८.८-१४) 37 “श्रीराम ने कहा- तुम्हारे द्वारा एकनिष्ठ प्रेम से लाए गए ये स्वादिष्ट फल, खंडित होने पर भी अखंडित हैं और मेरी प्रसन्नता के कारण हैं। मैं तो समझता हूँ कि इस प्रेमरूपी वन में रहने वाली तुम कोई श्रेष्ठ शुकी हो जिसने इन फलों को चखा है जिसके कारण ये और भी अधिक मधुर हो गए हैं। अतः तुम अत्यंत पुण्यशालिनी हो, यद्यपि तुम भिल्लजातीया हो, तथापि तुम वेदज्ञ ब्राह्मणों से भी अधिक मेरी कृपा की पात्र हो । अब तुम तत्काल ही तीर्थों को भी पवित्र करने वाली बन गई हो, क्योंकि तुम्हारा मुझ पर जो प्रेम है, वह अत्यंत उत्कृष्ट और अद्वितीय है। हे भाग्यशालिनि! वैदिक, स्मार्त अथवा तान्त्रिक आदि जो भी कर्म हैं, पुण्य के उपाय हैं, विशुद्ध तपस्या है, ज्ञान है, अथवा ब्रह्म और आत्मा में शुद्ध अद्वैत - बुद्धि है – ये सब मुझे संतुष्ट नहीं करते। जो एकमात्र असाधारण प्रेम है, जो विभिन्न भावों (दास्य, सख्य, वात्सल्य आदि) द्वारा शुद्ध किया गया है, और जो स्वभाव से ही मेरे वियोग को सहन नहीं कर सकता है - मैं उसी प्रेम के द्वारा वशीभूत हो जाता हूँ । ” भुशुण्डि - रामायण के उपर्युक्त प्रसंग से कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्य सामने आते हैं। शबरी द्वारा जूठे फल खिलाए जाने की कथा कपोल-कल्पना नहीं है। यद्यपि यह प्रसंग वाल्मीकीय रामायण में नहीं है, तथापि इसकी एक विशिष्ट परंपरा विद्यमान है जो भक्त कवियों की वाणी में प्रस्फुटित हुई है। केवल वाल्मीकीय-रामायण को ही प्रमाण मानने वाले इस प्रसंग की उपेक्षा कर सकते हैं, किंतु तब श्रीराम के चरणों से अहल्या का स्पर्श, सीता स्वयंवर, छाया सीता, अहिरावण - महिरावण आदि अनेक प्रसंग भी अप्रामाणिक माने जाएँगे क्योंकि वे वाल्मीकीय रामायण में नहीं मिलते। भुशुण्डि - रामायण का यह प्रसंग आर्ष-रामायण के शबरी प्रसंग के विरुद्ध नहीं है, अपितु उसका उपबृंहण है। सभी पात्र और घटनाएँ समान है, केवल एक अतिरिक्त बात जोड़ दी गई है जो भक्ति के माहात्म्य-प्रदर्शनार्थ है।

भुशुण्डि रामायण में श्रीराम ने शबरी की तुलना शुकी से की है। शुक शुकी मीठे फलों के पारखी होते हैं। यद्यपि उच्छिष्ट-भक्षण शास्त्र और लोक - मर्यादा के अनुरूप नहीं है, तथापि शकुनि आदि पक्षियों के द्वारा चोंच मारकर गिराए गए फल भक्ष्य होते हैं- नित्यमास्यं शुचि स्त्रीणां शकुनिः फलपातने। प्रस्रवे च शुचिर्वत्सः श्वा मृगग्रहणे शुचिः || | (मनुस्मृति ५.१३०) 41 “काकादिपक्षिणां चञ्चपघातपतितं फलं शुचि” (कुल्लकभट्ट), बौधायन - धर्मसूत्र १.५.९.२, विष्णुस्मृति २३.४९ 38 निर्विकार परमात्मा को उच्छिष्ट - भक्षण का दोष नहीं लगता और न ही जीवन्मुक्त शबरी उच्छिष्ट- निवेदन के प्रत्यवाय से प्रभावित हो सकती हैं। शबरी के द्वारा जूठे फल खिलाए जाने को हम अन्य कल्प की घटना अथवा भगवान् की अंतरंग लीला मान लें, जिससे सामान्य जन मोहित हो जाते हैं। अतः इस प्रसंग का प्रकाशन सर्वत्र नहीं करके केवल भक्तिमार्गी संप्रदायों में किया गया है। अतः हम शताधिक शास्त्र- प्रमाणों के आधार पर यह विश्वासपूर्वक कह सकते हैं कि शबरी शबरजातीया भक्त थीं। श्रीराम ने शबरी के जूठे फल खाए अथवा नहीं - इसका निर्णय हम धर्मप्राण विशुद्धात्माओं के अंतःकरण पर छोड़ते हैं- “सतां हि सन्देहपदेषु वस्तुषु प्रमाणमन्तःकरणप्रवृत्तयः”42 । १२. मतंग कौन थे? | महाभारत (१३.२८-३०) में एक नापित और ब्राह्मणी की प्रतिलोमज संतान मतंग की कथा है। शूद्र पिता और ब्राह्मणी माता की संतान होने के कारण मतंग चंडाल माने जाते थे। इन्होंने तपस्या के बल पर ब्राह्मणत्व प्राप्त करना चाहा, किंतु इंद्र के समझाने पर “छंदोदेव” नामक देवता बनने के वरदान से संतोष किया। महाभारत की कथा का उपबृंहण स्कंदपुराण में मिलता है। स्कंदपुराण के अनुसार मतंगेश्वर महादेव के दर्शन से मतंग ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए- ततोऽसौ विप्रतां यातो मतङ्गो लिङ्गदर्शनात् । पुनः पूजाप्रभावेण ब्रह्मलोकं गतो द्विजः ॥ (स्कंदपुराण, अवन्तीखण्ड, अवन्तीस्थ-चतुरशीतिलिङ्गमाहात्म्य, ६०.४४) आज भी बोधगया, उज्जयिनी, और खजुराहो आदि स्थानों पर मतंगेश्वर महादेव का लिंग स्थापित है। महाभारत (१.६५) में अन्यत्र राजर्षि त्रिशंकु का नाम भी " मतंग” बताया गया है। ये शाप के कारण व्याध बन गए थे। दुर्भिक्ष-काल में व्याध मतंग ने महर्षि विश्वामित्र की पत्नी का भरण-पोषण किया था। महर्षि विश्वामित्र ने मतंग का यज्ञ करवाया था, जिसमें स्वयं इंद्र ने सोमपान किया था। 42 अभिज्ञानशाकुन्तल १.२० 39 बौद्ध वाङ्मय में मातंगजातक की कथा प्रसिद्ध है, जिसमें बोधिसत्त्व ने मातंग नामक चडांल के रूप में जन्म लिया था। वसल - सुत्त (सुत्त निपात १.७.२३-२४) की एक गाथा में चडांल के पुत्र मातंग द्वारा परम यश की प्राप्ति का वर्णन है - चण्डालपुत्तो सोपाको मातङ्गो इति विस्सुतो । सो यसं परमं पत्तो मातङ्गो यं सुदुल्लभं ॥ [चण्डालपुत्रः सोपाको मातङ्ग इति विश्रुतः । स यशं परमं प्राप्तो मातङ्गो यत् सुदुर्लभम् ||] संयुत्त निकाय की टीका में भी एक ब्राह्मण जातिमा (शाब्दिक अर्थ - “जातिमान् ” अथवा “कुलीन”) और चंडाल मातंग की कथा है, जिसके अनुसार तपस्वी मातंग ने तपोबल से जातिमा को अभिभूत कर दिया था। संभवतः बौद्ध वाङ्मय के ये तीनों मातंग एक ही व्यक्ति हैं। यद्यपि बौद्ध-साहित्य सनातन धर्म के विषयों में प्रमाण नहीं है, तथापि शब्द के अर्थ-निर्धारण के लिए उसकी सहायता लेने में कोई हानि नहीं है। उपर्युक्त सभी पौराणिक और बौद्ध पात्रों का संबंध तथाकथित अवर जातियों से है। ध्यातव्य है कि संस्कृत के प्रायः सभी कोशों में “ मातंग” (अर्थात् मतंग का वंशज) चंडाल का पर्याय है । 13 जिस प्रकार “चंडाल” और “चांडाल में साम्य है, उसी प्रकार " मतंग” और “ मातंग " में भी देखना चाहिए। स्वामी विद्यारण्य के द्वारा प्रणीत पुराणसार के अनुसार वैदेह (वैश्य पिता और क्षत्रिय माता का पुत्र) और अयोगवी (शूद्र पिता और वैश्य माता की पुत्री) की संतान को “ मातंग ” कहते हैं । 44 कथासरित्सागर (१२.६. १-२ ) में शबर और मातंग को एक ही माना गया है। 45 अमरकोश की टीका में 43 “चण्डालप्लवमातङ्गदिवाकीर्तिजनङ्गमाः” ( अमरकोश २.१०.१९), “मातङ्गः श्वपचे गजे” (मेदिनीकोश गान्तवर्ग ४५) चण्डालेऽन्तावसाय्यन्तेवासिश्वपचबुक्कसाः । निषादप्लवमातङ्गदिवाकीर्तिजनंगमाः || (अभिधानचिंतामणि ९३३) मातंग का एक अन्य अर्थ हाथी भी होता है। 44 “वैदेहकात्तु तत्रापि मातङ्गो नाम जायते” ( पुराणसार ५.७६) 45 अथ रूढव्रणे स्वस्थे जाते तस्मिन्गुणाकरे । शुभेऽहनि तमापृच्छ्य सुहृदं शबराधिपम् ॥ 40मथुरेश ने भी “मातंग” का एक अर्थ “किरात” किया है। वराहपुराण (१३९.९२) में “ मातंग ” चंडाल का संबोधन है। आगे चलकर एक मातंग दिवाकर नामक चंडाल जाति में उत्पन्न महाकवि भी हुए जो महाराज हर्षवर्धन के सभासद् थे। इनके विषय में राजशेखर की उक्ति है- अहो प्रभावो वाग्देव्या यन्मातङ्गदिवाकरः।46 श्रीहर्षस्याभवत् सभ्यः समो बाणमयूरयोः ॥ यहाँ “मातंग” कवि की जाति का नाम है। आज भी दक्षिण भारत की कुछ जातियों का संबंध प्राचीन मातंग जाति से देखा जा सकता है। इनमें प्रमुख हैं महाराष्ट्र की मांग और तेलुगु भाषी क्षेत्रों की माडिगा जातियाँ। इन जातियों के लोग स्वयं को “मातंग” कहते हैं और मातंगी देवी की पूजा करते हैं । 47 क्या महाभारत और स्कंदपुराण के मतंग और वाल्मीकीय रामायण के मतंग एक ही हैं? महाभारत और स्कंदपुराण के अनुसार मतंग ने गया जाकर कठोर तप किया था । 18 महाभारत में अन्यत्र उल्लेख सुदूरमन्वगायातं कार्याय कृतसंविदम् । सख्या दुर्गपिशाचेन मातङ्गपतिना युतम् ॥ (कथासरित्सागर १२.६.१-२) 46 पाठभेद - “ यच्चण्डालदिवाकरः” 47 Thurston, Edgar. Castes and Tribes of Southern India. Vol. 5. Madras: Government Press, 1909, 49; Report on the Census of British India Taken on the 17th February 1881. Calcutta: Government of India, 1883. p. 340. 48 एवमुक्तो मतङ्गस्तु भृशं शोकपरायणः । अतिष्ठत गयां गत्वा सोऽङ्गष्ठेन शतं समाः ॥ सुदुष्करं वहन्योगं कृशो धमनिसंततः । त्वगस्थिभूतो धर्मात्मा स पपातेति नः श्रुतम् ॥ (महाभारत १३.३०.१-२) अतिष्ठत गयां गत्वा सोऽङ्गष्ठेन शतं समाः । सुदुष्करं वहन्योगं प्राणायामपरायणः ।। (स्कंदपुराण, अवन्तीखण्ड, अवन्तीस्थ-चतुरशीतिलिङ्गमाहात्म्य, ६०.२३) 41 मिलता है कि गया के समीप धर्मप्रस्थ नामक क्षेत्र में महर्षि मतंग का आश्रम था । " इस क्षेत्र के एक पवित्र कूप में पितृ-तर्पण का माहात्म्य है। यह धर्मप्रस्थ ही वर्तमान गया से छह किलोमीटर दूर धर्मारण्य क्षेत्र है, जहाँ आज भी वह कूप विद्यमान है। इस स्थान पर मतंग वापी, मतंगेश्वर शिवलिंग, और मातंगी देवी का मंदिर है। अतः इन प्रमाणों से कोई संशय नहीं रह जाता कि प्रतिलोमज मतंग ही ब्राह्मणत्व को प्राप्त कर कालांतर में महर्षि मतंग बने थे। पुराणों में अनेकशः अन्य महर्षियों के साथ मतंग की गणना की गई है | 50 पुराणों में महर्षि मतंग के पुत्र का नाम मातंग है। ये “सर्व-शास्त्र- विशारद थे। वराहपुराण (अध्याय ८) में कथा है कि मातंग का विवाह धर्मव्याध की पुत्री अर्जुनकी से हुआ था। गीताप्रेस के संक्षिप्त वराह-पुराण में यह कथा अनुपस्थित है। महाभारत के अनुसार धर्मव्याध अंत्यज होकर भी महान् ब्रह्मज्ञ थे, जिन्होंने कभी कौशिक नामक ब्राह्मण को ब्रह्मविद्या का उपदेश दिया था- यत्तेषां च प्रियं तत्ते वक्ष्यामि द्विजसत्तम । नमस्कृत्वा ब्राह्मणेभ्यो ब्राह्मीं विद्यां निबोध मे । (महाभारत ३.२०१.१४) एक व्याध-कन्या से मातंग के विवाह का वर्णन विलक्षण है। विवाह समान कुल, शील और धर्म वालों के मध्य प्रशस्त है। क्या तत्त्वज्ञानी होने के कारण धर्मव्याध को ब्राह्मणत्व प्राप्त करने वाले मतंग के समतुल्य देखा जाता था? अथवा क्या जाति की दृष्टि से चंडाल योनि में जन्मे मतंग और 49 ततः फल्गुं व्रजेद्राजंस्तीर्थसेवी नराधिप । अश्वमेधमवाप्नोति सिद्धिं च महतीं व्रजेत् ॥ ततो गच्छेत राजेन्द्र धर्मप्रस्थं समाहितः । तत्र धर्मो महाराज नित्यमास्ते युधिष्ठिर ॥ तत्र कूपोदकं कृत्वा तेन स्नातः शुचिस्तथा । पितॄन्देवांस्तु सन्तर्प्य मुक्तपापो दिवं व्रजेत् ॥ मतङ्गस्याश्रमस्तत्र महर्षेर्भावितात्मनः ॥ तं प्रविश्याश्रमं श्रीमच्छ्रमशोकविनाशनम् । गवामयनयज्ञस्य फलं प्राप्नोति मानवः ॥ ( महाभारत दाक्षिणात्य पाठ ३.८२.९७ - १०१) 50 जमदग्निश्च संवर्तो मतङ्गो भरतोंऽशुमान् । व्यासः कात्यायनः कुत्सः शौनकः सुश्रुतः शुकः ॥ (स्कन्दपुराण, काशीखण्ड, ११.२१; शिवपुराण, शतरुद्रसंहिता १४.१७) 42 धर्मव्याध समकक्ष थे? भगवद्गीता (१८.४२ ) पर नीलकंठ की टीका के अनुसार यदि शम, दम आदि ब्राह्मणानुकूल गुण किसी शूद्र में दिखें तो उसे शूद्र नहीं, अपितु ब्राह्मण मानना चाहिए। इसके विपरीत यदि किसी ब्राह्मण में शूद्र के धर्म हों तो वह शूद्र ही है- “तस्माद्यस्मिन् कस्मिंश्चिद् वर्णे शमादयो दृश्यन्ते स शूद्रोऽप्येतैर्लक्षणैर्ब्राह्मण एव ज्ञातव्यः। यत्र च ब्राह्मणेऽपि शूद्रधर्मा दृश्यन्ते स शूद्र एव ।” धर्मव्याध का एक पुत्र भी था - अर्जुनक - जिसे मुनियों के समान जितेंद्रिय बताया गया है। विवाह के पश्चात् अर्जुनकी को उसकी सास “ जीवघातिनी” कहकर सताती थी । इससे दुःखी होकर अर्जुनकी अपने पिता धर्मव्याध के पास गई। सारा वृतांत सुनकर धर्मव्याध महर्षि मतंग से मिलने गए। जब महर्षि मतंग उनके आतिथ्य के लिए प्रस्तुत हुए तो धर्मव्याध ने केवल “चैतन्यरहित” भोजन करने की इच्छा व्यक्त की। जब मतंग धर्मव्याध को विविध प्रकार के अन्न देने लगे तो धर्मव्याध उठकर चल दिए । मतंग के रोकने पर धर्मव्याध ने कहा कि इस अन्न को अर्जित करने में सहस्रों जीवों की हत्या हुई है, जबकि वे प्रतिदिन एक ही पशु को मारकर परिवार सहित जीवन-यापन करते हैं । अतः मतंग द्वारा दिए गए अन्न के एक-एक कण को धर्मव्याध मांस के समान ही समझते थे। धर्मव्याध ने पूछा कि यदि अन्न की प्राप्ति में भी जीव- हिंसा निहित है, तब उनकी पुत्री को सास " जीवघाती की पुत्री” कहकर क्यों तिरस्कृत करती है? इतना कहकर धर्मव्याध विरक्त होकर तीर्थाटन हेतु चले गए। आगे की कथा ब्रह्माण्ड-पुराण (उत्तरभाग, अध्याय ३१) में मिलती है, जिसके अनुसार मातंग ऋषि ने तपस्या के द्वारा मंत्रिणी (ललिता देवी को प्रसन्न कर उन्हें पुत्री के रूप में प्राप्त किया था। इस श्यामवर्णीया कन्या का नाम मातंगी पड़ा। शाक्त- तंत्र में मातंगी को “उच्छिष्ट चांडाली” कहा जाता है। यदि महाभारत में मतंग छंद के देवता हैं तो उनके वंश में उत्पन्न मातंगी वाणी की देवी के रूप में प्रतिष्ठित होती हैं- माणिक्यवीणामुपलालयन्तीं मदालसां मञ्जुलवाग्विलासाम् । माहेन्द्रनीलद्युतिकोमलाङ्गीं मातङ्गकन्यां मनसा स्मरामि ॥ (श्यामला-दंडक) 43 पुराणों में व्याध आदि अवर जातियों में जन्मे लोगों के द्वारा ब्राह्मणत्व-प्राप्ति की अनेक कथाएँ हैं। वराहपुराण (अध्याय ३८) में ही उग्र तपस्या, भगवती की कृपा और महर्षि दुर्वासा के वरदान एक व्याध सत्यतपा नामक सर्वशास्त्रज्ञ ऋषि बन गया। गीताप्रेस के संक्षिप्त वराह पुराण में यह कथा भी अनुपस्थित है। गोत्रप्रवरनिर्णयकदम्बक में कश्यप वंश के अंतर्गत निध्रुव (६१) गण में “ मातंग” और “ मातंगी” - ये दो गोत्र सम्मिलित हैं। ये दोनों गोत्र मर्हषि मतंग से वंशजों के ही हो सकते हैं, जो अंत्यजों की संतान थे। महाभारत में मतंग के उपाख्यान को पुरातन इतिहास कहा गया है, जिससे ज्ञात होता है कि मतंग महाभारत-काल से बहुत पहले हो चुके थे। महाभारत और स्कंदपुराण के अतिरिक्त किसी अन्य महर्षि मतंग का उपाख्यान नहीं मिलता है। वाल्मीकीय रामायण (३.६९ ) के अनुसार मंतग का आश्रम पंपा नदी के पश्चिम तट पर स्थित था। किंतु इस उल्लेख से रामायण के मतंग की पौराणिक मतंग से भिन्नता नहीं माननी चाहिए, क्योंकि इतिहास-पुराणों में एक ही ऋषि के अनेक आश्रमों के उल्लेख हैं। अनेक ऋषिगण महर्षि मतंग के शिष्य बने। रामभक्त वनवासिनी शबरी भी उनकी शिष्या थीं। मतंग ने ही वालि को शाप दिया था (वाल्मीकीय रामायण ४.४५.१४)। स्कंदपुराण (वैष्णवखण्ड, वेङ्कटाचलमाहात्म्य, ३९) के अनुसार महर्षि मतंग के निर्देश से अंजना देवी ने हनुमान् रूपी पुत्र की प्राप्ति के लिए वृषाचल में तप किया था।

उपर्युक्त सभी शास्त्रीय प्रमाणों और सामाजिक साक्ष्यों के आधार पर इसकी प्रबल संभावना व्यक्त की जाती है कि महाभारत और पुराणों के महर्षि मतंग ही रामायण में शबरी के गुरु हैं। ये अंत्यज जाति में उत्पन्न हुए थे। गया क्षेत्र में तपस्या करके और भगवान् शिव की कृपा से इन्होंने ब्राह्मणत्व और ऋषित्व को प्राप्त किया। तदनंतर महर्षि मतंग का कर्मक्षेत्र कर्णाटक रहा, जहाँ इनके वंशज आज भी रहते हैं। मातंगी देवी का प्रादुर्भाव महर्षि मतंग के वंश में हुआ था। ब्राह्मणों से लेकर शबरजातीया शबरी ने मतंग का शिष्यत्व ग्रहण किया। महर्षि मतंग वनवासियों के आदरणीय थे। जिस पर्वत पर मतंग रहते थे, उसे आज “ मातंग गिरि” के नाम से जाना जाता है। इस पर्वत पर विजयनगर काल के अनेक मंदिरों के अवशेष मिले हैं।

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