विश्वास-टिप्पनी
Link to a refutation of a prior version of the article (published by kushAgra in parts on twitter and whatsapp) is here. That has most of the material but for the last two (mostly irrelevant) parts. An objective reading by any simpleton (say a foreigner) who carries no baggage and approaches vAlmIki’s work with a fresh mind, not having heard of shaivism or vaiShNavism, will agree with the महादेव = समुद्र interpretation, as demonstrated there. People are welcome to refute and respond to it there. (Interestingly, the same author vehemently, and rather inconsistently, disagreed with purANic claims about rAma’s brahmahatyA on x.com .)
It is notable that the current version of the article starts with a comically desperate “महर्षि वाल्मीकि की रामायण सनातन धर्म की वैष्णव और शैव धाराओं के पुरातन समन्वय का काव्य है।” while coping with “यह सत्य है कि इसके नायक श्रीराम भगवान् विष्णु के अवतार हैं, जिसके कारण यदि कोई इसे “वैष्णव-ग्रंथ” कहना चाहे तो उसका विरोध नहीं है।” towards the end. Also notable are some responses here with similarly apparent de-sectarian desperations.
राम की शिव-पूजा
कुशाग्र अनिकेत
विस्तारः (द्रष्टुं नोद्यम्)
1 इस लेख में यथासंभव वाल्मीकीय-रामायण के समीक्षित-पाठ को उद्धृत किया गया है। किसी श्लोक के समीक्षित-पाठ में अनुपलब्ध होने पर दाक्षिणात्य-पाठ और भूषण-टीकाकार गोविंदराज द्वारा स्वीकृत पाठ से उद्धरण दिया गया है। इस लेख में वाल्मीकीय-रामायण की अनेक टीकाओं से सहायता ली गई है, जिनमें त्र्यंबकराय मखी का धर्माकूत प्रमुख है। ईमेल - ka337@cornell.edu
० प्रवेशः
कुप्रतिज्ञा
महर्षि वाल्मीकि की रामायण सनातन धर्म की वैष्णव और शैव धाराओं के पुरातन समन्वय का काव्य है। एक ओर इस काव्य के नायक श्रीराम को भगवान् विष्णु का अवतार माना गया है तो दूसरी ओर इस ग्रंथ में अनेकत्र प्रसंग-वश शिव-लीला का वर्णन किया गया है। वस्तुतः यह रचना सनातन धर्म के वैदिक और पौराणिक स्वरूपों के उस संधि-काल की है जब वैदिक कर्मकांड के साथ-साथ देवायतनों के निर्माण और देव- प्रतिमा के पूजन का उदय हो रहा था।
शिव-विष्ण्वोर् माहात्म्यम्
वाल्मीकीय-रामायण में ब्रह्मा, इंद्र, वरुण, मरुत्, अश्विन्, वसु, रुद्र और आदित्य आदि विभिन्न वैदिक देवताओं के मध्य विष्णु और शिव के पूजन को प्रधानता दी गई है। ये दो ऐसे देव हैं जिन्हें अन्य देवों का आराध्य माना गया है। संपूर्ण रामायण के अध्ययन से यही निष्कर्ष निकलता है कि वाल्मीकि विष्णु और शिव में उत्कृष्ट और निकृष्ट की भावना नहीं रखते थे। जहाँ इस आदिकाव्य में विष्णु और शिव की स्पर्धा में शिव के धनुष के स्तंभित हो जाने की कथा है, वहीं शिव के द्वारा विश्वामित्र, भगीरथ और देव-गणों पर किए गए अनुग्रह के प्रसंग भी वर्णित हैं।
2 तदा तज्ञ्चम्भितं शैवं धनुर्भीमपराक्रमम् ।
हुंकारेण महादेवः स्तम्भितोऽथ त्रिलोचनः ॥
देवैस्तदा समागम्य सर्षिसंघैः सचारणैः ।
याचितौ प्रशमं तत्र जग्मतुस्तौ सुरोत्तमौ ॥
जृम्भितं तद्धनुर्दृष्ट्वा शैवं विष्णुपराक्रमैः ।
अधिकं मेनिरे विष्णुं देवाः सर्षिगणास्तदा ॥
(वाल्मीकीय-रामायण १.७४.१७-१९)
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देवतोपमाः
वाल्मीकीय-रामायण में विष्णु और शिव का माहात्म्य पूर्व से ही सिद्ध है, जबकि ग्रंथ में रामावतार को प्रथमतया स्थापित किया गया है। अत एव, श्रीराम को स्थान-स्थान पर दोनों देवों की उपमा दी गई है।
3 विष्णुना सदृशो वीर्ये सोमवत्प्रियदर्शनः ।
कालाग्निसदृशः क्रोधे क्षमया पृथिवीसमः ॥
(वाल्मीकीय-रामायण १.१.१७)
तया स राजर्षिसुतोऽभिरामया समेयिवानुत्तमराजकन्यया ।
अतीव रामः शुशुभेऽतिकामया विभुः श्रिया विष्णुरिवामरेश्वरः ॥
(वाल्मीकीय-रामायण १.७६.१८)
अङ्गरागेण दिव्येन लिप्ताङ्गी जनकात्मजे ।
शोभयिष्यामि भर्तारं यथा श्रीर्विष्णुमव्ययम् ॥
(वाल्मीकीय-रामायण २.११०.१९)
अपनेष्यति मां भर्ता त्वत्तः शीघ्रमरिंदमः ।
असुरेभ्यः श्रियं दीप्तां विष्णुस्त्रिभिरिव क्रमैः ॥
(वाल्मीकीय-रामायण ५.१९.२४)
विक्रमेणोपपन्नश्च यथा विष्णुर्महायशाः ।
सत्यवादी मधुरवाग्देवो वाचस्पतिर्यथा ॥
(वाल्मीकीय-रामायण ५.३२.२८)
द्रक्ष्यस्यद्यैव वैदेहि राघवं सहलक्ष्मणम् ।
व्यवसाय समायुक्तं विष्णुं दैत्यवधे यथा ॥
(वाल्मीकीय-रामायण ५.३५.२४)
तमालोक्य महातेजाः प्रदुद्राव स राघवः ।
वैरोचनमिव क्रुद्धो विष्णुरभ्युद्यतायुधः ॥
(वाल्मीकीय-रामायण ६.४७.११९)
कृताभिषेकः स रराज रामः सीताद्वितीयः सह लक्ष्मणेन ।
कृताभिषेकस्त्वगराजपुत्र्या रुद्रः सनन्दिर्भगवानिवेशः ॥
(वाल्मीकीय-रामायण ३.१५.३९)
तान्सर्वान्पुनरादाय समाश्वास्य च दूषणः ।
अभ्यधावत काकुत्स्थं क्रुद्धो रुद्रमिवान्तकः ॥
(वाल्मीकीय-रामायण ३.२४.२६)
साथ ही उन्हें “अष्टम रुद्र" भी कहा गया है।
4 रुद्राणामष्टमो रुद्रः साध्यानामपि पञ्चमः ।
अश्विनौ चापि ते कर्णौ चन्द्रसूर्यौ च चक्षुषी ॥
(वाल्मीकीय-रामायण ६.१०५.७)
शतपथ-ब्राह्मण (६.१.३.१७) के अनुसार ये ईशान हैं।
वाल्मीकीय-रामायण में उल्लेख मिलता है कि श्रीराम ने सेतुबंध-तीर्थ में शिव का अनुग्रह प्राप्त किया था। पुराणों से लेकर भक्ति-साहित्य में यह बात प्रसिद्ध है। रामेश्वर में स्थित रामनाथ-स्वामी का मंदिर भी इस मान्यता का मूर्त स्वरूप है।
विप्रतिपत्तिः
यद्यपि अधिकांश जन-सामान्य में इस अवधारणा का सम्मान है, तथापि कुछ विद्वान् इस लोक-मान्यता का विरोध करते हैं। श्री चिन्न जीयर स्वामी जी श्रीवैष्णव संप्रदाय के माननीय धर्मगुरु हैं। वे प्रायः रामेश्वर तीर्थ में श्रीराम के द्वारा शिव-पूजा के वृत्तांत का निषेध करते रहे हैं-
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“…श्रीराम ने श्रीरामायण के अनुसार कभी भगवान् शिव की पूजा नहीं की। उन्होंने रामेश्वरम् की स्थापना नहीं की। यह एक गढ़ी हुई कथा है। श्रीराम से संबद्ध कोई भी बात तभी स्वीकार्य होगी जब वह वाल्मीकीय-रामायण में उल्लेखित हो।”5
5 https://chinnajeeyar.org/about-rameshwaram/ (२०१३ में प्रकाशित चिन्न जीयर स्वामी जी का वक्तव्य, अनुवाद मेरा)
यह उल्लेखनीय है कि जीयर स्वामी जी का मत श्रीवैष्णव संप्रदाय की एक धारा में मान्य है। किंतु श्रीवैष्णव संप्रदाय के अंगभूत श्रीरामानंद संप्रदाय में यह मत मान्य नहीं रहा है। यह अन्य संप्रदायों की मान्यता के भी विपरीत है। अपने संप्रदाय के मत का प्रसारण एक बात है, किंतु शताब्दियों की लोक-परंपरा से स्थापित मान्यता का समूल निषेध अन्य विषय है। यद्यपि उत्तर-भारत में गोस्वामी तुलसीदास के प्रभाव से श्रीराम की शिवोपासना का प्रसंग प्रायः सर्वमान्य रहा है, तथापि दक्षिण-भारत में इस विषय पर विवाद विगत चार सौ वर्षों से अधिक समय से चलता आ रहा है। आज-कल सामाजिक संचार माध्यमों पर श्री रंगराजन् नारसिंहन् जैसे सामाजिक कार्यकर्ता भी इस विवाद को मुखरता से उठा रहे हैं।
अतः यह प्रश्न उठता है कि रामायण में स्वयं महर्षि वाल्मीकि का आशय क्या था? स्वामी जी का मत स्वसंप्रदायानुकूल है, पर रामायण के अध्येताओं को ग्रंथ के आंतरिक और बाह्य प्रमाणों के आधार पर इस प्रश्न का निर्णय करना चाहिए। यह लेख ऐसे ही अध्येताओं के लिए है। इस लेख में हम श्री चिन्न जीयर स्वामी जी और उनके पक्ष के मतावलंबियों को पूर्वपक्षी मानकर वाल्मीकीय-रामायण में श्रीराम की शिव-पूजा का विवेचन करेंगे। वाल्मीकीय-रामायण के अंतःसाक्ष्यों को वरीयता देते हुए हम वैदिक, ऐतिहासिक, पौराणिक और लोक- भाषा के वाङ्गय से शिव-पूजा के पक्ष का समन्वय प्रस्तुत करेंगे।
१. “महादेव” का अर्थ
श्रीराम की शिव-पूजा पर उठे विवाद का मूल वाल्मीकीय-रामायण में लंका से लौटते समय श्रीराम का देवी
सीता के प्रति यह कथन है-
एतत् कुक्षौ समुद्रस्य स्कन्धावारनिवेशनम् ।
6 इस लेख में “पूर्वपक्षी” शब्द का प्रयोग एक सामूहिक संज्ञा के रूप में किया गया है। वाल्मीकीय-रामायण के टीकाकारों से लेकर
श्रीवैष्णव संप्रदाय के विद्वान् और सामान्य अध्येता-गण तक श्रीराम की शिव-पूजा के निषेध में विभिन्न तर्क देते रहे हैं। यहाँ “पूर्वपक्षी”
शब्द में उन सभी का समाहार कर लिया गया है।
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अत्र पूर्वं महादेवः प्रसादमकरोत्प्रभुः ॥7
7 वाल्मीकीय-रामायण, दाक्षिणात्य-पाठ ६.१२३.१९; पाठभेद से “प्रभु” के स्थान पर समानार्थक शब्द “विभु”
अर्थात् “यह समुद्र का मध्य-भाग (द्वीप) है, जहाँ सेना का पड़ाव डाला गया था। यहाँ पहले प्रभु महादेव ने मुझपर कृपा की थी।” यद्यपि यह श्लोक वाल्मीकीय-रामायण के समीक्षित-पाठ में प्राप्त नहीं है, तथापि उत्तर और दक्षिण के प्रचलित पाठों में स्वीकृत है। प्रायः सभी प्रमुख टीकाकारों ने इस श्लोक पर टीका लिखी है। यदि पूर्वपक्षी यह तर्क देते कि समीक्षित-पाठ में अनुपस्थित होने के कारण यह श्लोक उपेक्षणीय है तो चर्चा पाठ-निर्धारण पर होती। किंतु वाल्मीकीय-रामायण के समीक्षित-पाठ में अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्य प्राप्त नहीं होते हैं। उदाहरण के लिए श्रीराम की जन्म-तिथि (चैत्र शुक्ल नवमी) और जन्म-लग्न का उल्लेख भी समीक्षित-पाठ में नहीं है। वाल्मीकीय-रामायण पर श्रीवैष्णव परंपरा के टीकाकार गोविंदराज (१७वीं शताब्दी) ने भी इस श्लोक पर टीका लिखी है। उपर्युक्त श्लोक में “महादेव” शब्द का अर्थ चिंतनीय है। “भूषण” टीका के प्रणेता आचार्य गोविंदराज और तत्त्वदीपिका के रचयिता महेश्वर तीर्थ “महादेव” का अर्थ “समुद्र” मानते हैं। किंतु प्रायः अन्य सभी टीकाओं में “महादेव” का अर्थ “शिव” ही किया गया है। इसलिए सर्वप्रथम हम इसी शब्द का विवेचन करते हैं। वस्तुतः वाल्मीकीय-रामायण के समीक्षित-पाठ (बालकांड से युद्धकांड तक) में “महादेव” शब्द ११ बार आया है। इनमें से १० उल्लेखों के विषय में कोई संशय नहीं है। यद्यपि गोविंदराज इनमें कहीं भी स्पष्टतः “महादेव”
8 ततो यज्ञे समाप्ते तु ऋतूनां षट्तमत्ययुः ।
ततश्च द्वादशे मासे चैत्रे नावमिके तिथौ ॥
नक्षत्रेऽदितिदैवत्ये स्वोच्चसंस्थेषु पञ्चसु ।
ग्रहेषु कर्कटे लग्ने वाक्पताविन्दुना सह ॥
प्रोद्यमाने जगन्नाथं सर्वलोकनमस्कृतम् ।
कौसल्याऽजनयद्रामं सर्वलक्षणसंयुतम् ॥
(वाल्मीकीय-रामायण दाक्षिणात्य-पाठ १.१८.८-१०)“ततो यज्ञे…सर्वलोकनमस्कृतम्” - यह अंश समीक्षित-पाठ में नहीं है।
१ अभिगम्य सुराः सर्वे प्रणिपत्येदमब्रुवन् ।
देवदेव महादेव लोकस्यास्य हिते रत ।
सुराणां प्रणिपातेन प्रसादं कर्तुमर्हसि ॥
(वाल्मीकीय-रामायण १.३५.९)
स गत्वा हिमवत्पार्श्व किन्नरोरगसेवितम् ।
महादेवप्रसादार्थं तपस्तेपे महातपाः ॥
(वाल्मीकीय-रामायण १.५४.१२)
एवमुक्तस्तु देवेन विश्वामित्रो महातपाः ।
प्रणिपत्य महादेवमिदं वचनमब्रवीत् ॥
4
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का अर्थ “शिव” नहीं बताते हैं, तथापि प्रकरण से सिद्ध है कि प्रत्येक स्थान पर “महादेव” का असंदिग्ध अर्थ “शिव” ही है। किंतु वाल्मीकीय-रामायण के एक श्लोक (१.३५.९) की टीका में वे “महादेव” का अर्थ “देवदेव” स्वीकार करते हैं। 10 “महादेव” का ११ वाँ उल्लेख इस प्रकार है-
वरदानं महेन्द्रेण ब्रह्मणा वरुणेन च ।
महादेवप्रसादाच्च पित्रा मम समागमम् ॥11
इस श्लोक की टीका में भी गोविंदराज “महादेव” का अर्थ उपस्थापित नहीं करते हैं। पूर्वोक्त विवादित श्लोक (“अत्र पूर्वं महादेवः प्रसादमकरोत्प्रभुः”) की व्याख्या करते हुए वे केवल इतना लिखते हैं कि “महादेवप्रसाद” का अर्थ श्रीराम के पिता दिवंगत महाराज दशरथ का दर्शन है। किंतु “महादेव” कौन हैं? यह स्पष्ट नहीं करते। “महादेवप्रसादाच्च पित्रा मम समागमम्” में किसी प्रकार भी इन “महादेव” को समुद्र नहीं माना जा सकता, क्योंकि वाल्मीकीय-रामायण में भगवान् शिव ने ही श्रीराम को महाराज दशरथ का दर्शन कराया था।12 (वाल्मीकीय-रामायण १.५४.१५)
यदि तुष्टो महादेव धनुर्वेदो ममानघ ।
साङ्गोपाङ्गोपनिषदः सरहस्यः प्रदीयताम् ॥
(वाल्मीकीय-रामायण १.५४.१६)
तदा तज्ज्ञम्भितं शैवं धनुर्भीमपराक्रमम् ।
हुङ्कारेण महादेवः स्तम्भितोऽथ त्रिलोचनः ॥
(वाल्मीकीय-रामायण १.७४.१७)
स तैः परिवृतो घोरै राघवो रक्षसां गणैः ।
तिथिष्विव महादेवो वृतः पारिषदां गणैः ॥
(वाल्मीकीय-रामायण ३.२४.१०)
दैवतैस्तु समागम्य सर्वैश्चन्द्रपुरोगमैः ।
वृषध्वजस्त्रिपुरहा महादेवः प्रसादितः ॥
(वाल्मीकीय-रामायण ६.८२.३४)
प्रसन्नस्तु महादेवो देवानेतद्वचोऽब्रवीत् ।
उत्पत्स्यति हितार्थं वो नारी रक्षःक्षयावहा ॥
(वाल्मीकीय-रामायण ६.८२.३५)
षडर्धनयनः श्रीमान्महादेवो वृषध्वजः ।
कर्ता सर्वस्य लोकस्य ब्रह्मा ब्रह्मविदां वरः ॥
(वाल्मीकीय-रामायण ६.१०५.२)
महादेववचः श्रुत्वा काकुत्स्थः सहलक्ष्मणः ।
विमानशिखरस्थस्य प्रणाममकरोत्पितुः ॥
(वाल्मीकीय-रामायण ६.१०७.९)
इनके अतिरिक्त उत्तरकांड के समीक्षित-पाठ में “महादेव” शब्द ७ बार आया है। प्रत्येक स्थान पर यह भगवान् शिव का अभिधान है।
10 “देवदेवेत्यनेन महादेवशब्दार्थः उक्तः” (गोविंदराज)
11 वाल्मीकीय-रामायण ६.११३.११
12 एष राजा विमानस्थः पिता दशरथस्तव ।
काकुत्स्थ मानुषे लोके गुरुस्तव महायशाः ॥
(वाल्मीकीय-रामायण ६.१०७.७)
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अतः संपूर्ण रामायण में गोविंदराज केवल एक स्थान पर “महादेव” का अर्थ “समुद्र” मानते हैं। ११ स्थानों पर वे मौन रहते हैं, जहाँ प्रसंग से “महादेव” का अर्थ “शिव” सिद्ध है। इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि वाल्मीकीय-रामायण में “महादेव” का रूढार्थ “शिव” है। प्रायः सभी इतिहास-पुराणों और कोश-ग्रंथों में “महादेव” का प्रधान और रूढ़ अर्थ “शिव” ही है।13 वैदिक संहिताओं में “महादेव” शब्द प्राधान्यतः संज्ञा के रूप में रुद्र के लिए प्रयुक्त हुआ है। 14 महाभारत के समीक्षित- पाठ में “महादेव” शब्द १४६ बार आया है, जिसमें से १४५ बार वह शिव के लिए प्रयुक्त हुआ है। केवल एक स्थान पर विष्णुसहस्रनाम-स्तोत्र में विष्णु के नामों में “शर्व”, “शिव” और “रुद्र” आदि के साथ-साथ “महादेव” भी उल्लेखित है, जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे। विष्णु-परक पुराणों की बात करें तो विष्णुपुराण (२ बार) और भागवत-पुराण (११ बार) में जब-जब “महादेव” शब्द आया है, तब-तब वह शिव के लिए ही प्रयुक्त हुआ है। मेरे संज्ञान में किसी इतिहास-पुराण में समुद्र को “महादेव” नहीं कहा गया है। पूर्वपक्षी यह तर्क दे सकते हैं कि वाल्मीकीय-रामायण में “महादेव” सर्वत्र विशेषण है। अत एव, यह विशेषण समुद्र को भी दिया जा सकता है। किंतु यह वाल्मीकीय-रामायण की प्रयोग-शैली के विरुद्ध है। वाल्मीकीय- रामायण में ऐसे अनेक असंदिग्ध उदाहरण हैं, जहाँ किसी अन्य विशेष्य के अभाव में “महादेव” को संज्ञा मानने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है। 15 और वह विशेषण भी कैसा जो ग्रंथ में १२ में से ११ बार एक ही व्यक्ति के लिए प्रयुक्त हुआ हो और जिसका केवल एक प्रयोग विवादित हो? “महादेव” के ही समान एक अन्य शब्द
13 “वामदेवो महादेवो विरूपाक्षस्त्रिलोचनः” (अमरकोश १.१.३९), “महापरा देवनटेश्वरा हरः” (अभिधानचिन्तामणि ११८)
14 “चित्तं सन्तानेन भवं यक्ना रुद्रं तनिम्ना पशुपतिं स्थूलहृदयेनाग्निं हृदयेन रुद्रं लोहितेन शर्वं मतस्त्राभ्यां महादेवमन्तःपार्श्वेनौषिष्ठहनं शिङ्गीनिकोश्याभ्याम्” (कृष्ण-यजुर्वेद तैत्तिरीय-संहिता १.४.३६); “हृदयाग्रेण पशुपतिं कृत्स्नहृदयेन भवं यक्ना शर्वं मतस्नाभ्यामीशानं मन्युना महादेवम्…” (शुक्ल-यजुर्वेद ३९.८); “उग्रं लोहितेन मित्रं सौव्रत्येन रुद्रं दौर्ब्रत्येनेन्द्रं प्रक्रीडेन मरुतो बलेन साध्यान् प्रमुदा, भवस्य कण्ठ्यं रुद्रस्यान्तःपार्घ्यं महादेवस्य यकृच्छर्वस्य वनिष्ठः पशुपतेः पुरीतत्” (शुक्ल यजुर्वेद ३९.९); “मित्रश्च वरुणश्वांसौ त्वष्टा चार्यमा च दोषणी महादेवो बाहू” (अथर्ववेद १.१२.७); “यूयमुग्रा मरुतः पृश्निमातर इन्द्रेण युजा प्र मृणीत शत्रून्, सोमो राजा वरुणो राजा महादेव उत मृत्युरिन्द्रः” (अथर्ववेद ५.२१.११); “हेतिः शफानुत्खिदन्ती महादेवोऽपेक्षमाणा” (अथर्ववेद १२.७.१९); “सोऽर्यमा स वरुणः स रुद्रः स महादेवः” (अथर्ववेद १३.४.४); “सोऽवर्धत स महानभवत् स महादेवोऽभवत्, स देवानामीशां पर्येत् स ईशानोऽभवत्” (अथर्ववेद १५.१.४-५); “तस्मा ऊर्ध्वाया दिशो अन्तर्देशान्महादेवमिष्वासमनुष्ठातारमकुर्वन्, महादेव एनमिष्वास ऊर्ध्वाया दिशो अन्तर्देशादनुष्ठातानु तिष्ठति नैनं शर्वो न भवो नेशानः नास्य पशून् न समानान् हिनस्ति य एवं वेद” (अथर्ववेद १५.५.१२-१३)
15 स गत्वा हिमवत्पार्श्व किन्नरोरगसेवितम् ।
महादेवप्रसादार्थं तपस्तेपे महातपाः ॥
(वाल्मीकीय-रामायण १.५४.१२)
महादेववचः श्रुत्वा काकुत्स्थः सहलक्ष्मणः ।
विमानशिखरस्थस्य प्रणाममकरोत्पितुः ॥
(वाल्मीकीय-रामायण ६.१०७.९)
वरदानं महेन्द्रेण ब्रह्मणा वरुणेन च ।
महादेवप्रसादाच्च पित्रा मम समागमम् ॥
(वाल्मीकीय-रामायण ६.११३.११)
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“महेश्वर” भी शिव के लिए रूढ़ है। यह ऐसी निर्विवाद बात है कि महाकवि कालिदास ने इंद्र के लिए “शतक्रतु” शब्द के रूढत्व को व्यक्त करने के लिए विष्णु के नाम “पुरुषोत्तम” और शिव के नाम “महेश्वर” की उपमा प्रदान की है।16 कालिदास के अनुसार इनमें से एक भी शब्द “द्वितीयगामी” नहीं हैं। अब यदि पूर्वपक्षी का आग्रह है कि एक विशिष्ट स्थान पर “महादेव” का अर्थ “समुद्र” माना जाए तो इसका कोई शाब्दिक आधार भी होना चाहिए। गोविंदराज ने “महादेव” शब्द की कोई स्वमतानुकूल व्युत्पत्ति उपस्थापित नहीं की है। यदि पूर्वपक्षी के अनुसार समुद्र को उसकी विशालता के कारण “महादेव” कहा गया है 17, तो इस व्याख्या से न तो “महादेव” का रूढ़ार्थ बाधित होता है और न ही यौगिकार्थ प्रकाशित। कुछ लोग वाल्मीकीय-रामायण में समुद्र के लिए प्रयुक्त “महोदधि” और “महार्णव” जैसे शब्दों से “महादेव” का अर्थ समुद्र करना चाहते हैं। किंतु “महोदधि” अथवा “महार्णव” का “महादेव” से कोई संबंध नहीं है। इन दोनों शब्दों में समुद्र के पर्याय (“उदधि” और “अर्णव”) उत्तरपद के रूप में निहित हैं। किंतु पूर्वपक्षी का तर्क तो पूर्वपद (“महत्”) की समानता के आधार पर है। यदि केवल पूर्वपद की समानता के कारण समुद्र को “महादेव” मानने का आग्रह हो तो यह शब्द अनेक देवताओं के लिए प्रयुक्त हो सकता है। देवराज इंद्र का ही एक नाम “महेंद्र” है, जो वाल्मीकीय-रामायण में अनेकशः प्रयुक्त हुआ है। इसी प्रकार वाल्मीकीय-रामायण में शिव के लिए “महेश्वर” शब्द ७ बार आया है। फिर यह कैसे ज्ञात होगा कि “अत्र पूर्व महादेवः प्रसादमकरोत्प्रभुः” में “महादेव” का अर्थ समुद्र ही है, इंद्र अथवा शिव नहीं? इंद्र और शिव का देवत्व तो फिर भी सिद्ध है परंतु समुद्र का देवत्व संशयास्पद है। अतः “महादेव” का अर्थ “शिव” मानने में पूर्वपद और उत्तरपद दोनों का औचित्य है। जब इस संकट से बचने के लिए पूर्वपक्षी प्रसंगानुसार अर्थ-निर्धारण का समर्थन करें तो हम भी आगे प्रकृत श्लोक के प्रसंग से “महादेव” का अर्थ “शिव” सिद्ध करेंगे। वाल्मीकीय-रामायण में समुद्र को कहीं भी देवता के रूप में उपस्थापित नहीं किया गया है। केवल नदियों का स्वामी (“सरितां पतिः” अथवा “नदनदीपतिः”) हो जाने से समुद्र का देवत्व सिद्ध नहीं होता है। यदि ऐसा होता हो तो “शैलेंद्र”, “पर्वतोत्तम”, “गिरिसत्तम” और “श्रीमान्” आदि विशेषणों से युक्त महेंद्र अथवा मैनाक पर्वत भी देवता सिद्ध हो जाएँगे। फिर क्या? वाल्मीकीय-रामायण में मनुष्यों से लेकर वानरों और राक्षसों तक जिस- जिस पात्र को किसी समूह में श्रेष्ठ, महान् अथवा अधिपति कहा गया है, वे सभी देवता बन जाएँगे।18 ऐसी कल्पना कहाँ तक उचित है?
16 हरिर्यथैकः पुरुषोत्तमः स्मृतो महेश्वरस्त्त्र्यम्बक एव नापरः ।
तथा विदुर्मां मुनयः शतक्रतुं द्वितीयगामी न हि शब्द एष नः ॥
(रघुवंश ३.४९)
17 महांश्चासौ देवो विशालत्वात्
18 चित्रनानानगः श्रीमान्महेन्द्रः पर्वतोत्तमः ।
जातरूपमयः श्रीमानवगाढो महार्णवम् ॥
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यद्यपि वाल्मीकीय-रामायण में समुद्र स्वयं देवता नहीं है, तथापि ग्रंथ में समुद्र को २२ बार “वरुणालय” और १ बार “वरुणावास” कहा गया है, जिससे सिद्ध होता है कि समुद्र एक अन्य देव वरुण का आवास-स्थान है। वेदों से लेकर वाल्मीकीय-रामायण तक वरुण का देवत्व सर्वमान्य है। अतः यदि “महादेव” का अर्थ “जल का देव” मान भी लिया जाए तो वहाँ विवक्षा वरुण से ही होगी, समुद्र से नहीं। किंतु “वरदानं महेन्द्रेण” श्लोक में वरुण और “महादेव” अलग-अलग उल्लेखित हैं। तब अवश्य ही “महादेव” का रूढार्थ “शिव” स्वीकार्य होना चाहिए। पूर्व में आचार्य गोविंदराज स्वयं “महादेव” का अर्थ “देवदेव” स्वीकार कर चुके हैं। यह उचित ही है, क्योंकि दोनों शब्दों में अर्थ-साम्य है। तब क्या समुद्र को “देवदेव” (देवों के देव) मानना भी उचित है? क्या “समुद्र” देवताओं का भी देवता है? क्या वही सर्वश्रेष्ठ देव है? ऐसा अभिधान तो किसी शास्त्र में प्राप्त नहीं होता है। तब पूर्वपक्षी का तर्क होगा कि गोविंदराज द्वारा प्रदत्त “महादेव” का अर्थ केवल पूर्व प्रकरण के लिए मान्य है और प्रकृत प्रकरण में अमान्य है।
फिर प्रकृत प्रकरण में “महादेव” का क्या अर्थ है? सत्य तो यह है कि यदि “महादेव” के रूढार्थ का निराकरण भी कर दिया जाए तो अपने यौगिकार्थ (“महान् देव”) में भी यह समुद्र का वाचक नहीं हो सकता। जब पूर्वपक्षी ने एक बार हठपूर्वक रूढ़ार्थ का निषेध कर ही दिया है, तब उन्हें भाँति- भाँति की विप्रतिपत्तियों से घबराना नहीं चाहिए।
२. “महत्” का अर्थ
“महादेव” का अर्थ “समुद्र” मानने के लिए पूर्वपक्षी एक अन्य तर्क यह दे सकते हैं कि निघंटु (१.१२.५२) में “महत्” को “जल” का एक नाम बताया गया है। अतः पूर्वपक्षी कह सकते हैं कि जल के देवता होने के कारण समुद्र का नाम “महादेव” है। किंतु न केवल यह अर्थ अप्रसिद्ध है, अपितु सर्वथा अप्रयुक्त है। निरुक्त में महर्षि यास्क ने “महत्” का प्रयोग विशेषण के रूप में किया है और उसका अर्थ “बृहत्” माना है। यास्क ने कहीं भी “महत्” का अर्थ “जल” प्रकाशित नहीं किया है। संपूर्ण वैदिक वाङ्गय में “जल” के अर्थ में “महत्” का कोई प्रयोग प्राप्त नहीं होता है। उदाहरण-स्वरूप केवल ऋग्वेद में “महत्” शब्द १०५ बार आया है, किंतु कहीं भी इसका अर्थ “जल” नहीं है। सायणाचार्य के भाष्य के अनुसार ऋग्वेद में प्रत्येक स्थान पर “महत्” का अर्थ “बड़ा” अथवा “विशाल” ही है, “जल” नहीं। 19 (वाल्मीकीय-रामायण ४.४०.२१)
19 Bhat, G. N. (1985). A critical study of the Nighantu (Doctoral dissertation, Karnatak University). 8
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“महत्” शब्द की अप्राप्ति में कोई आश्चर्य नहीं है, क्योंकि निघंटु में सूचित जल के १०१ नामों में से ५३ नाम इस अर्थ में कहीं प्रयुक्त होते नहीं देखे गए हैं। इन नामों के अवलोकन-मात्र से इनके “जल” अर्थ का निराकरण हो जाता है - “क्षप”, “तृप्ति”, “ओजस्”, “सुख”, “क्षत्र”, “भूत”, “व्योमन्”, “अन्न”, “हविस्”, “सद्मन्”, “सदन”, “सत्य”, “सर्व”, “बर्हिस्”, “सर्पिस्”, “इंदु”, “हेम”, “स्वर्” इत्यादि। ये शब्द ऐसे हैं कि इनका कहीं प्रकरण-वशात् भी “जल” अर्थ नहीं किया जा सकता है। 20 किंतु निघंटु में ऐसे अप्रासंगिक अथवा अप्रयुक्त शब्दों का संग्रह क्यों प्राप्त होता है? इसका एक संभावित कारण यह है कि इनमें से कुछ शब्द वेद के विलुप्त भागों में प्राप्त होते हों, जैसे “जल” का पर्याय “नीर” वर्तमान वैदिक वाङ्गय में अनुपलब्ध है। किंतु यह इतिहास- पुराणों में अनेकशः प्राप्त होता है। “महत्” शब्द के विषय में यह कारण उपेक्षणीय है क्योंकि यह शब्द विद्यमान वैदिक वाङ्गय में सैकड़ों बार प्रयुक्त होते हुए भी “जल” के अर्थ में एक बार भी प्राप्त नहीं होता। दूसरा कारण यह हो सकता है कि निघंटु के कुछ शब्द एक ही मंत्र में विशेषण-विशेष्य के रूप में प्रयुक्त होने के कारण एक साथ संगृहीत कर लिए गए हैं। किंतु तीसरा और सबसे मूलभूत कारण तो यास्क स्वयं स्वीकार करते हैं कि धर्म का साक्षात्कार करने वाले मंत्रद्रष्टा ऋषियों ने ऐसे साक्षात्कार के विहीन शिष्यों को जब उपदेश द्वारा मंत्र दिया तो उन शिष्यों ने मंत्र की रक्षा करने के लिए कष्टपूर्वक निघंटु जैसे ग्रंथों की रचना की।21 अत एव, इन ग्रंथों में कुछ दोषों का होना अवश्यंभावी है। निघंटु के टीकाकार देवराज यज्वा ने “जल” के अर्थ में “महत्” के दो निर्वचन प्रदान किए हैं-
20 यदि “आपो वै सर्वः” (शतपथ ब्राह्मण ६.१.३.११) के अनुसार कोई “सर्व” को जल का नाम सिद्ध करने चाहे तो वहाँ ध्यातव्य है कि निघंटु (१.१२) में “सर्वम्” नपुंसकलिंग-शब्द का उल्लेख है, न कि “सर्वः” पुँल्लिंग शब्द का। यह प्रयास भी वैसा ही होगा जैसे कोई “यज्ञो वै विष्णुः” (तांड्य-ब्राह्मण ९.६.१०) अथवा “विष्णुर्वै यज्ञः” (ऐतरेय-ब्राह्मण १.१५) से श्रुति-स्मृति में जहाँ-जहाँ “यज्ञ” शब्द दिखे, वहाँ-वहाँ उसके रूढ़ार्थ का त्याग कर “यज्ञ” के स्थान पर “विष्णु” का अध्याहार करे। इसका दुष्परिणाम यह होगा कि दक्ष-यज्ञ के विध्वंस के समय भगवान् रुद्र के भय से भागने वाला मृग-रूपी यज्ञ भी विष्णु मान लिया जाएगा-
अभिभूतास्ततो देवा विषयान्न प्रजज्ञिरे ।
न प्रत्यभाच्च यज्ञस्तान्वेदा बभ्रंशिरे तदा ॥
ततः स यज्ञं रौद्रेण विव्याध हृदि पत्रिणा ।
अपक्रान्तस्ततो यज्ञो मृगो भूत्वा सपावकः ॥
(महाभारत १०.१८.१२-१३)
इसी प्रकार “अन्नं ब्रह्मेति” (तैत्तिरीयोपनिषद् ३.२.१), “रसो वै सः” (तैत्तिरीयोपनिषद् २.७.१) आदि वचनों से जहाँ-जहाँ “अन्न” अथवा “रस” शब्द दिखे, वहाँ-वहाँ उसे “ब्रह्म” का पर्याय माना जा सकता है। किंतु ऐसा करना दुराग्रह-मात्र होगा। ये अर्थ तो किसी को अभीष्ट नहीं हैं। वस्तुतः श्रुति-स्मृति में इस प्रकार के वाक्य दो पदार्थों की मूलभूत एकात्मता के परिचायक हैं।
21 “साक्षात्कृतधर्माण ऋषयो बभूवुः। तेऽवरेभ्योऽसाक्षात्कृतधर्मभ्य उपदेशेन मन्त्रान्सम्प्रादुः। उपदेशाय ग्लायन्तोऽवरे बिल्मग्रहणायेमं ग्रन्थं समाम्नासिषुः।” (निरुक्त १.२०)
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१. जिसके द्वारा देवता की पूजा की जाए अथवा जो स्वयं देवता होने के कारण पूजित होता हो 22, २. जो अपने परिमाण के द्वारा अपने से लघुकाय पदार्थों का अतिक्रमण करता हो। 23
देवराज यज्वा स्वीकार करते हैं कि निघंटु में प्रदत्त “जल” के अनेक नामों के वैदिक प्रयोग अन्वेषणीय हैं। 24
इस अर्थ में यदि “महत्” का प्रयोग भी अप्राप्य हो तो किसी को आश्चर्य नहीं होगा। किंतु देवराज यज्वा ने
“जल” के अर्थ में “महत्” के प्रयोग का जो वैदिक उदाहरण दिया है, वह वस्तुतः विशेषण के रूप में है, संज्ञा
के रूप में नहीं। संपूर्ण मंत्र इस प्रकार है-
महत्तदुल्बं स्थविरं तदासीद्येनाविष्टितः प्रविवेशिथापः ।
विश्वा अपश्यद् बहुधा ते अग्ने जातवेदस्तन्वो देव एकः ॥25
यहाँ देव-गण जल में विलीन अग्नि-देव से कह रहे हैं - “हे अग्ने! वह आवरण अत्यंत स्थूल था, जिससे
आवेष्टित हो तुम जल में प्रविष्ट हुए थे। हे जातवेद! केवल एक देव तुम्हारे अनेक प्रकार के रूपों को देख चुका
है।”
यहाँ “महत् स्थविरम्” (अर्थात् “अत्यंत स्थूल” अथवा “विशाल और स्थूल”) “उल्ब” (अर्थात् “आवरण” अथवा
“गर्भाशय”) का विशेषण है। “महत्” का अर्थ “अतिशय” अथवा “विशाल” है, “जल” नहीं। सायण-भाष्य भी
इस अर्थ का समर्थन करता है। 26
गोविंदराज से पूर्व वाल्मीकीय-रामायण के टीकाकार महेश्वर तीर्थ ने वैजयंती-कोश का उद्धरण देते हुए “महत्”
का अर्थ “जल” बताया है। 27 वैजयंती-कोश के प्रणेता यादवप्रकाश हैं, जिन्हें श्रीवैष्णव-संप्रदाय का आचार्य
22 “अस्मात् ‘वर्तमाने पृषद्वृहन्महञ्ज्ञगच्छतृवच्च’ (उणादिसूत्र २.८४) इति निपातम्। महति महयति वा देवतामनेन पुरुषस्येति महत्, मह्यते वा
देवतात्वात्।” (निघंटु १.१२.५२ पर देवराज-यज्वा की टीका)
23 “मानेन स्वगतेन परिमाणेन अन्यान् स्वस्मादूनप्रमाणान् पदार्थान् जहाति अतिक्रामति ‘दशोत्तराण्यावरणानि सप्त’ इत्यत्र विष्णुपुराणे
सर्वमहत्त्वं जलतत्त्वस्योक्तम्।” (निघंटु १.१२.५२ पर देवराज-यज्वा की टीका)
24 “निगमोऽन्वेषणीयः” (निघंटु १.१२ पर देवराज-यज्वा की टीका में बार-बार संसूचित)
25 ऋग्वेद १०.५१.१
26 “तदुल्बं वक्ष्यमाणं तत् प्रावरणं महत् स्थविरम् अत्यन्तं स्थूलं च तत् तत् आसीत् येन उल्बेन आविष्टितः आवेष्टितः सन् हे अग्ने
प्रविवेशिथापः उदकानि प्रविष्टवानसि। हे अग्ने जातवेदः जातप्रज्ञ ते विश्वाः सर्वाः तन्वः तनूः सर्वाण्यङ्गानि बहुधा बहुप्रकारम् एकः देवः
अपश्यत् दृष्टवान्।” (ऋग्वेद १०.५१.१ पर सायण-भाष्य)
27 “तद्रूपीदेवो महादेवः समुद्रः। तदाह वैजयन्ती -
गम्भीरं गहनं रत्नं गह्वरं शरणं वपुः ।
स्नेहं सेव्यं महच्छुद्धं वरुणं सर्वतोमुखम् ।
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[[010]]
माना जाता है। “महत्” के साथ-साथ यादवप्रकाश ने जल के १२ अन्य कल्पनातीत नामों को प्रस्तुत किया है - “गंभीर”, “गहन”, “रत्न”, “गह्वर”, “वपुष्”, “स्नेह”, “सेव्य”, “शुद्ध”, “सर्वतोमुख”, “पाताल”, “स्वादु”, और “दिव्य”। यदि इन सभी शब्दों का विनियोग “जल” के अर्थ में हो सकता है तो किसी भी शब्द का प्रयोग किसी भी अर्थ में किया जा सकता है। वस्तुतः इनमें से कुछ शब्द “जल” के विशेषण हो सकते हैं (जैसे “शुद्ध”) अथवा कुछ शब्दों से जल की उपमा दी जा सकती है (जैसे “रत्न”)। किंतु ये सभी शब्द जल के अर्थ में प्रयुक्त होते नहीं देखे गए हैं। वैजयंती-कोश की तो यह विशेषता ही है कि इसमें कई अप्रचलित और अप्रसिद्धार्थ शब्दों का संग्रह किया गया है, जिनका आश्रय टीकाकार अपने अभीष्ट अर्थ की सिद्धि के लिए लेते रहे हैं।
मेरे संज्ञान में वैदिक वाङ्गय के अतिरिक्त संपूर्ण ऐतिहासिक और पौराणिक वाङ्गय में भी “जल” के अर्थ में
“महत्” का कोई प्रयोग नहीं मिलता है। वाल्मीकीय-रामायण में भी ऐसा कोई प्रयोग उपलब्ध नहीं है।
यदि “महत्” का अर्थ “जल” स्वीकार भी कर लिया जाए तो व्याकरण के अनुसार षष्ठी तत्पुरुष समास
(“महतां जलानां देवः”) करने पर यह शब्द “महद्देव” हो जाएगा, “महादेव” नहीं। “आन्महतः
समानाधिकरणजातीययोः” (पाणिनि-सूत्र ६.३.४६) के अनुसार केवल समानाधिकरण में (अथवा “जातीय”
उत्तरपद होने पर) समास में “महत्” के अंत में “आत्” आता है। असमानाधिकरण में “महद्देव” शब्द सिद्ध
होगा, जबकि पाठ “महादेव” है। तब तथाकथित आर्षप्रयोग का सहारा लेने के अतिरिक्त पूर्वपक्षी के पास कोई
और विकल्प नहीं बचेगा।
यदि पूर्वपक्षी कहें कि पाणिनि-व्याकरण के अनुसार वाल्मीकीय-रामायण के प्रयोगों का निर्णय करना अनुचित
है, तो ध्यातव्य है कि पाणिनीय-व्याकरण में लौकिक और वैदिक - दोनों प्रकार के शब्दों का अनुशासन दिया
गया है। पराशर-उपपुराण में कहा गया है कि यद्यपि न्याय-वैशेषिक जैसे शास्त्रों के श्रुति-विरुद्ध अंशों का
त्याग कर देना चाहिए, तथापि शब्दों के अनुशासन में संपूर्ण पाणिनीय शास्त्र ग्राह्य है, किसी भी प्रकार त्याज्य
नहीं। जब इतिहास में प्रयुक्त किसी शब्द का पाणिनीय-व्याकरण के द्वारा स्पष्ट निरूपण हो रहा है तो वहाँ
पातालं स्वादु दिव्यं च तानि पञ्चदशाप्स्वपि ॥
(वैजयंतीकोश, शेषकाण्ड, नपुंसकलिंगाध्याय १७-१८)
इति। यद्वा प्रसादं स्वसंनिधानरूपं। ‘दर्शयामास चात्मानं समुद्रः सरितां पतिः।’ इत्युक्तत्वात् महादेवः समुद्र एव।” (महेश्वर-तीर्थ)
28 पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम् ।
मूढैः पाषाणखण्डेषु रत्नसंज्ञा विधीयते ॥
(चाणक्यनीतिदर्पण १४.१)
29 इसी वैजयंती कोश में “कपि” का अर्थ “सूर्य” बताया गया है, जो “कप्यास” श्रुति की व्याख्या में श्रीवैष्णव-संप्रदाय के आचार्यों को
अभीष्ट है- “कपयोऽर्केभवानराः” (वैजयंतीकोश, द्व्यक्षर-कांड १३)। अन्यत्र “कपि” का “सूर्य” अर्थ अप्रसिद्ध है।
30 “अथ शब्दानुशासनम्। केषां शब्दानाम्? लौकिकानां वैदिकानां च।” (महाभाष्य १.१.१)
31 पाणिनीयं महाशास्त्रं पदसाधुत्वलक्षणम् ।
सर्वोपकारकं ग्राह्यं कृत्स्त्रं त्याज्यं न किञ्चन ॥
11
[[011]]
अपाणिनीय प्रयोग की कल्पना क्यों की जाए? जब वाल्मीकीय-रामायण में “महादेव” समेत “महत्” पूर्वपद से युक्त सभी समस्त पदों को समानाधिकरण के नियम के द्वारा कर्मधारय समास के रूप में समझाया जा सकता है तो केवल इसी एक स्थान पर षष्ठी-तत्पुरुष की कल्पना करने का क्या आधार है? संभवतः इस मार्ग को अवरुद्ध जानकर ही गोविंदराज ने यह अर्थ प्रकाशित नहीं किया है। निष्कर्ष यह निकलता है कि केवल निघंटु में उल्लेखित हो जाने से किसी शब्द का रूढार्थ तो क्या वैकल्पिक अर्थ भी सिद्ध नहीं होता है। अब विचारणीय है कि सेतु-बंधन जैसे महत्त्वपूर्ण प्रसंग के कथन के लिए महर्षि वाल्मीकि एक अत्यंत अप्रसिद्ध, पूर्व में अप्रयुक्त और संदेहास्पद शब्द का प्रयोग क्यों करेंगे? जब रूढ़ार्थ का निषेध कर किसी शब्द का बलात् अर्थ गढ़ा जाता है तो ऐसे कठिन प्रश्न अनुत्तरित ही रह जाते हैं।
३. रूढ़ार्थ का प्राबल्य
मीमांसा का सर्वमान्य नियम है कि किसी शब्द के यौगिकार्थ से उसका रूढ़ार्थ अधिक बलवान् है। पूर्वमीमांसा- दर्शन में इस नियम का प्रयोग बहुशः किया गया है। केवल प्रकरण भी रूढ़ार्थ के निषेध में समर्थ नहीं है। उदाहरण-स्वरूप ज्योतिष्टोम-याग के प्रकरण में कहा गया है- “तिस्र एव साह्नस्योपसदो द्वादशाहीनस्य” (तैत्तिरीय-संहिता ६.२.५) अर्थात् “साह्न (ज्योतिष्टोम) में तीन उपसत् (होम-विशेष) होते हैं और अहीन में बारह उपसत् होते हैं। यहाँ “अहीन” शब्द “साह्न” के साथ एक ही वाक्य में प्रयुक्त हुआ है। अब “अहीन” के दो अर्थ हो सकते हैं - यौगिक और रूढ। “अहीन” का यौगिक अर्थ है - जिस याग में दक्षिणा, यज्ञोपकरण और फल आदि में से कुछ भी हीन अथवा स्खलित नहीं है (“न हीयत इत्यहीनः”)। यौगिक अर्थ स्वीकार करने पर यह “अहीन” शब्द “साह्न” का विशेषण माना जा सकता है। किंतु “अहीन” का रूढ़ार्थ अहर्गण नामक एक भिन्न याग है। मीमांसा-सूत्र (३.३.१६) के अनुसार जब “अहीन” का मुख्यार्थ संभव है, तब उसका गौणार्थ स्वीकार करना उचित नहीं है। 32 प्रकरण की अपेक्षा भी रूढ़ि बलवान् है। इसी प्रकार अस्याधान के प्रकरण में कहा गया है - “आदधीत… वर्षासु रथकारः” (बौधायन-श्रौतसूत्र २४.१६) अर्थात् वर्षा ऋतु में रथकार अस्याधान करे। यहाँ भी “रथकार” के दो अर्थ हो सकते हैं - यौगिक और रूढ। यौगिक अर्थ है “रथ बनानेवाला” (“रथं करोति”), जो त्रैवर्णिक भी हो सकता है। रूढ़ार्थ है रथकार नामक (पराशरोपपुराण ९.२९)
32 “असंयोगात् तु मुख्यस्य तस्मादपकृष्यते” (मीमांसा-सूत्र ३.३.१६)
[[012]]
संकर जाति-विशेष। मीमांसा-सूत्र (६.१.४४-४५) के अनुसार उपर्युक्त विधि-वाक्य में यौगिक अर्थ नहीं, अपितु
रूढ़ार्थ ही स्वीकार्य है।
उत्तर-मीमांसा में रूढ़ार्थ का महत्त्व स्वयं श्रीरामानुजाचार्य और श्रीरंगरामानुजाचार्य स्वीकार करते हैं। “शब्दादेव
प्रमितः” (ब्रह्मसूत्र १.३.२३) के श्रीभाष्य में श्रीरामानुजाचार्य कठोपनिषद् (२.१.१२) की श्रुति “अङ्गष्ठमात्रः पुरुषो
मध्य आत्मनि तिष्ठति” में पुरुष के लिए “अंगुष्ठमात्र” विशेषण आने पर भी उसे जीवात्मा नहीं, अपितु परमात्मा
मानते हैं। 33 कारण यह कि श्लोक के उत्तरार्ध में “ईशान” शब्द आया है, जिसका रूढ़ार्थ ईश्वर है। यह जीवात्मा
नहीं हो सकता है।
इसी प्रकार “महादेव” शब्द शिव के लिए रूढ़ है। यह शब्द केवल तथाकथित तामस पुराणों में नहीं, अपितु
वाल्मीकीय-रामायण, महाभारत और विष्णु-परक पुराणों में भी सहस्रशः शिव के लिए आया है। वाल्मीकीय-
रामायण में सेतुबंध के समय शिव-प्रसाद के वृत्तांत के अनुक्त होने पर भी युद्ध के अंत में आए “अत्र पूर्वं
महादेवः प्रसादमकरोत् प्रभुः” में रूढ़ि के बल से “महादेव” का अर्थ “शिव” ही ग्राह्य होगा, क्योंकि प्रकरण की
अप्रसिद्धि रूढ़ार्थ को बाधित नहीं कर सकती है।
यदि पूर्वपक्षी “साक्षादप्यविरोधं जैमिनिः” (ब्रह्मसूत्र १.२.२८) से कदाचित् यौगिकार्थ को रूढार्थ से बलवान् मानने
का आग्रह करें तो उनका तर्क प्रसंगच्युत होगा। वहाँ छांदोग्योपनिषद् (५.१८.२) में “वैश्वानर” शब्द का प्रयोग
आया है, जिसे जैमिनि (और बादरायण) के मतानुसार “जठराग्नि” नहीं, अपितु “परमात्मा” का वाचक मानना
चाहिए। ध्यातव्य है कि “वैश्वानर” का एक नहीं, अपितु दो रूढार्थ हैं - जठराग्नि और विराट् पुरुष। प्रथम अर्थ
लोक में तो द्वितीय अर्थ वेद और स्मृति में प्रसिद्ध है। अत एव, अन्य श्रुति-स्मृतियों में प्रयोग, उपास्य होने के
औचित्य और प्रकरण से अविरोध के कारण छांदोग्य श्रुति में प्रथम रूढार्थ का निराकरण कर द्वितीय रूढार्थ
को स्वीकार किया गया है। किंतु “महादेव” शब्द का एक ही रूढार्थ है - “शिव”, जिसके निषेध का कोई
समुचित आधार उपलब्ध नहीं है।34
“महादेव” के रूढ़ार्थ के विरोध में वाल्मीकीय-रामायण के हिंदी-अनुवादक चतुर्वेदी द्वारकाप्रसाद शर्मा एक अन्य
तर्क देते हैं कि यह विष्णुसहस्रनाम स्तोत्र में भगवान् विष्णु का भी एक नाम है। 35 अतः यह विशेष रूप से शिव
33 अङ्गष्ठमात्रः पुरुषो मध्य आत्मनि तिष्ठति ।
ईशानो भूतभव्यस्य न ततो विजुगुप्सते ॥
(कठोपनिषद् २.१.१२)
34 “तस्य ह वा एतस्यात्मनो वैश्वानरस्य मूर्धेव सुतेजाश्चक्षुर्विश्वरूपः प्राणः पृथग्वर्मात्मा संदेहो बहुलो बस्तिरेव रयिः पृथिव्येव पादावुर एव
वेदिर्लोमानि बर्हिहृदयं गार्हपत्यो मनोऽन्वाहार्यपचन आस्यमाहवनीयः।” (छांदोग्योपनिषद् ५.१८.२)
35 गभस्तिनेमिः सत्त्वस्थः सिंहो भूतमहेश्वरः ।
आदिदेवो महादेवो देवेशो देवभृद्गुरुः ॥
13
[[013]]
के लिए रूढ़ नहीं है। किंतु सहस्रनाम स्तोत्रों में किसी शब्द के उल्लेख से उसके रूढ़ार्थ का निश्चय नहीं किया
जाता है। प्रायः सहस्रनाम-स्तोत्रों में देवता की विभिन्न विभूतियों की परिगणना की जाती है अथवा उसे अन्य
दैवी शक्तियों से एकाकार दिखाया जाता है। विष्णुसहस्रनाम-स्तोत्र में ही ऐसे अनेक नाम निबद्ध हैं जो अन्य
देवों, महापुरुषों, पशु-पक्षियों, और यहाँ तक कि भौतिक तत्त्वों के नाम हैं। 36
इसी प्रकार महाभारतांतर्गत-शिवसहस्रनाम-स्तोत्र में भी वह “विष्णु”, “शक्र”, “प्रजापति”, “सविता”, “त्वष्टा”,
“धन्वंतरि”, “स्कंद” आदि अनेक नाम समाविष्ट हैं। 37 इस उल्लेख-मात्र से “विष्णु” जैसे शब्द का रूढ़ार्थ
संशयापन्न नहीं होता है। सहस्रनाम स्तोत्रों में इन नामों के उल्लेख का अभिप्राय “सर्वं विष्णुमयं जगत्” 38 को
चरितार्थ करना है, इनके रूढ़ार्थ को बाधित करना नहीं।
पूर्वमीमांसा के अनुसार जब किसी शब्द का प्रसिद्ध अर्थ संभव हो तो उस प्रसिद्ध अर्थ को छोड़कर किसी
अप्रसिद्ध अर्थ की कल्पना नहीं करनी चाहिए।39 “महादेव” के सुप्रतिष्ठित रूढ़ार्थ का निरास करने के लिए तर्क
भी सुदृढ़ होने चाहिए। तर्कों में शैथिल्य होने पर मीमांसा की पद्धति के अनुसार शब्द का रूढ़ार्थ ही मान्य
होगा।
४. यदि “महादेव” का रूढत्व नहीं तो “जगन्नाथ” का भी नहीं
श्रीवैष्णव संप्रदाय में भगवान् श्रीरंगनाथ को इक्ष्वाकु वंश का कुलदेवता माना जाता है। यह मान्यता पुराणों
और आगमों के अनुरूप ही है और हमारे लिए श्रद्धेय है। किंतु श्रीराम की शिव-पूजा भी पुराणों में प्रसिद्ध है।
अतः पूर्वपक्षी के आग्रह के अनुसार वाल्मीकीय-रामायण में भी श्रीराम के कुलदेवता का उल्लेख प्राप्त होना
चाहिए। क्या वाल्मीकीय-रामायण में भी ऐसे प्रमाण मिलते हैं? इसके उत्तर में आदिकाव्य से तीन उल्लेख दिए
जाते हैं-
(महाभारत १३.१३५.६५)
36 अन्य देवताओं के नाम - ब्रह्मा, प्रजापति, शर्व, शिव, स्थाणु, रुद्र, शंभु, भगहा, विश्वकर्मा, त्वष्टा, भानु, रवि, सूर्य, सहस्रांशु, सोम, वरुण,
कामदेव, स्कंद, पुरंदर; ऋषियों के नाम - मरीचि, कपिल; पौराणिक पात्रों के नाम - मनु, विरोचन, वृषपर्वा, नहुष; पशु-पक्षियों के नाम -
व्याल, सिंह, वृषभ, शरभ; वृक्षों के नाम - न्यग्रोध, उदुम्बर, अश्वत्थ; भौतिक तत्त्वों के नाम - वह्नि, अनल, पवन, अनिल, समीरण, भू
इत्यादि।
37 महाभारत १३.१७
38 स्कंदपुराण, प्रभासखंड, वस्त्रापथक्षेत्र-माहात्म्य १८.१०९; स्कंदपुराण, अवंतीखण्ड, अवंतीक्षेत्र-माहात्म्य ४२.२०; ब्रह्मवैवर्तपुराण,
श्रीकृष्णजन्मखण्ड ६९.७३; गरुडपुराण, प्रेतकांड ३०.४२; भविष्यपुराण, प्रतिसर्गपर्व ३.४.१६.५२; पद्मपुराण, उत्तरखण्ड ८०.९२
39 प्रसिद्धहानिः शब्दानामप्रसिद्धे च कल्पना।
न कार्या वृत्तिकारेण सति सिद्धार्थसम्भवे ॥
(श्लोकवार्त्तिक, प्रतिज्ञासूत्र ३५)
14
[[014]]
१. यौवराज्याभिषेक से पूर्व देवी सीता सहित श्रीराम के द्वारा संपन्न भगवान् नारायण का यजन40
२. पुत्र के अभ्युदय हेतु कौसल्या द्वारा भगवान् विष्णु की पूजा 41
३. उत्तरकांड में श्रीराम द्वारा विभीषण को ईक्ष्वाकु-कुल के देवता जगन्नाथ की आराधना करने का उपदेश
इन तीनों उल्लेखों में से तृतीय उल्लेख ही सर्वाधिक पुष्ट प्रमाण है। अन्य दोनों उल्लेखों में केवल भगवान् विष्णु के
यजन अथवा पूजा का उल्लेख है। इनमें भगवान् विष्णु को इक्ष्वाकु वंश का कुलदेवता नहीं अभिहित किया गया
है। यजन तो विभिन्न देवों का किया जा सकता है। चित्रकूट में पर्णकुटी का निर्माण करके लक्ष्मण और देवी
सीता समेत श्रीराम ने सभी देवों का यजन किया था। 42 इसी क्रम में उन्होंने रुद्र देव का यजन भी किया था।43
केवल यजन करने के उल्लेख से कोई कुलदेवता प्रमाणित नहीं होता।
यदि पूर्वपक्षी यह कहें कि यौवराज्याभिषेक के पूर्व-दिवस को श्रीराम द्वारा संपादित कृत्यों में उन्हें पांचरात्र-
आगमों में निर्दिष्ट पंचकाल-क्रिया का आभास होता है तो यह उनका सांप्रदायिक आग्रह ही होगा। यह पूर्वपक्षी
के द्वारा वाल्मीकीय-रामायण पर उससे बहुत परवर्ती पांचरात्र-आगमों की पद्धति के आरोपण का प्रयास है।
जो पूर्वपक्षी वाल्मीकीय-रामायण पर किसी पृथक् प्रबंध के आरोप का विरोध करते रहे हैं, वे अपने अभीष्ट
मत की सिद्धि के लिए वही काम करने को विवश हैं।
40 गते पुरोहिते रामः स्नातो नियतमानसः ।
सह पत्न्या विशालाक्ष्या नारायणमुपागमत् ॥
प्रगृह्य शिरसा पात्रीं हविषो विधिवत्तदा ।
महते दैवतायाज्यं जुहाव ज्वलितेऽनले ॥
शेषं च हविषस्तस्य प्राश्याशास्यात्मनः प्रियम् ।
ध्यायन्नारायणं देवं स्वास्तीर्णे कुशसंस्तरे ॥
(वाल्मीकीय-रामायण २.६.१-३)
41 कौसल्यापि तदा देवी रात्रिं स्थित्वा समाहिता ।
प्रभाते त्वकरोत्पूजां विष्णोः पुत्रहितैषिणी ।॥
(वाल्मीकीय-रामायण २.१७.६)
42 इष्ट्वा देवगणान् सर्वान् विवेशाऽवसथं शुचिः।
बभूव च मनोह्लादो रामस्यामिततेजसः ॥
(वाल्मीकीय-रामायण, दाक्षिणात्य-पाठ २.५६.३०)
43 वैश्वदेवबलिं कृत्वा रौद्रं वैष्णवमेव च ।
वास्तुसंशमनीयानि मङ्गलानि प्रवर्तयन् ॥
(वाल्मीकीय-रामायण, दाक्षिणात्य-पाठ २.५६.३१)
गोविंदराज के अनुसार यहाँ “रौद्र” का अर्थ रुद्र-देवता-संबंधी याग है- “रौद्रं रुद्रदेवताकम्। वैष्णवं विष्णुदेवताकं च यागम्।
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[[015]]
अतः उत्तरकांड के इस श्लोक के अतिरिक्त भगवान् “जगन्नाथ” के इक्ष्वाकु वंश के कुलदेवता होने का कोई और
प्रमाण नहीं है-
किञ्चान्यद् वक्तुमिच्छामि राक्षसेन्द्र महाबल ।
आराधय जगन्नाथमिक्ष्वाकुकुलदैवतम् ।।44
ध्यातव्य है कि उपर्युक्त श्लोक उत्तरकांड के समीक्षित पाठ में नहीं है। फिर प्रश्न उठता है - ये “जगन्नाथ” कौन
हैं? क्या ये भगवान् विष्णु हैं? अथवा ये भगवान् शिव हैं? अथवा ब्रह्मा, सूर्य, गणेश आदि विविध देवों में से
कोई एक हैं। वाल्मीकीय-रामायण के समीक्षित पाठ में “जगन्नाथ” का कोई अन्य उल्लेख नहीं है। दाक्षिणात्य-
पाठ रामावतार के प्रकरण में स्वयं श्रीराम को “जगन्नाथ” कहा गया है। 45
अतः “जगन्नाथ” के अभिधान को सिद्ध करने के लिए आदिकाव्य के आंतरिक प्रमाणों की संख्या न्यून है।
पूर्वपक्षी यह तर्क दे सकते हैं कि ये “जगन्नाथ” वही देव (“विष्णु”, “नारायण”) हैं जिनका यजन श्रीराम ने
यौवराज्याभिषेक के पूर्व किया था, क्योंकि ऐसे महत्त्वपूर्ण समारोह के पूर्व कुलदेवता का यजन और ध्यान
उचित है। तब हम यहाँ प्रतिप्रश्न करते हैं कि अपनी अवतार-लीला के सर्वोच्च अभियान - लंका पर आक्रमण
और रावण से युद्ध के पूर्व श्रीराम ने जिन देव (“महादेव”) का अनुग्रह प्राप्त किया था, वे देव ही “जगन्नाथ”
और तदनुरूप श्रीराम के कुलदेवता क्यों नहीं हो सकते?
यदि पूर्वपक्षी के अनुसार “महादेव” शिव के लिए रूढ नहीं है तो “जगन्नाथ” विष्णु के लिए रूढ कैसे हो
सकता है? जिस प्रकार “महादेव” का यौगिक अर्थ (“महान् देव”) बुद्धिगम्य है, उसी प्रकार “जगन्नाथ” का
यौगिक अर्थ (“जगत् का नाथ”) भी सरल है। “महादेव” से शिव का संबंध जोड़ने के लिए फिर भी
वाल्मीकीय-रामायण (समीक्षित पाठ) में १० असंदिग्ध उल्लेख उपस्थित हैं। किंतु “जगन्नाथ” से विष्णु का संबंध
जोड़ने के लिए वाल्मीकीय-रामायण में केवल एक ही उल्लेख का अवलंबन है।
यदि पूर्वपक्षी का यह आग्रह है कि वाल्मीकीय-रामायण में प्रयुक्त “महादेव” शब्द सर्वत्र विशेषण है तो वही बात
हम “जगन्नाथ” के विषय में भी कह सकते हैं। उपर्युक्त “प्रोद्यमाने जगन्नाथं सर्वलोकनमस्कृतम्…” में तो
44 उत्तरकांड, दाक्षिणात्य-पाठ १०८.३१
45 प्रोद्यमाने जगन्नाथं सर्वलोकनमस्कृतम् ।
कौसल्याऽजनयद्रामं सर्वलक्षणसंयुतम् ॥
(वाल्मीकीय-रामायण, दाक्षिणात्य-पाठ १.१८.१०)
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[[016]]
“जगन्नाथ” स्पष्टतः “राम” का विशेषण है। यदि पूर्वपक्षी पुनः कहें कि “आराधय जगन्नाथमिक्ष्वाकुकुलदैवतम्” में
किसी अन्य संज्ञा के अभाव में “जगन्नाथ” ही संज्ञा है, तब हम उन्हें निम्नलिखित श्लोक का स्मरण कराते हैं
जहाँ किसी अन्य संज्ञा के अभाव में “महादेव” ही संज्ञा मान्य है-
महादेववचः श्रुत्वा काकुत्स्थः सहलक्ष्मणः ।
विमानशिखरस्थस्य प्रणाममकरोत्पितुः ॥46
यदि पूर्वपक्षी अन्य इतिहास-पुराणों के आश्रय से “जगन्नाथ” का विष्णु-परक अर्थ सिद्ध करना चाहें, तब
ध्यातव्य है कि उन ग्रंथों में अनेक स्थानों पर “जगन्नाथ” शब्द भगवान् विष्णु के अतिरिक्त प्रजापति, शिव,
गणेश, सूर्य आदि अन्यान्य देवताओं के लिए प्रयुक्त हुआ है। फिर इनमें से कोई श्रीराम के कुलदेवता क्यों नहीं
हो सकते? उदाहरण-स्वरूप पुराणों में भगवान् सूर्य को बार-बार “जगन्नाथ” कहा गया है। ये सूर्य-वंश के आद्य
प्रणेता भी हैं। फिर इन्हें ही श्रीराम का कुलदेवता क्यों न मान लिया जाए?
इस प्रकार हम देख सकते हैं कि “महादेव” के रूढ़ार्थ का निषेध करते-करते पूर्वपक्षी अपनी आस्था के केंद्र
श्रीरंगनाथ स्वामी के कुलदेवत्व पर ही संशय करने के लिए बाध्य हो जाते हैं। प्रस्तुत उदाहरण यह दिखलाता
है कि हठपूर्वक रूढत्व और ग्रंथ के आंतरिक प्रमाणों की उपेक्षा कर किसी शब्द का अर्थ करने से ऐसी
दुःसाध्य समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।
५. कथाक्रम से प्रामाणिकता नहीं
वाल्मीकीय-रामायण में श्रीराम द्वारा शिव-पूजन का वर्णन सेतुबंध के सर्गों में नहीं आया है, अपितु युद्ध के
पश्चात् पूर्व-संस्मरण के रूप में यह उल्लेख प्राप्त होता है। किंतु ऐसा कोई नियम नहीं है कि कथाक्रम से
प्रतिपादित होने पर ही कोई वृत्तांत प्रामाणिक माना जाता है।
वाल्मीकीय-रामायण के अनेक वृत्तांत ऐसे हैं जिनका उल्लेख कथाक्रम से नहीं हुआ है, अपितु वे परवर्ती प्रकरणों
से ज्ञात होते हैं-
46 वाल्मीकीय-रामायण ६.१०७.९
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[[017]]
१. लंका में रावण के अन्न की उपेक्षा कर देवी सीता ने देवराज इंद्र द्वारा प्रदत्त अमृतान्न ग्रहण किया था। किंतु
इसका बोध हमें कथाक्रम से सीताहरण के पश्चात् से नहीं होता है, प्रत्युत इस वृत्तांत की भविष्यवाणी निशाकर
ऋषि ने पूर्वकाल में ही कर दी थी, जिसे संपाति ने सुनी थी। देवी सीता की खोज में निकले वानरों को इस
बात का बोध संपाति से ही हुआ था।47
२. लंका में देवी सीता ने हनुमान् को ऐसे अनेक पूर्व वृत्तांतों का बोध कराया जिनका वर्णन रामायण में पहले
नहीं आया है। इनमें कौए के रूप में इंद्रपुत्र जयंत द्वारा देवी सीता पर किए गए प्रहार और श्रीराम के द्वारा
उसके निग्रह की कथा भी है।48 साथ में देवी सीता ने श्रीराम की अन्य अंतरंग लीलाओं का भी वर्णन किया
था।49 लंका युद्ध के समय भी देवी सीता ने श्रीराम के द्वारा संपादित अग्निष्टोम यज्ञ जैसे पूर्व वृत्तांतों का
उल्लेख किया था।50
३. लंका से लौटते समय श्रीराम ने देवी सीता के प्रति युद्ध की कुछ अपूर्वोक्त घटनाओं का उल्लेख किया था,
जिनमें अंगद के द्वारा विकट नामक राक्षस का वध भी सम्मिलित है।51
अब यह तो आदिकवि की स्वतंत्र विवक्षा पर निर्भर है कि वे किस वृत्तांत का वर्णन कब करते हैं। अनेक
लौकिक कवि भी काव्य में पूर्व के अप्रस्तुत वृत्तांतों का वर्णन संस्मरण के द्वारा कराते रहे हैं।
47 परमान्नं तु वैदेह्या ज्ञात्वा दास्यति वासवः ।
यदन्नममृतप्रख्यं सुराणामपि दुर्लभम् ॥
तदन्नं मैथिली प्राप्य विज्ञायेन्द्रादिदं त्विति ।
अग्रमुद्धृत्य रामाय भूतले निर्वपिष्यति ॥
(वाल्मीकीय-रामायण ४.६१.८-९)
48 अभिज्ञानं च रामस्य दत्तं हरिगणोत्तम ।
क्षिप्तामीषिकां काकस्य कोपादेकाक्षिशातनीम् ॥
(वाल्मीकीय-रामायण, ५.३८.४)
49 मनःशिलायास्तिकलो गण्डपार्श्वे निवेशितः ।
त्वया प्रनष्टे तिलके तं किल स्मर्तुमर्हसि ॥
(वाल्मीकीय-रामायण ५.३८.५)
50 अग्निष्टोमादिभिर्यज्ञैरिष्टवानाप्तदक्षिणैः ।
अग्निहोत्रेण संस्कारं केन त्वं तु न लप्स्यसे ॥
(वाल्मीकीय-रामायण ६.२३.२४)
51 अङ्गदेनात्र निहतो विकटो नाम राक्षसः
(वाल्मीकीय-रामायण, दाक्षिणात्य-पाठ ६.१२३८)
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[[018]]
टीकाकार गोविंदराज इसे स्वीकार करते हैं कि केवल पूर्व में अनुक्त होने के कारण ही कोई वृत्तांत अप्रामाणिक नहीं हो जाता है। 52 तब विवाद का स्थान केवल पूर्व और परवर्ती वृत्तांतों का परस्पर विरोध है। इस परस्पर विरोध का समाधान हम आगामी भाग में करेंगे।
६. “प्रसाद” का अर्थ
“महादेव” शब्द के रूढ़ार्थ को स्थापित करने के पश्चात् हम “अत्र पूर्वं महादेवः प्रसादमकरोत्प्रभुः” में “प्रसाद”
शब्द पर विचार करते हैं। टीकाकार गोविंदराज “प्रसाद” का अर्थ “प्रसन्नता” करते हैं जो अमरकोश के
अनुरूप है।53 इसी अर्थ से संबद्ध “प्रसाद” का एक अन्य पर्याय है “अनुग्रह”। किंतु सेतुबंध के प्रकरण में
किसने किस पर “अनुग्रह” किया? - इस विषय में मतभेद है।
गोविंदराज के अनुसार महादेव (समुद्र) ने कुपित हुए श्रीराम का प्रसाद किया, अर्थात् उन्हें प्रसन्न किया। 54
दूसरी ओर अन्य टीकाकारों के अनुसार महादेव (शिव) ने श्रीराम पर प्रीति अथवा अनुग्रह किया। अतः इस
एक शब्द की व्याख्या पर ही श्लोक का अर्थ निर्भर करता है, क्योंकि “महादेव” का अर्थ चाहे शिव हो अथवा
समुद्र, गोविंदराज और उनके अनुयायी यह नहीं स्वीकार करते कि दोनों में से किसी ने भी श्रीराम पर अनुग्रह
किया होगा।
तब इन दोनों विकल्पों के निर्धारण में हम वाल्मीकीय-रामायण के आंतरिक प्रमाणों का अवलोकन करते हैं।
गोविंदराज मानते हैं कि श्रीराम ने प्रकृत श्लोक मनुष्य-भाव में स्थित होकर कहा था। 55 पहले ही लंका में
पितामह ब्रह्मा समेत सभी देवताओं के समक्ष श्रीराम स्वयं को मनुष्य घोषित कर चुके हैं। 56
ध्यातव्य है कि यहाँ श्रीराम ब्रह्मा के लिए “भगवान्” विशेषण का प्रयोग करते हैं, जबकि स्वयं को “मानुष”
और “दशरथात्मज” कहते हैं। ब्रह्मा के ही समान “महादेव” भी एक देवता हैं - यह तो शब्द से ही द्योतित होता
है। श्रीराम उन्हें “प्रभु” (अर्थात् स्वामी) कहकर भी सम्मानित करते हैं। फिर श्रीराम ऐसे महनीय गुणों से युक्त
देवता के द्वारा स्वयं को प्रसन्न किए जाने की बात क्यों कहेंगे? न केवल देवता के द्वारा मनुष्य को प्रसन्न करने
52 “न चाङ्गदस्य विकटनिरसनस्य पूर्वमनुक्तत्वेऽपि यथानुवादात् तत्सिद्धिः तथात्रापि भविष्यतीति वाच्यं तद्वदत्रविरोधाभावात्” (गोविंदराज)
53 प्रसादस्तु प्रसन्नता (अमरकोश १.३.१८)
54 “प्रसादमकरोत् सागरं शोषयिष्यामीति कुपितस्य मे प्रसादं प्रसन्नत्वमकरोत्” (गोविंदराज)
55 ““आत्मानं मानुषं मन्ये’ इति वदता सुग्रीवादिसन्निधौ स्वस्य विष्ण्ववतारत्वद्योतकपूर्ववृत्तोद्धाटनानौचित्यात्” (गोविंदराज)
56 आत्मानं मानुषं मन्ये रामं दशरथात्मजम् ।
योऽहं यस्य यतश्चाहं भगवांस्तद्ब्रवीतु मे ॥
(वाल्मीकीय-रामायण ६.१०५.१०)
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[[019]]
में औचित्य की हानि है, अपितु इस प्रकार की गर्वोक्ति वाल्मीकीय-रामायण में वर्णित श्रीराम के स्वभाव के भी
विपरीत है।
वाल्मीकीय-रामायण में “प्रसाद” शब्द के अन्य प्रयोगों की समीक्षा से भी गोविंदराज का आशय आदिकवि की
शैली से असंगत जान पड़ता है। उदाहरण-स्वरूप देव-गण भगवान् महादेव से प्रार्थना करते हैं कि वे हम
(देवों) पर प्रसन्न हों, न कि हमें ही प्रसन्न करें। 57
महर्षि विश्वामित्र की तपश्चर्या में विघ्न डालने के लिए आहूत रंभा देवराज इंद्र से विनय करती है कि वे उसपर
अनुग्रह करें, न कि रंभा को ही प्रसन्न करें। 58 कैकेयी के वरदान माँगने पर राजा दशरथ उससे विनती करते हैं
कि वह उनपर प्रसन्न हो (न कि दशरथ को ही प्रसन्न कर दे)। 59
एतदनुरूप ही वाल्मीकीय-रामायण में अनेक उदाहरण प्राप्त होते हैं-
१. भरत की महर्षि भारद्वाज से प्रार्थना 60
२. भरत की श्रीराम से प्रार्थना 61
३. सुग्रीव की श्रीराम से प्रार्थना 62
४. श्रीराम द्वारा दिवंगत राजा दशरथ से कैकेयी पर अनुग्रह करने की प्रार्थना 63
अतः औचित्य और प्रयोग-शैली के अनुसार प्रकृत श्लोक में महादेव द्वारा श्रीराम पर प्रसन्न होने (अथवा अनुग्रह
करने) का उल्लेख है, न कि श्रीराम द्वारा महादेव पर ही प्रसन्न होने का। श्रीराम ने महादेव की पूजा की और
महादेव ने उनपर अनुग्रह किया - इस मूलभूत तथ्य को समझकर हम श्लोक का आगे विवेचन करेंगे।
57 देवदेव महादेव लोकस्यास्य हिते रत ।
सुराणां प्रणिपातेन प्रसादं कर्तुमर्हसि ॥
(वाल्मीकीय-रामायण १.३५.९)
58 …ततो हि मे भयं, देव प्रसादं कर्तुमर्हसि (वाल्मीकीय-रामायण १.६३.३)
59 कुरु साधु प्रसादं मे बाले सहृदया ह्यसि (वाल्मीकीय-रामायण २.११.१३)
60 त्वं मामेवङ्गतं मत्वा प्रसादं कर्तुमर्हसि (२.८४.१८)
61 तस्य मे दासभूतस्य प्रसादं कर्तुमर्हसि (२.९७.८), भ्रातुः शिष्यस्य दासस्य प्रसादं कर्तुमर्हसि (२.९७.१२)
62 ममापि त्वमनाथस्य प्रसादं कर्तुमर्हसि (४.८.१८)
63 कुरु प्रसादं धर्मज्ञ कैकेय्या भरतस्य च (६.१०७.२४)
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[[020]]
टीकाकार गोविंदराज प्रश्न करते हैं कि “महादेव” का प्रसाद सेतु-निर्माण के समय हुआ था अथवा पुनरागमन
के समय? उनके अनुसार तीन कारणों से सेतु-निर्माण के समय “महादेव” का प्रसाद नहीं हो सकता था (१)
प्रसाद के हेतुभूत रावण-वध आदि का अभाव; (२) पूर्व में सिद्ध समुद्र-प्रसाद से तर्क-संगति; (३) “महादेव”
संज्ञा की समुद्र-प्रसाद के वर्णन से बाधित करने की उपयुक्तता। 64 यद्यपि द्वितीय और तृतीय तर्कों का प्रत्युत्तर
पहले ही उपस्थापित किया जा चुका है, तथापि अन्य तथ्यों के आधार पर इन्हें आगे भी स्पष्ट किया जाएगा।
अब हम गोविंदराज द्वारा प्रदत्त प्रथम कारण का विवेचन करेंगे। चाहे “प्रसाद” की व्याख्या कोई भी हो
उसका रावण-वध जैसे हेतु पर आग्रह अनुचित है। हम दो विकल्पों पर विचार करते हैं-
१. गोविंदराज पहले ही कह चुके हैं कि गोविंदराज के अनुसार “महादेव” ने श्रीराम को प्रसन्न किया था। यदि
उनकी व्याख्या को स्वीकार करें तो प्रसाद का हेतु क्या हो सकता है? निश्चय ही यहाँ हेतु “महादेव” द्वारा
श्रीराम के प्रति निवेदित विनयपूर्ण वचन होना चाहिए। फिर श्रीराम द्वारा रावण का वध स्वयं श्रीराम के प्रसाद
का हेतु कैसे हो सकता है? इस प्रकार के हेतु की कल्पना औचित्य के परे है।
२. यदि गोविंदराज की व्याख्या के प्रतिकूल और वाल्मीकीय-रामायण के अन्य प्रयोगों के अनुकूल यह स्वीकार
करें कि “महादेव” ने श्रीराम पर प्रसाद (अनुग्रह) किया था, तब भी रावण-वध जैसे किसी हेतु की आवश्यकता
नहीं है। इसके लिए वाल्मीकीय-रामायण के आंतरिक प्रमाण द्रष्टव्य हैं।
रामायण में कार्त्तिकेय-जन्म की कथा में भगवान् शिव को सदा लोक के कल्याण में निरत बताया गया है।
देवताओं द्वारा किए गए प्रणिपात-मात्र से उन्होंने प्रसन्न होकर उनपर अनुग्रह किया था।65 अन्यत्र गंगावतरण के
प्रसंग में राजा भगीरथ की तपश्चर्या और कठोर व्रत से प्रसन्न होकर भगवान् शिव ने उन्हें अनुगृहीत किया
था। दक्ष के यज्ञ के विध्वंस के पश्चात् भी भगवान् शिव ने देवताओं द्वारा निवेदित स्तुति-मात्र से प्रसन्न
64 “तत्र प्रसादः किं सेतुनिर्माणकाले वा पुनरागमनकाले वा। नाद्यः । प्रसादकरणहेतुरावणवधादेरभावात् पूर्वसिद्धसमुद्रप्रसादेनैवोपपत्तेश्च
महादेवसमाख्यायाः समुद्रप्रसादश्रुत्या बाधितुं युक्तत्वाच्च।” (गोविंदराज)
65 देवदेव महादेव लोकस्यास्य हिते रत ।
सुराणां प्रणिपातेन प्रसादं कर्तुमर्हसि ॥
(वाल्मीकीय-रामायण १.३५.९)
66 देवदेवे गते तस्मिन्सोऽङ्गष्ठाग्रनिपीडिताम् ।
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[[021]]
होकर अपना धनुष् जनक के पूर्वज देवरात को न्यास-रूप में प्रदान किया था। 67 देवताओं की प्रार्थना से प्रसन्न
होकर भगवान् शिव ने ही उन्हें रावण के वध का साधन बताया था।68
विस्तार-भय से वाल्मीकीय-रामायण में वर्णित शिव-लीला के अन्य प्रसंगों का उल्लेख अनुक्त छोड़ा जा रहा है।
किंतु यह तो सिद्ध है कि वाल्मीकीय-रामायण में ऐसे कई वृत्तांत हैं, जहाँ भगवान् शिव ने नमस्कार और स्तुति
से लेकर तपश्चर्या पर्यंत अनेक कारणों से प्रसन्न होकर याचकों को अनुगृहीत किया है। शिव की कृपा
“अहैतुकी” है - इसे प्राप्त करने के लिए पहले रावण का वध करने की आवश्यकता नहीं है। 69 फिर इसमें क्या
आश्चर्य कि श्रीराम ने तपस्या, उपासना अथवा नमस्कार-मात्र से ही शिव का अनुग्रह प्राप्त किया?
अतः गोविंदराज द्वारा कल्पित महादेव-प्रसाद के हेतु का अभाव अनुपयुक्त है।
८. “पूर्वम्” पद की सार्थकता
कृत्वा वसुमतीं राम संवत्सरमुपासत ॥
अथ संवत्सरे पूर्णे सर्वलोकनमस्कृतः ।
उमापतिः पशुपती राजानमिदमब्रवीत् ॥
प्रीतस्तेऽहं नरश्रेष्ठ करिष्यामि तव प्रियम् ।
शिरसा धारयिष्यामि शैलराजसुतामहम् ॥
(वाल्मीकीय-रामायण १.४२.१-३)
67 ततो विमनसः सर्वे देवा वै मुनिपुंगव ।
प्रसादयन्ति देवेशं तेषां प्रीतोऽभवद्भवः ॥
प्रीतियुक्तः स सर्वेषां ददौ तेषां महात्मनाम् ॥
तदेतद्देवदेवस्य धनूरत्नं महात्मनः ।
न्यासभूतं तदा न्यस्तमस्माकं पूर्वके विभो ॥
(वाल्मीकीय-रामायण १.६५.११-१३)
68 दैवतैस्तु समागम्य सर्वेश्चन्द्रपुरोगमैः ।
वृषध्वजस्त्रिपुरहा महादेवः प्रसादितः ॥
प्रसन्नस्तु महादेवो देवानेतद्वचोऽब्रवीत् ।
उत्पत्स्यति हितार्थं वो नारी रक्षःक्षयावहा ॥
(वाल्मीकीय-रामायण ६.८२.३४-३५)
69 भगवान् शिव के ही समान भगवान् नारायण की कृपा भी “अहैतुकी” है। इसका यह अभिप्राय नहीं कि उनकी पूजा व्यर्थ है। प्रत्युत,
भगवान् को अनुग्रह करने के लिए किसी हेतु की आवश्यकता नहीं है। वे निष्कारण अनुग्रह भी कर सकते हैं। “अहैतुक” का एक अन्य
अर्थ हेतु का अल्पत्व है, क्योंकि नञ् समास के आठ अर्थों में “ईषत्” (अर्थात् “अल्पत्व”) भी सम्मिलित है-
नञभावे निषेधे च स्वरूपार्थेऽप्यतिक्रमे ।
ईषदर्थे च सादृश्ये तद्विरुद्धतदन्ययोः ॥
(मेदिनीकोश, अव्ययवर्ग १६-१७)
अत एव, यदि कोई भगवान् को भक्ति-पूर्वक नमस्कार भी कर ले तो वह उनके अनुग्रह का पात्र बन सकता है-
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ॥
(भगवद्गीता ९.२६)
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[[022]]
“अत्र पूर्वं महादेवः प्रसादमकरोत् प्रभुः” पर पूर्वपक्षी द्वारा प्रदत्त व्याख्या से महर्षि वाल्मीकि के निर्दुष्ट
आदिकाव्य पर भी अनेक प्रकार के दोषों का आरोप लग जाता है - अप्रयुक्त, अप्रसिद्धार्थ, और नेयार्थ। इनके
अतिरिक्त पूर्वपक्षी की व्याख्या का एक छिद्र यह भी है कि वह अधिकपदत्व-दोष को जन्म देती है।
अधिकपदत्व-दोष तब होता है जब वाक्य में आवश्यकता से अधिक पदों का प्रयोग हो।70 अधिक पद की
पहचान यह है कि उसके अभाव में भी वाक्य पूर्ण रहता है।71 अब पूर्वपक्षी की व्याख्या का एक दुष्परिणाम यह
है कि “अत्र पूर्व महादेवः प्रसादमकरोत् प्रभुः” में “पूर्वम्” अधिक-पद सिद्ध हो जाता है। न केवल अनद्यतन
भूतकाल (लङ्-लकार) में प्रयुक्त “अकरोत्” पद इस वृत्तांत के पूर्वकालिक होने की सूचना देने में समर्थ है,
अपितु वाल्मीकीय-रामायण के इस संपूर्ण सर्ग (युद्धकांड, अध्याय १२३) में पूर्व-वृत्तांतों के कथन में श्रीराम ने
अन्यत्र कहीं भी “पूर्वम्” पद का प्रयोग नहीं किया है।
यदि यह कहा जाए कि यहाँ “पूर्वम्” पद का प्रयोजन सेतुबंध से पूर्व के वृत्तांत का संकेत करना है तो वह भी
अनुपयुक्त है, क्योंकि उस वृत्तांत का उल्लेख प्रकृत श्लोक से चार श्लोक पहले आ चुका है। प्रचलित दाक्षिणात्य-
पाठ के अनुसार “अत्र पूर्वं महादेवः…” से तुरंत पहले के श्लोक में हनुमान् के विश्रामार्थ मैनाक पर्वत के समुद्र
से ऊपर आने का वृत्तांत है। 72 यह घटना तो सुंदरकांड की है, जो सेतुबंध की घटना से बहुत पूर्व संपन्न हो
चुकी थी। इस घटना का वर्णन सेतुबंध से पहले इसलिए आया है कि लंका से लौटने के मार्ग में सागर के
मध्य अवस्थित पर्वत का दर्शन सेतुबंध से पहले हो गया था। अतः “अत्र पूर्व महादेवः…” से सबसे समीप में
वर्तमान पूर्व-श्लोक में वर्णित वृत्तांत के साथ सेतु-बंधन का समन्वय “पूर्वम्” पद से नहीं हो सकता है।
70 “यत्राधिकपदोक्तिः स्यात् तत्राधिकपदं मतम्” (प्रतापरुद्रीय ५.५३)
71 “यदभावादपि पूर्ण वाक्यं तेनाधिकपदम्” (अलंकारसंग्रह ६.३५)
72 सूर्यशत्रुश्च निहतो ब्रह्मशत्रुस्तथापरः।
अत्र मन्दोदरी नाम भार्या तं पर्यदेवयत् ॥
सपत्नीनां सहस्रेण साग्रेण परिवारिता।
एतत् तु दृश्यते तीर्थं समुद्रस्य वरानने ॥
यत्र सागरमुत्तीर्य तां रात्रिमुषिता वयम्।
एष सेतुर्मया बद्धः सागरे लवणार्णवे।॥ १६॥
तव हेतोर्विशालाक्षि नलसेतुः सुदुष्करः ।
पश्य सागरमक्षोभ्यं वैदेहि वरुणालयम् ॥
अपारमिव गर्जन्तं शङ्खशुक्तिसमाकुलम् ।
हिरण्यनाभं शैलेन्द्रं काञ्चनं पश्य मैथिलि ॥
विश्रमार्थं हनुमतो भित्त्वा सागरमुत्थितम् ।
एतत् कुक्षौ समुद्रस्य स्कन्धावारनिवेशनम् ॥
अत्र पूर्व महादेवः प्रसादमकरोद् विभुः ।
एतत् तु दृश्यते तीर्थं सागरस्य महात्मनः ॥
(वाल्मीकीय-रामायण दाक्षिणात्य-पाठ ६.१२३.१४-२०)
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[[023]]
पूर्वपक्षी स्वीकार करते हैं कि इस सर्ग में रामकथा के पूर्वोक्त वृत्तांतों का ही अनुवाद किया गया है।73 अब
“पूर्वम्” पद के विषय में वे कहते हैं कि इस शब्द से “पूर्वकल्प” का बोध नहीं हो सकता है।74 दूसरी ओर वे
यह संभावना व्यक्त करते हैं कि इस सर्ग के श्लोक विपर्यस्त हो गए हैं और “अत्र पूर्वं महादेवः प्रसादमकरोत्
प्रभुः” - इस शलोकार्ध को “अत्र मन्दोदरी नाम भार्या तं पर्यदेवयत्” के पश्चात् पढ़ना चाहिए।75 यह संभावना
तो और भी विलक्षण है, क्योंकि इससे संपूर्ण प्रसंग ही परिवर्तित हो जाएगा। तब प्रसंग सेतुबंध का नहीं,
अपितु शिव द्वारा श्रीराम को स्वर्गस्थ दशरथ के दर्शन कराने का बन जाएगा। गोविंदराज स्पष्ट नहीं कहते हैं
किंतु यदि इस संभावना को स्वीकार कर लिया जाए तो “महादेव” का वही अर्थ होगा जो सर्वविदित है और
वाल्मीकीय-रामायण में सर्वत्र द्योतित होता है - भगवान् शिव। यह है रूढ़ार्थ की शक्ति - जब इसे रोकने में
पूर्वपक्षी असफल रहते हैं, तब वे श्लोकों के क्रम में परिवर्तन और एक संपूर्ण प्रसंग का लोप करने को विवश
हो जाते हैं!
उपर्युक्त सभी तर्कों से पूर्वपक्षी का मंतव्य सुविदित है - चाहे हमें रूढ़ार्थ का परित्याग करना पड़े, आर्ष-काव्य में
विविध दोषों की उद्भावना करनी पड़े, और श्लोकों का क्रम भी परिवर्तित करना पड़े, किंतु श्रीराम भगवान् शिव
के अनुग्रह के पात्र नहीं हो सकते हैं!
किंतु कल्पना की पराकाष्ठा पर अवस्थित होकर भी पूर्वपक्षी “पूर्वम्” पद से जनित अधिकपदत्व-दोष से नहीं
बच सकते, क्योंकि “पूर्वम्” के औचित्य के जितने समाधान दिए गए हैं, उनका वे स्वयं निषेध कर चुके हैं। वे
“पूर्वम्” का अर्थ “पूर्वकल्प” नहीं मानते हैं और श्लोकों के क्रम-परिवर्तन से युद्ध के अंत में सद्यःसंपन्न घटनाओं
के साथ “पूर्वम्” के अन्वय का आग्रह करते हैं। जब एक बार साहसपूर्वक “महादेव” के सर्वविदित रूढ़ार्थ का
निषेध कर ही दिया, तब ये व्याख्या-गत समस्याएँ संभवतः पूर्वपक्षी के लिए उपेक्षणीय ही हैं।
अब हम “महादेव” के रूढ़ार्थ “शिव” को स्वीकार करते हुए अधिकपदत्व का समाधान करते हैं। वाल्मीकीय-
रामायण के अनुसार भगवान् शिव ने श्रीराम पर दो बार अनुग्रह किया था-
१. सेतुबंध के समय
73 “पूर्वोक्तानामेव ह्यत्रानुवादः कृतः” (गोविंदराज)
74 “न च पूर्वमित्यस्य पूर्वकल्प इत्यर्थ इति वाच्यम्” (गोविंदराज)
75 “अथवा, अस्मिन् सर्गे श्लोकाः प्रायशो व्यत्यस्ता दृश्यन्ते इत्युडारिप्रभृतिभिरुक्तम्। तथा चेदमर्धम् अत्र मण्डोदरीति श्लोकानन्तरं पठितव्यम्।
तत्र च महादेवप्रसादः स्वपितृदर्शनमेव।” (गोविंदराज)
24
[[024]]
२. रावण-वध के पश्चात्
ध्यातव्य है कि अनुग्रह के ये दोनों वृत्तांत इसी ग्रंथ में उपलब्ध हैं, इन्हें बाह्य कथानकों से नहीं लिया गया है।
प्रथम अनुग्रह को परिलक्षित करने के लिए ही “अत्र पूर्वं महादेवः प्रसादमकरोत् प्रभुः” में “पूर्वम्” पद का प्रयोग
किया गया है। द्वितीय अनुग्रह युद्ध के पश्चात् देवी सीता के सम्मुख ही हुआ था, जब श्रीराम को भगवान् शिव
ने दशरथ का दर्शन-लाभ कराया था। इसके विषय में सीता जी को बताने की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि वे
इसकी साक्षिणी रह चुकी थीं। अतः द्वितीय अनुग्रह से प्रथम अनुग्रह को भिन्न दिखाने के लिए ही “पूर्वम्” का
औचित्य है। इसके विपरीत यदि “महादेव” का अर्थ “समुद्र” स्वीकार कर लिया जाए तो समुद्र के द्वारा श्रीराम
के प्रसाद का केवल एक ही वृत्तांत सामने आता है। तब श्लोक में “पूर्वम्” पद व्यर्थ होने के कारण
अधिकपदत्व-दोष को उत्पन्न कर देता है।
आर्ष-काव्य में अधिकपदत्व-दोष की कल्पना अग्राह्य है। यह उत्पन्न तभी होता है जब पूर्वपक्षी हठपूर्वक रूढ़ार्थ
का निषेध करते हैं।
९. समुद्र का निग्रह, महादेव का अनुग्रह
“अत्र पूर्वं महादेवः प्रसादमकरोत्प्रभुः” में “प्रसाद” का अर्थ “अनुग्रह” है - इसे पूर्व-भागों में सिद्ध कर हम
“अनुग्रह” के औचित्य पर विचार करते हैं। वाल्मीकीय-रामायण से यह तो सिद्ध है कि श्रीराम ने समुद्र का
निग्रह किया था। जिसे बलपूर्वक निग्रह के द्वारा वश में लाया गया हो, उसके द्वारा अनुग्रह करने का प्रश्न ही
नहीं उठता है। श्रीराम और समुद्र के परस्पर संवाद का अवलोकन करने से भी अनुग्रह का कोई स्थान नहीं
दीखता है।
कथा है कि तीन दिवस तक साम-नीति का प्रयोग करने पर भी समुद्र ने श्रीराम को मार्ग नहीं दिखाया। जब
श्रीराम ने उस पर शर-संधान किया, तब भयभीत होकर वही समुद्र श्रीराम के समक्ष नतमस्तक हो गया।76
76 सम्पीड्य च धनुर्घोरं कम्पयित्वा शरैर्जगत् ।
मुमोच विशिखानुग्रान्वज्राणीव शतक्रतुः ॥
(वाल्मीकीय-रामायण ६.१४.१५)
सागरः समतिक्रम्य पूर्वमामन्त्र्य वीर्यवान् ।
अब्रवीत्प्राञ्जलिर्वाक्यं राघवं शरपाणिनम् ॥
(वाल्मीकीय-रामायण ६.१५.३)
25
[[025]]
अतः पहले प्रतिकूल और फिर बल-प्रयोग करने पर अनुकूल आचरण करने वाले समुद्र के द्वारा अनुग्रह का
प्रदर्शन किया गया हो - ऐसी कल्पना अनुचित है।
समुद्र ने प्रकट होकर श्रीराम के प्रति जो वचन कहे, उनसे भी उसकी प्राकृतिक असहायता ही परिलक्षित होती
है, अनुग्रह नहीं। समुद्र के अनुसार प्रकृति के पंच-तत्त्व अपने स्वभाव के अधीन रहते हैं। अत एव अगाध
सागर का सुगम हो जाना उसके स्वभाव के विपरीत है। फिर यह परामर्श देकर कि नल मुझपर सेतु का
निर्माण करे, समुद्र अंतर्धान हो गया। इस प्रकरण में समुद्र की केवल इतनी ही भूमिका है, जिसे अनुग्रह नहीं
कहा जा सकता।
दाक्षिणात्य-पाठ के अनुसार “अत्र पूर्वं महादेवः प्रसादमकरोत्प्रभुः” के पश्चात् सेतुबंध-तीर्थ को तीनों लोकों में
पूज्य, परम-पवित्र और महान् पातकों का नाश करने वाला कहा गया है। अब विचारणीय है कि श्रीराम ने
ऐसा क्यों कहा था? क्या श्रीराम के द्वारा सेतु बाँधने के कारण? हमें ऐसा स्वीकारने में विप्रतिपत्ति नहीं है,
किंतु ध्यातव्य है कि गोविंदराज स्वयं मानते हैं कि श्रीराम ने उपर्युक्त वचन मनुष्य-भावस्थ होकर कहे थे। तब
उनका अपने ही आचरण के कारण किसी स्थान को परम पवित्र बताना अनुचित है।
फिर किस कारण से यह तीर्थ पूजनीय और पवित्र हो सकता है? यदि पूर्वपक्षी की मानें तो श्रीराम ने समुद्र
का निग्रह किया जिससे भयभीत होकर समुद्र ने श्रीराम को प्रसन्न किया और समुद्र द्वारा श्रीराम को प्रसन्न
किए जाने के कारण सेतुबंध परम पवित्र हो गया।
77 पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिश्च राघवः ।
स्वभावे सौम्य तिष्ठन्ति शाश्वतं मार्गमाश्रिताः ॥
तत्स्वभावो ममाप्येष यदगाधोऽहमप्लवः ।
विकारस्तु भवेद्राध एतत्ते प्रवदाम्यहम् ॥
(वाल्मीकीय-रामायण ६.१५.४-५)
78 अयं सौम्य नलो नाम तनुजो विश्वकर्मणः ।
पित्रा दत्तवरः श्रीमान्प्रतिमो विश्वकर्मणः ॥
एष सेतुं महोत्साहः करोतु मयि वानरः ।
तमहं धारयिष्यामि तथा ह्येष यथा पिता ॥
(वाल्मीकीय-रामायण ६.१५.८-९)
79 अत्र पूर्व महादेवः प्रसादमकरोद् विभुः।
एतत् तु दृश्यते तीर्थं सागरस्य महात्मनः॥
सेतुबन्ध इति ख्यातं त्रैलोक्येन च पूजितम्।
एतत् पवित्रं परमं महापातकनाशनम् ॥
(वाल्मीकीय-रामायण, दाक्षिणात्य-पाठ १२३.२०-२१)
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[[026]]
कहीं अगले ही श्लोकार्ध में उल्लेखित “महादेव” के अनुग्रह से तो नहीं? क्या एक बलपूर्वक निगृहीत समुद्र के
“प्रसाद” का यह प्रभाव है कि उससे कोई स्थान तीनों लोकों में प्रतिष्ठित हो जाए? एक बार जब रूढ़ार्थ का
निषेध कर किसी शब्द का हठपूर्वक अर्थ किया जाता है तो उससे इसी प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।
“अत्र पूर्व महादेवः प्रसादमकरोत्प्रभुः” में श्रीराम एक ऐसे “महादेव” संज्ञक देवता का उल्लेख करते हैं, जो
भयावनत नहीं, अपितु “प्रभु” (स्वामी) हैं और जिन्होंने श्रीराम पर अनुग्रह किया था। यहाँ वर्णित “महादेव” का
आचरण समुद्र के आचरण के स्पष्टतः विपरीत है। ये “महादेव” कौन हैं? - इसके उत्तर के अन्वेषण में हमें
“महादेव” के सर्वविदित रूढ़ार्थ से दूर जाने की आवश्यकता नहीं है।
१०. समुद्र का शिवत्व
जैसा कि हम पूर्व भागों में देख चुके हैं, टीकाकार गोविंदराज द्वारा प्रदत्त “प्रसाद” की व्याख्या औचित्य और
प्रयोग-शैली के विपरीत है। दूसरी ओर वे रूढ़ार्थ के विरुद्ध “महादेव” का अर्थ “समुद्र” लेना चाहते हैं। बड़ी
रोचक बात है कि यदि गोविंदराज के दो आग्रहों में से कोई एक भी अस्वीकृत हो गया तो “अत्र पूर्वं महादेवः
प्रसादमकरोत् प्रभुः” की उनकी अभीष्ट व्याख्या ध्वस्त हो जाएगी।
चलिए, पूर्वपक्षी के संतोष के लिए हम उनके प्रथम आग्रह को अस्वीकार कर द्वितीय आग्रह को मान लेते हैं।
इसका परिणाम यह होगा कि श्रीराम समुद्र के अनुग्रह-पात्र सिद्ध हो जाएँगे। अब यदि समुद्र के देवत्व को
स्वीकार भी कर लिया जाए तो भी वे भगवान् शिव से निकृष्ट ही माने जाएँगे। यदि श्रीराम समुद्र के प्रसाद-
पात्र हो सकते हैं तो वे उनसे उत्कृष्ट भगवान् शिव के अनुग्रह-भाजन क्यों नहीं हो सकते? यदि पूर्वपक्षी की दो
दुःसाध्य कल्पनाओं में से एक कल्पना भी निरस्त कर दी जाए तो उनका पक्ष तुरंत निःसार हो जाएगा। यह
क्षणिक स्वीकृति उनके तर्क के शैथिल्य के प्रदर्शन के लिए पर्याप्त है।
अब पूर्वपक्षी यह तर्क दे सकते कि श्रीराम केवल शिव के अनुग्रह-पात्र नहीं हो सकते क्योंकि उन्होंने शिव के
धनुष् को तोड़ा था। किंतु धनुष् तोड़ने से अनुग्रह प्राप्त करने का क्या संबंध है? ये वहीं शिव हैं जो युद्ध के
अंत में श्रीराम का अभिनंदन करते हैं और उन्हें अपने पिता के दर्शन कराते हैं। ये वही श्रीराम हैं जो शत्रुघ्न के
प्रति शिव की प्रशंसा में कहते हैं - “श्रीमान् शितिकंठ का कर्म दुर्लंघ्य है”80। यह भी चिंतनीय है कि जिस
धनुष् को भगवान् शिव ने राजा देवरात को पूर्वकाल में ही दे दिया, उसके टूट जाने पर वे क्रुद्ध क्यों होंगे?
80 “श्रीमतः शितिकण्ठस्य कृत्यं हि दुरतिक्रमम्” (उत्तरकांड ५५.२०)
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[[027]]
धनुर्भग के पश्चात् उभय पक्ष के मध्य वैमनस्य तो दूर, सदा समादर का भाव रहा है। फिर भगवान् शिव के
द्वारा अनुग्रह किए जाने और श्रीराम द्वारा उसे स्वीकारने में अनौचित्य का स्थान नहीं है।
यदि पूर्वपक्षी फिर भी आग्रह करें कि श्रीराम को समुद्र का ही प्रसाद प्राप्त हुआ था तो स्मरणीय है कि समुद्र
भी शिवस्वरूप ही है। पुराणों के अनुसार शिव की अष्टमूर्तियों में जल द्वितीय है। 81 टीकाकार महेश्वर तीर्थ
“महादेव” का अर्थ “समुद्र” सिद्ध करने के लिए इसी तर्क का आश्रय लेते हैं - महादेव की अष्टमूर्तियों में
अन्यतम होने के कारण समुद्र ही “महादेव” है। 82
यदि पूर्वपक्षी को पौराणिक प्रमाण स्वीकार्य नहीं हो तो उनके संतोष के लिए हम समुद्र के शिवत्व के वैदिक
प्रमाण प्रस्तुत करेंगे। ध्यातव्य है कि वाल्मीकीय-रामायण को वेदों का उपबृंहण कहा गया है।83 गोविंदराज न
केवल वाल्मीकीय-रामायण के वेदमूलकत्व को स्वीकार करते हैं, अपितु इसी कारण वे पुराणों के तथाकथित
रामायण-विरुद्ध वचनों को अमान्य ठहराते हैं। 84 यह भी उल्लेखनीय है कि वाल्मीकीय-रामायण के वेदत्व को
सिद्ध करने के लिए गोविंदराज एक बाह्य श्लोक का अवलंब लेते हैं-
वेदवेद्ये परे पुंसि जाते दशरथात्मजे ।
वेदः प्राचेतसादासीत् साक्षाद् रामायणात्मना ॥
यह श्लोक अगस्त्य-संहिता से उद्धृत बताया जाता है किंतु वर्तमान में प्रकाशित अगस्त्य-संहिता के समीक्षित
संस्करण में यह प्राप्त नहीं होता। मेरे संज्ञान में मंगलाचरण के रूप में प्रसिद्ध इस श्लोक का प्राचीनतम
प्रामाणिक उद्धरण नीलकंठ चतुर्धर के मंत्र-रामायण में मिलता है। आश्चर्य है कि पौराणिक वचनों को
81 भवं शर्वमथेशानं तथा पशुपतिं द्विज ।
भीममुग्रं महादेवमुवाच स पितामहः ॥
चक्रे नामान्यथैतानि स्थानान्येषां चकार सः ।
सूर्यो जलं मही वायुर्वह्निराकाशमेव च ।
दीक्षितो ब्राह्मणः सोम इत्येतास्तनवः क्रमात् ॥
(विष्णुपुराण १.८.६-७, पद्मपुराण १.३.२०१-२०३)
82 “यद्वा महादेवाष्टमूर्तिष्वन्यतमत्वान्महादेवशब्देन समुद्र एवोच्यते” (महेश्वरतीर्थ)
83 स तु मेधाविनौ दृष्ट्वा वेदेषु परिनिष्ठितौ ।
वेदोपबृंहणार्थाय तावग्राहयत प्रभुः ॥
(वाल्मीकीय-रामायण दाक्षिणात्य-पाठ १.४.६)
84 “पुराणेभ्यो गरीयानिति ‘वेदः प्राचेतसादासीत्’ इति वेदमयत्वोक्त्या चतुर्मुखवरप्रदानमूलतया च प्रबलतरः। तद्विरोधे तामसपुराणवचनानि न
प्रमाणानि।” (गोविंदराज)
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[[028]]
अप्रामाणिक मानने वाले गोविंदराज अपने पक्ष में इतिहास-पुराण से इतर लोक-प्रचलित श्लोकों का भी आश्रय
लेते हैं।
अस्तु, हमें इसमें विप्रतिपत्ति नहीं है। वेदों का उपबृंहण होने के कारण वाल्मीकीय-रामायण का प्रत्येक श्लोक
वेदानुप्राणित है। वस्तुतः जल तत्त्व भगवान् शिव की अष्ट-मूर्तियों में से एक है। कौषीतकि-ब्राह्मण के अनुसार
“भव” ही जल हैं। 85 शतपथ ब्राह्मण के अनुसार “सर्व” ही जल हैं। 86 अथर्वशिर उपनिषद् के अनुसार रुद्र ही
जल में प्रविष्ट हैं। 87 अतः जल की निधि समुद्र में भव, सर्व और रुद्र स्वरूपों में भगवान् शिव ही विद्यमान हैं।
इसी कारण “जल” को भगवान् शिव की अष्ट-मूर्तियों में अनन्य कहा गया है। चूँकि रूढ़ार्थ का निषेध करना
पूर्वपक्षी की प्रवृत्ति है, यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि “जल” को शिव-मूर्ति कहने का यह तात्पर्य नहीं कि
वाङ्गय में जहाँ-जहाँ “जल” शब्द दिखे, वहाँ-वहाँ उसका अर्थ “शिव” मान लिया जाए। ये वचन जल में निहित
देवत्व के निर्धारण में प्रमाण हैं। जैसा कि हम पहले देख चुके हैं, समुद्र का देवत्व वाल्मीकीय-रामायण में सिद्ध
नहीं है, किंतु भगवान् शिव का है। तदनुसार यदि समुद्र के प्रसाद में शिव के अनुग्रह का अनुभव किया जाए
तो वह युक्ति-युक्त ही होगा।
इस प्रकार “महादेव” के रूढ़ार्थ “शिव” का निषेध करने वाले पूर्वपक्षी शिवात्मा समुद्र के प्रसाद को स्वीकार
करने को बाध्य हो जाते हैं। लौकिक न्यायों में इसे “घट्टकुटीप्रभात-न्याय” कहा जाता है। घट्टकुटी नामक विषम
स्थान से बचकर निकलने के लिए रात-भर प्रयास करने वाला वाहन-चालक प्रातः होने पर अपने को घट्टकुटी
में ही पाता है।
११. शिवार्चन के पौराणिक और साहित्यिक उल्लेख
रामकथा के निर्धारण में मूल प्रमाण वाल्मीकीय-रामायण है। महर्षि वाल्मीकि श्रीराम के समकालीन थे और रामायण के वृत्तांतों के साक्षी भी थे। यद्यपि वाल्मीकीय-रामायण के आंतरिक प्रमाणों से ही राम की शिव-पूजा सिद्ध है, तथापि पौराणिक आख्यानों से भी उसका समर्थन हो जाता है।
85 “यद् भव आपस्तेन” (कौषीतकि-ब्राह्मण ६.२)
86 “तमब्रवीत्सर्वोऽसीति । तद्यदस्य तन्नामाकरोदापस्तद्रूपमभवन्नापो वै सर्वोऽद्भयो हीदं सर्वं जायते सोऽब्रवीज्ज्यायान्वा अतोऽस्मि धेह्येव मे
नामेति।” (शतपथ-ब्राह्मण ६.१.३.११)
87 यो रुद्रोऽग्नौ यो रुद्रोप्स्वन्तर्यो रुद्र ओषधीर्वीरुध आविवेश ।
यो रुद्र इमा विश्वा भुवनानि चक्लपे तस्मै रुद्राय वै नमो नमः ॥
(अथर्वशिर उपनिषद् ६.१)
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[[029]]
जहाँ-जहाँ वाल्मीकीय-रामायण और अन्य पुराणों तथा पुराणेतर रामायणों में अविरोध है, वहाँ-वहाँ उन ग्रंथों के उन-उन अंशों को राम-कथा के प्रकाशनार्थ प्रामाणिक मानने में कोई हानि नहीं है। इन सभी पौराणिक आख्यानों को वाल्मीकीय-रामायण का उपबृंहण मानना चाहिए। किंतु जब वाल्मीकीय-रामायण और अन्य आख्यानों में तारतम्य नहीं दिखे तो उन आख्यानों को कल्पभेद अथवा अर्थवाद से समझा जा सकता है। अतः हम सेतुबंध श्रीराम द्वारा संपादित शिव-पूजा के उन पौराणिक प्रमाणों का अवलोकन करेंगे जिनमें यह प्रकरण वाल्मीकीय-रामायण के अविरुद्ध हैं। सर्वप्रथम अध्यात्म-रामायण में सेतुबंध का प्रसंग द्रष्टव्य है। ब्रह्मांड-पुराण का अंश माना जाने वाला यह ग्रंथ अनेक संप्रदायों में सम्मान्य है। इस पर शृंगवेरपुर-नरेश रामवर्मा की संस्कृत-टीका भी प्राप्त होती है, जो वाल्मीकीय-रामायण पर “तिलक” टीका के प्रणेता नागेश भट्ट के शिष्य थे। 88 उत्तर-भारत के गोस्वामी तुलसीदास हों अथवा महाराष्ट्र के समर्थ रामदास - अनेक भक्त- आचार्यों के लिए यह ग्रंथ श्रद्धेय रहा है। अध्यात्म-रामायण में स्पष्ट वर्णन मिलता है कि श्रीराम ने सेतु का निर्माण आरंभ करने से पूर्व रामेश्वर नामक शिवलिंग की स्थापना कर भगवान् शिव की पूजा की थी। 89 अध्यात्म-रामायण में लंका से पुनरागमन के समय श्रीराम के कथन का उपबृंहण भी प्राप्त होता है। आनन्द-रामायण में भी श्रीराम के द्वारा रामेश्वर लिंग की स्थापना का वर्णन है। 91 दूसरा प्रमाण हम पद्मपुराण से लेते हैं, जो एक “सात्त्विक” (विष्णु-परक) पुराण माना जाता है। पद्मपुराण के अनुसार समुद्र पार करने से पूर्व श्रीराम ने भगवान् शिव की आराधना कर उनसे “अजगव” नामक धनुष् प्राप्त किया। यह धनुष् ही सेतु में परिवर्तित हो गया था।92 88 संभव है कि “तिलक” टीका के प्रणेता रामवर्मा ही थे। अतः यह कहना सर्वथा अनुचित है कि अध्यात्म-रामायण पर किसी परंपरागत विद्वान् ने टीका नहीं लिखी है। जिस विद्वान् ने वाल्मीकीय-रामायण पर टीका लिखी है, उसी ने अध्यात्म-रामायण को भी महर्षि वेदव्यास विरचित मानकर उसपर टीका लिखी है।
89 सेतुमारभमाणस्तु तत्र रामेश्वरं शिवम्।
संस्थाप्य पूजयित्वाह रामो लोकहिताय च ॥
प्रणमेत्सेतुबन्धं यो दृष्ट्वा रामेश्वरं शिवम्।
ब्रह्महत्यादिपापेभ्यो मुच्यते मदनुग्रहात्॥
(अध्यात्म-रामायण ६.४.१-२)
90 एतच्च दृश्यते तीर्थं सागरस्य महात्मनः।
सेतुबन्धमिति ख्यातं त्रैलोक्येन च पूजितम्॥
एतत्पवित्रं परमं दर्शनात्पातकापहम्।
अत्र रामेश्वरो देवो मया शम्भुः प्रतिष्ठितः॥
(अध्यात्म-रामायण ५.१४.५-६)
91 आनंद-रामायण, सारकांड, १०.७१-१९५ 92 अथ रामः शङ्करमाराध्य सर्वं निवेदयित्वा त्वदुक्तं करोमीति वचनमुक्त्वा शिवमभ्यर्च्य प्रणतो भूत्वा व्यजिज्ञपत् ॥…एवं स्तुवतो रामस्य पुरतो लिङ्गमध्यकोपेतस्तेजोमयमूर्तिराविर्बभूव ॥ अभयवानथ पुनः पद्मासनासीनमुमाधिष्ठिताङ्कमीशमामुक्तसर्वाभरणं सुकान्तिकिरीटिनं 30
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तीसरा प्रमाण शिवपुराण में उपलब्ध है, जिसके रामेश्वर-माहात्म्य के अनुसार समुद्र के तट पर श्रीराम ने पार्थिव शिवलिंग का पूजन कर आगामी युद्ध में विजय की प्रार्थना की थी। भगवान् शिव के प्रसाद से श्रीराम का मनोरथ सफल हुआ और उनके द्वारा स्थापित शिवलिंग रामेश्वर ज्योतिर्लिंग के नाम से प्रसिद्ध हुआ।93 उपर्युक्त उल्लेखों के अतिरिक्त कुछ अन्य पौराणिक आख्यान मिलते हैं जिनमें रामेश्वर लिंग की स्थापना लंका- विजय के पश्चात् पुनरागमन के समय वर्णित है। इनमें प्रमुख हैं - स्कंदपुराण का सेतु-माहात्म्य, कूर्मपुराण, और पद्मपुराण%। किंतु वाल्मीकीय-रामायण के अनुसार रावण-वध के पश्चात् श्रीराम सेतुबंध में नहीं रुके थे। अतः युद्ध के अनंतर लिंग-स्थापन की कथाओं को कल्पभेद अथवा पुराणों के पूर्वापर-विपर्यय के द्वारा समझना चाहिए। पुराणों की यह रीति है कि उनमें कई बार पहले के प्रसंग बाद में और बाद के प्रसंग पहले बता दिए जाते हैं। 97 हैमवतीकटिस्पर्श करद्वयेनाभयवरप्रदं तरङ्गितानेकदिशाभिः । पूर्णतेजस्विनं हासमुखं प्रसन्नवदनं ददर्श रामः ॥ परमेशितारं ननाम बद्धाञ्जलिपुनश्च दण्डवत्पपात ॥ अथ रामं परमेश्वरोऽपि वरं वृणु त्वं वरदोऽहमित्युक्तवान् ॥
राम उवाच ।
लङ्कां गमिष्यामि समुद्रतरणे उपायमेकं मम देहि शम्भो ॥
शंभुरुवाच ।
ममाजगवं धनुरस्ति तत्कालरूपमविकल्पं वा भवति ।
तदारुह्य समुद्रं तीर्खा लङ्कामाप्नुहि ॥
(पद्मपुराण, पातालखंड ११६.२२०-२२७)
एक ही कार्य को संपादित करने के लिए एक से अधिक कारण हो सकते हैं। वाल्मीकीय-रामायण में सेतुबंधन के दो कारण विवक्षित हैं - समुद्र का सहयोग और नल के द्वारा सेतु का निर्माण। अब यदि पद्मपुराण में तृतीय कारण (अजगव धनुष् का दान) भी वर्णित है तो सेतुबंधन के अन्य कारणों के साथ उसका भी समन्वय कर लेना चाहिए, न कि संपूर्ण पौराणिक कथा को किसी की चाल माननी चाहिए। 93 शिवपुराण, कोटिरुद्रसंहिता, अध्याय ३१ में संपूर्ण आख्यान द्रष्टव्य है। इस पौराणिक आख्यान को अस्वीकार करते हुए पूर्वपक्षी यह पूछ सकते हैं - जब भगवान् शिव रावण का निग्रह करने में स्वयं असमर्थ थे तो उनके प्रसाद से श्रीराम रावण का वध क्यों कर पाते? किंतु वाल्मीकीय-रामायण में कहीं भी यह उल्लेखित नहीं है कि भगवान् शिव रावण-वध में असमर्थ थे। केवल इतना ही उल्लेख है कि रावण देवता-मात्र के लिए अवध्य था, चाहे वे शिव हों अथवा विष्णु। अत एव, भगवान् विष्णु को रावण के वध के लिए मनुष्य के रूप में अवतीर्ण होना पड़ा। यदि रावण-वध में शिव का असामर्थ्य मान भी लिया जाए तो ऐसा कोई नियम नहीं हैं कि जब तक कोई किसी कार्य को सिद्ध करने में स्वयं समर्थ नहीं हो, तब तक उस कार्य की सफलता में उसका अनुग्रह अनपेक्षित है। हम प्रत्येक कार्य की सिद्धि के लिए माता-पिता, आचार्य, कुलवृद्ध, पुरोहित, इष्ट मित्र आदि अनेक पूजनीय जनों के अनुग्रह की प्रार्थना करते हैं। इसका यह अर्थ तो नहीं कि वे सभी लोग उन कार्यों को पूरा करने में स्वयं समर्थ हों!
94 स्कंदपुराण, ब्रह्मखंड, सेतुखंड, अध्याय ४४-४९
95 आनयामास तां सीतां वायुपुत्रसहायवान् ।
सेतुमध्ये महादेवमीशानं कृत्तिवाससम् ॥
स्थापयामास लिङ्गस्थं पूजयामास राघवः ।
तस्य देवो महादेवः पार्वत्या सह शङ्करः ॥
(कूर्मपुराण १.२१.४६-४७)
% वेलावनं समासाद्य रामः पूजामुमापतेः।
कृत्वा रामेश्वरं नाम्ना देवदेवं जनार्दनम्।
अभिषिच्याथ सङ्गह्य वामनं रघुनन्दनः॥
(पद्मपुराण, गुरुमंडल-ग्रंथमाला-संस्करण, सृष्टिखंड ४०.१३४-१३५)
97 पूर्वाः कथाः परं ब्रूयुः पराः पूर्वं तथैव च।
मोहनार्थाय दुष्टानां सर्वं व्यत्यासयिष्यते॥
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ये कथाएँ वाल्मीकीय-रामायण में श्रीराम द्वारा देवी सीता के प्रति कहे गए “अत्र पूर्वं महादेवः प्रसादमकरोत् प्रभुः” के प्रयोजन की ओर भी संकेत करती हैं। वस्तुतः श्रीराम के द्वारा देवी सीता को सेतुबंध के दर्शन करवाने का उद्देश्य दूर से ही भगवान् शिव की मानस-पूजा करना है। गोस्वामी तुलसीदास भी इस प्रसंग की यही व्याख्या करते हैं- इहाँ सेतु बाँध्यों अरु थापेउँ सिव सुख धाम। सीता सहित कृपानिधि संभुहि कीन्ह प्रनाम।।98 अतः सेतुबंध के समय श्रीराम के द्वारा रामेश्वर लिंग की स्थापना और पुनरागमन पर भगवान् शिव की मानस-पूजा से इन कथाओं का समन्वय किया जा सकता है। संस्कृत में निबद्ध पौराणिक साहित्य के अतिरिक्त शिलालेखों और लोक-साहित्य में भी “रामेश्वर” नामक शिवलिंग प्रसिद्ध है। जिस प्रकार वाल्मीकीय-रामायण के वृत्तांतों की संगति अयोध्या, प्रयाग, चित्रकूट, दंडकारण्य, पंचवटी, और किष्किंधा जैसे क्षेत्रों के भौगोलिक और धार्मिक संलक्षणों से बैठाई जा सकती है, उसी प्रकार सेतुबंध क्षेत्र में स्थित रामेश्वर से भी दिखाई जा सकती है। “महादेव” के ही समान भगवान् शिव का “रामेश्वर” नाम भी प्रसिद्ध और रूढ़ है, जिसका मुख्यार्थ है “राम का ईश्वर”। यह नाम १८ पुराणों में से ११ पुराणों में प्राप्त होता है। क्या किसी ने इन सभी पुराणों में कपट-पूर्वक प्रक्षेप भर दिया है? क्या ये शताधिक उल्लेख श्रीराम द्वारा संपादित शिवोपासना की स्वतःस्फूर्त अभिव्यक्ति नहीं हैं? कोई कवि शून्य में नहीं लिखता है। यदि महर्षि वाल्मीकि भी आदिकाव्य में राम की शिव-पूजा का समन्वय करना चाहें तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए। तमिल शैव परंपरा के अनुसार रामनाथ-स्वामी मंदिर शिव के २७५ पवित्र “पाडल पेटू स्थलम्” में परिगणित है। सातवीं-आठवीं शताब्दी से ही तमिल शैव भक्त-कवियों के साहित्य में रामेश्वर के कई उल्लेख प्राप्त होते हैं।
विस्तारे तु यदुक्तं स्यात् तद् ग्राह्यमविरोधतः।
सङ्गेपोक्तविरोधे तु गुणोक्तिश्च सतां यथा॥
(भागवततात्पर्यनिर्णय १०.८०)
98 रामचरितमानस ६.११९
99 स्कंदपुराण (प्रभासखंड, रेवाखंड, अवंतीखंड, धर्मखंड, नागरखंड, सेतुखंड), ब्रह्मपुराण, ब्रह्मवैवर्तपुराण, पद्मपुराण, शिवपुराण, वायुपुराण,
नारदपुराण, लिंगपुराण, मत्स्यपुराण, कूर्मपुराण और गरुडपुराण
32
[[032]]
सातवीं शताब्दी के नयन्नर भक्त संबंधर और अप्पर द्वारा रामेश्वर को समर्पित पद्य तेवारम् में संगृहीत हैं। इनके पश्चात् चोल, पांड्य, सिंहल और विजयनगर शासकों के शिलालेखों और ताम्रपत्रों में भी रामनाथ-स्वामी का उल्लेख मिलता है। यद्यपि इन उल्लेखों को संप्रदाय-विशेष की आस्था से प्रेरित मानकर नकारने का प्रयत्न किया जा सकता है, तथापि ये रामेश्वर क्षेत्र में श्रीराम द्वारा की गई शिव-पूजा की परंपरागत मान्यता के सजीव साक्ष्य हैं।
तेवारम् (३.१०, ४.६१)
कृष्ण कृष्ण जगन्नाथ जाने त्वां पुरुषोत्तमम् ।
परेशं परमात्मानमनादिनिधनं हरिम् ॥
देवतिर्यङ्गनुष्येषु शरीरग्रहणात्मिका ।
लीलेयं सर्वभूतस्य तव चेष्टोपलक्षणा ॥
तत्प्रसीदाभयं दत्तं बाणस्यास्य मया प्रभो ।
तत्त्वाय नानृतं कार्यं यन्मया व्याहृतं वचः ॥
अस्मत्संश्रयदृप्तोयं नापराधी तवाव्यय ।
मया दत्तवरो दैत्यस्ततस्त्वां क्षमयाम्यहम् ॥
(विष्णुपुराण ५.३३.४१-४४)
१२. सिद्धांत-पक्ष में विष्णु और शिव का सम्मान और समन्वय
उपर्युक्त प्रमाणों और तर्कों से वाल्मीकीय-रामायण में भगवान् शिव के द्वारा श्रीराम को अनुगृहीत करने का वर्णन सिद्ध है। सिद्धांत-पक्ष की व्याख्या सरल और बोधगम्य होने के साथ-साथ मीमांसा, व्याकरण, पुराण आदि विविध विद्यास्थानों से उपपन्न ज्ञान में समन्वय भी साधती है। यह वाल्मीकीय-रामायण में सुप्रयुक्त शब्दों के अर्थ में खींच-तान किए बिना ही स्पष्ट निष्कर्ष तक ले जाती है। इससे न तो भगवान् विष्णु के अवतार श्रीराम का माहात्म्य घटता है, न भगवान् शिव के परत्व पर ही आग्रह किया जाता है। भगवान् शिव और विष्णु का परस्पर अनुग्रह इतिहास-ग्रंथों में प्रसिद्ध है। महाभारत और उसके खिलपर्व हरिवंश में ही श्रीकृष्ण द्वारा शिवोपासना के कुछ प्रसंग ध्यातव्य हैं -
- १. उपमन्यु मुनि की आज्ञा से पुत्र-प्राप्ति के लिए श्रीकृष्ण द्वारा तपस्या से शिव को प्रसन्न करना
- २. पारिजात-हरण के प्रसंग में स्वर्ग पर विजय प्राप्त करने के लिए शिव की पूजा
- ३. शाल्वराज से युद्ध के लिए प्रस्थान करते समय शिव की पूजा
- ४. जयद्रथ-वध की सिद्धि के लिए अर्जुन-सहित श्रीकृष्ण का शिव की स्तुति करना।
महाभारत में तो शिवसहस्रनाम-स्तोत्र समेत भगवान् शिव के अनेक स्तोत्रों के वक्ता श्रीकृष्ण ही हैं। इसी प्रकार शिव ने भी बाणासुर को वरदान देने के लिए खेद व्यक्त करते हुए श्रीकृष्ण का सांत्वन किया था। प्रायः युद्ध 33
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के लिए प्रस्थान करने से पूर्व कृष्णावतार में भगवान् विष्णु शिव को संतुष्ट करते रहे हैं। यदि रामावतार में भी विष्णु ने वही कार्य किया तो इसमें क्या आश्चर्य? उपनिषदों और पुराणों की एक महनीय परंपरा भगवान् विष्णु और शिव में एकत्व-दर्शन की है।102 यह परंपरा शिव के लिए रूढ़ “रामेश्वर” शब्द में भगवान् विष्णु और शिव की एकात्मता का चमत्कार दिखाती रही है-
रामस्तत्पुरुषं प्राह बहुव्रीहिं महेश्वरः ।
अन्ये तु ऋषयः सर्वे कर्मधारयमूचिरे ||103
अर्थात् (“रामेश्वर” को) श्रीराम ने तत्पुरुष-समास (राम के ईश्वर अर्थात् रामेश्वर शिव) कहा, महेश्वर शिव ने बहुव्रीहि (राम ईश्वर हैं जिनके अर्थात् शिव) बताया और अन्य सभी ऋषियों ने कर्मधारय (जो राम वही ईश्वर अर्थात् श्रीराम और शिव दोनों) घोषित कर दिया।
102 यो वै रुद्रः स भगवान्यश्च विष्णुस्तस्मै वै नमो नमः।
(अथर्वशिर उपनिषद् २.२)
रुद्रोऽथ यो ह खलु वावास्य सात्त्विकोंऽशोऽसौ स एव विष्णुः…।
(मैत्रायण्युपनिषद् ४.५)
या श्रीः सा गिरिजा प्रोक्ता यो हरिः स त्रिलोचनः
(वराहपुराण ५८.३)
यो ब्रह्मा स हरिः प्रोक्तो यो हरिः स महेश्वरः
(भविष्यपुराण ४.२०५.११)
योऽसौ विष्णुस्वरूपेण स वै रुद्रो न संशयः ।
यो रुद्रो विद्यते राजन् स च विष्णुः सनातनः।।
(पद्मपुराण, भूमिखंड ८३.३८)
शिवस्य हृदयं विष्णुर्विष्णोश्च हृदयं शिवः ।
एकमूर्तिस्त्रयो देवा ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः॥
(पद्मपुराण, भूमिखंड ७१.२१)
एकीभावेन पश्यन्ति मुक्तिभाजो भवन्ति ते ।
यो विष्णुः स स्वयं रुद्रो यो रुद्रः स जनार्दनः ॥
(कूर्मपुराण १.१५.९०)
यो रुद्रः स स्वयं विष्णुर्यो विष्णुः स महेश्वरः ।
उभयोरन्तरं नास्ति पवनाकाशयोरिव ॥
(ब्रह्मपुराण ५६.७०)
शैवो भूत्वा नमेद्विष्णुं तेन शम्भुः प्रसीदति ।
वैष्णवश्चेन्नमेच्छम्भुं तेन विष्णुः प्रसीदति ॥
103 भाट्टचिंतामणि; “किञ्च लङ्काविजयावसरे श्रीरामचन्द्रेणाब्धितटे शिवलिङ्गं संस्थाप्य तस्य रामेश्वर इति कृतं तदाकर्ण्य मुनिभिः श्रीरामः पृष्टः भगवन्! कोऽस्य पदस्यार्थः? तदा श्रीरामेणोक्तं - रामस्येश्वरो रामेश्वरः। पुनश्च संज्ञयाकुलितैः श्रीशिवः पृष्टः - भगवन्नब्धितटे श्रीरामस्थापितरामेश्वराख्यलिङ्गस्य कोऽर्थः? तदा श्रीशिवः प्राह - राम ईश्वरो यस्येति रामेश्वरः। पुनर्मुनिभिर्विमृष्टमेतौ परस्परनुतिप्रियत्वाद्वस्तुत एकस्वरूपावेवेति। तदुक्तं- रामस्तत्पुरुषं ब्रूते बहुब्रीहिं महेश्वरः। रामेश्वरपदे प्राप्ते मुनय:कर्मधारयम् ॥ इति।” (भागवत-पुराण (१.१.५-७) की
वंशीधर शर्मा प्रणीत टीका))
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वाल्मीकीय-रामायण किसी संप्रदाय-विशेष की संपत्ति नहीं है। यह सनातन धर्म का सामूहिक इतिहास है। यह सत्य है कि इसके नायक श्रीराम भगवान् विष्णु के अवतार हैं, जिसके कारण यदि कोई इसे “वैष्णव-ग्रंथ” कहना चाहे तो उसका विरोध नहीं है। किंतु यहाँ “वैष्णव” से तात्पर्य परवर्ती संप्रदायों की मान्यताओं का आदिकाव्य पर आधान नहीं समझना चाहिए। भक्ति-काल की पृष्ठभूमि के कारण आज “शैव” और “वैष्णव” जैसे शब्द कुछ संप्रदायों के लिए रूढ़ हो चुके हैं जो महर्षि वाल्मीकि के काल में नहीं थे। यदि कोई वाल्मीकीय-रामायण की स्वसंप्रदायोक्त व्याख्या को वरीयता देता है तो भी हम उसका सम्मान करते हैं। किंतु वाल्मीकीय-रामायण का अध्ययन और विवेचन करने वाले निष्पक्ष विद्वज्जनों के लिए यह सिद्धांत-पक्ष भी सुग्राह्य हो - यही इस लेख का प्रयोजन है।
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