विश्वास-टिप्पनी - English summary
English summary
To clarify, a honest simpleton (eg. a foreigner) with just vAlmIki rAmAyaNa and nothing else, would conclude that mAhAdeva refers to samudra only. Only when one feels compelled to reconcile myriad purANas (and kAvyas), one would begin to foist various other tropes such as shiva-pUjA, brahma-hatyA, mAyA sItA and so on.
Kushagra Aniket’s attempted refutation of Govindaraja’s explanation of “अत्र पूर्वं महादेवः प्रसादमकरोत्प्रभुः॥” falls flat for several objective reasons (besides his occassionally apparent incomprehension of Govindaraja’s commentary) -
- It would be remiss if rAma’s review failed to even mention (ever so gently) samudra’s astounding cooperation, which were so critical to the rescue.
- It is not appropriate to thrust stuff from a separate works (which are anyway mutually inconsistent) on to vAlmIki at the cost of internally suggested, valuable meaning.
- महादेव is pure visheShaNa in rAmAyaNa, not necessarily visheShya. Applies to जगन्नाथ as well.
- It has strong “rUDhi-shakti” in the former sense as well, given that the components mahA and deva are well known. This is the main contention - that the meaning as an adjective is quite common too (more so among the learned). For example, महादेव is used for viShNu in the sahasranAmastotra of MBh.
- As an aside - It has been used in to refer to samudra by an advaitin commentator maheshvara-tIrtha, based on nirukta definition of mahat, and the vedic association of mahAdeva with a water body. We don’t need to resort to it though.
- samudra is very much considered a deva in vAlmIki rAmAyaNa, as in earlier vedas.
- vAlmIki is quite capable of using the same word in multiple meanings - this applies to प्रसाद and महादेव as well.
There was no cause for rAma to specially do shiva-pUjA. When shiva himself is depicted as requesting viShNu’s help (भयं तस्माद् … ततो देवर्षिगन्धर्वाः सरुद्राः … तुष्टुवुः) to defeat rAvaNa why would it make sense for viShNu (even in rAma form) request his “invaluable” help in defeating rAvaNa? Circularity.
rAma’s and his family’s vaiShNavatva is depicted clearly, apart from routine offerings to other deities (as practiced by vaiShNavas in general).
vAlmIki’s rAmAyaNa, in it’s available form, is an unequivocally vaiShNava work, presumably written by a vaiShNava for (pre-)vaiShNava-s. Here, viShNu is clearly depicted as being separate from and superior to other Gods. vaiShNava traditions are ancient, and can be traced back to the Adhvaryava tradition, which succeeded the indra centric hautra and prAjApatya cults. This evolved into the hoary vaikhAnasa branch of kRShNa yajurveda and pAncharAtra from shukla yajurveda; which are roughly contemporaneous with rAmAyaNa. MT There is a strong tendency towards exclusive worship of viShNu (especially for kAmya karmas) in vaiShNava traditions and texts.
It is wrong to argue that in vAlmIki’s opinion, all deities (particularly shiva and viShNu) were identical. The author has expressed such sentiment. Such an opinion may be thrust upon vAlmIki’s work, but is not natural to it, as may be verified by providing the work to a simpleton.
विश्वासे च कुशाग्रे च
यावान् भेदो ऽक्ष-गः स्थितः।
विष्णौ स वैष्णवे रुद्रे
वाल्मीकीये प्रतिस्फुटः॥
विश्वास-टिप्पनी
कुशाग्रने गोविन्दराजटीका का खण्डन करने का आयास कर
बहुत भागोँ मेँ वाट्साप्-ट्विट्टर्-आदियोँ मेँ प्रकाशित किया।
यद्यपि रामायणांश-पुनः-पठन-प्रेरक है,
बहुत हि दोषजुष्ट पाया गया।
यहाँ उन दोषोँ का समूल सङ्ग्रह किया गया है।
सौकर्य के लिए मूल से संवलित टिप्पनियाँ भी अनुबन्ध मेँ दीगयीँ हैँ।
राम की शिव-पूजा
-कुशाग्र अनिकेत
भाग १ - “महादेव” का अर्थ
आक्षेपः
श्री चिन्न जीयर स्वामी श्रीवैष्णव संप्रदाय के माननीय धर्मगुरु हैं। वे प्रायः रामेश्वर तीर्थ में श्रीराम के द्वारा शिव-पूजा के वृत्तांत का निषेध करते रहे हैं-
“…श्रीराम ने श्रीरामायण के अनुसार कभी भगवान् शिव की पूजा नहीं की। उन्होंने रामेश्वरम् की स्थापना नहीं की। यह एक गढ़ी हुई कथा है। श्रीराम से संबद्ध कोई भी बात तभी स्वीकार्य होगी जब वह वाल्मीकीयरामायण में उल्लेखित हो।”
जीयर स्वामी का मत श्रीवैष्णव संप्रदाय की एक धारा में मान्य है। इस विवाद का मूल वाल्मीकीय-रामायण में लंका से लौटते समय श्रीराम का देवी सीता के प्रति यह कथन है-
एतत् कुक्षौ समुद्रस्य स्कन्धावारनिवेशनम्।
अत्र पूर्वं महादेवः प्रसादमकरोत्प्रभुः॥
(वाल्मीकीय-रामायण ६.१२३.१९)
अर्थात् “यह समुद्र का मध्य-भाग (द्वीप) है, जहाँ सेना का पड़ाव डाला गया था। यहाँ पहले प्रभु महादेव ने मुझपर कृपा की थी।”
यहाँ “महादेव का अर्थ चिंतनीय है।
विश्वास-टिप्पनी
(भाग १)
जहाँ प्रकरण की बात हो ही रही है, यह अवधेय है की वाल्मीकि-रामायण निस्सन्देह वैष्णवग्रन्थ है, जहाँ श्रीराम को विष्णु के अवतार मानागया है, और विष्णु को सभी अन्य देवताओँ से भिन्न, और श्रेष्ठ प्रदर्शित किया गया है।
इस स्पष्ट प्रधान-तात्पर्य के अनुसार कुछ आश्चर्य नहि यदि महादेव आदि शब्दोँ का भगवान् वाल्मीकि ने विशेषणमात्ररूप से प्रयोग किया हो। वैसे “साक्षाद् अपि जैमिनिः” ब्रह्म-सूत्र मेँ बादरायण और जैमिनी - दोनोँ ने लोक-रूढि की उपेक्षा कर व्युत्पत्ति बल का अवलम्बन को स्वीकारा है।
राम-कृष्ण-सदृश अवतार का प्रयोजन धर्म और मोक्ष के मार्गोँ का प्रकाशन है। यह वह ही देव है, जिन्होने श्रीकृष्णावतार मेँ स्पष्ट कहा -
“येऽप्यन्यदेवता भक्ता … मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्, … न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते।”,
जिनके बारे मेँ शङ्कराचार्यजी ने कहा -
“योगिनामपि सर्वेषां रुद्रादित्यादि-ध्यान-पराणां मध्ये मद्-गतेन मयि वासुदेवे समाहितेन अन्तरात्मना … युक्ततमः … मतः"।
तो यह सुसम्भाव्य है की उत्तममार्ग का उपदेश करते हुए वह श्रीविष्णुपूजन को ही पुरस्कृत करे, और वैसे ही वर्णन परमवैष्णव वाल्मीकिजी करे।
इस स्थान पर यदि कोई दुराग्रह से, अथवा समस्त-शास्त्र-तात्पर्य के अज्ञान से वहाँ वहाँ सङ्कुचित अर्थ का ग्रहण करे,
तो वह भी उस के क्षुद्र स्तर पर अत्यन्त अनुचित नहि है।
भगवान् का उन के उपर भी करुणा है, और उन को भी उन के प्रकृति के अनुसार मार्ग-दर्शन देना चाहते हैँ।
(अर्थात्, एक ही वृत्तान्त से दो प्रकार के लोगोँ को यथोचित उपदेश देने मे भगवान् निपुण हैँ।)
किन्तु यदि वह उल्टा वैष्णवोँ पर ही आक्षेप करे कि वह शास्त्रार्थ को न जानते व्याख्यान करते हैँ, वह परिहास्य होगा।
गोविन्द-राजीयम्
टीकाकार गोविंदराज “महादेव” का अर्थ “समुद्रराज” मानते हैं। किंतु प्रायः अन्य सभी टीकाओं में “महादेव” का अर्थ “शिव” ही किया गया है।
वस्तुतः वाल्मीकीय-रामायण में “महादेव” शब्द १२ बार आया है। इनमें से १० उल्लेखों के विषय में कोई संशय नहीं है। यद्यपि गोविंदराज इनमें कहीं भी स्पष्टतः “महादेव” का अर्थ “शिव” नहीं बताते हैं, तथापि प्रकरण वश प्रत्येक स्थान पर “महादेव” का असंदिग्ध अर्थ “शिव” ही है। उपर्युक्त श्लोक में “महादेव” का ११ वाँ उल्लेख आया है। इसका संबंध १२ वें उल्लेख से है, जो इस प्रकार है-
वरदानं महेन्द्रेण
ब्रह्मणा वरुणेन च ।
महादेवप्रसादाच्च
पित्रा मम समागमम् ॥(वाल्मीकीय-रामायण ६.११३.११)
विश्वास-टिप्पनी
शिवार्थाग्रहो निराधारः
प्रकरण वश प्रत्येक स्थान पर “महादेव” का असंदिग्ध अर्थ “शिव” ही है।
यह वचन निराधार है। महादेव एक विशेषण है। उसी प्रकर इस का प्रयोग हर इस स्थान पर निष्प्रत्यूह है। यह आग्रहमात्र है कि - विशेष्य रूप मेँ ही यह शब्द रामायण मेँ प्रयुक्त है।
यद्यपि इस श्लोक की टीका में भी गोविंदराज “महादेव” का अर्थ नहीं बताते हैं, तथापि “एतत् कुक्षौ समुद्रस्य” का अर्थ उपस्थापित करते हुए लिखते हैं कि यहाँ “महादेवप्रसाद” का अर्थ श्रीराम के पिता दिवंगत महाराज दशरथ का दर्शन है। इस प्रकार संपूर्ण रामायण में गोविंदराज केवल दो स्थानों पर “महादेव” का अर्थ “समुद्र” मानते हैं। शेष १० स्थानों पर वे मौन रहते हैं, जहाँ प्रसंग से “महादेव” का अर्थ “शिव” सिद्ध है।
इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि वाल्मीकीय-रामायण में “महादेव” का रूढ़ार्थ “शिव” है। प्रायः सभी इतिहास-पुराणों और कोश-ग्रंथों में भी “महादेव” का प्रधान और रूढ़ अर्थ “शिव” ही है। मेरे संज्ञान में किसी इतिहास-पुराण में समुद्र को “महादेव” नहीं कहा गया है।
यौगिकार्थः
अब यदि पूर्वपक्षी का आग्रह है कि दो विशिष्ट स्थानों पर “महादेव” का अर्थ “समुद्र” माना जाए तो इसका कोई शाब्दिक आधार भी होना चाहिए। गोविंदराज ने “महादेव” शब्द की कोई स्वमतानुकूल व्युत्पत्ति उपस्थापित नहीं की है।
विश्वास-टिप्पनी
यौगिकार्थः
सर्वत्र विशेषण-मात्र प्रयोग का उपपन्न होने पर, कुशाग्र का यह ऊह असङ्गत हो जाता है -
यदि पूर्वपक्षी का आग्रह है कि दो विशिष्ट स्थानों पर “महादेव” का अर्थ “समुद्र” माना जाए …
वहाँ भी विशेषणमात्र ही अर्थ है, विशेष्य प्रकरण से ज्ञेय होता है।
एसा कोई नियम नहि कि किसी विशेषण का सभी जगह एक ही विशेष्य हो।
कुछ लोगों के अनुसार समुद्र को उसकी विशालता के कारण “महादेव” कहा गया है (“महांश्चासौ देवो विशालत्वात्”)। किंतु इस व्याख्या से न तो “महादेव” का रूढ़ार्थ बाधित होता है और न ही यौगिकार्थ प्रकाशित।
यदि विशालता के कारण ही किसी देवता को “महादेव” कहते हैं तो यह शब्द अनेक देवताओं के लिए प्रयुक्त हो सकता है। देवराज इंद्र का ही एक नाम “महेंद्र” है, जो वाल्मीकीय-रामायण में अनेकशः प्रयुक्त हुआ है। फिर यह कैसे ज्ञात होगा कि यहाँ “महादेव” का अर्थ समुद्र है, इंद्र अथवा कोई और देवता नहीं? यदि पूर्वपक्षी प्रसंगानुसार अर्थ-निर्धारण के समर्थक हैं तो हम “एतत् कुक्षौ समुद्रस्य” के प्रसंग पर अगले भाग में विचार करेंगे।
विस्तारः (द्रष्टुं नोद्यम्)
यहाँ महेन्द्र और महादेव के अर्थ करने मेँ समान-प्रक्रिया का आग्रह अनुचित है।
यतः - इन्द्र और देव - इन शब्दोँ का भिन्न ही रूढिशक्ति है।
निघंटु-रूढिः
“महादेव” का दूसरा अर्थ महर्षि यास्क के निघंटु (१.१२) के अनुसार दिया जाता है, जहाँ “महत्” शब्द जल का पर्याय है। अतः जल का देव होने के कारण समुद्र का नाम “महादेव” है। किंतु षष्ठी तत्पुरुष समास (“महतां जलानां देवः”) करने पर यह शब्द “महद्देव” हो जाएगा। केवल “आन्महतः समानाधिकरणजातीययोः” (पाणिनि-सूत्र ६.३.४६) के अनुसार समानाधिकरण में ही समास में “महत्” के अंत में “आत्” आता है। असमानाधिकरण में “महद्देव” शब्द सिद्ध होगा, जबकि पाठ “महादेव” है। तब तथाकथित आर्षप्रयोग का शरण लेने के अतिरिक्त पूर्वपक्षी के पास कोई और विकल्प नहीं है।
विश्वास-टिप्पनी
पाणिनीयताग्रहः॥
कुशाग्र पाणिनीय-नियमोँ का प्रयोग कर के निघण्टूक्त अर्थ का वाल्मीकीय मेँ प्रयोग की सम्भावना को तिरस्कार करते हैँ -
असमानाधिकरण में “महद्देव” शब्द सिद्ध होगा, जबकि पाठ “महादेव” है।
निघण्टुकार यास्क, और वाल्मीकि-महर्षि पाणिनि से बहुत पूर्व के हैँ। निघण्टु मेँ जितना अर्वाचीन-पाणिनीय-व्याकरण-नियमोँ की उपेक्षा दिखती है, वाल्मीकीय-रामायण मेँ भी दिखती है। वहाँ प्रचुर अपाणिनीय रूपोँ से यह सिद्ध है। इस कारण, पाणिनीयव्याकरण के अनुसार ही वाल्मीकि के विवक्षा का निश्चय करना सर्वथा अनुचित है।
प्रकृत-विवाद मेँ इस विषय का शरण लेना अनपेक्षित है, फिर भी प्रसङ्ग-वशाद् उल्लेख्य है।
“महादेव” का अर्थ समुद्र मानने में अन्य समस्याएँ भी हैं। वाल्मीकीय-रामायण में समुद्र को कहीं भी देवता के रूप में उपस्थापित नहीं किया गया है।
विश्वास-टिप्पनी
समुद्र-देवत्वम्॥
वाल्मीकीय-रामायण में समुद्र को कहीं भी देवता के रूप में उपस्थापित नहीं किया गया है।
यह वचन केवल यह दिखाता है कि कुशाग्र ने वाल्मीकि रामायण को ठीक से पढा हि नहि।
देवताओँ के द्वारा मिलकर रावणसमस्या का चिन्तन करने के समय स्पष्ट हि समुद्र को देवताओँ मेँ परिगणित किया गया है।
नैनं सूर्यः प्रतपति पार्श्वे वाति न मारुतः । … तं दृष्ट्वा समुद्रोऽपि न कम्पते।
और तो और समुद्र को वेदोँ मे भी (जिन का उपबृंहण रामायण है) वैसे हि माना गया है - “समुद्रो अपाम् अधिपतिः”।
किंतु समुद्र को २२ बार “वरुणालय” और १ बार “वरुणावास” अवश्य कहा गया है। समुद्र वरुण देव का आवास है। यदि “महादेव” का अर्थ “जल का देव” माना जाए तो वहाँ विवक्षा वरुण से ही होगी, समुद्र से नहीं। किंतु “वरदानं महेन्द्रेण” श्लोक में वरुण और “महादेव” अलग-अलग उल्लेखित हैं। तब अवश्य ही “महादेव” का रूढार्थ “शिव” स्वीकार्य होना चाहिए।
इस प्रकार “महादेव” को “समुद्र” मानना अनेक विप्रतिपत्तियों का स्थान है।
राम की शिव-पूजा
-कुशाग्र अनिकेत
रूढार्थ की बलवत्ता
भाग २
*“असंयोगात् तु मुख्यस्य तस्मादपकृष्यते” (मीमांसा-सूत्र ३.३.१६)
मीमांसा का सर्वमान्य नियम है कि किसी शब्द के यौगिकार्थ से उसका रूढार्थ अधिक बलवान् है। पूर्वमीमांसा-दर्शन में इस नियम का प्रयोग प्रायः किया गया है। केवल प्रकरण भी रूढार्थ के निषेध में समर्थ नहीं है।
उदाहरण-स्वरूप ज्योतिष्टोम-याग के प्रकरण में कहा गया है -
“तिस्र एव साह्नस्योपसदो द्वादशाहीनस्य” (तैत्तिरीय-संहिता ६.२.५)
अर्थात्
“साह्न (ज्योतिष्टोम) में तीन उपसत् (होम-विशेष) होते हैं और अहीन में बारह उपसत् होते हैं।
यहाँ “अहीन” शब्द “साह्न” के साथ एक ही वाक्य में प्रयुक्त हुआ है।
अब “अहीन” के दो अर्थ हो सकते हैं - यौगिक और रूढ।
“अहीन” का यौगिक अर्थ है - जिस याग में दक्षिणा, यज्ञोपकरण और फल आदि में से कुछ भी हीन अथवा स्खलित नहीं है (“न हीयत इत्यहीनः”)।
यौगिक अर्थ स्वीकार करने पर यह “अहीन” शब्द “साह्न” का विशेषण माना जा सकता है।
किंतु “अहीन” का रूढार्थ अहर्गण नामक एक भिन्न याग है। मीमांसा-सूत्र (३.३.१६) के अनुसार जब “अहीन” का मुख्यार्थ संभव है, तब उसका गौणार्थ स्वीकार करना उचित नहीं है।*
प्रकरण की अपेक्षा भी रूढ़ि बलवान् है।
इसी प्रकार अग्न्याधान के प्रकरण में कहा गया है -
“आदधीत…वर्षासु रथकारः” (बौधायन-श्रौतसूत्र २४.१६) अर्थात् वर्षा ऋतु में रथकार अग्न्याधान करे। यहाँ भी “रथकार” के दो अर्थ हो सकते हैं - यौगिक और रूढ। यौगिक अर्थ है “रथ बनानेवाला” (“रथं करोति”), जो त्रैवर्णिक भी हो सकता है। रूढार्थ है रथकार नामक संकर जाति-विशेष। मीमांसा-सूत्र (६.१.४४-४५) के अनुसार उपर्युक्त विधि-वाक्य में यौगिक अर्थ नहीं, अपितु रूढार्थ ही स्वीकार्य है।
उत्तर-मीमांसा में रूढार्थ का महत्त्व स्वयं श्रीरामानुजाचार्य और श्रीरंगरामानुजाचार्य स्वीकार करते हैं। “शब्दादेव प्रमितः” (ब्रह्मसूत्र १.३.२३) के श्रीभाष्य में श्रीरामानुजाचार्य कठोपनिषद् (२.१.१२) की श्रुति “अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषो मध्य आत्मनि तिष्ठति” में पुरुष के लिए “अंगुष्ठमात्र” विशेषण आने पर भी उसे जीवात्मा नहीं, अपितु परमात्मा मानते हैं।** कारण यह कि श्लोक के उत्तरार्ध में “ईशान” शब्द आया है, जिसका रूढार्थ ईश्वर है। यह जीवात्मा नहीं हो सकता है।
**अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषो मध्य आत्मनि तिष्ठति । ईशानो भूतभव्यस्य न ततो विजुगुप्सते ॥ (कठोपनिषद् २.१.१२)
इसी प्रकार “महादेव” शब्द शिव के लिए रूढ़ है। यह शब्द केवल शैव पुराणों में नहीं, अपितु वाल्मीकीय-रामायण, महाभारत और विष्णु-परक पुराणों में भी सहस्रशः शिव के लिए आया है। वाल्मीकीय-रामायण में सेतुबंध के समय शिव-प्रसाद के वृत्तांत के अनुक्त होने पर भी युद्ध के अंत में आए “अत्र पूर्वं महादेवः प्रसादमकरोत् प्रभुः” में रूढ़ि के बल से “महादेव” का अर्थ “शिव” ही ग्राह्य होगा, क्योंकि प्रकरण की अप्रसिद्धि रूढार्थ को बाधित नहीं कर सकती है।
“महादेव” के सुप्रतिष्ठित रूढार्थ का निरास करने के लिए तर्क भी सुदृढ़ होने चाहिए। तर्कों में शैथिल्य होने पर मीमांसा की पद्धति के अनुसार शब्द का रूढार्थ ही मान्य होगा।
विश्वास-टिप्पनी
(भाग २) योगरूढार्थान्तर
कुशाग्र ने प्रथमभाग मेँ निघण्टु के अनुसार महादेव का समुद्रार्थ दिखाया है। यदि किसि शब्द का अर्थ प्रसिद्ध निघण्टुकोश मेँ मिलता है, यह मानना पडेगा कि उस शब्द का उस अर्थ मेँ भी रूढि है। यह न्याय लोकानुभव से भी सिद्ध है।
और, यह भी देखना है की महा-देव का यौगिक अर्थ रूढि के अपेक्षा से अत्यन्त बलहीन भी नहि है।
जैसे “राम” शब्द मेँ “रमयतीति रामः” व्युत्पत्ति से प्रसिद्ध महापुरुष को छोढकर विशेषणमात्र का ग्रहण मेँ कृत्रिमता और पाण्डित्यपरिश्रम दिखता है, वैसा श्रम “महादेव” का यौगिक अर्थ लेने मेँ नहि दिखता है । पामर भी समझता है की महादेव यैगिक अर्थ “महान् देव” होसकता है। यहाँ कारण है - महा और देव शब्दोँ का रूढी मेँ भी प्रसिद्धि। अतः, यहाँ मीमांसोक्त न्यायसे ही शब्द-घटक-रूढी-ग्रहण अनुचित नहि कहा जासकता है।
वैसे रामानुजाचार्य के भी पूर्विक यामुनाचार्य ने भी इस अवयव-शक्ति को आगम-प्रामण्य नामक ग्रन्थ मेँ प्रस्तुत कर के
सात्त्वत, भागवत शब्दोँ का सङ्कुचितार्थ नकारा है।
(प्रासङ्गिक विषय है कि - वहीँ निरीश्वरमीमांसकोँ के कल्पनान्तर भी परास्त किये गये हैँ । )
और भगवान् वाल्मीकि भि नारायण के अर्थ मेँ इन दोनो खण्डोँ का नारायण के अर्थ मे प्रयोग करते हि है - “महते दैवताय (नारायणाय)"। यह भी स्मरणीय है की विष्णुसहस्रनाम मेँ “आदिदेवो महादेवो” कर के विष्ण्व्-अर्थ मेँ भी महादेव शब्द प्रयुक्त है ही। तो स्पष्ट है कि वाल्मीकि भी अवयव-शक्ति का अवलम्बन करके विशेषणार्थ मेँ इस शब्द का प्रयोग करने की प्रवृत्ति रखते हैँ।
कथाक्रम से प्रामाणिकता नहीं
वाल्मीकीय-रामायण में श्रीराम द्वारा शिव-पूजा का वर्णन सेतुबंध के सर्गों में नहीं आया है, अपितु युद्ध के पश्चात् पूर्व-संस्मरण के रूप में यह उल्लेख प्राप्त होता है।
किंतु ऐसा कोई नियम नहीं है कि कथाक्रम से प्रतिपादित होने पर ही कोई वृत्तांत प्रामाणिक माना जाता है।
वाल्मीकीय-रामायण के अनेक वृत्तांत ऐसे हैं जिनका उल्लेख कथाक्रम से नहीं हुआ है, अपितु वे परवर्ती प्रकरणों से ज्ञात होते हैं-
१. लंका में रावण के अन्न की उपेक्षा कर देवी सीता ने देवराज इंद्र द्वारा प्रदत्त अमृतान्न ग्रहण किया था। किंतु इसका बोध हमें कथाक्रम से सीताहरण के पश्चात् से नहीं होता है, प्रत्युत इस वृत्तांत की भविष्यवाणी निशाकर ऋषि ने पूर्वकाल में ही कर दी थी, जिसे संपाति ने सुनी थी। देवी सीता की खोज में निकले वानरों को इस बात का बोध संपाति से ही हुआ था।*
*परमान्नं तु वैदेह्या ज्ञात्वा दास्यति वासवः ।
यदन्नममृतप्रख्यं सुराणामपि दुर्लभम् ॥
तदन्नं मैथिली प्राप्य विज्ञायेन्द्रादिदं त्विति ।
अग्रमुद्धृत्य रामाय भूतले निर्वपिष्यति ॥
(वाल्मीकीय-रामायण ४.६१.८-९)
२. लंका में देवी सीता ने हनुमान् को ऐसे अनेक पूर्व वृत्तांतों का बोध कराया जिनका वर्णन रामायण में पहले नहीं आया है। इनमें कौए के रूप में इंद्रपुत्र जयंत द्वारा देवी सीता पर किए गए प्रहार और श्रीराम के द्वारा उसके निग्रह की कथा भी है।**
**अभिज्ञानं च रामस्य दत्तं हरिगणोत्तम ।
क्षिप्तामीषिकां काकस्य कोपादेकाक्षिशातनीम् ॥
(वाल्मीकीय-रामायण, ५.३८.४)
साथ में देवी सीता ने श्रीराम की अन्य अंतरंग लीलाओं का भी वर्णन किया था।^
^मनःशिलायास्तिकलो गण्डपार्श्वे निवेशितः ।
त्वया प्रनष्टे तिलके तं किल स्मर्तुमर्हसि ॥
(वाल्मीकीय-रामायण ५.३८.५)
लंका युद्ध के समय भी देवी सीता ने श्रीराम के द्वारा संपादित अग्निष्टोम यज्ञ जैसे पूर्व वृत्तांतों का उल्लेख किया था।^^
^^अग्निष्टोमादिभिर्यज्ञैरिष्टवानाप्तदक्षिणैः ।
अग्निहोत्रेण संस्कारं केन त्वं तु न लप्स्यसे ॥
(वाल्मीकीय-रामायण ६.२३.२४)
३. लंका से लौटते समय श्रीराम ने देवी सीता के प्रति युद्ध की कुछ अपूर्वोक्त घटनाओं का उल्लेख किया था, जिनमें अंगद के द्वारा विकट नामक राक्षस का वध भी सम्मिलित है।^^^
^^^अङ्गदेनात्र निहतो विकटो नाम राक्षसः
(वाल्मीकीय-रामायण, दाक्षिणात्य-पाठ ६.१२३८)
अब यह तो आदिकवि की स्वतंत्र विवक्षा पर निर्भर है कि वे किस वृत्तांत का वर्णन कब करते हैं। अनेक लौकिक कवि भी काव्य में पूर्व के अप्रस्तुत वृत्तांतों का वर्णन संस्मरण के द्वारा कराते रहे हैं।
टीकाकार गोविंदराज इसे स्वीकार करते हैं कि
केवल पूर्व में अनुक्त होने के कारण ही
कोई वृत्तांत अप्रामाणिक नहीं हो जाता है।^^^^
^^^^“न चाङ्गदस्य विकट-निरसनस्य पूर्वम् अनुक्तत्वेऽपि
यथानुवादात् तत्-सिद्धिः
तथा ऽत्रापि भविष्यतीति वाच्यं
तद्वद् अत्र विरोधाभावात्” (गोविंदराज)
तब विवाद का स्थान केवल पूर्व और परवर्ती वृत्तांतों का परस्पर विरोध शेष रहता है।
विश्वास-टिप्पनी
(भाग ३)
वाल्मीकीय-प्राधान्य
यह सत्य है कि गोविन्दराज के उक्ति - “तद्वद् अत्र विरोधाभावात्” यहाँ गणनीय है।
पर यह नहि माना जा सकता है कि
कोई और गणनीय विचारान्तर है ही नहि।
यह भी अवधेय है की वह समान-प्रबन्ध (और समान-कर्तृक-प्रबन्ध) के बारे मेँ यह पूर्वानुक्त-पश्चादुक्त-स्वीकार कहते हैँ,
न तु परप्रबन्धोक्त, भिन्न-कर्तृकोक्त के बारे मेँ।
किसी पुराणोक्त का वाल्मीकि के मूह मे ठोकना अनुचित हि है।
जब पवित्र-कथाओँ के वचनोँ मेँ परस्पर-विरोध होता है,
तो प्रश्न उठता है कि किस वचन के अनुसार किस अन्य वचन का अन्यथा ग्रहण करना चाहिए।
न्याय तो यह ही है कि बलवद् वचनानुसार से
वचनान्तर का तात्पर्य कहना चाहिए।
तो यदि यह मानाजाए कि वाल्मीकि रामयण हि
रामकथा का प्रमुख, अधिकृततम स्रोत है,
स्पष्ट होता है कि दूरसरे वचनोँ का उसके अनुसार तात्पर्य निश्चित करना चाहिए।
यह तो अत्यन्त अनुचित होगा कि
दूसरे वचन के अनुसार वाल्मीकि-रामायण का तात्पर्य निकाले,
यद्यपि यह “विरोध है ही नहि” कहनेवाले छल से किया जाए।
इस परस्पर विरोध का समाधान हम आगामी भाग में करेंगे।
“प्रसाद” का अर्थ
“महादेव” शब्द के रूढार्थ को स्थापित करने के पश्चात् हम “अत्र पूर्वं महादेवः प्रसादमकरोत्प्रभुः” में “प्रसाद” शब्द पर विचार करते हैं। टीकाकार गोविंदराज “प्रसाद” का अर्थ “प्रसन्नता” करते हैं जो अमरकोश के अनुरूप है।*
*“प्रसादस्तु प्रसन्नता” (अमरकोश १.३.१८)
इसी अर्थ से संबद्ध “प्रसाद” का एक अन्य पर्याय है “अनुग्रह”। किंतु सेतुबंध के प्रकरण में किसने किस पर “अनुग्रह” किया? - इस विषय में मतभेद है।
गोविंदराज के अनुसार महादेव (समुद्र) ने कुपित हुए श्रीराम का प्रसाद किया, अर्थात् उन्हें प्रसन्न किया।**
**“प्रसादम् अकरोत् सागरं शोषयिष्यामीति कुपितस्य मे प्रसादं प्रसन्नत्वमकरोत्” (गोविंदराज)
दूसरी ओर अन्य टीकाकारों के अनुसार महादेव (शिव) ने श्रीराम पर अनुग्रह किया।
अतः इस एक शब्द की व्याख्या पर ही श्लोक का अर्थ निर्भर करता है, क्योंकि “महादेव” का अर्थ चाहे शिव हो अथवा समुद्र, गोविंदराज और उनके अनुयायी यह नहीं स्वीकार कर सकते कि किसी अन्य देवता ने श्रीराम पर अनुग्रह किया होगा।+++(4)+++
विश्वास-टिप्पनी
(भाग ४) प्रसादार्थ
गोविंदराज और उनके अनुयायी यह नहीं स्वीकार कर सकते कि किसी अन्य देवता ने श्रीराम पर अनुग्रह किया होगा।
यह तो कुशाग्र-कल्पित हि है - गोविन्दराजादि का अभिप्राय नहि। यतः, उन के अभिप्राय मेँ भगवान् अपने लीला मेँ
उचित स्थान पर अन्योँ के अनुग्रह को स्वीकारनेका अभिनय कर ही लेते हैँ।
केवल उक्त प्रकरण मेँ शिवधनुर्भञ्जक पर शिवपूजन का आरोप को अनुचित मानते हैँ।
तब इन दोनों विकल्पों के निर्धारण में हम वाल्मीकीय-रामायण के आंतरिक प्रमाणों का अवलोकन करते हैं। गोविंदराज मानते हैं कि श्रीराम ने प्रकृत श्लोक मनुष्य-भाव में स्थित होकर कहा था।*
*“‘आत्मानं मानुषं मन्ये’ इति वदता सुग्रीवादि-सन्निधौ
स्वस्य विष्ण्व्-अवतारत्व-द्योतक-पूर्व-वृत्तोद्घाटनानौचित्यात्” (गोविंदराज)
पहले ही लंका में पितामह ब्रह्मा समेत सभी देवताओं के समक्ष श्रीराम स्वयं को मनुष्य घोषित कर चुके हैं-
आत्मानं मानुषं मन्ये रामं दशरथात्मजम् ।
योऽहं यस्य यतश्चाहं भगवांस्तद्ब्रवीतु मे ॥
(वाल्मीकीय-रामायण ६.१०५.१०)
ध्यातव्य है कि यहाँ श्रीराम
ब्रह्मा के लिए “भगवान्” विशेषण का प्रयोग करते हैं,
जबकि स्वयं को “मानुष” और “दशरथात्मज” कहते हैं।
ब्रह्मा के ही समान “महादेव” भी एक देवता हैं -
यह तो शब्द से ही द्योतित होता है।
श्रीराम उन्हें “प्रभु” (अर्थात् स्वामी अथवा प्रभाववान्) कहकर भी सम्मानित करते हैं।
फिर श्रीराम ऐसे महनीय गुणों से युक्त देवता के द्वारा स्वयं को प्रसन्न किए जाने की बात क्यों कहेंगे?
न केवल देवता के द्वारा मनुष्य को प्रसन्न करने में औचित्य की हानि है,
अपितु इस प्रकार की गर्वोक्ति वाल्मीकीय-रामायण में वर्णित श्रीराम के स्वभाव के भी विपरीत है।
वाल्मीकीय-रामायण में “प्रसाद” शब्द के अन्य प्रयोगों की समीक्षा से भी गोविंदराज का आशय आदिकवि की शैली से असंगत जान पड़ता है।
उदाहरण-स्वरूप इस श्लोक में देव-गण भगवान् शिव से प्रार्थना करते हैं कि वे हम पर (देवों पर) प्रसन्न हों,
न कि हमें ही प्रसन्न करें-
देवदेव महादेव लोकस्यास्य हिते रत ।
सुराणां प्रणिपातेन प्रसादं कर्तुमर्हसि ॥
(१.३५.९)
इसी प्रकार महर्षि विश्वामित्र की तपश्चर्या में विघ्न डालने के लिए आहूत रंभा देवराज इंद्र से विनय करती है कि वे उसपर अनुग्रह करें, न कि रंभा को ही प्रसन्न करें -
“ततो हि मे भयं देव
प्रसादं कर्तुमर्हसि” (१.६३.३)।
कैकेयी के वरदान माँगने पर राजा दशरथ उससे विनती करते हैं कि वह उनपर प्रसन्न हो (न कि दशरथ को ही प्रसन्न कर दे) -
“कुरु साधु प्रसादं मे
बाले सहृदया ह्यसि” (२.११.१३)।
एतदनुरूप ही वाल्मीकीय-रामायण में अनेक उदाहरण प्राप्त होते हैं-
१. भरत की महर्षि भारद्वाज से प्रार्थना - “त्वं मामेवंगतं मत्वा प्रसादं कर्तुमर्हसि” (२.८४.१८)
२. भरत की श्रीराम से प्रार्थना - “तस्य मे दासभूतस्य प्रसादं कर्तुमर्हसि” (२.९७.८), “भ्रातुः शिष्यस्य दासस्य प्रसादं कर्तुमर्हसि” (२.९७.१२)
३. सुग्रीव की श्रीराम से प्रार्थना - “ममापि त्वमनाथस्य प्रसादं कर्तुमर्हसि” (४.८.१८)
४. श्रीराम द्वारा दिवंगत राजा दशरथ से कैकेयी पर अनुग्रह करने की प्रार्थना - “कुरु प्रसादं धर्मा कैकेय्या भरतस्य च” (६.१०७.२४)
अतः औचित्य और काव्य-शैली के अनुसार प्रकृत श्लोक में महादेव द्वारा श्रीराम पर प्रसन्न होने (अथवा अनुग्रह करने) का उल्लेख है, न कि श्रीराम द्वारा महादेव पर ही प्रसन्न होने का।
विश्वास-टिप्पनी
समुद्रप्रसादोल्लेखौचित्यम्॥
अन्यत्र प्रकरण की बात करने वाले यहाँ प्रकरण को ही भूलकर औचित्य और काव्य-शैली की बात करने लगे - यह स्मयनीय बात है। प्रकरण से भी औचित्य सिद्ध होता है - यह बात भूल गये कुशाग्र।
प्रकरण से तो सिद्ध है कि राम समुद्रको भयभीत करके
उन्हे अपना प्रसाद (सान्त्वन) करने मे विवश किया।
और राम भी स्व-स्वाभाविक-विनयानुकूल उभयार्थक “प्रसाद”-शब्द का प्रयोग कर, मन्दस्मितानन “प्रभु” भी कहदेते हैँ।
यह तो बहुत अनुचित होगा यदि समुद्रराजप्रसादलाभ का वृत्तान्त, जो उतना प्रमुख और आश्चर्य जनक था, सीता को सूचित् हि न करे।
यहि तो गोविन्दराज भी कहते हैँ ।
इस वृत्तान्त और उसके वर्णनीयता को शिवपूजाग्रहवाले भी मानते ही हैँ - किन्तु प्रबन्धान्तरारोपण मेँ आग्रह से यहाँ इस औचित्य को त्याग ही देते हैँ।
और रहि काव्यशैली की बात - वाम्लीकि कि शैली इतना भी दर्दिद्र मानना नहि चाहिए कि वह एक शब्द का एक ही अर्थ मेँ प्रयोग करेँ। निस्सन्देह इस बात के अनेक उदाहरण कुशाग्र को भी ढूण्ढने पर मिलेँगे।
तो सिद्ध है कि गोविन्दराज के प्रसाद-शब्द-व्याख्यान सुग्राह्य है।
अदीनता॥
There is no dIna-vANI to be suspected here on the part of rAma just because he graciously admits samudra’s ultimate cooperation. This is just noble behavior, shod of arrogance. Look at how laxmaNa apologizes to sugriva after threatening him with death, once sugrIva realizes his mistake -
यच्च शोकाभिभूतस्य श्रुत्वा रामस्य भाषितम् ।
मया त्वं परुषाण्युक्तस्तत् क्षमस्व सखे मम ॥
इस मूलभूत तथ्य को समझकर हम श्लोक का आगे विवेचन करेंगे।
समुद्र का निग्रह
वाल्मीकीय-रामायण से यह तो सिद्ध है कि श्रीराम ने समुद्र का निग्रह किया था। जिसे बलपूर्वक निग्रह के द्वारा वश में लाया गया हो, उसके द्वारा अनुग्रह करने का प्रश्न ही नहीं उठता है। श्रीराम और समुद्र के परस्पर संवाद का अवलोकन करने से भी अनुग्रह का कोई स्थान नहीं दीखता है।
कथा है कि तीन दिवस तक साम-नीति का प्रयोग करने पर भी समुद्र ने श्रीराम को मार्ग नहीं दिखाया। जब श्रीराम ने उस पर शर-संधान किया, तब भयभीत होकर वही समुद्र श्रीराम के समक्ष नतमस्तक हो गया।
सम्पीड्य च धनुर्घोरं कम्पयित्वा शरैर्जगत् ।
मुमोच विशिखान् उग्रान् वज्राणीव शतक्रतुः ॥
(६.१४.१५)
…
सागरः समतिक्रम्य पूर्वम् आमन्त्र्य वीर्यवान् ।
अब्रवीत् प्राञ्जलिर् वाक्यं राघवं शरपाणिनम् ॥
(६.१५.३)
अतः पहले प्रतिकूल और फिर बल-प्रयोग करने पर अनुकूल आचरण करने वाले समुद्र के द्वारा अनुग्रह का प्रदर्शन किया गया हो - ऐसी कल्पना अनुचित है।
समुद्र ने प्रकट होकर श्रीराम के प्रति जो वचन कहे, उनसे भी उसकी प्राकृतिक असहायता ही परिलक्षित होती है, अनुग्रह नहीं। समुद्र के अनुसार प्रकृति के पंच-तत्त्व अपने स्वभाव के अधीन रहते हैं। अत एव अगाध सागर का सुगम हो जाना उसके स्वभाव के विपरीत है।
**पृथिवी वायुर् आकाशम्
आपो ज्योतिश्च राघवः ।
स्वभावे सौम्य तिष्ठन्ति
शाश्वतं मार्गमाश्रिताः ॥
तत्स्वभावो ममाप्येष
यद् अगाधोऽहम् अप्लवः ।
विकारस् तु भवेद् राध??
एतत् ते प्रवदाम्य् अहम् ॥
(६.१५.४-५)
फिर यह परामर्श देकर कि नल मुझपर सेतु का निर्माण करे, समुद्र अंतर्धान हो गया। इस प्रकरण में समुद्र की केवल इतनी ही भूमिका है, जिसे अनुग्रह नहीं कहा जा सकता।
अयं सौम्य नलो नाम
तनुजो विश्वकर्मणः ।
पित्रा दत्तवरः श्रीमान्
प्रतिमो विश्वकर्मणः ॥
एष सेतुं महोत्साहः
करोतु मयि वानरः ।
तमहं धारयिष्यामि
तथा ह्येष यथा पिता ॥
(६.१५.८-९)
विश्वास-टिप्पनी
(भाग ५)
समुद्रनिग्रहः
इस प्रबन्ध का पूर्वार्ध जहाँ “समुद्र का निग्रह, अनुग्रह नहि” कहागया है, वह पूर्णतः व्यर्थ है, क्योँ की पिछले भाग मे स्वयं कुशाग्र ने कहा “गोविंदराज “प्रसाद” का अर्थ “प्रसन्नता” करते हैं” (अनुग्रह नहि)। तब यह अनुक्त का निराकरण नामक दोष बनता है।
सेतु-पूज्यता, महादेव का अनुग्रह
गोविंदराज द्वारा स्वीकृत पाठ के अनुसार श्रीराम के सेतुबंध-तीर्थ के वर्णन के प्रसंग में
“अत्र पूर्वं महादेवः प्रसादमकरोत्प्रभुः”
के पूर्व निम्नलिखित श्लोक आए हैं-
एतत्तु दृश्यते तीर्थं
सागरस्य महात्मनः ।
सेतुबन्ध इति ख्यातं
त्रैलोक्येन च पूजितम् ॥
एतत्पवित्रं परमं
महापातकनाशनम् ।
अत्र पूर्वं महादेवः प्रसादम् अकरोत् प्रभुः ॥
(वाल्मीकीय-रामायण, गोविंदराज-स्वीकृत पाठ १२३.२१-२२)
अब विचारणीय है कि यह सेतुबंध-तीर्थ तीनों लोकें में पूज्य, परम-पवित्र और महान् पातकों का नाश करने वाला क्यों है?
क्या श्रीराम के द्वारा सेतु बाँधने के कारण?
हमें ऐसा स्वीकारने में विप्रतिपत्ति नहीं है,
किंतु ध्यातव्य है कि गोविंदराज स्वयं मानते हैं कि श्रीराम ने उपर्युक्त वचन मनुष्य-भावस्थ होकर कहे थे।
तब और किस कारण से यह तीर्थ पूजनीय और पवित्र हो सकता है?
कहीं अगले ही श्लोकार्ध में उल्लेखित “महादेव” के अनुग्रह से तो नहीं?
क्या एक बलपूर्वक निगृहीत समुद्र के “प्रसाद” का यह प्रभाव है कि उससे कोई स्थान तीनों लोकों में प्रतिष्ठित हो जाए?
एक बार जब रूढार्थ का निषेध कर किसी शब्द का हठपूर्वक अर्थ किया जाता है तो उससे इसी प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।
“अत्र पूर्वं महादेवः प्रसादमकरोत्प्रभुः”
में श्रीराम एक ऐसे “महादेव”-संज्ञक देवता का उल्लेख करते हैं,
जो भयावनत नहीं,
अपितु “प्रभु” (प्रभावसंपन्न) हैं और जिन्होंने श्रीराम पर अनुग्रह किया था।
यहाँ वर्णित “महादेव” का आचरण समुद्र के आचरण के स्पष्टः विपरीत है। ये “महादेव” कौन हैं? - इसके उत्तर के अन्वेषण में हमें “महादेव” के सर्वविदित रूढार्थ से दूर जाने की आवश्यकता नहीं हैं।
विश्वास-टिप्पनी
अद्भुत-घटना-मात्र से अलौकिकता
उत्तरार्ध मेँ कहागया है कि “महादेव”-संज्ञक देवता का “प्रसाद” से यह सेतु परम-पवित्र और महा-पातक-नाशन है।
इस मेँ कोई आपत्ति नहि है - भले इस “प्रसाद” शब्द का अर्थ “प्रसन्नता” अथवा “सान्त्वन” हि क्योँ न हो।
यह एक अद्भुत है जो कुशाग्र भी मानते हैँ कि समुद्र, जो अन्यथा अपने स्वभाव पर अटल होता है, एक मनुष्य का “प्रसाद” किया! ऐसी दैवीशक्ति का प्रकटन जिस स्थान पर होता है, वह स्थान पवित्र और शक्तिशालि मना जाता है - यह लोकप्रसिद्ध है। और धर्मशास्त्रोँ, और रामायण मेँ अद्भुतदर्शन, शकुनादि पर विशेष सम्भ्रम दिखता हि है।
और क्योँ कि इस अद्भुत का आङ्ग यह है कि एक मनुष्य का प्रसाद अटल समुद्रने किया - यह तो अनुकूल हि हुआ कि राम मनुष्यभाव मेँ हि इस अद्भुत का उल्लेख करते हैँ।
और यह भी ध्येय है कि यदि यह महादेव-प्रसाद उस स्थान का पावित्र्य का कारण कहा गया है,
यह मानना उचित है कि यह कारण पूर्व से प्रसिद्ध हि है, और वह वाल्मीकि-रामायण से हि ज्ञेय है।
शिव का अहेतुक प्रसाद
भाग ६
पूर्वपक्षः
टीकाकार गोविंदराज प्रश्न करते हैं कि “महादेव” का प्रसाद सेतु-निर्माण के समय हुआ था अथवा पुनरागमन के समय? उनके अनुसार तीन कारणों से सेतु-निर्माण के समय “महादेव” का प्रसाद नहीं हो सकता था -
१. प्रसाद के हेतुभूत रावण-वध आदि का अभाव २. पूर्व में सिद्ध समुद्र-प्रसाद से तर्क-संगति ३. “महादेव” संज्ञा की समुद्र-प्रसाद के वर्णन से बाधित करने की उपयुक्तता*
*“तत्र प्रसादः किं सेतुनिर्माणकाले वा पुनरागमनकाले वा। नाद्यः । प्रसादकरणहेतुरावणवधादेरभावात् पूर्वसिद्धसमुद्रप्रसादेनैवोपपत्तेश्च महादेवसमाख्यायाः समुद्रप्रसादश्रुत्या बाधितुं युक्तत्वाच्च।” (गोविंदराज)
अब हम गोविंदराज द्वारा प्रदत्त प्रथम कारण का विवेचन करेंगे। गोविंदराज पहले ही कह चुके हैं कि उनके अनुसार “महादेव” ने श्रीराम को प्रसन्न किया था। यदि उनकी व्याख्या स्वीकार करें तो प्रसाद का हेतु क्या हो सकता है? निश्चय ही यहाँ हेतु “महादेव” द्वारा श्रीराम के प्रति निवेदित विनय और सांत्वना पूर्ण वचन होना चाहिए। फिर श्रीराम द्वारा रावण का वध स्वयं श्रीराम के प्रसाद का हेतु कैसे हो सकता है? इस प्रकार के हेतु की कल्पना बुद्धि के परे है।
विश्वास-टिप्पनी
भाग ६
प्रतिपक्ष की बात की नासमझ॥
कुशाग्र गोविन्दराज-प्रस्तुत-हेतुओँ मेँ “प्रसाद के हेतुभूत रावण-वध आदि का अभाव” को समझ मे स्वीय अक्षमता प्रकट करते हैँ -
इस प्रकार के हेतु की कल्पना बुद्धि के परे है।
क्योँकि वह समझते हैँ कि
“महादेव” द्वारा श्रीराम के प्रति निवेदित विनय और सांत्वना (प्रसाद का हेतु है।) फिर श्रीराम द्वारा रावण का वध स्वयं श्रीराम के प्रसाद का हेतु कैसे हो सकता है?
यह तो बालक भी समझने मेँ समर्थ है कि
“प्रसाद के हेतुभूत रावण-वध आदि का अभाव”
- इस मे प्रतिपक्षाभिमत अनुग्रहार्थ प्रसाद-शब्द का, और शिवार्थ महादेवशब्द का ग्रहण करके,
उसमतानुकूल “प्रसाद”-हेतु पर प्रश्न कर रहे हैँ गोविन्दराज।
अब कुशग्रबुद्धि वाचाल कुशाग्र को इतनी सरल बात पता क्योँ नहि लगति है? यह विचारणीय है।
निर्हेतुक कृपा
यदि गोविंदराज की व्याख्या के विपरीत यह स्वीकार करें कि “महादेव” ने श्रीराम पर प्रसाद (अनुग्रह) किया था, तब भी रावण-वध जैसे किसी हेतु की आवश्यकता नहीं है। इसके लिए वाल्मीकीय-रामायण के आंतरिक प्रमाण द्रष्टव्य हैं। रामायण में कार्त्तिकेय-जन्म की कथा के प्रसंग में भगवान् शिव को सदा लोक के कल्याण में निरत बताया गया है। देवताओं द्वारा किए गए प्रणिपात-मात्र से उन्होंने प्रसन्न होकर उनपर अनुग्रह किया था-
देवदेव महादेव लोकस्यास्य हिते रत ।
सुराणां प्रणिपातेन प्रसादं कर्तुमर्हसि ॥
(१.३५.९)
अन्यत्र गंगावतरण के प्रसंग में राजा भगीरथ की तपश्चर्या और कठोर व्रत से प्रसन्न होकर भगवान् शिव ने उन्हें अनुगृहीत किया था-
देवदेवे गते तस्मिन्सोऽङ्गुष्ठाग्रनिपीडिताम् ।
कृत्वा वसुमतीं राम संवत्सरमुपासत ॥
अथ संवत्सरे पूर्णे सर्वलोकनमस्कृतः ।
उमापतिः पशुपती राजानमिदमब्रवीत् ॥
प्रीतस्तेऽहं नरश्रेष्ठ करिष्यामि तव प्रियम् ।
शिरसा धारयिष्यामि शैलराजसुतामहम् ॥
(१.४२.१-३)
दक्ष के यज्ञ के विध्वंस के पश्चात् भी भगवान् शिव ने देवताओं द्वारा निवेदित स्तुति-मात्र से प्रसन्न होकर अपना धनुष् जनक के पूर्वज देवरात को न्यास-रूप में प्रदान किया था-
ततो विमनसः सर्वे देवा वै मुनिपुंगव ।
प्रसादयन्ति देवेशं तेषां प्रीतोऽभवद्भवः ॥
प्रीतियुक्तः स सर्वेषां ददौ तेषां महात्मनाम् ॥
तदेतद्देवदेवस्य धनूरत्नं महात्मनः ।
न्यासभूतं तदा न्यस्तमस्माकं पूर्वके विभो ॥
(१.६५.११-१३)
विश्वास-टिप्पनी
निर्हेतुक-कृपा हो तो पूजा भी क्योँ?
कुशाग्र मानते हैँ -
शिव को सदा लोक के कल्याण में निरत बताया गया है। … शिव की कृपा अहैतुकी है - इसे प्राप्त करने के लिए पहले रावण का वध करने की आवश्यकता नहीं है।
ऐसा होनेपर वध क्योँ, महादेव की पूजा भी व्यर्थ हि है -
वह उस व्याज के बिना भी लोककल्याण जो करते हि हैँ कुशाग्र के अनुसार।
यह जानने पर राम क्योँ व्यर्थ काम करेँगे? राम मूर्ख तो नहि जो निष्प्रयोजन काम करेँ।
देवताओं की प्रार्थना से प्रसन्न होकर भगवान् शिव ने ही उन्हें रावण के वध का साधन बताया था-
दैवतैस्तु समागम्य सर्वैश्चेन्द्रपुरोगमैः ।
वृषध्वजस्त्रिपुरहा महादेवः प्रसादितः ॥
प्रसन्नस्तु महादेवो देवानेतद्वचोऽब्रवीत् ।
उत्पत्स्यति हितार्थं वो नारी रक्षःक्षयावहा ॥
(६.८२.३४-३५)
विश्वास-टिप्पनी
रावण-निग्रहे ऽसामर्थ्यम्
कुशाग्र ने बताया कि (उन के पिता ब्रह्मा कि तर)ह-
शिव ने ही उन्हें रावण के वध का साधन बताया था।
पर यह बोलना आपने चातुर्यातिशय से भूल गये कि
वाल्मीकि के अनुसार रावण के निग्रह मेँ शिव स्वयम् असमर्थ थे,
इस कारण उनको भी लक्ष्मी-नारायण का शरण जाना पडा -
भयं तस्माद् … ततो देवर्षिगन्धर्वाः सरुद्राः … तुष्टुवुः॥
तो इस से क्या सिद्ध हुआ? रावणवध मेँ शिव से राम-रूपि विष्णु का अनुग्रह हो हि नहि सकता।
विस्तार-भय से वाल्मीकीय-रामायण में वर्णित शिव-लीला के अन्य प्रसंगों का उल्लेख अनुक्त छोड़ा जा रहा है। किंतु यह तो सिद्ध है कि वाल्मीकीय-रामायण में ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जहाँ भगवान् शिव ने नमस्कार और स्तुति से लेकर तपश्चर्या से प्रसन्न होकर याचकों को अनुगृहीत किया है। शिव की कृपा अहैतुकी है - इसे प्राप्त करने के लिए पहले रावण का वध करने की आवश्यकता नहीं है। फिर इसमें क्या आश्चर्य कि श्रीराम ने तपस्या, उपासना अथवा नमस्कार-मात्र से ही शिव का अनुग्रह प्राप्त किया?
अतः गोविन्दराज द्वारा कल्पित हेतु का अभाव रूपी कारण अनुपयुक्त है।
यदि “महादेव” का रूढत्व नहीं तो “जगन्नाथ” का भी नहीं
श्रीवैष्णव संप्रदाय में भगवान् श्रीरंगनाथ को इक्ष्वाकु-वंश का कुलदेवता माना जाता है। यह मान्यता पुराणों और आगमों के अनुरूप ही है और हमारे लिए श्रद्धेय है। किंतु श्रीराम की शिव-पूजा भी पुराणों में प्रसिद्ध है। अतः पूर्वपक्षी के आग्रह के अनुसार वाल्मीकीय-रामायण में भी श्रीराम के कुलदेवता का उल्लेख प्राप्त होना चाहिए।
कुलदेवता-प्रमाणानि
क्या वाल्मीकीय-रामायण में भी ऐसे प्रमाण मिलते हैं? इसके उत्तर में आदिकाव्य से तीन उल्लेख दिए जाते हैं-
१. यौवराज्याभिषेक से पूर्व देवी सीता सहित श्रीराम के द्वारा संपन्न भगवान् नारायण का यजन*
*गते पुरोहिते रामः
स्नातो नियतमानसः ।
सह पत्न्या विशालाक्ष्या
नारायणम् उपागमत् ॥
प्रगृह्य शिरसा पात्रीं
हविषो विधिवत्तदा ।
महते दैवतायाज्यं
जुहाव ज्वलितेऽनले ॥
शेषं च हविषस्तस्य
प्राश्याशास्यात्मनः प्रियम् ।
ध्यायन् नारायणं देवं
स्वास्तीर्णे कुशसंस्तरे ॥
(वाल्मीकीय-रामायण २.६.१-३)
विश्वास-टिप्पनी
(भाग ७)
स्पष्ट-वैष्णवत्व-लिङ्गानि
और कुशाग्र ने स्वयम् उल्लेख किया - “नारायणम् उपागमत्”, “प्रगृह्य शिरसा पात्रीं”, “दैवतायाज्यं जुहाव”, “शेषं … प्राश्य”, “ध्यायन् नारायणं … शिश्ये”। इस से तो थप्पड मारने कि तरह स्पष्ट है कि राम का नित्याचरण एक संस्कृत-वैष्णव का था। अब कुशाग्र मेँ वैष्णव-गन्ध होनेका भाग्य होता तो पहचानते कि पाञ्चरात्रोक्त प्रसिद्ध पञ्च-काल-प्रक्रिया मेँ यहाँ अभिगमन, उपादान, इज्या, और योग हि प्रकाशित किया गया है।
पुनस्स्नान, पुनर्-अभिगमन, और मन्दिर मेँ कुशोँ मेँ शयन - यहि व्रत-विशेष हैँ, शेष इज्या, योग तो साधारण हि हैँ।
वशिष्ठोपदिष्ट-राज्याभिषेक-निमित्तक व्रत-विशेष-मात्र होने पर भी यह स्पष्ट है कि “उपवास” (अर्थात् देवताओँ के साथ वास) कराने पर वसिष्ठ ने राम का नित्याग्निहोत्रागार मेँ शयन नहि कराया (जैसा इष्टि के पूर्व प्रति पक्ष किया जाता है), अपि तु नारायण के मन्दिर मेँ। इस से भी व्यक्त है कि इस कुल मेँ उस समय मेँ नारायण का वैशिष्ठ्य क्या था।
२. पुत्र के अभ्युदय हेतु कौसल्या द्वारा भगवान् विष्णु की पूजा
कौसल्यापि तदा देवी
रात्रिं स्थित्वा समाहिता ।
प्रभाते त्वकरोत्पूजां
विष्णोः पुत्रहितैषिणी ॥
(वाल्मीकीय-रामायण २.१७.६)
३. उत्तरकांड में श्रीराम द्वारा विभीषण को ईक्ष्वाकु-कुल के देवता जगन्नाथ की आराधना करने का उपदेश
किञ्चान्यद् वक्तुम् इच्छामि
राक्षसेन्द्र महाबल ।
आराधय जगन्नाथम्
इक्ष्वाकुकुलदैवतम् ॥
(उत्तरकांड दाक्षिणात्य-पाठ १०८.३१)
इन तीनों उल्लेखों में से तृतीय उल्लेख ही सर्वाधिक पुष्ट प्रमाण है।
यजन-साधारणत्वम्
अन्य दोनों उल्लेखों में केवल भगवान् विष्णु के यजन अथवा पूजा का उल्लेख है।
इनमें भगवान् विष्णु को इक्ष्वाकु-वंश का कुलदेवता नहीं अभिहित किया गया है।
यजन तो विभिन्न देवों का किया जा सकता है।
चित्रकूट में पर्णकुटी का निर्माण करके लक्ष्मण और देवी सीता समेत श्रीराम ने सभी देवों का यजन किया था।^
^इष्ट्वा देवगणान् सर्वान्
विवेशाऽवसथं शुचिः।
बभूव च मनोह्लादो
रामस्यामिततेजसः ॥
(वाल्मीकीय-रामायण, दाक्षिणात्य-पाठ २.५६.३०)
इसी क्रम में उन्होंने रुद्र देव का यजन भी किया था-
वैश्वदेवबलिं कृत्वा
रौद्रं वैष्णवम् एव च ।
वास्तुसंशमनीयानि
मङ्गलानि प्रवर्तयन् ॥
(वाल्मीकीय-रामायण, दाक्षिणात्य-पाठ २.५६.३१)
गोविंदराज के अनुसार यहाँ “रौद्र” का अर्थ रुद्र-देवता-संबंधी याग है।^^
“रौद्रं रुद्रदेवताकम्।
वैष्णवं विष्णुदेवताकं च यागम्।”
(गोविंदराज)
केवल यजन करने के उल्लेख से
कोई कुलदेवता प्रमाणित नहीं होता।
विश्वास-टिप्पनी
देवतान्तर-बलिः, विष्णु-बलिः
यहाँ पूर्वार्ध मेँ कहागया है कि सर्वदेवयजन (विशेष से रुद्रयजन) का उल्लेख से राम-परिवार का वैष्णवत्व सिद्ध नहि होता है। अब एक संस्कृत वैदिक वैष्णव क्षत्रिय का नित्य आचरण कैसा होता है यह क्या जाने कोई जो वैदिक और वैष्णव संस्कार और सदाचारोँसे वर्जित हो? यह तो वैष्णवोँ के लिये एक उत्तम वैष्ण्ववतार का वर्णन करने वाले वाल्मीकि जाने, और गोविन्दराजादि जाने।
आपस्तम्बसूत्रोँ से तो यह प्रसिद्ध है कि वैश्वदेव-बलि के अन्तर्गत रुद्र को भी बलि दिया जाता है। (हाँ - गोविन्दराजादि भी इसको अवश्य, विष्णु के आज्ञा मानकर, सोत्साह करते हैँ। )
पर वैष्णवबलि विशिष्ट है, और वह वैष्णवोँ मे हि साधारण है।
जगन्नाथार्थः
अतः उत्तरकांड के इस श्लोक के अतिरिक्त
भगवान् जगन्नाथ के इक्ष्वाकु-वंश के कुलदेवता होने का कोई और प्रमाण नहीं है-
किञ्चान्यद् वक्तुमिच्छामि
राक्षसेन्द्र महाबल । आराधय जगन्नाथम्
इक्ष्वाकुकुलदैवतम् ॥
(उत्तरकांड, दाक्षिणात्य-पाठ १०८.३१)
ध्यातव्य है कि उपर्युक्त श्लोक उत्तरकांड के समीक्षित पाठ में नहीं है। फिर प्रश्न उठता है - ये “जगन्नाथ” कौन हैं? क्या ये भगवान् विष्णु हैं? अथवा ये भगवान् शिव हैं? अथवा ब्रह्मा, सूर्य, गणेश आदि विविध देवों में से कोई एक हैं। वाल्मीकीय-रामायण के समीक्षित पाठ में “जगन्नाथ” का कोई अन्य उल्लेख नहीं है। दाक्षिणात्य-पाठ के इस प्रसिद्ध श्लोक में स्वयं श्रीराम को “जगन्नाथ” कहा गया है-
प्रोद्यमाने जगन्नाथं
सर्वलोक-नमस्कृतम् । कौसल्याऽजनयद्रामं
सर्वलक्षणसंयुतम् ॥
(वाल्मीकीय-रामायण, दाक्षिणात्य-पाठ १.१८.१०)
अतः “जगन्नाथ” के अभिधान को सिद्ध करने के लिए आदिकाव्य के आंतरिक प्रमाणों की संख्या न्यून है।
पूर्वपक्षी यह तर्क दे सकते हैं कि ये “जगन्नाथ” वही देव (“विष्णु”, “नारायण”) हैं जिनका यजन श्रीराम ने यौवराज्याभिषेक के पूर्व किया था, क्योंकि यौवराज्याभिषेक जैसे महत्त्वपूर्ण समारोह के पूर्व कुलदेवता का यजन और ध्यान उचित है।
तब हम यहाँ प्रतिप्रश्न करते हैं कि अपनी अवतार-लीला के सर्वोच्च अभियान -
लंका पर आक्रमण और रावण से युद्ध के पूर्व श्रीराम ने जिन देव (“महादेव”) का अनुग्रह प्राप्त किया था,
वे देव ही “जगन्नाथ” और तदनुरूप श्रीराम के कुलदेवता क्यों नहीं हो सकते?
रूढिर् न ग्राह्या
यदि पूर्वपक्षी के अनुसार “महादेव” शिव के लिए रूढ नहीं है तो “जगन्नाथ” विष्णु के लिए रूढ कैसे हो सकता है?+++(4)+++
जिस प्रकार “महादेव” का यौगिक अर्थ (“महान् देव”) बुद्धिगम्य है, उसी प्रकार “जगन्नाथ” का यौगिक अर्थ (“जगत् का नाथ”) भी सरल है।
“महादेव” से शिव का संबंध जोड़ने के लिए फिर भी वाल्मीकीय-रामायण (समीक्षित पाठ) में १० असंदिग्ध उल्लेख उपस्थित हैं। किंतु “जगन्नाथ” से विष्णु का संबंध जोड़ने के लिए वाल्मीकीय-रामायण में केवल एक ही उल्लेख का अवलंबन है।
विशेषणत्वम्
यदि पूर्वपक्षी का यह आग्रह है कि वाल्मीकीय-रामायण में प्रयुक्त “महादेव” शब्द सर्वत्र विशेषण है तो वही बात हम “जगन्नाथ” के विषय में भी का सकते हैं। उपर्युक्त “प्रोद्यमाने जगन्नाथं सर्वलोकनमस्कृतम्…” में तो “जगन्नाथ” स्पष्टतः “राम” का विशेषण है।
विशेष्यत्वम्
यदि पूर्वपक्षी पुनः कहें कि “आराधय जगन्नाथमिक्ष्वाकुकुलदैवतम्” में किसी अन्य विशेष्य के अभाव में “जगन्नाथ” ही विशेष्य है, तब हम उन्हें निम्नलिखित श्लोक का स्मरण कराते हैं जहाँ किसी अन्य विशेष्य के अभाव में “महादेव” ही विशेष्य है-
महादेववचः श्रुत्वा काकुत्स्थः सहलक्ष्मणः । विमानशिखरस्थस्य प्रणाममकरोत्पितुः ॥
(वाल्मीकीय-रामायण ६.१०७.९)
पुराणान्तरावलम्बनम्
यदि पूर्वपक्षी अन्य इतिहास-पुराणों के आश्रय से “जगन्नाथ” का विष्णु-परक अर्थ सिद्ध करना चाहें, तब ध्यातव्य है कि उन ग्रंथों में अनेक स्थानों पर “जगन्नाथ” शब्द भगवान् विष्णु के अतिरिक्त प्रजापति, शिव, गणेश, सूर्य आदि अन्यान्य देवताओं के लिए प्रयुक्त हुआ है।
फिर इनमें से कोई श्रीराम के कुलदेवता क्यों नहीं हो सकते? उदाहरण-स्वरूप पुराणों में भगवान् सूर्य को पौनःपुन्येन “जगन्नाथ” कहा गया है। ये सूर्य-वंश के आद्य प्रणेता भी हैं। फिर इन्हें ही श्रीराम का कुलदेवता क्यों न मान लिया जाए?
रङ्गनाथे प्रश्नः
इस प्रकार हम देख सकते हैं कि “महादेव” के रूढार्थ का निषेध करते-करते पूर्वपक्षी अपनी आस्था के केंद्र श्रीरंगनाथ स्वामी के कुलदेवत्व पर ही प्रश्नचिह्न लगाने के लिए बाध्य हो जाते हैं। प्रस्तुत उदाहरण यह दिखलाता है कि हठपूर्वक रूढत्व और ग्रंथ के आंतरिक प्रमाणों की उपेक्षा कर किसी शब्द का अर्थ करने से ऐसी जटिल समस्याएँ उत्पन्न होती हैं जिनका निराकरण दुःसाध्य है।
विश्वास-टिप्पनी
रङ्गनाथ-कुलदेवत्वम्
उत्तरार्धमेँ महान् आयास से यह सिद्ध करते है कि जगन्नाथ को भी विशेषण मानना पढेगा यदि महादेव को वैसा माना जाए। यह तो परिहास्य है क्योँ कि गोविन्दराजादि का इस बात मेँ कोई विप्रतिपत्ति नहि है। अब इससे ऐसी कोई बाधा उठती नहि है कि “श्रीरंगनाथ स्वामी के कुलदेवत्व पर ही प्रश्नचिह्न” लगे। क्योँकी वह बात पूराण से सिद्ध है, वाल्मीकि-रामायण से नहि। अगर कुशाग्र गोविन्दराजादि का दूषण करना चाहते है, तो उनके हि पक्ष का अनुवाद करना चाहिए, किसी दूसरे का नहि।
समुद्र का शिवत्व
जैसा कि हम पूर्व भागों में देख चुके हैं, टीकाकार गोविंदराज द्वारा प्रदत्त “प्रसाद” की व्याख्या औचित्य और प्रयोग-शैली के विपरीत है। दूसरी ओर वे रूढार्थ के विरुद्ध “महादेव” का अर्थ “समुद्र” लेना चाहते हैं। बड़ी रोचक बात है कि यदि गोविंदराज के दो आग्रहों में से कोई एक भी अस्वीकृत हो गया तो “अत्र पूर्वं महादेवः प्रसादमकरोत् प्रभुः” की उनकी अभीष्ट व्याख्या ध्वस्त हो जाएगी।
चलिए, गोविंदराज के संतोष के लिए हम उनके प्रथम आग्रह को अस्वीकार कर द्वितीय आग्रह को मान लेते हैं।
विश्वास-टिप्पनी
(भाग ८) अर्धकुक्कुटनयः
गोविंदराज के संतोष के लिए हम उनके प्रथम आग्रह को अस्वीकार कर द्वितीय आग्रह को मान लेते हैं।
अब इस से गोविन्दराज का कैसे सन्तोष होगा? यदि कोई अण्डा देने वाली मुर्गी को पाना चाहता है, तो क्या कुशाग्र उनके सन्तुष्टि के लिए केवल उसका पृष्ठभाग देँगे? इसे अर्धकुक्कुटीन्याय कहते हैँ।
इसका परिणाम यह होगा कि श्रीराम समुद्र के अनुग्रह-पात्र सिद्ध हो जाएँगे।
विश्वास-टिप्पनी
अनुक्त-निराकरण-श्रमः॥
इसका परिणाम यह होगा कि श्रीराम समुद्र के अनुग्रह-पात्र सिद्ध हो जाएँगे।
अब फिर कुशाग्र अनुक्त का निराकरण करते अपने मनोरञ्जन पाते है। इस से गोविन्दराज का क्या लेना देना है, भगवान् हि जाने।
अब यदि समुद्र के देवत्व को स्वीकार भी कर लिया जाए तो भी वे भगवान् शिव से निकृष्ट ही माने जाएँगे। यदि श्रीराम समुद्र के प्रसाद-पात्र हो सकते हैं तो वे उनसे उत्कृष्ट भगवान् शिव के अनुग्रह-भाजन क्यों नहीं हो सकते?
वेदोपबृंकतमत्वम्
किंतु विचारणीय तो यह है कि समुद्र भी शिवस्वरूप ही है। पुराणों में इसके अनेक प्रमाण है, किंतु संभवतः पूर्वपक्षी को पौराणिक प्रमाण स्वीकार्य नहीं हैं। ध्यातव्य है कि वाल्मीकीय-रामायण को वेदों का उपबृंहण कहा गया है।*
*स तु मेधाविनौ दृष्ट्वा
वेदेषु परिनिष्ठितौ ।
वेदोपबृंहणार्थाय
तावग्राहयत प्रभुः ॥
(वाल्मीकीय-रामायण दाक्षिणात्य-पाठ १.४.६)
गोविंदराज न केवल वाल्मीकीय-रामायण के वेदमूलकत्व को स्वीकार करते हैं, अपितु इसी कारण वे पुराणों के तथाकथित रामायण-विरुद्ध वचनों को अमान्य ठहराते हैं।**
**“पुराणेभ्यो गरीयानिति ‘वेदः प्राचेतसादासीत्” इति वेदमयत्वोक्त्या चतुर्मुखवरप्रदानमूलतया च प्रबलतरः। तद्विरोधे तामसपुराणवचनानि न प्रमाणानि।” (गोविंदराज)
यह भी उल्लेखनीय है कि वाल्मीकीय-रामायण के वेदत्व को सिद्ध करने के लिए गोविंदराज एक बाह्य श्लोक का अवलंब लेते हैं-
वेदवेद्ये परे पुंसि जाते दशरथात्मजे ।
वेदः प्राचेतसादासीत् साक्षाद् रामायणात्मना ॥
यह श्लोक अगस्त्य-संहिता से उद्धृत बताया जाता है किंतु वर्तमान में प्रकाशित अगस्त्य-संहिता के समीक्षित संस्करण में यह प्राप्त नहीं होता। मेरे संज्ञान में मंगलाचरण के रूप में प्रसिद्ध इस श्लोक का प्राचीनतम प्रामाणिक उद्धरण नीलकंठ चतुर्धर के मंत्र-रामायण में मिलता है। आश्चर्य है कि पौराणिक वचनों को अप्रामाणिक मानने वाले गोविंदराज अपने पक्ष में इतिहास-पुराण से इतर लोक-प्रचलित श्लोकों का भी आश्रय लेते हैं।
विश्वास-टिप्पनी
ग्रन्थ-प्राशस्त्य बाहर से॥
कुशाग्र आश्चर्य प्रकट करते हैँ कि -
पौराणिक वचनों को अप्रामाणिक मानने वाले गोविंदराज अपने पक्ष में इतिहास-पुराण से इतर लोक-प्रचलित श्लोकों का भी आश्रय लेते हैं।
कुछ इतर वचनों को रामकथा के विषय मेँ अप्रामाणिक मानने और रामायण-प्राशस्त्य के बारे मे इतर वचनोँ को प्रामाणिक मानने मेँ अन्तर है हि! सरल बात है - बाहर से कृति कि प्रशंसा गणनीय होता है, न तु उस कृति कि विकृति। और यह तो स्वाभिमत (और सर्वाभिमत) प्रसिद्ध वचन है, जो स्वतः रामायणोक्ति का अनुवाद है। स्वीयविकत्थन से अधिक हि परप्रशंसा मान्य है। तो यहाँ कुशाग्र का आश्चर्य नासमझ के कारण है, न तु गोविन्दराज के विषमता के कारण।
अस्तु, हमें इसमें विप्रतिपत्ति नहीं है। हम पूर्वपक्षी के संतोष के लिए समुद्र के शिवत्व का वैदिक प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। वेदों का उपबृंहण होने के कारण वाल्मीकीय-रामायण का प्रत्येक श्लोक वेदानुप्राणित है। वस्तुतः जल तत्त्व भगवान् शिव की अष्ट-मूर्तियों में से एक है। कौषीतकि-ब्राह्मण के अनुसार शिव की अष्ट-मूर्ति में से एक “भव” ही जल हैं।*
*“यद् भव आपस्तेन” (कौषीतकि-ब्राह्मण ६.२)
विश्वास-टिप्पनी
जल-मूर्तिः
और यह जो सभी जल को शिव के रूप प्रतिष्ठित करने का व्यर्थ प्रयास है, जिससे गोविन्दराज का तो प्रत्याख्यान होता भि नहि है, उस को भी ध्वस्त करना सरल है।
कौषीतकि-ब्राह्मण मेँ प्रजापति अपने पुत्र का नाम जो “भव” रख दिया तो कैसा उत्सव - जैसे कोई अपने बेटे को “राजा” पुकारदे तो कुशाग्र जैसे सभी आके उसका राज्याभिषेक ही कर दे। अब बने घर का राजा, वह राष्ट्र का राजा तो नहि बनता है। इसी प्रकार रुद्र की एक मूर्ति जल होने पर क्या सभी जल रुद्र बनजाते हैँ?
शतपथ-ब्राह्मण के अनुसार “सर्व” ही जल हैं।**
**“तम् अब्रवीत् सर्वोऽसीति । तद्यदस्य तन् नामाकरोद् आपस् तद् रूपम् अभवन्न्, आपो वै सर्वोऽद्भ्यो हीदं सर्वं जायते सोऽब्रवीज्ज्यायान्वा अतोऽस्मि धेह्येव मे नामेति।” (शतपथ-ब्राह्मण ६.१.३.११)
विश्वास-टिप्पनी
और् शतपथ-ब्राह्मण ने जो कह दिया “आपस् तद् रूपम् अभवन्न्”। यहाँ भी वह ही बात है।
अथर्वशिर उपनिषद् के अनुसार रुद्र ही जल में प्रविष्ट हैं।^
^यो रुद्रोऽग्नौ यो रुद्रोप्स्वन्तर्यो रुद्र ओषधीर्वीरुध आविवेश । यो रुद्र इमा विश्वा भुवनानि चक्लुपे तस्मै रुद्राय वै नमो नमः ॥ (अथर्वशिर उपनिषद् ६.१)
विश्वास-टिप्पनी
जल से देवतान्तरसम्बन्ध
और ओषधि वनस्पति जल आदि मे रुद्र का प्रवेश देख कर, यह तो नहि कहसकते कि उस उस मूर्ति के पूजन से रुद्र का हि पूजन होता है।
क्योँ कि नारायण भी तो (आपो नारा इति प्रोक्ता) व्युत्पत्ति से हि जल मेँ प्रविष्ट है। और समुद्र का भि जलमय हि तो शरीर है।
अतः जल की निधि समुद्र में भव, सर्व और रुद्र स्वरूपों में भगवान् शिव ही विद्यमान हैं। तदनुसार समुद्र के प्रसाद में हम शिव का अनुग्रह देख सकते हैं।
इस प्रकार “महादेव” के रूढार्थ “शिव” का निषेध करने वाले पूर्वपक्षी शिवात्मा समुद्र के प्रसाद को स्वीकार करने को बाध्य हो जाते हैं।
लौकिक न्यायों में इसे “घट्ट-कुटी-प्रभात-न्याय” कहा जाता है। घट्टकुटी नामक विषम स्थान से बचकर निकलने के लिए रात-भर प्रयास करने वाला
वाहन-चालक प्रातः होते अपने को घट्टकुटी में ही पाता है।
विश्वास-टिप्पनी
स्वदोषम् ईक्षस्व॥
गोविन्दराजादि के गति मेँ अवर्तमान घट्ट-कुटी-प्रभात-न्याय देखने वाले अपने सङ्कट मेँ पूर्वोक्त अर्धकुक्कुटीन्याय को पहचान ले।
शिवार्चन के पौराणिक प्रमाण
रामकथा के निर्धारण में मूल प्रमाण वाल्मीकीय-रामायण है। महर्षि वाल्मीकि श्रीराम के समकालीन थे और रामायण के वृत्तांतों के साक्षी भी थे। यद्यपि वाल्मीकीय-रामायण के आंतरिक प्रमाणों से ही राम की शिव-पूजा सिद्ध है, तथापि पौराणिक आख्यानों से भी उसका समर्थन हो जाता है।
जहाँ-जहाँ वाल्मीकीय-रामायण और अन्य पुराणों तथा पुराणेतर रामायणों में अविरोध है, वहाँ-वहाँ उन ग्रंथों के उन-उन अंशों को राम-कथा के प्रकाशनार्थ प्रामाणिक मानने में कोई हानि नहीं है। इन सभी पौराणिक आख्यानों को वाल्मीकीय-रामायण का उपबृंहण मानना चाहिए। किंतु जब वाल्मीकीय-रामायण और अन्य आख्यानों में तारतम्य नहीं दिखे तो उन आख्यानों को कल्पभेद अथवा अर्थवाद से समझा जा सकता है।
अतः हम सेतुबंध श्रीराम द्वारा संपादित शिव-पूजा के उन पौराणिक प्रमाणों का अवलोकन करेंगे जो वाल्मीकीय-रामायण के अविरुद्ध हैं। सर्वप्रथम ब्रह्मांड-पुराण का अंश माने जाने वाले अध्यात्म-रामायण में सेतुबंध का प्रसंग द्रष्टव्य है। अध्यात्म-रामायण में स्पष्ट वर्णन मिलता है कि श्रीराम ने सेतु का निर्माण आरंभ करने से पूर्व रामेश्वर नामक शिवलिंग की स्थापना कर भगवान् शिव की पूजा की थी।*
*सेतुमारभमाणस्तु तत्र रामेश्वरं शिवम्।
संस्थाप्य पूजयित्वाह रामो लोकहिताय च॥
प्रणमेत्सेतुबन्धं यो दृष्ट्वा रामेश्वरं शिवम्।
ब्रह्महत्यादिपापेभ्यो मुच्यते मदनुग्रहात्॥ (अध्यात्मरामायण ६.४.१-२)
विश्वास-टिप्पनी
(भाग ९)
प्रबन्धान्तर-पार्थक्यम्॥
अध्यात्मरामायण आदि काव्योँ को पुराण कहदेना अप्रामाणिक है।
यद्यपि कुछ सम्प्रदायोँ मे इस से विपरीत मान्यता देते हैँ, तो वह उनका स्खालित्य हि है।
और अगर पुराण मान भी लेँ, तो उस को तीर्थ-प्रशंसादि तात्पर्यान्तरपर हि मानना उचित होगा।
मायासीता इत्यादि कल्पनको यदि वाल्मीय पर ठोकना परिहास्य है, तो उस काव्य का इतर अंश क्योँ न हो?
ऐसे कथाओँ को वाल्मीकीय रामायण पर आधारित होने पर भी, उस से भिन्न मानकर लेना हि उचित है।
अध्यात्म-रामायण में लंका से पुनरागमन के समय श्रीराम के कथन का उपबृंहण भी प्राप्त होता है-
एतच्च दृश्यते तीर्थं सागरस्य महात्मनः।
सेतुबन्धमिति ख्यातं त्रैलोक्येन च पूजितम्॥
एतत्पवित्रं परमं दर्शनात्पातकापहम्।
अत्र रामेश्वरो देवो मया शम्भुः प्रतिष्ठितः॥
(अध्यात्म-रामायण ५.१४.५-६)
दूसरा प्रमाण हम पद्मपुराण से लेते हैं, जिसके अनुसार समुद्र पार करने से पूर्व श्रीराम ने भगवान् शिव की आराधना कर उनसे “अजगव” नामक धनुष् प्राप्त किया। यह धनुष् ही सेतु में परिवर्तित हो गया था।**
**अथ रामः शंकरमाराध्य सर्वं निवेदयित्वा त्वदुक्तं करोमीति वचनमुक्त्वा शिवमभ्यर्च्य प्रणतो भूत्वा व्यजिज्ञपत् ॥… एवं स्तुवतो रामस्य पुरतो लिंगमध्यकोपेतस्तेजोमयमूर्तिराविर्बभूव ॥ अभयवानथ पुनः पद्मासनासीनमुमाधिष्ठिताङ्कमीशमामुक्तसर्वाभरणं सुकान्तिकिरीटिनं हैमवतीकटिस्पर्शं करद्वयेनाभयवरप्रदं तरङ्गितानेकदिशाभिः । पूर्णतेजस्विनं हासमुखं प्रसन्नवदनं ददर्श रामः ॥ परमेशितारं ननाम बद्धाञ्जलिपुनश्च दण्डवत्पपात ॥ अथ रामं परमेश्वरोऽपि वरं वृणु त्वं वरदोऽहमित्युक्तवान् ॥ राम उवाच । लङ्कां गमिष्यामि समुद्रतरणे उपायमेकं मम देहि शम्भो ॥ शंभुरुवाच । ममाजगवं धनुरस्ति तत्कालरूपमविकल्पं वा भवति । तदारुह्य समुद्रं तीर्त्वा लङ्कामाप्नुहि ॥ (पद्मपुराण, पातालखंड ११६.२२०-२२७)
विश्वास-टिप्पनी
शिव-धनुः
और रहा पद्म-पुराण - शिव के अजगव धनुः हि अगर सेतु बन गया, तो नील का क्या काम, और समुद्र को क्योँ डराना था? यहाँ भी स्वतन्त्र आख्यान मानकर चलना हि उचित है।
तटस्थ को यह सूह्य होगा कि
यह शैवोँ ने राम-के द्वारा शिव-धनुर्-भङ्ग-प्रकरण के घाव को भरने केलिए
इस कथा को रचा है।
तीसरा प्रमाण शिवपुराण में उपलब्ध है, जिसके रामेश्वर-माहात्म्य के अनुसार समुद्र के तट पर श्रीराम ने पार्थिव शिवलिंग का पूजन कर आगामी युद्ध में विजय की प्रार्थना की थी। भगवान् शिव के प्रसाद से श्रीराम का मनोरथ सफल हुआ और उनके द्वारा स्थापितशिवलिंग रामेश्वर ज्योतिर्लिंग के नाम से प्रसिद्ध हुआ।*
***शिवपुराण, कोटिरुद्रसंहिता, अध्याय ३१
उपर्युक्त उल्लेखों के अतिरिक्त कुछ अन्य पौराणिक आख्यान मिलते हैं जिनमें रामेश्वर लिंग की स्थापना लंका-विजय के पश्चात् पुनरागमन के समय वर्णित है। इनमें प्रमुख हैं - स्कंदपुराण का सेतु-माहात्म्य^, कूर्मपुराण^^, और पद्मपुराण^^^।
^स्कंदपुराण, ब्रह्मखंड, सेतुखंड, अध्याय ४४-४९
^^आनयामास तां सीतां वायुपुत्रसहायवान् ।
सेतुमध्ये महादेवमीशानं कृत्तिवाससम् ॥
स्थापयामास लिङ्गस्थं पूजयामास राघवः ।
तस्य देवो महादेवः पार्वत्या सह शङ्करः॥
(कूर्मपुराण १.२१.४६-४७)
^^^वेलावनं समासाद्य रामः पूजामुमापतेः।
कृत्वा रामेश्वरं नाम्ना देवदेवं जनार्दनम्।
अभिषिच्याथ सङ्गृह्य वामनं रघुनन्दनः॥
(पद्मपुराण, गुरुमंडल-ग्रंथमाला-संस्करण, सृष्टिखंड ४०.१३४-१३५)
किंतु वाल्मीकीय-रामायण के अनुसार रावण-वध के पश्चात् श्रीराम सेतुबंध में नहीं रुके थे। अतः युद्ध के अनंतर लिंग-स्थापन की कथाओं को कल्पभेद अथवा पुराणों के पूर्वापर-विपर्यय के द्वारा समझना चाहिए।^^^^
^^^^पूर्वाः कथाः परं ब्रूयुः पराः पूर्वं तथैव च।
मोहनार्थाय दुष्टानां सर्वं व्यत्यासयिष्यते॥
विस्तारे तु यदुक्तं स्यात् तद् ग्राह्यमविरोधतः।
सङ्क्षेपोक्तविरोधे तु गुणोक्तिश्च सतां यथा॥
(भागवततात्पर्यनिर्णय १०.८०)
पुराणों की यह रीति है कि उनमें कई बार पहले के प्रसंग बाद में और बाद के प्रसंग पहले बता दिए जाते हैं।
ये कथाएँ वाल्मीकीय-रामायण में श्रीराम द्वारा देवी सीता के प्रति कहे गए “अत्र पूर्वं महादेवः प्रसादमकरोत् प्रभुः” के प्रयोजन की ओर भी संकेत करती हैं। वस्तुतः श्रीराम के द्वारा देवी सीता को सेतुबंध के दर्शन करवाने का उद्देश्य दूर से ही भगवान् शिव की मानस-पूजा करना है। गोस्वामी तुलसीदास भी इस प्रसंग की यही व्याख्या करते हैं-
इहाँ सेतु बाँध्यों अरु थापेउँ सिव सुख धाम।
सीता सहित कृपानिधि संभुहि कीन्ह प्रनाम॥
इस प्रकार सेतुबंध के समय रामेश्वर लिंग की स्थापना और पुनरागमन के समय सीता-सहित श्रीराम के द्वारा भगवान् शिव की मानस पूजा से इन कथाओं का समाधान किया जा सकता है।
“पूर्वम्” पद की सार्थकता
“अत्र पूर्वं महादेवः
प्रसादमकरोत् प्रभुः”
पर पूर्वपक्षी द्वारा प्रदत्त व्याख्या से महर्षि वाल्मीकि के निर्दुष्ट आदिकाव्य पर भी अनेक प्रकार के दोषों का आरोप लग जाता है - अप्रयुक्त, अप्रसिद्धार्थ, और नेयार्थ। इनके अतिरिक्त पूर्वपक्षी की व्याख्या का एक छिद्र यह भी है कि वह अधिकपदत्व-दोष को जन्म देती है।
अधिकपदत्व-दोष तब होता है जब वाक्य में आवश्यकता से अधिक पदों का प्रयोग हो।*
*“यत्राधिकपदोक्तिः स्यात् तत्राधिकपदं मतम्” (प्रतापरुद्रीय ५.५३)
अधिक पद की पहचान यह है कि उसके अभाव में भी वाक्य पूर्ण हो सकता है।**
**“यदभावादपि पूर्णं वाक्यं तेनाधिकपदम्” (अलंकारसंग्रह ६.३५)
अब पूर्वपक्षी की व्याख्या के अनुसार
“अत्र पूर्वं महादेवः प्रसादमकरोत् प्रभुः”
में “पूर्वम्” अधिक पद है।
विश्वास-टिप्पनी
(भाग १०)
“पूर्वं” न व्यर्थम्॥
पूर्वपक्षी की व्याख्या के अनुसार … “पूर्वम्” अधिक पद है।
यहाँ तो इन शब्दोँ का योजन उचित है - “कुशाग्र की कल्पना के अनुसार”,
क्योँ कि पूर्वपक्षि ने तो उस शब्द को व्यर्थ नहि कहा।
यहाँ भी यथासाधारण कुशाग्र अनुक्त के निराकरण से चमत्कार निकालने का कष्ट करते हैँ।
न केवल अनद्यतन भूतकाल (लङ्-लकार) में प्रयुक्त “अकरोत्” पद इस वृत्तांत के पूर्वकालिक होने की सूचना देने में समर्थ है, अपितु वाल्मीकीय-रामायण के इस संपूर्ण सर्ग (युद्धकांड, अध्याय १२३) में पूर्व-वृत्तांतों के कथन में श्रीराम ने अन्यत्र कहीं भी “पूर्वम्” पद का प्रयोग नहीं किया है।
पूर्वपक्षी स्वीकार करते हैं कि इस सर्ग में रामकथा के पूर्वोक्त वृत्तांतों का ही अनुवाद किया गया है।*
*“पूर्वोक्तानामेव ह्यत्रानुवादः कृतः” (गोविंदराज)
अब “पूर्वम्” पद के विषय में वे कहते हैं कि इस शब्द से “पूर्वकल्प” का बोध नहीं हो सकता है।**
**“न च पूर्वमित्यस्य पूर्वकल्प इत्यर्थ इति वाच्यम्” (गोविंदराज)
दूसरी ओर वे संभावना व्यक्त करते हैं कि
इस सर्ग के श्लोक विपर्यस्त हो गए हैं
और “अत्र पूर्वं महादेवः प्रसादमकरोत् प्रभुः” - इस शलोकार्ध को “अत्र मन्दोदरी नाम भार्या तं पर्यदेवयत्” के पश्चात् पढ़ना चाहिए।^
^“अथवा, अस्मिन् सर्गे श्लोकाः प्रायशो व्यत्यस्ता दृश्यन्ते इत्युडारिप्रभृतिभिरुक्तम्। तथा चेदमर्धम् “अत्र मण्डोदरीति श्लोकानन्तरं पठितव्यम्। तत्र च महादेवप्रसादः स्वपितृदर्शनमेव।” (गोविंदराज)
यह संभावना तो और भी विलक्षण है। गोविंदराज स्पष्ट नहीं कहते हैं किंतु यदि इस संभावना को स्वीकार कर लिया जाए तो “महादेव” का वही अर्थ होगा जो वाल्मीकीय-रामायण में सर्वत्र द्योतित होता है - भगवान् शिव। तब शिव द्वारा श्रीराम के प्रति कहे गए विनय-पूर्ण वचन और स्वर्गस्थ दशरथ के दर्शन कराने को श्रीराम का “प्रसाद” (“प्रसन्नता”) मान लिया जाएगा।
उपर्युक्त तर्क से पूर्वपक्षी का मंतव्य स्पष्ट है - चाहे हमें रूढार्थ का परित्याग करना पड़े, आर्ष-काव्य में विविध दोषों की उद्भावना करनी पड़े, और श्लोकों का क्रम भी परिवर्तित करना पड़े, किंतु श्रीराम भगवान् शिव के अनुग्रह-पात्र नहीं हो सकते हैं!+++(4)+++
विश्वास-टिप्पनी
अवर्तमान-दोषाः
कुशाग्र के अनुसार
रूढार्थ का परित्याग करना पड़े, आर्ष-काव्य में विविध दोषों की उद्भावना करनी पड़े, और श्लोकों का क्रम भी परिवर्तित करना पड़े किंतु श्रीराम भगवान् शिव के अनुग्रह-पात्र नहीं हो सकते हैं!
यह परिहास्य है क्योँ कि श्लोकोँ का क्रम पर सन्देह निष्पक्षपाति जन को भि मानना पडेगा यदि वाल्मीकीय-रामायण के प्रतियोँ मेँ वैसे दिखता हो। यह कुशाग्र का दुराग्रह को दिखाता है कि वह इस प्रमुख प्रमाण का उपेक्ष कर शिवपूजा को वाल्मीकीय-रामायण मेँ हठ से प्रतिष्ठापित करना चाहते हैँ।
और रूढार्थत्याग, पूर्वशब्दवैयर्थ्य इत्यादि दोष तो कुशाग्रकल्पित (अर्थात् अवर्तमान) साबित किये हि गये हैँ।
प्राचीन अवैष्णवोँ से भी स्वीकार
और यह कोई आग्रह से नहि, अपि तु प्रामाणिकता से प्रेरित है। अन्य कुछ प्राचीन व्याख्याताओँ ने भी इस अपनाया है। उदाहरण के लिए - महेश्वरतीर्थ ने भी माना की महादेव शब्द यहाँ समुद्रपर है। यह एक अद्वैती व्याख्याता थे, और नाम से हि इनका शैवभूमिका स्पष्ट है।
महादेवः— महाद् इति जले, तद्-रूपो देवः, महादेवः समुद्रः।
तथा च वैजयन्ती—“स्नेहं स्निह्यम् महच् छुद्धं
वारुणं सर्वतोमुखम्”इति।
यद्वा,
महादेवाष्ट-मूर्तिष्व्-अन्यतमत्वान् महादेव-शब्देन समुद्र एवोच्यते।
पूर्वं सेतु-बन्धात् पूर्वम्।
प्रसादम् अकरोत् जलोपरि सेतु-धारणम्।
किंतु कल्पना की पराकाष्ठा पर अवस्थित होकर भी पूर्वपक्षी “पूर्वम्” पद से अधिकपदत्व-दोष की उद्भावना कर बैठते हैं, क्योंकि “पूर्वम्” के औचित्य के जितने समाधान दिए गए हैं, उनका वे स्वयं निषेध कर चुके हैं। वे “पूर्वम्” का अर्थ “पूर्वकल्प” नहीं मानते हैं और श्लोकों के क्रम-परिवर्तन से युद्ध के अंत में सद्यःसंपन्न घटनाओं के साथ भी “पूर्वम्” के अन्वय का आग्रह कर बैठते हैं। जब एक बार साहसपूर्वक “महादेव” के सर्वविदित रूढार्थ का निषेध कर ही दिया तब ये व्याख्या-गत समस्याएँ संभवतः पूर्वपक्षी के लिए उपेक्षणीय ही हैं।
अब हम “महादेव” के रूढार्थ “शिव” को स्वीकार करते हुए अधिकपदत्व का समाधान करते हैं। वाल्मीकीय-रामायण के अनुसार भगवान् शिव ने श्रीराम पर दो बार अनुग्रह किया था-
१. सेतुबंध के समय २. रावण-वध के पश्चात्
प्रथम अनुग्रह को परिलक्षित करने के लिए ही “अत्र पूर्वं महादेवः प्रसादमकरोत् प्रभुः” में “पूर्वम्” पद का प्रयोग किया गया है।
द्वितीय अनुग्रह युद्ध के पश्चात् देवी सीता के सम्मुख ही हुआ था, जब श्रीराम को भगवान् शिव ने दशरथ का दर्शन-लाभ कराया था। इसके विषय में सीता जी को बताने की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि वे इसकी साक्षिणी रह चुकी थीं। अतः द्वितीय अनुग्रह से प्रथम अनुग्रह को भिन्न दिखाने के लिए ही “पूर्वम्” का औचित्य है। इसके विपरीत यदि “महादेव” का अर्थ “समुद्र” स्वीकार कर लिया जाए तो समुद्र के द्वारा श्रीराम के प्रसाद का केवल एक ही वृत्तांत सामने आता है। तब श्लोक में “पूर्वम्” पद व्यर्थ होने के कारण अधिकपदत्व-दोष को उत्पन्न कर देता है।
विश्वास-टिप्पनी
सेतु-बन्धात् पूर्वम्
“पूर्वम्” शब्द से सेतु-निर्माण-समय का निर्देश भी अर्थपूर्ण हि तो है। पिछले श्लोक मे हि तो वर्तमान-काल का प्रयोग कर राम ने कहा “एतत्तु दृश्यते … सेतुबन्ध इति ख्यातं त्रैलोक्येनाभिपूजितम् …"।
किसि भि पामर को इसका ऐसा अनुवाद देकर पूछिये -
“यहाँ पवित्र तीर्थ सेतुबन्ध है। यहीँ पहले महादेव ने प्रसाद किया था। "
अब बच्छा भी समझजायेगा (जैसे कुशाग्र ने पिछले एक भाग मेँ समझा था) कि “पहले” - यह शब्द व्यर्थ नहि है,
इस को समझने मेँ कोई दूसरे अध्याहार अथवा कथा की अपेक्षा नहि है,
और यह शब्द पवित्रतीर्थ बनने का कारण कहता है।
और यह गोविन्दराजीय आग्रह नहि है -
अद्वैती टीकाकार महेश्वरानन्द (जो महादेव को समुद्र ही मानते थे) भी कहते हि है -
“पूर्वं सेतु-बन्धात् पूर्वम्”।
इस के स्थान पर कुशाग्रोक्त “दो अनुग्रहोँ मे से पूर्व” अर्थ बनाने केलिये तो बाह्य कथानकोँ का स्वीकार करने पर विवश होना पडता है।
ऐसे अर्थ करने केलिये तो किसि कुटिल पण्डित की अपेक्षा होती है। स्पष्ट है कि “आग्रह” कुशाग्र का हि है, गोविन्दराज का नहि।
आर्षकाव्य में अधिकपदत्व-दोष की कल्पना अग्राह्य है। यह उत्पन्न तभी होता है जब पूर्वपक्षी हठपूर्वक रूढार्थ का निषेध करते हैं।
“महत्” का अर्थ
पूर्वपक्षी के अनुसार “महादेव” का अर्थ “समुद्र” है। इसके पीछे दिया जाने वाला एक मुख्य तर्क यह है कि निघंटु (१.१२.५२) में “महत्” को “जल” का एक नाम बताया गया है। किंतु न केवल यह अर्थ अप्रसिद्ध है, अपितु सर्वथा अप्रयुक्त है।
विश्वास-टिप्पनी
(भाग ११) अमुख्यो मुख्यीकृतः
इस को “मुख्य तर्क” बताकर फिर लोक को व्यामोहित कर कुछ कुछ कहते हैँ कुशाग्र यहाँ।
निरुक्त में महर्षि यास्क ने “महत्” का प्रयोग विशेषण के रूप में किया है और उसका अर्थ “बृहत्” माना है। यास्क ने कहीं भी “महत्” का अर्थ “जल” नहीं प्रकाशित किया है। संपूर्ण वैदिक वाङ्मय में “जल” के अर्थ में “महत्” का कोई प्रयोग प्राप्त नहीं होता है। उदाहरण-स्वरूप केवल ऋग्वेद में “महत्” शब्द १०५ बार आया है, किंतु कहीं भी इसका अर्थ “जल” नहीं है। सायणाचार्य के भाष्य के अनुसार ऋग्वेद में प्रत्येक स्थान पर “महत्” का अर्थ “बड़ा” अथवा “विशाल” ही है, “जल” नहीं।
“महत्” शब्द की अप्राप्ति में कोई आश्चर्य नहीं है, क्योंकि निघंटु में सूचित जल के १०१ नामों में से ५३ नाम इस अर्थ में कहीं प्रयुक्त होते नहीं देखे गए हैं। इन नामों के अवलोकन-मात्र से इनके “जल” अर्थ का निराकरण हो जाता है - “क्षप”, “तृप्ति”, “ओजस्”, “सुख”, “क्षत्र”, “भूत”, “व्योमन्”, “अन्न”, “हविस्”, “सद्मन्”, “सदन”, “सत्य”, “सर्व”, “बर्हिस्”, “सर्पिस्”, “इंदु”, “हेम”, “स्वर्” इत्यादि। ये शब्द ऐसे हैं कि इनका कहीं प्रकरण-वशात् भी “जल” अर्थ नहीं किया जा सकता है।
विश्वास-टिप्पनी
निघण्टौ सर्वा आपः॥
फिर भी आनुषङ्गिक खण्डन तो उचित है।
“सर्व”… इनका कहीं प्रकरण-वशात् भी “जल” अर्थ नहीं किया जा सकता है।
राम राम - स्वयं कुशाग्र ने ही “आपो वै सर्व्वो,” - इस शतपथब्राह्मण का उल्लेख किया। स्वयं जो अपना कहा भूल जाए, वह वैदिकवाङ्मय मेँ यास्क के अभिप्रेत प्रयोग को कैसे पावेँ?
और यास्क के काल मेँ जो वेदवाङ्मय था वह अब तो नहि मिलता है।
निघंटु के टीकाकार देवराज यज्वा ने “जल” के अर्थ में “महत्” के दो निर्वचन प्रदान किए हैं-
१. जिसके द्वारा देवता की पूजा की जाए अथवा जो स्वयं देवता होने के कारण पूजित होता हो,
२. जो अपने परिमाण के द्वारा अपने से लघुकाय पदार्थों का अतिक्रमण करता हो^^।
^“अस्मात् ‘वर्तमाने पृषद्बृहन्महज्जगच्छतृवच्च’ (उणादिसूत्र २.८४) इति निपातम्। महति महयति वा देवतामनेन पुरुषस्येति महत्, मह्यते वा देवतात्वात्।” (निघंटु १.१२.५२ पर देवराज-यज्वा की टीका)
^^“मानेन स्वगतेन परिमाणेन अन्यान् स्वस्मादूनप्रमाणान् पदार्थान् जहाति अतिक्रामति ‘दशोत्तराण्यावरणानि सप्त’ इत्यत्र विष्णुपुराणे सर्वमहत्त्वं जलतत्त्वस्योक्तम्।” (निघंटु १.१२.५२ पर देवराज-यज्वा की टीका)
देवराज यज्वा स्वीकार करते हैं कि निघंटु में प्रदत्त “जल” के अनेक नामों के वैदिक प्रयोग अन्वेषणीय हैं।^^^
इस अर्थ में यदि “महत्” का प्रयोग भी अप्राप्य हो तो किसी को आश्चर्य नहीं होगा। किंतु देवराज यज्वा ने “जल” के अर्थ में “महत्” के प्रयोग का जो वैदिक उदाहरण दिया है, वह वस्तुतः विशेषण के रूप में है, संज्ञा के रूप में नहीं। संपूर्ण मंत्र इस प्रकार है-
महत्तदुल्बं स्थविरं तदासीद्येनाविष्टितः प्रविवेशिथापः । विश्वा अपश्यद् बहुधा ते अग्ने जातवेदस्तन्वो देव एकः ॥
(ऋग्वेद १०.५१.१)
यहाँ देव-गण जल में विलीन अग्नि-देव से कह रहे हैं - “हे अग्ने! वह आवरण अत्यंत स्थूल था, जिससे आवेष्टित हो तुम जल में प्रविष्ट हुए थे। हे जातवेद! केवल एक देव तुम्हारे अनेक प्रकार के रूपों को देख चुका है।”
यहाँ “महत् स्थविरम्” (अर्थात् “अत्यंत स्थूल” अथवा “विशाल और स्थूल”) “उल्ब” (अर्थात् “आवरण” अथवा “गर्भाशय”) का विशेषण है। “महत्” का अर्थ “अतिशय” अथवा “विशाल” है, “जल” नहीं। सायण-भाष्य भी इस अर्थ का समर्थन करता है।^^^
^^^“निगमोऽन्वेषणीयः” (निघंटु १.१२ पर देवराज-यज्वा की टीका में बार-बार संसूचित)
^^^“तदुल्बं वक्ष्यमाणं तत् प्रावरणं महत् स्थविरम् अत्यन्तं स्थूलं च तत् तत् आसीत् येन उल्बेन आविष्टितः आवेष्टितः सन् हे अग्ने प्रविवेशिथापः उदकानि प्रविष्टवानसि । हे अग्ने जातवेदः जातप्रज्ञ ते विश्वाः सर्वाः तन्वः तनूः सर्वाण्यङ्गानि बहुधा बहुप्रकारम् एकः देवः अपश्यत् दृष्टवान् ।” (ऋग्वेद १०.५१.१ पर सायण-भाष्य)
मेरे संज्ञान में वैदिक वाङ्मय के अतिरिक्त संपूर्ण ऐतिहासिक और पौराणिक वाङ्मय में भी “जल” के अर्थ में “महत्” का कोई प्रयोग नहीं मिलता है। वाल्मीकीय-रामायण में भी ऐसा कोई प्रयोग उपलब्ध नहीं है। जैसा कि हम पहले देख चुके हैं, यदि “महत्” का अर्थ “जल” स्वीकार भी कर लिया जाए तो व्याकरण के अनुसार “जल के देव” (“महतां देवः”) के अर्थ में “महद्देव” शब्द बनेगा, “महादेव” नहीं।
अब विचारणीय है कि सेतु-बंधन जैसे महत्त्वपूर्ण प्रसंग के कथन के लिए महर्षि वाल्मीकि एक अत्यंत अप्रसिद्ध, पूर्व में अप्रयुक्त और संदेहास्पद शब्द का प्रयोग क्यों करेंगे? जब रूढ़ार्थ का निषेध कर किसी शब्द का बलात् अर्थ किया जाता है तो ऐसे कठिन प्रश्न अनुत्तरित ही रह जाते हैं।