अध्यात्मरामायणम्

[[अध्यात्मरामायणम् Source: EB]]

[

[TABLE]

प्रकाटहोकि इस पुस्तककी रजिस्ट्री, बमजिबण्क्टे८५ सन १८६७ के २२ अगस्त
सन् १८९० ई० से में सं०१७६६ परहुईहे आक्षाबिना कोईछापने काअधिकारी नहींहै॥

भगवद्गीतानवलभाष्य का विज्ञापनपत्र॥

—————

प्रकट हो कि यह पुस्तक श्रीमद्भगवद्गीता सकल निगम पुराण स्मृति सांख्यादि सारभूतपरमरहस्य गीताशास्त्र का सर्वविद्यानिधान सौशील्यविनयौदार्य्यसत्यसंगर शौर्य्यादि गुणसम्पन्न नरावतार महानुभाव अर्जुन को परम अधिकारी जानके हृदयजनित मोहनाशार्थ सबप्रकार अपारसंसार निस्तारक भगवद्भक्तिमार्ग दृष्टिगोचर कराया है वही उक्त भगवद्गीता बज्रवत् वेदान्त व योगशास्त्रान्तर्ग्गतजिसको अच्छे २ शात्रवेत्ता अपनी बुद्धि सेपार नहीं पासक्ते तव मन्दबुद्धी जिनको कि केवल देशभाषाही पठन पाठन करने की सामर्त्थ्यहै वहकबइसके अन्तराभिप्रायको जानसक्ते हैं-और यह प्रत्यक्ष ही है कि जबतक किसी पुस्तक अथवा किसी वस्तुका अन्तराभिप्राय अच्छे प्रकार बुद्धिमें न भासितहोतबतक आनन्द क्योंकर मिलैइसप्रकार सम्पूर्ण भारतनिवासी श्रीमद्भगवत्पदाब्ज रसिकजनोंके चित्तानन्दार्थ व बुद्धिबोधार्थ संतत धर्म्मधुरीण सकल कलाचातुरीण सर्वविद्याविलासी भगवद्भक्त्यनुरागी श्रीमान् मुंशीनवलकिशोरजी (सी, आई, ई) ने बहुतसाधन व्ययकर फर्रुखाबाद निवासि पण्डित उमादत्तजी से इस मनोरंजन वेद वेदान्त शास्त्रोपरि पुस्तक को श्रीशंकराचार्य्य निर्मित भाष्यानुसार संस्कृतसे सरल देशभाषा में तिलक रचाय नवलभाष्य आख्यसे प्रभातकालिक कमल सरिस प्रफुल्लित करादिया है कि जिसको भाषामात्रके जाननेवाले पुरुषभी जानसक्तेहैं॥

—————

सारस्वत सटीकका विज्ञापनपत्र॥

पण्डित लोगों को उचित है कि प्रथम जिस समयछोटे २ विद्यार्थी उनके पास पढ़नेको आयें उनको अत्यन्त आदरसेअपने पुत्र के समान समझकरबहुतलाडप्यारसे उनकोअकारादि सवस्वरों और ककारादि सब व्यंजनों को पहिचनवाकर लिखायें पढ़ायें और जिस समय छोटे बालकोंके खेलने का समय योग्यसमझे थोडीदेरके लिये छुट्टी भी देदिया करें जिससे बालक आनन्दसेपढ़ें इसप्रकारसेबहुतशीघ्र ऐसी सामर्थ्य करादेवें कि जिसमें बालकों

अध्यात्मरामायणसटीकका सूचीपत्र।

[TABLE]

अध्यात्मरामायणसटीकका सूचीपत्र।

[TABLE]

[TABLE]

[TABLE]

इत्यध्यात्म रामायणसटीक सूचीपत्रम्॥

————

अथ अध्यात्मरामायण॥

बालकाण्ड॥

भाषाटीकासहित॥

<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1725812413Screenshot2024-09-08214950.png"/>

दोहा॥

रामायणकीविधिकही नारदसेश्रुतिसार।
सूतकहीपुनिऋषिनसे महिमा अमित अपार॥१॥

सोरठा॥

प्रथमकह्योसमुझाय सूतशौनकादिकनप्रति।

कह्योजोबिधिबिलगायअध्यातमरघुबरचरित॥१॥

दोहा॥

रामायण अध्यातमहि उमादत्त भूदेव।
नरभाषाभूषितकरत सुमिरिगजाननदेव॥१॥

जोहिय में रघुवरचरित दीपजगावतमोर।
सोजगमेंयुगयुग जियो मुन्शीनवलकिशोर॥२॥

अथभूमिका॥

इस अध्यात्मरामायण का मुख्य प्रयोजन तो यह है कि सकल दुःखों का कारण जो अविद्या अर्थात् अज्ञान तिसकी निवृत्तिद्वारा परमानन्द प्राप्तिहोना औ धन पुत्र ऐश्वर्यादिकों की प्राप्ति तौ प्रासंगिक फल है अर्थात् जैसे कोई मनुष्य किसी ग्रामकोजावै उसको ग्रामकी प्राप्ति तौमुख्यफल कहा जाता है और मार्ग में तृण आदि पदार्थों का स्पर्श प्रासंगिक कहलाता है तै से ही सच्चिदानन्दघन श्रीरामस्वरूप ज्ञान के अनन्तर उसमें रमणहोना यह मुख्यफल है औधन पुत्र राज्य आदि भोगों की प्राप्ति प्रासंगिक है जो अत्यन्तगुप्त अध्यात्मरामायणज्ञान श्रीमहादेवजीने पार्वतीजी से कहा सोई ज्ञानब्रह्माजी अपने प्रियपुत्र नारदजीको उपदेश करते हुये नारदजीके द्वारा व्यासवाल्मीकि आदि ऋषियों को प्राप्त हुआ ऋषियों ने सूतजी से कहा सूतजी ने नैमिषारण्य में शौनक आदि ऋषियोंको उपदेश किया उन ऋषियोंने भी अपने शिष्योंसे कहा इसप्रकार यह दिव्य अध्यात्मरामायण

ज्ञानमनुष्यलोकमें प्रकट हुआसो सबप्रकार स्पष्ट करने को ग्रन्थका प्रारंभ करते हैं और जबग्रन्थ प्रारंभ किया जाता है तो उसके आदिमें मंगलवाचकशब्द लिखना चाहिये यह रीति श्रेष्ठ पुरुषों की सनातन चली आती हैं इसका प्रयोजन यह है कि जिसग्रंथ के आदि मध्य और अन्त में मंगल होता है वह ग्रंथलोक में विख्यात होता है औ उसग्रन्थकी निर्विघ्नपूर्वक समाप्ति होती है और उसके पढ़नेवालों की सदावृद्धिहोती है सो वह मंगल तीनप्रकारका होता है एक तो नमस्कारात्मक अर्थात् जिसग्रन्थ के आदि में अपने इष्टदेवका नमस्कार लिखाहोवै और दूसरा वस्तुनिर्देशात्मक मंगल होता है अर्थात् जहां आदि में भगवान्का नाम आदिस्वरूप का निर्देशहोय और तीसरा आशीर्वादात्मक मंगल होता है अर्थात् जहां आदि मेंआशीर्वाद का सूचक शब्दहोय तिसमें यहां अध्यात्मरामायण ग्रन्थके आदिमें कवि प्रथम श्लोककरिकै नमस्कारात्मक मंगल करते हैं।

अप्रमेयत्रयातीतनिर्मलज्ञानमूर्त्तये।
मनोगिरांविदूरायदक्षिणा मूर्त्तयेनमः॥१॥

॥सूतउवाच॥

कदाचिन्नारदोयोगीपरानुग्रहवाञ्छया।
पर्यटन्सकलाल्ँलोकान्सत्यलोकमुपागमत्॥२॥

अप्रमेयेति नहीं जिसका प्रमाण होसकै अर्थात् इतना है ऐसाजो मनमें न आसकै उसको अप्रमेय कहते हैं ऐसाजो तीनों गुणोंसे परे जोनिर्मलज्ञान अर्थात् मायारूप मल जिसमें नहोवैऐसाजो शुद्धज्ञान वही है मूर्तिस्वरूप जिसका औ इसीसे मन औरवाणी इनसेदूरअर्थात् इनकेविषय न होसके ऐसे जो दक्षिणामूर्ति सदाशिव तिनके अर्थ मेरा नमस्कार है इसका अभिप्राय यह है कि जोत्रिगुण पदार्थहै वहीमन और वाणी का गोचर हो सक्ता है सदाशिव तो ब्रह्मरूप होनेसे मन और वाणी इनके अगोचर हैं अथवा अप्रमेय यहपदत्रयका विशेषण है तब ऐसा अर्थ हुआ कि अप्रमेय प्रमाण करने को अशक्य जो त्रयनाम मायाजीव ईश्वर इनको अतिक्रमण करनेवाला जो निर्मल ज्ञानशुद्ध ब्रह्मवहीस्वरूप जिसका ऐसे जो दक्षिणामूर्ति सदाशिव तिनको नमस्कार है १ अबसूतजीशौनकादि ऋषियोंसे कथा कहते हैं किसी समय में योगाभ्यास में तत्पर ऐसे जो नारदजी सोजीवों के कल्याणकी इच्छा करिकै सब लोकोंमेंविचरते सत्यलोकमेंआतेहुये सत्यलोकभी ब्रह्मलोक के अन्तर्गत है इससे यह शंकानहींकरनी कि ब्रह्मानारदका संवाद तो ब्रह्मलोकमें होना चाहिये सत्यलोक कैसे कहा इसमें प्रमाणवाल्मीकीयके बालकाण्ड प्रथम सर्ग में ऐसाकहाकि॥ रामोराज्यमुपासित्वाब्रह्मलोकं प्रयास्यतीति२॥

तत्रदृष्ट्वामूर्तिमद्भिश्छन्दोभिः परिवेष्टितम्।
बालार्कप्रभयासम्य

ग्भासयंतंसभागृहम्॥३॥

मार्कण्डेयादिमुनिभिःस्तूयमानंमुहुर्मुहुः।
सर्वार्थगोचरज्ञानंसरस्वत्यासमन्वितम्॥४॥

चतुर्मुखंजगन्नाथंभक्ताभीष्टफलप्रदम्।
प्रणम्यदण्डवद्भक्त्यातुष्टावमुनिपुङ्गवः॥५॥

तिस सत्यलोक में मुनियों में श्रेष्ठ जो नारदजी सो ब्रह्माजी को देखिकै बडीभक्तिसे दंडवत्प्रणाम कर स्तुति करने लगे अब ब्रह्माजी का वर्णन करते हैं जैसे कुछ नारदजीने देखा है कैसे ब्रह्माजी हैं मूर्त्तिको धारण करे हुये जो संपूर्ण वेदसोजिनका सेवन कर रहे हैं औ बालसूर्य के समान कान्ति करिकै उस अपनी सभाको प्रकाशित कर रहे हैं ३ और मार्कण्डेयजी को आदिलैकै सब मुनीश्वर हाथ जोड़ेजिनकी स्तुतिकर रहे हैं औ वेद आदि सब शास्त्र औजेलौकिक पदार्थ हैं तिनसबोंके जाननेवाले हैं औसरस्वतीदेवी करिकै युक्तहैं ४ औ चारमुखों करिकैशोभित हैं औसबजगत् के स्वामी हैं औ भक्तों को अभीष्टफलोंके देनेवाले हैं अर्थात्जिस भक्त कीजैसी कामना है तैसीतिसकी पूर्णकर रहे हैं ऐसे ब्रह्माजी की नारदजी स्तुति करते हुये ५॥

सन्तुष्टस्तंमुनिम्प्राहस्वयंभूर्वैष्णवोत्तमम्।
किम्प्रष्टुकामस्त्वमसितद्वदिष्यामिसुने॥६॥

इत्याकर्ण्यचस्तस्यमुनिर्ब्रह्माणमब्रवीत्।
त्वत्तः श्रुतंमयासर्वंपूर्वमेवशुभाशुभम्॥७॥

इदानीमेकमेवास्ति श्रोतव्यंसुरसत्तम।
तद्रहस्यमपिब्रूहियदितेनुग्रहोमयि॥८॥

प्राप्तेकलियुगेघोरेनराःपुण्यविवर्ज्जिताः।
दुराचाररताःसर्वसत्यवार्त्तापराङ्मुखाः॥९॥

परापवादनिरताः परद्रव्याभिलाषिणः।
परस्त्रीसक्तमनसः परहिंसापरायणाः॥१०॥

देहात्मदृष्टयोमूढानास्तिकाः पशुबुद्धयः।
मातापितृकृतद्वेषाः स्त्रीदेवाः कामकिंकराः॥११॥

विप्रालोभग्रहग्रस्तावेदविक्रियजीविनः।
धनार्जनार्थमभ्यस्तविद्यामदविमोहिताः॥१२॥

व्यक्तस्वजातिकर्माणः प्रायशः परवंचकाः।
क्षत्रियाश्चतथावैश्याः स्वधर्मत्यागशीलिनः॥१३॥

इस प्रकर नारद की स्तुति से प्रसन्न हुये ब्रह्माजी अपने पुत्रको परमवैष्णवजानिबोले हे मुने क्या तुम्हारे पूछने की इच्छा है सो पूछिये मैं कहता हूँ ऐसे वचन सुनिकै नारदजी ब्रह्माजीसे पूछनेलगे हे पितः! मेंने शुभा शुभ अर्थात् अच्छे बुरे कर्मों के फल पहिले आपसे सुने ही हैं ७ अब इस समय में एक बात पूछता हूं सो यद्यपिअत्यन्त गुप्तभीहो तौभी कहिये जो मेरे ऊपर आापकी कृपा दृष्टिहोयतो औआप सर्व देवतोंमें श्रेष्ठहैं इससे आपही इसगूढप्रश्नके उत्तर देने को समर्थ हैं ८ वही

प्रश्न नारदजी करते हैं हे भगवन् अब इसघोर कलियुग के प्राप्त होने से सब मनुष्य पुण्यकर्म्मोंसे रहित हो रहे हैं औदुराचारमें प्रीतिकर रहे हैं औ सत्यकी वार्ता से विमुख हो रहे हैं अर्थात् विना प्रयोजन मिथ्या भाषण करते हैं ९॥ औपरनिन्दामें प्रीतियुक्त हो रहे हैं अर्थात् जहां किसी की निन्दा होती है उसको बड़ी प्रीति से सुनते हैं औ जैसेबने तैसे परद्रव्य हरणकी इच्छा कर रहे हैं औ विरानी स्त्रियाओं में जिनके मन आसक्तहो रहे हैं और जीवोंकी हिंसा में तत्पर हो रहे हैं १० और देह में जिनकी आत्मदृष्टि हो रही है अर्थात् अपने वास्तव सच्चिदानन्दरूप को भूलिकै जब शरीरही को आत्मा मानने लगे तवशरीर के क्लेश में क्लेश मानते हैं और शरीर के सुख में सुखमान रहे हैं इसीसे इष्ट मित्रके देहवियोग में अपार दुःखको मोहबश से प्राप्तहोरहे हैं औ इसीकारण से इसलोक के सुख दुःखको सत्यमानते हैं औ परलोकको मिथ्याजान नास्तिक होरहे हैं और पशुओं की सी बुद्धिको प्राप्तहो रहे हैं और अपने मातापितासे द्रोहकरते हैं औ स्त्रियाओं में देवताकी सी प्रीति और आदर करते हुये कामदेव के भृत्य हो रहे हैं ११ और ब्राह्मणलोग लोभरूप ग्राहकरके ग्रसेहुये अनेक धर्मरूप वेदीको बेंचिकै जीवन कर रहे हैं अर्थात् जोधनदेवै तिसीको वेद पढ़ाते हैं औ जिसमें धनमिले उसी विद्यामें अभ्यासकरते हैं औ विद्याके मदसे गर्वित हो रहे हैं १२ और अपने ब्राह्मणजातिके जो शस, दस, इत्यादि धर्म तिनको त्याग कर रहे हैं और जैसे बने तैसे लोगों के ठगने में तत्पर होरहे हैं और इसीप्रकार क्षत्रिय और वैश्य इन्होंने भी अपने २ धर्मको त्यागदिया है १३॥

तद्वच्छूद्राश्च ये केचिद्ब्राह्मणाचारतत्पराः।
स्त्रियश्चप्रायशोभ्रष्टाभर्त्त्रवज्ञाननिर्भयाः॥१४॥

श्वशुरद्रोहकारिण्यो भविष्यन्तिनसंशयः।
एतेषांनष्टबुद्धीनांपरलोकःकथंभवेत्॥१५॥

इतिचिन्ताकुलं चित्तंजायतेममसन्ततम्।
लघुपायेनयेनैषांपरलोकगतिर्भवेत्॥१६॥

तमुपायमुपाख्याहिसर्वंवोत्तियतोभवान्।
इत्यृषेर्वाक्यमाकर्ण्य प्रत्युवाचाम्बुजासनः॥१७॥

साधुपृष्टंत्वयासाधोवक्ष्येतच्छृणुसादरम्।
पुरात्रिपुरहंतारंपार्वती भक्तवत्सला॥१८॥

श्रीरामतत्त्वं जिज्ञासुः पप्रच्छविनयान्विता।
प्रियायैगिरिशस्तस्यैगूढंव्याख्यातवान्स्वयम्॥१९॥

और शूद्रलोगभी शुश्रूषारूप अपने सनातनधर्मको त्यागकरि ब्राह्मणों के आचारमें तत्पर हो रहे हैं अर्थात् जिन शूद्रोंकोवेदके श्रवण करने का भी अधिकार शास्त्र में नहीं लिखा है वह शूद्रलोग इस कलियुग के प्रभाव से ऊंचे आसन पे बैठिकै ब्राह्मणलोगों को धर्मज्ञानका उपदेश कर रहे हैं और जैसे २कलियुग आव-

ता जायगा तैसे २ अधिकभी करैंगे और स्त्रीलोग पतिशुश्रूषारूप अपने धर्मको त्यागकर परपुरुषों में प्रीति बढ़ाती हुई अपने भर्त्ता की अवज्ञामें अर्थात् तिरस्कारकरने में निर्भयहो बिचारकरेंगी १४ और अपने सास श्वशुर से द्रोहकरैंगी अर्थात् अपने गुरु लोगों की आज्ञाको उल्लंघनकर स्वतंत्र हो जावैंगी सो हे भगवन् इस कलियुग के नष्टबुद्धि पापियों को भी परलोक में सुख कैसे होय १५ हे भगवन् इस चिन्ता करके व्याकुल मेरा चित्त निरंतर हो रहा है सो थोड़ेसे उपाय करने से जैसे इन कलियुग के जीवोंका उद्धार होय १६ सो उपायकृपाकर कहिये जिससे ऐसी कोई बात नहीं है जो आप न जानते हो अर्थात् आप सर्वज्ञ हैं इससे कहना उचित ही है ऐसे नारदजी के वचनसुनिकै ब्रह्मा कहने लगे १७ हे साधो हे परोपकारकुशल अच्छा तुमने प्रश्न किया अब मैं कहता हूँ आदरसे मेरा वचन सुनिये पहिले एकसमय में भक्त जिसको प्रिय है ऐसी पार्वतीदेवी श्रीरामचन्द्रजी के तत्त्व के जानने की इच्छाकर अर्थात् श्रीरामका यथार्थ स्वरूप जानने की इच्छा करिके नम्रता पूर्वकत्रिपुर दैत्यके मारनेवाले जो श्रीमहादेवजी तिनसे पूछती हुई यहां त्रिपुरहंता यह महादेवजी का नाम इससे कहा कि जैसे त्रिपुर दैत्य के तीनोंपुर आपने एकही बाणसे भेदनकर उस दैत्यका वध किया ऐसे ही सत्त्व रज तम ये तीनों गुणों के बन्धनको विवेकरूपी बाण से भेदनकरि महामोहरूपी दैत्यके नाश करने को भी आपसमर्थ हैं इससे यह कौतुककर अपने भक्तों के बंधनको दूरकर परमानन्द प्राप्त करियेगा, इसीसे पार्वतीजी का भी विशेषण भक्तवत्सला ऐसा ग्रंथकर्त्ता ने कहा अब यह पार्वतीजी के प्रश्न का उत्तर देने को परमगुप्त श्रीमदध्यात्मरामायण का उपदेश करते हुये श्री महादेवजी जिससे पार्वतीजी परमप्रिया हैं इससे परमरहस्य का भी उपदेश किया १९॥

पुराणोत्तममध्यात्मरामायणमितिस्मृतम्।
तत्पार्व्वतीजगद्धात्रीपूजयित्वादिवानिशम्॥२०॥

अलोचयन्तीस्वानन्दमग्नातिष्ठतिसांप्रतम्।
प्रचरिष्यतितल्लोकेप्राण्यदृष्टवशाद्यदा॥२१॥

तस्याध्ययनमात्रेणजनायास्यन्तिसद्गतिम्।
तावद्विजृम्भतेपापंब्रह्महत्यापुरस्सरम्॥२२॥

यावज्जगतिनाध्यात्मरामायणमुदेष्यति।
तावत्कलिमहोत्साहोनिश्शंकंसंप्रवर्त्तते॥२३॥

यावज्जगतिनाध्यात्मरामायणमुदेष्यति।
यावद्यमभटाःशूराःसंचरिष्यन्ति निर्भयाः॥२४॥

यावज्जगतिनाध्यात्मरामायणमुदेष्यति।
तावत्सर्वाणिशास्त्राणिविवदन्तेपरस्परम्॥२५॥

जो क्या पुराणों में उत्तम अध्यात्म रामायण विख्यात हो रहा है तिसको जगत्की माता पार्वतीजी दिनदिन पूजनकर विचार करती हुई परम आनन्द

में मग्नहोरही हैं इस समय में हे नारद २० जो कदाचित् प्राणियों के परम भाग्यसे उस अध्यात्मरामायणका लोक में प्रचार होगा तौउसके पाठ करनेवाले औ सुननेवाले मनुष्य अवश्य सद्गतिको प्राप्त होंगे २१ औरब्रह्महत्यादिक पाप तभीतक गर्जरहे हैं जब तक श्रीअध्यात्मरामायाण उदय को प्राप्तनहीं होताहै २२ और तभी तक यह कलियुग बड़े उत्साह से शंकारहित लोक में प्रवृत्त हो रहा है जब तक यह अध्यात्मरामायण उदय नहीं होता है २३ और तभी तक वडेशूर यमराज के योधा निर्भय हो कर पृथिवी में विचरेंगे जब तक अध्यात्मरामायण उदय नहीं करता है २४ और तभी तक संपूर्ण शास्त्र परस्पर विवाद करते हैं जब तक श्रीमदध्यात्मरामायण उदय नहीं करता है २५॥

यावज्जगतिनाध्यात्मरामायणमुदेष्यति।
तावत्स्वरूपंरामस्यदुर्बोधंमहतामपि॥२६॥

अध्यात्मरामायण संकीर्त्तनश्रवणादिजम्।
फलंवक्तुं नशक्नोमि कार्त्स्न्येन मुनिसत्तम॥२७॥

तथापितस्यमाहात्म्यं वक्ष्ये किंचित्तवानघ।
शृणुचित्तंसमाधायशिवेनोक्तं पुरामम॥२८॥

अध्यात्मरामायणतः श्लोकं श्लोकार्द्धमेववा।
यः यठेद्भक्तिसंयुक्तः स पापान्मुच्यतेक्षणात्॥२९॥

यस्तुप्रत्यहमध्यात्मरामायणमनन्यधीः।
यथाशक्तिवदेद्भक्त्या सजीवन्मुक्त उच्यते॥३०॥

योभक्त्यार्चयतेध्यात्मरामायणमतन्द्रितः।
दिनेदिनेऽश्वमेधस्यफलं तस्य भवेन्मुने॥३१॥

जब तक अध्यात्मरामयण संसार में उदयको प्राप्त नहीं होता है तब तक श्रीरामचन्द्रजी का स्वरूप महात्मा लोगों को भी जानने को अशक्य है २६ हे मुनियों में श्रेष्ठ नारद अध्यात्मरामायण के पाठकरने का औसुनने का संपूर्णफल मैं भी कहने को अशक्त हौं अर्थात् समर्थ नहीं हौं२७ तौ भी महादेवजी का पहिले कहा हुआ तिस अध्यात्मरामायण का कुछ थोड़ासा माहात्म्य मैंतुमसे कहता हूँ एकाग्रचित्तसे सुनिये २८ अध्यात्मरामायण का एकश्लोक अथवा आधा श्लोक भी जो भक्तियुक्त होके पढ़ता है सो उसी समय पापसे छूट जाता है २९जो तौदिनदिन अर्थात् नित्य अध्यात्मरामायणको एकाग्रचित्तहो यथाशक्ति अपनीशक्ति के अनुसार पढ़ता है सो जीवन्मुक्त कहा जाता है ३० औजो भक्ति करके आलस्य छोड़ि अध्यात्मरामायणका पूजन करता है सो अश्वमेधयज्ञके दिन दिन फलको पावै है ३१॥

यदृच्छयापियोऽध्यात्मरामायणमनादरात्।
अन्यतः शृणुयान्मर्त्यः सोपिमुच्येतपातकात्॥३२॥

नमस्करोतियोऽध्यात्मरामायणमदूरतः।
सर्वदेवार्चन फलंसंप्राप्नोति न संशयः॥३३॥

लिखित्वा पुस्तकेऽध्या

त्मरामायणमशेषतः।
योदद्याद्रामभक्तेभ्यस्तस्य पुण्यफलं शृणु॥३४॥

अधीतेषु च वेदेषु शास्त्रेषु व्याकृतेषु च।
यत्फलं दुर्लभं लोके तत्फलं तस्य संभवेत्॥३५॥

एकादशीदिनेऽध्यात्मरामायणमुपोषितः।
यो रामभक्तः सदसिव्याकरोतिनरोत्तमः॥३६॥

तस्य पुण्यफलं वक्ष्ये शृणुवैष्णवसत्तम।
प्रत्यक्षरन्तु गायत्री पुरश्चर्य्याफलं भवेत्॥३७॥

जो पुरुष अकस्मात् ईश्वरेच्छा करिकै अध्यात्मरामायण का पाठ करता हो वैतिसके मुख से अनादर से भी श्रवण करैसो भी पाप से छूट जाता है ३२ और जो पुरुष अध्यात्म रामायण के पुस्तकमात्र के भी समीप जाइ कै प्रणाम करै सो भी सब देवतों के पूजन करने का जो फल तिसको निःसंदेह प्राप्तहोता है ३३ और जो कोई पुरुष अध्यात्मरामायण की पुस्तक लिखिकै व लिखवाकर रामभक्तों को देइ हे नारद तिसके पुण्य फल को सुनिये ३४ जो सब वेदों के पढ़ने से और सब शास्त्रों के व्याख्यान करने से लोक में दुर्लभ फल होता है उस फल को अध्यात्मरामायण का देनेवाला प्राप्त होता है ३५ औ पुरुष एकादशी के दिनव्रतकरिकै रामभक्तों की सभा में अध्यात्मरामायण के अर्थ को सुनावै ३६ तिसको जो पुण्यफल होता है सो सुनिये हे नारद एक एक अक्षर में गायत्री पुरश्चरण का जो फल है सो उसको प्राप्त होता है ३७॥

उपवासव्रतं कृत्वा श्रीरामनवमीदिने।
रात्रौ जागरितोऽध्यात्मरामायणमनन्यधीः॥३८॥

यः पठेच्छृणुयाद्वापितस्य पुण्यंवदाम्यहम्।
कुरुक्षेत्रादि निखिल पुण्यतीर्थेष्वनेकशः॥३९॥

आत्मतुल्यं धनं सूर्यग्रहणे सर्वतोमुखे।
विप्रेभ्यो व्यासतुल्येभ्यो दत्त्वायत्फलमश्नुते॥४०॥

तत्फलं संभवेत्तस्य सत्यं सत्यं न संशयः।
योगायतेमुदाऽध्यात्मरामायणमहर्निशम्॥४१॥

आज्ञान्तस्य प्रतीक्षन्ते देवा इन्द्रपुरोगमाः।
पठन्प्रत्यहमध्यात्मरामायणमनुव्रतः॥४२॥

यद्यत्करोति तत्कर्म ततः कोटिगुणंभवेत्।
तत्र श्रीराम हृदयं यः पठेत्सुसमाहितः॥४३॥

जो पुरुष रामनवमी के दिन निराहार व्रत करिकै रात्रि जागरणकर एकाग्रचित्त ह्वैकै ३८ अध्यात्म रामायण का पाठ करें अथवा सुनै तिसको जो पुण्य होता है सो हम कहते हैं हेनारद जी सुनिये कुरुक्षेत्र आदि अनेक पुण्यतीर्थों के विषे ३९ सर्वग्रस्त सूर्यग्रहण में अपने बराबर सुवर्ण वा रजत व्यासतुल्य विद्वान्ब्राह्मणों को देने से जो फल प्राप्त होता है ४० उस फल को वह रामनवमी की रात्रि में अध्यात्म रामयण का पाठ करनेवाला प्राप्त होता है यह सत्य है इस में कुछ संशय नहीं है

औ जो पुरुष आनन्दपूर्वक अध्यात्मरामायण का नियम से पाठ किया ही करता है ४१ उसकी आज्ञा की इन्द्रादिक देवताभी प्रतीक्षा करते हैं कि कब यह हम से आज्ञा करैऐसे ४२ जो राम भक्त दिन दिन अध्यात्म रामायण पाठकरता है सो जो जो सत्कर्मकरता है सो कोटिगुण होता है तिसमें भी जो राम हृदय स्तोत्र का पाठ एकाग्रचित्त होकै करै॥४३॥

सब्रह्मघ्नोपि पूतात्मात्रिभिरेवदिनैर्भवेत्।
श्रीरामहृदयंयस्तु हनुमत्प्रतिमान्तिके॥४४॥

त्रिः पठेत्प्रत्यहंमौनीससर्वेप्सितभाग्भवेत्।
पठन्श्रीरामहृदयन्तुलस्यश्वत्थयोर्यदि॥४५॥

प्रत्यक्षरं प्रकुर्वीत ब्रह्महत्यानिवर्त्तनम्।
श्रीरामगीतामाहात्म्यं कृत्स्नं जानाति शंकरः॥४६॥

तदर्द्धं गिरिजा वेत्ति तदर्द्धंवेद्म्यहं मुने।
न ते किंचित्प्रवक्ष्यामिकृत्स्नं वक्तुं न शक्यते॥४७॥

यदज्ञात्वातत्क्षणाल्लोकश्चित्तशुद्धिमवाप्नुयात्।
श्रीरामगीतायत्पापं न नाशयति नारद॥४८॥

तन्ननश्यतितीर्थादौलोके क्वापिकदाचन।
तन्नपश्याम्यहं लोके मार्गमाणापि सर्वदा॥४९॥

सो ब्रह्मघ्नभी होय अर्थात् ब्रह्महत्या का करनेवाला भी तीनदिन करिकै पवित्र हो जाता है और जो हनुमान् की प्रतिमा के समीप ४४ मौन होकैतीन बार दिन दिन श्रीरामहृदय स्तोत्र का पाठकरै तो जो कुछमनोरथ करैसोसिद्धहो जाय और जो तुलसी व पीपल के समीप श्रीराम हृदय स्तोत्र का पाठ करै ४५ तो एक एक अक्षर पै ब्रह्महत्यादि पापों की निवृत्ति करता है और श्री रामगीता का माहात्म्य संपूर्ण तो श्री महादेव जी जानते हैं ४६ और आधा पार्वती जी जानती हैं और चौथ्याई मैंजानता हूं तिसमें कुछ माहात्म्य हम तुम से कहते हैं संपूर्ण तो कहने को अशक्य है ४७ जिसको जानिकै उसी समय में मनुष्य अंतः करण की शुद्धि को प्राप्त होता है और हे नारदजी जिस पाप को श्री रामगीता न नाशकरै उस पाप को लोक में कोई तीर्थादि कभी नहीं नाशकरसक्ता है और हम खोजते हुये भी अभी तक उस पाप ही को नहीं देखते जो रामगीता से नाश को प्राप्त न होवैअर्थात् यह रामगीता संपूर्ण पापों की नाश करनेवाली है ४९॥

रामेणोपनिषित्सिंधुमुन्मथ्योत्पादितां मुदा।
लक्ष्मणायार्पितांगी तां सुधां पीत्वामरोभवेत्॥५०॥

जमदग्निसुतः पूर्वंकार्त्तवीर्यबधेच्छया।
धनुर्विद्यामभ्यसितुंमहेशस्यान्तिके वसन्॥५१॥

अधीयमानां पार्वत्या रामगीतां प्रयत्नतः।
श्रुत्वा गृहीत्वाशुपठन्नारायणकलामगात्॥५२॥

ब्रह्महत्यादिपापानां निष्कृतिं यदिवाञ्छति।
रामगीतां मासमात्रं पठित्वा

मुच्यतेनरः॥५३॥

दुष्प्रतिग्रहदुर्भोज्य दुरालापादि सम्भवम्।
पापं यत्तत्कीर्त्तनेन रामगीता विनाशयेत्॥५४॥

शालग्रामशिलाग्रे चतुलस्यश्वत्थसन्निधौ।
यतीनां पुरतस्तद्वद्रामगीतां पठेत्तु यः॥५५॥

तत्तत्फलमवाप्नोतियद्वाचोपिनगोचरम्।
रामगीतां पठेद्भक्त्यायः श्राद्धेभोजयेद्द्विजान्॥५६॥

तस्य ते पितरः सर्वे यान्तिविष्णोः परं पदम्।
एकादश्यां निराहारो नियतो द्वादशीदिने॥५७॥

स्थित्वागस्त्यतरोर्मूले रामगीतांपठेत्तुयः।
स एव राघवः साक्षात्सर्वदेवैश्च पूज्यते॥५८॥

श्रीरामचन्द्रजी ने उपनिषत् रूपी समुद्रको मथिकै गीतारूपी अमृत निकालिकै लक्ष्मणजी को दिया उसको पानकर मनुष्य अमर हो जाता है ५० जमदग्नि ऋषिके पुत्र परशुराम प्रथम कार्तवीर्य राजाके वध करने की इच्छा करके शस्त्र विद्यापढ़ने को महादेवजी के समीप बसते थे उससमय में पार्वतीजी रामगीताको पढ़तीथी सो उस रामगीताको परशुरामजी सुनिकै और उसको ग्रहणकर नारायण कलाको प्राप्तहुये ५१।५२ जो मनुष्य ब्रह्महत्यादि पापों के प्रायश्चित्त की इच्छा करैसो रामगीताको महीने भरिपढ़े तो सब पापों से छूटि जाइ ५३ और दुष्टपुरुषोंका प्रतिग्रह अर्थात् दानलेना और दुष्ट्यन्न और दुष्ट भाषण इनसे उत्पन्न हुआ जो पाप तिसको रामगीता के कीर्तन करके नाशको प्राप्तकरता है ५४ शालग्रामशिला के आगे और तुलसी और पीपल वृक्ष के समीप और संन्यासियों के आगे जो रामगीताका पाठकरे ५५ तौ उस फल को प्राप्त होता है जो बाणी से भी कहने में न आवै अर्थात् मोक्षको प्राप्तहोता है औरजो श्राद्ध के दिन जिससमय में ब्राह्मण भोजन करें उससमय में जो उनको रामगीता का पाठ सुनावै ५६ तो पितर विष्णुलोक को प्राप्त होयँ और जो एकादशी के दिन निराहार व्रतकर जितेंद्रिय होकर द्वादशी के दिन अगस्त्य वृक्षके नीचे रामगीताका पाठकरैतो रामतुल्यहो देव पूजित होइ ५७।५८॥

विना दानं विना ध्यानं विना तीर्थावगाहनम्।
रामगीतां नरोधीत्य तदनन्तरं फलं लभेत्॥५९॥

बहुना किमिहोक्तेन शृणु नारदतत्त्वतः।
श्रुतिस्मृतिपुराणेतिहासागमशतानि च॥६०॥

अर्हंति नाल्पामध्यात्मरामायणकलामपि।
अध्यात्मरामचरितस्य मुनीश्वराय
माहात्म्यमेतदुदितं कमलासनेन।

यःश्रद्धया पठति वा शृणुयात्समर्त्यः

प्राप्नोतिविष्णुपद

वींसूरपूज्यमानः॥६१॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उत्तरखण्डे एकषष्टितमोऽध्यायः॥६१॥

दान और ध्यान और तीर्थों का स्नान इनके विनाभी जो मनुष्य रामगीता को पढेंतौभी अनन्त फलको प्राप्तहोता है अर्थात् जो दान आदिक साधनों के सहित रामगीता का पाठकरै वह अनन्त फलको प्राप्तहोय जीवन्मुक्त होय यह क्या कहना चाहिये ५९ औ हे नारद बहुत कहने से क्या है परमार्थ से सुनिये वेद औ स्मृतियां औ पुराण औइतिहास और तन्त्र मन्त्र शास्त्रादिक सैकड़ों ये सब अध्यात्म रामायणके सोलहवें हिस्से के तुल्य तौ फलमें हो ही नहीं सक्ते हैं ६० यह अध्यात्मरामायणका माहात्म्य ब्रह्माजी ने नारदसे कहा है इसको जो मनुष्य श्रद्धा से पढ़ता है अथवा सुनता है सो देवताओं करिकै पूजित हुआ विष्णुलोक को प्राप्तहोता है ६१॥

इत्यध्यात्मरामायणे भाषाटीकायां एकषष्टितमोऽध्यायः॥१॥

यः पृथ्वीभरवारणायदिविजैः संप्रार्थितश्चिन्मयः
संजातः पृथिवीतलेरविकुले मायामनुष्योऽव्ययः।
निश्चक्रंहतराक्षसः पुनरगाद्ब्रह्मत्वमाद्यंस्थिरां

कीर्तिंपापहरांविधायजगतांतंजानकीशंभजे॥१॥

विश्वोद्भवस्थितिलयादिषु हेतुमेक
मायाश्रयंविगतमायमचिन्त्यमूर्तिम्।
आनंदसांद्रममलंनिजबोधरूपं

सीतापतिं विदिततत्त्वमहं नमामि॥२॥

दोहा॥

प्रथमसर्गशिवशिवाहित रामहृदयअभिराम।
कहोजोहनुमतसपरम तत्त्वजानकीराम॥१॥

अब इस अध्याय में श्रीरामहृदय स्तोत्रका अर्थ कहते हैं जो श्रीमहाराजाधिराज रामचन्द्रजी पृथिवीके भारको दूर करने केलिये देवताओं करके प्रार्थित किये गये इससे चिन्मात्र स्वरूप अविनाशी हैं मायाकरिकै मनुष्यवत् आकार स्वरूप जिसका सो पृथ्वीतल में सूर्यवंश में प्रकट होकर राजसमूहके विनाहीं अर्थात् केवल लक्ष्मण वानरों के सहाय मात्र करिकै अथवा सुदर्शन चक्र के विना केवल धनुषबाणही करिकैजो रावणादिक राक्षसों का वध करते हुये तिसके उपरान्त संपूर्ण लोकों के पाप हरनेवाली निर्मल और जब तक सब लोक हैं तब तक स्थिर ऐसी अपनी कीर्ति स्थापन करि जो ब्रह्म भावको प्राप्त होता हुआ अर्थात् अपना जो वास्तव सच्चित् आनन्द घन स्वरूप है उसको प्राप्त होतेहुये ऐसे जो जानकी के ईश स्वामी तिनकोमैं भजन करता हूँ १ औजो रामचन्द्र संपूर्ण विश्वकी उत्पत्ति औ पालन औसंहार इनमें अद्वितीय दूसरे के सहायरहित ही कारण हैं अर्थात् शक्ति औ शक्तिमान् इनके अभेदविवक्षामें माया कोई पृथक्तत्त्व नहीं है यह शुद्धवेदान्ती का मत है औसांख्यशास्त्रवाला तो प्रकृति को कारण कहता है सो वेद विरुद्ध है जो शारीरकभाष्य में विस्तारपूर्वक शंकराचार्यजीने

कहा है फिर कैसे राम हैं आप अहेतु हैं और कारणकरके रहित हैं औ मायाके आश्रय हैं और विगतमाय हैं अर्थात् मायारहित हैं इसीसे अचिन्त्य है मूर्ति स्वरूप जिनका और आनन्दघन निर्मल ज्ञानरूप हैं इसप्रकार भक्तोंने जाना है तत्त्व स्वरूप जिनका ऐसे जो सीतापति तिनको मैं नमस्कार करता हूं २॥

पठन्ति ये नित्यमनन्यचेतसः शृण्वन्तिचाध्यात्मिकसंज्ञितं शुभम्।
रामायणं सर्वपुराणसंमतं निर्धूतपापाहरिमेवयांतिते॥३॥

अध्यात्मरामायणमेव नित्यं पठेद्यदीच्छेद्भवबन्धमुक्तिम्।
गवां सहस्रायुतकोटिदानात्फलंलभेद्यः शृणुयात्सनित्यम्॥४॥

पुरारिगरिसंभूंता श्रीरामार्णवसंगता।
अध्यात्मरामगंगेयंपुनाति भुवनत्रयम्॥५॥

कैलासाग्रेकदाचिद्रविशतविमलेमन्दिरेरत्नपीठे

संविष्टंध्याननिष्ठंत्रिनयनमभयंसेवितंसिद्धसंघैः।

देवीवामाङ्कसंस्थागिरिवरतनयापार्वतीभक्तिनम्रा
प्राहेदंदेवमीशंसकलमलहरंवाक्यमानंदकन्दम्॥६॥

॥पार्वत्युवाच॥

नमो स्तुते देवजगन्निवाससर्वात्मदृक्त्वंपरमेश्वरोसि।
पृच्छामि तत्त्वंपुरुषोत्तमस्य सनातनंत्वञ्च सनातनोसि॥७॥

जे कोई सब पुराणों को संमत माननीय ऐसे अध्यात्मरामायणको एकाग्रचित्त होके पढ़ते हैं और सुनते हैं ते सब पापों से छूटिकै नारायणको प्राप्त होते हैं ३ इससे जो संसार के बन्धन से मुक्ति चाहैं सो अध्यात्मरामायण ही को नित्यपढ़ैंऔर जो नित्य अध्यात्मरामायणका श्रवण करता है सो करोड़ों हजारों गौवों के दान के फलको प्राप्त होता है ४ अध्यात्म रामायणरूप जो ग्रंथ है सो तीनोलोकों को पवित्रकरती है जैसे प्रसिद्धगंगा तीनधारकरमर्त्य पाताल स्वर्गलोक को पवित्रकरती हैं तैसेही अध्यात्मरामायणरूपिणी गंगाभी मुक्त मुमक्षु विषयी इन तीनों प्रकार के मनुष्यों को पवित्रकरती है अथवा ब्रह्मलोक में ब्रह्माजी के मुखरूपकमण्डलु से निकलिकै नारदादिकऋषियों को पवित्रकरती है और कैलास में श्रीमहादेवजी से प्रकट हुई रामायणरूपी गंगापार्वती आदिश्रोतोंको पवित्रकरती है और मनुष्य लोकमें सूत शौनक वाल्मीकि भरद्वाजादि द्वारा श्रोतोंको पवित्र करती हैं और प्रसिद्ध गंगातो हिमालय ते प्रकट हुई है अध्यात्मरामायण रूप गंगा महादेवरूप पर्वतसे प्रकट हुई है और प्रसिद्धगंगा समुद्रमें मिली है अध्यात्मरामायणरूप गंगारामरूपी समुद्र में मिली है और प्रसिद्ध गंगापापियों के मलदूर करि स्वर्गलोक में प्राप्त करती हैं और रामायणरूप गंगा तो अन्तःकरण शुद्धकर ज्ञानद्वारा मुक्तिदेती है इससे विचार करेसे यहरामायणरूप गंगा श्रेष्ठ है ५ एक समय में कैलासपर्वत के ऊपर सैकडोंसूर्य्यका प्रकाश जिस

में ऐसे मंदिर में रत्नजटित सिंहासनपै बैठे ध्यान में तत्पर भयरहित सिद्धों के समूह करिकै सेवित जो महादेवजी तिनके वाम अंग में स्थित जो पार्वतीजी सो बडीभक्ति से नम्र होकर निर्मल औ सब जीवों के आनंददायक जो मधुर वचन तिनकों बोलती हुईं अर्थात् पार्वतीजी महादेव से प्रश्न करती हुईं तिसमें सब जीवों का कल्याण ही है ६ जो पार्वतीजी बोलती हुईं सो कहते हैं। हे देव प्रकाश रूप जगन्निवास सब जगत् आपही में बसै है ऐसे जो आप हैं तिनको मेरा नमस्कार है और आप सब जीवों के बुद्धिके देखनेवाले परमेश्वर हौइस से पुरुषोत्तम जो श्रीराम तिनके यथार्थ सत्यस्वरूप को मैं पूछती हों आप भी सत्यरूप हैं ७॥

गोप्यं यदत्यन्तमनन्यवाच्यं वदन्ति भक्तेषु महानुभावाः।
तदप्यहोहं तवदेवभक्ताप्रियोसिमेत्वं वदयत्तुपृष्टम्॥८॥

ज्ञानंसविज्ञानमथानुभक्तिवैराग्ययुक्तं च मितं विभास्वत्।
जानाम्यहं योषिदपित्वदुक्तं यथातथा ब्रूहितरन्तियेन॥९॥

पृच्छामिचान्यच्चपरंरहस्यं तदेव चाग्रेवदवारिजाक्ष।
श्रीरामचन्द्रेखिल तत्त्वसारे भक्तिर्दृढानौर्भवति प्रसिद्धा॥१०॥

जो वस्तु किसी के आगे कहने योग्य नहीं और अत्यंत गुप्त करने के योग्य होती है उसको भी महानुभाव भक्तों से कहते हैं और मैं भी तुम्हारी भक्त हों इससे मेरी प्रश्नको कहिये जिससे आप प्रियहैं ८ और हे भगवन् भक्तिरूप चिह्न करिकै युक्त और वैराग्ययुक्त और शास्त्रोक्त प्रमाण से निश्चित और प्रकाशमान ऐसा जो साधनसहित ज्ञान तिसको स्त्री जाति भी जिस प्रकार करके मैं जानसकूं सो प्रकार वर्णन करिये जिस ज्ञान करके संसार को पार होते हैं तिसको जाना चाहती हौं९ और हे कमलनेत्र और भी कुछ संदेह पूछा चाहती हौं तिस प्रश्नको प्रथम कहिये और सब तत्त्वों के सारभूत जो श्रीरामचन्द्र तिनके विषे जो दृढभक्ति है वो ही संसार सागरतरिबेकोनौका प्रसिद्ध ही है १०॥

भक्तिः प्रसिद्धाभवमोक्षणायनान्यत्ततःसाधनमस्ति किञ्चित्।
तथापिहृत्संशयबन्धनंमेविभेत्तुमर्हस्यमलोक्तिभिस्त्वम्॥११॥

वदन्ति रामं परमेकमाद्यं निरस्तमायागुणसंप्रवाहम्।
भजंति चाहर्निशमप्रमत्ताः परं पदं यान्ति तथैव सिद्धाः॥१२॥

वदंति केचित्परमोपिरामः स्वाविद्ययासंवृतमात्मसंज्ञम्।
जानातिनात्मानमतः परेण संबोधितोवेदपरात्मतत्त्वम्॥१३॥

यदिस्मजानाति कुतोविलापः सीताकृते तेनकृतः परेण।
जानाति नैवं यदि केन सेव्यः समोहिसर्वैरपिजीवजातैः॥१४॥

और संसार के बन्धन छुडाने में भक्ति ही एक स्वतंत्र है तिससे परे और कोई साधन नहीं है यह भी प्रसिद्ध है तौ भी मेरे हृदय के संशय रूप बंधन को निर्मल वचनों करिकै भेदन करने को आप योग्य हैं ११ अब तीन वचनों करिकै अपना संशय पार्वतीजी निवेदन करती हैं हे भगवन् ऋषिलोग श्रीरामको ऐसा कहते हैं कि प्रकृति से परे हैं और एक अर्थात् अद्वितीय हैं और सबका कारण हैं और निरस्तनाम दूरि हुआ मायागुण संप्रवाहरूप संसार जिससे और जो कोई सिद्धलोग हैं ते रात्रदिवस सावधान हो कैजिसका भजन करते हैं और उस भजनसे परमपदको प्राप्तहोते हैं १२ और कोई ऐसा कहते हैं कि सबसे उत्कृष्ट भी राम हैं परन्तु अपनी अविद्यासे ढका हुआ जो अपना स्वरूप तिसको नहीं जानसक्तेहैं और जब कोई दूसरा बोध करावैतो सबसे परे रूपको जानसक्ते हैं १३ और जो कदाचित् अपने आपही रामको ज्ञान होता तो सीता के कारण इतना विलाप किस वास्ते करते और जो अपने आप अपने स्वरूपको नहीं जानसक्तेहैं तौक्या कारण है जिससे राम तौ सेव्य होइँ और जीव उनके सेवकहोइंक्योंकि जैसे जीव अज्ञानयुक्त होने सेई अपने स्वरूपको नहीं जानसक्ते हैं तैसे रामभी अज्ञानता से अपने को भूल गये तौजीवों के समानही होगये फिर कौन विशेषता राममें हुई जिससे रामसेव्य और जीव सेवक अर्थात् तुल्यता में सेव्य सेवकभाव नहीं हो सक्ताहै और यह भी विचारनाचाहिये कि जो कोई भजनकरैगा तो अपने दुःखकी निवृत्ति के लिये ही करैगा तौ राम अपने आपही दुःखित हुये तौ औरों का दुःख कैसे निवृत्तकर सकैंगे इससे भी सेव्य सेवकभाव नहीं बन सक्ता है १४॥

अत्रोत्तरं किंविदितं भवद्भिस्तद्ब्रूतमेसंशयभेदिवाक्यम्।

॥श्रीमहादेवउवाच॥

धन्यासिभक्तासिपरात्मनस्त्वंयद्ज्ञातुमिच्छातवरामतत्वम्॥१५॥

पुराणकेनाप्यभिचोदितोऽहं वक्तुंरहस्यं परमंनिगूढम्।
त्वयाद्यभक्त्यापरिनोदितोऽहंवक्ष्येनमस्कृत्य रघूत्तमंते॥१६॥

रामः परात्मा प्रकृतेरनादिरानन्द एकः पुरुषोत्तमोहि।
स्वमाययाकृत्स्नमिदंहिसृष्ट्वा नभोवदन्तर्वहिरास्तितोयः॥१७॥

सर्वान्तरस्थोपि निगूढआत्मा स्वमायया सृष्टमिदंविचष्टे।
जगन्तिनित्यं परितोभ्रमंतियत्संनिधौचुम्बकलोहवद्धि॥१८॥

इसमें उत्तर जो आपका जाना होय सो कहिये जिसमें मेरे हृदय का संशय दूरहोय ऐसी कृपाकरिके वाक्य कहिये यह पार्वतीजी का वचन सुनिकै महादेवजी कहते हैं हे पार्वति तुम धन्यहो औ श्रीरामकी परमभक्त हौ जिससे श्री

रामतत्त्वके जानने की इच्छा करती हौ १५ पहिले यह परमगुप्त रहस्य कहने की प्रेरणा हमसे किसीने नहीं की थी अब तुम भक्तिपूर्वक इस रामके गुप्तरहस्य को पूछती हौइससे हम कहते हैं इससे महादेवजी ने यह भी सूचन किया कि कुतर्क से पूछनेवाले के आगे परमेश्वर के रहस्य को न कहै अब महादेवजी श्रीरामचन्द्रके नमस्कार करि कहते हैं १६ हे पार्वति रामप्रकृति से परे आत्मा हैं और कारणरहित हैं अर्थात् रामका कोई कारण नहीं रामही सबका कारण हैं औरआनन्दरूप हैं और पुरुषोत्तम हैं अक्षर आत्मासे भी उत्तम हैं और अपनी माया करके सब विश्वको रचिकै आकाश तुल्य बाहर भीतर सबमें व्याप्त हो रहे हैं १७ सबके अंतर्गत भी आत्मा हैं परन्तु अत्यन्त गुप्त हैं और अपनी मायाकरके रचित जो सब जगत् जिसको देख रहे हैं और जिसके समीप अनेक ब्रह्मांड परिभ्रमण करते हैं अर्थात् जिसके समीप स्थित होने से महत्तत्त्व अहंकार बुद्धि मन इत्यादि जडवर्ग भी अपने अपने कार्य में प्रवृत्त होते हैं जैसे चुम्बक पत्थर के समीप लोहा अपने आप परिभ्रमण करता है १८॥

एतन्नजानन्तिविमूढचित्ताः स्वाविद्यया संवृतमानसाये।
स्वाज्ञानमप्यात्मनिशुद्धबुद्धेस्वारोपयन्तीहनिरस्तमाये॥१९॥

संसारमेवानुसरन्ति ते वै पुत्रादिसक्ताः पुरुकर्मयुक्ताः।
जानन्तिनैवं हृदये स्थितं वैचामीकरं कण्ठगतं यथाज्ञाः॥२०॥

यथाप्रकाशो न तु विद्यते रवौज्योतिस्स्वभावेपरमेश्वरेतथा।
विशुद्धविज्ञानघनेरघूत्तमे विद्याकथं स्यात्परतः परात्मनि॥२१॥

यथाहिचाक्ष्णाभ्रमतागृहादिकं विनष्टदृष्टेर्भ्रमतीवदृश्यते।
तथैव देहेन्द्रियकर्त्तुरात्माकृतं परेध्यस्यजनोविमुह्यति॥२२॥

जेकोई संसार में विमूढचित्त हैंऔर माया करके आच्छादित मन जिन्होंके वे इस रामतत्त्व को नहीं जानते हैं और इसीसे शुद्धज्ञान स्वरूप माया रहित श्रीरामचन्द्र में अपना अज्ञान आरोपण करते हैं अर्थात् जैसे आप पुत्रादि वियोग में विकल होते हैं ऐसेई श्रीरामकोभी सीता विरह में विकल ही जानते हैं १९ ऐसे पुरुष संसार में स्त्रीपुत्रादिकों में प्रीति से बँधे हुये अनेक कर्मों को करते हुये बारंबार जन्ममरण को ही प्राप्त होते हैं अपने हृदय में ही स्थित श्रीरामरूपपरमात्मा उनको नहीं जानते जैसे कोई अपने कंठमेंहीस्वर्णमणि धारणकर रहा है और भूल से बाहर ढूंढता व्याकुल हो रहा है २० और जैसे सूर्य में कभी अंधकार का संभव नहीं तैसेई विशुद्ध विज्ञानघन प्रकाशस्वरूप परमेश्वर श्रीराम में अविद्या कैसे संभव हो सकती है क्योंकि अविद्या से परेजो अक्षर तिसते भी परे रामतत्त्व है २१ जैसे नेत्रके घूमनेसे अज्ञपुरुषको घर आदि घूमते दिखाई पडते हैं वा-

स्तव में घर घूमता नहीं तैसेही मूढपुरुषदेह इन्द्रिय अहंकार का किया हुआ जो कर्म तिसको इनसे पर जो शुद्ध आत्मा तिसमें आरोपण करिके तिसमें मानकर मोहको प्राप्तहोता है अर्थात् मैंकरनेवाला हौंमैं सुखी दुःखीहौंयह झूठाही मानता है २२॥

नाहोन रात्रिः सवितुर्यथा भवेत् प्रकाशरूपाव्यभिचारतः क्वचित्।
ज्ञानं तथा ज्ञानमिदंद्वयं हरौ रामे कथं स्थास्यति शुद्धचिद्घने॥२३॥

तस्मात्परानन्दमयेरघूत्तमेविज्ञानरूपेहिनविद्यतेतमः।अज्ञानसाक्षिण्यरविन्दलोचनेमायाश्रयत्वान्नहि मोहकारणम्॥२४॥
अक्षतेकथायिष्यामि रहस्यमपि दुर्लभम्।
सीताराममरुत्सूनुसंवादंमोक्षसाधनम्॥२५॥

पुरारामायणेरामोरावणन्देवकंटकम्।

हत्वारणे रणश्लाघीस पुत्रबलवाहनम्॥२६॥

सीतयासह सुग्रीवलक्ष्मणाभ्यांसमन्वितः।
अयोध्यामगमद्रामोहनुमत्प्रमुखैर्युतः॥२७॥

जैसे प्रकाश रूपसे कभी नहीं पृथक होने से सूर्य की दृष्टिमें यह दिन है यह रात्रि है ऐसा व्यवहार नहीं संभव होता ऐसे ही ज्ञान और अज्ञान जे दोनों शुद्ध विद् घनस्वरूप श्रीराम में कैसे स्थित हो सक्ते हैं २३ तिसकारण से, परमानन्दमयविज्ञानरूप और अज्ञान के साक्षी ऐसे जो कमलवत् विशाल लोचन श्रीरामचंद्र तिनमें पार्वति कभी अज्ञान संभव नहीं होता है और वह मायाके आपही आश्रय हैं इससे मोहकारण भी संभव नहीं होता जैसे लोकमें मायाका आश्रय बाजीगर है उसको उसकी माया मोह नहीं करासक्ती २४ तैसे हे पार्वति इसमें सीताराम औ हनुमान् जी का संवाद हमतुमसे कहते हैं कैसा संवाद है अतिगुप्त और दुर्लभ औ मोक्षसाधन है २५ पहिले श्रीरामचंद्रजी संग्राम में देवताओंका कंटक जो परिवारसहित रावण तिसको मारके सीता लक्ष्मण सुग्रीव हनुमान् आदि मित्रवर्गसहित अयोध्या मेंआते हुये २६/२७॥

अभिषिक्तः परिवृतो वशिष्ठाद्यैर्महात्मभिः।
सिंहासने समासीनःकोटिसूर्यसमप्रभः॥२८॥

दृष्ट्वतदाहनूमन्तं प्राञ्जलिंपुरतःस्थितम्।
कृतकार्य्यंनिराकांक्षं ज्ञानापेक्षंमहामतिः॥२९॥

रामः सीतामुवाचेदं ब्रूहि तत्त्वंहनूमते।
निष्कल्मषोयंज्ञानस्य पात्रंनौनित्यभक्तिमान्॥३०॥

तथेतिजानकीप्राहतत्त्वं रामस्यनिश्चितम्।
हनूमतेप्रपन्नायसीतालोकविमोहनी॥३१॥

॥सीतोवाच॥

रामंविद्धिपरंब्रह्मसच्चिदानन्दमद्वयम्।
सर्वोपाधिविनिर्मुक्तंसत्तामात्रमगोचरम्॥३२॥

आनन्दं निर्मलं शांतंनि

र्विकारन्निरंजनम्।

सर्वव्यापिनमात्मानं स्वप्रकाशमकल्मषम्॥३३॥

तिस अयोध्यानगरीमें राज्य अभिषेक को प्राप्त औ वशिष्ठादि महात्माओं करिकै युक्त और सिंहासन के ऊपर बैठे औ अनेकसूर्यों का सा प्रकाश जिनका ऐसे जो श्रीरामचंद्रजी २८ सो अपने आगे हाथ जोड़े खड़े और किये हैं अनेककार्य जिनने और कुछ कामना नहीं है हृदय में जिनके औ केवल ज्ञानकी अपेक्षा जिनके ऐसे हनुमान् जी को देखिकै २९ सीताजी से कहते भये हे सीते परम जो ज्ञान है तिसका उपदेश हनुमान् कोकरिये क्योंकि ये पापरहित हैं औहमारी तुम्हारी भक्ति करिकै युक्त हैं इससे ज्ञान के पात्र हैं ३० अब सीताजी जो रामका तत्त्व निश्चित अपने हृदय में था तैसा हनुमान् के अर्थ कहने लगीं कैसे हनुमान्जी हैं अपने स्वामी को प्रसन्नदेव प्रसन्नह्वै रहे हैं ३१ हे हनुमन् रामको तुम परब्रह्म जानो कैसा ब्रह्म जो सत् चित् आनंदरूप है औ द्वैतरहित औ जितनी उपाधियां हैं तिनकरिकै रहित और सत्तामात्र जैसे घट पट आदि पदार्थों में जो होने की प्रतीति है सो ब्रह्मकी है औकिसी इन्द्रिय के गोचर नहीं है ३२ औ आनंद रूप औ निर्मल औ शांत औ निर्विकार औ मायारूप मलरहित औसर्वव्यापी अर्थात् सबको व्याप्त करनेवाला औ स्वयंप्रकाश औ कामादिक पापों करके रहित ऐसा जो ब्रह्म है तिसको तुम रामजानो३३॥

मांविद्धिमूलप्रकृतिं सर्गस्थित्यंतकारिणीम्।
तस्यसन्निधिमात्रेणसृजामीदमतन्द्रिता॥३४॥

तत्सान्निध्यान्मयासृष्टं तस्मिन्नारोप्यतेऽबुधैः।
अयोध्यानगरे जन्मरघुवंशेतिनिर्मले॥३५॥

विश्वामित्रसहायत्वं मखसंरक्षणं ततः।
अहल्याशापशमनंचापभंगोमहेशितुः॥३६॥

मत्पाणिग्रहणंपश्चाद्भार्गवस्यमदक्षयः।
अयोध्यानगरेवासोमया द्वादशवार्षिकः॥३७॥

दण्कारण्डयगमनं विराधवधएव च।
माया मारीचमरणं माया सीताहृतिस्तथा॥३८॥

जटायुषो मोक्षलाभः कबन्धस्यतथैव च।
शवर्याः पूजनंपश्चात् सुग्रीवेणसमागमः॥३९॥

वालिनश्चवधः पश्चात् सीतान्वेषणमेव च।
सेतुबन्धश्चजलधौ लङ्कायाश्च निरोधनम्॥४०॥

औ हे हनुमन् सृष्टि और पालन और संहार करनेवाली जो मूलप्रकृति तिसको मुझे जानो औ उस रामरूप परमात्मा की सन्निधिमात्र करिकै अर्थात् समीपमात्र होने से ही सब संसारको सदा आलस्यरहित मैं रचती हूं ३४ औ उस परमात्मा की सन्निधिमात्र से मेरा रचा हुआजो जगत् सो अज्ञानियों करिकै

परमात्मा में आरोपण किया जाता है उसी परमात्मा का अयोध्यानगर में अत्यन्त निर्मल जो रघुवंश तिसमें जन्म होना ३५ औ विश्वामित्र का सहायकरना फिर विश्वामित्रके यज्ञ की रक्षाकरना फिर अहल्याको शापसे छुडाइ देना फिर महादेवजी के धनुष का भंगकरना ३६ फिर मेरा पाणिग्रहण करना फिर परशुराम के गर्व का नाश करना फिर बारह वर्ष तक अयोध्यानगरीमें मुझकरिके सहित वासकरना ३७ फिर दण्डकारण्यवन में जाना औ विराधराक्षस का वधकरना फिर मायारूपी मारीच मृगका मारना फिर मायारूपी सीता का हरणहोना ३८ फिर जटायु का मोक्ष करना औ कबन्ध को शाप से मोक्षकरना फिर शवरीका पूजन स्वीकारकरना फिर सुग्रीव से समागम करना ३९ फिर बालीका वध करना फिर सीता को वानरद्वारा अन्वेषण करना अर्थात् ढुंढवाना फिर समुद्र में सेतुबँधवाना फिर लंकापुरीके द्वार रोकना ४०॥

रावणस्यवधोयुद्धे सपुत्रस्यदुरात्मनः।
विभीषणेराज्यदानं पुष्पकेण मया सह॥४१॥

अयोध्यागमनं पश्चाद्राज्ये रामाभिषेचनम्।
एवमादीनि कर्माणि मयैवाचरितान्यपि॥४२॥

आरोपयंति रामेस्मिन् निर्विकारे निरात्मनि॥४३॥

रामो न गच्छति न तिष्ठति नानुशोचत्या-
काङ्क्षतेत्यजतिनोनकरोतिकिञ्चित्।
आनन्दमूर्त्तिरचलःपरिणामहीनो

मयागुणाननुगतोहि तथा विभाति॥४४॥

॥श्रीमहादेव उवाच॥

ततो रामः स्वयम्प्राह हनुमन्तमुपस्थितम्।
शृणुतत्त्वं प्रवक्ष्यामि ह्यात्मानात्मपरात्मनाम्॥४५॥

आकाशस्य यथा भेदस्त्रिविधोदृश्यते महान्।

जलाशयेमहाकाशस्तदवच्छिन्न एव हि॥४६॥

प्रतिबिम्बाख्यमपरं दृश्यतेत्रिविधंनभः।
बुद्ध्यवछिन्नचैतन्यमेकम्पूर्णमथापरम्॥४७॥

आभासस्त्वपरं बिम्बभूतमेवं त्रिधाचितिः।
साभासबुद्धेः कर्तृत्वमविच्छिन्नेविकारणि॥४८॥

फिर पुत्र सहित दुष्टात्मा रावण का युद्ध में वध करना फिर विभीषण को राज्यदेना फिरे पुष्पक विमान के ऊपर चढिकै मुझको संगलैकै ४१ अयोध्या मे आना फिर राज्यका अभिषेक राम को इत्यादिक मेरे ही किये हुये कर्म ४२ परमात्मा निर्विकार जो यह राम हैंतिनमें आरोपण किये जाते हैं ४३ वास्तवमें राम न चलते हैं औ न खड़े होते हैं और न कुछ शोचते हैं औ न कुछ इच्छा करते हैं औ न कुछ त्याग ते हैं औ न कुछ करते हैं औ आनन्दमूर्ति हैंऔ अचल हैं औ परिणाम रूपविकार से हीन हैं अर्थात तरह तरह के नहीं होते हैं सदा एक रस हैंऔ

माया के गुणों में प्रविष्ट हो कैतैसे तैसे मालूम पड़ते हैं ४४ श्रीमहादेवजी पार्वतीजी से कहते हैं हे पार्वति तिसके उपरांत आप ही रामजी हनुमान् से कहने लगे कि हे हनुमन् मैं तुमसे आत्मा औ अनात्मा अर्थात् आत्मासे पृथक् और परमात्मा इनके तत्त्वको तुमसे वर्णन करता हूं ४५ जैसे आकाश का तीन प्रकारका भेद है एक तौ महाकाश दूसरा जलाशय युक्त आकाश सो मेघाकाश प्रसिद्ध है क्योंकि मेघस्यजलमें जो आकाश न होता तौ मेघके प्रतिबिम्ब में आकाश प्रतीयमान न होता ४६ और तीसरा प्रतिबिम्बाकाश ऐसे ही चैतन्य भी तीन प्रकारका है एकतो माया में प्रतिबिम्बित होकै सबमें पूर्ण हो रहा है जिसको ईश्वर कहते हैं औदूसरा वुद्धिमें प्रतिबिम्बित जिसको जीव कहते हैं और तीसरा बिम्बरूप शुद्ध चैतन्य जिसको ब्रह्म कहते हैं जब ऐसा सिद्धान्त स्थित हुआ तौआभास सहित बुद्धिका जो कर्तृत्व धर्म सो जब विच्छेद रहित भेद रहित औविकार रहित॥४७।४८॥

साक्षिण्यारोप्यते भ्रान्त्या जीवत्वञ्च तथाबुधः।
आभासस्तु मृषाबुद्धिरविद्याकार्यमुच्यते॥४९॥

अविच्छिन्नं तु तद्ब्रह्मविच्छेदस्तुविकल्पितः।
अविच्छिन्नस्य पूर्णेन एकत्वं प्रतिपाद्यते॥५०॥

तत्त्वमस्यादिवाक्यैश्चसाभासस्याहमस्तथा।
ऐक्यज्ञानं यदोत्पन्नं महावाक्येन चात्मनः॥५१॥

तदाविद्यास्वकार्यैश्च नश्यत्येवनसंशयः।
एतद्विज्ञायमद्भक्तोमद्भावायोपपद्यते॥५२॥

साक्षि मात्र आत्मा में आरोपण किया जाता है भ्रान्ति करिकै तो मैं देखता हूं मैं जानता हूंमैं जाता हूंइत्यादि बुद्धिधर्म आत्मा में प्रतीयमान होते हैं ऐसेही परस्पर अध्यास वश शे जब आत्मधर्म बुद्धिमें आरोपित हुआ तौ बुद्धि में ज्ञान की प्रतीति होती है औजीवत्व का जब साक्षी में आरोप हुआ तो जीवनित्य इत्यादि व्यवहार होता है औआभास दृष्टि करके तो जीव में नित्यत्व व्यवहार नहीं बनसक्ता क्योंकि आभास नाममिथ्या बुद्धि से प्रतीयमान है औ अविद्याकार्य है इसीसे दर्पणस्थ मुख किसी तरह सत्य नहीं हो सक्ता है तिससे भेद रहित ही ब्रह्म है और भेदकल्पित है और भेद रहित चैतन्य को ईश्वर के साथ शास्त्र करिके एकत्व प्रतिपादन किया जाता है जो सर्वथा भेद न होतो शास्त्र अनर्थक और वास्तव भेद हो तो भी अनर्थक हो जाय इससे कल्पित भेद है और जब “तत्त्वमस्यादि” महावाक्योंकर शुद्धत्व पदार्थका शुद्ध तत्पदार्थ के साथ अभेद ज्ञान होता है तौअविद्या नाशको प्राप्त होती है ४९।५०।५१॥

मद्भक्तिविमुखानांहिशास्त्रगर्तेषु मुह्यताम्।
न ज्ञानं न च मोक्षः स्या

तेषां जन्मशतैरपि॥५३॥

इदं रहस्यं हृदयं ममात्मनोमयैव साक्षात् कथितं तवानघ।
मद्भक्तिहीनाय शठायनत्वया दातव्यमैन्द्रादपि राज्यतोधिकम् ॥५४॥

॥श्रीमहादेव उवाच॥

एतत्तेभिहितं देवि श्रीरामहृदयं मया।
अतिगुह्यतमं हृद्यं पवित्रं पापशोधनम्॥५५॥

साक्षाद्रामेण कथितं सर्ववेदान्तसंग्रहम्।
यः पठेत्सततं भक्त्यासमुक्तो नात्र संशयः॥५६॥

ब्रह्महत्यादि पापानि बहुजन्मार्जितान्यपि।
नश्यंत्येव न संदेहो रामस्य वचनं यथा॥५७॥

जातिभ्रष्टोतिपापीपरधननिरतोब्रह्महामित्रहन्ता
स्वर्णस्तेयी कुलघ्नः कलुषशतयुतोयोगिवृन्दापकारी।
यः संपूज्याभिरामंपठति च हृदयं रामचंद्रस्य भक्त्या
योगीन्द्रैरप्यलभ्यंपदमिह लभते सर्वदेवैः सुपूज्यम्॥५८॥

इत्युमामहेश्वरसंवादे अध्यात्मरामायणे श्रीरामहृदयंनाम प्रथमः सर्गः॥१॥

हे हनुमन् जे पुरुष मेरी भक्ति से विमुख औ शास्त्ररूपी गढ़े में मोह को प्राप्त हो रहे हैं तिनको सैकड़ों जन्म तक न ज्ञान होय न मोक्ष होता है ५३ हे अनघ हे निष्पाप हनुमन् मैं ने यह अत्यन्त गुप्त अपने हृदय के सदृश अथवा निरन्तर हृदय में रहनेवाला इसी से राम हृदय इसका नाम है ऐसा ज्ञान तुमसे कहा इसको भक्तिहीन शठ पुरुष के अर्थ कभी न देना क्योंकि इन्द्रके राज्य से भी अधिक यह सुख को देनेवाला है ५४ अब महादेवजी पार्वतीजी से कहते हैं हे पार्वतिदेवि यह रामहृदय स्तोत्र अत्यन्तगुप्त औ हृदय को प्रिय और अतिपवित्र संपूर्ण पापों का शोधक ऐसा मैंने तुम से कहा ५५ यह रामहृदय साक्षात् रामचन्द्रजी ने अपने मुख से कहा है और सब वेदांत शास्त्रका संग्रह है अर्थात् सार है इसको जो निरन्तर भक्ति से पढ़े तौ अवश्य संसार बन्धन से मुक्त हो जाय इस में संदेह नहीं है ५६ औ बहुत जन्मों के उपार्ज्जन किये हुये ब्रह्महत्यादिक पापभी इसके जानने से नाश को प्राप्त होते हैं इसमें संदेह नहीं क्योंकि श्रीराम ही का ऐसा वचन है ५७ अब श्रीरामहृदय के पाठ का फल विशेष कहते हैं जो पुरुष अपनी जाति से भ्रष्ट भी हुआ होय औ अत्यन्त पापी भी होय औ औरके धन स्त्रीमें जिसकी प्रीति होय औ ब्राह्मण औ मित्र इनके मारने वालाभी हो औसुवर्ण की चोरी करनेवाला औ कुल नाशक होय औ ऐसे सैकड़ों पापों से युक्त भी होय औ योगियों के समूह के तिरस्कार करनेवाला भी होयपरन्तु श्रीरामका पूजनकर रामहृदयका पाठ भक्ति से नित्यकरै तो वो पूर्वकृत संपूर्ण पापों का नाशकर योगीन्द्रों को दुर्लभ जो रामपद तिसको प्राप्त होता है औसब देवता उसको पूजते है ५८॥

इत्यध्यात्मरामायणे भाषा टीकायां प्रथमः सर्गः॥१॥

** ॥पार्वत्युवाच॥**

धन्यास्म्यनुगृहीतास्मिकृतार्थास्मिजगत्प्रभो।
विच्छिन्नोमेति संदेहग्रंथिर्भवदनुग्रहात्॥१॥

त्वन्मुखाद्गलितं रामतत्त्वामृतरसायनम्।
पिबन्त्या मे मनोदेवनतृप्यतिभवापहम्॥२॥

श्रीरामस्य कथात्वत्तः श्रुतासंक्षेपतो मया।
इदानीं श्रोतुमिच्छामि विस्तरेणस्फुटाक्षरम्॥३॥

** ॥श्रीमहादेव उवाच॥**

शृणु देवि प्रवक्ष्यामि गुह्याद्गुह्यतरंमहत्।
अध्यात्म रामचरितं रामेणोक्तंपुरामम॥४॥

तदद्य कथयिष्यामिशृणुतापत्रयापहम्।
यच्छ्रुत्वामुच्यते जन्तुरज्ञानोत्थमहाभयात् ।
प्राप्नोतिपरमामृद्धिन्दीर्घायुः पुत्रसन्ततिम्॥५॥

भूमिर्भारेणमग्नादशवदनमुखाशेषरक्षोगणन्तं धृत्वा
गोरूपमादौ दिविजमुनिजनैः साकमब्जासनस्य।
गत्वालोकंरुदन्तीव्यसनमुपगतं ब्रह्मणे प्राह सर्वं
ब्रह्माध्यात्वामुहूर्तंसकलमपिहृदावेदशेषात्मकत्वात्॥६॥

** दोहा॥**

सर्गदूसरे भूमिसुर हितबोले भगवान्।
होइहौं दशरथ सूनु कपि होइ अमरबलवान्॥२॥

अब श्री पार्वतीजी महादेव से कहती हैं हे भगवन् मैंधन्य हौंऔ आपने अनुग्रह युक्त किया औ मैं कृतार्थ हुई औ मेरे हृदय में सन्देहरूपी ग्रन्थि आपके अनुग्रह से छिन्न हुई १ परन्तु हे देव आपके मुखारविन्द सेचु आहु आ जो संसाररोग के नाश करनेवाला श्रीरामतत्व अमृत रसायन तिसको पानकरती हुई सो मैं हूं तिसका मन नहीं तृप्त होता है २ श्रीरामचन्द्रजी की कथा आपसे संक्षेप से मैंने सुनी इस समय में विस्तार पूर्वक सुना चाहती हौंजिस में सब स्पष्ट अक्षर औ अर्थ विदित होय ३ यह पार्वतीजी के वचन सुनिकै श्री महादेवजी बोले हे देवि तुम सुनो मैं कहता हूँ गुप्त से भी गुप्त परमश्रेष्ठ जो अध्यात्म रामचरित्र जैसे मैंने श्रीराम ही के मुख से कहा हुआ पहिले सुना है तैसे कहोंगा जो चरित्र तीनों तापके शांतकरनेवाला है हे पार्वति सुनिये ४ जिसको श्रवणकरके अज्ञान से उत्पन्न जो बड़ी भय तिससे छूट जाता है श्रीपरम समृद्धिको प्राप्त होता है औ बडीआयुर्बल युक्त पुत्र पौत्रादि संतति को प्राप्त होता है ५ एक समय में रावण आदि राक्षसों से भारसे पीड़ित हुई जो पृथ्वी सो गौ का रूप धारणकर और संपूर्ण देवता औ मुनीश्वर इनको संगले के ब्रह्मलोक में जाके रोनेलगी औ ब्रह्माजी से अपना सब राक्षसों का किया हुआ दुःख कहा तो ब्रह्माजी एक मुहूर्त्त भर ध्यान करके सब क्लेश जानते हुये क्योंकि ब्रह्मासर्वस्वरूप हैं ६॥

तस्मात्क्षीरसमुद्रतीरमगमद्ब्रह्माथदेवैर्वृतोदेव्याचाखिललोकहृत्स्थ

मजरं सर्वज्ञमीशं हरिम्।
अस्तौषीच्छुति सिद्धनिर्मल पदैः स्तोत्रैः पुराणोद्भ-

वैर्भक्त्यागद्गदयागिरातिविमलैरानन्दबाष्पैर्वृतः॥७॥

ततःस्फुरत्सहस्रांशु सहस्रासदृशप्रभः।
आविरासीद्धरिः प्राच्यां दिशां व्यपनयंस्तमः॥८॥

कथं चिद्दृष्टवान्ब्रह्मादुर्दर्शमकृतात्मनाम्।
इन्द्रनीलप्रतीकाशं स्मितास्यं पद्मलोचनम्॥९॥

फिर ब्रह्माजी सब देवतों को भी उस पृथ्वी को भी संगलैकै वहां से क्षीरसमुद्र के तीर जाकर सब के हृदय में स्थित औअजर अमर औ सर्वज्ञ ऐसे नारायण की वेद से सिद्ध निर्मलपद जिनमें ऐसे प्राचीन स्तोत्रों करके और गद्गदवाणी से स्तुति करनेलगे और भक्ति करके नेत्रों से आनन्द के अश्रुपात कर रहे हैं ७ तिसके उपरांत हजार सूर्योंकीसी कांति जिनकी ऐसे नारायण प्रकट होते हुये पूर्व दिशा में और सब अंधकार दिशाओंका नाश करते हुये ८ ऐसे नारायण को ब्रह्मा कैसे देखते हुये अर्थात् तेजके पुंजकरके जिनके स्वरूप में दृष्टि नहीं ठहर सक्ती है कैसे नारायण हैं जो अकृतात्मा पुरुष हैं जिन्होंने अपना चित्तवश नहीं किया है तिन को दुर्दर्श हैं दुःख से भी नहीं दिखाई पड़ते हैं और इंद्रनीलमणि के तुल्य जिनकी कान्ति है और मंदमुसक्यान कर रहे हैं और जिनके कमलवत् विशाल नेत्र हैं ९॥

किरीटहार केयूरकुण्डलैः कटकादिभिः।
विभ्राजमानं श्रीवत्सकौस्तुभप्रभयान्वितम्॥१०॥

स्तुवद्भिः सनकाद्यैश्च पार्षदैः परिवेष्टितम्।
शंखचक्रगदापद्मवनमालाविराजितम्॥११॥

स्वर्णयज्ञोपवीतेनस्वर्णवर्णाम्बरेण च।
श्रियाभूम्या च सहितं गरुडोपरि संस्थितम्॥१२॥

हर्षगद्गदयावाचा स्तोतुं समुपचक्रमे।

॥ब्रह्मोवाच ॥

नतोस्मितेपदं देवप्राणबुद्धीन्द्रियात्मभिः॥१३॥

यच्चिन्त्यते कर्मपाशाद्धृदिनित्यं मुमुक्षुभिः।
माययागुणमय्यात्वं सृजस्यवसिलुम्पसि॥१४॥

जगत्तेन न तेलेप आनन्दानुभवात्मनः।
तथा शुद्धिर्नदुष्टानां दानाध्ययनकर्मभिः॥१५॥

शुद्धात्मता ते यशसि सदा भक्तिमतां यथा।
अतस्तवांघ्रिर्मेदृष्टिश्चित्तदोषापनुत्तये॥१६॥

सयोन्तर्हृदयेदृष्टोमुनिभिःसात्वतैर्वृतः।
ब्रह्माद्यैःस्वार्थसिद्ध्यर्थमस्माभिः पूर्वसेवितः॥१७॥

और मुकुटहार औ बाहुभूषण औ कुण्डल औ कड़े इन आभूषणों करिकै प्रकाशमान होरहे हैं और वक्षःस्थलमें लक्ष्मी के चिह्नको धारण किये हैं औ कंठ में कौस्तुभमणि करिकै प्रकाशित हो रहे हैं १० और स्तुति करते हुये जो

सनक आदि मुनि औ अपने पार्षदगण तिनकरिकै सेवित हैं औ शंख चक्र गदापद्म वनमाला इन करिकै भूषित हो रहे हैं ११ औ सुवर्ण के यज्ञोपवीत को धारण करे रहैं औसुवर्ण सदृश झलकते हुये पीतवस्त्र को धारण करे हैं औ लक्ष्मी औ पृथिवी इन करके सहित हैं और गरुड़जी के ऊपर स्थित हो रहे हैं१२ ऐसे नारायण को देखि कै ब्रह्माजी बड़े आनंद से गद्गद बाणीकरके स्तुति करते हुये हे भगवन् आपके चरणारविन्द को मैं प्रणाम करता हूं जो चरण प्राण बुद्धि इंद्रिय मन इन से उत्पन्न जो कर्मरूप पाश तिससे छूटने की इच्छा करिकै योगी जनों ने नित्य ही हृदय में चिन्तन किया है १३ और आप अपनी गुणमयी माया करिकै जगत्को रचते हौऔपालन करते हौऔसंहार करते हौतौभी अपने स्वरूप की महिमा से उन कर्म्मोंकरिके लिपायमान नहीं होते हैं १४।१५ हे भगवन् दुष्ट पुरुषों की दान अध्ययनादि कर्म्मोंसे तैसी शुद्धि नहीं होती जैसी भक्तिमान् पुरुषों की आपके यशगान करने से अन्तःकरणकी शुद्धि होती है १६ इसी से अपने चित्त के दोष के दूर करने को मैं ने आपके चरणारविन्द का दर्शन किया कैसे चरण हैं जो भक्तों करिकै परिवेष्टित हैं औमुनियों ने ध्यानमार्ग्ग करिकै अपने हृदय के मध्य में देखा है औ हम सब जो ब्रह्मा आदि जो देवगण तिन्हों ने अपने अपने कार्य्य की सिद्धिके अर्थ पहिले भी सेवन किया है अर्थात् जब जब हमारे ऊपर विपत्ति पड़ती है तब आपहीके चरणों का सेवन करते हैं १७॥

अपरोक्षानुभूत्यर्थं ज्ञानिभिर्हृदिभावितः।
तवांघ्रिधूतनिर्माल्यलसीमालयाविभो॥१८॥

स्पर्द्धतेवक्षसि पदं लब्ध्वापि श्रीः सपत्निवत्।
अतस्त्वत्पादभक्तेषु तव भक्तिःश्रियोधिका॥१९॥

भक्तिमेवाभिवांछंति त्वद्भक्ताः सारवेदिनः।
अतस्त्वत्पादकमले भक्तिरेव सदास्तुमे॥२०॥

संसारामयतप्तानां भिषजं भक्तिरेव ते।
इति ब्रुवन्तं ब्रह्माणं बभाषे भगवान्हरिः॥२१॥

किं करोमीति तं वेधाः प्रत्युवाचाति हर्षितः।
भगवन् रावणो नाम पौलस्त्य तनयो महान्॥२२॥

राक्षसानामधिपतिर्मद्दत्तवरदर्प्पितः।
त्रिलोकीं लोकपालांश्च बाधते लोकबाधकः॥२३॥

औ आत्मसाक्षात्कार के अर्थ जो चरण कमल ज्ञानियों करिकै बारंबार हृदय में ध्यान किया गया है औ हे विभो लक्ष्मी आपके वक्षःस्थल में स्थान को प्राप्त हो कै भी आपके चरणारविन्द में चढ़ी हुई अतिपवित्र जो तुलसीकी माला तिसके संग सपत्नी की तरह नित्यस्पर्द्धा ही किया करती है अर्थात् आपके चरणारविन्दमें ऐसा लावण्य है जो वक्षस्स्थल मेंरहनेवाली भी लक्ष्मीचरण में बासकी इच्छा करके तुलसी के उत्कर्ष को नहीं सहती हुई सौतिकी तरह तिसके तिर-

स्कार की इच्छा करती है इससे आपके चरण के जो भक्त हैं तिन में आपकी लक्ष्मी से भी अधिक प्रीति है ऐसा जाना जाता है १८/१९ इसी सेसारवस्तुके जाननेवाले जे रसिक भक्त हैं ते सब त्यागकर केवल आपके चरण कमल के भक्ति हीकी इच्छा करते हैं इस से आपके चरणकमल में मेरी भी सदा भक्ति होय २० काहेसे जिससे संसाररूप रोग के ताप करके जे पुरुष संतप्त हो रहे हैं तिनकी भक्ति ही परम औषध है ऐसी स्तुति करते हुये जो ब्रह्मा तिनसे विष्णुभगवान् बोलते हुये २१ कि हे ब्रह्मन् क्या तुम्हारा कार्य्य मैं करूं सो कहिये ऐसे नारायण के वचन सुनिकै ब्रह्माजी अत्यन्त आनन्द युक्त हो कै भगवान् से बोलते हुये हे भगवन् पुलस्त्य का पौत्र विश्रवाका पुत्र रावण नामकर के बड़ाबली सब राक्षसों का स्वामी एक राक्षस है सो मेरे दिये वर करके बड़ा गर्व युक्त हो रहा है सो तीनों लोकों को औ इन्द्रादिक लोकपालों को बाधता है औ सब लोकों को बाधता हैं २२।२३॥

मानुषेण मृतिस्तस्य मया कल्याणकल्पिता।
अतस्त्वं मानुषो भूत्वा जहि देवरिपुं विभो॥२४॥

॥श्रीभगवानुवाच॥

कश्यपस्य वरोदत्तस्तपसा तोषिते नमे।
याचितः पुत्रभावायतथेत्यंगीकृतं मया॥२५॥

स इदानीं दशरथो भूत्वा तिष्ठति भूतले।
तस्याहं पुत्रतामेत्य कौशल्यायां शुभे दिने॥२६॥

चतुर्द्धात्मानमेवाहं सृजामीतरयोः पृथक्।

योगमायापि सीतेति जनकस्य गृहे तदा॥२७॥

उत्पत्स्यते तया सार्द्धं सर्वं संपादयाम्यहम्।
इत्युक्त्वान्तर्दधेविष्णुर्ब्रह्मादेवानथाऽब्रवीत्॥२८॥

और मनुष्य ही करिकैउसकी मृत्यु मैंने रची है इससे हे प्रभो आप मनुष्यरूप होकै उस देवकंटक रावण का नाश करिये २४ अब यह ब्रह्माजी के वचन सुनि कै भगवान् बोलते हुये हे ब्रह्मन् पहिले कश्यप ऋषि ने मेरा तप किया तौउस तपसे प्रसन्न होकै मैंने कश्यप से कहा कि वर मांगो तौ कश्यप जी ने यह कहा कि जो प्रसन्न हो उतो आप ही मेरे पुत्र होउ तो मैंने कहा ऐसे ही होगा २५ सोई कश्यप अब इस समय में पृथिवी तल में दशरथरूपधारणकर स्थित हो रहा है तिस दशरथ कीस्त्री कौशल्या के और उस दशरथकी दो भार्या और भी हैं। तिनका भी चाररूप धारण करके मैं इस प्रकार तीनों रानियों के पुत्र भाव को प्राप्त होउँगा और मेरी योगमाया जो है सो जनक गृहमें सीता नाम करिकै उत्पन्न होयगी तिसके सहाय करिकै मैं सम्पूर्ण पृथिवी का भारावतरण रूपकार्थ्य सिद्ध करूंगा ऐसा कहिके विष्णुतो अन्तर्द्धानको प्राप्तहुये औ ब्रह्माजी देवतों से बोलतेहुये २६।२७।२८॥

॥ब्रह्मोवाच॥

विष्णुर्मानुषरूपेण भविष्यति रघोःकुले।
यूयं सृजध्वं सर्वेपि वानरेष्वंशसंभवान्॥२९॥

विष्णोः सहायं कुरु तयावत्स्थास्यतिभूतले।
इतिदेवान्समादिश्य समाश्वास्य च मेदिनीम्॥३०॥

ययौ ब्रह्मास्वभवनं विज्वरः सुखमास्थितः॥३१॥

देवाश्च सर्वेहरिरूपधारिणः
स्थितास्सहायार्थमितस्ततोहरेः॥
महाबलाः पर्वतवृक्षयोधिनः

प्रतीक्षमाणा भगवन्तमीश्वरम्॥३२॥

इत्यध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे बालकाण्डे द्वितीयः सर्गः॥२॥

हे देवतौविष्णु भगवान् मनुष्यरूप करिकै रघुकुल में प्रकट होंगेइससे तुम संपूर्ण वानरों के विषे अपने अपने अंश से पुत्र उत्पन्न करौ २९ औ जबतक विष्णु भगवान् भूतल में स्थित रहैंतब तक तुम भी सब पृथिवी में स्थित होके विष्णु का सहाय करो इस प्रकार सब देवतों को आज्ञा देके औपृथिवी के चित्तको सावधान करिकै ३० ब्रह्माजी अपने लोक को जाते हुये औ संताप रहित सुखपूर्वक स्थित होते हुये ३१ अब सब देवता वानरों का रूपधारण करिकै भगवान् के सहाय के अर्थ जहां तहां स्थित होते हुये कैसे वानर हैं जे बड़े बलवान् हैं औ पर्वत औ वृक्ष इन को धारणकर युद्ध करनेवाले हैं और भगवान् की प्रतीक्षा कररहे हैं अर्थात् कब परमेश्वर का दशरथ के यहां जन्म होय ३२॥

इत्यध्यात्मरामायणेबालकांडे टीकायां द्वितीयस्सर्गः॥२॥

॥महादेवउवाच॥

अथ राजा दशरथः श्रीमान्सत्यपरायणः।
अयोध्याधिपतिर्वीरः सर्वलोकेषु विश्रुतः॥१॥

सोऽनपत्यत्वदुःखेन पीड़ितोगुरुमेकदा।
वशिष्ठं स्वकुलाचार्य माहूयेदमथाब्रवीत्॥२॥

स्वामिन्पुत्राःकथंमेस्युः सर्वलक्षणलक्षिताः।
पुत्रहीनस्य मे राज्यं सर्वं दुखायकल्पते॥३॥

ततोऽब्रवीद्वशिष्ठस्तं भविष्यन्ति सुतास्तव।
चत्वारः सत्त्वसम्पन्नालोकपाला इवापराः॥४॥

शान्ता भर्तारमानीय ऋष्यशृंगन्तपोधनम्।
अस्माभिस्सहितः पुत्रकामेष्टिं शीघ्रमाचर॥५॥

तथेति मुनिमानीय मन्त्रिभिस्सहितः शुचिः।
यज्ञकर्म समारेभे मुनिभिर्वीतकल्मषैः॥६॥

श्रद्धयाहूयमानेग्नौतप्तांगकनकप्रभः।
पायसं स्वर्णपात्रस्थं गृहीत्वोवाचहव्यवाट्॥७॥

गृहाणपायसंदिव्यं पुत्रीयं देवनिर्मितम्।
लप्स्यसे परमात्मानं पुत्रत्वे न च संशयः॥८॥

दोहा॥

सर्ग्गतीसरेपुत्रहित ऋष्यशृंगबुलवाय।
यज्ञकरतनृपमुदलह्यो यज्ञपुरुषसुतपाय॥३॥

अब श्रीमहादेव पार्वतीजी से कहते हैं हेपार्वति अयोध्या नगरी का अधिपति दशरथ नामकरिकै एक राजा होता हुआ कैसा वह राजा है बड़ा लक्ष्मीवान् है और सत्य विषे परायण है अथवा सत्य जो परमात्मा सोई है परम उत्कृष्ट अयन आश्रय जिसका सो कहिये सत्यपरायण अर्थात् परमेश्वर का अनन्य भक्त है औ सब लोकों में विख्यात है १ सो राजा दशरथ एक समय पुत्र के नहीं होने से दुःखकरिकै पीडित हुआ तौअपने कुल के आचार्य वशिष्ठजी जो गुरू तिनको बुलाकरिकै कहता हुआ कि २ हे स्वामिन् सब शुभलक्षणों करिकै युक्त ऐसे मेरे पुत्र कैसे उत्पन्न होयँ क्योंकि पुत्रहीन जो मैं हूं तिसको सब राज्य आदि सुखभी दुःखरूप ही हो रहा है तिससे ऐसी कृपाकरिये जिससे पुत्र होयँ ३ तौ वशिष्ठ जी बोले हे राजन् तुम्हारे चारपुत्र होंगे सत्त्वगुण युक्त चारों लोकपालों के समान ४ परन्तु शांता जो तुम्हारी कन्या है तिसका पति जो बड़ा तपस्वी मुनियों में श्रेष्ठ ऋष्यश्रृंग मुनि हैं तिनको बुलाइकै हम सब ऋषियोंकरिके सहित पुत्र के कामनाकरिकै यज्ञ शीघ्रही करिये ५ यह वशिष्टजी का वचन सुनिकै राजा दशरथ मंत्रियों के द्वारा ऋष्यश्रृंग को बुलवा के वशिष्ट आदि महात्मा ऋषियों करके सहित यज्ञका प्रारम्भ करते हुये ६ जब ऋषियों ने श्रद्धाकरिके अग्नि में हवन किया उस समय में तप्तसुवर्ण कीसी कांति जिनकी ऐसे अग्नि दिव्यरूपधारणाकिये औ सुवर्ण के थाल में स्वीर को लिये हुये उस अग्नि के कुण्ड में से निकल के राजा दशरथ के समीप जाके यह कहते हुये ७ है राजन् यह देवनिर्मित दिव्यपायस है इसको ग्रहण कीजिये यह पुत्रका देनेवाला है इसके प्रभाव से परमात्मरूप पुत्रको प्राप्त होउगे इसमें कुछ संशय नहीं है ८॥

इत्युक्त्वापायसं दत्त्वा राज्ञे सोन्तर्दधे नलः।

बबन्देमुनिशार्दूलौ रा

जालब्धमनोरथः॥९॥

वशिष्ठ ऋष्यशृंगाभ्यामनुज्ञातो ददौ हविः।
कौशल्यायैसकैकेय्यैअर्द्धमर्द्धंप्रयत्नतः॥१०॥

ततः सुमित्रासंप्राप्तासंगृघ्नुः पौत्रिकं चरुम्।
कौशल्या तु स्वभागार्द्धं ददौ तस्यै मुदान्विता॥११॥

कैकेयीचस्वभागार्द्धंददौ प्रीति समन्विता।
उपभुज्यचरुं सर्वाः स्त्रियोगर्भसमन्विताः॥१२॥

देवता इव रेजुस्ताः स्वभासाराजमन्दिरे।
दशमे मासि कौशल्या सुषुवे पुत्रमद्भुतम्॥१३॥

मधुमासेसिते पक्षे नवम्यां कर्कटेशुभे।
पुनर्वस्वर्क्षसहिते उच्चस्थे ग्रहपंचके॥१४॥

मेषं पूषणि संप्राप्ते पुष्पवृष्टिसमाकुले।
आविरासीज्जगन्नाथः परमात्मा सनातनः॥१५॥

ऐसे वचन कहिकै राजाके हाथमें वह पायस से भरा सुवर्ण का पात्र देके अग्नि अन्तर्द्धान होते हुये औ प्राप्त हुआ है मनोरथ जिसको ऐसा राजा दशरथ

उस समय में वशिष्ठ औऋष्यश्रृंग को प्रणाम करता हुआ ९ फिर उन दोनों मुनियों की आज्ञा से उस खीर का आधा भाग तो प्रथम कौशल्या को दिया औ आधा भाग कैकेयी को दिया १० तब तक तीसरी रानी सुमित्रा भी पुत्रेच्छा करके प्राप्त हुई तौप्रथम कौशल्या ने अपने भाग से आधा भाग पायस का हर्षपूर्वक सुमित्रा को दिया ११ फिर कैकेयी ने भी आधा भाग सुमित्रा को प्रीति से दिया इस प्रकार तीनों रानी उसे दिव्य खीर को भोजनकर गर्भको धारण करती हुईं १२ फिर उस गर्भ के प्रभाव से राजा के मंदिर में देवता के तुल्य अपनी कांति से प्रकाशमान होती हुईं अर्थात् उन रानियों के तेजकरिके वह मंदिर भी प्रकाशयुक्त होता हुआ तिसके अनन्तर प्रथम कौशल्या रानी दशवें महीने में बड़ा अद्भुतपुत्र उत्पत्ति करती हुई अर्थात् जैसे लोक में कहीं किसी का पुत्र न होय तैसे आश्चर्य युक्त पुत्र को कौशल्या उत्पन्न करती हुई सो आश्चर्य आगे वर्णन करैंगे १३ अवश्रीरामचंद्रजी के जन्मका समय कहते हैं चैत्रमास औ शुक्लपक्ष औ नवमी के दिन जब कर्क लग्नका उदय हुआ और सब प्रकार से शुभमहूर्त्त में औ पुनर्वसु नक्षत्र युक्तकाल में औ पांचग्रह के उच्चहोत संते १४ और मेषराशि स्थित सूर्य जब रहे और देवतागणपुष्पों की वृष्टि जब करते हुये उस परमानन्दंयुक्त समय में सब जगत् के स्वामी सनातन परमात्मा श्रीरामचंद्र प्रकट होते हुये १५॥

नीलोत्पलदलश्यामःपतिवासाश्चतुर्भुजः।

जलजारुणनेत्रान्तःस्फु

रत्कुण्डलमण्डितः॥१६॥

सहस्रार्कप्रतीकाशः किरीटीकुञ्चितालकः।
शङ्खचक्रगदापद्मवनमालाविराजितः॥१७॥

अनुग्रहाख्यहृत्स्थेन्दुसूचितस्मितचंद्रिकः।
करुणारससंपूर्णविशालोत्पललोचनः॥१८॥

श्रीवत्सहारकेयूरनूपुरादि विभूषणः।
दृष्ट्वा तं परमात्मानं कौशल्याविस्मयाकुला॥१९॥

हर्षाश्रुपूर्ण नयनानत्वाप्रांजलिरब्रवीत्॥

॥कौशल्योवाच॥

देवदेवनमस्तेतु शंखचक्रगदाधर ॥२०॥

परमात्माच्युतोनन्तः पूर्णस्त्वंपुरुषोत्तमः।
वदन्त्यगोचरं वाचाम्बुद्ध्यादीनामतीन्द्रियम्॥२१॥

त्वां वेदवादिनः सत्तामात्रं ज्ञानैकविग्रहम्।

त्वमेवमाययाविश्वंसृजस्य

वसि हंसिच॥२२॥

अब जैसे आश्चर्य युक्त कौशल्या के पुत्र हुआ है सो आश्चर्य वर्णन करते हैं कि नीलकमलदल के तुल्य श्यामवर्ण जिसका और पीतवस्त्र को धारण करे हैं और चारि जिसके भुजा हैं औ कमल के सदृश रक्त है नेत्रों का समीपदेश जिनका औ देदीप्यमान जो मकराकृत कुण्डल तिनकरिके भूषित हैं १६ औ हज़ार सूर्य के तुल्य है प्रकाश जिसका औ मुकुट को धारण करे हैं औ घुंघुवारे केश हैंजिस के औ

शंखचक्र गदा पद्म वनमाला इन करिके शोभायमान १७ औ अनुग्रह रूपी हृदय में विराजमान जो चंद्रमा तिस के बोधन करनेवाली है मंदमुसक्यानरूप उजियाली जिसकी और करुणा रस करके पूर्ण विस्तृत कमलवत् नेत्र जिस के १८ औ लक्ष्मी का चिह्न और हार और बहूंटाऔ पहुंटा इनको आदि लैके आभूषणों को धारण करे हैं ऐसा परमात्मरूप अद्भुत बालक कोकौशल्या देखिकै बड़े आश्चर्य युक्त होकर १९ आनन्दाश्रु से पूर्णहो रहे नेत्र जिसके ऐसी होकर और हाथ जोड़कर स्तुति करती हुई हे शंख चक्र गदाके धारण करने वाले हे देवों के भी देव बुद्धि प्रकाश तुम्हारे अर्थ नमस्कार है २० आप परमात्मा हौ नाश रहित हौ औ अनन्त हौ अर्थात् तुम्हारा अन्त नहीं है और सर्वत्र परिपूर्ण हौऔर पुरुषोत्तम हौ अर्थात् कूटस्थ आत्मा से परे हौऔ वाणी औ बुद्ध्यादिक इनके अगोचर नाम विषय नहीं इसी से अतीन्द्रिय इंद्रियों से उल्लंघनकर वर्त्तमानऐसे आपको वेदबादी ब्राह्मण कहते हैं २१ औ सत्ता मात्रज्ञान ही स्वरूप जिसका ऐसा भी कहते हैं और तुमही माया करिकै विश्व को रचते हौऔ पालन करते हौ संहार करते हौ २२॥

सत्त्वादिगुणसंयुक्तस्तुर्य एवामलाःसदा।
करोषीवनकर्त्तात्वं गच्छसीवनगच्छसि॥२३॥

न शृणोषिशृणोषीव पश्यसीवनपश्यसि ।
अप्राणो ह्यमनाः शुद्ध इत्यादि श्रुतिरब्रवीत्॥२४॥

समः सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्नपिनलक्ष्यसे।
अज्ञानध्वान्तचित्तानां व्यक्त एव सुमेधसाम्॥२५॥

जठरेतवदृश्यंते ब्रह्माण्डः परमाणवः।
त्वं ममोदर संभूत इति लोकान्विडम्बसे॥२६॥

भक्तेस्तु पारवश्यं ते दृष्टं मेद्यरघूत्तम।

संसारसागरेमग्नापति पुत्रधनादिषु॥२७॥

भ्रमामिमाययातेद्यपादमूलमुपागता।

देवत्वद्रूपमेन्तन्मेसदातिष्ठतुमानसे॥२८॥

औसदा निर्मल औ गुणातीत भी सत्त्वादिगुण संयुक्त हौऔर करनेवालेकी नाईं प्रतीयमान भी हौ और नहीं करते हौऔर जैसे कोई गमन करैऐसे प्रतीयमान भी हौ औनहीं चलते हौ २३ औ सुननेवाले के तरह भी हौ औ नहीं सुननेवाले हो औ देखनेवाले की तरह भी हौ औ नहीं देखनेवाले हौजिससे प्राणरहित औमनरहित शुद्धपरमात्मा हौ ऐसा वेद कहि रहा है २४ और आप सब भूतों में स्थित भी हौपरंतु अज्ञानरूपी अंधकार करिकै युक्त है चित्त जिनका तिनको न लक्षितहोते और निर्मलबुद्धि पुरुषों को प्रतीयमान हौ २५ हे भगवन् तुम्हारे उदर में अनेक ब्रह्मांड परमाणु के सदृश दिखाई पड़ते हैं ऐसे आप मेरे उदर में उत्पन्न होउ यह लोकों को बिडम्बन कर रहे हौअर्थात् बड़े उपहास्य की वार्त्ता है २६ औ हे

रघूत्तम आप ऐसे भक्ति के वश हौयह मैंने देखा औ हे भगवन् संसारसागर में डूबी हुई मैं पति पुत्र धनादिकों में २७ भ्रम रही हौंतुम्हारी माया करके परंतु अबआपके चरण समीप कोई पुण्य के लेशसे प्राप्त हुई हौंइससे हे देव यह आपका रूप सदा मेरे हृदय में वास करै २८॥

आवृणोतुनमांमायातवविश्वविमोहिनी।
उपसंहरविश्वात्मन्नेतद्रूपमलौकिकम्॥२९॥

दर्शयस्व महानंद बालभावं सुकोमलम्।
ललितालिङ्गनालापैस्तरिष्यन्त्युत्कटंतमः॥३०॥

॥श्रीभगवानुवाच॥

यद्यदिष्टंतवास्त्यम्बतत्तद्भवतु नान्यथा।
अहन्तुब्रह्मणापूर्वं भूमेर्भारापनुत्तये॥३१॥

प्रार्थितोरावणं हन्तुं मानुषत्वमुपागतः।
त्वया दशरथेनाहं तपसाराधितःपुरा॥३२॥

मत्पुत्रत्वाभिकांक्षिण्यातथा कृतमनिन्दिते।
रूपमेतत्त्वयादृष्टम् प्राक्तनंतपसः फलम्॥३३॥

मद्दर्शनं विमोक्षाय कल्पते ह्यन्यदुर्लभम्।
संवादमावयोर्यस्तु पठेद्वा शृणुयादपि॥३४॥

सयातिममसारूप्यं मरणे मत्स्मृतिं लभेत्।
इत्युक्त्वामातरं रामोवालोभूत्वारुरोदह॥३५॥

और विश्वके मोहन करनेवाली आपकी मायामुझको कभी आवरण न करै औ हे विश्वात्मन् इस अलौकिक रूपको आप छिपाइ लीजै २९ औ बड़े आनन्दका देनेवाला अति कोमल अपना बालस्वरूप दिखलाइये जिस स्वरूपका सुन्दर आलिंगन औसंभाषणादिककरिकै जनभयंकर संसारको पार होंगे ३० यह माता के वचन सुनिकै भगवान् बोलते हुये हे मातः जो तुमने इच्छा की है सोतैसेही होयगी अन्यथा न होगा औ मैं तौ प्रथमपृथ्वी के भार उतारने को ब्रह्मा करिकै प्रार्थना किया गया रावण के मारने को इस मनुष्य शरीर को प्राप्त हुआ हौं अर्थात्ब्रह्मा के वरदान के कारण से रावण की मृत्यु विना मनुष्य के नहीं होने के योग्य थी इस कारण से मैंने मनुष्य देहधारणकरना विचार किया और भी दूसरा कारण है कि तुमने और दशरथ ने पूर्वजन्म में मुझको पुत्रहोने की इच्छा सेबड़ा भारी तपकरि कै मेरा आराधन किया फिर मैंने प्रसन्न होके कहा मैं तुम्हारा पुत्र होउंगा सो वचन सत्यकरने को मैहीं तुम्हारा पुत्र हुआ और यह जो मेरा दिव्यरूप तुमने देखा सो पूर्वजन्म के तपका फल है ३१। ३३ औ मेरादर्शनसंसार से मोक्षही के अर्थजानो इसीसे औरोंको दुर्लभ है औ जो कोई पुरुष हमारे तुम्हारे संवाद को पढ़ेगा अथवा सुनेगा ३४ सो मेरे सारूप्य मोक्ष को प्राप्तहोगा औ मरणसमय में मेरे स्मरण को प्राप्त होगा यह वचन माता से कहिकै रामजी बाल कहो के रोने लगे ३५॥

बालत्वेपीन्द्रनीलाभोविशालाक्षोतिसुन्दरः।
बालारुणप्रतीकाशोलालिताखिल लोकपः॥३६॥

अथराजादशरथः श्रुत्वा पुत्रोद्भवात्स

वम्।

आनन्दार्णवमग्नोसवाययौ गुरुणासह॥३७॥

रामं राजीवपत्राक्षं दृष्ट्वा र्षासंप्लुतः।

गुरुणाजातकर्माणि कर्तव्यानि चकार सः॥३८॥

कैकेयी चाथ भरतमसूतकमलेक्षणा।
सुमित्रायां यमौ जातौपूर्णेन्दु सदृशाननौ॥३९॥

तदाग्रामसहस्राणि ब्राह्मणेभ्यो मुदा ददौ।
सुवर्णानि च रत्नानि वासांसि सुरभीः शुभाः॥४०॥

यस्मिन् रमंते मुनयो विद्यया ज्ञानविप्लवे।
तं गुरुः प्राह रामेति रमणाद्राम इत्यपि॥४१॥

भरणाद्भरतो नामलक्ष्मणलक्षणान्वितम्।
शत्रुघ्नं शत्रुहन्तारमेवं गुरुरभाषत॥४२॥

लक्ष्मणो रामचन्द्रेण शत्रुघ्नो भरतेन च।
द्वन्द्वीभूयचरं तौ तौ पायसांशानुसारतः॥४३॥

श्री रामचन्द्रजी बालभावमें भी अति सुन्दर होते हुये कैसे हैं इन्द्रनील जो श्याममणि तद्वत् कान्ति जिनकी औ विशाल हैं नेत्र जिनके औ उदयको प्राप्त जो अरुण तिसके तुल्य प्रकाश जिनका औ लाड़ लड़ाये संपूर्ण लोकपाल जिसने अर्थात् सब के कारणभूत भी हैं परन्तु भक्तवशतासे बालस्वरूपको धारण करें हैं ३६ अब राजा दशरथ पुत्र के जन्मोत्सवको सुनके आनन्दसमुद्र में मग्न हुये विशिष्ठ करके सहित वहां आते हुये ३७ कमलपत्रके से विशालनेत्र जिनके ऐसे श्रीरामरूप बालक को देखके आनन्द के अश्रुपात से व्याप्त हुये उस समय में करने के योग्य नान्दीमुख आदि जातकर्म वशिष्ठ जी की आज्ञानुसार करते हुये ३८ अब उसी समय में कमलके से नेत्र जिनके ऐसे कैकेयी भरतजी को उत्पन्न करती हुई और पूर्ण चन्दसदृशहै मुख जिनका ऐसे दो पुत्र सुमित्रा के होते हुये ३९ उस समय में बड़े आनन्दयुक्त राजा दशरथ हजार ग्राम और सुवर्णके राशि औ बहुत रत्न औ अनेक प्रकारके वस्त्र औ बहुत श्रेष्ठ गौवें ब्राह्मणों को देते हुये ४० औजिस तत्त्वमें मुनिलोग ज्ञान करके अविद्याका लयहोत संते रमण करते हैं उसका नाम वशिष्ठजी ‘राम, ऐसा कहते हुये अथवा सब में जोरमणकरता है उससे कौशल्या के पुत्रको राम कहते हुये ४१ औ सब का भरण करता है इससे कैकेयी पुत्रका ‘भरत, नाम कहते हुये औ शुभललक्षणयुक्तहोने से सुमित्रा के प्रथमपुत्रकानाम ‘लक्ष्मण, कहते हुये औ शत्रुओं का नाश करने से सुमित्रा के द्वितीय पुत्रका नाम ‘शत्रुघ्न, कहते हुये ४२ और पायसरूप यज्ञके भाग के अनुसार लक्ष्मण जी रामचन्द्रके संग औ शत्रुहन भरत के संग परस्पर दो दो मिलके विचरते हुये ४३॥

रामस्तु लक्ष्मणेनाथविचरन् बाललीलया।
रमया मास पितरौ चेष्टितैर्मुग्धभाषितैः॥४४॥

भालेस्वर्णमयाश्वत्थ पर्णमुक्ताफलप्रभम्।

कण्ठेरत्नमणिव्रातमध्यद्वीपिनखाञ्चितम्॥४५॥

कर्णयोस्स्वर्ण संपन्नरत्नार्जुनसटालुकम्।
सिंजानमणिमञ्जीरकटिसूत्राङ्गदैर्वृतम्॥४६॥

स्मितवक्त्राल्पदशनमिन्द्रनीलमणिप्रभम्।
अङ्गणेरिङ्गमाणं तं तर्णकाननुसर्वतः॥४७॥

दृष्ट्वा दशरथो राजा कौशल्यामुमुदेतदा॥
भोक्ष्यमाणो दशरथो राममेहीतिचासकृत्॥४८॥

आह्वयत्यतिहार्द्देनप्रेम्णानायातिलीलया।
आनयेति च कौशल्यामाहसासस्मितासुतम्॥४९॥

धावत्यपि न शक्नोति स्प्रष्टुं योगिमनोगतिम्।
प्रहसन्स्वयमावातिकर्द्दमाङ्कितपणिना॥५०॥

किंचिद्गृहीत्वाकवलं पुनरेव पलायते।
कौशल्याजननीतस्य मासिमासिप्रकुर्वती॥५१॥

वायनानि विचित्राणि समलंकृत्यराघवम्।
अपूपान्मोदकान्कृत्वा कर्णशष्कुलिकास्तथा॥५२॥

तिसमें श्रीरामचन्द्रजी लक्ष्मण के साथ विचरते हुये बाललीला करिकै मधुर है भाषण जिनमें ऐसे चरित्रों करिकै माता पिता को रमण कराते हुये ४४ और मस्तकपै सुवर्ण के पीपल के पत्ते के समीप गुहे हुये जो मोती तिनकरिकै शोभाजिसकी और कण्ठ में रत्नमणियों के समूह के बीच में गुहा हुआ जो बाघकानख तिसकरिकै शोभा जिनकी ४५ और कानों में सोने का गढा हुआ जो रत्न जटित अर्जुन वृक्षका फल तिसकरके व्याप्त हो रहे और शब्द करते हुये जो मणियोंके नूपुर औ करधनी औ बाहु भूषण इनकरिके परिवेष्टित ४६ औ मंद मुसक्यान करनेवाले मुखारविन्द में छोटे २ दन्त हैं जिनके औ इन्द्रनीलमणिके तुल्य है कान्ति जिनकी और कौशल्या के आंगन में गोत्रों के बछड़ोंके चारोंतरफ घुटुओं से चल रहे ४७ ऐसे रामचन्द्र को दशरथ और कौशल्या देखिकै परम आनंद को प्राप्त होते हुये औ जब दशरथ भोजन करने को बैठते हैं तब अतिस्नेह से राम को (एहि) अर्थात् आवो ऐसा शब्द कहिकै बुलाते हैं ४८ तिसपै भीखेलमेंआसक्त जब नहीं आवते हैं तो कौशल्या के द्वारा बुलवाते हैं ४९ तौ कौशल्याको देख आप भागते हैं फिर कौशल्या भी जिस राममे योगियों का मन भी न जा सके तिसको पकड़ने को दौड़ती हैं तो और भी भागते हैं और कभी अपहीआकै कीचसेलसे हुये हाथ से ५० दशरथकी थालीसे ग्रास उठाके भाग जाते हैं श्रीरामचन्द्रकी माता जो कौशल्याजी सो जब महीनें महीने में जन्मनक्षत्र होता है उस दिन श्रीरामको उद्वर्तन औ स्नानकराकै नवीनवस्त्र आभूषणों से अलंकृत करती और अनेक प्रकार पक्वान विभागकर सब को यथोचित देती हैं ५१।५२॥

कर्णपूराश्चविविधावर्षवृद्धौ च वायनम्।
गृहकृत्यं तया त्यक्तं तस्य

चापल्यकारणात्॥५३॥

एकदा रघुनाथो सौगतो मातरमन्तिके।
भोजनं देहिमेमातर्न श्रुतं कार्यसक्तया॥५४॥

ततः क्रोधेनभाण्डानिलगुडे नाहनत्तदा।
शिक्यस्थं पातयामास गव्यं च नवनीतकम्॥५५॥

लक्ष्मणाय ददौ रामो भरताय यथाक्रमम्।
शत्रुघ्नाय ददौ पश्चाद्दधिदुग्धंतथैव च॥५६॥

सूदेनकथितंमात्रे हास्यं कृत्वा प्रधाविता।
आगतां तां विलोक्याथ ततः सर्वैः पलायितम्॥५७॥

कौशल्या धावमानापि प्रस्खलन्तीपदेपदे।
रघुनाथं करे धृत्वा किंचिन्नोवाच भामिनी॥५८॥

औजिस दिन वर्षगांठि होती है तिस दिन जैसा शास्त्र में जन्मोत्सव कहा है वा रीति से श्रीराम को अलंकृत करिके सुवर्ण वस्त्र गौ आदि ब्राह्मणों को दान दिवाइकर पुआ औ लड्डूऔपूरी कचौड़ी पिराक इत्यादि विविध प्रकारकेपक्वान्नसे ब्राह्मणादि कों को भोजन कराइ फिर वह बायन स्त्रियों में विभाग कर नृत्य गीतादि जागरणांत उत्सव करती हैं औ श्रीरामादिकों की बालक्रीड़ा की चपलता देख ऐसी आनंद मग्न कौशल्या हो रही हैं जिस को गृह कृत्य के कामका भी पूर्वापर स्मरण नहीं रहता ५३ एक समय में श्रीरामचंद्रजी माता के समीप जाके यह कहने लगे हे मातः भोजन मुझको शीघ्र दे परंतु कौशल्या उस समय में घर के कार्य में व्यग्र थी इस्से पुत्र के वचन का ख्याल न किया ५४ तब श्रीरामजी क्रोध कर छीके के ऊपर जो पात्ररक्खे थे उनको लाठीसे गिराकर फोरडाले और उनमें दही दूध माखन रक्खा था सो लक्ष्मणजीको दिया फिर भरत शत्रुघ्न को देते हुये ५५।५६ यह वृत्तान्त रसोई दारने माता से कहा तो माता कौशल्या हँसकर पुत्रके पकड़ने को दौड़ती हुई तो माता को आते देखते श्रीराम आदि सब बालक भय से भागते हुये ५७ तब तक कौशल्या गिड़ती पड़ती दौड़ती हुई रघुनाथजी को हाथ में पकड़ लेती हुई परंतु श्रीरामको देखिकै ऐसी आनन्द युक्तहुई जो कुछ बोलने में भी असक्त होगई ५८॥

बालभावं समाश्रित्य मन्दं मन्दं रुरादह।
ते सर्वे लालितामात्रागाढमालिंग्ययत्नतः॥५९॥

एवमानन्दसंदोहजगदानंदकारकः।
मायाबालबपुर्वृत्वारमयामासदम्पती॥६०॥

अथ कालेन ते सर्वे कौमारं प्रतिपेदिरे।
उपनीतावशिष्ठेन सर्वविद्याविशारदाः॥६१॥

धनर्वेदे च निरताः सर्वशास्त्रार्थवेदिनः।

बभूवुर्जगतांनाथालीलयानररूपिणः॥६२॥

लक्ष्मणस्तु सदाराममनुगच्छति सादरम्।
सेव्यसेवकभावेन शत्रुघ्नो भरतं तथा॥६३॥

रामश्चापधरोनित्यंतूणी बाणान्वितः प्रभुः।
अश्वारूढोवनं

यातिमृगयायैसलक्ष्मणः॥६४॥

हत्वा दुष्टमृगान्सर्वान्पित्रे सर्वं न्यवेदयत्।
प्रातरुत्थाय सुस्नातः पितरावभिवाद्य च॥६५॥

पौरकार्याणि सर्वाणिकरोतिविनयान्वितः।
बंधुभिस्सहितो नित्यं भुक्त्वामुनिभिरन्वहम्।
धर्मशास्त्ररहस्यानि शृणोति व्याकरोति च॥६६॥

एवं परात्मामनुजावतारो मनुष्यलोकाननुसृत्य सर्वम्।
चक्रेविकारीपरिणामहीनोविचार्यमाणेन करोति किंचित्॥६७॥

इत्यध्यात्मरामायणे बालकाण्डेतृतीर्यस्सर्गः॥३॥

श्रीरघुनाथजी तौ बालभाव को अनुशरणकर मंदमंद रोदन करनलगे उस समय में माता ने भयभीत जानि सब बालकों को बड़े प्रेमसे हृदय में लगा लिया ५९ इस प्रकार आनन्द राशिरूप श्रीरामचन्द्र भक्तजनों को आनंद करतेहुये माया करिकै बालक केसे शरीर धारणकर दशरथ कौशल्या को रमण कराते हुये ६० तिसके अनन्तर सब राम आदि भ्राता कौमार अवस्थाको प्राप्त होते हुये फिर तिसके अनन्तर वशिष्ठजी ने सबका यज्ञोपवीत किया तब सब वेद आदि विद्याओं में कुशल होते हुये ६१ औ धनुःशास्त्र में बड़े प्रीति से तत्पर होते हुये औ संपूर्ण शास्त्रों के अर्थको यथावत् जानते हुए औ ईश्वररूप होने से हैं तो सब लोकोंके स्वामी परन्तु लीला करके मनुजरूप धारण करे हैं ६२ इससे इनको कर्तृत्वको क्या अशक्य है तिसमें लक्ष्मण तौ आदर पूर्वक सदा रामके अनुगामी हो सेवन करते हैं तैसे शत्रुघ्न भरतका सेवन करते हैं ६३ औ जब रामचन्द्रजी धनुष बाण धारणकर घोड़के ऊपर चढिके शिकार खेलने को बनको जाते हैं तो लक्ष्मणजी भी पीछे पीछे धनुषबाण लेके संगही रहते हैं कभी क्षणमात्र अलग नहीं रहते ६४ तहां पवित्र मृगोंको मारकर श्रीरामचन्द्र पिताके अर्थ निवेदन करते हुये अब श्रीरामचन्द्र नित्य प्रातःकाल स्नान संध्योपासन आदि कर्म कर माता पिताको प्रणाम करके ६५ बड़ी नम्रतासे पुरवासियों के सब कार्य करते हैं फिर मुनियोंको भोजन कराइ आप सब भाइयोंके सहित भोजन करते हैं फिर धर्म शास्त्रों के जो रहस्य पदार्थ हैं अर्थात् अति गुप्तकठिन जिनका आशय हर एक के समुझमें न आसकैं उनको चित्त देके ऋषियों से सुनते हैं और आप भी उसके अर्थको खोलते हैं६६ इस प्रकार परमात्माजी श्रीराम सो मनुष्य अवतार धारण करिके जैसे मनुष्यों के आचरण हैं वैसे ई शास्त्रानुसार करते हुये और वास्तवमें कोई विचारकर देखैतौ विकाररहित और बुद्धि के अनेक तरह होने में आप वैसे नहीं होते श्रीराम कुछ भी नहीं करते हैं ६७॥

इत्यध्यात्मरामायणे भाषाटीकायां तृतीयस्सर्गः॥३॥

॥शिव उवाच॥

कदाचित्कौशिकोभ्यागादयोध्यां ज्वलनप्रभः।
द्रष्टुं रामपरात्मानं जातं ज्ञात्वा स्वमायया॥१॥

दृष्ट्वादशरथो राजा प्रत्युत्थायाचिरेणुत।
वशिष्ठेन समागम्यपूजयित्वा यथाविधि॥२॥

अभिवाद्यमुनिंराजाप्रांजलिर्भक्तिनम्रधीः।
कृतार्थोस्मिमुनींद्राहं त्वदागमनकारणात्॥३॥

त्वद्विधायद्गृहं यांति तत्रैवायांति संपदः।
यदर्थमागतोसित्वं ब्रूहि सत्यं करोमि तत्॥४॥

विश्वामित्रोपितं प्रीतः प्रत्युवाच महामतिः।
अहं पर्वणि संप्राप्ते दृष्ट्वायष्टुं सुरान्पितॄन्॥५॥

यदारभेतदा दैत्याविघ्नं कुर्वंतिनित्यशः।
मारीचश्च सुबाहुश्च परे चानुचरास्तयोः॥६॥

अतस्तयोर्बधार्थायज्येष्ठंरामं प्रयच्छ मे।
लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा तव श्रेयो भविष्यति॥७॥

दोहा॥

तूर्यसर्ग में गाधिसुत राम लषण निधिपाय।
चले मुदित मग ताड़का रामहती बहुमाय॥४॥

अब किसी समय में अग्नि का सा तेज जिनका ऐसे विश्वामित्रजी अपनी माया करके परमात्मा ही श्रीरामरूप प्रकट हुये हैं यह जानके श्री रामचन्द्रके दर्शन करने को अयोध्या में आते हुये १ तब राजादशरथ विश्वामित्र को देखके शीघ्रही उठिकर वशिष्ठजी को संग लेके विधिपूर्वक पूजन करके २ फिर हाथ जोड़ मुनिको प्रणाम कर बड़ी नम्रता से वचन बोलते हुये कि हे मुनीश्वर आपके आने से मैं आज कृतार्थ हुआ ३ क्योंकि आपके तुल्य पुरुष जिस घर में प्राप्त होते हैं वहां सकल सम्पदा आती हैं और आप जिस प्रयोजन से आये होंय सो कहिये मैं सत्य करूंगा ४ तब विश्वामित्र जी बड़े प्रसन्न होके बोलते भये ५ हे राजन् जब पूर्णमासी वा अमावास्या आदि कोई पर्व आके प्राप्त होता है तब मैं देवतों का यज्ञ प्रारम्भ करता हूं उसी समय में मारीच औसुबाहु ६ ये बड़े बली राक्षस औरों को भी संग लेके मेरी यज्ञमें विघ्न करते हैं अर्थात् मल मूत्र आदि वृष्टिकर यज्ञ विध्वंस किया करते हैं इससे इनके वधके किये लक्ष्मण सहित ज्येष्ठपुत्र जो राम हैंतिनको दीजिये तब तुम्हारा बड़ा कल्याण होगा ७॥

वशिष्ठेन सहा मंत्र्यदीयतां यदि रोचते।
पप्रच्छगरुमेकान्तेराजाचिन्तापरायणः॥८॥

किंकरोमि गुरोरामंत्यक्तुं नोत्सहतेमनः।
बहुवर्षसहस्त्रान्ते कष्टेनोत्पादिताः सुताः॥९॥

चत्वारोमरतुल्यास्ते तेषां रामोतिबल्लभः।
रामस्त्वितो गच्छति चेन्नजीवामि कथंचन॥१०॥

प्रत्याख्यातो यदिमुनिः शापं दास्यत्यसंशयः।
कथं श्रेयो भवेन्मह्यमसत्यं चापिन स्पृशेत॥११॥

॥वशिष्ठ उवाच॥

शृणु राजन्देवगुह्यङ्गोपनीयंप्रयत्नतः।
रामोन

मानुषो जातः परमात्मा सनातनः॥१२॥

भूमेर्भारोवताराय ब्रह्मणाप्रार्थितः पुरा।
स एव जातो भवने कौशल्यायांतवानघ॥१३॥

त्वं तु प्रजापतिः पूर्वं कश्यपोब्रह्मणः सुतः।
कौशल्याचादिति देवमातापूर्व यशस्विनी॥१४॥

औ जो तुमको किसी बातका संदेह होय तो अपने गुरू वशिष्ठजी से सलाह करके जो अच्छा समझ पड़े तौदीजिये अब राजादशरथ यह विश्वामित्रजी के वचन सुनिकै बड़ी भारी चिन्तामें मग्न होके अर्थात् डूबता हुआ ८ एकान्त देश में वशिष्ठजी से पूछता हुआ हे गुरो इस समय मैं क्या करूं क्योंकि राम के त्याग करने में तो मेरे मनको उत्साह नहीं होता क्योंकि बहुत हज़ारवर्षों में बड़े कष्टसे इस अवस्थामें मेरे चार पुत्र उत्पन्न हुये ९ सो यद्यपि चारों पुत्र देवतुल्य हैं तौभी सब पुत्रों में राम मुझको अत्यन्त प्रिय हैं सो कदाचित् जो राम इहां से जायंगे तो मैं नहीं जीऊँगा १० और जो मैं विश्वामित्र से मने करता हूं तौ ये अवश्य शाप देंगे इसमें कुछ संदेह नहीं है इससे कौन प्रकार से मेरा कल्याण हो औ मेरा वचन भी मिथ्या न होय सो उपाय कहिये ११ तब वशिष्ठजी कहने लगे हे राजन् जो देवतों का गुप्तमत है सो मैं कहता हूं राम जो तुम्हारा पुत्र है तिसको मनुष्य न जानो यह साक्षात्परमात्मा प्रकट हुआ है १२ जो नारायण प्रथम पृथ्वी के भारदूर करने को ब्रह्मा करके प्रार्थना किया गया सो इस समय में तुम्हारे गृह में कौशल्या के विषेपुत्र हुआ १३ तुमतौ साक्षात् ब्रह्मा के पौत्र कश्यप प्रजापतिहौऔर कौशल्या परम यश संयुक्त देवतों की माता अदिति पूर्व जन्म में थी १४॥

भवन्तौतप उग्रं वैते पाथे बहुवत्सरम्।
अग्रास्यविषयौविष्णुपूजाध्यानैकतत्परौ॥१५॥

तदा प्रसन्नौभगवान्वरदो भक्तिवत्सलः।
वृणीष्ववरमित्युक्ते त्वं मे पुत्रो भवामल॥१६॥

इतित्वयायाचितोऽसौभगवान्भूतभावनः।
तथेत्युक्त्वाद्य पुत्रस्ते जातोरामस्स एव हि॥१७॥

शेषस्तुलक्ष्मणोराजन्राममेवान्वपद्यत।
जातौभरत शत्रुघ्नौ शंखचक्रगदाभृतः॥१८॥

योगमायापि सीतेतिजाताजनकनन्दिनी।

विश्वामित्रोपिरामायतांयोजयितुमागतः॥१९॥

एतद्गुह्यतमं राजन्नवक्तव्यं कदाचन।
अतः प्रीतेनमनसापूजयित्वाथ कौशिकम्॥२०॥

प्रेषयस्वरमानाथं राघवं सहलक्ष्मणम्।
वशिष्ठेनैवमुक्तस्तुराजा दशरथस्तदा॥२१॥

तुमदोनों जने बहुत वर्ष पर्य्यन्त उग्र तप करते हुये और इंद्रियों के विषय को नहीं भोगते हुये और विष्णु भगवान् के पूजा ध्यान में तत्पर रहे १५ उस

समय में वरके देनेवाले भक्त वत्सल जो भगवान् सो तुमसे यह कहते भये कि वर मांगौ तौ तुमने कहा कि आपही हमारे पुत्र होयँ १६ जब ऐसी तुमने प्रार्थनाकी तो भगवान् ने कहा ऐसेई होइ ऐसा कहकर वोही भगवान् नारायण तुम्हारे राम नाम करके पुत्र हुये हैं १७ हे राजन् शेष भगवान् लक्ष्मण हो के राम ही का भजन करतेहुये और भगवान् के आयुधशंख चक्र जेहैं तेही भरत शत्रुघ्न होतेभेये १८ और भगवान की शक्ति योगमाया जनकनन्दिनी सीता हुई हैं तिनसे संबन्ध रामचन्द्र का कराने को विश्वामित्र प्राप्त हुये हैं १९हे राजन् यह गुप्त रहस्य किसी के आगे कहने योग्य नहीं है इससे अब प्रसन्न मनकर के विश्वामित्र को पूजन करके २० लक्ष्मणसहित लक्ष्मीनाथ जो श्रीरामचन्द्र तिनको भेजिये ऐसा जब वशिष्ठजी ने कहा तब तौ राजा दशरथ बड़े प्रसन्न हो २१॥

कृतकृत्यमिवात्मानं मेने प्रमुदितान्तरः।
आहूयरामरामेतिलक्ष्मणेतिचसादरम्॥२२॥

आलिंग्य मूर्ध्न्यवघ्राय कौशिकाय समर्पयत्।
ततोतिहृष्टो भगवान् विश्वामित्रः प्रतापवान्॥२३॥

आशीर्भिरभिनन्द्याथ आगतौ रामलक्ष्मणौ।
गृहीत्वाचापतूणीरबाणखड्गधरौ ययौ॥२४॥

किञ्चिद्देशमतिक्रम्यराममाहूयभक्तितः।
ददौबलांचातिबलांविद्येद्वेदेवनिर्मिते॥२५॥

ययोर्ग्रहणमात्रेणक्षुत्क्षामादिनजायते।
ततउत्तीर्यगंगान्तेताटकावनमागमत्॥२६॥

विश्वामित्रस्तदाप्राहरामं सत्यपराक्रमम्।
अत्रास्तिताटकानामराक्षसी कामरूपिणी॥२७॥

बाधते लोकमखिलं जहितामविचारयन्।
तथेतिधनुरादाय सगुणं रघुनन्दनः॥२८॥

कृत कृत्य अपनाको मानते हुये फिर राम लक्ष्मण को बड़े आदर से बुलाकर २२ हृदय से लगाके शिर में सूंधके विश्वामित्र को सौंपते हुये तौतौ बड़े प्रताप युक्त विश्वामित्र भगवान् २३ अत्यन्त प्रसन्न होके अपने समीप प्राप्त धनुषबाण तरकस खड्गको धारणकरे जो रामलक्ष्मण तिन को बहुत आशीर्वादों से सराहनाकर मानों किसी को निधिमिली होय ऐसे आनन्द से संगलैकै जाते भये २४ तब कुछ दूर चलकर भक्ति से अपने निकट रामचन्द्रजी को बुलाइकै देवतोंकी निर्माण करीजो बला औप्रतिबला दो विद्या हैं तिनको देते हुये २५ जिन विद्याओं के ग्रहणमात्र करने से ही भूखप्यास दुर्बलता आदि उपद्रव नहीं होते हैं तिसके उपरांत गंगाको उतरिकै विश्वामित्र रामलक्ष्मण ये तीनों ताडुका राक्षसीके वनमें पहुंचते हुये २६ तब विश्वामित्र रामचन्द्रजी से कहनेलगे हे राम अकरूपों के धारण करनेवाली ताड़का राक्षसी जिस वन में रहती है सो यही वन है २७ यह राक्षसी सब लोकों को बाधाकरा करती है। इससे

लोकों के सुख के लिये इसको मारो और यह स्त्री है कैसे मारें ऐसा विचार न करो यह विश्वामित्र के वचन सुन रामचन्द्र धनुष चढ़ालेते भये २८॥

टंकारमकरोत्तेन शब्देनापूरयद्वनम्।
तच्छ्रुत्वा सहमाना साताटकाघोररूपिणी॥२९॥

क्रोधसंमूर्च्छिताराममभिदुद्राव मेघवत्।
तामेकेन शरेणाशुताडयामास वक्षसि॥३०॥

पपात विपिने घोरावमन्तीरुधिरं बहु।
ततोति सुंदरी यक्षी सर्वाभरणभूषिता॥३१॥

शापात्पिशाच तां प्राप्तामुक्तारामप्रसादतः।
नत्वा रामं परिक्रम्य गता रामाज्ञयादिवम्॥३२॥

ततोतिहृष्टः परिरभ्यरामं मूर्द्धन्यवघ्रायविचिन्त्य किञ्चित्।
सर्वास्त्रजालं स रहस्यमन्त्रं प्रीत्याभिरामायददौ मुनीन्द्रः॥३३॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे बालकांडे चतुर्थस्सर्गः॥

फिर टंकोर शब्द करके उस वन को पूर्ण करते हुये उस शब्द को सुनके घोर रूप २९ राक्षसी राम के सम्मुख दौड़ती हुई मेघवत् अर्थात् जैसे काले मेघ की घटा आती हो ऐसे क्रोध से ताड़का राक्षसी राम के सामने आती हुई तिस राक्षसीको एक ही बाणसे छाती में रामचन्द्र ताड़न करते हुये ३० तब बड़े भयंकर रूप को धारण कर बहुत सा रुधिर मुखसे वमन करती हुई उस वन में ताड़का गिर पर तभई फिर उसरूपको त्यागकर संपूर्ण आभरणों करके भूषित ३१ अति सुन्दर दिव्यदेह यक्षका रूपधारणकर श्रीराम के प्रसाद ते शापसे पिशाचयोनि से छूटिकैरामको प्रणामकर और परिक्रमाकर रामकी आज्ञासे स्वर्गको जाती हुई ३२ तिसके उपरांत अति हर्षित विश्वामित्रजी प्रसन्नमुख श्रीरामचन्द्रजी को हृदय से लगाके शिरमें सूंघकै इनको आगे बहुत कार्य्यकरना है ऐसा चिन्तन कर बड़ी प्रीति से मंत्रसहित सब अस्त्रोंका समूह रामको देते हुये ३३॥

इत्यध्यात्मरामायणे बालकाण्डे भाषाटीकायां चतुर्थः सर्गः ४॥

॥शिव उवाच॥

तत्र कामाश्रमे रम्ये कानने मुनिसंकुले।
उषित्वारजनीमेकां प्रभाते प्रस्थिताशनैः॥१॥

सिद्धाश्रमं गताः सर्वे सिद्धचारण सेवितम्।
विश्वामित्रेण संदिष्टा मुनयस्तन्निवासिनः॥२॥

पूजां च महतींचक्रूरामलक्ष्मणयोर्द्रुतम्।
श्रीरामः कौशिकं प्राह मुने दीक्षां प्रविश्यताम्॥३॥

दर्शयस्व महाभाग कुतस्तौ राक्षसाधमौ।
तथेत्युक्त्त्वामुनिर्यष्टु मारेभे मुनिभिस्सह॥४॥

मध्माह्नेददृशाते तौ राक्षसौ कामरूपिणौ।
मारीचश्चसुबाहुश्चवर्षन्तौ रुधिरास्थिनी॥५॥

रामोपि धनुराधाय द्वौ बाणौ संदधेसुधीः।
आकर्णान्तं समाकृष्य विससर्जतयोः पृथक्॥६॥

तयोरेकस्तु मा

रीचं भ्रामयञ्च्छतयोजनम्।

पातयामास जलधौ तदद्भुतमिवाभवत्॥७॥

दोहा॥

मुनिमखकण्टकपांचवें सर्गहने रघुनाथ।
पुनितारीगौतमतिया जिनगायेगुणगाथ॥५॥

तिसके उपरांत मुनियों से व्याप्त बडारमणीय जो कामदेव का आश्रम है तिसमें एक रात्रि बास कर प्रातःकाल के समय धीरेधीरे विश्वामित्र श्री रामलक्ष्मण यात्रा करते हुये १ फिर सिद्धचारणों करके सेवित सिद्धाश्रम में प्राप्त हुये जहां कि विश्वामित्रका आश्रम है तहां विश्वामित्रजी की आज्ञासे उस आश्रम के रहनेवाले मुनि लोग २ श्रीरामचन्द्र लक्ष्मण की बडीपूजा करते हुये अर्थात् बड़ा सत्कार करते हुये तिसके उपरांत श्रीरामचन्द्र विश्वामित्र से बोलते भये हे मुने अब अपनी यज्ञशाला में प्रवेश करिये ३ और हे महाभाग वे जो राक्षसों में अधम मारीच सुबाहु हैं तिनको दिखाइये वे कहां हैं तब विश्वामित्र जी बोले तैसेई करैंगे ऐसा कहिकर कै मुनियों के संग यज्ञका प्रारम्भ करते हुये ४ तब मध्याह्न के समय में रुधिर औ हाड़ इनकी वृष्टि करते हुये यथेच्छा रूपधारीमारीच औ सुबाहु ये आकाश में दिखाते हुये ५ तब श्रीरामचन्द्र धनुषको ग्रहण करदो बाण संधान करते हुये फिर कर्ण पर्य्यन्त धनुषको खैंचकर बाणों को अलग अलग निकासकर छोड़ते हुये ६ तिसमें एक बाणतो मारीचकी छाती में प्रविष्ट होकै उसको घुमाता हुआ सौ योजन पर जाके समुद्र में उस राक्षसको डालता हुआ और प्राणों से वियोग नहीं कराया जब बड़ा आश्चर्य्य होता हुआ ७॥

द्वितीयोग्नि मयोबाणः सुबाहुमजयत्क्षणात्।
अपरेलक्ष्मणेनाशुहतास्तदनुयायिनः॥८॥

पुष्पौघैराकिरन्देवाराघवं सहलक्ष्मणम्।
देवदुंदुभयोनेंदुस्तुष्टुवुस्सिद्धचारणाः॥९॥

विश्वामित्रस्तु संपूज्यपूजार्हंरघुनन्दनम्।
अंके निवेश्य चालिंग्य भक्त्या बाष्पाकुलेक्षणः॥१०॥

भोजयित्वासहभ्रात्रा रामंपक्वफलादिभिः।
पुराणवाक्यैर्मधुरै निनाय दिवसत्रयम्॥११॥

चतुर्थेहनि संप्राप्ते कौशिकोराममब्रवीत्।
रामराममहायज्ञं द्रष्टुं गच्छामहे वयम्॥१२॥

विदेहराजनगरेजनकस्यमहात्मनः।
तत्रमाहेश्वरं चापमस्तिन्यस्तं पिनाकिना॥१३॥

द्रक्ष्यसि त्वं महासत्त्वं पूज्यसे जनकेन च।
इत्युक्त्वा मुनिभिस्ताभ्यां ययौ गंगासमीपगम्॥१४॥

और दूसरा बाण अग्निरूपहोकै सुबाहु राक्षसको जीतता हुआ अर्थात्खण्ड खण्ड कर भस्मकर पृथ्वी में डालता हुआ और जो उनके अनुयायी राक्षस थे तिनको लक्ष्मणजी शीघ्र ही बाणोंसे खण्डखण्ड कर पृथ्वी में डालते हुये ८ तब लक्ष्मण सहित श्रीराम के ऊपर देवता पुष्पोंकी वृष्टि करतेहुये और देवतों के

नगाड़े बजते हुये औ सिद्धचारण जो देवगणहैं ते स्तुति करते हुये ९औ विश्वामित्रजी तो पूजन के योग्य श्रीरामचन्द्रजी का पूजनकर अपने गोदीमें बिठाकर हृदय से लगाकर आनन्दाश्रुपात करते हुये १० फिर लक्ष्मण सहित श्रीराम को पके हुये मधुर फल अतिवस्तुओं करके भोजन कराके बड़ी मधुर पुराणों की कथा सुनाते हुये विश्वामित्रजी तीनदिन व्यतीत करते भये ११ चौथा दिन जब आया तबरामचन्द्रजी सेयह कहने लगे कि हे राम राजा विदेह के नगर में जनक के यहां बड़ा भारी यज्ञ होगा तिलको देखने को हम तुम सब चलेंगे १२ औ वहां जनक मंदिर में महादेवजी का धनुष है जो कि प्रथम महादेवजी ने अपनी धरोहरकर जनकजी के पास स्थापन किया है १३ हे राम उसको तुम देखौगे औ राजा जनक तुम्हारा बड़ा सत्कार करैंगे यह कहिकै विश्वामित्रजी मुनियों को संगले के औ रामलक्ष्मण सहित जनकपुर की यात्रा करते भये तहां प्रथम गंगाजी के समीप १४॥

गौतमस्याश्रमं पुण्यं यत्राहल्या स्थिता तपः।
दिव्यपुष्पफलोपेतं पादपैः परिवेष्टितम्॥१५॥

मृगपक्षिगणैर्हीनं नानाजंतुविवर्जितम्।
दृष्टोवाच मनिः श्रीमान् रामोराजीवलोचनः॥१६॥

कस्यै तदाश्रमपदं भाति भास्वच्छुभं महत्।
पत्रपुष्पफलैर्युक्तं जन्तुभिः परिवर्ज्जितम्॥१७॥

आह्लादयति मे चेतो भगवन्ब्रूहि तत्त्वतः।

॥विश्वामित्र उवाच॥

शृणु रामपुरावृत्तं गौतमो लोकविश्रुतः॥१८॥

सर्वधर्मभृतां श्रेष्ठस्तपसाराधयन्हरिम्।
तस्मै ब्रह्मा ददौ कन्यामहल्यां लोकसुन्दरीम्॥१९॥

ब्रह्मचर्येण सन्तुष्टःशुश्रूषणपरायणाम्।
तया सार्द्धमिहावात्सीद्गौतमस्तपतां वरः॥२०॥

शक्रस्तु तां धर्षयितुमंतरंप्रेप्सुरन्वहम्।
कदाचिन्मुनिवेषेण निर्गते गौतमे गृहात्॥२१॥

गौतमऋषि के आश्रम को जाते हुये जहां अहल्या तप कर रही है फिर वह कैसा आश्रम हैं जो दिव्यफल पुष्पों कर युक्त जो वृक्ष हैं तिन्हकरिके परिवेष्टित हो रहा है १५ औ मृगपक्षियों करके हीन है और कोई प्राणी उसमें नहीं रहने पातासोऐसे आश्रम को देखके कमल नेत्रजो राम हैं सो विश्वामित्र से पूछते हुये १६ हे भगवन् किसका यह आश्रम है जो बड़ा प्रकाशमान है औ पत्र पुष्पफलों करिके युक्त है परन्तु पक्षी तक कोई नहीं बैठता और प्राणियों करिकै हीन है १७ औ मेरे चित्तको बड़ा आनन्द दे रहा है इससे यथार्थ आप कहिये किसका यह आश्रम है यह राम का वचन सुनिकै विश्वामित्रजी कहते भये हे राम पहिले जो वृत्तान्त हुआ तिसको सुनिये एक समय में लोकों में विख्यात १८ औ सर्व धर्म धारियों में श्रेष्ठ गौ-

तम ऋषि तप करिकै भगवान्‌ का आराधन करते हुये तब तिस गौतम के अर्थ ब्रह्माजी अहल्या नाम कर लोकों में एक बड़ी सुन्दरी कन्या रच करके देते हुये १९ क्योंकि ब्रह्मा गौतमजी के ब्रह्मचर्य से बडेप्रसन्न हुये थे फिर वह कन्या गौतम कीशुश्रूषा में परायण रही तबसे लेके तप करनेवालों में श्रेष्ठ गौतमजी उस अहल्या भार्या करके सहित इस आश्रम में वास करते हुये २० परंतु इन्द्र उस अहल्या के रूप में मोहित हो उससे प्रसंग करने को दिन दिन छिद्र देखता रहा एक दिन गौतमजी तौ अपने आश्रम से बाहरकहीं गये थे उस अन्तर में इन्द्र गौतम के रूप को धारण कर अहल्या के पास जाके प्रसंग करता हुआ २१॥

धर्षयित्वाथनिरगात्त्वरितं मुनिरप्यगात्।
दृष्ट्वा यान्तं स्वरूपेणमुनिःपरमकोपनः॥२२॥

पप्रच्छ कस्त्वं दुष्टात्मन् मम रूपधरोधमः।
सत्यं ब्रूहि न चेद्भस्मकरिष्यामि न संशयः॥२३॥

सोब्रवीद्देवराजोहं पाहिमांकामकिंकरम्।
कृतं जुगुप्सितं कर्म मया कुत्सित चेतसा॥२४॥

गौतमःक्रोधताम्राक्षः शशापदिविजाधिपम्।
योनिलंपटदुष्टात्मन्सहस्रभगवानभव॥२५॥

शप्त्वा तं देवराजानं प्रविश्य स्वाश्रमं द्रुतम्।
दृष्ट्वाहल्यां वेपमानां प्राञ्जलिङ्गौतमोब्रवीत्॥२६॥

दुष्टे त्वं तिष्ठदुर्वृत्तेशिलायामाश्रमे मम।
निराहारादि वा रात्रं तपः परममास्थिता॥२७॥

आतपानिलवर्षादिसहिष्णुःपरमेश्वरम्।
ध्यायंती राममेकाग्रमनसा हृदि संस्थितम्॥२८॥

जब इस प्रकार इन्द्र अहल्या के साथ खोंटा कर्मकर उसके घर से बाहर निकसा था, उसी समय गौतमजी भी आगये २२ तब गौतमजी अपना स्वरूप धारण करे जाते हुये इंद्रको देखके बढ़ा क्रोधकर पूछते हुये हे दुष्ट कौन तू मेरे रूप को धारण करे हैं सत्यकहु नहीं तौमैं इसी समय भस्मकर देऊँगा तब इंद्रने कहा कि मैं देवतों का राजा इन्द्र हौंऔ काम वश होके मैने निंद्यकर्म किया है इस से हे भगवन्मेरी रक्षा करो इस प्रकार इन्द्रने कहा तौभी २४ गौतमऋषि क्रोधवश रक्त नेत्र हो के इंद्र को शाप देते भये कि हे दुष्टात्मन् जिस कारण से तू योनि लंपट अर्थात् असक्त हुआ इस से तेरे हजार भग होंय २५ इस प्रकार इंद्र को शाप देकै फिरि शीघ्र ही अपने आश्रम में प्रवेश करके वह भय करके कंपायमान हाथ जोड़े खड़ी हुई अहल्या को देखि कै गौतमजी बोलते हुये २६ हे दुष्ठे इस मेरे आश्रम में रात्रि दिन निराहार घोर तप करती हुई शिला के ऊपर स्थित हो २७ और घाम पवन वर्षा इनको सहती हुई एकाग्रचित्त से हृदय में स्थित जो राम रूप परमेश्वर तिनको ध्यान करती रहैगी २८॥

नानाजंतुविहीनोयमाश्रमो मे भविष्यति।

एवंवर्षसहस्रेषु ह्यनेके

षु गतेषु च॥२९॥

रामो दाशरथिः श्रीमानागमिष्यतिसानुजः।
यदातवाश्रमशिलां पादाभ्यामाक्रमिष्यति॥३०॥

तदैवधूतपापात्वं रामसंपूज्यभक्तितः।
परिक्रम्य नमस्कृत्य स्तुत्वा शापाद्विमोक्ष्यसे॥३१॥

पूर्ववन्ममशुश्रूषां करिष्यसि यथासुखम्।
इत्युक्त्वा गौतमः प्रागाद्धिमवं तं नगोत्तमम्॥३२॥

तदाद्यहल्याभूतानामदृश्यास्वाश्रमेशुभे।
तवपादरजःस्पर्शकांक्षंती पापनाशनम्॥३३॥

आस्तेद्यापि रघुश्रेष्ठतपो दुष्करमास्थिता।
पावयस्वमुनेर्भार्यामहल्यां ब्रह्मणस्सुताम्॥३४॥

इत्युक्त्वाराघवं हस्तेगृहीत्वा मुनिपुंगवः।
दर्शयामास चाहल्यामुग्रेण तपसा स्थिताम्॥३५॥

और यह आश्रम प्राणियों करके हीन हो जायगा अर्थात् पशु पक्षी इत्यादिकभी कोई इसमें नर हैंगे सो बहुत हजार वर्ष जब व्यतीत होंगे २९ तब अपने छोटे भाई करके सहित दशरथ के पुत्र श्रीरामचन्द्र इस आश्रम में आवेंगे और आकर जब तेरे आश्रमकी शिला के ऊपर अपना चरण रक्खैंगे १० तभी तू संपूर्ण पाप से छूट जायगी फिर शुद्ध होकैश्रीरामको बड़ी भक्ति से पूजनकर औ परिक्रमा कर और प्रणाम करके औ स्तुति करके शाप से छूट जावेगी ३१ और पहिले की तरह सुख पूर्वक मेरी फिरि शुश्रूषा कराकरैगी यह वचन कहिकै गौतम ऋषि हिमालय पर्वत को जाते हुये ३२ तब से लेके अहल्या सब प्राणियों को अदृश्य हो के अर्थात् किसी को नहीं दिखाई देती हुयी अपने आश्रम में वास करती आपके चरण रजके स्पर्शकी इच्छा करती रही जिससे आपका पादरज पापनाशक है ३३ हे राम अभी तक अहल्या दुष्करतप में स्थित हो रही हैइससे गौतमकी भार्या औब्रह्माकी पुत्री ऐसी जो अहल्या तिस को पवित्र करिये ३४ विश्वामित्र ऐसा वचन कहिकै औ रामचन्द्र का हाथ पकड़िकै बड़े तप करिकै युक्त जो अहल्या है तिसको दिखाते हुये ३५॥

रामः पदाशिलां स्पृष्ट्वातां चापश्यत्तपोधनाम्।
ननाम राघवोऽहल्यां रामोहमिति चाब्रवीत्॥३६॥

ततो दृष्ट्वा रघुश्रेष्ठं पीतकौशेय वाससम्।
धनुर्बाणधरं रामं लक्ष्मणे न समन्वितम्॥३७॥

स्मितवक्त्रपद्मनेत्रं श्रीवत्सांकितवक्षसम्।
नीलमाणिक्यसंकाशं द्योतयन्तं दिशोदश॥३८॥

दृष्ट्वारामंरमानाथं हर्षविस्फुरितेक्षणा।
गौतमस्य वचः श्रुत्वा ज्ञात्वा नारायणं परम्॥३९॥

संपूज्यविधिवद्राममर्चादिभिरनिन्दिता।
हर्षाश्रुजलनेत्रान्तादण्डवप्रणिपत्यसा॥४०॥

उत्थाय च पुनर्दृष्ट्वा रामं राजीव लोचनम्।
पुलकाङ्कितसर्वाङ्गीगिरागद्गदयैलत॥४१॥

॥अहल्योवाच॥

अहो

कृतार्थास्मि जगन्निवास ते पादाम्बुजे लग्नरजःकणादहम्।
स्पृशामि यत्पद्मज शंकरादिभिर्विमृग्यते रोधितमानसैस्सदा॥४२॥

अब रामचन्द्रजी अपने चरण से शिला को स्पर्श करिकै तिस तपस्विनी को देखते हुये औ मैं राम हों ऐसा कहिकै अहल्या को प्रणाम करते हुये ३६ तब तौ अहल्या श्रीरामचन्द्र को देखती हुई कैसे राम हैं पीत जो रेशमी वस्त्र तिनको धारण करे हैं औ धनुषबाण धारण करे हैं औलक्ष्मण को संगलियै हैं ३७ औ मन्द मुसक्यान युक्त हैंमुखारविन्द जिनका और कमल के तुल्य विशाल जिनके नेत्र हैं औ लक्ष्मी का चिह्न है वक्षस्स्थल में जिनके औ इन्द्रनीलमणि सहश है कांति जिनकी औ दशदिशाओं को प्रकाशित करिरहे हैं ३८ ऐसे लक्ष्मीनाथ श्रीराम को देखिकै आनन्द से प्रफुल्लित हुये हैं नेत्र जिसके ऐसी जो अहल्या सो गौतमजी के वचनों को स्मरण कर प्रकृति से परे नारायण श्रीराम को जान कर ३९ विधि पूर्वक अर्ध आदि सामग्री करिके पूजन कर आनन्दाश्रुजल से पूर्ण नेत्र जिस के ऐसी जो अहल्या सो श्रीरामचन्द्र को प्रणाम दण्डवत् कर ४० फिर उठिकै राजीवलोचन अर्थात् कमलनेत्र श्रीराम को देखिकै नेत्र द्वारा हृदय में प्रवेशकर रोमांचित हुआ है संपूर्ण अंग जिसका ऐसी हो गद्गदवाणी से स्तुति करती हुई ४१ हे जगन्निवास सब जगत् के आधार जिस कारण से आपके चरण कमल की रजको मैं स्पर्श करती हौं इससे कृतार्थ हुई कैसी वो रज है जो नित्य समाधि के करनेवाले जे ब्रह्मा शंकर आदि देवगण हैं तिन करिकै केवल ढूंढी ही जाती है अर्थात् नेत्र से देखने को भी दुर्लभ है तिस को स्पर्श कर रही हौं तौमैं अपना भाग्य क्या कहों४२॥

अहो विचित्रं तव रामचेष्टितं मनुष्यभावेन विमोहयन् जगत्।

चलस्य जस्रं चरणादि वर्जितं सम्पूर्णआनन्दमयोतिमायिकः॥४३॥

यत्पादपङ्कजपरागपवित्रगात्राभागीरथी भवविरञ्चिमुखान्पुनाति।
साक्षात्स एवममदृग्विषयोयदास्ते किं वर्ण्यते ममपुराकृतभागधेयम्॥४४॥

मर्त्यावतारे मनुजाकृतिं हरिं रामाभिधेयं रमणीयदेहिनम्।
धनुर्धरम्पद्मविशाललोचनं भजामि नित्यं परमं परायणम्॥४५॥

यत्पादपङ्कजरजःश्रुतिभिर्विमृग्यंयन्नाभिपंकजभवः कमलासनश्च।
यन्नामसार रसिको भगवान्पुरारिस्तं रामचन्द्रमनिशं हृदिभावयामि॥४६॥

यस्यावतारचरितानिविरंचिलोकेगायन्तिनारदमुखाभवद्मजाद्याः।
आनन्दजाश्रुपरिषिक्तकुचाग्रसीमावागीश्वरीचतमहं शरणं प्रपद्ये॥४७॥

सोयं परात्मा

पुरुषः पुराणः एकः स्वयंज्योतिरनन्त आद्यः।
मायातनुं लोकविमोहिनी या धत्ते परानुग्रह एष रामः॥४८॥

अयं हि विश्वाद्भव संयमानामेकं स्वमायागुणबिम्बितोयः।
विरंचि विष्णवीश्वर नाम भेदान्धत्ते स्वतन्त्रः परिपूर्ण आत्मा॥४९॥

हे राम अहो आपका चेष्टित चरित्र बड़ा आश्चर्ययुक्त है जो आप मनुष्य भाव करिकै सब जगत् को मोहित कर रहे हो औ चरण आदि इन्द्रियों करके रहित भी हौ निरन्तर चला करते हो औ मायायुक्त हौ तौ भी अपने संपूर्ण आनन्दमय ही रहते हौ४३ और जिस आपके चरण पंकज की रेणुओं करिकै पवित्र हुआ है शरीर जिसका ऐसी जो गंगा सो महादेव ब्रह्मा आदि देवतों को पवित्र करती है सोई साक्षात् आप मेरे नेत्रों के आगे स्थित हो रहे हौतौमेरे पूर्वजन्म के सुकृतों का भाग्य क्या वर्णन किया जाय ४४ इस से राम है नाम जिस का ऐसा जो हरि है तिस को नित्यही मैंभजन करती होंकैसा है जो मनुष्यावतार में मनुष्यकीसी आकृति स्वरूप जिसका औ रमणीय हैदेह जिसका औ धनुषको धारण करे हैं औ कमलके तुल्य विशाल हैं नेत्र जिनके औ परम उत्कृष्ट आश्रयरूप ४५ जिसके चरणारविन्दकी रेणु श्रुतियों को भी ढूंढने योग्य है और जिसकी नाभि कमल से ब्रह्मा उत्पन्न हुये औ जिसके सार के रसिक श्रीभगवान् महादेवजी हैं तौ नजो श्रीरामचंद्र तिनको हृदयमें मैं निरन्तरध्यान करती हौं ४६ औ जिसके अवतार के चरित्रों को ब्रह्मलोक में नारद आदि ऋषि लोग औ शिव ब्रह्मा आदि देवता गान करते हैं औआनन्द के अश्रुपात करिकै सींचा गया है स्तन का अग्र भाग जिसका ऐसी जो सरस्वतीदेवी सो भी जिसके चरित्रों का नित्यगान करती है ऐसे जो राम तिनके में शरणप्राप्त होती हौं ४७ सो यह राम परमात्मा है अर्थात् माया ते परे शुद्धआत्मा ब्रह्म हैं और यही राम पुराण पुरुष है अर्थात् पहिले भी नवीनरहैऔ सबके हृदयमें शयन करनेवाले अन्तर्यामी हैं औयह स्वयंप्रकाश अर्थात् जैसे सूर्यको प्रकाशकरने में किसी दीपक आदि साधन की अपेक्षा नहीं हैऐसे परमात्मा को भी अपने जताने में वा ज्ञान में बुद्ध्यादिक की अपेक्षा नहीं है प्रत्युत आपही इनको प्रकाश न शक्ति दे रहा है औ फिर कैसा है जो अनंत है अर्थात् जिसकी महिमा का अंत नहीं सबका कारण है औ लोकों को मोहकरानेवाली जो मायावही हुआ एक शरीर तिसको धारण करेहैं सो भी केवल भक्तों के अनुग्रह के लिये क्योंकि विना सद्गुणरूप किसी की अनुग्रह हो नहीं सक्ती ऐसा यह राम है ४८ औ यही परमस्वतंत्र परिपूर्ण आत्माराम अपने माया के गुणों में प्रतिबिम्बित हो

के इस विश्वकी उत्पत्ति औ पालन और संहार करने को ब्रह्मा और विष्णु औ रुद्र ये तीन नामों को धारण करता है ४९॥

नमोस्तु हे राम तवाङ्घ्रि पङ्कजं श्रिया धृतं वक्षसि लालितं प्रियात्।
आक्रान्त मे केन जगत्त्रयं पुराध्येयं मुनीन्द्रैरभिमानवर्ज्जितैः॥५०॥

जगतामादिभूतस्त्वं जगत्त्वं जगदाश्रयः।
सर्वभूतेष्वसंसक्त एको भाति भवान्परः॥५१॥

ओंकारवाच्यस्त्वं राम वाचामविषयः पुमान्।
वाच्यवाचकभेदेन भवानेव जगन्मयः॥५२॥

कार्यकारणकर्तृत्व फलसाधन मेदतः।
एको विभासि राम त्वं मायया बहुरूपया॥५३॥

त्वं मायामोहित धियस्त्वां न जानन्ति तत्त्वतः।
मानुषं त्वाभिमन्यन्ते मायिनं परमेश्वरम्॥५४॥

आकाशवत्त्वं सर्वत्र बहिरन्तर्गतोमलः।
असङ्गख्यचलोनित्यः शुद्धोबुद्धः सदा द्वयः॥५५॥

योषिन्मूढाहमज्ञातेतत्त्वं जाने कथंविभो।
तस्मात्तेशतशो राम नमस्कुर्य्यामनन्यधीः॥५६॥

हेराम आपका जो चरण कमल है तिसके अर्थ मेरा नमस्कार है अथवा जिस आपका चरण कमल ऐसे गुणोंकरके युक्त है तिन्हींके अर्थ नमस्कार है कैसा चरण कमल है जो लक्ष्मीजी ने बड़ी प्रीति से अपने वक्षस्स्थल में धारणकर लाड़लड़ाया है औ जिस एक ही चरण ने पहिले वामनावतार में तीनों लोकनापेहैं और जो चरणकमल अभिमानरहित जे मुनीश्वर हैं तिनको ध्यानकरने योग्य हैं ऐसे आपके चरणारविन्दको नमस्कार है ५० हेराम आप सब जगत् के कारण हो औ जगत् रूप भी आप ही हो औ जगत्का आधार भी आप ही हौ औ सब भूतों से अलग औ प्रकृति से भी परे आपही प्रकाशमान हो रहे हौ५१ औ ओंकार शब्द करके वाच्य अर्थात् जो कहा जाता है ऐसा जो वाणियों के अगोचर परमात्मा है सो आप हैं औ वाच्यवाचक भेदकरिकै सब जगत्रूप आपही हैं अर्थात् घटपटादिक जे शब्द हैं ते वाचक हैं औ जिस से जलल्यायाजाता है ऐसा जो पात्र विशेष है वह वाच्य हुआ ऐसे जितने लोकबेद में वाचकशब्द हैं औ जितने उन शब्दों करकैकहे जाते वाच्यअर्थ हैं वे सब परमात्मरूप ही हैं ५२ क्योंकि हे राम कार्य कारण कर्त्ताफलसाधन इनके भेदकारिकै बहुत रूपकी जो माया तिस करके एक आप ही बहुरूपकरिकै प्रकाशकर रहे हौजैसे कार्य तो हुआ घट औ कारण मृत्तिका औ कर्त्ता कुम्हार फल जल का आना औ साधन दंडचक्रडोरा आदि पदार्थजे सबलोक में प्रसिद्ध हैं ऐसेई कार्यहुआ ब्रह्मांड और

कारण प्रकृति औ कर्त्ता ईश्वर औ फल सुख दुःख औ साधन पंचीकृतभूत1जीवरचित सृष्टि पक्ष में कार्य शरीर औ कारण अविद्याकर्त्ता अहंकार फल सुख दुःख आदि साधन मनस्सह चरित इंद्रियवर्ग इन सबके भेद सत्त्व रजस्तमोगुणों के तारतम्य से हजारों लाखों वा अपरिमित हैं सो यद्यपि परमात्मा सदा एक रस है तौ भी बहुरूपकी माया में प्रतिबिम्बित होने से अनेक प्रकार का प्रतीयमान हो रहा है जैसे सूर्य्य एक है परंतु जलघृत तैलादि उपाधियों के बहुत होने से औ अनेक प्रकारके होने से प्रतिबिम्ब भी बहुत औ अनेक प्रकार के मालूम पड़ते हैं वास्तव में एक ही है ऐसे इस अविद्या के बहुत भेद होने से जीव भी बहुत में औ बहुत प्रकार के से प्रतीयमान हो रहे हैं सो अहल्या कहती है हे राम आप एकही हौ परंतु मायाके अनेक रूप होने से आप भी अनेक से मालूम पड़ते हौ ५३ औ जे कोई पुरुष आपकी माया करके मोहित बुद्धि हो रहे हैं ते आपको तत्त्व करके अर्थात् जैसे हौ तैसा नहीं जानसक्ते इसी से माया के प्रेरक परमेश्वर जो आप हैंतिनको मनुष्य मानते हैं ५४ औ आप आकाश के तुल्य सबके बाहिर औ भीतर व्याप्त हो रहे हौऔ निर्मल हो औ जैसे आकाश कहीं नहीं लिप्त होता तैसे पाप भी असंग हौऔ अचल हौ औनित्यहौऔ सदा एकरस हौ औ शुद्ध हौ ज्ञानस्वरूप हौऔ सदा द्वैत भावसे रहित है ५५ हे राम मूढस्त्री जाति इसी से अज्ञ ऐसी जो मैं हौं सो आपको कैसे जानसक्ती हौंतिससे हे राम में अनन्य चित्त हो कै आपको सैकड़ों प्रणाम करती हौं ५६॥

देवमेयत्रकुत्रापिस्थिताया अपिसर्वदा।
त्वत्पादकमलेसक्ताभक्तिरेवसदास्तुमे॥५७॥

नमस्तेपुरुषाध्यक्ष नमस्ते भक्तवत्सल।
नमस्तेस्तु हृषीकेशनारायण नमोस्तुते॥५८॥

भवभयहरमेकं भानुकोटिप्रकाशंकर
धृतशरचापं कालमेघावभासम्।
कनकरुचिरवस्त्रंरत्नवत् कुण्डलाढ्यम्

कमलविशदनेत्रं सानुजं राममीडे॥५९॥

स्तुत्त्वैवं पुरुषं साक्षाद्राघवंपुरतः स्थितम्।
परिक्रम्य प्रणम्याशु सानुज्ञाता ययौ पतिम्॥६०॥

अहल्यया कृतं स्तोत्रं यः पठेद्भक्तिसंयुतः।
समुच्यतेखिलैः पापैः परंब्रह्माधिगच्छति॥६१॥

पुत्राद्यर्थे पठेद्भक्त्यारामंहृदि निधाय च।

संवत्सरेण ल

भते वंध्यापि सपुत्रकम्॥६२॥

सर्वान्कामानवाप्नोति रामचन्द्रप्रसादतः॥६३॥

ब्रह्मघ्नो गुरुतल्पगोपिपुरुषः स्तेयीसुरापोपिवा
मातृभ्रातृविहिंसकोपिसततंभोगैकबद्धातुरः।
विश्वामित्रोथ तं प्राह राघवं सहलक्ष्मणम्।

नित्यंस्तोत्रमिदंजपन्रघुपतिं भक्त्याहृदिस्थंस्मर
न्ध्यायन्मुक्तिमुपैति किं पुनरसौस्वाचारयुक्तोनरः॥६४॥

इत्यध्यात्म रामायणे बालकाण्डे पञ्चमः सर्गः॥५॥

औ देव प्रकाश रूप कर्मवश से जिस किसी योनि में मैं जाउं तहां तहां आप के चरण कमल में सदा मेरी भक्ति रहै यही कृपा करिकै दीजिये ५७ हे पुरुषाध्यक्ष सब के ईश्वर तुमको नमस्कार है औ हे भक्तवत्सल हे हृषीकेश अर्थात् इन्द्रियों के प्रवर्तक हे नारायण तुम्हारे अर्थ नमस्कार है ५८ श्रीलक्ष्मण सहित जो रामचन्द्र तिनकी मैं स्तुतिकरती हों कैसे हैं जे एक अद्वितीय संसार रूप भयके हरनेवाले हैं अर्थात् संसार के भय दूर करने में किसी की अपेक्षा नहीं रखते हैं औ करोर सूर्यों का सा प्रकाश जिनका औ हाथमें धनुष बाण धारणकरे हैं और नील मेघ के तुल्य है कान्ति जिनकी औ सुवर्ण तुल्य है पीतवस्त्र जिनके औ रत्नजटित कुण्डलों को धारणकरे हैं औ कमल तुल्य हैं विशाल नेत्र जिनके ऐसे जो अनुजसहित श्रीरामचन्द्र तिनकी में स्तुतिकरती हौं५९ इस प्रकार अहल्या अपने नेत्रों के आगे स्थित जो रामचन्द्र तिनकी परिक्रमाकरिकै औप्रणाम करिकै श्रीरामकी आज्ञा से पति के समीप जाती हुई ६० जो कोई पुरुष भक्तियुक्त होके इस अहल्या के किये हुये स्तोत्र का पाठ करता है सोसंपूर्ण पापों से छूटिके परब्रह्म को प्राप्त होता है ६१ औ जिसकी स्त्री के पुत्र आदि न होता होय सो पुरुष जो रामचन्द्र को हृदय में ध्यानकर पुत्र इच्छा करिकै इस स्तोत्र का पाठ करे तौ वर्ष मध्य में ही सुपुत्र को प्राप्त होय ६२ औ जिस जिस कामनाकरके इसस्तोत्र का पाठकरै तो संपूर्ण उन कामनाओं को श्रीराम के प्रसाद से प्राप्तहोय ६३ औ जो पुरुष ब्रह्मघ्न भी होय औ गुरुस्त्री गमन करनेवाला होय औ सुवर्ण का चुरानेवाला भी होय औ मदिरापान करनेवाला होय औ मातापिताका हिंसक भी होय औनिरन्तर विषय भोग में तत्पर भी होय तौ भी इस स्तोत्र को नित्य जो पढ़ैऔभक्ति करके हृदयस्थ रामचन्द्रका ध्यानकरै तौ सब पापों से छूटकर परमपदको प्राप्त होय औ स्वधर्म तत्पर पुरुष इस स्तोत्र के पाठसे मुक्तिको प्राप्तहोय यह क्या कहना है ६४॥

इत्यध्यात्म रामायणे बालकांडे टीकायां पञ्चमः सर्गः॥५॥

॥सूत उवाच॥

विश्वामित्रोथ तं प्राह राघवं सहलक्ष्मणम्।
वयं गच्छाम मिथिलां जनकेनाभिपालिताम्॥१॥

दृष्ट्वा क्रतुवरं पश्चादयोध्यां

गन्तुमर्हसि॥
इत्युक्त्वा प्रययौ गंगामुत्तर्त्तुं सहराघवः
तस्मिन्कालेनावि केन निषिद्धो रघुनन्दनः॥२॥

॥नाविक उवाच॥

क्षालयामि तव पादपंकजं नाथ दारुदृषदाः किमन्तरम्।
मानुषीकरणचूर्णमस्ति ते पादयारिति कथा प्रथीयसी॥३॥

पादाम्बुजं ते विमलं हि कृत्वा पश्चात् परं तीरमहं नयामि।
नोचेत्तरीसद्युवतीमलेनस्याद्यद्विभोविद्धि कुटुम्बहानिः॥४॥

इत्युक्त्वाक्षालितौ पादौ परतीरं ततोगताः।
कौशिको रघुनाथेन सहितो मिथिलां ययौ॥५॥

विदेहस्य पुरप्रान्त ऋषिवाटं समाविशत्।
प्राप्तं कौशिकमाकर्ण्य जनको तिमुदान्वितः॥६॥

पूजाद्रव्याणि संगृह्य सोपाध्यायः समाययौ।
दण्डवत्प्रणिपत्याथ पूजयामास कौशिकम्॥७॥

पप्रच्छ राघवौदृष्ट्वा सर्वलक्षणलक्षितौ।
द्योतयन्तौ दिशः सर्वांश्चन्द्रसूर्याविवापरौ॥८॥

दोहा॥

छठे जनकपुर मुनिसहित आय शम्भुधनु भंज।
अनुज सहित पाणिग्रहण कीन्हींकरुणापुंज॥६॥

अब इसके अनन्तर विश्वामित्र जी लक्ष्मण सहित रामचन्द्रजी से कहते हुये कि हम सब जनक पालित मिथिलानगरी को चलते हैं ५ औ हेराम तुम भी हमारे संग जनक के यज्ञ को देखके फिर अयोध्यानगरी को जाना ऐसा कहिके रामसहित जो विश्वामित्रजी सो गंगाजी को उतरिकै जनकपुरको चलते हुये २ तब जब गंगाजी के पारजाने को नाव मँगाई तब उस समय में मल्लाहनेमनाकिया रामचन्द्र से औ यह कहता हुआ कि हे नाथ विना आपके चरणों को धोये मैं कैसे भी नावपै न चढ़ाऊंगो क्योंकि विना मनुष्य को भी मनुष्य भावको प्राप्त करने वाला चूर्ण आपके चरणों में रहता है इसी से आपके चरण के स्पर्श करते ही पाषाणरूप अहल्या मनुष्य भाव को प्राप्त हो गई यह कथा प्रसिद्ध है औ काष्ठ मेंऔ पत्थर में अन्तर ही क्या है इस से मेरी नौका जो आपके पाद रजसे मनुष्य हो जायगी तो मेरी तौ आजीविका ही नष्ट हो जावेगी इस से विना आपके चरणों के धोये मैं कभी नौका पै न चढ़ाऊंगा ३ । ४ ऐसी चतुराई के वचन कहिकै बड़ा बड़ भागी वह मल्लाह रघुनाथजी के चरणों को धोयकै नावपै चढ़ाके पार उतारता हुआ ५ इस प्रकार गंगाके पार उतरिके रामसहित विश्वामित्रजी मिथिला नगरी को जाते हुये फिर वहां जनकपुर के समीप जहां ऋषिलोग ठहरे थे वहां विश्वामित्रजी भी ठहरते हुये अब राजा जनक प्राप्त हुये जो विश्वामित्र तिनको सुनिकै ६ संपूर्ण पूजा की सामग्री लैकैऔर अपने गुरुवर्गशतानन्द आदि ऋषियों को संग लैके आवते हुये फिर जनकजी विश्वामित्र को दण्डवत्

प्रणामकर पूजन करते हुये ७ तिसके अनन्तर संपूर्ण शुभ लक्षणों करके युक्त और जैसे चन्द्रसूर्य प्रकाशक हैं तैसे सब दिशों को प्रकाशित कर रहे हैंऐसे रामलक्ष्मण को देखिकै जनक जीपूछते हुये ८॥

कस्यै तौ नरशाद्र्दूलो पुत्रौ देवसुतोपमौ।
मनः प्रीतिकरो मेद्यनरनारायणाविव॥९॥

प्रत्युवाच मुनिः प्रीतोहर्षयन्जनकन्तदा।
पुत्रौ दशरथस्यै तौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ॥१०॥

मखसंरक्षणार्थाय मयानीतौ पितुः पुरात्।
आगच्छन् राघवो मार्गे ताडकां विश्वघातिनीम्॥११॥

शरेणैकेनहतवान्नोदितोऽमितविक्रमः।
ततो ममाश्रमं गत्वा मम यज्ञविहिंसकान्॥१२॥

सुबाहुप्रमुखान्हत्वामारीचं सागरेऽक्षिपत्।
ततो गंगा तटे पुण्यगौतमस्याश्रमेशुभे॥१३॥

गत्त्वा तत्र शिलारूपा गौतमस्य वधू स्थिता।
पादपङ्कज संस्पर्शाज्जाता मानुषरूपिणी॥१४॥

दृष्ट्वाऽहल्यां नमस्कृत्य तयासम्यक् प्रपूजितः।
पादाम्बुरजः स्पर्शासापि शापाद्विमोचिता॥१५॥

कि हे भगवन् मनुष्यों में श्रेष्ठ औ देवसुत तुल्य ये दोनों पुत्र किसके हैं और इस समय में नरनारायणकी नाईं मेरे मनमें ये दोनों प्रीति को उत्पन्न कर रहे हैं अर्थात् मेरे मनकी प्रीति से तौ यह निश्चय होता है कि ये साक्षात् नरनारायण ही हैं ९ ऐसे वचन जनकजी के सुनिकै विश्वामित्र मुनि बड़े प्रसन्न होकै जनक को हर्ष युक्त करते हुये वचन बोले कि हे राजन् ये दोनों भाई हैं परस्पर औराजा दशरथ के पुत्र हैं औ राम औ लक्ष्मण इनका नाम है १० औ मैं अपने यज्ञकी रक्षा केलिये इनके पिता के पुर से अपने आश्रम में प्राप्तकरता हुआ तहां आउतेही मार्ग में विश्वके मारनेवाली ताड़का नाम राक्षसी को ११ एकही बाणकरके बड़ा पराक्रमी जो राम है सो मेरी आज्ञा से मारता हुआ तिसके उपरान्त मेरे आश्रम में आयकर यज्ञके विघ्न करने वाला १२ जे सुबाहु आदि राक्षस तिनकोमार के रामचन्द्रजी मारीच को एक ही बाण से शतयोजन पै समुद्र में फेंकते हुये फिर गंगा तट में पुण्ययुक्त गौतमऋषि के आश्रम में जाकर १३ शिलारूप गौतम की स्त्री को अपने चरणरजसे मनुष्यरूप कर देते हुये १४ फिर अहल्या को देखके नमस्कार करते हुये फिर अहल्या ने बहुत प्रकार से पूजन किया और श्री राम उस को अपने चरण रजस्पर्श से पति के शाप से छुड़ाते हुये १५॥

इदानीं द्रष्टुकामस्ते गृहे माहेश्वरं धनुः।
पूजितं राजभिस्सर्वैर्दृष्टमित्यनुशुश्रुम॥१६॥

अतोदर्शय राजेन्द्र शैवं चापमनुत्तमम्।
दृष्ट्वायोध्यां जिगमिषुः पितरं द्रष्टुमिच्छति॥१७॥

इत्युक्तामुनिना राजा पूजार्हाविति पू

जया।
पूजयामास धर्मज्ञोविधिदृष्टेन कर्मणा॥१८॥

ततः संप्रेषयामास मन्त्रिणं बुद्धिमत्तरम्।

॥जनक उवाच॥

शीघ्रमानय विश्वेशचापं रामाय दर्शय॥१९॥

ततो गते मन्त्रिवरे राजा कौशिकमब्रवीत्।
यदि रामो धनर्धृत्वा कोट्यामारोपयेद्गुणम्॥२०॥

तदा मयात्मजा सीता दीयते राघवाय हि।
तथेति कौशिकः प्राह रामं संवीक्ष्य सस्मितम्॥२१॥

शीघ्रं दर्शयचापाग्र्यंरामायामिततेजसे।
एवं ब्रुवतिमौनीश आगताश्चापवाहकाः॥२२॥

अब इस समय में जो आपके घर महादेवजी का धनुष है तिसको देखा चाहते हैं और सबराजाओं ने भी उस धनुष को देखा और उसका पूजन किया है ऐसा हम सुनते हैं १६ इससे हे राजेन्द्र वह महादेवजी का धनुष रामको भी दिखलाइये फिर उस धनुषको देखिकै अपने पिता के देखने को ये अयोध्याको जाया चाहते हैं १७ ऐसे जब मुनिने वचन कहे तौ राजा जनक पूजा करने के योग्य दोनों राजकुमारों को देखिकै शास्त्र की विधिले उनका प्रीतिपूर्वक पूजन करते हुये १८ तिसके अनन्तर बड़े बुद्धिमान् मन्त्री को भेजते हुये औ उससे यह कहा कि वह जो महादेव जी का धनुष है तिसको शीघ्र ही ल्याकर राम को दिख लावो १९तब वह मन्त्री तौ धनुष लेने को गया औ राजा जनक विश्वामित्रजी से कहते हुये कि जो कदाचित् राम ही धनुषको चढ़ायलेवैं२० तौ मेरी कन्या सीतारामके अर्थ दिईजावै तब विश्वामित्र मुनि रामको देखके मन्द मुसक्यान करते हुये जनक से बोले कि जैसे आप कहते हौ तै साही होगा २१ परन्तु वह श्रेष्ठ धनुष अमित है तेज जिनका ऐसे जो राम तिनको शीघ्र ही दिखलाइये ऐसे वचन जब विश्वामित्र कहते थे तब तक राजाके मनुष्य धनुष को लेकै आते हुये २२॥

चापं गृहीत्वा बलिनः पंच साहस्रसंख्यकाः।

घंटाशतसमायुक्तंमणिवस्त्रैर्विभूषितम्॥२३॥

दर्शयामासरामायमन्त्रीमन्त्रवतां वरः।
दृष्ट्वा रामः प्रहृष्टात्मावध्वापरिकरंदृढम्॥२४॥

गृहीत्वावामहस्तेनलीलयातोलयन्धनुः।
आरोपयामासगुणं पश्यत्स्वखिलराजसु॥२५॥

ईर्षदाकर्षया मास पाणिना दक्षिणेनसः।
वभंजाखिलहृत्सारोदिशः शब्देन पूरयन्॥२६॥

दिशश्च विदिशश्चैव स्वर्गं मर्त्त्यंरसातलम्।
तदद्भुतमभूत्तत्र देवानां दिवि पश्यताम्॥२७॥

आच्छादयंतः कुसुमैर्देवाः स्तुतिभिरीडिरे।
देवादुंदुभयोनेदुर्ननृतुश्चाप्सरोगणाः॥२८॥

द्विधाभग्नं धनुर्दृष्ट्वा राजालिंग्य रघूद्वहं।
विस्मयंलेभिरे सीतामातरोन्तः पुराजिरे॥२९॥

सीता स्वर्णमयींमालां गृहीत्वा दक्षिणेकरे।
स्मितवक्त्रास्वर्णवर्णा सर्वाभरणभूषिता॥३०॥

वे धनुष के ले आनेवाले मनुष्य पांच हजार थे और वह धनुष सैकड़ों घंटाओं करके युक्त औ मणि वस्त्रों करके भूषित था २३ तब मन्त्रियों में श्रेष्ठ जो मंत्री सो रामचन्द्र को उस धनुष को दिखलाता हुआ औ रामचन्द्रजी उस धनुष को देख के बड़े प्रसन्न होके औ अपनी फेंट दृढ बांधके २४ लीला ही करके बायें हाथ से उस धनुष को उठाकर औ तौलकर सब राजों के देखतेई देखते धनुष को चढ़ा लेते हुये २५ फिर सबके हृदय को जाननेवाले जो श्रीरामचन्द्र सो दक्षिण हस्त से थोड़ा ही खैंचकर दिशाओं को शब्दसे पूर्ण करते हुये धनुष को बीच से तोड़ डालते हुये २६ औ स्वर्ग में देवताओं के देखते ही देखते दिशा औौ विदिशा औ स्वर्ग और मनुष्यलोक औ पाताललोक इन सबों को शब्दसे पूर्ण करते हुये जो धनुषटूटा सो बड़ा आश्चर्य्यहोता हुआ २७ औउस समय में देवता लोग पुष्पों करके वहां की पृथिवी को आच्छादन करते हुये वेदों के मन्त्रों करके श्रीरामचन्द्रजी की स्तुति करते हुये औ देवताओं के नगाड़े बजने लगे औ अप्सरा नृत्य करती हुई २८ औ दो खण्ड धनुष के देखके जनकजी राम को हृदय से आलिंगन करते हुये औ रानी आश्चर्य को प्राप्त हुई२९अब तिसके उपरान्त सीताजी दाहिने हाथ में सुवर्णकी माला को ग्रहण कर मन्द मुसुकान युक्त है मुखारबिन्द जिनका औसुवर्णतुल्य है गौर वर्ण जिनका औ संपूर्ण आभूषणों करके भूषित ३०॥

मुक्ताहारैः कर्णपत्रैः क्वण्च्चलितनूपुरा।

दुकूलपरिसंवीतावस्त्रान्तर्व्यंजितस्तनी॥३१॥

रामस्योरसिनिक्षिप्यस्मयमानामुदंययौ।
ततो मुमुदिरेसर्वे राजदाराः स्वलंकृताः।

गवाक्ष जालरन्ध्रेभ्योदृष्ट्वा लोकविमोहनं॥३२॥

ततोब्रवीन्मुनिंराजा सर्वशास्त्रविशारदः।
भोकौशिकमुनिश्रेष्ठपत्रं प्रेषयसत्वरं॥३३॥

राजा दशरथः शीघ्र मागच्छतुसपुत्रकः।
विवाहार्थं कुमाराणां स दारः सहमंत्रिभिः।
तथेतिप्रेषयामास दूतांस्त्वरितविक्रमान्॥३४॥

ते गत्वा राजशार्द्दूलं राम श्रेयोन्यवेदयन्।
श्रुत्वा रामकृतं राजा हर्षेण महताप्लुतः॥३५॥

मिथिलागमनार्थाय त्वरयामास मंत्रिणः।
गच्छन्तु मिथिलां सर्वे गजाश्व रथपत्तयः॥३६॥

रथमानयमे शीघ्रं गच्छाम्यद्यैवमाचिरं।
वशिष्ठस्त्वग्रतोयातु सदारः सहितोग्निभिः॥३७॥

औ मोतियों के हार जिनके गले में पड़े और जड़ाऊ कर्ण फूल पात बाली आदि आभूषणों को कानों में धारण किये औ शब्दयुक्त कंपित हो रहे हैं चरणों में नूपुरजिनके औ नवीन वस्त्रों को धारण करे और वस्त्रों के मध्य में प्रकट हो रहे हैं स्तन जिनके ऐसी जो सीता हैं सो रामचन्द्रजी के गले में मालाको पहिराकें मन्द

मुसुकान करती परम आनंद को प्राप्त होती हुईं ३१ तिसके उपरांत सुंदर अलंकृत राजा जनक की रानियां झरोखों के छिद्र द्वारा लोकविमोहन श्रीराम के स्वरूप को देखके बड़ी आनंद युक्त होती हुईं ३२ फिर तिसके अनंतर राजा जनक सबशास्त्रों में प्रवीण जो विश्वामित्रजी तिनसे कहते हुये कि हे मुनिश्रेष्ठ हे कौशिक आप शीघ्र ही राजा दशरथ के पास पत्र भेजिये ३३जिससे पुत्रों करके सहित औ रानियों करके सहित औ मंत्रिवर्ग सहित राजा दशरथ अपने लड़कों के विवाह करने के लिये बरात सहित शीघ्र ही आवें इस प्रकार विश्वामित्रजी की सम्मति से राजा जनकजी बड़े चलनेवाले दूतों को शीघ्र भेजते हुये ३४ ते दूत अयोध्या को जाते, ये फिर विश्वामित्र जनक के पत्र द्वारा राजा दशरथ से राम की कुशल कहते भये ३५ तब राजा दशरथ राम की कुशल सुनिकै औरामजी ने जो चरित मार्ग में किया और जो जनकपुर में धनुषभंग आदिक में किया तिसको विश्वामित्र औ जनक इनके पत्र के द्वारा और दूतों के मुख से सुनकर बड़े आनन्द सेयुक्त होके मिथिला नगरी के यात्रा के लिये मन्त्रियों को आज्ञा देते हुये जिस में शीघ्र यात्रा होय और यह कहते हुये कि हाथी औ घोड़े औरथ औ पैदर यह सब सेना मिथिला नगरी को चलै३६ औ मेरे रथ को शीघ्र ही लावो विलम्ब न करो क्योंकि अभी हम चलैंगे और अब वशिष्ठजी गुरु अपने स्त्रियों कर सहित औ अग्निसहित ३७॥

राममातॄःसमादायमुनिर्मे भगवान्गुरुः।
एवंप्रस्थाप्य सकलं राजर्षिर्विपुलं रथम्॥३८॥

महत्या सेनया सार्द्धमारुह्य त्वरितो ययौ।
आगतं राघवं श्रुत्वा राजा हर्ष समाकुलः॥३९॥

प्रत्युज्जगाम जनकः शतानन्द पुरोधसा।
यथोक्तपूजय पूज्यं पूजयामास सत्कृतम्॥४०॥

रामस्तु लक्ष्मणेनाशुववन्दे चरणौ पितुः।

ततो हृष्टो दशरथो रामं वचनमब्रवी

त्॥४१॥

दिष्ट्यापश्यामि ते राममुखम्फुल्लाम्बुजोपमम्।
मुनेरनुग्रहात्सर्वं सम्पन्नं मम शोभनम्॥४२॥

इत्युक्त्वाघ्राय मूर्द्धानमालिंग्य च पुनः पुनः।
हर्षेण महताविष्टो ब्रह्मानंदं गतो यथा॥४३॥

ततो जनकराजेन मंदिरे सन्निवेशितः।
शोभनेसर्वभोगाढ्येसदारः ससुतः सुखी॥४४॥

औ रामकी माताओं को संग लैकै अगाड़ी चलैंइस प्रकार राजर्षि राजा दशरथ सब को यात्रा कराके आप अपने श्रेष्ठरथ पै सवार हो ३८ बड़ी भारी सेनासहित शीघ्रही मिथिलानगरी को जाते हुये फिर आये हुये राजा दशरथ को सुनिके बड़े आनन्दयुक्त ३९ राजा जनक अपने पुरोहित शतानन्द को संग लैकै राजादशरथजी को अगाड़ी से ही मिलने को आते हुये फिर जैसे शास्त्र में लिखा है तैसे राजा

दशरथ का पूजन करते भये ४० और रामचन्द्रजी तो लक्ष्मण सहित शीघ्र ही पिता के चरणारबिन्दों को प्रणाम करते हुये तब राजादशथप्रसन्न हो राम से वचन बोलते हुये ४१हे राम जो मैं प्रफुल्लित कमल के तुल्य तुम्हारे मुख को देखता हूं यह बड़े आनन्द की वार्त्ताहै और मुनि के अनुग्रह से मेरे सब मंगल सिद्ध हुये ४२ यह कहिकै राम के शिर को सूंघिकै और बारंबार आलिंगन कर ऐसे आनन्दित होते हुये जैसे कोई ब्रह्मानन्द को प्राप्त होय ४३ सो राजाजनकजी सब भोगों की सामग्रियों करके युक्त औ बड़े शोभायमान मन्दिर में शुभ मुहूर्त में स्त्री पुत्र सहित राजा दशरथजी को ठहराते हुये ४४॥

ततः शुभे दिने लग्ने सुमुहूर्त्तेरघूत्तमम्।
आनयामास धर्म्मज्ञोरामं सभ्रातृकं तदा॥४५॥

रत्नस्तंभ सुविस्तारेसुवितानेसुतोरणे।
मण्डपे सर्वशोभाढ्ये मुक्तापुष्पफलान्विते॥४६॥

वेदविद्भिः सुसंवाधे ब्राह्मणैः स्वर्णभूषितैः।
सुवासिनीभिः परितोनिष्ककंठीभिरावृते॥४७॥

भेरीदुन्दुभिनिर्घोषैर्गीतनृत्यैः समाकुले।
दिव्यरत्नाञ्चिते स्वर्णपीठे रामं न्यवेशयत्॥४८॥

वशिष्ठंकौशिकंचैव शतानन्दः पुरोहितः।
यथाक्रमं पूजयित्वारामस्योभयपार्श्वयोः॥४९॥

स्थापयित्वा स तत्राग्निं ज्वालयित्वा यथाविधि।
सीतामानीय शोभाढ्यां नानारत्नविभूषिताम्॥५०॥

सभार्योजनकः प्रायाद्रामंराजीवलोचनम्।
पादौ प्रक्षाल्यविधिवत्तदपो मूर्ध्न्यधारयत्॥५१॥

तिसके उपरान्त अच्छे दिन शुभ मुहूर्त में भाइयों के सहित श्रीरामचन्द्रजी को बड़े धर्मके जाननेवाले जनकजी अपने घर बुलाते भये ४५ फिर रत्न जटितखम्भोंकरके जिसका बड़ा विस्तार हो रहा है औसुंदर चंदो वा जिस में बँध रहा है औबंदनवारी जिस के चारों तरफ लटक रही हैं औ संपूर्ण शोभा युक्त बनाया गया है मोतियों की लड़ी जिसमें लटक रही हैं औ सोने चांदीके पुष्पों से शोभित हो रहा है ४६ औ सुवर्ण के आभूषणों कर के भूषित वेद के जाननेवाले ब्राह्मणों करके शोभित हो रहा है औ नाना प्रकार के आभूषणों से भूषित और कंठ में निष्क आभरण भूषित ऐसी सौभाग्यवती स्त्रियों करके वह शोभित हो रहा है ४७ औ मेरी दुंदुभी आदि मंगलके बाजे जिस में बज रहे हैं औ गान हो रहा है नाचनेवाले तहां नृत्यकर रहे हैं ऐसे मंडफके मध्य में रत्नों करके जटित सुवर्ण के आसन पै श्रीरामचंद्रजी को राजा जनक विठालते हुये ४८ फिर जनकजी के पुरोहित शतानन्दजी वशिष्ठ और विश्वामित्रजी को यथोचित क्रमसे पूजन करके रामचन्द्रजी के दोनों तरफ बिठालते हुये ४९ फिर शतानंदजी विधि पूर्वक अग्निका स्थापन कर और प्रज्वलितकरके मोती औ रत्नों

करके भूषित शोभायुक्त सीताजी को बुला के रामके संमुख बिठालते भये फिर रानी करके सहित राजा जनक राजीव लोचन जो श्रीरामचंद्र तिनके समीप आकर रामके चरणकमल धोके वह जल अपने शिरके ऊपर धारते हुये ५०।५१॥

या धृतामूर्ध्निशर्वेण ब्रह्मणामुनिभिः सदा।
ततः सीतां करेधृत्वासा क्षतोदकपूर्वकम्॥५२॥

रामाय प्रददौ प्रीत्या पाणिग्रहविधानतः।
सीताकमलपत्राक्षी स्वर्णमुक्तादि भूषिता॥५३॥

दीयते मे सुता तुभ्यं प्रीतोभव रघूत्तम।
इति प्रीतेन मनसा सीतां रामकरेऽर्पयन्॥५४॥

मुमोदजनकोलक्ष्मीं क्षीराब्धिरिव विष्णवे।
ऊर्मिलां चौरसीं कन्यां लक्ष्मणाय ददौ मुदा॥५५॥

तथैव श्रुतिकीर्त्तिञ्च मांडवी भ्रातृकन्यके।
भरताय ददावेकां शत्रुघ्नायापरां ददौ॥५६॥

चत्वारोदारसंपन्नाभ्रातरः शुभलक्षणाः ।
विरेजुः प्रभया सर्वे लोकपाला इवापरे॥५७॥

ततोब्रवीद्वशिष्ठाय विश्वामित्राय मैथिलः।
जनकःस्वसुतोदन्तं नारदेनाभिभाषितम्॥५८॥

जो रामचन्द्रजी के चरणों को जल गंगारूप पहिले महादेवजी ने और ब्रह्माजी ने मुनीश्वरों ने अपने शिरके ऊपर धारण किया है वही जलको रानी सहित राजा जनक अपने शिर के ऊपर धारणकरते हुये तिसके अनन्तर रानी सहित राजा जनकजी सीताजी का हाथ अपने हाथ के ऊपर धरिकै कुश अक्षत जल सहित ५२ शास्त्रोक्त पाणिग्रहण की विधि पूर्वक प्रीति से रामचन्द्र के अर्थ देते हुये और यह वचन कहते भये कि हे रघूत्तम कमलपत्र के तुल्य विशाल हैं नेत्र जिनके औ सुवर्ण रत्नों करके भूषित ऐसी सीता नाम कन्या भार्यात्वरूप धर्म करके आपके अर्थ दी जाती है इस करके आप प्रसन्न हू जिये यह कहिकै राजा जनक प्रीति युक्त मनसे सीताजी को रामचन्द्र के हस्त कमल में अर्पण करते हुये ५३।५४ जैसे क्षीरसागर लक्ष्मी को विष्णु के अर्थ अर्पणकर आनन्दको प्राप्त हुआ तैसेई राजाजनक भी सीताजी को रामके अर्थ देके प्रसन्न होता हुआ अब इसी विधि से राजा जनक ऊर्मिला नाम करके जो अपनी औरस कन्या थी तिसको लक्ष्मणजी के अर्थ देते भये ५५ औतिसी प्रकार से श्रुतिकीर्ति औ मांडवी जे दो कन्या जनक के भाई कुशध्वजकी थीं तिनमें से मांडवी को भरतजी के अर्थ देते हुये औ श्रुतिकीर्ति को शत्रुघ्नजी के अर्थ देते भये ५६ अब शुभ लक्षण चिह्न जिन्हों के ऐसे स्त्रियों करके युक्त चारों भाई रामादि अपनी कांति करके अत्यंत शोभित हुयें मानों इन्द्र आदि चारों लोकपाल शोभित हैं ५७ तिस के उपरांत राजा जनक नारदजी का कहा हुआ अपनी कन्या सीताजी का वृत्तांत वशिष्ठ और विश्वामित्र से कहते भये ५८॥

यज्ञभूमिविशुद्ध्यर्थं कर्षतोलांगले नमे।
सीता मुखात्समुत्पन्नाकन्यका शुभलक्षणा॥५९॥

तामद्राक्षमहं प्रीत्या पुत्रिकाभावभावितां।
अर्पिता प्रियभार्यायैशरच्चन्द्रनिभानना॥६०॥

एकदानारदोभ्यागाद्विविक्तेमयिसंस्थिते।
रणयन्महतीवीणांगायन्नारायणं विभुम्॥६१॥

पूजितः सुखमासीनोमामुवाच सुखान्वितः।
शृणुष्ववचनं गुह्यतवाभ्युदयकारणम्॥६२॥

परमात्माहृषीकेशो भक्तानुग्रहकाम्यया।
देवकार्यार्थसिद्ध्यर्थं रावणस्य वधाय च॥६३॥

जातो राम इति ख्यातो माया मानुषवेषधृक्।
आस्ते दाशरथिर्भूत्वाचतुर्धा परमेश्वरः॥६४॥

योगमायापि सीतेतिजातावैतववेश्मनि।
अतस्त्वं राघवायैव देहि सीतां प्रयत्नतः॥६५॥

हे मुनीश्वरो एक समय सोने के हल से यज्ञभूमि के शुद्धि के लिये मैं पृथ्वी को जोतता था उस समय में हल के अग्रभाग से जो पृथ्वी में छिद्र हुआ तिस ते शुभ लक्षणयुक्त एककन्या उत्पन्न हुई उसका नाम सीता होता हुआ क्यों कि हल के अग्र भाग का नाम सीता है उस के व्यापार से वह उत्पन्न हुई इस से उनका नाम भी सीता हुआ ५९ उस कन्या को पुत्री के भाव से मैं प्रीति से देखता हुआ फिर शरद्ऋतु चंद्रतुल्य है मुख जिसका ऐसी सीता रूप कन्या को अपनी रानी को मैंने अर्पण किया ६० फिर एक समय में एकांत देश में बैठा था उसी समय वीणा को बजाते हुये और नारायण का ध्यान करते हुये नारदजी मेरे समीप आये ६१ मैंने उनका यथोचित पूजन किया और आसन पै बिठाला फिर वे सुखपूर्वक स्थित हो के मुझ से कहने लगे कि हे राजन् तुम्हारे कल्याण का कारण एक गुप्त वचन हम कहते हैं सो सुनिये ६२ जो सबकी इंद्रियों का प्रवृत्ति करानेवाला परमात्मा है वो ही भक्तों के अनुग्रह की इच्छा करके और देवकार्य्य के सिद्धि के अर्थ रावण वध केलिये ६३ राम नामकर प्रसिद्ध माया ही से मनुष्य वेष को धारण किये प्रकट हुआ है सो परमेश्वर, चारिरूप से दशरथ के पुत्र होकैइस समय में अयोध्या में वासकर रहे हैं ६४ उनकी योगमाया शक्ति आपके गृह में सीता प्रकट हुई हैं इससेउनको आप यत्नकर राम ही के अर्थ दीजिये ६५॥

नान्यस्य पूर्व भार्यैषा रामस्य परमात्मनः।
इत्युक्त्वाप्रययौ देवगतिं देवमुनिस्तदा॥६६॥

तदारभ्य मया सीता विष्णोर्लक्ष्मीर्विभाव्यते।
कथं मया राघवाय दीयते जानकी शुभा॥६७॥

इति चिन्तासमाविष्टः कार्यमेकमचिन्तयम्।
मत्पितामहगेहेषुन्यासभूतमिदं धनुः॥६८॥

ईश्वरेणपुराक्षिप्तं पुरदाहादनन्तरं।
धनुरेतत्पणं कार्यमिति चिंत्य कृतं तथा॥६९॥

सी

ता पाणिग्रहार्थाय सर्वेषां मान नाशनं।

त्वत्प्रसादान्मुनिश्रेष्ठरामोराजीवलोचनः॥७०॥

आगतोत्रधनुर्द्रष्टुं फलितोमे मनोरथः।
अद्य मे सफलं जन्मरामत्वां सह सीतया॥७१॥

एकासनस्थं पश्यामि भ्राजमानं रविंयथा।
त्वत्पादाम्बुधरो ब्रह्मासृष्टिचक्र प्रवर्तकः॥७२॥

क्योंकि सिवाय परमात्मा राम के यह सीता किसी की कभी भार्या नहीं भई इस से राम ही के अर्थ इसको देना चाहिये यह वचन कहि नारदजी आकाशमार्ग से देवलोक को जाते भये ६६ तब से लेकर के मैंने ऐसी प्रीति की कि सीता साक्षात् विष्णु की लक्ष्मी हैं और किस प्रकार से यह सीता राम ही के अर्थ दी जायँ ६७ इस चिन्ता में मग्न होके मैं यह कार्य चिन्तन करता हुआ कि मेरे पितामह के यहां त्रिपुरदैत्यको मारिकै महादेवजी ने अपना धनुष धरोहरकी तरह स्थापन किया है इससे इस धनुष को जो कोई चढ़ावैउसको अपनी कन्या देउँगा ऐसा प्रण राजों के मान भंग के लिये मैंने किया और यह भी जानता था सिवाय परमेश्वर के और कोई महादेवजी के धनुषको न चढ़ाय सकैगा सो हे मुनिश्रेष्ठ आपके अनुग्रह से कमल तुल्य विशालनेत्र ६८।६९।७० श्रीरामचन्द्र धनुष के देखने को यहां आये इस से मेरा मनोरथपूर्ण भया इतना वृत्तांत जनकजी विश्वामित्र और वशिष्ठ से कहिके अब राम से कहने लगे कि हे राम जो मैं सूर्य की तरह प्रकाशमान एक आसन पै सीता सहित तुम को स्थित देख रहा हो इस से मेरा जन्म आज सफल हुआ और आपके चरणके जल को कमंडलु में धारण करनेवाला ब्रह्मा संपूर्ण सृष्टि को कर रहा है ७१।७२॥

बलिस्तत्पादसलिलं धृत्वा भूद्दिविजाधिपः।
त्वत्पादपां सुसंस्पर्शादहल्या भर्तृशापतः॥७३॥

सद्य एव विनिर्मुक्ता कोन्यस्त्वत्तोधिरक्षिता॥७४॥

यत्पादपङ्कजपरागसुरागयोगिवृंदैर्जितं भवभयं जितकालचकैः।
यन्नामकीर्त्तनपराजित दुःखशोका देवास्तमेव शरणं सततं प्रपद्ये॥७५॥

इतिस्तुत्वान्नृपः प्रादाद्राघवाय महात्मने।
दीनाराणां कोटिशतं रथानामयुतं तथा॥७६॥

अश्वानां नियुतं प्रादाद्गजानां षट्शतं तथा।
पत्तीनां लक्ष्यमेकं तु दासीनां त्रिशतं ददौ॥७७॥

दिव्यांबराणि हारांश्च मुक्तारत्नमयोज्ज्वलान्।
सीतायै जनकः प्रादात्प्रीत्यादुहितृवत्सलः॥७८॥

वशिष्ठादीन् सुसंपूज्य भरतं लक्ष्मणं तथा।
पूजयित्वा यथा न्यायं तथा दशरथं नृपम्॥७९॥

और राजावलि आपके चरण के जलको अपने शिरपै धारण करे सब देवतों का

स्वामी होता भया और आपके चरणारविंद की रज के स्पर्श करने से अहल्या शीघ्र ही पति के शाप से छूट जाती हुई इससे आपके सिवाय अन्य कौन रक्षक है ७३।७४ औ जिस आपके चरणारविंद के पराग में शोभित है राम प्रीति जिन्हों की और इसी से जीती है काल की आज्ञा जिन्हों ने ऐसे योगियों के समूहने संसारभय जीत लिया है और जिस आपके नामकीर्त्तन में परायण भक्तजन दुःख शोक को जीति कै देवभावको प्राप्त होते हैं तिस आपके शरण निरन्तर मैं प्राप्त हौं ७५ इसप्रकार राजा जनक रामचंद्र की स्तुति करके सौ करोड़ अशरफी देते हुये औदश हजार रथ देते हुये ७६ औ एक लाख घोड़े देते हुये औछः से हाथी देते हुये औ एक लाख प्यादे देते हुये औ तीन सैदासी देते हुये ७७ औ कन्या है प्रिय जिन को ऐसे जो राजा जनक सो दिव्य नाम देवनिर्मित बहुत से वस्त्र रत्न जटित मोतियों के हार सीताजी के अर्थ प्रीति करके देते भये ७८ फिर वशिष्ठ आदि जो ऋषीश्वर तिनका विधिपूर्वक पूजन कर फिर भरत लक्ष्मण शत्रुघ्न इनका विधिपूर्वक पूजनकर राजा दशरथ का यथोचित पूजन किया ७९॥

प्रस्थापयामास नृपोराजानं रघुसत्तमं।
सीतामालिंग्य रुदतीं मातरः साश्रुलोचनाः॥८०॥

श्वश्रुशुश्रूषणपरा नित्यं राममनुव्रता।
पातिव्रत्यमुपालं व्यतिष्ठवत्से यथासुखं॥८१॥

प्रयाणकाले रघुनंदनस्य भेरीमृदंगानक तूर्यघोषः।
स्वर्ल्लोक भेरीघन तूर्यशब्दैः संमूर्च्छितो भूतभयंकरोभूत्॥८२॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे बालकाण्डे षष्ठः सर्गः॥६॥

फिर अयोध्या की यात्रा कराते हुये फिर आंशुओं करके परिपूर्ण हैं नेत्र जिन्हों के ऐसी जो सीताजी की माता हैं ते रोती हुई सीता को आलिंगन करके यह वचन कहती भई ८० कि हे सीते अपनी सासुकी शुश्रूषा में तत्पर रहना औ पातिव्रत्यधर्म का आश्रयणकर रामजी के निरंतर अनुकूल रहना औ हे वत्से सुखपूर्वक पति की आज्ञा में स्थित हू जियो ८१ जिस समय में राजा दशरथ ने अयोध्या नगरी के जाने की यात्रा की उस समय में भेरी और मृदंग औ नगाड़े इनका शब्द देवतों के बजाये हुये भेरी आदि बाजों के शब्द से मिला हुआ बड़ा भारी शब्द सब प्राणियों के भय का देनेवाला होता भया यहां कबि के भयंकर शब्द के लिखने से परशुरामजी आनेवाले हैं इससे आगामि भय के करनेवाला उत्पात सूचनाकिया८२॥

इत्यध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे बालकांडे टीकायां षष्ठस्सर्गः॥६॥

॥श्रीमहादेव उवाच॥

अथ गच्छति श्रीरामे मैथिलाद्योजनत्रयं।
निमित्तान्यतिघोराणि ददर्श नृपसत्तमः॥१॥

नत्वा वशिष्ठंपप्रच्छ किमिदं मु

निपुंगव।

निमित्तानीहदृश्यंते विषमाणि समं ततः॥२॥

वशिष्ठस्तमथाप्राहभयमागामि सूच्यते।
पुनरप्यभयं तेद्य शीघ्रमेव भविष्यति॥३॥

मृगाः प्रदक्षिणं यान्ति पश्य त्वां शुभसूचकाः।
इत्येवं वदतस्तस्य ववौ घोरतरोनिलः॥४॥

मुष्णंश्चक्षूंषि सर्वेषां पांशुवृष्टिभिरार्दयन्।
ततोब्रजन्ददर्शाग्रतेजोराशिमुपस्थितम्॥५॥

कोटिसूर्यप्रतीकाशं विद्युत्पुञ्जसमप्रभम्।
तेजोराशिं ददर्शाथजामदग्न्यं प्रतापवान्॥६॥

नीलमेघनिभंप्रांशुंजटामण्डलमण्डितम्।
धनुः परशुपाणिं च साक्षात्कालमिवान्तकम्॥७॥

दोहा॥

जामदग्न्यबलगञ्जि पथि गृहपहुँचे भगवान।
मातुलपुर सप्तमगये सानुज भरत सुजान॥७॥

अब श्री महादेवजी पार्वती से कहते हुये कि हे पार्वति इसके अनन्तर श्रीरामजी चलते भये जब मिथिलानगरी से तीन योजन पर पहुँचे तब राजा दशरथ बड़े घोर असगुन देखके १ वशिष्ठजी को नमस्कार करके पूछते हुये कि हे मुनिश्रेष्ठ ये चारों तरफ से भयसूचक निमित्त दिखलाई पड़ते हैं सो क्या कारण है २ तब वशिष्ठजी दशरथ से कहते हुये कि हे राजन् इन उत्पातों से आनेवाली भय सूचित होती है औ फिर शीघ्रही तुम्हारी भय की निवृत्ति भी हो जायगी ३ क्यों कि जिससे मृग तुम्हारे दहिने तरफ जा रहे हैं इससे वे शुभको कहि रहे हैं ऐसा वचन वशिष्ठ कहतेईथे तब तक बड़ा घोर पवन चलता हुआ ४फिर वह पवनधूलियों की वृष्टिकरके सब प्राणियों के नेत्रों को चुसता हुआ अर्थात् अंधाकरताहुआ सबको पीड़ित करता भया फिर तिसके आगे चलके एक तेज की राशिदिखाई पड़ती भई ५ फिर उस तेज की राशि में अनेक सूर्यों का सा प्रकाश जिनका औ बिजुलियों के समूह के तुल्य है कांति जिनकी ऐसे जो जमदग्नि के पुत्र परशुरामजी तिनको राजा दशरथ देखते भये ६ कैसे परशुरामजी हैं कि नील मेघ तुल्य जिनकी कांति औ लम्बायमान जिनका शरीर है औ जटाओं के समूह करके शोभित हैं औ धनुष औ कुठार जिनके हाथ में है औ नाश करनेवाला साक्षात्काल ही मानो मूर्त्तिधारण किये होय ७॥

कार्तवीर्यान्तकं रामं दृप्त क्षत्रियमर्दनम्।
प्राप्तं दशरथस्याग्रेकालमृत्युमिवापरम्॥८॥

तं दृष्ट्वा भयसंत्रस्तोराजा दशरथस्तदा।
यदि पूजां विस्मृत्य त्राहि त्राहीति चाब्रवीत्॥९॥

दण्डवत्प्रणिपत्याहपुत्रप्राणान्प्रयच्छ मे।
इति ब्रुवन्तं राजानमनादृत्य रघूत्तमम्॥१०॥

उवाच निष्ठुरं वाक्यं क्रोधात्प्रचलितेन्द्रियः।
त्वं राम इति नाम्नामेचरसिक्षत्रियाध

म॥११॥

द्वंद्वयुद्धं प्रयच्छाशुयदित्वं क्षत्रियोसिवै।
पुराणं जर्जरं चापं भंक्त्वा त्वं कत्थसेमुधा॥१२॥

अस्मिं स्तु वैष्णवे चापे आरोपयसि चेद्गुणम्।
तदा युद्धं त्वया सार्द्धं करोमि रघुनन्दन॥१३॥

नोचेत्सर्वान्हनिष्यामिक्षत्रियान्तकरोह्यहम्।
इति ब्रुवति वै तस्मिन् चचाल वसुधा भृशम्॥१४॥

औ कार्तवीर्य के नाश करनेवाले औ गर्विष्ठ जो क्षत्री तिनके मर्दन करनेवाले हैं औराजादशरथ के अगाड़ी मानो दूसरा काल मृत्यु ही आके प्राप्त होय ऐसे खड़े हैं ८ तब राजा दशरथ ऐसे भयंकर रूप परशुरामजी को देखके अर्ध्यादि पूजाको तो भूल गये औ त्राहि त्राहि ये वचन कहते हुये बड़े भय भीत होके ९ औ दण्डवत्प्रणाम करिके यह कहने लगे कि हे मुने मेरे पुत्र प्राणों को कृपा करिकै दीजिये ऐसे वचन कहते हुये जो राजा दशरथ तिनको अनादर करिकै अर्थात् दशरथ के तरफ देखते भी न हुये १० औ क्रोध से चलायमान हो रही है इन्द्रिय जिनकी ऐसे परशुरामजी रामचन्द्रही से कठोर वचन बोलते हुये कि हे क्षत्रियाधम तू राम ऐसे मेरे नाम से विचर रहा है ११ जो तू क्षत्रिय हो तो शीघ्रही मुझ को द्वन्द्वयुद्ध दे औ पुराना औ जीर्ण धनुष को तोड़ कै तू वृथा ही अपने को बहुत मान रहा है १२ और यह मेरे पास एक वैष्णव धनुष है तिस में जो तू कदाचित् रोदेको चढ़ालेवे तौहे रघुवंशज तेरे साथ मैंयुद्ध करौंगा १३ और जो इस वैष्णव धनुष को न चढ़ासकै तौ जितने तुम क्षत्रिय आये हो तिनको सबको मैं मार डालौंगा क्योंकि क्षत्रियों का नाश करनेवाला मैंप्रसिद्ध ही हों जब ऐसे वचन परशुरामजी ने कहे तबपृथ्वी कांपने लगी १४॥

अन्धकारो बभूवाथ सर्वेषामहि चक्षुषाम्।
रामो दाशरथिर्वीरोवीक्ष्यतं भार्गवंरुषा॥१५॥

धनराच्छिद्यतद्धस्तादारोप्यगुणमञ्जसा।
तूणीराद्बाणमादाय सन्धायाकृष्यवीर्य्यवान्॥१६॥

उवाच भार्गवं रामं शृणुब्रह्मन्वचोमम।
लक्ष्यं दर्शय बाणस्यह्यमोघो मम शायकः॥१७॥

लोकात्पादयुगं वापिवदशीघ्रम्ममाज्ञया।
अयं लोकः परोवाथत्वयागन्तुं न शक्यते॥१८॥

एवं हि त्वं प्रकर्त्तव्यं वद शीघ्रम्ममाज्ञया।
एवं वदति श्रीरामे भार्गवो विकृताननः॥१९॥

संस्मरन् पूर्ववृत्तान्तमिदं वचनमब्रवीत्।
रामराममहाबाहो जाने त्वां परमेश्वरम्॥२०॥

पुराणं पुरुषं विष्णुं जगत्सर्गलयोद्भवम्।
बाल्येहंतपसाविष्णुमाराधयितुमञ्जसा॥२१॥

और सब के नेत्रों के आगे अंधकार हो जाता हुआ तौउस समय में वीर जो दशरथ के पुत्र श्रीरामचन्द्र सो क्रोध करके परशुराम को देखिकरि १५ परशु-

राम के हाथ से उस वैष्णव धनुष को छीनके शीघ्र ही चढ़ाइकै और तरकस से निकालकर अमोघबाणों को उस धनुष में संधानकर धनुष को खींचके १६ परशुराम से बोलते हुये कि हे ब्रह्मन् मेरा वचन सुनो औमेरे बाण का निशाना दिखलाओ क्योंकि यह मेरा बाण अमोघ है १७ और इस बाणके दो ही निशाने हैं कि तो तुम्हारे पुण्यके जीते हुये जितने लोक हैं तिनको मैं इस बाणसे नाश करूं कि तो तुम्हारी चलने की गति का नाश करता हूं जिस से कहीं जा न सको क्यों कि अब तुम्हारे दोनों लोक मेरे बाण के आधीन हैं इस से शीघ्र बताइये कौन से लोक का नाश करों ऐसा जब रामचन्द्रजी ने कहा तो परशुराम का मुख सूख जाता हुआ अर्थात् परशुरामका तेज सब नष्ट हो गया १८।१९ और परशुराम पहिले वृत्तान्त को स्मरणकर श्रीरामजी से यह वचन बोलते हुये कि हे राम हे महाबाहो मैं ने अब जाना आप साक्षात् पुराण पुरुष विष्णु भगवान् परमेश्वर हैं औ संपूर्ण जगत् के उत्पत्ति औ पालन औ संहारकरने वाले हो औ बाल्य अवस्था में मैं तप करके विष्णु का आराधन करताभया २०। २१॥

चक्रतीर्थं शुभं गत्वा तपसा विष्णुमन्वहम्।
अतोषयं महात्मानं नारायणमनन्यधीः॥२२॥

ततः प्रसन्नो देवेशः शंखचक्रगदाधरः।
उवाच मां रघुश्रेष्ठ प्रसन्नमुखपङ्कजः॥२३॥

॥श्रीभगवानुवाच॥

उत्तिष्ठ तपसो ब्रह्मन्फलितं ते तपोमहत्।
मच्चिदंशेन युक्तस्त्वं जहि हैहयपुङ्गवम्॥२४॥

कार्त्तवीर्यं पितृहणं यदर्थं तपसः श्रमः।
ततस्त्रिः सप्तकृत्वस्त्वं हत्वा क्षत्रियमण्डलम्॥२५॥

कृत्स्नां भूमिं कश्यपाय दत्त्वा शान्तिमुपावह।
त्रेता मुखे दाशरथिर्भूत्वा रामोहमव्ययः॥२६॥

उत्पत्स्येपरयाशक्त्यातदाद्रक्ष्यसिमांततः।

मत्तेजःपुनरादास्ये त्वयि दत्तं मयापुरा॥२७॥

तदा तपश्चरंल्लोके तिष्ठत्वं ब्रह्मणोदिनम्।
इत्युक्त्वां तर्दधे देवस्तथा सर्वं कृतं मया॥२८॥

चक्रतीर्थ में जा करके वहां एकाग्र चित्त करके दिन दिन तप करके सर्व व्यापक महात्मा जो नारायण तिनको प्रसन्न करता हुआ २२ तब हे रघुश्रेष्ठ वह शंख चक्र गदा को धारण करे सब देवों का स्वामी और प्रफुल्लित है मुख पंकज जिनका सो मेरे ऊपर प्रसन्न होके बोले २३ कि हे ब्रह्मन् अब तुम तप से उठो और तुम्हारा तप सिद्ध हुआ और तुम मेरे अंश करके युक्त होके अपने पिता के मारनेवाले कार्तवीर्य्य को मारौ २४ जिस लिये तुमने तप में श्रम किया है तिसके उपरान्त इक्कीस बार सब भूमण्डलके क्षत्रियों को मारकै २५ संपूर्ण पृथ्वी कश्यपजी को दे शान्ति को प्राप्त होउ फिर त्रेता युग में दशरथ का पुत्र राम करके मैं अवतार लेउंगा २६ तहां मेरी शक्ति जो सीता तिस करके सहित मुझको

तुम देखोगे तब जो तेज अपना तुमको मैंने दिया है उस तेजको फिर ग्रहण करले उँगा २७ तिसके अनन्तर इस लोक में तप करते हुये कल्प पर्यन्त यहां स्थित रहो यह वचन कहिकै नारायण अन्तर्हित होते हुये फिर जैसे नारायणने कहा तैसे मैंने सब किया २८॥

स एव विष्णुस्त्वंरामजातोऽसि ब्रह्मणार्थितः।
मयिस्थितन्तुत्वत्तेजस्त्वयैव पुनराहृतम्॥२९॥

अद्य मे सफलं जन्मप्रतीतोसि मया प्रभो।
ब्रह्मादिभिरलभ्यस्त्वं प्रकृतेः पारगोमतः॥३०॥

त्वयि जन्मादि षड्भावानसन्त्यज्ञानसंभवाः।
निर्विकारोसि पूर्णस्त्वं गमनादि विवर्जितः॥३१॥

यथा जले फेन जालं धूमोवह्नौ तथा त्वयि।

त्वदाधारात्वद्विषयामायाकार्यंसृजत्यहो॥३२॥

यावन्मायावृतालोकास्तावत्त्वांनविजानते।
अविचारितसिद्धैषाऽविद्याविद्याविरोधिनी॥३३॥

अविद्याकृतदेहादि संघाते प्रतिबिम्बिता।
चिच्छक्तिर्जीवलोकेस्मिन् जीव इत्यभिधीयते॥३४॥

यावद्देहमनःप्राणबुद्ध्यादिष्वभिमानवान्।
तावत्कर्तृत्व भोक्तृत्व सुखदुःखादि भाग्भवेत्॥३५॥

हे राम सोई विष्णुरूप आप ब्रह्माजी के प्रार्थना से प्रकट हुये हो और मेरे विषे स्थित जो आपका तेज रहा सो आप ही ने फिर खेंचलिया २९ और हे प्रभू आज मेरा जन्म सफल हुआ जो आप को जाना और आप ब्रह्मादि कों को भी अलभ्य हौ अर्थात् नहीं प्राप्त हो सक्ते हौ इससे प्रकृति के पारगामी हौ ३० औ आप में अज्ञानसे उत्पन्न हुये जन्म आदि छः विकार नहीं हैं इससे निर्विकार हौ और सर्वत्र परिपूर्ण हो और इसी से गमनादि क्रिया रहित हौ ३१ और जैसे शुद्ध जो जल है तिस में फेन आदि विकार औपाधिक है और अग्नि में धूम जैसे औपाधिक है तैसे ही तुम्हीं हौआधार जिसका औ तुमही हौ विषय जिसका ऐसी जो माया सो जगत् को रचती है इससे औपाधिक ही आप में क्रिया प्रतीत होती है ३२ और जब तक माया करके आवृत मनुष्य आदि प्राणी रहते हैं तब तक नहीं आप को जानते हैं इसी से विद्या से विरोध करनेवाली अविद्या अविचारही से सिद्ध है अर्थात् विचार करने से विद्या के उदय में अन्धकार की नाईं विद्या आपही नाशको प्राप्त हो जाती है ३३ विद्याकरके कल्पित जो देहादिकों का संघात तिस में प्रतिबिम्ब भावको प्राप्त चिच्छक्ति अर्थात् चैतन्य सो इस लोक में जीव कहा जाता है ३४ इस से जब तक देह मन प्राण और बुद्ध्यादिक इनमें अभिमान करता है अर्थात् अविवेक से देहादिकों के धर्म को अपना धर्म मानता है तब तक कर्तृत्व औ भोक्तृत्व औसुख दुःखादि इनके सेवन करनेवाला होता है ३५॥

आत्मनः संसृतिर्नास्तिबुद्धेरज्ञानं न जात्वति।
अविवेकाद्द्वयंयुंक्त्वासंसारीति प्रवर्तते॥३६॥

जडस्यचित्समायोगाच्चित्त्वं भूयाच्चितेस्तथा।
जडसंगाज्जडत्वं हि जलाग्न्योर्मेलनं यथा॥३७॥

यावत्त्वात्पाद भक्तानां संगसौख्यं न विन्दति।
तावत्संसारदुःखौघान्न निवर्त्तेन्नरः सदा॥३८॥

सत्संग लब्धया भक्त्या यदा त्वां समुपासते।
तदा माया शनैर्याति ता नवं प्रतिपद्यते॥३९॥

ततस्त्वज्ज्ञानसम्पन्नस्सद्गुरुस्तेन लभ्यते।
वाक्यज्ञानं गुरोर्लब्ध्वात्वत्प्रसादाद्विमुच्यते॥४०॥

तस्मात्त्वद्भक्तिहीनानां कल्पकोटिशतैरपि।
न मुक्ति शंकाविज्ञानशङ्का नैव सुखं तथा॥४१॥

अतस्त्वत्पादयुगले भक्तिर्मेजन्मजन्मनि।
स्यात्त्वद्भक्तिमतां संगोऽविद्यायाभ्यां विनश्यति॥४२॥

क्योंकि वास्तव में जन्ममरणादिरूप संसार असंग आत्मा में नहीं संभव होता और जड़बुद्धि में ज्ञान कभी नहीं संभव होता अविवेक से दोनों को मिलाय के संसारी अर्थात् मैं करता हौंमैं भोक्ता हौंऐसा व्यौहार संभव होता है ३६ जड़ जो बुद्धि है तिल को चैतन्य के संबन्ध से बुद्धि में ज्ञान की प्रतीति होती है और चेतन जो आत्मा है तिस को जड़ जो बुद्धि तिसके संबन्ध से अज्ञ हौंऐसी प्रतीति होती है जैसे जल और अग्नि इनके मिलाप से परस्पर में प्रतीति होती है तैसे अर्थात् जैसे लोक में बिजुली का स्वरूप प्रकाशरूप भी है परन्तु मेघ जल के संबन्ध से चमक कै छिप जाना प्रतीति होता है औजल अप्रकाशरूप भी है परंतु प्रकाशरूप बिजुली के संबन्ध से चमकता सा मालूम पड़ता है तैसे आत्मबुद्धि संबन्ध में भी जानना ३७ इससे जब तक आपके चरणारविन्दों के भक्तों के संग के सुख को संसारी मनुष्य नहीं प्राप्त होता है तब तक संसार के दुःखों के समूह से नहीं निवृत्त होता है ३८ जब सत्संग करके प्राप्त हुई भक्ति तिस करके मनुष्य आपकी उपासना करते हैं तब माया धीरे धीरे क्षीणता को प्राप्त होती हैं ३९ फिर आप के भक्ति योग के प्रभाव से आप के अभेद ज्ञानयुक्त सद्गुरु उसको प्राप्त होता है फिर उस दयालु गुरुके सकाश ते (तत्त्वमसि) इत्यादि महावाक्य के ज्ञान को प्राप्त होकर फिर तिस ज्ञान के प्रसाद से संसार के बन्धन से छूट जाता है ४० तिससे आपकी भक्ति से ही न जो पुरुष हैं तिनको शतकोटि कल्पों करके भी मुक्ति की संभावना औ विज्ञानकी संभावना भी नहीं है और ज्ञान के विना सुख भी नहीं होता ४१ इस से हे भगवन् आप के चरण युगल में जन्म जन्म मुझको भक्ति होइ औ आपकी भक्तिकरके युक्त जो पुरुष हैं तिनका संयोग होइ जिससे अविद्या नाश को प्राप्त होय ४२॥

लोकेत्वद्भक्तिनिरतास्त्वद्धर्मामृतवर्षिणः।
पुनंति लोकमखिलं किंपुनस्स्वकुलोद्भवान्॥४३॥

नमोस्तु जगतां नाथ नमस्ते भक्तिभावन।
नमः कारुणिकानन्तरामचन्द्र नमोस्तुते॥४४॥

देवयद्यत्कृतं पुण्यंमयालोकजिगीषया।
तत्सर्वं तव बाणाय भूयाद्राम नमोस्तुते॥४५॥

ततः प्रसन्नोभगवान् श्रीरामः करुणामयः।
प्रसन्नोस्मि तव ब्रह्मन्यत्ते मनसि वर्त्तते॥४६॥

दास्येतदखिलं कामं मा कुरुष्वात्र संशयम्।
ततः प्रीतेनमनसा भार्गवो राममब्रवीत्॥४७॥

यदि मेनुग्रहो राम तवास्ति मधुसूदन।
त्वद्भक्तसङ्गस्त्वत्पादेदृढा भक्तिः सदास्तुमे॥४८॥

स्तोत्रमेतत्पठेद्यस्तु भक्तिहीनोपि सर्वदा।
त्वद्भक्तिस्तस्य विज्ञानं भूयादन्ते स्मृतिस्तव॥४९॥

और जे कोई संसार में आपकी भक्ति में निरत हैं और तत्त्वज्ञानरूपी अमृत की वृष्टि करनेवाले हैं अर्थात् तत्त्वज्ञान के उपदेश करने वाले हैं ते सब लोक को पवित्र करते हैं और अपने कुटुम्बियों को पवित्र करैंयह क्या कहना चाहिये ४३ औ हे जगन्नाथ तुम्हारे अर्थ नमस्कार है औ हे भक्तों के ऐश्वर्य बढ़ानेवाले औ हे कारुणिक हे अनन्त हे रामचन्द्र तुम्हारे अर्थ नमस्कार है ४४ औ हे राम जो २ पुण्यस्वर्गादि लोकों की जीतने की इच्छा करके मैंने किया है सो सब पुण्य आपके बाण के अर्थ हो अर्थात् इस कारण करके मेरे पुण्यलोक नाश करिये पादगति बनी रहै औ हेराम तुम को नमस्कार है ४५ तब करुणा के आलय आश्रय ऐसे जो भगवान् राम हैं सो प्रसन्न होकै वचन कहते हुये कि हे ब्रह्मन् मैं तुम्हारे ऊपर प्रसन्न हौंइससे जो तुम्हारे मन में हो सोमां गिये ४६ संपूर्ण मनका अभीष्ट फल हम तुम को देवैंगे इस में संशयन करना तब तो प्रीति युक्त मन से परशुरामजी श्रीराम से कहते हुये ४७ हे राम जो मेरे ऊपर आपका अनुग्रह होय तो आप के भक्तों का तौ संग हो औआपके चरणकमल में सदा दृढभक्ति होय ४८ और जो मैंने स्तोत्र किया है इसको जो कदाचित् भक्तिहीनपुरुष पाठ करै तौ तिसको आपकी भक्ति होय औ आपके स्वरूपकाज्ञानहोय औ अन्त समय में आपका स्मरण होय ४९॥

तथेति राघवेणोक्तःपरिक्रम्यप्रणम्यतम्।
पूजितस्तदनुज्ञातोमहेन्द्राचलमन्वगात्॥५०॥

राजा दशरथो हृष्टो रामं मृतमिवागतम्।
लिंग्यालिंग्याहर्षेण नेत्राभ्यां जलमुत्सृजत्॥५१॥

ततः प्रीतेन मनसा स्वस्थचित्तःपुरं ययौ।
रामलक्ष्मणशत्रुघ्नभरतादेव संमिताः॥५२॥

स्वांस्वांभार्यामुपादायरेमिरेस्व स्व मन्दिरे।
मातापितृभ्यां संहृष्टो रामः सीतास

मन्वितः॥५३॥

रेमे वैकुण्ठभवने श्रिया सह यथा हरिः।
युधाजिन्नामकैकेयीभ्राता भरतमातुलः॥५४॥

भरतं नेतुमागच्छत्स्व राज्यं प्रीति संयुतः।
प्रेषयामास भरतं राजा स्नेहसमन्वितः॥५५॥

शत्रुघ्नं चापि संपूज्य युधा जितमरिन्दमः।
कौशल्याशुशुभे देवीरामेणसहसी तया।
देवमातेव पौलोम्याशच्याशक्रेण शोभना॥५६॥

तौ श्रीरामचन्द्रजी ने कहा हे ब्रह्मन् [तथास्तु] तैसे ही होगा तब परशुरामजी रामचंद्र को परिक्रमा करके औ प्रणाम करके राम की आज्ञा से बड़े सत्कार को प्राप्त हुये महेंद्र पवर्त को जाते हुये ५० तब तो राजा दशरथ प्रसन्न हो कै मरा हुआ जैसे फिर प्राप्तहोय तैसे रामचंद्र को बडे हर्ष से बारंबार आलिंगन करिकै नेत्रों से अश्रुधारा छोड़ते हुये ५१ फिर प्रसन्न मन से स्वस्थ चित्त होके अयोध्यानगरी को जाते हुये तिस के अनन्तर देवतों के तुल्य रामलक्ष्मणभरतशत्रुघ्न ये चारों भाई ५२ अपनी अपनी स्त्रियों को स्वीकार करके अपने अपने मन्दिर में रमण करते हुये माता पिता की प्रीति युक्त जो सीता सहित रामचन्द्रजी सो अपने भवन में ऐसे रमण करते हुये ५३ जैसे वैकुण्ठलोक मेंलक्ष्मीकरके सहित नारायण और युधाजित् है नाम जिसका ऐसा केकयी काभाई औ भरतजी का मामा ५४ अपने घर भरत को लिवाइ जाने को आता हुआ बड़ी प्रीति युक्त हो कै तब राजा दशरथ् स्नेहयुक्त हो भरत और शत्रुघ्न को भेजते हुये अपने शाले युधाजित्का बड़ा सत्कार करके ५५ अब कौशल्यारानी रामचन्द्र सीता करके शोभा को प्राप्त होती हुईं जैसे देवतों की माता अदिति इन्द्राणी औइन्द्र इन करके शोभित हो रही है ५६॥

साकेते लोकनाथ प्रथितगुणगणो लोकसंगीतकीर्त्तिः
श्रीरामःसीतयास्तेऽखिलजननिकरानन्दसन्दोहमर्त्तिः।नित्यश्रीर्निर्विकारोनिरवधिविभवोनित्यमायानिरासोमाया
कार्य्यानुसारी मनुज इव सदाभातिदेवोऽखिलेशः॥५७॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे बालकाण्डे सप्तमः सर्गः॥७॥

—————

जो देवप्रकाश स्वरूप श्रीराम अयोध्यानगरी में सीता सहित विद्यमान सदा प्रकाश करते हैं कैसे हैं कि लोकनाथ जो ब्रह्मादिक देव तिन्हों के विषे विख्यात नाम प्रसिद्ध गुण समूह हैं जिनके औसंपूर्ण लोकों में गान की गई है कीर्ति जिनकी औ संपूर्ण मनुष्यों के वृन्दके आनंदों का समूह है मूर्त्तिस्वरूप जिनका औ नित्य सदा

रहती है श्री शोभा लक्ष्मी जिनकी औ बिकार रहित हैं औ निरवधि अवधिरहित है विभव ऐश्वर्य जिन का अर्थात् और देवोंके ऐश्वर्य की तौ अवधि है कि इतने काल तक रहै और परमेश्वर का ऐश्वर्य अवधि रहित है औ सदा ही रहता है औसदा माया का निरास खंडन हुआ है जिससे अर्थात् जिसके आगे माया सदा तिरस्कृत हो लज्जित रहती है औ माया के कार्य को अनुसरण कर रहा है अर्थात् उसी के सत्ता प्रकाश सेमाया सृष्टि आदि कार्य करती है ऐसे जो श्रीरामचन्द्र सो यद्यपि सब के ईश्वर भी हैं तो भी अयोध्या में सदा मनुज के सदृश सीता सहित प्रकाश करते हैं यह बालकाण्ड के अन्त में वस्तुनिर्देशरूप मंगल सूचित किया गया ५७॥

इत्यध्यात्मरामायणेबालकाण्डे टीकायां सप्तमः सर्गः॥७॥
समाप्तोयं बालकाण्डः॥१॥

———————

श्रीगणेशायनमः॥

अथ अध्यात्मरामायण॥

——————

अयोध्याकाण्ड॥

भाषाटीकासहित॥

॥श्रीमहादेव उवाच॥

एकदा सुखमासीनं रामं स्वांतः पुराजिरे।
सर्वाभरणसंपन्नरत्नसिंहासने स्थितम्॥१॥

नीलोत्पलदलश्यामं कौस्तुभामुक्तकंधरम्।
सीतया रत्नदण्डेन चामरेणाथवीजितम्॥२॥

विनोदयंतंतांबूलचर्वणादिभिरादरात्।
नारदोऽवतरद्द्रष्टुमम्बराद्यत्र राघवः॥३॥

शुद्धस्फटिकसंकाशः शरच्चन्द्र इवामलः।

अतर्कितमुपायातोनारदो दिव्यदर्शनः॥४॥

तं दृष्ट्वा सहसोत्थाय रामः प्रीत्या कृतांजलिः।
न नाम शिरसा भूमौ सीतया सह भक्तिमान्॥५॥

उवाच नारदं रामः प्रीत्यापरमयायुतः।
संसारिणां मुनिश्रेष्ठ दुर्लभं तव दर्शनम्॥६॥

अस्माकं विषयासक्त चेतसांनितरां मुने।
अवाप्तम्मे पूर्वजन्म कृतपुण्यमहोदयैः॥७॥

दोहा॥

विधिसुत सुरहित भूमिहित आये रघुपतिपास।
मुनि संशय हर आदि में नियत कियोवनवास॥१॥

कारण तनु सीतासहित सुमिरिराम सुखधाम।
करौं अयोध्याकाण्ड की नरभाषा अभिराम॥२॥

केकयसुता निमित्त करि कीन्ह चहत सुरकाज।
सो प्रभु मोरे हिय बसौ सुरनर मुनि शिरताज॥३॥

यहां बालकाण्ड के अन्त में सीता सहित श्रीराचन्द्रजी अयोध्या में मनुष्य की नाई विहार करते हुये प्रकाशमान हो रहे हैं यह वर्णन कर आये हैं सो अब अयोध्याकाण्ड में उसको विस्तारपूर्वक वर्णन करने को श्रीमहादेवजी पार्वती से कहते हुये आदि में श्रीराम स्मरणरूप मंगल करते हैं हे पार्वती एक समय में अपने महल में रत्न जटित सिंहासन के ऊपर सुख पूर्वक स्थित औ आभूषणों करके भूषित १ और नीलकमल के तुल्य श्यामवर्ण औ कौस्तुभमणि को कण्ठ में धारण किये औ ताम्बूलचर्वणादिकों करके क्रीडा करते हुये औ रत्न

का दण्ड जिस में ऐसा चमर सीताजी जिनके ऊपर डुला रही हैं २ ऐसे रामचंद्रजी के दर्शन करने को नारदजी आकाश से उतरते हुये ३ कैसे नारदजी हैं कि शुद्ध जो स्फटिक मणि तिसके तुल्य है स्वरूप जिनका और शरद् ऋतु के चंद्रमा के तुल्य निर्मल हैं औ दिव्य है दर्शन जिनका औ अकस्मात् ही आके प्राप्त हुये हैं ४ऐसे नारदजी को आते देख के सीता सहित श्रीरामचंद्रजी शीघ्र ही उठि हाथ जोड़ के बड़ी भक्ति से नारद को प्रणाम करते हुये ५ और परम प्रीतियुक्त होके नारद से बोले कि हे मुनिश्रेष्ठ संसारी पुरुषों को आपका दर्शन दुर्लभ है ६ औ हे मुने विषय में आसक्त है चित्त जिनका ऐसे जो हम लोग हैं तिनको निरन्तर आपका दर्शन दुर्लभ है तौ भी पूर्व जन्म के किये पुण्यों से आपका दर्शन प्राप्त हुआ ७॥

संसारिणाऽपिहिमुने लभ्यते सत्समागमः।
अतस्त्वद्दर्शनादेव कृतार्थोऽस्मिमुनीश्वर॥८॥

किं कार्य्यंते मया कार्य्यं ब्रूहितत्करवाणिभो।
अथ तन्नारदोऽप्याह राघवं भक्तवत्सलम्॥९॥

किं मोहयसि मां रामवाक्यैर्लोकानुसारिभिः।
संसार्यहमिति प्रोक्तं सत्यमेतत्त्वयाविभो॥१०॥

जगतामादिभूतायासामाया गृहिणी तव।
त्वत्सन्निकर्षाज्जायन्ते तस्यां ब्रह्मादयः प्रजाः॥११॥

त्वदाश्रयातदाभाति मायायात्रिगुणात्मिका।
सूतेऽजस्रंशुक्ल कृष्णलोहिताः सर्वदा प्रजाः॥१२॥

लोकत्रय महागेहेगृहस्थस्त्वमुदाहृतः।
त्वं विष्णुर्जानकीलक्ष्मीः शिवस्त्वं जानकी शिवा॥१३॥

ब्रह्मात्वंजान की वाणी सूर्यस्त्वं जानकी प्रभा।
भवान् शशांकः सीता तु रोहिणी शुभलक्षणा॥१४॥

क्योंकि संसारी मनुष्यों को महात्मा ओं का समागम पुण्य समूहों से ही प्राप्त हो वै है इससे मुनीश्वर आपके दर्शनही से मैं कृतार्थ हुआ ८ अब मैं आपका क्या कार्य करौंसो कहिये अब इसके अनन्तर नारदजी भी भक्तवत्सल जो श्रीरामजी हैं तिनसे कहते हुये ९ हे राम जैसे कोई लौकिक मनुष्यक है तैसे वचनों से क्या मोह करारहे हौअथवा हे विभो जो आपने अपना को संसारी कहा सो भी सत्य है १० क्यों कि सब जगत् की कारण भूत जो माया है सो आपकी घरवाली है औ आप के समीप होने से उस माया में ब्रह्मा आदि सब प्रजा उत्पन्न होती हैं ११ जो त्रिगुणात्मिका माया आपके आश्रय से प्रकाशमान हुई शुक्लकृष्ण लोहित इस भेद से तीन प्रकार की प्रजा सदा उत्पन्न किया करती हैइस का आशय यह है किमाया जड़ हैं इससे स्वतन्त्र तौ जगत्को उत्पन्न कर नहीं

सक्ती है परमात्मा के समीप होने से चुंबक लोहकी तरह उत्पन्न करने को समर्थ होती है अर्थात् जगत् रूप करिकै परिणाम को प्राप्त होती है। सो वह सत्व रज तम इस भेद से त्रिगुणमयी है तिसमें सत्वगुण का शुक्लरूप है औ रजोगुण का रक्तरूप अर्थात् विषय में प्रीति कराना औ तमोगुण का कृष्ण कालारूप अर्थात् बुद्धि को आवरणकर अन्धकार की नाईं आत्मा का अप्रकाश कराना औ सत्वगुण का शुक्लरूप कहि आये हैं सो यहां शुक्लरूपकरिके शुद्ध औ प्रकाशरूप जानना इसी आशय से वेद में भी अजा शब्द करिकै प्रकृति का शुक्ल रक्त कृष्ण रूप वर्णन किया है इस प्रकार यह तीन रूप की प्रकृति परमात्मा की सन्निधि से सच्चा प्रकाश धर्मयुक्त हो अपने रूपके समान शुक्लरक्त कृष्ण भेद से तीन प्रकार की प्रजा उत्पन्न करती है तहां शुक्लरूप प्रजादेवगण आदि ऋष मुनि त्रैकालिक ज्ञान करके प्रकाशमान औ रक्तरूप प्रजा मनुष्यादिक जो धनोपार्जनादि कर्मों में प्रीति कर रहे हैं औंकृष्णवर्ण पशु वृक्ष सर्प यदि आदि जो कि तमोगुण से आच्छादित हो अच्छा बुरा कुछ नहीं जान सकते हैं तिसमें भी सत्व रज तम इन तीनों गुणों के परस्पर मिलने से और कमती बढ़ती होने से लाखों करोड़ों तरह की प्रजा होती हुई जैसे मनुष्यों में भी तीनि प्रकार के भेद दिखलाई पड़ते हैंकोई मनुष्य सत्वगुण के अधिक होने से विद्या आदि गुणयुक्त देवतुल्य हैं कोई रजोगुण के अधिक होने से रात्रि दिवस व्यापार में आसक्त हैं कोई तमोगुण के अधिक होने से पश्वादिकों के तुल्य धर्माधर्म हित अहित कुछ नहीं जानसक्ते हैं इसी प्रकार सब देवादि सृष्टि में भी भेद जानना १२ सो नारदजी कहते हैं हेराम सब लोक तुम्हारा ही गृह है ऐसे भारी आप गृहस्थ हौ और आप जब विष्णुरूप हैं तब सीता लक्ष्मी रूप हैं औआप जो शिवरूप हौतो सीता पार्वती हैं १३ औ आप ब्रह्मा रूप हैं तौसीता सरस्वती हैं औ आप सूर्य रूप हैं तौसीता प्रभा रूप हैं औ आप चन्द्रमा हैं तौसीता सौभाग्यादि गुणयुक्त रोहिणी हैं १४॥

शक्रस्त्वमेव पौलोमी सीतास्वाहानलोभवान्।
यामस्त्वं कालरूपश्च सीता संयमिनी प्रभो॥१५॥

निर्ऋतिस्त्वं जगन्नाथ तामसी जानकी शुभा।
रामत्वमेव वरुणो भार्गवी जानकी शुभा॥१६॥

वायुस्त्वं राम सीता तु सदा गतिरितीरिता।
कुबेरस्त्वं राम सीता सर्वसंपत्प्रकीर्त्तिता॥१७॥

रुद्राणी जानकी प्रोक्ता रुद्रस्त्वं लोकनाशकृत्।
लोकेस्त्री वाचकं यावत्तत्सर्वंजानकी शुभा॥१८॥

पुन्नामवाचकं यावत्तत्सर्वं त्वांहि राघव।
तस्माल्लोकत्रये देवयुवाभ्यां नास्ति किंचन॥१९॥

त्वदाभासोदिताज्ञानमव्याकृतमितीर्यते।
तस्मान्महांस्ततः सूत्रंलिंगंसर्वात्मकं ततः॥२०॥

अहंकारश्च बुद्धिश्च पंचप्राणेन्द्रियाणि च।
लिंगमित्युच्यते प्राज्ञैर्जन्ममृत्युसुखादिमत्॥२१॥

औ आप इंद्र हैं तौसीता इन्द्राणी हैं औ आप अग्नि हैंतौसीता स्वाहा रूप हैं औ आप यमराज रूप हौतौ सीता संयमिनी हैं १५ औ आप निर्ऋति देव हौ तौ सीता तामसी हैं औहे राम आप वरुण हौ तौ सीता भार्गवी हैं १६ औ आप पवन हैंतो सीता सदागति हैं औ हे राम आप कुबेर हैंतौसीता सर्व सम्पत् रूप हैं १७ औ हे राम आप सब के संहार कर्त्ता रुद्र हैं तौ सीता रुद्राणी रूप हैं औ हे राम कहां तक कहौं लोक में जितने स्त्री वाचक शब्द हैं तिनका अर्थ सीता ही है १८ और जितने पुरुषवाचक शब्द हैं तिन सबों के अर्थरूप आप ही हैं तिस से हे राम तीनों लोक में ऐसी कोई वस्तु नहीं जो आप दोनों के विना हो वैं१९ औ हे राम आपके आभासरूप करिकै कहा जो अज्ञान सो अव्याकृत कहाता है तिस से महत्त्व उत्पन्न हुआ तिससे सूत्रात्मा उत्पन्न हुआ तिससे लिंगशरीर उत्पन्न हुआ था जो कि सब स्थूलशरीरों में व्यापक हो रहा है २० औ अहंकार औ बुद्धि औ पांचप्राण औ दश इन्द्रिय इनके समुदाय को लिंगशरीर कहते हैं जो जन्ममृत्यु सुखादि धर्मों करिकै युक्त है २१॥

स एव जीव संज्ञश्च लोकेभातिजगन्मयः।
अवाच्यानाद्यविद्यैवकारणोपाधिरुच्यते॥२२॥

स्थूलं सूक्ष्मं कारणाख्यमुपाधित्रितयंचितेः।
एतैर्विशिष्टोजीवः स्याद्वियुक्तः परमेश्वरः॥२३॥

जाग्रत्स्वप्नसुषुप्त्याख्यासंसृतिर्याप्रवर्त्तते।
तस्याविलक्षणः साक्षी चिन्मात्रस्त्वं रघूत्तम॥२४॥

त्वत्त एव जगज्जातं त्वयि सर्वप्रतिष्ठितम्।
त्वय्येव लीयते कृत्स्नं तस्मात्त्वं सर्वकारणम्॥२५॥

रज्जावहिमिवात्मानं जीवं ज्ञात्वा भयं भवेत्।
परात्माऽहमितिज्ञात्वा भयदुःखैर्विमुच्यते॥२६॥

चिन्मात्र ज्योतिषासर्वाःसर्वदेहेषुबुद्धयः।
त्वयायस्मात्प्रकाश्यंते सर्वस्यात्मा ततो भवान्॥२७॥

अज्ञानान्न्यस्यते सर्वं त्वयिरज्जौभुजंगवत्।
त्वज्ज्ञानाल्लीयते सर्वं तस्माज्ज्ञानं सदाभ्यसेत्॥२८॥

उसीको लोक में जीव कहते हैं औ वह जगन्मय है सब में रहनेवाला है इसका आशय यह है कि यह सत्रह तत्त्वका लिंग शरीर जीव की उपाधि अर्थात् इस में अभिमान करनेवाला जो चैतन्य वही जीव है इसी से अभिमान के त्याग दशामेंतत्त्वमस्यादि महावाक्यों करिकै बोधित ब्रह्मभावको प्राप्त होता है और लोक में तौलक्षणाकरिकै लिंगशररि में भी जीवशब्दका प्रयोग देखते हैं इसीसे

महाभारत में ऐसा कहा कि यमराज सत्यवान् के देह से अंगुष्ठमात्र पुरुषको निकालकै खैंचते हुये। न कहौ प्रकृति से परे शुद्धस्वरूप जीवको लिंगशरीर में अभिमान क्यों हुआ इससे नारदजी कहते हैं हे राम अनिर्वचनीय जो कहने में न आसकै ऐसी जो अनादि अविद्या सो इस जीवकी कारण उपाधि कहलाती हैं अर्थात् अभिमान में विद्याही कारण है २२ हे राम इस प्रकार स्थूल सूक्ष्म कारण जे तीन उपाधि चैतन्यकी हैं इन तीन उपाधियों करिकै युक्तजो चिदेश सो जीव कहा जाता है औ इन उपाधियों करिकै रहित होता है तौ परमेश्वर कहलाता है २३ औ हे राम जाग्रत्स्वप्न सुषुप्ति भेद करिकै तीन प्रकार का संसार प्रवृत्त हो रहा है इससे विलक्षण साक्षी चैतन्य रूप आप हैं २४ औ हे राम यह संपूर्ण जगत् आपही सेउत्पन्न हुआ है औआपही में स्थित हो रहा है औ आपही में लयको प्राप्त होता है इससे आप सबके कारण हौ २५ औ हे रामरज्जु में सर्पकी नाईं जीवरूप लिंगशरीरहीको आत्मामानिकरिकै अनेक प्रकारकी भय को प्राप्त होता है औ जब विवेक युक्त बुद्धि करिकै परमात्माही मैंहौंयेजानता है तो संसार के दुःखों से छूटजाता है २६ औ हे राम चिन्मात्र के प्रकाश करिकै सब प्राणियों की बुद्धिवृत्तियां जिस कारण से आपही करिकै प्रकाशित की जाती हैं इससे सबके आत्मा आपही हैं २७ और अज्ञान ते रज्जुके विषे सर्पकी नाईं तुम्हारे विषे सब जगत् आरोपण किया जाता है और आपके यथार्थ ज्ञानसे लीन हो जाता है तिससे सब काल में ज्ञान का अभ्यास करै २८॥

त्वत्पादभक्तियुक्तानां विज्ञानं भवतिक्रमात्।
तस्मात्त्वद्भक्तियुक्तोयमुक्तिभाजस्त एवहि॥२९॥

अहंत्वद्भक्तभक्तानां तद्भक्तानां चकिंकरः।
अतो मामनुगृह्णीष्वमोहयस्वनमां प्रभो॥३०॥

त्वन्नाभिकमलोत्पन्नो ब्रह्मामेजनकः प्रभो।
अतस्तवाहं पौत्रोस्मि भक्तं मां पाहि राघव॥३१॥

इत्युक्त्वा बहुशो नत्वा स्वानंदाश्रपरितः।
उवाच वचनं राम ब्रह्मणानोदितोऽस्म्यहम्॥३२॥

रावणस्य वधार्थाय जातोसि रघुसत्तम।
इदानीं राज्यरक्षार्थं पितात्वामभिषेक्ष्यति॥३३॥

यदिराज्याभिसंसक्तोरावणंनहनिष्यसि।
प्रतिज्ञाते कृता राम भूभारहरणायवै॥३४॥

तत्सत्यं कुरुराजेन्द्रसत्यसंधस्त्वमेवहि।
श्रुत्वैतद्गदितरामोनारदं प्राहसस्मितम्॥३५॥

और हे राम आपके चरणारविंद की भक्तियुक्त जो पुरुष हैं तिनको क्रम से आत्मसाक्षात्कार होता है तिससे से आपकी भक्ति युक्त पुरुष हैं ते ई मुक्तिभागी होते हैं २९ औ मैं तो आपके भक्तों के जो भक्त हैं तिनका किंकर हौं इस से हे प्रभो मेरे ऊपर अनुग्रह करिये ऐसा वचन न कहिये जिसमें मोह उत्प-

न्न होय ३० औ हे प्रभो मेरा पिता जो ब्रह्मा है सो आपके नाभि कमल से उत्पन्न हुआ है इस से मैंआपका पौत्र हौंऔर भक्त हौंइस से रक्षाकरिये ३१ आनंद के अश्रुपात जिनके हो रहे हैं ऐसे जो नारदजी सो ऐसा कहके औ बहुत प्रणाम करिकै यह वचन बोले कि हे भगवन् ब्रह्मा का भेजा हुआ मैं आपके पास प्राप्त हुआ हौं ३२ और आप रावण के वध के अर्थ प्रकट हुये हौ और हे रघूत्तम इस समय में दशरथ राज्य की रक्षा के लिये आपका अभिषेक करैगा ३३ सो जो कदाचित् राज्य में आसक्त होके रावण को न मारौगे तो आपने पृथ्वी के भार के दूर करने की जो प्रतिज्ञा की है सो मिथ्या हो जायगी ३४ इस से हे राजेन्द्र उस प्रतिज्ञा को सत्य कीजिये क्यों कि आप ही लोक में सत्यसंध विख्यात हौ ३५॥

शृणु नारद मे किंचिद्विद्यतेऽविदितं क्वचित्।
प्रतिज्ञातं च यत्पूर्वं करिष्येतन्न संशयः॥३६॥

किंतु कालानुरोधेन तत्तत्प्रारब्धसंक्षयात्।
हरिष्ये सर्व भूभारं क्रमेणासुरमण्डलम्॥३७॥

रावणस्य विनाशार्थंश्वो गन्तादंडकाननम्।
चतुर्दश समास्तत्र ह्युषित्वा मुनिवेषधृक्॥३८॥

सीतामिषेण तं दुष्टसकुलं नाशयाम्यहम्।
एवं रामे प्रतिज्ञाते नारदः प्रमुमोदह॥३९॥

प्रदक्षिणत्रयं कृत्वा दंडवत्प्रणिपत्यतम्।
अनुज्ञातश्च रामेण ययौ देवगतिं मुनिः॥४०॥

संवादं पठति शृणोति संस्मरेद्वा यो नित्यं मुनिवररामयोः सभक्त्या।

संप्राप्नोत्यमरसुदुर्लभं विमोक्षं कैवल्यं विरति पुरःसरं क्रमेण॥४१॥

इत्यध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादेऽयोध्याकाण्डे प्रथमः सर्गः॥१॥

ऐसा वचन नारदजी का सुनिकै श्रीरामचन्द्रजी मंदमुसक्यान करिकै नारद से बोले कि हे नारद मुझ को किसी समय में कुछ अविदित नहीं है अर्थात् न जानता होउं सो नहीं है ३६ और जो मैं ने प्रथम प्रतिज्ञा की है उसको सत्य करूंगा इस में कुछ संशय नहीं है परन्तु समय के अनुरोधकरिकै तौन तौन जीवों के प्रारब्ध भोग के अनन्तर ३७ असुरों का समूहरूप जो पृथिवी का भार है तिस को हरौंगा और रावण के वध के अर्थ दण्डक वन को प्रातःकाल जाऊँगा ३८ हे नारद उस दण्डकारण्य में मुनि का वेष धारण करिकै चौदह वर्ष वासकरिकै सीता के मिसकरिकै कुल सहित इस दुष्ट रावण का नाश करोंगा ३९ ऐसी जब रामचन्द्र ने प्रतिज्ञा की तब नारदजी बड़े हर्ष को प्राप्त होते हुये और रामचन्द्रजी की तीन प्रदक्षिणा करिकै और दण्डवत्प्रणाम करिकै रामचन्द्र की आज्ञालेकै आकाशमार्ग करिकै नारदजी जाते हुये ४० जो कोई पुरुष यह नारद राम के

संवादको भक्तिकरिके नित्य पढ़ेगा अथवा श्रवण करेगा सो संसार के भोगों से विरक्त होके देवदुर्लभ मोक्ष को प्राप्त होगा ४१॥

इत्यध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादेऽयोध्याकाण्डे
भाषाटीकायां प्रथमःसर्गः॥१॥

॥श्रीमहादेव उवाच॥

अथ राजा दशरथः कदाचिद्रहसि स्थितः।
वशिष्ठं स्वकुलाचार्य्यमाहूयेदमभाषत॥१॥

भगवन्राममखिलाः प्रशंसंति मुहुर्मुहुः।
पौराश्चनैगमावृद्धा मंत्रिणश्चविशेषतः॥२॥

ततः सर्वगुणोपेतं रामं राजीवलोचनम्।

ज्येष्ठं राज्येऽभिषेक्ष्यामि वृद्धोऽहं मुनिपुंगव॥३॥

भरतो मातुलं द्रष्टुं गतः शत्रुघ्नसंयुतः।
अभिषेक्ष्येश्व एवाशुभवांस्तच्चानुमोदताम्॥४॥

संभाराः संभ्रियं तां च गच्छ मंत्रय राघवम्।
उच्छ्रीयं तां पताकाश्च नानावर्णाः समं ततः॥५॥

तोरणानि विचित्राणि स्वर्णमुक्तामयानिवै।
आहूयमंत्रिणं राजा सुमन्त्रं मंत्रिसत्तमम्॥६॥

आज्ञापयति यद्यत्त्वां मुनिस्तत्तत्समानय।
यौवराज्येऽभिषेक्ष्यामि श्वो भूते रघुनन्दनम्॥७॥

दोहा॥

सर्गदूसरे मंथरा सुनि रघुवर अभिषेक।
केकयजाकी मति कुमति करी आय अविवेक॥२॥

अब महादेवजी पार्वतीजी से कहते हैं हे पार्वति इस के अनन्तर किसी समय में एकान्तदेश में बैठे हुये जो राजा दशरथ सो आचार्य वशिष्ठजी को बुलाके यह कहते हुये कि १ हे भगवन् सब पुरवासी लोग और वणिग्जन और वृद्धमन्त्री लोग ये सब राम की प्रशंसा करते हैं अर्थात् श्रीराम के निर्मल चरित्रों से सब प्रसन्न हैं २ हे मुनि श्रेष्ठ तिस कारण से सम्पूर्ण गुणों करिकै युक्त जो कमल नेत्र ज्येष्ठपुत्र श्रीरामचन्द्र तिनका राज्याभिषेक करौंगा क्योंकि जिससे मैं वृद्ध हौं अर्थात् मैं अपने नेत्रों से राम को राज्यसिंहासन पै स्थित देखों यह अभिलाषा है३ और शत्रुघ्न सहित भरत अपने मामा के देखने को संसारको गये हैं इस से प्रातःकाल ही राम का अभिषेक करौंगा सो आप भी इस का अनुमोदन करैं अर्थात् जो मैं ने विचारा है तिस में आपकी भी सम्मति होना चाहिये ४ औ जितनी अभिषेक की सामग्री हैं तिनको इकट्ठा करवाइये और रामजी से जाके सलाह कीजिये और नाना वर्णोंकी झण्डियां खड़ी करवाइये ५औ सुवर्ण औ मोतियों से बनी हुई बन्दनवारी चारों तरफ बँधवाना चाहिये फिर तिसके उपरान्त राजा दशरथ मंत्रियों में श्रेष्ठ जो सुमंत्र नाम मंत्री को बुलाइ के यह आज्ञा देते हुये ६ कि मुनि वशिष्ठ जो जो वस्तु की आज्ञा करैंवह वस्तु सवल्याकरदेवो क्योंकि प्रातःकाल होते ही हम राम का अभिषेक करैंगे ७॥

तथेति हर्षात्समुनिं किं करोमीत्यभाषत।
तमुवाच महातेजावशिष्ठोज्ञानिनां वरः॥८॥

श्वः प्रभातेमध्यकक्षेकन्यकाः स्वर्णभूषिताः।
तिष्ठं तुषोडशगजः स्वर्णरत्नादि भूषितः॥९॥

चतुर्दन्तः समायातु ऐरावतकुलोद्भवः।
नानातीर्थोदकैः पूर्णाःस्वर्णकुम्भाः सहस्रशः॥१०॥

स्थाप्यतां नव वै व्याघ्रचर्माणि त्रीणि चानय।
श्वेतछत्रं रत्नंदंडं मुक्तामणि विराजितम्॥११॥

दिव्यमाल्यानि वस्त्राणि दिव्यान्याभरणानि च।
मुनयः सत्कृतास्तत्र तिष्ठंतु कुशपाणयः॥१२॥

नर्त्तक्यो वारमुख्याश्च गायका वेणुकास्तथा।
नानावादित्र कुशलावादयंतु नृपां गणे॥१३॥

हस्त्यश्व रथपादाता बहिस्तिष्ठंतु सायुधाः।
नगरे यानि तिष्ठति देवतायतनानि च॥१४॥

तब वह सुमंत्र मंत्री बड़े हर्षसे हम तैसा ही करैंगे ऐसा राजा से कहिकै फिर वशिष्ठजी के पास जाके हे भगवन् क्या हम करैंसो आज्ञा करिये यह कहता हुआ तब ज्ञानियों में श्रेष्ठ वशिष्ठजी सुमंत्र से कहते हुये ८ कि हे सुमंत्र कल्ह प्रातःकाल बीचकी डिउढ़ीपर सुवर्णके आभूषण से भूषित सो रह कन्यास्थित रहैं और सुवर्णकरिकै भूषित ऐरावत हाथी के कुल में उत्पन्न हुआ चार दांत का हाथी एक स्थित रहै और अनेक तीर्थों के जलसे भरे हुए सोने के हजारों घट तैयार रहैं ९।१० और नवीन तीन व्याघ्रके चर्म तैयार रहैं और रत्नदण्ड जिस में होय औमोतियों की लड़ी जिसमें लटकती होयँ औ मणियोंकर के शोभित ऐसा एक श्वेतछत्र उपस्थित रहै ११ और दिव्यपुष्प औ दिव्यवस्त्र औ दिव्य आभूषण उपस्थित रहैं और कुश जिनके हाथ में होयँ औ सत्कार किये गये ऐसे मुनि लोग स्थित रहैं १२ औ नृत्य करनेवाली बहुत सी वेश्या नृत्य करने को तैयार रहैंऔर गाने वाले और वेणु बजानेवाले औ नाना प्रकार के बाजे बजाने में कुशल राजा के आँगन में बाजे बजावैं १३ और हाथियों पैचढ़े योधा औघोड़ों पै सवार औ रथोंके ऊपर स्थित बीर औ प्यादे ये सब अपने अपने शस्त्रों को ग्रहण करे हुये बाहर स्थित रहैं १४॥

तेषु प्रवर्त्ततां पूजा नानाबलिभिरावृता।
राजानः शीघ्रमायांतुनानोपायनपाणयः॥१५॥

इत्यादिश्यमानः श्रीमान् सुमंत्रं नृपमंत्रिणम्।
स्वयं जगाम भवनं राघवस्याति शोभनम्॥१६॥

रथमारुह्य भगवान्वशिष्ठोमुनिसत्तमः।
त्रीणिकक्षाण्यतिक्रम्य रथात्क्षितिमवातरत्॥१७॥

अंतः प्रविश्य भवनं स्वाचार्यत्वादं वारितः।
गुरुमागतमाज्ञाय रामस्तु कृतांजलिः॥१८॥

प्रत्युद्गम्यनमस्कृत्य दंडवद्भक्तिसंयुतः।
स्वर्णपात्रेण पानीय मानिनायाशु जानकी॥१९॥

रत्नासने समावेश्यपादौ प्रक्षाल्यभ

क्तितः।
तदापः शिरसा धृत्वा सीतया सह राघवः॥२०॥

धन्योऽस्मीत्यब्रवीद्रामस्तवपादांबुधारणात्।
श्रीरामेणैव मुक्तस्तु प्रहसन्मुनिरब्रवीत्॥२१॥

और अयोध्या नगरी में जितने देवताओं के मंदिर हैं तिन सब मंदिरों में उन मूर्तियों का पुष्प धूप वलि आदि सामग्री करिकै पूजन होय और नाना देशवासी राजा लोग भेंट हाथों में लिये हुये शीघ्र ही आवैं१५ इस प्रकार वशिष्ठ मुनि सुमन्त्र को आज्ञा देकै आप रामचन्द्र का शोभायमान जो मंदिर है तिसको जाते हुये १६ रथ के ऊपर चढ़े जो भगवान् वशिष्ठ मुनि सो रामचन्द्रजी की तीन डिउढ़ी नांघकर चौथी डिउढ़ी पररथ से उतरते हुये १७ फिर वशिष्ठजी रामचन्द्रजी के अन्तःपुर में प्रवेश करते हुये और इक्ष्वाकु वंश के आचार्य हैं इस से किसी ने न रोका फिर रामचन्द्र वशिष्ठजी का आगमन जानके शीघ्र ही हाथ जोड़े हुये १८ अगाड़ी से मिलके बड़ी भक्ति से दण्डवत्प्रणाम करिके फिर सुवर्ण के पात्र से सीताजी के लाये हुये जल से १९मुनि को रत्नकी चौकी पै बिठालकर अपने हाथ से चरण धोके उस जलको सीता सहित अपने शिर पै धारण करि २० हे मुने आपके चरण जलके धारण करने से मैं धन्य हौं ऐसा वचन कहते हुये ऐसे ब्रह्मण्यदेव श्रीराम का वचन सुनि हँसकरि के वशिष्ठमुनि बलते हुये २१॥

त्वत्पादसलिलं धृत्वाधन्योऽभूद्गिरिजा पतिः।
ब्रह्मापि मत्पिता ते हि पादतीर्थहताशुभः॥२२॥

इदानीं भाषसेयत्त्वं लोकानामुपदेशकृत्।
जानामि त्वां परात्मानं लक्ष्म्या संजातमीश्वरम्॥२३॥

देवकार्य्यार्थसिद्ध्यर्थं भक्तानां भक्तिसिन्दये।
रावणस्यवधार्थायजातं जानामि राघव॥२४॥

तथापिदेवकार्य्यार्थं गुह्यं नोद्घाटयाम्यहम्।
यथात्वं मायया सर्वं करोषि रघुनन्दन॥२५॥

तथैवानुविधास्येहं शिष्यस्त्वं गुरुरप्यहम्।
गुरुर्गुरूणां त्वं देवपितॄणां त्वं पितामहः॥२६॥

अंतर्यामी जगद्यात्रा वाहकस्त्वमगोचरः।
शुद्धसत्वमयं देहं धृत्वास्वाधीनसंभवम्॥२७॥

मनुष्य इव लोकेस्मिन् भासित्वं योगमायया।
पौरोहित्यमहं जाने विगर्ह्यं दुष्यजीवनम्॥२८॥

कि हे राम आपको पादसलिल जो गंगा तिसको शिरपै धारणकरिकै गिरिजापति जो महादेव सो धन्य होते हुये और तैसे ही मेरे पिता जो ब्रह्मा हैं सो भी आपके चरणजल स्पर्श ही से सब पापों को नाश करते हुये २२ सोई आप इस समय में कहते हौकि आपके चरण जल से मैंधन्य हुआ इससे विदित हुआ

कि यह वचन केवल लोक शिक्षार्थ ही है और यह मैं जानता हूं कि आप प्रकृति से परे परमात्मा ईश्वर लक्ष्मी सहित प्रकट हुये हौ २३ देवतों के कार्य की सिद्धिके अर्थ और भक्तों को भक्ति का फल देने के अर्थ औ रावण के वध के अर्थ हे राघव आप प्रकट हुये हो यह मैं जानता हूं २४ तौ भी देवतों के कार्य के अर्थ यह गुप्तरहस्य मैंप्रकट नहीं करता हौंऔ हे रघुनन्दन जैसे आप माया करके सब कार्य करते हौ २५ तेसे मैं भी आपके अनुकूल ही सब विधान करौंगा इसी से व्यवहार दृष्टि में आप शिष्य हैं मैंगुरु हौंऔ हे देव वास्तव में तौ आप गुरुओं के भी गुरु हौऔ पितरों के भी पितामह हौअर्थात् दादे हौ २६ और जगत्रूपी यन्त्र के निर्वाहक अर्थात् सब जगत् के कार्य्यं के सिद्ध करनेवाले और किसी इन्द्रिय के विषय नहीं होते ऐसे अन्तर्यामी आप हैं और अपने स्वाधीन शुद्ध सत्वमय देह को धारण कर २७ मनुष्य की नाईं इस लोक में प्रकाशमान हो रहे हौऔ हे राम यह मैं जानता रहा कि पुरोहिताईका कर्म निंद्यहै औ शास्त्र से भी यह आजीविका दोष युक्त है २८॥

इक्ष्वाकूणां कुले रामः परमात्मा जनिष्यते।
इति ज्ञातं मया पूर्वं ब्रह्मणा कथितं पुरा॥२९॥

ततोह माशया राम तव संबन्धकांक्षया।
अकार्षं गर्हितमपितवाचार्यत्वसिद्धये

॥३०॥

ततो मनोरथोऽमेद्य फलितो रघुनन्दन।
त्वदधीना महामाया सर्वलोकैकमोहिनी॥३१॥

मां यथा मोहयेन्नैव तथाकुरु रघूद्वह।
गुरुनिष्कृति कामस्त्वं यदिदेह्येतदेव मे॥३२॥

प्रसंगात्सर्वमप्युक्तन्नवाच्यं कुत्रचिन्मया।
राज्ञा दशरथेनाहं प्रेषितोऽस्मि रघूद्वह॥३३॥

त्वामामंत्रयितुं राज्येश्वोऽभिषेक्ष्यति राघव।
अद्य त्वं सीतया सार्द्धमुपवासं यथाविधि॥३४॥

कृत्वाशुचिर्भूमिशायी भवराम जितेंद्रियः।
गच्छामि राज सान्निध्यं त्वं तु प्रातर्गमिष्यसि॥३५॥

तौ भी इक्ष्वाकु वंश में साक्षात् परमात्मा राम रूप होके प्रकट होगा यह पहिले ब्रह्मा का कहा हुआ जानता रहा २९इससे हे राम तब से बड़ी आशा से आपके संबन्धकी इच्छा करिकै निन्दित भी पौरोहित्य कर्म मैंने स्वीकार किया केवल आपके आचार्य कर्म के सिद्ध के अर्थ ३० हे रघुनन्दन सो मेरा मनोरथ अब सिद्ध हुआ औ हे राम सब लोकों को मोह करानेवाली जो माया है सो आपके आधीन हो रही है ३१ सो हे रघूद्वह रघु वंशियों के उद्धार करने वाले वह आपकी माया मुझको जैसे मोह न करावैतैसा करिये औ जो गुरु दक्षिणा आपको देनी है तौयही गुरुदक्षिणा दीजिये ३२ परन्तु प्रसंग से मैंने यह बात कही आपको यह भी रहस्य किसी से नहीं कहना चाहिये औ हे रघूद्वह इ-

स समय में तौ राजा दशरथ के भेजे हुये हम आये हैं३३ आपसे कुछ वार्ता कहने को क्योंकि राजा दशरथप्रातः काल आपका राज्याभिषेक करैंगे इस से हे राघव आज की रात्री आप सीता सहित करकेविधि पूर्वक उपवास ३४ करके पवित्र होकर भूमि में शयन कर जितेन्द्रिय हू जिये अब मैंराजा के समीप जाता हौं औआप प्रातःकाल जाइँगे ३५॥

इत्युक्त्वा रथमारुह्य ययौ राजगुरुर्द्रुतम्।
रामोऽपिलक्ष्मणं दृष्ट्वाप्रहसन्निदमब्रवीत्॥३६॥

सौमित्रे यौवराज्ये मेश्वोऽभिषेको भविष्यति।
निमित्तमात्रमेवाहं कर्त्ता भोक्तात्वमेवहि॥३७॥

मम त्वं हि बहिः प्राणो नात्रकार्याविचारणा।
ततो वशिष्ठेन यथा भाषितं तत्तथाकरोत्॥३८॥

वशिष्ठोऽपि नृपं गत्वा कृतं सर्वं न्यवेदयत्।
वशिष्ठस्य पुरोराज्ञाह्युक्तं रामाभिषेचनम्॥३९॥

यदा तदेव नगरे श्रुत्वा कश्चित्पुमान्जगौ।
कौशल्यायैराममात्रे सुमित्रायै तथैव च॥४०॥

श्रुत्वा ते हर्षसंपूर्णे ददतुर्हारमुत्तमम्।
तस्मै ततः प्रीतमनाः कौशल्या पुत्रवत्सला॥४१॥

लक्ष्मीपर्यचरद्देवीं रामस्यार्थ प्रसिद्धये।
सत्यवादी दशरथः करोत्येव प्रतिश्रुतम्॥४२ ॥

यह वचन कहि और रथ पै चढ़ि कै वशिष्ठजी शीघ्रही जाते हुये रामचन्द्रभी लक्ष्मण को देखिकै हँसिकै यह कहते हुये ३६ कि. हे लक्ष्मण प्रातःकाल के समय यौवराज्य पदवी में पिता मेरा अभिषेक करैंगे सो निमित्त मात्र राज्यको करनेवाला तो मैं होऊंगा और भोक्ता तौ तुम्हीं होउगे ३७ क्योंकि तुम बाहर के प्राण मेरे हौ इसमें किसी प्रकार का विचार नहीं करना है तिसके अनंतर वशिष्ठजी ने जैसी आज्ञा की थी तैसे ही उपवास आदि रामचन्द्रजी करते हुये ३८अब वशिष्ठ मुनि भी राजा दशरथ के पास जाके जो कुछ किया सो सब कहते हुये और जिस समय में वशिष्ठजी के आगे राजा दशरथ ने रामचन्द्र के अभिषेक की वार्ता की थी उस समय में कोई अयोध्या का पुरुष उसी वार्ता को सुनिकै कौशल्या सुमित्रा सेकहता भया ३९ तब कौशल्याजी औ सुमित्राजी रामाभिषेक को सुनिकै आनन्द सेपरिपूर्ण बड़ी प्रसन्न हो कैउस खबर सुनानेवाले को बड़ा श्रेष्ठ रत्नों का हार देती हुईं ४०।४१ तिसके अनन्तर कौशल्यारानी रामचन्द्र के अर्थकी सिद्धि केलिये बड़े प्रेम से लक्ष्मीजी का पूजन करती हुईं कौशल्या यह विचार उस समय में करती हुईं कि राजा दशरथ सत्यवादी हैं इससे तौजो कुछ कहा है सो अवश्य करेंगे ४२॥

कैकेयीवरागः किंतु कामुकः किं करिष्यति।

इति व्याकुलचित्तासादु

र्गांदेवीमपूजयत्॥४३॥

एतस्मिन्नंतरे देवादैवीं वाणीमचोदयन्।
गच्छ देविभुवो लोकमयोध्यायां प्रयत्नतः॥४४॥

रामाभिषेकविघ्नार्थं यतस्व ब्रह्मवाक्यतः।
मंथरां प्रविशस्वादौ कैकेयीं च ततः परम्॥४५॥

ततोविघ्ने समुत्पन्नेपुनरेहि दिवं शुभे।
तथेत्युकत्वातथा चक्रे प्रविवेशाथमंथराम्॥४६॥

सापि कुब्जा त्रिवक्रा तु प्रासादाग्रमथारुहत्।
नगरं परितो दृष्ट्वा सर्वतः समलंकृतम्॥४७॥

नानातोरणसंबाधं पताकाभिरलंकृतम्।
सर्वोत्सवसमायुक्तं विस्मिता पुनरागमत्॥४८॥

धात्रीं पप्रच्छमातः किं नगरं समलंकृतम्।
नानोत्सवसमायुक्ता कौशल्याचातिहर्षिता॥४९॥

परन्तु जो अत्यंत कामी हो कैकेयी के वशीभूत हो रहे हैं सो क्या करेंगे इस प्रकार व्याकुल है चित्त जिनका ऐसी कौशल्या सो दुर्गा देवी को पूजती हुईं ४३ उसी समय में सब देवता सरस्वती देवी को भेजते भये औ यह कहते हुये कि हे देवि तुम भूलोक में अयोध्या नगरी को आवो ४४ और वहां जाके रामचन्द्र के अभिषेक के विघ्न के अर्थ ब्रह्मा की आज्ञा से यत्न करौ औ हे देवि पहिले तौ मंथरा की बुद्धि में प्रवेश करो औ फिर कैकेयी में प्रवेश कीजिये ४५ हे देवि इस प्रकार राम के अभिषेक का विघ्न करके फिर स्वर्ग को आवो तब सरस्वती ने कहा तैसे ही होंगा यह देवतोंसे कह करके अयोध्या में आके प्रथम मंथरा में प्रवेश करती हुई ४६ तब वह कुबड़ी जो मंथरा सो महल के ऊपर चढ़िकै चारों तरफ से अलंकृत नगर को देखती जहां तहां बन्दनवारी बँध रही हैं ४७ औ झंडियोंकरके शोभित हो रहा है औ घर घर उत्सव हो रहा है ऐसे नगर को देखके बड़ी विस्मित हो के धाइसे पूछती हुई ४८ कि हे माता आज यह क्या है जो अयोध्या नगरी सब उत्सव युक्त हो रही है और नानाप्रकार के उत्सव कर रही बड़े हर्षयुक्त कौशल्या मुख्य २ ब्राह्मणों को नानाप्रकार के वस्त्रों को दे रही हैं ४९॥

ददाति विप्रमुख्येभ्यो वस्त्राणि विविधानि च।
तामुवाच तदा धात्री रामचन्द्राभिषेचनम्॥५०॥

श्वोभविष्यति तेनाद्य सर्वतोऽलंकृतं पुरम्।
तच्छ्रुत्वा त्वरितं गत्वा कैकेयी वाक्यमब्रवीत्॥५१॥

पर्यंकस्थां विशालाक्षीमेकान्ते पर्यवस्थिताम्।
किं शेषे दुर्भगमूढे महद्भयमुपस्थितम्॥५२॥

नजानीषेऽतिसौंदर्यमानिनीमत्तगामिनी॥५३॥

रामस्यानुग्रहाद्राज्ञाश्वोऽभिषेको भविष्यति।
तच्छ्रुत्वा सहसोत्थाय कैकेयीप्रियवादिनी॥५४॥

तस्यै दिव्यं ददौ स्वर्णनूपुरंरत्नभूषितम्।
हर्षस्थाने किमितिमेक

थ्यते भयमागतम्॥५५॥

भरतादधिको रामः प्रियकृन्मे प्रियंवदः।
कौशल्यां मां समं पश्यन्सदाशुश्रूषते हिमाम्॥५६॥

सो आज यह कौन सा बड़ा भारी उत्सव है वह कहिये ऐसा मंथरा का वचन सुनके धात्री कहने लगी कि रामचन्द्र का राज्याभिषेक कल्ह होगा ५० इस कारण से अयोध्या नगरी में सब जगह उत्सव हो रहा है यह वचन मन्थरा सुनिकै शीघ्र ही आ कैकेयी से कहती हुई ५१ और कैकेयी उस समय में एकांत देश में पलँग के ऊपर बैठी थी औ विशाल हैं नेत्र जिसके ऐसी कैकेयी से मंथरा कहने लगी कि हे दुर्भगे हे मूढ़े हे कैकेयि तू बड़ी मूर्ख है जो पड़ी पड़ी पलँग पै सोइ रही है ५२ जो शिरके ऊपर बड़ी भारी भय प्राप्त हुई है उसको नहीं जानती और तेरी मतवाली हाथी की सी चाल है और अपने सौंदर्य को बहुत मान रही है ५३ और इसी से यह नहीं जानती है कि राजादशरथ के अनुग्रह से कल के दिन प्रातःकाल राम को राज्य का अभिषेक होगा यह वचन मंथरा के सुनके कैकेयी शीघ्र ही उठ करके बड़े आनन्द से ५४ प्रिय वचन सुनानेवाली मंथरा को रत्न जटित सुवर्ण का नूपुर देती हुई और कहती हुई कि हे मंथरे हर्ष के कारण में क्या तू भय को कहि रही है ५५ और भरत से अधिक राम मेरे में प्रीति करते हैं औ सदा प्रिय वचन ही बोलते हैं और कौशल्या और मुझको सदा समान ही देखते हैं औ नित्य मेरी शुश्रूषा करते हैं ५६॥

रामाद्भयं किमापन्नं तव मूढे वदस्व मे।
तच्छ्रुत्वा विषसादाथ कुब्जकारणवैरिणी

५७

शृणुमद्वचनं देवि यथार्थं ते महद्भयम्।
त्वां तोषयन् सदा राजा प्रियवाक्यानि भाषते

५८

कामुकोऽतथ्यवादी च त्वां वाचापरितोषयन्।
पार्यंकरोति तस्यावै राममातुः सुपुष्कलम्

५९

मनस्येतन्निधायैव प्रेषयामास ते सुतम्।
भरतं मातुल कुले प्रेषयामास सानुजम्

६०

सुमित्रायाः समीचीनं भविष्यति न संशयः।

लक्ष्मणो राममन्वेति राज्यं

सोऽनुभविष्यति

६१

भरतो राघवस्याग्रेकिङ्करो वा भविष्यति।
विवास्यते वा नगरात्प्राणैर्वाहाप्यतेऽचिरात्

६२

त्वं तुदासीव कौशल्यां नित्यं परिचरिष्यति।
ततोऽपि मरणं श्रेयोयत्सपत्न्याःपराभवः

६३॥

औहे मूढे राम से क्या भयप्राप्त है सो बतलाउ ये कैकेयी के वचन सुनिकै सरस्वतीजी के कारण सेवैरिणी जो मन्थरा है सो बड़े क्लेश को प्राप्त होती हुई ५७ और यह कहती भई कि हे देवि जिस कारण तुझ को भय प्राप्त है उसको सुनु राजा दशरथ केवल तेरे तोष के लिये अर्थात् जिसमें तेरी प्रसन्नता होय इसके

अर्थ तुझको सदा प्रिय वचन सुनाते हैं ५८ और कामी हैं इसीसे मिथ्या बोलनेवाले ऐसे जो राजा हैं सो तेरा तौ झूंठे प्रिय वचनों से परितोष करते हैं और कौशल्या का संपूर्ण कार्य सिद्ध करते हैं ५९ यही बात मनसे विचारि के तेरा पुत्र भरत तौ शत्रुघ्न सहित मामा के घर भेज दिया है ६० और सुमित्रा को भी इस में अच्छा है क्योंकि सुमित्रा का पुत्र लक्ष्मण राम का अनुगामी है इससे राज्य सुखको प्राप्त ही होयगा ६१और भरत राम के आगे सेवक होके रहा अथवा नगर से बाहर निकास दिया जायगा अथवा थोडे से काल में प्राणों ही से रहित हो जायगा ६२ और तू तौ दासी के तुल्य कौशल्या की नित्य शुश्रूषा करा करैगी फिर जो सपत्नी अर्थात् सौति जो कौशल्या तिससे जो तिरस्कार होगा उससे तौ फिर मरना ही अच्छा है ६३॥

अतः शीघ्रं यतस्वाद्य भरतस्याऽभिषेचने।
रामस्यवनवासार्थं वर्षाणि नवपञ्च च॥६४॥

ततो रूढोऽभये पुत्रः तव राज्ञि भविष्यति।
उपायंते प्रवक्ष्यामि पूर्वमेव सुनिश्चितम्॥६५॥

पुरा देवासुरे युद्धे राजा दशरथः स्वयम्।
इन्द्रेण याचितोधन्वी सहायार्थं महारथः॥६६॥

जगाम सेनया सार्द्धंत्वया सह शुभानने।
युद्धं प्रकुर्वतस्तस्यराक्षसैः सह धन्विनः॥६७॥

तदाक्ष कीलोन्यपतच्छिन्नस्तस्यनवेदसः।
त्वं तु हस्तं समावेश्य कीलरंध्रेति धैर्यतः॥६८॥

स्थितवत्यसितापांगी पतिप्राणपरीप्सया।
ततो हत्वाऽसुरान्सर्वान्ददर्शत्वामरिन्दमः॥६९॥

आश्चर्यं परमं लेभे त्वामालिंग्यमुदान्वितः।
वृणीष्व यत्ते मनसि वाञ्छितं वरदोऽस्म्यहम्॥७०॥

इसलिये शीघ्र ही अभी भरत के राज्याभिषेक में यत्नकर और रामको जिस में चौदह वर्षका वनवास हो वै ऐसा यत्न शीघ्रही करना चाहिये ६४ फिर जब चौदह वर्ष रामवन में रहैंगे तौ भरत की राज्य में जड़ बँध जायगी अब उपाय तुझको बतलाती हौंजो पहिले से निश्चित हो रहा है ६५ प्रथम एक समय में राजा दशरथ से देवासुर संग्राम में इन्द्र ने सहाय के अर्थ प्रार्थना की तब राजादशरथ ६६ सेना सहित और तुझ को भी संग लेके असुरों के साथ युद्ध करने को जाते हुये फिर जब राजा दशरथ रथ में बैठिकै धनुषबाण ग्रहणकर राक्षसों से युद्ध करने लगे ६७ तब रथ के पहिये के छिद्र में धुरेकी कील निकल गई और राजा ने जानी नहीं तौ तू अत्यन्त धैर्य से उस छिद्र में ६८ अपना हाथ प्रवेशकरदेती हुई है औ कैकेयि पति के प्राणों की रक्षा केलिये उस समय में तू सावधान होती हुई तब राजा दशरथ सब असुरों को मार के तुझ को देखके बड़े आश्चर्य को प्राप्त हुये ६९ और तुझको बड़े हर्षसे आलिंगन करके यह कहते भये कि हे

प्रिये तेरे ऊपर मैंबहुत प्रसन्न हौंजो तेरे मन में होय सो वर मांग ७०॥

वरद्वयंवृणीष्व त्वमेवं राजाऽवदत्स्वयम्।
त्वयोक्तोवरदोराजन्यदिदत्तंवरद्वयम् ॥७१॥

त्वय्येव तिष्ठतु चिरं न्यास भूतं ममानघ।
यदामेऽवसरोभूयात्तदा देहिवरद्वयम्॥७२॥

तथेत्युक्त्वास्वयं राजा मंदिरं व्रजसुव्रते।
त्वत्तः श्रुतं मया पूर्वमिदानीं स्मृतिमागतम्॥७३॥

अतः शीघ्रम्प्रविश्याद्यक्रोधागारं रुषान्विता।

विमुच्य सर्वाभरणं सर्वतो विनिकीर्य च।

भूमावेव शयाना त्वं तूष्णीमातिष्ठभामिनी॥७४॥

यावत्सत्यं प्रतिज्ञाय राजाऽभीष्टं करोति ते।
श्रुत्वा त्रिवक्रयोक्तं तत्तदा केकयनंदिनी॥७५॥

तथ्यमेवाखिलं मेने दुःसंगाहितविभ्रमा।
तामाह कैकयी दुष्टाकुतस्ते बुद्धिरीदृशी॥७६॥

एवं त्वां बुद्धि संपन्नां न जाने वक्रसुंदरि।
भरतो यदि राजा मे भविष्यति सुतः प्रियः॥७७॥

और तुमको मैं दो वरदान देता हौंतब तूने यह कहा कि हे राजन् जो आप प्रसन्न होके मुझको दो वरदान दिया चाहते हो ७१ तौ दोनों वरदान अभी धरो हरि के तुल्य आपही के पास रहैं जब मुझ को काम पड़ेगा तो मैं लैलेउंगी ७२ तब राजा दशरथ (तथास्तु) तैसे ही होय ऐसे वचन कहिकै फिर तेरे संग गृहको आते हुये यह वार्त्ता तुझी से मैंने सुनी थी इस समय में याद हुई ७३ इससे अब शीघ्र ही कोपयुक्त हो के क्रोध के मन्दिर में प्रवेशकरो वहां सब आभूषणोंको उतारि करि और शिर खोलके हे कैकेयि तू मौन होके भूमि में शयनकर ७४ जब तक राजा सत्यप्रतिज्ञा करिकै तेरे मनोरथ को न करें तब तक तू वै से ही पृथ्वी में विना बिछौने के पड़ी रहु तब कैकेयी यह मन्थरा के वचन सुनिकै ७५ अपना हित इससे सत्य ही मानती हुई क्योंकि दुस्संगके वशसे प्राप्त हुआ विभ्रम जिसको ऐसी हो रही है और मन्थरा से यह वचन कहती हुई कि हे मन्थरे यह बुद्धिं तुझको कहां से प्राप्त हुई ७६ और मैं नहीं जानती थी कि तू ऐसी बुद्धि युक्त है और विदित होता है कि तेरे कूबड में बुद्धियों का खजाना है जो कदाचित् मेरा प्रिय पुत्र भरत राजा होयगा ७७॥

ग्रामाञ्छतं प्रदास्यामि मम त्वं प्राणवल्लभा।
इत्युक्त्वा कोपभवनं प्रविश्यसहसारुषा॥७८॥

विमुच्य सर्वाभरणं परिकीर्यसमं ततः।
भूमौ शयानामलिनामलिनाम्बरधारिणी॥७९॥

प्रोवाच शृणुमे कुब्जे यावद्रामोवनं व्रजेत्।
प्राणांस्त्यक्ष्येऽथवाचक्रेशयिष्येतावदेवहि॥८०॥

निश्चयंकुरुकल्याणिकल्याणं ते भविष्यति।
इत्युक्त्वाप्रययौ कुब्जागृहं साऽपित

थाऽकरोत्॥८१॥

धीरोत्यं तदयान्वितोऽपि सुगुणाचारान्वितोवाऽथवा
नीतिज्ञो विधिवाददेशिकपरोविद्याविवेकोऽथवा।

दुष्टानामतिपापभावितधियांसंगसदाचेद्भजेत्तद्बुद्ध्या
परिभावितोव्रजति तत्साम्यं क्रमेण स्फुटम्॥८२॥

अतः संगः परित्याज्योदुष्टानांसर्व दैवहि।
दुःसंगीच्यवते स्वार्थाद्यथेयं राजकन्यका॥८३॥

इति श्रीमदध्यात्मसमायणे उमामहेश्वरसंवादेऽयोध्याकाण्डे
द्वितीयः सर्गः २॥

तो मैं तेरेको सौ गांवदेउँगी और तू मेरे प्राणों को अति प्रिय है ऐसा वचन मंथरा से कहिकै कैकेयी शीघ्र ही क्रोधकरिकै कोपमन्दिर में प्रवेश करके सब आभूषणों को उतारिकै और केशखोलिकैऔर मैले वस्त्रों को धारणकर पृथ्वी मेंशयनकरती भई ७८/७९ मंथरा से यह वचनबोली कि हे कुब्जे जब तक राम वनको नहीं जायँगे तब तक नहीं उठौंगी प्राणभलेही त्यागदेवों ८० तब मन्थरा ने कहा कि जो तू ऐसे करैगी तौनिश्चय से तेरा कल्याण होगा ऐसा कहिकै मन्थरातो अपने गृह जाती हुई चौ कैकेयी कोप भवन में सोती भई ८१ अब इस कथा का तात्पर्य कहते हैं कि जो मनुष्य धीर भी होयऔ अत्यन्त दयायुक्त भी होय और अच्छे गुण और अच्छे आचारों करके युक्त भी होय और नीति का जाननेवाला भी होय औ शास्त्र का जाननेवाला गुरुभक्त भी होय और विद्या विवेक युक्त भीहोय तौ भी अत्यन्त पाप भावना करके पापग्रस्त हुई है बुद्धि जिन्हों की ऐसे दुष्टों के संगको जो सेवन करै तौ उनकी बुद्धि करिकै संस्कार युक्त हुई बुद्धि जिसकी ऐसा होकर कुछ कालमें क्रमकरिकै वैसा ही हो जाता है ८२ इससे सब काल में दुष्टों का संग त्याग करिबे योग्य ही है क्योंकि दुस्संगके कारण से अपने पुरुषार्थ से भ्रष्ट हो जाता है जैसे यह राजकन्या कैकेयी भ्रष्टमति होगई है ८३॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे अयोध्याकाण्डे द्वितीयस्सर्गः २॥

॥श्रीमहादेव उवाच॥

ततो दशरथो राजा रामाभ्युदयकारणात्।
आदिश्य मंत्रिप्रकृतीः सानन्दोगृहमाविशत्॥

१॥

तत्रा दृष्ट्वा प्रियां राजाकिमेतिदितिविद्वलः।
या पुरा मंदिरं तस्याः प्रविष्टे मयि शोभना॥२॥

हसंती मामुपायाति सा किं नैवाद्य दृश्यते।
इत्यात्मन्येव संचिन्त्यमनसाति विदूयता॥३॥

पप्रच्छ दासीनिकरं कुतोवः स्वामिनीशुभा।
नायाति मां यथा पूर्वंमत्प्रियाप्रियदर्शना॥४॥

ताऊचुः क्रोधभवनं प्रविष्टानैवविद्महे।
कारणं तत्र देवत्वं गत्वानिश्चेतुमर्हसि॥५॥

इत्युक्तो भयसंत्रस्तो

राजातस्याः समीपगः।
उपविश्यशनैर्देहंस्पृशन्वैणिनाऽब्रवीत्॥६॥

किंशेषेवसुधापृष्ठे पर्यंकादीन्विहाय च।
मां त्वं खेदयसे भीरु यतो मां नावभाषसे॥७॥

दो०

कोप भवन में तीसरे स्वपति शपथ दृढ़ मान।
याँचत केकयजा भरत तिलक राम बनजान॥३॥

तिसके उपरांत राजा दशरथ मन्त्रियोंको व प्रजाओं को रामचन्द्र के ऐश्वर्य के कारणसेआज्ञादैकै आनन्द सहित गृहमें प्रवेश करते हुये १ तिस गृह में प्रिया जो कैकेयी तिसको विना देखे राजा दशरथ अति व्याकुल होकै अपने मन में यह चिन्ता करने लगे कि जब मैं कैकेयी के गृहमें प्रवेश करता था तौ पहिले ही से आके प्रिया मेरी अपने दर्शन से आनन्दित करती थी २ आज मेरा क्या अपराध है जो दिखाई नहीं पड़ती यह चिंतनकर अति संतप्त चित्तसे कैकेयी की दासियों से पूछता हुआ कि तुम्हारी स्वामिनी कहां है ३ और प्रियदर्शन जिसका ऐसी जो मेरी प्रिया सो जैसे पहिले मुझको मिलती थी तैसे आजु नहीं प्राप्त हुई इसमें क्या कारण है ४ तब दासी कहने लगीं हे देव आपकी प्रिया क्रोध भवन में प्रविष्ट हो रही हैं इसका कारण आप ही जाके निश्चय करिये हम नहीं जानसक्ती ५ ऐसा जब वचन दासियों ने कहा तौ भय करके संत्रस्त राजा उस कैकेयी के समीप जाके धीरे धीरे उस के अंगको अपने हाथसे स्पर्श कर बोलता हुआ ६ कि हे प्रिये जो तू शय्यादि भोग की सामग्रियों को त्यागिकै भूमि में शयन कर रही है सो क्या कारण है औहे भीरु जो तू मुझ सेनहीं संभाषण करती इस से मेरे चित्तको भी खेद करा रही है ७॥

अलंकारं परित्यज्यभूमौमलिनवाससा।
किमर्थं ब्रूहि सकलं विधास्ये तव वाञ्छितम्॥८॥

को वा तवाहितं कर्त्तनारीवा पुरुषोऽपिवा।
समे दण्ड्यश्च बध्यश्च भविष्यति न संशयः॥९॥

ब्रूहि देवि यथा प्रीतिस्तदवश्यं ममाग्रतः।
तदिदानीं साधयिष्ये सुदुर्लभमपि क्षणात्॥१०॥

जानासि त्वं मम स्वान्तं प्रियं मां स्ववशेस्थितम्।
तथापि मां खेदयसे वृथा तव परिश्रमः॥११॥

ब्रूहिकंधनिनं कुर्यान्दरिद्रन्तेप्रियंकरम्।
धनिनं क्षणमात्रेण निर्द्धनं चतवाहितम्॥१२॥

ब्रूहिकंवा वधिष्यामि वधार्हो वाविमोक्ष्यते।
किमत्रबहुनोक्तेन प्राणान्दास्यामि ते प्रिये॥१३॥

मम प्राणात्प्रियतरो रामो राजीवलोचनः।
तस्योपरि शपे ब्रूहित्वद्धितं तत्करोम्यहम्॥१४॥

और सब आभूषणों को त्यागकर मलिन वस्त्रको धारणकर किस वास्ते पृथिवी में शयन करती है सो अपना अभीष्टकहु८ और कौन स्त्री वा पुरुष तेरे अहित का करनेवाला है सो मेरे दण्ड को प्राप्त होय अथवा वधको प्राप्त होय ९ और हे देवि जिस प्रकार से तेरी प्रसन्नता हो वै सो मेरे आगे कहु सो जो दुर्लभ भी होय तो मैं इसी समय सिद्धकर सक्ता हौं १० और तू मेरे हृदय के अभिप्राय को जानती है कि मैं तेरा प्रिय तेरे वशमें स्थित हौंतो भी मुझ को खेद कराय रही है इससे वृथा तेरा परिश्रम है ११ और यह कहु कि कौन से तेरे प्रिय करनेवाले दरिद्री को धनी करौंऔर कौन से तेरे अपराधी धनीको निर्धन करिदेवों एक क्षणमात्रमें ही १२ और कहु कौन तेरे कहने से मारा जाय और कौन मारने के योग्य भी छोड़ा जावैऔ हे प्रिये बहुत कहने से क्या है अपने प्राणभी तेरे अर्थदे सक्ता हौं १३ और मुझ को अपने प्राणोंसे भी प्रियराम हैं जिसके कमलवत् विशाल नेत्र हैं तिस राम की शपथकरता हौं जो तेरा प्रिय होय सो मैं करौंगा १४॥

इति ब्रुवाणं राजानं शपन्तं राघवोपरि।
शनैर्विमृज्यनेत्रे साराजानंप्रत्यभाषत॥१५॥

यदिसत्यप्रतिज्ञोसिशपथं कुरुषेयदि।
याञ्चामे सफलां कर्त्तुंशीघ्रमेवत्वमर्हसि॥१६॥

पूर्वं देवासुरे युद्धे मयात्वं परिरक्षितः।
तदावरद्वयं दत्तं त्वया मे तुष्टचेतसा॥१७॥

तद्द्वयं न्यासभूतं मे स्थापितंत्वयि सुव्रत।
तत्रैकेन वरेणाशुभरतं मे प्रियं सुतम्॥१८॥

एभिः संभृतसंभारैर्यौवराज्येऽभिषेचय।
अपरेणवरेणाशुरामागच्छतुदण्डकान्॥१९॥

मुनिवेषधरः श्रीमान्जटावल्कलभूषणः।
चतुर्दशसमास्तत्र कंदमूलफलाशनः॥२०॥

पुनरायातु तस्यां ते वने वा तिष्ठतु स्वयम्।
प्रभाते गच्छतु वनं रामो राजीवलोचनः॥२१॥

अब राम के ऊपर भी शपथ करिकै ऐसे वचन कहता हुआ जो राजा तिससे कैकेयी नेत्रों से आशुओं को पोंछके बोलती हुई १५ कि हे राजन् जो आप सत्य प्रतिज्ञ हो और जो राम की शपथकरते हो तो शीघ्र ही मेरी प्रार्थना को सफल करने को योग्य हो १६ पहिले देवासुर संग्राम में मैंने तुम्हारी रक्षा की थी तो उस समय में आपने प्रसन्न होके मुझको दो वरदिये थे १७ ते दोनों वर मैंने आप ही के पास धरोहर स्थापन कर दिये थे तिनमें से एक वरदान करिकै तो मेरा प्रियपुत्र भरत १८ इन्हीं सामग्रि यों करके शीघ्र ही यौवराज्य पदमें अभिषिक्त किया जावैअर्थात् जो राम को राज्य बिचारा है सो भरतको मिलै और दूसरे वरदान करके शीघ्र ही राम दण्डक वनको जावैं१९ औ श्रीमान् जो राम हैं सो जटा औ वल्कल वस्त्र को धारणकर मुनि वेषधारी चौदह वर्ष तक कंदमूलफल

आदि मुनियों का अन्न भोजनकर २० तादण्डकारण्य में वासकरैंतिसके अनंतर अयोध्या में आवैंचाहे वन ही में वासकरैंऔर प्रातःकाल होते कमलवत् विशाल नेत्र जो राम सो वन को जायँ २१॥

यदि किंचिद्विलंवेतप्राणांस्त्यक्ष्ये तवाग्रतः।
भवसत्यप्रतिज्ञस्त्वमेतदेव मम प्रियम्॥२२॥

श्रुत्वैतद्दारुणं वाक्यं कैकेय्यारोमहर्षणम्।
निपपात महीपालो वज्राहत इवाचलः॥२३॥

शनैरुन्मील्यनयनेविमृज्यपरयाभिया।
दुस्वप्नो वामया दृष्टोह्यथवा चित्तविभ्रमः॥२४॥

इत्यालोक्यपुरःपत्नींव्याघ्रीमिव पुरः स्थिताम्।
किमिदं भाषसे भद्रे मम प्राणहरं वचः॥२५॥

रामःकमपराधं ते कृतवान्कमलेक्षणः।
ममाग्रे राघव गुणान्वर्णस्य निशंशुभान्॥२६॥

कौशल्यां मां समं पश्यन्शुश्रूषां कुरु ते सदा।
इति ब्रुवंती त्वं पूर्वमिदानीं भाषसेऽन्यथा॥२७॥

राज्यं गृहाण पुत्राय रामस्तिष्ठतुमंदिरे।
अनुगृह्णीष्व मां वामे रामान्नास्तिभयंतव॥२८॥

जो कदाचित् कुछ देर करेगा तो तुम्हारे आगे ही मैं प्राणों को त्याग देवोंगी और हे राजन् आप सत्य प्रतिज्ञ हू जिये और यही मुझको प्रिय है २२ अब जिसके सुने से रोमखड़े हो जायँ ऐसा दारुण बड़ा भयंकर कैकेयी का वचन सुनिकै विजुलीके मारे हुये वृक्ष के सदृश राजा दशरथ पृथिवी में गिर पड़ता हुआ २३ अब राजा दशरथ धीरे धीरे नेत्रों को खोलकै औ पोंछ कै बड़ी भय से यह कहने लगे कि मैं ने कोई दुस्स्वप्न देखा है अथवा मेरा चित्त भ्रम है २४ ऐसा विचार कर व्याघ्री के तुल्य आगे खड़ी कैकेयी को देख के कहते हुये कि हे भद्रेक्या मेरे प्राण के हरनेवाला यह वचन कह रही है २५ और कमल लोचन जो राम है तिसने क्या तेरा अपराध किया है और तू मेरे आगे निरंतर राम के शुभगुणों को वर्णनकरती है २६ कि राम कौशल्या को औ मुझको एक सा देख के सदा शुश्रूषा करता है इस प्रकार तू प्रथम मुझ से कहती थी अब क्यों वृथा भाषण करती है २७ और अपने पुत्र के अर्थ राज्य को तुही ग्रहण कर परन्तु राम गृह में रहैंऔर हे वामे इस प्रकार मेरे ऊपर अनुग्रह कर और राम से तुझ को भय नहीं है २८॥

इत्युक्त्वाऽश्रुपरीताक्षः पादयोर्निपपात ह।
कैकेयी प्रत्युवाचेदं सापि रक्तांतलोचना॥२९॥

राजेंद्र किं त्वं भ्रांतोऽसि उक्तं तद्भाषसेऽन्यथा।
मिथ्याकरोषि चेत्स्वीयं भाषितं नरको भवेत्॥३०॥

वनं न गच्छेद्यदिरामचन्द्रः प्रभातकालेऽजिनचीरयुक्तः।
उद्बधनवाविषभक्षणं वा कृत्वा मरिष्येपुरतस्तवाहम्॥३१॥

सत्यप्रतिज्ञोऽहमितीहलोके विडंबसे सर्वसभां त

रेषु।

रामोपरि त्वं शपथं च कृत्वा मिथ्या प्रतिज्ञो नरकं प्रयाहि॥३२॥

इत्युक्तः प्रिययादीनोमग्नो दुःखार्णवे नृपः।
मूर्च्छितः पतितो भूमौ विसंज्ञो मृतको यथा॥३३॥

एवं रात्रिर्गता तस्य दुःखात्संवत्सरोपमा।
अरुणोदयकाले तु वंदिनोगायकाजगुः॥३४॥

निवारियत्वातान्सर्वान् कैकेयीरोषमास्थिता।
ततः प्रभातसमये मध्यकक्षमपस्थिताः॥३५॥

फिर राजा दशरथ कैकेयी से ऐसा वचन कहि कैकेयी के पांवों पर गिर पड़ता हुआ और नेत्रों से अश्रुपात करता हुआ औ कैकेयी लाल नेत्र कर बोलती हुई २९ औ हे राजेन्द्र क्या तुम भ्रमयुक्त होगये हौ जो अपने कहे को बदलते हौऔर जो अपना वचन मिथ्याकरोगे तो नरक होगा ३० और जो प्रातःकाल मृगचर्म और चीर वस्त्रधारण करके राम वनको न जावेंगे तो मैं तुम्हारे अगाड़ी ही गलाबांध कै मरजाउँगी अथवा विषखाइकै मरोंगी ३१ और राजा दशरथ सत्यप्रतिज्ञ है यह वार्ता सब लोकों में सभा ओं में विख्यात है औ राम के ऊपर शपथ करिकै जो अपनी प्रतिज्ञा मिथ्या करौ तौ नरक को जाउगे ३२ ऐसे वचन जब कैकेयी ने कहे तौदीन और दुःख समुद्र में डूबा हुआ जो राजा दशरथ सो मृतक तुल्य अचेत हो पृथिवी में मूर्च्छित गिर पड़ता हुआ ३३ इस प्रकार विलाप करते करते वह रात्रि दशरथ को दुःख से वर्ष तुल्य होती हुई जब अरुणोदय काल हुआ तौ बन्दीजन औ गानेवाले गान करते हुये ३४ तब कैकेयी उन सबों को निवारणकर क्रोध में आविष्ट होती हुई तिसके उपरान्त प्रभात समय में बीचकी डिउढ़ी के चौकमें ३५॥

ब्राह्मणाः क्षत्रियावैश्या ऋषयः कन्यकास्तथा।
क्षत्रं च चामरं दिव्यं गजो बाजी तथैव च॥३६॥

अन्याश्च वारमुख्यायाः पौरजानपदास्तथा।
वशिष्ठेन यथा ज्ञप्तं तत्सर्वं तत्र संस्थितम्॥३७॥

स्त्रियो बालाश्च वृद्धाश्चरात्रौ निद्रां नलेभिरे।
कदा द्रक्ष्याम हे रामं पीतकौशेयवाससम् ॥३८॥

सर्वाभरण संपन्नं किरीटकटकोज्ज्वलम्।
कौस्तभाभरण श्यामं कंदर्पशतसुन्दरम्॥३९॥

अभिषिक्तं समायातं गजारूढं स्मिताननम्।
श्वेतछत्रधरं तत्र लक्ष्मणं लक्षणान्वितम्॥४०॥

रामं कदा वा द्रक्ष्यामः प्रभातं वा कदा भवेत्।
इत्युत्सुकधियः सर्वे बभूवुः पुरवासिनः॥४१॥

नेदानीमुत्थितोराजाकिमर्थंचेतिचिंतयन्।
सुमंत्रः शनकैः प्रायाद्यत्र राजावतिष्ठते॥४२॥

ब्राह्मण और क्षत्रिय और वैश्य औ ऋषि औ कन्या औ श्वेतेछत्र औदिव्यचमर और हाथी घोड़ा ३६ और वेश्या औ पुरवासी और देशवासी और जो जो

वशिष्ठ जी ने अभिषेक की सामग्री की आज्ञा की थी सो संपूर्ण जलपूरित सुवर्ण घटादिक वहां उपस्थित होती हुई ३७ औ अयोध्यावासी स्त्री औ बाल औ वृद्ध आदि जितने जनथे उनको आनन्दसे रात्रि में निद्रा नहीं आई औ सब यह कहते थे कि कब हम पीताम्बर को धारण करे हुये श्रीरामचन्द्र को देखैंगे ३८ कैसे रामको कि संपूर्ण आभूषणों को धारण किये हैं और मुकुट और रत्न जटित कटक इन को धारण किये औ कौस्तुभमणि को कण्ठ में धारण किये औ श्याम वर्ण औसैकड़ों कामदेवों से भी सुन्दर ३९और अभिषेक जिनका हुआ है औ हाथी के ऊपर चढ़े हुये हैं और मन्दमुसक्यान कर रहे हैं यो लक्ष्मण जी जिनके ऊपर श्वेत छत्र धारण करे हैं४० ऐसे राम को कब हम दर्शन करैं और कबप्रातःकाल होय ऐसी उत्कण्ठा युक्त हैंबुद्धि जिनकी ऐसे जे अयोध्या पुरवासी तिनको मनोरथ करते २ रात्रि व्यतीत हुई ४१ अब प्रातःकाल के समय सुमन्त्र मन्त्रीने यह विचार किया कि सूर्य्योदय होनेको हुआ राजा अभी नहीं उठे सो क्या कारण है ऐसा चिन्तन कर जहां राजा दशरथ थे ४२॥

वर्द्धयन्जयशब्देन प्रणमच्छिरसानृपम्।
अतिखिन्नं नृपं दृष्ट्वा कैकेयी समपृच्छत॥४३॥

देवि कैकेयि वर्द्धस्व किं राजा दृश्यतेऽन्यथा ।
तमाह कैकयी राजा रात्रौ निद्रां न लब्धवान्॥४४॥

रामरामेतिरामेति राममेवानुचिंतयन्।
प्रजागरेणवैराजाह्यस्वस्थ इव लक्ष्यते।
राममानयशीघ्रं त्वं राजाद्रष्टुमिहेच्छति॥४५॥

॥सुमंत्र उवाच॥

अश्रुत्वा राजवचनं कथं गच्छामि भामिनी॥
तच्छ्रुत्वा मंत्रिणो वाक्यं राजा मंत्रिणमब्रवीत्॥४६॥

सुमंत्ररामं द्रक्ष्यामि शीघ्रमानय सुन्दरम्।
इत्युक्तस्त्वरितं गत्वा सुमंत्रोराममंदिरम्॥४७॥

अवारितः प्रविष्टोऽयं त्वरितं राममब्रवीत्।
शीघ्रमागच्छ भद्रन्ते रामराजीवलोचन॥४८॥

पितुर्गेहं मया सार्द्धं राजा त्वां द्रष्टुमिच्छति।
इत्युक्तो रथमारुह्य संभ्रमात्त्वरितो ययौ॥४९॥

तहां जयशब्द से राजाको बढ़ाता हुआ शिरसे प्रणाम कर अतिखेद युक्त राजा को देख कैकेयी से पूछता हुआ ४३ हे देवि है कैकेयि तू वृद्धि को प्राप्त हो परंतु राजा का स्वरूप आजु अन्यथा दिखाई पड़ता है सो क्या कारण है तब सुमंत्र से कहने लगी हेसुमन्त्र राजा को रात्रिभर निद्रा नहीं आई ४४ हे राम हे राम हे राम ऐसे शब्दों को उच्चारण कर राम ही का चिन्तन करते हुये सारी रात्रि व्यतीत हो गई इस से जागरण करने से राजा अस्वस्थ से लक्षित होते हैं अर्थात् जैसे किसीका चित्त सावधान न होवैतैसे दिखाई पड़ते हैं ४५ इस से अव शीघ्र ही राम को लिवायल्यावो राजा देखा चाहते हैं तब सुमन्त्र ने कहा हे

भामिनि विना राजा के मुख के वचन सुने मैं कैसे राम के पास जा सक्ता हौं४६ यह मन्त्री के वचन सुनिकै राजा बोलते हुये कि हे सुमन्त्र राम को मैंदेखा चाहता हौंइससे शीघ्र ही सुन्दर जो राम हैं तिनको ल्यावो ऐसे राजा के वचन सुनिकै शीघ्र ही सुमंत्र राज मन्दिर को जाता हुआ ४७ तब सुमंत्र को किसी ने नहीं रोका शीघ्रही राम मन्दिर में प्रवेशकर राम से बोलता हुआ कि हे राम हे राजीवलोचन तुम्हारा कल्याण होय ४८ आप शीघ्र ही मेरे साथ पिता के घर को चलिये राजा तुमको देखा चाहते हैं ४९॥

रामः सारथिनासार्द्धं लक्ष्मणेन समन्वितः।
मध्यकक्षे वशिष्ठादीन्पश्यन्नेवत्वरान्वितः॥५०॥

पितुः समीपं संगम्य न नामचरणौ पितुः।
राममालिंगितुं राजा समुत्थाय ससम्भ्रमः॥५१॥

बाहू प्रसार्य रामेति दुःखान्मध्येपपातह।
हाहेतिरामस्तं शीघ्रमालिंग्यां के न्यवेशयत्॥५२॥

राजानंमूर्च्छितं दृष्ट्वा चुक्रुशुः सर्वयोषितः।
किमर्थं रोदनमिति वशिष्ठोऽपिसमाविशत्॥५३॥

रामः पप्रच्छ किमिदं राज्ञो दःखस्य कारणम्।
एवं पृच्छति रामे सा कैकेयी राममब्रवीत्॥५४॥

त्वमेव कारणं ह्यत्र राज्ञो दुःखोपशान्तये।
किंचित्कार्यं त्वया रामकर्त्तव्येनृपतेर्हितम्॥५५॥

कुरुसत्यप्रतिज्ञस्त्वं राजानं सत्यवादिनम्।
राज्ञावरद्वयं दत्तं मम संतुष्टचेतसा॥५६॥

** **ऐसे जब सुमंत्र ने वचन कहे तब राम शीघ्र ही लक्ष्मण सहित संभ्रम पूर्वक जाते हुये सुमंत्र युक्त रथ पै चढिकै ५० मध्यकी डिउढ़ी पर बैठे हुये जो वशिष्ठ आदि ऋषिलोग तिनको देखते हुये बड़ी शीघ्रता से पिताही के समीप राम प्राप्त हो पिता के चरणों को प्रणाम करते हुये ५१ तब राजा दशरथ संभ्रम सहित रामको आलिंगन करने को उठके हे राम ऐसा कहिकै भुजाओं को फैलाते हुये तब तक दुःख से रामको नहीं प्राप्त हो मध्यहीमें गिरपड़ते हुये ५२ उसी समय में परम दयालु श्रीराम हाहा ऐसा शब्द उच्चारण कर दशरथ को आलिंगनकरके अपनी गोदी में बिठालते हुये औ राजाको मूर्च्छित देखके सब रानियां रोती हुई ५३ और किस कारण से राजमन्दिर में रोदन शब्द सुनाई पड़ता है इस से वशिष्ठ ऋषि भी वहां आते हुये तब रामने पूछा कि राजा के दुःख का क्या कारण है ५४ ऐसा जब रामने पूछा तो कैकेयी रामसे कहती हुई कि हे राम राजा के दुःखका कारण तुम्हीं हौं५५ इससे राजाके दुःख की शांति के अर्थ कुछ ऐसा तुम को करना चाहिये जिसमें राजा का हित होय सो हित कब होय जब तुम सत्यप्रतिज्ञ होके राजा को सत्यवादी करो ५६॥

त्वदधीनन्तु तत्सर्वं वक्तुं त्वां लज्जते नृपः।

सत्यपाशेन सम्बद्धं पि

तरं त्रातुमर्हसि॥५७॥

पुत्रशब्देन चैतद्धिनरकात्त्रायते पिता।
रामस्तयोदितं श्रुत्वा शूलेनाभिहतोयथा॥५८॥

व्यथितः कैकयीं प्राह किं मामेवंप्रभाषसे।
पित्रर्थे जीवितं दास्ये पिवेयं विषमुल्वणम्॥५९॥

सीतांत्यक्षेऽथ कौशल्यां राज्यं चापि त्यजाम्यहम्।
अनाज्ञप्तोऽपिकुरुते पितुः कार्यं स उत्तमः॥६०॥

उक्तः करोति यः पुत्रः समध्यम उदाहृतः।
उक्तोऽपि कुरुतेनैव सपुत्रोमल उच्यते॥६१॥

अतः करोमि तत्सर्वं यन्मामाह पिता मम।
सत्यं सत्यं करोम्येव रामोद्विर्नाभिभाषते॥६२॥

इति रामप्रतिज्ञां सा श्रुत्वा वक्तुं प्रचक्रमे।
रामत्वदभिषेकार्थं सम्भाराः संभृताश्चये॥६३॥

औ हे राम प्रसन्न चित्त हो के राजा ने मुझको दो बर दिये हैं सो सब तुम्हारे आधीन है औ राजा तो तुमसे कहने को लज्जा कर रहे हैं ५७ इस से सत्यरूप पाश से बँधा हुआ जो राजा तिसको रक्षा करने को योग्य हो और पुत्र शब्द करके इतना ही अर्थ है जो नरक से पिता रक्षा किया जाय इसका आशय यह है कि व्याकरण की रीति से पुत्र शब्द में जो दो अक्षर हैं तिनका अर्थ यह होता है किपुत नाम जो नरक तिससे पितरों कात्रनाम रक्षकहो वै सो पुत्र कहाता है तौ आप दशरथ के पुत्र तभी हो सक्तेहो जब दशरथ को सत्यवादी करिकै नरक से रक्षा करौऔर जो ऐसा न करोगे तौ दशरथ मिथ्यावादी हो के नरक में जायगाही तब तुम में पुत्र शब्दका अर्थ कहां बन सकैगा अब राम ऐसे कैकेयी के कहे हुये वचन सुनिकै जैसे कोई हृदय में शूलको प्रहार करै तैसे व्यथा युक्त हो कै ५८ कैकेयी से बोलते हुये कि हे मातः किस वास्ते ऐसे वचन मुझ से कहती हो मैं तो पिता के अर्थ प्राण भी दे सक्ता हौंऔर पिता की आज्ञा से घोर विषका भी पानकरौं५९ औ सीता को भी त्यागदेवों और कौशल्या को और सबराज्यको भी त्यागदेवों क्योंकि जो पिता की आज्ञा के विना ही पिता का कार्य करै वह उत्तम पुत्र कहा जाता है ६० औरजो कहे से करैवह मध्यम पुत्र कहा जाता है और जो कहे से भी न करैवह पुत्र पिता का मल कहा जाता है ६१ इस से जो मेरे पिता की आज्ञा है सो मैं सब करौंगा और मैं सत्य ही करौंगा क्योंकि राम कभी दूसरी बात नहीं कहता है अर्थात् जो कही सो पत्थर की लीक हो गई कुछ दूसरी बार कहने का प्रयोजन नहीं यह मेरा स्वभाव ही है ६२ ऐसी राम की प्रतिज्ञाको कैकयी सुनके अब अपना अभीष्ट कहने को प्रारम्भ करती हुई कि हे राम तुम्हारे अभिषेक के अर्थ जो सामग्री संचित की गई है ६३॥

तैरेव भरतोऽवश्यमभिषेच्यः प्रियोमम।
अपरेणवरेणाशुचीरवा

सा जटाधरः॥६४॥

वनं प्रयाहि शीघ्रं त्वमद्यैव पितुराज्ञया।
चतुर्दशसमास्तत्रवसमुन्यन्नभोजनः॥६५॥

एतदेव पितुस्तेद्यकार्यत्वं कर्तुमर्हसि।
राजा तु लज्जते वक्तुं त्वामेवं रघुनन्दनम्॥६६॥

** ॥श्रीराम उवाच॥**

भरतस्यैव राज्यं स्यादहं गच्छामि दण्डकान्।
किन्तुराजानवक्तीहमां न जानेऽत्रकारणम्॥६७॥

श्रुत्वैतद्रामवचनं दृष्ट्वारामं पुरःस्थितम्।
प्राह राजा दशरथो दुःखितो दुःखितं वचः॥६८॥

स्त्री जितं भ्रान्तहृदयमुन्मार्गपरिवर्त्तिनम्।
निगृह्यमां गृहाणेदं राज्यं पापं न तद्भवेत्॥६९॥

एवं चेदनृतं नैवमां स्पृशेद्रघुनन्दन।
इत्युक्त्वा दुःखसन्तप्तोविललापनृपस्तदा॥७०॥

** **तिसी सामग्री करिकै मेरा प्रियपुत्र जो भरत है तिसका अवश्य अभिषेक होय और दूसरे वर करिकै शीघ्र ही तुम चीरवस्त्र और जटाओंको धारणाकरिकै ६४ अभी पिता की आज्ञासे वन को जाउ फिर उस दण्डकारण्य में चौदह वर्षलौ मुनियोंके अन्न को भोजन करते वासकरौ ६५ इतना ही पिता का कार्य है सो तुम करने को योग्य हौ औरघुनन्दन राजा तो साक्षात् कहने को तुमसे लज्जाकरतेहैं ६६ तब श्रीराम केकयी सेकहने लगे कि भरतही को राज्यहोय औ मैं दण्डक वनको जाता हौंपरन्तु राजा अपने मुख से कुछ नहीं कहते हैं इससे मैं कारण नहीं जानता हौं६७ तब राजा दशरथ ऐसे रामके वचन सुनिकै और अपने आगे रामको खड़े देखिकै बड़े दुःखित होके अदुःषित दुःखरहित जो राम हैं तिन से वचन बोलते हुये इसका आशय यह है कि यद्यपि जिस समय में रामको राज्य उपस्थित तथा उसी समय में कैकेयी ने आकस्मात् वज्रके तुल्य चौदह वर्ष वनवासका वचन राम से कहा तौ आत्माराम होने से रामको कुछभी दुःख नहुआ इससे यहां रामका विशेषण कविने अदुःखित ऐसा कहा अथवा देवतों के कार्य सिद्ध करने को रामको वन का गमन अभीष्टही था तिसपै और पिता की आज्ञा इससे राम में दुःखका संभव नहीं होने से अदुःखित कहा इसीसे वाल्मीकीयरामायण में जिस समय में कैकेयी ने राम को वनवासका वचनकहा उस समय में ऐसा लिखा है (श्लोक) इतीवतस्यां परुषं वदन्त्यां न चैव रामः प्रविवेश शोकम्। प्रविव्यथेचापि महानुभावो राजा च पुत्रव्यसनाभितप्तः इति।इसका अर्थ यह है कि जब कैकेयी ने ऐसे कठोर वचन कहे तौ रामको कुछभी शोक न होता हुआ औ महानुभाव जो राजा दशरथ सो पुत्र के दुःख से बड़ा संतप्त हुआ।इस से यहां दुःखित ऐसा पदच्छेदयुक्त है और इस अध्यात्म रामायण के संस्कृत सेतु नामक टीका में तौ दुःखित ऐसा पदच्छेद करिकै राजा के नहीं बोलने से रामभी उससमय में दुःखित हैं इससे दुःखित जोराजा सो दुःखित रामसे बोलता हुआ यह अर्थ कियाहै सोभी व्यवहारदशा में

संभव होता है परन्तु इन दोनों अर्थों का बलाबल तौ महाशय लोग विवेचन करैं६८ सो अबदशरथ के वचन कहते हैं कि हे राम स्त्रीजित स्त्री के वशीभूत इसी से भ्रान्त है हृदय जिसका और उन्मार्ग जो अधर्म मार्ग तिस में चलनेवाला ऐसा जो मैं हौंतिसका निग्रहकरिकै अर्थात् मुसकबांध बन्धनागार में डारिकै राज्यकाग्रहणकरौतो पाप तुमको नहीं होगा इसका आशय यह है कि नीतिशास्त्र में ऐसा कहा है (श्लोक) गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्य्याकार्य्यमजानतः।उत्पथं प्रतिपन्नस्य दण्ड एव विधीयते। इसका अर्थ यह है कि जोगर्बयुक्त हो कै कार्य औ अकार्यको नजानताहोय औकुमार्ग में चलता होय तो ऐसे गुरूको भी दंड उचित है इस भारत के प्रमाण से यहां दशरथ भी स्त्रीके आधीन हो कै ज्येष्ठपुत्र से राज्य छीनिकै कनिष्ठ को दिया चाहता है तो यह कुमार्गवर्तन हुआ ही इस से दशरथ ने भी कहा मेरा निग्रहकरिकै राज्य लेने में दोषनहीं होगा ६९ अब कदाचित् राम कहैं मिथ्यावाद से तुम को तौ दोष ही होगा इस हेतुसे दशरथ कहते हैं कि हेरघुनन्द ऐसा करौगे तौमुझ को भीअनृत नहीं स्पर्श करैगा अर्थात् झूठका दोष तो वहां है जहां अपने आधीन है और नदेवै और जब मैं हीं पराधीन हुआ तौ क्या दोष रहा यह वचनक हिदुःखसंतप्तजो राजा दशरथ है सो उस समय में विलाप करता हुआ ७०॥

हा राम हा जगन्नाथ हा मम प्राणवल्लभ।
मां विसृज्य कथं घोरं विपिनं गन्तुमर्हसि॥७१॥

इति रामं समालिंग्यमुक्तकंठोरुरोदह।

विमृज्यनयनेरामः पितुः सजलपाणिना॥७२॥

आश्वासया मास नृपंशनैः सनयकोविदः।
किमत्र दुःखेनर्विभोराज्यं शासतु मेऽनुजः॥७३॥

अहं प्रतिज्ञां निस्तीर्य पुनर्यास्यामि ते पुरम्।
राज्यात्कोटिगुणं सौख्यं मम राजन्वनेसतः॥७४॥

त्वत्सत्य पालनं देवकार्यं चापिभविष्यति।
कैकेय्याश्च प्रियोराजन्वनवासो महागुणः॥७५॥

इदानीं गन्तुमिच्छामि व्येतुमातुश्च हृज्ज्वरः।
संभाराश्चोपह्रीयन्तामभिषेकार्थमागताः॥७६॥

मातरं च समाश्वास्य अनुनीय च जानकीम्।
आगत्य पादौ वंदित्वा तव यास्ये सुखं वनम्॥७७॥

कि हा राम हा जगन्नाथ हा मेरे प्राणों के वल्लभ प्रिय अथवा आत्मरूप होने से प्राणों से भी हे अति प्रिय मोको त्याग कैसे तुम घोर बनको जाने को योग्य इसका आशय यह है कि यद्यपि तुम जगन्नाथ हौसब लोकों के स्वामी हौ इस से तुमको वन औ राज्य समान ही है तौ भी मेरे तौप्राणवल्लभ हौइससे तुम्हारे संग ही प्राण जावेंगे ये कैसे भी नहीं रहिसक्तेऔर जो कदाचित् रहैं तौ प्राणवल्लभता ही में संदेह हो जायगा यह बात प्राणवल्लभ पदकरिकै सूचित की ७१ अब यह वचन कहिकै राजा दशरथ रामको आलिंगनकर ऊंचे स्वर-

से रोदन करता हुआ तब रामचन्द्र जलयुक्त हाथ से पिता के नेत्रों को पोंछ करिके ७२ नीति में निपुण जो राम हैं सो धीरेधीरे राजा को सावधान करते हुये और यह कहते हुये कि हे विभो मेरा अनुज जो भरत है सो राज्य की शिक्षा पूर्वक रक्षा करौ इस में दुःख करके क्या प्रयोजन है ७३ और मैं तो प्रतिज्ञा को पूर्णकर फिर अयोध्या को आवोंगा औ हे राजन् राज्य से करोड़गुना सुख मुझ को वन में रहने से होगा ७४ क्योंकि हे देव आप का सत्य पालनरूप कार्य होगा और कैकेयी का प्रियहोगा इस से वनवास में बहुत गुण है और इहां देवकार्य पद में श्लेष अलंकार करने से देवतों का भी कार्य वनहीके रहने से सिद्ध होगा यह भी सूचित होता है ७५ औ इसी समय में मैं जाने की इच्छा करता हौं इससे माता कैकेयी के हृदयका सन्ताप दूर होय औये मेरे राज्याभिषेक के लिये जो सामग्री उपस्थित हुई है सो दूर की जावै ७६ औअब मैं माता कौशल्या के चित्त को सावधान कर औ सीता को समुझा के फिर यहां आके आपके चरणारविन्दों को प्रणामकर सुखपूर्वक वन को जाऊंगा ७७॥

इत्युक्त्वा तु परिक्रम्य मातरं द्रष्टुमाययौ।
कौशल्याऽपिहरेः पूजांकुरुतेरामकारणात्॥७८॥

होमं चकार या मास ब्राह्मणेभ्यो ददौधनम्।
ध्यायते विष्णुमेकाग्रमनसा मौनमास्थिता॥७९॥

अन्तस्थमेकं घनचित्प्रकाशं निरस्तसर्वातिशयस्वरूपम्।
विष्णुं सदानन्दमयहृदब्जे सा भावयंती न ददर्श रामम्॥८०॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे
अयोध्याकाण्डे तृतीयस्सर्गः॥३॥

ऐसा वचन कहि राजाके परिक्रमा कर के राम माता के दर्शन करने को जाते हुये और कौशल्याभी उस समय में राम के कारण से नारायण का पूजन करती थी ७८ और कौशल्या ब्राह्मण द्वारा होम कराती हुई और ब्राह्मणों को धन देती हुई औ मौन हो के एकाग्रमनसे विष्णु भगवान‌् का ध्यान करती हुई ७९ अब उस समय में हृदयरूप कमल के विषे विष्णुका ध्यानकरती जो कौशल्या सो अगाड़ी खड़े हुये जो राम तिनको नहीं देखती हुई कैसे विष्णु हैं जो अन्तर्यामि रूप करके हृदय में स्थित हैं औ सघन है चैतन्य प्रकाश जिनका और दूर करे विशेषरूप जिसने अर्थात् निर्गुण औ सत्रूप और आनन्द स्वरूप ऐसा ध्यान करती जो कौशल्या सो रामको नहीं देखती हुई ८०॥

इत्यध्यात्म रामायणेऽयोध्याकाण्डे भाषाटीकायां तृतीयः सर्गः॥३॥

ततः सुमित्रादृष्ट्वैनंरामं राज्ञीं ससंभ्रमा।
कौशल्यां बोधयामासरामोऽयं समुपस्थितः॥१॥

श्रुत्वैव रामनामैषावहिर्दृष्टि प्रवाहिता।
रामं दृष्ट्वा विशालाक्षमालिंग्यां केन्यवेशयत्॥२॥

मूर्ध्न्यवघ्राय पस्पर्शगात्रं नीलोत्पलच्छवि।
भुंक्ष्व पुत्रेति च प्राहमिष्टमन्नक्षुधार्द्दितः॥३॥

रामःप्राहन मे मातर्भोजनावसरः कृतः।
दण्डकागमने शीघ्रं ममकालोऽद्य निश्चितः॥४॥

कैकेयी वरदानेन सत्यसंधः पिता मम।
भरताय ददौ राज्यं ममाप्यारण्यमुत्तमम्॥५॥

चतुर्दशसमास्तत्र ह्युषित्वा मुनिवेषधृक्।
आगमिष्ये पुनःशीघ्रं न चिन्तां कर्तुमर्हसि॥६॥

तच्छ्रुत्वा सहसो द्विग्नामूर्च्छिता पुनरुत्थिता।
आह रामं सुदुःखार्त्तादुःखसागरसंप्लुता॥७॥

दो०॥

चौथे अनुज प्रबोधिके कौशल्यादिक मात।
वन्दि लषण सीतासहित पुनि आये जहँतात॥४॥

अबश्रीमहादेवजी पार्वती से कहते हुये हे पार्वति तिसके उपरान्त क्या कारण है कि राम इस समय में आये ऐसे संभ्रमयुक्त सुमित्रा रानी रामको देख के कौशल्या को जनाती हुई कि राम तेरे समीप खड़े हैं औ तू नहीं देखती१ तबकौशल्या राम का नाम सुनते ही समाधि से विरत हो बाहर नेत्रों की दृष्टि से विशाल नेत्र राम को देखकै आलिंगनकर गोदी में बिठा लेती हुई २ फिर शिर को सूंघके नीलकमलतुल्य जो श्रीरामका अंग तिसको स्पर्शकरि हे पुत्र तुम भूखे होगे इससे मीठा अन्न यह भोजन कीजिये ३ तब रामचन्द्र बोले कि हे मातः अब मेरे भोजन का समय कहां क्योंकि शीघ्र ही दण्डकवन जाने का यह मेरा समय उपस्थित हुआ है ४ सत्य है प्रतिज्ञा जिसकी ऐसा जो मेरा पिता है सोकैकेयी के वरदान करिकै भरत को राज्य देता हुआ औ मुझको उत्तम वन देता हुआ ५ तिस वन में मुनि वेष धारण किये चौदहवर्षभर वास करिकै फिर शीघ्र ही तेरे समीप आवोंगा इस से चिन्ता करने के योग्य नहीं हौ६ यह रामके वनवास के वचन सुनिकै सहसा शीघ्र ही भयभीत हो पृथिवी में मूर्च्छित गिरपड़ती हुई फिर उठ कर दुःख करिकै पीड़ित दुःखसागर में डूबी हुई कौशल्या राम से वचन बोलती हुई ७॥

यदि राम वनं सत्यं यासि चेन्नयमामपि।
त्वद्विहीनाक्षणार्द्धं वा जीवितं धारये कथम्॥८॥

यथा गौर्बालकं वत्सं त्यक्त्वा तिष्ठेन्न कुत्रचित्।
तथैव त्वां न शक्नोमि त्यक्तुंप्राणात्प्रियं सुतम्॥९॥

भरताय प्रसन्नश्चेद्राज्यं राजाप्रयच्छतु।
किमर्थं वनवासाय त्वामाज्ञापयति प्रियम्॥१०॥

कैके

य्यावरदोराजा सर्वस्वंवा प्रयच्छतु।
त्वयाकिमपराधंहिकैकेय्यावानृपस्य वा॥११॥

पितागुरुर्यथारामतवाहमधिकाततः।
पित्राज्ञप्तोवनं गंतुं वारयेयमहं सुतम्॥१२॥

यदिगच्छसि मद्वाक्यमुल्लंघ्यनृपवाक्यतः।
तदाप्राणान्परित्यज्यगच्छामियमसादनम्॥१३॥

लक्ष्मणोपि ततः श्रुत्वाकौशल्यावचनं रुषा।
उवाचराघवं वीक्ष्य दहन्निव जगत्त्रयम्॥१४॥

हे राम जो तुम सत्य ही वनको जाते हो तौमुझको भी ले चलौतुम्हारे विना आधेक्षण भी मैं कैसे जीवन धारण कर सक्ती हौं ८ हे राम जैसेगौअपने छोटे बछड़े को त्यागकरके कहीं नहीं स्थित होती तैसे ही प्राणों से भी प्रिय पुत्र जो तुमहौ तिसको त्यागकरने को मैंसमर्थ नहीं हौं९औ राजा प्रसन्न होके भरत के अर्थ राज्य भलेही देयँ परन्तु प्रिय पुत्र जो तुमहौ तिलको वन वास अर्थ कितवास्ते आज्ञा देते हैं १० अथवा राजा कैकेयी को वर देते हैं तो जो कुछ है सो सब दै देवो परन्तु मैं ने कैकेयी का क्या अपराध किया है अथवा राजा का जो तुम्हें वन को भेजते हैं ११ औ हे राम पिता जैसे गुरू हैं और मैं तो तिस पिता से भी अधिक हौंतो पिता ने वन के जाने को आज्ञा दी है मैं वन के जाने को मना करती हौंइसका आशय यह है कि पिता से दश गुणी माता अधिक होती है ऐसा धर्मशास्त्र में कहा है तो मेरी आज्ञा करिकै वन को नहीं ही जाना तुमको उचित है १२ औ जो मेरे वचन को उल्लंघन कर राजा की आज्ञा से वन को जाउगेही तौअपने प्राणों को त्यागकर यमराज के मन्दिर को जाउँगी १३ अब उस समय में लक्ष्मण भी यह कौशल्या के वचन सुनिकै क्रोध करके तीनों लोकों को मानो भस्म कर देवेंगे ऐसे कुपित हो के राम से बोलते हुये १४॥

उन्मत्तम्भ्रान्तमनसं कैकेयीवशवर्त्तिनम्।
बध्वानिहन्मिभरतंतद्बन्धून्मातुलानपि॥१५॥

अद्य पश्यन्तु मे शौर्यं लोकान्प्रदहतः पुरा।
रामत्वमभिषेकाय कुरु यत्नमरिन्दम्॥१६॥

धनुःपाणिरहं तत्र निहन्यां विघ्नकारिणः।
इति ब्रुवं तं सौमित्रिमालिंग्य रघुनन्दनः॥१७॥

शूरोऽसिरघुशार्दूलममात्यन्तं हितेरतः।
जानामि सर्वं ते सत्यं किन्तु ते समयोनहि॥१८॥

यदिदं दृश्यते सर्वं राज्यं देहादिकं च यत्।
यदि सत्यं भवेत्तत्रआयासःसफलश्च ते॥१९॥

भोगामेघवितानस्थविद्युल्लेखेवचंचलाः।
आयुरप्यग्निसन्तप्तलोहस्थजलविन्दुवत्॥२०॥

यथाव्यालगलस्थोऽपिभेकोदंशानपेक्षते।
तथा कालाहिनाग्रस्तोलोको भोगानशाश्वतान्॥२१॥

कि हे राम उन्मत्त अर्थात् सिड़ी औ भ्रमयुक्त है मन जिसका औ कैकेयी

के वशीभूत ऐसे राजा दशरथ को बांधिकै भरत कोऔर भरत के पक्षी जो उस के मामा हैं तिनको मार डालोंगा १५ आजु मेरी शूरता को सब देखैंजैसे प्रलय काल में कालाग्नि रुद्ररूप करिकै लोकों को भस्म करता है तिसके तुल्य औ हे राम हे अरिन्दम हे शत्रुओं के दमन करनेवाले आप अपने अभिषेक के अर्थ यत्न करिये १६ उस अभिषेक में जे कोई विघ्न करेंगे तिन सबको धनुष को हाथ में लेके मारौंगा ऐसा वचन कहता हुआ जो लक्ष्मण तिसको रामचन्द्र हृदयसे लगाके १७ वचन बोलते हुये कि हे रघुशार्दूल रघुवंशियों में सिंह तुम शुर हौ औमेरे हित में अति प्रीतियुक्तौ यह मैं जानता हौंऔ तुम्हारी सत्यप्रतिज्ञा भी जानता हौंपरंतु पराक्रम करने का यह समय नहीं है १८ औ हे लक्ष्मण जो जगत् दिखाई पड़ता है औ राज्य औ देह इंद्रिय आदि पदार्थजे देख पड़ते हैं ते जो सत्य होयँ तौतुम्हारा इतना परिश्रम भी सफल होय इसका आशय यह है कि जिन देहेन्द्रियों के सुखकेलिये राज्य संपादन किया चाहते हो वे इंद्रिय देहादि कहीमिथ्या हैं और जिस राज्य के लिये यत्न करते हो वह राज्यभी झूठा है तो झूठे केलिये तुम्हारा श्रमनिष्फल ही देख पड़ता है १९ औ हे लक्ष्मण जितने इंद्रियों के भोग हैं ते सब मेघों के समूह में बिजुली के चमक के तुल्य चंचल हैं और आयुर्बल भी आगी में तपायाहु आ जो लोहा तिसके ऊपर जैसे पानी की बूंद डालै वह जैसे शीघ्रही सुखजाती है तैसे क्षणभंग है २० औहे लक्ष्मण जैसे सर्पने अपने गले में निगला जो मेड़क सो जैसे सर्पके गले में स्थित हो उस सर्पही के गलेके कोमल मांसको ग्रासकरने की इच्छा करै और अपनी निकट मृत्यु की तरफ ख्याल न करै तैसे ही सब मनुष्य कालरूपी सर्प करके ग्रसेहुये भी अनित्य भोगोंकी इच्छा कर रहे हैं २१॥

करोति दुःखेन हि कर्म तंत्रं शरीरभोगार्थ महर्निशंनरः।

देहस्तुभिन्नःपुरुषात्समीक्ष्यतेकोवात्र भोगः पुरुषेणभुज्यते॥२२॥

पितृमातृसुतभ्रातृदारबन्ध्वादिसंगमः।
प्रपायामिव जंतूनां नद्यांकाष्ठौघवच्चलः॥२३॥

छायेव लक्ष्मीश्चपलाप्रतीतातारुण्यमम्बूर्मिवदध्रुवं च।
स्वप्नोपमं स्त्रीसुखमायुरल्पं तथाऽपि जन्तोरभिमान एषः॥२४॥

संसृतिः स्वप्नसदृशीसदारोगादिसंकुला।
गन्धर्वनगर प्रख्यामूढस्तामनुवर्त्तते॥२५॥

आयुष्यं क्षीयते यस्मादादित्यस्य गतागतैः।
दृष्ट्वाऽन्येषां जरामृत्यू कथं चिन्नेवबुध्यते॥२६॥

स एव दिवसः सैव रात्रिरित्येवमूढधीः।
भोगाननुपतत्येव कालवेगन्नपश्यति॥२७॥

प्रतिक्षणं क्षरत्येतदायुराम घटाम्बुवत्।
सपत्ना इवरोगौघाः शरीरं प्रहरन्त्यहो॥२८॥

औ हे लक्ष्मण यह जो संसारी मनुष्य है सो शरीर के भोग के अर्थ रात्रि दिवस धनादि कों का उपार्जन रूप लौकिक कर्म करता है औ स्वर्गादि कामना करिकै वैदिक कर्म भी करता है तौ जिस देह के भोग के अर्थ दो प्रकार का कर्म करता है वह देह आत्मा से भिन्न दिखाई पड़ता है अर्थात् जड़ है और ऐसा भोग कौन है जो आत्मा करिकै भोग किया जावै अर्थात् भोगा जावै इसका आशय यह है कि जिस शरीर के भोग के लिये यह मनुष्य रात्रि दिवस कर्मों में तत्पर हो रहा है वह भोग शरीर को होता है किंवा आत्माको होता है तिस में शरीरमात्र को तो संभव नहीं क्योंकि शरीर तौ आत्मा से भिन्न है इसी से मेरा शरीर स्थूल है कृशहै ऐसी प्रतीति होती है ऐसे ही बुद्धि आदि भी आत्मा से भिन्न हैं इसी से मेरी मलिन बुद्धि है मेरी शुद्ध बुद्धि है ऐसी प्रतीति होती है और शरीर जड़ है इसी से मरे हुये शरीर को चन्दनादि लेपन से अथवा जलाने से सुखदुःखादिक नहीं होते और भोग नाम मैं सुखी हौं मैं दुःखी हौंइस प्रकार से सुखदुःखादि विकार को कहते हैं इससे शरीर के जड़ होने से सुख दुःखादिक ज्ञान के नहीं होने से भोग का सम्भव नहीं होता है और आत्मा शुद्ध है और असंग है और सदा आनन्दरूप हैं और एक रस है उसको भी भोग नहीं सम्भव होता इससे अविवेक परस्पर अध्यास करिकै चित्तमें भोग प्रतीयमान है सोभी भ्रान्ति मलक है अर्थात् आत्मा औ बुद्धि इन दोनों को जैसा कुछ जानना चाहिये तैसे अलगाके नहीं जानता है उसको अविवेक कहते हैं तिस अविवेक करिकै जो परस्पर अध्यास अर्थात् झुंठा ही और का धर्म और में मान लेना जैसे बुद्धि का धर्म जो सुख दुःखादिक तिनको आत्मा में मानना और आत्मधर्म जो ज्ञान है उसको बुद्धि में मानना इसको अध्यास कहते हैं तिस करिकै बुद्धि में मैं सुखी हों मैं दुःखी हौं ऐसा कर्मों का भोग प्रतीत होता है तौ विचार करने से विवेक करके जो देखा जाय तौ यह भोग न बुद्धि ही को होता है न आत्मा को है किन्तु दोनों के संबन्ध से झूठा ही जल स्थित सूर्य में कंपादि धर्मके तुल्य प्रतीत होता है तौ हे लक्ष्मण ऐसे झूठ राज्य भोग के लिये कौन विवेकी यत्न करैगा २२ कदाचित् लक्ष्मणजी कहैं कि आपको ऐसे विवेक से यद्यपि राज्य भोग और वन भोग तुल्यही है तौ भी अयोध्या में माता पिता मित्र इनको आपका संगम हो रहा उसका तो वियोग होगा तिस से श्रीरामजी कहते हैं हे लक्ष्मण पिता औमाता औ पुत्र औभाई औ दारा औ बंधु इनको आदि लेके मित्र वर्गों का जो मिलाप है सो तौ जैसे प्याऊ पै पानी पीने को अनेक प्राणी आते हैं उनका जैसे मिलाप होता है तैसे है अथवा जैसे नदी में अनेक काष्ठों का मिलाप होता है फिर जल के प्रवाह से वियोग भी हो जाता है तैसे प्राचीन कर्माधीन पिता पुत्रादि कों का मिलाप भी चल है २३

और लक्ष्मी भी छाया के तुल्य चंचल हैं औ तरुण अवस्था भी जैसे जल की तरंग स्थिर नहीं रहती है तैसे अस्थिर है औ स्त्री लोगों का सुख स्वप्न तुल्य हैं आयुर्बल भी बहुत थोड़ी है तौभी मनुष्यों को ऐसा अभिमान हो रहा है यह मेरा धन है यह स्त्री है इसको मैं बहुत काल भोग करौंगा २४ औ हे लक्ष्मण संसारकी स्थिति स्वप्न तुल्य है औ जैसे सहाबादेख पड़ता है ऐसे अत्यन्त अस्थिर है औ मूढ़ पुरुष उसको सत्य करिकै ग्रहण कर रहा है २५ औ सूर्य के उदय औ अस्त करिकै मनुष्यों की दिन दिन आयुर्बल क्षीण होती है जिस से इस से औरों की वृद्धावस्था और मृत्यु इनको देखता भी है तो यह नहीं जानता मूढ पुरुष कि मैं भी ऐसे ही बूढ़ा होउंगा औ मरजाउँगा २६ और जो मूढ बुद्धि पुरुष है सो यह जान रहा है कि कल्ह की दिनरात्रि में हमने जो भोग किया है वैसा ही दिन रात्रि यह भी है अर्थात् कुछ विशेष नहीं है इस रीति से रात्रि दिवस इन्द्रियों के भोगोंही में आसक्त होता है औ कालके वेग को नहीं देखता कि दिन दिन मेरी आयुक्षीण होती है २७ औ हे लक्ष्मण कच्चे घड़े के जलके सदृश क्षण क्षण में इस पुरुष की आयु नष्ट होती है और शत्रुओं के तुल्य रोगों के समूह इसके शरीर के ऊपर प्रहार करते हैं २८॥

जराव्याघ्रीव पुरतस्तर्जयं त्यवतिष्ठते।
मृत्युःसहैवयात्येषसमयं संप्रतीक्षते॥२९॥

देहेऽहं भावमापन्नो राजाऽहं लोकविश्रुतः।
इत्यस्मिन्मनुते जन्तुः कृमिविट् भस्मसंज्ञिते॥३०॥

त्वगस्थि मांसविण्मूत्ररेतोरक्तादिसंयुतः।
विकारीपरिणामी च देहआत्मा कथंवद॥३१॥

यमास्थायभवाल्लोकं दग्धुमिच्छति लक्ष्मण।
देहाभिमानिनः सर्वे दोषाः प्रादुर्भवन्तिहि॥३२॥

देहोऽहमितियाबुद्धिरविद्या सा प्रकीर्तिता।
नाहं देहश्चिदात्मेति बुद्धिर्विद्येति भण्यते॥३३॥

अविद्या संसृतेर्हेतुर्विद्या तस्यानिवर्तिका।
तस्माद्यत्नःसदाकार्य्यो विद्याभ्यासे मुमुक्षुभिः।
कामक्रोधादयस्तत्रशत्रवः शत्रुसूदन॥३४॥

तत्रापि क्रोध एवालंमोक्षविघ्नाय सर्वदा।
येनाविष्टः पुमान्हन्तिपितृभ्रातृसुहत्सखीन्॥३५॥

और वृद्धावस्था व्याघ्री के तुल्य अगाड़ी खड़ी इसको डराया करती है और मृत्यु संनित्य ही रहती तौभी अपने प्रहार करने को समय की प्रतीक्षा करती है अर्थात् कबमेरा समय आवैकब मैं इसके प्राणों को इरों इस प्रकार से २९ और अंत्य में जो देह पड़ारहै तौ कृमि पड़जाते हैं और कोई भक्षण करिलेय तौविष्ठाहो जाता है और कोई जल्लादेय तौ भस्म हो जाता है ऐसे देह में यह

पुरुष मैं लोक में विख्यात राजा हौंऐसा अभिमानकरि रहा है ३० हे लक्ष्मण जो तुम देहमें आत्मबुद्धिकर क्रोध करते हौ सो वन नहीं सक्ता क्यों कि देह तो त्वचा औ हाड़ औ मांस औ विष्टा औ मूत्र औ वीर्यऔ रुधिर आदिकों करिकै संयुक्त होने से रसआदि धातु विकारयुक्त है औ बाल युवादि अवस्था रूप परिणाम युक्त होने से परिणाम भी है और आत्मा तो अविकारी है नाम विकार रहित है औ परिणाम रहित है अर्थात् और और रूपहो जानेको परिणाम कहते हैं सो आत्मा में नहीं है इससे अपरिणामी है ३१ औ हे लक्ष्मण जिस रागादि दोष समूह को आश्रयण करिके तुम क्रोध करिकै लोकको भस्म करने की इच्छा करते हौवे रागादि दोष देहाभिमानी पुरुषको प्रकट होते हैं ३२ क्योंकि देह मैं हौंऐसी बुद्धि को अविद्या कहते हैं औ मैं देह नहीं हौकिन्तु चित्रूप आत्मा हौंऐसी बुद्धि को विद्या कहते हैं ३३ तिसमें अविद्या तो जन्म मरणादिरूप संसारका हेतु है और विद्या संसारकी निवृत्ति करनेवाली है तिस कारण से मुमुक्षुओं को अर्थात् जिनको मोक्ष की इच्छाहोय तिन पुरुषों को सब कालमें विद्या ही का अभ्यास करना चाहिये ३४ औ हे शत्रुओं के नाशक तिस विद्या में काम क्रोध आदि शत्रु कहे हैं तिसमें भी मोक्षविद्या में एकक्रोध ही बड़ा प्रबल शत्रु है जिस क्रोध करिकै आविष्ट पुरुष पिता भाई मित्र आदिकों को मारता है ३५॥

क्रोधमूलो मनस्तापः क्रोधः संसारबन्धनम्।
धर्मक्षयंकरः क्रोधस्तस्मात्क्रोधं परित्यज॥३६॥

क्रोध एष महान्शत्रुस्तृष्णावैतरणीनदी।
सन्तोषोनंदनवनं शान्तिरेव हि कामधुक्॥३७॥

तस्माच्छांतिं भजस्वाद्यशत्रुरेवं भवेन्नते।
देहेन्द्रियमनःप्राण बुद्ध्यादिभ्यो विलक्षणः॥३८॥

आत्माशुद्धः स्वयंज्योतिरविकारीनिराकृतिः।
यावद्देहेन्द्रियप्राणैर्भिन्नत्वं नात्मनोविदः॥३९॥

तावत्संसारदुःखौघैः पीड्यन्ते मृत्युसंयुताः।
तस्मात्त्वंसर्वदा भिन्नमात्मानं हृदिभावया॥४०॥

बुद्ध्यादिभ्योबहिःसर्वमनुवर्तस्वमाखिदः।
भुंजन्प्रारब्धमखिलं सुखं वा दुःखमेव वा॥४१॥

प्रवाहपतितः कार्य्यं कुर्वन्नपि न लिप्यते।
बाह्येसर्वत्र कर्तृत्वमावहन्नपिराघव॥४२॥

हे लक्ष्मण क्रोध ही मूलका कारण है जिसमें ऐसा मनका ताप होता है इसका आशय यह है कि जिस समय में अन्तःकरण में क्रोध का वेग वढ़ता है उससमय में पुरुषको यह विचार नहीं होता कि यह हमको करना उचित है किनहीं इसी से अपने बड़ों को भी दुर्वचन कहता है औ तिसपै भी क्रोध नहीं शांत होता तो ताड़नादिक भी करता है फिर पिछाड़ी से घोर संताप को प्राप्त होता है और

इसी से क्रोध संसार में बन्धन को करता है औधर्म का क्षय करनेवाला भी क्रोध ही है तिस से हे लक्ष्मण इस क्रोध को त्यागकरो ३६ औ हे लक्ष्मण यह क्रोध ही बड़ा भारी शत्रु है क्यों कि यह क्रोध ही अपने मृत्युका भी कारण है इसी से क्रोध वश से विष भक्षण आदि उपायों करके आत्मघात करता है औ हे लक्ष्मण यह तृष्णा जो उत्तरोत्तर बढ़ती हुई धनादि पदार्थों की इच्छा है सोई वैतरणी नदी है अर्थात् जैसे यमराजकेद्धार पैबड़ी भयंकर एक वैतरणी नदी पापी पुरुषों के तरने को अशक्य मालूम पड़ती है तैसे ही यह तृष्णा रूप नदी भी दुर्मति संसारी पुरुषों को दुस्तर है और हे लक्ष्मण संतोष जो बाह्यविषयों के अभिलाषका त्याग सो नंदन वनके तुल्य आनन्द का देने वाला है औ शांति जो है मन का दमन सोई कामधेनु है अर्थात् जैसे कामधेनु सब पदार्थों की देनेवाली है तैसे शांति भी सब पदार्थों की प्राप्ति में सुख है तिस से अधिक सुख के देनेवाली है ३७ हे लक्ष्मण तिस कारण से शांति का सेवन इस समय में करौ तौतुम्हारा कोई शत्रु न होगा क्यों कि आत्मा में कोई विकार नहीं है जिस से शत्रु उत्पन्न होय इस आशय से रामचन्द्र लक्ष्मण से आत्मस्वरूप प्रतिपादन करते हैं कि हे लक्ष्मण आत्मा जो है सो देह इन्द्रिय मन बुद्धि प्राण आदिकों से विलक्षण है ३८ क्यों कि आत्मा शुद्ध है औ स्वयं प्रकाश है औ अविकारी है औ आकार रहित है और देहादिक तौ इस से विपरीत हैं अर्थात् अशुद्ध औ पर प्रकाश्य औ विकारी औ साकार हैं इससे आत्मा विलक्षण है औ हे लक्ष्मण जब तक जे पुरुष देह इन्द्रिय प्राण इनसे भिन्न आत्मा को नहीं जानते हैं ३९ तब तक जन्म मरण को प्राप्त होते हुये संसार के दुःखों के समूहों करके पीड़ित होते हैं तिस से तुम सब काल में आत्मा को भिन्नजानो ४० औ हे लक्ष्मण बुद्धि आदि पदार्थों से अपना को न्यारा जानते हुये बुद्ध्यादिकों को अवलम्बन करिकै बाहर से लोक व्यवहार को बर्त्तोऔ खेदमत करो और जो प्रारव्य करके प्राप्त जो सुख व दुःख तिसको भोगते हुये ४१ इस प्रकार संसार रूपी प्रवाह में गिरे हुये भी जो तुमहो सो पापपुण्य करके बाह्य जो इन्द्रियादिक हैं तिन में कर्तृत्व धर्मविचारते हुये भी नहीं लिप्त हो उगे ४२॥

अन्तःशुद्ध स्वभावस्त्वं लिप्यते न च कर्मभिः।
एतन्मयोदितं कृत्स्नं हृदि भावय सर्वदा॥४३॥

संसारदुःखैरखिलैर्वाध्यसेनकदाचन।
त्वमप्यम्बमयादृष्टं हृदि भावयनित्यदा॥४४॥

समागमं प्रतीक्षस्व न दुःखैः पीड्यसेऽचिरम्।
न सदैकत्रसंवासः कर्ममार्गानुवर्त्तिनाम्॥४५॥

यथाप्रवाहपतित प्लवानां सरितां तथा।
चतुर्दशसमासंख्याक्षणार्द्धमिव

जायते॥ ४६॥

अनुमन्यस्थसामम्बदुखं संत्यज्य दूरतः॥
एवं चेत्सुखसंवासोभविष्यतिवनेमम ॥ ४७॥

इत्युक्त्वा दंडवन्मातुः पादयोर पतच्चिरम्॥
उत्थाप्यां के समावेश्य आशीभिरभिनन्दयत् ॥४८॥

सर्वेदेवाः सगन्धर्वाब्रह्मविष्णुशिवादयः॥
रक्षन्तु त्वां सदायां तं तिष्ठन्तं निद्रयायुतम् ॥४९॥

** **और भीतरसे शुद्धस्वभाव रहोगे तौ कर्मोकरके नहीं लिप्त होउगे हेलक्ष्मण यह मुझकरके कहा जो ज्ञान है तिसको सब कालमें हृदयमें ध्यानकरो ४३ तौ संपूर्ण जो संसारके दुःखहैं तिनकरिकै कभी न बाधित होउगे अब ऐसे लक्ष्मण से कहिकै मातासे कहते हैं कि हे मातः तुम भी मेरा कहाहुआ जो ज्ञान है तिसको सदा हृदय में ध्यानकरो ४४ औमेरे समागम की प्रतीक्षा किया करौ गीत दुःखकरके नहीं पीड़ित होउगी औ हे मातः कर्म मार्ग में चलनेवाले जो प्राणी हैं तिनका बहुतकाल एक जगह सदा संवास नहीं होता ४५ जैसे नदियों के प्रवाह में चलती हुई जो छोटी छोटी नौका हैं तिनकी एक स्थान पै स्थिति नहीं हो सक्ती है तैसे हे मातः चौदह वर्षों की संख्या है सो अर्द्धक्षण के तुल्य व्यतीत होगी ४६ औहे अम्ब तुम दुःख को त्यागकर के मुझको आज्ञा दीजिये इसप्रकार तुम्हारी आज्ञा सेबनमें सुखपूर्वक मेरा बासहोगा ४७ यहवचन कहिकै श्रीराम माताके चरणों में दण्डवत्प्रणाम करतेहुये तब कौशल्याजी श्री रामचन्द्रको उठाकरके अपनी गोद में बिठाकर आशीर्वाद देती हुई ४८ हेराम जिससमय में तुममार्ग में चलौ अथवा स्थितहोउ अथवा शयनकरौ उससमय में गन्धर्बो करके सहितब्रह्मा विष्णु शिवादिक संपूर्ण देवतारक्षा करें ४६॥

इतिप्रस्थापयामाससमालिंग्यपुनःपुनः॥
लक्ष्मणोपितदारामं नत्वाहर्षाश्रुगद्गदः

५०

आहरामममांतस्थः संशयोऽयं त्वयाहृतः॥
यास्यामिपृष्ठतोरामसेवां कर्त्तुन्तदादिश

५१

अनुगृह्णीष्वमां रामनो चेत्प्राणांस्त्यजाम्यहम्॥
तथेति राघवोऽप्याह लक्ष्मणं याहिमाचिरम्

५२

प्रतस्थेतांसमाधातुं गतःसीतापतिर्विभुः॥
आगतं पतिमालोक्य सीतासुस्मितभाषिणी

५३

स्वर्णपात्रस्थसलिलैः पादौ प्रक्षाल्यभक्तितः॥
पप्रच्छ पतिमालोक्यदेवकिं सेनयाविना

५४

आगतोऽसि गतः कुत्रश्वेतच्छत्रंचतेकुतः॥
वादित्राणिनवाद्यंते किरीटादिविवर्जितः

५५

सामंतराजसहितः संभ्रमान्नागतोऽसिकिम्॥
इतिस्मसीतयापृष्टोरामःसस्मितमब्रवीत्

५६॥

इसप्रकाररामको बारम्बार हृदयमें आलिंगनकर यात्राकराती हुईं तब उस

समयमें आनन्द के अश्नुपात जिसके हो रहे और गद्गद बाणी जिसकी हो रही है ऐसे जो लक्ष्मण सो राम से वचन बोलते भये कि हे राम आपने मेरे हृदय का संशय दूर किया और मैं आपके पीछेपीछे सेवा करने को संग चलाचाहता हूं तो आज्ञा करिये ५०।५१ औ हेराम मेरे ऊपर अनुग्रह करिये और जो आप संग न लेजावोगे तो मैं अपने प्राणों को त्याग देउँगा तब रामचन्द्र कहते हुये कि हे लक्ष्मण शीघ्रचलौ बिलम्ब न करौ ५२ तिसके उपरान्त सीताजी के चित्त सावधान करने को राम अपने गृह जाते भये तब मन्द मुसुकानकर बोलने काहै स्वभाव जिसका ऐसी जो सीतासो आवते हुये पति को देखके सुवर्ण पात्र में जललाके श्रीरामचन्द्र के चरण कमल प्रक्षालनकर आसन पर बिठालकै पूछतीहुई कि हे देव सेना के बिना आप कैसे आये ५३।५४ और कहांसे इससमय में आवते हौऔर तुम्हाराश्वेत छत्र कहां है और तुम्हारे संग बाजेबजना चाहिये सो क्यों नहीं बजते और मण्डलवर्ती जो राजा है तिनके बीच में सबको संभ्रम उत्पन्न करते हुये आपका आगमन उचित था सो इसरीति से नहीं आये इसमें क्या कारण है अर्थात् आपको आज राज्य होना था और चक्रवर्ती राजों की सवारी जब निकलती है तौ सेनासंग होती है और बाजे बजते हैं और श्वेत छत्र शिर के ऊपर होता है और चोर दुरते हैं और देश देश के राजा भयभीत हुये संगचलते हैं सो इस राज चिह्नों से नहीं आये इसमें क्या कारण है ऐसे जब सीताजी ने पूछा तौ मंदसुसुकानकर श्रीरामचन्द्रजी वचन बोलते भये ५५॥ ५६॥

राज्ञामे दण्डकारण्ये राज्यं दत्तं शुभेऽखिलम्॥
अतस्तत्पालनार्थायशीघ्रं यास्यामिभामिनि

५७

अद्यैवयास्यामिवनं त्वंतुश्वश्रूसमीपगा॥
शुश्रूषां कुरु मे मातुर्ममिथ्यावादिनोवयम्

५८

इतिब्रुवंतं श्रीरामं सीताभीताऽब्रवीद्वचः॥
किमर्थं वनराज्यंते पित्रादत्तं महात्मना

५९

तामाहरामः कैकैय्यैराजा प्रीतोवरंददौ॥
भरतायददौराज्यं वनवासंममानधे

६०

चतुर्दशसमास्तत्रवासोमेकिलयाचितः॥
तयादेव्याददौराजासत्यवादीदयापरः

६१

अतः शीघ्रङ्गमिष्यामिमाविघ्नं कुरु भामिनि॥
श्रुत्वा तद्रामवचनं जानकीप्रीतिसंयुता

६२

अहमग्रेगमिष्यामि वनं पश्चात्वमेष्यसि॥
इत्याहमांविनागंतुंतव राघवनोचित्तम्

६३॥

किहे सीते राजा ने मुझको दण्डकवन का सम्पूर्ण राज्य दिया है इससे तिस आज्ञा को पालन करने को मैं शीघ्रही दण्डकारण्य को जाऊंगा ५७ औमैं अभी वन को जाता हूं औसीते तुम मेरी माता जो तुम्हारी सासु हैतिसके पासजाके शुश्रूपाकरो औमैं मिथ्यावादी नहीं हूं अर्थात् सत्य ही कहता हूँ ५८

ऐसा कहते हुये जो श्रीराम तिनसे सीता भयभीत हो बोलती हुई कि किस प्रयोजन से महात्मा पिता ने तुमको बनका राज्यदिया ५९ तब रामसीता से कहते भये कि राजादशरथ प्रसन्नहोके कैकेयी को वर देतेभये हैं तिसमें भरत को राज्य दिया औ मुझको वनदिया ६० तिसमें भी चौदहवर्ष पर्यन्त मेरा बनवास केकयीने राजा से मांगा तौ सत्यबादी औदयायुक्त राजा वरको देता भया ६१ इससे शीघ्रही मैं बनको जाऊंगा और हे भामिनि तुमको इसमें कुछ विघ्न नहीं करना चाहिये यह रामका बचन सुनिकै प्रीति सहित सीता बोलती भई ६२ कि हे राम मैं तो आगे बनको चलौंगी और तुम पीछे चलोगे औ हे राघव मेरे बिना तुमको जाना उचित नहीं है ६३॥

तामाहराघवः प्रीतः स्वप्रियांप्रियवादिनीम्॥
कथं वनं त्वांनेष्येऽहं बहुव्याप्रघ्रगाकुलम्॥ ६४॥

राक्षसाघोररूपाश्च संतिमानुषभोजिनः॥
सिंहव्याघ्रवराहाश्च संचरतिसमंततः॥ ६५॥

कट्वम्लफलमूलानिभोजनार्थं सुमध्यमे॥
अपूपानिव्यंजनानि विद्यन्तेन कदाचन॥ ६६॥

काले काले फलं वाऽपिविद्यते कुत्रसुंदरि॥
मार्गोनदृश्यते क्वापिशर्करा कंटकान्वितः॥ ६७॥

गुहागह्वरसंबाधंझिल्लीदंशादिभिर्युतम्॥
एवं बहुविधंदोषंबनंदंडकसंज्ञितम्॥ ६८॥

पादचारेण गंतव्यं शीतवातातपादिकम्॥
राक्षसादीन्वनेदृष्ट्वा जीवितंहास्य सेविरात् ६६

तस्माद्भद्रेगृहे तिष्ठशीघ्रंद्रक्ष्यसिमांपुनः॥
रामस्यवचनं श्रुत्वा सीतादुःखसमन्विता ७०॥

तब प्रीतियुक्त जो राम सो प्रियवचन कहनेवाली जो प्रिया तिससे बोलते भये कि हे प्रिये बहुतव्याघ्र मृगोंकर के व्याप्त जो बन तिसमें तुझको कैसे ले चलों ६४ औमनुष्यों के भोजन करनेवाले भयंकररूपराक्षस जहां बसते हैं औसिंहव्याघ्र औ शूकरये सब जगह जहां विचरते हैं ६५ औ करुये खट्टे फल औमूल ये जहां भोजन को मिलते हैं औ पुत्र औ नानाप्रकार के व्यंजन ये कभी जहां मिलते नहीं ६६ औहे सुन्दरि फलभीक भी समय में कभी असमय में मिलते हैं औ मार्ग जहां नहीं दिखाई पड़ता है और जहां है भी तहां कांटे औकंकड़ी बहुतसी हैं ६७ औ झींगुर औ डांस आदि उपद्रवों करके युक्त जहां गुहा आदि स्थान ठहरनेको मिलता है हेसीते इसप्रकार बहुतदोषयुक्त दण्डक वन है ६८ औरजहां पार्वोपावँ चलने पड़ता है और शीत घाम आंधी इनको आदि बहुत से दोष हैं औ हे सीते भयंकररूप राक्षस आदि दुष्टजीवों को देख कै जहां तुम शीघ्र ही अपने लीवनको त्यागदेवोगी ६९ तिससे हे कल्याण गुणयुक्त सीते तुम गृह में हरिहौ तौ शीघ्र ही फिर मुझको देखोगी ऐसे राम के बचन सुनिकै दुःखपीड़ित जो सीता ७०॥

प्रत्युवाच स्फुरद्वक्त्राकिंचित्कोपसमन्विता॥
कथं मामिच्छ सेत्यक्तुं धर्मपत्नी पतिव्रताम्

॥ ७१॥

त्वदनन्यामदोषांमांधर्मज्ञोसिदयापरः॥
त्वत्समीपेस्थितां रामकोवामांधर्षयेद्वने॥७२॥

फलमूलादिकंयद्यत्तवभुक्तावशेषितम्॥
तदेवामृततुल्यंमेतेनतुष्टारमाम्यहम्॥ ७३॥

त्वया सह चरंत्याने कुशाः काशाश्च कण्टकाः॥
पुष्पास्तरणतुल्यामे भविष्यन्तिनसंशयः॥ ७४॥

अहं त्वां क्लेशयेनैव भवेयं कार्यसाधिनी॥
बाल्येमांवीक्ष्यकश्चिद्वैज्योतिःशास्त्रविशारदः॥ ७५॥

प्राहतेविपिनेवासः पत्यासहभविष्यति॥
सत्यवादीद्विजोभ्यागमिष्यामित्वयासह॥ ७६॥

अन्यत्किंचित्प्रवक्ष्यामिश्रुत्वामांनयकाननम्॥
रामायणानि बहुशः श्रुतानिबहुभिर्द्विजैः॥ ७७॥

तो रामसों क्रोध युक्तहोकै औओंठजिसका फरकरहाऐसी बोलती हुई कि हे राम धर्मपत्नी औ पतिव्रता ऐसी जो मै हौं तिसको कैसे त्यागकरने की इच्छा करते हौ ७१ और आप बड़े धर्म के जानने वाले औदयायुक्त होकै सिवाय आपके और किसी में चित्त नहीं जिसका और इससे दोषरहित ऐसी जो मैं हौं तिसको कैसे त्यागोगे औहे राम तुम्हारे समीप स्थित जो मैं हौं तिस को वनमें कौन तिरस्कार करसक्ता है ७२ और हेराम तुम्हारे भोजन करने से बाकी रहा जो कन्दमूल फलादिक तिसको अमृत तुल्य भोजनकर रमण करोगी ७३ औ हे राम तुम्हारे संग बनमें चलती हुई जो मैं तित को कुश औ कांसकांटे ये सब पुष्पों के बिछौनों के तुल्य होंगे इसमें कुछ संशय नहीं है ७४ और हे राम मैं तुमको क्लेश नहीं उत्पन्न करौंगी और तुम्हारे कार्य के सिद्ध करने वाली होऊंगी अर्थात् राक्षसों के बधरूपकार्य के साधन करनेवाली मैंहूंगी यह सीताजी का गूढ़ आशय है और भी एक कारण है जिससे मैंअवश्य वनको जाऊंगी सो सुनिये एकसमय बाल्य अवस्थामें एक ज्योतिषशास्त्र में बड़ा निपुण ब्राह्मण ७५ मुझको देखिकै कहता हुआ कि पति के साथ तेरा वन में बास होगा सो जो तुम्हारे संग बनको जाऊं तौ वह ब्राह्मण सत्यबादी होय ७६ और भी कुछ कहती हौंतिसको सुनिकै पबन को मुझको ले चलिये ब्राह्मणों के मुखसे बहुतसी रामायण मैंने सुनी है ७७॥

सीतां विनावनं रामोगतः किंकुत्रचिद्वद्॥
अतस्त्वयागमिष्यामिसर्वथात्वत्सहायनी॥ ७८॥

यदिगच्छसिमांत्यक्त्वाप्राणां स्त्यक्ष्यामितेऽग्रतः॥
इति तन्निश्चयं ज्ञात्वा सीताया रघुनन्दनः॥ ७९॥

अब्रवीद्देविगच्छ

त्वं वनं शीघ्रम्मयासह॥
अरुन्धत्यै प्रयच्छा शुहारानाभरणानि च॥ ८०॥

ब्राह्मणेभ्यो धनं सर्वं दत्त्वा गच्छाम हे वनम्॥
इत्युक्त वा लक्ष्मणे नाशुद्धिजानाहूयभक्तितः॥ ८१॥

ददौ गवां वृन्दशतं धनानि वस्त्राणिदिब्यानिविभूषणानि॥
कुटुंबवद्भ्यः श्रुतशीलवद्भ्योमुदाद्विजेभ्यो रघुवंशकेतुः॥ ८२॥

अरुन्धत्यै ददौसीतामुख्यान्याभरणानि च॥
रामोमातुसेवकेभ्योददौधनमनेकधा॥ ८३॥

स्वकांतः पुरवासिभ्यः सेवकेभ्यस्तथैव च॥
पौरजानपदेभ्यश्चब्राह्मणेभ्यः सहस्रशः॥ ८४॥

तिनमें सीता के विनराम कभी वन को गये होवैं तौ आपही कहिये इससेतुम्हारे संगवन को मैं चलौंगी औसर्वप्रकार से तुम्हारा सहाय करौंगी ७८ और जो कदाचित् मुझको त्यागकै वनको जावोगे तो तुम्हारे आगेही अपने प्राणों को त्यागकर देऊंगी अब श्रीरामचन्द्र यह सीता का निश्चय जानके७९ बोलते हुये कि हे देवि शीघ्रही मेरे संग वन को चलौ और अरुन्धती जो वशिष्ठ की स्त्री हैंतिनके अर्थ शीघ्र ही अपना हार औ आभूषण देवो ८० और मैं भी ब्राह्मणों के अर्थ अपना सबधनदेकै बनको चलता हूं यद्यपि बाल्मीकीय रामायण में सीताजी ने बनके जाने के समय में अरुन्धती के पुत्र की स्त्री को अपना आभूषण दिया है और रामचंद्र ने विशेष करके वशिष्ठ के पुत्र को अपना मुख्य धन दिया और भी ब्राह्मणों को सुवर्णकी राशि लगाकर देते भये ऐसा लिखा है तौभी आत्मा ही अपना पुत्र होता है ऐसे वेद की आज्ञासे वशिष्ठ के पुत्रको पुत्रबधू को धन देने में भी वास्तव में वशिष्ठ और अरुन्धती ही को प्राप्त हुआ इस आशय से यहां अरुन्धती को आभूषण देना कहने में बहुत विरोध वाल्मीकीय से नहीं है यह सज्जन पुरुष विचार करें अब श्रीरामचन्द्र ऐसे पूर्वोयुक्त वचन सीता से कहके लक्ष्मण के द्वारा ब्राह्मणों को बुलवाकर ८१ भक्ति युक्त श्रीरामचन्द्र विद्याविनय युक्त कुटुंबी श्रेष्ठ ब्राह्मणों को गौवों के सैकड़ों समूह औ सुवर्ण की राशि लगाकर औ नानाप्रकार के वस्त्रऔ आभूषण प्रीतिपूर्वक देतेभये ८२ औ सीताजी अरुन्धती के अर्थ अपने आभूषण देती भईं औ रामचन्द्र अपनी माता के सेवकों को अनेक प्रकार का धन देते भये ८३ और अपने महलके जो सेवक हैं तिनको भी देते भये और पुरवासी और देश देश के जो हजारों ब्राह्मण आये थे तिनके अर्थ भी धन देते भये ८४॥

लक्ष्मणोऽपि सुमित्रान्तुकौशल्यायैसमर्पयत्॥
धनुः पाणिः समागत्यरामस्याग्रेव्यवस्थितः॥ ८५॥

रामः सीतालक्ष्मणश्च जग्मुः सर्वेनृपालयम्॥ ८६॥

श्रीरामःसहसीतयानृपपथेगच्छन् शनै सानुजः पौरान्जानपदा

न्कुतूहलदृशः सानंदसुद्वीक्षयन्॥
श्यामः कामसहस्रसुन्दरवपुः कांत्यादिशोभासयन्
पादन्यासपवित्रिताऽखिलजगत्प्रापालयन्तत्पितुः ॥ ८७॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे अयोध्याकाण्डे
चतर्थस्सर्गः ४॥

और लक्ष्मणजी भी सुमित्रा माता को कौशल्या को सौंपते भये औ आप धनुषको हाथ में लेके शीघ्र ही आय रामके आगे स्थित होते भये ८५ अब इस प्रकार अपनी अपनी तैयारी करके राम औसीता औ लक्ष्मण ये सबराजा दशरथ के मंदिर को जाते भये ८६ अव सीता लक्ष्मण सहित श्रीरामचन्द्र धीरे धीरे राजमार्ग में चलते हुये औ आजु राजाधिराज दशरथ के पुत्र श्रीरामचन्द्र चरणों से पृथिवी में चल रहे हैं ऐसेआश्चर्य युक्त हैंनेत्र जिनके ऐसे पुरबासियों को औ देशदेशों के मनुष्यों को आनन्द पूर्वक देखते हुये औ हजारों कामदेवों से सुन्दर जो श्यामवपु तिसको धारण किये और अपनी कान्ति करके सब दिशों को प्रकाशित करते हुये औ अपने चरणों के धरने से पृथिवी लोक को पवित्र करते हुये पिता के मन्दिर में प्राप्तहोते भये ८७॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे अयोध्याकाण्डे
भाषाटीकायां चतुर्थस्सर्गः ४॥

श्रीमहादेवउवाच॥

आयांतंनागरादृष्ट्वामार्गे रामं सजानकिम्॥
लक्ष्मणे न समं वीक्ष्य ऊचुः सर्वे परस्परम्॥ १॥

कैकेय्या वरदानादि श्रुत्वादुःख समावृताः॥
वतराजादशरथः सत्यसंधंत्रियंसतम्॥ २॥

स्त्रीहेतोरत्यजत्कामीतस्य सत्यवता कुतः॥
कैकेयी वा कथं दुष्टारामं सत्यं प्रियं करम्॥ ३॥

विवासयामास कथं क्रूरकर्माऽतिमूढधीः॥
हे जनानात्रवस्तव्यंगच्छामोद्यैवकाननम्॥ ४॥

यत्र रामः सभार्यश्च सानयोगंतुमिच्छति॥
पश्यं तु जानकी सर्वे पादचारेण गच्छतीम्॥ ५॥

पुंभिः कदाचिददृष्ट्वाजानकीलोकसुंदरी॥
सापिपादेन गच्छंती जनसंघेष्वनावृता॥ ६॥

रामोऽपि पादचारेणगजाश्वादि विवर्जितः॥
गच्छति द्रक्ष्यथ विभुं सर्वलोकैक सुंदरम् ७॥

दोहा ।

पितु आयसु लै पांच में गवन धीर धरि कीन्ह॥
तमसाजन तजि गुह मिले जटा मुकुट करिलीन्द॥ ५॥

अब श्री महादेवजी पार्वती से कहते हैं कि हे पार्वति सीता लक्ष्मण सहित श्रीरामचन्द्र को राजमार्ग में जाते देखके पुरवासी मनुष्य परस्पर बोलते

हुये १ केकयी के वरदानादि कथा सुनके बड़े दुःखसे पीड़ित हो यह कहते हुये कि बड़े खेद की बात है कि राजादशरथ स्त्रीके कारण से जो सत्यमर्याद प्रिय पुत्र को २ त्यागताभया तो उसकी सत्यता कहां है और केकयी भी प्रथम तो राममें प्रीतियुक्त थी ३ फिर दुष्टाहोके सत्य बोलनेवाला औप्रीति का करनेवाला जो राम तिसको कैसे बनबास को भेजती हुई इससे बिदित होता है कि केकयी बड़ी कठोर हृदय और मूढमति है इससे हे मनुष्यो इस दुष्टा केकयी के नगर में नहीं बासकरना योग्य है अभी सब हम बनको जाते हैं ४ जिस बनमें सीता लक्ष्मण सहित श्रीराम जानेकी इच्छा करते हैं और तुम सब देखो राजा जनक की कन्या अपने पावों से चल रही है ५ जो सीता कभी किसी पुरुष ने नहीं देखी सो लोक में एक ही सुन्दरी सीता अनावृत देश में अर्थात् सबके सामने अपने चरणों से पृथिवी में चल रही है ६ और राम भी हाथी घोड़े आदि सवारियों के बिना ही जो पावों से चल रहे हैं ऐसे जो सब लोकों एकसुन्दर औ स्वामी तिनको देखो ७॥

राक्षसी कैकयी नाम्नीजातासर्वविनाशिनी॥
रामस्यापि भवेदुःखं सीतायाः पादयानतः

॥ ८॥

बलवान्विधिरैवात्रपुंप्रयलोहिदुर्बलः॥
इति दुःखाकुलेवृन्दे साधूनां मुनिपुंगवः॥ ९॥

अब्रवीद्वामदेवोऽथ साधूनां संघमध्यगः॥
मानुशोचथरामं वासीतांवावच्मितत्वतः॥ १०॥

एव रामः परो विष्णुरादिनारायणः स्मृतः॥
एषा सा जानकी लक्ष्मीर्योगमायेतिविश्रुता॥ ११॥

असौशेषस्तमन्वेतिलक्ष्मणाख्याश्च सांप्रतम्॥
एषमाया गुणैर्युक्तस्तत्तदाकारवानिव॥ १२॥

एषयेवरजोयुक्तो ब्रह्माऽभूद्विश्वभूवनः॥
सत्वाविष्टस्तथाविष्णुस्त्रि जगत्प्रतिपालकः॥ १३॥

एकरुद्रस्तामसोंऽतेजगत्प्रलयकारणम्॥
एषमत्स्यः पुराभूत्वा भक्तं वैवस्वतं मनुम्॥ १४॥

और केकयी के नाम से कोई दुष्टाराक्षसी हमारे सबके नाश करने को प्रकट हुई है और सीता के चरणों से चलने में रामको भी दुःख होता होगा ८और देखो भाइयो देवबडा बलवान् है और पुरुषों का यत्न सब दुर्बल है अर्थात् जहां लोकनाथ राम और सीता इस रीति से मार्ग में चल रहे हैं ऐसे दुःखकरके व्याकुल सज्जन पुरुषों को देखके सबके मध्य में स्थित जो मुनियों में श्रेष्ठ बामदेव मुनि ९ सो बोलते भये कि तुमसबजने रामको व सीता को मतशोचकरौ मैं यथार्थ सत्यवचन कहता हूँ सो सुनो १० यह राम प्रकृति से परे सब का कारण बिष्णु है जिसको नारायण कहते हैं और यह सीता जो है सो योगमाया

औ लक्ष्मी नाम कर विख्यात है ११ और जो इससमय में इनके पीछे जा रहा है सो लक्ष्मण सा शेष है और यह राम माया गुणों करके युक्त होकै तैसे तैसे स्वरूप का प्रतीयमान होता है १२ जब यह रजोगुण युक्तहोता है तौ ब्रह्मारूप होके सब विश्वको उत्पन्न करता है औ जब सत्त्वगुण युक्त होता है तो विष्णुरूप हो तीनों लोकों का पालन करता है १३ और जो तमोगुण युक्त होता है तौ रुद्ररूप होके अन्त में सबका संहार करता है और यही राम पहिले मत्स्यरूप धारण करके अपना भक्त जो वैवस्वत मनु है तिसको १४॥

नाव्यारोप्पलयस्यां तपालयामासराघवः॥
समुद्रमथने पूर्वं मंदरेसुतलंगते॥ १५॥

अधारयत्स्वष्टष्ठेन्द्रिकूर्मरूपीरघूत्तमः॥
महीरसातलंयाता प्रलये सूकरोऽभवेत्॥ १६॥

तोलयामासदंष्ट्रा ग्रेतांक्षोणी रघुनंदनः॥
नारसिंहंवपुः कृत्वाप्रह्लादवरदः पुरः॥ १७॥

त्रिलोककंटकं रक्षः पाटयामासतन्नखैः॥
पुत्रराज्यंहृतं दृष्ट्वाह्यदित्यायाचितः पुरा ॥१८॥

वामनत्वमुपागम्ययांचया चाहरत्पुनः॥
दुष्टक्षत्रियभूभारनिवृत्यै भार्गवोऽभवत्॥ १६॥

स एव जगतां नाथ इदानीं रामतांगतः॥
रावणादीनि रक्षांसि कोटिशोनिहनिष्यति॥ २०॥

मानुषेणैवमरणंतस्यदृष्टं दुरात्मनः॥
राज्ञादशरथेनापितपसाराधितो हरिः॥ २१॥

नौका पै बिठा करके प्रलय काल पर्यन्त रक्षा करता हुआ और पहिले समुद्र के मन्थन में मन्दर पर्वत जब पाताल को चलागया १५ तब यही रघुनन्दन कूर्म रूप धारण करके आपने पीठके ऊपर मन्दराचल को धारण करता हुआ और जब पृथिवी रसातल को चलीगई तब प्रलय काल के जल में श्रीराम वाराह रूप धारणकरके १६ अपनी दंष्ट्राके अग्रभाग में अर्थात् दाढके ऊपर पृथिवी को धारण करते हुये फिर यही राम पहिले नृसिंहरूप धारणकर तीनों लोक का कंटक जो हिरण्यकशिपु दैत्य तिसको अपने नखों से विदारण करते हुये औ प्रह्लाद को वर देते हुये १७ और जब इन्द्रका राज्य राजा बलि ने हर लिया तब यही राम अदिति करके प्रार्थना किये गये १८ वामनरूप धारणकर यांचाके छल करके तीनोंलोक बलिसे लैकै इन्द्र को दैदेते हुये फिर यही राम दुष्ट क्षत्रिय रूप जो पृथिवी का भार तिसको दूर करने को भृगुवंश में जमदग्नि के पुत्र परशुराम रूप धारण करि क्षत्रियों का नाश करते हुये १९ सोई सब जगत् का नाथ अब इस समय में रामनाम करके हुआ है सो रामजी रावण आदि जो कड़ोरों राक्षस तिनको नाश करेंगे २० क्योंकि उस दुष्टात्मा की

मनुष्य ही करके मृत्यु देखी गई और राजा दशरथने भी प्रथम तपकरके नारायण का आराधन किया है २१॥

पुत्रत्वाकांक्षयाविष्णोस्तदापुत्रोभवद्धरिः॥
स एव विष्णुः श्रीरामोरावणादिबधायहि॥ २२॥

गंताद्यैववनं रामो लक्ष्मणे न सहायवान्॥
एषासीता हरेर्मायासृष्टिस्थित्यन्तकारिणी॥ २३॥

राजा वा कैकयीवाऽपिनात्रकारणमवपि॥
पूर्वेद्युर्नारदः प्राह भूभारहरणाय च॥ २४॥

रामोऽप्याहस्वयंसाक्षाच्छ्वो गमिष्याम्यहंवनम्॥
अतोरामं समुद्दिश्य चिंतांत्यजतबालिशाः॥ २५॥

रामरामेति ये नित्यं जपंतिमनुजाभुवि॥
तेषां मृत्युभयादीनिन भवंति कदाचन॥ २६॥

का पुनस्तस्यरामस्य दुःखशंका महात्मनः॥
रामनाम्नैवमुक्तिःस्यात्कलनान्येन केनचित्॥ २७॥

मायामानुषरूपेणविडंययतिलोककृत्॥
भक्तानां भजनार्थायरावणस्यवधाय च॥ २८॥

कि बिष्णु ही मेरा पुत्र हो इस कामना से तिस कारण से साक्षात् नारायण ही दशरथ का पुत्र होता हुआ सो विष्णु जो ये राम हैं सो अभी रावण आदि राक्षसों के बधके अर्थ २२ लक्ष्मण सहित बनको जावेंगे और यह जो सीता हैं सो सब जगत् के रचनेवाली औ पालन करनेवाली औ संहार करनेवाली मायारूप हरि की शक्ति हैं २३ राजा दशरथ अथवा केकयी ये कुछ भी इसमें कारण नहीं हैं क्योंकि पहिलेदिन नारद आके इन रामसे पृथिवी के भार के हरण के लिये प्रार्थना करते भये २४ तौ राम ने साक्षात् नारद से कहा कि मैं प्रातःकाल वनको जावोंगा इससे हे मूर्खो रामको दुःख हो रहा है ऐसामान के जो चिन्ता है तिसको त्यागदेवो २५ और जे मनुष्य पृथिवी पै राम राम ऐसा नित्य जपते हैं तिन पुरुषों को मृत्यु भयादिक भी नहीं होते हैं २६ और तिल महाराम को दुःख की शंका करनी यह क्या कहना है और कलियुग में राम ही करके मुक्ति होती है और कोई उपाय नहीं है २७ सो राममाया मनुष्यरूप धारणकर मनुष्यों को अपने अच्छे आचरण करके शिक्षा करता है और भक्तों को भजन के अर्थ और रावण के बधके लिये २८॥

राज्ञश्चाभीष्टसिध्यर्थं मानुषंवपुराश्रितः॥
इत्युक्त्वाविररामाथवामदेवो महामुनिः॥ २९॥

श्रुत्वाऽतेपिद्विजाः सर्वेरामंज्ञात्वा हरिविभुम्॥
जहुर्हृत्संशयग्रंथिंराममेवान्वचिंतयन्॥ ३०॥

य इदं चिंतयेन्नित्यं रहस्यं रामसीतयोः॥
तस्यरामेदृढा भक्तिर्भवेद्विज्ञान पूर्विका॥३१॥

रहस्यं गोपनीयं वोयूयंवैराघवप्रियाः॥
इत्युक्त्वाप्रययौ विप्रस्तेऽपिरामंपरं वि-

दुः॥ ३२॥

ततोरामस्समाविश्यपितृगेहमवारितः॥
सानुजः सीतया गत्वा कैकेयीमिदमब्रवीत्॥ ३३॥

आगतास्मो वयं मातस्त्रयस्ते संमतंवनम्॥
गंतुं कृतधियः शीघ्रमाज्ञापयतुनः पिता॥ ३४॥

इत्युक्तासहसोत्थाय चीराणि प्रददौस्वयम्॥
रामायलक्ष्मणायाथ सीतायै च पृथक्पृथक्॥ ३५॥

और राजा दशरथ के अभीष्ट सिद्धि के अर्थ मनुष्य वपुका आश्रयण किया है इतना कहके वामदेव जो मुनियों में श्रेष्ठ हैं सो मौन हो जाते हुये २६ यह वामदेवजी का वचन सुनि जितने ब्राह्मण लोग थे ते सब अपने हृदय की संशय रूप ग्रंथिको भेदन कर राम ही का चिन्तन करते हुये ३० अब जो कोई मनुष्य इस राम सीता के रहस्य को नित्य स्मरण करैगा तिसक राममें विज्ञानपूर्वक अर्थात् ज्ञान सहित दृढ़ भक्ति होगी ३१ औ हे ब्राह्मणो जिससे तुमको राम प्रिय है इस मेरे कहेहुये रहस्य को गुप्त रक्खोगे अर्थात् लोक मेंभी प्रिय वस्तु गुप्त की जाती है जैसे लोभी का धन यह वचन कहि वासदेवजी जाते हुये औ वे ब्राह्मण भी राम को परमतत्व जानते हुये ३२ तिसके अनन्तर लक्ष्मण सीता सहित राम चन्द्र पिता के घर में प्रवेश कर केकयी से यह वचन बोलते हुये ३३ कि हे मातः तुमको अभीष्ट जो वन तिसको जानेकी की बुद्धि जिन्होंने ऐसे हम तीनों जने प्राप्त हुये हैं इससे ऐसा कीजिये जिससे शीघ्र ही पिता आज्ञा हमको देवैं३४ ऐसा राम का वचन सुनके केकयी शीघ्रही उठकर अपने हाथ से राम और सीता औ लक्ष्मण इनको चीरवस्त्र देती हुई ३५॥

रामस्तु वस्त्राण्युत्सृज्यबन्यचीराणिपर्यधात्॥
लक्ष्मणोपितथा चक्रेसीतातन्नविजानती॥ ३६॥

हस्ते गृहीत्वा रामस्य लज्जया मुखमैक्षत॥
रामोगृहीत्वा तच्चीरमंशु के पर्यवेष्टयत्॥ ३७॥

तद्दृष्ट्वारुरुदुः सर्वेराजदाराः समंततः॥
वशिष्टस्तु तदाकर्ण्यरुदितं भर्त्सयन्रुषा॥ ३८॥

कैकेयीं प्राहदुर्वृत्तेराम एवत्वयावृतः॥
वनवासायदष्टेत्वं सीतायै किं प्रयच्छसि॥ ३९॥

यदिरामं समन्वेति सीताभक्तया पतिव्रता॥
दिव्याम्बरधरानित्यं सर्वाभरणभूषिता॥ ४०॥

रमयत्वनिशंरामंचन दुःखनिवारिणी॥
राजा दशरथोऽप्याह सुमंत्रं रथमानय॥ ४१॥

रथमारुह्यगच्छं तु वनं वनचरप्रियाः॥
इत्युक्त्ताराममालोक्य सीतां चैव सलक्ष्मणम् ४२॥

तब रामचन्द्र अपने वस्त्रों को उतारिकै केकयी के दिये हुये जो वनके योग्य वस्त्र हैंतिनको धारणकरते हुये तैसेही लक्ष्मण भी धारणकरते हुये और सीता तौ उन वस्त्रों का पहिनना न जानती थी ३६ इससे केवल हाथ में लेकै लज्जा

करिकै रामके मुखको देखती हुई तौ राम सीता के हाथ से उन वस्त्रों को लैकै सीता के वस्त्रों के ऊपर लपेट देते हुये ३७ यह चरित्र को देखके राजा दशरथ की जोसात सौरानी थीं वे सब रोने लगीं उस समय में वशिष्ठजी महाराज उन रानियों के रोनेका घोर शब्द सुनिकै क्रोधकरिकै केकयी को ललकारते हुये ३८ केकयी से यह कहते हुये कि हे दुर्वृत्ते खोंटे आचरण करनेवाली औ हे दुष्टे तू ने वनवासके लिये एक रामका वर मांगा था फिर सीता को क्यों वन के वस्त्र पहिर ने को देती है ३९ और जो कदाचित् पतिव्रता सीता अपनी इच्छा से भक्तिकरके रामके संगजाती है तो दिव्यबस्त्रों को धारणकरे औसंपूर्ण आभूषणों करके भूषित हुई ४० निरन्तर रामको रमण करावे और रामके बनके दुःखों को निवारण करती हुई जावैऔर राजा दशरथ भी सुमंत्र से कहते हुये कि हे सुमंत्र तुम रथको ल्यावो ४१ क्योंकि वनमें रहनेवाले मुनिलोग हैं प्रिय जिन्हों को अथवा मुनियों को प्रिय ऐसें जो राम लक्ष्मण सीता ये तीनों रथ के ऊपर चढिकै बनको जावें ऐसे वचन राजादशरथ कहिकै चो राम को देखिकै औलक्ष्मण औ सीता इनको देखिकै ४२॥

दुःखान्निपतितो भूमौरुरोदाश्रुपरिप्लुतः॥
आरुरोह रथं सीताशीघ्रं रामस्य पश्यतः॥ ४३॥

रामः प्रदक्षिणं कृत्वा पितरं रथमारुहत्॥
लक्ष्मणःखड्गयुगलं धनुस्तूणीयुगं तथा॥ ४४॥

गृहीत्वा रथमारुह्य नोदयामास सारथिम्॥
तिष्ठतिष्ठ समंत्रेतिराजादशरथोब्रवीत्॥ ४५॥

गच्छ गच्छेति रामेण नोदितोऽचोदयद्रथम्॥
रामे दूरं गते राजा मूर्च्छितः प्रापतद्भुवि॥ ४६॥

पौरास्तबालवृद्धाश्चवृद्धाब्राह्मणसत्तमाः॥
तिष्ठतिष्ठेतिरामेतिक्रोशन्तो रथमन्वयुः॥ ४७॥

राजारुदित्वा सुचिरं मानयं तु गृहं प्रति॥
कौशल्यायाराममा तुरित्याहपरिचारकान्॥ ४८॥

किंचित्कालं भवेत्तत्रजीवनंदुःखितस्य मे॥
अत ऊर्ध्वं नजीवामिचिरं रामं विनाकृतः॥ ४९॥

बड़े भारी दुःख पृथिवी में गिर पड़ा औ नेत्रों से अश्रुधारा जिसके चली जाती हैं ऐसा रोता हुआ अब रामके देखतेई सीता शीघ्र ही रथके ऊपर चढ़ती हुई ४३ औ राम पिताकी प्रदक्षिणा करकै रथपै चढ़ते हुये औ लक्ष्मण दो खड्ग दो धनुष औ दो तरकस इनको ग्रहणकर रथपै चढिकै सारथी को चलने की आज्ञा देतेहुये ४४ अब उससमय में हे सुमंत्र तिष्ठ तिष्ठ अर्थात् खड़े हो खड़े हो ऐसा वचन तो सारथी से दशरथ कहते हुये ४५ औ गच्छ गच्छ अर्थात् चलौचलौऐसा वचन राम कहते हुये परन्तु उस समय में रामकी आज्ञा से सुमंत्र रथ को चलाताई हुआ जब रामचन्द्र राजा के नेत्रों की दृष्टि से दूरचले

गये अर्थात् जब रथ भी नहीं दिखाई दिया तब राजा दशरथ मूर्च्छित होके पृथिवी में गिरपड़ताहुआ४६ अव बालवृद्धपर्यंत पुरवासी लोग और बड़े श्रेष्ठ ब्राह्मण लोग ये सब हे राम खडे हो२ ऐसा चिचियाते हुये रथ के पीछे चलते हुये ४७ अबराजा बहुत काल रोदनकर राम की माता जो कौशल्या तिसके सेवकों से यह कहते हुये कि तुमसब कौशल्या के गृह मुझ को प्राप्तकरौ ४८ क्योंकि रामवियोग करिकै दुःखित जो मैं हौं तिसका जीवन कुछ काल कौशल्या के गृहमें होगा तिसके उपरांत रामके बिना बहुत काल में जीवों सानहीं ४९॥

ततोगृहं प्रविश्यैव कौशल्यायाः पपातह॥
मूच्छितश्चिराद्बुध्वा तूष्णीमेवावतस्थिवान्॥ ५०॥

रामस्तुतमसातीरंगत्वातत्रावसत्सुखी॥
जलप्राश्यनिराहारो वृक्षमूलेऽस्वपद्विभुः॥ ५१॥

सीतया सह धर्मात्मा धनुःपाणिस्तुलक्ष्मणः॥
पालयामास धर्मज्ञः सुमंत्रेणसमन्वितः॥ ५२॥

पौराः सर्वे समागत्यस्थितास्तस्याविदूरतः॥
शक्तारामं पुरं नेतुंनोचेद्रच्छामहेवनम्॥ ५३॥

इति निश्चयमाज्ञाय तेषां रामोति विस्मितः॥
नाहं गच्छामि नगरमेतैवैक्लेशभागिनः॥ ५४॥

भविष्यंतीति निश्चित्य सुमंत्रमिदमब्रवीत्॥
इदानीमेव गच्छामः सुमंत्ररथमानय॥ ५५॥

इत्याज्ञप्तः सुमंत्रोपि रथं वाहैरयोजयत्॥
आरुह्यरामः सीता च लक्ष्मणोपिययर्द्धतम्॥५९॥

तिससे अनन्तर राजा कौशल्या के गृह में प्रवेश करिकै पृथिवी में गिर पडताहुआ फिर मूर्च्छित राजा बहुतकाल में सचेत हो मौन ही होकैस्थित होता हुआ ५० रामचन्द्र तौतमसानदीकेतीर प्राप्त होकै तहां सुखपूर्वक वास करते हुये केवल जलमात्र पीकरके सीता करके सहित धर्मात्मा रामवृक्ष के तले जड़के समीप शयन करते हुये ५१ उस समय में सुमन्त्र सहित जो लक्ष्मण सो धनुष हाथ में ले करके रामकी रक्षा करता हुआ क्योंकि सेवा धर्मको जाननेवाले हैं ५२ इतने में पुरवासी लोग भी वहां आकर राम के समीप ही स्थितहोते हुये और यह निश्चय करते हुये कि राम को अयोध्या लेजाने को नहीं समर्थ होंगे तो रामके संग बनहीं को जायेंगे ५३ ऐसे पुरवासियों की निश्चय जानके अतिविस्मित आश्चर्ययुक्त सो राम ऐसा विचार करते हुये कि मैं तो नगरको जाऊंगा नहीं और ये सबक्लेश भागी होयँगे ५४ ऐसा निश्चय करके कुछ रात्रि अवशिष्ट रही थी उसी समय सुमन्त्र को आज्ञा करते हुये कि अभी हम जावेंगे हे सुमन्त्ररथ को ल्यावो ५५ इसप्रकार आज्ञापित जो सुमन्त्र सो रथघोड़ों से जोड़ के समीप प्राप्त करता हुआ तौ राम औसीता औलक्ष्मण ये शीघ्रही रथ चढ़ के जाते हुये ५६॥

अयोध्याभिमुखं गत्वाकिंचिद्दूरं ततोययुः॥
तेऽपिराममदृष्ट्वैवप्रातरुत्थाय दुःखिताः॥ ५७॥

रथनेमिगतं मार्गं पश्यतस्ते पुरंययुः॥
हृदिरामंससीतं ते ध्यायं तस्तस्थुरन्वहम्॥ ५८॥

सुमंत्रोऽपिरथं शीघ्रं नोदयामाससादरम्॥
स्फीतान् जनपदान्पश्यन्नूरामः सीतासमन्वितः॥ ५९॥

गंगातीरं समागच्छच्छ्रं गिवेराद्विदूरतः॥
गंगां दृष्ट्वा नमस्कृत्य स्नात्वासानंदमानसः॥ ६०॥

शिंशपावृक्षमूले सनिषसादरघूत्तमः॥
ततो गुहो जनैः श्रुत्वारामागममहोत्सवम्॥ ६१॥

सखायं स्वामिनं द्रष्टुं हर्षात्तूर्णंसमापतत्॥
फलानिमधुपुष्पादिगृहीत्वा भक्तिसंयुतः॥ ६२॥

रामस्याग्रेविनिक्षिप्य दंडवत्प्रापतद्भुवि॥
गुहमुत्थाप्यतं तूणैराघवः परिषस्वजे॥ ६३॥

कुछदूर अयोध्या की तरफ रथको हांकके फिरबनके मार्ग ही जाते हुये और पुरबासी लोग तो प्रातःकाल उठकर रामको बिना देखे अति दुःखितहोकै५७ रथ के पहियों के मार्गको देखिकै पुरही को जातेहुये अर्थात् रामकी आज्ञासेसुमन्त्र ने ऐसा रथ चलाया जिसमें अयोध्या पुरबासियों को अपनामार्ग न मिलै इससे व्यामोहित होकै अयोध्या ही को लौट जातेहुये फिर सब अयोध्या में जाके सीता सहित रामको हृदय में ध्यान करते हुये दिनदिन स्थित होतेहुये ५८ सुमन्त्र भी आदरपूर्वक शीघ्र ही रथको चलाता हुआ और सीता सहित राम बड़े समृद्धयुक्त देशों को देखते हुये ५९ शृंगवेरपुर के समीप गंगातीर प्राप्त होते हुये अब श्रीरघुनाथजी गंगाजी को देखके औ नमस्कार करके औ स्नान करके आनन्दयुक्त है मन जिनका ६० ऐसे होके शिंशपावृक्षके जड़के समीप अर्थात् शिरसाके वृक्षके समीप बैठते हुये तब गुह जो निषाद सो रामके आगमन को अपने मनुष्यों से सुनिकै ६१ बड़े हर्ष से फलमधु पुष्प आदि भेट लेकै परमभक्तियुक्त निषाद अपने सखा जो रामचन्द्र तिनको देखने को शीघ्रही आवताहुआ ६२ फिर रामके आगे सम्पूर्ण वस्तु स्थापनकर दण्डवत् पृथ्वी में चरणों के समीप पड़ता हुआ तब श्रीरामचन्द्र शीघ्रही निषादको उठाकर अपने हृदयसे आलिंगन करते हुये ६३॥

संपृष्टकुशलो रामं गुहः प्रांजलिरब्रवीत्॥
धन्योऽहमद्यमेजन्मनैषादं लोकपावन॥ ६४॥

बभूवपरमानंदःस्पृष्ट्वातेंऽगरघूत्तम॥
नैषादराज्यमेतत्ते किंकरस्यरघूत्तम॥ ६५॥

त्वदधीनं वसन्नत्रपाल यास्मान्रघूद्वह॥
आगच्छयामोनगरं पावनं करु मे गृहम्॥ ६६॥

गृहाणफलमूलानि त्वदर्थं संचितानिमे॥
अनुगृह्णीष्व भगवन्दासस्तेऽहं सुरोत्तम॥ ६७॥

रामस्तमाहसुप्रीतोवचनं शृणु मे सखे॥
न वेक्ष्यामि गृहं ग्रामं नववर्षाणि पंच च ६८॥

दत्तमन्येननोभुंजेफलमूलादिकंचन॥
राज्यं ममैतत्तेसर्वत्वंसखामेऽतिबल्लभः॥ ६९॥

वटक्षीरं समानाय्यजटामुकुटमादरात्॥
वबंधलक्ष्मणे नाथसहितोरघुनंदनः॥ ७०॥

जब श्रीरामचन्द्र ने कुशलपूछी तब निषाद हाथजोड़ के बोला कि हे लोकपावन लोकों के पवित्र करनेवाले आजु मैं धन्यहुआ और आपके अंगके स्पर्श से मेरा निषाद कुल में जो जन्म सो धन्यहुआ ६४ औ हेरघूत्तम आपके अंगको स्पर्शकरके परमउत्कृष्ट जो आनन्द है सो होता हुआ औहे रघूत्तम आपका किंकर सेवक जो मैं हौं तिसका जो निषादों का राज्य है ६५ सो सब तुम्हारे आधीन है अर्थात् तुम्हारे समर्पण है औ आप वहां बासकरके हमारी सबकी रक्षा कीजिये गौ नगर को आइये हम आपसब चलें औ दास के गृह को पवित्र करिये औ आपके अर्थ संचय किये जो कंदमूलफल तिनको ग्रहण करिये औ हे भगवन् हे सुरोत्तम मैं आपका दास हौं मेरे ऊपर अनुग्रह करिये ६६।६७ तब रामचंद्र बड़े प्रसन्न होके निषाद से बोले कि हे सखे मेरे वचनों को सुनो मैं नगर में औ किसी के गृह में चौदहवर्षतकं प्रवेश न करूंगा ६८ और किसी के दिये हुये फल मूल आदि भोजन नहीं करूंगा ऐसी मेरी प्रतिज्ञा है औ तुम्हारा जो राज्य है सो सब मेरा ही है और तुम मेरे अतिबल्लभ अर्थात् अत्यंत प्रिय सखाहौ ६९ तब लक्ष्मण सहित श्रीरामचन्द्र निषाद से बटका दुग्ध मँगवा के बड़े आदर से जटाजूट बांधते हुये ७०॥

जलमात्रं तु संप्राश्यसीतयासहराघवः॥
आस्तृतं कुश पर्णाद्यैः शयन लक्ष्मणेन हि॥ ७१॥

उवास तत्रनगर प्रासादाग्रे यथापुरा॥
सुष्वापतत्रवैदेह्यापर्यं कइव संस्कृते॥ ७२॥

ततोविदूरे परिगृह्य चापंसवाणतूणीरधनुः सलक्ष्मणः॥
ररक्षरामंपति तोविपश्यन्ग हेनसार्द्धंसशरासनेन ७३

इतिश्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे अयोध्याकांडे
पंचमस्सर्गः ५॥

फिर सीता सहित राम उस दिन जलमात्र ही पान करके कुश औपत्तों से बनाई जो लक्ष्मण ने शय्या तिसपै रात्रि में वास करते हुये जैसे पहिले अयोध्या नगर के महल में बास करते थे ७१ फिर उस कुशशय्या में सीता सहित शयन करते हुये जैसे प्रथम कोमल विछौने से बिछेहुये पलंग शयन करते थे ७२ तिसके उपरांत धनुषवाण को ग्रहण किये हुये जो निषाद तिस करके सहित लक्ष्मणजी तरकसको बांधके और धनुष बाण हाथ में लेके राम की शय्या

से न बहुत दूर न बहुत निकट स्थान पै चारों तरफ से देखते हुये खड़े खड़े रात्रिभर रामकी रक्षा करते हुये ७३॥

इत्यध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे अयोध्या कांडे टीकायांपंचमस्सर्गः५॥

सुप्तं रामं समालोक्यगुहः सोऽश्रुपरिप्लुतः॥
लक्ष्मणं प्राहविनयाद्भ्रातः पश्यसि राघवम्॥ १॥

शयानं कुश पात्रौघसंस्तरेसीतया सह॥
यः शेतेस्वर्णपर्यंकेस्वास्तीर्णेभवनोत्तमे॥ २॥

कैकेयीराम दुःखस्य कारणं विधिनाकृतां॥
मंथराबुद्धिमास्थाय कैकेयीपापमाचरत्॥ ३॥

तच्छ्रुत्वा लक्ष्मणः प्राहसखे शृणुवचो मम॥
कः कस्यहेतुर्दुःखस्य कश्च हेतुः सुखस्य वा॥ ४॥

स्वपूर्वार्जित कर्मैवीकारणं सुखदुःखयोः॥ ५॥

सुखस्य दुःखस्यनकोऽपि दाता परो ददातीति कुबुद्धिरेषा॥
अहं करोमीति वृथाऽभिमानः स्वकर्मसूत्रग्रथितोहिलाकः॥ ६॥

सुहन्मित्रार्युदासीनद्वेष्यमध्यस्थबांधवाः ।
स्वयमेवाचरन्कर्म तथातत्रविभाव्यते॥ ७॥

दो०

बालमीकिकेआश्रमहिं रामबसे मुनिराज॥
बहुविधि पूजन करतभेछठेसर्गयहकाज॥ ६॥

अब भूमिमें कुशों के ऊपर रामको शयन करते देखके अश्रुपात जिसके नेत्रोंसे होरहे ऐसा जो निषाद सो लक्ष्मणसे विनयपूर्वक बोलता हुआ कि हे भ्राता तुम रामको देखते हो १जो कुश औ पत्तों के बिछौने पै सीता सहित शयन कर रहे हैं सो क्या पहिले मणिरत्नों के समूह करके प्रकाशमान मन्दिर में से सुवर्ण के पलंग प्रति कोमल बिछौने पैसोते थे २ औ ब्रह्मा ने राम के दुःख का कारण रूप ही केकयी रची जो केकयी मन्थराकी बुद्धिमें आके ऐसा पाप करती हुई ३ यह निषाद के वचन सुनिके लक्ष्मण कहते हुये कि हे सखे जो मैं कहता हौंसोसुनो कौन किसके दुःख का कारण है और कौन किसके सुख का कारण है४अपना पूर्व किया हुआ जो कर्मसोई सुख दुःखका कारण है ५ औ हे निषाद सुख का वा दुःख का देनेवाला कोई नहीं है दूसरा कोई सुख दुःख को देता है यह केवल कुबुद्धि है और जो कदाचित कोई ऐसा कहै कि हम ऐसा कर्म करसक्ते हैं जिसमें केवल सुखही होय सो भी झूठा अभिमान है क्योंकि कर्म रूप डोरा से सबलोक बँधा पडा हुआ है इससे स्वतन्त्र नहीं है ६ इसका आशय यह है कि जैसे काठकी पुतली को नचाने वाला पुरुष धागे में बांध के पुतलीको जैसा जैसा नाच नचाया चाहता है तैसा २ वह पुतलीधागे के चलाने के अनुसार नाचती है उससे और प्रकार कुछभी नहीं करती है और जब उस धागे को बन्द करदे तो चुपचाप बैठ रहती है तैसेई पूर्व जन्म के किये हुये जो

कर्म वोही हुआ धागा तिसमें बांधकै परमेश्वर जैसा जिससे कराया चाहता है तैसा कराता है और इसीसे अनेक प्रकार के सुख दुःखादि विचित्र फल देनेमें भी ईश्वर में वैषम्य और निर्दयत्व दोषनहीं आता क्योंकि कर्मानुसार जीवों को फल देता है और उसीके अनुसार कराता भीतिसकारण से जैसे लोक में नीतियुक्त धर्मात्माराजा का न कोईमित्र है औ न कोई शत्रु है तोभी जिसने अच्छा काम किया है उसको अच्छाफल देता है और जो बुराकाम करता है उसको दंड देता है और कभी ऐसा भी होता है कि बड़ेभारी अपराध में राजा ने किसी को जन्म कैद करदी फिर उस कैद मेंही ऐसी सर्कार की खैरख्वाही बन पड़ी जिससे उस कैद से छोड़ दिया जाता है तैसे सत्संगवश से भक्ति ज्ञान होने से छूटि भी जाता है तब जैसे उस राजा में विषमदृष्टि का दोष नहीं आसक्ता तैसे परमेश्वर में भी उक्त दोष नहीं आसक्ता है ६ औ हे निषाद सुहृद् और मित्र औ अरिऔर उदासीन औौ द्वेष्य औमध्यस्थ औबांधव ये जैसे लोक में भेद कर्मसे प्रसिद्ध हैं तैसेई कर्म करके मनुष्य सुखी अथवा दुःखी प्रतीयमान होता है ७ इसका अभिप्राय यह है कि उपाधि रहित स्नेह करने वाला पुरुष सुहृद् कहाता है जैसे माता पिता बिना ही प्रयोजन पुत्र में स्नेहकरते हैं और कुछ प्रयोजन वश से परस्परस्नेह करें वह मित्र कहाता है और विना ही प्रयोजन वैरकरै वह अरि कहाता है और न किसीसे बैर करें न मित्रता करै वह उदासीन कहाता है और जो प्रयोजनपाइ वैरकरे वह द्वेष्य कहाता है और किसीसे व्यवहार में बने विगरेका साक्षीहोय वह मध्यस्थ कहाता और जिस से विवाहादि संबंध है वह बांधव कहाजाता है तो इतने सुहृद मित्रादिभेद जैसे कर्म ही कर के होते हैं तैसेही जिसने सुखाकर्म किया है उसको सुख हो ताहै और जिसने किसीको दुःखहोने का कर्म किया है वह दुःखित होता है सुख दुःख होने में अपना कर्मही कारण है किसीका अपराध नहीं है यह लक्ष्मण जी का आशय है ॥ यद्यपि क्लेशकर्म विपाकासयैरपरामृष्टः पुरुष विशेष ईश्वरः १।१।२४ इस योगसूत्र के प्रमाण से परमेश्वर जो राम है तिसमें सुखदुःखादिक नहीं संभव होते हैं और योगसूत्र का अर्थ यह है कि अविद्यादिक क्लेश कर्म फल और बासना इनकरिकै जो नहीं परामृष्ट होय नहीं स्पर्श किया जाय अर्थात् इन करिकै तिरस्कृत न होय ऐसा जो पुरुष विशेष सबका अन्तर्यामी आत्मा उसको ईश्वर कहते हैं तौ भी देवताऔ साधुजन औदैत्य राक्षसादिक इनके कर्म विशेष से परमेश्वर का अवतार होता है तौ इन देवादि कोका अवशिष्ट प्रारब्ध कर्म फलरूप सुख दुःखादिक शुद्ध स्फटिकमणिके समीप जपा पुष्प के संबंध से रक्तता की नाई अविद्याकर के राम में भी प्रतीयमान होते हैं इस आशय से सभी परमेश्वर के अवतारों में मनुष्यनाट्य करके सुख दुःखादिकथा

ऋषियों ने वर्णन करी हैं और जो ऐसा न मानाजाय तौ भारतरामायणादिकों में पूर्वविरोध शान्त न होगा ७॥

सुखंवायदिवादुःखस्वकर्मवशगोनरः॥
यद्यद्यथागतं तत्तद्भुक्त्वास्वस्थमनाभवेत्॥ ८॥

नमे भोगागमे वांछानमेभोगविवर्जने॥
आगच्छत्वथमागच्छत्व भोगवशगोभवे॥ ९॥

यस्मिन्देशे च काले च यस्माद्वायेनकेन वा॥
कृतं शुभाशुभं कर्म भोज्यंतत्तत्रनान्यथा॥ १०॥

अलं हर्षविषादाभ्यां शुभाशुभफलोदये॥
विधात्राविहितं यद्यत्तदलंध्यंसुरासुरैः॥ ११॥

सर्वदासुखदुःखाभ्यांनरःप्रत्यवरुद्धते॥
शरीरं पुण्यपापाभ्यामुत्पन्नं सुखदुःखवत्॥ १२॥

सुखस्यानंतरं दुःखं दुःखस्यानंतरं सुखम्॥
द्वयमेतद्धिजंतूनामलंध्यंदिनरात्रिवत्॥ १३॥

सुखमध्येस्थितं दुखं दुःखमध्येस्थितंसुखम्॥
द्वयमन्योऽन्यसंयुक्तं प्रोच्यते जल पंकवत्॥ १४॥

औ हे निषाद अपने कर्मके आधीन जो मनुष्य सो सुख अथवा दुःख जैसे जैसे प्राप्त होता है तिसको भोग करिकै स्वस्थ मन होता है अर्थात् जबतक सुखनहीं भोगता है तबतक उसमें राग बना रहता है और जबतक दुःख नहीं भोगता है तबतक द्वेष बना रहता है भोग के अनन्तर रागद्वेष रहित होता है ८ और हे निषाद मुझको तो न सुखभोग के प्राप्ति की इच्छा है औन दुःख भोगकी निवृत्ति की इच्छा है देवबशसे सुखप्राप्त हो अथवा दुःखनहीं प्राप्त हो कुछ भोग के वश में नहीं हूँ इसका आशय यह है कि तत्त्वज्ञ होने से जब मैं ही कर्म भोग के वशनहीं हौं तौ मेरे स्वामी जो राम हैं सो कैसे कर्स भोगके आधीन हो सक्ते हैं अर्थात् जैसे जीवकर्मभोग के आधीन होके सुखदुःखको प्राप्त होते हैं तैसे ईश्वर को सुख दुःखका स्पर्श नहीं होता है इससे राम को कैकेयी के किया हुआ दुःखका संबन्ध नहीं है ९ आहे निषाद सब जीवों की व्यवस्था देखकै तुमको विषाद नहीं करना चाहिये क्योंकि जिस देश में औजिसकाल में और जिसकारण से जिस किसी ने शुभ व अशुभ कर्म किया है सो अवश्य भोगना पड़ता है तिसी तिसी प्रकार से कभी अन्यथा नहीं हो सक्ताहै। इससे शुभाशुभ फलके उदय में अर्थात् सुख दुःख की प्राप्ति मेंहर्षविषाद करकैकुछ कृत्य नहीं है अर्थात् कुछ होना नहीं है क्योंकि जो ईश्वर ने रचा है वह सुर असुर इनको भी उल्लंघन करने को अशक्य है अर्थात् समर्थ नहीं है ११ इसीसे सबकाल में यह पुरुष सुख व दुःख इन करिकै युक्त बनाही रहता है क्योंकि जिसकारण से यह मनुष्य शरीर पुण्य औ पाप इन दोनों से उत्पन्न हुआ है इससे यह शरीर सुखदुःख युक्त होता है १२

सो भी इसप्रकार होता है कि सुखके अनन्तर दुःख होता है औदुःखके अनन्तर सुख होता है ये दोनों सब प्राणियों को अलंघनीय हैं अर्थात् कोई इनको उल्लंघन नहीं करसक्ताजैसे दिन और रात्रि येऊ आयाही करतेहैं १३ औहे निषाद विषयेन्द्रिय संबन्ध से जो सुखदुःख होता है सो सब त्रिगुणात्मक है इसीसे सुखके मध्य में दुःख स्थित है और दुःखके मध्य में सुख स्थित है ये दोनों परस्पर जल औकीचके सदृशमिले ही रहते हैं इससे ये दोनों त्यागकरने के योग्य हैं इसमें प्रमाणपतंजलिका योगसूत्र भी है। परिणामतापसंस्कारदुःखैर्गुणवृत्तिविरोधाच्चसर्वमेव दुःखं विवेकिन इति १।२।१५॥ इस सूत्र का अर्थ यह है कि विषय सुखके परिणाममें दुःख और उस विषय सुखको कोई मनाकरै उसके संगविरोध में संताप रूप दुःख और विषयों के स्मरण करने से चित्त में संस्कार होता है फिर उस संस्कार के आधीन होकैउसके उपार्जन में दुःख इन तीनों दुःखों करिकै और परस्पर गुण वृत्तियों के विरोध से सब विषय सुखयोगी को त्याग करिबे योग्य हैं इसका आशय यह है कि विषय सुख त्रिगुणमय है और गुणों की वृत्ति चंचल है सब काल में स्थिर नहीं रह सक्ती औ सुख बिना सत्व गुणके होता नहीं तो विषय और इन्द्रिय संयोग से जबसुख उत्पन्न हुआ औ उसीसमय रजोगुणकी वृत्ति बढ़ीतौ सात्विक वृत्तिके छिपजाने से सुख भी नष्ट हो जाता है ऐसे ही तमोगुण की वृत्ति बढ़ने से निद्रा मालस्य प्रसाद से सात्विक वृत्ति नहीं रहती है कदाचित् कहौ निद्रा में चित्तका लय होने से निद्रा ही का सुख होगा तो रजोगुण की वृत्तिहोने से जब स्वप्न देखने लगेगा तो वह भी सुख स्थिर नहीं रहि सक्ता और जोगुणी पुरुष को तौ चित्तके स्थिर नहीं होने से सुख दुर्लभही है इसप्रकार गुणों के वृत्तियों के विरोध से विषय सुख दुःखरूप है अथवा सत्वगुणकी वृत्ति है शान्त औ रजोगुण की वृत्ति है घोर और तमोगुण की वृत्ति हैमूढ तौ इन वृत्तियों का परस्पर विरोध होने से सम्पूर्ण विषय सुख दुःखरूप है इस योगसूत्र के अर्थका विस्तार ग्रन्थ विस्तार भय से नहीं लिखा १४॥

तस्माद्धैर्येण विद्वांस इष्टानिष्टोपपत्तिषु॥
नहृष्यंतिनमुह्यंति सर्वंमायेतिभावनात्॥ १५॥

गृहलक्ष्मणयोरेवं भाषतोर्विमलंनभः॥
बभूवरामः सलिलं स्ष्टष्ट्वा प्रातः समाहितः॥ १६॥

उवाच शीघ्रं सुदृढां नावमानयमेसखे॥
श्रुत्वा रामस्य वचनं निषादाधिपतिर्गुहः॥ १७॥

स्वयमेव दृढांनावमानिनायसुलक्षणाम्॥
स्वामिन्नारुह्यतां नौका सीतया लक्ष्मणेन च॥ १८॥

बाहयेज्ञातिभिः सार्द्धमहमेवसमाहितः॥
तथेतिराघवः सीतामारोप्यशुभलक्षणाम्॥ १९॥

गुहस्यहस्तावालं व्यस्वयं चारुहदच्युतः॥
आयु

धादीन्समारोप्यलक्ष्मणोऽप्यारुरोह च॥ २०॥

गुहस्तान्वाहयामासज्ञातिभिः सहितः स्वयम्॥
गंगामध्ये गतागंगां प्रार्थयामासजानकी॥ २१॥

हे निषाद तिसकारण से ज्ञानीपुरुष इष्टवस्तु की प्राप्ति में कुछ हर्षयुक्त नहीं होते हैं औअनिष्टवस्तुकी प्राप्ति में मोह को नहीं प्राप्त होते हैं क्योंकि सब माया ही है ऐसे विचार करने से १५ अब इस प्रकार लक्ष्मण औनिषाद इनके संभाषण करते २ आकाश निर्मल होता हुआ अर्थात् प्रातः काल हुआ और रामचंद्र स्नान संध्योपासनादि कृत्यकरके सावधान होतेहुये १६ और निषाद से यह कहते हुये कि हे सखे अच्छी दृढ नौका शीघ्र ही हमारे अर्थ ल्यावो तब निषादों का स्वामी जो गुह है सो रामके वचन सुनिकै १७ बहुत अच्छी मजबूत नौका आप ही ल्यावता हुआऔर यह कहता हुआ कि हे स्वामिन सीता लक्ष्मण सहित आप इस नावपैचढ़िये १८ अपने कुटुम्बियों करके सहित मैं अपने आप इस नौकाको खेवोंगा तब श्रीरामचन्द्र तैसा ही होय ऐसा निषाद से कहिकै उस सुंदर नौकापै सीताको चढ़ावते हुये १९ और उसगुह के हाथ पकडिकै आप चढ़ते हुये और अपने शस्त्रोंको स्थापनकर लक्ष्मण भी चढ़ते हुये २० तब गुह अपने ज्ञातिके मनुष्यों करिकै सहित उस नौका को आप ही चलाता हुआ जब गंगा के बीच में नाव पहुंची तो सीता प्रार्थना करती हुई २१॥

देविगंगे नमस्तुभ्यं निवृत्ताबनबासतः॥
रामेणसहिताऽहन्त्वां लक्ष्मणेन च पूजये॥ २२॥

सरामांसोपहारैश्चनानाबलिभिरादृता॥
इत्युक्त्वा परकूलं तौशनैरुत्तीर्यजग्मतुः॥ २३॥

गुहोऽपिराघवं प्रागमिष्यामि त्वया सह॥
अनुज्ञां देहि राजेन्द्रनोचेत्प्राणांस्त्यजाम्यहम्॥ २४॥

श्रुत्वा नैषादिवचनं श्रीरामस्तमथाब्रवीत्॥
चतुर्दशसमाः स्थित्वा दंडकेपुनरप्यहम्॥ २५॥

आयास्याम्यदितं सत्यंना सत्यं रामभाषितम्॥
इत्युक्त्वालिंग्यतभक्तं समाश्वास्यपुनः पुनः॥ २६॥

निवर्तयामासगुहंसोऽपिकृच्छ्राद्ययौगृहम्॥
तत्र मेध्यं मृगं हत्वापक्वाहुत्वाचते त्रयः॥ २७॥

भुक्तावृक्षदलेसुप्त्वा सुखमासततांनिशाम्॥
ततोरामस्तुवैदेह्या लक्ष्मणेन समन्वितः॥ २८॥

हे देवि गंगे तेरे अर्थ नमस्कार है जब में राम औलक्ष्मण करके सहित बनबास से निवृत्त होवोंगी तब तुम्हारा पूजन करौंगी २२ मदिरा औमांस औ पुष्पादि सामग्री और बलि इन करिकै आदरपूर्वक पूजा करौंगी इसप्रकार प्रार्थना की तिसके अनन्तर धीरे से उसपार उतर के राम औ सीता लक्ष्मण स-

हित चलते हुये २३ तब गुह रामचन्द्र से बोला कि हे राम मैं भी आपके संग चलता हौंआज्ञा दीजिये नहीं तो प्राणों को त्याग देउंगा २४ अब यह निषाद के वचन सुनिकै रामचन्द्र उससे बोलते हुये कि हे सखे चौदह वर्षभर दण्डकवन में स्थित हो के फिर तुम्हारे पास आवोंगा औ २५ जो मैंने कहा सो सत्य है क्योंकि राम का वचन कभी मिथ्या नहीं होता है ऐसा कहिकै भक्त जो निषाद है तिसको हृदय से आलिंगन कर बारम्बार उसको समुझाकर २६ लौटारते हुये और वह निषाद भी बड़े अपने गृह को आवता हुआ और रामचन्द्र भी वहां गंगातीर के वनमें एक पवित्र मृग को मारिके और पकाकर हवन करिकै २७ तीनों जने भोजन करिकै वृक्षके कोमलपत्तों की शय्या शयनकर उसरात्रि में सुखपूर्वक वहां बास करते हुये तिसके उपरांत सीता सहित और लक्ष्मण करिकै सहित रामचन्द्र २८॥

भरद्वाजाश्रमपदं गत्वा बहिरुपस्थिता॥
तत्रैकं बटुकं दृष्ट्वा रामः प्राहचहेबटो॥ २९॥

रामो दाशरथिः सीतालक्ष्मणाभ्यां समन्वितः॥
आस्तेवहिर्बनस्येतिह्युच्यतां मुनिसंनिधौ॥ ३०॥

तच्छ्रुत्वा सहसागत्वापदयोः पतितोमुनेः॥
स्वामिन् रामः समागत्यवनाद्बहिरवस्थितः॥ ३१॥

सभार्यः सानुजः श्रीमानाहमां देवसन्निभः॥
भरद्वाजाय मुनये ज्ञापयस्व यथोचितम्॥३२॥

तच्छ्रुत्वा सहसोत्थाय भरद्वाजो मुनीश्वरः॥
गृहीत्वाघ्यंचपाद्यं चरामसामीप्यमाययौ॥ ३३॥

दृष्ट्टा रामं यथान्यायं पूजयित्वा सलक्ष्मणम्॥
आहमेपर्णशालां भोरामराजीवलोचन॥ ३४॥

आगच्छपादरजसापुनीहरघुनंदन॥
इत्युक्त्वोटजमानीय सीतया सहराघव॥ ३५॥

भरद्वाजऋषि के आश्रम में जाकर बाहरहो स्थितहुये तहां एक ऋषिके बालक को देखिकै रामचन्द्र उससे बोलते हुये २९ कि हे बटो भरद्वाजमुनि के समीप जाकर तुम यह कहो कि सीतालक्ष्मण सहित दशरथ के पुत्र राम आपके आश्रम वन के बाहर स्थित हैं ३० यह राम का बचन सुनिकै वह ऋषि बालक शीघ्र ही जाकर भरद्वाज मुनिके चरणों पर गिरिकै कहने लगा कि हे स्वामिन राम आप के आश्रम के समीप आकर बनके बाहर स्थित हैं ३१ और भार्या सहित और भाई सहित बड़े शोभायमान राममुझ से यह कहते हुये कि यथायोग्य भरद्वाज मुनि से हमारी खबर कर देवो ३२ तब भरद्वाज मुनि उस बालक के मुखसे ऐसा सुनिकै शीघ्र ही उठकर अर्ध पाद्यादि पूजनकी सामग्री ग्रहणकर रामचन्द्र के समीप आते हुये ३३ फिर लक्ष्मण सहित राम को देखकै विधिपूर्वक पूजन करके बोलते हुये कि हे राजीलोचन राम आप मेरी पर्णशालाको चलिये ३४

और अपने चरण कमल की रज से मेरे आश्रम को पवित्र कीजिये यह वचन कहिकै सीता सहित राम लक्ष्मण को पर्णशाला में प्राप्तकर ३५॥

भक्त्यापुनः पूजयित्वा चकारातिथ्यमुत्तमम्॥
अद्याहं तपसः पारंगातोऽस्मितवसंगमात्॥ ३६॥

ज्ञातं रामतवोदत्तं भूतं चागामि कंचयत्॥
जानामित्वां परात्मानं माययाकार्यमानुषम्॥ ३७॥

यदर्थमवतीर्णोऽसि प्रार्थितं ब्रह्मणापुरा॥
यदर्थंवनवासस्ते यत्करिष्यसिवैपुरः॥ ३८॥

जानामि ज्ञानदृष्ट्याऽहं जातयात्वदुपासनात्॥
इतः परं त्वां किं वक्ष्ये कृतार्थोऽहं रघुत्तम॥३९॥

यस्त्वां पश्यामिकाकुत्स्थं पुरुषं प्रकृतेः परम्॥
रामस्तमभिवद्याहसीतालक्ष्मणसंयुतः॥ ४०॥

अनुग्राह्यास्त्वयाब्रह्मन्वयं क्षत्रिय बांधवाः॥
इति संभाष्यतेऽन्योऽन्यमुषित्वामनिसन्निधौ॥ ४१॥

प्रातरुत्थाययमुनामुत्तीर्य्यमुनिदारकैः॥
कृताप्लवेन मुनिनादृष्टमार्गे राघवः॥ ४२॥

भक्ति करके फिर पूजन कर उत्तम सत्कार करते हुये और भरद्वाज मुनि यहकहते हुये कि हे राम आज में तुम्हारे समागम से औमिलने से तपका जो पार फल है तिसको प्राप्त हुआ अर्थात् सब तप का फल रूप ही आपका दर्शन है ३६ औहे राम आपका जो वृत्तान्त हो चुका है औ होनेवाला है सो सब मैंने जाना है और यह मैं जानता हौंकि तुम परमात्मा हो औ माया करिकै असुर बधादि कार्यके अर्थ मनुष्य देह धारण किया है जिसने ऐसा जो परमात्मा सो तुम हौ तिसको जानता हौं ३७ और पहिले ब्रह्मा करिकै प्रार्थना किये गये जिस रावण बधादि कार्यके लिये आपने अवतार धारण किया है और जिन राक्षस बध आदि कार्य के लिये बनबास हुआ है और जो आगे करौगे ३८ सो सब आप की उपासना करके उत्पन्न हुई जो ज्ञान दृष्टि तिस करिकै मैं जानता हौंऔ हे रघूत्तम इससे अधिक मैं तुमको क्या कहौं जो तुम्हारे दर्शन से मैं ही कृतार्थ हौं ३९ क्योंकि जो मैं प्रकृति से पर जो पुरुष है सोई ककुत्स्थ बंश में उत्पन्न हुआ है ऐसे जो तुमहौ तिनको नेत्रों से देखता हौंअब तिसके अनन्तर सीता लक्ष्मण युक्त जो रामचंद्र सो भरद्वाज को प्रणाम कर बोलते हुये ४० कि हे ब्रह्मन्हम तो क्षत्रिय कुलमें उत्पन्न हुये हैं इससे आपके अनुग्रह के योग्य हैं अर्थात् ब्राह्मण सदा बड़ेचले आये हैं और क्षत्रियों के ऊपर अनुग्रह करते हैं तैसे आप भी हमारे ऊपर अनुग्रह करिये ऐसे परस्पर मुनि औराम ये संभाषण करते हुये फिर उस रात्रि में रामचंद्र मुनिके समीप बासकरके ४१ प्रातः काल उठिकै किया है स्नान जिसने ऐसे मुनिने दिखाया जो मार्ग तिसकर के रामचंद्र मुनि बालकों के सहाय करके यमुना नदी को उतरके ४२॥

प्रययौचित्रकूटाद्रिंवाल्मीकेर्यत्र चाश्रमः॥
गत्वा रामोऽथ वाल्मीकेराश्रमं ऋषिसंकुलम्॥ ४३॥

नानामृगद्विजाकीर्णंनित्यपुष्पफलाकुलम्॥
तत्रदृष्ट्वा समासीनं वाल्मीकिं मुनिसत्तमम्॥ ४४॥

ननामशिरसारामा लक्ष्मणेन च सीतया॥
दृष्ट्वारामं रमानाथं वाल्मीकिर्लोकसुंदरम्॥ ४५॥

जानकीलक्ष्मणोपेतं जटामुकुटमण्डितम्॥
कंदर्प सदृशाकारं कमनीयां बुजेक्षणम्॥ ४६॥

दृष्ट्वैवं सहसोत्तस्थौ विस्मयानिमिषेक्षणः॥
आलिं ग्यपरमानंदं राम हर्षाश्रुलोचनः॥ ४७॥

पूजयित्वाजगत्पूज्यं भक्त्याऽर्घ्यादिभिरादृतः॥
फलमूलैः समधुरैर्मोजयित्वा चलालितः॥ ४८॥

राघवःप्राञ्जलिः प्राहवाल्मीकिंविनयान्वितः॥
पितुराज्ञां पुरस्कृत्य दंडकानागतावयम्॥ ४९॥

चित्रकूटको जातेहुये जहां बाल्मीकि मुनिका आश्रम है अब रामचंद्र चित्रकूटमें प्राप्त होके तहां वाल्मीकि मुनिके आश्रम में जाकर उस आश्रम में बैठे हुये मुनियों में श्रेष्ठ जो वाल्मीकिमुनि तिनको सीता लक्ष्मण सहित शिर से प्रणाम करते हुये ४३ कैसा आश्रम है जो ऋषियों करिकै व्याप्त हैआ नानाप्रकार के जो मृगं च पक्षी तिनकरके व्याप्त है औनित्य पुष्पफलयुक्त ही जो है ४४ अबवाल्मीकि जी सबलोकों में एक सुन्दर औलक्ष्मी के नाथस्वामी ४५ औ सीता लक्ष्मण करकेयुक्त औ जटारूपी मुकुट तिसकरके भूषित औ कामदेव के समान स्वरूप जिसका औ बड़ासुन्दर जो कमलतद्वत् विशाल हैं नेत्र जिनके ऐसे राम ४६ को देखके शीघ्र ही उठकर विस्मययुक्त हैं नेत्र जिनके ऐसे होकर परमानन्द रूप जो राम तिनको आलिंगन करके आनन्दके आशुओं करके पूर्ण है नेत्र जिसके ऐसे १७ वाल्मीकि अर्घादि सामग्री करके जगतों करके जगतों को पूजनीय ऐसे जो रामचन्द्र तिनको आदरपूर्वक पूजन करके बड़े मधुर जो फल औ मूल तिनकरके भोजन कराके बड़े स्नेह से लाड़लड़ाते हुये ४८ तत्र रामचन्द्र बड़े नम्रहो हाथ जोड़ के वाल्मीकिसे बोलते हुये कि हे मुने पिता की आज्ञाकरके हम दण्डक वनको आये हैं ४९॥

भवन्तोयदिजानंति किंवक्ष्यामोऽत्रकारणम्॥
यत्र मे सुखवासायभवेत्स्थानंवदस्वतत्॥ ५०॥

सीतयासहितः कालं किंचित्तत्रनयाम्यहम्॥
इत्युक्तोराघवेणासोमुनिः सस्मितमब्रवीत्॥ ५१॥

त्वमेव सर्व लोकानांनिवासस्थानमुत्तमम्॥
तवापिसर्वभूतानिनिवाससदनानिहि॥ ५२॥

एवं साधारणं स्थानमुक्तं ते रघुनंदन॥
सीतयासहितस्येतिविशेषं पृच्छत् स्तव॥ ५३॥

तद्वक्ष्यामि रघुश्रेष्ठयत्ते नियतमंदिरम्॥
शांतानांसमदृष्टी नामद्वेष्टाणां च जंतुषु॥
त्वामेव भजतां नित्यं हृदयं तेऽधिमंदिरम्॥ ५४॥

धर्माधर्मान् परित्यज्यत्वामेवभजतोऽनिशम्॥
सीतया सह ते रामतस्य हृत्सुखमन्दिरम्॥ ५५॥

त्वन्मंत्रजाप कोयस्तुत्वामेवशरणं गतः॥
निर्द्वंद्वोनिस्पृहस्तस्य हृदयं ते सुखमन्दिरम्॥ ५६॥

औआप इसके कारण को जानते ही होंगे इससे हम क्या कहैं परन्तु अबहमको जो स्थान सुखकरके बसने के योग्य ही सो बतलाइये ५० जहां सीता करके सहित कुछकाल व्यतीतकरौं जबऐसे राम ने पूछा तो हँसकर के वाल्मीकि जी कहते हुये ५१ कि है राम तुम्हीं सब भूतोंका उत्तम निवासस्थान हौऔ सब भूत तुम्हारे निवासस्थान हैं अर्थात् जहां आप नहीं हो ऐसा कोई स्थान है ही नहीं ५२ हे रघुनन्दन यह मैंने सामान्य करके तुम्हारा निवासस्थान कहा औ सीता करके सहित अपना विशेष करके रहनेका स्थान पूछते हौ तौ ५३ उसस्थान को भी अब मैं कहता हौंजहां निरंतर अपने ज्ञानेश्वर्यादि गुणों का आविर्भाव करिकै अर्थात प्रकाशकरके बासकरते हौहे राम जे कोई शांत स्वभाव के मनुष्य हैं और जिनके समानदृष्टि हैअर्थात् सब जगह ईश्वर को देखते हैं और इसी से जे किसी से द्वेष नहीं करते हैं और इसी से वे नित्य ही तुम्हारा भजन करते हैं ऐसा पुरुषों का जो हृदय है सो आपका अधिक करके मन्दिर है अर्थात्तुम्हारे सदा रहने के योग्यस्थान है ५४ और जो पुरुषधर्म औ अधर्म इनदोनों को त्यागकरके अर्थात् इनदोनों में रागद्वेषका त्यागकरके जो केवल तुम्हारा ही निरन्तर भजन करता है हेराम तिसभक्तका हृदय सीता करके सहित तुम्हारे सुखपूर्वक रहने के योग्य है ५५ और जो पुरुष तुम्हारे मंत्र का जपकरता होय और तुम्हारे शरणागत होय और शीत उष्ण सुखदुःखादि द्वन्दरहित होय औ सिवाय तुम्हारे और किसी पदार्थ की इच्छा जिसको न होय तिसभक्त का हृदय तुम्हारा शुभ मन्दिर है ५६॥

निरहंकारिणः शांतायेरागद्वेषवर्जिताः॥
समलोष्ठाश्मकनकास्तेषां ते हृदयं गृहम्॥ ५७॥

त्वयिदत्तमनोबुद्धिर्यः सन्तुष्टः सदाभवेत्॥
त्वयिसंत्यक्तकर्मायस्तन्मनस्तेशुभंगृहम्॥ ५८॥

योनद्वेष्ट्यप्रियंप्राप्तप्रियं प्राप्यनहृष्यति॥
सर्वं मायेति निश्चित्य त्वां भजेत्तन्मनोगृहम्॥ ५९॥

षड्भावादिविकारान्योदेहेपश्यतिनात्मनि॥
क्षुत्तृट्सुखं भयं दुःखं प्राणबुद्धयोनिरीक्षते॥ ६०॥

संसारधर्मैर्निर्मुक्तस्तस्यते मानसं गृहम्॥ ६१॥

पश्यन्तिये सर्व गुहाशयस्थं त्वांचिद्घनं सत्यमनं तमेकम्॥
अलेपकं सर्वगतं वरेण्यन्तेषां हृदब्जे सहसीतयावस॥ ६२॥

निरंतराभ्यासदृढीकृतात्मनां त्वत्पादसेवा परिनिष्ठितानाम्॥
त्वन्नामकीयहित कल्मषाणां सीतासमेतस्य गृहंहृदब्जे॥ ६३॥

और जे पुरुष अहंकार रहित हैं औशान्तचित्त हैं और न जिनकी किसी से प्रीति न किसी से बैर है और जिनको मिट्टीका ढेला और पत्थर औ सुवर्ण ये समान हैं हे राम तिनका हृदय आपके रहने योग्य है ५७ और जिसने तुम्हीं में मनबुद्धि को लगाया है और जो सदा संतोषयुक्त हो और आप ही के विषे समर्पण करे हैं कर्म जिसने ऐसे पुरुषकामन तुम्हारा मन्दिर है ५८ और जो पुरुषप्रियवस्तु को प्राप्त हो के हर्ष के वेग में न डूबजाय औ प्रियवस्तुको प्राप्त होके क्षेत्र न करे सब मायाही है ऐसा निश्चयकर तुम्हारा भजन करे उस पुरुष का मन तुम्हारा मन्दिर है ५९ औ जो पुरुष जन्म १ औ सत्ता २ औ बढ़ता ३ औ घटना ४ औ रूपका दलना ५ औ नाश ६ इनछः विकारों को देह के बिपेही देखे आत्मा के विषे न देखैतैसे ही सूख १ औ प्यास २ इन दोनों को प्राण का धर्मजाने ६० औ भय १ औ दुःख इन दोनों को बुद्धि का धर्म जाने औ संसार धर्म जो पुण्य पाप इनसे छूट गया होय हे राम तिस ज्ञानी का हृदय तुम्हारा स्थान है ६१ और जे पुरुष सबकी बुद्धिरूप गुहा में स्थित और चैतन्य घन औ सत्य औ अनंत औ एक औ लेप रहित औ सर्व व्यापक औ सबको सेवन करिवे योग्य ऐसा तुमको देखते तिनके हृदय रूप कमल में सीता सहित तुम वासकरौ ६२ औ हे राम निरन्तर व्यवधान रहित अर्थात् नित्य जो अभ्यास अर्थात् चित्तको तुम्हारे विषे लगाना तिस करिकै दृढ़ किया है नाम स्थिर किया है चित्त जिन्होंने और तुम्हारे चरणों की सेवामें जे स्थित हो रहे हैं और आपके नाम कीर्त्तन करिकै जिन्होंने पापों का नाशकर दिया है ऐसे भक्तों के हृदयरूप कमलमें सीतासहित तुम्हारा गृह है ६३॥

रामत्वन्नाममहिमावर्ण्यते केन वा कथम्॥
यत्प्रभावादहं रामब्रह्मर्षित्वमवाप्तवान्॥ ६४॥

अहं पुरा किरातेषु किरातैः सहवर्द्धितः॥
जन्ममात्रद्विजत्वं मे शूद्राचाररतः सदा॥ ६५॥

शूद्रायां बहवः पुत्रा उत्पन्नामेऽजितात्मनः॥
ततश्चौरैश्चसंगम्य चोरोऽहमभवपुरा॥ ६६॥

धनुर्बाणधरोनित्यं जीवानामेतकोपमः॥
एकदामुनयः सप्तदृष्टा महतिकानने॥ ६७॥

साक्षान्मयाप्रकाशं तोज्वलनार्क समप्रभाः॥
तानन्वधावंलो मेन तेषां सर्व परिश्छदान्॥ ६८॥

ग्रहीतुकामस्तत्राहं तिष्ठतिष्ठेति चाब्रुवन्॥

मांमुनयोप्रच्छन्किमायासिद्धजाऽधम॥ ६९॥

अहं तानब्रुवं किंचिदादातुं मुनिसत्तमाः॥
पुत्रदारादयः संतिबहवामेबुभुक्षिताः॥ ७०॥

औ हे राम आपके नामके महिमा किस करिकै वर्णन करी जाती हौ अर्थात् किसी करिकै वर्णन करने को शक्य नहीं है औहे राम जिस तुम्हारे नाम ही के प्रभाव से मैं ब्रह्मर्षि पदवी को प्राप्त हुआ ६४ हे राम मैं पहिले कि रात देश के बिषे किरातों के अन्न से पुष्टहुआ औ किरातों केसंग बास भी करता हुआ एक जन्ममात्र करिकै तो ब्राह्मण रहा औसदा शूद्रों के आचार में रत रहा ६५ फिर नहीं जीता है आत्मा मन जिसने ऐसा जो मैं तिसके शूद्र जाति की स्त्री में बहुत से पुत्र उत्पन्न हुये फिर चोरों के संगसे मैं भी चोर ही हो गया अर्थात् चोरों की जीविका से निर्वाह करता हुआ ६६ औ

नित्यही धनुषवाण को धारण करे रहौं औसब जीवों को यमराज तुल्य निर्दय होता हुआ तब एक समय में बड़े भारी बनमें मैंने सातमुनि आते देखे ६७ और वे मुनि उस बनको प्रकाशित कर रहे हैं और अग्नि औ सूर्य इनके तुल्य जिनकी कांति है फिर मैं लोभ करिकै उन ऋषियों की चीज वस्तु छीनने को उनके पीछे दौड़ता हुआ ६८ और खडे रही खड़े रहौऐसा कहता भी हुआ तो मुझको पिछाड़ी आवते देखके वे मुनीश्वर पूछने लगे कि अरे ब्राह्मणों में प्रथम तू क्यों आवता है ६९ तो मैं उन से बोलता हुआ हे मुनि सत्तमो में तुम्हारे वस्त्रादिक लेने को आवताहों क्योंकि बहुत से पुत्र स्त्री आदि मेरे कुटुम्बी मनुष्य भूखे बैठे होंगे ७०॥

तेषां संरक्षणार्थाय चरामिगिरिकानने॥
ततोमामूचुरव्यग्राः पृच्छ गत्वा कुटुम्बकम्॥ ७१॥

यो यो मयाप्रतिदिनं क्रियते पापसंचयः॥
यूयं तद्भागिनः किंवानेतिनेतिपृथक्पृथक्॥ ७२॥

वयं स्थास्यामहेतावदा गमिष्यसिनिश्चयः॥
तथेत्युक्त्ता गृहं गत्वा सुनिभिर्यदुदीरितम्॥ ७३॥

आपृच्छं पुत्रदारादीन् तैरुक्तोऽहंरघूत्तम॥
पापं तवैव तत्सर्वंवयं तु फलभागिनः॥ ७४॥

तच्छ्रुत्वाजातनिर्वेदो विचार्यपुनरागमम्॥
मुनयोयत्रतिष्ठं तिकरुणापूर्णमानसाः॥ ७५॥

मुनीनां दर्शनादेव शुद्धांतः करणोऽभवम्॥
धनुरादीन्परित्यज्य दण्डवत्पतितोस्म्यहम्॥ ७९॥

रक्षध्वं मां मुनिश्रेष्ठा गच्छंतंनिरयार्णवम्॥
इत्यग्रेपतितं दृष्ट्वा मामूचुर्मु निसत्तमाः॥ ७०॥

तिनकी रक्षा के लिये बन औ पर्वत इनमें बिचरता हौं तिसके उपरान्त मुझको देखके नहीं व्याकुल ऐसे जो वे मुनीश्वर ते मुझसे कहते हुये कि तू अपने कुटुम्बियों से जाकर यह बात अलग २ सबसे पूछ ७१ कि जो पाप स-

चय दिनदिन तुम्हारे सबके लिये करता हौंतिस पाप के भागी अर्थात् इस पाप के वटाने वाले तुम होउगे या नहीं सो कहौयह सबसे पूंछ और जबतक तूघर से पूछके नहीं आवैगा तबतक यहां हमसब खड़े हैं ७२ यह हम निश्चय से कहते हैंतिसके उपरान्त में तैसे ही करोंगा ऐसा मुनियों से कहि मैंने घर आके वैसे ही सबसे पूछा जैसे मुनियों ने कहा था ७३ तौ हे राम उन सब कुटुम्बियों ने मुझसे यह कहा कि पाप तौ सब तुम ही को होगा अर्थात् हम कोई पाप के साथी न होवेंगे हम तो फलभागी हैं अर्थात् धनके भागी है ७४ तब यह सबपुत्रादिकों के वचन सुनिकै हे राम मेरे हृदय में बढ़ा तीव्र वैराग्य हुआ कि हाय वृथा ही मेरा इतना जन्मगया ऐसा विचारकर फिर वहां हीं मैं आवता हुआ जहां परमदयालु सातमुनीश्वर थे ७५ फिर उन मुनीश्वरों का दर्शन करते ही मेरा अन्तःकरण शुद्धहोगया और धनुषवाण आदि सब शस्त्रोंको त्यागकरिकै उन मुनीश्वरों के चरणों में दण्डवत् पड़ता हुआ ७६ औ यहवचन बोला कि हे मुनीश्वरो मैं नरकरूपी समुद्र में जारहा हौं मेरी रक्षाकरिये ऐसे अपने आगे पड़ाहुआमुझको देखिकै वे सुनीश्वर बोलते हुये ७७॥

उत्तिष्ठोत्तिष्ठ भद्रन्ते सफलः सत्समागमः॥
उपदेक्ष्यामहेतुभ्यं किञ्चित्तेनैव मोक्ष्यसे॥
परस्परं समालोच्य दुर्वृतोऽयंद्विजाधमः॥ ७८॥

उपेक्ष्य एव सद्वृत्तैस्तथाऽपिशरणं गतः॥
रक्षणीयः प्रयत्नेन मोक्षमार्गोपदेशतः॥ ७९॥

इत्युक्ताराम तेनामव्यत्यस्ताक्षर पूर्वकम्॥
एकाग्रमनसात्रैवमरेतिजपसर्वदा॥ ८०॥

आगच्छामः पुनर्यावत्तावदुक्तं सदाजप॥
इत्युक्त्वाप्रययुः सर्वे मुनयोदिव्यदर्शनाः॥ ८१॥

अहं यथोपदिष्टं तैस्तथाकरवमंजसा॥
जपन्नेकाग्रमनसाबाह्य विस्मृतवानहम्॥ ८२॥

एवं बहुतिथेकाले गतेनिश्चलरूपिणः॥
सर्व संगविहीनस्य वल्मीकोऽभून्ममोपरि॥ ८३॥

ततो युगसहस्रतिऋषयः पुनरागमन्॥
मामूचुर्निष्क्रमस्वेतितच्छुत्वातूमुत्थितः॥ ८४॥

कि हे ब्राह्मण तेरा कल्याण होवे और तू उठ तेरे को सत्समागम सफल है और तुझको कुछ उपदेश हम करते हैं तिसी करिकै मोक्षको प्राप्त होगा अब सब मुनीश्वर परस्पर विचार करने लगे कि यह ब्राह्मणों में प्रथम है और बड़ा दुराचार ७८ अर्थात् इसके बड़े दुष्ट आचरण हैं इससे सत्पुरुषों को उपेक्षा ही करने योग्य है अर्थात् त्यागकरने ही योग्य है तौ भी हमारे शरण आया है इससे अवश्य कोई मोक्षमार्गके उपदेशकरिकै रक्षाकरने योग्य है ७९ हे राम इस प्रकार वे सब सुनीश्वर आपस में तलाहकरिकै तुम्हारे उलटे नाम का उपदेश करते

हुये और यहकहा कि तू इसी स्थान में बैठके एकाग्र मनकरिकै अर्थात् अक्षरों हीमें मन रहै और जगह न जाने पावे सदा मरा ये दो अक्षरों को जप ८० परन्तु जब तक हमफिर इस वन में आवें तबतक निरन्तर इस मंत्र का जपकरते रहौ हे राम यह वचन कहिकै दिव्यदर्शन जिनका ऐसे जो वेमुनि ते चले जाते हुये ८१ और मैं जैसे उन मुनियों ने कहा था तैसेही करता हुआ एकाग्र मन करिकै जपते जपते जितना बाहर इन्द्रियों का विषय है उसको भूल जाता हुआ ८२ इसप्रकार जब बहुत काल व्यतति हुआ तब निश्वल हुआ शरीरजिनका और सब संगकरिकै हीन अर्थात् किसी में आशक्त नहीं ऐसा जो मैं हों तिसके ऊपर बामी हो जाती हुई ८३ तब हजार युग के अन्त में वे ऋषि फिरि आते हुये और मुझसे कहते हुये कि तुम इस बामी में से निकलो यह बचनसुनिकै मैं शीघ्र ही उठता हुआ ८४॥

वल्मीकांनिर्गतइचाहंनीहारादिव भास्करः॥
ममाप्याहुर्मुनिगणा वाल्मीकिस्त्वं मुनीश्वर

॥ ८५॥

वल्मीकात्संभवोयस्माद्वितीयजन्मतेभवत्॥
इत्युक्ततिययुर्दिव्यगतिं रघुकुलोत्तम॥ ८६॥

अहं तेरामनाम्नश्च प्रभावादीदृशोऽभवम्॥
यद्यसाक्षात्प्रपश्यामिससीतं लक्ष्मणेन च॥ ८७॥

रामं राजीव पत्राक्षं त्वां मुक्तानात्र संशयः॥
आगच्छरामभद्रं ते स्थलं वैदर्शयाम्यहम्॥ ८८॥

एवमुक्तामुनिः श्रीमालक्ष्मणेनसमन्वितः॥
शिष्यैः परिवृतोगत्वामध्ये पर्वतगंगयोः ८९॥

तत्रशालां सुविस्तीर्णांकारयामासवासभूः॥
प्राक्पश्चिमं दक्षिणोदक्शोभनंमंदिरद्वयम्॥ ९०॥

जानक्यासहितोरामोलक्ष्मणेनसमन्वितः॥
तत्र ते देवसदृशाह्यवसन् भवनोत्तमे॥ ९१॥

फिर उस बामी में से कैसे मैं निकला जैसे कुहल से सूर्य अलग होय तब मुनीश्वर मुझसे वाल्मीकि नाम करिकै तुमलोक में होवोगे यह कहते हुये ८५ क्योंकि वल्मीकसे यहतुम्हारा दूसराजन्म हुआ है इससे तुम वाल्मीकि होउगे हेराम यह कहिकै वे मुनिदेवलोक को जाते हुये ८६ और मैं तुम्हारे राम नामके माहात्म्य से ऐसा हो जाता हुआ और अब इस समय में सीता लक्ष्मण सहित औ कमल के तुल्य हैं नेत्र जिनके ऐसे जो आप तिनको साक्षात् देख रहा हों ८७ इससे मुक्त हुआ इसमें कुछ संशय नहीं है औ हे रामतुम भावो और तुम्हारा कल्याण हो और मैं आपको रहने को स्थान दिखाता हौं८८ यह वचन कहिकै परम शोभायुक्त जो मुनि सो लक्ष्मण औशिष्यसहित गंगा औपर्वत इनदोनों के मध्य में जाय कर ८९ तहां सुन्दर विशाल शाला बनावते हुये एकतो पूर्व

पश्चिम और दूसरादक्षिण उत्तर ऐसे दो मन्दिर बनवाते हुये ९० तिस शाला में सीता औलक्ष्मण करिकै सहित औ सब जगत् निवासरूप जो राम हैं सो बास करते हुये तिस स्थान में देवतों के सदृश जो राम सीता लक्ष्मण ये तीनोंनिवास करते हुये ९१॥

वाल्मीकिनातत्र सुपूजितोऽयं रामः ससीता सह लक्ष्मणेन॥
देवैर्मुनीं द्वैः सहितो मुदाऽस्तेस्वर्गेयथादेवपतिः ससच्या॥ ९२॥

इत्यध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे अयोध्याकांडेषष्ठः सर्गः

९॥

तिस चित्रकूट पै परम सुन्दर भवन में वाल्मीकि करिकै सत्कार कियेगये सीता लक्ष्मण सहित श्रीरामचन्द्र मुनिगण सहित कैसे शोभित हो रहे हैं जैसे स्वर्ग में देवगण औइन्द्राणी सहित इन्द्र जैसे शोभित हो रहे हैं ९२॥ जो प्रचेतों के वंश में उत्पन्न और जिनने रामायण किया है तिन वाल्मीकि ऋषिसे चित्रकूट वाले वाल्मीकि और हैं ऐसा बहुत कहते हैं॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे अयोध्याकाण्डे भाषाटीकायांषष्ठः सर्गः॥ ६॥

सुमंत्रोपितदाऽयोध्यांदिनांतेप्रविवेशह॥
वस्त्रेणमुखमाच्छाद्यबाष्पाकुलितलोचनः

बहिरेवरथंस्थाप्यराजानं दृष्टमाययौ॥
जयशब्देन राजानस्तुत्वातं प्रणनामह

ततो राजानमं तन्तं सुमंत्रं विह्वलोवीत्॥
सुमंत्ररामः कुत्रास्ते सीतया लक्ष्मणेन च

कुत्र त्यक्तस्त्वयारामः किं मांपापिनमब्रवीत्॥
सीता वा लक्ष्मणो वाऽपिनिदयंमांकिमब्रवीत्

हारा महागुणनिधेहासीतेप्रियवादिनि॥
दुःखार्णवेनिमग्नंमांम्रियमाणंनपश्यसि

विलप्यैवंचिरंराजानिमग्नोदुःखसागरे॥
एवं मंत्रीरुदेतंतं प्रांजलिर्वाक्यमब्रवीत्

रामः सीता च सौमित्रिर्मयानीतारथेन ते॥
शृंगिवेरापुरभ्याशेगंगाकूले व्यवस्थिताः

७॥

सोरठा

श्रवण पिता को शाप कौशल्या सेनृपतिकहि ।
सुरपुरगेपुनि आप सप्तम में आये भरत १॥

अबमहादेवजी पार्वती से कहते हैं कि हे पार्वति तब रामकी आज्ञासे गंगातट से अयोध्या को आवता हुआ जो सुमंत्र सो नेत्रों से अश्रुधारा को छोड़ता हुआ और मुख को वस्त्र से आच्छादनकर संध्यासमय में अयोध्यानगरी में प्रवेश करता हुआ ९ वाहररथको स्थापनकरि राजा के देखने को आवता हुआ फिर जयशब्दकहिकै राजाकी स्तुतिकरप्रणाम करता हुआ २ तिसके अनन्तर शोक में बि-

ह्वल जा राजा सो प्रणाम करता हुआ जो सुमंत्र तिससे बोलता हुआ कि हे सुमंत्र सीता लक्ष्मण करिकै सहित राम कहां हैं ३ और कौन स्थानपर तुम ने रामको छोड़ा और जिस समय तुमचलते हुये हो उससमय में पापी जो मैं हूं तिसको राम क्या कहते हुये और सीता अथवा लक्ष्मण जे निर्दय जो मैं हूँ तिससे क्या कहते हुये ४ अब राजा दशरथ हा राम हा गुणनिधे हा प्रियवादिनि सीते दुःखरूपी समुद्र में डूबा हुआ और इससमय में प्राण त्यागकर रहा जो मैं हौं तिसको तुम नहीं देखते हौ ५ इस प्रकार बहुत काल बिलाप करिकै राजा दुःखरूप समुद्र में डूब जाता हुआ और इस प्रकार रोक्ता हुआ जो राजा तिससे हाथ जोड़के सुमंत्र बोलता हुआ ६ कि हे राजन् राम औ सीता औलक्ष्मण ये तीनों रथपै चढ़ाके प्राप्त किये हुये शृंगवेर पुरके समीप गंगातटपैस्थित होते हुये ७॥

गुहेन किंचिदानीतं फलमूलादिकं चयत्॥
स्ष्टष्ट्वा हस्तेन संप्रीत्यानाग्रहीद्विससर्जतत्॥ ८॥

वटक्षीरं समानाय्य गुहेन रघुनंदनः॥
जटामुकुटमाबध्यमामाहनृपतेस्वयम्॥ ९॥

सुमंत्रब्रूहिराजानं शोकस्तेऽस्तुनमत्कृते॥
साकेतादधिकं सौख्यं विपिनेनो भविष्यति॥ १०॥

मातुर्मेवंदनं ब्रूहि शोकं त्यजतुमत्कृते॥
आश्वासयतुराजानं वृद्धशोकपरिप्लुतम्॥ ११॥

सीताचापरीताक्षीमामाहनृपसत्तम॥
दुःखगद्गदयावाचारामंकिंचिदवेक्षती॥ १२॥

साष्टांग प्रणिपातं मे ब्रूहिश्वश्वोः पदाम्बुजे॥
इति प्ररुदतीसीतागताकिंचिदवाङ्मुखी॥ १३॥

ततस्तेऽश्रुपरीताक्षानावमारुरुहस्तदा॥
यावद्गांसमुत्तीर्ये गतास्तावदहं स्थितः॥ १४॥

वहाँ गुह जो निषाद है तिसने फल मूल आदि जो कुछ ल्याके समीप स्थापन किया सो रामचन्द्र ने केवल प्रीति से हाथ से स्पर्श किया और कुछ नहीं ग्रहण किया सब लौटारदिया ८ फिर राम निषाद से बरगद का दूध मँगाके जटा मुकुट बांधके हे राजन् फिर आपही मुझसे कहते हुये कि ९ हे सुमंत्र जो राजा से कहोगे कि मेरे अर्थ आपको शोक नहीं करना चाहिये अयोध्या से भी अधिक सुख हमको वन में होगा १० और माता से मेरा प्रणाम कहियो और यह कहियो मेरे अर्थ शोक न करें और शोक में डूबा हुआ वृद्ध जो राजा है तिसके चित्तको सावधान करैं११ और हे राजन् तिसके उपरान्त आंशुवों करिकै व्याप्त हैं नेत्र जिसके ऐसी जो सीता सो दुःख करिकै गद्गद वाणीसे मुझसे कहती हुई रामके तरफ कुछ देखके १२ कि हे सुमन्त्र सासु के चरणारबिन्द में साष्टांग प्रणाम मेरा कहियो ऐसा कहिकै रोवती हुई जो सीता है सो कुछ नीचे

को मुख करती हुई १३ तब तीनों जने रोवते हुये नौका पै चढ़ते हुये जबतक गंगाको उतरके पारगये तबतक मैं वहां स्थितरहा १४॥

ततो दुःखेन महता पुनरेवाहमागतः॥
ततो रुदन्ती कौशल्याराजानमिदमब्रवीत्॥ १५॥

कैकेय्येप्रिय भार्यायै प्रसन्नोदत्तवान्वरम्॥
त्वं राज्यंदे हितस्यैव मत्पुत्रः किंविवासितः॥ १६॥

कृत्वात्वमेव तत्सर्वमिदानीं किंनरोदिषि॥
कौशल्यावचनं श्रुत्वाक्षतेस्टष्टइवाग्निना॥ १७॥

पुनः शोकाश्रुपूर्णाक्षः कौशल्यामिदमब्रवीत्॥
दुःखेन म्रियमाणं मां किंपुनर्दुःखयस्यलम्॥१८॥

इदानीमेव मे प्राणा उत्क्रमिष्यंति निश्चयः॥
शप्ताऽहं बाल्य भावेन केनचिन्मुनिनापुरा॥ १९॥

पुराहं यौवने दृप्तश्चापबाणधरो निशि॥
अचरं मृगयासक्तोनद्यास्तीरे महावने॥ २०॥

तत्रार्द्धरात्रसमयेसुनिः कश्चित्तृषार्दितः॥

पिपासार्दितयोः पित्रोर्जलमानेतुमुद्यतः॥
अपूरयज्जले कुम्भं तदाशब्दोऽभवन्महान्॥ २१॥

तिसके उपरांत बड़े भारी दुःख करिकै मैं यहां आके प्राप्त हुआ तिसकेउपरांत रोवती हुई जो कौशल्या सो राजा से यह बचन बोलती हुई १५ कि प्यारी जो कैकेयी भार्या तिसको प्रसन्न होके तुम वरदेते हुये तौ राज्य कैकेयी के देते मेरापुत्र किस वास्ते वनको निकार दिया १६ आपही सबकर्म ऐसा करिकै अब इस समय में क्यों रोवते हौ ऐसे कौशल्या के वचन सुनके जैसे घाउ को कोई अग्निसे स्पर्श करै १७ तैसे राजा फिर अधिक शोकके आंशुऔं करके नेत्रोंको परिपूर्ण कर कौशल्या से यह बचन बोलते हुये कि हे कौशल्ये मैं तो आप ही दुःख करिकै मर रहा हौं तिसको अधिक दुःख फिर क्यों उत्पन्न करती है १८ अब इसीसमय में मेरे प्राण निकलेंगे ऐसा निश्चय होता है क्योंकि पहिले मूर्खता के कारण से किसी मुनिने मुझको शाप दिया है १९ पहिले मैं यौवन अवस्था में बड़े गर्व युक्त होके रात्रि में धनुषबाण धारण कर शिकार खेलने में बड़ा आशक्त नदी के तीर वनमें विचरता हुआ २० तहां अर्द्धरात्रि के समय में कोई मुनि बड़ाप्यासा और प्यासकर के पीड़ित जो माता पिता तिनके अर्थ भी जल लेने को नदी के तीरघड़ालेके आया फिर जब जलसे घड़ा भरने लगा तब जब उसमें जलके जाने से बड़ा शब्द हुआ २१॥

गजः पिवतिपानीयमितिमत्वामहानिशि॥
बाणं धनुषि संधायशव्देवेधिनमक्षिपम्

२२

हाहतोऽस्मीतितत्राभूच्छन्दोमानुषसूचकः॥
कस्यापिनकृतोदोषोमयाकेनहताविधे

२३

प्रतीक्षतेमांमाताचपिता

चजलकांक्षया॥
तच्छ्रुत्वा भयसंत्रस्तस्ततोऽहं पौरुषं वचः॥ २४॥

शनैर्गत्वाऽथ तत्पार्श्वं स्वामिन्दशरथोऽस्म्यहम्॥
अजानता मयाविद्धस्त्रातुमर्हसिमांसुने॥ २५॥

इत्युक्त्वापादयोस्तस्यपतितोगङ्गदाक्षरः॥
तदा मामाह समुनिर्माभैषीर्नृपसत्तम॥ २६॥

ब्रह्महत्यास्पृशेन्नत्वां वैश्योहं तपसिस्थितः॥
पितरौमां प्रतीक्षेते क्षुत्तृड्भ्यां परिपीडितौ॥ २७॥

तयोस्त्वमुदकं देहि शीघ्रमेवाविचारयन्॥
न चेत्वांभस्मसात्कुर्य्यात्पितामेयदिकुप्यति

२८॥

तब मैंने यह जाना कि कोई हाथी जल पीरहा है इस अर्द्ध रात्रि में यहजानिकै एक शब्दबेधी बाण धनुष में संधान कर छोड़ता हुआ २१ तिसके उपरांत हे कौशल्ये हाह तोस्मि ऐसा मनुष्य के बोध करनेवाला शब्द होता हुआ अर्थात् मैं मारा गया ऐसा मनुष्य के बताने वाला शब्दहुआ और यह कहता हुआ कि हे बिधे मैंने तो किसी का अपराध नहीं किया था किसने मुझको मारा २३ माता औपिता जलकी इच्छाकरिकै मेरी प्रतीक्षा करते होंगे अर्थात् कब हमारा पुत्रजल लावै कबहम पीवैं ऐसा बिचार करते होंगे सो वचन सुनिकै मनुष्य वाणीका निश्चय कर भयकरिकै त्रासको प्राप्त जो मैं हौं २४ सो धीरे धीरे उस पुरुष के समीप जाके मैंने कहा कि हेस्वामिन् मैं दशरथ हौंबिनाजाने मैंने बाण से बेधन किया इससे हे मुने मुझको रक्षा करनेयोग्य हौ २५ ये वचन कहिकै उसमुनिके चरणों तले में पड़ता हुआ तो वह मुनिगद्गद और वचनसे अर्थात्कुछ अक्षर निकले कुछ नहीं वह गद्गद बाणी कहाती है सो मरण समय में मूर्च्छा वशसे ऐसी वाणी से वह तपस्वी बोलाकि २३ हे नृपसत्तम ब्रह्महत्या तुमको नहीं स्पर्श करेगी जिसकारण से मैं तपमें स्थित वैश्या हौंपरन्तु भूख प्यास करिकै पीड़ित मेरे मातापिता होंगे २७ तिन दोनों के पीनेको जल तुम शीघ्र ही जाकेदेवो इसमें कुछ विचार न करो और जो ऐसा न करोगे तो मेरा पिता जो क्रोध करेगा तो तुमको भस्म करिदेगा २८॥

जलं दत्त्वा तु तौ नत्वाकृतं सर्वं निवेदय॥
शल्यमुद्धरमेदेहात्प्राणां स्त्यक्ष्यामिपीडितः॥ २९॥

इत्युक्तोमुनिनाशीघ्रम्बाणमुत्पाट्य देहतः॥
सजलं कलशं धृत्वागतोत्रदम्पती॥ ३०॥

अतिवृद्धावन्धदृशौक्षुत्पिपासार्दि तौ निशि॥
नायाति सलिलं गृह्यपुत्रः किंवाऽत्र कारणम्॥ ३१॥

अनन्यगति कौ वृद्धौशोच्यौ तृट्परिपीडितौ॥
आवामुपेक्षते किं वा भक्तिमानावयोः सुतः॥ ३२॥

इति चिन्ता व्याकुलै तौमत्पादंन्यासजंध्वनि

म्॥
श्रुत्वा प्राहपितापुत्र किंविलम्बः कृतस्त्वया॥ ३३॥

देह्यावयोः सुपानीयं पिवत्वमपि पुत्रक॥
इत्येवं लपतो र्भीत्या सकाशमगमं शनैः॥ ३४॥

पादयोप्रणिपत्याहमब्रुवंविनयान्वितः॥
नाहं पुत्रस्त्वयोध्याया राजादशरथोऽस्म्यहम्॥ ३५॥

इससे मेरे माताको जल देके फिर तिन दोनों को नमस्कार करिकै जोकुछ तुमने कर्म किया है सो निवेदन करो और मेरे देहसे शीघ्रही इस बाणको निकालो इसकी व्यथा से पीड़ित जो मैं हौं सो प्राणत्याग करता हौं२९ ऐसा जब मुनिने वचन कहा तो मैं शीघ्र ही उस मुनिके देहके बाणको निकासकरि फिर जलसहित कलश को धारण करिकै वहां मैं जाता हुआ जहां वे दोनों स्त्री पुरुष ३० भति वृद्धै रहे और अंधजिनके नेत्र हैं और भूख प्यास करिके रात्रि में पीड़ित रहे और जल लेके हमारा पुत्र नहीं आया इसमें क्या कारण है ३१ यह नहीं जाना जाता और सिवाय उसपुत्रके नहीं और गति जिनकी ऐसे हम हैं और वृद्ध हैं शोच करिबे योग्य हैं और प्यासकर के पीड़ित हो रहे हैं भक्तिमान् जो हमारा पुत्र है सो कहीं त्याग तौ न करिदेवै ३२ ऐसी चिन्ता में दोनों व्याकुल होरहे थे सो मेरे पाओं का धरनेका शब्द सुनिकै पिता बोला कि हे पुत्र आजु बिलंब तुमने कैसे किया ३३ हे पुत्र हमको सुन्दरजल पीने को देउ फिर तुम भी पीवो ऐसा वचन कहिरहे जो दोनों वृद्ध तिनके समीप भयकरके मैं धीरेसे जाता हुआ ३४ फिरदोनों वृद्धों के पात्रों में गिरिकै प्रणामकर नम्रता पूर्वक में वचन बोलता हुआ कि मैं तुम्हारा पुत्र नहीं हौंमें अयोध्या का राजा दशरथ हौं ३५॥

पापोऽहंमृगयासक्तो रात्रौ मृगविहिंसकः॥
जलावताराद्दूरेऽहंस्थित्वाजलगतध्वनिम्॥ ३६॥

श्रुत्वाऽहं शब्दवेधित्वादेकंबाणमथात्यजम्॥
हतोऽस्मीतिध्वनिं श्रुत्वा भयात्तत्राहमागतः॥ ३७॥

जटाविकीर्यपतितं दृष्ट्वाऽहं मुनिदारकम्॥
भीतो गृहीत्वा तत्पादौ रक्षरक्षेतिचाब्रुवम्॥ ३८॥

माभैषीरिति मां प्राब्रह्महत्या भयंनते॥
मत्पित्रो सलिलं दत्त्वा नत्वा प्रार्थयजीवितम्॥ ३९॥

इत्युक्तो मुनिना तेन ह्यागतो मुनिहिंसकः॥
रक्षेतांमांदयायुक्तौ युवां हि शरणागतम्॥ ४०॥

इति श्रुत्वा तु दुःखार्त्तौ विलप्य बहुशोच्यतम्॥
पतितौ नौसुतोयत्र नयतत्राविलम्बयन॥ ४१॥

ततोनीतौसुतोयत्रमयातौ वृद्धदम्पती॥
स्पृष्ट्वा सुतं तौ हस्ताभ्यां बहुशोऽथविलेपतुः॥ ४२॥

और मैं शिकार खेलने में आसक्त औ रात्रिमें मृगों की हिंसा करने वाला पापयुक्त होरहा होंसो मैं जहां नदी का जल भरने का घाट है तिसके दूर स्थित होकै जल में शब्द को सुनकै ३६ शब्द वेधी एकबाण छोड़ता हुआ फिर हतोस्मि अर्थात् मैंमारा गया ऐसा मनुष्य का शब्दसुनिकै भयसे वहां आवता हुआ ३७ फिरजटा जिसकी फैल रही हैं ऐसे पड़े हुये सुनिके बालक को देखिकै ब्रह्महत्या के भयसे उसके चरणों को ग्रहणकर रक्ष रक्ष अर्थात् रक्षाकरो रक्षाकरो ऐसा वचन उस मुनि बालक से कहता हुआ ३८ तब उसने यह कहा कि भय मत करो ब्रह्महत्या का भय तुम को नहीं है परन्तु मेरे माता पिता को जल देके और नमस्कार करिकै अपने जीवन के अर्थ प्रार्थना करो ३९ इस प्रकार उस मुनिका भेजा हुआ जो मैं हौंसो तुम्हारे समीप प्राप्त हुआ सो दयायुक्त जो तुम दोनों हौसो शरणागतजो मैं हौंतिसकी रक्षाकरिये ४० यह मेरे सुखकावचन वे दोनों वृद्ध सुनिकै दुःख करिकै पीड़ित हो बहुत बिलापकर उसपुत्र को शोचके यह कहते हुये कि जहां हमारा पुत्र पड़ा है तहां शीघ्र ही हम को प्राप्तकरौ बिलंब न करो ४१ तब हे कौशल्ये मैंने वे बुद्धस्त्री पुरुष वहां प्राप्त किये जहां उनका पुत्र मरा हुआ पड़ा थातब अपने हाथों से वे वृद्ध अपने पुत्र को स्पर्शकर बहुत प्रकार का बिलाप करते हुये ४२॥

हाहेतिक्रन्दमानौतौपुत्रपुत्रेत्यवोचताम्॥
जलं देहीतिपुत्रेतिकिमर्थंनददास्यलम्॥ ४३॥

ततोमामूचतुः शीघ्रञ्चितिरचयभूपते॥
मया तदैव रचिता चितिस्तत्रनिवेशिताः॥
त्रयस्तन्नाग्निरुत्सृष्टोदग्धास्तेत्रिदिवं ययुः॥ ४४॥

तत्रवृद्धः पिता आहत्वमप्येवं भविष्यसि॥
पुत्र शोकेनमरणं प्राप्स्यसे वचनान्मम॥ ४५॥

स इदानीं मम प्राप्तः शापकालोनिवारितः॥
इत्युक्त्वाविललापाथराजाशोकसमाकुलः॥ ४६॥

हा राम पुत्र हा सीते हा लक्ष्मण गुणाकर॥
त्वद्वियोगादहं प्राप्तोमृत्यु कैकेयि संभवम्॥ ४७॥

वदन्नेवं दशरथः प्राणांस्त्यक्त्वादिवंगतः॥
कौशल्या च सुमित्रा च तथान्याराजयोषितः॥ ४८॥

चुक्रुशुश्च विलेपुश्च उरस्ताडनपूर्वकम्॥
वशिष्ठः प्रययौ तत्रप्रातर्मन्त्रिभिरावृतः॥ ४९॥

हा हा ऐसा शब्दकर रोदनकर पुत्र यह शब्द कहते हुये अर्थात् हा पुत्र हा पुत्र ऐसे शब्द उच्चारण करके विलाप करते हुये और हेपुत्र तुम जल देउ और कौन कारण से जल नहीं देते हौ४३ तब मुझसे दोनों वृद्ध कहने लगे कि हे राजन् शीघ्रही हमारी चिता रचो फिर मैंने शीघ्र ही चिता रचिकै उस चिता में वे दोनों वृद्ध और उनका पुत्र ये तीनों को स्थापनकर अग्निदेकेभस्म कर दिये

तो वे तीनों स्वर्ग को जाते भये ४४ तब मरण समय में जो वृद्धमुनिका पिता सो मुझसे कहता हुआ कि हे राजन् जैसे मैं पुत्र शोक में प्राणों को त्यागता हूं तैसे तुम्हारे भी प्राण पुत्रशोक ही में जायँगे ४५ हे कौशल्ये वह शापकाकाल अब इससमय में मुझको प्राप्त हुआ है सो वह निवारण करने को अशक्य है ऐसे वचन कहिकै राजा शोक में व्याकुल हो विलाप करता हुआ ४६ कि हा राम हा गुणाकर पुत्र हा सीते हा लक्ष्मण तुम्हारे वियोग से केकयी सेउत्पन्न हुआ जो मृत्यु तिसको मैं प्राप्तहोता हूँ ४७ ऐसे कहिकै राजादशरथ प्राणों को त्यागकर स्वर्ग को जाते हुये स्वर्ग शब्दकरके यहां ब्रह्म लोक का ग्रहण है क्योंकि दशरथ को ब्रह्मलोक प्राप्त हुआ ऐसा वाल्मीकीय रामायण आदि बहुत ग्रंथों से निश्चय होता है अब कौशल्या औसुमित्रा आदि बहुत सी दशरथ की रानियां ४८ छाती कूटके विलाप करती हुई फिर प्रातःकाल वशिष्ठजी महाराज मंत्रियों को संग लेके राजमंदिर को जाते हुये ४९॥

तैलद्रोण्यां दशरथं क्षिप्त्वा दूतानथाब्रवीत्॥
गच्छत त्वरितं साश्वायुधाजिन्नगरं प्रति॥ ५०॥

तत्रास्ते भरतः श्रीमाञ्च्छत्रुघ्नसहितः प्रभुः॥
उच्यतां भरतः शीघ्रमागच्छेति ममाज्ञया॥ ५१॥

अयोध्यां प्रतिराजान कैकेयी चापि पश्यतु॥
इत्युक्तास्त्वरितं दूतागत्वा भरतमातुलम्॥ ५२॥

युधाजितं प्रणम्यो चुर्भरतं सानुजं प्रति॥
वशिष्ठस्त्वाब्रवीद्राजन् भरतः सानुजः प्रभुः॥ ५३॥

शीघ्रमागच्छतु पुरीमयोध्यामविचारयन्॥
इत्याज्ञप्तोऽथ भरतस्त्वरितं भयविह्वलः॥ ५४॥

आययौगुरुणादिष्टः सहदूतैस्तु सानुजः॥
राज्ञोवाराघवस्यापिदःखं किंचिदपस्थितम्॥ ५५॥

इति चिंतापरोमार्गे चिंतयन्नगरं ययौ॥
नगरं भ्रष्टलक्ष्मीकंजन संबाधवर्जितम्॥ ५६॥

दशरथकी देहको तैलकी नौका से स्थापन कराके दूतों से यह वचन कहतेहुये कि तुम सब घोड़ों पै चढिकै शीघ्रं युधाजितके नगरको जाओ ५० तिस नगर में शत्रुघ्न सहित श्रीमान्भरत बास करता है तो भरत शीघ्र ही मेरी आज्ञा करके आवैं ऐसा जाके कहो५१ और अयोध्या में आके राजा को औकेकयीको देखें ऐसे वशिष्ट की आज्ञासे वह दूत शीघ्र ही जाके भरत का मामा जो युधाजित तिसको प्रणाम करके ५२ कहतेहुये कि हेराजन् शत्रुघ्न सहित भरत के प्रति वशिष्ठ जी ने यह कहा कि अनुज सहित भरत अयोध्या को इसी समय आवैं५३ कुछ विचार न करैंऐसी वशिष्ठकी आज्ञा सुनिकै भय करिकै विह्वल हुआ जो भरत ५४ सो शत्रुघ्न करके सहित और दूतों करके सहित गुरू की आज्ञा के वश शीघ्र ही आवता हुआ अब भरत मार्ग में यह विचार करता हुआ

कि राजा को अथवा राम को कुछ दुःख प्राप्त हो रहा है ५५ ऐसी चिन्ता मेंमग्न हुआ भरत नगर में प्राप्त होता हुआ फिर भ्रष्टहुई है शोभा जिसकी ओं मनुष्यों के समूह करके रहित ५६॥

उत्सवैश्चपरित्यक्तं दृष्ट्वाचिन्तापरोऽभवत्॥
प्रविश्य राजभवनं राजलक्ष्मी विवर्जितम्॥ ५७॥

प्रपश्यत्कैकयीं तत्र एकामेवासनेस्थिताम्॥
ननामशिरसापादौ मातुर्भक्तिसमन्वितः॥ ५८॥

आगतं भरतं दृष्ट्वा कैकेयी प्रेमसंभ्रमात्॥
उत्थाया लिंग्यरभसास्वांकमारोप्यसंस्थिता॥ ५९॥

मूर्ध्न्यवघ्राय पप्रच्छ कुशलं स्व कुलस्य सा॥
पितामेकुशली भ्राता माता च शुभलक्षणा॥ ६०॥

दिष्ट्या त्वमद्य कुशली मया दृष्टोऽसि पुत्रक॥
इतिपृष्टः सभरतो मात्राचिंताकुलेंद्रियः॥ ६१॥

दूयमानेन मनसा मातरं समपृच्छत्॥
मातः पिता मे कुत्रास्ते एकात्वमिहसंस्थिता॥ ६२॥

वयाविनानमेतातः कदाचिद्रहसिस्थितः॥
इदानीं दृश्यते नैव कुत्र तिष्ठतिमेवद॥ ६३॥

और उत्सवों करके राहत ऐसे नगर को देखके भरत और भी चिन्ता में परायण होता हुआ फिर राजलक्ष्मी से हीन जो राजा का मन्दिर तिस में प्रवेश कर ५७ अकेली आसनपै बैठी कैकेयी को देखता हुआ फिर भक्ति करके सहित शिर करके माता के चरणों को प्रणाम करता हुआ ५८ अब आवते हुये भरत को देखके कैकेयी प्रेम के संभ्रम से शीघ्र ही उठकर हृदय से आलिंगन कर गोद में बिठाकर आसन पे बैठती हुई ५९ शिर सूंघकर अपने पिता के कुल की कुशल पूछती हुई कि भरत पिता मेरा कुशल युक्त है और भाई माता ये कुशल युक्त हैं ६० और हे पुत्र बड़े आनन्द की बात है जो मैं तुमको कुशलयुक्त देखती हूं इसप्रकार माता करके पूछा हुआ भी भरत है तौ भी चिन्ताकर के व्याकुल इन्द्री जिस की ६१ और संतापयुक्त मानकर के माता से पूछता हुआ कि हे मातः मेरा पिता कहां है और तू अकेली यहां कैसे बैठी है ६२ क्योंकि तेरे बिना मेरा पिता कभी एकान्त में नहीं बैठता था और इस समय में अब नहीं दिखाई पड़ता है सो कहां स्थित यह मुझसे कहु ६३॥

अदृष्ट्वा पितरं मेद्य भयं दुःखं च जायते॥
यथाह कैकयीपुत्रं किंदुःखे नतवानघ॥ ६४॥

यागतिर्धर्म्मशीलानामश्वमेघादियाजिनाम्॥
तां गतिं गतवानद्यपितातेपितृवत्सल॥ ६५॥

तच्छुत्वानिपपातोर्व्यां भरतः शोकविह्वलः॥
हातातक्वगतोऽसित्वं त्यक्ता मांवृजिनार्णवे॥ ६६॥

असमप्यैव रामाय राज्ञेमांक्वगतोऽसि॥
इति विलपितं पुत्रं पतितं मुक्त

मूर्द्धजम्॥ ६७॥

उत्थाप्या मृज्य नयने कैकेयीं पुत्रमब्रवीत्॥
समाश्वसि हि भद्रंते सर्वं संपादितं मया॥ ६८॥

तामाहभरतस्तातो म्रियमाणः किमत्रचीत्॥
तमाह कैकयीदेवी भरतं भयवर्ज्जिता॥ ६९॥

हारामराम सीतेति लक्ष्मणेति पुनः पुनः॥
विलपन्नेवसुचिरं देहं त्यक्त्वादि वंययौ॥७०॥

बिना पिता के देखे मुझको इस समय में भय और दुखः उत्पन्न हो रहा है अब कैकेयी पुत्रसे कहने लगी हे अनघ पापरहित तुमको दुःख से क्याप्रयोजन है ६४ और जो गति धर्मशील पुरुषों की होती है और अश्वमेधादि यज्ञ करने वालों की जो गति होती है तिस गति को इस समय में तुम्हारा पिता प्राप्त हुआ ६५ यह वचन सुनिकै शोककरके व्याकुल जो भरत सो पृथिवी में गिर पड़ता हुआ औ हा तात तुम दुःख के समुद्र में मुझको डालके कहां गये ६६ औराम जो राजा हैं तिनको मुझे बिना सौंपे आप कहां गये ऐसे विलाप करता हुआ औ पृथिवी में पड़ा और खुले केश हैं जिसके ऐसा जो पुत्र तिसको ६७ कैकेयी उठाकरके औआंखों को पोंछकै यह बोलती हुई कि हे पुत्र अपने चित्त को सावधान करो और तुम्हारा कल्याण होय और मैंने तुम्हारे वास्ते सब सिद्धकर रक्खा है ६८ तब भरत कैकेयी से पूछते हुये कि जब पिता मरने लगे तब क्या कहते हुये तबकैकेयी निर्भय होकैभरत से कहती हुई ६९ कि हेपुत्र हा राम हा राम हा सीता हा लक्ष्मण इसप्रकार बारम्बार बहुत कालतक विलाप करते करते तुम्हारा पिता देह को त्यागकर स्वर्ग को गया ७०॥

तामाह भरतो हेम्बरामः सन्निहितोनकिम्॥
तदानीं लक्ष्मणो वाऽपिसीता वा कुत्र तेगताः॥ ७१॥

कैकेय्युवाच॥

रामस्य यौवराज्यार्थं पित्राते संभ्रमः कृतः॥
तव राज्यप्रदानाय तदाऽहं विघ्नमाचरम्॥ ७२॥

राज्ञादत्तंहिमेपूर्वं वरदेनवरद्वयम्॥
याचितं तदिदानीमेतयोरेकेन तेऽखिलम्॥ ७३॥

राज्यं रामस्य चैकेन वनवासो मुनित्रतम्॥
ततः सत्यपरोराजा राज्यं दत्त्वा तवैवहि॥ ७४॥

रामं संप्रेषयामास वनमेवपिता तव॥
सीताऽप्यनुगतारामं पातिव्रत्यमुपाश्रिता॥ ७५॥

सौभ्रात्रंदर्शयन्राम मनुयातोऽपि लक्ष्मणः॥
वनं गतेषु सर्वेषु राजा तानेव चिन्तयन्॥ ७६॥

प्रलपन्राम रामेति ममार नृपसत्तमः॥
इति मातुर्वचः श्रुत्वा वज्राहत इव द्रुमः॥ ७७॥

तौ भरत कैकेयी से बोले कि हे मातः क्या राम उससमय में पिता के समीप नहीं थेऔर उससमय में लक्ष्मण और सीताजी भी क्या न थीं और जो नहीं थेतोये सब कहां गये ७१ तब कैकयी कहती हुई कि हे पुत्र जब राम के यौवरा-

ज्य के अर्थ तुम्हारे पिता ने आदरपूर्वक प्रारंभ किया तब मैंने तुम्हारे राज्य की प्राप्ति के लिये राम के राज्य में बिघ्न किया ७२ राजा ने पहिले एक समय प्रसन्न हो मुझको दो वर दे रक्खे थे सो इससमय में वे दोनों वर राजा से मैंने मांगे ७३ तिसमें एकबर करके तो तुम्हारे अर्थ सब राज्य मांगा और दूसरे वर करके राम को बनबास मुनियों के व्रत को धारण करके तब सत्य में परायण जो राजा हैं सो तुम्हारे ई अर्थ राज्य देकै ७४ राम को वनको भेजता हुआ और पातिव्रत धर्म को आश्रयणकर सीता भी रामके पीछे जाती हुई ७५ और लक्ष्मण जी भी अच्छे भाइयों का जो धर्म है तिलको अपने में दिखाता हुआ रामके पीछे पीछे जाता हुआइसप्रकार जब ये तीनों वन को गये तब राजा इनका चिन्तन करता हुआ ७६ और रामराम ऐसे कहते कहते प्राणों को छोड़ता हुआ यह माता के वचन सुनिकै जैसे वज्रकरिकै ताड़ित वृक्षहोवै तैसे मूच्छित होकै ७७॥

पपात भूमौनिः संज्ञस्तंदृष्ट्वा दुःखिता तदा॥
कैकेयी पुनरप्याहवत्स शोके न किंतव॥ ७८॥

राज्ये महति संप्राप्ते दुःखस्यावसरः कुतः॥
इति ब्रुवं तीमालोक्य मातरं प्रदहन्निव॥ ७९॥

असंभाष्याऽसिपापेमे घोरेत्वं भर्तृघातिनी॥
पापेत्वद्गर्भजातोऽहं पापवानस्मि सांप्रतम्॥
अहमग्निं प्रवेक्ष्यामि विषं वा भक्षयाम्यहम्

८०

खड्गेनवाऽथ चात्मानं हत्वायामियमक्षयम्॥
भर्तृघातिनिदुष्टेत्वं कुंभीपाकं गमिष्यसि

८१

इति निर्भर्त्स्य कैकेयीं कौशल्या भवनं ययो॥
साऽपितं भरतं दृष्ट्वा मुक्तकण्ठारुरोदह

८२

पादयोः पतितस्तस्याभरतोऽपितदारुदन्॥
आलिंग्य भरतं साध्वीराममाता यशस्विनी

८३

कृशातिदीनवंदनासाश्रुनेत्रेदमब्रवीत्॥
पुत्रत्वयिगते दूरमेवं सर्वमभूदिदम्॥
उक्तमात्राश्रुतं सर्वं त्वया ते मातृचेष्टितम्

८४॥

भरत पृथिवी में गिर पड़ता हुआ तिसको देखिकै दुःखित जो कैकेयी सो फिर वचन बोलती हुई कि हे वत्सतुमको शोककरके क्या प्रयोजन है ७८ अर्थात् तुम्हारे बैरियों को शोकहोय तुमको तो बड़ाभारी राज्य प्राप्त हुआ है दुःख का अवसर कौन है ऐसे भरत के स्वभाव से विरुद्ध वचन कहती हुई जो कैकेयी तिसको मानो भस्म करि देवेंगे ऐसी क्रोध की दृष्टि से देखकै ७९ भरत बोलते हुये कि पापेतू मेरे संभाषण करने योग्य नहीं है हे घोरे तू अपने पति के मारने वाली है अरे पापिनि तेरे गर्भ से मैं उत्पन्न हुआ इससे मैं भी इस समय में पापी हौं ८० सो मैं कितौ अग्नि में प्रवेश करूंगा अथवा विषभक्षण करूंगा अथवा खड्ग से अपना शिर काटिकै मर जाऊंगा अरे भर्त्ता के मारनेवाली दुष्टे तू अवश्य

इस पाप से कुम्भीपाक नरक को जायगी ८१ इसप्रकार भरत कैकेयी का तिरस्कार करके आप कौशल्या के गृह जाते हुये सो कौशल्या भी भरत को देख कै कण्ठखोल कैरोवती हुई ८२ और भरत भी उस समय में रोवते हुये कौशल्या के चरणों में गिरते हुये तबयशस्विनी जो राम की माता कौशल्या सो भरत को हृदय से लगाती हुई ८३ अति दुर्बल औ दीनमुख जिसका औ नेत्रों से अश्रुपात जिसके हो रहा है ऐसी जो कौशल्या सो भरत से बोलती हुई हे पुत्र तुम तौ दूर गये रहे तबतक यहां सब यह चरित्रहुआ जो कुछ माता ने कहा होगा अपना किया कर्म सो तुमने सुना ही होगा ८४॥

पुत्रः सभार्योवनमेवयातः सलक्ष्मणोमे रघुरामचन्द्रः॥
चीराम्बरोवद्धजटाकलापः संत्यज्यमां दुःखसमुद्रमग्नाम्॥ ८५॥

हा राम हा मे रघुवंशनाथजातोऽसि मेत्वं परतः परात्मा॥
तथापिदुःखं न जहातिमां वैविधिर्वलीयानितिमेमनीषा॥ ८६॥

स एवं भरतो वीक्ष्यविलपन्तीं भृशं शुचा॥
पादौ गृहीत्वाप्राहेदं शृणुमातर्वचोमम॥ ८७॥

कैकेय्या यत्कृतं कर्म राम राज्याभिषेचने॥
अन्यद्वायदिजानामि सामयानोदितायदि॥ ८८॥

पापं मेऽस्तुतदामातर्ब्रह्महत्याशतोद्भवम्॥
हत्यावशिष्ठं खड्गेनअरुन्धत्यासमन्वितम्॥ ८९॥

भूयात्तत्पापमखिलं मम जानामियद्यहम्॥
इत्येवशं पथं कृत्वा रुरोद भरतस्तदा॥ ९०॥

कौशल्या तमथालिंग्यपुत्रजानामिमाशुचः॥
एतस्मिन्नन्तरे श्रुत्वा भरतस्य समागमम् ९१॥

हे भरत रघुकुल में जो चन्द्ररूप ऐसा जो मेरा राम नाम पुत्र सो चीर वस्त्र धारण कर औ जटा जूट को बांधि के दुःखसमुद्र में डूब रही जो मैं तिसको त्यागकर सीता लक्ष्मण सहित आप वन ही को जाता हुआ ८५ हा राम हा रघुवंशनाथ सबसे परे अधिक ऐसा जो परमात्मा सो तुम आनकर यद्यपि मेरे पुत्र हुये तब भी मुझको दुःख नहीं त्याग करता इससे विधि जो देव है सोई बलवान् है यह मेरी बुद्धि है अर्थात् ऐसा मेरी बुद्धि में आता है ८६ अब सो भरत शोक करके इस प्रकार विलाप करती हुई जो कौशल्या तिसको देखके कौशल्या के चरण स्पर्श कर कहता हुआ कि हे मातः यह मेरे वचन को सुनो ८७ कि राम के राज्य के अभिषेक में जो कैकेयी ने कर्म किया अथवा और कोई तेरा दुःख मूल कर्म किया है सो मैं जानता होऊं अथवा मेरी प्रथम से संमति होय अथवा मैंने कभी प्रेरणा करी होय ८८ तौ हे माता सैकड़ों ब्रह्महत्या का जो पाप सो मुझको होय और अरुन्धती करके सहित वशिष्ठ को खड्ग करके वध करने में जो पाप है सो संपूर्ण मुक्तको होय ८९ या मेरी संमति होय और इस कर्म को जो जानता भी

होऊँ इस प्रकार शपथ करके फिर भरत रोवता हुआ ९० तब कौशल्या भरत को आलिंगन करके कहती हुई कि हे पुत्र मैं जानती हूं तू मत शोचकर उसी समय में वशिष्ठजी भरत का समागम सुनिकै ९१॥

वशिष्ठोमन्त्रिभिः सार्द्धं प्रययौ राजमन्दिरम्॥
रुदन्तं भरतं दृष्ट्वावशिष्ठःप्राहसादरम्॥ ९२॥

वृद्धोराजा दशरथोज्ञानीसत्यपराक्रमः॥
भक्त्वा मर्त्यसुखं सर्वमिष्ट्वाविपुलं दक्षिणैः॥ ९३॥

अश्वमेधादिभिर्यज्ञैलब्ध्वारामं सुतं हरिम्॥
अन्ते जगामत्रिदिवं देवेन्द्रार्द्धासनं प्रभुः॥ ९४॥

तं शोचसि वृथैवत्वमशोच्यं मोक्ष भाजनम्॥
आत्मानित्योऽव्ययः शुद्धोजन्मनाशादिवर्जितः॥ ९५॥

शरीरं जडमत्यर्थमपवित्रविनश्वरम्॥
विचार्यमाणे शोकस्यनावकाशः कथं च न॥ ९६॥

पितावातन्योवाऽपियदिमृत्युवशं गतः
मूढास्तमनुशोचन्ति स्वात्मताडनपूर्वकम्॥ ९७॥

निःसारेखल संसारेवि योगोज्ञानिनांयदा॥
भवेद्वैराग्यहेतुः सशान्ति सौख्यं तनोति च॥ ९८॥

मंत्रियों करके सहित राजमन्दिर को आवते हुये तहां रोवते भरत को देखकैआदरपूर्वक वचन बोलते हुये ९२ राजा दशरथ बृद्ध रहे और ज्ञानी और सत्य हे पराक्रम जिनका ऐसे रहे सो दशरथ संपूर्ण मनुष्य लोक के सुख को भोग के और बहुत है दक्षिणा जिनमें ऐसे रहे अश्वमेध आदियज्ञों करके यजन करके ९३ और साक्षात् हरिरूप पुत्र को प्राप्त होके अन्त में स्वर्गको जाता हुआतहां महेन्द्र के अर्द्धासन पै बैठता हुआ ९४ तिस राजा को वृथा हीतुम शोचते हौक्योंकि जो राजा सर्वथा शोचकरने योग्य नहीं है जिस्से मोक्ष का भागी है और आत्मा नित्य और अविनाशी है शुद्ध है औजन्म नाशादि कर के रहित है ९५ औशरीर तौजडहै और अत्यन्त अपवित्र है औनश्वर है अर्थात् नाश होने का जिसका स्वभाव ही है ऐसा विचार करने से शोक का कैसो भी अवकाश नहीं है ९६ और हे भरत पिता होय अथवा पुत्र जो मृत्यु के वशप्राप्त होता है उसको मूढपुरुष अपनी छाती कूटकेशोचते हैं ९७ और साररहित जो यह संसार तिसमें ज्ञानियों को जब किसी का वियोग होता है तौ वहवियोग वैराग्य का कारण होता है और शान्तिरूप सुख को देता है ९८॥

जन्मवान्यदिलोकेऽस्मिन्तर्हितं मृत्युरन्वगात्॥
तस्मादपरिहायोऽयं मृत्युर्जन्मवतां सदा॥९९॥

स्वकर्मवशतः सर्वजन्तूनां प्रभवाप्ययौ॥
विजानन्नप्यविद्वान्यः कथं शोचतिबान्धवान्॥ १००॥

ब्रह्माण्ड कोटयोनष्टाः सृष्टयोबहुशोगताः॥
शुष्यन्तिसागराः सर्वे कैवास्थाक्षणजीविते॥१०१॥

चलपत्रान्तलग्नाम्बुविन्दुवत्क्षणभंगुरम्॥
आयुस्त्यजत्यवेलायां कस्तत्र प्रत्ययस्तव॥ १०२॥

देही प्राक्तन देहोत्थ कर्मणा देहवान्पुनः॥
तद्देहोत्येनचपुनरेवंदेहः सदाऽत्मनः॥ १०३॥

यथात्यजतिवैजीर्णं वासोगृह्णातिनूतनम्॥
तथा जीर्णंपरित्यज्य देहीदेहं पुनर्नवम्॥ १०४॥

भजत्येवसदातत्रशोकस्यावसरः कुतः॥
आत्मानं म्रियते जात जायते न च वर्द्धते॥ १०५॥

जो इस लोक में जन्मवान पुरुष है तो उसके पीछे पीछे मृत्यु भी गमन करती है तिससे जन्मवान् पुरुषों को मृत्यु सदा अपरिहार्य है अर्थात् अवारणीय है ९९ और जो अविद्वान् भी हो अर्थात् आत्मतत्त्व को नहीं भी जानता होय और अपने कर्म वश से सब प्राणियों के जन्म मृत्यु होते हैं यह जानते सुनते भी कैसे बान्धवों का शोचकरै १०० औ कडोरों ब्रह्माण्ड नष्ट होगये औबहुत सी सृष्टि भी व्यतीत हो गई औ समुद्र भी सर्व सूख जाते हैं तो क्षणमात्र के जीवन में किसकी नाईं विश्वास किया जाय १०१ औचंचल जो पत्र तिसके अन्त में अर्थात् किनारे लगा हुआ जो जल का विन्दु तिसके तुल्य क्षण भंगुर जो आयु सो समयपर बाल्यअवस्था में भी जो त्याग देती है तो उसके विषे तुम को कौन विश्वास है १०२ देही जो जीव है सो पूर्व जन्म के देह से किये जो कर्म तिस कर्म करके यहदेह उत्पन्न हुआ अबजो इस देह में कर्म कराता है तिस कर्म करकै अगाडी का देह उत्पन्न होगा इसप्रकार जबतक देहाभिमान है तब तक देह परंपरा नहीं छूटती १०३ जैसे पुराने वस्त्रों को त्यागकरके नवीन वस्त्र को धारण करता है तैसे ही जीव जीर्ण देहको त्यागकर नवीन देह को सदा भजन करता है अर्थात् ग्रहण करता है १०४ तिस देह में शोक का अवसर कैसे होय और आत्मा तौ न मरता है कभी और न उत्पन्न होता है और न बढ़ता है १०५॥

षड्भावरहितोऽनन्तः सत्यप्रज्ञानविग्रहः॥
आनन्दरूपोबुद्ध्यादि साक्षीलयविवर्जितः॥ १०६॥

एक एव परोह्यात्माह्य द्वितीयः समस्थितः॥
इत्यात्मानं दृढं ज्ञात्वा त्यक्त्वा शोकं कुरु क्रियाम्॥ १०७॥

तैल द्रोण्याः पितुर्देहमुद्धृत्य सचिवैस्सह॥
कृत्यं कुरु यथान्यायमस्माभिः कुलनंदन॥ १०८॥

इति संबोधितः साक्षागुरुणाभरतस्तदा॥
विसृज्याज्ञानजं शोकं चक्रे सविधिवत्क्रियाम्॥ १०९॥

गुरुणोक्तप्रकारेण आहिताग्नेर्यथाविधि॥
संस्कृत्य सपितुर्देहंविधिदृष्टेन कर्मणा॥ ११०॥

एकादशेऽहनि प्राप्ते ब्राह्मणान्वेदपारगान्॥
भोजयामासविधिवच्छतशोऽथ सहस्रशः॥ १११॥

उद्दिश्यपितरं तत्र ब्राह्मणेभ्यो धनं बहु॥
ददौ गवां सहस्राणिग्रामान् रत्नाम्बराणि च॥ ११२॥

इस छवों विकारों करके रहित है औ अनन्त है जिसका अन्त नहीं है औ प्रज्ञान विग्रह है अर्थात् विषय रहित जो ज्ञान सोई विग्रह स्वरूप जिसका औ आनन्दरूप है औ बुद्धि आदि जो अंतःकरण तिनका साक्षी है नाम साक्षात् देखने वाला है औ नाश करके रहित १०६ और एक है यो प्रकृति से परे है औ सबका आत्मा औ द्वैतभाव करके रहित है औ सब जगह सम रूपही करके स्थित है है भरत इस प्रकार आत्मा को दृढ़जानिकै शोक को त्यागकर राजा की परलोक की क्रियाकरौ १०७ और तैल की नौका तिससे पिता के देह को निकालकर हम जो सब मन्त्री तिन करिकै सहित जैसे शास्त्र विधि है तैसे कर्म करौ १०८ इसप्रकार साक्षाद् गुरु वशिष्ठ करिकै बोध कराये गये जो भरत सो अज्ञान से उत्पन्न जो शोक तिसको त्यागकर विधिवत्संपूर्ण क्रिया करते हुये १०९ गुरूने बताया जो प्रकार तिस करिकै आहिताग्नि की जैसी विधि अर्थात् अग्निहोत्र यज्ञ करने वाले की जो विधि तिस करिकै शास्त्रकी आज्ञा पूर्वक पिता के देह को संस्कार करिकै ११० जब ग्यारहवां दिन प्राप्त हुआ तौ वेद पारग जो सैकड़ों हजारों ब्राह्मण हैं तिनको भोजन कराके १११फिर पिता के अर्थ बहुत धन देते हुये और हजारों गौवें और ग्राम और रत्न और वस्त्र देतेहुये ११२॥

अवसत्स्वगृहे तत्र राममेवानुचिन्तयन्॥
वशिष्ठेन सह भ्रात्रा मंत्रिभिः परिवारितः॥ ११३॥

रामेऽरण्यं प्रयाते सहजनकसुतालक्ष्मणाभ्यां
सुघोरं माता मे राक्षसीव प्रदहतिहृदयं दर्शनादेवसद्यः॥
गच्छाम्यारण्यमद्यस्थिरमतिमखिलं दूरतोऽपास्य
राज्यं रामं सीतासमेतंस्मितरुचिरमुखं नित्यमेवानुसेवे॥ ११४॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे अयोध्याकांडे
सप्तमस्सर्गः ७॥

फिर राम ही का केवल चिन्तन करते हुये अर्थात् स्मरण करते हुये जो भरत हैं सो अपने गृह में बसते हुये वशिष्ठ करके सहित औ शत्रुघ्न करके सहित औ मन्त्रियों करके सहित भरत रामचन्द्रका स्मरण करते ही काल को व्यतीत करते हुये ११३ अब भरत जी जैसे राम का चिन्तन करते हुये तैसे प्रकार को कहते हैं भरत यह कहते हैं कि सीता लक्ष्मण करिकै सहित श्रीराम घोर वनमें प्राप्तहुये और मेरी माता जो केकयी है सो मेरे नेत्रों के आगे आवतेही राक्षसी के तुल्य मेरे हृदय को भस्म करती है इससे संपूर्ण राज्य को दूर ही से त्यागक-

रिकै अभी वन को जाऊंगा औस्थिरबुद्धि होकर सीता सहित मंद मुसुकानिकर के सुन्दर है मुखारविन्द जिनका ऐसे जो राम हैं तिनका नित्य सेवन करूंगा ११४

इतिश्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे अयोध्याकाण्डे
भाषाटीकायां सप्तमः सर्गः ७॥

श्रीमहादेव उवाच॥

वशिष्ठो मनिभिः सार्द्धं मंत्रिभिः परिवारितः॥
राज्ञः सभां देवसभासन्निभामविशद्विभुः॥ १॥

तत्रासनेसमासीनश्चतुर्मुख इवापरः॥
आनीय भरतं तत्र उपवेश्य सहानुजम्॥ २॥

अब्रवीद्वचनं देशकालोचितमरिंदमम्॥
वत्सराज्येऽभिषेक्ष्यामस्त्वामद्य पितृशासनात्॥ ३॥

कैकेय्यायाचितं राज्यं त्वदर्थे पुरुषर्षभ॥
सत्यसंधो दशरथः प्रतिज्ञाय ददौकिल॥ ४॥

अभिषेको भवत्वद्यमुनिभिर्मंत्र पूर्वकम्॥
तच्छुत्वाभरतोऽप्याहममराज्येन किंमुने॥ ५॥

रामोराजाधिराजश्च वयं तस्यैव किंकराः॥
श्वः प्रभाते गमिष्यामो राममानेतुमंजसा॥ ६॥

अहं यूयंमातरश्च कैकेयीं राक्षसीं विना॥
हनिष्याम्यधुनैवाहं कैकेयीं मातृ गंधिनीम्॥ ७॥

दो०

सर्ग आठवें भरत मुनि आयसु पाय ससैन॥
चित्रकूट सिय रामपद देखि भये सुखचैन॥ १॥

श्री महादेवजी पार्वती जी से कहते हैं कि हे पार्वति अब वशिष्ठजी मुनियों को संग लेकैऔ मन्त्रियों करके सहित देवसभा के तुल्य जो राजसभा है तिस में प्रवेश करते भये १ तिस सभा में आसन के ऊपरस्थित ब्रह्मा के तुल्य जो वशिष्ठजी सो शत्रुघ्न सहित भरत को बुलवाय के अपने समीप बिठाकर २ देशकाल के उचित जो वचन तिनको बोलते हुये कि हे वत्स तुमको आज हम राज्यके विषे अभिषेक युक्त करेंगे तुम्हारे पिता की आज्ञानुसार ३ क्योंकि हे पुरुषर्षभ केकीयीने तुम्हारे अर्थ राजा से राज्य की याचना की और सत्यमर्याद जो राजा दशरथ सो प्रतिज्ञा करके राज्य देते हुये ४ इससे आज मुनियों करके मन्त्रपूर्वक तुम्हारा अभिषेक होय यह वचन सुनिकै भरत बोले कि हे मुने मुझ को राज्य करके क्या प्रयोजन है ५ औ राजाधिराज तौ श्रीराम औ हम सब तो उनके किंकर हैं अर्थात् सेवक हैं इससे कल्ह प्रातः काल ही राम के लाने को हम साक्षात् जावेंगे ६ हम आप सब ओ मेरी सब माता ये सब जावैंगे एक राक्षसी केकयी के बिना यो हे मुने माता है नाम जिसका ऐसी जो केकयी राक्षसी तित को मारतो मैं अभी डालूं ७॥

किंतु मांनोरघुश्रेष्ठः स्त्रीहंतारं सहिष्यते॥
तच्छ्वोभूते गमिष्या

मिपादचारेणदण्डकान्॥ ८॥

शत्रुघ्नसहितस्तूर्णं यूयमायां तुवानवा॥
रामो यथा वने यातस्तथाऽहं बल्कलांबरः॥९॥

फलमूलकृताहारः शत्रुघ्न सहितोमुने॥
भूमिशायी जटाधारीयावद्रामोनिवर्त्तते॥ १०॥

इति निश्चित्य भरतस्तूष्णीमेवावतस्थिवान्॥
साधुसाध्विति तं सर्वेप्रशशं सुर्मुदान्विताः॥ ११॥

ततः प्रभाते भरतं गच्छंतं सर्वसैनिकाः॥
अनुजग्मुः सुमंत्रेणनोदिताः साश्वकुञ्जराः॥ १२॥

कौशल्याद्याराजदारावशिष्ठ प्रमुखाद्विजाः॥
छादयं तो भुवं सर्वेपृष्ठतः पार्श्वतोऽग्रतः॥ १३॥

श्रृंगवेरपुरं गत्वा गंगाकुले समंततः॥
उवास महती सेनाशत्रुघ्न परिचोदिता॥ १४॥

परन्तु क्या करूं यह भय मुझको है कि स्त्री के वध करने वाला जो मैं हूं तिसको राम नहीं सहि सकैंगे तिससे प्रातःकाल पावँ पावँ ही मैं दण्डक वन को जाऊंगा ८ मैं तो शत्रुघ्न सहित शीघ्र ही जाऊंगा आप सबाअवें वा न आवैं राम जैसे वन को गये हैं तिसी रीति से मैं भी बल्कल वस्त्र को धारण करूंगा ९ औफल मूल इनका आहार करता हुआ और शत्रुहन सहित अर्थात् शत्रुहन भी ऐसे व्रतको धारण करेंगे और पृथ्वी में शयन करता हुआ औजटाओं को धारण करे रहूंगा जबतक राम लौटिकै आवेंगे तबतक ऐसे ही व्रतको धारण करूंगा १० इतना कहिकै भरत फिर मौन स्थितहोते हुये और सभा में जे मनुष्य थे ते सब ये भरत के वचनों को साधुसाधु अच्छा कहे अच्छा कहा इसप्रकार सराहना करते हुये ११ तिसके उपरांत प्रातः काल जब भरत यात्रा करते हुये तब जितने सेना के मनुष्य थे ते सब सुमंत्र की आज्ञा से भरत के पीछे २ चलते हुये घोडे और हाथियों करके सहित १२ और कौशल्या आदि जो राजा दशरथ की रानियां और वशिष्ठआदि जो ब्राह्मण ये सबकोई पाछे कोई आगे कोई भरत के दोनों भाग में पृथ्वी को आच्छादन करके चलते हुये १३ अब शृंगवेर पुरको जाकर गंगाजी के तटपै चारों तरफ शत्रुघ्न की आज्ञा से वह बड़ी भारी सेना पड़ती हुई १४॥

आगतं भरतं श्रुत्वा गुहः शंकितमानसः॥
महत्या सेनया सार्द्धमागतोभरतः किल॥ १५॥

पापं कर्त्तुंन वायाति रामस्याविदितात्मनः॥
गत्वातद्धृदयंज्ञे यं यदिशुद्धस्तरिष्यति॥ १६॥

गंगां नो चेत्समाकृष्यनावतिष्ठं तु सायुधाः॥
ज्ञातयोमेसमायत्ताः पश्यंतः सर्वतोदिशम्॥ १७॥

इति सर्वान् समादिश्यगुहो भरतमागतः॥
उपायनानि संगृह्य विविधानि बहून्यपि॥ १८॥

प्रययौज्ञातिभिः सार्द्धं बहुभिर्विविधायुधैः॥
निवेद्योपायनान्यग्रेभरतस्य समंततः॥ १९॥
दृष्ट्वाभरतमासीनं सानुजं सहमंत्रिभिः॥

चीरां वरं घनश्यामं जटामुकुटधारिणम्॥ २०॥

राममेवानुशोचंतं रामरामेतिवादिनम्॥
ननामशिरसा भूमौ गुहोहमितिचाब्रवीत्॥ २१॥

अबगुह जो निषाद है सो भरत को सेना सहित आवता सुनिकै शंका युक्त है मन जिसका ऐसा निषाद यह विचार करने लगा कि भरत बड़ी सेना करके सहित जो आये हैं १५ सो कहीं राम के संग पाप करने को तो नहीं आये हैं अर्थात् भरत ने कहीं यह तो नहीं विचारा है कि राम को मारके निष्कंटक राज्य करों औ राम इस वृत्तको अभी जानते नहीं हैं इससे भरत के पास जाके उनके हृदय का आशय जानना चाहिये फिर मैं जान लेऊंगा कि भरत शुद्ध हैं तौ तौ गंगा उतरने देऊंगा १६ और जो कहीं पाप होगा तो तुम सब में जो ज्ञाति हो सो सबनौकाओं को दूर खैंचके ले जावे जिसमें भरत न उतरने पावें और अपने अपने शस्त्रों को ग्रहण कर सब सावधान रहना सब दिशाओं को देखते हुये १७ इसप्रकार वह गुहनाम जिसका ऐसा जो राम का परममित्र निषाद सो अपने ज्ञाति के मनुष्यों को आज्ञा देके और भरत जीके वास्ते बहुत प्रकार की और बहुत सी भेटे लेकै १८ और हथियार बन्द बहुत से मनुष्यों को संगलैकै भरत के समीप आवता हुआ फिर आके भरत जीके आगे सब वस्तु निवेदन करता हुआ १९ फिर मन्त्रियों करिकै सहित औ शत्रुघ्नसहित और चीर वस्त्र धारण करे और मेघतुल्य श्यामवर्ण जिनका और जटा मुकुट धारण किये २० औ राम ही का शोचकर रहे हैं औ राम राम यह शब्द उच्चारण कर रहे हैं ऐसे भरत को स्थित देखके वह निषाद पृथ्वी में गिर के दण्डवत् प्रणाम करता हुआ और गुह मेरा नाम है ऐसा कहता हुआ २१॥

शीघ्रमुत्थाप्य भरतो गाढमालिंग्यसादरम्॥
पृष्ट्वाऽनामयमव्यग्रः सखायमिदमब्रवीत्॥ २२॥

भ्रातस्त्वं राघवेणात्रसमेतः समवस्थितः॥
रामेणलिंगितः सार्द्धनयनेनामलात्मना॥ २३॥

धन्योऽसि कृतकृत्योऽसि यत्त्वया परिभाषितः॥
रामो राजीव पत्राक्षो लक्ष्मणेन च सीतया॥ २४॥

यत्ररामस्त्वयादृष्ट स्तनमांनय सुव्रत॥
सीतया सहितोयत्रसुप्तस्तद्दर्शयस्वमे॥ २५॥

त्वं रामस्य प्रियतमो भक्तिमानसि भाग्यवान्॥
इति संस्मृत्यसंस्मृत्यरामं साश्रुविलोचनः॥ २६॥

गुहेन सहित स्तत्र यत्ररामः स्थितोनिशि॥
ययौ ददर्शशयनं स्थलंकुश समास्तृतम्॥ २७॥

सीता भरण संलग्नस्वर्णविन्दुभिरञ्चितम्॥
दुःखसंतप्त हृदयो भरतः पर्यदेवयत्॥ २८॥

फिर भरतजी शीघ्र ही निषाद को उठाकर और दृढ़ जैसे होय तैसे आलिंगन

करके सावधान होके सखा जो निषाद तिससे यह वचन बोलते हुये २२ कि हे भ्रातः तुम राम से इसी स्थान मिलते हुयेऔ नेत्रों में जल जिनके भरा हुआ है ऐसे जो राम हैं सो अपने निर्मल हृदय से तुम को आलिंगन करते हुये २३ इस से तुम धन्य हौ औ कृतकृत्य हौजो तुमसों साक्षात् संभाषण किया और कमलपत्र तुल्य हैं बिशाल नेत्र जिनके ऐसे जो सीता लक्ष्मण सहित राम २४ सो तुमने जिस स्थान पै देखे हैं वहां मुझ को लेच लो औ सीता करके सहित राम जिस स्थान पै शयन करते भये हैं उस स्थान को दिखावो २५ औ हे गुह तुम राम को अत्यन्त प्रिय हो इससे तुम भक्तिमान् हौ औ बड़े भाग्यशाली हौ इस प्रकार भरत जी राम को स्मरण करके आशुओं करके पूर्णनेत्र जिनके ऐसे होते हुये २६ फिर भरत निषाद को संग लैकै वहां जाते हुये जहां राम रात्रि में स्थित हुये थे तहां कुशों से बिछा हुआ शयनस्थान देखते हुये २७ सीता जी के जो आभूषण स्वर्ण वस्त्र तिन्हीं का जो संघर्षण अर्थात् रगड़ तिसकरके जो सुवर्ण के बिन्दु तिन्हीं करके शोभायमान ऐसा राम का शयन स्थान तिसको देखकर के दुःख संतप्त है हृदय जिनका ऐसे जो भरत सो बिलाप करते हुये २८॥

अहोऽति सुकुमारीया सीताजनकनन्दिनी॥
प्रासादेरत्नपर्यंके कोमलास्तरणे शुभे॥ २९॥

रामेण सहिता शेते साकथं कुशविष्टरे॥
सीता रामेण सहिता दुःखेन मम दोषतः॥ ३०॥

धिङ्ङ्मांजातोऽस्मि कैकेय्यां पापराशि समानतः॥
मन्निमित्तमिदं क्लेशं रामस्य परमात्मनः॥ ३१॥

अहोति सफलं जन्म लक्ष्मणस्य महात्मनः॥
राममेवसदान्वेति वनस्थमपिहृष्टधीः॥ ३२॥

अहं रामस्य दासाये तेषां दासस्य किंकरः॥
यदि स्यां सफलं जन्म मम भूयान्नसंशयः॥ ३३॥

भ्रातर्जानासियदितत्कथय स्वममाऽखिलम्॥
यत्र तिष्ठति तत्राहंगच्छाम्यानेतुमंजसा॥ ३४॥

गुहस्तं शुद्धहृदयं ज्ञात्वा सस्नेहमब्रवीत्॥
देवत्वमेवधन्योऽसि यस्यते भक्तिरीदृशी॥ ३५॥

बड़े आश्चर्य की बात है कि अत्यन्त सुकुमारी जो जनकनन्दिनी सीता सो महलों में सुवर्ण के पलंग के ऊपर बिछेहुये जो कोमल बिछौने तिनके ऊपर राम के साथ सोती थीं २९ सो कैसे कुशों के आसन के ऊपर राम करके सहित मेरे दोष से दुःखकरके शयनकरती हैं३० और पापराशि के समान जो केकयी तिसके बिषे उत्पन्न हुआ जो मैं तिसको धिक्कार है जिस मेरे निमित्त सेमहात्मा जो राम तिनको इतना क्लेश हो रहा है जो पृथ्वी में कुश बिछाके सोतेहैं ३१ और लक्ष्मण जो महात्मा तिनका सफल जन्म है क्योंकि सो लक्ष्मण वन में स्थित जो राम तिनके पिछाड़ी चलते हैं औ प्रसन्न चित्त रहते हैं ३२ औ जो राम के

दास हैंतिनका जो कोई दास तिसका किंकर अर्थात् दास जो कदाचित् मैं होऊं तौ मेरा जन्म सफल होय इसमें कुछ संशय नहीं है ३३ औ हे भ्रातः जो तुम उस स्थान को जानते हो तो कहो जहां राम स्थित हैं तहां मैं साक्षात् उनको लिवाने को जाऊं ३४ तब गुह जो निषाद सो भरत को शुद्धहृदय जान के स्नेह सहित वचन बोलता हुआ कि हे देव तुम धन्य हौ जिन की ऐसी राम में भक्ति है ३५॥

रामे राजीव पत्राक्षे सीतायां लक्ष्मणे तथा॥
चित्रकूटाद्रि निकटे मंदाकिन्या विदूरतः॥ ३६॥

मुनीनामाश्रमपदे रामस्तिष्ठति सानुजः॥
जानक्या सहितानन्दात्सुखमास्ते किलप्रभुः॥ ३७॥

तत्रगच्छामहेशीघ्रगंगांतर्त्तुमिहार्हसि॥
इत्युक्त्वा त्वरितं गत्वानावः पंचशतानिह॥ ३८॥

समानयत्ससैन्यस्यतर्तुं गंगांमहानदीम॥
स्वयमेवानिनायैकांराजनावंगुहस्तदा॥ ३९॥

आरोप्य भरतं तत्र शत्रुघ्नं राममातरम्॥
वशिष्ठं च तथाऽन्यत्रकैकेयीं चान्ययोषितः॥ ४०॥

तीर्त्वा गंगां ययौ शीघ्रं भरद्वाजाश्रमं प्रति॥
दूरेस्थाप्यमहा सैन्यं भरतः सानुजो ययौ॥ ४१॥

आश्रमे मुनिमासीनं ज्वलं तमिव पावकम्॥
दृष्ट्वा ननामभरतःसाष्टांगमतिभक्तितः॥ ४२॥

औ तैसे ही सीता औ लक्ष्मण इनके विषे भक्ति है औ चित्रकूट पर्वत के समीप औ मंदाकिनी के समीप अर्थात् चित्रकूट मन्दाकिनी के मध्य में ३६ और मुनियों के आश्रमों के समीप शुभाश्रम में सीता लक्ष्मण सहित राम स्थित हो रहे हैं ३७ तहां शीघ्र ही चलेंगे परन्तु प्रथम गंगा जी को उतरने के योग्य हौ ऐसा वचन निषाद कहिकै पांचसौ नौकाओं को भृत्यों के द्वारा मंगाता हुआ ३८ तौ भरतजी की सेना के पार होने को औ राजा के योग्य नौका को तो गुह आप ही लावता हुआ ३९ उस नौका में भरत को औ शत्रुघ्न को औकौशल्या को औ वशिष्ट को बैठाइकै औ दूसरी नौका में केकयी को और अवशिष्ट रानियों को बैठालके ४० गंगा को उतरिकै भरद्वाज के आश्रम को जाते हुये तहां बड़ी भारी सेना को आश्रम से बाहर स्थापन कर शत्रुघ्न सहित भरद्वाज के समीप जाते हुये ४१ वहां आश्रम में अग्नि के तुल्य प्रकाशमान जो भरद्वाज मुनि तिनको देखके भरत जी बड़ी भक्ति से साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करते हुये ४२॥

ज्ञात्वादाशरथिं प्रीत्या पूजयामासमौनिराट्॥
पप्रच्छकुशलं दृष्ट्वा जटावल्कलधारिणम्॥ ४३॥

राज्यप्रशासतस्तेऽद्यकिमेयद्वल्कलादिकम्॥
आगतोऽसि किमर्थंत्वं विपिनं मुनिसेवितम्॥ ४४॥

भरद्वाजवचः श्रुत्वाभरतः साश्रुलोचनः॥
सर्वं जानासि भगवन्सर्वभूताशयस्थितः॥४५॥

तथापिपृच्छसे किंचित्तदनुग्रह एव मे॥
कैकेय्यायत्कृतं कर्म रामराज्य विघातनम्॥ ४६॥

वनवासादिकं वापिनहिजानामि किंचन॥
भवत्पादयुगमेऽद्य प्रमाण मुनिसत्तम॥ ४७॥

इत्युक्त्वापादयुगलं मुनेः स्ष्टष्ट्वाऽर्तमानसः॥
ज्ञातुमर्हसिमां देव शुद्धो वा शुद्ध एवं वा॥ ४८॥

मम राज्येन किं स्वामिन् रामेतिष्ठतिराजनि॥
किंकरोऽहं मुनिश्रेष्ठ रामचन्द्रस्य शाश्वतः॥ ४९॥

तौ मुनिराज भरद्वाज जी भरत को दशरथ का पुत्र जान के प्रीति करके पूजनकरते हुये औजटा औ बल्कल वस्त्र धारण करके भरत को देखके कुशल पूछते हुये ४३ औ भरद्वाज यह कहते हुये कि राज्य की शिक्षा करते हुये तुम हौ तिनको जटा बल्कलादिकों से क्या प्रयोजन है और कौन प्रयोजन से मुनिसेवित जो वन है तिसको तुम आये हौ ४४ भरद्वाज का आशय यह है कि राम के संग कछु पापदृष्टि करके तौ नहीं आये हो सो अब भरद्वाज के वचन सुनिके अश्रुपात करते हुये भरत बोले कि हे भगवन् सब प्राणियों के अन्तःकरण में स्थित होके आप सबके हृदय का भाव जानते हो ४५ तौ भी मुझसे जो वन के आगमन का कारण पूछते हौ सो मेरे ऊपर आप का परम अनुग्रह है औ हे भगवन् जो कुछ कैकेयी ने राम के राज्य का विघातन रूप कर्म किया ४६ और जो बनबासादि कर्म किया तिसको मैं कुछ भी नहीं जानता हौं अर्थात् मेरी संगति बिना ही इसने यह काम किया है है मुनि सत्तम इसमें प्रमाण आपके दोनों चरण कमल ही हैं ४७ यह कहि के मुनिके दोनों चरणों को हाथ से स्पर्श कर बड़े दुःखित मन से कहता हुआ कि हे देव आप ही मुझ को जानने के योग्य हैं कि मैं शुद्ध हौंअथवा शुद्ध हौं ४८ औहे स्वामिन् राम राजा स्थित होत संते मुझको राज्य करके क्या प्रयोजन है हे मुनि श्रेष्ठ मैं तो राम चन्द्रका नित्य किं कर ही हौं ४६॥

अतोगत्वा मुनिश्रेष्ठरामस्य चरणांतिके॥
पतित्वा राज्यसंभारान्समर्प्यात्रैवराघवम्॥ ५०॥

अभिषेक्ष्येवशिष्ठाद्यैः पौरजानपदैः सह॥
नेष्येऽयोध्यां रमानाथदासः सेवेऽतिनीचवत्॥ ५१॥

इत्यदीरितमाकर्ण्य भरतस्य वचोमुनिः ॥
आलिंग्य मूर्ध्न्यचाघ्रायप्रशशंस सविस्मयः॥ ५२॥

वत्सज्ञातं पुरैवैतद्भविष्य ज्ञानचक्षुषा॥
माशुचस्त्वं परोभक्तः श्रीरामे लक्ष्मणादपि॥ ५३॥

आतिथ्यं कर्तुमिच्छामि ससैन्यस्यतवानघ॥
अद्य भुक्त्वा ससैन्यस्त्वं श्वोगंतारामसन्निधिम्॥ ५४॥

यथाज्ञापयति भवांस्तथे

ति भरतो ब्रवीत्॥
भरद्वाजस्त्वपः स्ष्टष्ट्वा मौनीहोम गृहेस्थितः॥ ५५॥

दध्यौ कामदुघां कामवर्षिणीकाम दोमुनिः॥
असृजत्कामधुक्सर्वंयथा काममलौकिकम्॥ ५६॥

इससे हे मुनिश्रेष्ठ राम के चरण के समीप जाकर औचरणों पै गिरके राज्य की सामग्री समर्पणकर ५० चित्रकूट में ही वशिष्ठादि मुनियों करके सहित राम का अभिषेककर सब पुरबासी और देश के मनुष्यों करके सहित लक्ष्मीनाथ जो राम हैं तिनको अयोध्या में ले जाऊंगा और फिर मैं दास होके अति नीच के सदृश सेवन करूंगा ५१ ऐसे भरत के कहे हुये वचन भरद्वाज मुनि सुनके भरत को हृदय से लगाकर औ शिरमें संघकै आश्चर्य युक्त हो प्रशंसा करते हुये ५२ हे वत्स यह संपूर्ण भविष्य नाम होने वाला वनवासादि ज्ञानदृष्टि करिकै पहिले ही मैंने जान लिया थाइससे तुम मत शोच करौऔर यह मैं जानता तुम श्रीराम के बिषे लक्ष्मण से भी अधिक भक्त हौ ५३ औ हे अनघनिष्पाप सेनाकरके सहित तुम्हारा सत्कार किया चाहता हौंइससे सेना सहित आजु इहां भोजन करिकै प्रातःकाल रामके समीप जावोगे ५४ तौ भरतजी कहते हुये जैसे आप आज्ञा करते हैं वही होगा और भरद्वाज तो आचमन करके अग्निहोत्रशाला में प्रवेशकर मौन होकै ५५ कामों की वृद्धिकरने वाली जो कामधेनु है तिसका ध्यान करते हुये फिर कामधेनु आकै संपूर्ण अलौकिक पदार्थ रचती हुई जैसी जिसकी कामना है तैसे सब पदार्थों को उत्पन्न करती हुई ५६॥

भरतस्य ससैन्यस्य यथेष्टं च मनोरथम्॥
तथाववर्ष सकलं तृप्तास्तेसर्व सैनिकाः॥ ५७॥

वशिष्टं पूजयित्वाग्रेशास्त्रदृष्टेन कर्मणा॥
पश्चात्ससैन्यं भरतं तर्पयामासयोगिराट्॥ ५८॥

उषित्वादिनमेकंतु आश्रमे स्वर्गसंनिभे॥
अभिवाद्यपुनः प्रातर्भरद्वाजंसहानुजः॥
भरतस्तुकृतानुज्ञः प्रययौरामसन्निधिम्॥ ५९॥

चित्रकूटमनुप्राप्यदूरे संस्थाप्य सैनिकान्॥
रामसंदर्शनाकांक्षी प्रययौभरतः स्वयम्॥ ६०॥

शत्रुघ्नेन सुमंत्रेण गुहेन च परंतपः॥
तपस्वि मंडलं सर्वं विचिन्वानोन्यवर्त्तत॥ ६१॥

अदृष्ट्वा रामं भवनम पृच्छदृषिमंडलम्॥
कुत्रास्ते सीतया सार्द्धंलक्ष्मणेन रघूत्तमः॥ ६२॥

ऊचुरग्रेगिरेः पश्चात् गंगाया उत्तरेतटे॥
विविक्तं राम सदनं रम्यं काननमंडितम्॥ ६३॥

अब सेनासहित जो भरतहैं तिनको जैसे मनोरथ इष्ट है तैसा ही कामधेनु

वृष्टि करतीहुई है जिससे सेनाके सब मनुष्य तृप्त होजातेहुये ५७ प्रथम तौ भरद्वाज शास्त्रोक्तविधानकरिकै वशिष्ठका पूजन करिकै फिर सेनासहित भरत को तृप्तकरतेहुये ५८ इसप्रकार स्वर्गतुल्य जो आश्रम तिसमें एकदिन बासकर फिरि प्रातःकाल शत्रुघ्न सहित जो भरत सो भरद्वाजको प्रणामकरि भरद्वाज मुनिकी आज्ञालेके रामके समीप जातेहुये ५९ अब चित्रकूट के समीप प्राप्त होके सेनाको दूर स्थापनकर राम दर्शनकी अभिलाषा जिनको ऐसे जो भरत सो आपही जातेहुये ६० फिर शत्रुघ्न औ सुमन्त्र और गुह इनकरिकै सहित तपस्वियों के समूहमें रामको ढूंढते २ निवृत्तहो ६१ राम के मन्दिरको नहीं देखके ऋषियों से भरत पूछतेहुये कि सीता लक्ष्मण सहित रघुवंशियों में श्रेष्ठ राम कहां बसते हैं ६२ तो ऋषिलोगोंने कहा हेभरत पर्वतके आगे औ मंदाकिनी के उत्तर तटमें एकान्त देश में और सुन्दर वन करिकै भूषित राम का स्थान है ६३॥

सफलैराम्रपनसैः कदलीखंडसंवृतम्॥
चंपकैः कोविदारैश्च पुन्नागैर्विपुलैस्तथा॥६४॥

एवं दर्शितमालोक्य मुनिभिर्भरतोऽग्रतः॥
हर्षाद्ययौ रघुश्रेष्ठभवनं मंत्रिणा सह॥६५॥

ददर्शदूरादतिभासुरं शुभं
रामस्य गेहं मुनिवृंदसेवितम्॥
वृक्षाग्रसल्लग्नसुवल्कलाजिनं

रामाभिरामम्भरतः सहानुजः॥६६॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे अयोध्याकाण्डे अष्टमः सर्गः॥८

फलों करिकै सहित जो आम औ कटहर तिन करिकै शोभितहै औ केलेके वृक्षों के समूह करिकै शोभितहै औ कोविदार औ पुन्नाग औ चंपक इनकरके शोभितहै ६४ इसप्रकार मुनियों करिकै दिखायाहुआ जो राम मन्दिर तिलको अगाड़ी से देखके बडे हर्षसे मन्त्री करिकै सहित भरत श्रीराम भवनको जाते हुये ६५ अब दूरही से भासुर अर्थात् प्रकाशमान और कल्याण के देनेवाला औरमुनि समूह करिकै सेवित और बृक्षके अग्रभागमें लटकराहाहै सुन्दर बल्कल मृगचर्म जिसमें और श्रीरामके बासकरने से अत्यंत रमणीय ऐसा जो रामका गृहहै तिसको शत्रुघ्न सहित भरत देखते हुये ६६॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे अयोध्याकाण्डे भाषाटीकायामष्टमः सर्गः ८॥

श्रीमहादेव उवाच॥

अथ गत्वाऽश्रमपदसमीपम्भरतो मुदा॥
सीतारामपदैर्युक्तं पवित्रमतिशोभनम्॥१॥

स तत्र वज्रांकुशवारिजांचि-

तध्वजादिचिन्हानि पदानि सर्वतः॥
ददर्श रामस्य भुवोऽतिमङ्गला-
न्यचेष्टयत्पादरजः स सानुजः॥२॥

अहो सुधन्योऽहममूनि राम-
पादारविंदांकितभूतलानि॥
पश्यामि यत्पादरजो विमृग्यं
ब्रह्मादिदेवैः श्रुतिभिश्च नित्यम्॥३॥

इत्यद्भुतप्रेमरसाप्लुताशयो
विगाढ़चेता रघुनाथभावने॥
आनंदजाश्रुस्नपितस्तनांतरः
शनैरवापाश्रमसन्निधिं हरेः॥४॥

स तत्र दृष्ट्वा रघुनाथमास्थितं
दूर्वादलश्यामलमायतेक्षणम्॥
जटाकिरीटं नववल्कलांबरं
प्रसन्नवक्त्रंतरुणारुणद्युतिम्॥५॥

विलोकयंतं जनकात्मजां शुभां
सौमित्रिणा सेवितपादपंकजम्॥
तदाऽभिदुद्राव रघूत्तमं शुचा
हर्षाच्च तत्पादयुगं त्वराऽग्रहीत्॥६॥

रामस्तमाकृष्य सुदीर्घबाहु-
र्दोर्भ्यां परिष्वज्य सिषिंच नेत्रजैः॥
जलैरथांकोपरि संन्यवेशयत्
पुनः पुनः संपरिषस्वजेविभुः॥७॥

दो० नवम सर्ग्ग में रामके भरत परेहैंपाइ॥
गुरुबोधित लौटेपुरहि राम खड़ाऊँ पाइ १॥

अब श्रीमहादेवजी पार्वतीसे कहतेहैं हे पार्वति अब इसके उपरान्त भरतजी बड़े आनन्दसे सीतारामके चरणोंके चिह्नों करिके युक्त औअति पवित्र औ अतिशोभन १ रामके आश्रम के समीप स्थानको प्राप्तहोकै वहांवज्र अंकुश कमल ध्वजा इनचिह्नों करिकै युक्त जोरामके चरण तिनके जोपृथिवी के मंगल करनेवाले चिह्न तिनको शत्रुघ्नसहित भरतजी देखतेहुये और फिर रामके चरणों की धूलियों में लोटते हुये २ और यह कहतेहुये कि बड़ामेराभाग्य औमैं धन्यहौं जो मैं आश्चर्य युक्त रामके चरणारविन्दों करके चिह्नित पृथिवीतलों को देखताहौं जिनचरणोंकी रज ब्रह्मा आदि देवगणों करके औ श्रुतियोंकरकेभी विमृग्य अर्थात् ढूंढने योग्यही है साक्षात् दर्शन तौजिसका प्रतिदुर्लभहै ३ इसप्रकार करके अद्भुत जोप्रेमरस नाम प्रीतिरस तिसकरिकै व्याप्त है अन्तःकरण जिसका औ श्रीरामके ध्यानमें तत्परहै चित्त जिसका और आनंद के आंसुओंकरके स्नानकरायाहै स्तनोंका मध्यभाग जिसने ऐसा जोभरत है सोधीरेधीरे रामके आश्रम के निकट पहुंचताहुआ ४ सोभरत तिस आश्रम में स्थितनाम वैठेहुये और दूर्वादल के तुल्यश्यामवर्ण औ विस्तृत हैं नेत्र जिसके औ जटामुकुटको धारण करे और नवीन वल्कल वस्त्रको धारण करे औ प्रसन्न है मुखारविंद जिसका औ तरुण सूर्यकेतुल्य प्रकाशयुक्त ५ औ सीताको देख रहे हैं औ लक्ष्मण करके सेवित हैं चरणकमल जिसके ऐसे जो रामचन्द्र तिन को भरत देखकै सन्मुख दौड़तेहुये औ फिर आनन्दसे श्रीरामचन्द्रजीके चरण

युगलबेग करके ग्रहणकरते हुये अर्थात् चरणके समीप दण्डवत् गिरके हाथ बढ़ाके चरणोंको ग्रहण करते हुये ६ तबलम्बायमान है भुजा जिसकी ऐसेजो रामचन्द्र सो भरतको भुजाओंसे उठाकर हृदयसे आलिंगनकर नेत्रोंकेजलसे सिंचनकरतेहुये औफिर भरत को गोदमें बिठाकर बारम्बार आलिंगन करते हुये ७॥

अथ ता मातरः सर्वाः समाजग्मुस्त्वरान्विताः॥
राघवं द्रष्टुकामास्तास्तृषार्त्ता गौर्यथा जलम्॥८॥

रामः स्वमातरं वीक्ष्य द्रुतमुत्थाय पादयोः॥
ववंदे साश्रु सा पुत्रमालिंग्यातीव दुःखिता॥९॥

इतराश्च तथा नत्वा जननी रघुनन्दनः॥
ततः समागतं दृष्ट्वा वशिष्ठं मुनिपुङ्गवम्॥१०॥

साष्टांगं प्रणिपत्याह धन्योऽस्मीति पुनः पुनः॥
यथाऽर्हमुपवेश्याह सर्वानेव रघूद्वहः॥११॥

पिता मे कुशली किं वा मां किमाहातिदुःखितः॥
वशिष्ठस्तमुवाचेदम्पिता ते रघुनन्दन॥१२॥

त्वद्वियोगाभितप्तात्मा त्वामेव परिचिन्तयन्॥
रामरामेति सीतेति लक्ष्मणेति ममार ह॥१३॥

श्रुत्वा तत्कर्णशूलाभं गुरोर्वचनमंजसा॥
हा हतोऽस्मीति पतितो रुदन्रामः सलक्ष्मणः॥१४॥

अब इसके उपरान्तकौशल्याआदि जो संपूर्ण मातातेराम के देखने को बड़ेबेग करकै आवती हुईं जैसे प्यासकरिकै पीड़ित गौजलके ऊपर गिरै ८रामअपनी माताजी कौशल्या तिसको देखकै शीघ्रही उठकर चरणोंमें प्रणाम करतेहुये और माता कौशल्यानेत्रोंसे आंशुओं को छोड़ती हुई पुत्रको आलिंगनकर अत्यंत दुःखित होती हुई ९ फिर श्रीराम और सब माताओंको भी तिसी प्रकार से प्रणामकर आवतेहुये वशिष्ठको देखकै १० उठकर दण्डवत् प्रणामकर मैं आपकेदर्शन से धन्यहुआ यह बारम्बार कहतेहुये फिर यथायोग्य सबसे मिलकै औ आसनपै बिठालकर बोल तेहुये ११ कि पितामेरा कुशल युक्त है औ अतिदुःखितहो मुझसे क्या कहताहुआ तब वशिष्ठजी रामसे कहतेहुये कि हेरघुनंदन तुम्हारा पिता १२ तुम्हारे वियोग से संतप्तहोकै हेराम हेराम हे सीते हेलक्ष्मण ऐसे वचन कहते कहते और तुम्हाराही स्मरण करताहुआ शरीर को त्याग देता हुआ १३ तब लक्ष्मण सहित श्रीरामचन्द्र कानोंको शूलके तुल्य ये साक्षाद् गुरुका वचन सुनिकै हा हतोस्मि ऐसा वचन कहिकै अर्थात् मैं हत हुआ यह कहिकैरोते हुये पृथ्वी में गिरपड़तेभये १४ ॥

ततोनुरुरुदुः सर्वा मातरश्च तथाऽपरे॥
हा तात मां परित्यज्य क्व गतोऽसि घृणाकर॥१५॥

अनाथोऽस्मि महाबाहो मां को वा लालयेदितः॥
सीता च लक्ष्मणश्चैव विलेपतुरतो भृशम्॥१६॥

वशिष्टः शांतवचनैः श

           मयामास तां शुचम्॥  

ततो मंदाकिनीं गत्वा स्नात्वा ते वीतकल्मषाः॥१७॥

राज्ञे ददुर्जलं तत्र सर्वे तेजलकांक्षिणे॥
पिंडान्निर्वापयामास रामो लक्ष्मणसंयुतः॥१८॥

इंगुदीफलपिण्याकरचितान्मधुसंहतान्॥
वयं यदन्नाः पितरंस्तदन्नाःस्मृतिनोदिताः॥१९॥

इति दुःखाश्रुपूर्णाक्षः पुनः स्नात्वा गृहं ययौ॥
सर्वेरुदित्वा सुचिरं स्नात्वा जग्मुस्तथाऽश्रमम्॥२०॥

तस्मिंस्तु दिवसे सर्वे उपवासं प्रचक्रिरे॥
ततः परेद्युर्विमले स्नात्वा मंदाकिनीजले॥२१॥

तिसके अनन्तर सबमाता औ और भीजन रोवतेहुये और राम यहकहते हुये कि दया के समुद्र पिता आप मुझको त्यागकरके कहांगये १५ औ हेमहावाहो मैं अब अनाथहुआ और अब आपके बिना मेरा कौन लाड़करैगा ऐसे रामकेविलाप के अनन्तर सीता औ लक्ष्मण येभी अत्यंत विलापकरतेहुये १६ तौ वशिष्ठजी शान्तिके बचनोंकरिकै शोकको शांत करते हुये तब मंदाकिनीनदी को जाके स्नानकरके सब शुद्धहोते हुये १७ फिर रामके हाथसे जलकी इच्छा करताहुआ जो राजादशरथ तिसके अर्थ राम औ सीता औ लक्ष्मण ते जल देते हुये फिर लक्ष्मण युक्त रामसो पिताके अर्थ पिंडदेते हुये १८ इंगुदी जो गोंदनी तिसके फलोंकरिकै रचित औ सहत से मिलाये हुये जे पिंड तिनको देते हुये न कहो राजाके योग्य बहुमूल्य अन्नके पिंड देनाचाहिये इससे राम कहते हुये कि जो अन्न हम भोजनकरते हैं वही अन्न हमारे पितरोंका भी है इस प्रकार के धर्मशास्त्रके वचनकरिकै प्रेरेहुये हम १९ आपको इस वनफल के पिंडों को देतेहैं यह कहकर आंशुओं से पूर्णहैं नेत्रजिसके ऐसे जो राम सो पिंड दानकरिकै और फिर स्नान करिकै गृहको आतेहुये और सबभी बहुतकाल रोकर औ स्नान करिकै आश्रमको आतेहुये २० उसदिन तौ सबजने उपवास करते हुये तिसके दूसरे दिन निर्मल मंदाकिनी के जल में स्नानकर २१ ॥

उपविष्टं समागम्य भरतो राममब्रवीत्॥
राम राम महाभाग स्वात्मानमभिषेचय॥२२॥

राज्यं पालयपित्र्यन्ते ज्येष्ठस्त्वं मेपितातथा॥
क्षत्रियाणामयं धर्म्मो यत्प्रजापरिपालनम्॥२३॥

इष्ट्वा यज्ञैर्बहुविधैः पुत्रानुत्पाद्य तंतवे॥
राज्येपुत्रं समारोप्य गमिष्यसि ततो वनम्॥२४॥

इदानीं वनवासस्य कालो नैव प्रसीद मे॥
मातुर्मे दुष्कृतं किंचित्स्मर्त्तुन्नार्हसि पाहि नः॥२५॥

इत्युक्त्वा चरणौ भ्रातुः शिरस्याधाय भक्तितः॥
रामस्य पुरतः साक्षाद्दणडवत्पतितो भुवि॥२६॥

उत्थाप्य राघवः शीघ्रमारोप्यांकेतिभक्तितः॥
उवाच भरतं रामः स्नेहार्द्रनयनः शनैः॥२७॥

शृणु वत्स प्रवक्ष्यामि

         त्वयोक्तं यत्तथैव तत्॥  

किन्तु मामब्रवीत्तातो नव वर्षाणि पञ्च च॥२८॥

आसनपै बैठे हुये जो राम तिनके पास जाकर भरत बचन बोलतेहुये कि हे राम हेराम महाभाग अपना अभिषेक कराइये २२ और जिसकारणसे आप ज्येष्ठ हैं इससे पितासे प्राप्तहुआ जोराज्य तिसकी रक्षाकरिये औ मुझको तौ जैसे दशरथपिता रहे तैसे आपहैं औ क्षत्रियों का यहीधर्म है जो प्रजाकापरिपालन करना २३ और बहुत प्रकार के यज्ञों करिकै देवतों का पूजनकरिकै और वंशकी वृद्धिके अर्थ पत्रोंको उत्पन्नकर औरराज्यकेबिषे पुत्रको स्थापन कर तब वनको जावोगे २४ और इससमय में आपके वनवासका समयनहीं है इससे मेरे ऊपर प्रसन्नहू जिये और मेरी माताका जो अपराध है तिसके स्मरण करने योग्य नहीं और मेरीरक्षा करिये २५ यह कहिकै भरत भक्ति करिकै भाई के चरण शिरके ऊपर धारणकरके औ साक्षात् रामके आगे पृथिवीमें दण्डवत्गिर पड़ताहुआ २६ तब श्रीरामचंद्र शीघ्रही भरतको उठाकर अतिप्रीतिसेगो दमें बिठालकर स्नेहकरकेनयनोंसे जल छोड़ते हुये भरतसे धीरेसे वचनबोलते हुये २७ हेक्स सुनो जो तुमने वचन कहे सो तैसेही हैं परंतु पितामुझ से यह वचन कहता हुआ कि तुम चौदहवर्ष पर्य्यंत दण्डकारण्य में वासकरौ २८॥

उषित्वा दण्डकारण्ये पुरं पश्चात्समाविश॥
इदानीं भरतायेदंरा ज्यंदत्तंमयाऽखिलम्॥२९॥

ततः पित्रैव सुव्यक्तं राज्यं दत्तं तवैव हि॥
दण्डकारण्यराज्यं मे दत्तं पित्रा तथैव च॥३०॥

अतः पितुर्वचः कार्यमावाभ्यामतियत्नतः॥
पितुर्वचनमुल्लंघ्य स्वतन्त्रो यस्तु वर्त्तते॥३१॥

स जीवन्नेव मृतको देहान्ते निरयं व्रजेत्॥
तस्माद्राज्यं प्रशाधि त्वं वयं दण्डकपालकाः॥३२॥

भरतस्त्वब्रवीद्रामं कामको मूढधीः पिता॥
स्त्रीजितो भ्रान्तहृदय उन्मत्तो यदि वक्ष्यति॥
तत्सत्यमिति न ग्राह्यं भ्रान्तवाक्यं यथा सुधीः॥३३॥

राम उवाच॥

न स्त्रीजितः पिता ब्रूयान्न कामी नैव मूढधीः॥
पूर्वं सेतिश्रुतं तस्य सत्यवादी ददौ भयात्॥३४॥

असत्याद्भीतिरधिका महतांनर कादपि॥
करोमीत्यहमप्येतत्सत्यं तस्यै प्रतिश्रुतम्॥३५॥

तिसके उपरान्त पुरमें प्रवेशकरौ और इससमयतौ संपूर्ण राज्य मैंने भरत को दिया २९ तौ फिर पिताहीने प्रकट जैसेहोय तैसे तुमहीं को राज्यदियाहै तैसेही दंडकारण्यका राज्य मुझको दियाहै ३० इससे हम और तुम इन दोनों जनको अत्यन्त यत्न करिकै पिताका वचन करना चाहिये और पिताका वचन उल्लंघन करके जो स्वतन्त्रहोके वर्तताहै ३१ सो जीवतेही मरे के तुल्य है और

देह के अंतमें नरकको जाताहै इससे राज्यकी तौतुम रक्षाकरौ और दंडक वनकी हम रक्षाकरैं ३२ तो भरतजी फिर रामसे कहते हुये कि हेराम पिता तौ कामीरहा और मूढ़बुद्धिरहा और स्त्रीजितरहा और भ्रांत हृदयरहा और इसी से उन्मत्त रहा तौ ऐसा पिता जो वचन कहै सो सत्यमान के नहीं ग्रहण करना चाहिये जैसे भ्रमयुक्त पुरुष के वचनकोई पंडित नहीं ग्रहण करताहै ३३ तब राम कहतेहुये कि हे भरत कि पिता स्त्रीजित होके नहीं कहताहुआ और न पिताकामीरहा और न पिता मूढ़बुद्धिरहा क्या तो जो पूर्वही प्रतिज्ञाकीथी उसके मंगके भयेते सत्यवादी पिता कैकेयीको वर देताहुआ ३४ तात्पर्य यहहै कि जिस समयमें कैकेयीको दोबरदेने कहेथे उस समयमें कुछ कामी वा स्त्रीजित वा भ्रांत हृदय न था अब इससमयमें यद्यपि कामीरहा परन्तु पहिले कहेहुयेको सत्यबादी राजा मूंठकैसे करसक्ता है सोई रामभरतसे फिर कहते हैं कि हेभरत महात्मा पुरुषोंको नरकसे भी अधिकभय मिथ्याबादसे होतीहै यह मैं करौंगा ऐसे जो तिस कैकेयी के अर्थ मैंने प्रतिज्ञाकी है अर्थात् मैं वनको जाताहौं यह कैकेयी से कहिचुकाहौं उस वचनको अब मिथ्या कैसेकरौं३५॥

कथं वाक्यमहं कुर्य्यामसत्यं राघवो हि सन्॥
इत्युदीरितमाकर्ण्य रामस्य भरतोब्रवीत्॥३६॥

तथैव चीरवसनो वने वत्स्यामि सुव्रत॥
चतुर्दश समास्त्वं तु राज्यं कुरु यथासुखम्॥३७॥

राम उवाच॥

पित्रा दत्तन्तवैवैतद्राज्यं मह्यं वनं ददौ॥
व्यत्ययं यद्यहं कुर्य्यामसत्यं पूर्ववत्स्थितम्॥३८॥

भरत उवाच॥

अहमप्यागमिष्यामि सेवे त्वां लक्ष्मणो यथा॥
नोचेत्प्रायोपवेशेन त्यजाम्येतत्कलेवरम्॥३९॥

इत्येवं निश्चयं कृत्वा दर्भानास्तीर्य चातपे॥
मनसापि विनिश्चित्य प्राङ्मुखोपविवेश सः॥४०॥

भरतस्यापि निर्बंधं दृष्ट्वा रामोऽतिविस्मितः॥
नेत्रान्तसंज्ञां गुरवे चकार रघुनन्दनः॥४१॥

एकान्ते भरतं प्राह वशिष्ठो ज्ञानिनां वरः॥
वत्स गुह्यं शृणुष्वेदं मम वाक्यात्सुनिश्चितम्॥४२॥

** **और रघुकुल में उत्पन्नहो अर्थात् कोई रघुकुलमें मिथ्यावादी नहीं हुआ मैं कैसे होवों अब ऐसे रामके वचन सुनिकै भरत कहतेहुये कि ३६ हेराम जैसे आपने वनके जाने की प्रतिज्ञाकी उस आपकी प्रतिज्ञा सत्य करने को आपके बदले मैं चीरवस्त्र धारणकारि चौदहवर्ष पर्यंत वनमें वास करौंगा आप सुखपूर्वक राज्य करिये ३७ तब फिर राम कहतेहुये कि हे भरत पिताने राज्य तुमहीं को दियाहै भौ मेरे अर्थ वन देतेहुये इसमें जो बदला मैंकरौंतौ मिथ्या तौ

पहिलेकी तरह बनाहीरहा अर्थात् और का काम और करैयह अशक्ततामें कहा है ३८ तब भरत फिर रामचन्द्रसे कहतेहुये कि हेराम तुम्हारा ऐसाही निश्चय है तो मैंभी तुम्हारे संग बनहीं को चलौंजैसे लक्ष्मण शुश्रूषा करते हैं तैसे मैं भीशुश्रूषामें तत्पर होंगा और जो आपनहीं प्रार्थना स्वीकार करौगे तो प्रायोपवेशन कर अर्थात्, अन्न जल त्यागकर शरीरको त्याग देऊंगा ३९ अब भरतऐसा निश्चयकर कुशोंको घाममें बिछाकर और मनसे भी निश्चय करके पूर्व को मुखकरके कुशोंकेऊपर बैठते हुये ४० अब ऐसा भरतका हठदेखके प्रतिविस्मित जो रामसो नेत्रोंका इशारह वशिष्ठको करतेहुये अर्थात् भरतको इस आग्रहसे निवृत करो ऐसे इशारा करतेहुये ४१ तब ज्ञानियों में श्रेष्ठ जो वशिष्ठ सो एकान्त में भरतसे कहतेहुये कि हे वत्स यह निश्चय कियाहुआ गुह्यमत मेरे वाक्यसे सुनो ४२॥

रामो नारायणः साक्षाद्ब्रह्मणा याचितः पुरः॥
रावणस्य वधार्थाय जातो दशरथात्मजः॥४३॥

योगमायाऽपि सीतेति जाता जनकनंदिनी॥
शेषोऽपि लक्ष्मणो जातो राममन्वेति सर्वदा॥४४॥

रावणं हन्तुकामास्ते गमिष्यंति न संशयः॥
कैकेय्या वरदानादि यद्यन्निष्ठुरभाषणम्॥४५॥

सर्वं देवकृतं नोचेदेवं सा भाषयेत्कथम्॥
तस्मात्त्यजाग्रहं तातरामस्य विनिवतने॥४६॥

निवर्त्तस्व महासैन्यैर्भ्रातृभिः सहितः पुरम्॥
रावणं सकुलं हत्वा शीघ्रमेवागमिष्यति॥४७॥

इति श्रुत्वा गुरोर्वाक्यं भरतो विस्मयान्वितः॥
गत्वा समीपं रामस्य विस्मयोत्फुल्ललोचनः॥४८॥

पादुके देहि राजेन्द्र राज्याय तव पूजिते॥
तयोः सेवां करोम्येव यावदागमनं तव॥४९॥

** **रामसाक्षात् नारायणहैं सोपूर्व समय में रावणके बधके अर्थ प्रार्थना कियेहुये दशरथ के पुत्रहुयेहैं ४३ और जोयोगमाया नारायणकी शक्ति है सोई सीता हुईहै और शेषजी लक्ष्मणहुयेहैं सोसदा रामके अनुगामी रहतेहैं ४४ इससे रावणके मारनेकी इच्छाकरके ये अवश्य जायँगे इसमें कुछसंशय नहीं है और जोकैकेयीका वरदानादिक और कठोर बचन कहना ४५ सो संपूर्ण देवतोंका कृत्यहै और यह न होता तौऐसा सम्भाषण क्यों करती तिससे हेतात रामके लौटारने में जो आग्रह तिससे निवृत्तहोउ ४६ और सेनाकरके सहित अयोध्या को लौटजावो औराम सकुलरावणको मारके भाइयों सहित अयोध्यामें प्रवेशकरेंगे ४७ तब ऐसे गुरूके वचनसुनिकै आश्चर्ययुक्त जो भरतहै सो राम के समीपजाके यह कहता हुआ कि ४८हे राजेन्द्रराज्य करने के अर्थ पूजित जो

अपनी पादुकाहैं अर्थात् खड़ाऊं तिनको दीजिये फिर दोनों पादुकाओंकी सेवा मैं करौंगा जबतक आपाआवोगे ४९॥

इत्युक्त्वापादुके दिव्ये योजयामास पादयोः॥
रामस्य ते ददौ रामो भरतायातिभक्तितः॥५०॥

गृहीत्वा पादुके दिव्ये भरतो रत्नभूषिते॥
रामं पुनः परिक्रम्य प्रणनाम पुनः पुनः॥५१॥

भरतः पुनराहेदं भक्त्या गद्गदया गिरा॥
नवपंचसमांते तु प्रथमे दिवसे यदि॥५२॥

नागमिष्यसि चेद्राम प्रविशामि महानलम्॥
वाढमित्येव तं रामो भरतं संन्यवर्त्तयत्॥५३॥

ससैन्यः सर्वशिष्टश्च शत्रुघसहितः सुधीः॥
मातृभिर्मंत्रिभिः सार्द्धं गमनायोपचक्रमे॥५४॥

कैकेयी राममेकांते स्रवन्नेत्रजलाकुला॥
प्रांजलिः प्राह हे राम तव राज्यविघातनम्॥५५॥

कृतं मया दुष्टधिया मायामोहितचेतसा॥
क्षमस्व मम दौरात्म्यं क्षमासारा हि साधवः॥५६॥

** **यह बचन कहिकै भरत दिव्य जो पादुका तिनको रामके चरणों में पहिराय देताहुआ फिर उनपादुकाओं को राम अतिप्रीति से भरतको देतेहुये ५० तबभरत रत्नोंकरिकै भूषित औदिव्यनाम अलौकिक अर्थात् देवनिर्मित ऐसी जोपादुकाहैंतिनको ग्रहणकरिकै औरामकी बारम्बारपरिक्रमाकरिकै औरबारम्बार प्रणाम करिकै ५१ यह वचन भक्तिपूर्वक गद्गदवाणी करिकै भरत बोलतेहुये कि चौदहवर्षके अन्तमें पहिले दिन ५२ जो आप नहीं आवोगे तो मै अग्निमें प्रवेश करूंगा तब रामचन्द्र ये भरतके वचन स्वीकार करिकै भरतको लौटावतेहुये ५३ तबसेना करिकै सहित और वशिष्ठकरिकै सहित औ शत्रुघ्न करिकै सहित और माता मन्त्री आदि प्रजाकरिकै सहित भरत गमनके अर्थ प्रारम्भ करतेहुये ५४ तबबहिरहा है नेत्रोंसे जल जिसके ऐसी जोकैकेयी सोहाथ जोड़के रामसे एकांतवचन बोलती हुई हे रामजो आपके राज्यका विघात मैंने मूढ़बुद्धिसेऔर आपकी मायाकरिकै मोहित चितकरिकै किया ५५ उसमेरे दौरात्म्यको क्षमाकरने योग्यहौ जिससे साधुजन क्षमासार होते हैं ५६॥

त्वं साक्षाद्विष्णुरव्यक्तः परमात्मा सनातनः॥
मायामानुषरूपेण मोहयस्यखिलं जगत्॥
त्वयैव प्रेरितो लोकः कुरुते साध्वसाधु वा॥५७॥

त्वदधीनमिदं विश्वमस्वतंत्रं करोति किम्॥
यथा कृत्रिमनर्तक्यो नृत्यंति कुहकेच्छया॥५८॥

त्वदधीना तथा माया नर्तकी बहुरूपिणी॥
त्वयैव प्रेरिताऽहं च देवकार्य्यं करिष्यता॥५६॥
पापिष्टम्पापमनसा कर्माचरमरिन्दुम॥
अद्य प्रतीतोऽसि मम देवानामप्यगोचरः॥६०॥

पाहि विश्वेश्वरा

      नन्त जगन्नाथ नमोस्तु ते॥  

छिंधि स्नेहमयं पाशं पुत्रवित्तादिगोचरम्॥६१॥

त्वज्ज्ञानामलखड्गेन त्वामहं शरणं गता॥
कैकेय्या वचनं श्रुत्वा रामः सस्मितमब्रवीत्॥६२॥

यदाह मां महाभागे नानृतं सत्यमेव तत्॥
मयैव प्रेरिता वाणी तव वक्त्राद्विनिर्गता॥६३॥

और तुम साक्षात् विष्णु भगवान् सनातन परमात्माहौऔर मायाहीकरिकै मानुषरूप सब जगत्को मोहित कर रहे हो और तुमहीं करिकै प्रेरित जगत् पाप वा पुण्य करता है ५७ और जब तुम्हारे आधीन यहजगत् है इसीसे अस्वतन्त्रहै इससे आपकेबिना क्याकरसता है अर्थात् कुछभी नहीं करसक्ता है जैसे काठकी पुतली सूत्रधार नचाने वाले की इच्छासे नृत्यकरती है ५८ तैसेही आपके आधीन जो माया सो नर्तकी के सदृश बहुत रूप धारणकररही है और देवोंके कार्य करनेको तुमहीं करके प्रेरितजोमैं हौं सो पापकर्म करतीहुई ५९ और देवतों को भी अगोचर जाननेको अशक्य ऐसेजो आपहै सोअब मुझ करिकै जानेगये ६० औ विश्वेश्वर हे अनन्त हे जगन्नाथ मेरी रक्षाकरिये और तुम्हारे अर्थ नमस्कारहै और हेभगवन् पुत्रमें औ धन आदि और पदार्थों में लगाहुआ जोस्नेहरूपी पाश अर्थात् फांसी तिसको काटिये ६१ अपने ज्ञानरूपी निर्मल खड्ग करिकै और तुम्हारे मैं शरण प्राप्तहुई हौंतबये कैकेयी के वचन सुनिकैमन्द मुसुक्यान करते श्रीरामचन्द्र वचन बोलते हुए ६२ हे महाभागे जो तूमुझसे कहतीहै सोझूठ नहीं है सत्यही है क्यों कि मोकरकेही प्रेरितवाणी देवतोंके कार्यके अर्थ तेरेमुख से निकलतीहुई ६३॥

देवकार्य्यार्थसिद्ध्यर्थमत्र दोषः कुतस्तव॥
गच्छत्वं हृदि मां नित्यं भावयन्ती दिवानिशम्॥६४॥

सर्वत्र विगतस्नेहा मद्भक्त्या मोक्षसेऽचिरात्॥
अहं सर्वत्र समदृद्वेष्यो वा प्रिय एव वा॥६५॥

नास्ति मे कल्पकस्येव भजतोऽनुभजाम्यहम्॥
मन्मायामोहितधियो मामम्ब मनुजाकृतिम्॥६६॥

सुखदुःखाद्यनुगतं जानन्ति न तु तत्त्वतः॥
दिष्ट्या मद्गोचरं ज्ञानमुत्पन्नं ते भवापहम्॥६७॥

स्मरन्ती तिष्ठ भवने लिप्यसे न च कर्मभिः॥
इत्युक्ता सा परिक्रम्य रामं सानंदविस्मया॥६८॥

प्रणम्य शतशो भूमौ ययौ गेहं मुदान्विता॥
भरतस्तु सहामात्यैर्मातृभिर्गुरुणा सह॥६९॥

अयोध्यामगमच्छीघ्रं राममेवानुचिंतयन्॥
पौरजानपदान् सर्वानयोध्यायामुदारधीः॥७०॥

तिसमें तेराक्या दोषहै और तुमजावो हृदयमें नित्य दिनरातमेराही ध्यान

करती हुई ६४ और सबजगहसे स्नेह त्यागकर मेरी भक्तिकर थोडेही काल में बन्धनसे छूटके परमपदको प्राप्तहोवोगी औहे कैकेयी मैंतौ सबमें समदर्शीहौं औ मेरे न कोई शत्रु है औन कोई मित्रहै ६५ जैसे मायावी पुरुषको अपने रचेहुये पदार्थमें न किसीमें प्रीतिहोती है और न किसीमें द्वेषहोता क्योंकि सब को वह मिथ्या जानताहै यह बात लोकमें प्रसिद्ध है कि जैसे इन्द्रजाली पुरुष अपनी मायासे रुपया पैसा व्याघ्रसर्पआदि नानाप्रकारकी वस्तुरचताहै परन्तु उसइन्द्रजाली को रुपयाआदि वस्तुमें प्रीति नहीं होती और व्याघ्राआदि पदार्थों में द्वेषनहीं होता अर्थात् भयनहीं होता क्योंकि दोनोंकों मिथ्याजानता है इससे तैसे परमेश्वर जो मैंहू सोभी अपने मायारचित पदार्थों में रागद्वेष नहीं करता हूं क्योंकि मैं जानताहूं कि ये पदार्थ सबमिथ्याहैं इसीसे मेरे शत्रु मित्रआदि कोई नहीं हैं तौभी जो कोई मेरा भजनकरताहै तिसको मैंभी भजाहूं क्योंकि कल्पवृक्षके तुल्य यह मेरास्वभावही है औहे अम्ब हे मातः जो कोई पुरुष मेरीमाया करिकै मोहित बुद्धि होरहे हैं वेमुझको सुख दुःखआदि धर्म्मोंको प्राप्त मनुष्यही जानते हैं ६६ और यह नहीं जानते कि मनुष्य कासाआकार अर्थात् स्वरूप तो इनकाहै और हैं ये साक्षात् प्रकृतिसे परे नारायण ऐसे तत्त्वकरयथार्थ मुझको नहीं जानते हैं और यह बड़े हर्षकी बात है कि संसारका नाशकरने वाला मेरा ज्ञान तुम्हको उत्पन्नहुआ ६७ और हे मातः मेरा स्मरणकरती हुई तू अपने मंदिरहीमें स्थितरह तौभी कर्म्मो करकै नहीं लिप्तहोगी ऐसे जब रामने कहा तो कैकेयी आनन्द और विस्मय अर्थात् आश्चर्य युक्तहोके ६८ रामकी परिक्रमा करिकै और पृथ्वी में पड़के सैकरों प्रणामकरके आनन्द पूर्वक गृहको जातीहुई और भरत तौ मनसे रामही का स्मरणकरतेहुये मन्त्री और माता और वशिष्ठ इन करिकै सहित शीघ्र अर्थात् जल्दी ६९ अयोध्याको जातेहुए और उदार है बुद्धि जिसकी ऐसा जो भरत है सो पुरवासी और अवध देशके मनुष्यों को ७०॥

स्थापयित्वा यथान्यायं नंदिग्रामं ययौ स्वयम्॥
तत्र सिंहासने नित्यं पादुके स्थाप्य भक्तितः॥७१॥

पूजयित्वा यथा रामं गंधपुष्पाक्षतादिभिः॥
राजोपचारैरखिलैः प्रत्यहं नियतव्रतः॥७२॥

फलमूलाशनो दांतो जटाबल्कलधारकः॥
अधःशायी ब्रह्मचारी शत्रुघ्नसहितस्तदा॥७३॥

राजकार्याणि सर्वाणि यावंति पृथिवीतले॥
तानि पादकयोः सम्यक्निवेदयति राघवः॥७४॥

गणयन्दिवसान्येव रामागमनकांङ्क्षया॥
स्थितो रामार्पितमनाः साक्षाद्ब्रह्ममुनिर्यथा॥७५॥

रामस्तु चित्रकूटाद्रौ वसन्मुनिभि

                     रावृतः॥  

सीतया लक्ष्मणेनापि किंचित्कालमुपावसत्॥७६॥

नागराश्च सदा यांति रामदर्शनलालसाः॥
चित्रकूटस्थितं ज्ञात्वा सीतया लक्ष्मणेन च॥७७॥

जहां जिसका स्थानथा वहां भिजवाकैऔर आपनन्दिग्रामको जातेहुये तहां सिंहासनके ऊपर उन पादुकाओं को स्थापनकर रामकी बुद्धिकरके गन्धपुष्प अक्षतादि करिकै नित्य भक्तिसे पूजन करतेहुये ७१ और राजके योग्य जो पूजनकी सामग्रियां हैं तिन्हों करके दिन दिन नियमसे पूजनकरतेहुये ७२ और शत्रुघ्न सहित आप भरतजी फल मूलका भोजन करतेहुये और इन्द्रियोंको वशकरतेहुये और जटा और बल्कल अर्थात् मुकुटाइनको धारण करते हुये और ब्रह्मचर्य व्रतको धारणकर भूमिमें शयन करतेहुये ७३ और पृथिवीपै जितने राजकार्य हैं अर्थात् जो कुछ खजानेमें धन आवताहै और जो कुछ व्यय अर्थात् खर्च होताहै और जो शास्त्रानुकूल कचहरी में फैसला होते हैं सो सब राज कार्य्यभरतजी खड़ाउँओंके आगे नित्य नित्य निवेदन करदेते हैं ७४ औ रामके आगमनकी इच्छाकरके नित्य दिनोंको गिनाकरते हैं औ रात्रि दिवस रामहीमें अर्पणकियाहै अर्थात् लगायाहै मन जिसने ऐसे भरत जी ब्रह्मर्षिके तुल्य तपकरतेहुये ७५ अब रामचन्द्र तौ चित्रकूट पर्वतपै मुनियों करके युक्त औ सीता लक्ष्मण सहित कुछ काल बासकरतेहुये ७६ तब वहां सीता लक्ष्मण करके सहित चित्रकूट स्थित अर्थात् ठहरेहुये रामचन्द्रको जानके दर्शन की इच्छाकरके शहरोंके और ग्रामोंके मनुष्य आते हुये ७७॥

दृष्ट्वातज्जनसंबाधं रामस्तत्याज तं गिरिम्॥
दंडकारण्यगमने कार्यमप्यनुचिन्तयन्॥७८॥

अन्वगात्सीतया भ्रात्रा ह्यत्रेराश्रममुत्तमम्॥
सर्वत्र सुखसंवासं जनसंबाधवर्जितम्॥७९॥

अत्रिं मुनिमुपासीनं भासयंतं तपोवनम्॥
दंडवत्प्रणिपत्याह रामोहमभिवादये॥८०॥

पितुराज्ञां पुरस्कृत्य दंडकानहमागतः॥
वनवासमिषेणापि धन्योहं दर्शनात्तव॥८१॥

श्रुत्वा रामस्य वचनं रामं ज्ञात्वा हरिं परम्॥
पूजयामास विधिवद्भक्त्या परमया मुनिः॥८२॥

वन्यैः फलैः कृतातिथ्यमपविष्टं रघुत्तमम्॥
सीतां च लक्ष्मणं चैव संतुष्टो वाक्यमब्रवीत्॥८३॥

भार्या मेतीव संवृद्धा ह्यनसूयेति विश्रुता॥
तपश्चरंती सुचिरं धर्म्मज्ञा धर्म्मवत्सला॥८४॥

तब श्रीरामचन्द्रजी बहुतसी भीर भार देखके और दण्डकारण्यमें राक्षासों का बधरूपकार्य भी करनाहै यह विचार कर के उस चित्रकूटको त्यागदेते हुये ७८

फिर सीता और लक्ष्मण करके सहित रामचन्द्र सब कालमें सुखदायक और मनुष्यों के समूह से रहित ऐसा जो अत्रिऋषि का उत्तम आश्रम तिसको जाकर ७९ उस आश्रममें बैठेहुये और तपोवनको प्रकाशमान कर रहे ऐसे अत्रिमुनि को रामचन्द्र दण्डवत् प्रणामकर मैं रामहूं आपको अभिवादन करता हूं अर्थात् नमस्कार करके आप से आशीर्वाद कहाया चाहता हूं ८० और पिताकी आज्ञा करके दण्डक वनको मैं आयाहूं और वनवास के मिषकरके अर्थात् छल करके जो आपके दर्शन हुये हैं तिसीसे मैं धन्यहुआ॥इसका आशय यह है कि पिता की आज्ञासे मुझको वनवास तो करनाही या तिस वनवास में आपके दर्शन हुये तिस दर्शनही से जब मैं धन्यहुआअर्थात् कतार्थ हुआ तो खास आपही के दर्शन करनेको जोघर से चलता तौआप के दर्शन से धन्य होता यह क्या कहनाहै ८१ अब अत्रिऋषि के राम के वचनसुन के राम को साक्षात् हरि अर्थात् नारायण जान के विधिवत् परमभक्ति करके पूजन करतेहुये अर्थात् जैसे शास्त्र में कहा है तैसे और बड़ी प्रीति से पूजन करतेहुये ८२ फिर वनके फलों करके करायाहै भोजन जिन्होंको ऐसे जो राम औ सीता औलक्ष्मण इनसे प्रसन्न हो त्रिसुनि वचन बोलते हुये ८३ कि मेरी भार्या जो अनसूयाहै सो अति वृद्धहै और बहुत काल तप करतीहुई औ धर्म जाननेवाली है और धर्मही प्रिय जिसकोऐसी है ८४॥

अंतस्तिष्ठति तां सीता पश्यत्वरिनिषूदन॥
तथेति जानकीं प्राह रामो राजीवलोचनः॥८५॥

गच्छ देवीं नमस्कृत्य शीघ्रमेहि पुनः शुभे॥
तथेति रामवचनं सीता चापि तथाऽकरोत्॥८६॥

दंडवत्पतितामग्रे सीतां दृष्ट्वाऽतिहृष्टधीः॥
अनसूयासमालिंग्य वत्से सीतेति सादरम्॥८७॥

दिव्ये ददौ कुंडलेद्वे निर्मिते विश्वकर्मणा॥
दुकूले द्वे ददौ तस्यै निर्मले भक्तिसंयुता॥८८॥

अंगरागं च सीतायै ददौदिव्यं शुभानना॥
न त्यक्ष्यतेंऽगरागेण शोभा त्वां कमलानने॥८९॥

पातिव्रत्यं पुरस्कृत्य राममन्वेहि जानकि॥
कुशली राघवो यातु त्वया सह पुनर्गृहम्॥९०॥

भोजयित्वा यथान्याय्यं रामं सीतासमन्वितम्॥
लक्ष्मणं च तथा रामं पुनः प्राह कृतांजलिः॥९१॥

रामत्वमेव भुवनानि विधाय तेषां
संरक्षणाय सुरमानुषतिर्यगादीन्॥
देहान्विभर्षि न च देहगुणैर्विलिप्त-
स्त्वत्तो विभेत्यखिलमोहकरी च माया॥९२॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे अयोध्याकाण्डे नवमः सर्ग्गः॥९॥

सो भीतर मन्दिरके बैठी है सो हे रामतिसको जाकर सीतादर्शन करैतब राजीवलोचन जो राम अर्थात् कमल सरीखे हैं विशाल नेत्र जिनके ऐसेजो राम सो सीता को आज्ञा देतेहुये कि तुम अनसूयाके दर्शनकरो ८५ और यह कहते हुये किहेशुभेसीते अर्थात् हे मंगलरूपे सीते तुमजाओ और देवी जो अनसूया तिसको नमस्कार कर के शीघ्रही भावो तब सीता भी राम वचन को तैसेही करती हुई ८६ तब अनसूया अपने आगे दण्डवत् प्रणाम करती सीताको देखके अतिप्रसन्नहोके हे वत्से हेसीते ऐसे आदरपूर्वक कहिके और हृदयसे बड़े आनन्दसे आलिंगन करके ८७ विश्वकर्माके रचेहुये दिव्य अर्थात् अलौकिक दो कुण्डल और दो दिव्यवस्त्र भी सीताजीके अर्थ भक्तियुक्त अनसूया देतीहुई ८८ और शुभ है आनन मुखारविन्द जिसका ऐसी जो अनसूया सो दिव्य जो अंगराग अर्थात् शरीर में लगाने का सुगन्ध द्रव्य तिसको देती हुई और यह कहती हुई कि हे कमलानने कमल तुल्य है मुख जिसका ऐसी जो तुम हौ सो मेरा वचन सुनौ इस अंगराग के शरीर में लगाने से शोभा कभी तुमको त्याग न करैगी ८९ औ हे जान कि हे सीते तुम पातिव्रत्य धर्म को आदर से ग्रहण करि रामके समीप जाओ अर्थात् स्त्रियका उत्तम आभूषण पतिही की प्रसन्नता अर्थ है इससे मेरे दिये वस्त्र आभूषण पहिरके और इस अंगरागको शरीर में लगाकर रामके समीप प्राप्तहोके अपनीशोभा रामके अर्थ समर्पणकर इतने अनसूया के कहने से सब पातिव्रत्य धर्म का उपदेश सूचित हुआ और हे सीते तुम करके सहित कुशलपूर्वक राम फिर गृहको आयेंगे ९० फिर शास्त्रकीविधिपूर्वक सीतासहित रामको और लक्ष्मणको भोजन कराके हाथ जोड़ कर रामसे वचन बोलती हुई ९१ हे राम तुमहीं सब लोकोंको रचिके फिर उनलोकों की रक्षा के अर्थ सुर और मनुष्य औतिर्यगादि देहोंको धारण करते हो तिसमें सुरदेह वामनआदि और मनुष्य देहराम आदि औ तिर्यग्देह मत्स्य वाराह आदि इनदेहोंको धारण करते हौऔर देहके गुणों करके लिप्त नहीं होते हो और सबको मोह करानेवाली जो माया है सो तुमसे भय करती अर्थात् डराकरती है क्योंकि तुम्हारे ज्ञान होतेहीं छिप जाती है ९२॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे अयोध्याकाण्डे श्रीमदुमादत्तकृतौ भाषाटीकायां नवमः सर्गः॥९॥ समाप्तश्चायमयोध्याकाण्डः॥२॥

___________________

श्रीगणेशायनमः

अथ अध्यात्मरामायण॥

आरण्यकाण्ड

भाषाटीकासहित

<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-17297545706.jpg"/>

श्रीमहादेव उवाच॥

अथ तत्र दिनं स्थित्वा प्रभाते रघुनन्दनः॥
स्नात्वा मुनिं समामंत्र्य प्रयाणायोपचक्रमे॥१॥

मुने गच्छामहे सर्वे मुनिमण्डलमण्डितम्॥
विपिनं दण्डकं यत्र त्वमाज्ञातुमिहार्हसि॥२॥

मार्गप्रदर्शनार्थाय शिष्यानाज्ञप्तुमर्हसि॥
श्रुत्वा रामस्य वचनं प्रहस्यात्रिर्महायशः॥३॥

सर्वस्य मार्गद्रष्टा त्वं तव को मार्गदर्शकः॥

तथापि दर्शयिष्यंति तव लोकानुसारिणः॥४॥

इति शिष्यान्समादिश्य स्वयं किंचित्तमन्वगात्॥
रामेण वारितः प्रीत्या अत्रिः स्वभवनं ययौ॥५॥

क्रोशमात्रं ततो गत्वा ददर्श महतीं नदीम्॥
अत्रेः शिष्यानुवाचेदं रामो राजीवलोचनः॥६॥

नद्याः संतरणे कश्चिदुपायो विद्यते न वा॥
ऊचुस्ते विद्यते नौका सुदृढा रघुनन्दन॥७॥

दो० प्रथम सर्ग आरण्यमें हतिविराध रघुनाथ॥
तिहिको निजपददेतपुनि स्तुतिकीन्हेगुणगाथ॥१॥

अबमहादेवजी पार्वतीजीसे कथा कहैहैं कि हे पार्वति जिसदिन चित्रकूटसे यात्राकीथी वा दिन. अत्रिऋषिके आश्रममें बासकर प्रातःकाल स्नानकरके दण्डकारण्य के जाइबेको मुनिसेआज्ञा मांगनेको यहवचन रामबोले कि १ हे मुने मुनियोंके समूहकरके शोभित जोदण्डक वन तिसको हमजाया चाहते हैं सो आपकृपाकर आज्ञादीजिये २ और मार्गके बतलानेको अपने शिष्योंको भी आज्ञाकीजिये तौयह रामकेवचन सुनिके बड़े यशस्वी अत्रिमुनि बोलते हुये कि हे राम आपसब देवतोंके आश्रयहो ३ और आपही सबमार्गों के दिखलाने वालेहो आपको मार्गकौन दिखला सक्ताहै तौभी आपमनुष्योंके से चरित्र कररहेहो इससे मेरे शिष्यलोग आपकोमार्ग बतलावेंगे४ इसप्रकार शिष्यों

को अज्ञाकर आपभी अत्रिमुनि कुछ दूरतक रघुनाथजी के संग पहुंचाने को जाते हुये फिर बड़ी प्रीतिसे रघुनाथजीने मनेकिया तो अपने आश्रमको लौट तेहुये ५ फिर श्रीरामचन्द्रजी कोशभर चलिके आगे एकबड़ी भारी नदीको देखके अत्रिऋषिके शिष्योंसे बोलतेहुये ६ कि हे भाई ब्राह्मणोंके बालक इस नदीके पारहोने का कोई उपायहै या नहीं है तब वे अत्रिमुनिके शिष्य कहते हुये कि है रघुनन्दन बड़ी अच्छी एकपुष्ट नौका है ७॥

तारयिष्यामहे युष्मान्वयमेव क्षणादिह॥
ततो नावि समारोप्य सीतां राघवलक्ष्मणौ॥८॥

क्षणात्संतारयामासुर्नदीर्मुनिकुमारकाः॥
रामाभिनन्दितास्सर्वे जग्मुरत्रेरथाश्रमम्॥९॥

तावेत्य विपिनं घोरं झिल्लीझंकारनादितम्॥
नानामृगगणाकीर्णंसिंहव्याघ्रादिभीषणम्॥१०॥

राक्षसैर्घोररूपैश्च सेवितं रोमहर्षणम्॥
प्रविश्य विपिनं घोरं रामोलक्ष्मणमब्रवीत्॥११॥

इतः परं प्रयत्नेन गंतव्यं सहितेन मे॥
धनुर्गुणेन संयोज्य शरानपि करे दधत्॥१२॥

अग्रे यास्याम्यहं पश्चात्वमन्वेहि धनुर्धरः॥
आवयोर्मध्यगा सीता मायेवात्मपरात्मनोः॥१३॥

चक्षुश्चारय सर्वत्र दृष्टं रक्षोभयं महत्॥
विद्यते दण्डकारण्ये श्रुतपूर्वमरिंदम्॥१४॥

तिसपै बैठालकर अभी हमलोग सब आपको क्षणभरमें पार उतारतेहैं फिर वे मुनियोंके बालक ऐसा कहिके शीघ्रही नौकामें सीताजीको और रामलक्ष्मणको अच्छीतरह बैठालकर एकक्षणभर में नदीकेपार उतारते हुये फिर रामचन्द्रजीने बड़ी तारीफ करके उनको आज्ञादी तौअपने अपने आश्रमको आते हुए ८।९ फिर राम लक्ष्मण घोरवनमें जाके प्राप्त होते हुये जिस वनमें अनेक झींगुर बोलरहेहैं और अनेकतरह के हिरणआदि जीव विचररहे हैं और सिंह व्याघ्रोंकरके भयको कररहाहै १० और भयंकररूप जिन्होंके ऐसेराक्षस जिस में बसरहेहैं और देखतेही जिसके रामावली खड़ीहोजाय ऐसे घोरवनमें प्रवेश कर रामचन्द्रजी लक्ष्मणसे बोलतेहुए ११ कि हे लक्ष्मण इसके आगे अब हमारेसंग सङ्ग यत्नसे चलनाचाहिये औधनुषचढ़ाके और बाणहाथ में लेके आगे आगे मैं चलताहूं तुममेरे पीछे २ धनुषबाण लिये हुऐ आवो और हमारे तुम्हारे बीचमें सीताचले जैसे जीव और ब्रह्म इनके मध्यकें माया रहती है १२।१३ और हे लक्ष्मण चारोंतरफ निगाह करतेचलौक्यों कि ऐसे असगुन दिखाई पड़ते हैं जिससे बड़ीभारी राक्षसकी भय दिखलाईही दिया चाहतीहै और हे लक्ष्मण इसवनमें पहिले सुनभी रक्खाहै कि भयहोती है १४॥

इत्येवं भाषमाणौ तौ जग्मतुः सार्द्धयोजनम्॥
तत्रैका पुष्करिण्यास्ते कह्लारकुमुदोत्पलैः॥१५॥

अम्बुजैः शीतलोदेन शोभमाना व्यदृश्यत॥
तत्समीपमथो गत्वा पीत्वा तत्सलिलं शुभम्॥१६॥

ऊषुस्ते सलिलाभ्यासे क्षणं छायामुपाश्रिताः॥
ततो ददृशुरायां तं महासत्वं भयानकम्॥१७॥

करालदंष्ट्रवदनं भीषयंतं स्वगर्जितैः॥
वामांसे न्यस्तशूलाग्रग्रथितानेकमानुषम्॥१८॥

भक्षयंतं गजव्याघ्रमहिषं वनगोचरम्॥
ज्यारोपितं धनर्धृत्वा रामो लक्ष्मणमब्रवीत्॥१९॥

पश्य भ्रातर्महाकायो राक्षसोऽयमुपागतः॥
आयात्यभिमुखं नोऽग्रे भीरूणां भयमावहन्॥२०॥

सज्जीकृतधनुस्तिष्ठ मा भैर्जनकनंदिनि॥
इत्युक्त्वा बाणमादाय स्थितो राम इवाचलः॥

२१॥

ऐसे परस्पर कहते हुये राम लक्ष्मण डेढ़ योजन अर्थात् छः कोशतक पहुंचे होंगे तहां एक झील दिखलाई पड़ती भई जिसमें अनेक प्रकारके कमल फूल रहें हैं १५ और बड़े सुंदर शीतल जलसे भरी हुई है और बड़ी शोभायमान है उसके समीपजाके राम लक्ष्मण सीता जलपान करके १६ वहां वृक्षोंकी छायामें क्षणमात्र विश्रामकरते हुये और वहां एक बड़े भयंकर राक्षस को आवते देखतेहुये १७ और जिसके मुखमें बड़ी बड़ी डाढ़ैंभयंकरहैं और वह अपने गर्जनेके शब्द करके सबको डरपारहाहै और बायेंकन्धेके ऊपर अनेक मनुष्यों को अपने त्रिशूलमें परोह करके धारण कर रहाहै १८ और वनके हाथी और बाघ और भैसे इनको खायरहा है तब श्रीरामचन्द्रजी ऐसे राक्षसको आवते देखके और धनुष चढ़ाके लक्ष्मणसे बोलतेहुये १९ कि हे भाई देखो यह बड़ेभारी शरीरका राक्षस हमारे तुम्हारे सामने चला आताहै और जे कोई डरने वाले कातर मनुष्य हैं तिनको भय उत्पन्नकराहा है २० इससे हे लक्ष्मण तुम तौअपने धनुष को तैयार रक्खो और जनकजी की पुत्री तुम भय न करो ऐसा राम कहके और धनुषमें बाण लगाके आप पर्वतकी तरह अचलहों स्थित होगये २१॥

स तु दृष्ट्वा रमानाथं लक्ष्मणं जानकी तथा॥
अट्टहासं ततः कृत्वा भीषयन्निदमब्रवीत्॥२२॥

कौ युवां बाणतूणीरजटावल्कलधारिणौ॥
मुनिवेषधरौ बालौ स्त्रीसहायौ सुदुर्मदौ॥२३॥

सुंदरौ वत मे वक्तप्रविष्टकवलोपमौ
किमर्थमागतौ घोरं वनव्यालनिषेवितम्॥२४॥

श्रुत्वा रक्षोवचो रामः स्मयमान उवाच तम्॥
अहं रामस्त्वयं भ्राता लक्ष्मणो मम सम्मतः॥२५॥

एषा सीतामम प्राणवल्लभा वयमागताः॥
पितृवाक्यं पुरस्कृत्य शिक्षणार्थम्भवादृशाम्॥२६॥

श्रुत्वा तद्रामवचनमट्टहासमथाकरोत्॥
व्यादाय व

क्त्रम्बाहुभ्यां शूलमादाय सत्वरः॥२७॥

मां न जानासि रामत्वं विराधं लोकविश्रुतम्॥
मद्भयान्मुनयः सर्वे त्यक्त्वा वनमितो गताः॥२८॥

उससमयमें वह राक्षसभी राम और लक्ष्मण और सीता इनको देखके और बड़ेस्वरसे हंसके डरपाताहुआ यह वचन बोला २२ कि तुमदोनों बाणोंसे भरे तरकस को धारण किये हौऔर जटा और वल्कल अर्थात् मुनि वस्त्र मुकुटा आदि धारण किये हो और मुनियोंका वेष बनाये और स्त्रीको भी संग लिये और होतौबालक परन्तु बड़े गर्वयुक्त मालूम पड़ते हौ सो तुम कौनहो २३ और तुम बड़े सुन्दर हो परन्तु बड़े खेदकी बातहै जो तुम दोनों मेरे मुख में ग्रासके तुल्य प्राप्तहुये हो और सर्प व्याघ्र आदि जीवों करके सेवित घोरवनमें किस वास्ते आये हौ २४ अब श्रीराम राक्षसके वचन सुनिकै मंद मुसक्यान करतेहुये उससे बोले कि हे राक्षस मेरा राम नामहै और यह मेरा भाई है इसका लक्ष्मण नाम है २५ और यह सीता मेरी प्राणप्यारी स्त्री है और पिता की आज्ञासे तुम्हारे सरीखे राक्षसों के दण्डदेनेको वनमें आये हैं २६ अब वह राक्षस रामचन्द्रके वचन सुनिकै बड़ा ठट्ठा मारके हँसा और मुख फैला कर और शीघ्रही त्रिशूल हाथ में लेकर बोलताहुआ २७ कि हे राम लोक में प्रसिद्ध विराधनाम करके मैं राक्षसहौं सो तुम मुझको नहीं जानते जिस मेरी भयसे सब मुनिलोग इस वनको छोड़के चलेगये हैं २८॥

यदि जीवितुमिच्छाऽस्ति त्यक्त्वा सीतां निरायुधौ॥
पलायतं न चेत् शीघ्रम्भक्षयामि युवामहम्॥२९॥

इत्युक्त्वा राक्षसः सीतामादातुमभिदुद्रुवे॥
रामश्चिच्छेद तद्बाहू शरेण प्रहसन्निव॥३०॥

ततः क्रोधपरीतात्मा व्यादाय विकटं मुखम्॥
राममभ्यद्रवद्रामाश्चिच्छेद परिधावतः॥३१॥

पदद्वयं विराधस्य तदद्भुतमिवाभवत्॥३२॥

ततः सर्प इवास्येन ग्रसितंराममापतत्॥
ततोऽर्धचन्द्राकारेण बाणेनास्य महच्छिरः॥३३॥

चिच्छेद रुधिरौघेण पपात धरणीतले॥
ततः सीता समालिंग्यप्रशशंस रघूत्तमम्॥३४॥

ततो दुन्दुभयो नेदुर्दिवि देवगणेरिताः॥
ननृतुश्चाप्सरा हृष्टा जगुर्गंधर्वकिन्नराः॥३५॥

इससे जो तुमको जीवनेकी इच्छाहावैतो तुम दोनोंजने सीता को छोंड़ के और शस्त्र डालके शीघ्रही अर्थात् जल्दीभाग जाओ नहीं तौमैंदोनों को भक्षणकरूंगा २९अब ऐसावचन कहिके बिराध राक्षस सीता के लेने को दौड़ता हुआ तब रामचन्द्रजी बाण करके उसकी भुजा हँसते हँसते काटते हुये ३० तवतौ

बड़े क्रोधसे भराहुआ राक्षस सुखको फैलाकर रामको निगलने दौड़ता हुआ तवदौड़तेहुए राक्षके दोनों पांव रामचन्द्रजी शीघ्रही काटडालते हुए यह बड़ा अद्भुतचरित्र होताहुआ ३१।३२ तवफिरभी वह विराध राक्षस सर्पकीतरह घसलके रामके निगलनेको सन्मुखाआवताही हुआ आतवरामचन्द्रजी अर्द्धचन्द्राकार अर्थात् हँसियेकीसो जिसकी भालहोती है ऐसे बाणकरके उसकावडामारी शिरकाटडालते हुए ३३ फिरवह रुधिरको बहाताहुआ पृथिवी में पड़ता हुआ तब सीताजी रामको ह्रदयसे लगाकरबड़ी तारीफकरती हुई ३४ फिर तिसके उपरान्त आकाशमें देवतों के बजायेहुये नगाड़े बाजतेहुये और बड़ीप्रसन्न अप्सरा नाचतीहुईं और गन्धर्व और किन्नरगान करते हुये ३५॥

विराधकायादतिसुंदराकृति-
र्विभ्राजमानो विमलाम्बरावृतः॥
प्रतप्तचामीकरचारुभूषणो
व्यदृश्यताग्रे गगने रविर्यथा॥३६॥

प्रणम्य रामं प्रणतार्तिहारिणं
भवप्रवाहोपरमं घृणाकरम्॥
प्रणम्य भूयः प्रणनाम दण्डवत्
प्रपन्नसर्वार्तिहरं प्रसन्नधीः॥३७॥

विराध उवाच॥

श्रीराम राजीवदलायताक्ष
विद्याधरोऽहं विमल प्रकाशः॥
दुर्वाससाकारणकोपमूर्त्तिना
शप्तः पुरा सोऽद्य विमोचितस्त्वया॥३८॥

इतः परं त्वच्चरणारविंदयोः
स्मृतिः सदा मेऽस्तु भवोपशांतये॥
त्वन्नामसंकीर्तनमेव वाणी
करोतु मे कर्णपुटं त्वदीयम्॥३९॥

कथामृतं पातु करद्वयं ते
पादारविंदार्चनमेव कुर्य्यात्॥
शिरश्च ते पादयुगप्रणामं
करोतु नित्यं भवदीयमेवम्॥४०॥

नमस्तुभ्यं भगवते विशुद्धज्ञानमूर्त्तये॥
आत्मारामाय रामाय सीतारामाय वेधसे॥४१॥

प्रपन्नं पाहि मां राम यास्यामि त्वदनुज्ञया॥
देवलोकं रघुश्रेष्ठ माया मां मातृणोतु ते॥४२॥

और विराधके शरीर से निकलके एकबड़ा सुन्दर दिव्य वस्त्रोंको और दिव्य सुवर्णके आभूषणों को धारणकरे सूर्यकेतुल्य प्रकाशमान पुरुष दिखलाईपड़ता हुआ ३६ फिर बहपुरुषभक्तोंके दुःख हरनेवाले और जन्म मरण रूप संसार के निवृत्ति करनेवाले परमदयालु श्रीरामचन्द्रजीको बारम्बार दण्डवत् प्रणाम करके प्रसन्न हो बोलताहुआ कि ३७ हेकमलवलवत् विशालनेत्र श्रीराम मैं निर्मल प्रकाशयुक्त विद्याधररहासो बड़े क्रोधी दुर्वासाकेशाप से राक्षसयोनिको प्राप्तहुआ सो अब आपने उसशाप से छुड़ादिया है ३८ सो हे भगवन अब मुझको आपके चरणारविन्दों का स्मरणसदा बनारहै जिससे संसारदुःखों की शान्तिहोवे और मेरीवाणी आपके नामकीर्तनको सदाकियाकरैऔर मेरे दोनों

कान सदाआपके कथारूप अमृतको पानकरैं३९ और मेरे दोनोंहाथ आपके चरणोंके पूजन को करें और मेरा शिर सदा आपके चरणोंको प्रणाम करै ४० औरविशुद्ध जोज्ञान सोईहै मूर्ति जिसकी और अपने आत्माही में है रमण क्रीड़ाजिसकौऔर सबके रचनेवाले ऐसे जो सीतासहित और ऐश्वर्य युक्त आपहैं तिनके अर्थ मेरा नमस्कार है ४१ औ हेराम मैं आपके शरणागत हौं मेरीरक्षा करिये और आपकी आज्ञासे देवलोकको जायाचाहता हूं सोअब से लेकैआपकीमाया मेरीबुद्धिको न ढांकलेवैऐसा अनुग्रह कीजिये ४२॥

इति विज्ञापितस्तेन प्रसन्नो रघुनंदनः॥
ददौ वरं तदा प्रीतो विराधाय महामतिः॥४३॥

गच्छ विद्याधराशेषमायादोषगुणा जितः॥
त्वया मद्दर्शनात्सद्यो मुक्तो ज्ञानवतां वरः॥४४॥

मद्भक्तिर्दुर्लभा लोके जाता चेन्मुक्तिदा यतः॥
अतस्त्वं भक्तिसंपन्नः परं याहि ममाज्ञया॥४५॥

रामेण रक्षोनिधनं सुघोरं
शापाद्विमुक्तिर्वरदानमेवम्॥
विद्याधरत्वं पुनरेवलब्धं
रामं गृणन्नेति नरोऽखिलार्थान्॥४६॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे आरण्यकांडे प्रथमःसर्गः॥१॥

ऐसी जब उसने विज्ञप्तिकी अर्थात् अपनादुःख जताया तो श्रीराम प्रसन्न हो उस विराधको बर देतेहुए ४३ और यह कहतेहुए हे विद्याधर तुम अपने लोकको जाओ और मेरे दर्शनसे तुमने दोषरूपजे माया के गुण हैं ते जीत लिये और तुम ज्ञानियोंमें श्रेष्ठहो मुक्तहोवोगे ४४ क्योंकि जिससे मुक्तिकी देनेवाली लोक में दुर्लभ जो मेरी भक्ति है सो तुमको उत्पन्न हुई है इससे भक्तियुत होकै मेरी आज्ञासे मोक्षको प्राप्तहोउ ४५ इस प्रकार श्रीरामचन्द्र ने बड़े भयंकर विराध राक्षसको मारा और उसको शाप से छुड़ाया और वरदान दिया फिर उसको रामकी कृपासे विद्याधर पदवी प्राप्तहुई इस रामचरित्रको जो कोई वर्णन करताहै सो संपूर्ण अर्थोंको प्राप्त होताहै ४६॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे आरण्यकाण्डे भाषाटीकायां प्रथमः सर्गः॥१॥

विराधे स्वर्गते रामो लक्ष्मणेन च सीतया॥
जगाम शरभंगस्य वनं सर्वसुखावहम्॥१॥

शरभंगस्ततो दृष्ट्वा रामं सौमित्रिणा सह॥
आयातं सीतया सार्द्धं संभ्रमादुत्थितः सुधीः॥२॥

अभिगम्य सुसंपूज्य विष्टरेषूपवेशयत्॥
आतिथ्यमकरोत्तेषां कंदमूलफलादिभिः॥३॥

प्रीत्याऽह शरभंगोऽ

    पि रामं भक्तपरायणम्॥  

बहुकालमिहैवासं तपसे कृतनिश्चयः॥४॥

तव संदर्शनाकांक्षी राम त्वं परमेश्वरः॥
अद्य मत्तपसा सिद्धं यत्पुण्यं बहु विद्यते॥
तत्सर्वं तव दास्यामि ततो मुक्तिं व्रजाम्यहम्॥५॥

समर्प्य रामस्य महत्सुपुण्यं
फलं विरक्तः शरभङ्गयोगी॥
चितिं समारोहयदप्रमेयं
रामं ससीतं सहसा प्रणम्य॥६॥

ध्यायंश्चिरं राममशेषहत्स्थं
दूर्वादलश्यामलमम् बुजाक्षम्॥
चीराम्बरं स्निग्धजटाकलापं
सीतासहायं सहलक्ष्मणं तम्॥७॥

दो०। सुगति दई शरभंगको सर्ग दूसरे राम॥
निर्भयकरिमुनिवृंदपुनि गयेसुतीक्षणधाम२॥

अब श्रीमहादेवजी पार्वतीजी से कहतेहुये कि हेपार्वति विराधराक्षस जब रामकी कृपासे स्वर्गको प्राप्त हुआ तब फिर लक्ष्मण सीतासहित श्रीराम जी शरभंगऋषि के वनकोजाते हुए जो वन सबकालमें सुखका देनेवालाहै १ तब शरभंगऋषि सीता लक्ष्मण सहित रामको आवते देखके शीघ्रही उठकर अगाड़ीजाके मिलतेहुए २ फिर आश्रममें लाकर आसनकेऊपर बैठालकर विधिपूर्वक बड़ीप्रीति से पूजनकर कन्दमूलफल आदि भोजन करातेहुए ३ फिर भक्तोंको सेवन करनेयोग्य जो श्रीराम तिनसे यह कहते हुए कि हे राम बहुत कालसे इस आश्रममें तपकरताहुआ आपके दर्शनकी इच्छा करके वासकर रहाहौं ४ और हे राम आपसाक्षात् परमेश्वरहैं और अबतक तपकरने से जो कुछ पुण्यमेरा सञ्चितहुआहै सो सब आपको दैके मैंमुक्तिको प्राप्त होताहौं५ इसप्रकार परमयोगी जो शरभंगमुनि सो श्रीराम को अपना सब पुण्य समर्पण करि सबसे विरक्तहो रामलक्ष्मण सीताको प्रणामकर चिता रचिकै उसके ऊपर बैठताहुआ ६ अब उससमयमें शरभंगऋषि दूबके तरह श्यामवर्णहै जिसका और कमल के सरीखे विशालहैं नेत्र जिसके और मुनियोंके वस्त्रको धारणकरे और कोमल जटाओंको धारणकरे और सब के हृदय में स्थित होनेवाले ऐसे लक्ष्मण सीतासहितरामको बहुतकाल ध्यानकरताहुआ ७॥

को वा दयालुस्स्मृतिकामधेनु-
रन्यो जगत्यां रघुनायकादहो॥
स्मृतो मया नित्यमनन्यभाजा
ज्ञात्वा स्मृतिं मे स्वयमेव यातः॥८॥

पश्यत्विदानीं देवेशो रामो दाशरथिः प्रभुः॥
दग्ध्वा स्वदेहं गच्छामि ब्रह्मलोकमकल्मषः॥९॥

अयोध्याऽधिपतिर्मेऽस्तु हृदये राघवस्सदा॥
यद्वामांके स्थिता सीता मेघस्येव तडिल्लता॥१०॥

इति रामं चिरं ध्यात्वा दृष्ट्वा च पुरतः स्थितम्॥
प्रज्वाल्य सहसा वह्निं दग्ध्वा पञ्चात्मकं वपुः॥११॥

दिव्यदेहधरा सा

        क्षाद्ययौ लोकपतेः पदम्॥  

ततो मुनिगणाः सर्वे दण्डं कारण्यवासिनः॥
आजग्मू राघवं द्रष्टुं शरभंगनिवेशनम्॥१२॥

दृष्ट्वा मुनिसमूहं तं जानकीरामलक्ष्मणाः॥
प्रणेमुः सहसा भूमौ मायामानुषरूपिणः॥१३॥

आशीर्भिरभिनंद्याथ रामं सर्वहृदि स्थितम्॥
ऊचुः प्रांजलयः सर्वेधनुर्बाणधरं हरिम्॥१४॥

और यह कहताहुआ कि स्मरण मात्रही करने से संपूर्णकामनाओं का पूर्ण करनेवाला एक रामको छोड़ दूसरा दयालु कौनहै और जो मैं अनन्य होकेनित्यस्मरण करतारहा सो मेरे स्मरणको जानिकै आपही प्राप्तहुये ८ और मैं इससमयमें अपने शरीरको भस्म करके पापरहित हो ब्रह्मलोकको जाताहूँ यह सब मेरी व्यवस्थाको सबका स्वामी जो दशरथकापुत्र सो देखे ९ जैसे मेघके समीप बिजुली शोभायमान होती है तैसे जिसके बामभाग में सीता स्थितहै ऐसेजो अयोध्याके पति रामचन्द्र सो मेरे हृदय में सदा वासकरैं १० इसप्रकार रामको अपने नेत्रों के आगे स्थित देखिकै बहुत काल ध्यान करता हुआ शरभंग चिता में अग्निको लगा के प्रज्वलित अग्नि में पंचमहाभूत शररि को भस्मकर ११ दिव्यदेहको धारणकर साक्षात् ब्रह्मलोकको प्राप्त होता हुआ तिसके उपरान्त दण्डकारण्य वासी जे सम्पूर्ण मुनिलोग ते रामचन्द्र के देखने को शरभंग मुनिके आश्रम में आतेहुए १२ फिरमायाही करके मनुष्य रूप धारणकरे जो सीता और रामलक्ष्मण ये सुनियोंको आते देखके शीघ्रही उठकर प्रणाम करतेहुए १३ तब सब मुनिलोग सबके हृदय में स्थित जो धनुर्बाण धारणकरे राम तिनको आशीर्वाद देकै हाथ जोड़के बोले कि १४॥

भूमेर्भारावताराय जातोसि ब्रह्मणाऽर्थितः॥
जानीमस्त्वां हरिं लक्ष्मीं जानकीं लक्ष्मणं तथा॥१५॥

शेषांशं शंखचक्रे द्वे भरतं सानुजं तथा॥
अतश्चादौ ऋषीणां त्वं दुःखं मोक्तुमिहार्हसि॥१६॥

आगच्छ यामो मुनिसेवितानि
वनानि सर्वाणि रघूत्तम क्रमात्॥
द्रष्टुं सुमित्रासुतजानकीभ्यां
तदा दयास्मासुदृढा भविष्यति॥१७॥

इति विज्ञापितो रामः कृतांजलिपुटोविभुः॥
जगाम मुनिभिः सार्द्धं द्रष्टुं मनिवनानि सः॥१८॥

ददर्श तत्र पतितान्यनेकानि शिरांसि सः॥
अस्थिभूतानि सर्वत्र रामो वचनमब्रवीत्॥१९॥

अस्थीनि केषामेतानि किमर्थं पतितानि वै॥
तमूचुर्मुनयो राम ऋषीणां मस्तकानि हि॥२०॥

राक्षसैर्भक्षितानीश प्रमत्तानां समाधितः॥
अंतरायं मुनीनां ते पश्यन्तोऽनुचरंति हि॥२१॥

            सस्मितमत्रवीत्॥  

मुने जानामि ते चित्तं निर्म्मलम्मदुपासनात्॥३५॥

औहे रामतुम सबजीवोंके हृदयमेवासभी करतेहौ तौभी तुम्हारे मन्त्रजपआदिभजन से जे विमुखहै तिनकी बुद्धिमें मायाका विस्तारकरते हो अर्थात् जिससे वे मूढ़हृदयस्थ आपको नहीं जानसक्तेहैं और आपके मन्त्र जप करनेवाले जो भक्तहैं तिनको मायानहीं व्यापतीहै इससे सेवाके योग्यराजा की तरह आपफलदेतेहो जैसेलोकमें राजाका शत्रुमित्र कोई नहींहै परन्तु राजाके मन्त्रको जाननेवाला नहीं बन्धनको प्राप्तहोता और मन्त्रसे उलटे चलनेवाला दण्डको प्राप्तहोताहै तैसे २९ हे राम एकतुमहीं इसविश्वकी सृष्टि और पालन और संहारके कारणहौ और तुम्हारी मायाकरिकै मोहित है बुद्धिजिन्होंकी तिनकोतौब्रह्मा विष्णु शिवआदि अनेक रूपकरके न्यारे न्यारे प्रकाशित होतेहौजैसे एकहीसूर्य जलकरिकै भरेहुये पात्रोंमें अनेक रूपप्रतीयमान होताहै ३० प्रौ हे राम अविद्यासे परेजोआपहैंतिनके चरणारविंदको मैं प्रत्यक्ष देखरहाहूं क्योंकि असत पुरुषोंकी दृष्टिके अगोचर भीहौ अर्थात् नहीं सूझपड़तेहो तौभी आपके मन्त्रकरिकै शुद्धहुआ है हृदय जिन्होंका ऐसे भक्तों को तोदिखलाई पड़तेहीहौ ३१ औ हेराम रूपरहित जोआपहैंतिनका भी माया व्यवहार से कियाहुआ कड़ोरों कामदेवोंसे सुन्दर भौ दिव्य धनुषबाणधारण किये और दयासे द्रवीभूत हृदय जिनका और मन्दमुसक्यान युक्त है मुख जिसका ऐसा सुन्दर मनुष्यवेषमें देखता हूं ३२ और सीताकरके सहित और मृगछालाधारणकिये और नित्य लक्ष्मणकरके सेवित हैं चरणकमल जिन के औरनीलकमलके तुल्यहै कान्ति जिनकी और कोई जिनका तिरस्कार न करसके और अनन्तहैं कल्याणगुण जिनके ऐसे मेरेभाग्यरूप जोरामहैंतिनको मैं निरंतर प्रणामकरताहूं ३३ औहेराम संपूर्णदेश कालआदि परिच्छेदरहित अर्थात् इतनेबीचमें यहरूप है और इससमयमें है फिर नहींर रहै यह व्यवहार जिसमें नहीं है ऐसा जो चैतन्यघनप्रकाश निर्गुणरूप आपका जे कोई जानते हैं ते जाने मुझको तो यह प्रत्यक्ष श्यामसुन्दर आपकारूप दिखाई पड़ता है उसीकी सदा ध्यानकी इच्छाहै ३४ ऐसे स्तुति करतेहुये जो सुतीक्ष्ण ऋषि तिससे मन्दमुसक्यानकर श्रीरामचन्द्र बोलते हुये कि हे सुने मेरी उपासना करके तुम्हारा निर्मल चित्तहै यह मैं जानताहूं ३५॥

अतोऽहमागतो द्रष्टुं मदृते नान्यसाधनम्॥
मन्मन्त्रोपासका लोके मामेव शरणं गताः॥३६॥

निरपेक्षा नान्यगतास्तेषां दृश्योऽहमन्वहम्॥
स्तोत्रमेतत्पठेद्यस्तु त्वत्कृतं मत्प्रियं सदा॥३७॥

सद्भक्तिर्मे भवेत्तस्य ज्ञानं

             च विमलं भवेत्॥  

त्वं ममोपासनादेव विमुक्तोऽसीह सर्वतः॥३८॥

देहांते मम सायुज्यं लप्स्यसे नात्र संशयः॥
गुरुं ते द्रष्टुमिच्छामि ह्यगस्त्यं मुनिनायकम्॥
किंचित्कालं तत्र वस्तुं मनो मे त्वरयत्यलम्॥३९॥

सुतीक्ष्णोऽपि तथेत्याह श्वो गमिष्यसि राघव॥
अहमप्यागमिष्यामि चिराद्दृष्टो महामुनिः॥४०॥

अथ प्रभाते मुनिना समेतो
रामः ससीतः सह लक्ष्मणेन॥
आगस्त्यसंभाषणलोलमानसः
शनैरगस्त्यानुजमन्दिरं ययौ॥४१॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे आरण्यकांडे द्वितीय सर्गः॥२॥

और इसीसे मैं तुमको देखने आयाहूं और मेरी भक्ति के बिना और कोई मेरी प्राप्तिका साधननहीं है क्योंकि लोकमें जे कोई मेरे मंत्र के उपासक हैंते मेरेही शरणागत हैं ३६ और वे किसी की चाहनानहीं करते और न मेरे सिवाय उनकी और कोई गति है तिन भक्तों को मैं नित्य दिखाई देताहौंऔर हे मुने जो कोई पुरुष मेरे अतिप्रिय तुम्हारे कियेहुये स्तोत्रको सदा पढ़ेगा ३७ उसको मेरी श्रेष्ठ भक्ति होवेगी और निर्मल ज्ञानहोगा और तुम तौ मेरी उपासनाही से सब बन्धन से मुक्तही ३८ और देहके अंतमें मेरे सायुज्य पदको प्राप्तहोउगे इसमें कुछ संदेह नहीं है और सब मुनियोंमें श्रेष्ठ जो तुम्हारे गुरु अगस्त्य मुनि तिनको मैं देखा चाहताहौंऔर कुछकाल वहां वास करने को मेरामन होरहाहै ३९ तौ सुतीक्ष्ण मुनि बोले हे राम प्रातःकाल वहां आप जावोगे और मैं भी चलोंगा क्योंकि बहुत कालहुआ मुनिको देखे ४० अब प्रातःकाल सुतीक्ष्ण सुनिसहित और सीतालक्ष्मणसहित रामचन्द्रजी अगसत्य से संभाषण में चित्तकी उत्कंठाने प्रथमधीरे धीरे अगस्त्य के छोटेभाई जो अग्निजिह्व नाम ऋषितिनके आश्रमको जाते हुये ४१॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे आराण्यकाण्डे भाषाटीकायां द्वितीयः सर्गः॥२॥

अथ रामः सुतीक्ष्णेन जानक्या लक्ष्मणेन च॥
अगस्त्यस्यानुजस्थानं मध्याह्ने समपद्यत॥१॥

तेन संपूजितः सम्यक् भुक्त्वा मूलफलादिकम्॥
परेद्युः प्रातरुत्थाय जग्मुस्तेऽगस्त्यमण्डलम्॥२॥

सर्वर्त्तुफलपुष्पाढ्यं नानामृगगणैर्युतम्॥
पक्षिसंघैश्च विविधैर्नादितं नन्दनोपसम्॥३॥

ब्रह्मर्षिभिर्देवर्षिभिः सेवितं मुनिमन्दिरैः॥
सर्वतोऽलंकृतं साक्षाद्ब्रह्मलोक

               मिवापरम्॥४॥

बहिरेवाश्रमस्याथ स्थित्वा रामोऽब्रवीन्मुनिम्॥
सुतीक्ष्णगच्छत्वं शीघ्रमागतं मानिवेदय॥५॥

अगस्त्यमुनिवर्याय सीतया लक्ष्मणेन च॥
महाप्रसाद इत्युक्त्वा सुतीक्ष्णः प्रययौ गुरोः॥६॥

आश्रमं त्वरया तत्र ऋषिसंघसमावृतम्॥
उपविष्टं राम भक्तैर्विशेषेण समायुतम्॥७॥

दो०। मुनिआगस्त्य को तीसरे सर्गमिले रघुनाथ॥
शस्त्रपुरातनमुनिदिये स्तुतिकरि हरि गुणगाथ॥१॥

अबमहादेवजी पार्वतीजी से कहते हैं कि हे पार्वति अब इसके उपरान्त सुतीक्ष्ण मुनिकरके सहित और जानकी औलक्ष्मणसहित श्रीराम मध्याह्न समयमें अर्थात् दोपहर दिनचढ़े अगस्त्यजीके छोटे भाई के आश्रममें प्राप्तहोते हुये १ तब वहां अगस्त्य के भ्रातासे बढ़े सत्कारको प्राप्त हुये जो रामचन्द्र सो कंदमूल फल भोजन करके दूसरे दिन प्रातःकाल उठिकै चारों जने अगस्त्य ऋषि के आश्रमको जातेहुये २ कैसा अगस्त्य मुनिका आश्रम है जो सबऋतुओंके फूलोंकरके युक्तहै और नानाप्रकार के मृगोंके समूह करिकै युक्तहै और अनेक तरहके पक्षी जिसमें बोलरहे हैं मानों इन्द्रका नन्दनवनहो ऐसा शोभितहो रहाहै ३ और ब्रह्मर्षियों करके और देवर्षियों करके सेवित है अर्थात् जे ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हो वेदोंके मन्त्रों को जानें वे ब्रह्मर्षि कहाते हैं और जो देवताहो वेदोंके मन्त्रोंको जानतेहों वे देवर्षि कहाते हैं तिन्हों करके सेवितहै और चारोंतरफ से मुनियों के मंदिरों करके भूषितहों रहा है जैसे मानों दूसरा ब्रह्मलोकही होय ४ तहां रामचन्द्रजी आश्रम के बाहरही स्थितहोके सुतीक्ष्ण मुनिसे वोले कि हेमुने तुम शीघ्रहीनाके अगस्त्यमुनि से कहो कि सीता लक्ष्मण सहित राम आपके दर्शनकरने को आये हैं ५ तब सुतीक्ष्ण मुनिराम के वचन सुनिकै शीघ्री गुरुके आश्रमको जातेहुये ६ फिर वहांजाके ऋषियों के समूहकरके युक्त और विशेषकरके रामभक्त जिनके समीप बैठे हैं ऐसे अगस्त्यजी को देखते हुये ७॥

व्याख्यातराममंत्रार्थं शिष्येभ्यश्चातिभक्तितः॥
दृष्ट्वागस्त्यं मुनिश्रेष्ठं सुतीक्ष्णः प्रययौ मुनेः॥८॥

दण्डवत्प्रणिपत्याह विनयावनतः सुधीः॥
रामो दाशरथिर्ब्रह्मन् सीतया लक्ष्मणेन च॥९॥

आगतो दर्शनार्थन्ते बहिस्तिष्ठति सांजलिः॥

अगस्त्य उवाच॥

शीघ्रमानय भद्रन्ते रामं मम हृदि स्थितम्॥
तमेव ध्यायमानोऽहं कांक्षमाणोऽत्र संस्थितः॥१०॥

इत्युक्त्वा स्वयमुत्थाय मुनिभिः सहितो द्रुतम्॥
अभ्ययात्परया भक्त्या गत्वा राममथाब्रवीत्॥११॥

आगच्छ राम भद्रन्ते दिष्ट्या तेऽद्यसमागमः॥
प्रि

यातिथिर्मम प्राप्तोस्यद्य मे सफलं दिनम्॥१२॥

रामोऽपि मुनिमायान्तं दृष्ट्वा हार्षसमाकुलः॥
सीतया लक्ष्मणेनापि दण्डवत्पतितो भुवि॥१३॥

द्रुतमुत्थाप्य मुनिराड्राममालिंग्य भक्तितः॥
तद्गात्रस्पर्शजाह्लादस्रवन्नेत्रजलाकुलः॥१४॥

और रामके मन्त्र के अर्थका व्याख्यान अति भक्तिसे शिष्यों से कररहे हैं ऐसे मुनियों में श्रेष्ठ अगस्त्यको देखिकै सुतीक्ष्ण सुनि दण्डवत् प्रणामकरके बड़ी नम्रतासे वचन बोलतेहुये ८ कि हे ब्रह्मन् दशरथ के पुत्र जो रामहैं सो सीता लक्ष्मण सहित आपके दर्शन के लिये आये हैं सो आश्रमके बाहर हाथ जोड़ेखड़े हैं ९ तब अगस्त्यजी बोले हे सुतीक्ष्ण शीघ्रही रामको ल्यावो जो मेरे हृदयमें सदा स्थितरहते हैं और मैं रामहीका ध्यानकर रहाथा और रामहीके दर्शनकी इच्छाकरके यहांस्थितहौं१० यहकहके फिर आपही उठकर मुनियों करके सहित शीघ्रीहीरामके मिलने को आगाड़ी से जाते हुये फिर बड़ी प्रीतिसे रामको प्राप्तहो बोले ११ कि हेराम तुमआवो और तुम्हारा कल्याणहोय और बड़ा आनन्दहुआ जो इससमय में तुम्हारा समागम भया और आजकादिन सफलहुआ जो प्रिय अतिथिं प्राप्तहुये १२ और रामचन्द्र भी मुनिको आते देखके आनन्दसे पूर्णहो सीता लक्ष्मण सहित दण्डवत्प्रणाम करते हुये १३ तबमुनियों में श्रेष्ठ अगस्त्यजी शीघ्रही रामको उठाके हृदयसे आलिंगनकर रामचन्द्रके शरीरस्पर्शसे उत्पन्नहुआ जो आनन्द तिससे प्रकटजानेत्रोंमें जलतिलकरके व्याप्तहोतेहुये अर्थात् आनन्द के आंंशुओंको छोड़तेहुये १४॥

गृहीत्वा करमेकेन करेण रघुनन्दनम्॥
जगाम स्वाश्रमं हृष्टो मनसा मुनिपुंगवः॥१५॥

सुखोपविष्टं सम्पूज्य पूजया बहुविस्तरम्॥
भोजयित्वा यथान्यायं भोज्यैर्वन्यैरनेकधा॥१६॥

सुखोपविष्टमेकांते रामं शशिनिभाननम्॥
कृतांजलिरुवाचेदमगस्त्यो भगवानृषिः॥१७॥

त्वदागमनमेवाहं प्रतीक्षन्समवस्थितः॥
यदा क्षीरसमुद्रांते ब्रह्मणाप्रार्थितः पुरा॥१८॥

भूमेर्भारापनुत्यर्थं रावणस्य बधाय च॥
तदादि दर्शनाकांक्षी तव राम तपश्चरन्॥
वसामि मुनिभिः सार्द्धं त्वामेव परिचिन्तयन्॥१९॥

सृष्टेः प्रागेक एवासीनिर्विकल्पोऽनुपाधिकः॥
त्वदाश्रया त्वद्विषया माया ते शक्तिरुच्यते॥२०॥

त्वामेव निर्गुणं शक्तिरावृणोति यदा तदा॥
अव्याकृतमिति प्राहुर्वेदान्तपरिनिष्ठिताः॥२१॥

फिर अपने एक हाथ से रामकाहाथ पकड़के प्रसन्नमनहुये अगस्त्यजी अपने

आश्रमको लिवालेजातेभये १५ फिर आसनपै सुख से बैठेजोरामचन्द्र तिनका विधिपूर्वक विस्तारसे पूजनकरिकै वनके अनेक प्रकारकी अन्नकी सामग्रियों करके विधिसे भोजनकराके १६ चन्द्रमाके तुल्यहै सुख जिनका औ सुखपूर्वक आसनपै बैठे ऐसे जोरामहैं तिनसे एकान्तमें हाथजोड़के अगस्त्य भगवान् बोलतेहुये १७ हे राम तुम्हारे दर्शन की प्रतीक्षा करताहुआ अर्थात् कबआवैंगे ऐसा विचार करताहुआ मैं इस आश्रममें स्थितहोरहा हूं कदाचित् रामकहैं कबसेस्थितहौतब अगस्त्यजी कहते हैं कि हे राम जबसे क्षीरसागर के समीप जाते ब्रह्माजीने पृथिवीके भारदूरकरनेको और रावण के बधके अर्थ अर्थात् मारनेकी प्रार्थना की १८ तबसे लेकर के तुम्हारे दर्शनकी इच्छासे तप करताहुआ मुनियों करके सहित तुम्हाराही स्मरणकरताहुआ इस आश्रम में वासकर रहाहौं१९ अब अगस्त्यजी अपने शिष्योंको बोध कराने का और राममें मनुष्यादि भावकी शंकाकी निवृत्तिके लिये रामहीके आगे रामका स्वरूप वर्णन करते हुये कहते हैं कि हेराम सृष्टिके पहिले निर्विकल्प अर्थात् प्रपञ्चरहित और निरुपाधि नाम उपाधि रहित एकही तुमहोतेहुये और तुम्हीं हो आश्रय जिसको और तुम्हीं हो विषय जिसको ऐसी जो माया सो तुम्हारी शक्तिकहीजाती है इसका आशय यह है कि जैसे जलाने की जो शक्ति है तिसका आश्रय अग्निहै वहशक्ति अग्निसेन्यारीनहीं रहसक्तीअग्निही में रहती है तैसेई माया के आश्रय आपही हैं और माया और मायाका रचाहुआ पदार्थ सोई हुआ विषयसो भी तुम्हीं हो तुमसे भिन्ननहीं है अर्थात् शक्तिरूप तत्त्वकहीं शक्तिमान् से न्यारा गिनती में नहीं आता है जैसे इन्द्र जाली अपनी शक्तिसे अनेक पदार्थों को रचताहै तोवे पदार्थ मिथ्या होने से इन्द्रजालीकी दृष्टिमें न्यारे गिनती में नहीं आते क्यातो उस शक्तिही में गिनेजाते हैं और इन्द्रजाली की शक्ति भी इन्द्रजाली से न्यारी नहीं होसक्तीहै तैसे परमेश्वरभी अपनी मायारूप शक्तिसेअपनेही स्वरूपको अनेक रूपोंको रचता है फिर जब शक्ति खैंच लेता है तो एकही शेष रहता हैं इससे सृष्टिके पहिले एकही रामरूप परमात्मा रहा यह सिद्धहुआ २० औ हे राम निर्गुण जो तुमहो तिनको जववह मायारूप शक्ति आवरणकरतीहै अर्थात् ढांकलेतीहै तब उसको वेदांतमें कुशलजन अव्याकृतनाम करके कहतेहैं २१॥

मूलप्रकृतिरित्येके प्राहुर्मायेत्ति केचन॥
अविद्या संसृतिर्बंध इत्यादि बहुधोच्यते॥२२॥

त्वया संक्षोभ्यमाणा सा महत्तत्वं प्रसूयते॥
महत्तत्त्वादहंकारस्त्वया संचोदितादभूत्॥२३॥

अहंकारो महत्तत्त्वसंवृतस्त्रिविधोभवत्॥
सात्त्विको राजसश्चैव तामसश्चेति भण्यते॥२४॥

तामसात्सूक्ष्मतन्मात्रा

      ण्यासन्भूतान्यतः परम्॥  

स्थूलानि क्रमशो राम क्रमोत्तरगुणानि ह॥२५॥

राजसानींद्रियाण्येव सात्त्विका देवता मनः॥
तेभ्योऽभवत्सूत्ररूपं लिंगसर्वगतं महत्॥२६॥

ततो विराट्समुत्पन्नः स्थूलाद्भूतकदंबकात्॥
विराजः पुरुषात्सर्वं जगत्स्थावरजंगमम्॥२७॥

देवतिर्यङ्मनुष्याश्च कालकर्मक्रमेण तु॥
त्वं रजोगुणतो ब्रह्मा जगतः सर्वकारणम्॥२८॥

इसका आशययह है कि निर्गुणही रूपकरके प्रकाशमानं जो तुमहौ तिनकोमाया आवरण करतीहै अर्थात् अपने कल्पित संबन्ध करके तुम्हारासंबंन्ध अपने में मानते नहीं इससे निर्गुणही कहाये जातेहो और उस अवस्था में विशेष आकारकरके रहितहै इससे अव्याकृत कहातीहै॥और हे राम सांख्य मतवाले उसी शक्तिको मूलप्रकृतिनाम करके कहतेहैं और कोई कोई आचार्य्यों करके माया और अविद्या औसंसृति और बन्धशब्दकर वही अव्याकृत प्रकृति कही जाती है २२ और हे राम तुम करके क्षोभको प्राप्त अर्थात् सत्त्वादि गुणों के न्यूनाधिक्य भावको प्राप्त जो प्रकृति है सो प्रथममहत्तत्त्व को उत्पन्न करती हुई सबविकारोंकी आदि है और सकल ब्रह्माण्डकी सृष्टि इसीसे होती है इससे इस प्रथम विकारका नाम महान् है॥इसका आशय यह है कि जब त्त्व रज तम ये तीनों गुण बराबर रहते हैं तब तक प्रलयही बना रहता हैऔर उन्हीं गुणोंकी साम्य अवस्थाको मूलप्रकृति और कारणावस्था कहते हैं और जब सृष्टि होने का समय होताहै तो चैतन्यके प्रतिबिम्बले उन गुणोंमें कंमती बढ़ती भाव होता है उसीको क्षोभ कहते हैं तब वही प्रकृति महत्त्वरूप करके परिणामको प्राप्ति होती है तब उसको महान् कहते हैं यद्यपि इस महत्तत्वमें तीनों गुणहैं तो भी सत्त्वगुण प्रधान है और जब इससे और विकार उत्पन्न होने को होताहै तो इसमें रजोगुण प्रधान होता है तब इसीसे सूत्रात्मा हते हैं और हेराम तुम करके प्रेरित जोमहत्त्व तिससे अहंकार उत्पन्न होताहुआ २३ हे राम सो अहंकार त्रिगुण महत्तत्त्वके कार्य होने से तीन प्रकारका होताहुआ सात्त्विक राजस तामस ये तीन भेद करके कहाजाता है २४ तिस में तामस अहंकार से शब्दस्पर्श रूप रस गन्ध ये पांच तन्मात्रा उत्पन्न होती हुई तिन तन्मात्राओंसे आकाश आदि स्थूल भूतहोते हुये तिनके गुण अगाड़ी अगाड़ी के अधिक अधिक क्रमसे हुये इसका आशय यह है कि शब्द तन्मात्रा से आकाश उत्पन्नहुआ और शब्द सहित स्पर्श तन्मात्रासेवायु उत्पन्नहुआ और शब्द स्पर्श सहित रूपतन्मात्रासे तेज उत्पन्नहुआ और शब्द स्पर्शरूप सहित रसतन्मात्रासे जल उत्पन्नहुआ और शब्दस्पर्श रूप रससहित गन्ध

तन्मात्रासे पृथ्वी उत्पन्नहुई और इसी से आकाशका तौ एकशब्दही गुणहुआ और वायुमें एक अपना एक अपने कारणका मिलाकर शब्द स्पर्श दोगुणहुये और अग्निके शब्द स्पर्श रूप ये तीनगुणहुये और जलके शब्दस्पर्शरूप रसयेचारगुणहुये औरपृथिवीके शब्द स्पर्शरूप रसगन्ध येपांचौगुणहुये २५ औ हे राम राजस अहंकार से इन्द्रिय सबहोती हुई और सात्त्विक अहंकारसे इन्द्रियों के देवता और मन उत्पन्न हुआ और इन सब सूक्ष्म तत्त्वोंसे समष्टि रूपहोने से सब जगत्का प्राणरूप सूत्रात्मा हिरण्य गर्भहोताहुआ जो सबमें व्यापक और महत्तत्त्व का अभिमानी महान कहाजाता है तिसमें चक्षु १ श्रोत्र २ त्वक्३ रसना ४ घ्राण ५ ये पांचज्ञानेन्द्रिय कहाती हैं और चक्षु १ इंद्रियका विषयरूप है और श्रोत्र२ इन्द्रियका विषय शब्दहै और त्वचा ३ इन्द्रियका विषयस्पर्श है और प्राण ४ इन्द्रियका विषयगन्धहै और जिह्वामें जो रसना इन्द्रियहै तिसका विषय मधुर आदिरसहैं और वाक् १ औ हाथ २ और पांव ३ और गुदा ४ और लिंग ५ ये कर्मेन्द्रियहैं इनमें चक्षु इन्द्रियका देवता सूर्य है १और श्रोत्र के दिशा २ और त्वचाका पवन ३ औ रसनाका वरुण ४ और प्राणके अश्विनीकुमार ५ ये ज्ञानेंद्रियों के देवताहैं और वाक् इन्द्रियका देवता अग्निहै १ और हाथके इन्द्र २ और पांवके विष्णु ३ और गुदाकामित्र ४ और लिंगकाब्रह्मा ५ ये कर्मेन्द्रियों के देवता हैं और मन दशइन्द्रियों की प्रवृत्ति करानेवाला ग्यारवां अंतर की इन्द्रियहै तिसका देवता चन्द्रमा है और सबजीवों के प्राण और इंद्रिय और देवता इनको अपना मानैंअर्थात् ये सब मेरेही हैं मैं इन सबों का स्वामी हौं ऐसा जिसको अभिमान होय उसको हिरण्यगर्भ कहतेहैं २६ हे राम तिस हिरण्यगर्भसे विराट् उत्पन्न होता हुआ अर्थात् सब प्राणियोंके स्थूलशरीर और समुद्र पर्वत नदी वृक्ष पृथिवी आदि सम्पूर्णब्रह्माण्डहोता हुआ और इस स्थूलब्रह्माण्डको जो अपनामान रहाहै अर्थात् ये सब मेरे हीहैंऔर मैं इनका स्वामीहौं उसकोब्रह्माकहते हैं मौ वैराज पुरुषकहते है फिर उस ब्रह्मासें सब स्थावर जंगमशररोिंके अभिमानी न्यारे न्यारे प्राणी उत्पन्न होते भये २७ तिसमें भी कोई काल में कोई प्राणीहुये कोई कालमें कोई और काल सहित किसी कर्मकरके देवता हुये और किसी कर्म करके मनुष्य होते हुयेऔर किसीकाल सहित कर्मकरके शूकरआदि तिर्यग्योनि के प्राणी उत्पन्नहुये इसप्रकार करके हेराम तुमहीं रजोगुणसे सब जगत्‌का कारणब्रह्मरूपहौ२८॥

सत्त्वाद्विष्णुस्त्वमेवास्य पालकः सद्भिरुच्यते॥
लये रुद्रस्त्वमेवास्य त्वन्मायागुणभेदतः॥२९॥

जाग्रत्स्वप्नसुषप्त्याख्या वृत्तयो बुद्धिजैर्गुणैः॥
तासां विलक्षणो रामस्त्वं साक्षी चिन्मयोऽव्ययः॥३०॥

सृष्टिलीलां यदा कर्त्त

** मीहसे रघुनन्दन॥
अंगीकरोषि माया त्वं तदा वैगुणवानिव॥३१॥**

राम माया द्विधा भाति विद्याविद्येति ते सदा॥
प्रवृत्तिमार्गनिरता अविद्यावशवर्तिनः॥

निवृत्तिमार्गंनिरता वेदांतार्थविचारकाः॥३२॥

त्वद्भक्तिनिरता ये च ते वै विद्यामयाः स्मृताः॥
अविद्यावशगा ये तुनित्यं संसारिणश्च ते॥

विद्याभ्यासारता ये तु नित्यमुक्तास्त एवहि॥३३॥

लोके त्वद्भक्तिनिरतास्त्वन्मंत्रोपासकाश्चये॥
विद्या प्रादुर्भवेत्तेषां नेतरेषां कदाचन॥३४॥

अतस्त्वद्भक्तिसम्पन्ना मुक्ता एव न संशयः॥
त्वद्भक्तिमृतहीनानां मोक्षःस्वप्नेऽपि नो भवत्॥३५॥

और सत्त्वगुणते सबजगत् के पालक विष्णुभी महात्मा पुरुषोंकर के तुमहीं कहे जातेहौऔर तुम्हारी मायाके तमोगुणके भेदसे प्रलय समय में रुद्र भी तुम्हीहौ २९ औ हेराम इसीप्रकार से तुम्हारी मायाके जो सत्त्वरज तम तीन गुणतिन्हों करके जायत् स्वप्न सुषुप्ति ये तीन अवस्थाबुद्धिही की हैं और तुम तौ इनतीनों से विलक्षण अविनाशी चिन्मय साक्षीमात्रहौ३० औ हे राम जब सृष्टि लीलाकरने की इच्छा करतेहौतब गुणवान्की नाई उस मायाको अंगीकार करतेहौ ३१ औहेराम तुम्हारी मायाही विद्या और अविद्या ये दोभेद करके लोकमें प्रकाशित होरही हैं तिसमें जे प्रवृत्ति मार्ग में प्रीतिकर रहेहैं वे अविद्याके वशहैं और जे वेदान्त शास्त्र के विचारमें तत्पर निवृत्तिमार्ग में प्रीति युक्तहैं ३२ और जे आपकी भक्तिमें प्रीति कररहे हैं ते विद्या शक्ति युक्तहैं और जे अविद्याके वशीभूत हैं वे नित्य संसारी कहाते हैं और जे विद्या के अभ्यासमें तत्पर हैं वे नित्य मुक्त कहाते हैं ३३ और जे लोकमें तुम्हारी भक्तिमें तत्पर हैं और तुम्हारे मन्त्र के उपासकहैं तिनको विद्या आपही प्रकट होतीहै और जो विमुख हैं तिनको तो कभी विद्या होतीही नहीं ३४ इसकारणसे जे तुम्हारी भक्ति युक्त हैं वे मुक्तही हैं इसमें कुछ संशयनहीं और तुम्हारे भक्तिरूप अमृत करके जे हीनहैं तिनको स्वप्नमें भी मोक्ष दुर्लभहै ३५॥

किं राम बहुनोक्तेन सारं किंचिद्ब्रवीमिते॥
साधुसंगतिरेवात्र मोक्षहेतुरुदाहृतः॥३६॥

साधवः समचित्ता ये निस्पृहा विगतैषिणः॥
दांताः स्पृशां तास्त्वद्भक्ता निवृत्ताखिलकामतः॥३७॥

इष्टप्राप्तिविपत्योश्च समाः संगविवर्जिताः॥
संन्यस्ताखिलकर्माणः सर्वदा ब्रह्मतत्पराः॥३८॥

यमादिगुणसम्पन्नाः संतुष्टा येनकेनचित्॥
सत्संगमो भवेद्यर्हि त्वत्कथाश्रवणे रतिः॥३९॥

समुदेति ततो भक्तिस्त्वयि राम सनातने॥
त्वद्भक्तावुपपन्नायां वि

     ज्ञानं विपुलं स्फुटम्॥४०॥

उदेति मुक्तिमार्गोऽयमाद्यश्चतुरसेवितः॥
तस्माद्राघव सद्भक्तिस्त्वयि मे प्रेमलक्षणा॥४१॥

सदा भूयाद्धरेः संगस्त्वद्भक्तेषु विशेषतः॥
अद्य मे सफलं जन्म भवत्संदर्शनादभूत्॥४२॥

अद्य मे क्रतवः सर्वे बभूवुः सफलाः प्रभो॥
दीर्घकालं मया तप्तमनन्यमतिना तपः॥
तस्येह तपसो राम फलं तव यदर्चनम्॥४३॥

औ हे राम बहुत कहने से क्या है सबकासार मैं तुमसे कहताहौंकि साधु पुरुषोंका संगम जो है सोई केवल मोक्षका कारण है ३६ और साधुवेहैंजे सम चित्तहैं अर्थात् शत्रुमित्रमें बैर प्रीति रहितहैं औजिनको किसी बात की इच्छा नहीं और विद्यमान भी पुत्र धन आदि पदार्थों में जे प्रीति रहित हैं और जे इन्द्रियों के दमन करनेवाले हैं और जिन्होंने मनको वशकियाहै और जे तुम्हारी भक्तियुक्त हैं और जिन्हों ने सब कामना त्यागदी हैं ३७ और जे इष्टवस्तुकी प्राप्तिमें व नाश होजाने में समानहैं अर्थात् हर्ष विषाद रहितहैं और जेदुरसंगकरके रहितहैं और त्याग करदिये हैं संपूर्ण कर्म जिन्होंने और ब्रह्म विचार में तत्पर हैं ३८ और यम नियम आसन प्राणायाम प्रत्याहार ध्यान धारणा समधिरूप जो योगशास्त्र में कहेहुये गुणहैं तिनकरके युक्तहैं और जो कुछ दैवयोगसे मिलजाय उसी करके संतोष युक्त हैं हे राम ऐसे साधु पुरुषों का जब कभी सत्संग होताहै तब तुम्हारी कथाके श्रवणमें प्रीति उत्पन्न होती है ३९ तिससे फिर तुम्हारेमें भक्ति होतीहै और भक्तिले फिर निर्मलज्ञान होता है ४० उस ज्ञानसे मुक्ति होती है यह मार्गबड़े बुद्धिमान् पुरुषों करके सेवितहै है राम तिस कारण से सदा प्रेम लक्षणा भक्ति तुममें मेरीहोय ४१और तुम्हारे भक्तों में सदा संगहोय और आज आपके दर्शनले मेरा जन्म सफलहुआ ४२ और आजमेरे सब यज्ञसफल हुये और जो एकाग्रचित्त करके बहुत काल मैंने तप कियाथा उस तपकाफल यही है जो प्रत्यक्ष आपका पूजन किया ४३॥

सदा मे सीतया सार्द्धं हृदये वस राघव॥
गच्छतस्तिष्ठतो वाऽपि स्मृतिःस्यान्मे सदा त्वयि॥४४॥

इति स्तुत्वा रमानाथमगस्त्यो मुनिसत्तमः॥
ददौ चापं महेंद्रेण रामार्थे स्थापितं पुरा॥४५॥

अक्षय्यौ बाणतूणीरौखड्गो रत्नविभूषितः॥
जहि राघव भूभारभूतं राक्षसमण्डलम्॥४६॥

यदर्थमवतीर्णोसि मायया मनुजाकृतिः॥
इतो योजनयुग्मे तु पुण्यकाननमण्डितः॥४७॥

अस्ति पञ्चवटीनाम्नाआश्रमो गौतमीतटे॥
नेतव्यस्तत्र ते कालः शेषो रघुकुलोद्वह॥
तत्रैव बहुकार्याणि देवानां कुरु

           सत्पते॥४८॥

श्रुत्वा तदागस्त्यसुभाषितं वचः
स्तोत्रं च तत्त्वार्थसमन्वितं विभुः॥
मुनिं समाभाष्य मुदान्वितो ययौ
प्रदर्शितं मार्गमशेषविद्धरिः॥४९॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे आरण्यकांडे तृतीयः सर्गः॥३॥

औ हे राघव सदा सीता करके सहित मेरे हृदयमें वास करिये और चलते बैठते सदा तुम्हारा स्मरणरहै ४४ अब मुनियों में श्रेष्ठ जो अगस्त्य सो इस प्रकार श्रीरामकी स्तुति करके जो धनुष इन्द्रने राम के लिये अगस्त्यजी के पास पहिले रक्खाथा उस धनुषको देतेहुये ४५ और बाणों से भरे हुये औ कभी जिनमें से बाणनहीं घटैंऐसे दोतरकस औरत्नों करके भूषित खड्ग इनको देतेहुये और यह कहा कि हेरामचन्द्र इनशस्त्रों करके पृथ्वी का भार जो राक्षसोंका समूहतिसको मारिये ४६ जिसके अर्थ आपने मायाकरके मनुष्य अवतार धारण कियाहै और यहांले दोयोजन अर्थात् आठकोस एक पुण्यवनकरके भूषित बड़ा शोभायमान ४७ पञ्चबटीनाम करके आश्रमहै गोदावरी नदीके तटपै हेराम वहां जो वनवासका कालबाकीरहा सो व्यतीत करिये और हे महात्मापुरुषों के पालक उसी स्थानपै सब देवतों के कार्य सिद्धकरिये अर्थात् राक्षसोंका बध करिये ४८ अब श्रीरामचन्द्र ये अगस्त्यजी के कहेहुये वचन सुनिकै और यथार्थ अपना स्तोत्र सुनके बड़े आनन्दसे मुनिसे संभाषण करके सब पदार्थों के जाननेवाले जो राम सो मुनिका दिखाया हुआ जो पञ्चवटीका मार्ग तिसको जातेहुये ४९॥

इत्यध्यात्मरामायणे उमाशिवसंवादे आरण्यकांडे भाषाटीकायांतृतीयः सर्गः॥३॥

सूत उवाच॥

मार्गे व्रजन्ददर्शाथ शैलशृंगमिव स्थितम्॥
गृद्धं जटायुषं रामः किमेतदिति विस्मितः॥१॥

धनुरानय सौमित्रे राक्षसोऽयं पुरः स्थितः॥
इत्याह लक्ष्मणं रामो हनिष्याम्यृषिभक्षकम्॥२॥

तच्छ्रुत्वारामवचनं गृद्ध्राराट्भयपीडितः॥
वधार्होऽहं न ते राम पितुस्तेहं प्रियः सखा॥३॥

जटायुर्नाम भद्रन्ते गृद्ध्रोऽहं प्रियकृत्तव॥४॥

पंचवट्यामहं वत्स्ये तवैव प्रियकाम्यया॥
मृगयायां कदाचित्तु प्रयाते लक्ष्मणेऽपि च॥५॥

सीता जनककन्या मे रक्षितव्या प्रयत्नतः॥
श्रुत्वा तद्गृद्ध्रवचनं रामः सस्नेहमब्रवीत्॥६॥

साधु गृद्ध्र महाराज तथैव कुरुमेप्रियम्॥
अत्रैव मे समीपस्थो नातिदूरे वने वसन्॥७॥

दो० चौथे सर्ग जटायुको मिले लषण सियराम।
पञ्चवटी वसिलषण सों कहो रामनिजधाम॥१॥

अब श्रीमहादेवजी पार्वतीसे कहते हैं हे पार्वति अब इसके उपरांत श्रीरामचन्द्र मार्ग में जातेहुये पर्वतके श्रृंगके तुल्य बड़ाभारी बैठाहुआ गृद्ध्रराज जो जटायु तिसको देखतेहुये और देखके यह कौन है ऐसे आश्चर्ययुक्त चिन्तन करतेहुये १ और लक्ष्मणसे यह कहतेहुये कि हे लक्ष्मण मेरा धनुष जाओ यह कोई ऋषियों के भोजनकरनेवाला राक्षसआगे बैठाहै इसको मैं बधकरौं २ तब यह वचन रामका सुनिकै बड़ाभय पीड़ित गृद्ध्रराज बोला कि हेराम मैं तुम्हारेवधके योग्य नहीं हौं जिससे कि मैं तुम्हारे पिताका सखाहौंऔर जटायु मेरा नामहै मैं गृद्ध्रहौंऔर तुम्हारे प्रियका करनेवाला हौं औहे राम तुम्हारा कल्याण होय ४ और पंचवटी में मैं तुम्हारीही प्रीतिकी इच्छासे वास कररहा हौं औतुम व लक्ष्मण जबकभी शिकारखेलने को जाउगे ५ तब जनकनन्दिनी सीताकी रक्षामैंयत्नसे करौंगा यह गृद्ध्रके वचन सुनिकै रामचन्द्र स्नेह पूर्वक से बोलते हुये ६ कि हे गृद्दूराज अच्छा वचन तुमने कहा और तैसेही मेरा प्रिय तुमकरौऔर इसी पंचवटी में नहीं अत्यंत दूर मेरे समीप बसतेरहौ ७॥

इत्यामंत्रितमालिंग्य ययौ पंचवटीं प्रभुः॥
लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा सीतया रघुनंदनः॥८॥

गत्वा ते गौतमीतीरं पंचवट्यां सुविस्तरम्॥
मंदिरं कारयामास लक्ष्मणेन सुबुद्धिना॥९॥

तत्र ते न्यवसन्सर्वे गंगाया उत्तरे तटे॥

कदंबपनसाम्रादिफलवृक्षसमाकुले॥१०॥

विविक्ते जनसंबाधवर्ज्जिते नीरुजस्थले॥
विनोदयेज्जनकजांलक्ष्मणेनविपश्चिता॥११॥

अध्युवास सुखंं रामो देवलोक इवामरः॥
कंदमूलफलादीनि लक्ष्मणोनुदिनं तयोः॥१२॥

आनीय प्रददौ रामसेवातत्परमानसः॥
धनुर्वाणधरो नित्यं रात्रौ जागर्ति सर्वतः॥१३॥

स्नानं कुर्वंत्यनुदिनं त्रयस्ते गौतमीजले॥
उभयोर्मध्यगता सीता कुरुते च गमागमौ॥१४॥

ऐसा अपना आशय जनाइकैऔर गृद्ध्रको हृदयसे भेंटके सीता लक्ष्मण सहित राम पंचवटीको जातेहुये ८फिर श्रीराम पंचवटी में जाकर गोदावरी नदी के तीर विस्तार युक्त बड़ा सुन्दर मन्दिर बुद्धिमान् लक्ष्मण से बनवाते हुये ९ फिर उस गोदावरी के उत्तर तटके समीप मन्दिर में राम लक्ष्मण सीता वास करतेहुये कैसा वह आश्रम है जो कदम्ब और कटहर और आम इत्यादि फल सहित वृक्षोंकर के शोभायमान होरहाहै १० और मनुष्यों के समूहकरके

रहित और कोई रोगकी बाधा वहां नहीं है ऐसे उस आश्रम में एकांत देशमें श्रीराम सीताजी को क्रीड़ाकराते हुये ज्ञानवान् लक्ष्मण करके सहित ११ देवलोकमें देवतनकी नाईं सुख पूर्वक वासकरतेहुये और रोज रोज लक्ष्मणजी कंदमूल फललाके राम सीताको निवेदन करते हैं १२ और रामचन्द्रकी सेवामें तत्परहै मन जिनका ऐसे जो लक्ष्मण सो रात्रि में नित्य धनुषबाणलेके चारों तरफ से रक्षाकरतेहुये जागते हैं १३ और तीनोंजने दिन दिन गोदावरी नदी में स्नानकरते हैं और राम लक्ष्मणके बीच में सीताचलती हैं १४॥

आनीय सलिलं नित्यं लक्ष्मणः प्रीतिमानसः॥
सेवतेऽहरहः प्रीत्या एवमासन् सुखं त्रयः॥१५॥

एकदा लक्ष्मणो राममेकांते समुपस्थितम्॥
विनयावनतो भूत्वा पप्रच्छ परमेश्वरम्॥१६॥

भगवन् श्रोतुमिच्छामि मोक्षस्यैकांतिकीं गतिम्॥
त्वत्तः कमलपत्राक्ष संक्षेपाद्वक्तुमर्हसि॥१७॥

ज्ञानं विज्ञानसहितं भक्तिवैराग्यबृंहितम्॥

आचक्ष्व मे रघुश्रेष्ठ वक्ता नान्योऽस्ति भूतले॥१८॥

श्रीराम उवाच॥

शृणु वक्ष्यामि ते वत्स गुह्याद्गुह्यतरं परम्॥
यद्विज्ञाय नरो जह्यात्सद्यो वैकल्पिकं भ्रमम्॥१९॥

आदौ मायास्वरूपं ते वक्ष्यामि तदनन्तरम्॥
ज्ञानस्य साधनंप श्चाज्ज्ञानं विज्ञानसंयुतम्॥२०॥

ज्ञेयं च परमात्मानं यज्ज्ञात्वा मुच्यते भयात्॥
आनात्मनि शरीरादावात्मबुद्धिस्तु या भवेत्॥२१॥

और प्रीति युक्त लक्ष्मण दिनदिन जल भरिकै बड़ी प्रीति से रामचन्द्रकासेचनकरतेहैं इसप्रकार सुखपूर्वक तीनोंजने पंचवटी में वासकरते हुये १५ एक समयमें लक्ष्मण एकांतमें रामचन्द्रजीको बैठे देखकर बड़े बिनय से नम्रहोकर परमेश्वर जो राम तिनसे पूछते हुये १६ कि हे भगवन् हेकमलवत् विशालनेत्र आपसे मोक्षमार्ग की निश्चययुक्त गति मैं सुनाचाहताहौं सो संक्षेपसे कृपाकरकै कहिये १७ और रघुश्रेष्ठ भक्ति वैराग्य करके बृद्धको प्राप्त आत्मा साक्षात्कार सहित जो ज्ञानहै तिसको कहिये जिससे आपके तुल्य कोई वक्ता पृथिवी में नहीं है १८ अब श्रीरामचन्द्र लक्ष्मणजी से कहते हैं हेवत्सगुप्तसे गुप्त जो ज्ञानहै सो मैं तुमसे कहताहूँ जिसको जानकरके मनुष्य इस संसाररूपी भ्रमको शीघ्रही त्यागकरदेवै १९ हे लक्ष्मण प्रथम तो मायाकास्वरूप मैं तुम से कहताहूं फिर तिसके अनन्तर ज्ञानका साधन फिर तिसके पीछे विज्ञान सहित अर्थात् आत्म साक्षात्कार सहित ज्ञानको कहताहौं२० और जानिवे योग्य जो परमात्मा है तिसको भी कहताहूं जिसको जानिकै संसाररूप भयसे

छूट जाताहै है लक्ष्मण आत्मरहित देह यादि पदार्थ में जो आत्म बुद्धि होना अर्थात् मैंहौंऐसी बुद्धि होना २१॥

सैव माया तयैवासौ संसारःपरिकल्प्यते॥
रूपे द्वे निश्चिते पूर्वं मायायाः कुलनंदन॥२२॥

विक्षेपावरणे तत्र प्रथमं कल्पयेज्जगत्॥
लिंगाद्याब्रह्मपर्यंतं स्थूलसूक्ष्मविभेदतः॥२३॥

अपर त्वंखिलं ज्ञानरूपमावृत्य तिष्ठति॥
मायया कल्पितं विश्वं परमात्मनि केवले॥२४॥

रज्जौ भुजंगवद् भ्रांत्या विचारे नास्ति किंचन॥
श्रूयते दृश्यते यद्यत्स्मर्यते वा नरैः सदा॥२५॥

असदेव हि तत्सर्वं यथा स्वप्नमनोरथौ॥
देह एव हि संसारवृक्षमूलं दृढं स्मृतम्॥२६॥

तन्मूलः पुत्रदारादिबंधः किं तेऽन्यथाऽत्मनः॥२७॥

देहस्तु स्थूलभूतानां पंच तन्मात्रपंचकम्॥
अहंकारश्च बुद्धिश्च इंद्रियाणि तथा दश॥२८॥

सोई माया है जिसकरके यह सब संसार कल्पना किया जाता है औहे लक्ष्मण तिसमाया के दोरूप निश्चित कियेगये हैं २२ एकविक्षेप और दूसरा आवरण अर्थात् दोशक्ती मायामें जो रहती हैं तिसमें विक्षेपशक्ति तो स्थूल सूक्ष्म भेद करके महत्तत्त्वको आदिलेके ब्रह्मा पर्यंत जगत्को कल्पनाकरती है अर्थात् रचती है २३ और यावरण शक्तितौ संपूर्ण ज्ञानरूपको आवरणकरके अर्थात् आच्छादन करके स्थित है इस प्रकार माया केवल परमात्माही में ज्ञानको आच्छादनकर जगत्रूप की कल्पना करती है २४ जैसे रज्जुमें अज्ञानही वास्तव रज्जु रूपको ढकिकै सर्पको रचताहै भ्रांतिकर के विचार करनेसे तो सर्प आदि कुछ भी नहीं रहता केवल रज्जुही प्रतीत होती ऐसेही हे लक्ष्मण जो पदार्थ सुननेमें और देखने में और स्मरणसे आताहै २५ सो सब मिथ्याही जातो जैसे स्वप्न के देखे सुने पदार्थ मिथ्याही होते हैं तिससे देहही संसाररूपी वृक्ष की दृढ़ मूलहै २६ क्योंकि देहही संसारके कारणरूप कर्मोंको उत्पन्न करता है और देहही मूलकारण जिसका ऐसा पुत्रदाराआदि बन्धनहै और देह नहोय तौ आत्माके पुत्र दारादिक कौन होते हैं २७ सो देह दो प्रकारकाएक स्थूल एक सूक्ष्म तिसमें स्थूलमहाभूतों करके रचा हुआजो दिखाई पड़ता मनुष्यादिदेहहै सो स्थूल देह है और शब्द स्पर्श रूप रस गन्ध येपंचतन्मात्रा और पंचज्ञानेन्द्रिय औपंच कर्मेन्द्रिय २८॥

चिदाभासो मनश्चैव मूलप्रकृतिरेव च॥
एतत्क्षेत्रमिति ज्ञेयं देह इत्यभिधीयते॥२९॥

एतैर्विलक्षणो जीवः परमात्मा निरामयः॥
तस्य जी

वस्य विज्ञानसाधनान्यपिमे शृणु॥३०॥

जीवश्च परमात्मा च पर्यायो नात्र भेदधीः॥
मानाभावस्तथा दंभहिंसादिपरिवर्जनम्॥३१॥

पराक्षेपादिसहनं सर्वत्रावक्रतस्तथा॥
मनोवाक्कायसद्भक्त्या सद्गुरोः परिसेवनम्॥३२॥

बाह्याभ्यंतरसंशुद्धिः स्थिरता सत्क्रियादिषु॥

मनोवाक्कायदण्डश्च विषयेषु निरीहता॥३३॥

निरहंकारता जन्मजराद्यालोचनं तथा॥
असक्तिः स्नेहशून्यत्वं पुत्रदारधनादिषु॥३४॥

इष्टानिष्टागमे नित्यं चित्तस्य समता तथा॥
मयि सर्व्वात्मके रामे ह्यनन्यविषया मतिः॥३५॥

** **और मन बुद्धि अहंकार यह अठारह तत्त्वका सूक्ष्मदेहहै और मूलप्रकृति रूप ईश्वर का देहहै और मूलप्रकृति सहित अहंकारादि तत्त्वोंका क्षेत्र भी कहतेहैं और देह कहतेहैं और यह सूक्ष्म देह चिदाभास है अर्थात् चित्त के सदृशप्रतीत हो रहा है जिससे बुद्धि करके मैंस्थूलहौंकशहौंऐसा प्रतीत होताहै २९ औरजीवतौ इनसबोंसे विलक्षण है अर्थात् न्याराहै और परमात्माही है और दोषरहितहै और सुजीव औरपरमात्मा इनदोनों का एक ही अर्थहै शब्द मात्रकाभेदहै वास्तवमें कुछ भेदनहीं और दोनों देशकालपरिच्छेद से रहित हैं अर्थात् इसदेश में है और देशमें नहीं है और इसकालमें है और दूसरे काल में नहीं रहैगा ऐसा परिच्छेद जीव औ परमात्मा में नहीं है है लक्ष्मण तिसजीव को ऐसेज्ञान होने में जे साधनहैं तिनको मैं कहताहूं ३० दंभ हिंसा आदि दोषों का त्याग करना अर्थात् औरोंके ठगने को महात्माओं कासा बेष बनाना और भीतर कामक्रोध लोभसे भरेरहैं यह दंभ कहाताहै तिसको त्यागना ३१ और मनवचन कर्म करके तीन प्रकारकी हिंसा होती है तिसको भी छोड़ना और कोई अपनासे कठोर वचनकहै उसको सहिलेना और किसीसे कुटिलता नहीं करनी और मन वचन कायकरके भक्ति से सद्गुरु का सेवन करना ३२ और बाहर से मृत्तिका जल आदि करके शुद्ध रहना और भीतर से कपट त्याग से शुद्ध रहना और सत्कर्मों में स्थिरता करना अर्थात् अवश्य हमको यह करना चाहिये यह बुद्धिकरना और मनसे किसीका अनिष्ट अर्थात् बुरा न चिंतन करैऔर बाणी करके किसीका हृदय न विदारण करना और हाथसे किसी की ताड़ना न करना ३३ और विषयोंमें आसक्त न होना और गर्वका छोड़ना और जन्म जरादि संसार के दोषोंका विचार करना और पुत्र दारादिकों में स्नेह नहीं बढ़ाना ३४ और अपनाको प्रिय वस्तुके मिलने में हर्ष न करना और अप्रियके मिलनेमें विषादन करना और सर्वात्मा जो मैं रामहौं तिसमें अनन्य भक्ति करना अर्थात् सबसे अधिक प्रीति करना ३५॥

जनसंबाधरहितशुद्धदेशनिषेवणम्॥
प्राकृतैर्जनसंघैश्च ह्यरतिः सर्वदा भवेत्॥३६॥

आत्मज्ञाने सदोद्योगो वेदांतार्थावलोकनम्॥
उक्तैरेतैर्भवेज्ज्ञानं विपरीतैर्विपर्ययः॥३७॥

बुद्धिप्राणमनोदेहाऽहंकृतिभ्यो विलक्षणः॥
चिदात्माऽहं नित्यशुद्धो बुद्ध एवेति निश्चयम्॥३८॥

येन ज्ञानेन संवित्ते तज्ज्ञानं निश्चितं च मे॥
विज्ञानं च तदेवैतत्साक्षादनुभवेद्यदा॥३९॥

आत्मा सर्वत्र पूर्णः स्याच्चिदानंदात्मकोऽव्ययः॥

बुद्ध्याद्युपाधिरहितः परिणामादिवर्ज्जितः॥४०॥

स्वप्रकाशेन देहादीन् भासयंननपावृतः॥
एक एवाद्वितीयश्च सत्यज्ञानादिलक्षणः॥४१॥

असंगः स्वप्रभो द्रष्टा विज्ञानेनावगम्यते॥
आचार्यशास्त्रोपदेशादैक्यज्ञानं यदा भवेत्॥४२॥

और मनुष्यों के समूह रहित जो पवित्र देश तिसका सेवन करना और संसारी मनुष्यों से प्रीति नहीं करना ३६ और आत्मज्ञामें सदा उद्योग करना और वेदान्त शास्त्र के अर्थका सदा विचार करना इन साधनों करके ज्ञान होता है और इनसे विपरीत अर्थात् उलटे आचरणों करके संसार होताहै ३७ और हे लक्ष्मण बुद्धि और प्राण ओ मन औ देह और अहंकार इनसे विलक्षण भर तरहका अर्थात् इनसे न्यारा शुद्धबुद्ध चिदात्माही मैंहों ऐसे निश्चय को ३८ जिज्ञान करके प्राप्तहोय वह ज्ञान है यह मेरा निश्चय है और साक्षात् जब आत्मस्वरूपका अनुभव करे अर्थात् जानैंतब उसको विज्ञान कहते ३६ और हे लक्ष्मण आत्मा सब जगह परिपूर्ण होरहा है और चित्रूपही आनन्द स्वरूप है और नाशरहितहै औ बुद्ध्यादि उपाधि से रहित हैं और परिणाम आदि विकारसे रहितहै तहां और और रूप बदलने को परिणाम कहते हैं ४० और अपने प्रकाशकरके देहादिकों को प्रकाश करताहु आआप आवरण रहितहै और एकहै और अद्वितीय है जिससे दूसराकोईनहीं है और सत्यज्ञान अनन्तस्वरूपहै ४१ और संग रहितहै भौ स्वयंप्रकाशहै और सबका देखने वालाहै और विज्ञानकरके जानाजाता है औरजिस अवस्थामें शास्त्र और आचार्य के उपदेश से जीव और परमात्मा इनका एकाकारज्ञान होता है ४२॥

आत्मनोर्जीवपरयोर्मूलाविद्या तदेव हि॥
लीयते कार्यकरणैः सहैव परमात्मनि॥४३॥

सावस्था मुक्तिरित्युक्ता ह्युपचारोऽयमात्मनि॥

इदं मोक्षस्वरूपं ते कथितं रघुनंदन॥४४॥

ज्ञानविज्ञानवैराग्यसहितं मे परात्मनः॥
किंत्वेतद्दुर्लभं मन्ये मद्भक्तिविमुखात्मनाम्॥४५॥

चक्षुष्मतामपि यथा रात्रौ सम्यक्न दृश्यते॥
पदं दीपसमेतानां दृश्यते सम्यगेवहि॥४६॥

एवं मद्भक्तियुक्तानामात्मा सम्यक्प्रकाशते॥
मद्भक्तेः कारणं किंचिद्वक्ष्यामि शृणु तत्त्वतः॥४७॥

मद्भक्तसंगो मत्सेवा मद्भक्तानां निरंतरम्॥
एकादश्युपवासादि मम पर्वानुमोदनम्॥४८॥

मत्कथाश्रवणे पाठे व्याख्याने सर्वदा रतिः॥
मत्पूजापरिनिष्ठा च मम नामानुकीर्त्तनम्॥४९॥

उसी अवस्थामें कार्य कारण सहित मूल अविद्या परमात्माही में लीन होती है ४३ सोई मुक्ति अवस्थाकही जातीहै परन्तु यहभी सबव्यवहार कंठचामीकरन्याय करके गौणही है मुख्य नहीं बन सक्ताहै इसका आशय यह है कि जैसे कोई कंठमें तो सुवर्ण मणिधारण करे है परन्तु भूलिके घर और वनमें खोजता फिरताहै फिर दैवगतिसे किसी जानकार मनुष्यने कहा कि भरे मणि तौ तू कण्ठहीमें धारणकरे है कहां और जगह खोजता है फिर यह सुनि के वहपुरुष भी स्मरणकर कंठमें देखनेलगा तो उसको मणिमिली और उसके मिलने से आनन्द भी हुआ और यह कहताहै कि मणि मुझको मिलगईतौ देखिये जैसे उसको मणिका मिलना गौणहै क्योंकि उसकी मणि प्राप्तिहीथी केवल उसकी भूल से इतना दुःखहुआ और भूलके दूरहोने में कोई और अपूर्व मणि नहीं मिली जिसकी मुख्य प्राप्तिहोती मिलेका मिलना तौ लोक में आरोपितत्व होने से गौणही होता है तैसे जीवभी शुद्धबुद्ध आनन्द संदोहरूप प्रथम भी था अविद्या वशते यथार्थ स्वरूपके भूलने से देहको आत्मामानने से क्लेशोंको भोगताहै जब दयालु तत्त्ववेत्ता मिला तो यथार्थ स्वयंसिद्ध अपने स्वरूपके बोधकराने से परमात्माकी प्राप्तिभी गौणहै क्योंकि वह तो सदा प्राप्त हीथा एक अविद्याकी महिमा से अप्राप्ततुल्यरहा ४४ फिर ज्ञान महिमा से जैसे का तैसाही परमानन्द रूपहुआ उसीको मोक्षकहते हैं और हेलक्ष्मण यह ज्ञान विज्ञान सहित परमात्म संबन्धी मोक्षरूप मैंने तुमसे कहा परन्तु मेरी भक्ति से जे पुरुष बिमुखहैं तिनको तो स्वयंसिद्ध भी यह ज्ञान दुर्लभही होता है ४५ जैसे नेत्र वाले पुरुषों को भी रात्रिमें अच्छी तरह नहीं देखपड़ता और दीपकहोय तो अच्छीतरह देखताहै ४६ ऐसेही जे पुरुष मेरी भक्तिकरके युक्त हैं तिनको आत्मा अच्छीतरह प्रकाश करता है और हेलक्ष्मण मेरी भक्तिका और भी कारण है तिसको मैं तत्त्व करके कहताहौं४७ मेरे भक्तोंका सत्संग और मेरी सेवा और मेरे भक्तोंकी निरन्तर सेवा और एकादशी आदि उपवास औररामनवमी आदिका उत्सवकरना ४८ और मेरीकथाके सुनने में और पाठकरने में और व्याख्यान करने में सदा प्रीति होना और मेरी पूजाकरना और मेरे में विश्वासकरके एकमेराही आश्रयकरना और मेरे नामकाकीर्त्तन करना ४९॥

एवं सततयुक्तानां भक्तिरव्यभिचारिणी॥
मयि संजायते नित्यं ततः किमवशिष्यते॥५०॥

अतो मद्भक्तियुक्तस्य ज्ञानं विज्ञानमेव च॥
वैराग्यं च भवेच्छीघ्रन्ततो मुक्तिमवाप्नुयात्॥५१॥

कथितं सर्वमेतत्ते तव प्रश्नानुसारतः॥
अस्मिन्मनः समाधाय यस्तिष्ठेत्स तु मुक्तिभाक्॥५२॥

न वक्तव्यमिदं यत्नात्मद्भक्तिविमुखाय हि॥
मद्भक्ताय प्रदातव्यमाहूयापि प्रयत्नतः॥५३॥

य इदं तु पठेन्नित्यं श्रद्धाभक्तिसमन्वितः॥
अज्ञानपटलध्वांतं विधूयपरिमुच्यते॥५४॥

भक्तानां मम योगिनां सुविमलस्वांतातिशांतात्मनां
मत्सेवाभिरतात्मनां च विमलज्ञानात्मनां सर्वदा॥
संग यः कुरुते सदोद्यतमतिःसत्सेवनानन्यधीर्मोक्ष-
स्तस्य करे स्थितोऽहमनिशं दृश्यो भवेन्नान्यथा॥५५॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे आरण्यकाण्डे चतुर्थः सर्गः॥४॥

हेलक्ष्मण इसप्रकार निरन्तर इन साधनों करके युक्त जो पुरुषहैं तिनकोमेरे विषे अव्यभिचारिणी अर्थात् कभी नहीं छूटनेवाली प्रेमलक्षणा भक्ति होती है तब फिर ऐसी भक्तिसे अधिक क्या बाक़ीरहा अर्थात् ज्ञानादि सब पुरूपार्थ इसके अंतर्गत होजाते हैं ५० इससे मेरी भक्तियुक्त पुरुषको ज्ञान और विज्ञान और वैराग्य ये शीघ्रही प्रकटहोतेहैं फिर वह मुक्तिको प्राप्तहोता है ५१हेलक्ष्मण तुम्हारी प्रश्नके अनुसार करके अर्थात् क्रमकरिके जो कुछ पूछा सो सब मैंने कहा इस मेरे कहेहुये ज्ञानमें जो कोई मनको स्थिर करके इसका अनुष्ठान करैगा अर्थात् इस मार्गमें चलैगा सो मुक्ति भागीहोगा ५२ और हे लक्ष्मण इस ज्ञानको मेरी भक्तिसे विमुख पुरुष के अर्थ कभी न देना और भक्तको तो बुलाइ करके भी देना इसका अभिप्राय यह है कि विमुख दुर्जन पुरुषतो विना कुतर्क करेरहेगा नहीं तो उसमें भगवद्धर्मकी अवज्ञा होगी और भक्तको तो यह ज्ञान प्राणसे भी अधिक प्रियहोगा तो वहांउपदेशकी सफलता होगी ५३ और जो पुरुष श्रद्धाभक्ति युक्तहो इसको नित्यपढ़ेगा वह अज्ञानके समूहको नाशकरके मुक्तिको प्राप्त होगा ५४ अब एक लोक करके सत्संगका माहात्म्य कहते हैं हे लक्ष्मण मेरी भक्ति योग करके युक्त और निर्मल हृदय जिनका और इसीसे अत्यंत शांतहै चित्त जिनका और मेरी सेवामें प्रीतियुक्त है मन जिनका और विमलज्ञानही आत्मस्वरूप जिनका अर्थात् ब्रह्मभूत हुये ऐसे मेरे भक्तोंका जो पुरुष नित्यही संग करता है और सदा ज्ञानकीप्राप्ति

में उद्यम युक्त है बुद्धि जिनकी और सत्संगमें एकाग्र है बुद्धि जिनकी ऐसे पुरुषों के हाथमें मोक्ष स्थितहै और मैं सदा उसको दिखाई देताहौं इसमें कुछ अन्यथा नहीं अथवा मेरे मिलनेका यही उपाय है और कोई नहीं है ५५

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे आरण्यकाण्डेभाषाटीकायां चतुर्थ सर्गः॥४॥

तस्मिन्काले महारण्ये राक्षसी कामरूपिणी॥
विचचार महासत्वा जनस्थाननिवासिनी॥१॥

एकदा गौतमीतीरे पञ्चवट्याः समीपतः॥
पद्मवज्यांकुशांकानि पदानि जगतीपतेः॥२॥

दृष्ट्वा कामपरीतात्मा पादसौंदर्य मोहिता॥
पश्यन्ती सा शनैरायाद्राघवस्य निवेशनम्॥३॥

तत्र सा तं रमानाथं सीतया सह संस्थितम्॥
कन्दर्पसदृशं रामं दृष्ट्वा कामविमोहिता॥४॥

राक्षसी राघवं प्राह कस्य त्वं कः किमाश्रमे॥
युक्तो जटावल्कलाद्यैः साध्यं किं तेऽत्र मे वद॥५॥

अहं शूर्पणखा नाम राक्षसी कामरूपिणी॥
भगिनी राक्षसेन्द्रस्य रावणस्य महात्मनः॥६॥

खरेण सहिता भ्रात्रा वसाम्यत्रैव कानने॥
राज्ञा दत्तं च मे सर्वं मुनिभक्षा वसाम्यहम्॥७॥

दो०।सर्ग पांच में राक्षसी लषण बिरूपा कीन्ह॥
राम खरादिकखलहते सो सुधिरावणदीन्ह॥१॥

अब श्रीमहादेवजी पार्वती से कहते हैं हे पार्वति उस समयमें वा पंचवटी के घोरवनमें जनस्थान में रहनेवाली और बड़े पराक्रम करके युक्त और अपनी इच्छासे चाहे तैसा रूप धारण करनेवाली ऐसी एक राक्षसी विचरतीहुई १ एक समय में वह राक्षसी विचरते विचरते गोदावरी नदी के तीर पंचवटी के समीप कमल और वज्र और अंकुशआदि चिह्नों करके युक्त श्रीरामके चरणोंके चिह्न पृथिवी में देखके २ चरणों के सौन्दर्य करके मोहित कामपीड़ित होकै उस मार्गमें चरणों के चिह्न देखती रामचन्द्रके आश्रममें प्राप्त होतीहुई ३ उस आश्रममें साक्षात् लक्ष्मीके नाथ सीताकरके सहित बैठेहुये कामदेवके सदृश सुन्दर रामको देखके कामवेग करके मोहित होजातीहुई ४ फिर वह काम मोहित राक्षसी रामसे बोली तुम किसके पुत्रहौ और जटा बल्कूल वस्त्रधारण कर इस आश्रम में वासकरने का क्या प्रयोजन है सो सब कहिये ५ और मुझ से पूछो तो मैं शूर्पणखा नामकरके राक्षसीहीँ और जैसी इच्छा होवे तैसा रूप धारण करनेवाली राक्षसों के स्वामी रावणकी भगिनीहौं ६ और खर जो अपना भाई है तिस करके सहित इसी वनमें वास करती हैं। और यह सब वन

का राज्य रावणने मुझको दियाहै सो मुनियोंको भक्षण करती हुई मैं यहां वास करतीहौं ७॥

त्वां तु वेदितुमिच्छामि वद मे वदतां वर॥
तामाह रामनामाहमयोध्याधिपतेः सुतः॥८॥

एषा मे सुन्दरी भार्या सीता जनकनन्दिनी॥
स तु भ्राता कनीयान्मे लक्ष्मणोऽतीव सुंदरः॥९॥

किं कृत्यं ते मया ब्रूहि कार्यं भुवनसुन्दरि॥
इति रामवचः श्रुत्वा कामार्त्ता साऽब्रवीदिदम्॥१०॥

एहि राम मया सार्द्धं रमस्व गिरिकानने॥
कामार्त्ताऽहं न शक्नोमि त्यक्तुं त्वांकमलेक्षणम्॥११॥

रामः सीतां कटाक्षेण पश्यन्सस्मितमब्रवीत्॥
भार्या ममैषा कल्याणी विद्यते ह्यनपायनी॥१२॥

त्वं तु सापत्न्यदुःखेन कथं स्थास्यसि सुंदरि॥
बहिरास्ते मम भ्राता लक्ष्मणोऽतीव सुंदरः॥१३॥

तवानुरूपो भविता पतिस्तेनैव संचर॥
इत्युक्ता लक्ष्मणं प्राह पतिर्मे भव सुंदर॥१४॥

औ हे बोलनेवालों में श्रेष्ठ तुमको मैं जानाचाहती हौं तिससे अपनाकुल गोत्र कहिये तौ राम बोलतेहुये कि हे सुन्दरि राम मेरा नामहै और अयोध्या नगरीके राजाका पुत्रहौं ८ ओर यह सुन्दरी जनककी पुत्री सीता मेरी भार्या है और यह अति सुन्दर लक्ष्मण मेरा छोटाभाई है ९ और हे सब लोकों में सुन्दरि तेरा हमसे क्या कार्य है सो कहनाचाहिये ऐसे रामके वचन सुनिकै काम पीड़ित शूर्पणखा यह कहतीहुई १० कि हे राम आवो मेरे साथपर्वत और वनमें विहार करौ और मैं तुमको देखतेही अत्यन्त कामकरके पीड़ित होरहीहौं इससे कमल नेत्र जो तुमहौ तिसके छोड़ने को समर्थ नहींहौं ११ तब श्रीरामचन्द्र नेत्रोंकी कोरसे सीताको देखतेहुये मन्द मुसक्यानकर बोलते हुये कि यह कल्याण गुणकरके युक्त और इसी ले क्षणमात्र भी त्यागकरने को अयोग्य मेरी भार्या तौ विद्यमानही है १२ और हेसुन्दरि तू तौ सौतिके दुःख करके मेरे पास कैसे रहिसकैगी इससे इसमकान के बांहर सक्ष्मण जिसका नाम ऐसा अतिसुन्दर मेराभाई है १३ सोतेरे योग्य पतिहोगा इससे तिसीके संगविचरु ऐसेजब रामने कहा तौ वह शूर्पणखा लक्ष्मणके पासजा के बोली कि हेसुन्दर तुम मेरे पतिहोवो १४ ॥

भ्रातुराज्ञां पुरस्कृत्य संगच्छावोऽद्य माचिरम्॥
इत्याह राक्षसी घोरा लक्ष्मणं काममोहिता॥१५॥

तामाह लक्ष्मणः साध्वि दासोऽहं तस्य धीमतः॥
दासी भविष्यसि त्वं तु ततो दुःखतरं नु किम्॥१६॥

तमेव गच्छ भद्रं ते स तु राजाऽखिलेश्वरः॥
तच्छ्रुत्वा पुनरप्यागाद्राघवं दुष्टमानसा॥१७॥

क्रोधाद्राम किमर्थं मां भ्रामवस्यनयस्थितः॥
इदानीमेव तां सीतां भक्षयामि तवाग्रतः॥१८॥

इत्युक्त्वा विकटाकारा जानकीमनुधावती॥
ततो रामाज्ञया खड्गमादाय परिगृह्य ताम्॥१९॥

चिच्छेद नासां कर्णौ च लक्ष्मणोऽलघुविक्रमः॥
ततो घोरथ्वनिं कृत्वा रुधिराक्तवपुर्द्रुतम्॥२०॥

क्रन्दमाना पपाताग्रे खरस्य परुषाक्षरा॥
किमेतदिति तामाह खरः खरतराक्षरः॥२१॥

और भाईकी आज्ञालेकै शीघ्रही मेरेसंग चलौ देर न करौ इसप्रकार काम मोहित वह घोर राक्षसी लक्ष्मणसे कहती हुई १५तब लक्ष्मणजी उससे बोले कि हे शोभन स्वभाव वाली मैं तो बड़ी श्रेष्ठ बुद्धियुक्तरामका दासहौं जो तू मेरी भार्या हुई तौ दासी कहावैगी फिर इससे अधिक क्यादुःखहोगा १६ इससे तू उन्हीं के पासजा और वे सबके स्वामी हैं और राजाहैं और तेरा कल्याण होगा तब फिर दुष्टमन है जिसका ऐसी वह राक्षसी रामके पास आतीहुई १७ और क्रोधसे यह वचन बोली कि हे राम तुम्हारी बातका कुछ ठीक नहीं और किस वास्ते मुझको बारम्बार भ्रमातेही भौर सीताकी प्रीतिसे ऐसा करतेहौ तौ सीताहीको मैं तुम्हारे आगे भक्षण करे लेतीहौं १८ ऐसा वचन कहिकै शूर्पणखा भयंकर रूपधारणकर सीताके सन्मुख दौड़ती हुई तब रामकी आज्ञासे लक्ष्मण खड्ग निकासिकै और उसको पकड़िकै १९ उसकी नाक और दोनोंकान शीघ्रही खड्गसे काटतेहुये फिर वह राक्षसी बड़ाभयंकर शब्दको करके और रुधिरसे डूबेहुये शरीरको धारणकरे २० और रोवती हुईखरनाम अपने भाई के आगे गिरपड़तीहुई और कठोर वचनकरके खरको धिक्कारती हुई तब खर क्रोधकरके लालनेत्रकर बोला कि यह है क्या २१॥

केनैवं कारिताऽसि त्वं मृत्योर्वक्तानुवर्तिना॥
वद मे तं वधिष्यामि कालकल्पमपि क्षणात्॥२२॥

तमाह राक्षसी रामः सीतालक्ष्मणसंयुतः॥
दंडकं निर्भयं कुर्वन्नास्ते गोदावरीतटे॥२३॥

मामेवं कृतवांस्तस्य भ्राता तेनैव चोदितः॥
यदि त्वं कुलजातोऽसि वीरोऽसि जहि तौ रिपू॥२४॥

तयोस्तु रुधिरं पास्ये भक्षयैतौसुदुर्मदौ॥
नो चेत्प्राणान्परित्यज्य यास्यामि यमसादनम्॥२५॥

तच्छ्रुत्वा त्वरितं प्रागात्वरः क्रोधेन मूर्च्छितः॥
चतुर्दश सहस्राणि रक्षसां भीमकर्मणाम्॥२६॥

चोदयामास रामस्य समीपं बधकांक्षया॥
खरश्च त्रिशिराश्चैव दूषणश्चैव राक्षसः॥२७॥

सर्वे रामं ययुः शीघ्रं नानाप्रहरणोद्यताः॥
श्रुत्वा कोलाहलं तेषां रामः सौमित्रिमब्रवीत्॥२८॥

और कौन मृत्युके मुख में आनेवालाहै जिसने तेरी यह दशाकी अर्थात्

नाककानसे हीनकिया और बता उसको जो कालके तुल्यभीहोय तौ क्षणमात्रमें मारताहौं २२ तव शूर्पणखा खरसे बोलतीहुई कि सीता लक्ष्मण युक्तराम दण्डकारण्य के निर्भय करने को गोदावरी नदी के तीर वास करते हैं२३ तिसकी आज्ञासे उस रामका भाई लक्ष्मण मेरी यह दशा करता हुआ इससे जो कुल में उत्पन्नहोय और वीरहोवै तौ दोनों मेरे बैरियों को मारु २४ और हे भ्रातः तिन दोनों शत्रुओंका रुधिर मैं पीवोंगी और तुम इनको भक्षण करौ और जो ऐसा न करोगे तो मैं प्राण त्याग कर यमलोकको नावोंगी २५ यह शूर्पणखाके वचन सुनिकै क्रोधसे भराहुआ जो खरहै सो शीघ्रही युद्धकरने को जाताहुआ और बड़ा भयंकर युद्धरूप कर्म जिनका ऐसे चौदह हज़ार राक्षसोंको रामके बधके लिये रामके समीप भेजताहुआ २६ और खर और त्रिशिरा और दूषण ये तीनों नाना प्रकारके शस्त्रों को लेके रामके सन्मुख जातेहुये २७ अब इनराक्षसोंकी सेना का बड़ाभारी शब्द सुनिकै रामचन्द्र लक्ष्मण से बोलते हुये २८॥

श्रूयते विपुलः शब्दो नूनमायान्ति राक्षसाः॥
भविष्यति महद्युद्धं नूनमद्य म सह॥२९॥

सीतां नीत्वा गुहां गत्वा तत्र तिष्ठ महाबल॥
हन्तुमिच्छाम्यहं सर्वान् राक्षसान् घोररूपिणः॥३०॥

अत्र किंचिन्न वक्तव्यं शापितोऽसि ममोपरि॥
तथेति सीतामादाय लक्ष्मणोगह्वरं ययौ॥३१॥

रामः परिकरं बध्वा धनुरादाय निष्ठुरम्॥
तूणीरावक्षयशरौ बध्वायत्तोऽभवत्प्रभुः॥३२॥

तत आगत्य रक्षांसि रामस्योपरि चिक्षिपुः॥
आयुधानि विचित्राणि पाषाणान्पादपानपि॥३३॥

तानि चिच्छेद रामोऽपि लीलया तिलशः क्षणात्॥
ततो बाणसहस्रे हत्वा तान्सर्वराक्षसान्॥३४॥

खरं त्रिशिरसं चैव दूषणं चैव राक्षसम्॥
जघान प्रहरार्द्धेन सर्वानेव रघूत्तमः॥३५॥

कि हे लक्ष्मण बड़ा शब्द यह सुनाई देता है सो निश्चयकरके ये राक्षस आरहेहैं और इस समयमें निश्चय करके बड़ाभारी युद्धमेरे संग होगा २९ इससे हे महाबल लक्ष्मण तुम इस समयमें सीताको लेके पर्वतकी गुहा में जाके स्थितहोजाओ और संपूर्ण घोररूपी राक्षसोंको मैं अकेले ही मारने की इच्छा करताहौं ३० और इसमें कुछ जवाब न देना मैं अपनी शपथ दिवात्ता हौं तब लक्ष्मण तैसेही सीता को लेके पर्वतकी गुहापै जातेहुये ३१ श्रीराम तौ फेंट बांधके और बड़ा कठोर धनुषको लेके और कभी बाणोंसे खाली न होय ऐसे तरकस बांधके बड़े यत्नयुक्त सावधान स्थितहोते हुये ३२ तिसके अनंतरराक्षस सब के रामके ऊपर अनेक शस्त्रछोड़तेहुये और पाषाण और वृक्ष

इनकी वृष्टि करते हुये ३३ और राम तौ क्षण मात्रमें सब शस्त्रतिल तिलकाट के पृथ्वी में डालतेहुये फिर हज़ारों बाणोंकरके सब राक्षसोंको मारके ३४ खर और त्रिशिरा और दूषण इन तीनोंको मारतेहुये इस प्रकार आधेही पहरमें राम सब राक्षसों का वध करतेहुये ३५॥

लक्ष्मणोऽपि गुहामध्यात्सीतामादाय राघवे॥
समर्प्य राक्षसान्दृष्ट्वा हतान्विस्मयमाययौ॥३६॥

सीता रामं समालिंग्य प्रसन्नमुखपंकजा॥
शस्त्रव्रणानि चांगेषु ममार्ज जनकात्मजा॥३७॥

सापि दुद्राव दृष्ट्वा तान्हतान् राक्षसपुंगवान्॥
लंकां गत्वा सभामध्ये क्रोशन्ती पादसन्निधौ॥३८॥

रावणस्य पपातोर्व्यां भगिनी तस्य रक्षसः॥
दृष्ट्वा तां रावणः प्राह भगिनीं भयविह्वलाम्॥३९॥

उत्तिष्ठोत्तिष्ठ वत्से त्वं विरूपकरणं तव॥
कृतं शक्रेण वा भद्रे यमेन वरुणेन वा॥४०॥

कुबेरेणाथवा ब्रूहि भस्मीकुर्यां क्षणेन तम्॥
राक्षसी तमुवाचेदं त्वं प्रमत्तो विमूढधीः॥४१॥

पानासक्तः स्त्रीविजितः षंढः सर्वत्र लक्ष्यसे॥
चारचक्षुर्विहीनस्त्वं कथं राजा भविष्यसि॥४२॥

फिर लक्ष्मण भी पर्वतकी गुहासे सीता को ग्रहणकर रामचन्द्रजीको सौंपिकै सब राक्षसों को मरा देखिके विस्मय को प्राप्तहोते हुये ३६ और प्रसन्नहै मुखरूप कमल जिनका ऐसी जो सीता सो रामचन्द्रको आलिंगन करके अंग में जो शस्त्रों के घाउ होगये थे तिन सबोंको अपने सत्यसंकल्पही से पूर्णकरदेतीहुई ३७ और वह शूर्पणखाभी मरे हुये खर आदि राक्षसों को देखकर लंका को जातीहुई फिर वहां जाकर सभाके मध्यमें घोर शब्द करती रावणके चरणों के समीप पड़ती हुई ३८ तब रावण अपनी भगिनीको भय बिह्वल रोवते हुये देखकर बोलता हुआ कि हेवत्से तू उठ और तेरा यह विरूप इन्द्रने किया अथवा यमराजने किया अथवा वरुणनेकिया ३९।४० अथवा कुबेरने किया अर्थात् तेरे नाककान इनमेंसे किसने काटे तिसको वतलाओ मैंक्षणमात्रमें उसको भस्म करदेऊं तब शूर्पणखा रावणसे कहतीहुई कि तू तौ मदिराका पान करे बेहोश मूढ़ बुद्धि ४१ स्त्रियों के वशीभूत हिजड़ेकी तरह पढ़ा रहता है और न हलकारे लोगों के द्वारा राज्यकी ख़बरलेता क्योंकि राजोंके हलकारेही नेत्र होतेहैं तिन नेत्रोंसेहीन तू कैसे राजाहोसक्ता है ४२॥

खरश्च निहतः संख्ये दूषणस्त्रिशिरास्तथा॥
चतुर्दश सहस्राणि राक्षसानां महात्मनाम्॥४३॥

निहतानि क्षणेनैव रामेणासुरशत्रुणा॥
जनस्थानमशेषेण मुनीनां निर्भयं कृतम् ॥
न जानासि विमूढस्त्वमत एव मयो

                  च्यते॥४४॥

रावण उवाच॥

को वा रामः किमर्थं वा कथं तेनासुरा हताः॥
सम्यक्कथय मे तेषां मूलघातं करोम्यहम्॥४५॥

शूर्पणखोवाच॥

जनस्थानादहं याता कदाचिद्गौतमीतटे॥
तत्र पंचवटी नाम पुरा मुनिजनाश्रया॥४६॥

तत्राश्रमे मया दृष्टो रामो राजीवलोचनः॥
धनुर्बाणधरः श्रीमान् जटावल्कलमंडितः॥४७॥

कनीयाननुजस्तस्यलक्ष्मणोऽपि तथाविधः॥
तस्य भार्या विशालाक्षी रूपिणी श्रीरिवापरा॥४८॥

देवगंधर्वनागानां मनुष्याणां तथाविधा॥
न दृष्टा न श्रुता राजन्द्योतयन्ती वनं शुभा॥४९॥

संग्राम में खर और त्रिशिरा और दूषणये सबमारे गये और बड़े बलीचौदह हज़ार राक्षस मारेगये ४३ असुरोंका शत्रु जो रामहै तिसने क्षणमात्र में ये सवमारडाले और मुनियों का जनस्थान सब निर्भय करदिया और तू मूढ अभीतक नहीं जानताहै इससे मैंने ही यह सब हालकहा ४४ तब रावण शूर्पणखासे पूछताहुआ कि वह राम कौनहै और किसप्रयोजन से किसप्रकार करके खर आदि राक्षस तिस रामनेमारे सो सब कहु सो उन राम आदि शत्रुओं को मैं जड़ मूलसे नाशकरौं ४५ तब शूर्पणखा कहनेलगी हेराजन् एक समयमें मैं जनस्थानसे अर्थात् जहां खर आदि राक्षसों की फौजपड़ीथी उस स्थानसे गोदावरी नदीके तीर जातीहुई वहां एक पंचवटीनाम करके आश्रमहै जहां बहुतसे मुनि प्रथम रहतेथे ४६ फिर उस आश्रम में कमल तुल्यहैं विशाल नेत्र जिनके औ धनुषवाण को धारण करे औ जटा और वल्कल वस्त्रको धारणकरे और बड़ी शोभायुक्त ऐसे रामको मैंने देखा ४७ और छोटा भाई उस रामका है तिसका लक्ष्मण नामहै वहभी वैसाही पराक्रमी और सुन्दर है और रामकी भार्या बड़े विशाल जिसके नेत्र हैं और दूसरी लक्ष्मीही मानों होय ऐसी रूपवती है ४८ और देवता और गंधर्व और नाग और मनुष्य इनकी भी ऐसी स्त्री न देखी न सुनी औ हे राजन् वह रामकी स्त्री अपनी कान्तिकरके वनको प्रकाश कर रही शोभायमान है ४९॥

आनेतुमहमुद्युक्ता तां भार्यार्थं तवानघ॥
लक्ष्मणो नाम तद्भ्राता चिच्छेद मम नासिकाम्॥५०॥

कर्णौ च नोदितस्तेन रामेण स महाबलः॥
ततोऽहमतिदुःखेन रुदन्ती स्वरमन्वगाम्॥५१॥

सोऽपि रामं समासाद्य युद्धं राक्षसयूथपैः॥
ततः क्षणेन रामेण तेनैव बलशालिना॥५२॥

सर्वे तेन विनष्टा वै राक्षसा भीमविक्रमाः॥
यदि रामो मनः कुर्यात्त्रैलोक्यं निमिषार्द्धतः॥५३॥

भस्मीकुर्यान्न सन्देह इति भाति मम प्रभो॥
यदि सा तव भार्या

** स्यात्सफलं तवजीवितम्॥५४॥**

अतो यतस्व राजेन्द्र यथा ते वल्लभा भवेत्॥
सीता राजीवपत्राक्षी सर्वलोकैकसुन्दरी॥५५॥

साक्षाद्रामस्य पुरतः स्थातुंत्वं न क्षमः प्रभो॥
मायया मोहयित्वा तु प्राप्स्यसे तां रघुत्तमम्॥५६॥

सो तुम्हारी भार्या करनेको उसके लानेका मैं यत्नकररही हौं और हे राजन् उस रामका बडाबली लक्ष्मण नाम जो भाई है सो उसकी आज्ञासे मेरी नाक कानोंको काटताहुभा ५० फिर मैं अति दुःखसे रोवतीहुई खरके समीप गई ५१ वह खर भी अपने राक्षसोंकी सेना सहित युद्धकरनेको रामको प्राप्त होके युद्ध करताहुभा ५२ फिर बढ़े बलकरके युक्त जो अकेलाही राम तिसने क्षणमात्रमेंही सब खर आदि बड़े युद्धके करनेवाले राक्षस मार डाले ५३ सो मुझको ऐसा मालूम पड़ताहै कि जो राम मनकरैं तो आधेही क्षणमें तीनों लोकोंको भस्म करदेवैं इसमें कुछ संदेह नहीं है और हे राजन् उस रामकी स्त्री जो कदाचित तुम्हारी भार्याहोय तौ तुम्हारा जीवन सफल होजावै ५४ इससे हे राजेन्द्र ऐसा यत्नकरिये जिससे सब लोकोंमें एकही सुन्दरी और कमलसरीखे जिसके नेत्र ऐसी सीता तुम्हारी प्यारी स्त्री होजाय ५५ और हे प्रभो साक्षात् तौ अर्थात् सामने तो रामके आगे खड़े होनेको भी तुम समर्थ नहीं हो इससे माया करके रामको मोहित करके सीताको प्राप्तहोवोगे ५६॥

श्रुत्वा तत्सूक्तवाक्यैश्च दानमानादिभिस्तथा॥
आश्वास्य भगिनीं राजा प्रविवेश स्वकं गृहम्॥

तत्र चिंतापरो भूत्वा निद्रां रात्रौनलब्धवान्॥५७॥

एकेनरामेण कथं मनुष्य-
मात्रेण नष्टः सबलः खरो मे॥
भ्राता कथं मे बलबीर्यदर्प-
युतो विनष्टो वत राघवेण॥५८॥

यद्वा न रामो मनुजः परेशो
मां हन्तुकामः सबलं बलौघैः॥
संप्रार्थितोऽयं द्रुहिणेन पूर्वं
मनुष्यरूपोऽद्य रघोः कुलेऽभूत्॥५९॥

बध्यो यदिस्यां परमात्मनाऽहं
वैकुण्ठराज्यं परिपालयेऽहम्॥
नो चेदिदं राक्षसराज्यमेव
भोक्ष्ये चिरं राममतो व्रजामि॥६०॥

इत्थं विचिन्त्याखिलराक्षसेंद्रो
रामं विदित्वा परमेश्वरं हरिम्॥
विरोधबुद्ध्यैव हरिं प्रयामि
द्रुतं न भक्त्या भगवान्प्रसीदेत् ६१॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे आरण्यकांडे पञ्चमःसर्गः॥ ५॥

अब रावण शूर्पणखाके ये वचन सुनिकै मधुर बचनों करके और दानकरके और बड़े सत्कारों करके उस शूर्पणखाके चित्तको सावधानकर अपने गृहमें प्रवेश करताहुआ उस गृहमें भी मारे चिन्ताके रात्रिमें निद्राको नहीं प्राप्त

हुआ अर्थात् नींदनहीं आई ५७ और यह विचार करने लगा कि अकेले रामने सेना सहित मेरे भाई बड़ेबल गर्व्वयुक्त खरको कैसेमारा५८ अथवा राममनुष्यनहीं हैं जो कि सबका ईश परमात्मा है सोई राक्षसों करके सहित मेरे मारने को ब्रह्माकर के प्रार्थना किया रघुकुलमें मनुष्यरूप हुआ है ५९ सो कदाचित्परमात्मा जो रामहैतिसके हाथसे जो मैं माराजाऊंगा तौ बैकुण्ठ राज्य कोपालन करूंगा और जो न मारागया तो राक्षसों के राज्यकोतो बहुत काल भोगूंगाही इससे राम के पासही जाऊंगा ६० इस प्रकार राक्षसोंका स्वामी रावण अपने मनमें विचार करि रामको परमेश्वर हरि जानिके विरोध बुद्धि ही करके मैं शीघ्र परमेश्वर को प्राप्त होसत्ताहों क्योंकि भक्ति करके शीघ्र परमेश्वर प्रसन्न नहीं होता इससे मैं विरोध बुद्धिही से रामके पास जाऊंगा यह निश्चय करताहुआ ६१॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे आरण्यकाण्डे भाषाटीकायां पंचमः सर्गः॥५॥

विचिन्त्यैवं निशायां सः प्रभाते रथमास्थितः॥
रावणो मनसा कार्यमेकं निश्चित्य बुद्धिमान्॥१॥

ययौ मारीचसदनं परम्पारमुदन्वतः॥
मारीचस्तत्र मुनिवज्जटावल्कलधारकः॥२॥

ध्यायन्हृदि परात्मानं निर्गुणं गुणभासकम्॥
समाधिविरमेपश्यद्रावणं गृहमागतम्॥३॥

द्रुतमुत्थाय चालिंग्य पूजयित्वा यथाविधि॥
कृतातिथ्यं सुखासीनं मारीचो वाक्यमब्रवीत्॥४॥

समागमनमेतत्ते रथेनैकेन रावण॥

चिन्तापर इवाभासि हृदि कार्यं विचिन्तयन्॥५॥

ब्रूहि मे नहि गोप्यं चेत्करवाणि तव प्रियम्॥
न्याय्यं चेत् ब्रूहि राजेन्द्र वृजिनं मां स्पृशेन्न हि॥६॥

रावण उवाच॥

अस्ति राजा दशरथः साकेताधिपतिः किल॥
रामनामा सुतस्तस्य ज्येष्ठः सत्यपराक्रमः॥७॥

दो० छठे सर्गमारीच के आश्रम रावण जाइ ।
समुझायो मृगरूपधरिचलो रामशिरनाई ॥

अब श्रीमहादेवजी पार्वतीसे कथा कहते हैं पार्वति अवरावण इसप्रकार रात्रि में चिन्तनकर सीता हरणका निश्चयकर प्रातःकालरथके ऊपर चढ़िकै १ समुद्रके पार जो मारीचका स्थानहै तिसको जाताहुआ तहांजा वल्कल धारणकरे मुनिकासा वेष धारण करके २ हृदय में सब गुणोंका प्रकाश करने वाला निर्गुण जो परमात्मा तिसका ध्यान करताहुआ जो मारीच सो समाधि की निवृत्तिमें अपने गृह आयाहुआ जो रावण तिसको देखताहुआ ३ फिर मारीच शीघ्रही उठकर रावणको भेंटकर विधिपूर्वक पूजनकरके सत्कार कियागया

सुखपूर्वक बैठेहुये रावणसे यह वचन बोलता हुआ ४ कि है रावण इससमय में एक रथ करके तुम्हारे आगमनका क्याकारणहै और मुझको तो चिन्तामेंपरायण तुम अपने हृदयमें कुछ चिन्तन करते मालूम पड़ते हौ ५ और जो मेरे करनेके लायक़ होय और गुप्त करने योग्य नहीं है सो कहिये मैं तुम्हारा प्रियकरौंगा औ हेराजेन्द्र जो कार्य्य धर्म युक्तहोगा तो करौंगा जिससे मुझको पाप न स्पर्शकरे ६ तब रावण बोला कि हेमारीच अयोध्यानगरी का पति एक राजा दशरथ होताहुआ उसका ज्येष्ठपुत्र सत्य और पराक्रम करके युक्त रामनाम करके है ७ ॥

विवासयामास सुतं वनं वनजनप्रियम्॥
भार्यया सहितं भ्रात्त्रा लक्ष्मणेन समन्वितम्॥८॥

स आस्ते विपिने घोरे पञ्चवट्याश्रमे शुभे॥
तस्य भार्या विशालाक्षी सीता लोकविमोहनी॥९॥

रामो निरपराधान्मे राक्षसान्भीमविक्रमान्॥
खरं च हत्वा विपिने सुखमास्तेऽतिनिर्भयः॥१०॥

भगिन्याः मे शूर्पणख्या निर्दोषायाश्च नासिकाम्॥
कर्णौ चिच्छेद दृष्टात्मा वने तिष्ठति निर्भयः॥११॥

अतस्त्वया सहायेन गत्वा तत्प्राणवल्लभाम्॥
आनयिष्यामि विपिने रहिते राघवेण ताम्॥१२॥

त्वं तु मायामृगो भूत्वा ह्याश्रमादपनेष्यसि॥
रामं लक्ष्मणं चैव तदा सीतां हराम्यहम्॥१३॥

त्वं तु तावत्सहायं मे कृत्वा स्थास्यसि पूर्ववत्॥
इत्येवं भाषमाणं तं रावणं वीक्ष्य विस्मितः॥१४॥

उस रामको स्त्री करके सहित और लक्ष्मण भाई करके सहित राजादशरथ वनको निकालदेता हुआ ८ सो राम घोर वनमें पंचबढ़ी के शुभलक्षण युक्त आश्रम में वासकररहाहै उस रामकी स्त्री लोकोंके मोहनेवाली और बड़े विशाल नेत्र जिसके ऐसी सीता नाम करके है ९ तिसमें राम जो है सो अपराध रहित चौदह हजार बड़े पराक्रम युक्त राक्षसोंको और खरको मारिकै वनमें अतिनिर्भय सुख पूर्वक वास करताहै १० और अपराध रहित जो मेरी भगिनी शूर्पणखा तिसके भी नाक कान काटके भी सुखपूर्वक निर्भय स्थित होरहा है अर्थात् मेराभी कुछ भयनहीं मानता है ११ इससे हे मारीच तुम्हारे सहाय करके उस रामके आश्रम में जाकर जिससमय रामन होय ऐसे समय में उसकी प्राणप्रिया जो सीताभार्या है जिसको हरलावोंगा १२ औ हे मारीच तुम मायारूपी मृग होके जब आश्रमसे बाहर राम लक्ष्मणको निकालले जावोगे तौ मैं सीताको हरौंगा १३ और तुमतो मेरी सहाय कर के पहिलेकी तरह फिर अपने आश्रममें स्थित हूजियो ऐसे वचन कहताहुआ जो रावण तिसको देखिकै मारीच आश्चर्य युक्त हुआ १४॥

केनेदमुपदिष्टं ते मूलघात करंवचः॥
स एव शत्रुर्बध्यश्चयस्त्वंन्नाशं प्रतीक्षते॥१५॥

रामस्य पौरुषं स्मृत्वा चित्तमद्यापिरावण॥
बालोपि मां कौशिकस्य यज्ञसंरक्षणायसः॥१६॥

आगतस्त्विषुणैकेन पातयामाससागरे॥
योजनानां शतं रामस्तदादिभयविह्वलः॥१७॥

स्मृत्वास्मृत्वा तदैवाहंरामं पश्यामिसर्वतः॥१८॥

दंडकेऽपिपुनरप्यहं वने पूर्ववैरमनुचिन्तयन्हृदि॥
तीक्ष्णशृङ्गमृगरूपमेकदा मादृशैर्बहुभिरावृतोऽभ्ययाम्॥१९॥

राघवं जनकजासमन्वितं लक्ष्मणेनसहितं त्वरान्वितः॥
आगतोऽहमथहं तुमुद्यतो मां विलोक्यशरमेकमक्षिपत्॥२०॥

तेनविद्धहृदयोऽहमुद्भ्रमराक्षसेन्द्र पतितोऽस्मि सागरे॥
तत्प्रभृत्यहमिदं श्रमाश्रितःस्थानमूर्जितमिदं भयार्द्दितः॥२१॥

और यह बोला कि हेरावण किसने तुम्हारे जड़मूलसे नाशकरने को ऐसी सलाह दीहै और वही तुम्हारा परमशत्रु है और मारने के योग्य है जो ऐसी खोंटी सलाहसे नाशविचार है १५ औ हे रावण रामके पराक्रमको स्मरणकरके अभीतक मेराचित्त व्याकुल होरहा है जोराम बाल्य अवस्था में भी विश्वामित्रके यज्ञकरिक्षाकेलिये आकर १६ एकही बाणकरके मुझको सौयोजन पैसमुद्रके भीतर फेंकदेता हुआ १७ हेरावण तबसे लेके भयकरके विह्वलजों मैं हौंसो रामके कर्मको स्मरणकरके सबजगह पर रामही को देखता हूँ १८ और फिरभी मैं पहिले बैर को यादकरके रामके सारने को बड़ेपैने हैं सींगजिसके ऐसो मृगरूप धारण कर और बहुतसे ऐसेही मृगरूप के राक्षसोंकोसंग लेके दण्डकवन में रामके संसुख जाताहुआ १९ तौ सीता लक्ष्मण सहित जोरामहैं तिनको मारनेको उद्यत अर्थात् यत्न करताहुआ वेगकरके मैं आया तौ राममुझको देखके एक बाण छोड़ते हुये २० उसवाण करके ताडित हुआहै हृदयजिसका ऐसा जो मैं हौं सो हे रावण घूमताहुआ समुद्रमें आके गिरपड़ा तबसेलेके भयकर के पीडितमैं इस आश्रम में मुनिवेषकरिकै वासकरता हूं २१॥

राममेव सततं विभावये
भीत भीतइव भोगराशितः॥
राजरत्नरमणीरथादिकं
श्रोत्रयोर्यदि गतं भयं भवेत्॥२२॥

राम आगत इहेति शंकया
बाह्यकार्यमपि सर्वमत्यजम्॥
निद्रया परिवृतो यदा स्वपे
राममेव मनसाऽनुचिंतयन्॥२३॥

स्वप्नदृष्टिगतराघवं तदा
बोधितो विगतनिद्र आस्थितः॥
तद्भवानापि विमुच्य चाग्रहं
राघवं प्रति गृहं प्रयाहि भोः॥२४॥

रक्ष राक्षसकुलं चिरागतं
तत्स्मृतौ सकलमेव नश्यति॥
तव हितं वदतो मम भाषि

तं परिगृहाण परात्मनि राघवे॥२५॥

त्यज विरोधमतिं भज भक्तितः
परमकारुणिको रघुनन्दनः॥
अहमशेषमिदं मुनिवाक्यतोऽ-
श्रणवमादियुगे परमेश्वरः॥२६॥

ब्रह्मणार्थित उवाच तं हरिः
किं तवेप्सितमहं करवाणि तत्॥
ब्रह्मणोक्तमरविन्दलोचन
त्वं प्रयाहि भुवि मानुषं वपुः॥२७॥

दशरथात्मजभावमंजसा
जहि रिपुं दशकंधरं हरे॥
अतो न मानुषो रामः साक्षान्नारायणोऽव्ययः॥
मायामानुषवेषेण वनं यातोऽतिनिर्भयः॥२८॥

और जिनमें रकारहोवै ऐसे भोगके भी पदार्थ हैं तिन में भयभीत हुआ मैं रामहीका ध्यान करता हूं जैसेराज और रत्न रमणी और रथ इनको आदि लेके जो रकारादि नामके सुखदेने वाले भी पदार्थ हैं परन्तु मेरे कानोंमें येशब्द सुनाई देते हैं तौ भयही मेरेको होती है २२ और कहीं रामतो नहीं आतेहैं यह शंकाकरके बाहर के सबकर्मत्याग करके जबमैं सोचताहूं तौभी रामही कास्मरण करते करते स्वप्नमें भी रामही को देखताहूँ २३ फिर जब जागताहौं तौभी मारेभयके स्वप्नकेदेखेहुये रामकीयाद नहीं भूलती इससेहेरावण जो अपना भला चाहो तौ आपभी रामके प्रतियहपापरूप आग्रह को त्यागकर अपनेघरलौटि जाओ २४ और हेरावण बहुतकालसे बढ़ाहुआ जोराक्षसोंका कुल है तिलकी रक्षा करिये क्योंकि विरोध करके राम के स्मरण से सबकुलका नाश होजायगा इसका आशय यहहै कि सबका आत्माजो रामहै तिससे विरोध करनेले मानों अपने आत्माहसे विरोध किया तौरामविरोधीका नाश युक्त सिद्धहीहै इससे हेरावण तुम्हाराहित करता हुआ जो मैं हौं तिसका वचनग्रहणकरौ और परमात्माजो रामहै तिसमें विरोधमति को त्यागदेवो २५ और रघुनन्दन परम दयालु हैं इससे भक्ति करके इनका भजन करिये और यह इतिहास मैंने सत्ययुग में नारदजी के मुखसे सुनाहै २६ एकसमय में ब्रह्माकरके प्रार्थना कियागया परमेश्वर जो नारायण सो ब्रह्मा से यह कहता हुआ कि हे ब्रह्मन् मैं क्या तुम्हारा प्रियकरौं तौ ब्रह्माने कहाकि हे अरबिन्द लोचन हेहरे आपपृथिवी में मनुष्य शरीरको धारणकारि दशरथ के पुत्रभावको प्राप्तहो दशकन्धर अर्थात् रावण जो देवतों का शत्रुहै तिसको मारिये २७ इससे हेरावण राम मनुष्य नहीं हैं साक्षात् अविनाशी नारायणही मायाकर मनुष्य वेषकरके पृथिवी के भारके दूर करनेको वनमें प्राप्त हुये अतिनिर्भय हैं २८॥

भूभारहरणार्थाय गच्छ तात गृहं सुखम्॥
श्रुत्वा मारीवचचनं रावणः प्रत्यभाषत॥२९॥

परमात्मा यदा रामः प्रार्थितो ब्रह्मणा किल॥
मां हन्तुं मानुषो भूत्वा यत्नादिह समागतः॥३०॥

करिष्यत्यचिरादेव सत्यसंकल्प ई

                      श्वरः॥  

अतोऽहं यत्नतः सीतामानेष्याम्येव राघवात्॥३१॥

बधे प्राप्ते रणे वीर प्राप्स्यामि परमम्पदम्॥
यद्वा रामं रणे हत्वा सीतां प्राप्स्यामि निर्भयः॥३२॥

अतोत्तिष्ठ महाभाग विचित्रमृगरूपधृक्॥
रामं लक्ष्मणं शीघ्रमाश्रमादतिदूरतः॥३३॥

आकृष्य गच्छ त्वं शीघ्रं सुखं तिष्ठ यथा पुरा॥
अतः परं चेद्यत्किंचिद्भाषसे मद्विभीषणम्॥३४॥

हनिष्याम्यसिनाऽनेन त्वामत्रैव न संशयः॥
मारीचस्तद्वचः श्रुत्वा स्वात्मन्येवानुचिंतयत्॥३५॥

इससे हेतात तुम घरको सुख पूर्वक जावो तब ये मारीचके वचन सुनिकै रावण बोलता हुआ २९ हे मारीच जो राम परमात्माही ब्रह्माकरिकै प्रार्थित मुझ को मारने को मानुष होके यत्न से यहां प्राप्त हुआ है ३० तो सत्य संकल्पजो रामहै सो अवश्य मेरावध करैगाही इससे मैं यत्न से रामके समीप से सीताको ल्याबोंगा ३१ और हे बीर संग्राम में रामले वधको प्राप्तहोनेसे मैं परमपदको प्राप्तहोऊंगा अथवा रामको रणमें मारिकै मैं निर्भयहो सीताको प्राप्तहोऊंगा ३२ इससे हे महाभाग मारीच तुमशीघ्रही चित्रविचित्र मृगकारूप धारण करके लक्ष्मणसहित रामको आश्रमसे अतिदूरलेजावो ३३ फिरलौट के आके पहिले की तरह अपनेआश्र में सुखपूर्वक स्थित होवो और इसके उपरान्त कुछ और भयका बचन कहोगे तौ इसखड्गले अभीतुझको मारडालौंगा ३४ इसमें कुछ संदेह नहीं है. तब मारीच यह रावणका वचनसुनिकै आपमनहीं में विचार करता हुआ ३५॥

यदि मां राघवो हन्यात्तदा मुक्तो भवार्णवात्॥
मां हन्याद्यदि चेद्दुष्टस्तदामे निरसो ध्रुवम्॥३६॥

इति निश्चित्य मरणं रामादुत्थाय वेगतः॥
अब्रवीद्रावणं राजन्करोम्याज्ञां तव प्रभो॥३७॥

इत्युक्त्वा रथमास्थाय गतो रामाश्रमं प्रति॥
शुद्धजांबूनदप्रख्यो मृगोभूद्रौप्यविन्दुकः॥३८॥

रत्नशृङ्गो मणिखुरो नीलरत्नविलोचनः॥
विद्युत्प्रभो विमुग्धास्यो विचचार वनांतरे॥३९॥

रामाश्रमपदस्यान्ते सीतादृष्टिपथे चरन्॥४०॥

क्षणं च धावत्यवतिष्ठते क्षणं
समीपमागत्य पुनर्भयावृतः॥
एवं स मायामृगवेषरूपधृक्
चचार सीतां परिमोहयन् खलः॥४१॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे आरण्यकाण्डे षष्ठः सर्गः॥६॥

कि जो कदाचित् श्रीरामचन्द्र अपनेहाथसे मुझको मारेंगे तो मैं संसारसा गरसे छूटिजाऊंगा और जो कदाचित् यहदुष्ट रावण मारेगा तौ निश्चयकरके मुझको नरक होगा ३६ इससेरामही से मरण श्रेष्ठहै ऐसा निश्चयकर शीघ्र ही उठकर रावण से बोलताहुआ कि हे राजन् तुम्हारी आज्ञा मैं करूंगा ३७ यहबचन कहिकै रथपै चढिकै रावण और मारीच दोनों राम के आश्रमको जाते हुये तहां मारीच शुद्ध सुवर्णकीसी कान्ति जिसकी ऐसा मृगहोता हुआ ३८ और जिस सुवर्ण शरीर में चांदी के बिन्दु ठौरठौर शोभायमान होरहे हैं और रत्नों के सींग जिसके और मणियों के खुर और रत्नों के नेत्र जिसके और बिजुलीकी सी कान्ति जिसकी और बड़ासुन्दर है मुख जिसका ऐसे मृगका रूपधारणकर. वनके बीच विचरता हुआ ३९ ऐसे बन में विचरते वह मृग रामके आश्रम के समीप सीताजी की दृष्टि के मार्ग में विचरनेलगा ४० अबंमृग क्षणमात्र तौ दौड़ताहै और क्षणमात्र फिर खड़ा रहता है फिर क्षण में सीताके समीप आके भयभीत होता है इसप्रकार मायाकरके मृगवेषको बनाये हुये खल मारीच राक्षस सीताको मोहकराता विचरताहुआ ४१ ॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे आरण्यकाण्डे भाषाटीकायां षष्ठः सर्गः॥६॥

अथ रामोऽपि तत्सर्वंज्ञात्वारावणचेष्टितम्॥

उवाचसीतामेकांते शृणुजानकिमेवचः १॥

रावणो भिक्षुरूपेण आगमिष्यतितेंऽतिकम्॥

त्वंतुच्छायां त्वदाकारां स्थापयित्वोटजेविश २॥

अग्नावदृश्यरूपेणवर्षंतिष्ठ ममाज्ञया॥

रावणस्य वधांतेमांपूर्ववत्प्राप्स्यसे शुभे ३॥

श्रुत्वारा मोदितंवाक्यं साऽपि तत्र तथाऽकरोत्॥

मायासीतांबहिस्थाप्य स्वयमन्तर्दधेऽनले ४॥

मायासीतायदापश्यन्मृगंमायाविनिर्मितम्॥

हसन्तीराममभ्येत्य प्रोवाच विनयान्विता ५॥

पश्यराममृगचित्रकान कंरत्नभूषितम्॥

विचित्रविन्दुभिर्युक्तं चरन्तमकुतोभयम् ६॥

बध्वादेहिमम क्रीडा मृगो भवतु सुंदरः॥

तथेतिधनुरादाय गच्छल्लँक्ष्मणमब्रवीत्७॥

दो०। सप्तमसर्ग सियाहरी रावण धरियतिरूप॥
गीधमारि सियलैचलो नीचमीचकोरूप॥१॥

अब श्रीमहादेवजी पार्वतीजी से कथा कहते हैंपार्वति इसके उपरान्त श्री रामचन्द्र रावणका कर्मजान के एकान्तदेश में सीतासे कहते हुये कि हे जानकि मेरे वचन कोसुनु १ रावण संन्यासी के रूपको धारणकरके तेरे समीप आवेगा इससे तू अपनी छायाकारूप अपनाहीसा करके इसपर्णशाला में प्रवेश करु २

और मेरी आज्ञा तू एकवर्षतक अदृश्यरूप करके अर्थात् किसीको दिखाई नहीं पड़े जैसे तैसे अग्नि में स्थितहो फिर रावण के वध के बाद मुझको पहिले की तरह प्राप्तहोगी ३ ऐसे रामके बचन सुनिकै सीता तैसेही करती हुई सबके देखने में मायारूप बाहर स्थापनकर आप अग्निमें छिपजाती हुई ४ फिर वह मायारूपही सीता मायाकरके बनाहुआजो मृगहै तिसको देखती और हँसती राम के सम्मुख आकेनम्रतापूर्वक बोलती हुई ५ हे राम क्या वह सुवर्णका चित्र विचित्र रत्नोंकरकेभूषित और चित्र बिचित्र बिंदुओंकरकेयुक्त और निर्भय हो आश्रममें विचरता मृग है तिसको देखिये ६ औ इसको बांधिकै मुझको दीजिये यह बड़ासुन्दर मृगहै मेरी क्रीड़ाके लिये होगा तौ रामचन्द्रजी तैसेही सीतासे कहके धनुष लैकैचलते हुये अरु लक्ष्मण से बोले ७॥

रक्षत्वमतियत्नेन सीतां मत्प्राणवल्लभाम्॥

मायिनः संतिविपिने राक्षसाघोरदर्शनाः ८

अतोत्रावहितः साध्वीं रक्षसीतामनिन्दिताम्॥

लक्ष्मणोराममाहेदं देवायं मृगरूपधृक्॥

मारीचोऽत्रनसन्देह एवंभूतो मृगःकुतः ९॥

श्रीरामउवाच॥

यदिमारीच एवायं तदाहन्मिनसंशयः॥

मृगश्चेदानयिष्यामि सीताविश्रामहेतवे १०॥

गमिष्यामि मृगंबध्वाह्यानयिष्यामि सत्वरः॥

त्वंप्रयत्नेन संतिष्ठ सीतासंरक्षणोद्यतः ११॥

इत्युक्ता प्रययौ रामोमायामृगमनुद्रुतः॥

मायायदाश्रयालोकमोहिनी जगदाकृतिः १२॥

निर्विकारश्चिदात्माऽपि पूर्णोऽपि मृगमन्वगात्॥

भक्तानुकम्पी भगवानिति सत्यं वचो हरिः १३॥

कर्तुं सीताप्रियार्थायजानन्नपिमृगंययौ॥

अन्यथा पूर्णकामस्य रामस्य विदितात्मनः १४॥

कि हे लक्ष्मण अत्यन्त यत्न करिकै मेरी प्राणवल्लभा जो सीता है तिसकी रक्षाकरो क्योंकि बड़ेमायावी घोरदर्शन राक्षस इस बन में हैं ८ इससे सावधान होके इस बनमें निन्दा सहित पतिव्रता जो सीता तिसकी रक्षा कीजिये तब लक्ष्मण रामसे कहते हुये कि हेदेव यहमारीच राक्षसही मृगकारूपधारण करके आया है इसमें कुछ संदेह नहीं है क्योंकि ऐसा मृग कहीं है ही नहीं ९ तब राम कहतेहुये कि हे लक्ष्मण जो कदाचित् यह मारीचही है तो इसको मारूंगा इसमें कुछ संदेह नहीं है और जो कदाचित मृगहोगा तो सीताकी क्रीड़ा के अर्थ लाऊंगा १० औमैं अब जाता हूं मृगको बांधिकै शीघ्र ही ले आता हूं और हे लक्ष्मण तुम सीताके रक्षण में उद्यत होकर यत्न से स्थितरहौ ११ ऐसा कहिकै राम जातेहुये और उस मायारूप मृगके पीछेपीछे दौड़ते हुये और जगत् है रूप

जिसका और जगत् के मोहकरानेवाली ऐसी जो माया सो जिस रामके आश्रय है अर्थात् मायाका आश्रय भी रामही हैं १२ ऐसा जो निर्विकार और चिदात्मा और सबजगह परिपूर्ण राम सो मृगके पीछे दौड़ता हुआ क्योंकि भगवान् भक्तानुकम्पी है अर्थात् भक्तों के ऊपर दयाकरने वाला है इस वचन के सत्य करनेको १३ सीताकी प्रीतिके अर्थ जानकरके भी मायारूपी जो मृग तिसके पीछे २ जातेहुये और जो कदाचित् यह प्रयोजन होय तौ परिपूर्ण काम और सर्वज्ञ और परमात्मा ऐसा जो राम तिसको मृग करके क्या प्रयोजन था १४॥

मृगेण वा स्त्रियावापिकिंकार्यपरमात्मनः॥

कदाचिदृश्यते भ्यासेक्षणं धावतिलीयते १५॥

दृश्यते च ततो दूरादेवं राममपाहरत्॥

ततो रामोऽपि विज्ञाय राक्षसोऽयमितिस्फुटम् १६॥

विव्याधशरमादाय राक्षसं मृगरूपिणम्॥

पपात रुधिराक्तास्योमारीचः पूर्वरूपधृक् १७॥

हाहतोऽस्मि महावाहोत्राहिलक्ष्मणमद्रुतम्॥

इत्युक्त्वा रामवद्वाचापपातरुधिराशनः १८॥

यन्नामाज्ञोऽपि मरणे स्मृत्वा तत्साम्यमाप्नुयात्॥

किमुताग्रे हरिं पश्यन्तेनैव निहतोऽसुरः १९॥

तद्देहादुत्थितं तेजः सर्वलोकस्य पश्यतः॥

राममेवाविशद्देवाविस्मयं परमं ययुः २०॥

किंकर्मकृत्वाकिं प्राप्तः पातकीमुनिहिंसकः॥

अथवा राघवस्यायं महिमानात्र संशयः २१॥

और सीता करके भी क्या प्रयोजन था और यहां भक्तानुकंपीभगवान् है यह कहने से यहभी सूचित हुआ कि मारीच औ रावण येभी रामके भक्त इनका उद्धार भी मृगके पिछाड़ी दौड़ने से सिद्ध होना है अब वह मृग कभी तौ राम के समीप दिखाई पड़ता है कभी क्षणभर दौड़ के छिप जाता है १५ फिर छिपकर के दूर दिखाई पड़ता है इसप्रकार बहमृग रामको दूर ले जाता हुआ तिसके अनन्तर राम भी उसको राक्षस है यह जानके १६ बाणको धनुष में संधानकर मारतेहुये फिर रुधिर जिसके मुख से निकसरहाहै ऐसा जो मारीच सो पृथ्वी में गिरता हुआ मृगरूपकोत्याग पहिले की तरह राक्षसरूपही होजाता हुआ १७ और हे महाबाहो मैं मारागया और हे लक्ष्मण शीघ्रही मेरीरक्षाकरो यहबचन रामही की तरह कहिकै गिरपड़ता हुआ १८ अब महादेव पार्वती से कहते हैं कि हे पार्वति मूर्ख भी पुरुष मरणसमय में जिसराम के नामको स्मरण करके रामके समानही रूपको प्राप्तहोता है और मरते समय साक्षात् रामको देखता हुआ और रामही करके मारागया मारीच रामके रूपको प्राप्तहोय इस में क्या कहना है १९ अब उस मारीचके देहसे उठा हुआ जो तेज सो सबलोक के

देखतेही राममें प्रवेशकरताहुआ इस चरित्रको देखिकै देवतालोग बड़े आश्चर्य को प्राप्तहुये २० और यह कहने लगे कि मुनियों का मारनेवाला बड़ा पातकी मारीच क्या तो कर्म करताहुआ और क्यादेखौ फल को प्राप्तहुआ अथवा राम ही की यह महिमा है इसमें कुछ संशय नहीं है २१॥

रामवाणेनसंविद्धः पूर्वराममनुस्मरन्॥ भयात्सर्वंपरित्यज्यगृहवित्तादिकंचयत् २२ हृदिरामं सदाध्यात्वानिर्धताशेषकल्मषः॥ अंतेरामेण निहतः पश्यन् राममवापसः २३ द्विजो वा राक्षसो वापि पापी वाधर्मकोऽपिवा। त्यजन्कलेवरं रामं स्मृत्वा याति परं पदम् २४ इति तेऽन्योन्यमाभाष्य ततो देवादिवं ययुः॥ रामस्तच्चिन्तयामासम्रियमाणेऽसुराधमः २५ हा लक्ष्मणेति मद्वाक्यमनुकुर्वन्ममारकिम्॥ श्रुत्वा मद्वाक्यसदृशं वाक्यं सीताऽपि किं भवेत् २६ इतिचिन्तापरीतात्मा रामो दूरान्न्यवर्त्तत॥ सीता तद्भाषितं श्रुत्वा मारीचस्य दुरात्मनः २७ भीताऽतिदुःखसंविग्नालक्ष्मणं त्विदमब्रवीत्॥ गच्छ लक्ष्मणवेगेन भ्राता तेऽसुरपीडितः २८॥

जो मारीच रामके बाणसे ताड़नको प्राप्तहो प्रथम से रामही को स्मरणकरते करते भय से घर और धन दारादिक सब त्यागकर २२ हृदय में सदा रामको ध्यानकरिकै सबपापों से छूटकर शुद्धहुआ अन्त में रामही करिकै मारागया रामको देखते देखते शरीरत्यागकर रामहीको प्राप्त होता हुआ २३ इससे ब्राह्मण होय चाहे राक्षस होय पापीहोय चाहे धर्मात्मा होय परंतु अंत समय में रामको स्मरणकरिकै जो शरीर त्यागकरता है सो परम पदहीको प्राप्तहोता है यह निश्चित हुआ २४ इसप्रकार देवता लोग आपस में संभाषण कर स्वर्गको जाते हुये अब राम यह चिन्ताकरते हुये कि मरताहुआ राक्षस हा लक्ष्मण ऐसे मेरी तरह कहिकै मरगया सो इसका क्या प्रयोजन है २५ और यह मेरासरीखा वाक्य सुनिकै सीताजानै कौन दशाको प्राप्तहोगी २६ ऐसी चिन्तामें व्याकुल हो राम दूरसे लौटते हुये अब सीता उस दुष्टात्मा मारीचका कहा हुआ शब्द सुनिकै २७ अति दुःखसे भयभीत होके लक्ष्मण से यह बचन बोलती हुई कि हे लक्ष्मण शीघ्रही तुम जावो तुम्हारा भाई असुर करके पीड़ित हो रहा है २८॥

हा लक्ष्मणेति वचनं भ्रातुस्तेन शृणोषि किम्॥ तामाहलक्ष्मणोदे विरामवाक्यं नतद्भवेत् २९यः कश्चिद्राक्षसो देविस्त्रियमाणोऽब्रवीद्वचः॥ रामस्त्रैलोक्यमपि यः क्रुद्धो नाशयति क्षणात् ३० सकथं दीनवचनं

भाषतेऽमरपूजितः॥ क्रुद्धालक्ष्मणमालोक्य सीतावाष्पविलोचना ३१ प्राह लक्ष्मणदुर्बुद्धे भ्रातुर्व्यसनमिच्छसि। प्रेषितो भरतेनैव रामनाशाभिकांक्षिणा ३२ मान्नेतुमागतोऽसि त्वं रामनाश उपस्थिते॥ नाप्राप्स्यसेत्वमामद्य पश्य प्राणांस्त्यजाम्यहम् ३३ नजानातीदृशंरामोत्वां भार्याहरणोद्यतम्॥ रामादन्यंनस्पृशामित्वांत्राभरतमेववा ३४ इ त्युक्त्वाबध्यमानासास्वबाहुभ्यांरुरोदह॥ तच्छ्रुत्वालक्ष्मणः कर्णौपिधायातीवदुःखितः ३५॥

हा लक्ष्मण वह अपने भाईका वचन क्या तुमनहीं सुनते हो तब सीता से लक्ष्मण कहते हुये कि हे देवि यह रामका बचन नहीं है २९ जो कोई राक्षस मरने लगा है वह यह बचन बोलताभयाहै जो राम क्रोधकरैं तो तीनों लोकों को क्षणमात्रमें नाशकरें ३० सो देवतोंकर के पूजित राम हा लक्ष्मण ऐसा दीन बचन कैसे कहते हैं तब नेत्रों से प्रांशुओं को छोड़रही जो सीतासो कोष करके लक्ष्मण को देख बोलती हुई ३१ हेदुर्बुद्धे लक्ष्मण तूभाईके दुःखकी इच्छाकरतामालूम होता है कि रामके मारने की इच्छा करते हुये भरतने तु- को भेजा है ३२ सो तू रामके नाशहुये मुझको लेनेको माया है तो मुझको तू कैसे भी नहीं प्राप्तहोगा देख मैं अभी प्राणोंका त्याग करती हों ३३ स्त्री के हरनेमें उद्यत जो तू तिसको राम नहीं जानते हैं मैं तो रामके सिवाय और को नहीं स्पर्श करोगी चाहे तू होय चाहे भरतहोय ३४ ऐसा वचन कहिकै अपने हाथोंसे शरीरको कूटती रोवती हुई ये सीताके बचन सुन के अत्यन्त दुःख युक्त जो लक्ष्मण सो कानों को मंदिकै ३५॥

मामेवं भाषसे चंडिधिक्त्वां नाशमुपैष्यसि॥ इत्युक्त्वा वनदेवीभ्यः समर्प्यजनकात्मजाम् ३६ ययौ दुःखातिसंविग्नो राममेवशनैः शनैः॥ ततोऽन्तरं समालोक्यरावणोभिक्षुवेषधृक् ३७ सीतासमीपमगमत्स्फुरद्दंडकमंडलुः॥ सीतातमवलोक्याशुनत्वासंपूज्य भक्तितः ३८ कंद मूलफलादीनि दत्त्वास्वागतमब्रवीत्॥ मुनेभूंक्ष्वफलादीनिविश्रम स्वयथासुखम् ३९इदानीमेव भर्त्तामह्यागमिष्यतितेप्रियम्॥ करिष्यतिविशेषेण तिष्ठ त्वं यदि रोचते ४० भिक्षुरुवाच॥ कात्वं कमलपत्राक्षि कोवा भर्त्तातवानघे । किमर्थमत्रते वासोवनेराक्षस सेविते॥ ब्रूहि भद्रे ततः सर्वस्ववृत्तांतंनिवेदये ४१॥ सीतोवाच॥ अयोध्याधि

पतिःश्रीमान् राजा दशरथो महान्॥ तस्य ज्येष्ठः सुतो रामः सर्वलक्षणलक्षितः ४२॥

वोलताहुआ कि हे चण्डि धिक्कार तुझको है जो मुझसे ऐसा वचन कहती और तू नाशको प्राप्तहोगी यहकहिकै और वनकी देवियों को सीताको सौंपि के ३६ दुःखकरके भयभीत धीरे धीरे रामही के समीप जाताहुआ तब तिसके अनन्तर अन्तरको देखिकै रावण संन्यासी के रूपको धारणकर ३७ चमक रहे हैं दण्ड कमण्डलु जिसके ऐसाहो सीता के समीप जाताहुआ सीता तिस संन्यासीको देखके शीघ्रही नमस्कार करके पूजन करके ३८ भक्तिसे कन्दमूलफल देके तुम्हारा अच्छा आगमन हुआ ऐसा कुशलप्रश्न पूछती हुई और यह कहा कि हे मुने तुम फलादि भोजनकरों और सुखपूर्वक विश्रामकरो ३९ और इसी समय में ही मेरापति आता होगा सो विशेष करके तुम्हारा प्रिय करेगा इससे जो तुम्हारी रुचि होय तो ठहरिये ४० तब वह संन्यासी बोला कि हे कमलपत्राक्षि कमल के पत्र के समान विशाल नेत्र हैं जिसके ऐसी तुम कौन हो और हे अनघेदोषरहिते तेरापति कौन है और यह राक्षस सेवित बनमें बास किस कारण से है है कल्याणि यह सब कहु फिर मैं अपना वृत्तान्त कहींगा ४१तब सीता कहती हुई जो अयोध्यानगरीका पति बड़ा लक्ष्मीमान् राजा दशरथ रहा तिसका ज्येष्ठपुत्र संपूर्ण शुभलक्षणों करके युक्त राम है ४२॥

तस्याहं धर्म्मतः पत्नी सीता जनकनन्दिनी॥ तस्यभ्राताकनीयांश्च लक्ष्मणो भ्रातृवत्सलः ४३ पितुराज्ञां पुरस्कृत्य दंडके वस्तुमागतः॥ चतुर्दशसमास्त्वां तु ज्ञातुमिच्छामि भवद ४४ भिक्षुरुवाच॥ पौलस्त्यतनयोऽहं तु रावणो राक्षसाधिपः॥ त्वत्कामपरितप्तोऽहं त्वांनेतुंपुरमागतः ४५ मुनिवेषेण रामेण किं करिष्यसि मांभज॥ भुंक्ष्व भोगान्मया सार्द्धं त्यज दुःखं वनोद्भवम् ४६ श्रुत्वातद्वचनं सीता भीताकिंचिदुवाच तम्॥ यद्येवं भाषसे मां त्वं नाशमेष्यसिराघवात् ४७ आगमिष्यति रामोऽपिक्षरां तिष्ठ सहानुजः॥ मां को धर्षयितुं शक्तो हरेर्भार्या शशोयथा ४८ रामबाणैर्विभिन्नस्त्वं पतिष्यसि महीतले॥ इतिसीतावचःश्रुत्वा रावणः क्रोधमूर्च्छितः ४९॥

तिसकी मैं धर्म करके पत्नी और राजाजनक की कन्याहों तिसका छोटा भाई लक्ष्मण है जो भाई को अत्यन्त प्रिय है ४३ सो राम पिता की आज्ञाको मानिकै चौदह वर्षभर बन में वास करने को प्राप्त हुये हैं और अबमैं तुमको जाना

चाहती होंसोकहौ ४४ तब वह संन्यासी बोलता हुआ कि पौलस्त्यका पुत्ररावण मैं हौंऔर राक्षसों का राजाहों तेरे कारण से जो काम है तिसकरके संतप्त हुआ तुझको लंकापुरी को लेजाने को आया हूं ४५ इससे मुनिका वेष जिस का ऐसे रामकरके क्या करेगी तू मेरा भजनकर और मोकरके सहित भोगोंको भोग और बनसे उत्पन्न हुआ जो दुःख तिसको त्यागदे ४६ अब सीता यह रावणका बचन सुनके कुछभय युक्त होके बचन बोलती हुई जोतू ऐसा बचन मुझसे कहता है इससे रामसे नाशको प्राप्त होगा ४७ छोटे भाई करके सहित राम भी आते हैं तू क्षणमात्र स्थितहो राम के आगे मेरातिरस्कार करने को कौन समर्थ है जैसे सिंहकी स्त्रीको खरगोश ४८ रामके बाणों करके विदीर्णहुआ तूष्टथिवीमें गिरपड़ेगा तब तौबेसी ता के बचनसुनिकै क्रोधसभ राहु आरावण ४९॥

स्वरूपं दर्शयामास महापर्वतसन्निभम्॥ दशास्यं विंशतिभुजंकाल मेघसमद्युतिम् ५० तद्दृष्ट्वा वनदेव्यश्च भूतानि च वितत्रसुः॥ ततो विदार्यधरणीं नखैरुद्भृत्यबाहुभिः ५१ तोलयित्वा रथेक्षिप्त्वाययौक्षिप्रंविहायसा। हा राम हा लक्ष्मणेति रुदन्ती जनकात्मजा ५२ भयोद्विग्नमनादीनापश्यन्तीभुवमेवसा॥ श्रुत्वा तत्कंदितंदीनं सीतायाः पक्षि सत्तमः ५३ जटायुरुत्थितः शीघ्रं नगाग्रात्तीक्ष्णतुण्डकः॥ तिष्ठ तिष्ठेति तं प्राह को गच्छति ममाग्रतः५४ मुखित्वालोकनाथस्य भार्यां शून्याद्वनालयात्। शुनको मंत्रपूतं त्वां पुरोडाशमिवाध्वरे ५५ इत्युक्त्वा तीक्ष्णतुंडेनचूर्णयामास तद्रथम्॥ वाहान्बिभेदपादाभ्यां चूर्णयामास तद्धनुः ५६

अपनेस्वरूपको दिखाताहुआ जोस्वरूपपर्वतके तुल्य है औरदश जिसमें मुख हैं और बसिभुजा हैं और काले मेघके तुल्य जिसकी कान्ति है ऐसा स्वरूपरावण दिखाता हुआ ५० तिस रावण के रूप को देखिकै वनकी देवियां और सब प्राणी त्रासको प्राप्तहुये और रावण नखोंसे पृथिवी को बिदारण करके जिससे सीता के पैर पृथ्वी से अलग होजायें क्योंकि जबतक उस पृथिवी से संबन्ध सीताके चरणों का रहता तबतक रावण की शक्ति नथी जो सीता को उठा सक्ता इससे पृथिवीको बिदारणकर और भुजाओंसे सीताको उठाकर ५१ तोलके अर्थात् बोझा अजमाके रथमें डालके आकाशमार्ग करके जाता हुआ भोर उससमय में सीता हाराम हालक्ष्मणऐसेकहिकहिकै रोदनकररही है ५२ और भय करके व्याकुल है मन जिसका ऐसी दीन हुई सीता पृथिवीको देख रही है तब उससमय में पक्षियों में श्रेष्ठ जो जटायु सो सीताका दीन शब्दहैं युक्त रोवना सुनिकै ५३ बड़ी पैनी चोंच जिसकी सो शीघ्रही वृक्षपैसे उठक-

रके अरेखड़ाहो खड़ाहो कहां मेरे आगेसे जाता है और तू कौन है यह वचन बोलताहुआ ५४और लोकनाथ जोराम हैं तिनकी स्त्रीको शून्यवन के आश्रमते चुराके जैसे कुत्ता यज्ञके भागको यज्ञमेंसे लेके भागे तैसे कहांलिये जाता है ५५ ऐसा वचन कहिकै अपनी पैनीचोंचसे और पंजोंसे रावणके रथको जटायु चूर्णचूर्ण करता हुआ और पंजोंले घोड़ों को मारा और उसके धनुष को तोड़ता हुआ॥५६॥

ततः सीतां परित्यज्य रावणः खड्गमाददे॥
चिच्छेद पक्षौ सामर्षः पक्षिराजस्य धीमतः॥५७॥

पपात किंचिच्छेषेण प्राणेन भुविपक्षिराट्॥
पुनरन्यरथेनाशु सीतामादायरावणः

५८

क्रोशन्ती रामरामेति त्रातारं नाधिगच्छती॥
हा राम हा जगन्नाथ मां न पश्यसि दुःखिताम्

५९

रक्षसा नीयमानां स्वां भार्यां मोचय राघव॥
हा लक्ष्मण महाभाग त्राहि मामपराधिनीम्

६०

वाक्शरेण हतस्त्वं मे क्षन्तुमर्हसि देवर॥
इत्येवं क्रोशमानां तां रामागमनशंकया

६१

जगाम वायुवेगेन सीतामादाय सत्वरः॥
विहायसा नीयमाना सीतापश्यदधोमुखी

६२

पर्वताग्रस्थितान्पंच वानरान्वारिजानना॥
उत्तरीयार्द्धखंडेन विमुच्याभरणादिकम्

६३॥

तबतौ रावण सीताको छोड़िके और खड्गलैकै क्रोधकर उस पक्षिराज जटायुके पंख काटता हुआ ५७ फिर वह जटायु प्राणही मात्र निकलने को रहे ऐसा होकै पृथ्वी में गिरपड़ता हुआ और रावण दूसरे रथके ऊपर चढ़कै सीताको लैकै जाताहुआ ५८ और सीता उससमय में रामराम ऐसा कहिकै बिलाप कररही किसी रक्षा करने वाले को नहीं प्राप्त हुई और यह कहती हुई कि हा राम हा जगन्नाथ तुम इस समय दुःखित मुझको नहीं देखते हौ ५९ और हे राघव राक्षस करके प्राप्तकरीजाती जो अपनी भार्यातिसकीछुड़ाइये और हालक्ष्मण महाभाग अपराध करनेवाली जो मैहूं तिसकी रक्षाकीजिये ६० और हेदेवरबाणी रूप बाण करके जो मैंने तुमको ताड़न कियारहा सो मेरा अपराध क्षमा करनेयोग्य हौऐसे विलाप करती जो सीता तिसको राम के आनेकी शंकासे शीघ्रही रावण ग्रहण करि ६१ पवनकासा वेग जिसका ऐसे रथकरके लेजाताहुआ आकाश मार्ग करके हरीहुई जो सीता सो नीचे को मुख करके ६२ पर्वत के ऊपरवैठे जो पांचवानर थे तिनको देखती हुई और देखके किसी बस्त्रके टुकड़े में कुछ आभूषण बांधिके बानरों के समीप डालदेती हुई ६३॥

बध्वा चिक्षेप रामाय कथयत्विति पर्वते॥
ततः समुद्रमुल्लंघ्य लंकां गत्वा स रावणः॥६४॥

स्वांतःपुरे रहस्येतामशोकविपिनेऽलपत्॥
राक्षसीभिः परिवृतां मातृबुद्ध्याऽनुपालयत्॥६५॥

कृशाऽतिदीनापरिकर्मवर्जिता दुःखेन शुष्यद्वदनाऽतिविह्वला॥
हा राम रामेति विलप्यमाना सीता स्थिता राक्षसवृन्दमध्ये॥६६॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे आरण्यकाण्डे सप्तमः सर्गः॥७॥

जिससे जब राम वहां आवैंतो वे वानर रामसे कहैंअब रावण समुद्र को उल्लंघन कर लंका में प्राप्तहोकै ६४ वहां अपने महलके भीतर जो अशोकबनिका है तहां एकांतदेशमें सीताको स्थापन करताहुआ उस अशोक वनिकामें राक्षसियों करके परिवेष्टित जो सीता है तिसकी धर्मंही करके रक्षा कराता हुआ अर्थात् नलकूबर के शाप के भय से सीताके संग बलात्कार करनेको समर्थ न रहा शापका कारण वाल्मीकीय रामायण में ऐसा कहा कि एकसमय रावण दिग्विजयकी यात्रा में कैलास पर्वत पै रात्रिमें सेना को लेके बास कररहाथा सो उजेली रात्रिमें एक अप्सरा शृंगारकरेहुये उसीरस्ते होके नल कूबर जो कुबेरका पुत्र तिसके पास जातीथी सो रावण कामतप्तहोकै जबरदस्ती उसको पकड़ता हुआ उसने बहुतेरा कहा मैं तुम्हारी पुत्रबधू हैंमुझसे पाप नकरौरावणने बलात्कार से उससे भोग कियाही फिर वह वैसेही नलकूबर से जाके सब वृत्तान्त कहती हुई तौ नलकूबरने शापदिया कि आज के दिन से जो रावण बिनास्त्री की इच्छासे जबरदस्ती किसीपरस्त्री से भोगकरैगा तौ इसके शिरके सौ खण्डहोकै पृथिवी में गिरपड़ेंगे सोयहभयसे सीताकी धर्मही से रक्षाकरताहुआ ६५ अबसीता वहां कैसे बासकरती हुई सोकहते हैं अत्यन्त दीन भौर दुर्बल और शरीर के संस्कार करके रहित और दुःखकरके जिसका मुख सूख रहा है और अत्यन्त भयकरके बिह्वल औहाराम हाराम ऐसे विलाप करती राक्षसियोंके समूह के बीच में सीता वास करती हुई ६६

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसम्बादे आरण्यकाण्डे भाषाटीकायां सप्तमः सर्गः॥७॥

रामो मायाविनं हत्वा राक्षसं कामरूपिणम्॥
प्रतस्थे स्वाश्रमं गतुं ततो दूराद्ददर्श तम्॥१॥

आयान्तं लक्ष्मणं दीनं मुखेन परिशुष्यता॥
राघवश्चिन्तयामास स्वात्मन्येव महामतिः॥२॥

लक्ष्मणस्तन्नजानाति मायासी

            ** तां मया कृताम्॥  

ज्ञात्वाप्येनं वंचयित्वा शोचामि प्राकृतो यथा॥३॥**

यद्यहं विरतो भूत्वा तूष्णीं स्थास्यामि मंदिरे॥
तदा राक्षसकोटीनां वधोपायः कथं भवेत्॥४॥

यदि शोचामि तां दुःखसंतप्तः कामुको यथा॥
तदा क्रमेणानचिन्वन्सीतां यास्येऽसुरालयम्॥
रावणं सकुलं हत्वा सीतामग्नौ स्थितां पुनः॥५॥

मयैव स्थापितांं नीत्वा याताऽयोध्यातंद्रितः॥
अहं मनुष्यभावेन जातोऽस्मि ब्रह्मणाऽर्थितः॥६॥

मनुष्यभावमापन्नः किंचित्कालं वसामिकौ॥
ततो मायामनुष्यस्य चरितं मेऽनुशृण्वताम्॥७॥

दो० अष्टम सर्ग अरण्य के मिलि जटायु से राम॥
उदकदेइ निजपाणिसों सोपठयोनिजधाम १॥

अबश्री महादेवजी पार्वती से कथा कहते हैं हे पार्वति अब श्रीराम इच्छारूपधारी और मायावी मारीच राक्षस को मारि कैअपने आश्रम को आते हुये मार्ग में दूरही से आते हुये मुख जिसका सूखरहा ऐसेदनि लक्ष्मणको देखते हुये १ और बड़ी श्रेष्ठ है मति जिसकी ऐसे जोरामसो लक्ष्मणको देखके अपने मनही में यह विचार करते हुये २ जो मैं मुख्य सीताको अग्निको सौंपिकै मायारूपिणी सीताको आश्रम में करिकै मृग मारनेको आयाहौंयह चरित्र लक्ष्मण तो जानताही नहीं है औ में जानके भी लक्ष्मण के ठगने को जैसे मनुष्य स्त्रीके वियोग में व्याकुल हो शोच करता है तैसे मैं भी शोच करौंगा ३ और जो कदाचित् में शान्तचित्तहो आश्रम में मौन होके स्थितरहों तो कड़ोर राक्षसों के मारने का उपाय सिद्ध न होगा ४ और जो कामीके तरह दुःख संतप्त होके उस सीताको शोचकरौंगा तोक्रम से सीताको ढूंढता ढूंढता लंकाको अनायासही प्राप्त हो जाऊँगा फिर कुलसहित रावणको मारके अग्नि में स्थापन की जो सीता तिसको ५ लैके अयोध्यानगरीको जाऊंगा और दूसरा हेतु यह है कि मैं ब्रह्मा करके प्रार्थना कियागया मनुष्यभाव करके प्रकटहुआहों ६ तो ब्रह्माकी प्रार्थना सत्य करनेको मनुष्य भावही को प्राप्तहुआ कुछ काल पृथिवी में बास करौंगा फिर माया मनुष्य जो मैंहों तिसके चरित्रको श्रवण करने वाले ७॥

मुक्तिः स्यादप्रयासेन भक्तिमार्गानुवर्त्तिनाम्॥
निश्चित्यैवन्तदा दृष्ट्वा लक्ष्मणं वाक्यमब्रवीत्॥८॥

किमर्थमागतोऽसि त्वं सीतां त्यक्त्वा मम प्रियाम्॥
नीता वा भक्षिता वाऽपिराक्षसैर्जनकात्मजा॥९॥

लक्ष्मणः प्रांजलिः प्राह सीताया दुर्वचो रुदन्॥
हा लक्ष्मणेति वचनं राक्षसोक्तं श्रुतं तया॥१०॥

त्वद्वाक्यसदृशं श्रुत्वा मां गच्छेति त्वराब्रवीत्॥
रुदंती सा म–

  या प्रोक्ता देवि राक्षसभाषितम्॥  

नेदं रामस्य वचनं स्वस्था भवशुचिस्मिते॥११॥

इत्येवं सांत्विता साध्वी मया प्रोवाच मां पुनः॥
यदुक्तं दुर्वचो राम न वाच्यं पुरतस्तव॥१२॥

कर्णौ पिधाय निर्गत्य यातोऽहं त्वां समीक्षितुम्॥
रामस्तु लक्ष्मणं प्राह तथाऽप्यनुचितं कृतम्॥१३॥

त्वया स्त्रीभाषितं सत्यं कृत्वा त्यक्त्वा शुभाननाम्॥
नीता वा भक्षिता वाऽपि राक्षसैर्नात्र संशयः॥१४॥

भक्तिमार्ग में चलनेवाले मनुष्यों की अनायास से मुक्ति सिद्ध होगी यह श्रीरामचन्द्र निश्चयकरि उससमय में लक्ष्मण को देख के यह बोलते हुये ८ कि हे लक्ष्मण मेरी प्यारी सीताको छोड़के किस वास्ते आये और राक्षस लोग सीताको कहीं ले गये होंगे अथवा खालिया होगा ९ तो लक्ष्मण हाथजोड़के रोवते हुये सीता के दुर्वचनों को कहते हुये कि हा लक्ष्मण ऐसा राक्षस का कहा हुआ आपके सरिखाबचन जब सीताने सुना १० तब मुझसे कहने लगी कि हे लक्ष्मण तुम शीघ्र ही जावो तब मैंने यह कहा कि यह किसी राक्षसका कहा हुआ वचन है रामका नहीं है इससेअपने चित्तको सावधान करिये ११ इसप्रकार मैंने मुस्काया भी तौ भी हे राम उससमय में सीता मुझसे जो दुर्वचन कहती हुई है सो आपके आगे कहने को योग्य नहीं है १२ फिर मैं कानमूंदिकै उसस्थान से निकसिकै आपके दर्शन करने को प्राप्त हुआ तब राम लक्ष्मणसे कहने लगे कि हे लक्ष्मण तौ भीतुमने अनुचित ही किया अर्थात् अच्छा नहीं किया १३ क्योंकि जो तुम स्त्रीका वचन सत्यमानिकै सीताको त्यागिकै यहां आये और निश्चय करिकै तौ सीताको राक्षस कोई लेगया होगा अथवा भक्षण करिलिया होगा इसमें कुछ संदेह नहीं १४॥

इति चिन्तापरो रामः स्वाश्रमं त्वरितो ययौ॥
तत्रादृष्ट्वा जनकजां विललापातिदुःखितः॥१५॥

हा प्रिये क्व गताऽसि त्वं नासि पूर्ववदाश्रमे॥
अथवा मद्विमोहार्थं लीलया क्व विलीयसे॥१६॥

इत्याचिन्वन्वनं सर्वं नापश्यज्जानकीं तदा॥
वनदेव्यः कुतः सीतां ब्रुवन्तु मम वल्लभाम्॥१७॥

मृगाश्च पक्षिणो वृक्षा दर्शयंतु मम प्रियाम्॥
इत्येवं विलपन्नेव रामः सीतां न कुत्रचित्॥१८॥

सर्वज्ञः सर्वथा क्वापि नापश्यद्रघुनन्दनः॥
आनंदोऽप्यन्वशोचत्तामचलोऽप्यनुधावति॥१९॥

निर्ममो निरहंकारोऽप्यखंडानन्दरूपवान्॥
मम जायेति सीतेति विललापातिदुःखितः॥२०॥

एवं मायामनुचरन्नसक्तोऽपि रघूत्तमः॥
आसक्त इव मूढानां भाति तत्त्वविदान्नहि॥२१॥

इसप्रकार चिंतायुक्त जो राम सो शीघ्रही आश्रमको आते हुये और वहांजा

के सीताको नहीं देखके अति दुःखितहोकै विलाप करते हुये १५ और यह कहतेहुये हे प्रिये तू कहांगई क्योंकि पहिले की तरह आश्रम में नहीं दिखाई पढ़ती अथवा मुझे मोहकराने को कहीं लीलाकरिकै छिपरही इससे नहीं दिखाई देती १६ इसप्रकार सब बनको ढूंढते भी राम सीताको नहीं देखते हुये तौ वनदेवियों से औ मृग आदिकों से पूछते हुये कि हे वनदेवियो मेरी प्यारी जो सीता है तिसको बतलाओ कहा है १७ औ हे मृगो हे पक्षियों हे वृक्षोतुम सब मेरी प्यारीको दिखलावो इसप्रकार विलाप करते हुये राम सीताको कहीं नहीं देखते हुये १८ और सर्वज्ञभी रामहैं और सबप्रकार से देखते भी और सीताको नहीं देखते हुये और आनन्द स्वरूप और सर्वशक्तिमान् भी हैं और शोचकर रहे हैं और अचल भी हैं और वनमें सीताके देखने को दौड़रहे हैं १९ मौर ममता भौर का करके रहित और अखण्डानन्द स्वरूप भी हैं और मेरी स्त्री सीता कहांगई ऐसे अतिदुःखित विलाप भी कर रहे हैं २० इसप्रकार मायाको अनुसारण करते हुये आसक्ति रहित भी श्रीरामहैं परन्तु मूढ़ोंको आसक्त के नाईं अर्थात् जैसे संसारी पुरुष अपनी स्त्रीमें प्रीतियुक्त होरहा तिसकी तरह मालूम पड़ता है और तत्त्ववेत्ताओं को तौ ऐसा नहीं प्रतीत होता है २१॥

एवं विचिन्वन्सकलं वनं रामः सलक्ष्मणः॥
भग्नं रथं छत्रचापं कूबरं पतितं भुवि॥२२॥

दृष्ट्वा लक्ष्मणमाहेदं पश्य लक्ष्मण केनचित्॥
नीयमानां जनकजां तं जित्वाऽन्यो जहार ताम्॥२३॥

ततः कंचिद्भुवो भागं गत्वा पर्वतसन्निभम्॥
रुधिराक्तवपुर्दृष्ट्वा रामो वाक्यमथाब्रवीत्॥२४॥

एष वै भक्षयित्वा तां जानकीं शुभदर्शनाम्॥
शेते विविक्तेऽतितृप्तः पश्य हन्मि निशाचरम्॥२५॥

चापमानय शीघ्रम्मे बाणं च रघुनन्दन॥
तच्छ्रुत्वा रामवचनं जटायुः प्राह भीतवत्॥२६॥

मां न मारय भद्रन्ते म्रियमाणं स्वकर्मणा॥
अहं जटायुस्ते भार्याहारिणं समनुद्रुतः॥२७॥

रावणं तत्र युद्धं मे बभूवारिविमर्दन॥
तस्य वाहान् रथं चापं छित्त्वाऽहं तेन घातितः॥२८॥

ऐसे लक्ष्मण सहित जो राम सो सबबनको ढूंढते हुये आगे टूटा हुआ रथ और छत्र और धनुष और उतरथकी टूटी हुई जुअर देखते हुये २२ सो देखिकै रामलक्ष्मण से बोले हे लक्ष्मण देखो कोई राक्षस सीताको लिये जाता था उस को जीतिकै यहां और राक्षसने जानकी को हरा है २३ फिर तिसके अनन्तर श्रीरामजी कुछ चलिकै पर्वतकेतुल्य और रुधिर में डूबा है शरीर जिसका ऐसे जटायुको पृथ्वी में पड़ा देखके उसको राक्षसजानके लक्ष्मण से कहते हुये २४ हे लक्ष्मण यह राक्षस सीताको भोजनकर एकान्त देशमें तृप्तहोके पड़ा है इस

से शीघ्रही मेरा धनुषवाण लावो तौ इसको मैं मारों २५ तब ये राम के वचन सुनिकै भयभीत की नाई जटायुगीध बोलता हुआ २६ कि हे राम तुम्हारा कल्याण होय और मुझको न मारिये मैं तो अपने कर्म करके आपही मरा हुआ पड़ाहों और जटायु मेरा नाम है सो तुम्हारी भार्या के हरनेवाला जो रावणतिस के पीछे मैं दौड़ता हुआ २७ और तिसके साथ मेरा बड़ा भारी युद्ध हुआ तौउस के घोड़े औ रथ औ धनुष इनको मैंने तोड़ डाला तब उस रावणने मुझको मार के डाल दिया २८॥

पतितोऽस्मि जगन्नाथ प्राणांस्त्यक्ष्यामि पश्य माम्॥
तच्छ्रुत्वा राघवो दीनं कंठप्राणं

ददर्श ह॥२९॥

हस्ताभ्यां संस्पृशन्रामो दुःखाश्रुवृतलोचनः॥३०॥

जटायो ब्रूहि मे भार्या केन नीता शुभानना॥
मत्कार्यार्थं हतोऽसि त्वमतो मे प्रियबांधवः॥३१॥

जटायुः सन्नया वाचा वक्त्राद्रक्तं समुद्वनम्॥
उवाच रावणो राम राक्षसो भीमविक्रमः॥३२॥

आदाय मैथिलीं सीतां दक्षिणाभिमुखो ययौ॥
इतो वक्तुं न मेशक्तिः प्राणांस्त्यक्ष्यामि तेऽग्रतः॥३३॥

दिष्ट्या दृष्टोऽसि राम त्वं खियमाणेन मेऽनघ॥
परमात्माऽसि विष्णुस्त्वं मायामनुजरूपधृक्॥३४॥

अंतकालेऽपि दृष्ट्वा त्वां मुक्तोऽहं रघुसत्तम॥
हस्ताभ्यां स्पृशमां राम पुनर्यास्यामि ते पदम्॥३५॥

सो हे जगतों के स्वामी अब मैंप्राणोंको छोड़ा चाहता हैंसो मुझको देखो यह बचन श्रीराम जटायुके सुनिकै कंठ में जिसके प्राण आगये हैं ऐसे दीन जटायुको देखते हुये २९ फिर राम अपने हाथों से उसको स्पर्श कर नेत्रों से अश्रुपात करते हुये ३० और यह बोले कि हे जटायु शुभ है मुखारबिन्द जिसका ऐसी जो मेरी स्त्री सो किसने हरी उसको बताओ और तुम मेरे कार्यके अर्थ मारे गये इससे तुम मेरे बड़े प्रिय बान्धवहौअर्थात् प्यारे नातेदारहौ ३१ तब जटायु मुख से रुधिर वमन करता हुआ बड़ी मंद वाणी से बोलता हुआ कि हे राम बड़ा भयंकर पराक्रम जिसको ऐसा रावण नाम राक्षस ३२ जनक की पुत्री जो सीता तिसको लैके दक्षिण दिशाके सन्मुख जाता हुआ और इससे आगे कहने की मेरी सामर्थ्य नहीं है और तुम्हारे आगे प्राणोंको त्याग करता हौं ३३ हे राम यह बड़ी कल्याण की बात हुई कि मरता हुआ जो मैं तिसने तुमको देखा तुम साक्षात् परमात्मा विष्णु हौ माया ही करके मनुष्यरूपको धारण करे हो ३४ औ हे रघुकुलमें श्रेष्ठ अन्त समय में भी तुमको देखिकै मैं मुक्तहोगा और हे रामइस समय में फिर अपने हाथसे मुझको स्पर्श करिये मैं तुम्हारे पदको जाता हूं ३५॥

तथेति रामः पस्पर्श तदंगं पाणिना स्मयन्॥
ततः प्राणान्परित्यज्य जटायुः पतितो भुवि॥३६॥

रामस्तमनुशोचित्वा बन्धुवत्साश्रुलोचनः॥
लक्ष्मणेन समानाय्य काष्ठानि प्रददाह तम्॥३७॥

स्नात्वा दुःखेन रामोऽपि लक्ष्मणेन समन्वितः॥
हत्वा वने मृगं तत्र मांसखंडान्समंततः॥३८॥

शाद्वले प्राक्षिपद्रामः पृथक् पृथगनेकधा॥
भक्षन्तु पक्षिणः सर्वे तृप्तो भवतु पक्षिराट्॥३८॥

इत्युक्त्वा राघवः प्राह जटायो गच्छ मत्पदम्॥
मत्सारूप्यं भजस्वाद्य सर्वलोकस्य पश्यतः॥४०॥

ततोऽनन्तरमेवासौ दिव्यरूपधरः शुभः॥
विमानवरमारुह्य भास्वरं भानुसन्निभम्॥४१॥

शंखचक्रगदापद्मकिरीटवरभूषणैः॥
द्योतयत्स्वप्रकाशेन पीताम्बरधरोऽमलः॥४२॥

तब श्रीरामचन्द्रजी पक्षीको भी ऐसा ज्ञान है इस आश्चर्य से मन्द मुसक्यान करते हुये अपने हस्त कमलों से उस जटायुके अंगको स्पर्श करते हुये तब जटायु प्राणोंको त्यागिकै पृथ्वी में गिर पड़ता हुआ ३६ तब राम बन्धुकी तरह रोवते हुये उसको शोच करके लक्ष्मणसे काष्ठ मंगाकर उसको दाह करते हुये ३७ फिर लक्ष्मण करके सहित दुःखयुक्त श्रीरामचन्द्र स्नान करके वन में एक मृगको मारके उसके मांस के खण्डचारों तरफ से हरी घासपै ढालते हुये अलग अलग अनेक प्रकारके और यह कहते हुये हे पक्षियों तुम सब इस मांस को भोजन करौ जिससे यह पक्षियोंका राजा जटायु तृप्त होय ३८१।३९ फिर यह कहिकै राम कहने लगे हे जटायु इस समय में सब लोकोंके देखते ही देखते तुम मेरा सा रूप धारणकर मेरे लोकको प्राप्त होवो ४० फिर यह बचन राम के कहतेही जटायु दिव्यरूपको धारण कर और सूर्य के तुल्य प्रकाशमान विमान के ऊपर चढिकै शंख चक्र गदा पद्म इनको धारण करे और किरीट आदि आभूषणों करके सब दिशाओं को प्रकाश करता हुआ और पीतवस्त्रोंको धारणकरे निर्मल स्वरूप ४१।४२॥

चतुर्भिः पार्षदैर्विष्णोस्तादृशैरभिपूजितः॥
स्तूयमानो योगिगणै राममाभाष्य सत्वरः॥
कृतांजलिपुटो भूत्वा तुष्टाव रघुनन्दनम्॥

४३॥

जटायुरुवाच॥

अगणितगुणमप्रमेयमाद्यंसकलजगत्स्थितिसंयमादिहेतुम्॥
उपरमपरमं परात्मभूतं सततमहं प्रणतोऽस्मिरामचन्द्रम्॥

४४॥

निरवधिसुखमिन्दिराकटाक्षं क्षपितसुरेन्द्रचतुर्मुखादिदुःखम्॥
नरवरमनिशं नतोऽस्मि रामं वरदमहं वरचापबाणहस्तम्॥

४५॥

त्रिभुवनकमनीयरूपमीड्यं रविशतभासुरमोहितप्रदानम्॥
शरणदमनिशं सुरागमु

          ले कृतनिलये रघुनन्दनं प्रपद्ये॥४६॥

भवविपिनिदवाग्निनामधेयं भवमुखदैवतदैवतं दयालुम्॥
दनुजपतिसहस्रकोटिनाशं रवितनयासदृशं हरिं प्रपद्ये॥४७॥

अविरतभवभवनातिदूरं भवविमुखैर्मुनिभिः सदैव दृश्यम्॥
भवजलधिसुतारणांघ्रिपोतं शरणमहं रघुनन्दनं प्रपद्ये॥४८॥

गिरिशगिरिसुतामनोनिवासं गिरिवरधारिणमीहिताभिरामम्॥
सुरवरदनुजेन्द्रसेवितांघ्रिं सुरवरदं रघुनायकं प्रपद्ये॥४९॥

और तैसे ही स्वरूपके विष्णु के चारि पार्षदों करके सत्कार कियागया और योगियों करके स्तुति किया गया सो शीघ्रही रामको संबोधन करके अर्थात् हे राम ऐसा शब्द उच्चारण करिकै और हाथजोड करके रामकी स्तुति करता हुआ ४३ नहीं गिनने में आते हैं गुण जिनके और इसी देशमें और कालमें है और में नहीं है ऐसा जो देशकाल परिच्छेद तिस करके रहित हैं अर्थात् जो सब देश में औ सबकाल में है और जो सब जगत् की उत्पत्ति औ पालन और संहार इनका कारण है और शांति ही है शोभा जिनकी ऐसे जो परमात्मा रामचन्द्र तिनको मैं निरन्तर प्रणाम करोंहौं४४ और जिनके सुखकी कुछ अवधि नहीं है अर्थात् सब काल में सुखरूपही बने रहते हैं और लक्ष्मीजी के कटाक्ष जिसमें पढ़तेही रहते हैं और जो ब्रह्मा इन्द्र आदि देवताओं के दुःख के नाश करने वाले हैं और जो पुरुषोत्तम रूपहैं और जो वरके देनेवाले हैं और जो श्रेष्ठ धनुष बाणको हाथमें धारण किये हैं ऐसे जो राम तिनको मैं निरन्तर नमस्कार करता हौं ४५ और तीनों लोकों में एक सुन्दररूप जिनका अर्थात् तीनों लोकों की सुन्दरताई जिनके रूपमें बास करती है और जो स्तुति करने योग्य हैं और सैकड़ों सूर्य्योकासा प्रकाश जिनका और जो भक्तों के अभीष्टके देनेवाले हैं और जो शरणागतकी रक्षा करनेवाले हैं और जो प्रेमी पुरुषों के चित्त में बासक रनेवाले हैं ऐसे जो रघुनन्दन तिनके में निरन्तर शरण प्राप्त होता हीँ ४६ और संसाररूपी बनके भस्मकरने को दावाग्नि तुल्य है नाम जिनका और महादेव आदि देवों के भी जो देव हैं और जो प्रति दयालु हैं और जो करोड़ों दैत्य पतियों के नाश करनेवाले हैं और यमुनाके तुल्य जिनका वर्ण है ऐसे जो हरि हैं तिनके मैं शरण प्राप्तहौं ४७ और निरन्तर जिन पुरुषों का संसार में चित्त है तिन पुरुषों को जो अत्यन्त दूरहै और जे संसारकी चिन्ता रहित विरक्त मुनि लोग हैं तिनको नित्य दर्शन देनेवाले हैं और संसाररूपी समुद्र से पार लगानेवाली है चरण रूप नौका जिनकी ऐसे जो रघुनन्दन हैं तिनकी मैं शरण प्राप्तौं ४८ और महादेव और पार्वती इनकेमनमें है निवास

जिनका और कृष्णरूप करके जो गोबर्द्धन पर्वतके धारण करने वाले हैं और अपने चरित्रों करके सबको प्रिय हैं और देवता दैत्येन्द्रों करके सेवन किया गया है चरण जिनका और देवतों को वरके देनेवाले हैं ऐसेजो रघुओं में श्रेष्ठराम तिन के मैं शरण प्राप्तहों ४९॥

परधनपरदारवर्जितानां परगुणभतिषु तष्टमानसानाम्॥
परहितनिरतात्मनां सुसेव्यं रघुवरमम्बुजलोचनं प्रपद्ये॥

५०॥

स्मितरुचिरविकासिताननाब्जमतिसुलभं सुरराजनीलनीलम्॥
सितजलरुहचारुनेत्रशोभं रघुपतिमीशगुरोर्गुरुं प्रपद्ये॥

५१॥

हरिकमलजशम्भरूपभेदात्त्वमिह विभासि गुणत्रयानुवृत्तः॥
रविरिव जलपूरितोदपात्रेष्वमरपतिस्तुतिपात्रमीशमीडे॥

५२॥

रतिपतिशतकोटिसुंदरांगं शतपथगोचरभावनाविदूरम्॥
यतिपतिहृदये सदा विभातं रघुपतिमार्तिहरं प्रभुं प्रपद्ये॥

५३॥

इत्येवं स्तुवतस्तस्य प्रसन्नोऽभूद्रघूत्तमः॥
उवाच गच्छ भद्रं ते मम विष्णोः परम्पदम्॥

५४॥

शृणोति य इदं स्तोत्रं लिखेद्वा नियतः पठेत्॥
स याति मम सारूप्यं मरणे मत्स्मृतिं लभेत्॥

५५॥

इति राघवभाषितं तदा श्रुतवान्हर्षसमाकुलो द्विजः॥
रघुनंदनसाम्यमास्थितः प्रययौ ब्रह्मसुपूजितं पदम्॥

५६॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे आरण्यकाण्डे अष्टमः सर्गः॥

८॥

और विरानाधन और विरानी स्त्री इनमें नहीं है चित्त जिनका और और के गुणों के ऐश्वर्य में प्रसन्न है मन जिनका और विराने हित में प्रीतियुक्त है मन जिनका ऐसे पुरुषों को जो सुख पूर्वक सेवन करिबे योग्य हैं और कमल सरीखे हैं विशाल नेत्र जिनके ऐसे जो रघुनन्दन तिनके में शरण प्राप्त हों ५० और मन्द मुसक्यान करके सुन्दर प्रफुल्लित है कमलरूपी मुख जिनका और जो सबको सुलभ हैं और इन्द्रनील मणि के तुल्य जो नील वर्ण और सुपेद कमल के तुल्य सुन्दर है नेत्रोंकी शोभा जिनकी ऐसे ब्रह्माके गुरु जो राम हैं तिनके मैं शरण प्राप्त होता हौं ५१ और जैसे एकही सूर्य जल के भरे हुये घंटों में प्रतिबिम्बपरनेसे अनेकरूपका प्रतीयमान होय तैसे एकही तुम सत्त्व रज तम इनतीनों माया के गुणों के भेदले विष्णु ब्रह्मा शिव आदिरूपभेद करके जो प्रतीत होरहे हो यौ इन्द्रकी स्तुति के जो पात्र है ऐसे जो हरि रूपतुम तिनकी मैं स्तुति करता ५२ और कामदेवसे सौ करोड़गुना है सुन्दर अंग जिनका और यजुर्वेद के शतपथ ब्राह्मण भाग में कहा जो ध्यानमार्ग तिस करके जो प्राप्त

होने के योग्य और इसीसे संन्यासियों के हृदय में सदा प्रकाशमान ऐसे जो दुःख के हरने वाले रघुपति तिनके मैंशरणप्राप्त होताहौं५३ ऐसी स्तुतिकरता हुआ जो जटायु तिसके ऊपर प्रसन्न हो श्रीराम बोलते हुये कि तेरा कल्याण होय और तू मेरे परमपदको जाउ ५४ और जो कोई इस स्तोत्रको सुनैगा व पढ़ेगा अथवा लिखेगा सो मेरे समान रूपको प्राप्त होगा और मरणसमयमें उसको मेरा स्मरण होगा ५५ ऐसा रामका कहा हुआ बचन उससमय में जटायु सुनिकै परमआनन्द युक्तहो रघुनन्दनके समान रूपको प्राप्तो ब्रह्मा करके पूजित जो लोक तिसको जाताहुआ ५६॥

इति श्रीमदभ्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे आरण्यकाण्डे भाषाटीकायामष्टमः सर्गः ८॥

ततो रामो लक्ष्मणेन जगाम विपिनांतरम्॥
पुनर्दुःखं समाश्रित्य सीतान्वेषणतत्परः॥

१॥

तत्राद्भुतसमाकारो राक्षसः प्रत्यदृश्यत॥
वक्षस्येव महावक्त्रश्चक्षुरादिविवर्जितः॥२॥

बाहू योजनमात्रेण व्याष्टतौ तस्य रक्षसः॥
कबंधो नाम दैत्येंद्रः सर्वसत्वविहिंसकः॥३॥

तद्बाहोर्मध्यदेशे तौचरंतौ रामलक्ष्मणौ॥
ददर्शतुर्महासत्त्वं तद्बाहुपरिवेष्टितौ॥४॥

रामः प्रोवाच विहसन्पश्य लक्ष्मण राक्षसम्॥
शिरःपादविहीनोऽयं यस्य वक्षसि॥५॥

बाहुभ्यां लभ्यते यद्यत्तत्तद्भक्षन् स्थितो ध्रुवम्॥
आवामप्येतयोर्बाहोर्मध्ये संकलितौध्रुवम्॥६॥

गंतुमन्यत्र मार्गो न दृश्यते रघुनंदन॥
किं कर्तव्यमितोऽस्माभिरिदानीं भक्षयेत्स नौ॥७॥

दो० । नवमें सर्ग अरण्यके इति कबन्धको राम॥
ताकीस्तुतिसुनिमुदितमनताहिदियोनिजधाम १॥

अब महादेवजी पार्वती से कहते हुये कि हे पार्वति तिसके उपरान्त राम लक्ष्मण करके सहित और बनको जाते हुये फिर दुःख करके संतप्त हो सीता के ढूंढने में तत्पर होतेहुये १ तिस वनमें अद्भुतहै रूप जिसका ऐसा राक्षस दिखाई देता हु भा छाती में तो जिसके बड़ाभारी मुखहै और नेत्र आदि करके रहितहै २ और तिस राक्षसकी चारकोसतक लम्बायमान भुजाएँ और कबन्ध जिसका नामहै और दैत्योंका राजा और सब प्राणियों का मारने वाला है ३ उस राक्षस के दोनों भुजाओं के मध्य देशमें विचरते हुये जो राम औ लक्ष्मण ये दोनों उसके भुजाओं के लपेटे में फंसकर बड़ा भारी शरीर उसका देखते हुये ४ तब राम हँसकर बोले हे लक्ष्मण इस राक्षसको देखो शिर भौ पावों करके तो यह हीन है और छाती में इसके मुखहै ५ भुजाओं करके जो नो प्राणी इसको

मिलते हैं उनको खैंचके भोजन करता हुआ एकजगह पर रहता है और हम दोनोंजने भी इसके भुजाओं के बीच में आगये हैं६ औ और जगह के जानेकी रास्ता कोई दिखलाई नहीं पड़ती है इससे हमको इससमय में क्या करना चाहिये क्योंकि यह अभी भक्षण करेगा हम दोनों को भी ७॥

लक्ष्मणस्तमुवाचेदं किं विचारेण राघव॥
आवामेकैकमव्यग्रौछिंद्यांरक्षो भुजौ ध्रुवम्॥८॥

तथेति रामः खड्गेन भुजं दक्षिणमच्छिनत्॥
यथैव लक्ष्मणो वामं चिच्छेद भुजमंजसा॥९॥

ततोऽतिविस्मितो दैत्यः कौ युवां सुरपुंगवौ॥
मद्बाहुच्छेदकौ लोके दिवि देवेषु वा कुतः॥१०॥

ततोब्रबीद्धसन्नेव रामो राजीवलोचनः॥
अयोध्याधिपतिः श्रीमान्राजा दशरथो महान्॥११॥

रामोऽहं तस्य पुत्रोऽसौ भ्राता मे लक्ष्मणः सुधीः॥
मम भार्या जनकजासीता त्रैलोक्यसुन्दरी॥१२॥

आवां मृगयया यातौ तदा केनापि रक्षसा॥
नीतां सीतां विचिन्वंतौ चागतौ घोरकानने॥१३॥

बाहुभ्यां वेष्टितावत्र तव प्राणरिरक्षया॥
छिन्नौ तव भुजौ त्वं च को वा विकटरूपधृक्॥१४॥

तो लक्ष्मण कहते हुये कि हे राम बहुत विचार करने से क्या है अभी हम दोनों जने इसकी एकएकभुजा काटते हैं ८ फिर तैसेही राम तो उस राक्षसकी खड्गकरके दक्षिणभुजा काटते हुये और लक्ष्मण बांई भुजा काटते हुये ९तबतौ वह दैत्य बड़ा आश्चर्ययुक्तहो पूछता हुआ कि मेरे भुजाओंके काटनेवाले तुम दोनों देवतों में श्रेष्ठ कौनही मनुष्यलोक में कोई हो अथवा स्वर्गलोक में कोई हो अर्थात् मनुष्यलोक में और स्वर्ग में कोई ऐसा है ही नहीं इससे कोई औरही होउगे तो कौनहौ१० तौकमलतुल्य विशाल नेत्र जो राम सो हँसकर के बोलते हुये कि अयोध्यानगरी का पति बड़ा लक्ष्मीयुक्तजो राजादशरथं ११ तिसकापुत्र रामनाम करके मैंहौंऔर यह लक्ष्मणनाम करके बड़ा बुद्धिमान् मेरा भाई है और जनककी पुत्री तीनों लोक में सुन्दरी सीता सोमेरी भार्या है १२ और हम दोनों ने जब शिकारको गये थे तब किसी राक्षसने उस सीताको हर लिया तौ सीताको ढूंढते ढूंढते इस घोर वन में प्राप्तहुये १३ फिर इस वनमें भी तुम्हारी भुजाभों के बीच में पड़गये तब अपने प्राणों की रक्षा के लिये तुम्हारी भुजा काटडाली सो तुम ऐसे भयंकर रूपको धारण करे कौनहौ १४॥

कबंध उवाच॥

धन्योऽहं यदि रामस्त्वमागतोऽसि ममांतिकम्॥
पुरा गंधर्वराजोऽहं रूपयौवनदर्पितः॥१५॥

विचरल्ँलोकमखिलं वरनारीमनोहरः॥
तपसा ब्रह्मणो लब्धमवध्यत्वं रघूत्तम॥१६॥

अष्टावक्रं मुनिं दृष्ट्वा

          कदाचिदहसं पुरा॥  

क्रुद्धोसावाह दुष्ट त्वं राक्षसो भव दुर्मते॥१७॥

अष्टावक्रः पुनः प्राह वन्दितो मे दयापरः॥
शापस्यान्तं च मे प्राह तपसा द्योतितप्रभः॥१८॥

त्रेतायुगे दाशरथिर्भूत्वा नारायणः स्वयम्॥
आगमिष्यति ते बाहू छिद्येते योजनायतौ॥१९॥

तेन शापाद्विनिर्मुक्तौ भविष्यसि यथा पुरा॥
इति शप्तोऽहमद्राक्षं राक्षसीं तनुमात्मनः॥२०॥

कदाचिद्देवराजानमभ्यद्रवमहंरुषा॥
सोऽपि वज्रेण मां राम शिरोदेशेऽभ्यताडयत्॥२१॥

तब कबन्ध बोला जो तुम रामहौ और मेरे समीप आके प्राप्तहुये हौइससे मैं धन्य हौंहे राम पहिले रूप और यौवन अवस्थाके गर्वकर के युक्तगन्धर्व राजमैं था १५ सो श्रेष्ठस्त्रियों के मनका हरनेवाला मैंसबलोक में विचराकरताथा और हे राम ब्रह्माके तपके प्रभाव से मुझको अबध्यत्व प्राप्तहुआ अर्थात् किसीसे मृत्यु न होना १६ फिर एकसमय अष्टावक्रमुनि को देखके मैं हँसता हुआ तब वे मुनि क्रोध करके मुझसे बोले कि अरे दुष्ट तू राक्षस होजा १७ तो मैंने चरणों तरपड़के प्रसन्न किया तो तप करके प्रकाशमान और परमदयालु अष्टावक्रमुनि मेरे शाप का अन्त कहते हुये १८ कित्रेतायुग में साक्षात् नारायण जब दशरथ के पुत्र होके बनमें आवेंगे और उन राम करके योजनभर लम्बी तेरी भुजा काटी जावेंगी १९ तब तू शापसे छूटिकै पहिले के से रूपको प्राप्त होगा हेराम इसप्रकार शाप को प्राप्तहुआ जो मैं सो अपने राक्षसके शरीर को देखता हुआ २० हे राम फिरकिसी समयमें मैं क्रोधकरके इन्द्र के सन्मुख दौड़ा तो इन्द्र मेरे शिरके ऊपर बज्रका प्रहार करते हुये २१॥

तदा शिरो गतं कुक्षिम्पादौ च रघुनन्दन॥
ब्रह्मदत्तवरान्मृत्युर्नाभूमेवज्यताडनात्॥२२॥

मुखाभावे कथं जीवे दयमित्यमराधिपम्॥
ऊचुस्सर्वे दयाविष्टा मां विलोक्यास्यवर्जितम्॥२३॥

ततो मां प्राह मघवा जठरे ते मुखम्भवेत्॥
बाहू ते योजनायामौ भविष्यत इतो व्रज॥२४॥

इत्युक्तोऽत्र वसन्नित्यं बाहुभ्यां वनगोचरान्॥
भक्षयाम्यधुनाबाहू खण्डितौ मे त्वयाऽनघ॥२५॥

इतः परम्मांश्वभ्रास्ये निक्षिप्याग्नींधनावृते॥
अग्निना दह्यमानोऽहं त्वया रघुकुलोत्तम॥२६॥

पूर्वरूपमनुप्राप्य भार्यामार्गं वदामि ते॥
इत्युक्ते लक्ष्मणेनाशु श्वभ्रंन्निर्माय तत्र तम्॥२७॥

निक्षिप्य प्रादहत्काष्ठैस्ततो देहात्समुत्थितः॥
कन्दर्पसदृशाकारः सर्वाभरणभूषितः॥२८॥

तब हे रघुनन्दन मेरा शिर और दोनों पांव ये काखमें सिमिट के मिल जाते हुये परन्तु ब्रह्माजीके वरदान के प्रभावसे वज्रके ताडनसे भी मेरी मृत्यु नहीं हुई २२ फिर दयायुक्त सबदेवता मुखरहित मुझको देखके मुख के बिना यह कैसे जीवैगा यह इन्द्रसे कहते हुये २३ तब इन्द्र मुझसे बोले कि हे राक्षस उदर में तेरामुख हो जायगा और चारकोसतक लंबीतेरी भुजा होवैंगी और पांवों के बिना भी घुटुओंसे सकिलाकरैगा २४ ऐसे इन्द्र करके कहा हुआ में नित्य इसबन में बसता हुआ भुजाओं करके बनके जीवोंको खैंचकर भक्षण करने लगा हे अनघ पापरहित सो भुजा आपने काटिकै खण्ड खण्ड करडालीं २५ औौर हे राम इसके उपरान्त अब एकगड़हा खोदके उसके भीतर बहुतसा ईंधन और मेरा शरीर डालके उसमें अग्निदैदीजिये फिर जब अग्निकरके मैं भस्महोबोंगा २६ तब पहिले के गन्धबैरूपको प्राप्तहोके तुम्हारी भार्याको मार्गबतलावोंगा ऐसाबचन जब उसने कहा तो राम लक्ष्मण से बड़ाभारी गड़हा खुदवाई के फिर उसमें उसके शरीरको डालके २७ बहुतसी लकड़ी करके जलाते हुये फिर उसकी जलती देह में से एक पुरुष निकलता हुआ कामदेव के समान है रूप जिसका और संपूर्ण भाभूषणों को धारण करे है २८॥

रामं प्रदक्षिणं कृत्वा साष्टांगं प्रणिपत्य च॥
कृतांजलिरुवाचेदं भक्तिगद्गदया गिरा॥२९॥

गन्धर्व उवाच॥

स्तोतुमुत्सहते मेऽद्य मनो रामातिसंभ्रमात्॥
त्वामनन्तमनाद्यतं मनोवाचामगोचरम्॥३०॥

सूक्ष्मं ते रूपमव्यक्तन्देहद्वयविलक्षणम्॥
दृग्रूपमितरत्सर्वं दृश्यं जडमनात्मकम्॥
तत्कथं त्वां विजानीयाद्व्यतिरिक्तं मनः प्रभो॥३१॥

बुद्ध्यात्माभासयोरैक्यं जीव इत्यभिधीयते॥
बुद्ध्यादिसाक्षी ब्रह्मैव तस्मिन्निर्विषयेऽखिलम्॥३२॥

आरोप्यतेज्ञानवशान्निर्विकारेऽखिलात्मनि॥
हिरण्यगभस्ते सूक्ष्मं देहं स्थूलं विराट्स्मृतम्॥३३॥

भावनाविषयो राम सूक्ष्मं ते ध्यातृमंगलम्॥
भूतं भव्यं भविष्यच्च यत्रेदं दृश्यते॥३४॥

स्थूलेऽण्डकोशे देहे ते महदादिभिरावृते॥
सप्तभिरुत्तरगुणैर्वैराजो धारणाश्रयः॥३५॥

फिर वह पुरुष रामको प्रदक्षिणा करके औ साष्टांग दण्डवत् प्रणाम कर हाथ जोड़के भक्तिसे गद्गदवाणी करके यह वचन बोलता हुआ २९ हे राम इस समयमें आदिमन्तकरके रहित और मनवाणी के अगोचर और अनन्त ऐसेज आप तिनकी स्तुति करने को मेरामन प्रति आदर से उत्साहकर रहा है ३० हे राम विराट् हिरण्यगर्भरूप जो स्थूल सूक्ष्म जो दो देह तिनसे विलक्षणनाम और

तरहका ऐसा केवल ज्ञानरूप तुम्हारा सूक्ष्मरूप है फिर वह कैसा है जो अव्यक्त है योगियों को भी दुःखकरके जानिबेको अशक्य और संपूर्ण जगत् जड़ है क्योंकि दृश्य है इसकारण से और इसीसे अनात्महै अर्थात् भात्मा से भिन्न है तो हे राम दृश्य और जड ऐसा जो मन है सो साक्षिरूप जो आप तिनको कैसे जानिसकै ३१ और चित्तमें जो आत्माका प्रतिबिम्ब तिसका जो चित्त के साथ ऐक्य अर्थात् कुछ भेदकर के न जाना जाय दोनों मिलके एकही जानाजाय उसको जीव कहते सो वह जीव वास्तव में बुद्ध्यादिकों का साक्षी है और ब्रह्मही है जिसकारण से निर्विषय अर्थात् वाणी और मन इनके अगोचर निर्विकार जो तुमहौ तिनमें ३२ अज्ञानवशसे संपूर्ण जगत् आरोपित है अर्थात् रज्जु में सर्पकीनाई झूठाही मानरक्खा है और राम हिरण्यगर्भ आपकासूक्ष्म देहहै और विराट् आपकास्थूलदेह है। इसका आशय यह है कि पहिले जो शब्द स्पर्श रूप रस गन्ध और पांच ज्ञानेन्द्रिय और पांचकर्मेन्द्रिय और मन बुद्धि अहंकार यह अठारह तत्त्व का जो लिंगशरीर कहि आये हैं उन सब जीवों केलिंगशरीरोंका जो समूह है उसको हिरण्यगर्भ कहते हैं ऐसेही सबके स्थूलशररोंके समूहको बिराट् कहते हैं ३३ और हे राम तिसमें जो आपका सूक्ष्म शरीर है सो हृदयरूपकमल में ध्यान करिवे योग्य है औरध्यान करने वालोंको मंगल कादेनेवाला है और जिसके ध्यानकरनेसे भूत भविष्यत् वर्त्तमान तीनकालके पदार्थ दिखाई पड़ते हैं ३४ और हे राम उत्तरोत्तरदशगुणित वृद्धि को प्राप्तजो महदादि सात आवरण तिन्हों करके आवृत जो ब्रह्माण्ड वही हुआ आपका स्थूलशरीर तिसका अभिमानी जो वैराज पुरुष सो ध्यान करिबे योग्य है।इसका आशय यह है कि ब्रह्माण्ड के मध्य में चौदह जोकोंका ब्रह्माका स्थूलशरीर है सो ब्रह्माण्ड दशगुणी ष्टथिवी करके आवृत है अर्थात् ढका हुआ है और वह पृथिवीभी अपना दशगुने जल करके ढकी हुई और जल अपने से दशगुने तेजकर के ढका हुआ है और तेज अपनासे दशगुने पवेनकरके ढका है और पवन अपना से दशगुने आकाशकरके ढका है और आकाश अपना दशगुने अहंकारकरके ढका है और अहंकार अपने से दशगुने महत्तत्त्व करके ढका हुआ है ३५॥

त्वमेव सर्वकैवल्यं लोकास्तेऽवयवाः स्मृताः॥
पातालं ते पादमूलं पाणिस्तव महातलम्॥३६॥

रसातलं ते गुल्फौ तु तलातलमितीर्यते॥
जानुनी सुतलं राम ऊरू ते वितलं तथा॥३७॥

अतलं च मही राम जघनं नाभिगं नभः॥
उरःस्थलं ते ज्योतींषि ग्रीवा ते मह उच्यते॥३८॥

वदनं जनलोकस्ते तपस्ते शंखदेशगम्॥
सत्यलोको रघुश्रेष्ठशीर्षण्यास्ते सदा प्रभो॥३९॥

इंद्रादयो लोकपाला बाहवस्ते दिशः श्रुती॥
अश्विनौ नासिके राम वक्त्रं तेग्निरुदाहृतः॥४०॥

चक्षुस्ते सविता राम मनश्चंद्र उदाहृतः॥
भ्रूभंग एव कालस्ते बुद्धिस्ते वाक्पतिर्भवेत्॥४१॥

रुद्रोऽहंकाररूपस्ते वाचश्छंदांसि तेऽव्ययं॥
यमस्ते दंष्ट्रदेशस्थो नक्षत्राणि द्विजालयः॥४२॥

और हे राम अन्त में प्राप्त होने योग्य एक परमार्थं वस्तुसबके आपही हौऔर सब लोक आपके अंग तिसमें पाताललोक जोहै सो आपके पांवोंकातरवा है और महातललोक आपकी एंडी है ३६ और रसातललोक आपके पांवोंकी गांठी है और तलातललोक आपकी पिंडुरी है और सुतललोक आपके घुटने हैं और तिललोक आपके ऊरुहैं अर्थात् जंघा हैं ३७ और अतललोक जांघोकेका भाग और पृथिवी लोकजांघका ऊर्ध्वभाग है और अंतरिक्षलोक आपकी नाभि नामतोंदीहै और नक्षत्रलोक आपकी छाती है और महर्लोक आपकी गर्दन है ३८ और जनलोक आापकामुख है और तपलोक आापकामस्तकहै और सत्यलोक आपका शिर है ३९ और इन्द्रादि आठलोकपाल आपकी भुजा हैं और दिशा आपके कान हैं और हे राम अश्विनीकुमार आपकी नाक हैं और अग्नि आपका मुख हैं ४० और हे राम सूर्य आपके नेत्र हैं और चन्द्रमा आपका मन है और काल आपकी भौंह है और बृहस्पति आपकी बुद्धिहैं ४१और रुद्र आपका अहंकार है और वेद यापकी वाणी है और यमराज आपकी दाढ़ हैं और नक्षत्र आपके दांत हैं ४२॥

हासो मोहकरी माया सृष्टिस्तेपांगमोक्षणम्॥
धर्मः पुरस्तेऽधर्मश्च पृष्ठभाग उदीरितः॥

४३॥

निमिषोन्मेषणे रात्रिर्दिवा चैव रघूत्तम॥
समुद्राः सप्त ते कुक्षिर्नाड्यो नद्यस्तव प्रभो॥४४॥

रोमाणि वृक्षौषधयो रेतो वृष्टिस्तव प्रभो॥
महिमा ज्ञानशक्तिस्ते एवं स्थलं वपुस्तव॥४५॥

यदस्मिंस्थूलरूपे ते मनः संधार्यते नरैः॥
अनायासेन मुक्तिः स्यादतोन्याहि किंचन॥४६॥

अतोहं राम रूपं ते स्थूलमेवानुभावये॥
यस्मिन्ध्याते प्रेमरसः सरोमपुलको भवेत्॥४७॥

तदैव मुक्तिः स्याद्राम यदा ते स्थूलभावकः॥
तदप्यास्तां तवैवाहमेतद्रूपं विचिंतये॥४८॥

धनुर्बाणधरं श्यामं जटावल्कलभूपितम्॥
अपीच्यव्यसं सीतां विचिन्वंतं सलक्ष्मणम्॥४९॥

और सब जीवोंको मोह करनेवाली जो माया सो आपकी हास्य है और अनेक प्रकारकी जो सृष्टिहै सोई आपका कटाक्षमोक्षण है अर्थात् देखना है और धर्म्मजो है सो आपका अगाड़ी का भागहै अर्थात् छाती है और अधर्म आपका

पिछाडीका भागहै अर्थात् पीठिहै ४३ औहे राम दिन चौ रात्रि आपके नेत्रों का खोलना और मूंदना है और सातो समुद्र आपकी कोखिहैं और सब नदियां आपके शरीर के भीतर की नाड़ी हैं ४४ औरवृक्ष और घोषधि अर्थात् यवद्यादि ये सब आपके रोम हैं और हे प्रभो जलकी दृष्टिजो है सो आपका वी है औ ज्ञानशक्ति जो है सोई आपकी महिमा है अर्थात् सबसे अधिक है जो आपमें ज्ञानशक्ति है सो कहीं नहीं है यह आपका स्थूलरूप है ४५ जो इस आपके स्थूल रूपके मनुष्यों करके मनधारण किया जाता है तो अनायासही करके अर्थात् थोड़े ही परिश्रमसे मुक्तिसिद्धि होती है इससे अधिक और कुछ नहीं है ४६ इसकारण से हेराम में आपके स्थूलरूपही का ध्यान करता हूं जिसके ध्यान करने से जिसमें रोमावली खड़ी होती है ऐसा प्रेमरस उत्पन्न होता है और प्रेम उसीको कहते हैं जहां यह हमारे आगे सदाबनाही रहै और कभी अलग न होय ऐसा भावहोय ४७ ऐसे प्रेम करके जब आपके स्थूल रूपका ध्यान करताहै तभीमुक्ति होती है अथवा हे राम जो कदाचित् यह आपके बिराट् रूप स्थूलरूपका ध्यान श्रशक्यहोय अर्थात् न होसकै तौ यहभी रहो मैं तो यह प्रत्यक्ष नेत्रोंके आगे ४८ धनुर्बाण को धारण करे श्यामसुन्दर और जटाबल्कल करके भूषित तरुण अवस्था करके युक्त और सीता को ढूंढरहा और लक्ष्मण करके युक्तं ४९॥

इदमेव सदा मे स्यान्मानसे रघुनन्दन॥
सर्वज्ञः शंकरः साक्षात्पार्वत्या सहितः सदा॥५०॥

त्वद्रूपमेवं सततं ध्यायन्नास्ते रघूत्तम॥
मुमूर्षूणां सदा काश्यां तारकं ब्रह्मवाचकम्॥५१॥

रामरामेत्युपदिशन्सदासंतुष्टमानसः॥
अतस्त्वं जानकीनाथ परमात्मा सुनिश्चितः॥५२॥

सर्वे ते मायया मूढास्त्वां न जानन्ति तत्त्वतः॥
नमस्ते रामभद्राय वेधसे परमात्मने॥५३॥

अयोध्याधिपते तुभ्यं नमः सौमित्रिसेवित॥
त्राहि त्राहि जगन्नाथ मां माया नावृणोतु ते॥५४॥

राम उवाच॥

तुष्टोऽहं देवगन्धर्व भक्त्या स्तुत्या च तेऽनघ॥
याहि मे परमं स्थानं योगिगम्यं सनातनम्॥५५॥

जपंति ये नित्यमनन्यबुद्ध्या भक्त्या त्वदुक्तं स्तवमागमोक्तम्॥
तेऽज्ञानसंभूतभवं विहाय मां यांति नित्यानुभवानुमेयम्॥५६॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे आरण्यकाण्डे नवमः सर्गः ९॥

हे रघुनन्दन यही रूप सदा मेरे मन में रहे क्योंकि पार्वती करके सहित स-

र्वज्ञ जो साक्षात् महादेवजी सो भी सदा ५० हे राम इसी रूपको ध्यान करते रहते हैं और काशीजीमें मरण समय में सदा तारक ब्रह्म का वाचक जो राम राम यह मन्त्र तितका जीवोंको उपदेश करते हुये ५१ सदा संतुष्ट मन रहते हैं अर्थात् तारकमन्त्र के उपदेशही करके प्राणियोंके उद्धारका निश्चयकर निश्चिन्त रहते हैं इससे हे जानकीनाथ आप निश्चय करके परमात्मा हैं और जो मनुष्य होते तो महादेवजी क्यों ध्यान करते और कैसे उपदेश करते हैं ५२ और जे कोई आपकी माया करके मोहित हैं तेतत्त्वकरके आपको नहीं जानते हैं औरे ऐसे सबके रचनेवाले परमात्मा रामभद्र नामकरके जो आप हैं तिनके अर्थ मेरा नमस्कार है ५३ और हे अयोध्यानगरी के पति औ हे सुमित्राके पुत्र अर्थात् लक्ष्मणकर के सेवित तुम्हारे अर्थं नमस्कार है वास्तव में तौ व्याकरणकी रीति से युद्धकरने को जो अशक्य है अर्थात् जिसमें किसी शस्त्र अस्त्र का प्रहार न हो सके उसको अयोध्या कहते हैं ऐसी कौन हुई माया तिसके आप अधिपतिनाम स्वामी हैं और सुमित्रा जो ब्रह्मविद्या तिसका जो पुत्रहोय अर्थात् दायभागी होय ऐसा कौन हुआ ज्ञानी तिसकरके सेवित जो आप परमात्मा तिनको नमस्कार है और हे जगन्नाथ मेरी रक्षा करिये जिससे आपकी माया मेरा आवरण नकरै अर्थात् न ढांकलेवे ५४ तब श्रीराम बोलते हुये कि हे गन्धर्व मैं तेरी भक्तिकरके और स्तुति करके प्रसन्नहीं भी हे अनघ निष्पाप योगियोंको प्राप्तिहोने के योग्य सनातन जोमेरा उत्कृष्टस्थान तिसको तुमप्राप्त होउ ५५ और यह जोसकल शास्त्र सम्मत तुम्हारा किया हुआ स्तोत्र है तिसको जो कोई पुरुष नित्य एकाय बुद्धिकरके पढ़ेंगे ते भज्ञानसे उत्पन्न हुआ जो संसार तिसको त्यागकरके नित्यज्ञान करके जानिबे योग्य जो मैं हूं तिसको प्राप्त होंगे॥५६॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे आरण्यकाण्डे भाषाटीकायां नवमः सर्गः ९॥

लब्ध्वा वरं स गन्धर्वः प्रयास्यन्राममब्रवीत्॥
शवर्यास्ते पुरोभागे आश्रमे रघुनन्दन॥१॥

भक्त्या त्वत्पादकमले भक्तिमार्गविशारदा॥
तां प्रयाहि महाभाग सर्वं ते कथयिष्यति॥२॥

इत्युक्त्वा प्रययौ सोऽपि विमानेनार्कवर्चसा॥
विष्णोः पदं रामनामस्मरणे फलमीदृशम्॥३॥

त्यक्त्वा तद्विपिनं घोरं सिंहव्याघ्रादिदूषितम्॥
शनैरथाश्रमपदं शबर्या रघुनन्दनः॥४॥

शबरी राममालोक्य लक्ष्मणेन समन्वितम्॥
आयांतमाराद्धर्षेण प्रत्युत्थायाचिरेण सा॥५॥

पतित्वा पादयोरग्रे हर्षपूर्णाश्रुलोचना॥
स्वाग

तेनाभिनंद्याथ स्वासने सन्न्यवेशयत्॥६॥

रामलक्ष्मणयोः सम्यक्पादौ प्रक्षाल्य भक्तितः॥
तज्जलेनाभिषिच्यांगमथार्घ्यादिभिरादृता॥७॥

दो०। दशमसर्ग लक्ष्मण सहित शबरी बन्दित राम॥
खाइ मधुरफल भक्तिफल दैपठई निजधाम १

अब श्री महादेवजी पार्वती से कथा कहते हैं है पार्वति इस प्रकार वह गंधर्व राम से बरको प्राप्तहो अपने स्थानको जाता हुआ रामसे बोला कि हे रघुनन्दन इहां से दिखाई पड़ता जो आश्रम है तिसमें एक शबरी रहती है १ सो आपकी भक्ति करके आपके चरण कमलके भक्तिमार्ग में बड़ी चतुर है इससे हे महाभाग तिसके समीप आप जाइये वह सब सीताकी खबरि आपसे कहैगी २ ऐसा वचन कहिकै वह गन्धर्व सूर्य के तुल्य प्रकाशमान विमान के ऊपरचढ़ि कै विष्णुपद जो स्वर्ग तिसको जाता हुआ ऐसा राम नाम के स्मरणका फल है ३ अब रामचन्द्र भी उस सिंह व्याघ्रादि युक्त घोर बनको छोड़के धीरेधीरे शबरी के आश्रमको जातेभये ४ अब शबरी भी लक्ष्मण सहित रामको दूरही से आवते देखके बड़े आनन्दके वेगसे शीघ्रही उठकर ५ और पांवोंके आगे गिर के आनन्द से भरी हुई और नेत्रोंसे आनन्द के अनुपात करती हुई अच्छा आपका आगमन हुआ यह पूंछके सुखपूर्वक आसनके ऊपर बैठालती हुई ६ फिर राम लक्ष्मणके चरणोंको बड़ी भक्तिसे अच्छी तरह धो करके उस जलसेअपने अंगको सींचकरके फिर आदि सामग्रियों करके ७॥

संपूज्य विधिवद्रामं ससौमित्रिं सपर्यया॥
संगृहीतानि दिव्यानि रामार्थं शबरीमुदा॥८॥

फलान्यमृतकल्पानि ददौ रामाय भक्तितः॥
पादौ संपूज्य कुसुमैः सुगंधैः सानुलेपनैः॥९॥

कृतातिथ्यं रघुश्रेष्ठमुपविष्टं सहानुजम्॥
शबरी भक्तिसंपन्ना प्रांजलिर्वाक्यमब्रवीत्॥१०॥

अत्राश्रमे रघुश्रेष्ठ गुरवो मे महर्षयः॥
स्थिताः शुश्रूषणं तेषां कुर्वती समुपस्थिता॥११॥

वहुवर्षसहस्राणि गतास्ते ब्रह्मणः पदम्॥
गमिष्यतोऽब्रुवन्मां त्वं वसात्रैव समाहिता॥१२॥

रामो दाशरथिर्जातः परमात्मा सनातनः॥
राक्षसानां वधार्थाय ऋषीणां रक्षणाय च॥१३॥

आगमिष्यति चैकाग्रध्याननिष्ठा स्थिरा भव॥
इदानीं चित्रकूटाद्रावाश्रमे वसति प्रभुः॥१४॥

बड़े आदरसे राम और लक्ष्मण इनका पूजन करके फिरबहुत दिनोंसे अमृतके तुल्य दिव्य मधुर फल जो शबरीने रामके अर्थसञ्चितकर रक्खेथे ८ तिन फलोंको रामको प्रेमसे देती हुई और चन्दन सहित सुगंधित पुष्पों से चरणों

का पूजन करके ९फिर करा सत्कार जिन्होंका ऐसे जो सुखपूर्वक आसन पै बैठे लक्ष्मण सहित राम तिनसे भक्तियुक्त शबरी हाथ जोड़कर बचन बोलती हुई १० हे राम इस आश्रम में महर्षि लोग मेरे गुरु बहुत हजार बर्षतक स्थित रहे और मैं भी उनकी शुश्रूषा करती हुई उनके समीप स्थितरही ११ और इस समय में जब वे ब्रह्मलोकको जाने लगे तो मुझसे कहते हुये कि तू एकाग्रचित्त होके अभी इस आश्रमही में स्थित रहु १२ क्योंकि जो सनातन परमात्मा हैं सोई दशरथ के पुत्र रामनाम करके हुये सो राक्षसों के मारने को और ऋषियोंकी रक्षा करने को इस वनमें आवेंगे १३ इससे तू एकाग्रचित्तहोके ध्यानमें परायण यहां स्थितरहु और इस समयमें तौ वे सबके स्वामी राम चित्रकूट पर्वतपै वास करते हैं १४॥

यावदागमनं तस्य तावद्रक्ष कलेवरम्॥
दृष्ट्वैव राघवं दग्ध्वा देहं यास्यसि तत्पदम्॥१५॥

तथैवाकरवं राम त्वद्ध्यानैकपरायणा॥
प्रतीक्ष्यागमनं तेऽद्य सफलं गुरुभाषितम्॥१६॥

तव संदर्शनं राम गुरूणामपि मे नहि॥
योषिन्मुढाऽप्रमेयात्मनूहीन् जातिसमुद्भवा॥१७॥

तव दासस्य दासानां शतसंख्योत्तरस्य वा॥
दासीत्वे नाधिकारोऽस्ति कुतः साक्षात्तवैव हि॥१८॥

कथं रामाद्य मे दृष्टस्त्वं मनोवागगोचरः॥
स्तोतुं न जाने देवेश किं करोमि प्रसीद मे॥१९॥

श्रीराम उवाच॥

पुंस्त्वे स्त्रीत्वे विशेषो वा जातिनामाश्रमादयः॥
न कारणं मद्भजने भक्तिरेव हि कारणम्॥२०॥

यज्ञदानतपोभिर्वा वेदाध्ययनकर्मभिः॥
नैव द्रष्टुमहं शक्यो मद्भक्तिविमुखैः सदा॥२१॥

इससे जबतक रामका यहां आगमन न होवै तबतक अपने शरीरकी रक्षा कर फिर रामचन्द्रजीका दर्शनकरि अपने शरीरको अग्निमें भस्मकरके उनके लोकको प्राप्तहोगी १५ हे राम ऐसा कहके वेसबमहर्षि ब्रह्मलोकको जाते हुये और मैं आपके आवनेकी राहनिहारती हुई तुम्हारे ध्यान में परायण होके जैसे गुरुयोंने कहाथा तैसेही करती हुई सोसब सफलहुआ १६ और हे राम जो आपका दर्शन मेरे गुरुओंको भी नहीं हुआ और मैं तो स्त्री तिसपै भी मूढऔर हीन जाति में उत्पन्न हुई १७ इससे आपके दासके दास का जो दास तिसका जो दास इस कम करके जो सौतक गिनै तिसके अन्त में जोदासह तिसकी दासी होने का भी मेरा अधिकार नहीं है और साक्षात् आपकी दासी होऊं यह क्या कहना है १८ और जो तुममन और वाणी इनकेभी अगोचरसो मैंने कैसे देखे यह मैं नहीं जान सक्ती और हे देवतों के ईश मैं आपकी

स्तुतिकरना भी नहीं जानती हैं। इससे मेरे ऊपर प्रसन्न हूजिये १९ तव श्रीरामचन्द्र कहते कि हे शबरि पुरुष यौ स्त्री प्रो और जाति और आश्रम ये मेरे भजन में कोई कारण नहीं हैं केवल भक्तिही कारण है अर्थात् प्रेमही मेरे भजन में मुख्यकारण है २० थोर सदा मेरी भक्तिले बिमुख जे पुरुषहैं तिनको यज्ञ और दान और तप भीवेद का पढ़ना इनको यदि लेके कमोंकरके मैं देखने को शक्य नहीं हीं २१॥

तस्माद्भामिनि संक्षेपाद्वक्ष्येऽहं भक्तिसाधनम्॥
सतां संगतिरेवात्र साधनं प्रथमं स्मृतम्॥२२॥

द्वितीयं मत्कथालापस्तृतीयं मद्गुणे रणम्॥
व्याख्यातृत्वं मद्वचसां चतुर्थं साधनं भवेत्॥२३॥

आचार्योपासनं भद्रे मद्बुद्ध्या मायया सदा॥
पञ्चमं पुण्यशीलत्वं यमादि नियमादि च॥२४॥

निष्ठा मत्पूजने नित्यं षष्ठं साधनमीरितम्॥
मम मन्त्रोपासकत्वं सांगं सप्तममुच्यते॥२५॥

मद्भक्तेष्वधिका पूजा सर्वभूतेषु मन्मतिः॥
बाह्यार्थेषु विरागित्वं शमादिसहितन्तथा॥२६॥

अष्टमं नवमन्तत्त्वविचारो मम भामिनि॥
एवं नवविधा भक्तिसाधनं यस्य कस्य वा॥२७॥

स्त्रियो वा पुरुषस्यापि तिर्यग्योनिगतस्य वा॥
भक्तिः सञ्जायते प्रेमलक्षणा शुभलक्षणे॥२८॥

तिससे हे भामिनि अपनी भक्तिका साधन संक्षेप से मैं तुझसे कहता हौं इस लोक में सत्पुरुषों का संग होना यह मेरी भक्तिका पहिला साधन है २२ और मेरी कथाका कहना वा सुनना यह दूसरा साधन हैं और मेरे गुणोंका कीर्तन तीसरा साधन है और मेरे स्वरूप के प्रतिपादन करनेवाले उपनिषद् आदि वाक्योंका व्याख्यान करना चौथा साधन है २३ औरहे भद्रे कल्याणस्वरूपे मेरी बुद्धिसे कपट को त्याग करके गुरुकी सेवा करना पांचवां साधन है और पुण्य में प्रीति करना और किसीकी हिंसा नहीं करनी और न चोरी करनी और सत्यवचन आदि यमका सेवन करना और शौच संतोष तप वेदाध्ययन परमेश्वर का ध्यान आदि नियम करना २४ और मेरे पूजन में तत्पर रहना यह छठां साधन है और अंगसहित मेरे मन्त्रका जपकरना सातवां साधन है २५ और मुझसे भी अधिक मेरे भक्तोंकी पूजा अर्थात् सत्कार करना और सबप्राणियों में मेरी बुद्धिकरना और संसारके भोगोंसे वैराग्य होना और मन यदि इन्द्रियोंका वशकरना यह आठवां साधन है २६ और वेदान्तशास्त्रोक्त तत्त्वमस्यादि महावाक्यों करके तत्त्वपदार्थके एकताका विचार करना नववां साधनहै अर्थात् मैं ब्रह्म ही हौं ऐसा विचार करना नववां साधनहै हेभामिनि इसप्रकार करके नवप्रकारकी भक्ति जिस किसीको होय २७ चाहे स्त्रीको

चाहै पुरुषको अथवा तिर्यग्योनि जोशूकरादिक तिसकोभी जोहोय तौ उसको प्रेमलक्षणा मेरी भक्ति उत्पन्न होती है २८॥

भक्तौ संजातमात्रायां मत्तत्त्वानुभवस्तदा॥
ममानुभवसिद्धस्य मुक्तिस्तत्रैव जन्मनि॥२९॥

स्यात्तस्मात्कारणं भक्तिर्मोक्षस्येति सुनिश्चितम्॥
प्रथमं साधनं यस्य भवेत्तस्य क्रमेण तु॥३०॥

भवेत्सर्वं ततो भक्तिर्मुक्तिरेव सुनिश्चितम्॥
यस्मान्मद्भक्तियुक्ता त्वं ततोऽहं त्वामुपस्थितः॥३१॥

इतो मद्दर्शनान्मुक्तिस्तव नास्त्यत्र संशयः॥
यदि जानासि ब्रूहि सीता कमललोचना॥३२॥

कुत्रास्ते केन वानीता प्रियामे प्रियदर्शना॥३३॥

शबर्युवाच॥

देव जानासि सर्वज्ञ सर्वं त्वं विश्वभावन॥
तथाऽपि पृच्छ सेयन्मां लोकाननुसृतःप्रभो॥३४॥

ततोऽहमभिधास्यामि सीता यत्राधुना स्थिता॥
रावणेन हता सीता लंकायां वर्त्ततेधुना॥३५॥

फिर प्रेम भक्ति के होने के अनन्तर मेरे स्वरूपका ज्ञान होता है मेरे स्वरूप के साक्षात्कार के होने से तौ इसी जन्म में मुक्तिहोती है २९ तिससे भक्तिही मोक्ष का कारण निश्चय करके है और जिसको पहिला साधन सत्संगहोता है उसको क्रम करके फिर सब साधन होते हैं ३० फिर प्रेम लक्षणा भक्ति होती है तिससे फिर मुक्ति होती है यह निश्चय है और जिस कारण से तू मेरी प्रेम लक्षणा भक्ति करके युक्त है इससे मैं तेरे समीप प्राप्त हुआ हौं ३१ अब इस मेरे दर्शन से तेरी मुक्ति होगी इसमें कुछ संदेह नहीं है और कमल तुल्य हैं नेत्र जिस के और प्रिय है दर्शन जिसका ऐसी जो मेरी प्यारी सीता है ३२ तिसको तू जानती हो तो वह कहां है और कौन ले गया है सो बतलाउ ३३ तब शबरी कहती हुई कि हे देव सर्वज्ञ हे विश्वभावन विश्व रचने वाले आपसब जानतेही हो तो भी हे प्रभो मनुष्य लोकके अनुसार से ३४ अर्थात् मर्यादासे मुझसे जो पूछते हौ सोमैं सब कहतीहीं जहां इससमय में सीता स्थित है रावण ने सीताहरी है और इससमय में लंका में है ३५॥

इतः समीपे रामास्ते पंपानाम सरोवरम्॥
ऋष्यमूकगिरिर्नाम तत्समीपे महानगः॥३६॥

चतुर्भिर्मन्त्रिभिः सार्द्धं सुग्रीवो वानराधिपः॥
भीतभीतः सदा तत्र तिष्ठत्यतुलविक्रमः ॥३७॥

वालिनश्च भयाद्भ्रातुस्तदागम्य मृषेर्भयात्॥
वालिनस्तत्र गच्छ त्वं तेन सख्यं कुरु प्रभो॥३८॥

सुग्रीवेण स सर्वं ते कार्यं सम्पादयिष्यति॥
अहमग्निं प्रवेक्ष्यामि तवाग्रे रघुनन्दन॥३९॥

मुहूर्तं तिष्ठराजेन्द्र यावद्दग्ध्वा कलेवरम्॥
यास्यामि भगवन्

रामतवविष्णोः परम्पदम्॥४०॥

इति रामं समामंत्र्य प्रविवेश हुताशनम्॥
क्षणान्निर्द्धूय सकलमविद्याकृतबन्धनम्॥४१॥

रामप्रसादाच्छबरी मोक्षं प्रापातिदुर्लभम्॥
किं दुर्लभं जगन्नाथे श्रीरामे भक्तवत्सले॥
प्रसन्नेऽधमजन्मापि शबरीमुक्तिमापसा॥४२॥

और हे राम यहांसे समीपही पंपानाम करके एक सरोवर है तिस के समीपएक ऋष्यमूक नाम करके बड़ा पर्बत है ३६ तिस पर्वत पै चारि मन्त्रियों करकेसहित सुग्रीवनाम करके एक वानरोंका राजा बड़ाभारी पराक्रमी भी है परन्तु भीत भीत अर्थात् डरे हुये से भी प्रत्यन्त डरा हुआ सदा बास करता है ३७ और बाली नाम करके जो अपना भाई है तिसके भयसे सुग्रीव उस पर्वतपै बासकरता है और ऋषिके शापकी भयसे उस पर्वतपै बाली नहीं जानता है शापका कारण गाड़ी कहा जायगा इससे हे प्रभो उस पर्वतपै आप जावें और सुग्रीवके साथ मित्रता करिये ३८ और वह सुग्रीव सब तुम्हारे कार्यको सिद्ध करेगा और हे रघुनन्दन मैं तुम्हारे चागे अग्निमें प्रवेश करती हों ३९ इससे मुहूर्त भर आप स्थितहूजिये जबतक मैं शरीरको भस्म करके हे राम विष्णुः जो आप तिनके परमपदको प्राप्तहोवों ४० अब शबरी इस प्रकार राम से आज्ञा लेकर के आप अग्निमें प्रवेश करती हुई एक क्षण में संपूर्ण विद्याके किये हुये बन्धनको नाशकरके ४१ रामके प्रसादसे शबरी प्रति दुर्लभ मोक्षको प्राप्त होती हुई अब महादेवजी कहते हैं जगत् के स्वामी और भक्त वत्सल जो श्रीरामतिनके प्रसन्न होते हुये ऐसा कौनसा पदार्थ है जो दुर्लभहोय अधम जन्म जो शबरी सोभी मुक्तिको प्राप्त हुई ४२॥

किम्पुनर्ब्राह्मणा मुख्याः पुण्याः श्रीरामचिन्तकाः॥
मुक्तिं यान्तीति तद्भक्तिर्मुक्तिरेव न संशयः॥४३॥

भक्तिर्मुक्तिविधायिनी भगवतःश्रीरामचंद्रस्य हे
लोकाः कामदुघांघ्रिपद्मयुगलंसेवध्वमत्युत्सुकाः॥

नानाज्ञानविशेषमंत्रविततिंत्यक्त्वा सुदूरेभृशं
रामं श्यामतनुं स्मरारिहृदयेभांतं भजध्वं बुधाः॥४४॥

इत्यध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे आरण्यकांडे दशमः सर्गः १०॥

और श्रीरामके चिन्तक मुख्य ब्राह्मण सदा पुण्यरूप सुक्तिको प्राप्तहोव यह क्या कहना है तिससे रामकी भक्ति मुक्तिही है इसमें कुछ संशय नहीं है ४३॥

दे लोको जिस मंत्र से भगवान् जो श्रीरामचन्द्र तिनकी जो भक्ति है सो मुक्ति की करनेवाली है इससे संपूर्ण कामनाका देनेवाला जो रामका चरणकमल तिसको प्रीति से सेवन करो और नानाप्रकारका जो अज्ञान विशेष रूप समुदाय तिसको त्यागके महादेवजी के हृदय में प्रकाशमान जो श्यामशरीर रामतिलका भजनकरौ ४४॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे आरण्यकाण्डे भाषाटीकार्यं दशमः सर्गः॥१०॥

समाप्तश्चायमारण्यकण्डः॥३॥

_______________

श्रीगणेशाय नमः

अथ अध्यात्मरामायण॥

किष्किन्धाकाण्ड॥

भाषाटीकासहित

श्रीमहादेव उवाच॥

ततः सलक्ष्मणो रामः शनैः पंपासरस्तटम्॥
आगत्य सरसां श्रेष्ठं दृष्ट्वा विस्मयमाययौ॥१॥

क्रोशमात्रं सुविस्तीर्णमगाधामलशम्बरम्॥
उत्फुल्लांबुजकह्लारकुमुदोत्पलमण्डितम्॥२॥

हंसकारंडवाकीर्णं चक्रवाकादिशोभितम्॥
जलकुक्कुटकोयष्टिक्रौञ्चनादोपनादितम्॥३॥

नानापुष्पलताकीर्णं नानाफलसमावृतम्॥
सतां मनःस्वच्छजलं पद्मकिंजल्कवासितम्॥४॥

तत्रोपस्पृश्य सलिलं पीत्वा श्रमहरं विभुः॥
सानुजः सरसस्तीरे शीतलेन पथा ययौ॥५॥

ऋष्यमूकगिरेः पार्श्वे गच्छंतौ रामलक्ष्मणौ॥
धनुर्बाणकरौ दांतौ जटावल्कलमंडितौ॥
पश्यंतौ विविधान्वृक्षान्गिरेः शोभां सुविक्रमौ॥६॥

सुग्रीवस्तु गिरेर्मूर्ध्नि चतुर्भिः सह वानरैः॥
स्थित्वा ददर्श तौयांतावारुरोह गिरेः शिरः॥७॥

दो०। प्रथमसर्गमहँ देखिशुचि पंपासर भगवान॥
सखाकियो सुग्रीवको हनुमतकोकरिमान १

अब श्रीमहादेवजी पार्वती से कथा वर्णन करते हैं हे पार्वति अब तिसके अनन्तर लक्ष्मण सहित श्रीराम तड़ागों में श्रेष्ठ जो पंपासर है तिसकेतीरआकरके उसको देखके आश्चर्यको प्राप्तहोते हुये १ कैसा पंपासर है कोसभर जिसका विस्तार है और जिसकी थाह न होवे ऐसे निर्मल जल कर के परिपूर्ण है और प्रफुल्लित कलार कुमुद उत्पल आदि जाति के कमल तिन करके शोभायमान हो रहा है २ और हंस कारंडव चक्रवाकआदि पक्षियों करके शोभित है और जल कुक्कुट और कोयष्टि और क्रौंचभादि पक्षी जिसमें शब्द कर रहे हैं ३ और अनेक तरहके पुष्पों की लताओंकर के व्याप्त होरहा है और नानाप्रकार केफलों कर केसहित वृक्षों करके चारों तरफ से ढँकरहा है और महात्माओंका जैसा

मन होता है ऐसा निर्मलजल जिसका है और कमलौकी केसरिकरके जिसका जल सुगन्धयुक्त हो रहा है ४ तिस पंपासरोवर में लक्ष्मणसहित श्रीरामचन्द्रजीस्नान करके चौर जलपीके उसके तीरतीर बड़े ठंढेमार्ग कर के जाते हुये ५ भवऋष्यमूक पर्वत के समीप श्रीराम लक्ष्मण चलरहे हैं और धनुर्बाण जिनके हाथ में शोभितहोरहे हैं और जटा भौर वल्कलबस्वकर के शोभित हो रहे हैं ६ और अनेक तरहके वृक्षोंको और पर्वतकी शोभाको देखते हुये जारहे हैं और सुन्दर है चाल जिनकी अब चार वानरों करके सहित जो सुग्रीव सो पर्वत के शिखर के ऊपर खड़े होकर के जातेहुये जो रामलक्ष्मण तिनको देखकर के मारे भयके और ऊंचे शिखरपै चढ़जाताहुआ ७॥

भयादाह हनूमंतं कौतौ वरिवरौ सखे॥
गच्छ जानीहि भद्रं ते बटुर्भूत्वा द्विजाकृतिः॥८॥

बालिना प्रेषितौ किं वा मां हतं समुपागतौ॥
ताभ्यां संभाषणं कृत्वा जानीहि हृदयं तयोः॥९॥

यदि तौ दुष्टहृदयौ संज्ञां कुरु कराग्रतः॥
विनयावनतो भूत्वा एवं जानीहि निश्चयम्॥१०॥

तथेति बटुरूपेण हनुमान्समुपागतः॥
विनयावनतो भूत्वा रामं नत्वेदमब्रवीत्॥११॥

कौ युवां पुरुषव्याघ्रौ युवानौ वीरसंमतौ॥
द्योतयंतौ दिशः सर्वाः प्रभया भास्कराविव॥१२॥

युवां त्रैलोक्यकर्त्ताराविति भाति मनो मम॥
युवां प्रधानपुरुषौ जगद्धेतू जगन्मयो॥१३॥

मायया मानुषाकारौ चरंताविव लीलया॥
भूभारहरणार्थाय भक्तानां पालनाय च॥१४॥

और भय से हनुमान से बोला कि हेसखे तुम ब्राह्मण के ब्रह्मचारी का रूप धारण करके जावो और यह जानों कौन ये वीरों में श्रेष्ठ दोनों जने हैं ८ अथवा मेरे मारनेको वाली ने तौ नहीं कहीं भेजाहोय जो ये समीप प्राप्त हुये हैं और हे हनुमन् इन दोनों से संभाषण करके इनका हृदय पहिचानो ९ जो कदाचित्इनका हृदय दोषयुक्तहोय तौं हाथका इशारा मेरीतरफ करिदेना जिससे मैं भाग जावों और बड़े विनयसे नम्र होकर के इनके मनका निश्चयजानो १० अब तैसेही हनुमान् ब्रह्मचारी का रूपधारणकर समीपजाके विनय करके नम्र हो रामको नमस्कार करके यह वचन बोलते हुये ११ पुरुषों में श्रेष्ठं तुम दोनों कौन हौ युवावस्थाको प्राप्तौ और वीरों में हो और सूर्यकेतुल्य अपनी कांति
करके सब दिशाओं को प्रकाशित करिर हे हौ १२ और मेरेमनमें तौ ऐसा फुरता है कि आपदोनों तीनों लोकों के रचनेवाले नरनारायण हौ और जगत् के हेतुहौ और जगत्स्वरूपहौ१३ और माया करके मनुष्यकासा आकार किये हों और लीलाही करके और पृथिवीके भारहरनेको और भक्तोंकी रक्षा करने केलिये विचर रहे हौ १४॥

अवतीर्णाविह परौचरं तौ क्षत्रियाकृती॥
जगत्स्थितिलयोत्सर्गं लीलया कर्तुमुद्यतौ॥१५॥

स्वतंत्रौ प्रेरकौ सर्वहृदयस्थाविहेश्वरौ॥
नरनारायणौ लोके चरंताविति मे मतिः॥१६॥

श्रीरामो लक्ष्मणं प्राह पश्यैनं वटुरूपिणम्॥
शब्दशास्त्रमशेषेण श्रुतं नूनमनेकधा॥१७॥

अनेन भाषितं कृत्स्नंन किंचिदपशब्दितम्॥
ततः प्राह हनूमन्तं राघवो ज्ञानविग्रहः॥१८॥

अहं दाशरथी रामस्त्वयं मे लक्ष्मणोनुजः॥
सीतया भार्यया सार्द्धं पितुर्वचनगौरवात्॥१९॥

आगतस्तत्र विपिने स्थितोहं दंडके द्विज॥
तत्र भार्या हृता सीता रक्षसा केनचिन्मम॥२०॥

तामन्वेष्टुमिहायातौ त्वं को वा कस्य वा वद॥

वटुरुवाच॥

सुग्रीवो नाम राजा यो वानराणां महामतिः॥
चतुर्भिर्मन्त्रभिः सार्द्धं गिरिमूर्द्धनि तिष्ठति॥२१॥

इसलोक में अवतार धारण किया है और प्रकृति से परेहौ भौर क्षत्रिय कासारूपकर के विचर रहे हो और जगत् की स्थिति लयसृष्टि इनको लीलाही करके करने को उद्यत हो रहे हो अर्थात् राक्षसोंका लयकरने को और भक्तोंकी रक्षा करने और धर्मिष्ठोंकी सृष्टिकरनेको उद्यत हुयेहौ १५ और स्वतन्त्रहो और अंतर्यामी रूपकरके सबके प्रेरक हौ इसीसे ईश्वर रूपों सबके हृदय में स्थित हो रहो ऐसे तुम दोनों नरनारायण लोक में विचर रहे हो यह तौ मेरी मति में आता १६ तब श्रीराम लक्ष्मणसे कहते हुये कि हे लक्ष्मण यह ब्रह्मचारीका रूपकरे बोल रहा सो इसको देखो निश्चय करके संपूर्ण व्याकरण शास्त्र इसने अनेकवार सुना है १७ इसने जो कहा तिसमें कहीं अशुद्ध उच्चारण नहीं किया तब ज्ञानस्वरूप जो श्रीरामचन्द्र हैं सो हनुमान् से बोलते हुये १८ मैं तौ दशरथ का पुत्र रामहों और यह मेराछोटा भाई है लक्ष्मण इसका नामहै सीताजो भार्या तिसकरके सहित पिता के बचनको मानके १९ मैं दण्डकवनमें आके स्थितहुआ हेडिज वहां सीता जो मेरी स्त्री है सो किसी राक्षसने हरिली २० तिस सीताके ढूढ़ने को हम यहां प्राप्तहुये हैं और तुम कौन हो और किसके पुत्र हौ सो सब अपना वृत्तान्त कहौ तब वह ब्रह्मचारी कहता हुआ कि हे राम श्रेष्ठमति जिसकी ऐसा सुग्रीवनाम करके जो बानरों का राजा सो चार मन्त्रियों करके सहित ऋष्यमूक पर्वत के शिखर के ऊपर रहता है २१॥

भ्राता कनीयान् सुग्रीवो बालिनः पापचेतसः॥
तेन निष्काशितो भार्या हृता तस्येह बालिना॥२२॥

तद्भयादृष्यमूकाख्यं गिरिमाश्रित्य संस्थितः॥
अहं सुग्रीवसचिवो वायुपुत्रो महामते॥२३॥

हनूमान्नामविख्यातो

        ह्यंजनीगर्भसंभवः॥  

तेन सख्यं त्वया युक्तं सुग्रीवेण रघूत्तम॥२४॥

भार्यापहारिणं हंतुंसहायस्ते भविष्यति॥
इदानीमेव गच्छाम आगच्छ यदि रोचते॥२५॥

श्रीराम उवाच॥

अहमप्यागतस्तेन सख्यं कर्तुं कपीश्वर॥
सख्युस्तस्यापि यत्कार्यंं तत्करिष्याम्यसंशयम्॥२६॥

हनूमान्स्वस्वरूपेण स्थितो राममथाब्रवीत्॥
आरोहतां मम स्कंधौ गच्छामः पर्वतोपरि॥२७॥

यत्र तिष्ठति सुग्रीवो मंत्रिभिर्वालिनो भयात्॥
तथेति तस्यारुरोह स्कंधं रामोथ लक्ष्मणः॥२८॥

पाप में चित्त जिसका ऐसा जो बाली है तिसका यह सुग्रीव छोटाभाई है तिस बालीने सुग्रीवको निकाल दिया और इसकी स्त्री छीनली है २२ उसबालीकी भयते यह ऋष्यमूक पर्वत रहता है और हे महामते में सुग्रीव का मन्त्रीहों और पवनका पुत्रहौं २३ और हनुमाननाम करके मैं प्रसिद्धों और अंजनी के गर्भ से उत्पन्न हों और हरघूत्तम हेरघुवंशियों में श्रेष्ठ आपको उस सुग्रीवके साथ मित्रता करनी बहुत श्रेष्ठ है २४ क्योंकि तुम्हारी भार्या काहरने वाला जो रावणहै तिसके मारने में वह सहाय होगा और इसी समय जो आपको रुचै तो चलिये २५ तब श्रीराम कहतेहुये कि हे कपीश्वर मैं भी सुग्रीव से मित्रता करनेहीको आयाहों और उससुग्रीव मित्रका जो कार्य होगा तो मैं निस्संदेह करोंगा २६ तबतौ हनुमान् जैसा अपना स्वरूप था तैसे होकर राम से बोलते हुये कि मेरे दोनों कंधों के ऊपर दोनोंजने सवार हूजिये मैं अभी पर्वत के ऊपर चलता हौं २७ जहां बाली की भयकरके मन्त्रियों करके सहित सुग्रीव है वहां मैं आपको लिये चलताहों तब राम और लक्ष्मण तैसेही हनुमान् के कंधे के ऊपर चढ़ते हुये २८॥

उत्पपात गिरेर्मूर्द्धि क्षणादेव महाकपिः॥
वृक्षच्छायां समाश्रित्य स्थितौ तौ रामलक्ष्मणौ॥२६॥

हनुमानपि सुग्रीवमुपगम्य कृतांजलिः॥
ब्येतु ते भयमायातौ राजन् श्रीरामलक्ष्मणौ॥३०॥

शीघ्रमत्तिष्ठ रामेण सख्यं ते योजितं मया॥
अग्निं साक्षिणमारोप्य तेन सख्यं द्रुतं कुरु॥३१॥

ततोतिहर्षात्सुग्रीवः समागम्य रघुत्तमम्॥
वृक्षशाखां स्वयं छित्त्वा विष्टराय ददौ मुदा॥३२॥

हनूमान्लक्ष्मणायादात्सुग्रीवायचलक्ष्मणः॥
हर्षेण महताविष्टाः सर्व एवावतस्थिरे॥३३॥

लक्ष्मणस्त्वब्रवीत्सर्वं रामवृत्तान्तमादितः॥
वनवासाभिगमनं सीताहरणमेव च॥३४॥

लक्ष्मणोक्तं वचः श्रुत्वा सुग्रीवो राममब्रवीत्॥
अहं करिष्ये राजेन्द्र सीतायाः परिमार्गणम्॥३५॥

तब बड़ाभारी जो हनुमान् सो क्षणमात्रही में पर्वत के शिखर के ऊपर कूदि के पहुंचता हुआ वहाँ एक वृक्षकी छाया में राम लक्ष्मण स्थित होते हुये २९और हनुमान भी सुग्रीव के समीप जाके हाथ जोड़के बोलते हुये कि हे राजन तुम्हारी भय सब दूर होय श्रीराम और लक्ष्मण ये आके प्राप्त हुये हैं इससे ३० पौर शीघ्रही उठौ रामके साथ तुम्हारी मित्रता मैंनियत करचुका हैंअग्निको साक्षी करके राम के संग शीघ्रही मित्रता कीजिये ३१ तब तौ सुग्रीव बड़े आनन्दसे श्रीराम के समीप आकर और एक वृक्षकी शाखा काटके श्रीरामके बैठने को देताहुआ ३१ और हनुमान् लक्ष्मण को शाखा देते हुयेऔर लक्ष्मण सुग्रीव को देते हुये चोर सब बड़े मानन्द से वृक्षकी शाखा औं को बिछाकर बैठते हुये ३३ तब लक्ष्मण पहिले से जैसे कुछ वनवासके लिये आगमन हुआ और जैसे सीताका हरण हुआ सो सब रामका वृत्तान्त कहते हुये ३४ लक्ष्मण के कहेहुये वचन सुनिकै सुग्रीव रामसे कहताहुआ हेराजेन्द्र में सीता का ढूंढना सब भच्छी तरह से करोंगा ३५॥

साहाय्यमपि ते राम करिष्ये शत्रुघातिनः॥
शृणु राम मया दृष्टं किंचित्ते कथयाम्यहम्॥३६॥

एकदा मंत्रिभिः सार्द्धं स्थितोहं गिरिमूर्धनि॥
विहायसा नीयमाना केनचित्प्रमदोत्तमा॥३७॥

क्रोशंती राम रामेति दृष्ट्वास्मान्पर्वतोपरि॥
आमुच्याभरणान्याशु स्वोत्तरीयेण भामिनी॥३८॥

निरीक्ष्याघः परित्यज्य क्रोशंती तेन रक्षसा॥
नीताहं भूषणान्याशुगुहायामक्षिपं प्रभो॥३९॥

इदानीमपि पश्य त्वं जानीहि तव वा न वा॥
इत्युक्त्वानीय रामाय दर्शयामास वानरः॥४०॥

विमुच्य रामस्तद्दृष्ट्वा हा सीतेति मुहुर्मुहुः॥
हृदि निक्षिप्य तत्सर्वं रुरोद प्राकृतो यथा॥४१॥

आश्वास्य राघवं भ्राता लक्ष्मणो वाक्यमब्रवीत्॥
अचिरेणैव ते राम प्राप्यते जानकी शुभा॥
वानरेन्द्रसहायेन हत्वा रावणमाहवे॥४२॥

और जिस समयमें आपशत्रुके मारनेको उद्यत होउगे उससमय मैं सहाय करौंगा और हेराम जो कुछ मैंने देखा है तिसको कहताहौंआपसुनिये ३६ एकसमय मन्त्रियों करके सहित मैं पर्वत के शिखरपैबैठाथा उससमय मैंआकाश मार्ग करके कोई एक श्रेष्ठ स्त्रीको लिये जाता था उसको मैंदेखता हुआ ३७ और वह स्त्री राम राम ऐसे शब्दको पुकार पुकार रोवती हुई जाती थी सो हम सबवानरों को पर्वत के ऊपर बैठा देखकर अपने वस्त्र करके आभूषणों को बांधकरके नीचेको देखके डाल देती हुई ३८ और उस विलाप करती हुई को

राक्षस लेजाता हुआ फिर उन आभूषणों को मैं पर्वत की गुहा में रख देता हुआ ३९ और इस समय में आप उनआभूषणों को देखिये आपके हैं वानहीं यह वचन सुग्रीव कहिकै और उन आभूषणों को ल्याइ कैराम को दिखाता हुआ ४० तब राम खोल करके उन आभूषणों को देख करके और उन आभूषणों को हृदय में लगाकर हा सीते हा सीते ऐसा कहिकै जैसे कोई प्राकृत मनुष्य होय तैसे बारंबार रोतेहुये ४१ तब भाई जो लक्ष्मणसो रामचन्द्र के चित्त को सावधान कर बोलता हुआ कि हे राम यह बानरेन्द्र जो सुग्रीव तिसको सहाय करके संग्राम में रावणको मारिकै थोड़ेही कालमें जानकी प्राप्त होवैगी ४२॥

सुग्रीवोप्याह हे राम प्रतिज्ञां करवाणि ते॥
समरे रावणं हत्वा तव दास्यामि जानीकम्॥४३॥

ततो हनूमान् प्रज्वाल्य तयोरग्निं समीपतः॥
तावुभौ रामसुग्रीवावग्नौ साक्षिणि तिष्ठति॥४४॥

बाहू प्रसार्य चालिंग्यपरस्परमकल्मषौ॥
समीपे रघुनाथस्य सुग्रीवः समुपाविशत्॥४५॥

स्वोदंतं कथयामास प्रणयाद्रघुनायके॥
सखे शृणु ममोदंतं बालिना यत्कृतं पुरा॥४६॥

मयपुत्रोथ मायावी नाम्ना परमदुर्मदः॥
किष्किंधां समुपागत्य बालिनं समुपाह्वयत्॥४७॥

सिंहनादेन महता बाली तु तदमर्षणः॥
निर्ययौ कोधताम्राक्षो जघान दृढमुष्टिना॥४८॥

दुद्राव तेन संविग्नो जगाम स्वगुहां प्रति॥
अनुदुद्राव तं बाली मायाविनमहं तथा॥
ततः प्रविष्टमालोक्य गुहां मायाविनं रुषा॥४९॥

और सुग्रीव भी बोलता हुआ कि हेराम मैंप्रतिज्ञाकरताहोैंकि संग्राम में रावणको मारके मैं तुमको जानकी को देवोंगा ४३ तब हनुमान् राम और सुग्रीवइनके समीप अग्निको प्रज्वलित करके राम सुग्रीव दोनोंसे कहता हुआ कि मित्रता कीजिये तब दोनों अग्निको साक्षी करके ४४ परस्पर शुद्ध हृदय से भुजा फैला करके आलिंगनकर हे सखे ऐसा वचन कहते हुये फिर रघुनाथ के समीप सुग्रीव बैठता हुआ ४५ और स्नेह से अपना वृत्तान्त श्रीरघुनाथजी से कहता हुआ कि हे सखे मेरा वृत्तान्त सुनिये जैसा कुछ बालीने किया है सो मैं कहता हौं ४६ कि एकसमय में मयदानव का पुत्र मायावी जिसकानाम और वडादुर्मद अर्थात् महंकारी सो किष्किन्धा नगरी में आके बालीको बुलाता हुआ ४७ और सिंहनाद करके गर्जता हुआ उसके शब्दको नहीं सहता हुआ जो बाली सो युद्ध करनेको निकलता हुआ और बड़े क्रोध करके एक मुष्टिका का प्रहार करताहुआ अर्थात् घूंसा मारताहुमा ४८ तोवहदानव उस प्रहारकर के अत्यन्त भयभीत हो अपनीगुहाके जानेको भागता हुआ औरवाली

भी उसके पीछे दौड़ता हुआ और मैभी बालीके संग जाता हुआ तब क्रोधयुक्तबाली उस दानवको गुहामें प्रवेश करते देखके ४९॥

बाली मामाह तिष्ठ त्वं बहिर्गच्छाम्यहं गुहाम्॥
इत्युक्त्वाविश्य स गुहां मासमेकं न निर्ययौ॥५०॥

मासादूर्ध्वं गुहाद्वारान्निर्गतं रुधिरं बहु॥
तद्दृष्ट्वा परितप्तांगो मृतो बालीति दुःखितः॥५१॥

गुहाद्वारि शिलामेकां निधाय गृहमागतः॥
ततोऽब्रुवं मृतो बाली गुहायां रक्षसा हतः॥५२॥

तच्छ्रुत्वा दुःखिताः सर्वे मामनिच्छं तमप्यतु॥
राज्येभिषेचनं चकुः सर्वे वानरमंत्रिणः॥५३॥

शिष्टन्तदा मया राज्यं किंचित्कालमरिन्दम॥
ततः समागतो बाली मामाह परुषं रुषा॥५४॥

बहुधा भर्त्सयित्वा मां निजघान च मुष्टिभिः॥
ततो निर्गत्य नगरादधावं परया भिया॥५५॥

लोकान्सर्वान्परिक्रम्य ऋष्यमूकं समाश्रितः॥
ऋषेः शापभयात्सोपि नायातीमं गिरिं प्रभो॥५६॥

मुझसे यह कहाकि तुम बाहर ही खड़े रहो मैं इस गुहाके भीतर जाता हौं यह कहिकै बाली उस गुहा में प्रवेशकर एक महीने तक नहीं निकलता हुआ ५० फिर महीने भरके उपरान्त उसगुहा के द्वारसे बहुत रुधिर निकलता हुआ तिसको देख के मेरे शरीरमें बड़ा संताप हुआ और बाली मरिगया यह जानि दुःखित हो ५१ गुहाके द्वारको शिलासे मंदिकै मैं घरआता हुआ और बाली राक्षस करके मारा गया यह कहता हुआ ५२ तिसको सुनिकै सबदुःखितहो के मैं इच्छा नहीं भी करी तो भी सब वानर और मन्त्री लोग राज्य के विषे मेरा अभिषेक करते हुये ५३ हेराम, फिर कुछकाल मैंने राज्यकी रक्षाकी फिर बोली आके क्रोध करके कठोर बचन बोलता हुआ ५४ फिर बहुत मेरा तिरस्कार करके मुझको मुष्टिको करके मारताहुआ तब नगरसे निकलि कै मैं बड़ी भारी बाली के भय से पृथिवीभर दौड़ता फिरा ५५ सब लोकों की परिक्रमा करके इस ऋष्यमूक पर्वत को आश्रय करके स्थित हुआ और हे प्रभो मातंग ऋषि के शापकी भयसे इस पर्वतपै बाली नहीं आयसक्ता है ५६॥

तदादि मम भार्यां स स्वयं भुंक्ते विमूढधीः॥
अतो दुःखेन संतप्तोहृतदारो हृताश्रयः॥५७॥

वसाम्यद्य भवत्पादसंस्पर्शात्सुखितोस्म्यहम्॥
मित्रदुःखेन संतप्तो रामो राजीवलोचनः॥५८॥

हनिष्यामि तव द्वेष्यं शीघ्रम्भार्यापहारिणम्॥
इति प्रतिज्ञामकरोत्सुग्रीवस्य पुरस्तदा॥५९॥

सुग्रीवोप्याह राजेन्द्र बाली बलवतां बली॥
कथं हनिष्यति भवान्देवैरपि दुरासदम्॥६०॥

शृणु ते कथयिष्यामि तद्बलं बलिनां वर॥
कदाचिद्दुन्दु

 भिर्नाम महाकायोमहाबलः॥६१॥

किष्किन्धामगमद्राम महामहिषरूपधृक्॥
युद्धाय बालिनं रात्रौ समाहृयत भीषणः॥६२॥

तच्छ्रुत्वाऽसहमानोसौ बाली परमकोपनः॥
महिषं शृङ्गयोर्धृत्वा पातयामास भूतले॥६३॥

तबसे लेकै मेरी स्त्रीको वह विमूढबुद्धि वालीआपही भोगता है इसकारण से हरी है भार्या जिसकी और हरा गया है स्थान जिसका ऐसा मैॆअति दुःखले संतप्तहोके ५७ इस पर्वतपै वास करताहों सो अब तुम्हारे चरणराविन्द के स्पर्शसे सुख हुआ हौं तब कमलनेत्र जो राम हैं सो मित्र के दुःख करके संतप्त होके ५८ यह प्रतिज्ञा सुग्रीव के धागे करतेहुये कि तुम्हारी भार्याके हरने वाले वालीको मैं शीघ्रही मारोंगा ५६ तब सुग्रीव रामसे कहता हुआ कि हे राजेन्द्र वाली बलवानों में बड़ाबली है और देवतों को पासजाने को भी शक्य है उसको कैसे आप मारेंगे ६० हे बलियोंमें श्रेष्ठ राम उस बालीके
बलको मैं कहता हौंआप सुनिये किसी समय में बड़ा जिसका शरीर औरबड़ा बली ऐसा दुन्दुभी नाम राक्षसथा ६१ सो हेराम बड़े भारी भैंसेके रूपको धारणकर किष्किन्धा नगरीको आता हुया सो वह भयंकर राक्षस युद्धकरने के लिये रात्रि में बालीको पुकारता हुआ ६२ सो सुनिकै उसको नहीं सहता
हुआ बाली सोक्रोध करके उसकेसींग दोनोंपकड़ के पृथिवीमेंपटक देता हुआ ६३॥

पादेनैकेन तत्कायमाक्रम्यास्य शिरो महत्॥
हस्ताभ्यां भ्रामयंश्छित्त्वा तोलयित्वा क्षिपद्भुवि॥६४॥

पपात तच्छिरो राम मातंगाश्रमसन्निधौ॥
योजनात्पतितं तस्मान्मनेराश्रममण्डले॥६५॥

रक्तदृष्टिः पपातोच्चैर्दृष्ट्वा तां क्रोधमूर्च्छितः॥
मातंगो बालिनं प्राह यद्यागन्तासि मे गिरिम्॥६६॥

इतःपरं भग्नशिरा मरिष्यसि न संशयः॥
एवं शप्तस्तदारभ्य ऋष्यमूकं न यात्यसौ॥६७॥

एतज्ज्ञात्वाहमप्यत्र वसामि भयवर्जितः॥
राम पश्य शिरस्तस्य दुन्दुभेः पर्वतोपमम्॥६८॥

तत्क्षेपणे यदा शक्तःशक्तस्त्वं बालिनो वधे॥
इत्युक्त्वा दर्शयामास शिरस्तगिरिसन्निभम्॥६९॥

दृष्ट्वा रामः स्मितं कृत्वा पादांगुष्ठेन चाक्षिपत्॥
दशयोजनपर्यंतं तदद्भुतमिवाभवत्

७०॥

और एकपांय से उसके शरीरको दबाकर दोनों हाथों से उसका बड़ाभारी शिर घुमाकर काटि के अर्थात् देहसे लगकर उसका भार हाथों से अजमाकर पृथिवीमें फेंकता हुआ ६४ सो हे राम वहां से योजनभरे पै मातंग ऋषिके आश्रममें वह बालीका फेंका हुआ राक्षसकाशिर गिरता हुआ ६५ सो मातंग ऋषि बड़े ऊंचे से पड़ी हुई रुधिर की वृष्टि देखकर क्रोध करके वाली से कहते हुये कि

आज से लेके जो बाली इस ऋष्यमूक पै आवे तो ६६ उसका शिरकटिकै गिरि पड़े और मरिजावै इसमें कुछ संशय नहीं है इस प्रकार शापको प्राप्त यह बाली ऋष्यमूकको कभी नहीं आता है ६७ यह जानिकै मैं भी इसपर्वत पै भयरहित बसताहोंहे राम उसदुन्दुभि राक्षसका पर्वतकेतुल्य शिर आप देखिये ६८ उस के फेंकने में जो आप समर्थहोवें तो जाना जाय कि बाली के मारनेमें भी समर्थ होउगे यह वचन सुग्रीव कहिकै पर्वतकेतुल्य जो उस राक्षसका शिर तिसको दिखाताहुआ ६९ तब राम उसको देख के औ मंद मुसक्यान करके पांउ के अँगूठे करके दर्शयोजन पर्यंत फेंक देते हुये सो बड़ा अद्भुत चरित्र होता हुआ ७०॥

साधु साध्विति संप्राह सुग्रीवो मंत्रिभिः सह॥
पुनरप्याह सुग्रीवो रामं भक्तपरायणम्॥७१॥

एते ताला महासाराः सप्त पश्यरघूत्तम॥
एकैकं चालयित्वासौनिःपत्रान्कुरुतेञ्जसा॥७२॥

यदि त्वमेकबाणेन विध्वाछिद्रं करोषि चेत्॥
हतस्त्वया तदा बाली विश्वासोमे प्रजायते॥
तथेति धनुरादाय सायकं तत्र संदधे॥७३॥

विभेद च तदा रामः सप्त तालान्महाबलः॥
तालान्सप्त विनिर्भिद्य गिरिम्भूमिं च सायकः॥७४॥

पुनरागत्य रामस्य तूणीरे पूर्ववत्स्थितः॥
ततोतिहर्षात्सुग्रीवो राममाहातिविस्मितः॥७५॥

देव त्वं जगतां नाथः परमात्मा न संशयः॥
मत्पूर्वकृतपुण्योधैः संगतोद्य मया सह॥७६॥

त्वां भजन्ति महात्मानः संसारविनिवृत्तये॥
त्वां प्राप्य मोक्षसचिवं प्रार्थये कथं भवम् ७७॥

और मन्त्रियोंकरके सहित सुग्रीव साधुसाधु ऐसा वचन अर्थात् अच्छा किया आपने यह वचन कहता हुआ और फिर भी भक्तों के रक्षाकरनेवाले जो राम हैं तिनसे सुग्रीव कहताहुआ ७१ कि हे रघूत्तम ये सात तालों के वृक्ष बड़ेमजबूत हैं तिनको आप देखिये इनमें एकएक बृक्षको बाली अपने भुजाओं के बलसे जड़ समेत हिलाहिलाकर एक क्षणमात्रमें अपने पराक्रमसे पत्ते अलग कर इस प्रकार सातों ताल वृक्षों को करताहै ७२ जो तुम एकही बाणसे बंधन करके फोड़ करके भेदन करदेवो तो मैं जानों कि बालीको तुमने मारही लिया यह मुझको बिश्वास होजायगा ७३ तब श्रीरामचन्द्र तैसेही धनुष को लेके और उसमें बाणका सन्धान करके बड़ेबली जो रामजीसो एकही बारमें सातों तालवृक्षों का बेधन करते हुये फिर वहरांम का बाण सातों तालके वृक्षों कोफोड़के और पर्वतको फोड़के और उसके नीचे पृथिवी कोभी विदारण करके ७४ राम के तरकस में ही आके प्रवेश करताहुआ तब तो बड़े हर्ष से अर्थात् खुशी-

से और आश्चर्य युक्त होके सुग्रीव रामसे बोलता हुआ ७५ कि हेदेव तुम जगत् के नाथ स्वामी परमात्माही इसमें कुछ संदेह नहीं है और मेरे किये हुये जो पहिले के पुण्य समूह तिनकर के मुझको मिले हो ७६ और जे कोई महात्मा लोगहें ते संसार के दुःखों की निवृत्ति के लिये तुमको, भजते हैं और
अब मोक्षके देनेवाजे जो आप तिनको प्राप्तहोके फिर बन्धनरूप संसारहीके सुखकी कैसे प्रार्थनाकरों ७७॥

दाराः पुत्रा धनं राज्यं सर्वत्वन्मायया कृतम्॥
अतोहं देवदेवेश नाकांक्षेन्यत्प्रसीद मे॥७८॥

आनन्दानुभवं त्वाद्य प्राप्तोहं भाग्यगौरवात्॥
मृदर्थं यतमानेन निधानमिव सत्पते॥७६॥

अनाद्यविद्यासंसिद्धं बन्धनं छिन्नमद्य नः॥
यज्ञदानतपःकर्मपूर्तेष्टादिभिरप्यसौ॥॥

न जीर्य्यते पुनर्दार्ढ्यभजते संसृतिःप्रभो॥
त्वत्पाददर्शनात्सद्यो नाशमेति न संशयः॥८१॥

क्षणार्द्धमपि यच्चितं त्वयि तिष्ठत्यचंचलम्॥
तस्यज्ञानमनर्थानां मूलं नश्यति तत्क्षणात्॥८२॥

ततिष्ठतु मनो राम त्वयि नान्यत्र मे सदा॥८३॥

रामरामेति यद्वाणीमधुरं गायति क्षणम्॥
स ब्रह्महा सुरापो वा मुच्यते सर्वपापकैः॥८४॥

हे राम जिससे द्वारा जो स्त्री और पुत्र और धन औ राज्य यह सब तुम्हारी मायाकरके किया हुआ है. इससे हे देव देवेश में आपसे भिन्नपदार्थ कुछ नहीं चाहताहों इससे मेरे ऊपर प्रसन्न हूजिये ७८ और अपने भाग्य के आधिक्य से आनन्द चैतन्यरूप जो तुम तिसको प्राप्त हुआ और हे सत्पुरूषों के रक्षक जैसे मृत्तिका के लिये पृथ्वी खोदे और निधिको प्राप्त होनाय तैसे आप मिले ७९ पौर अनादि जो अविद्या तिसमें उत्पन्नजो विषय बासनारूप बंधन सो आज मेरा कटिंगवा और यज्ञ और दान और तप और अग्निहोत्रादि जो इष्टकर्म और वापी कूप तडागादि जो पूर्वकर्म इनकरके यहसंसार जीर्ण नहींहोता ८० उलटा और होता है है प्रभो आपके चरणों के दर्शन से तौ शीघ्रहीनाशको प्राप्त होता है इसमें कुछ संशय नहीं है ८१और आधेक्षण भी जिसकाचित्त तुम्हारे विषे जो स्थिर होय तौ सब अनर्थीका मूल कारण जो ज्ञान है सो उसी क्षण नाहाको प्राप्त होता है ८२ हे राम सो मन मेरा सदा तुमही में बासकरें और जगह कहीं न जाय ८३ और जिस पुरुषकी बाणी रामराम. यह मधुर अक्षर क्षणभर भी गान करती है सो ब्रह्मघातीहोय वा मदिरा पान कियाहोय तौ भी उन पातकों से शीघ्रही छूट जाता है ८४॥

न कांक्षेऽरिजयं राम न च दारसुखादिकम्॥
भक्तिमेव सदाकांक्षे त्वयि बन्धविमोचनीम्॥८५॥

त्वन्मायाकृत संसारस्त्वदंशोहं रघूत्तम॥
स्वपा

दभक्तिमादिश्य त्राहि मां भवसंकटात्॥८६॥

पूर्वं मित्रार्युदासीनास्त्वन्मायावृतचेतसः॥
आसन्मेद्यभवत्पाददर्शनादेव राघव॥८७॥

सर्वं ब्रह्मैव मे भाति क्व मित्रं क्व च मे रिपुः॥
यावत्त्वन्मायया बद्धस्तावद्गुणविशेषता॥८८॥

सा यावदस्ति नाना त्वं तावद्भवति नान्यथा॥
यावन्नानात्वमज्ञानात्तावत्कालकृतं भयम्॥८९॥

अतोऽविद्यामुपास्ते यः सोंधेतमसि मज्जति॥
मायामूलमिदं सर्वं पुत्रदारादिबंधनम्॥
अतोत्सारय मायां त्वं दासीं तव रघूत्तम॥९०॥

त्वत्पादपद्मार्पितचित्तवृत्तिस्त्वन्नामसंगीतकथासु वाणी॥
त्वद्भक्तसेवानिरतौ करौ मेत्वदङ्गसङ्गं लभतां मदङ्गम्॥९१॥

इससे हे राम नतौ में विजयकी इच्छा करता हूं न स्त्री आदि सुखों की इच्छा करताहौॆसंसाररूपी बंधन के छोड़ानेवाली सदा तुम्हारी भक्तिही को चाहता हौं ८५ और हे राम तुम्हारी माया करिकै प्राप्त हुआ है संसार जिसको ऐसा तुम्हारा अंशभूत मैं हौं तिसको अपने चरणारविन्दकी भक्तिको उपदेशकर के संसाररूपी संकट से मेरी रक्षा कीजिये ८६ और हे रोम पहिले तो आपकी मायाकरकै आवृत ढँका हुआ है चित्तजिसका ऐसा जोहों तिसके मित्र शत्रु उदासीन ये सब होते हुये और इससमय में तो आपके चरणारविन्दके दर्शनही से मुझको ८७ सब जगत् ब्रह्मरूपही प्रतीत हो रहा है तौ कौनमित्र है और कौन मेरा शत्रु है इसका आशय यह है कि जब मेरा चित्त अज्ञान से आच्छादित हो रहाथा तौ बाली को शत्रु जानता था और भार्यादिकों को मित्र जानताथा और अब तौ आपके दर्शनसे यथावत् स्वरूप ज्ञानसे कोई शत्रु मित्र आपसे जुदा करिकै नहीं भासता इससे केवल चरणारविन्द की भक्तिही को चाहताहों जिससे फिर न चित्तको अविद्या ढँकिले वैऔर हे राम जबतक जीव तुम्हारी माया करके बँधा हुआ है तभी तक गुण विशेषता प्रतीत होती है अर्थात् सत्त्व रज तम ये तीन मायाके गुण प्रकाश हर्ष शोक आदि अपने कार्यको करते हैं ८८ और जबतक ये तीनों गुण अपने कार्यों करके इसका तिरस्कार करते हैं तबतक नानात्व अर्थात् भेद बुद्धि नहीं दूर होती और जबतक अज्ञान से भेद बुद्धि रहती है तबतक कालकी भय भी बनी रहती हैं ८९इससे जो अविद्याकी उपासना करता है सो अंधतमनरकके तुल्य जो संसार तिसमें डूबाही रहताहै और मायाही है मूलकारण जिसमें ऐसा पुत्रदारादि बंधन है इससेहे राम अपनी दासी जोमाया तिसको दूरकीजि ये ९० हे राम तुम्हारे चरणारविन्द में अर्पणकरी है चित्तवृत्ति जिसने ऐसा में होउँ अर्थात् मेरा चिचतुम्हारे चरणों में रहै और वाणी तुम्हारे नामको कीर्तन करे और तुम्हारे भक्तों की सेवामें मेरे हाथ रहें और मेराअंग आपके अंगसंगको प्राप्त होय ९१॥

त्वन्मूर्तिभक्तान्स्वगुरुं च चक्षुः पश्यत्वजस्रं स शृणोतु कर्णः॥
त्वज्जन्मकर्माणि च पादयुग्मं व्रजत्वजस्रं तव मन्दिराणि॥९२॥

अङ्गानि ते पादरजोविमिश्रतीर्थानि बिभ्रत्वाहिशत्रुकेतो॥
शिरस्त्वदीयं भवपद्मजाद्यैर्जुष्टं पदं राम नमत्वजस्रम्॥९३॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे किष्किन्धाकाण्डे उमामहेश्वरसंवादे प्रथमः सर्गः ॥१॥

और मेरे नेत्र आपकी मूर्तियोंको और आपके भक्तोंको और गुरुको देखाकरैंऔर मेरे कान आपके जन्म और कर्म इनकोसुनेैं और मेरे पाउँ आपके मन्दिर औतीर्थ इनको जाया करें ९२ और मेरा अंग आपके चरण रजकरके मिले हुये जो गंगाधादि तीर्थोके जल तिनको धारणकरै और हे गरुड़ध्वज मेरा जो शिर है सो शंकर ब्रह्माचादि देवों करके सेवित जो आपका चरण कमल तिसको निरन्तर नमनकरै ९३॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे किष्किन्धाकाण्डे भाषाटीकायां प्रथमः सर्गः ॥१॥

इत्थं स्वात्मपरिष्वंगनिर्द्धूताशेषकल्मषम्॥
रामः सुग्रीवमालोक्य सस्मितं वाक्यमब्रवीत्॥१॥

मायां मोहकरीं तस्मिन्वितन्वन्कार्यसिद्धये॥
सखे त्वदुक्तं यत्तन्मांसत्यमेव न संशयः॥२॥

किंतु लोका वदिष्यति मामेवं रघुनन्दनः॥
कृतवान्किं कपींद्राय सत्यं कृत्वाग्निसाक्षिकम्॥३॥

इति लोकापवादो मे भविष्यति न संशयः॥
तस्मादाह्वय भद्रन्ते गत्वा युद्धाय बालिनम्॥४॥

बाणेनैकेन तं हत्वा राज्ये त्वामभिषिंचये॥
तथेति गत्वा सुग्रीवःकिष्किंधोपवनं द्रुतम्॥५॥

कृत्वा शब्दं महानादं तमाह्वयत बालिनम्॥
तच्छुत्वा भ्रातृनिनदं शेषताम्रविलोचनः॥६॥

निर्जगाम गृहाच्छींघ्रं सुग्रीवो यत्र वानरः॥
तमापतंतं सुग्रीवः शीघ्रं वक्षस्यताडयत् ७॥

दो०। सर्ग दूसरे मित्र हित हतो बालि शरएक॥
पुनि तिहिको निजदरश दैदीन्होंपद सुविवेक १

अब महादेवजी पार्वती से कहते हुये कि पार्वति इसप्रकार अपने हृदय के आलिंगन कराने से दूर हुये हैं सब पाप जिसके ऐसा जो सुग्रीव तिसको राम दिव्यज्ञानको प्राप्त हुआ देखके मंदमुसक्यान करि वचन बोलते हुये मन्द मुसक्यान का आशय यह कि भगवान के हास्य में मायावास करती है और सुग्रीव से अभी कुछ कार्य करना है इससे उसके ऊपर माया विस्तारने को हँसते

हुये १ अब श्रीराम सबको मोह करानेवाली जो अपनी माया तिसको कार्य सिद्धके अर्थ सुग्रीवके ऊपर विस्तार करते हुये यह बोले कि सखे जो तुमने वचन मेरे प्रति कहा सो सत्यही है कुछ संशय नहीं है २ परंतु लोक सब मुझसे कहेगा कि देखो रामचन्द्र ने अग्निको साक्षीकर के सुग्रीवसे मित्रताकर के बालीके मारने की प्रतिज्ञाकी ३ और फिर नहीं मारात फिर मुझको बड़ाभारी लोकापबाद होगा इसमें कुछ संदेह नहीं है तिससे हे सुग्रीव अब बाली के यहां जाके उसको युद्धके लिये बुलावो ४ और तुम्हारा कल्याण होगा फिर उसबाली को एकही बाणसे मारके तुमको राज्यका अभिषेक करौं तव सुग्रीव तैसेही किष्किन्धा में जाकर ५ उसके बगीचे में बड़ाभारी शब्दकर युद्धके लिये बाली को बुलाता हुआ तब बाली भाई के शब्दको सुनकर क्रोधकर के लालनेत्रकर ६ जहां सुग्रीव रहा तहां शीघ्रही घरसे निकलिकै भावता हुआ तब सम्मुख आवता हुआ जो बाली तिसको सुग्रीव शीघ्र ही छाती में ताड़न करता हुआ ७॥

सुग्रीवमपि मुष्टिभ्यां जघान क्रोधमूर्च्छितः॥
बाली तमपि सुग्रीव एवं क्रुद्धः परस्परम्॥८॥

अयुध्येतामेकरूपौ दृष्ट्वा रामोतिविस्मितः॥
न मुमोच तदा बाणं सुग्रीवबधशंक्या॥९॥

ततो दुद्राव सुग्रीवो वमन्रक्तम्भयाकुलः॥
बाली स्वभवनं यातः सुग्रीवो राममब्रवीत्॥१०॥

किं मां घातयसे राम शत्रुणा भ्रातृरूपिणा॥
यदि मद्धनने वाञ्छा त्वमेव जहि मां विभो॥११॥

एवं मे प्रत्ययं कृत्वा सत्यवादिन्रघुत्तम॥
उपेक्षसे किमर्थं मां शरणागतवत्सल॥१२॥

श्रुत्वा सुग्रीववचनं रामः साश्रुविलोचनः॥
आलिंग्य मास्म भैषीस्त्वं दृष्ट्वा वामेकरूपिणौ॥१३॥

मित्रघातित्वमाशंक्य मुक्तवान्सायकं नहि॥
इदानीमेव ते चिह्नं करिष्ये भ्रमशांतये॥१४॥

तब क्रोध करके मोहित जो बाली है सो भी सुग्रीवको मूठियों करके मारता हुआ ८ और सुग्रीव बालीको मारताहुआ ऐसे परस्पर दोनों एकरूपके क्रोध करके युद्ध करतेहुये तिनको देखके परम विस्मित रामचन्द्र सुग्रीवके वधकी शंकासे बाण नहीं छोड़ते हुये ९तबतौ भयकर के व्याकुल सुग्रीव मुखसे रुधिर का वमन करता भागता हुआ और बाली अपने घरको जाताहुआ तब सुग्रीव रामसों बोला १० कि हेराम भाई रूप जो शत्रु है तिलके हाथसे मुझको क्यों मरवाये डालते हौ विभो जो आपको मेरे मारनेही की इच्छा है तौ आपही मारिये ११ सत्यवादिन रघूत्तमहेशरणागत वत्लल पहिले मुझको विश्वास कराके अब किसवास्ते त्यागकरते हौ १२ ये सुग्रीवके आर्त्त वचन सुनिकै नेत्रोंसे जिनके अनुपात होरहा है ऐसे जो रामतो सुग्रीवको हृदयसे आलिंगन करके

बोलते हुए हे सुग्रीव तुम भय मतकरों तुम दोनों को एकरूपका देखकर १३ मित्रका न कहीं वधहोजाय यह शंका करके मैं बाणको नहीं छोड़ता हुआ अब भ्रमके निवारण के लिये इसी समय में तुम्हारे चिह्न करता हूँ १४॥

गत्वाह्वय पुनः शत्रुं हतं द्रक्ष्यसि बालिनम्॥
रामोहं त्वां शपे भ्रातर्हनिष्यामि रिपुं क्षणात्॥१५॥

इत्याश्वास्य स सुग्रीवं रामो लक्ष्मणमब्रवीत्॥
सुग्रीवस्य गले पुष्पमालामामुच्य पुष्पिताम्॥१६॥

प्रेषयस्व महाभाग सुग्रीवं बालिनं प्रति॥
लक्ष्मणस्तु तदा बध्वा गच्छ गच्छेति सादरम्॥१७॥

प्रेषयामास सुग्रीवं सोपि गत्वा तथाकरोत्॥
पुनरप्यद्भुतं शब्दं कृत्वा बालिनमाह्वयत्॥१८॥

तच्छ्रुत्वा विस्मितो बाली क्रोधेन महता वृतः॥
बद्ध्वा परिकरं सम्यक् गमनायोपचक्रमे॥१९॥

गच्छन्तं बालिनं तारा गृहीत्वा निषिषेध तम्॥
न गन्तव्यन्त्वयेदानीं शंका मेतीव जायते॥२०॥

इदानीमेव ते भग्नःपुनरायाति सत्वरः॥
सहायो बलवांस्तस्य कश्चिन्नूनं समागतः २१॥

इससे फिर जाके शत्रु को बुला औौ तोमराही बालीको देखोगे और हे भ्रातः मैं रामहों अर्थात् मिथ्यावादी नहींहों और तुम्हारी शपथ करताहीं एकक्षणही मात्र में तुम्हारा शत्रु जो बाली तिसको मारोंगा १५ श्रीराम इस प्रकार सुग्रीवके चित्तको सावधान करके लक्ष्मणसे बचन बोलते हुये कि हे लक्ष्मण सुग्रीव के गले में फूलेहुये पुष्पों की माला बांधिकै हेमहाभाग सुग्रीवको बाली के प्रति भेजो १६ तौ लक्ष्मण भी तैसेही सुग्रीव के गले में माला को बांधिकै हे सुग्रीव तुम अभी जाओ ऐसे चादर से भेजते हुये अब यहांरामने सुग्रीव से जो कहा कि तुम दोनों एकही रूपकेथे इस भ्रम से मित्र घातकी शंकासे मैंने बाण नहीं चलाया और अब उस भ्रमके वारण करने को तुम्हारी पहिचान के लिये चिह्न करताहीँ सो यह भूम व्यवहार दशा में भी राम में संभव नहीं होता क्यों कि रामके बाणहीको ऐसी सामर्थ्य है कि बालीकानामले के मंत्रपूर्वक बाण चलाते तो वालीहीका बध होता और इसग्रंथ में रामकी सर्वज्ञताही वर्णनकी हैं तो जो भ्रमहुआ तो प्रत्यक्ष सर्वज्ञता की हानि हुई और मनुष्यवत् आचरणभी यहां सुग्रीवके व्यवहार में नहीं बनसक्ता क्योंकि पहिले सुग्रीवही से कहि दिया है कि मेरे प्रति तुमने जो वचनकहा सो सत्यही है और मित्रके दुःख बढ़ानेसें मनुष्य नाटकता असंगतही सी प्रतीत होती है इससे इसका आशय यह है कि राम ने अपने हृदय में यह विचार किया कि न मेरा कोई मित्र है और न कोई शत्रु है तो सर्वत्रसमहों तो विना अपराध शत्रुकी तरह बालीका मारना

अनुचित है और शरणागत सुग्रीवकी रक्षाका नहीं करनाभी अनुचित है ये दोनों पक्षोंकी समान रूपता देखकर सुग्रीवसे कहा तुम दोनों समान रूपही हौ और जो रामनेकहा मित्रघातकी शंकासे बाण नहीं चलाया तिसका यह आशय है कि यद्यपि मेरा कोई शत्रु मित्र नहीं है तौभी मुझको जो जिसभाव करके भजन करता है उसको मैं भी कल्पवृक्षकी नाई वैसेही भजन करता हूं तौ सुग्रीव तौ मित्रभाव से मेराभजन करताही है तो मैं भी उसको मित्रभाव से भजन करता हूं और बाली तो अभी मेरेमें शत्रु मित्र कोई भाव नहीं करता है कदाचित् मित्रभावही करके जाने इससे उसके बधमें भी मित्रघात की शंका है और पहिचान के वास्ते चिह्न करने को जो रामने कहा तिसका यह आशय है कि यद्यपि मित्र सुग्रीव की रक्षाका त्याग और अपराध रहित बाली का बध ये दोनों अनुचित होनेसे समान रूपही हैं तौभी बिशेषता रूप चिह्न करने को इससमय में ताराके हृदय में प्रविष्टहो के तिसकी द्वारा बालीको भी बोधकराना चाहिये फिर जब मेरा वृत्तान्त बालसे कहैगी इतने भी बाली नहीं समझेगा तो मेरेभक्त सुग्रीवका जो शत्रु है सो मेराभी शत्रु हुआ तो उस के मारने में कुछदोष न होगा क्योंकि जब बाली मेरेसाथ सुग्रीवकी मित्रता को जानकर के भी सुग्रीव के बधमें प्रवृत्तहोगा तो मेरीअवज्ञारूप विशेषता के चिह्न होनेसे पहिले की समानरूपतानहीं रहैगी और इसी आशय से प्रत्यक्ष भी श्रीरामचन्द्र ने सुग्रीवके गले में लक्ष्मणकीद्वारा पुष्पों की माला बँधवाई जिससे भबभी मूढबाली यह जाने कि कोई बड़ाबली इसका सहायक जिसने पहिचान के लिये गलेमें माला बांधिकै फिर भेजा है और लौकिक व्यवहारमें पहिले बाली के नहींमारने में एक यहभी आशय है कि रामचन्द्रजीने यह जाना कि ऐसी भाइयोंकी लड़ाई हुभाई करती है जो हम भी बालीको मारें तौ कदाचित् सुग्रीवही न फिर हमको उलाहना देवै इससे यही हमसे अत्यन्त कहै तब बालीको मारना चाहिये इससे दूसरे बार की लड़ाई में बध किया इनसब भाशयों से राममें दयालुता और गम्भीरता और भक्तवत्सलता सूचितहोती है १७ अबसुग्रीव फिर जाय के गर्जता हुआ और वड़ेभारी शब्द करके बालीको युद्ध के लिये बुलाता हुआ १८ तिसशब्दको सुनिकै आश्चर्ययुक्त जोबाली सो बड़ाक्रोधकर फेटकोबांधिके चलमेखगा १९ जब बाली जाने लगा तौ तारा उसको पकड़के निषेध करती हुई अर्थात् मना करती हुई और यहबोली इस समय में तुमको नहीं जानाचाहिये क्योंकि मेरे मनमें शंका होती है २० अभी तो सुग्रीव तुमसे हारके चलागयाथा और अभीढ़ी फिर शीघ्रही लोटके युद्धकरने को बुलाता है इससे निश्चय करके इसका कोई बलवान् सहायकरनेवाला है २१॥

बाली तामाह हे सुभ्रु शंका ते व्येतु तद्गता॥
प्रिये करं परित्यज्य गच्छ गच्छामि तं रिपुम्॥२२॥

हत्वा शीघ्रं समायास्ये सहायस्तस्य को भवेत्॥
सहायो यदि सुग्रीवस्ततो हत्वोभयं क्षणात्॥२३॥

आयास्ये मा शुचः शूरः कथं तिष्ठेद्गृहे रिपुम्॥
ज्ञात्वाप्याह्वयमानं हि हत्वायास्यामि सुन्दरि॥२४॥

तारोवाच॥

मत्तोन्यच्छृणु राजेन्द्र श्रुत्वा कुरु यथोचितम्॥
आह मामंगदः पुत्रो मृगयायां श्रुतं वचः॥२५॥

अयोध्याधिपतिः श्रीमान् रामो दाशरथिः किल॥
लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा सीतया भार्यया सह॥२६॥

आगतो दण्डकारण्यं तत्र सीता हृता किल॥
रावणेन सह भ्रात्रा मार्गमाणोथ जानकीम्॥२७॥

आगतो ऋष्यमूकाद्रिं सुग्रीवेण समागतः॥
चकार तेन सुग्रीवः सख्यं चानलसाक्षिकम्॥२८॥

तौ बाली तारा जो अपनी स्त्री तिससे बोलता हुआ कि हे सुधु गीत् सुन्दरी हैं भौंहें जिसकी ऐसी तू है सो सुग्रीवका कोई सहाय होगा इस शंका को त्याग दे और हे प्रिये मेरे हाथको छोड़के तू घर को जा और मैं शत्रुके पास जाता हूँ २२ उस सुग्रीवको मारिके शीघ्रही याताहूं और उसका सहाय कौन हो सक्ता है और जो सुग्रीवका कोई सहायक भी होगा तो उस सहायकको औ सुग्रीव को दोनों को मारिकै एकक्षणमात्र में आऊंगा २३ इससे तू शोच मतकर और मैं शूरहोके घरमें के ते बैठसकाहूं बुलाते हुये बैरीको जानिके इससे हे सुन्दरि उसको मारिकेही में लौटूंगा २४ तब फिर तारा बोलती हुई कि हे राजेन्द्र में फिर और कुछ वचन कहती हों तिनको सुनिकै जैसा उचित समुझिये तैसा करिये मंगढ़ मेरा पुत्र शिकार खेलने को गयाथा सो उसने वहां कुछसुना सो मुझसे कहताभया २५ कि अयोध्यानगरी के पति बड़े शोभायमान दशरथ के पुत्र श्रीराम जोकि इतिहासपुराणों में प्रसिद्ध हैं सो लक्ष्मण नाम भाई करके सहित और सीतानामकरके जो अपनी स्त्री तिलकर केसहित २६ दण्डक वनको प्रांते हुये तहां रावण ने सीताकोहरा उस सीताका ढूंढते ढूंढते लक्ष्मणकर के सहित राम २७ ऋष्यमूक पर्वत के सुग्रीवसे मिले फिर तिन राम के साथ सुग्रीव अग्निको साक्षी करके मित्रता करता हुआ २८॥

प्रतिज्ञां कृतवान्रामः सुग्रीवाय सलक्ष्मणः॥
बालिनं समरे हत्वा राजानं त्वा करोम्यहम्॥२९॥

इति निश्चित्य तौ यातौ निश्चितं शृणु मद्वचः॥
इदानीमेव ते भग्नः कथं पुनरुपागतः॥३०॥

अतस्त्वं सर्वथा वैरं त्यक्त्वा सुग्रीवमानय॥
यौवराज्येभिषिंचाशु रामं त्वं शरणं व्रज॥३१॥

पाहि मामं

      गदं राज्यं कुलं च हरिपुंगव॥  

इत्युक्त्वाश्रुमुखी तारा पादयोः प्रणिपत्य तम्॥३२॥

हस्ताभ्यां चरणौ धृत्वा रुरोद भयविह्वला॥
तामालिंग्य तदा बाली सस्नेहमिदमब्रवीत्॥३३॥

स्त्रीस्वभावाद्बिभेषि त्वं प्रिये नास्ति भयं मम॥
रामो यदि समायातो लक्ष्मणेन समप्रभुः॥३४॥

तदा रामेण मे स्नेहो भविष्यति न संशयः॥
रामो नारायणः साक्षादवतीर्णेखिलप्रभुः॥३५॥

फिर लक्ष्मण सहित राम सुग्रीवके अर्थ यह प्रतिज्ञा करते हुये कि संग्राम में बालीको मारके तुझको राजाकरूंगा २९ यह निश्चय करके दोनों अपने रहने के स्थानको जाते हुये यह मेरा बचन निश्चयकर तुमजानो और जो ऐसा न होता तो अभीहार के गया सुग्रीव अभी फिर माता ३० इससे तुम सबप्रकार से बैरको त्यागके सुग्रीवको लिवालावो फिर उस सुग्रीव को यौवराज्य में अभिषेक करौ अर्थात् युवराज करो और शीघ्रही रामकी शरण जावो ३१ हे वानरों में श्रेष्ठ इस प्रकार करके मेरी रक्षा करो और अंगदकी रक्षाकरो और राज्य और कुल इनकीरक्षाकरो यह बचन कहिकै पांशुभोंकी धारा जिसके चलिरही ऐसी जो तारा सो बाली के चरणों में गिरिकै ३२ और हाथोंसे पाँवों को पकड़कर अत्यन्तभय करके बिलहुई रोवलीहुई तब बाली उस ताराको आलिंगन कर स्नेहपूर्वक यह वचन बोलता हुआ ३३ कि हे प्रिये स्त्रीके स्वभावसे तू भय करतीहै और मुझको कुछ भय नहीं है और जो कदाचित् लक्ष्मण करके सहित सबके स्वामी राम आये हैं ३४ तो रामके साथ मेरा स्नेह होगा इसमें कुछ संदेह नहीं है क्योंकि राम साक्षात् नारायणही ने पृथिवीके भारदूर करने को अवतार धारण किया है.३५॥

भूभारहरणार्थाय श्रुतं पूर्वं मयानघे॥
स्वपक्षः परपक्षो वा नास्ति तस्य परात्मनः॥३६॥

आनेष्यामि गृहं साध्वि नत्वा तच्चरणाम्बुजम्॥
भजतोनुभजत्येष भक्तिगम्यः सुरेश्वरः॥३७॥

यदि स्वयं समायाति सुग्रीवो हन्मि तं क्षणात्॥
यदुक्तं यौवराज्याय सुग्रीवस्याभिषेचनम्॥३८॥

कथमाहूयमानोहं युद्धाय रिपुणा प्रिये॥
शूरोहं सर्वलोकानां संमतः शुभलक्षणे॥३९॥

भीतभीतमिदं वाक्यं कथं बाली वदेत्प्रिये॥
तस्माच्छोकम्परित्यज्य तिष्ठ सुन्दरि वेश्मनि॥४०॥

एवमाश्वास्यतारांतांशोचंतीमश्रुलोचनाम्॥
गतोवालीसमुद्युक्तः सुग्रीवस्यवधायसः॥४१॥

दृष्ट्वा बालिनमायांतं सुग्रीवो भीमविक्रमः॥
उत्पपात गले बद्ध पुष्पमालः पतंगवत्॥४२॥

और परमात्मा जो राम तिनका न कोई मित्र है और कोई शत्रु भी नहीं है

अर्थात् सम हैं ३६ हे पतिव्रते तिन राम के चरणारविन्द को नमस्कार करके गृहको लिवा लाऊंगा और जो कोई उन को भजता है उसको वह भी सब देवताओंके स्वामी रामभजते हैं ३७ और जो अकेला सुग्रीवही युद्ध करने को आवैगा तो क्षणभर में उसको मारूंगा और जो सुग्रीव को युवराज करने को कहा ३८ तिसका उत्तर यह है कि हे प्रिये जो बैरी युद्धके लिये मुझको बुलावे तो सबलोकों को सम्मत वाली नामकर के शूरमै ३९ भीत भीतडर से भी डरे हुये के वचन कैसे कहीं अर्थात् भयसे राज्यदेने को कैसे कहीं तिससे हे सुन्दरि शोकको त्यागकर घर में बैठ ४० इस प्रकार बाली शोचती हुई औरे रोती हुई ताराको समझाकर सुग्रीवके मारने को उद्योगयुक्त होके जाताही हुआ ४१ सौ बड़ा भयंकर है पराक्रम जिसका और बंधी हुई पुष्पों की मालागले मैं जिसके ऐसा जो सुग्रीव सो बालीको भावते देखके युद्ध के अर्थ उसके सम्मुख पक्षी के तुल्य वेगसे कूदताहुआ ४२॥

मुष्टिभ्यां ताडयामास बालिनं सोपितं तथा॥
अहम्बाली च सुग्रीव सुग्रीवो बालिनं तथा॥४३॥

रामं विलोकयन्नेव सुग्रीवो युयुधे युधि॥
इत्येवं युद्ध्यमानौ तौ दृष्ट्वा रामः प्रतापवान्॥४४॥

बाणमादाय तूणीरादैन्द्रेन्धनुषि संदधे॥
आकृष्य कर्णपर्यन्तमदृश्यो वृक्षखण्डगः॥४५॥

निरीक्ष्य बलिनं सम्यग्लक्ष्यं तद्धृदयं हरिः॥
उत्ससर्जाशनिसमं महावेगं महाबलः॥४६॥

बिभेद स शरो वक्षो बालिनः कम्पयन्महीम्॥
उत्पपात महाशब्दं मुंचन्सनिपपातह॥४७॥

तदा मुहूर्त्तं निःसंज्ञो भूत्वा चेतनमाप सः॥
ततो बाली ददर्शाग्रे रामं राजीवलोचनम्॥
धनुरालंंब्य वामेन हस्तेनान्येन सायकम्॥४८॥

विभ्राणं चीरवसनं जटामुकुटधारिणम्॥
विशालवक्षसं भ्राजद्वनमालाविभूषितम्॥४९॥

और दोनों मुट्ठी बांधिकै बाली के हृदयमें ताड़ना करताहुआ और बाली. सुग्रीवको मारता हुआ फिर सुग्रीव बालीको ४३ इस प्रकार रामको दिखावता हुआ अर्थात् जल्दी इसको मारौ ऐसा इशारा करता हुआ सुग्रीव युद्ध करता हुआ ऐसे दोनोंको युद्ध करते हुये प्रताप युक्त जो श्रीराम सो देखकर ४४ तरकससे वाण निकाल कर अगस्त्यका दिया हुआ जो धनुष तिस में संधान करते हुये वृक्षों के समूह में स्थित नहीं दिखाई पड़े ऐसे जो रामसो कानतक धनुष खैंचिकै ४५ और बालीको अच्छी तरह देखके उसके हृदयका निशाना करके बड़े बलवान जो श्रीरामचन्द्र सो वज्रके तुल्य जो बढ़ा वेगयुक्तबाण

तिसको छोड़ते हुये ४६ वह बाण बालीके हृदयको विदारण करता हुआ और बाली बड़ेभारी शब्दको छोड़ता और उछलिकै पृथिवी को कँपाता हुआ गिर पड़ा ४७ तिसके पीछे घड़ी भर बाली मूर्च्छित होके फिर कुछ होशको प्राप्त होता भया तब बाली अपने भागे कमलवत् विशाल नेत्र हैं जिनके और बायें हाथमें धनुष और दाहिने हाथमें बाण को धारण करके जो स्थित हैं ४८ और चीरवस्त्रको जो धारणकरे और जटा मुकुटको धारणकरे और विस्तृत है वक्षःस्थल अर्थात्छाती जिनकी और कण्ठसे लेके जानुतक शोभायमान जोवनमाला तिस करके भूषित ४९॥

पीनचार्वायतभुजं नवदूर्वादलच्छविम्॥
सुग्रीवलक्ष्मणाभ्यां च पार्श्वयोः परिसेवितम्॥५०॥

विलोक्य शनकैः प्राह बाली रामं विगर्हयन्॥
किं मयापकृतं राम तव येन हतोस्म्यहम्॥५१॥

राजधर्ममविज्ञायगर्हितंकर्मतेकृतम्॥
वृक्षखण्डेतिरो भूत्वात्यजतांमयिसायकम्॥५२॥

यशः किं लप्स्यसे राम चोरवत्कृतसंगरः॥
यदि क्षत्रियदायादो मनोर्वंशसमुद्भवः॥५३॥

युद्धं कृत्वा समक्षं मे प्राप्स्यसे तत्फलं तदा॥
सुग्रीवेण कृतं किं ते मया वा न कृतं किमु॥५४॥

रावणेन हृता भार्या तव राम महावने॥
सुग्रीवं शरणं यातस्तदर्थमिति शुश्रुम्॥५५॥

बत राम न जानीषे मद्बलं लोकविश्रुतम्॥
रावणं सकुलं बध्वा ससीतं लंकयासह॥५६॥

और पुष्ट और सुन्दर और लम्बायमान हैं भुजा जिनकी और दूर्वादल के तुल्यश्यामबर्ण है कांतिजिनकी और दोनों तरफसे सुग्रीव और लक्ष्मण करके सेवित ऐसे रामचन्द्रको देखता हुआ ५० इसप्रकार बाली रामचन्द्र को देखके निन्दा करता हुआ धीरेधीरे रामसे बोला हे राम मैंने तुम्हारा क्या अपराध कराया जिससे मुझको मारा ५१ और राजधर्मको बिना जाने बड़ा निन्दित कर्म तुमने किया जो वृक्षोंकी आड़ होके मेरे ऊपर बाणको छोड़ा ५२ और हे राम चोरकी तरह संग्राम करके कौन यशको प्राप्त होवोगे जो कदाचित् मनुके वंश में उत्पन्न क्षत्रिय के पुत्र होते ५३ तौ प्रत्यक्ष युद्धकरके उसके फलको प्राप्तहोते अर्थात् यशको प्राप्तहोते अथवा मृत्यु को प्राप्तहोते और सुग्रीवने अभी तुम्हारे संग क्या किया और मैंने क्या नहीं किया ५४ और राम तुम्हारी स्त्री दण्डकबन में रावणने हरीथी तिसीके अर्थ तुम सुग्रीवके शरण प्राप्त हुये यह मैं सुनताभया हौं ५५ सो बड़े खेद की बात है जो लोकमें विख्यात मेरे को नहीं जानते थे हेराम जो मैं इच्छा करता तौ कुल सहित रावणको बांधिकै सीता सहित और लंका सहित रावणको ५६॥

आनयामि मुहूर्त्तार्द्धाद्यदि चेच्छामि राघव॥
धर्मिष्ठंइति लोकेस्मिन्कथ्यसे रघुनन्दन॥५७॥

वानरं व्याधवद्धत्वा धर्मं कं लप्स्यसे वद॥
अभक्ष्यं वानरं मांसं हत्वा मां किं करिष्यसि॥५८॥

इत्येवं बहु भाषन्तं बालिनं राघवोब्रवीत्॥
धर्मस्य गोप्ता लोकेस्मिंश्चरामि सशरासनः॥५९॥

अधर्मकारिणं हत्वा सद्धर्मं पालयाम्यहम्॥
दुहिता भगिनी भ्रातुर्भार्या चैव तथा स्नुषा॥६०॥

समा यो रमते तासानेकामपि विमूढधीः॥
पातकी स तु विज्ञेयः स वध्यो राजभिः सदा॥६१॥

त्वं तु भ्रातुः कनिष्ठस्य भार्यायां रमसे बलात्॥
अतो मया धर्मविदा हतोसि वनगोचर॥६२॥

त्वं कपित्वान्न जानीषे महान्तो विचरंति यत्॥
लोकं पुनानाः संचारैस्ततस्तन्नातिभाषयेत्॥६३॥

आधे मुहूर्त्त में अर्थात् घड़ी भर में लै आवता और हे रघुनन्दन तुमलोक में धर्मिष्ठ कहलाते हो सो ५७ बानरको व्याधकी तरह मारके कौनसे धर्मको प्राप्त होउगे और अभक्ष्य है मांस जिसका ऐसे बानरको मारके क्या करोगे ५८ ऐसे बहुत से अनर्गल वचन कहिरहा जो बाली है तिससे श्रीराम बोलते हुये कि हे बानर धर्मका रक्षक जो मैं हौं सो इसलोक में धनुषबाण लेकर के विचर रहाहौॆ५९ अधर्म के करनेवाले को मारिकै सत्पुरुषों के धर्म की रक्षा करताहौॆ
कन्या और बहिन और छोटे भाई की स्त्री और पुत्रकी स्त्रीये चारों बराबर हैं ६० जो मूढमति इनमें से एक में भी रमैसो पातकी जानिये और सदावह राजों को मारने योग्य ६१ और तूतौ छोटे भाई की स्त्री में जबरदस्ती रमणकरता है इससे हेबानर धर्मको जानकर केही मैंने तेरा वधकिया ६२॥ इसका आशय यह कि तू कदाचित् यह जानता होय कि धर्मशास्त्र में अधिकार मनुष्यों ही को है और तिर्यग्योनि जो शूकर आदि तिनको नहीं है तैसे ही मैं भी वानरयोनि
में हैं। इससे मुझको अधर्मका कुछ दोषनहीं है सो तिसका उत्तर यह है कि तिर्य्यगादि शूकरादिकों को जो शास्त्र में अधिकार नहीं है तिसमें कारण केवल अज्ञानही है क्योंकि धर्म धर्म को वे कुछनहीं जानते हैं और तूतौ तैसा नहीं है क्योंकि बाल अवस्थाही से तुझको सब वेदों का ज्ञान रहा है जिससे तू इन्द्र के. से उत्पन्न है और इसीसे तू समुद्र के तीर संध्योपासन करने को जाता था तत्र सूर्यको भंजलि देतेपै तेरे बगल में से रावण छुटि गया था और देवतों को भीअधर्मका दोष लगता है जैसे इन्द्रको अहल्या के गमनमें और इसीसे ब्रह्मविद्या का अधिकार देवतों को भी वेदमें प्रसिद्ध है इससे पुण्य पापका ज्ञान जिस किसी को होय तिसके ऊपर शास्त्रकी आज्ञायुक्त ही है तैसे तुझको भी अपनी कन्याके समान छोटेभाईकी स्त्रीमें जबरदस्ती गमनकरने में दोषहुआ और जीवों की
.

हिंसा करनेवाले व्याघ्र आदि दुष्टों को छिपकरके मारना राजाओं का धर्मही है इससे जिस प्रकार से प्रजाकी रक्षा और धर्मकी रक्षा होय तैसे तैसे अधर्मियों के बधकरने में राजाको कुछ दोष नहीं है और हेवानर तूतौ वानर योनि की चंचलता से नहीं जानता है कि महात्मालोग अपने गमन करके लोकको पवित्र करते हुये विचरते हैं इससे उनकी निन्दा न करै अर्थात् ताराने तुझको मेरा बोधभी कराया तौ भी धर्म की सूक्ष्मगति और मेरा स्वभाव अपने बल के गर्वसे वानरजाति के स्वभाव वराहो कर नहीं जाना जो जानता तौ सुग्रीवसे मिलाप कर मुझको खोजिलेता सो तौ किया नहीं और उलटी मेरी निन्दा करके दोष भागी हुआ यह श्रीराम के कहनेका प्राशय ६३॥

तच्छ्रुत्वा भयसंत्रस्तो ज्ञात्वा रामं रमापतिम्॥
बाली प्रणम्य रभसाद्रामं वचनमब्रवीत्॥६४॥

राम राम महाभाग जाने त्वा परमेश्वरम्॥
अजानता मया किंचिदुक्तन्तत्क्षन्तुमर्हसि॥६५॥

साक्षात्त्वच्चरघातेन विशेषेण तवाग्रतः॥
त्यजाम्यसून्महायोगिदुर्लभं तव दर्शनम्॥६६॥

यन्नाम विवशो गृह्णन्म्रियमाणः परं पदम्॥
याति साक्षात्स एवाद्य मुमूर्षोर्मे पुरःस्थितः॥६७॥

देव जानामि पुरुषं त्वां श्रियं जानकीं शुभाम्॥
रावणस्य वधार्थाय जातं त्वां ब्रह्मणार्थितम्॥६८॥

अनुजानीहि मां राम यांतं त्वत्पदमुत्तमम्॥
मम तुल्यबले बाले अंगदे त्वं दयां कुरु॥६९॥

विशल्यं कुरु मे राम हृदयं पाणिना स्पृशन्॥
तथेति बाणमुद्धृत्य रामः पस्पर्श पाणिना॥
त्यक्त्वा तद्वानरं देहममरेंद्रभवत्क्षणात्॥७०॥

अब बाली यहबचन रामके सुनिकै बड़ी भयसे त्रासयुक्तहोके और राम को साक्षात लक्ष्मीका पति जानिकै प्रणाम करके यह शीघ्रही कहता हुआ ६४ कि हेराम हराम हेमहाभाग मैं जानता हों आप साक्षात् परमेश्वर हौ भौर जो मैंने तुम्हारी महिमा को बिना जाने कहा है तिसको क्षमाकरने योग्य हौ ६५ साक्षात् तुम्हारे बाणके मारने से और विशेषकरके तुम्हारे आगे प्राणों का त्याग करताही क्योंकि तुम्हारा दर्शन योगियों को भी दुर्लभ है ६६ और विवश होकर भी अर्थात् रोगादि ग्रस्त होकरके भी जो मरण समय में आप के नामको ग्रहण करता हुआ शरीर को त्याग करै तौ परमपद को प्राप्त होता है सो साक्षात् भाप इस समय में मरने की इच्छा करता हुआ जो मैं तिसके नेत्रोंके आगे स्थित हो रहे हौतौमैैंपरमपदको प्राप्तों यह क्या कहना है ६७ और हे देव रावणके मारनेको ब्रह्मा करके प्रार्थना किये साक्षात् आप

नारायणहौ यह मैं जानताहौंऔर सीताको लक्ष्मी जानताहौं६८ और हे राम सबसे उत्तम जो तुम्हारा पद तिसको जाता हुआ जो मैं तिसको माज्ञा दीजिये और मेरे तुल्यबली जो बालक अंगद तिसके ऊपर दया कीजिये ६९ और अपने हाथ से मुझको स्पर्श करते हुये हे राम मेरे हृदय से बाण निकाल लीजिये तौ राम तैसेही उसके हृदयसे बाण निकालि कै उसको अपने हाथ से स्पर्श करते हुये तव वाली उस वानर देहको त्याग करके क्षणमात्रमें इन्द्र हो जाता हुआ अर्थात् इन्द्र के अंश से उत्पन्न हुआथा सो भन्त में इन्द्रके शरीर में लयको प्राप्तहुना ७०॥

बाली रघूत्तमशराभिहतो विमृष्टो
रामे शीतलकरेण सुखाकरेण॥
सद्यो विमुच्य कपिदेहमनन्यलभ्यं
प्राप्तःपरं परमहंसगणैर्दुरापम्॥७१॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे किष्किन्धाकाण्डे द्वितीयः सर्ग्गः २॥

राम के बाण करके मारा गया जो बाली सो सुख करने वाले रामके शीतल हाथसे स्पर्श किया हुआ शीघ्रही वानर देहको त्याग करि और को न मिलसकै और परमहंसों को भी दुष्प्रापं परमपदको प्राप्त होता हुआ अर्थात् इन्द्र के अधिकार के अन्तमें मुक्तिको प्राप्त होगा इससे परमपद प्राप्तिकही ७१॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे किष्किन्धाकाण्डे भाषाटीकायां द्वितीयः सर्गः २॥

निहते बालिनि रणे रामेण परमात्मना॥
दुद्रुवुर्वानराः सर्वे किष्किन्धां भयविह्वलाः॥१॥

तारामूचुर्महाभागे हतो बाली रणाजिरे॥
गदं परिरक्षाद्य मन्त्रिणः परिनोदय॥२॥

चतुद्वारकपाटादीन्वध्वा रक्षामहे पुरीम्॥
वानराणां तु राजानमंगदं कुरु भामिनि॥३॥

निहतं बालिनं श्रुत्वा तारा शोकविमूर्च्छिता॥
अताडयत्स्वपाणिभ्यां शिरो वक्षश्च भूरिशः॥४॥

किमंगदेन राज्येन नगरेण धनेन वा॥
इदानीमेव निधनं यास्यामि पतिना सह॥५॥

इत्युक्त्वा त्वरिता तत्र रुदन्ती मुक्तमूर्द्धजा॥
ययौ तारातिशोकार्त्ता यत्र भर्तृकलेवरम्॥६॥

पतितं बालिनं दृष्ट्वा रक्तैः पांशुभिरावृतम्॥
रुदती नाथनाथेति पतिता तस्य पादयोः॥७॥

दोहा तीसर सर्ग विलाप सुनि तारा को रघुराज॥
दिव्यज्ञानतिहिकोदियो दियोसुकण्ठहिराज १॥

अब महादेव जी पार्वतीसे कथा वर्णन करैहैं हेपार्वति जब संग्राम में राम

करके बाली मारागया तौ भयकरके विह्वल व्याकुल सब वानर किष्किन्धा नगरी को भाग के जाते हुये १और तारासे कहते हुये कि हे महाभागे संग्राम में बाली मारागया इस से अंगद की रक्षा कीजिये और नगर की रक्षा को मंत्रियों को आज्ञा कीजाय २ और सब वानर चारों दरवाजों के फाटक बन्दकरि नगरी की रक्षाकरते रहें और हे भामिनि बानरों का राजा अंगढ़को करना चाहिये ३ तौ बाली को मरा हुआ सुनिकै शोक करके मोहित जो तारा सो अपने हाथों से शिर और छाती कूटती हुई ४ और यह कहती हुई कि मुझको क्या तो अंगदसे प्रयोजन है और क्या राज्यसे और क्या नगरसे और क्या धनसे प्रयोजनहै मैंतो इसी समय में पतिके संग मृत्युको प्राप्त होउँगी अर्थात् सती होजावोंगी ५ यह कहिकरके शीघ्र ही रोवती हुई और केशों को खोले और प्रतिशोककर के पीड़ित तारा जहां पतिका शरीर पड़ाथा तहां जरती हुई ६ रुधिरकर के और धूलिकरके लपटे हुये और पृथिवी में पड़ा हुआ बाली को देखके हे नाथ हे नाथ ऐसे कहिकै रोवती उसके चरणों के समीप तारा गिर पड़ती हुई ७॥

करुणं विलपंती सा ददर्श रघुनन्दनम्॥
राम मां जहि बाणेन येन बाली हतस्त्वया॥८॥

गच्छामि पतिसालोक्यं पतिर्मामभिकांक्षते॥
स्वर्गेपि न सुखं तस्य मां विना रघुनन्दन॥९॥

पत्नीवियोगजं दुःखमनुभूतं त्वयानघ॥
बालिने मां प्रयच्छाशु पत्नीदानफलं भवेत्॥१०॥

सुग्रीव त्वं सुखं राज्यं दापितं बालिघातिना॥
रामेण रुमया सार्धंभुंक्ष्व सापत्नवर्जितम्॥११॥

इत्येवं विलपंतीं तां तारां रामो महामनाः॥
सांत्वयामास दयया तत्वज्ञानोपदेशतः॥१२॥

किं भीरु शोचसि व्यर्थं शोकस्याविषयं पतिम्॥
पतिस्तवायं देहो वा जीवो वा वद तत्त्वतः॥१३॥

पंचात्मको जड़ो देहस्त्वङ्मांसरुधिरास्थिमान्॥
कालकर्मगुणोत्पन्नः सोप्यास्तेद्यापि ते पुरः॥१४॥

और करुणा जैसे उत्पन्न हौवै तैसे बिलाप करती हुई रामको देखती हुई कहने लगी कि हे राम जिस बाणकरके तुमने बालीको मारा है उसी बाणकरके मुझको भी मारिये ८ मैं पतिके लोकको जावोंगी क्योंकि पति मेरी इच्छा करता होगा जिससे हे रघुनन्दन मेरे विना स्वर्ग में भी सुख उसको नहीं है ९ और हे अनघ निष्पाप स्त्रीके बियोगका जो दुःख है तिसको तुम जानते हौ तौ बाली के अर्थ मुझको शीघ्र ही दीजिये तो तुमको स्त्रीदानका फलहोगा १० और हे सुग्रीव रामने बालीसे दिलाया हुआ जो राज्य और सुख तिसको तुम रुमा जो अपनी स्त्री तिस करके सहित निष्कंटक भोगकरौ ११ इस प्रकार विलाप

करती हुई जो तारा तिसको उदारमन जो श्रीराम सो दयाकर के तत्त्वज्ञानको उपदेश करके सावधान करते हुये १२ कि हे भीरु डरनेवाली शोकके नहीं करने योग्य जो अपनापति है तिसको व्यर्थ शोच करती है और तू विचार करकेकहु कि देह तेरापति है अथवा जीवपति है १३ तिसमें जो कदाचित देहको पति मानतीहोय तौसो पृथिवी और जल और तेज और पवन औ आकाश इन पांच महाभूतोंको मिल करके एक तरहका कोई रूप होजाना सो देह कहा ने लगा इससे जड़हुआ और इसमें खाल और मांस और रुधिर और हाड़ और मल आदि पदार्थ भरे हुये हैं इससे निन्द्य है और काल और पुण्य पापादि कर्म सत्त्वादिकगुण इनसे उत्पन्न हुआ है इससे नाशवान् है अर्थात् देखते
देखतेपानीकासा बलबूला के तरह बिलाय जाता है ऐसे नहीं प्रीति के योग्य जो देह तिसमें क्या तेरे पतिकी बुद्धिहोरही है और तिसपै भी उसीको पति मानती होय तौ तेरे नेत्रों के भागे पड़ाही है फिर वृथा शोच करनाहै १४॥

मन्यसे जीवमात्मानं जीवस्तर्हि निरामयः॥
न जायते न म्रियते न तिष्ठति न गच्छति॥१५॥

न स्त्री पुमान्वा षंढो वा जीवः सर्वगतोव्ययः॥
एक एवाद्वितीयोयमाकाशवदलेपकः॥
नित्यो ज्ञानमयः शुद्धः स कथं शोकमर्हति॥१६॥

तारोवाच॥

देहोऽचित्काष्ठवद्राम जीवो नित्यश्चिदात्मकः॥
सुखदुःखादिसंबन्धः कस्य स्याद्वाम मे वद॥१७॥

श्रीराम उवाच॥

अहंकारादिसंबंधो यावद्देहेन्द्रियैः सह॥
संसारस्तावदेव स्यादात्मनस्त्वविवेकिनः॥१८॥

मिथ्यारोपितसंसारोन स्वयं विनिवर्तते॥
विषयान्ध्यायमानस्य स्वप्ने मिथ्यागमो यथा॥१९॥

अनाद्यविद्यासंबंधात्तत्कार्याहंकृतेस्तथा॥
संसारोऽपार्थकोपि स्याद्रागद्वेषादिसंकुलः॥२०॥

मन एव हि संसारो बंधश्चैव मनः शुभे॥
आत्मा मनः समानत्वमेत्य तद्गतबंधभाक्॥२१॥

अब कदाचित् जीवही को पतिमानती होय तो जीव तौ नाशादिकर के रहितहै और न वह उत्पन्न होय न मरे और न खड़ाहोय न चले १५ और न स्त्री है न पुरुष हैं नपुंसक है और सबमें है और अविनाशी है और एक और द्वितीय है अर्थात् दूसरा कोई उसके नहीं है और आकाशकी नाई निर्लेप है और नित्य है और ज्ञानस्वरूप है और शुद्ध है सो कैसे शोचकरने के योग्यहो सा है १६ तब तारा पूछती हुई हे राम जो देह काष्ट केतुल्य जड़ है और जीव नित्य चितरूप है तौ हे राम सुख दुःखादिका संबंध किसको होता है सो कहिये मुझसे १७ अब श्रीराम इसका उत्तर देते हैं कि जबतक देह और इन्द्रिय इनके विषे अहंकारादिक का सम्बन्ध है तबतक विवेकरहित जो आत्मा तिसको

जन्म मरणादिरूप संसार होताही है इसका आशय यह है जब बुद्धि में आत्माका प्रतिबिम्ब पढ़ा और उस प्रतिबिम्बयुक्तबुद्धिका चक्षुरादि इन्द्रियों से सम्बन्ध हुआ और उन इन्द्रियों का भी जब अपने योग्य विषयका सम्बन्ध होता है तौमैं देखता हो मैं सुनताहों में संघताहों ऐसी बहुत तरह की प्रतीति इस पुरुषको होती है तहां देखना सुनना इत्यादिक इन्द्रियों का धर्म है और देखने के योग्य घटादि विषय को जो नहीं जानता था उस अज्ञानकी निवृत्ति करिदेना बुद्धिका धर्म हुआ और यही घट है ऐसा ज्ञान होना आत्मधर्म है तो यह मैं हौं यह मेरा है इसप्रकार ग्रहकार रूप जो बुद्धिकी वृत्ति तिसकरके देखना सुनना इत्यादि इन्द्रियों के धर्मका आत्मा के विषे आरोपण करि मैं देखता हों मैं सूंघताहों मैं जाताहों में खाता हौं ऐसा जो भूंठाही मौर के धर्मको अविवेक करके मानता है और ज्ञानानन्द अपने स्वरूपको भूलि कै मैं अज्ञहों में दुःखी हों ऐसा अन्तःकरणं धर्मको जब जीव मानता है तब संसार ही को प्राप्तहोता है इससे यह सिद्ध हुआ कि सुखदुःखादि सम्बन्ध अविवेक करके मिले हुये चित्त जड़ में प्रतीत होता है विवेक करके देखा जावे तौ न केवल देहका धर्म है न केवल चेतनका है १८ हे तारे इसप्रकार और के अविवेकते आरोपण किया गया अत्यन्त झूठाभी संसार है परन्तु आपही से नहीं निवृत्त होता जैसे विषयोंका ध्यान करता हुआ जो पुरुष तिसको स्वप्नमें झूंठे पदार्थ की प्राप्तिहोय सो विना जागे निवृत्ति नहीं होती ऐसे संसार भी विना ज्ञानके निवृत्त नहीं होता १९ अनादि कालकी जो अविद्या तिसके संबन्धसे उसका कार्य जो अहंकार तिसकरिकै झूठाभी संसार रागद्वेष आदि दोषोंको उत्पन्न करता है २० और हे कल्याणयुक्ते मनही संसारका कारण है और बन्धन करनेवाला है और यह जीव मनकी एकताको प्राप्तहोके अर्थात् मनमैं हो ऐसा मानिकै मनमें जो बन्धन है तिसको आपही प्राप्तहोता है २१॥

यथा विशुद्धः स्फटिकोऽलक्तकादिसमीपगः॥
तत्तद्वर्णयुगाभाति वस्तुतो नास्ति रंजनम्॥२२॥

बुद्धीन्द्रियादिसामीप्यादात्मनः संसृतिर्बलात्॥
आत्मा स्वलिंगं तु मनः परिगृह्य तदुद्भवान्॥२३॥

कामाञ्जुषन्गुणैर्बद्धः संसारे वर्त्ततेवशः॥
आदौ मनोगुणान् सृष्ट्वाततः कर्माण्यनेकधा॥२४॥

शुक्लोहितकृष्णानि गतयस्तत्समानतः॥
एवं कर्मवशाज्जीवोभ्रमत्याभूतसंप्लवम्॥२५॥

सर्वोपसंहृतौजीवोवासनाभिः स्वकर्मभिः॥
अनाद्यविद्यावशगस्तिष्ठत्यभिनिवेशतः॥२६॥

सृष्टिकाले पुनः पूर्ववासनामानसैः सह॥
जायते पुनरप्येवं घटीयंत्रमिवावशः॥२७॥

यदा पुण्याविशेषेण लभते संगतिं सताम्॥
मद्भक्तानां सुशांतानां तदा मद्विषया मतिः॥२८॥

जैसे निर्मल जो स्फटिकमणि सो लाखके रंगकी समीपता को प्राप्त होके तैसेही वर्णका मालूम पड़ता है और वास्तवमें तौरँगा हुआ नहीं है २२ ऐसे ही संसारधर्म युक्त जो बुद्धि और इन्द्रियादि तिनके समीप होने से अबश होके संसार प्राप्त होता है क्योंकि आत्मा अपने जताने वाला जो मनहै तिसको ग्रहण करिकै क्योंकि विना आत्माके जड़ मनमें ज्ञान नहीं संभव होता इससे आत्मा के जतानेवाला मनहुआ तिसको ग्रहण करके अर्थात् अविवेक करके मैं ही
यहाँ ऐसा मानिकै तिसमनसे उत्पन्न हुये जो विषय तिनको सेवन करता हुआ २३ बिषय संबन्धी रागद्वेषादिकों करके बँधेकी तरह अवशहो संसार में रहता है पहिले मन रागद्वेष आदि गुणोंको रचिकै फिर कर्मों को रचता है अनेक प्रकारके २४ तिसमें एकप्रकार के शुक्ल कर्म हैं हिंसादि दोष रहित जप ध्यानादि और एक प्रकारके लोहित कर्म हैं हिंसा से मिले हुये यागादि और एक प्रकार के कृष्ण कर्म हैं चर्थात् काले पाप कर्म फिर तिन शुक्लादि कर्मो के तुल्यही गतियों को मन रचता है तिसमें शुक्ल कर्मकी गति ब्रह्मलोक प्राप्तिरूप और लालकर्मकी गति स्वर्गादि और काल कर्मकी गति नरकादि इन गतियों में प्रलयकाल पर्यंत जीव भ्रमाही करता है २५ और प्रलय में बासना और कर्म इन करके सहित अभिनिवेश करके अन्तःकरण आदिलिंग शरीर को अपनाही मानताहुआ जो जीव सो अन्तःकरणादि लिंगशरीर की भी कारण भूत अनादि अविद्या तिसमें लीनहो के रहता है २६ फिर जब सृष्टि समय होता है तो जीव पहिले की वासना और कर्म इनकरके सहित जो अन्तःकरण भादि लिंगशरीर तिसको अविद्या से खैंचकर उत्पन्न होता है अर्थात् पूर्व वासना के अनुसार से देवादि शरीर को धारण करता है इसप्रकार घटयिंत्र जोरहटतिस में बँधे हुये जो घटते जैसे यंत्र के वेग के बाधीन हुये जलको भराभी करते हैं और छोड़ते भी हैं तैसे विद्यारूप यंत्र में बँधे हुये जे जीव ते पूर्ववासनाकर जन्मते और मरते रहते हैं २७ कदाचित् ताराकहै कि जब ऐसी व्यवस्था है तो मुक्ति काहे को कभी होनी है तिससे राम कहते हैं कि हे तारे जबकभी पुण्य विशेष करके यह जीव शांत चित्त जिनका ऐसे महात्मा मेरे भक्तों के संग को प्राप्तहोता है तो ईश्वरही सबसे बड़ा है ऐसी बुद्धि उत्पन्न होती है २८॥

मत्कथाश्रवणे श्रद्धा दुर्लभा जायते ततः॥
ततः स्वरूपविज्ञानमनायासेन जायते॥२९॥

तदाचार्यप्रसादेन वाक्यार्थज्ञानतः क्षणात्॥
देहेंद्रियमनःप्राणाहंकृतिभ्यः पृथक्स्थितम्॥३०॥

स्वात्मानुभावतः सत्यमानदात्मानमद्वयम्॥
ज्ञात्वा सद्यो भवेन्मुक्तः सत्यमेव मयोदितम्॥३१॥

एवं

मयोदितं सम्यगालोचयति योनिशम्॥
तस्य संसारदुःखानि न स्पृशंति कदाचन॥३२॥

त्वमप्येतन्मया प्रोक्तमालोचय विशुद्धधीः॥
न स्पृश्यसे दुःखजालैः कर्मबंधाद्विमोक्ष्यसे॥३३॥

पूर्वजन्मनि ते सुभ्रु कृता मद्भक्तिरुत्तमा॥
अतस्तव विमोक्षाय रूपं मे दर्शितं शुमे॥३४॥

ध्यात्वा मद्रूपमनिशमालोचय मयोदितम्॥
प्रवाहपतितं कार्यं कुर्वत्यपि न लिप्यसे ३५॥

फिर मेरे कथा श्रवण में श्रद्धा उत्पन्न होती है अर्थात् वेदान्तादिश्रवण में सो श्रद्धा प्राकृत संसारी पुरुषों को अति दुर्लभ है फिर मेरे स्वरूपका विज्ञान होता है अर्थात् मेरा स्वरूप जिस करके जाना जावे ऐसा ज्ञान और वैराग्य आदि साधन सब बिनाही श्रम होते हैं २९ फिर साधन संपत्ति के अनन्तर आचार्य जो गुरु तिनके प्रसाद से (तत्त्वमसि ) इसको आदि लेके जो वेदान्तशास्त्र के महावाक्य तिनके यथार्थज्ञानसे हुआ जो मात्माका अनुभव अर्थात् ब्रह्मसे अभेद करके आपने स्वरूपका ज्ञान तिस करके देह इंद्रिय मन और प्राण और महंकार इनसे पृथक् स्थित जो ३० सत्य आनंद धौर द्वैतरहित जो मात्मा तिसको जानिकै शीघ्रही मुक्तहोता है यह मैंने सत्यही कहा है ३१ इस मेरे कहे हुये ज्ञानको जो अच्छी तरह निरन्तर विचार करता है उसको संसार के दुःख कभी स्पर्श नहीं करते हैं ३२ और हे तारे तूभी इस मेरे कहे हुये ज्ञान को निर्मल बुद्धिहोकर विचार करु तो दुःखोंके समूहसे नहीं स्पर्श की जावेगी और कर्म बन्धन से छूट जावैगी ३३ और पूर्वजन्ममें मेरीतूने बड़ी उत्तम भक्ति की है इससे हे कल्याणरूपे मैंने तेरे मोक्ष के लिये अपना रूप दिखलाया ३४ और यह मेरे स्वरूपको निरन्तर ध्यानकरके मेरे कहे हुये ज्ञानको विचार करु तौ संसार के कार्यको करती हुई भी लिप्त नहीं होगी ३५॥

श्रीरामेणोदितं सर्वं श्रुत्वा तारातिविस्मिता॥
देहाभिमानजंं शोकं त्यक्त्वा नत्वा रघूत्तमम्॥३६॥

आत्मानुभवसंतुष्टा जीवन्मुक्ता बभूव ह॥
क्षणसंगममात्रेण रामेण परमात्मना॥३७॥

अनादिबन्धं निर्धूय मुक्ता सापि विकल्मषा॥
सुग्रीवोऽपि च तच्छ्रुत्वा रामवक्त्रात्समीरितम्॥३८॥

जहावज्ञानमखिलं स्वस्थचित्तोभवत्तदा॥
ततः सुग्रीवमाहेदं रामो वानरपुंगवम्॥३९॥

भ्रातुर्ज्येष्ठस्य पुत्रेण यद्युक्तं सांपरायिकम्॥
कुरु सर्वं यथा न्यायसंस्कारादि ममाज्ञया॥४०॥

तथेति बलिभिर्मुख्यैर्वानरैः परिणीय तम्॥
बालिनं पुष्पके क्षिप्त्वा सर्वराजोपचारकैः॥४१॥

भेरीदुंदुभिनिर्घोषैर्ब्राह्मणैर्मंत्रिभिः सह॥
यूथपैर्वानरैः पौरैस्तारया चांगदेन च॥४२॥

तत्र अतिविस्मित जो तारासो रामका कहा हुआ सब सुनिकै देहके अभिमानसे उत्पन्न हुआ जो शोक तिसको त्यागिकै और श्रीराम को नमस्कार करकै३६ आत्मज्ञान करके संतुष्टा जीवन्मुक्त होती हुई परमात्मा जो राम रूपी गुरूतिसके एक क्षणमात्र के संगकरके ३७ अनादि काल के बन्धनको नाश करके सब पापों से शुद्धहुई तारा जीवन्मुक्त दशाको प्राप्त की गई और सुग्रीव भी रामचन्द्र के मुख से कहे हुये ज्ञानको सुनिकै ३८ संपूर्ण ज्ञानको त्यागिकै स्वस्थ चित्त होता हुआ तब श्रीराम वानरों में श्रेष्ठजो सुग्रीव तिससे यहवचन बोलते हुये ३९ हे सुग्रीव तेरे ज्येष्ठ भाई का जो परलोक में हितसंस्कार औरदान श्रद्धादि युक्त है तिसकोमेरी आज्ञा शास्त्र के विधि के साथ इसके पुत्र के हाथ से करावो ४० तब सुग्रीव तैसेही अंगीकार करके बड़े बड़ेबली जो मुख्य बानर है तिनकेद्वारा बाली के शरीरको उठवाइके राजों के योग्य जो वस्त्र आभूषण पुष्पमालादिक तिनकरके भूषितकर पुष्पक विमान के तुल्य विमान बनवाके उसपै स्थापनकर ४१ भेरी और नगाड़ा यदि बाजोंको बजाते हुये ब्राह्मण और मंत्री और सेनापति वानर और पुरवासी और तारा और अंगद इनकरक सहित ४२॥

गत्वा चकार तत्सर्वं यथाशास्त्रं प्रयत्नतः॥
स्नात्वा जगाम रामस्य समीपं मंत्रिभिः सह॥४३॥

नत्वा रामस्य चरणौ सुग्रीवः प्राह हृष्टधीः॥
राज्यं प्रशाधि राजेन्द्र वानराणां समृद्धिमत्॥४४॥

दासोहं ते पादपद्मं सेवे लक्ष्मणवच्चिरम्॥
इत्युक्त्वा राघवः प्राह सुग्रीवं सस्मितं वचः॥४५॥

त्वमेवाहं न संदेहः शींघ्रं गच्छ ममाज्ञया॥
पुरराज्याधिपत्ये त्वं स्वात्मानमभिषेचय॥४६॥

नगरं न प्रवेक्ष्यामि चतुर्दश समाः सखे॥
आगमिष्यति मे भ्राता लक्ष्मणः पत्तनं तव॥४७॥

अंगदं यौवराज्ये त्वमभिषेचय सादरम्॥
अहं समीपे शिखरे पर्वतस्य सहानुजः॥४८॥

वत्स्यामि वर्षदिवसान्ततस्त्वं यत्नवान्भव॥
किंचित्कालं पुरे स्थित्वा सीतायाः परिमार्गणे॥४९॥

सुग्रीव श्मशान भूमिमें दाहादि शास्त्र के विधिसे यत्न करके फिर स्नान करके शुद्धहो मन्त्रियों करके सहित रामके समीप जाता हुआ ४३ फिर सुग्रीव प्रसन्नचित्तहो राम के चरणारविन्दों को प्रणामकर के बोलता हुआ कि हे राजेन्द्र यह समृद्धि युक्त वानरों के राज्यको करिये ४४ और मैंतो दास तुम्हारा हौं सो लक्ष्मणके तुल्य आपके चरणारविन्द को बहुतकाल सेवन करोंगा ऐसा जब सुग्रीव ने वचन कहा तब श्रीरामचन्द्र मन्द मुसक्यानकरि वचन बोलते हुये ४५ हें सुग्रीव जो तूहै सो मैंहीहीँ इसमें कुछ संदेह नहीं है इससे तुम

शीघ्रही मेरी आज्ञाकरके जावो पुरराज्य के आधिपत्य में अर्थात् उसके मालिक होने में अपना अभिषेक करावो ४६ और हे मित्र मैं चौदह वर्षतक नगर में प्रवेश नहीं करोंगा परन्तु तेरे नगर में मेरा भाई लक्ष्मण आवैगा ४७ और अंगदको तुम यौवराज्य पदमें आदर पूर्वक अभिषेक करो और मैं समीपही इसपर्वत के शिखर पै लक्ष्मण सहित वास करौंगा ४८ और तुम अभिषेक के अनन्तर कुछकाल अर्थात् वर्षाऋतु के महीने नगर में बासकरि फिर सीता के ढूंढने में यत्न युक्त होउ ४९॥

साष्टांगं प्रणिपत्याह सुग्रीवो रामपादयोः॥
यदा ज्ञापयसे देव तत्तथैव करोम्यहम्॥५०॥

अनुज्ञातस्तु रामेण सुग्रीवस्तु सलक्ष्मणः॥
गत्वा पुरं तथा चक्रे यथा रामेण चोदितः॥५१॥

सुग्रीवेण यथान्याय्यं पूजितो लक्ष्मणस्तथा॥
आगत्य राघवं शीघ्रं प्रणिपत्योपतस्थिवान्॥५२॥

ततो रामो जगामाशु लक्ष्मणेन समन्वितः॥
प्रवर्षणगिरेरूर्ध्वं शिखरं भूरिविस्तरम्॥५३॥

तत्रैकं गह्वरं दृष्ट्वा स्फाटिकं दीप्तिमच्छुभम्॥
वर्षवातातपसहं फलमूलसमीपगम्॥
वासाय रोचयामास तत्र रामः सलक्ष्मणः॥५४॥

दिव्यमूलफलपुष्पसंयुते मौक्तिकोपमजलौघपल्वले॥
चित्रवर्णमृगपक्षिशोभिते पर्वते रघुकुलोत्तमोऽवसत् ५५॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे किष्किन्धाकाण्डे तृतीयः सर्गः ३॥

तब सुग्रीव रामचन्द्रके चरणों में साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करके बोलता हुआ कि हे देव आप जैसे आज्ञा करते हौ तैसे मैं करौंगा ५० अब रामकी आज्ञा को प्राप्त लक्ष्मण सहित जो सुग्रीव सो किष्किन्धानगरी में जाकर तैसे ही सब कृत्य करता हुआ जैसे रामचन्द्रने कहाथा ५१ और उससमय में शास्त्रकी विधि पूर्वक सुग्रीव करके पूजित जो लक्ष्मण सो शीघ्रही रामचन्द्र के समीप आकर स्थितहोते हुये अर्थात् प्राप्तहोते हुये ५२ तब लक्ष्मणकरके सहित जो श्रीरामसो प्रवर्षण नाम पर्वत के ऊपर जो बड़ा विस्तृत एक शिखर तहां जाते हुये ५३ तहां उस पर्वतकी स्फटिकमणियों की प्रकाशयुक्त बड़ी सुन्दर एकगुहा देखकर बासकरने को उसमें लक्ष्मणसहित राम रुचिकरते हुये कैसी वहगुहा है कि जिसमें वर्षा और पवन और घाम ये कोई बाधा न करसके हैं और फल मूल आदि भोजन की सामग्री जिसके समीप ५४ उसपर्वतकी गुहा में लक्ष्मण सहितजो राम हैं सो प्रीतिकरतेहुये अब दिव्यफल मूल पुष्पोंकरके संयुक्त और मोतियों के

के तुल्य है निर्मल जल के समूह जिनमें ऐसे हैं छोटे २ तालाब जिसमें और चित्र विचित्र मृग पक्षियों करके सेवित ऐसा जो पर्वत है तिसपैश्रीरामचन्द्र वास करतेहुये ५५॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे किष्किन्धाकाण्डे भाषाटीकायां तृतीयस्सर्गः ३॥

तत्र वार्षिकदिनानि राघवो
लीलया मणिगुहासु संचरन्॥
पक्कमूलफलभोगतोषितो
लक्ष्मणेन सहितोवसत्सुखम्॥१॥

वातनुन्नजलपूरितमेघा-
नंतरस्तनितवैद्युतगर्भान्॥
वीक्ष्यविस्मयमगाद्गजयूथा-
न्यद्वदाहितसुकांचन कक्षान्॥२॥

नवधासं समास्वाद्य हृष्टपुष्टमृगद्विजाः॥
धावंतः परितो रामं वीक्ष्य विस्फारितेक्षणाः॥३॥

न चलंति सदा ध्याननिष्ठा इव मुनीश्वराः॥
रामं मानुषरूपेण गिरिकाननभूमिषु॥४॥

चरंतं परमात्मानं ज्ञात्वा सिद्धगणा भुवि॥
मृगपक्षिगणा भूत्वा राममेवानुसेविरे॥५॥

सौमित्रिरेकदा राममेकान्ते ध्यानतत्परम्॥
समाधिविरमे भक्त्या प्रणयाद्विनयान्वितः॥६॥

अब्रवीद्देव ते वाक्यात्पूर्वोक्ताद्विगतो मम॥
अनाद्यविद्यासंभूतः संशयो ह्रदि संस्थितः॥७॥

दो०। तुर्य सर्ग में रामने निज पूजा विस्तार॥
कह्योलषणसे पवनसुत पठये कपिमहिसार १॥

अब श्रीमहादेव जी पार्वती से कहते हैं हे पार्वति तिस प्रवर्षणनाम पर्वतपै लक्ष्मण सहित जो श्रीरामचन्द्र सो मणि जिनमें प्रकाश करिरही हैं ऐसी गुहाओॆ में विचरते हुये और पके हुये जो कन्दमूलफल तिनको भोजन करके बड़े संतुष्टहो सुखपूर्वक वासकरतेहुये जबतक वर्षाऋतु रही तबतक १ सोने की भूल पड़ी हैं जिनके ऊपर और गर्जते हुये ऐसे जो हाथियों के समूह तिनके समान पवन के वेग से चलते हुये और जलसे भरेहुये और अनेक बिजुलियां जिनके बीच में शब्दकरती हुई शोभित होरहीं ऐसे काले काले मेघों को देखके रघुनाथजी विस्मय को प्राप्त होते हुये २ अब उस वर्षाऋतु में नवीनघासको चर के बड़े प्रसन्न और पुष्टजो मृग और पक्षी ये चारोंतरफ़ से दौड़ते हुये नेत्रों को खोलके श्रीरामचन्द्र के स्वरूपका दर्शनकर ३ फिर कहीं नहीं जाते हैं जैसे ध्यान लगाये हुये मुनीश्वर एकजगह स्थितहो कहीं न जावें और पर्वतकी भूमियों में विचरते हुये मनुष्यरूप करके रामको ४ परमात्मा जानिकै सिद्धलोग जो हैं तेही पृथिवी में मृग पक्षियोंका रूप धारणकर श्रीरामको सेवन करते हुये ५ अब एक समय एकान्त देशमें ध्यान करते हुये जो राम सो जब ध्यान

से विरतहुये अर्थात् जब बोलने चालने लगे उसलमय में लक्ष्मण नम्रहो बड़ी भक्तिसे रामसे पूछते हुये ६ कि हेदेव पहिले जो आपने वचन मुझसे कहे थे तिनकरके अनादि अविद्यासे उत्पन्न हुआ जो मेरे हृदय का संशयसो दूर हुआ ७

इदानीं श्रोतुमिच्छामि क्रियामार्गेण राघव॥
भवदाराधनं लोके यथा कुर्वन्ति योगिनः॥८॥

इदमेव सदा प्राहुर्योगिनो मुक्तिसाधनम्॥
नारदोपि तथा व्यासो ब्रह्मा कमलसंभवः॥९॥

ब्रह्मक्षत्रादिवर्णानामाश्रमाणां च मोक्षदम्॥
स्त्रीशूद्राणां च राजेन्द्र सुलभं मुक्तिसाधनम्॥
तव भक्ताय मे भ्रात्रे हि लोकोपकारकम्॥१०॥

श्रीराम उवाच॥

मम पूजा विधानस्य नांतोस्ति रघुनन्दन॥
तथाऽपि वक्ष्ये संक्षेपाद्यथावदनुपूर्वशः॥११॥

स्वगृह्योक्तप्रकारेण द्विजत्वं प्राप्य मानवः॥
सकाशात्सद्गुरोमंत्रं लब्ध्वा मद्भक्तिसंयुतः॥१२॥

तेन संदर्शितविधिर्मामेवाराधयेत्सुधीः॥
हृदये वानले वार्चेत्प्रतिमादौ विभावसौ॥१३॥

शालग्रामशिलायां वा पूजयेन्मामतंद्वितः॥
प्रातःस्नानं प्रकुर्वीत प्रथमं देहशुद्धये॥१४॥

अब इससमय में कर्म मार्ग करके जैसे योगीजन आपका पूजन करते हैं उस विधानको सुनां चाहताहों - और इसी क्रियायोग करके आपके आराधनको मुक्तिका साधन योगीजन कहते हैं नारद और व्यास और ब्रह्माजी ९ और हे राम यह आपका पूजन ब्राह्मण क्षत्रिय आदि बर्णेको और ब्रह्मचारी यदि आश्रमियों को मोक्षका देनेवाला है अर्थात् मोक्षका साधन है और स्त्री शूद्रों को भी सुलभ है और मुक्तिका साधन है सो हे राजेन्द्र यहजो सबलोकोंका उपकारक आपका पूजन है तिसको तुम्हारा भक्त और भाई जो मैं हौं तिसके अर्थ कृपाकरके कहिये १० अब श्रीरामचन्द्र लक्ष्मण से कहते हुये कि हे लक्ष्मण मेरी पूजाके विधानका अन्त तो है नहीं तोभी संक्षेप से क्रमपूर्वक कहताहों ११ अपने गृह्यसूत्र के प्रकार के अर्थात् जिसकी जो वेदकी शाखा है उसके अनुसार कर्म करने को उस शाखा के पढ़ानेवाले ऋषिने अपने रचेहुये सूत्रों में जैसा कुछ गर्भाधानादि संस्कारोंका विधान कहा है तिलरीति करके यज्ञोपवीत के संस्कार प्राप्तहोकर फिर भक्तियुक्त होके सद्गुरुसे मेरे मन्त्रको प्राप्त होके १२ उन गुरुके कहे हुये विधान से मेरा पूजन करै तिसमें चाहे हृदय में ध्यानकरके मानसीपूजन करै अथवा अग्नि में हवनादि करके मेरा पूजन करै अथवा प्रतिमा में आवाहनादि पूर्वक अर्घ्यादि करके पूजन करै अथवा सूर्य में वेदके उपस्थानादि मंत्रों करके पूजन करै १३ अथवा शालग्राम की शिला में आलस्यरहित पूजन करै तहां प्रथम देहकी शुद्धि के लिये प्रातः काल स्नान करै १४॥

वेदतंत्रोदितैर्मंत्रैर्मृल्लेपन विधानतः॥
संध्यादि कर्मयन्नित्यं तत्कुर्यद्विधिना बुधः॥१५॥

संकल्पमादौ कुर्वीत सिद्ध्यर्थं कर्मणां सुधीः॥
स्वगरुं पूजयेद्भक्त्या मद्बुद्ध्या पूजको मम॥१६॥

शिलायां स्नपनं कुर्यात्प्रतिमासु प्रमार्जनम्॥
प्रसिद्धैर्गंधपुष्पाद्यैर्मत्पूजा सिद्धिदायिका॥१७॥

अमायिकोऽनुवृत्त्या मां पूजयेन्नियतव्रतः॥
प्रतिमादिष्वलंकारः प्रियो मे कलनन्दन॥१८॥

अग्नौ यजेत हविषा भास्करे स्थंडिले यजेत्॥
भक्तेनोपहृतं प्रीत्यै श्रद्धया मम वार्यपि॥१९॥

किं पुनर्भक्ष्यभोज्यादि गंधपुष्पाक्षतादिकम्॥
पूजाद्रव्याणि सर्वाणि संपाद्यैवं समारभेत्॥२०॥

चैलाजिनकुशैः सम्यगासनं परिकल्पयेत्॥
तत्रोपविश्य देवस्य सम्मुखे शुद्धमानसः॥२१॥

वेदके मन्त्रों करके और तन्त्रशास्त्र के मन्त्रों करके पहिले शरीर में मृत्तिका का लेपन करै तिस के उपरान्त स्नान करैफिर संध्योपासनादि नित्यकर्म करै १५ फिर जो कर्म किया चाहता है तिसकी सिद्धिके अर्थ संकल्प करे फिर मेरी बुद्धि करके अपने गुरुका पूजन करे और गुरु समीप न होवै तौ ध्यानकरके जल आदिकों में पूजन करे १६ तिसमें शिलानिर्मित जो प्रतिमाहै तिसमें स्नानादिक सब अंग करके पूजन करे और चित्र प्रतिमाओं में तौ स्नान नहीं संभव होता इससे हाथ से पोंछकैशृङ्गारादिक करे और जो जो गन्धपुष्प वैष्णव ग्रन्थोंमें कहे हैं तिन करके पूजा सिद्धि की देनेवाली होती है १७ और कपट दम्भ घादि दोषों से रहित होके गुरूने जो मार्ग बतलाया है तिस करके भक्ति श्रद्धा सहित नित्य मेरा पूजन करें और हे लक्ष्मण प्रतिमानों में पुष्प आदि भलंकारों करके पूजन मुझको अति प्रियहै १८ और अग्नि में घृतकर के मेरा पूजन करे और वेदी बनाके उसमें सूर्य कासा आकार बनाके इसप्रकार सूर्य में मेरा पूजनकरे और भक्तियुक्त पुरुष प्रीति करके और श्रद्धाकरि जल भी मेरे अर्थ समर्पण करै तौ बहुत हो जाता है १९ भोर भक्ष्यभोज्य आदि सामग्री प्रीतिकर के देवैतौ क्या कहना इससे भक्तिही मेरे परितोष मुख्य कारण है यह सूचित किया है और सब पूजा की सामग्री अपने पास रखले तौ मेरे पूजनका प्रारम्भकरै २० और सबसे नीचे कुशासन बिछावै तिसके ऊपर मृगचर्म फिर तिसके ऊपर वस्त्र बिछावै ऐसा आसन कल्पनाकर तिसके ऊपर शुद्धमन होकर प्रतिमा के सम्मुख बैठे २१॥

ततो न्यासं प्रकुर्वीत मातृकावहिरांतरम्॥
केशवादि ततः कुर्यात्तत्त्वन्यासंततः परम्॥२२॥

मन्मूर्त्तिपंजरंन्यासं मंत्रन्यासं ततो न्यसेत्॥
प्र

तिमादावपि तथा कुर्य्यान्नित्यमतंद्रितः॥२३॥

कलशं स्वपुरो वामे क्षिपेत्पुष्पादि दक्षिणे॥
अर्घ्यपाद्यप्रदानार्थं मधुपर्कार्थमेव च॥२४॥

तथैवाचमनार्थं तु न्यसेत्पात्रचतुष्टयम्॥
हृत्पद्मे भानुविमले मत्कलां जीवसंज्ञिताम्॥२५॥

ध्यायेत्स्वदेहमखिलं तया व्याप्तमरिंदम॥
तामेवावाहयेन्नित्यं प्रतिमादिषु मत्कलाम्॥२६॥

पाद्यार्घ्याचमनीयाद्यैः स्नानवस्त्रविभूषपैः॥
यावच्छक्त्योपचारैर्वा त्वर्चयेन्माममायया॥२७॥

विभवे सति कर्पूरकुंकुमागरुचन्दनैः॥
अर्चयेन्मंत्रवन्नित्यं सुगंधकुसुमैः शुभैः॥२८॥

फिरशररिकी शुद्धिकेलिये और रक्षाके अर्थ प्रथममातृका वर्णोंकरके अर्थात् ओप्रोनम में प्रसिद्ध जो अकारादि पचासत्रक्षर हैं तिनकरके मंत्रशास्त्रकीरीति से अपने सबअंगों में न्यासकरै फिर केशवआदि मेरेनामोंकरके न्यासकरके फिर तत्त्वन्यासकरके २२ फिर विष्णुपंजरस्तोत्र में जैसे न्यास और कवचकी विधि है तिसकोकरैफिर इष्टमंत्रकरके षडंगन्यासकरै इसीतरह से प्रतिमा में भी सावधान होके न्यासकरै २३ और अपने बायेंतरफ सम्मुख जल से भरा हुआ कलश स्थापन करैऔर अपने दहिने तरफ पुष्प आदि सामग्री रक्खै और अर्घ्य और पाद्य और मधुपर्क और आचमन इनके लिये २४ चारिपात्र सम्मुखस्थापनकर फिर अपने हृदयरूपी कमल में सूर्य के सदृशप्रकाशमान जीव है नाम जिसका ऐसी मेरी कला का ध्यानकरै २५ फिर उस तेजकर के अपना सब देह व्याप्तहोरहा है ऐसा ध्यान करके अर्थात् सर्वव्यापक मेरे स्वरूपका ध्यान करै फिर उसी प्रकाशरूपका प्रतिमामें ध्यानकरके आवाहन करै अर्थात् प्रतिमामें चेतनरूपहीका ध्यानकरके भावकरै जड़भाव न करै २६ फिर पाद्यर्थ्य आचमनीयादि करके और स्नान वस्त्र विभूषणादिकरके जैसी अपनी शक्तिहोवै तैसे प्रकारोंकर के मे पूजन करै परन्तु कपट करके पूजन न करै अर्थात् दंभकरके पूजन न करें दंभ उसे कहते हैं जहां औरों को दिखानेही को तो पूजन करे और भीतर से कुछ श्रद्धा न होय २७ और जो ऐश्वर्यहोय तौ केसरि कर्पूर चन्दन कस्तूरी और बड़े सुगन्धके पुष्पों करके पूजनकरै नित्य जैसा जिसका मन्त्र है तिस करके २८॥

दशावरणपूजां वै ह्यागमोक्तां प्रकारयेत्॥
नीराजनैर्धूपदीपनैर्वेद्यैर्बहुविस्तरैः॥२९॥

श्रद्धयोपहरेन्नित्यं श्रद्धामुगहमीश्वरः॥
होमं कुचत्प्रयत्नेन विधिना मंत्र कोविदः॥३०॥

अगस्त्येनोक्तमार्गेण कुंडेनागमवित्तमः॥
जुहुयान्मूलमन्त्रेण पुंसूक्तेनाथवा बुधः॥३१॥

अथवोपासनाग्नौ वा

         चरुणा हविषा तथा॥  

तप्तजांबूनदप्रख्यं दिव्याभरणभूषितम्॥३२॥

ध्यायेदनलमध्यस्थं होमकाले सदा बुधः॥
पार्षदेभ्यो बलिं दत्त्वा होमशेषं समापयेत्॥३३॥

ततो जपं प्रकुर्वीत ध्यायन्मां यतवाक्स्मरन्॥
मुखवासं च ताम्बूलं दत्त्वा प्रीतिसमन्वितः॥३४॥

मदर्थे नृत्यगीतादिस्तुतिपाठादि कारयेत्॥
प्रणमेद्दण्डवद्भूमौ हृदये मां निधाय च॥३५॥

और जैसे अगस्त्य संहिता में दश आवरणों की पूजाकही है तिसकोकरे और धूपदीपनैवेद्य और नीराजनादि करके पूजनकरै तिसमें नीराजननाम पांच बत्ती की धारती को कहते हैं २९ परन्तु जो वस्तु मेरे अर्थ समर्पणकरै उसको श्रद्धाहीकर केकरे जिससे बिना श्रद्धाका मैं ग्रहण नहीं करताहीं फिर मन्त्र के जाननेमें प्रवीणपुरुष विधिपूर्वक होमकरै ३० अगस्त्य संहिता में जैसे कुंड की विधिकही है तिसरीतिके कुण्ड में मूल मन्त्रकरके अर्थात् गुरुने जो मन्त्रदिया है तिसकरके अथवा पुरुष सूक्तके मन्त्रोंकरके हवनकरै ३१ अथवा अग्निहोत्रही के कुंडकी अग्नि में चरुकरके वा घृतकरके हवनकरै चोर जिससमय में हवन करै उस समय में अग्नि में तचाया हुआ जो सुवर्ण तिसके तुल्यवर्ण जिसका और दिव्य आभूषणों करके भूषित ३२ ऐसा अग्निके मध्य में स्थित जो मैं हौं तिसिका सदा ध्यानकरै अर्थात् भगवत्स्वरूप का ध्यान करके आहुतीको डाले फिर हनुमानको आदि लेके जो पार्षद तिनको बलिदेवै फिर जो होमरहा है उसको समाप्तकरै ३३ तिसके उपरांत मेराध्यान करता हुआ मौनहोके जपकरै परन्तुमेरा स्मरण करतार है फिर प्रीतियुक्तहोके इलायची लवंग इत्यादि सुगंध द्रव्य युक्त ताम्बूल मुझकोदेके ३४ मेरे अर्थ नृत्य गीत आदि करवाके स्तोत्रकापाठ करै फिर हृदय में मेरा ध्यान करता हुआ पृथिवी में दण्डवत् प्रणाम करै ३५॥

शिरस्याधाय मद्दत्तं प्रसादं भावनामयम्॥
पाणिभ्यां मत्पदे मूर्ध्नि गृहीत्वा भक्तिसंयुतः॥३६॥

रक्ष मां घोरसंसारादित्युक्त्वा प्रणमेत्सुधीः॥
उद्वासयेद्यथापूर्वं प्रत्यग्ज्योतिषि संस्मरन्॥३७॥

एवमुक्तप्रकारेण पूजयेद्विधिवद्यादि॥
इहामुत्र च संसिद्धिं प्राप्नोति मदनुग्रहात्॥३८॥

मद्भक्तो यदि मामेव पूजां चैव दिने दिने॥
करोति मम सारूप्यं प्राप्नोत्येव न संशयः॥३९॥

इदं रहस्यं परमं च पावनं
मयैव साक्षात्कथितं सनातनम्॥
पठत्यजस्रं यदि वा शृणोति यः
स सर्वपूजाफलभाङ् न संशयः॥४०॥

एवं परात्मा श्रीरामः क्रियायोगमनुत्तमम्॥
पृष्टः प्राह स्वभक्ताय शेषांशाय महात्म

                   ने॥४१॥

पुनः प्राकृतवद्रामो मायामालंब्य दुःखितः॥
हा सीतेति वदन्नैव निद्रां लेभे कथंचन॥४२॥

फिर ध्यान मार्ग करके मैंने दिया जो प्रसाद है तिसको शिरके ऊपर धारण करके फिर भक्तिसंयुक्त पुरुष अपने हाथोंकरके मेरे चरणों को शिर धारण करे ३६ हे भगवन् इस घोर संसार से मेरी रक्षाकरिये यह कहिकै प्रणाम करें फिर जिस हृदयस्थ ज्योतिस्स्वरूप से प्रतिमामें मेरेस्वरूपका आवाहन किया था उसी हृदय में स्थित जो रूप तिसमें प्रतिमाकी ज्योति मिलगई ऐसा ध्यानकरे इसीको विसर्जन कहते हैं ३७ इस पूर्वोक्त प्रकार करके जो विधिपूर्वक पूजनकरे तो मेरी अनुग्रहसे इस लोककी और परलोक की सिद्धि को प्राप्तहोता है ३८ इस प्रकार दिनदिन जो मेराभक्त पूजन करता है सो मेरेही समान रूपको प्राप्तहोता है इसमें कुछ संशय नहीं है ३९ यह मैंने साक्षात् कहा परमपवित्र और सनातन और प्रतिरहस्य जो पूजनका विधान तिसको निरन्तर जो पढ़ता है व सुनता है सोभी संपूर्ण पूजन के फलका भागी होता है इसमें कुछ संशय नहीं है ४० इस प्रकार करके परमात्माजी श्रीरामचन्द्र सो परम श्रेष्ठ लक्ष्मणने पूछाजो क्रियायोग तिसको अपने भक्तमहात्मा लक्ष्मण के अर्थ कहते हुये ४१ फिरप्राकृत मनुष्य के तुल्य श्रीरामचन्द्र मायाको आश्रयण कर दुःखित हो हासी हासीते ऐसे कहते हुये कैसेई निद्राको न प्राप्त होते हुये ४२॥

एतस्मिन्नन्तरे तत्र किष्किंधायां सुबुद्धिमान्॥
हनूमान् प्राह सुग्रीवमेकान्ते कपिनायकम्॥४३॥

शृणु राजन्प्रवक्ष्यामि तवैव हितमुत्तमम्॥
रामेण ते कृतः पूर्वमुषकारोह्यनुत्तमः॥४४॥

कृतघ्नवत्त्वया नूनं विस्मृतः प्रतिभाति मे॥
त्वत्कृते निहतो बाली वीरस्त्रैलोक्यसम्मतः॥४५॥

राज्ये प्रतिष्ठितोसि त्वं तारां प्राप्तोसि दुर्लभाम्॥
स रामः पर्वतस्याग्रे भ्रात्रा सह वसन्सुधीः॥४६॥

त्वदागमनमेकाग्रमीक्षते कार्यगौरवात्॥
त्वं तु वानरभावेन स्त्रीसक्तो नावबुद्ध्यसे॥४७॥

करोमीति प्रतिज्ञाय सीतायाः परिमार्गणम्॥
न करोषि कृतघ्नस्त्वं हन्यसे बालिवद्द्रुतम्॥४८॥

हनूमद्वचनं श्रुत्वा सुग्रीवो भयविह्वलः॥
प्रत्युवाच हनूमंत सत्यमेव त्वयोदितम्॥४९॥

अब उसीसमय किष्किन्धा नगरीमें बड़े बुद्धिमान् जो हनुमान् सो एकांत देशमें स्थित जो बानरोंके राजा सुग्रीव तिससे यह कहते हुये ४३ कि हेराजन् तुम्हारा परमहित मैं कहताही तिसको सुनिये श्रीरामने बड़ा श्रेष्ठ उपकार तुम्हारा पहिलेही किया है ४४ सो कृतघ्नकी तरह उपकारको तुम भूलिगये

ऐसा मुझको मालूम पड़ता है देखिये तुम्हारे अर्थ तीनों लोक में प्रसिद्ध बड़ा वीर वाली रामने मारा ४५ और तुम राज्य में स्थितहुये और जिस रामकी कृपासे प्रति दुर्लभ ताराको प्राप्त हुये सो राम भाई करके सहित पर्वत के शिखर मैं वास करते हुये ४६ अपने कार्यकी गुरुतासे अर्थात् सीता की खबर के कारण से तुम्हारे आगमन की इच्छाकर रहे हैं और तुम तो वानर जातिके स्वभाव से स्त्री में आसक्त होके कुछ नहीं जानते हो ४७ रामचन्द्रके आगे सीताको मैं देवगा यह प्रतिज्ञा करके और अब कृतघ्नकी तरह उसकार्य को नहीं करते इससे वाली की तरह निश्चय करके तुम मारे जावोगे ४८ तब यह हनुमान् का वचन सुनिकै अति भय करके बिल अर्थात् व्याकुल जो सुग्रीव सो हनुमान् से कहता हुआ कि हे हनुमन् जो तुमने कहा सो ऐसे ही है इसमें कुछ मिथ्या नहीं ४९॥

शीघ्रं कुरु मदाज्ञां त्वं वानराणां तरस्विनाम्॥
सहस्राणि दशेदानीं प्रेषयाशु दिशो दश॥५०॥

सप्तद्वीपगतान्सर्वान्वानरानानयंतु ते॥
पक्षमध्ये समायांतु सर्वे वानरपुंगवाः॥५१॥

ये पक्षमतिवर्तंते बध्यामेन तु संशयः॥
इत्याज्ञाप्य हनूमंतं सुग्रीवो गृहमाविशत्॥५२॥

सुग्रीवाज्ञां पुरस्कृत्य हनूमान्मंत्रिसत्तमः॥
तत्क्षणे प्रेषयामास हरीन्दश दिशः सुधीः॥५३॥

अगणितगुणसत्वान्वायुवेगप्रचारान्
वनचरगणमुख्यान् पर्वताकाररूपान्॥
पवनहितकुमारः प्रेषयामास दूता-
नतिरभसतरात्मा दानमानादितृप्तान्॥५४॥

इति श्रीमदभ्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे किष्किन्धाकाण्डे चतुर्थः सर्गः ४॥

अब तुम शीघ्रही मेरी आज्ञाको करो बड़े वेगयुक्त दशहजार वानरोंको दश दिशाओं में शीघ्रही इसी समय में भेजो ५० वेसब सातों द्वीपों में जहां जहां वानर है तिन सबको ल्यावैं और एक पक्षके भीतर सब वानर आवें ५१ और जे पक्ष के भीतर अर्थात् पन्द्रह दिन के भीतर लौटिकै नहीं आवै तिनको मैं मरवाइडालोंगा इसमें कुछ संशय नहीं है ऐसी हनुमान को आज्ञा करके सुग्रीव गृहमें प्रवेश करता हुआ ५२ अब मन्त्रियों में श्रेष्ठ जो हनुमान् सो सुग्रीव की आज्ञाको मान के उसी समय में दशों दिशाओं में वानरोंको भेजता हुआ जिससे बढ़ा बुद्धिमान् रहा ५३ अगणित अर्थात् नहीं गिनती में शासके ऐसे गुण और पराक्रम जिनके और पवन के वेग के तुल्य है गति जिनकी और पर्वत के आकार स्वरूप जिनका और दानमान करके तृप्त हुये अर्थात् अति प्रसन्न हो

रहे हैं ऐसे जो वानरों के समूह में मुख्यदूत तिनको पवनका प्रतिप्रियपुत्र और राम के कार्य में शीघ्रता जिसको ऐसा हनुमान भेजता हुआ ५४॥

इति श्रीमद्न्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे किष्किन्धाकाण्डे भाषाटीकायां चतुर्थः सर्गः ४॥

रामस्तु पर्वतस्याग्रे मणिसानौ निशामुखे॥
सीताविरहजं शोकमसहन्निदमब्रवीत्॥१॥

पश्य लक्ष्मण मे सीता राक्षसेन हृता बलात्॥
मृतामृता वा निश्चेतुं न जानेद्यापि भामिनीम्॥२॥

जीवतीति मम ब्रूयात्कश्चिद्वा प्रियकृत्स मे॥
यदि जानामि तां साध्वीं जीवंतीं यत्र कुत्र वा॥३॥

हठादेवाहरिष्यामि सुधामिव पयोनिधेः॥
प्रतिज्ञां शृणु मे भ्रातर्येन मे जनकात्मजा॥४॥

नीता तं भस्मसात्कुर्यां सपुत्रबलवाहनम्॥
हे सीते चंद्रवदने वसंती राक्षसालये॥५॥

दुःखार्त्ता मामपश्यन्ती कथं प्राणान्धरिष्यसि॥
चंद्रोपि भानुवद्भाति मम चंद्राननां विना॥६॥

चंद्रत्वं जानकीं स्पृष्ट्वाकरैर्मा स्पृश शीतलैः॥
सुग्रीवोऽपि दयाहीनो दुःखितं मां न पश्यति॥७॥

दो०। क्रोधयुक्त लखि लषणको सर्ग पांचवें माहिं॥
बहुसुग्रीव प्रबोधकरि आयो रघुबर पाहिं१

अब श्रीमहादेवजी पार्वती जीसे कथा वर्णनकरें हैं हे पार्वति अब रामचन्द्र जी तौ मणियों करके प्रकाशित उस प्रवर्षण नाम पर्वत के शिखर पै सन्ध्या समय में सीता के विरह से उत्पन्न हुआ जो शोक तिसको नहीं सहते हुये यह वचन लक्ष्मण से बोलते हुये १ कि हे लक्ष्मण देखो मेरी सीता राक्षसने जबरदस्ती हरिली सो इस समय में मर गई वा जीवती है यह मैं निश्चय करने को अभीतक नहीं समर्थ हौं २ जो कोई सीताको जीवती कहै सो मोको अत्यन्त प्रिय है और हे लक्ष्मण जो कदाचित उस पतिव्रता सीताको मैं जीवती हुई जहां कहीं जानौं ३ तो जैसे समुद्र से अमृत निकाला गया है तैसे सीताको भी बलसे मैं ल्यावोंगा और हे भाई मेरी प्रतिज्ञा को तुम सुनो जिसने मेरी सीताहरी है उसको मैं पुत्र चौ सेना और हाथी घोड़े इन करके सहित भस्म करोंगा ऐसा कहिकै विलाप करते हुये हा सीते हा चन्द्रवदने तू राक्षस के मन्दिर में बसती हुई ५ और मुझको नहीं देखती इसीसे बड़े दुःख करके पीड़ित कैसे प्राणों को धारण करेगी और चन्द्रमा के तुल्य है मुखजिसका ऐसी जो तू है तिसके बिना चन्द्रमा भी मुझको सूर्य के तुल्य सन्ताप इससमय करता है ६ और चन्द्र तुम अपनी शीतल किरणोंकर के सीताको स्पर्श करके मुझ को स्पर्श करो और इससमय में दयाहीन सुग्रीव भी दुःखित मुझको नहीं देखता ७

राज्यं निष्कण्टकं प्राप्य स्त्रीभिः परिवृतो रहः॥
कृतघ्नो दृश्यते व्यक्तं पानासक्तोऽतिकामुकः॥८॥

नायाति शरदं पश्यन्नपि मार्गयितुं प्रियाम्॥
पूर्वोपकारिणं दुष्टः कृतघ्नो विस्मृतो हि माम्॥९॥

हन्मि सुग्रीवमप्येवं सपुरं सह बांधवम्॥
बाली यथा हतो मेऽद्य सुग्रीवोपि तथा भवेत्॥१०॥

इति रुष्टं समालोक्य राघवं लक्ष्मणोब्रवीत्॥
इदानीमेव गत्वाहं सुग्रीवं दुष्टमानसम्॥११॥

मामाज्ञापय हत्वा तमायास्ये राम तेंतिकम्॥
इत्युक्त्वा धनुरादाय खड्गं तूणीरमेव च॥१२॥

गन्तुमभ्युद्यतं वीक्ष्य रामो लक्ष्मणमब्रवीत्॥
न हन्तव्यस्त्वया वत्स सुग्रीवो मे प्रियः सखा॥१३॥

किन्तु भीषय सुग्रीवं बालिवन्न हनिष्यसे॥
इत्युक्त्वा शीघ्रमादाय सुग्रीवं प्रति भाषितम्॥१४॥

और सुग्रीव निष्कण्टक राज्यको प्राप्तहोके स्त्रियों करके सहित मदिराका पान करके रमण कररहा है और इससमय में दुःखित मुझको नहीं देखता इससे वह कृतघ्नकी नाई दिखाई पड़ता है ८ सो सुग्रीव शरद ऋतु को प्राप्त देख कर के भी सीता के ढूंढने को नहीं भाता है इससे वह दुष्ट कृतघ्न सुग्रीव पहिले उपकार करने वाला जो मैं हौं तिसको निश्चयकर भूलिगया ९ और हे लक्ष्मण नगर और बांधव करके सहित सुग्रीव को मैं मारोंगा जो कदाचित् सही सही भूलिगया होगा तो बाली जैसे मेरे बाणसे मारा गया है तैसे सुग्रीव भी होजायगा १० अब लक्ष्मण ऐसे क्रोधयुक्त राम को देखके बोलते हुये कि हे राम इसी समय में जाकर दुष्टात्मा सुग्रीव को मारके आपके समीप प्राप्त करताहौं मुझको आप आज्ञाकरिये ११ ऐसा कहिकै धनुष औ खड्ग और तरकस लैकै जाने को उद्यत अर्थात् तैयार जो लक्ष्मण तिस को देखिकै राम बोलते हुये १२ कि हे लक्ष्मण जिस कारण से सुग्रीव मेरा प्रिय सखाहै इससे तुमको नहीं मारना चाहिये १३ क्या तो बालीकी तरह तू भी मारा जायगा ऐसे वचन कहिकै केवल भय उत्पन्न करावो अर्थात् डरपाना चाहिये और हे लक्ष्मण इसप्रकार मेरा वचन सुग्रीव से कहिकै सुग्रीव जो कहै तिस सन्देशे को मेरेपास प्राप्त करो १४॥

आगत्य पश्चाद्यत्कार्यं तत्करिष्याम्यसंशयम्॥
तथेति लक्ष्मणो गच्छ त्त्वरितो भीमविक्रमः॥१५॥

किष्किन्धां प्रति कोपेन निर्दहन्निव वानरान्॥
सर्वज्ञो नित्यलक्ष्मीको विज्ञानात्मापि राघवः॥१६॥

सीतामनुशुशोचार्तः प्राकृतः प्राकृतामिव॥
बुद्ध्यादिसाक्षिणस्तस्य मायाकार्यातिवर्तिनः॥१७॥

रागादिरहितस्यास्य तत्कार्यकथमुद्भवेत्॥
ब्रह्मणोक्तमृतं कर्त्तुं रा-

        ज्ञो दशरथस्य हि॥१८॥

तपसः फलदानाय जातो मानुषवैषधृक्॥
मायया मोहितास्सर्वे जना अज्ञानसंयुताः॥१९॥

कथमेषां भवेन्मोक्ष इति विष्णुविचितयन्॥
कथां प्रथयितं लोके सर्वलोकमलापहाम्॥२०॥

रामायणाभिधा रामोभूत्वा मानुषचेष्टकः॥
क्रोधं मोहं च कामं च व्यवहारार्थसिद्धये॥२१॥

तिसके उपरान्त जो कुछ मुझको करना होगा सो मैं करोंगा अबतैसेही लक्ष्मण रामकी आज्ञा से शीघ्रही किष्किन्धानगरी को जाते हुये १५ बड़े बल युक्त जालक्ष्मण सो कोपकरिके मानों सब वानरों को भस्म करि देवेंगे ऐसे रूप करके जाते हुये अब पार्वती प्रश्न करती हैं कि नित्य लक्ष्मी करके युक्त और सर्वज्ञ और विज्ञान स्वरूप भी राम हैं सो प्राकृत अर्थात् संसारी पुरुष जैसे संसारकी स्त्रीको शोचें तैसे दुःख करके पीड़ितहोके शोचते हुये १६ और जो बुद्धि आदिकों का साक्षी और मायाकार्य का उल्लंघन करने वाला १७ अर्थात् बुद्धि आदि वृत्तियों करके नहीं स्पर्श किया गया इसीसे रागद्वे पादि दोषों करके रहित जो श्रीराम तिसको मायाकार्य शोकयादिकों से सम्बन्ध कैसे हुआ तिसकासमाधान महादेवजी कहते हैं कि हे पार्वति ब्रह्मा के बचनको सत्य करनेको और राजादशरथके तपका फल देनेके लिये १८ श्रीराम मनुष्य रूपको धारण करतेहुये प्रकट हुये सो विष्णु भगवान् यह विचार करते हुये कि सनमनुष्य अज्ञानयुक्त मेरी मायाकरके मोहित हो रहे हैं १९ इन सबका मोक्ष कैसे होय ऐसा विचार करते हुये और सब मनुष्यों के पाप नाशकरनेवाली जो अपनी कथा रामायण तिलको लोक में विस्तार करनेको मनुष्य बेषको धारण किये रामहोके व्यवहार की सिद्धिके अर्थ तौन तौन कालमें उचित जो कामक्रोध मोह तिसको ग्रहण करते हुये २०। २१॥

तत्तत्कालोचितगृह्णन्मोहयत्यवशाः प्रजाः॥
अनुरक्त इवाशेषगुणेषु गुणवर्जितः॥२२॥

विज्ञानमूर्तिर्विज्ञानशक्तिः साक्ष्यगुणान्वितः॥
अतः कामादिभिर्नित्यमविलिप्तो यथा नभः॥२३॥

विंदंति मुनयः केचिज्जानंति सनकादयः॥
तद्भक्ता निर्मलात्मानः सम्यक्जानंति नित्यदा॥२४॥

भक्तचित्तानुसारेण जायते भगवानजः॥
लक्ष्मणोऽपि तदा गत्वा किष्किन्धानगरान्तिकम्॥२५॥

ज्याघोषमकरोत्तीव्रम्भीषयन् सर्ववानरान्॥
तं दृष्ट्वाप्राकृतास्तत्र वानरा वप्रमूर्द्धनि॥२६॥

चक्रुः किलकिलाशब्दंधृतपाषाणपादपाः॥
तान्दृष्ट्वा क्रोधताम्राक्षो वानरान् लक्ष्मणस्तदा॥२७॥

निर्मूलान् कर्त्तुमुद्युक्तो धनुरानम्य वीर्यवान्॥
ततः शीघ्रं समापत्य ज्ञात्वा लक्ष्मणमागतं॥२८॥

औरे गुणोंके आधीन जो प्रजा हैं तिनको मोहयुक्त करते हुये गुणों करके रहित भी आपही हैं परन्तु मायाके गुणों में प्रीति युक्त की तरह प्रतीत हो रहे हैं २२ और विज्ञानही है मूर्त्ति जिसकी और विज्ञानही शक्ति हैं जिसकी और जिस कारणसे साक्षी है और निर्गुणहै इससे कामादिकों करके कभी राम लिप्त नहीं होते जैसे आकाश मेघादिकों करके लिप्त न होवे तैसे २३ और कोई मुनीश्वर इसप्रकार रामको श्रुतियों करके जानते हैं और सनकादिक साक्षात् समाधि करके देखते हैं और निर्मल अन्तःकरण जिनका ऐसे जो राम भक्तहैं तै नित्यही रामको जानते हैं २४ और भक्तोंके चित्तके अनुसारसे भंगवाद तैसा तैसा होता है अर्थात् भक्तलोग जैसा जैसा परमात्मा का ध्यान करतेहैंतैसा तैसाही वहहो जाता है अब लक्ष्मण भी किष्किन्धानगर के समीप जाकर २५ सब वानरोंको भय युक्त करते हुये बड़ा कठोरे धनुषके प्रत्यंचाका अर्थात् रोदेका शब्द करते हुये तिन लक्ष्मणको आते देख कर के शहर पनाह के ऊपर खड़े हुये २६ जे हजारों वानरते बड़ी बड़ी शिलाओंको हाथ में उठाकर अपनी जातिका घोर शब्द करते हुये उस समय में उन वानरों को देख के लाल हैं नेत्र क्रोध करके जिन के ऐसे जोड़े पराक्रम युक्त लक्ष्मणजी २७ सो वानरों के नाश करने को धनुष खैंचके स्थित होते हुये उसी समय में वानरोंमें श्रेष्ठ जो अंगद सो लक्ष्मण जी को प्राप्त जानकै २८॥

निर्वार्य वानरान् सर्वानंगदो मंत्रिसत्तमः॥
गत्वा लक्ष्मणसामीप्यं प्रणनाम स दंडवत्॥२९॥

ततोंगदं परिष्वज्य लक्ष्मणः प्रियवर्द्धनः॥
उवाच वत्स गच्छ त्वं पितृव्याय निवेदय॥३०॥

मामागतं राघवेण चोदितं रौद्रमूर्तिना॥
तथेतित्वरितं गत्वा सुग्रीवायन्यवेदयत्॥३१॥

लक्ष्मणः क्रोधताम्राक्षः पुरद्वारि बहिःस्थितः॥
तच्छ्रुत्वातीव संत्रस्तः सुग्रीवो वानरेश्वरः॥३२॥

आहूय मंत्रिणां श्रेष्ठं हनुमंतमथाऽब्रवीत्॥
गच्छ त्वमंगदेनाशु लक्ष्मणं विनयान्वितः॥३३॥

सांत्वयन्कोपितं वीरं शनैरानय मंदिरम्॥
प्रेषयित्वा हनूमंतं तारामाह कपीश्वरः॥३४॥

त्वं गच्छ सांत्वयंती तं लक्ष्मणं मृदुभाषितैः॥
शांतमन्तःपुरं नीत्वा पश्चाद्दर्शय मेनघे॥३५॥

अपने वानरोंको वारण करके लक्ष्मण के समीप जाके दण्डवत् प्रणाम करता हुआ २९ तिसके उपरान्त भक्तों के ऐश्वर्य बढ़ानेवाले जो लक्ष्मण सो अंगद को हृदय से लगाकर बोलते हुये कि हे अंगद तुम अभी सुग्रीवसे खबरि करौ ३० कि क्रोधयुक्त भयंकर मूर्त्ति जो राम तिनके भेजे लक्ष्मण आये हैं तब तैसेही

जाकर अंगद सुग्रीवसे कहता हुआ ३१ कि हे राजन् क्रोध करके लाल हैं नेत्र जिनके ऐसे जो लक्ष्मण सो पुरके दरवाजे पै बाहर स्थितहो रहे हैं यह अंगद के वचन सुनिकै वानरों का राजा जो सुग्रीव सो चत्यन्त त्रास को प्राप्त होता हुआ ३२ और मन्त्रियों में श्रेष्ठ जो हनुमान् तिसको बुला के यह कहता हुआ कि है हनुमन तुम शीघ्रही अंगदको साथ लेके नम्रता पूर्वक लक्ष्मण के समीप जाओ ३३ और कोपयुक्त जो वीर लक्ष्मण तिनको धीर धीरे समझाते हुए अर्थात् सावधान चित्त करते हुये मन्दिरको ले आवो इसप्रकार सुग्रीव हनुमान्को भेजिकै फिर तारासे बोलता हुआ ३४ कि हे तारे तुमजाके कोमलवचनों करके लक्ष्मण के चित्तको सावधानकरो और जब जानो लक्ष्मणका चित्तशान्त हुआ तो महलके भीतर प्राप्त करके पीछे मुझको दिखलावो ३५॥

भवत्विति ततस्तारा मध्यकक्षं समाविशत्॥
हनूमानंगदेनैव सहितो लक्ष्मणांतिकम्॥३६॥

गत्वा ननाम शिरसा भक्त्या स्वागतमब्रवीत्॥
एहि वीर महाभागभवद्गृहमशंकितम्॥३७॥

प्रविश्य राजदारादीन्दृष्ट्वा सुग्रीवमेव च॥
यदाज्ञापयसे पश्चात्तत्सर्वं करवाणि भोः॥३८॥

इत्युक्त्वा लक्ष्मणं भक्त्या करे गृह्य स मारुतिः॥
आनयामास नगरमध्याद्राजगृहं प्रति॥३९॥

पश्यंस्तत्र महासौधान्यूथपानां समंततः॥
जगाम भवनं राज्ञः सुरेन्द्रभवनोपमम्॥४०॥

मध्यकक्षे गता तत्र तारा तारा धिपानना॥
सर्वाभरणसम्पन्ना मदक्तांतलोचना॥४१॥

उवाच लक्ष्मणं नत्वा स्मितपूर्वाभिभाषिणी॥
याहि देवर भद्रन्ते साधस्त्वं भक्तवत्सलः॥४२॥

तिसके उपरान्त ऐसेही होगा यह कहिकै तारा बीचकी डेउढ़ी पै स्थित होती हुई जहां लक्ष्मणसे सम्भाषण करने की योग्यता थी और हनुमान् अंगदकरके सहित लक्ष्मणजी के समीपंजाके ३६ शिरसे प्रणाम करके तुम्हारा अच्छा आगमन हुआ यह कहिकै पूछते हुये कि हे महाभाग आपही का गृह है इससे शंकारहित आइये ३७ और राजभवन में प्रवेशकर के राजाकी स्त्री आदिकों को और सुग्रीवको देखिकै जो आप आज्ञा करोगे सो मैं सब करोंगा ३८ हनुमान् यह कहिकै लक्ष्मणजीका हाथ पकड़के नगर के बीच के मार्गहो के राजा के मन्दिरको लिवाला तेहुये ३९ तहां लक्ष्मणजी यूथपति वानरों के महलोंको देखते हुये इन्द्रके भवन के तुल्य जो राजा सुग्रीवका महल है तिसको जाते हुये ४० तिस मंदिर के बीच के चौकमें चन्द्रके तुल्य है मुख जिसका और संपूर्ण आभूषणों करके भूषित और मदकरके लाल है नेत्रोंका भाग जिसका ऐसी जो तारा ४१ सो लक्ष्मणको नमस्कार करके और मन्द मुसक्यान करती हुई

वोली कि हे देवर सेरी रक्षाकरिये और आपका कल्याण होय और आप साधु हो अर्थात् महात्मा और भक्तही प्रिय जिनको ऐसेहो ४२॥

किमर्थं कोपमाकार्षीर्भक्ते भृत्ये कपीश्वरे॥
बहुकालमनााश्वासं दुःखमेवानुभूतवान्॥४३॥

इदानीं बहुदुःखौघाद्भवद्भिरभिरक्षितः॥
भवत्प्रसादात्सुग्रीवः प्राप्तसौख्यो महामतिः॥४४॥

कामासक्तो रघुपतेः सेवार्थं नागतो हरिः॥
आगमिष्यन्ति हरयो नानादेशगताः प्रभो॥४५॥

प्रेषिता दशसाहस्रा हरयो रघुसत्तम॥
आनेतुं वानरान्दिग्भ्यो महापर्वतसन्निभान्॥४६॥

सुग्रीवः स्वयमागत्य सर्ववानरयूथपैः॥
बधयिष्यतिदैत्योघान्रावणं च हनिष्यति॥४७॥

त्वयैव सहितोऽद्यैव गन्ता वानरपुंगवः॥
पश्यान्तर्भवनं तत्र पुत्रदारसुहृद्वृतम्॥४८॥

दृष्ट्वा सुग्रीवमभयं दत्त्वा नय सहैव ते॥
ताराया वचनं श्रुत्वा कृशक्रोधोऽथ लक्ष्मणः॥४९॥

सो ऐसे आपके किस वास्तें अपने भक्त और सेवक सुग्रीव के ऊपर कोप करते हुये और सुग्रीव बहुतकाल निरन्तर दुःखको भोगता हुआ ४३ और इस समय में बड़े दुःखके समूहसे आप करके रक्षा कियागया चापड़ी के प्रसाद से सुग्रीव राज्य के सुखको प्राप्त हुआ४४ सो विषय भोग में आसक्त होके श्रीरामचन्द्रजी की सेवा के अर्थ नहीं प्राप्त हुआ है ऐसा आप न जानें क्योंकि प्रत्यक्षजाके यद्यपि सुग्रीवने रामकी सेवा नहीं की तौ भी कार्य के द्वारा तौ सेवा करता ही रहा इसी से सुग्रीव के बुलाये नानादेशों से वानरोंके समूह आवैगे ४५ धौर हे रघुवंशियों में श्रेष्ठ दशहजार वानर दिशाओं से वानरों के बुलानेके लिये भेजे हैं कैसे वानर द्यावेंगे जिनके पर्वताकार शरीर हैं ४६ और सुग्रीवसेनापति वानरों करके सहित दैत्यों को और रावणको सारैगा ४७ और हे लक्ष्मण वानरों में श्रेष्ठ जो सुग्रीव सो अभी तुम्हारे संगजायगा और सुग्रीव के रहने का जोमहल अर्थात् रानियों के रहने का जो स्थान तिसको देखिये ४८ और उसमहलमें पुत्र और रानियोंकरके सहित सुग्रीवको देखिकै और उसको अभयदान दैकै अपने साथही लिवायजाइये ये ताराके वचन सुनिकै कमहुआ क्रोध जिसका ऐसे जो लक्ष्मण सो ४९॥

जगामांतःपुरं यत्र सुग्रीवो वानरेश्वरः॥
रुमामालिंग्य सुग्रीवः पर्यङ्के पर्यवस्थितः॥५०॥

दृष्ट्वा लक्ष्मणमत्यर्थं उत्पपातातिभीतवत्॥
तं दृष्ट्वा लक्ष्मणः क्रुद्धो मदविह्वलितेक्षणम्॥५१॥

सुग्रीवं प्राह दुर्वृत्त विस्मृतोसि रघूत्तमम्॥
बाली येन हतो वीरः स बाणोऽद्य प्रतीक्षते॥५२॥

त्वमेव बालि

 नो मार्गं गमिष्यसि मया हतः॥  

एवमत्यंतपरुषं वदन्तं लक्ष्मणं तदा॥५३॥

उवाच हनुमान्वीरः कथमेवं प्रभाषसे॥
त्वत्तोधिकतरो रामे भक्तोयं वानराधिपः॥५४॥

रामकार्यार्थमनिशं जागर्त्ति न तु विस्तृतः॥
आगताः परितः पश्य वानराः कोटिशः प्रभो॥५५॥

गमिष्यंत्यचिरेणैव सीतायाः परिमार्गणम्॥
साधयिष्यति सुग्रीवो रामकार्यमशेषतः ५६॥

रनिवास में जाते हुए जहां वानरोंका राजा सुग्रीव रुमाहै नाम जिसका ऐसी अपनी स्त्रीको आलिंगनकर के पलंग के ऊपरस्थित रहा ५० तब सुग्रीव लक्ष्मणको आवते देख के अत्यन्त भयभीतकी नाई पलंग से उतरताहुआ और मदकरके लालहैं नेत्र जिनके ऐसे सुग्रीवको लक्ष्मण देख के बोलते हुये ५१ कि हेदुर्वृत्त अर्थात् जो अपने सँग उपकार करे और आप उसकी खबर भी न लेवे ऐसा है दृष्ट आचरण जिसका ऐसा जो तू है सो रामको भूलिगया है इससे जिसवाण करके बाली मारा गया है वहबाण तेरी भी प्रतीक्षा अर्थात् यादगारी कर रहा है ५२ और उसी बाली के मार्गको मेरे बाणसे मारा हुआ तू प्राप्त होगा इसप्रकार के बहुत से कठोर बचन कहते हुये जो लक्ष्मण तिनसे बीर जो हनुमान् सो बोलते हुये ५३ कि हे लक्ष्मण कैसे आप सुग्रीवसे ऐसाबचन कहते हो क्योंकि तुमसे अधिक यह सुग्रीव रामका भक्त है ५४ राम के कार्य के अर्थ यह सुग्रीव निरन्तरजागि रहा है कुछ भूलिनहीं गया है और कड़ोर वानर चारों तरफ से भारहे हैं आप देखियेगा ५५ और वे सब वानर शीघ्रही सीता के ढूंढनेको जावेंगे और सुग्रीव संपूर्ण राम के कार्यको सिद्ध करेगा ५६॥

श्रुत्वा हनुमतो वाक्यं सौमित्रिर्लज्जितोभवत्॥
सुग्रीवोप्यर्घ्यपाद्याद्यैर्लक्ष्मणं संप्रपूजयत्॥५७॥

आलिंग्य प्राह रामस्य दासोहं तेन रक्षितः॥
रामः स्वतेजसा लोकान्क्षणार्द्धेनैव जेष्यति॥५८॥

सहायमात्रमेवाहं वानरैःसहितः प्रभो॥
सौमित्रिरपि सुग्रीवं प्राह किंचिन्मयोदितम्॥५९॥

तत्क्षमस्व महाभागप्रणयाद्भाषितं मया॥
गच्छामोद्यैव सुग्रीव रामस्तिष्ठति कानने॥६०॥

एक एवातिदुःखार्तो जानकीविरहात्प्रभुः॥
तथेति रथमारुह्य लक्ष्मणेन समन्वितः॥६१॥

वानरैः सहितो राजा राममेवान्वपद्यत॥६२॥

भेरीमृदंगैर्बहुऋक्षवानरैः श्वेतातपत्रैर्व्यजनैश्च शोभितः॥
नीलांगदाद्यैर्हनुमत्प्रधानैः समावृतो राघवमभ्यगाद्धरिः॥६३॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे पञ्चमः सर्गः ५॥

वहवचन हनुमान के सुनिकै लक्ष्मणल ज्जाको प्राप्त होते हुये और सुग्रीव भी अर्घ्यपाद्य आदि पूजनकी सामग्री करके लक्ष्मणका पूजन करता हुआ ५७ और लक्ष्मणको हृदयसे आलिंगन करके कहता हुआ कि हे लक्ष्मण मैं रामका दास हो और रामही करके रक्षा किया गयाहों और राम अपने तेजकर के सब लोकोंको आधेही क्षणकरके जीतसक्ते हैं ५८ और मैं तो सबवानरों करके सहित केवल सहायमात्रहों तब ये बचन सुग्रीव के सुनिकै लक्ष्मणजी कहते हुये कि हे महाभागं जो कुछ मैंने कठोर वचनकहा है तिसको ५९ क्षमाकरिये क्योंकि जोकहा सो स्नेहवश से कहा और हे सुग्रीव अभी हम जावेंगे जिससे राम अकेलेपन में सीता के विरहसे दुःखकर के पीड़ित हो रहे हैं ६० तब सुग्रीव लक्ष्मण करके सहित उसीसमय में रथ के ऊपर चढ़कर वानरोंको संगले रामके समीप जाता हुआ ६१।६२ अब उससमय में मेरी मृदंग बादि बहुत से बाजा बज रहे हैं और बहुत से रीछं वानरों करके शोभायमान और सुपेद छत्र औ चमर तिनकरके शोभित और नील अङ्गद हनुमान यादि मुख्य मुख्य वानरों करके युक्त जो सुग्रीव सो रामके सम्मुख जाता हुआ ६३॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे किष्किन्धाकाण्डे भाषाटीकायां पञ्चमः सर्गः ५॥

दृष्ट्वा रामं समासीनं गुहाद्वारि शिलातले॥
चैलाजिनधरं श्यामं जटामीलिविराजितम्॥१॥

विशालनयनं शान्तं स्मितचारुमुखाम्बुजम्॥
सीताविरहसंतप्तं पश्यन्तं मृगपक्षिणः॥२॥

रथाद्दूरात्समुत्पत्य वेगात्सुग्रीवलक्ष्मणौ॥
रामस्य पादयोरग्रे पेततुर्भक्तिसंयतौ॥३॥

रामः सुग्रीवमालिंग्य पृष्ट्वानामयमंतिके॥
स्थापयित्वा यथान्यायं पूजयामास धर्मवित्॥४॥

ततोब्रवीद्रघुश्रेष्ठं सुग्रीवो भक्तिनम्रधीः॥
देव पश्य समायांतीं वानराणां महाचमूम्॥५॥

कुलाचलाद्रिसंभूता मेरुमन्दरसन्निभाः॥
नानाद्वीपसरिच्छैलवासिनः पर्वतोपमाः॥६॥

असंख्याताः समायांति हरयः कामरूपिणः॥
सर्वे देवांशसंभूताः सर्वे युद्धविशारदाः॥७॥

दो०। छठेसर्गसुग्रीवकपि जनकसुतासुधिहेतु॥
पठयेवानरयूथपति तियतारारचुकेतु १

अब महादेवजी पार्वतीसे कहै हैं हेपार्वति अब सुग्रीव और लक्ष्मण ये दोनों पर्वतकी गुहा के द्वारपै शिलाके ऊपर बैठे हुये रामको दूरहीसे देखके बड़े वेगसे जाकर रामके चरणों के आगे भक्ति युक्तहोके पड़ते हुये कैसे राम हैं मृग चर्म को धारण करे हैं और श्यामवर्ण हैं और जटा मुकुट करके शोभित हैं १

और विशाल जिनके नेत्रहैं और शान्त हैं और मन्द मुसक्यान करके सुन्दर है मुखारविन्द जिनका और सीता के विरहकरके संतप्त हो रहे हैं और मृग और पक्षी इनको देख रहे हैं २ऐसे रामको देखिकै सुग्रीव लक्ष्मण चरणों में प्रणाम करते हुये ३ अब धर्मके जाननेवाले जो श्रीराम सो सुग्रीवको हृदय से आलिंगन करके और अपने समीप बैठाकर कुशल पूंछिकै जैसे शास्त्र की विधि है तैसे पूजन करते हुये ४ तिसके उपरान्त भक्तिकर के नम्र है बुद्धि जिसकी ऐसा, जो सुग्रीव तो श्रीराम से बोलता हुआ कि हे देव हिमालय आदि पर्वतों से प्रकट हुई जो बानरोंकी बड़ी भारी सेना तिसको देखिये ५ और हिमालय आदि पर्वतों उत्पन्न हुये और मेरु पर्वत औ मन्दराचल के तुल्य और अनेक द्वीप और नदी और पर्वत इन में रहनेवाले और पर्वत के तुल्य है स्वरूप जिनका ६ ऐसे असंख्य इच्छारूप धारी वानर भारहे हैं और सब ये देवताओं के अंशों से उत्पन्न हुये हैं इसीसे सब युद्ध में कुशल हैं ७॥

अत्र केचिद्गजबलाः केचिद्दशगजोपमाः॥
गजायुतबलाः केचिदन्येऽमितबलाः प्रभो॥८॥

केचिदंजनकूटाभाः केचित्कनकसन्निभाः॥
केचिद्रक्तांतवदना दीर्घबालास्तथापरे॥९॥

शुद्धस्फटिकसंकाशाः केचिद्राक्षससन्निभाः॥
गर्जंतःपरितो यांति वानरा युद्धकांक्षिणः॥१०॥

त्वदाज्ञाकारिणः सर्वे फलमूलाशनाः प्रभो॥
ऋक्षाणामधिपो वीरो जाम्बवान्नाम बुद्धिमान्॥११॥

एष मे मंत्रिणां श्रेष्ठः कोटिभल्लूकवृन्दपः॥
हनुमानेष विख्यातो महासत्त्वपराक्रमः॥१२॥

वायुपुत्रोऽतितेजस्वी मंत्री बुद्धिमतां वरः॥
नलो नीलश्च गवयो गवाक्षो गंधमादनः॥१३॥

शरभो मैंदवश्चैव गजः पनस एव च॥
बलीमुखो दधिमुखः सुषेणस्तार एव च॥१४॥

और इनमें कोई तौ ऐसे हैं जिनमें एक हाथी के बराबर बल है और कितने दश हाथियों के तुल्यबल में हैं और कोई दशहजार हाथियों के तुल्य बल में हैं और किसी के बलका कुछ प्रमाणही नहीं है जैसे हनुमदादि ८ और कोई अंजन के पर्वतके तुल्य हैं और कोई सुवर्ण के पर्वत के तुल्य हैं और कोई लाल हैं मुख जिनके ऐसे हैं और किसीके बाल बड़े बड़े हैं ९और कोई स्फटिकमणिके तुल्य सपेद हैं और कितने राक्षसों कासास्वरूपहै जिनका ऐसे युद्धकरने को गर्जते हुये चलेगाते हैं १० और हे राम ये सब वानर आपकी आज्ञा करनेवाले हैं और फल मूलके भोजन करने वाले हैं और ऋक्षोंका स्वामी जाम्बवान् नाम जो बढ़ा वीर है ११ सो यह मेरे मंत्रियोंमें श्रेष्ठ है और कड़ोर ऋक्षों के समूहका स्वामी है और यह हनुमान् नाम करके प्रसिद्धवड़े बलपराक्रम करके युक्त है १२ और

यह पवनका पुत्र है और बड़ा तेजस्वी है और यह हनुमान् बुद्धिमानों में श्रेष्ठ मेरा मन्त्री है और नल और नील और गवय और गवाक्ष और गन्धमादन १३ और शरभ और मैन्द और गज और पनस और बलीमुख और दधि सुख और सुपेण और तार १४॥

केसरी च महासत्वः पिता हनुमतो बली॥
एते मे यूथपा राम प्राधान्येन मयोदिताः॥१५॥

महात्मानो महावीर्याः शक्रतुल्यपराक्रमाः॥
एते प्रत्येकतः कोटिकोटिवानरयूथपाः॥१६॥

तवाज्ञाकारिणः सर्वे सर्वेदेवांशसंभवाः॥
एष बालिसुतः श्रीमानंगदो नाम विश्रुतः॥१७॥

बालितुल्यबलो वीरो राक्षसानां बलान्तकः॥
एते चान्ये च बहवस्त्वदर्थे त्यक्तजीविताः॥१८॥

योद्धारः पर्वतायैश्च निपुणाः शत्रुघातने॥
आज्ञापय रघुश्रेष्ठ सर्वे ते वशवर्त्तिनः॥१९॥

रामः सुग्रीवमालिंग्य हर्षपूर्णाश्रुलोचनः॥
प्राह सुग्रीव जानासि सर्वं त्वं कार्यगौरवम्॥२०॥

मार्गणार्थं हि जानक्या नियुंक्ष्व यदि रोचते॥
श्रुत्वा रामस्य वचनं सुग्रीवः प्रीतमानसः॥२१॥

और बढ़ावली केसरी जो कि हनुमानका पिता है है राम ये मेरे सेनापति ह और मैंने ये मुख्य मुख्य भाप से कहे हैं १५ और ये सब महात्मा हैं और बड़े पराक्रमी हैं और इंद्रके तुल्य है पराक्रम जिनका ऐसे हैं और इनमें एकएककडोर कड़ोर वानरों के यूथका पति है अर्थात् जैसे जाम्बवान् कड़ोर यूथोंका पति है ऐसे ही हनुमान् प्रादिभी कड़ोरकडोरयूथों के पति हैं १६ और हेरामये सब तुम्हारी आज्ञा करनेवाले हैं और सब देवतों के अंशों से उत्पन्न हुये हैं और यहवाली का पुत्र जो मंगढ़ है १७ सो बल में बाली के तुल्य है और राक्षसों की सेनाका कालके समान नाश करने वाला है और जे मैंने गिनवाये हैं ते घौर इन से सिवाय और भी बहुत से हैं परंतु तुम्हारे अर्थ त्यागदिया है जीवन जिन्होंने ऐसे सब वीर हैं १८ औ पर्वतों करके युद्ध करनेवाले हैं और सब शत्रुओं के सारनेमें निपुण हैं इससे हे राम इनको आज्ञा करिये ये सब आपके बरा १९ तब श्रीरामचन्द्र सुग्रीव को आलिंगन कर और नेत्रों से आनन्द के आशुओं को छोड़ते हुये बोले कि हे सुग्रीव तुम सब कार्यों की गुरुता को जानते हौ २० अर्थात् जो कार्य जरूरी है तिसको जानते हो इससे सीताके ढूंढने को जिसको जहां उचित भेजना जानो उसको भेजिये जो तुमको यहबात रुचै तवये राम के वचन सुनिकै प्रीति युक्त है मनजिसका ऐसा जो सुग्रीव २१

प्रेषयामास बलिनो वानरान् वानरर्षभः॥
दिक्षु सर्वासु विविधान्वानरान्प्रेष्वसत्वरम्॥२२॥

दक्षिणां दिशमत्यर्थं प्रयत्नेन महाबलान्

युव

राजं जाम्बवतं हनुमंतं महाबलम्॥२३॥

नलं सुषेणं शरभं मैंदं द्विविदमेव च॥
प्रेषयामास सुग्रीवो वचनं चेदमब्रवीत्॥२४॥

विचिन्वंतु प्रयत्नेन भवतो जानकीं शुभाम्॥
मासादर्वाक्निवर्तध्वं मच्छासनपुरःसराः॥२५॥

सीतामदृष्ट्वा यदि वो मासादूर्ध्वदिनं भवेत्॥
तदा प्राणांतिकं दंडं मत्तः प्राप्स्यथ वानराः॥२६॥

इति प्रस्थाप्य सुग्रीवो वानरान् भीमविक्रमान्॥
रामस्यपार्श्वे श्रीरामं नत्वा चोपविवेश सः॥२७॥

गच्छंतं मारुतिं दृष्ट्वा रामो वचनमब्रवीत्॥
अभिज्ञानार्थमेतन्मे ह्यंगुलीयकमुत्तमम्॥२८॥

सो बड़े बलवान जो वानर तिनको भेजताहुआ इसप्रकार सबदिशाओं में अनेक प्रकारके वानरों को भेजिकै २२ दक्षिण दिशामें बड़ेयत्न से बड़े बलयुक्त वानरों को भेजता हुआ प्रथम तौ युवराज अंगद है फिर जाम्बवान और महाबली हनुमान २३ और नल और सुषेण चौर शरभ और मैन्द और द्विविद इनको आदि लेकै वानरों को दक्षिण दिशा में सुग्रीव भेजता हुआ और यह वचन कहता हुआ २४ कि तुम सब सीता को यत्न करिकै ढूंढो और मेरी आज्ञा को मानि महीने भर के भीतर लौटिकै थावो २५ और हे वानरो सीताके विनादेखे जिस किसीके मानेमें महीने भरके उपरान्त एकदिन भी होजावेगा उसको प्राणान्तकदण्ड मिलेगा अर्थात् उसको मैं मरवाडालौंगा २६ ऐसा वचन कहिकै सुग्रीव बड़े पराक्रम युक्त वानरोंको भेजिकै श्रीरामचन्द्रको नमस्कार करके रामके समीप बैठता हुआ २७ अब राम हनुमान को जाते देखके वचन बोले कि हे हनुमन् पहिचान के लिये अपने नाम के अक्षरों करके युक्त अपनी मुन्दरी तुमको देताहौॆ २८॥

मन्नामाक्षरसंयुक्तं सीतायै दीयतां रहः॥
यस्मिन् कार्ये प्रमाणं हि त्वमेवक पिसत्तम॥
जानामि सत्त्वं ते सर्वं गच्छ पंथाः शुभस्तव॥२९॥

एवं कपीनां राज्ञा ते विष्टाः परिमार्गणे॥
सीताया अंगदमुखा बभ्रमुस्तत्र तत्र ह॥३०॥

भ्रमंतु विन्ध्यगहने ददृशुः पर्वतोपमम्॥
राक्षसं भीषणाकारं भक्षयन्तं मृगान् गजान्॥३१॥

रावणोयमिति ज्ञात्वा केचिद्वानरपुंगवाः॥
जघ्नुः किलकिलाशब्दं मुंचतो मुष्टिभिः क्षणात्॥३२॥

नायं रावण इत्युक्त्वा ययुरन्यन्महद्वनम्॥
तृषार्त्ताः सलिलं तत्र नाविंदन् हरिपुंगवाः॥३३॥

विभ्रमतो महारण्ये शुष्ककंठोष्ठतालुकाः॥
ददृशुर्गह्वरं तत्र तृणगुल्मावृतं महत्॥३४॥

आर्द्रपक्षान् क्रौंचहंसान्निःसृतान्ददृशुस्ततः॥
अत्रास्ते सलिलं नूनं प्रविशामो महागुहाम्॥३५॥

तिसको एकान्त में सीताको देना और हे वानरों में श्रेष्ठ हनुमन इसकार्यक करने में तुमहीं समर्थहौ और तुम्हारा बल और बुद्धि मैं सब जानताह और तुमजावो और तुम्हारा कल्याण युक्त मार्ग होव २९ इसप्रकार सुग्रीव करके भेजे हुये जे वानर हैं ते तहां तहां सीताको ढूंढते हुये विचरने लगे ३० अब भ्रमते हुये जे अंगदादि वानर ते विन्ध्यपर्वतकी गुहा में मृग और हाथियों को खाता हुआ जो बड़ा भयंकर राक्षस पर्वत के तुल्य तितेदेखते हुये ३१ फिर यह रावणहै ऐसे कोई वानर जानिकै गर्जते हुये और घूंसोंकरके क्षणमात्र मेंमारते हुये ३२ फिर यह रावण नहीं है ऐसा निश्चय करि और बड़े भारीवन में जाते हुये फिर वहां प्यासकरके बड़े पीड़ित भी हुये परन्तु जलको वहां न प्राप्त हुये ३३ और मारप्यास के जिनका कंठ और ओठ और तालू सूख रहा है ऐसे सब वानर भ्रमते हुये घास और वृक्षोंकी लताओं करके आच्छादित अर्थात् ढकी हुई एकपर्वतकी गुहाको देखते हुये ३४ फिर वहां जलसे भीगे हैं पंख जिनके ऐसे हंस और क्रौंचनाम पक्षियों को गुहाके द्वार से निकलते देखते हुये फिर ऐसा देखके सब वानरोंने यह निश्चय किया कि इसमें अवश्यजलहोगाइससे इस गुहा में हम प्रवेश करें ३५॥

इत्युक्त्वा हनुमानग्रे प्रविवेश तमन्वयुः॥
सर्वे परस्परं धृत्वा बाहून्बाहुभिरुत्सुकाः॥३६॥

अंधकारे महद्दूरं गत्वाऽपश्यन्कपीश्वराः॥
जलाशयान्मणिनिभतोयान्कल्पद्रुमोपमान्॥३७॥

वृक्षान्यक्कफलैर्नम्रान्मधुद्रोणसमन्वितान्॥
गृहान् सर्वगुणोपेतान्मणिवस्त्रादिपूरितान्॥३८॥

दिव्यभक्षान्नसहितान्मानुषैः परिवर्जितान्॥
विस्मितास्तत्र भवने दिव्ये कनकविष्टरे॥३९॥

प्रभया दीप्यमानां तु ददृशुः स्त्रियमेकलाम्॥
ध्यायंतीं चीरवसनां योगिनी योगमास्थिताम्॥४०॥

प्रणेमुस्तां महाभागां भक्त्या भीत्या च वानराः॥
दृष्ट्वा तान्वानरान्देवी प्राह यूयं किमागताः॥४१॥

कुतो वा कस्य दूता वा मत्स्थानं किं प्रधर्षथ॥
तच्छ्रुत्वा हनुमानाह शृणु वक्ष्यामि देवि ते॥४२॥

ऐसा कहिकै आगे आगे तो हनुमान् चलते हुये और बानर पीछे पीछे परस्पर हाथ पकड़के उस अन्धकारयुक्त गुहा में चलते हुये ३६ फिर उस अन्धकार में बड़ीदूर जाके वे वानर निर्मल जलसे भरे हुए तालाबको देखते हुये ३७ और पके हुये फलों करके युक्त और भार करके जिनकी शाखा लवि रही हैं और सहतके वोझसे भी लचरहे हैं और कल्पवृक्षों के समान हैं ऐसे वृक्षों को देखते हुये और सम्पूर्ण गुणोंकर के युक्त और मणिवस्त्र आदि सामग्रियों से भरे हुये

३८ औरे देवतों के योग्य भोजन करने के अन्नादिकों से पूर्ण होरहे हैं और मनुष्यों करके रहित हैं ऐसे गृहको देखके सब बानर आश्चर्य युक्त होते हुये ३९ फिर उस भवन में सोने के आसन के ऊपर अकेली बैठीहुई और अपनी कान्ति
करके प्रकाशमान ऐसी स्त्री को देखते हुये फिर वह कैसी स्त्री है ध्यानकर रही है और चीर वस्त्रोंको धारणकरे है और योग के जाननेवाली है और योगाभ्यास में स्थित है ४० तब वे वानर उसमहाभागा स्त्री को भक्ति करके और भय कर के भी प्रणाम करतेहुये फिर वह देवी वानरोंको देखके बोली कि तुम किस कारण से यहां आयेहो ४१ और कहां से आयेही और किसके दूतों और मेरे स्थानको किसवास्ते व्याकुल कररहे हो तब हनुमान बोले हे देवि मैं सब कारण कहता हौं तिसको सुनिये ४२॥

अयोध्याधिपतिः श्रीमान्राजा दशरथः प्रभुः॥
तस्य पुत्रो महाभागो ज्येष्ठो राम इति श्रुतः॥४३॥

पितुराज्ञां पुरस्कृत्य सभार्यः सानुजो वनम्॥
गतस्तत्र हृता भार्या तस्य साध्वी दुरात्मना॥४४॥

रावणेन ततो रामः सुग्रीवं सानुजो ययौ॥
सुग्रीवो मित्रभावेन रामस्य प्रियबल्लभाम्॥४५॥

मृगयध्वमिति प्राह ततो वयमुपागताः॥
ततो वनं विचिन्वंतो जानकीं जलकांक्षिणः॥४६॥

प्रविष्टा गह्वरं घोरं दैवादत्र समागताः॥
त्वं वा किमर्थमत्रासि का वा त्वं वदनः शुभे॥४७॥

योगिनी च तथा दृष्ट्वा वानरान्प्राह हृष्टधीः॥
यथेष्टं फलमूलानि जग्ध्वा पीत्वा स्मृतं पयः॥४८॥

आगच्छत ततो वक्ष्ये मम वृत्तांतमादितः॥
तथेति भुक्त्वा पीत्वा च दृष्टास्ते सर्ववानराः॥४९॥

अयोध्यानगरी का पति बड़ा लक्ष्मीवान् राजा दशरथ होता हुआ तिसका ज्येष्ठ पुत्र बड़ा भाग्यशाली राम नाम करके विख्यात है ४३ सो पिता की आज्ञाको मानिकै भार्या करके सहित और छोटे भाई करके सहित बनको प्राप्त हुआ है तिस रामकी स्त्री बड़ी पतिव्रता दुरात्मा रावणने हरली ४४ तब भाई करके सहित राम सुग्रीवको प्राप्त हुआ और सुग्रीव मित्रभाव करके राम की प्यारी जो स्त्री है तिसको तुम सब ढूंढो ऐसा हम सब वानरों से कहता हुआ ४५ तब हम सब सीताको ढूंढते ढूंढते बड़ी प्यास करके पीड़ित हो जल की इच्छा करतेहुये ४६ फिर जलकी इच्छा से इस घोर गुहा में प्रवेशकर दैव योगसे यहां प्राप्त हुये सो हे कल्याण रूपे तुम कौन हो और कैसे यहां प्राप्त हो यह वृत्तान्त अपना कहिये ४७ तब वह योगिनी भूखे प्यासे वानरोंको देखके प्रसन्नचित्तहो बोलती हुई कि तुमसब यथेष्टफलं मूल भोजन करके और अमृत तुल्य जलकोपीके ४८ आवो तो मैं अपना वृत्तान्त आदि से लैके सब कहोंगी

तवसव वानर तैसेही जाकर फलमूल भोजनकर और जलपीके प्रसन्न हुये ४९॥

देव्याः समीपं गत्वा ते बद्धांजलिपुटाःस्थिताः॥
ततः प्राह हनुमन्तं योगिनी दिव्यदर्शना॥५०॥

हेमा नाम पुरा दिव्यरूपिणी विश्वकर्मणः॥
पुत्री महेशं नृत्येन तोषयामास भामिनी॥५१॥

तुष्टो महेशः प्रददाविदं दिव्यपुरं महत्॥
अत्र स्थिता सा सुदती वर्षाणामयुतायुतम्॥५२॥

तस्या अहं सखी विष्णुतत्परा मोक्षकांक्षिणी॥
नाम्ना स्वयंप्रभा दिव्यगंधर्वतनया पुरा॥५३॥

गच्छंती ब्रह्मलोकं सा मामाहेदं तपश्चर॥
अत्रैव निवसंती त्वं सर्वप्राणिविवर्जिते॥५४॥

त्रेतायुगे दाशरथिर्भूत्वा नारायणोव्ययः॥
भूभारहरणार्थाय विचरिष्यति कानने॥५५॥

मार्गतो वानरास्तस्य भार्यामायान्ति ते गुहाम्॥
पूजयित्वाथ तान्गत्वा रामं स्तुत्वा प्रयत्नतः॥५६॥

उस देवी के समीप जाकर हाथ जोड़के स्थित होते हुये तब वह योगिनी हनुमान् से बोलती हुई ५० कि हे हनुमन् पहिले समय मे दिव्य रूप जिसका ऐसी हेमा नाम करके विश्वकर्मा की पुत्री होती हुई सो नृत्य करके महादेवको प्रसन्न करती हुई ५१ तो महादेवजी प्रसन्न हो के यह जो बड़ादिव्य पुर है तिसको देते हुये इस स्थान पै सुन्दर दन्त जिसके ऐसी जो हेमा सो कडोरवर्ष स्थित होती हुई ५२ तिस हेमाकी में सखी हैं और विष्णुकी भक्तों और मोक्षकी इच्छा करिरही हों और स्वयंप्रभा मेरा नाम है और दिव्यनाम गन्धर्व की कन्या ५३ और ब्रह्मलोकको जब हेमा जाने लगी तब मुझसे यह कहती हुई कि तू सब प्राणियों करके रहित इसी स्थान में बसती हुई तप करु ५४ जब त्रेतायुग में अविनाशी नारायण दशरथ के पुत्र होकर पृथिवी के भार हरने के अर्थ वनमें विचरेंगे ५५ तब तिस रामकी भार्य्याको ढूंढते हुये वानर इस गुहा में आवेंगे तिन वानरोंको पूजनकरके और रामके पासजाके रामकी स्तुति करके ५६॥

यातासि भवनं विष्णोर्योगिगम्यं सनातनम्॥
इतोहं गन्तुमिच्छामि रामं द्रष्टुं त्वरान्विता॥५७॥

यूयं पिदध्वमक्षीणि गमिष्यथ बहिर्गुहाम्॥
तथैव चकुस्ते वेगाद्गताः पूर्वस्थितं वनम्॥५८॥

सापि त्यक्त्वा गुहां शीघ्रं ययौ राघवसन्निधिम्॥
तत्र रामं ससुग्रीवंलक्ष्मणं च ददर्श ह॥५९॥

कृत्वा प्रदक्षिणं रामं प्रणम्य बहुशः सुधीः॥
आह गद्गदया वाचा रोमांचिततनूरुहा॥६०॥

दासी तवाहं राजेन्द्र दर्शनार्थमिहागता॥

बहुवर्षसहस्राणि तप्तं मे दुश्चरन्तपः॥६१॥

गुहायां दर्शनार्थं ते फलितं मेद्य तत्तपः॥
अद्य

हि त्वां नमस्यामि मायायाः परतः स्थितम्॥६२॥

सर्वभूतेषु चालक्ष्यं बहिरंतरवस्थितम्॥
योगमायाजवनिकाच्छन्नो मानुषविग्रहः॥६३॥

योगियों करके प्राप्त होने के योग्य सनातन जो विष्णुलोक तिसको प्राप्त होगी हेवानसे इसकारणसे रामके देखने को मैं शीघ्रही जाया चाहतीहौॆ५७ और तुम सब अपनेअपने नेत्रोंको मूदि लेवो फिर गुहा के बाहरही प्राप्त होउगे फिर तिसके उपरान्त ते वानर तैसेही नेत्रोंको मूंदते हुये फिर वेगसे पहिले की नाई सब बानर गुहाके बाहर बनमें प्राप्त होजाते हुये ५८ और वह स्वयंप्रभा गन्धर्वा भी गुहाको त्याग के राम के समीप जाती हुई तहां जाके सुग्रीव सहित जो राम तिनको और लक्ष्मणको देखती हुई ५९ फिर रामकी प्रदक्षिणा करके और बहुत प्रणाम करके निर्मल बुद्धि जिसकी और खड़ी हुई रोमावली जिसकी ऐसी जो स्वयंप्रभा सोगद्गदवाणी करके राम से बोलती हुई ६० हे राजेन्द्र मैं तुम्हारी दासी हों और तुम्हारे दर्शन के अर्थ यहां प्राप्त हुई हों बहुत हजार वर्ष भर मैंने दुश्चर तप किया है अर्थात् जो किसी से न होसकै ऐसा तप किया ६१ सो केवल आपके दर्शन के अर्थ किया सो इससमय में सफल हुआ जो आपके दर्शन हुये और इस समय में मैं तुमको नमस्कार करती हों जो तुम माया से परेस्थित हो ६२ और तुम सब भूतों में बाहर भीतर स्थित भी हो परन्तु नहीं जाने जाते हो और अपनी योगमाया रूप कनात में छिपकर मनुष्यरूपको धारण किये जो चापहौ ६३॥

न लक्षसे ज्ञानदृशां शैलूष इव रूपधृक्॥
महाभागवतानां त्वं भक्तियोगविधित्सया॥६४॥

अवतीर्णोसि भगवन्कथं जानामि तामसी॥
लोके जानातु यः कश्चित्तव तत्त्वं रघूत्तम॥६५॥

ममैतदेव रूपं ते सदा भातु हृदालये॥
राम तेपादयुगलं दर्शितं मोक्षदर्शनम्॥६६॥

अदर्शनं भवार्णानां सन्मार्गपरिदर्शनम्॥
धनपुत्रकलत्रादिविभूतिपरिदर्पितः॥६७॥

अकिंचनधनं त्वाद्य नाभिधातुं जनोर्हति॥
निवृत्तगुणमार्गाय निष्किंचन धनाय ते॥६८॥

नमः स्वात्माभिरामाय निर्गुणाय गुणात्मने॥
कालरूपिणमीशानमादिमध्यांतवर्जितम्॥६९॥

समं चरतं सर्वत्र मन्ये त्वां पुरुषं परम्॥
देव ते चेष्टितं कश्चिन्न वेद नृविडंवनम्॥७०॥

अज्ञानियों करके नहीं जाने जाते हो जैसे नटको कोई न जाने तैसे इस का आशय यह है कि जैसे कोई नटकनातमें छिपके अपने वास्तव रूपको छिपाके और रूप बनाके बाहर निकलिके दिखलाता है तौ तमाशा देखने वाले मूर्ख पुरुष उस नटके व्याघ्रादि रूपको सत्यही मानते हैं और यह नहीं

जानते कि वही नट और रूप धारण करके आया है ऐसेही अज्ञानकर के जिन का ज्ञानरूपी नेत्र ढका हुआ है वे मूर्खसंसारी पुरुष आपका सत्यरूप नहीं जानते यही जानते हैं जैसे और मनुष्य हैं तैसे दशरथ के पुत्र राम भी हैं और वे मूढ उलटी कुतर्क भी करते हैं कि जो देशकाल वस्तुपरिच्छेद रहित सर्वव्यापक परमात्मा है वह दशरथका पुत्र कैसे होसका है जो होय तो थोड़े देशकाल में आजानेसे वह परिच्छिन्न हुआ तौ सर्वव्यापकता कहां बनती है इस कुतर्क का उत्तर यह है कि उन कुतर्क करनेवाले पुरुषों से पूछाजावै आप लोग सर्व व्यापकका अर्थ जानते हैं कि नहीं जो जानते हो तो राममें संदेह न करते क्योंकि जो दिखलाई पड़ता है सारा प्रपञ्च सो सब सबै शब्द का अर्थ है सो प्रपञ्च मायाका कार्य है वह माया उसीकी शक्ति होनेसे रामके आधीन है तो जब सबका कारण जो माया उसीको रामने अपनी सत्तासे व्याप्त किया तो उस माया के कार्यके व्याप्त करने में कौन सन्देह रहा और जो दशरथका पुत्र मानिकै रामको परिच्छिन्न देखते हो सो सब तुम्हाराराही दृष्टिका दोष है राम में कुछ दोष नहीं है इसीसे रामने काक भुशुण्ड को अपने उदरही में सब प्रपंच दिखलाया और कौशल्या को भी दिखलाया और जिससमबमें विभीषण शरण आया है उस समय में मन्त्रियोंने कहा यह रावणका भाई है इसका विश्वास न करना चाहिये तो रामने कहा मैं शरणागत विभीषण का त्याग न करूंगा और मुझको भय नहीं है क्योंकि मैं इच्छाकरों तो अंगुली के अग्रभागही करके सब लोकोंका नाश करिदेवों यह सब वाल्मीकीय में प्रसिद्ध है इससे जो रामको सर्व व्यापकता नहीं हो तो यह सब कैसे सम्भव होसक्ता है ऐसेही श्रीकृष्ण भगवान्ने अर्जुनको विश्वरूप दिखाके अपनी सर्वव्यापकता सूचन की और कृष्ण रामका अभेद युद्धकाण्डमें ब्रह्माजीनेही कहा है और यह भी विचार करके देखना चाहिये जैसे सूर्य एकदेश में स्थित होके सवका प्रकाश करते हैं ऐसे रामभी एक देश में स्थितहोके प्रकाश करते हैं और वास्तव में तो सब की बुद्धिरूप गुहामें स्थित होके राम सब इन्द्रियादिकों के प्रकाशक हैं और नट जैसे अपनी मायाकरके औरोंको मोह कराता है और आप नहीं मोहितहोता ऐसे रामभी हैं और हेराम परमेश्वरकी भक्तिकी इच्छा करते हुये जे पुरुष तिनको इस रामरूप में भक्ति योग के विधान करने की इच्छा करके आप ने अवतार धारण किया है ६४ और हे भगवन् लोक में जो कोई तुम्हारे सच्चिदानन्द घनस्वरूपको जानता है सोजाने में स्त्रीजातिकैसे जानसको ६५ और मेरे हृदयमें तो सदा यही आपकारूप प्रकाशकरे और हे राम मोक्ष के दिखाने वाला जो आपका चरणारविन्द तिसको आपने मुझको दिखलाया ६६ और आपकाचरण भवसागरकी निवृत्ति करनेवाला है और सन्मार्गका दिखाने वाला

हैं और धन पुत्र स्त्री आदि ऐश्वर्य के गर्वकरके युक्त पुरुष हैं सो आपके नाम के लेनेके योग्य नहीं हैं ६७ स्तुति करने की तो वार्त्ताही क्या है और जिनकी किसी में प्रीति नहीं है सिवाय तुम्हारे तिनको तो तुम लोभी के धनकी तरह प्रियहौ फिर वे ऐश्वर्य में फँसे हुये पुरुष आपका कैसे भजन करसके हैं और निवृत्त हुआ है संसार जिससे और जिनके कुछ नहीं है तिनकेधन ऐसे जो तुम हौ तिनको मेरा नमस्कार है ६८ और अपने सच्चिदानन्द रूपही में है रमण क्रीड़ा जिसकी इसीसे निर्गुणस्वरूप हो और सबके उपादान कारण होने से सगुण रूपभी आपहौ तिनके अर्थ मेरा नमस्कार है और कालरूप करके सबके संहार करनेवाले और ईश रूप करके सबके रचनेवाले और पालन करने वाले और इसीसे आदिमध्य अन्त करके हीन ६९और अन्तर्यामी रूपकर के सब जगह समान गमन करनेवाले सबसे परे पुरुषरूप जो आप तिनको मैं जानती हों और हे देव मनुष्य जातिका अनुकरण करनेवाला अर्थात् नकल करनेवाला जो आपका चरित्र तिसको कोई नहीं जानता है ७०॥

न तेस्ति कश्चिद्दयितो द्वेष्यो वापर एव च॥
त्वन्मायापिहितात्मानस्त्वां पश्यंति तथाविधम्॥७१॥

अजस्याकर्तुरीशस्य देवतिर्यङ्नरादिषु
जन्मकर्मादिकं यद्यत्तदत्यंतविडंबनम्॥७२॥

त्वामाहुरक्षरं जातं कथाश्रवणसिद्धये॥
केचित्कोशलराजस्य तपसः फलसिद्धये॥७३॥

कौशल्यया प्रार्थ्यमानं जातमाहुः परे जनाः॥
दुष्टराक्षसभूभारहरणायार्थितो विभुः॥७४॥

ब्रह्मणा नररूपेण जातोऽयमिति केचन॥
शृण्वंति गायंति च ये कथास्ते रघुनन्दन॥७५॥

पश्यंति तव पादाब्जं भवार्णवसुतारणम्॥
त्वन्मायागुणबद्धाहं व्यतिरिक्तं गुणाश्रयम्॥७६॥

कथं त्वां देव जानीयां स्तोतुं वाविषयं विभुम्॥
नमस्यामि रघुश्रेष्ठं बाणासनशरान्वितम्॥
लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा सुग्रीवादिभिरन्वितम्॥७७॥

और आपके न कोई मित्र है और न कोई शत्रु है और न कोई उदासीन है तो भी तुम्हारी माया करके ढकी हुई दृष्टि जिन्होंकी ऐसे पुरुष तुमको शत्रु मित्र उदासीन रूप करके देखते हैं ७१ और जन्मरहित और कर्म रहित ईश्वर जो आप हैं तिनका देवतों में वासनादि रूप कर चोर तिर्यग्योनि में मत्स्य आदि रूप करके और मनुष्यों में रामादि रूप करके जो जन्म कर्मसो अत्यन्त विडम्बनहै अर्थात् केवल देवादि जातिके प्राणियों की नकल मात्र है ७२ अपने निर्मलगुणोंकी कथा श्रवण से सिद्धि की प्राप्ति के लिये साक्षात् ब्रह्म आप प्रकट हुये हैं ऐसा कोई आपके अवतार का प्रयोजन कहते हैं ७३ और कोई ऐसा कहते

हैं कि पूर्व जन्म में कौशल्या ने परमेश्वर की बड़ी प्रार्थना की थी तिससे प्रकट हुये और कोई ऐसा कहते हैं कि दुष्ट राक्षस रूप जो पृथिवी का भार तिसके दूर करने को ब्रह्माजी ने जब प्रार्थना की तव मनुष्य रूप करके आप प्रकट हुये ७४ इसमें मुख्य प्रयोजन तो यह है कि हे रघुनन्दन जे कोई आपकी कथाको सुनते वाकहते हैं ७५ ते भवसागर के तारने वाले आपके चरणारविन्दको देखते हैं कैसे हैं चरण कि आपकी माया के गुणोंसे बंधे हुये जे अहंकार विशिष्टपुरुष तिन्होंकर के रहित और अच्छे गुणों के आश्रय ७६ और मन औरबाणी इनके अगोचर और व्यापक जो तुमहो तिनको स्तुति करने को भी मैं कैसे जानसको इससे हे रघुश्रेष्ठ धनुर्बाण को धारण किये और लक्ष्मण सुग्रीवा दिकों करके सहितजो आप तिनको केवल नमस्कार करती हौं ७७॥

एवं स्तुतो रघुश्रेष्ठः प्रसन्नः प्रणताघहृत्॥
उवाच योगिनीं भक्तां किंते मनसि कांक्षितम्॥७८॥

सा प्राह राघवंम्भक्त्या भक्तिन्ते भक्तवत्सल॥
यत्र कुत्रापि जाताया निश्चलां देहि मे प्रभो॥७९॥

त्वद्भक्तेषु सदासंगो भूयान्मे प्राकृतेषु न॥
जिह्वा मे रामरामेति भक्त्या वदतु सर्वदा॥८०॥

मानसं श्यामलं रूपं सीतालक्ष्मणसंयुतम्॥
धनुर्बाणधरम्पीतवाससं मुकुटोज्ज्वलम्॥८१॥

अंगदैर्नूपुरैर्मुक्ताहारैः कौस्तुभकुण्डलैः॥
भांतं स्मरतु मे राम वरं नान्यं प्रभो॥८२॥

श्रीराम उवाच॥

भवत्वेवं महाभागे गच्छ त्वं वदरीवनम्॥
तत्रैव मां स्मरंती त्वं त्यक्त्वेवं भूतपंचकम्॥८३॥

मामेव परमात्मानमचिरात्प्रतिपद्यसे॥
श्रुत्वारघूत्तमवचोम्टतसारकल्पं गत्वा
तदेव वदरीतरुखण्डजुष्टम्॥
तीर्थं तदा रघुपतिं मनसा स्मरन्ती
त्यक्त्वा कलेवरमवाप परं पदं सा॥८४

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे किष्किन्धाकांडे षष्ठः सर्गः ६॥

इस प्रकार स्तुति किये गये जो भक्तों के पाप नाश करनेवाले श्रीराम सो प्रसन्न होके अपनी भक्त जो योगिनी तिससे बोलते हुये कि क्यातेरे मनकी अभिलाषा ७८ तौ वह योगिनी भक्ति करके रामसे बोलती हुई कि हे भक्तवत्सल जहां कहीं मैं उत्पन्न हों तहां अपनी निश्चल भक्ति कृपा करके मुझको दीजिये ७९ और तुम्हारे भक्तों का संग मुझ को सदाहोय और संसारी पुरुषोंका न होय और मेरी जीभ भक्ति करके सदारामराम इसको कहै ८० और सीता लक्ष्मण करके सहित और धनुर्बाण को धारण करे और पीताम्बरधारणकरे और

मुकुट करके प्रकाशित ८१ और अंगढ़ जो बहूटा और नूपुर (घुंघुरू) और मोतियोॆके हार और कौस्तुभ मणि और कुण्डल इन्हों करके प्रकाशमान जो श्याम सुन्दर तुम्हारा रूप तिसको मेरामन सदा स्मरण करे हे प्रभो इसी बरको मैं मांगतीहौॆऔर वरको नहीं चाहती हौं ८२ तब श्रीराम कहते हुये कि हे महाभागे ऐसेही होगा और तू वदरीवन को जा तहां मेरा स्मरण करतीहुई इस पंचमहाभूत के रचे हुये शरीर को त्याग कर मैंहीं जो परमात्मा तिनको शीघ्र ही प्राप्त होवेगी ८३ अब वह योगिनी अमृत तुल्य श्रीराम के वचन सुनि और उसी समय में बेरियों के वृक्षों के समूह करके युक्त जो वदरिकाश्रम तीर्थ तिस को जाके तहां श्रीरामको मनकर के स्मरण करती हुई शरीर को त्यागकर परमपदको प्राप्त होती हुई ८४॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे किष्किन्धाकाण्डे भाषाटीकायां षष्ठस्सर्गः ६॥

अथ तत्र समासीना वृक्षखंडेषु वानराः॥
चिंतयंतो विमुह्यन्तः सीतामार्गणकर्शिताः॥१॥

तत्रो वाचांगदः कांश्चिद्वानरान्वानरर्षभः॥
भ्रमतां गहरेऽस्माकं मासो नूनंगतोऽभवत्॥२॥

सीता नाधिगतास्माभिर्न कृतं राजशासनम्॥
यदि गच्छाम किष्किंधा सुग्रीवोस्मान्हनिष्यति॥३॥

विशेषतः शत्रुसुतं मां मिषान्निहनिष्यति॥
मयि तस्य कुतः प्रीतिरहं रामेण रक्षितः॥४॥

इदानीं रामकार्यं मे न कृतन्तन्मिषं भवेत्॥
तस्य मदनने नूनं सुग्रीवस्य दुरात्मनः॥५॥

मातृकल्पां भ्रातृभार्यां पापात्मानुभवत्यसौ॥
न गच्छेयमतः पार्श्वं तस्य वानरपुंगवाः॥६॥

त्वक्ष्यामि जीवितं चात्र येन केनापि मृत्युना॥
इत्यश्रुनयनं केचिद्दृष्ट्वा वानरपुंगवाः॥७॥

दो० सप्तमसर्ग विषादयुत्त सबै कपिनको बृन्द॥
मिलिसम्पातिभयो सुखी जिमिसींचेबनवृन्द १

अब श्रीमहादेवजी पार्वतीसे कथा वर्णनकरैहैंकि हे पार्वति अब उसगुहा से निकलिकै बनवृक्षोंके तले बैठे हुये अंगदादि बानरसीताजीके ढूंढने में बड़े क्लेशको प्राप्तहो बडी चिन्ता करते हुये १ तहां बानरोंमें श्रेष्ठ जोगढ़ सो कितनेही बानरोंसे यहवचन बोलता हुआ कि इसपर्वतकी गुहा में भ्रमते हस सबको एक महीना पूरा व्यतीत होगया और न सीता मिली और न राजा सुग्रीवकी आज्ञाकी अर्थात् महीने के भीतर राजा के पासनहीं पहुंचे सो जोकदाचित्
अब किष्किन्धा नगरीकोजावें तौसुग्रीव हमसबको अवश्य मारेगा और विशेष करके तौउसके वैरीका पुत्र मैं हूं तिसको इस छलले मारेहीगा मेरेमें उसकी

प्रीति कैसे हूभी नहीं है मैं तो केवल रामकरके रक्षा किया गयाह ४ और इस समयमें मैंने रामका कार्य तौ किया नहीं है लोई दुष्टात्मा सुग्रीवको मेरेमारने में निश्चयकरके बहानाहोगा ५ क्योंकि जो पापात्मा सुग्रीवमाता के तुल्य जो ज्येष्ठ भाईकी स्त्री तिसमें रमण क़रिरहा है इससे हे वानरो उससुग्रीव के समीपतो हम नहीं जावेंगे ६ जिस किसी उपाय से यहां भलेही प्राणोंको त्यागदेऊंगा ऐसाकहिके रोवता हुआ जो अंगदत्तिस को देख के उनवानरोंमें श्रेष्ठ जेवानर ७॥

व्यथिताः साश्रुनयना युवराजमथाब्रुवन्॥८॥

किमर्थं तव शोकोत्र वयं ते प्राणरक्षकाः॥
भवामो निवसामोऽत्र गुहायां भयवर्जिताः॥९॥

सर्वसौभाग्यसहितं परं देवपुरोपमम्॥
शनैः परस्परं वाक्यं वदतां मारुतात्मजः॥१०॥

श्रुत्वांगदं समालिंग्य प्रोवाच नयकोविदः॥
विचार्यते किमर्थं ते दुर्विचारो न युज्यते॥११॥

राज्ञोऽत्यंतप्रियस्त्वं हि तारापुत्रोतिवल्लभः॥
रामस्य लक्ष्मणात्प्रीतिस्त्वयि नित्यं प्रवर्धते॥१२॥

अतो न राघवानीतिस्तव राज्ञो विशेषतः॥
अहं तव हिते शक्तो वत्स नान्यं विचारय॥१३॥

गुहावासश्च निर्भेद्य इत्युक्तं वानरैस्तु यत्॥
तदेतद्रामबाणानामभेद्यं किं जगत्त्रये॥१४॥

तेबड़ी व्यथाको प्राप्तहोके और रोतेहुये अंगदसे बोलते हुये कि ८ किस वास्ते तुम शोच करते हो हमसब तुम्हारे प्राणोंकी रक्षा करेंगे और भयरहित इसीगुहा में वासकरेंगे ९ और संपूर्ण सौभाग्य करके सहित देवपुरके तुल्य इसमें पुर है इसप्रकार धीरेधीरे वचन कहते हुये वानरोंका वचन हनुमान् सुन के १० और अंगदको आलिंगन करके नीतिशास्त्रमें बड़ाप्रवीण जो हनुमान् सोबोलता हुआ कि हे अंगद यह दुष्ट विचार वानरोंके संग किस वास्ते किया जाता है ऐसा विचार तुम्हारे वास्ते योग्य नहीं है।इसका आशय यह है कि हनुमान् ने अपने मनमें यह विचार किया कि इनवानरोंने इसपर्वतकी गुहाकेरहने की सलाह अंगद कोदी सो बड़ी दुष्टताकी क्योंकि ऐसे होनेमें सुग्रीव से अंगदका भेद सिद्ध हुआ और भेद होनेमें सुग्रीवके वास्ते बढ़ीबुराई है जिससे अंगद युवराज होनेसे राज्यका अधिकारी है तो इसके जुढे रहने में सुग्रीवको भय सदावनीही रहेंगी इसदास्ते इससमय में ऐसा यत्न करना चाहिये जिसमें अंगदको भयकी प्रतीतिभी होय और सुग्रीव में प्रीति होके एकताभी होय यह सब आशय हनुमान् हृदय मेंकर व अंगद से कहता है ११ कि हे अंगद तुमराजा सुग्रीवको अत्यन्त प्रियही क्योंकि जिसकारणले ताराके पुत्रहो अर्थात् तारा सुग्रीव की अपनी स्त्रीसे भी अधिक प्रीति है और तिसतारा के तुम पुत्र हुये

इसकारण से सुग्रीवको तुमअति प्रिय हौ और रामकी लक्ष्मण सेभी अधिक तुम्हारे में प्रीतिहो रही है १२ इसकारणले नतोरामसे तुमको भय है और राजा से तोतारा के कारणसे विशेषकरके भयनहीं है और हे वत्स मैं भी तुम्हारे हित करने को समर्थ हौं, इससे और कुछ मनमें विचारन करौ १३ और जो इन वानरों ने तुमको सलाह दी कि गुहामें बास करने से कुछ भय नहीं है सो सब मिथ्या है क्योंकि राम विरोधीकी भयकहीं निवृत्त नहीं होती और प्रत्यक्ष में भी राम लक्ष्मण के बाणों करके जिसकाभेदन न होय ऐसा तीन लोक में कौनसा स्थान है १४॥

ये त्वां दुर्बोधयंत्येते वानरा वानरर्षभ॥
पुत्रदारादिकं त्यक्त्वा कथं स्थास्यति त्वया॥१५॥

अन्यद्गुह्यतमं वक्ष्ये रहस्यं शृणु मे सुत॥
रामो न मानुषो देवः साक्षान्नारायणोव्ययः॥१६॥

सीता भगवती माया जनसंमोहकारिणी॥
लक्ष्मणो भुवनाधारः साक्षाच्छेषः फणीश्वरः॥१७॥

ब्रह्मणा प्रार्थिताः सर्वे रक्षोगणविनाशने॥
मायामानुषभावेन जाता लोकैकरक्षकाः॥१८॥

वयं च पार्षदाः सर्वे विष्णोर्वैकुण्ठवासिनः॥
मनुष्यभावमापन्ने स्वेच्छया परमात्मनि॥१९॥

वयं वानररूपेण जातास्तस्यैवमायया॥
वयं तु तपसा पूर्वमाराध्य जगतां पतिम्॥२०॥

तेनैवानुगृहीताः स्मः पार्षदत्वमुपागताः॥
इदानीमपि तस्यैव सेवां कृत्वैव मायया॥२१॥

और वानरों में श्रेष्ठ हे अंगद जेवानर तुमको दुष्टसलाहदे रहेहैं ते सब अपने पुत्रदारादिकों को त्यागकरके तुम्हारा संग कैसे करेंगे १५ और हे पुत्र और एक गुप्त रहस्य मैं तुझसे कहता हूं तिसको सुनु राम मनुष्य नहीं हैं किन्तु साक्षात् अविनाशी नारायणदेव १६ और मनुष्यों को मोह करानेवाली जोभगवती माया सोई सीताहैं और सबलोकके आधार जोनागोंके ईश्वर शेषजी सोई साक्षात् लक्ष्मणहैं १७ तेराक्षसों के समूह के नाशके लिये ब्रह्मा करके प्रार्थना किये गये मायाकरके मनुष्यभावसे प्रकट हुये हैं औ रहें तो सब लोकोंके एक रक्षक १८ और हमसंपूर्ण बैकुण्ठवासी जोविष्णु भगवान् तिनके पार्षद हैं सो जब परमात्मा अपनी इच्छाकरके मनुष्य भावको प्राप्त हुआ १९ तबहम सबपार्षद उसीकी माया करके वानररूपकर के प्रकट हुये हैं और हमसब पहिले तपकर के नारायणका आराधन करके २० उसीकी अनुग्रह से पार्षद पदवीको प्राप्त होते हुये और इस वानर योनि में भी निष्कपट करके तिसी की सेवा करके २१॥

पुनर्वैकुण्ठमासाद्य सुखं स्थास्यामहे वयम्॥
इत्यंगदमथाश्वास्य ग

      ता विध्यं महाचलम्॥२२॥

विचिन्वंतोथ शनकैर्जानकीं दक्षिणांबुधेः॥
तीरे महेंद्राख्यगिरेः पवित्रं पादमाययुः॥२३॥

दृष्ट्वा समुद्रं दुःपारमगाधं भयवर्द्धनम्॥
वानराभयसंत्रस्ताः किं कुर्म इति वादिनः॥२४॥

निषेदुरुदधेस्तीरे सर्वे चिंतासमन्विताः॥
मंत्रयामासुरन्योन्यमंगदाद्या महाबलाः॥२५॥

भ्रमतो मे वनेमासो गतोत्रैव गुहांतरे॥
न दृष्टो रावणो वाद्य सीता वा जनकात्मजा॥२६॥

सुग्रीवस्तीक्ष्णदंडोस्मान्निहंतेव न संशयः॥
सुग्रीववधतोऽस्माकं श्रेयः प्रायोपवेशनम्॥२७॥

इति निश्चित्य तत्रैव दर्भानास्तीर्य सर्वतः॥
उपाविवेशुस्ते सर्वे मरणे कृतनिश्चयाः॥२८॥

फिर वैकुण्ठको प्राप्तहोके सुखपूर्वक स्थित होवेंगे इसप्रकार अंगदको समझा कर सबवानर विन्ध्याचलको जाते हुये २२ अब इसके उपरान्त सब वान रधीरे धीरे जानकी को ढूंढते हुये दक्षिण समुद्र के तीर और महेंद्र पर्वतके पास एक पवित्र पर्वतरहा वहां सब वानर आतेहुये २३ तहां जिसकी कुछ थाह नहीं और दुःख करके भी पारजानेको अशक्य और भयका बढ़ानेवाला ऐसे समुद्र को देखके भयकरके त्रासको प्राप्त जे वानर ते सब यह कहते हुये कि इस समयमें हमको क्याकरना चाहिये २४ सववानर चिन्ताकर के युक्त समुद्र के तीर बैठते हुये और अंगदको आदि लेके बड़े बलवान जे वानर ते परस्पर अर्थात् आपस में सलाह करते हुये २५ पर्वतकी गुहामें भ्रमतेभ्रमते हमको एकमहीना व्यतीत होगया तहां न तौ रावण कहीं देखा और न सीता देखी २६ और तीक्ष्णहै दण्ड जिसका ऐसा जो सुग्रीव सो हम सबको मार डालेगा इसमें कुछ संदेह नहीं है इससे सुग्रीवके बधसे तो हमको अपने आप अन्नजल छोड़केमरजाना अच्छा है २७ ऐसा निश्चय करके उससमुद्र के तीर सबवानर कुशों को बिछाकर मरणका निश्चयकरि उन कुशों के ऊपर सब बैठते हुये २८॥

एतस्मिन्नंतरे तत्र महेंद्राद्रिगुहांतरात्॥
निर्गत्य शनकैरागाद्गृध्रः पर्वतसन्निभः॥२९॥

दृष्ट्वा प्रायोपवेशेन स्थितान्वानरपुंगवान्॥
उवाच शनकैर्गृध्रं प्राप्तो भक्षोद्य मे बहुः॥३०॥

एकैकशः क्रमात्सर्वान् भक्षयामि दिनेदिने॥
श्रुत्वा तद्गृध्रवचनं वानरा भीतमानसाः॥३१॥

भक्षयिष्यति नः सर्वानसौ गृध्रो न संशयः॥
रामकार्य्यं च नास्माभिः कृतं किंचिदरीश्वराः॥३२॥

सुग्रीवस्यापिहितं न कृतं स्वात्मनामपि॥
वृथानेन वधं प्राप्ता गच्छामो यमसादनम्॥३३॥

अहो जटायुर्धर्मात्मा रामस्यार्थे मृतः सुधीः॥

मोक्षं प्राप दुरावापं योगिनामप्यरिन्दमः॥३४॥

संपातिस्तु तदा वाक्यं श्रुत्वा वानरभाषितम्॥
के वा यूयं मम भ्रातुः कर्णपीयूषसंनिभम् ३५॥

उसी समय में एकमहेन्द्र पर्वतकी गुहासे पर्वत के तुल्य गीध निकलिकै धीरे धीरे वानरों के समीप आता हुआ २९ मरणका निश्चयकरि बैठे हुये जो वानर तिनको देखिकै धीरे से वह गधि बोला कि आजु तौ मुझको बहुतसा भोजन मिला ३० एकएक वानर को रोज़रोज़ क्रमसेभोजन किया करूंगा यह गृद्ध का बचन सुनिकै भययुक्त है मन जिन्हों का ऐसे वानर होतेहुये ३१ और यह वचन बोले कि यह गीध निश्चयकरके हम सबको भोजन करेगा इसमें संदेह नहीं परन्तु हे वानरो हमने कुछ रामका कार्यं न किया ३२ और न कुछ सुग्रीवही का हित किया और न कुछ अपनाही हित किया वृथाही इस गीधसे बध को प्राप्तहो यमलोकको जावेंगे ३३ और जटायु बड़ा धर्मात्मा रहा जो बड़ा बुद्धिमान् जटायु रामके अर्थ प्राणों को देकै योगियों को भी दुष्प्राप्य प्राप्त होने को अशक्य मोक्षको प्राप्तहोता हुआ ३४ अब वह सम्पाति नाम जो गृध्र सो वानरों के कहुये वचन सुनिकै बोला कि तुम सब कौनही जे मेरे भाई जटायुका मेरे कानों को अमृत तुल्य नाम परस्पर कहि रहे हो ३५॥

जटायुरिति नामाद्य व्याहरतः परस्परम्॥
उच्यतां वो भयमाभून्मत्तः प्लवगसंत्तमाः॥३६॥

तमुवाचांगदः श्रीमानुत्थितो गृध्रसन्निधौ॥
रामो दाशरथिः श्रीमान् लक्ष्मणेन समन्वितः॥३७॥

सीतया भार्यया सार्द्धं विचचार महावने॥
तस्य सीता हता साध्वी रावणेन दुरात्मना॥३८॥

मृगयां निर्गते रामे लक्ष्मणे च हृता बलात्॥
रामरामेति क्रोशंती श्रुत्वा गृध्रः प्रतापवान्॥३९॥

जटायुर्नाम पक्षींद्रो युद्धं कृत्वा सुदारुणम्॥
रावणेन हतो वीरो राघवार्थं महाबलः॥४०॥

रामेण दग्धो रामस्य सायुज्यमगमत्क्षणात्॥
रामः सुग्रीवमासाद्य सख्यं कृत्वाग्निसाक्षिकम्॥४१॥

सुग्रीवचोदितो हत्वा बालिनं सुदुरासदम्॥
राज्यं ददौ वानराणां सुग्रीवाय महाबलः॥४२॥

सो अब मेरे भाई का सबवृत्तांत मुझसे कहौऔर हे वानरो अब तुमको मेरे से कुछ भय नहीं है इससे निर्भय होके कहौ ३६ तब उन्होंमें शोभायुक्त जो अंगद सो गृद्ध के समीप जाके कहने लगा कि दशरथ के पुत्र बड़े लक्ष्मीवान् जो श्रीरामसो लक्ष्मणकरके सहित ३७ और सीता जो अपनी भार्या तिनकरके सहितवन में विचरते हुये जो राम तिन रामकी पतिव्रतास्त्री सीता दुष्टात्मा रावणने हरली ३८ जिस समय में लक्ष्मण सहित रामतौ शिकार खेलने गयेथे उससमय में शून्य आश्रम देखके जबरदस्ती सीताको हरा और वह सीता रामराम ऐसा व-

चन ऊंचे स्वरसे कहिरहीथी तिसवचनको सुनिकै ३९उसीसमय में बड़ाप्रतापी जो पक्षियोंका इन्द्र जटायु सो बड़ा भयंकर रावणके संग युद्धकरके रामके अर्थ वीर जटायु रावण से मृत्युको प्राप्त होता हुआ ४० फिर रामने अपने हाथसे उसको दग्ध किया फिर क्षणमात्र में रामही के रूपको प्राप्त होता हुआ फिर राम सुग्रीवको प्राप्तहोके अग्निको साक्षी कर के तिस सुग्रीवसे मैत्री कर के ४१ सुग्रीव की प्रेरणा से बलवान् बाली को मारिकै वानरों के राज्यको सुग्रीवके म महाबली राम देते हुये ४२॥

सुग्रीवः प्रेषयामास सीतायाः परिमार्गणे॥
अस्मान्वानरवृन्दान्वै महासत्वान्महाबलः॥४३॥

मासादर्वाङ्निवर्तध्वंं नोचेत्प्राणान्हरामि वः॥
इत्याज्ञया भ्रमंतोस्मिन्वने गह्वरमध्यगाः॥४४॥

गतो मासो न जानीमः सीतां वा रावणं च वा॥
मर्तुम्प्रायोपविष्टाः स्मस्तीरे लवणवारिधेः॥४५॥

यदि जानासि हे पक्षिन्सीतां कथय नः शुभाम्॥
अंगदस्य वचः श्रुत्वा संपातिर्हृष्टमानसः॥४६॥

उवाच मत्प्रियो भ्राता जटायुः प्लवगेश्वराः॥
बहुवर्षसहस्रांते भ्रातृवार्ता श्रुता मया॥४७॥

वाक्सहायं करिष्येहं भवतां प्लवगेश्वराः॥
भ्रातुः सलिलदानाय नयध्वंमांजलांतिकम्॥४८॥

पश्चात्सर्वं शुभं वक्ष्ये भवतां कार्यसिद्धये॥
तथेति निन्युस्ते तीरं समुद्रस्य विहंगमम्॥
सोपि तत्सलिले स्नात्त्वा भ्रातुर्दत्वा जलांजलिम्॥४९॥

तब सुग्रीव सीताके ढूंढने को हमसब वानरोंको भेजता हुआ ४३ और सुग्रीवने यह कहा कि महीने भर के भीतर तुमसब लौटियावो और जो महीने भर के भीतर न आवैगा तिसके प्राणहरे जावेंगे यह सुग्रीव की आज्ञाकरके भ्रमते हुये जो हम ४४ तिनको पर्वतकी गुहाही में मास व्यतीत होगया और सीता को हमने देखा न रावण को इससे मरने की इच्छा करके इससमय समुद्र के तीर बैठे थे ४५ सो. हे पक्षिन् जो तुम शुभलक्षणयुक्त जो सीता तिसको जानते होउ तो बताओ यह अंगदके वचन सुनिकै हर्षयुक्त है मन जिसका ऐसा जो संपाति सो बोला ४६ कि हे वानरो जटायु मेरा प्यारा भाई है और बहुत हजारवर्षों के बाद आज मैंने भाई की वार्त्तासुनी है ४७ और हे वानरों के ईश्वर वाणी करके सहाय मैं तुम्हारा करोंगा और भाईको जल देने के अर्थ मुझको जल के समीप लेचलौ तिसके अनन्तर तुम्हारे कार्यकी सिद्धिके अर्थ में शुभ वचन कहौंगा ४८ तब वे सबवानर तैसेही उसपक्षीको समुद्र के तीर प्राप्त करते हुये और वह संपातिभी जल में स्नानकरके भाई के अर्थ जलांजली देके ४९॥

पुनः स्वस्थानमासाद्य स्थितो नीतो हरीश्वरै॥
संपातिः कथयामास वानरान्परिहर्षयन्॥५०॥

लंकानामनगर्यास्ते त्रिकूटगिरिमूर्द्धनि॥
तत्राशोकवने सीता राक्षसीभिः सुरक्षिता॥५१॥

समुद्रमध्ये सा लंका शतयोजनदूरतः॥
दृश्यते मे न सन्देहः सीता च परिदृश्यते॥५२॥

गृध्रत्वाद्दुरदृष्टिर्मे नात्र संशयितुं क्षमम्॥
शतयोजनविस्तीर्णं समुद्रयस्तुलंघयेत्॥५३॥

स एव जानकीं दृष्ट्वा पुनरायास्यति ध्रुवम्॥
अहमेव दुरात्मानं रावणं हेतुमुत्सहे॥५४॥

भ्रातृहंतारमेकाकी किन्तु पक्षविवर्जितः॥
यतध्वमितियत्नेन लंघितुं सरितां पतिम्॥
ततो हंता रघुश्रेष्ठोरावणं राक्षसाधिपम्॥५५॥

उल्लंघ्य सिंधुं शतयोजनायतं
लंकां प्रविश्याथ विदेहकन्यकाम्॥
दृष्ट्वा समाभाष्य च वारिधिं पुन-
स्तर्त्तुंसमर्थः कतमो विचार्यताम्॥५६॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे किष्किंधाकांडे सप्तमः सर्गः ७॥

फिर वानरोंकरके प्राप्तकियागया अपने स्थानको प्राप्तहोके वानरोंको वचनसे श्रानन्दयुक्त करता हुआ कहने लगा ५० कि त्रिकूट पर्वतके ऊपर एक लंकानाम करकेपुरी है तिसपुरी के अशोकबनमें राक्षसियों करकेयन से रक्षाकी गई सीतावास कर रही है ५१ यहांसे सौयोजनदूर समुद्रके मध्य में लंका है और मुझको यहांसे दिखाई देती है और सीताभी दिखलाई देती है इसमें कुछ सन्देह नहीं है ५२ और गृहोनेसे मुझको दूरदृष्टिहै इसमें तुमसंशय करने के योग्य नहीं हो और सौयोजन है विस्तार जिसका ऐसे समुद्रको जो उल्लंघन, करै ५३ सोई जानकीको देखके फिर निश्चयकरके लौटिकै आवेगा और मैं हीं अकेला भाईके मारनेवाले रावणके मारने को उत्साह करता हौं ५४ परन्तु क्याकरों पंख मेरे नहीं हैं इससे समुद्र के उल्लंघन करने को तुमसब यत्नकरौ तिसके उपरान्त रामचन्द्र राक्षसोंका अधिपति जो रावण तिसको मारेंगे ५५ और जोसौयोजन समुद्रको उल्लंघन करके और लंका में प्रवेश करके फिर वहां सीताको देखके और उससे वार्त्तालाप करके फिर समुद्र के पार होनेको जोसमर्थ हो ऐसा तुम सबवानरों के बीच में कोनसा है यहबिचार तुमसबको करना चाहिये ५६॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे किष्किन्धाकाण्डे भाषाटीकायां सप्तमः सर्गः ७॥

अथ ते कौतुकाविष्टाः सम्पातिं सर्ववानराः॥
पप्रच्छुर्भगवन्ब्रूहि स्वमुदन्तं त्वमादितः॥१॥

संपातिः कथयामास स्ववृत्तांतं पुराकृतम्॥

हं पुरा जटायुश्च भ्रातरौ रूढयोवनौ॥२॥

बलेन दर्पितावावां बलजिज्ञासया खगौ॥
सूर्यमण्डलपर्य्यंतं गंतुमुत्पतितौ मदात्॥३॥

बहुयोजनसाहस्रं गतस्तत्र प्रतापितः॥
जटायुस्तम्परित्रातुं पक्षैराच्छाद्य मोहतः॥४॥

स्थितोऽहं रश्मिभिर्दग्धपक्षोऽस्मिन्विन्ध्यमूर्द्धनि॥
पतितो दूरपतनान्मूच्छितोऽहं कपीश्वराः॥५॥

दिनत्रयात्पुनः प्राणसहितो दग्धपक्षकः॥
देशं वा गिरिकूटान्वा न जाने भ्रांतमानसः॥६॥

शनैरुन्मील्य नयने दृष्ट्वा तत्राश्रमं शुभम्॥
शनैःशनैराश्रमस्य समीपं गतवानहम् ७॥

दो० सर्गआठमें चन्द्रमा सुनि उपदेशोज्ञान॥
गीधवानरनसेकह्योअंगदादिकरिमान १

अब श्रीमहादेवजी पार्वतीले कथा वर्णन करैहैं हे पार्वति अबबड़े आश्चर्ययुक्त जे सववानर ते उससम्पाति से पूछते हुये कि हे भगवन् अब अपना वृत्तांत सवत्रादिले कहिये १ तवसंपातिगीय अपना किया हुआ पहिलेका वृत्तांत कहताहुआ कि हे वानरो मैं और जटायुदोनों भाई युवावस्थाको प्राप्त हुये २ जब बड़े बलकरके गर्वयुक्त हमदोनों भाई आकाश मार्गकर उड़ते हुये तब सूर्यमंडलपर्यंत अपने गर्वसे पहुँचिगये ३ फिर बहुत हजारयोजन जबप्राप्तहुये तब तो जटायु सूर्यकेतेज करके तप्त होता हुआ तब मोहसे ४ भाई के स्नेह से पंखों से ढांककर स्थितहुआ तब सूर्य की किरणोंकरके भस्महोगये पंख जिसके ऐसाजो में सोविन्ध्य पर्वत के शिखर पै गिर पड़ता हुआ सोदूर के गिरने से मूर्च्छित हो गया५ फिर तीनदिनकेबाद मेरी मूर्च्छाजगी तोनलिंगये हैं पंख जिसके ऐसा जो मैं हौं तो उस समय में देश और पर्वत के शिखर ये कुछनहीं जानता हुआ क्यों कि भ्रमयुक्त है मन जिसका ऐसा रहा ६ फिर धीरेधीरे नेत्रोंको खोलकर एक बड़े अच्छे आश्रमको देखके फिर धीरे धीरे उस आश्रम के समीप प्राप्त होता हुआ ७॥

चंद्रमा नाम मुनिराट् दृष्ट्वा

मां विस्मितोऽवदत्॥
संपाते किमिदं तेद्य विरूपं केन वा कृतम्॥८॥

जानामि त्वामहं पूर्वमत्यंतं बलवानसि॥
दग्धौ किमर्थं ते पक्षी कथ्यतां यदि मन्यसे॥९॥

ततः स्वचेष्टितं सर्वं कथयित्वातिदुःखितः॥
अब्रुवं मुनिशार्दूलं दह्येऽहं दाववह्निना॥१०॥

कथं धारयि तु शक्तो विपक्षो जीवितं प्रभो॥
इत्युक्तो मुनिर्वीक्ष्य मां दयार्द्रविलोचनः॥११॥

शृणु वत्स वचो मेऽद्य श्रुत्वा कुरु यथेप्सितम्॥
देहमूलमिदं दुःखं देहः कर्मसमुद्भवः॥१२॥

कर्म प्रवर्त्तते देहेऽहंबुद्ध्या पुरुषस्य हि॥
अहं

कारस्त्वनादिः स्यादविद्यासंभवो जडः॥१३॥

चिच्छायया सदा युक्तस्तप्तायः पिण्डवत्सदा॥
तेन देहस्य तादात्म्याद्देहश्चेतनवान् भवेत्॥१४॥

तब उस श्राश्रममें चन्द्रमा नामकरके जो मुनीश्वर सो मुझको देखकेबड़े आश्चर्ययुक्त होते हुये और यह कहतेहुये कि हे संपाते यह तुम्हारा बिरूप किसने किया ८ और यह मैं जानताहों तुम पहिले बहुत बलवान रहे और किस हेतुसे तुम्हारे पंखजलिगये सो कहो ९ तब अपना कियाहुआ सबकर्म कहिकै अतिदुःखितहो मुनिसे बोलताहुआ कि हे मुने अग्नि के सन्तापकर मैं भीतर से भस्महोरहाहों १० और पंखों के विना मैं कैसे जीवनेको समर्थ होसक्ता हौं ऐसे जब मैंने बचनकहा तो दयाकरके ने जिनके भरित्राये हैं ऐसे जो मुनिसो मुझको देखके बोले ११ कि हे बत्स इससमय में तू मेरा बचनसुन और सुन करके फिर तेरी जैसी इच्छाहोय तैसाकर और हे पक्षिन् जितना दुःख है तिस में देहही मूल कारण है अर्थात् देहाभिमानही सबदुःखों का कारण है सोदेहकर्म से उत्पन्न हुआ है १२ और कर्म पुरुषकी अहंकार बुद्धिसे उत्पन्न है और अहंकार तो विद्यासे उत्पन्न हुआ है इससे जड़ है और अनादि है अर्थात् कबसे उत्पन्न
हुआ यह नहीं जानाजाताहै १३ सो अहंकार तचायेहुये लोहपिंडकीनाई सदा चिदाभास करकेयुक्त रहता है अर्थात् जैसे अग्निमें तचाहुग्ररक्तवर्ण लोहपिंड अग्नि से अलग करनेको अशक्य है तैसे चैतन्यसे अहंकार भी अलग नहीं हो सक्ता उस अहंकार करके देहके तादात्म्य संबन्धसे देहभी चेतनयुक्तकी तरह जाना जाता है जिसमें मिलना औ अलग रहना दोनों प्रतीतहोवें उसको तादात्म्य संबन्ध कहते हैं ९४॥

देहोऽहमिति बुद्धिः स्यादात्मनोऽहंकृतेर्बलात्॥
तन्मूल एष संसारः सुखदुःखादिसाधकः॥१५॥

आत्मनो निर्विकारस्य मिथ्या तादात्म्यतः सदा॥
देहोऽहं कर्मकर्त्ताहमिति संकल्प्य सर्वदा॥१६॥

जीवः करोति कमणि तत्फलैर्बध्यतेवशः॥
ऊर्ध्वाधो भ्रमते नित्यं पापपुण्यात्मकः स्वयम्॥१७॥

कृतं मयाधिकं पुण्यं यज्ञदानादि निश्चितम्॥
स्वर्गं गत्वा सुखंं भोक्ष्ये इति सङ्कल्पवान्भवेत्॥१८॥

तथैवाध्यासतस्तत्र चिरं भुक्त्वा सुखं महत्॥
क्षीणपुण्यः पतत्यर्वागनिच्छंकर्मचोदितः॥१९॥

पतित्वा मण्डले चेंदोस्ततो नीहारसंयुतः॥
भूमौ पतित्वा ब्रीह्यादौ तत्र स्थित्वा चिरं पुनः॥२०॥

भूत्वा चतुर्विधं भोज्यं पुरुषैर्भुज्यते ततः॥
रेतो भूत्वा पुनस्तेन ऋतौ स्त्रीयो निसिंचितः॥२१॥

इसप्रकार चेतन आत्माको अहंकार के बलसे मैं देहहों ऐसी मिथ्या बुद्धि होती है वही बुद्धि है कारण जिसमें ऐसा संसार है सो कर्म द्वारासुख और दुःख इनको उत्पन्न करता है १५ ऐसे निर्विकार भी त्रात्मा है तिसको अहंकारादिकों के साथ झूठेही तादात्म्य सम्बन्ध से यह नाम मैं कर्मका करनेवाला हों यहसंकल्पते में देहहों ऐसी बुद्धिहोती है अथवा निर्विकार आत्माको अहंकारादिकों के तादात्म्यसे मैं देहहों और कर्म करनेवालाहों यह दोनों तरह की बुद्धिहोती है तिसमें किसीको पुख्य विशेषते में देहहों यह बुद्धि दूर भी होती है परन्तु मैं कर्म करनेवाला हौं यह बुद्धि विनाज्ञान के निवृत्त नहीं होती १६इससे पुण्य पापादि कर्म जीव करता है फिर तिनकर्मों के फल जो सुख दुःखादिक तिन करके प्रवराहोके बन्धनको प्राप्त होता है फिर पुण्य पापात्मक जो जीव सोऊपर नीचे लोकों में भ्रमता है १७ और मैंने यज्ञ दानादिक अधिक पुण्य किया है इससे निश्चय करके स्वर्गको जाकर सुख भोगकरोंगा ऐसा संकल्पयुक्त होता है १८ फिर में पुण्य करनेवालाहों इसभिमान से बहुतकाल स्वर्ग सुख भोग के फिर जब पुण्य क्षीणहोजाता है तौ नहीं वो इच्छा करता हुआ कर्मका प्रेरा स्वर्ग से नीचे गिरता है १६ फिर सूक्ष्मशरीर जीव चन्द्रमण्डल में प्राप्त होता है फिर चन्द्रमा की किरणद्वारा कुहिरा में आता है फिर कुहिरासे पृथिवी में याता है फिर पृथिवी से यव गेहूं धान इत्यादि अन्न में आता है २० फिर धन्न में बहुत काल स्थितहो जब उसको भोज्यादि चारप्रकारका कर कोई भोजन करता है तो उसके वीर्यरूपहोता है फिर वह पुरुष ऋतुकाल में स्त्री प्रसंग करता है तो स्त्री की योनि में सिंचन कियाजाता है २१॥

योनिरक्तेन संयुक्तं जरायुपरिवेष्टितम्॥
दिनेनैकेन कललं भूत्वा रूढत्वमाप्नुयात्॥२२॥

तत्पुनः पंचरात्रेण बुदबुदाकारतामियात्॥
सप्तरात्रेण तदपि मांसपेशित्वमाप्नुयात्॥२३॥

पक्षमात्रेण सा पेशी रुधिरेणपरिप्लुता॥
तस्या एवांकुरोत्पत्तिः पञ्चविंशतिरात्रिषु॥२४॥

ग्रीवा शिरश्च स्कन्धश्च पृष्ठवंशस्ततोदरम्॥
पञ्चधांगानि चैकैकं जायन्ते मासतः क्रमात्॥२५॥

पाणिपादौ तथा पार्श्वः कटिर्जानुस्तथैव च॥
मासद्वयात्प्रजायन्ते क्रमेणैव न चान्यथा॥२६॥

त्रिभिर्मासैः प्रजायन्ते अंगानां संधयः क्रमात्॥
सर्वांगुल्यः प्रजायते क्रमान्मासचतुष्टये॥२७॥

नासा कर्णौ च नेत्रे च जायन्ते पंचमासतः॥
दन्तपंक्तिर्नखा गुह्यं पंचमे जायते तथा॥२८॥

फिर वहां स्त्री के रुविर में मिल सूक्ष्म जाले से लपिटा हुआ एक दिन में मिलकर कुछ होता है २२ फिर वह पांच रात्रिमें बुलबुले के तुल्य होता है

फिर सातरात्रिमें मांसकी थैली सा होता है २३ फिर पन्द्रह दिन में वहकठिन मांस रुविरमें डूबा रहता है फिर पचीसरात्रिमें उसमें अंकुरों की उत्पत्ति होती है २४ फिर उसमें गरदन और शिर चोरे कन्धा और पीठकी ड़िऔर पेटये पांचचंगक्रमले महीनेभरमें होते हैं २५ फिरहाथ औ पांव और पसुरी औरकमर घोटुवे ये दूसरे महीने में क्रम से होते हैं २६ फिर तीसरे महीने में सब अंगोंकी संधि अर्थात् जो सब और सब अँगुली ये अंगचौथे महीने में होते हैं २७ औरनाक औरकान और नेत्रये सबपांचवें महीने में होते हैं और मसूढ़े और नख और लिंग अर्थात् मूत्रस्थानयेभी पांचवें महीने में उत्पन्न होते हैं २८।

अर्वाक्षण्मासतश्छिद्रं कर्णयोर्भवति स्फुटम्॥
पायुर्मेढ्रमुपस्थं च नाभिश्चापि भवेन्नृणाम्॥२९॥

सप्तमे मासि रोमाणि शिरः केशास्तथैव च॥
विभक्तावयतत्त्वं च सर्वं संपद्यतेऽष्टमे॥३०॥

जठरे वर्द्धते गर्भः स्त्रिया एवं विहंगम॥
नवमे मासि चैतन्यं जीवः प्राप्नोति सर्वशः॥३१॥

नाभिसूत्राल्परंध्रेण मातृभुक्तान्नसारतः॥
वर्द्धते गर्भगः पिंडो न म्रियेत स्वकर्मतः॥३२॥

स्मृत्वा सर्वाणि जन्मानि पूर्वकर्माणि सर्वशः॥
जठरानलतप्तोऽयमिदं वचनमब्रवीत्॥३३॥

नानायानिसहस्त्रेषु जायमानोऽनुभूतवान्॥
पुत्रदारादिसंबंध कोटिशः पशुबांधवान्॥३४॥

कुटुम्बभरणाशक्त्या न्यायान्याये धनार्जनम्॥
कृतं नाकारवं विष्णुचिन्तां स्वप्नेपि दुर्भगः॥३५॥

और छः महीने के मध्य में कानोंके छेद घौर मलत्याग करनेका स्थानगुदा और मूत्रकरनेका स्थान मेद्र व योनि और नाभिये सबप्रकट करके स्थानछठे महीने में होते हुये २९ और सातवें महीने में सबरोम और शिरकेबालय होते हैं और सब अंग न्यारेन्यारे आठवें महीने में होते हैं ३० और हे गृइसप्रकार स्त्री के उदरमें गर्भ वृद्धिको प्राप्त होता है और नवें महीने में जीव सबइन्द्रियों के ज्ञानको प्राप्त होता है ३१ और बालककीनाभिमें लपटा हुआ जोनाल तिसमें बड़ा महीन छिद्र होता है तिसके द्वारामाता के भोजन के रसकरके पुष्टहोतारहता है और कर्मके बलसे नहीं मरता है ३२ जब नवयें महीने में उसगर्भ में स्थित प्राणीको ज्ञान हुआ तो अनेक जन्म और अनेक जन्मों के कर्मों को स्मरणकरके माताके उदरको अग्निकरके सन्तप्त जो बालक सो यह बचन बोलताहुआ ३३ कि नानाप्रकार की हजारों योनियों में उत्पन्न हुआ जो मैं सो करोड़ों पुत्र दारादि सम्बन्धों को और करोड़ोंहाथी घोड़े भाई बन्धुयोंको जानताही अर्थात् इन्हीं से उत्पन्न हुये सुख दुःखादिकों को जानता हु चाहीँ ३४ और कुटुम्ब के पालन में प्रीतिकरके न्याय और अन्यायकरके मैंने धनका उपार्जन

ती किया और अतिदुर्लभ विष्णुका स्मरण स्वप्न में भी नहीं करता हुआ ३५॥

इदानीं तत्फलं भुंजे गर्भदुःखम्महत्तरम्॥
अशाश्वते शाश्वतवद्देहे तुष्णासमन्वितः॥३६॥

अकार्याण्येव कृतवान्न कृतं हितमात्मनः॥
इत्येवं बहुधा दुःखमनुभूय स्वकर्मतः॥३७॥

कदा निष्क्रमणं मे स्याद्गभीन्निरयसन्निभात्॥
इत ऊर्ध्वं नित्यमहं विष्णुमेवानुपूजये॥३८॥

इत्यादि चिन्तयन् जीवो योनियंत्रप्रपीडितः॥
जायमानोऽतिदुःखेन नरकास्पातकी यथा॥३३॥

पूतिव्रणान्निपतितःकृमिरेष इवापरः॥
ततो बाल्यादिदुःखानि सर्वाण्येवं विभुंजते॥४०॥

त्वया चैवानुभूतानि सर्वत्र विदितानि च॥
न वर्णितानि मे गृध्र योवनादिषु सर्वतः॥४१॥

एवं देहोऽहमित्यस्मादभ्यासान्निरयादिकम्॥
गर्भवासादिदुःखानि भवत्यभिनिवेशतः॥४२॥

और इस समय में उसी कर्मका फल बड़ाभारी गर्भ के दुःखको भोग रहा हों और नित्य जो देह है तिसमें नित्यकेतुल्य तृष्णाकरके युक्त होरहाहौं ३६ और नहीं करने के योग्य जो कर्म हैं तिनको करताहुआ और अपना हित कभी न करा इसप्रकार अपने कर्म से हुआ जो बहुत तरह का दुःख तिसको जान के ३७ यह विचार करताहुआ कि इसनरक तुल्य गर्भ से कब मेरा निकासहोगा अब की किसी तरहदुःखसे उद्धार होउँ तो नित्यही विष्णुका पूजन कियाकरोंगा ३८ इसको आदि लेकै अनेक बार्त्ताको यादिकरता हुआ जो जीव सो तबतक योनि यंत्र करके पीड़ित होता हुआ अर्थात् जब पैदा होने को हुआ तौ उदरसे माता की योनि में होके निकलने लगा तौ पहिले से भी अधिक दुःखकरके पीड़ित हुआ फिर अतिदुःखकरके उत्पन्न होता हुआ जैसे नरकसे पातकी निकलै ३९ अथवा पीवसे भरा हुआ जो फोड़ा तिसमें से वहांका कीड़ा जैसे बाहर निकल पृथिवी में पलोटै तैसे चेष्टा करताहुआ तिसके उपरान्त जो कुछ बाल्य अवस्था में पराधीनतासे दुःख होते हैं तिनको भोगता हुआ ४० और हे गृध्र यौवनादिक अवस्थाओं में ये दुःख होते हैं तिनको तुम जानतेही हो औौ सब जगह प्रसिद्ध भी हैं इससे मैंने नहीं वर्णन किये ४१ इसप्रकार करके मैं देहही यह अभ्यासते और मैं करनेवालाहों इस आग्रहते निरय गर्भ वासादि दुःख होते हैं ४२॥

तस्माद्देहद्वयादन्यमात्मानं प्रकृतेः परम्॥
ज्ञात्वा देहादिममतां त्यक्त्वात्मज्ञानवान्भवेत्॥४३॥

जाग्रदादिविनिर्मुक्तं सत्यज्ञानादिलक्षणम्॥
शुद्धम्बुद्धं सदा शांतमात्मानमवधारयेत्॥४४॥

चिदात्मनि परिज्ञा

     ते नष्टे मोहेऽज्ञसंभवे॥  

देहः पततु प्रारब्धकर्मवेगेन तिष्ठतु॥४५॥

योगिनो नहि दुःखं वा सुखं वा ज्ञानसंभवम्॥
तस्माद्देहेन सहितो यावत्प्रारब्धसंक्षयः॥४६॥

तावत्तिष्ठ सुखेन त्वं धृतकंचुकसर्पवत्॥
अन्यद्वक्ष्यामि ते पक्षिन् शृणु मे परमं हितम्॥४७॥

त्रेतायुगे दाशरथिर्भूत्वा नारायणोऽव्ययः
रावणस्य वधार्थाय दंडकानागमिष्यति॥४८॥

सीतया भार्यया सार्द्धं लक्ष्मणेन समन्वितः॥
तत्राश्रमे जनकजां भ्रातृभ्यां रहिते वने ४६॥

तिससे स्थूल सूक्ष्मदोनों देहोंसे न्यारा और प्रकृति से पर अपना स्वरूप आत्माको जान करके देहादिकों में ममताको त्यागिकै आत्मज्ञानयुक्त पुरुष होय ४३ और जाग्रदादि अवस्थासे रहित और सत्यज्ञानादिहै स्वरूप जिसका और शुद्ध और बुद्धनाम निर्मलज्ञानस्वरूप और सदाशान्त ऐसे आत्मा का सदा ध्यानकरे ४४ और चिदात्मस्वरूप जाने सन्ते और अविद्यासे उत्पन्न हुआ जो अहंममतारूप मोहतिसके नाशहुये पीछे प्रारब्ध कर्मके वेगकरके देह चाहे गिरपड़े अर्थात् छूट जावे चाहे स्थित रहे ४५ क्योंकि ज्ञानी को शरीर के त्याग में दुःखनहीं और रहने में भी न दुःख न सुख जिससे सुखदुःख ये दोनों अज्ञानसे उत्पन्न हुये हैं तिसकारणले जबतक प्रारब्ध कर्मका क्षय नहीं होता है तबतक देह करके सहित ज्ञानी सुखपूर्वकस्थित रहता है इसका आशय यह है कि जैसे जबतक सर्प को अपनी कञ्चुली के त्यागका समय नहीं भावता है तबतक धारणीकरे रहता है और जब त्याग का समय होता है तब त्यागभी दे ता है परन्तु सर्पको कंचुक के रहने में और त्याग देने में कुछ हर्षशोक नहींहोता तैसे ज्ञानी को भी शरीरका रहना और छूटजाना बराबरही है ४६ तिससे हे गीध जबतक तेरा प्रारब्ध कर्म है तबतक तू भी धारणकरी है कंचुली जिसने ऐसे सर्प के तुल्य स्थितरहु और हे पक्षिन और भी तुम्हारा हित वर्णन करता हौं तिसको श्रवणकरो ४७ त्रेतायुग में विनाशरहित नारायण दशरथ के पुत्रहो के दराडबनमें सीता जो अपनी भार्यातित करके सहित और लक्ष्मण करके सहित रावण के वध के लिये आयेंगे ४८ तहां रामलक्ष्मण करके रहित आश्रम में सीताको रावणचोर की तरह हरके लंकापुरी में स्थापन करेगा ४९॥

रावणश्चोरवन्नीत्वा लंकायां स्थापयिष्यति॥
तस्याः सुग्रीवनिर्देशाद्वानराः परिमार्गणे॥५०॥

आगमिष्यंति जलधेस्तीरं तत्र समागमः॥
त्वया तैः कारणवशाद्भविष्यति न संशयः॥५१॥

तदा सीता स्थितिन्तेभ्यः कथयस्व यथार्थतः॥
तदैव तव पक्षौ द्वावुत्पत्स्येते पुनर्नवौ॥५२॥

संपातिरुवाच॥

बोधयामास मां चंद्रनामा मुनिकुलेश्वरः॥
पश्यंतु पक्षौ मे जा

          तौ नूतनावतिकोमलौ॥५३॥

स्वस्ति वास्तु गमिष्यामि सीतां द्रक्ष्यथ निश्चयम्॥
यत्नं कुरुध्वं दुर्लंघ्यसमुद्रस्य विलंघने॥५४॥

यन्नामस्मृतिमात्रतोऽपरिमितं
संसारवारांनिधिं
तीर्त्वागच्छति दुर्जनोऽपि परमं
विष्णोः पदं शाश्वतम्॥
तस्यैव स्थितिकारिणस्त्रिजगतां
रामस्य भक्ताः प्रियाः
यूयं किं न समुद्रमात्रतरणे
शक्ताः कथं वानराः॥५५॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे किष्किंधाकाण्डेऽष्टमस्सर्गः ८॥

फिर सुग्रीव की आज्ञा से तिससीता के ढूंढनेको वानर आवेंगे ५० फिर किसी कारण वशसे समुद्र के तीर तिन वानरोंका तुम्हारे साथ मिलाप होगा इसमें कुछ संशय नहीं है ५१ तब उन वानरोंसे सीताजहां स्थित है सो सब वृत्तान्त जैसा कुछ है तैसा यथार्थ कहना फिर उसीसमय में तुम्हारे दोनों पंख नवीन प्रति कोमल उत्पन्न होजावेंगे ५२ तब सम्पाति वानरोंसे कहि रहा है कि हे कपीश्वरो चन्द्र नाम करके मुनि मुझसे सब वृत्तान्त इसप्रकार कहते हुये सो तुम देखो कि सीताकी खबर तुमको सुनातेही मेरे दोनों पंख नवीन और अति कोमल निकलि आये हैं ५३ इससे हेवानरो तुम्हारा कल्याण होय और में जाता और तुम निश्चय करके सीताको देखोगे परन्तु दुःख करके उल्लंघन करने के योग्य जो समुद्र तिसके पार जानेको यत्नकरिये ५४ जिस राम नाम के स्मरण मात्र करके दुर्जन पुरुष भी जिसका कुछ प्रमाणही नहीं ऐसे संसाररूप समुद्रको पारहो सनातन विष्णुलोकको प्राप्त होता है तिसतीनों लोककी उत्पत्ति पालन संहार करनेवाले रामके प्यारे भक्त जे वानर तुम सबसे प्रत्यक्ष लघु समुद्र के पार होनेको क्या समर्थ नहींहो अर्थात् समर्थही हौ ५५॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे किष्किन्धाकाण्डे भाषाटीकायामष्टमः सर्गः ८॥

गते विहायसा गृध्रराजे वानरपुंगवाः॥
हर्षेण महताविष्टाः सीतादर्शनलालसाः॥१॥

ऊचुः समुद्रं पश्यन्तो नक्रचक्रभयंकरम्॥
तरंगादिभिरुन्नद्धमाकाशमिव दुर्ग्रहम्॥२॥

परस्परमवोचन्वै कथमेनं तरामहे॥
उवाच चांगदस्तत्र शृणुध्वं वानरोत्तमाः॥३॥

भवन्तोत्यन्तबलिनः शूराश्च च कृतविक्रमाः॥
को वाऽत्र वारिधिं तीर्त्वा राजकार्यं करिष्यति॥४॥

एतेषां वानराणां सः प्राणदाता न संशयः॥
तदुत्तिष्ठतु मे शीघ्रं पुरतो यो महाबलः॥५॥

वानराणां च सर्वेषां रामसुग्रीवयोरपि॥
स एव पालको भूयान्ना

         त्र कार्या विचारणा॥६॥

इत्युक्ते युवराजेन तूष्णीं वानरसैनिकाः॥
आसन्नोचुःकिंचिदपि परस्परविलोकिनः॥७॥

दो० ।जाम्बवान के वचनसुनि वेगपवनसुत वीर॥
नवमसर्ग बहुरूपधरि गयोजलधि के तीर १

अब महादेवजी पार्वतीसे कथा वर्णनकरै हैं है पार्वति जब आकाशमार्ग करके गीधोंका राजा सम्पाति चला गया तब सब वानर श्रेष्ठ सीता के दर्शनकी लालसा करके बड़े हर्ष करके युक्त होते हुये १ अब नक्रको आदि लेके जलचरों के समूह करके भयंकर और तरंगों करके ऊपर को बढ़ता हुआ और जैसे आकाश कोई न पकडस के ऐसे पारजानेको अशक्य २ ऐसे समुद्रको सबवानर देख के परस्पर वचन बोलते हुये कि इससमुद्रको कैसे हम तरेंगे तब अंगद बोलते हुये कि हे वानरों में श्रेष्ठ वानरो तुम मेरे वचन सुनो ३ तुम सब अत्यन्त बलवान् हो और शूरहो और पराक्रम भी तुमने बहुत किये हैं तुम सबों में से कौनसा समुद्र के पार जाके राजाका कार्य करेगा ४ इन सब वानरोंका वही प्राणोंका देने वाला होगा इसमें कुछ सन्देह नहीं है इससे भाई जो महाबली होय सो मेरे धागे उठे ५ सब वानरोंका और राम सुग्रीवका भी वही रक्षाकरने वाला होगा इसमें कुछ विचार करना नहीं ६ ऐसे जब अंगदने वचन कहे तब जितने वानर थे तेस मौन हो परस्पर देखते हुये कुछ नहीं बोलते हुये ७॥

अंगद उवाच॥

उच्यतां वै बलं सर्वैः प्रत्येकं कार्यसिद्धये॥
केन वा साध्यते कार्यं जानीमस्तदनन्तरम्॥८॥

अंगदस्य वचः श्रुत्वा प्रोचुर्वीराः बलं पृथक्॥
योजनानां दशारभ्य दशोत्तरगुणं जगुः॥९॥

शतादर्वाग्जाम्बवांस्तु प्राह मध्ये वनौकसाम्॥
पुरा त्रिविक्रमे देवे पादम्भूमानलक्षणस्॥१०॥

त्रिःसप्तकृत्वोऽहमगां प्रदक्षिणविधानतः॥
इदानीं वार्द्धकग्रस्तो न शक्नोमि विलंघितुम्॥११॥

अंगदोऽप्याह मे गंतुं शक्यं पारं महोदधेः॥
पुनर्लंघनसामर्थ्यं न जानाम्यस्ति वा न वा॥१२॥

तमाह जाम्बवान्वीरस्त्वं राजा नो नियामकः॥
न युक्तन्त्वां नियोक्तुं मे त्वं समर्थोऽसि यद्यपि॥१३॥

अंगद उवाच॥

एवं चेत्पूर्ववत्सर्वे स्वप्स्यामो दर्भविष्टरे॥
केनापि न कृतं कार्यं जीवितुं च न शक्यते॥१४॥

तब फिर अंगद कहता हुआ कि इसकार्यकी सिद्धिकेलिये एकएक अपना अपना वलकहौफिर तिसके अनन्तर यह जाना जायगा कि किसकरके यह कार्य सिद्ध होना है ८अब यह अंगदका वचन सुनिकै वीर अपना अपना न्यारी

न्यारा बल दशयोजनसे लेके दशदश अधिक संख्या में कहते हुये ९ अर्थात् किसी वानरनेकहा में दशयोजन जासक्ताहौं फिर दूसरे ने कहा मैं बीसयोजन जासक्ता हो इसप्रकार सौयोजन के भीतरही सबनेकहा जाम्बवान्ने तौ कहा मैं नब्बे योजन जासक्ताहों और वानर जाम्बवान् की संख्या को भी नहीं पहुँचे और जाम्बवान् यह कहताहुआ कि पहिले वामनजी के अवतार में जब वामनजीने एक पैंगसे सत्र पृथिवी नापी तब मैं वामनजी के चरणकी प्रदक्षिणा करने चला १० तौ इक्कीस प्रदक्षिणा मैंनेकी अर्थात् सबष्टथिवी की इक्कीस प्रदक्षिणा की और इससमय मैं तौ वृद्धावस्था से ग्रस्त होरहाहों इससे समुद्रकेपार सौ योजन जानेको नहीं समर्थह ११ तब अंगद ने कहा कि समुद्र के पारजानेकी तो मेरी सामर्थ्य है फिर लौटिआनेको सामर्थ्य है किंवा नहीं है यह मैं नहीं जानताहों १२ तब जाम्बवान् वीर अंगद से बोला कि तुम हमारे राजाहों हम को आज्ञाकरनेवालेहौ इससे यद्यपि तुम समर्थ भी हो परन्तु हम तुमको नहीं भेजते हैं १३ तब अंगढ़ कहताहुआ कि जब ऐसा है तब हम सब पहिले की तरह कुशा बिछाके उनके ऊपर शयन करेंगे अर्थात् अनशन व्रतकरके मरिजावेंगे जब किसी कार्य न किया तो कैसे जीवने को समर्थ होसके है १४॥

तामाह जाम्बवान्वीरो दर्शयिष्यामि ते सुत॥
येनास्माकं कार्यसिद्धिर्भविष्यत्यचिरेण च॥१५॥

इत्युक्त्वा जाम्बवान्प्राह हनमंतमवस्थितम्॥
हनूमन्किं रहस्तूष्णीं स्थीयते कार्यगौरवे॥१६॥

प्राप्तेज्ञेनेव सामर्थ्यं दर्शयाद्य महाबल॥
त्वं साक्षाद्वायुतनयो वायुतुल्यपराक्रमः॥१७॥

रामकार्यार्थमेव त्वं जनितोसि महात्मना॥
जातमात्रेण ते पूर्वं दृष्टोद्यतं विभावसम्॥१८॥

पक्कं फलं जिघृक्षामीत्युत्प्लुतं बातचेष्टया॥
योजनानां पंचशतं पतितोसि ततो भुवि॥१९॥

अतस्त्वद्बलमाहात्म्यं को वा शक्नोति वर्णितम्॥
उत्तिष्ठ कुरु रामस्य कार्यं नः पाहि सुव्रत॥२०॥

श्रुत्वा जाम्बवतो वाक्यं हनूमानतिहर्षितः॥
चकार नादं सिंहस्य ब्रह्माण्डं स्फोटयन्निव॥२१॥

तब फिर जाम्बवान् अंगद से वोले कि हे पुत्र उसको अब तुमको दिख लावता हों जिस करके हमारे सबके कार्यकी सिद्धि शीघ्रही होगी १५ ऐसा अंगदसे कहिकै जाम्बवान् एकान्त में बैठे जो हनुमान् तिन से बोलते हुये कि हैं हनुमन् ऐसे बड़े भारी कार्य में तुम कैसे एकान्त में मौनहुये बैठे हो १६ हे महाबल इससमयमें अपनी सामर्थ्य दिखाइये तुम साक्षात् वायुके पुत्रहो अर्थात् पवन के पुत्रों और पवनके तुल्य है पराक्रम जिसका ऐसे तुमहौ १७ और राम के कार्यको सिद्धि के अर्थ महात्मा जो पवन तिसने तुमको उत्पन्न किया है औ

जब तुम उत्पन्न हुयेथे तभी सूर्यको उदयहोते देखके १८ यह पकाहुआ फल है मैं ग्रहणकरूं ऐसी बुद्धि करके पांचसै योजन ऊपर कूदकर गमन करतेहुये फिर पृथिवीमें गिरपड़े १९ इससे तुम्हारे बलके माहात्म्यको कौन वर्णन कर नेको समर्थ है इससे सुव्रत शोभन है ब्रह्मचर्य्य व्रत जिसका ऐसे तुमहौ सो उठौऔर रामके कार्यको करौऔर हम सबकी रक्षाकरौ २० यह जाम्बवान् केवचन सुनिकै हनुमान् अत्यन्त प्रसन्नहो ब्रह्माण्ड मानों फोढ़ते सिंहवत् गर्जते हुये २१॥

बभूव पर्वताकारस्त्रिविक्रम इवापरः॥
लंघयित्वा जलनिधिं कृत्वा लंकां च भस्मसात्॥२२॥

रावणं सकुलं हत्वाऽऽनेष्ये जनकनंदिनीम्॥
यद्वा बध्वा गलेरज्ज्वा रावणं वामपाणिना॥२३॥

लंकां सपर्वतां धृत्वा रामस्याग्रे क्षिपाम्यहम्॥
याद्वा दृष्ट्वैव यास्यामि जानकीं शुभलक्षणाम्॥२४॥

श्रुत्वा हनूमतो वाक्यं जाम्बवानिदमब्रवीत्॥
दृष्ट्वैवागच्छ भद्रन्ते जीवंतीं जानकीं शुभा॥२५॥

पश्चाद्रामेण सहितो दर्शयिष्यसि पौरुषम्॥
कल्याणं भवताद्भद्र गच्छतस्ते विहायसा॥२६॥

गच्छन्तं रामकार्यार्थं वायुस्त्वामनुगच्छतु॥
इत्याशीर्भिः समामंत्र्य विसृष्टःप्लवगाधिपैः॥२७॥

महेंद्राद्रिशिरो गत्वा बभूवाद्भुतदर्शनः॥२८॥

महानगेन्द्रप्रतिमो महात्मा सुवर्णवर्णोऽरुणचारुवक्त्रः॥
महाफणीन्द्राभसुदीर्घबाहुर्वातात्मजोऽदृश्यत सर्वभूतैः ॥२९॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे किष्किन्धाकाण्डे
नवमः सर्गः९॥

पर्वतके आकार होतेहुये जैसे वामनजीने अपना स्वरूप बढ़ाया होयऐसे प्रतीयमान होतेहुये अर्थात् सबने जाना और यह कहतेहुये कि समुद्रको उल्लंघन करके और लंकाको भस्म करके २२ और कुल सहित रावणको मारि कै सीताको लै आवोंगा अथवा रावणको रस्सीसे गले में बांधके और बायें हाथ से २३ पर्वतके सहित लंकाको धारण करके रामके आगे स्थापन करौंगा अथवा सीताके ले धानेकी रामकी आज्ञानहीं इससे शुभहै लक्षण चिह्न व स्वरूप जिसका ऐसी सीताको देखके आवौंगा२४ यह हनुमान् का वचन सुनिकै जाम्बवान् यह वचन बोलतेहुये हे हनुमन् जीवती हुई सीताको केवल देखही करके आजावो २५ तिसकेपीछे रामकरके सहित अपना पराक्रम दिखाओगे और हे कल्याणरूप जिस समयमें आकाशमार्ग करके तुम गमन करौ उस स-

मयमें तुम्हारा कल्याणहोय २६ और रामकार्य करनेको जातेहुये तुम्हारे पीछे पवन चलै ऐसे आशीर्वाद करके हनुमान् को युक्त करके वानरों के स्वामियों करके आज्ञाको प्राप्त जो हनुमान् २७ सो महेन्द्र पर्वतके शिखर पै जाकर अद्भुत दर्शन जिसका ऐसा होताहुआ२८ बड़ेभारी पर्वतके तुल्य और सुवर्ण कासा है गौरवर्ण जिसका और लालहै सुन्दरमुख जिसका और शेष तुल्यहै लम्बीभुजा जिसकी ऐसा जो पवनकापुत्र महात्मा सो सब भूतोंकरके देखागया २९॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे किष्किन्धाकाण्डे
भाषाटीकायां नवमस्सर्गः ९॥

समाप्तोऽयं किष्किन्धाकाण्डः॥

___________

श्रीगणेशाय नमः॥

अथ अध्यात्मरामायण॥

सुन्दरकाण्ड॥

भाषा टीकासहित॥

_______

श्रीमहादेव उवाच॥

शतयोजनविस्तीर्णं समुद्रं मकरालयम्॥
लिलंघयिपुरानंदसंदोहो मारुतात्मजः॥१॥

ध्यात्वा रामं परात्मानमिदं वचनमब्रवीत्॥
पश्यंतु वानराः सर्वे गच्छंतं मां विहायसा॥२॥

अमोघं रामनिर्मुक्तं महाबाणमिवाखिलाः॥
पश्याम्यद्यैव रामस्य पत्नीं जनकनंदिनीम्॥३॥

कृतार्थोऽहं कृतार्थोऽहं पुनः पश्यामि राघवम्॥
प्राणप्रयाणसमये यस्य नाम सकृत्स्मरन्॥४॥

नरस्तीर्त्वा भवांभोधिमपारं याति तत्पदम्॥
किं पुनस्तस्य दूतोऽहं तदंगांगुलिमुद्रिकः॥५॥

तमेव हृदये ध्यात्वा लंघयाम्यल्पवारिधिम्॥
इत्युक्त्वा हनुमान्बाहू प्रसार्य्यायतबालधिः॥६॥

ऋजुग्रीवोर्ध्वदृष्टिः सन्नाकुंचितपदद्वयः॥
दक्षिणाभिमुखस्तूर्णं पुप्लवेऽनिलविक्रमः ७॥

दो०। सुरसाजीति समुद्र के पारगये हनुमान॥
पुनि लंकाजीती पुरी प्रथमसर्गकरिमान १

अब श्रीमहादेवजी पार्वती से कथा वर्णन करते हैं हे पार्वति आनन्द का समूह जिसके हृदय में भराहुआहै और सौ योजन समुद्रके पारहोनेकी इच्छा जिसको ऐसा जो हनुमान १ सो परमात्मा जो राम तिनका ध्यानकरिकै यह कहताहुआ कि आकाशमार्गकरिकै चलताहुआ जो मैंहों तिसको सबवानर २ जैसे रामका अमोघ बाण जाता होय तैसे देखैं और मैं अभी रामकी पत्नी जो सीता तिसको देखौंगा ३ फिर जगत् की माताके दर्शनकरिकै कृतार्थ जो मैं सो रामको देखौंगा मरणसमयमें जिस रामके नामको एकबार भी स्मरण करिकै ४ अपार जो संसाररूपी समुद्र तिसको पारहोके उसके लोकको मनुष्य प्राप्त होता है तिन रामकादूत और तिनकी मुद्रिका को लियेहुये ५ और ति-

न्हीं रामको हृदयमें ध्यानकरिकै इस छोटेसे समुद्रको नांघि जाऊँगा यह क्या कहनाहै वह कहिकै बड़ी है पूँछ जिसकी ऐसा जो हनुमान सो अपनी भुजाओंको फैलाकै ६ और सीधी है ग्रीवा गर्दन जितकी और ऊपरहै नेत्रों की दृष्टि जिसकी और समेटिलिये हैं दोनों पांव जिसने और पवन के तुल्य है गति जिसकी ऐसा जो हनुमान् सो दक्षिण दिशा के सम्मुख होकै शीघ्रही उस पर्वत से कूदता हुआ ७॥

आकाशाच्चरितं देवैर्वीक्ष्यमाणो जगाम सः॥
दृष्ट्वाऽनिलसुतं देवा गच्छंतं वायुवेगतः॥८॥

परीक्षणार्थं सत्वस्य वानरस्येदमब्रुवन्॥
गच्छत्येष महासत्वो वानरो वायुविक्रमः॥९॥

लंकां प्रवेष्टुं शक्तो वा न वा जानीमहे बलम्॥
एवं विचार्य नागानां मातरं सुरसाभिधाम्॥१०॥

अब्रवीद्देवतावृन्दः कौतूहलसमन्वितः॥
गच्छ त्वं वानरेंद्रस्य किंचिद्विघ्नं समाचर॥११॥

ज्ञात्वा तस्य बलं बुद्धिःपुनरेहि त्वरान्विता॥
इत्युक्ता सा ययौ शीघ्रं हनुमद्विघ्नकारणात्॥१२॥

आवृत्य मार्गं पुरतः स्थित्वा वानरमब्रवीत्॥
एहि मे वदनं शीघ्रं प्रविशस्व महामते॥१३॥

देवैस्त्वं कल्पितो भक्षः क्षुधासंपीडितात्मनः॥
तामाह हनूमान्मातरहं रामस्य शासनात् ॥१४॥

अबआकाश में स्थित होकै देवताओं करिकै देखागया जो हनुमान् सो जारहाहै और पवन के वेगकरिकै जाताहुया जो हनुमान् तिसको देवतालोग देखिकरिकै ८ हनुमान् के बलकी परीक्षा के अर्थ यह वचन बोलतेहुये कि बड़ा है बल जिसमें और पवनकीसी जिसकी गतिहै ऐसा जो वानर जारहा है ९ सो लंकामें प्रवेश करनेको समर्थ है अथवा नहीं है यह जाननेको इसका बल हम जानैंगे ऐसे देवतालोग विचारकरिकै सुरसा है नाम जिसका ऐसी जो नागोंकी माता तिससे १० आश्चर्य युक्तहो कहतेहुये कि हे सुरसे तुम जावो और इस हनुमान्‌का कुछ विघ्न करो ११ तिसका बल और बुद्धि जानिकै फिर शीघ्रही आवो ऐसे देवताओंकरिकै भेजीहुई जो वह सुरसा सो हनुमान्के विघ्नके कारण से शीघ्र जातीहुई १२ हनुमान् के आगे मार्गको रोंक खड़ी होकैयह कहतीहुई कि हे वानर हे श्रेष्ठमते तुम आके मेरे मुखमें प्रवेश करो१३ क्योंकि मैं भूखकरिकै बड़ी पीड़ित होरहीहौं सो आजु तुम्हीं मेरा भोजन होउगे यह देवतों ने रचरक्खा है १४॥

गच्छामि जानकीं द्रष्टुं पुनरागम्यसत्वरः॥
रामाय कुशलं तस्याः कथयित्वा त्वदाननन्॥१५॥

निवेक्ष्ये देहि मे मार्गं सुरसायै नमोऽस्तु ते॥

इत्युक्ता पुनरेवाह सुरसा क्षुधितास्म्यहम्॥१६॥

प्रविश्य गच्छ मेवक्त्रं नो चेत्त्वांभक्षयाम्यहम्॥
इत्युक्तो हनुमानाह मुखं शीघ्रं विदारय॥१७॥

प्रविश्य वदनं तेऽद्य गच्छामि त्वरयान्वितः॥
इत्युक्ता योजनायामदेहो भूत्वा पुरःस्थितः॥१८॥

दृष्ट्वा हनूमतो रूपं सुरसा पंचयोजनम्॥
मुखं चकार हनुमान्द्विंगुणं रूपमादधत्॥१९॥

ततश्चकार सुरसा योजनानां च विंशतिम्॥
वक्तं चकार हनुमांस्त्रिंशद्योजनसम्मितम्॥२०॥

ततश्चकार सुरसा पंचाशद्योजनायतम्॥
वक्त्रं तदा हनूमांस्तु बभूवांगुष्ठसन्निभः॥२१॥

** **तब हनुमान उससे बोलते हुये कि हे मातः मैं रामकी आज्ञासे सीताके देखनेको जाताहौंसीताको देखिकै फिर शीघ्रही लौटिकै सीताकी खबरि रामसे कहिकै तेरे मुखमें प्रवेशकरौंगा १५ इससे मुझको मार्ग दे और सुरसानामहै जिसका तिसके अर्थ नमस्कार है ऐसा जब हनुमान्ने कहा तौ सुरसाबोली कि मैं भूखीहौं१६ इससे मेरे मुखमें प्रवेश करके तुम जावो नहीं तौ मैंतुझको भक्षण करतीहौंतब हनुमान् ने कहा कि अपनामुख फैलाओ १७ तेरे सुखमें प्रवेशकरके फिर शीघ्रही मैं जाऊंगा ऐसा कहिकै हनुमान् योजन भरे का लंबा शरीर धारण कर अगाड़ी खड़ेहोते हुये १८ तब सुरसा हनुमान् के रूपको देख के पांचयोजनका मुख करतीहुई तौ हनुमान् दशयोजन रूपकरतेहुये १९तब सुरसा बीस योजनका मुखकरती हुई तब हनुमान् तीस योजनका रूप धारण करते हुये २० तब सुरसा पचास योजनका मुखकरती हुई तब तो हनुमान् अंगूठेके तुल्यलघुरूपहोकर २१॥

प्रविश्य वदनं तस्याः पुनरेत्य पुरः स्थितः॥
प्रविष्टो निर्गतोऽहं ते वदनं देवि ते नमः॥२२॥

एवं वदंतं दृष्ट्वा सा हनूमंतमथाऽब्रवीत्॥
गच्छ साधय रामस्य कार्यं बुद्धिमतां वर॥२३॥

देवैः संप्रेषिताहं ते बलं जिज्ञासुभिः कपे॥
दृष्ट्वा सीतां पुनर्गत्वा रामं द्रक्ष्यसि गच्छ भो॥२४॥

इत्युक्त्वा सा ययौ देवलोकं वायुसुतः पुनः॥
जगाम वायुमार्गेण गरुत्मानिव पक्षिराट्॥२५॥

समुद्रोऽप्याह मैनाकं मणिकांचनपर्वतम्॥
गच्छत्येष महासत्वो हनूमान्मारुतात्मजः॥२६॥

रामस्य कार्य्यसिध्यर्थं तस्य त्वं सचिवो भव॥
सगरैर्वर्द्धितो यस्मात्पुराहं सागरो भवम्॥२७॥

तस्यान्वये बभूवासौ रामो दाशरथिः प्रभुः॥
तस्य कार्यार्थसिध्यर्थं गच्छत्येष महाकपिः॥२८॥

सुरसाके मुखमें प्रवेशकरिकै फिर उसके अगाड़ीस्थित होतेहुये और यह कहा कि हे देवि तेरे मुख में प्रविष्ट हुआ मैं और फिर बाहर भी निकलिआया

और तेरे अर्थ नमस्कार है २२ ऐसे कहता हुआ जो हनुमान् तिसको सुरसा देखकैवचन बोलतीहुई कि हे बुद्धिमानों में श्रेष्ठतुम जाओ और राम के कार्य को सिद्ध करिये २३ और हे वानर तुम्हारे बलकी परीक्षा करतेहुये जो देवता तिन करके भेजी हुई मैं प्राप्त हुई अर्थात् अपनी इच्छासे नहीं आई हौंऔर तुम सीताको देखके फिर रामको देखौगे इससे अबजाओ २४ यह कहिकै वह सुरसा देवलोक को जाती हुई और पवन के पुत्र हनुमान् फिर पवन के वेग करके गरुड़ के समान जाते हुये २५ अव समुद्र भी मणि और सुवर्ण इनकेशृंगहें जिसके अर्थात् मणि सुवर्ण केहैं शिखर जिसके ऐसा जो मैनाक पर्वत तिससे कहताहुआ कि यह महाबली पवनका पुत्र हनुमान् जारहाहै २६ राम के कार्य के सिद्धिके अर्थ तिस हनुमान् के विश्राम को देके सहाय करनेवाले होउ क्योंकि पहिले सगरके पुत्रों करके बढ़ायाहुआ जो मैं सो सागर नाम करके होता हुआ २७ तिस सगरके वंशही में दशरथ के पुत्रराम होते हुये तिस रामके कार्य की सिद्धिके अर्थ यह वानरजाता है इससे इसका सहाय करना चाहिये २८॥

त्वमुत्तिष्ठ जलात्तूर्णं त्वयि विश्राम्य गच्छतु॥
स तथेति प्रादुरभूज्जलमध्यान्महोन्नतः॥२९॥

नानामणिमयैश्शृंगैस्तस्योपरि नराकृतिः॥
प्राह यांतं हनूमंतं मैनाकोऽहं महाकपे॥३०॥

समुद्रेण समादिष्टस्त्वद्विश्रामा यमारुते॥
आगच्छामृतकल्पानि जग्ध्वा पक्वफलानि मे॥३१॥

विश्राम्यात्र क्षणं पश्चाद्गमिष्यसि यथासुखम्॥
एवमुक्तोऽथ तं प्राह हनुमान्मारुतात्मजः॥३२॥

गच्छतोरामकार्यार्थं भक्षणं मे कथं भवेत्॥
विश्रामोवा कथं मे स्याद्गंतव्यं त्वरितं मया॥३३॥

इत्युक्त्वा स्पृष्टशिखरः कराग्रेण ययौ कपिः॥
किंचिद्दूरं गतस्यास्य छायां छायाग्रहोऽग्रहीत्॥३४॥

सिंहिका नाम सा घोरा जलमध्ये स्थिता सदा॥
आकाशगामिनां छायामाक्रम्याकृष्य भक्षयेत्॥३५॥

सो जल से शीघ्रही तुम उठो और तुम्हारे ऊपर हनुमान् विश्राम करके जायँ ऐसे समुद्रके कहतेही जल के मध्यसे बड़ा ऊंचा मैनाक पर्वत प्रकट होता हुआ २९ और नानाप्रकार की मणियों के शृंगोंकरके बड़ा ऊँचा जो मैनाक पर्वत तिसके ऊपर मनुष्यकारूप धारणकरे वह मैनाक पर्वतही जाते हुये हनुमान् से बोला कि हे हनुमन् मैं मैनाक पर्वतहौं३० और तुम्हारे विश्राम के लिये समुद्रकरके आज्ञा कियागया हौंइससे तुम आओ और अमृत केतुल्य पके फलोंको मेरे ऊपर भोजन करके ३१ और क्षणमात्र विश्राम

करकैफिर सुखपूर्वक जाओगे ऐसा जब मैनाक पर्वतने वचनकहा तौहनुमान् कहताहुआ कि ३२ रामके कार्य के अर्थ जाताहुआ जो मैंहौं तिसको भोजन और विश्रामका अवसर कहांहै क्योंकि मुझको शीघ्रही जानाहै ३३ यहकहिकै और अपने हाथसे उसके शिखरको स्पर्शकरके हनुमान् जातेहुये जब कुछ दूर हनुमान् गये तब सिंहिका नाम जो राक्षसी सो हनुमान् की छाया को पकड़लेतीहुई ३४ क्योंकि वह सिंहिकानाम घोर राक्षसी सदा जलमें रहती थी और जेकोई आकाशमें जानेवाले पक्षी आदि प्राणी उसमार्गकरके जातेथे उनकी छायाको पकड़के और उनपक्षियों को खैंचिकै भक्षण करलेतीथी ३५॥

तया गृहीतो हनुमांश्चिंतयामास वीर्यवान्॥
केनेदं मे कृतं वेगरोधनं विघ्नकारिणा॥३६॥

दृश्यते नैव कोऽप्यत्र विस्मयो मे प्रजायते॥
एवं विचिंत्य हनुमानघो दृष्टिं प्रसारयत्॥३७॥

तत्र दृष्ट्वा महाकायां सिंहिकां घोररूपिणीम्॥
पपात सलिले तूर्णं पद्भ्यामेवाहनद्रुषा॥३८॥

पुनरुत्प्लुत्य हनुमान्दक्षिणाभिमुखो ययौ॥
ततो दक्षिणमासाद्य कूलं नानाफलद्रुमम्॥३९॥

नानापक्षिमृगाकीर्णं नानापुष्पलतावृतम्॥
ततोददर्श नगरं त्रिकूटाचलमूर्द्धनि॥४०॥

प्रकारैर्बहुभिर्युक्तं परिखाभिश्च सर्वतः॥
प्रवेक्ष्यामि कथं लंकामिति चिंतापरोभवत्॥४१॥

रात्रौ वेक्ष्यामि सूक्ष्मोऽहं लंकां रावणपालिताम्॥
एवं विचिंत्य तत्रैव स्थित्वा लंकां जगाम सः॥४२॥

** **तब उस राक्षसी करके छायाकेद्वारा पकड़ाहुआ जो बड़ाबली हनुमान सो विचार करताहुआ कि किस विघ्नकारीने मेरीगति रोंकिली ३६ और पकड़ने वाला कोई दिखलाई देता नहीं यह मुझको बड़ा आश्चर्य होरहाहै ऐसे हनुमान् विचारकरके नीचेको निगाह करता हुआ ३७ तहां बड़ाहै स्वरूप जिसका ऐसी भयंकर रूपवाली सिंहिका राक्षसीको देखके जलके भीतर हनुमान् जाके क्रोधकरके पांवोंसेही उसको मारतेहुये ३८ फिर आकाशमार्ग में उछलकरके हनुमान् दक्षिणदिशाके सम्मुखहोके जातेहुये तिसके अनन्तर हनुमान् अनेक प्रकार के फलोंकरकेयुक्त वृक्षोंकरके शोभित ३९ और अनेकप्रकारके पक्षियों के समूहकरके व्याप्त और अनेक प्रकार के पुष्पोंकी लताओंकरके वेष्टित ससुद्रके दक्षिण तटको प्राप्तहोके त्रिकूट पर्वतके शिखरपै नगरको देखतेहुये ४० अब इसके उपरान्त त्रिकूट पर्वत के ऊपर जिस लंकापुरीको हनुमान् देखते हुये सोलंका कैसी है बहुत से शहरपनाहोंकरके युक्त है अर्थात् लंकापुरी में बहुत किले हैं तिनकी दीवारों करके वेष्टित है और बहुतसी खाइयों करके युक्त है ऐसी लंकाको देखिकै इसलंकापुरी में मैं कैसे प्रवेशकरौंऐसा विचारकरते

हुये ४१ तब हनुमान् यह निश्चयकरतेहुये कि लघुरूप धारणकर रावणकरके रक्षाकीहुई जो लंका तिसमें रात्रिको प्रवेश करौंगा ऐसा चिन्तन करके दिन तौनगरके बाहरही व्यतीत हुआ ४२॥

धृत्वा सूक्ष्मं वपुर्द्वारं प्रविवेश प्रतापवान्॥
तत्र लंकापुरी साक्षाद्राक्षसी वेषधारिणी॥४३॥

प्रविशंतं हनुमंतं दृष्ट्वा लंका व्यतर्ज्जयत्॥
कस्त्वं वानररूपेण मामनादृत्य लंकिनीम्॥४४॥

प्रविश्य चोरवद्रात्रौ किम्भवान्कुर्तुमिच्छति॥
इत्युक्त्वा रोषताम्राक्षी पादेनाभिजघान तम्॥४५॥

हनुमानपि तां वाममुष्टिनावज्ञयाहनत्॥
तदैव पतिता भूमौ रक्तमुद्वमती भृशम्॥४६॥

उत्थाय प्राह सा लंका हनूमंतं महाबलम्॥
हनूमन्गच्छ भद्रं ते जिता लंका त्वयानघ॥४७॥

पुराहं ब्रह्मणा प्रोक्ता ह्यष्टाविंशतिपर्यये॥
त्रेतायुगे दाशरथी रामो नारायणोव्ययः॥४८॥

जनिष्यते योगमाया सीता जनकवेश्मनि॥
भूभारहरणार्थाय प्रार्थितोयं मया क्वचित्॥४९॥

और जब रात्रिहुई तो हनुमान् छोटासारूप अर्थात् बिल्ली के सम्मानरूप धारणकरके लंकाके द्वारमें प्रवेश करतेभये तहां साक्षात् लंकापुरीही अर्थात् उस नगरी की देवी राक्षसीकारूप धारणकरके ४३ प्रवेश करता हुआ जो हनुमान् तिसका तिरस्कार करतीहुई और यह बोली कि तुम कौनहौजो वानर का रूप धारणकर लंकिनी नाम करके जो मैं हूँ तिसका अनादर करके जाते हो ४४ और चोरकी तरह रात्रिमें प्रवेश करके क्या कियाचाहते हो ऐसा कहिकै क्रोध करके लाल हुये हैं नेत्र जिसके ऐसी जो राक्षसीसो पांव करके हनुमान् को ताड़न करती हुई और हनुमान भी उसको वायें हाथके धूँसे करके मारते हुये ४५ उसी समय में वह राक्षसी मुखसे रुधिरका का वमन करती हुई पृथिवी में गिरपड़ती भई ४६ तब वह लङ्का उठकरके महावली जो हनुमान् तिससे बोलती हुई कि हे हनुमन् तुम्हारा कल्याण होय और तुम जावो और तुमने लका जीती ४७ और पहिले मुझसे ब्रह्माजीने यह कहा कि अट्टाईसवां त्रेतायुग जब आवैगा तो अविनाशी नारायणही दशरथका पुत्र राम रूपकरके प्रकटहोगा ४८ और उसकी योगमाया जनकके गृहमें सीता नाम करके होगी सो पृथिवीके भारके हरण के अर्थ मुझ करके प्रार्थना किया गया जो राम ४९॥

सभार्यो राघवो भ्रात्रा गमिष्यति महावनम्॥
तत्र सीतां महामायां रावणोपहरिष्यति॥५०॥

पश्चाद्रामेण साचिव्यं सुग्रीवस्य भविष्यति॥
सुग्रीवो जानकीं द्रष्टुं वानरान्प्रेषयिष्यति॥५१॥

तत्रैको वानरो रात्रावागमि

** ष्यति तेंऽतिकम्॥
त्वया च भर्त्सितः सोऽपि त्वां हनिष्यति मुष्टिना॥५२॥**

तेनाहता त्वं व्यथिता भविष्यसि यदानघे॥
तदैव रावणस्यान्तो भविष्यति न संशयः॥५३॥

तस्मात्त्वया जितालंका जितं सर्वं त्वयानघ॥
रावणान्तःपुरवरे क्रीड़ाकाननमुत्तमम्॥५४॥

तन्मध्येऽशोकवनिका दिव्यपादपसंकुला॥
अस्ति तस्यां महावृक्षः शिंशपानाम मध्यगः॥५५॥

तत्रास्ते जानकी घोरराक्षसीभिः सुरक्षिता॥
दृष्ट्वैव गच्छ त्वरितं राघवाय निवेदय॥५६॥

** **सो कभी सीता और लक्ष्मण करके सहित बनको जावेंगे फिर वहां तिन की स्त्री जो सीता तिनको रावण हरैगा ५० तिसके पीछे रामके साथ सुग्रीवकी मित्रताहोगी तब सुग्रीव सीताके देखनेको बानरोंको भेजैगा ५१ तिनमें एक बानर रात्रि में तेरे समीप आवैगा फिर तुम्ह करके तिरस्कारको प्राप्त वह वानर तुझको घूंसे से मारैगा ५२ फिर तिस करके ताड़नाकीगई तू जब अत्यन्त व्यथाको प्राप्तहोगी तभी रावणका नाशहोगा इसमें कुछ सन्देह नहीं है ५३ तिससे हे हनुमन् अब तुमने लंका जो मैंहूं तिसको जीतनेसे सबही को जीतलिया और रावणके पुरमें एक क्रीड़ावन है ५४ तिसके मध्यमें दिव्य वृक्षों करके संयुक्त, अशोक बनिकाहै उस अशोक बनिकाके बीचमें भी एक शिंशपाका वृक्षहै अर्थात् सीलमका वृक्षहै ५५ उस वृक्षके नीचे घोर राक्षसियों करके रक्षाकीगई सीता रहती हैं तिनको देखके शीघ्रही आवो और फिर रामचन्द्रको खबर सुनावो ५६॥

धन्याहमप्यद्य चिराय राघव-
स्मृतिर्ममासीद्भवपाशमोचनी॥
तद्भक्तसंगोऽप्यतिदुर्लभो मम
प्रसीदतां दाशरथिः सदा हृदि॥५७॥
उल्लंघितेऽब्धौ पवनात्मजेन
धरासुतायाश्च दशाननस्य॥
पुस्फोर वामाक्षि भुजश्च तीव्रं
रामस्य दक्षांगसतीन्द्रियस्य॥५८॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे सुंदरकाण्डे प्रथमः सर्गः॥१॥

और इस समयमें मैं भी धन्यहौं जिससे बहुत कालमें अब मुझको राम का स्मरण होताहुआ और अति दुर्लभ रामके भक्तका संग भी मुझको हुआ इससे अब श्रीराम मेरे हृदय में स्थितहो सदा प्रसन्नहोइँ ५७ जिस समय में हनुमान् समुद्रके पारहुये उस समयमें सीता और रावण इनका तो वामा नेत्र और बाईं भुजा फरकती हुई और रामका दक्षिण नेत्र और दक्षिण भुजा फरकतीहुई और यद्यपि इन्द्रियों के शुभाशुभ फलोंसे राम परहैं तौ भी

देवतों के शुभके कहने वाले रामका दक्षिण अंग फरकता हुआ ५८॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे सुन्दरकांडे
भाषाटीकायां प्रथमत्तर्गः॥१॥

ततो जगाम हनुमान्लंकां परमशोभनाम्॥
रात्रौ सूक्ष्मतनुर्भूत्वा बभ्राम परितः पुरीम्॥१॥

सीतान्वेषणकार्यार्थी प्रविवेश नृपालयम्॥
तत्र सर्वप्रदेशेषु विविच्य हनुमान्कपिः॥२॥

नापश्यज्जानकीं स्मृत्वा ततो लंकाभिभाषितम्॥
जगाम हनुमाच्छीघ्रमशोकवनिकां शुभाम्॥३॥

सुरपादपसंबाधां रत्नसोपानवापिकाम्॥
नानापक्षिमृगाकीर्णांस्वर्णप्रासादशोभिताम्॥४॥

फलैरानम्रशाखाग्रपादपैः परिवारिताम्॥
विचिन्वन्जानकीं तत्र प्रतिवृक्षं मरुत्सुतः॥५॥

ददर्शाभ्रलिहं तत्र चैत्यप्रासादमुत्तमम्॥
दृष्ट्वा विस्मयमापन्नो मणिस्तम्भशतान्वितम्॥६॥

समतीत्य पुनर्ग्गत्वा किंचिद्दूरं स मारुतिः॥
ददर्श शिंशपावृक्षमत्यंतनिविडच्छदम्॥७॥

दो०। सर्ग दूसरे पवनसुत सीता खोजत वीर॥
देखिराक्षसीवृन्द में छिपोलताजिमिकीर॥१॥

अब श्रीमहादेवजी पार्वतीजी से कथा वर्णन करते हैं कि हेपार्वति तिसके अनन्तर हनुमान् परमशोभन जो लंका तिसमें जातेभये और छोटासा शरीर धारणकर चारोंतरफसे लंकामें घूमते भये १ फिर सीताके ढूंढनेके अर्थ रावण के गृह में प्रवेश करतेहुये तहां सब जगह हनुमान् सीताको ढूंढ करके २ भी कहीं नहीं जब सीताको देखा तब जो लंकापुरी ने अशोकवनिका में सीता को बतलाया था उस बातको स्मरणकर हनुमान् शीघ्रही अशोक वनिका को जातेहुये ३ अशोकवनिका उसे कहते हैं जिस बगीचे में केवल स्त्रीजन ही विहारकरैंऔर मनुष्य जहां कोई भी न जानेपावें कैसी वह अशोकवनिकाहै जहांअनेक कल्पवृक्षों के समूहहैं और रत्नोंकी सीढ़ी जिन्होंमें होवें ऐसी जहांबावली हैं और नानाप्रकारके पक्षी और मृग जिसमें वास कररहे हैं और चारों तरफ से सुवर्ण की दीवार करके शोभित है ४ और फलों करके लचे हैं शाखाओं के अग्रभाग जिन्हों के ऐसे वृक्षों करके आच्छादित है उस अशोकवनिका में एकएक वृक्ष के नीचे सीताको हनुमान् ढूंढ़ते हुये ५ फिर उसी अशोकवनिका में बड़ाऊंचा एक किसी देवताका मन्दिर देखतेहुये जो कि सैकड़ों मणियों के खंभाओं करके युक्तहै तिसको देखके हनुमान् आश्चर्य युक्त हुये ६ फिर उसको उल्लंघन करके कुछ दूर हनुमान् जाके अत्यन्त सघन जिसके पत्ते हैं ऐसे एक शिंशपाके वृक्षको देखतेहुये ७॥

अदृष्टातपमाकीर्णं स्वर्णवर्णविहंगमम्॥
तन्मूले राक्षसीमध्ये स्थितां जनकनंदिनीम्॥८॥

ददर्श हनुमान् वीरो देवतामिव भूतले॥
एकवेणीं कृशां दीनां मलिनाम्बरधारिणीम्॥९॥

भूमौ शयानां शोचंती रामरामेति भाषिणीम्॥
त्रातारं नाधिगच्छंतीमुपवासकृशां शुभाम्॥१०॥

शाखां तच्छदमध्यस्थो ददर्श कपिकुंजरः॥
कृतार्थोऽहं कृतार्थोऽहं दृष्ट्वा जनकनंदिनीम्॥११॥

मयैव साधितं कार्यं रामस्य परमात्मनः॥
ततः किलकिलाशब्दो बभूवांतःपुराद्बहिः॥१२॥

किमेतदिति संलीनो वृक्षपत्रेषु मारुतिः॥
आयांतं रावणं तत्र स्त्रीजनैः परिवारितम्॥१३॥

दशास्यं विंशतिभुजं नीलांजनचयोपमम्॥
दृष्ट्वा विस्मयमापन्नो पत्रखण्डेष्वलीयत्॥१४॥

और जिस वृक्षकेनीचे कहीं घामनहीं दिखाई पड़ताहै और सुवर्ण कासा वर्ण जिन्होंका ऐसे पक्षियों करके व्याप्तहै उस वृक्षके जड़के समीप राक्षसियों के बीच में बैठी ८ हुई जैसे कोई स्वर्ग से आके पृथिवीमें देवता स्थित हो तैसे हनुमान् सीताको देखते हुये कैसी सीताहैं जिनके बालोंकी एकजटा सी बँध रही है ऐसे एक जूड़ेको धारण करे हैं और अति दुर्बल और दुःख संयुक्त हैं और मैले वस्त्रोंको धारण करे हैं ९ और पृथिवी में शयन कररही हैं और शोच रही हैं और रामराम यह शब्दको कहिरही हैं और किली रक्षा करनेवाले को नहीं प्राप्त होती हैं और उपवास करने से अतिदूबरहोरही हैं और अपने दर्शन से कल्याण के देनेवाली हैं १० ऐसीसीताको वृक्षके पत्ताओंमें छिपा हुआ हनुमान् देखताहुआ और सीताको देखिकै मैं कृतार्थ हुआ यह कहता हुआ ११ और परमात्मा जो राम तिनका मैंनेही कार्य सिद्ध किया ऐसा मानता हुआ तिसके उपरान्त बड़ाभारी शब्द रावणके महलसे प्रकट होता हुआ १२ तब हनुमान्ने कहा यह हौरा कहांसे होरहाहै इसको जानना चाहिये इस हेतुसे और भी पत्ताओं में लुकाय रहा तबतक स्त्रियाओंकरके सहित रावणको आते देखता हुआ १३ दश तौजिस रावणके मुखहैं और बीस भुजाहें और नील अंजनका जैसा पर्वत हो तैसाहै तिसकोदेखके बड़े आश्चर्य युक्त हनुमान् उस वृक्षके पत्तों के समूह में छिपता हुआ १४॥

रावणो राघवेणाशु मरणं मे कथं भवेत्॥
सीतार्थमपि नायाति रामः किं कारणं भवेत्॥१५॥

इत्येवं चिंतयन्नित्यं राममेव सदा हृदि॥
तस्मिन्दिनेपररात्रौ रावणो राक्षसाधिपः॥१६॥

स्वप्ने रामेण संदिष्टः कश्चिदागत्य वानरः॥
कामरूपधरः सूक्ष्मो वृक्षाग्रस्थोऽनुपश्यति॥१७॥

इतिदृ

** ष्ट्वाद्भुतं स्वप्नं स्वात्मन्येवानुचिंत्यसः॥
स्वप्नः कदाचित्सत्यः स्यादेवं तत्र करोम्यहम्॥१८॥**

जानकीं वाक्शरैर्विध्वा दुःखितां नितरामहम्॥
करोमि दृष्ट्वा रामाय निवेदयतु वानरः॥१९॥

इत्येवं चिंतयन्सीतासमीपमगमद्द्भुतम्॥
नूपुराणां किंकिणीनां श्रुत्वा सिंजितमंगना॥२०॥

सीता भीता लीयमाना स्वात्मन्येव सुमध्यमा॥
अधोमुख्यश्रुनयना स्थिता रामार्प्पितांतरा॥२१॥

अब रावण यह विचार करताहुआ कि रामके हाथसे मेरी मृत्यु कैसेहोय देखौसीताके अर्थभी रामनहीं आते इसमें क्या कारण है १५ इसप्रकार सदा हृदय में रामहीका चिन्तन कररहा है उसीदिन भुरही राति में रावणस्वप्न देखताहुआ १६ कि रामका भेजाहुआ एक बानर आके सूक्ष्म रूप धारण कर वृक्षमें छिपाहुया देखरहाहै १७ ऐसा अद्भुतस्वप्नरावण देखके अपने मनमें विचार करताहुआ कदाचित् स्वप्न सत्यही होय अर्थात् कोई वानर आके उस वृक्षमें छिपा हुआ देखताही होय तो यह करौंगा. १८ कि सीताको वचनरूपी वाणोंकरकेताडन करके अतिदुःखित करौंगा जिससे वह वानर देखिकै रामसे कहै १९ यह चिन्तन करके सीताके समीप शीघ्रही जाताहुआ तब रावण के संग बहुतसी स्त्रियां जो रहीं तिनके पांवों के आभूषण जो बिछुवे पायजेब आदि चोर कमरका जो बजना आभूषण इन्होंके शब्द को २० सीता सुनिकै भयभीतोहो अपने शरीरही में समिटरही है और नीचेको मुखकररोदन कर रही है और भीतरसे रामहीका ध्यान करती हुई स्थितहोतीभई २१॥

रावणोऽपि तदा सीतामालोक्याह सुमध्यमे॥
मान्दृष्ट्वा किं वृथा सुभ्रु स्वात्मन्येव विलीयसे॥२२॥

रामो वनचराणां हि मध्ये तिष्ठति सानुजः॥
कदाचिद्दृश्यते कैश्चित्कदाचिन्नैव दृश्यते॥२३॥

मया तु बहुधा लोकाः प्रेषितास्तस्य दर्शने॥
न पश्यन्ति प्रयत्नेन वीक्ष्यमाणाः समन्ततः॥२४॥

किं करिष्यसि रामेण निस्पृहेण सदा त्वयि॥
त्वया सदालिङ्गितोऽपि समीपस्थोऽपि सर्वदा॥२५॥

हृदयेस्य न च स्नेहस्त्वयि रामस्य जायते॥
त्वत्कृतान्सर्वभोगांश्च त्वद्गुणानपि राघवः॥२६॥

भुंजानोऽपि जानाति कृतघ्नो निर्गुणोऽधमः॥
त्वमानीता मया साध्वी दुःखशोकसमाकुला॥२७॥

इदानीमपि नायाति भक्तिहीनः कथंव्रजेत्॥
निःसत्वो निर्ममो मानी मूढः पण्डितमानवान्॥२८॥

तब रावण भी सीताको देखके बोला कि हे सीते मुझको देखके किस वा-

स्ते अपने शरीरहीमें छिप रही है वृथा २२ और लक्ष्मण सहितराम तो वनवासियों के मध्य में स्थितहोरहा है सो कभी किसी को दिखलाई देताहै कभी नहीं २३ और मैंने तो बहुत से दूत रामके देखने को भेजे सो किसी को नहीं दिखाई दिया इससे नहीं मालूम पड़ता कि राम है कि नहीं २४ और जो कहीं हो भी तो कभी तेरी खबर भी नहीं लेता ऐसे प्रीतिरहित रामके संग क्याकरैगी और जब तेरे समीप रामरहा तो तूने आलिंगन भी किया सब काल तौ भी २५ राम के हृदय में तेरा स्नेह कुछ भी नहीं है और तेरे कारण से हुये जो भोग हैं और तेरे गुण तिनको २६ भोगताभी है परन्तु नहीं जानताहै है ऐसा राम कृतघ्नहै और निर्गुण है और प्रथम है और पतिव्रता और दुःख शोककरके युक्त ऐसी जो तूहै तिसको मैं लेभी आया २७ और राम देखौ अभी नहीं आता क्योंकि जो भक्ति हीन है सो कैसे आवे अर्थात् जो रामकी तेरे में प्रीति होती तौ अवश्य आवता और पराक्रम करके हीन और तेरे में ममताभी जिसकी नहीं है और बड़ा गर्वयुक्त है और है तो मूढ़ परन्तु अपना को बड़ा पंडित मान रहाहै २८॥

नराधमन्त्वद्विमुखं किं करिष्यसि भामिनि॥
त्वय्यतीव समासक्तं मां भजस्वासुरोत्तमम्॥२९॥

देवगन्धर्वनागानां यक्षकिन्नरयोषिताम्॥
भविष्यसि नियोक्त्री त्वं यदि माम्प्रतिपद्यसे॥३०॥

रावणस्य वचः श्रुत्वा सीतामर्षसमन्विता॥
उवाचाधोमुखी भूत्वा निधाय तृणमन्तरे॥३१॥

राघवाद्विभ्यता नूनम्भिक्षुरूपन्त्वया धृतम्॥
रहिते राघवाभ्यान्त्वं शुनीव हविरध्वरे॥३२॥

हृतवानसि मान्नीचतत्फलम्प्राप्स्यसेऽचिरात्॥
यदा रामशराघातविदारितवपुर्भवान्॥३३॥

ज्ञास्यसेमानुषं रामं गमिष्यसि यमांतिकम्॥
समुद्रं शोषयित्वा वा शरैर्बध्वाथ वारिधिम्॥३४॥

हंतु त्वां समरे रामो लक्ष्मणेन समन्वितः॥
आगमिष्यत्यसन्देहो द्रक्ष्यसे राक्षसाधम॥३५॥

और हे भामिनि मनुष्यों में अधम और तुझसे विसुख अर्थात् तेरेमें प्रीतिरहित ऐसे रामको प्राप्तहोके क्या करैगी इससे तेरे बिपे अत्यन्त प्रीतियुक्त और असुरों में श्रेष्ठ ऐसा जो मैंठौं तिसका तू सेवन करु २९ और जो तू मुझको प्राप्तहोगी तौदेवता और गन्धर्व और यक्ष और किन्नर इनके स्त्रियों की सबकी आज्ञा करने वाली होगी अर्थात् तू इन सबोंकी मालिक होगी ३० अब यहां साढ़े छः श्लोकों करके रावणने रामकी निन्दा भी की है परन्तु इन्हीं श्लोकोंका और गुप्त दूसरे अर्थ करके सरस्वती वास्तवमेंस्तुतिही करती है

तब तो इन श्लोकोंका यह आशय युक्त अर्थहै कि रावणने जो यह कहा कि राम वनवासियों के संग रहाकरता है और कभी दिखाई देताहै कभी नहीं तिसका यह आशय है वनवासी लोग संन्यासी अथवा योगी हुये जिनका कुछ ग्रामसे और संसारी मनुष्योंसे कुछ प्रयोजनही नहीं है ऐसे वनवासियों के संग राम जो परमात्मा सो रहताहै यद्यपि सब प्राणियोंके हृदय में स्थितहोनेसे सबहीके संग परमेश्वर रहताहै तौ भी मूढ़ पुरुषोंको अविद्याके कारणसे दरिद्र पुरुषकी निधिकी तरह समीप नहीं जाना जाता इससे उनकी दृष्टिमें जैसे कोई कड़ोरोंकोस दूरहोय तैसे होरहाहै इसीसे उनकी अनृतभाषणादि पापोंसे निवृत्ति नहीं होती और जैसे दरिद्री पुरुषके घरही में खजाना गड़ा है और वह उसको नहीं जानता है तो अन्न वस्त्रसे व्याकुल हो घरघर मारामारा फिरता है तो वह धन उसके समीपभीहै परन्तु बिनाजाने दूरसरीखाहोरहाहै ऐसे राम सबके पासही है और बिनाजाने दूरसरीखा होरहाहै इससे सब के संगहै भी और नहीं सरीखा होरहा है और ज्ञानीलोग तौ सदा और सब जगद रामको छोड़िके और वस्तुको सत्यकरके देखतेही नहीं केवल रामहीको देखतेहैं इस आशयसे कहा राम वनवासियोंके संग रहताहै औयोगियोंको भी कभी समाधिमें प्रतीतहोता है कभी नहीं इसीसे नारदजीकोदासी पुत्रावस्था में समाधिमें एकबार रूपदिखाके फिर नहीं दिखाया यह कथा श्रीमद्भागवत के प्रथमस्कन्धमें प्रसिद्ध है इस आशयसे कहा राम कभी नहीं दिखाई देते हैं और जो रावणने कहा कि मैंने अपनेदूत बहुतसे रामके देखने को भेजे उन्हों ने कहा रामको नहीं देखा उसका आशय यहहै कि लोक शब्द करके यहां इन्द्रिय और इन्द्रियोंके देवताग्रहण किये जाते हैं क्योंकि जिसकरके देखैअथवा जिसकरके जानाजाय वहभी व्याकरण की रीतिले लोकशब्दका अर्थहोता है तब रावण यह कहता है कि मैंने अपने देवतोंकरके सहित मन बुद्धि इन्द्रियोंको रामजो परमात्मातिसके देखने में बहुतेरा प्रवृत्त किया और इन सबोंने यत्नभी किया परन्तु ये कोई नहीं रामको देखसके क्योंकि राम बुद्धि से भी परे हैं उसको रजोगुण युक्त मेरी इन्द्रियां कैसे देखसकें और रावणने सीतासे यह कहा कि तेरीइच्छा नहीं करता हुआ ऐसा जो राम तिल करके तू क्या करेगी तितका आशय यह है कि राम तो आत्मारामहै सिवाय अपने आत्मासे और पदार्थ में उसकी स्वभावहीसे रति नहीं और सीताहै प्रकृतिरूपिणी फिर उस में उसकी प्रीति कैसे होसक्ती है और जो रावणने कहा कि तुझकरके आलिंगन भी किया गयाहै और तेरे समीप भी स्थितहै तौभी तेरे में रामका स्नेह नहीं होता इसका भी आशय जो कहि आये हैं वोही है क्योंकि शक्ति और श-

क्तिमान्के अभेदसे सदा परमात्मा शक्तिकरके आलिंगितकी तरह भी और समीप भी स्थितहै परन्तु आत्मारामहोनेसे आप्त कामहै इससे बाह्य पदार्थों में उसका स्नेह नहीं और शक्तिकी प्रतीति तौ कार्य द्वाराही होती है और परमेश्वरकी शक्तिका कार्यहुआ सारा जगत् तौ जो परमेश्वरका जगत्में स्नेह होय तौ प्रकृतिरूप शक्ति में भी स्नेहजानाजाय सो कभी जीवकी तरह परमेश्वरका होताही नहीं इससे रावणने कहा कि तुझमें रामका स्नेह नहींहोता है और जो रावणने कहा कि तेरे कियेहुये जो सब भोग और तेरे गुणतिनको राम भोगता भी है और नहीं जानताहै कि मैंने कोई भोगा इसीसे कृतघ्नहै और निर्गुणहै और अधमहै इसका आशययहहै कि जितने भोगकरने के योग्य विषयहैं ते सब बुद्धिकी वृत्तियों करके समीप प्राप्त कियेगये हैं इससे मायिकहैं तिन विषयोंको और सुखदुःखादि संकल्प जे बुद्धिके गुणहैं तिनकोभोगताहतौ भी राममें भोग करनेवाला हौंऐसा नहीं मानता अभिमान नहीं है इसकारण से इससे कियेहुये कर्मोका नाश करनेवालाहै इससेकृतघ्न नामहै अथवाभक्तों के कियेहुये जो कर्म हैं तिनको ज्ञानरूपी अग्निको प्रकटकरके भस्म करनेवाला है इससे कृतघ्नकहते हैं कुछ किसीके कियेहुये उपकारको न माने इससे पर मेश्वरका नाम कृतघ्ननहीं है और राम निर्गुणहैं सच्चिदानन्द स्वरूप होने से और जब मायाही की शक्ति उसके आगे स्थितहोने की नहीं है तो उसके गुणों के सम्बन्धकी क्यावात्तीहै और धर्मजोशब्द है तिसकरके प्रतिपादन करने को अशक्यहै बाणीके अगोचर होनेसे इससे राम अधमहै कुछ नीचहोनेसे अधम लोकमेंकोईहोता है तैसानहीं है और जोरावणने कहा कि पतिव्रता और दुःख शोककर युक्त जो तू तिसको मैं लेभीआया तौभीतेरी रक्षाकरनेको अभीतक नहीं आवता क्योंकि तेरे में प्रीतिहीनहै कैसे आवै और रामपराक्रमकरके हीन और ममत्वहीन है और गर्वयुक्तहै औरहै तो मूढ़ और अपनाको पण्डित मान रहाहै इसका यह आशयहै कि रावणने तपसे ब्रह्माको प्रसन्नकरके ब्रह्माके प्रसाद से सब लोक वशमें किये यह बात प्रसिद्धहै तहां ब्रह्मा सब प्रकृतिकार्य जगत् का स्वामी है औरसीता प्रकृतिरूपिणीहै और परमेश्वरजो रामतितकी शक्तिहै और सदारामहीके आधीनरहतीहै और सबदेव उसके आधीनहैं औरसब जंगत् सीताका स्वरूप है तब ब्रह्मा के वरसे रावणने जगत् को वशकियायही सीताका कार्य द्वाराले आनाहुआ और रावण के अन्याय से सबलोग दुःखित रहे यही सीताका दुःख शोकयुक्त होनाहुआ और परमेश्वर आप्तकाम होने से किसी संसार के विषयमें प्रीति नहीं करताहै यही सीतामें स्नेहरहित होना हुआ और व्यापक परमात्माका आनाजाना नहीं संभव होताहै इससे राम न

आया यह कहनाभी ठीकहीहै परंतुयहां इतनी तौ रावणकी मूढ़ताहै जोसीता को अपनेमुखसे पतिव्रता कहिकै फिर कहताहै कि राम तेरीरक्षाकरनेको अभी नहीं आवता क्योंकि सब जगत्का कारण ब्रह्मादि देवतों की अधीश्वरी और परमेश्वरकी शक्तिरूप जब सीताजीने लंकामें प्रवेश किया तब क्या रामको आवना वाकीरहा जब क्या शक्ति और शक्तिमान‌्का अभेदसर्वसंमतहै तौराम सीतासे अलग नहीं रहसक्तेऔर सीतारामसे जुदीनहीं रहसक्ती इसीसे सीता हनुमान्के द्वारालंकाकोभस्म करैगी और सबराक्षसोंका पराजय औरजो राम और सीताअलगदिखाई पड़तेहैं सोकथा भागकी संगतिके लिये वास्तवमें कुछ भेद नहीं है और यद्यपिरामका प्रकृतिकार्य जो शब्दादिक विषय तिनमें स्नेह नहींहै तौभी सीताका राममें अनन्य प्रेमहैं और रामके भावसे रामरूपही सीता होरही है तौऐसी सीतामें रामकामी प्रेम होनेमें कुछ रामकी आत्मारामता का भंग नहीं होसक्ताऔर निःसत्वशब्दका अर्थ पराक्रम हनि नहीं है उसका अर्थ यह है कि सब प्राणियों के भावसे जो ईश्वर होने से न्याराहोय सो निःसत्त्व कहिये ऐसा रामहै और इसीसे किसी में उसकी ममता नहीं है अर्थात् नित्य मुक्त स्वरूप है और भक्तोंका सम्मान सत्कार करने वालाहै इससे उसका नाम मानी है कुछ गर्वयुक्तका यहां अर्थ नहीं है और ऐसा भी है तौभी मूढ़ जो बालक तिसके तुल्य निरभिमानहै और परिडत लोगोंका किया जो सत्कार तिसके सेवन करनेवालाहै और जो रावण ने कहा कि राम नराधम है और तुमसे विमुखहै तिस करके तू क्याकरैगी तिसका अर्थ यह है कि मनुष्य है अथम जिससे सो कहिये नराधम अर्थात् सबमनुष्योंमें उत्तमहै और सुन्दरताई में तेरेसेभी विशिष्टश्रेष्ठ मुखारविन्द जिसका ऐसा जो राम है तिसके संग कौनसी अपनी श्रेष्ठताको प्रकट करैगी अब इस प्रकारसे रावण के कहे हुये निन्द्रा के वचनों करके भी दूसरे अर्थ करके सरस्वती रामकी स्तुति ही करती हुई सो आशय यथामति वर्णन कियागया ३० + और प्रसिद्धतामें तौ रावणके वचन कठोरही हैं तिनको सुनिकै सीता क्रोध युक्तहोकै और नीचेको मुखकरके और तृणको बीचमें करके रावणसे बचन बोलती हुई पतिव्रता स्त्री साक्षात् पर पुरुषसे वार्ता नहीं करती है इसभावसे तृणको मध्यमें किया अथवा रावण रामके आगे तृणके समानहै यह सूचन करने को तृणको आगे किया ३१ अरे नीच रामसे डरानेहुये तूने संन्यासीका रूप धारण किया फिर जब राम और लक्ष्मण कोई न थे ऐसे शून्यस्थानमें जैसे कुत्ता यज्ञके भागको लैके भागे ३२ ऐसे मुझको जो हरताहुआ तिसके फल को शीघ्रही प्राप्तहोगा जब रामके वाणोंकरके तेराशरीर विदारण किया जायेगा ३३ तब

रामको जानैगा कि ऐसे मनुष्य हैं और यमराजके समीप भी जायगा और राम बाणों करके समुद्र को सुखायकर अथवा समुद्रका सेतुबँधवाकर ३४ हे राक्षसोंमें अधम लक्ष्मण करके युक्त रामतेरे मारने को आवेंगे इसमें कुछ सन्देह नहीं और तू देखेगा ३५॥

त्वां सपुत्रं सहबलं हत्वा नेष्यति मां पुरम्॥
श्रुत्वा रक्षःपतिः क्रुद्धो जानक्याः परुषाक्षरम्॥३६॥

वाक्यं क्रोधसमाविष्टः खड्गमुद्यम्य सत्वरः॥
हन्तुञ्जनकराजस्य तनयान्ताम्रलोचनः॥३७॥

मन्दोदरी निवार्याह पतिं पतिहिते रता॥
त्यजैनां मानुषीं दीनां दुःखितां कृपणां कृशाम्॥३८॥

देवगन्धर्वनागानां बह्व्यःसन्ति वरांगनाः॥
त्वामेव वरयंत्युच्चैर्मदमत्तविलोचनाः॥३९॥

ततोब्रवीद्दशग्रीवो राक्षसीर्विकृताननाः॥
यथा मे वशगा सीता भविष्यति सकामना॥
तथा यतध्वं त्वरितं तर्जनादरणादिभिः॥४०॥

द्विमासाभ्यन्तरे सीता यदि मे वशगा भवेत्॥
तदा सर्वसुखोपेता राज्यं भोक्ष्यति सा मया॥४१॥

यदि मासद्वयादूर्ध्वं मच्छय्यां नाभिनन्दति॥
तदा मे प्रातराशाय हत्वा कुरुत मानुषीम्॥४२॥

** **और पुत्र और सेनाकरके सहित तुझको राम संग्राममें मारकर मुझको अपने नगरको ले जावैंगे ३६ अब रावण सीताके ऐसे कठोर वचन सुनिकै बड़ा क्रोध करताहुआ और शीघ्रही सीताके मारने को खड्ग निकालताहुआ और क्रोध करके जिसके लालनेत्र होरहे हैं ३७ तब रावणके हितमें तत्पर मन्दोदरी जो रावणकी स्त्री सो रावण को निवारण करके बोलती हुई कि हे स्वामिन् बड़ी दुःखित और दीन और दुर्बल ऐसी जो मानुषी सीता तिसको त्यागदेवो ३८ और कामदेवके मद करके घूमरहेहैं नेत्र जिन्होंके ऐसी बहुत सी देव और गंधर्व और नागोंकी कन्या तुम्हाराही सबप्रकारसे स्वीकार करतीहैं तो तुम्हारी नहीं इच्छा करतीहुई जो मानुषी सीता तिससे तुम्हारा क्या प्रयोजन है ३९ तब भयंकर है मुख जिनका ऐसी जो राक्षसी तिनसे रावण कहता हुआ कि जैसे मेरेसें कामना युक्त होकै सीता मेरे वंशहोय तैसे तुम सब राक्षसी भय दिखाकर और अनेक प्रकारके सत्कार करके भी यत्नकरो ४० और इस प्रकार तुम्हारे यत्न करनेसे जो दो महीनेके भीतर सीता मेरेवशीभूत होगी ४१ तौ सब सुखों करके युक्तहोके मेरे संग राज्यको भोगेगी और जो दो महीने के अनन्तर मेरी शय्यापै नहीं प्रावै तौ मेरे प्रातःकाल के भोजनके लिये मारके इसके मांसका पाककरौ ४२॥

इत्युक्त्वा प्रययौ स्त्रीभी रावणोन्तःपुरालयम्॥
राक्षस्यो जानकीमेत्य

** भीषयन्त्यः स्वतर्जनैः॥४३॥**

तत्रैका जानकीमाह यौवनं ते वृथा गतम्॥
रावणेन समासाद्य सफलन्तु भविष्यति॥४४॥

अपरा चाह कोपेन किं बिलंवेन जानकीम्॥
इदानीं छिद्यतामंगं विभज्य च पृथक्पृथक्॥४५॥

अन्या तु खड्गमुद्यम्य जानकीॆ हन्तुमुद्यता॥

अन्या करालवदना विदार्यास्यमभीषयत्॥४६॥

एवं तां भीषयंतीस्ता राक्षसीर्विकृताननाः॥
निवार्य त्रिजटा वृद्धा राक्षसी वाक्यमब्रवीत्॥४७॥

शृणुध्वं दुष्टराक्षस्यो महाक्यं वो हितम्भवेत्॥४८॥

न भीषयध्वं रुदतीं नमस्कुरुत जानकीम्॥

इदानीमेव मे स्वप्ने रामः कमललोचनः॥४९॥

यह कहिकैं स्त्रियों करके सहित रावण अपने महलों को जाताहुआजब रावण अपने गृहको चलागया तौ राक्षसी सीताके पास जाके अनेकयत्नों करके सीताको डरातीहुईं ४३ तिनमें एक राक्षसी सीतासे बोली कि तेरा यौवन योंहीं जाताहै इससे रावण से संग होय तौ सफल होजाय ४४ तब दूसरी राक्षसी क्रोध करके बोली कि अब देर करने से क्या प्रयोजन है ४५ अभी इससीता को काटिकै और इसका अंग अलग अलग बांटिकै पकानाचाहिये और राक्षसी तौ तलवारि निकालिकै सीताको मारनेही को उद्यत हुई ४६ और भयंकरहै मुख जिसका ऐसी एक और राक्षसी लौ मुखको बाकरके सीताको डरपाती हुई इसप्रकार सीताको डरपाती हुईं जो भयंकर मुख की राक्षसीं तिनको त्रिजटा नाम राक्षसी निवारण करकेबोलती हुई ४७ कि हे दुष्ट राक्षसियो तुम सब मेरा बचनसुनो जिसमें तुम्हाराहित होवै४८ रोवतीहुई सीताको मत भय उत्पन्न करो अर्थात् न डरपावो और इसको नमस्कार करो और मैंने इसीसमयमें स्वप्नदेखा है कि कमलके तुल्यविशाल हैं नेत्र जिन्होंके ऐसे जो लक्ष्मण सहित राम ४९॥

आरुह्यैरावतं शुभ्रं लक्ष्मणेन समागतः॥
दग्ध्वा लङ्कापुरीं सर्वां हत्वा रावणमाहवे॥५०॥

आरोप्य जानकीं स्वांके स्थितो दृष्टोऽगमूर्द्धनि॥
रावणो गोमयह्नदे तैलाभ्यक्तो दिगम्बरः॥५१॥

आगाहत्पुत्रपौत्रैश्च कृत्वा वदनमालिकाम्॥
विभीषणस्तु रामस्य सन्निधौ हृष्टमानसः॥५२॥

सेवां करोति रामस्य पादयोर्भक्तिसंयुतः॥
सर्वथा रावणंरामो हत्वा सकुलमंजसा॥५३॥

विभीषणायाधिपत्यं दत्त्वा सीतां शुभाननाम्॥
अंके निधाय स्वपुरीं गमिष्यति न संशयः॥५४॥

त्रिजटाया वचः श्रुत्वा भीतास्ता राक्षसस्त्रियः॥
तूष्णीमासंस्तत्र तत्र निद्रावशमुपागताः॥५५॥

तर्जिता राक्षसीभिः सा सी

** ता भीतातिविह्वला॥
त्रातारं नाधिगच्छन्ती दुःखेन परिमूर्च्छिता॥५६॥**

** **सो श्वेत वर्ण ऐरावत हाथी के ऊपर चढ़िकै आये हैं और सब लंकापुरी को भस्मकरके और पुत्र पौत्रादि सहित रावणको संग्राम में मारके ५० और सीताको अपनी गोद में बिठाकर पर्वतके ऊपर स्थितहोरहे हैं और रावणतैलको लगायेहुये और नग्न अपने मुण्डोंकी माला हाथमें लिये ५१ पुत्र पौत्र करके सहित गोबरके कुण्ड में गोता लगारहा है और धर्मात्मा जो विभीषण सो बड़े आनन्दयुक्त होकै रामके समीप स्थित अर्थात् बैठाहुआ ५२ भक्तियुक्तहो रामके चरणारविन्दोंकी सेवा कररहाहै यह मेरे स्वप्नके देखनेसे सब प्रकारसे राम सकुल रावणको मारके ५३ और विभीषण के अर्थ लंकाकाराज्य देकै सुन्दरहै मुख जिसका ऐसी सीताको लेकै अपनी नगरीको जावैंगे इसमें कुछ संशय नहीं है ५४ ये त्रिजटा के वचन सुनिकै भयभीतहुईं सब राक्षसीं मौन होजातीहुईं और निद्राके अधीनहोतीहुईं अर्थात् सो जातीहुईं ५५ अब इस प्रकार राक्षसियों करके डरपाई हुई जो सीता सो भयकरके विह्वलदो किसी रक्षा करने वालेको नहीं देखती हुई दुःखकरके मूर्च्छितहो जातीहुई ५६॥

अश्रुभिः पूर्णनयना चिन्तयन्तीदमब्रवीत्॥
प्रभाते भक्षयिष्यन्ति राक्षस्यो मां न संशयः।
इदानीमेव मरणं केनोपायेन मे भवेत्॥५७॥

एवं सु दुःखेन परिप्लुता सा
विमुक्तकण्ठं रुदती चिराय॥
आलम्ब्य शाखां कृतनिश्चया मृतौ
न जानती कञ्चिदुपायमंगना॥५८॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे सुन्दरकाण्डे द्वितीयसर्गः॥२॥

और फिर आंसुओं करके पूर्णनेत्र जिसके ऐसी जो सीता सो चिन्तनकरतीहुई यह बचन बोली कि प्रातःकाल राक्षसी मुझको खालेवेंगी इसमें कुछ संशय नहीं ५७ और ऐसा कौन उपायहै जिससे इसीसमय में मेरामरणहोय इसप्रकार दुःखसे भरीहुई जो सीता सो कण्ठको खोलके बहुतकाल रोती हुई और वृक्षकी शाखा पकड़कै स्थित जो सीता सो मरनेको निश्चयकर भी चुकी है परन्तु उससमयमें कोई उपाय नहीं जानती हुई ५८॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे सुन्दरकाण्डे भाषाटीकायां द्वितीयस्सर्गः॥२॥

उद्बन्धनेन वा मोक्ष्ये शरीरं राघवं विना॥
जीवितेन फलंकिं स्यान्मम रक्षोधिमध्यतः॥१॥

दीर्घा वेणी ममात्यर्थमुबन्धाय भविष्यति॥
एवं निश्चितबुद्धिं तां मरणायाथ जानकीम्॥२॥

विलोक्य हनुमान्कञ्चिद्विचार्यै

                 तदभाषत॥  

शनैः शनैः सुक्ष्मरूपो जानक्याः श्रोत्रगं वचः॥३॥

इक्ष्वाकुवंशसंभूतो राजा दशरथो महान्॥
अयोध्याधिपतिस्तस्य चत्वारो लोकविश्रुताः॥४॥

पुत्रा देवसमास्सर्वे लक्षणैरुपलक्षिताः॥
रामश्च लक्ष्मणश्चैव भरतश्चैव शत्रुहा॥५॥

ज्येष्ठो रामः पितुर्वाक्याद्दण्डकारण्यमागतः॥
लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा सीतया भार्यया सह॥६॥

उवास गौतमीतीरे पञ्चवट्याम्महामनाः॥
तत्र नीता महाभागा सीता जनकनन्दिनी॥७॥

दो०। सर्गतीसरे विकल अति सियकोलखिहनुमान्॥
रामसन्देश सुनायतिहि मारे भट बलवान्॥१॥

अबश्रीमहादेव पार्वती से कथा कहते हैं कि हे पार्वति सीता उससमय में यह विचारतीहुई कि रामके बिना राक्षसियोंके बीचमें जीवन करके क्या होना इससे फांसी दे करके शरीरकी छोड़ देउंगी १ औरमेरा जूडा बडा लम्बा है उस करके गलेका बन्धनभी होजायगा इसप्रकार मरनेको कियाहै निश्चय जिसने ऐसी सीताजीको २ हनुमान्देखके कुछ काल विचार करके सूक्ष्म है अर्थात् छोटा है रूप जिसका ऐसा जो हनुमान् सो सीताके कानों में धीरे धीरे जैसे सुनाई देवे ऐसावचन बोलताहुआ ३ किं इक्ष्वाकुवंश में उत्पन्न अयोध्यानगरी का पति दशरथनामकरके बड़ा श्रेष्ठ एकराजा होताहुआ तिस राजादशरथ के लोकमें विख्यात 8 और शुभ लक्षणों करके युक्त और देवतों के समान चारिपुत्रहोतेहुये राम और लक्ष्मण और भरत और शत्रुघ्नहैं नाम जिन्हों के ५ तिनमें ज्येष्ठपुत्र जो राम सो पिताके वचन से लक्ष्मणकरके और सीताकरके सहित दण्डकवनको आवतेहुये ६ तहां फिर गोदावरी नदी के तीर पंचवटी में उदारहै मनजिनका ऐसे जो राम सो वासकरते हुये ७॥

रहिते रामचन्द्रेण रावणेन दुरात्मना॥
ततो रामोतिदुःखार्तो मार्गमाणोऽथ जानकीम्॥८॥

जटायुषम्पक्षिराजमपश्यत्पतितम्भुवि॥
तस्मै दत्त्वा दिवं शीघ्रं ऋष्यमूकमुपागमम्॥९॥

सुग्रीवेण कृता मैत्री रामस्य विदितात्मनः॥
तद्भार्याहारिणं हत्वा बालिनं रघुनन्दनः॥१०॥

राज्यभिषेच्य सुग्रीवम्मित्रकार्यं चकार सः॥
सुग्रीवस्तु समानाय्य वानरान्वानरप्रभुः॥११॥

प्रेषयामास परितो वानरान्परिमार्गणे॥
सीतायास्तत्र चैकोऽहं सुग्रीवसचिवो हरिः॥१२॥

सम्पातिवचनाच्छीघ्रमुल्लंघ्य शतयोजनम्॥
समुद्रं नगरीं लंकां विचिन्वन्जानकीं शुभाम्॥१३॥

शनैरशोकवनिकां विचिन्वन्शिंशपातरुम्॥
अद्राक्षं जानकीमत्र शोचंतीं दुःखसंप्लुताम्॥१४॥

तहां राम करके रहित पंचवटी में महाभाग जो सीता सो दुष्टात्मा जो रावण तिसने हरली तिसके उपरान्त अतिदुःख करके पीडित जो राम सो सीताको ढूंढतेहुये ८ पृथ्वी में गिरेहुये पक्षियों का राजाजो जटायु तिसको देखतेहुये फिर तिसको स्वर्गदेके शीघ्रही ऋष्यमूक पर्वतपै आतेहुये ९ फिर वहां रामकी सुग्रीव के साथ मित्रताहुई फिर श्रीराम सुग्रीवकी भार्य्याकाहरने वाला जो बाली तिसको मारिकै १० सुग्रीवको राज्यका अभिषेककरके मित्रके कार्य को करतेहुये फिर वानरोंका राजा सुग्रीव देशदेशले वानरोंको बुलाकर ११ तिनकोसीताके ढूंढनेको भेजताहुआ तिन वानरोंमें एकसुग्रीवकामन्त्री हनुमान् १२ जोमैंहौं सो संपातिके वचन से सौयोजन समुद्रकोनांघकरके लंका नगरीमें शुभ लक्षणयुक्त सीताकोढूंढ़ता हुआ १३ फिरधीरेधीरे अशोकवनिकामें ढूंढता हुआ सीसम के वृक्ष के नीचे दुःखित और शोचकरती हुई १४॥

रामस्य महिषीन् देवीं कृतकृत्योहमागतः॥
इत्युक्त्वोपररामाथमारुतिर्बुद्धिमत्तरः॥१५॥

सीता क्रमेण तत्सर्वं श्रुत्वा विस्मयमाययौ॥
किमिदम्मे श्रुतं व्योम्नि वायुना समुदीरितम्॥१६॥

स्वप्नो वा मे मनोभ्रान्तिर्यदि वा सत्यमेव तत्॥
निद्रा मे नास्ति दुःखेन जानाम्येतत्कुतो भ्रमः॥१७॥

येन मे कर्णपीयूषं वचनं समुदीरितम्॥
स दृश्यताम्महाभागः प्रियवादीं समाग्रतः॥१८॥

श्रुत्वा तज्जानकीवाक्यं हनुमान्पत्रखंडतः॥
अतीर्य शनैः सीतापुरतः समवस्थितः॥१९॥

कलविंकप्रमाणांगो रक्तास्यः पीतवानरः॥
ननाम शनकैः सीतां प्रांजलिः पुरतः स्थितः॥२०॥

दृष्ट्वा तञ्जानकी भीता रावणोऽयमुपागतः॥
मां मोहयितुमायातो मायया वानराकृतिः॥२१॥

** **रामकी रानी जो सीता देवी तिसको देखताहुआ फिर देखके कृतकृत्यहोगया इतना वचन कहिकरिकै बड़ा बुद्धिमानजी हनुमान् सो चुपहोगया १५ अब सीता क्रमकरके सब हनुमान्का वचन सुनिकै बड़े आश्चर्यको प्राप्तहोती हुई और यह मनमें कहती हुई कि यह मैंने आकाशमें पवनका कहाहुआ वचनसुना १६ अथवा मुझको स्वप्नहुआ अथवा मेरे मनकी भ्रान्ति है अथवा सत्यही है तिसमें दुःखकरके जब मुझको निद्राही नहीं आउती तौ स्वप्न कैसे संभव होताहै और जैसे कोई स्वप्नावस्था में जानै तैसे मैं भी जानती हों इस से भ्रमभी नहीं है १७ अर्थात् सत्यहै यह निश्चयकरके सीता कहती है कि जिसने मेरे कानों को अमृत के तुल्य वचन कहा है वह प्रिय वचन बोलने वाला महाभाग मेरे आगे आकैदिखलाई देवै १८ ऐसे सीता के वचन सुनिकै हनुमान् पत्तों में से निकल धीरेधीरे वृक्षपै से उतरके सीताके आगे खड़ा

होताहुआ १९ और गरगौटे के तुल्य है अंग जिसका और लाल है मुख जिस का और पीलाहै जिसका वर्ण ऐसा जो वानर सो धीरेसे सीताके आगे जाके स्थित होके प्रणाम करताहुआ २० तब उसको देखके यह माया करके रावण ही वानरके रूपको धारणकर मुझको मोह कराताहै यह शंकाकरके सीता भय भीत होनाती हुई २१॥

इत्येवं चिन्तयित्वा सा तूष्णीमासीदधोमुखी॥
पुनरप्याह तां सीतां देवि यत्त्वं विशंकसे॥२२॥

नाहन्तथाविधो मातस्त्यज शंकां मयि स्थिताम्॥
दासोऽहं कोशलेन्द्रस्य रामस्य परमात्मनः॥२३॥

सचिवोऽहं हरीन्द्रस्य सुग्रीव स्यशुभप्रदे॥
वायोः पुत्रोऽहमखिलप्राणभूतस्य शोभने॥२४॥

तच्छ्रुत्त्वा जानकी प्राह हनूमन्तं कृताञ्जलिम्॥
वानराणाम्मनुष्याणां संगतिर्घटते कथम्॥२५॥

यथा त्वं रामचन्द्रस्य दासोऽहमिति भाषसे॥
तामाह मारुतिः प्रीतो जानकीं पुरतः स्थितः॥२६॥

ऋष्यमूकमगाद्रामः शबर्या नोदितः सुधीः॥
सुग्रीवो ऋष्यमूकस्थो दृष्टवान् रामलक्ष्मणौ॥२७॥

भीतो माम्प्रेषयामास ज्ञातुं रामस्य हृद्गतम्॥
ब्रह्मचारिवपुर्धृत्वा गतोऽहं रामसन्निधिम्॥२८॥

और रावण है यह चिन्ताकर नीचेको मुखकर मौन होगई तब हनुमान् फिर सीतासे बोलेकि हेदोवे हेमातः जो तू शंकाकरती है सो मैं नहींहों अर्थात् मैं रावण नहींहौं२२ इससे मेरे में शंकाको त्यागढ़े मैंतो कोशलेंद्र जो परमात्मा राम तिनका दासहौं २३ और हे कल्याणकी देनेवाली मैंवानरों के राजा सुग्रीवका मंत्रीहौंऔर जगत्‌का प्राण जो पवन तिसका मैंपुत्रहौं २४ यहवचन सुनके हाथ जोड़े आगे खड़ाहुआ जो हनुमान् तिससे सीताबोलती हुई कि वानरोंका और मनुष्योंका परस्पर मिलापकैसे संभव होसक्ताहै २५ और जो तुम कहतेहौ कि मैं रामका दासहौंइससे बिदित होताहै कि मिलाप हुआअर्थात् जो रामका संगम न होता तौ दासहोना कैसे बनसक्ताहै इससे कैसे वानरों में मिलापहुआ सो सब प्रसंग कहौ तब प्रसन्नहोके हनुमान् सीता से कहनेलगा कि २६ बड़े बुद्धिमान् जो राम सो शवरी के कहनेसे ऋष्यमूक पर्वतके समीप जातेहुये तहां ऋष्यमूक पर्वतपैस्थित जो सुग्रीव सो राम लक्ष्मणको देखता हुआ २७ फिर सुग्रीव भयभीत होके रामके हृदयकी बात जाननेको मुझको भेजता हुआ तब ब्रह्मचारी का रूप धारणकरके मैंराम के समीप गया २८॥

ज्ञात्वा रामस्य सद्भावं स्कन्धोपरि निधाय तौ॥
नीत्वा सुग्रीव सामीप्यं सख्यञ्चाकरवन्तयोः॥२९॥

सुग्रीवस्य हृता भार्या बालिना तं रघूत्तमः॥
जघानैकेन बाणेन ततो राज्येभ्यषेचयत्॥३०॥

सुग्रीवं वानराणां सः प्रेषयामास वानरान्॥३१॥

दिग्भ्यो महाबलान्वीरान्भवत्याः परिमार्गणे॥
गच्छन्तं राघवो दृष्ट्वा मामभाषत सादरम्॥३२॥

त्वयि कार्यमशेषम्मे स्थितं मारुतनन्दन॥
ब्रूहि मे कुशलं सर्वं सीतायै लक्ष्मणस्य च॥३३॥

अंगुलीयकमेतन्मे परिज्ञानार्थमुत्तमम्॥
सीतायै दीयतां साधु मन्नामाक्षरमुद्रितम्॥३४॥

इत्युक्त्त्वा्प्र ददौ मह्यं कराग्रादंगुलीयकम्॥
प्रयत्नेन मयानीतं देवि पश्यां गुलीयकम्॥३५॥

** **और जाके रामके हृदय का आशय जानके अपने कन्धेके ऊपर दोनों को अर्थात् राम लक्ष्मणको चढ़ाकर सुग्रीवके समीप प्राप्त करके फिर रामसुग्रीव की मित्रताको कराता हुआ २९ और सुग्रीव की स्त्री उसके भाई बालीनेहर लाथी तौराम उस बालीको एकही वाणसे मारके वानरों के राज्य में सुग्रीव का अभिषेक करतेहुये अर्थात् सुग्रीवको राज्य देतेहुये ३० फिर सुग्रीव बड़े बड़े बलवान् वानरोंको तुम्हारे ढूंढ़ने को सब दिशाओं में भेजता हुआ ३१ जब मैं चलनेलगा तो राम मुझको देखके आदरपूर्वक बोले ३२ कि हे पवनपुत्रतेरे बिषे मेरासबकार्य स्थितहै इससे सीतासे जाके मेरीकुशल और लक्ष्मणाकी कुशल कहु ३३ और यह मेरे नामके अक्षरों करके चिह्नित जो मेरी मुंदरी है तिसको सीता के पहिंचानके लिये देना ३४ हे देवि इसप्रकार राम मुझसे कहिकै अपने हाथ से मुन्दरीको उतारके मुझको देतेहुये सो बड़े यत्न से मैंने यहां प्राप्तीकी है तिसको तुम देखो ३५॥

इत्युक्त्वा प्रददौ देव्यै मुद्रिकां मारुतात्मजः॥
नमस्कृत्वा स्थितो दूराबद्धांजलिपुटो हरिः॥३६॥

दृष्ट्वा सीता प्रमुदिता रामनामांकितां तदा॥
मुद्रिकां शिरसा धृत्वा स्रवदानन्दनेत्रजा॥३७॥

कपे मे प्राणदाता त्वं बुद्धिमानसि राघवे॥
भक्तोऽसि प्रियकारी त्वं विश्वासोऽस्ति तवैव हि॥३८॥

नो चेन्मत्सन्निधिं चान्यं पुरुषं प्रेषयेत्कथम्॥
हनूमन्दृष्टमखिलं मम दुःखादिकं त्वया॥३९॥

सर्वं कथय रामाय यथा मे जायते दया॥
मासद्वयावधि प्राणाः स्थास्यंति मम सत्तम॥४०॥

नागमिष्यति चेद्रामो भक्षयिष्यति मां खलः॥
अतः शीघ्रं कपीन्द्रेण सुग्रीवेण समन्वितः॥४१॥

वानरानीकपैः सार्द्धं हत्वा रावणमाहवे॥
सपुत्रं सबलं रामो यदि मां मोचयेत्प्रभुः॥४२॥

यह कहिकै हनुमान बहसुंदरी सीतादेवीको देता हुआ और आप हाथजोड़ के नमस्कारकर दूर खड़ा होताहुआ ३६ अब सीता रामनामकरके चिह्नितउस सुंदरी को देखके बड़ीआनन्दयुक्तहो उसमुंदरी को शिरपैधारणकर नेत्रोंसे आनन्दके आंशुओंको छोड़ती हुई ३७ और यह कहती हुई कि हे वानर तू मेरे प्राणों का देनेवाला है और बड़ा बुद्धिमान है और रामचन्द्र के विषे भक्तियुक्त और रामको प्रिय करनेवाला है इसीसे सबवानरों के मध्यमें तेराही रामको विश्वास है ३८ और जो ऐसा न होता तो विश्वासरहित और प्राकृत पुरुष को मेरे समीप कैसे भेजते और हे हनुमन मेरा दुःखादिक तुमने सबदेखा ३९ इससे यहसव रामसे इसप्रकार कहौ जैसे मेरे में रामकी दयाहोय और हे हनुमन् दो महीनेतक तौ मेरेप्राण शरीरमें स्थितरहेंगे ४० और जो दो महीने के भीतर राम नहीं आवेंगे तो दुष्टरावण मुझको भोजनकरिलेगा इसीसे शीघ्रही वानरोंका राजा जो सुग्रीव तिसकरके सहित ४१ और वानरों की सेना और सेनापतियों करके सहित आके राम जो संग्राममें पुत्रपौत्र सेनासहित रावण को मारके मुझको इसकष्टसे छोड़ावैंगे ४२॥

तत्तस्य सदृशं वीर्यं वीर वर्णय वर्णितम्॥
यथा मां तारयेद्रामो हत्वा शीघ्रं दशाननम्॥४३॥

तथा यतस्व हनमन्वाचा धर्ममवाप्नुहि॥
हनुमानपि तामाह देवि दृष्टो यथा मया॥४४॥

रामः सलक्ष्मणः शीघ्रमागमिष्यति सायुधः॥
सुग्रीवेण ससैन्येन हत्वा दशमुखम्बलात्॥४५॥

समानेष्यति देवि त्वामयोध्यान्नात्र संशयः॥

तमाह जानकी रामः कथं वारिधिमाततम्॥४६॥

तीर्त्वायास्यत्यमेयात्मा वानरानीकपैःसह॥
हनूमानाहमेस्कन्धा वारुह्यपुरुषर्षभौ॥४७॥

आयास्यतः ससैन्यश्च सुग्रीवो वानरेश्वरः॥
विहायसा क्षणेनैव तीर्त्वा वारिधिमाततम्॥४८॥

निर्दहिष्यति रक्षौघांस्त्वत्कृते नात्र संशयः॥
अनुज्ञां देहि मे देवि गच्छामि त्वरयान्वितः॥४९॥

** **तो वह पराक्रम रामके सदृशहोगा अर्थात् लायकहोगा और हे हनुमन्उस ऋषियों करके वर्णन कियेहुये पराक्रमको तुम वर्णनकरवाओ और बहुत कहना क्याहै जैसे राम मेरा उद्धारकरैंशीघ्रही इस दुष्टरावणको मारके ४३ हे हनुमन् तैसे शीघ्रही यत्नकरो और वचनहीकरके तुम धर्मको प्राप्तहोउ अर्थात् तुम्हारे वचन से जो मेरी रक्षाहोगी तौतुम रक्षाकरनेवाले ही के धर्मको प्राप्त होवोगे तो हनुमान् सीतासे कहतेहुये कि हे देवि जैसे उद्योगयुक्त मैंनेरामको देखाई ४४ तैसेही लक्ष्मण और सुग्रीव और सेना इनकरके सहितआके और धनुपबाणलेके बलसे रावणको मारके ४५ हे देवि तुझको राम अयोध्यामें

प्राप्तकरैंगे इसमें कुछ संशयनहीं तब सीता फिर हनुमान्से कहतीहुई कि राम बड़े विस्तारयुक्त समुद्रको ४६ पारउतर के कैसे वानरों की सेना करके सहित आवेंगे तौहनुमान् बोला कि मेरे कन्धे के ऊपर दोनों राम लक्ष्मण चढ़कर के ४७ आवैंगे और सेना सहित जो सुग्रीव सो आकाशमार्ग करके क्षणभर में बड़े विस्तृत समुद्रको भी उतरिकै ४८ तेरे अर्ध राक्षसोंके समूहकोभस्मकरैंगे इसमें कुछसंशय नहींहै और हेदेवि मुझको आज्ञादीजिये जिससे मैं शीघ्रही जाउँ ४९॥

द्रष्टुं रामं सह भ्रात्रा त्वरयामि तवांतिकम्॥
देवि किंचिदभिज्ञानं देहि मे येन राघवः॥५०॥

विश्वसेन्माम्प्रयत्नेन ततो गंता समुत्सुकः॥
ततः किंचिद्विचार्याथ सीता कमललोचना॥५१॥

विमुच्य केशपाशांते स्थितं चूडामणिं ददौ॥
अनेन विश्वसेद्रामस्त्वां कपींद्र सलक्ष्मणः॥५२॥

अभिज्ञानार्थमन्यच्च वदामि तव सुव्रत॥
चित्रकूटगिरौ पूर्वमेकदा रहसि स्थितः॥
मदंके शिरा आधाय निद्राति रघुनंदनः॥५३॥

ऐंद्रः काकस्तदागत्य नखैस्तुण्डेन चासकृत्॥
मत्पादांगुष्ठमारक्तं विददारामिषाशया॥५४॥

ततो रामः प्रबुद्ध्याथ दृष्ट्वा पादं कृतवणम्॥
केन भद्रे कृतञ्चैतद्विप्रियम्मे दुरात्मना॥५५॥

इत्युक्त्वा पुरतोपश्यद्वायसम्माम्पुनःपुनः॥
अभिद्रवंतं रक्तास्यन्नखतुण्डञ्चुकोपह॥५६॥

और भाई करके सहित जो रामहैं तिनको देखनेको मैं शीघ्रताकरिरहाहौं फिर उनके पासहोके तुम्हारेपास आनेकी मुझको शीघ्रताहै इससे आज्ञादीजिये और हे देवि कुछ पहिंचान की वस्तु मुझको देवो जिस करके राम मुझसे विश्वास करैं५० कि यह वहां गयाथा तिसके उपरान्त तुम्हारा दियाहुआ जो चिह्नहै तिसको यत्नसे रक्षा करताहुआ उत्कंठा युक्त मैंराम के समीप जाऊंगा तब कमल के तुल्यहैं विशाल नेत्र जिसके ऐसी जो सीता विचार करके ५१ जूड़ामें बँधीहुई जो मणि तिसको खोल करके देती हुई और यह कहती हुई कि हे हनुमन् इसमणि करके लक्ष्मण सहित जो राम सो तेरे में विश्वास करैंगे ५२ और एक पहिंचान के लिये मैं तुम से गुप्त वृत्तान्त कहती हौं तिसको सुनो एक समय चित्रकूट पर्वतपै एकान्त देशमें स्थित जो रघुनन्दन सो मेरी गोदमें शिरको रखिकै निद्रा को प्राप्तहुये ५३ उसी समयमें इन्द्रका पुत्र जयन्त काकका रूपधारणकरके मांसकी आशा करके नखों करके और चोंच से रक्तवर्ण जो मेरे पांवका अँगूठा तिसको विदारण करता हुआ अर्थात् उसमें घाउ करता हुआ ५४ तिसके उपरान्त राम जाग करके घाउ हुआ है जिसमें ऐसे मेरे पांउको देख करके हे भद्रेकिसदुष्टा

स्माने यह मेरा अप्रिय किया है ५५ ऐसा मुझसे कहिकै फिर अपने आगे लालहै मुख और नख और चोंच जिसकी और मेरे सामने वारम्बार आरहा हैऐसे काकको देखिकै क्रोध करतेहुये ५६॥

तृणमेकमुपादाय दिव्यास्त्रेणाभ्ययोज्य तत्॥
चिक्षेप लीलया रामो वायसोपरि तज्ज्वलत्॥५७॥

अभ्यद्रवद्वायसश्च भीतो लोकान्भ्रमत्पुनः॥
इन्द्रब्रह्मादिभिश्चापि न शक्यो रक्षितुंतदा॥५८॥

रामस्य पादयोरग्रेऽपतद्भीत्या दयानिधेः॥
रणागतमालोक्य रामस्तमिदमब्रवीत्॥५६॥

अमोघमेतदस्त्रम्मेदत्त्वैकाक्षमितो व्रज॥
सव्यं दत्त्वा गतः काक एवं पौरुषवानपि॥६०॥

उपेक्षते किमर्थं मामिदानीं सोपि राघवः॥
हनूमानपि तामाह श्रुत्वा सीतानुभाषितम्॥६१॥

देवि त्वां यदि जानाति स्थितामत्र रघूत्तमः॥
करिष्यति क्षणाद्भस्म लंकां राक्षसमण्डिताम्॥६२॥

जानकी प्राह तं वत्स कथं त्वं योत्स्यसेऽसुरैः॥
अतिसूक्ष्मवपुः सर्वे वानराश्च भवादृशाः॥६३॥

और एक तृणको उठाकर उसको दिव्यास्त्रमन्त्र करके अभिमन्त्रित करके उस काकके ऊपर छोड़ देते हुये फिर वह तृण चारों तरफसे अग्निकी तरह प्रकाशकरताहुआ ५७ और वह तृणकाकके सम्मुख दौड़ता हुआ फिर काकभी उसके तेलकरके जबजलनेलगा तो भयभीत हुआ सबलोकों में भ्रम ताहुआऔर उन लोकों के स्वामी ब्रह्मादिकों करके भी जबवह काकरक्षाको प्राप्त न हुआ ५८ तो परम दयालु जो श्रीराम तिनके चरणों के समीपभय करके गिर पड़ताहुणा तो राम शरणागत काकको देखके यह वचन बोलते हुये ५९ कि हे काक यह अमोघ अस्त्र मेराहैअर्थात् यह अस्त्र कभी निष्फल होनेवाला नहीं है इससे एकनेत्र अपना देके तू यहां से जा तिसके उपरान्त वह काक बामनेत्र अपना देके वहांसे जाताहुआऐसे पराक्रम करके युक्त भी ६० राम फौन कारणसे इससमयमें मेरी उपेक्षा कररहे हैं अर्थात् मेरीतरफदृष्टिनहीं करते तवयह सीताका वचन सुनिकै हनुमान्भी वचनबोलताहुआ ६१ कि हे देवि राम जो यहां स्थित तुझको जानैंगे तो क्षणमात्रमें राक्षसों करके भूषित जो लंकाहै तिलको भस्मकर देवेंगे ६२ तब सीता हनुमान् से कहती हुई कि हे वत्स अत्यन्त तुम्हारा छोटा शरीर है और सब बानर भी तुम्हारेही सरीखे होंगे फिर तुम कैसे राक्षसों के संग युद्धकरौगे ६३॥

श्रुत्वा तद्वचनं देव्यै पूर्वरूपमदर्शयत्॥
मेरुमंदरसंकाशं रक्षोगणविभीषणम्॥६४॥

दृष्ट्वा सीताहनूमंतं महापर्वतसन्निभम्॥
हर्षेण महता

** विष्टा प्राह तं कपिकुंजरम्॥६५॥**

समर्थोऽसि महासत्व द्रक्ष्यन्ति त्वां महाबलम्॥
राक्षस्यस्ते शुभः पंथा गच्छ रामांतिकं द्रुतम्॥६६॥

बुभुक्षितः कपिः प्राह दर्शनात्पारणं मम॥
भविष्यति फलैः सर्वैस्तव दृष्टौ स्थितैर्हि मे॥६७॥

तथेत्युक्तः स जानक्या भक्षयित्वा फलं कपिः॥
ततः प्रस्थापितोऽगच्छज्जानकीं प्रणिपत्य सः॥
किंचिद्दूरमथो गत्वा स्वात्मन्येवानुचिन्तयत्॥६८॥

कार्यार्थमागतो दूतः स्वामिकार्याविरोधतः॥
अन्यत्किंचिदसंपाद्य गच्छत्यधम एवसः॥६९॥

अतोऽहं किंचिदन्यच्च कृत्वा दृष्ट्वाथ रावणम्॥
संभाष्य च ततो रामदर्शनार्थं व्रजाम्यहम्॥७०॥

यहबचन सीताका सुनके हनुमान् पहिला अपनारूप सीताको दिखातेहुये जो रूप सुमेरुपर्वत और मन्दराचलके तुल्य है और राक्षसों के समूहको भय का देनेवाला है ६४ तबसीता बड़ेभारी पर्वतके तुल्य हनुमान् को देखके बढ़े आनन्द करके युक्तहो तिस हनुमान् से बोली ६५ कि हे हनुमन् मैंने जाना तुम समर्थहौपरन्तु राक्षसी अब तुम्हारे इस रूपकौदेखैंगी और देख के फिर रावणसे कहैंगी इससे अभी तुमराम के समीपजाओ और तुम्हारा मार्गकल्याणयुक्त होवे ६६ तबभूखा जोहनुमान्लो सीतासे कहताहुआ कि हे देवि तेरे दर्शनकरनेके बाद मुझको भोजन करनाउचितहै इससे तुम्हारे सामने ये फल लगे हैंतिनको मैंखाऊं जोआज्ञाहोय तो ६७ यह कहि सीताकी आज्ञासे हनुमान्फलों को खाके फिर सीताको प्रणामकरके उसका भेजाहुआ चला तबचलनेके समय मार्ग में हनुमान् यह विचार करतेहुये ६८ कि कार्य के अर्थ आया जो दूत सो स्वामी के कहेहुये कार्य को बनाके फिर उसका बिरोध जिसमें न पाया जावै ऐसे दूसरे कार्य को बिना सिद्धकरे जो जाय वह अधम दूत कहता है ६९ इससे मैं कुछ और भी कार्य को करके और रावणको भी देखके और उससे वार्त्तालाप करके तब राम के दर्शन करनेको जाऊंगा ७०॥

इति निश्चित्य मनसा वृक्षखण्डान्महाबलः॥
उत्पाट्याशोकवनिकां निर्वृक्षामकरोत्क्षणात्॥७१॥

सीताश्रयनगं त्यक्त्वा वनं शून्यं चकार सः॥
उत्पाटयंतं विपिनं दृष्ट्वा राक्षसयोषितः॥७२॥

अपृच्छन् जानकीं कोसौ वा नराकृतिरुद्भटः॥७३॥

जानक्युवाच॥

भवत्य एव जानंति मायां राक्षसनिर्मिताम्॥
नाहमेनं विजानामि दुःखशोकसमाकुला॥७४॥

इत्युक्ता स्त्वरितं गत्वा राक्षस्योभयपीडिताः॥
हनूमता कृतं सर्वं रावणाय न्यवेदयन्॥७५॥

देव कश्चिन्महासत्वो वानराकृतिदेहभृत्॥
सीतया स हसं

** भाष्य ह्यशोकवनिकां क्षणात्॥
उत्पाट्य चैत्यप्रासादं बभंजामितविक्रमः॥७६॥**

प्रासादरक्षिणः सर्वान्हत्वा तत्रैव तस्थिवान्॥
तच्छ्रुत्वा तूर्णमुत्थाय वनभंगं महाप्रियम्॥७७॥

** **ऐसा मनमें निश्चय करके बड़ा बलवान् जो हनुमान् सो वृक्षोंको उखाड़ के क्षणभरे मेंअशोक वनिका को वृक्ष रहित कर देताहुभा ७१ एक सीताकी नगह छोड़के और सब वनशून्य करदिया तब वे राक्षसियां वृक्षोंको उखाड़ते हनुमान् को देखके ७२ सीतासे पूंछतीहुईं कि कौन यह वानर के स्वरूप में बड़ाभारी योद्धाहै ७३ तव सीता कहती हुई कि तुमहीं सब राक्षसोंकी रची हुई माया को जानतीहौदुःख शोक करके युक्त मैं इस वानरको नहीं जानती हों७४ इसप्रकार सीता करके कहीहुई भयकर के पीड़ित जे राक्षसीते शीघ्रही जाकर हनुमान् का कियाहुआ जो कर्मतिसको रावणसे कहती हुईं ७५ कि हे देव कोई बड़ापराक्रमी वानरके रूपको धारणकरे सीतासे सम्भाषणकरके अशोकवनिकाको क्षणमात्रमें उखाड़करके फिर बड़ा ऊंचा जो देवमन्दिर तिसको तोड़ करके डालदेता हुआ ७६ और उस मन्दिरके रक्षा करनेवाले सब राक्षसोंको मारके वहांहीं स्थित होरहा है तब राक्षसोंका स्वामी रावण वह महा अप्रियं वनको भंग सुनिकै शीघ्रही उठकर ७७॥

किंकरान् प्रेषयामास नियुतं राक्षसाधिपः॥
निभग्नचैत्यप्रासादप्रथमांतरसंस्थितः॥७८॥

हनुमान्पर्वताकारो लोहस्तंभकृतायुधः॥
किंचिल्लांगूलचलनो रक्तास्यो भीषणाकृतिः॥७९॥

आपतंतं महासंघं राक्षसानां ददर्श सः॥
चकार सिंहनादं च श्रुत्वा ते मुमुहुर्भृशम्॥८०॥

हनुमंतमथो दृष्ट्वा राक्षसा भीषणाकृतिम्॥
निर्जघ्नुर्विविधास्त्रौघैः सर्वराक्षसघातिनम्॥८१॥

तत उत्थाय हनुमान्मुद्गरे समंततः॥
निष्पिपेष क्षणादेव मशकानिव यूथपः॥८२॥

निहतान्किंकरान् श्रुत्वा रावणः क्रोधमूर्च्छितः॥

पंच सेनापतींस्तत्र प्रेषयामास दुर्मदान्॥८३॥

हनूमानपि तान् सर्वान्लोहस्तंभेन चाहनत्॥
ततः क्रुद्धो मंत्रिसुतान्प्रेषयामास सप्त सः॥८४॥

दश कड़ोरकिंकर नाम करकेजे राक्षस तिनको भेजता हुआ तब टूटा हुआ जो प्रासाद अर्थात् देवमन्दिर तिलकेनीचेके दर्जेमें बैठा ७८ और पर्वतकासा आकार जिसका और लोहका जो खंभा तिसीको करिलिया है शस्त्र जिसने अर्थात् उसको ग्रहण किये है और अपनी पूंछको कुछ चला रहाहै और लाल जिसका मुखहै और बढ़ा भयंकर जिसका स्वरूप है ७९ ऐसा जो हनुमान् सो

आवताहुआ जो राक्षसोंका समूह तिसको देखताहुआ फिर सिंहवत् हनुमान् गर्जताहुआ तिस शब्दको सुनके राक्षस मोहको प्राप्त होतेहुये ८० अर्थात् मूर्च्छितहोजातेहुये और फिर वे राक्षस बड़े भयंकर हनुमान् के रूपको देखिकै सब राक्षसों के मारनेवाले हनुमान्‌को अनेक अस्त्रों के समूह करके मारते हुये ८१ तिसके उपरान्त हनुमान् उठके उस लोहके खंभ करके उन राक्षसों को चूर्ण चूर्णकर डालताहुआ जैसे हाथी अपने पांवसे मच्छड़ों को पीसडाले ८२ तब मरेहुये राक्षसों को सुनकरके बड़े क्रोधमें भराहुभा रावण बड़ा दुष्ट है मद जिनका ऐसे पांच सेनापतियों को भेजताहुआ ८३ तो हनुमान् भी उन सबोंको उसी लोहदण्ड करके मारडालता हुआ तब तो क्रोधकरके रावणसात मन्त्रियों के पुत्रोंको भेजताहुआ ८४॥

आगतानपि तान्सर्वान्पूर्ववद्वानरेश्वरः॥
क्षणान्निःशेषतो हत्वा लोहस्तंभेन मारुतिः॥८५॥

पूर्वस्थानमुपाश्रित्य प्रतीक्षन् राक्षसान्स्थितः॥
ततो जगाम बलवान् कुमारोक्षः प्रतापवान्॥८६॥

तमुत्पपात हनुमान्दृष्ट्वाकाशे समुद्गरः॥
गगनात्त्वरितो मूर्ध्नि मुद्गरेण व्यताडयत्॥८७॥

हत्वा तमक्षं निःशेष बलं सर्वं चकार सः॥८८॥

ततः श्रुत्वा कुमारस्य बधं राक्षसपुंगवः॥
क्रोधेन महताविष्ट इंद्रजेतारमब्रवीत्॥८९॥

पुत्र गच्छाम्यहं तत्र यत्रास्ते पुत्रहा रिपुः॥
हत्वा तमथवा बध्वा आनयिष्यामि तेंऽतिकमूह॥९०॥

इन्द्रजित्पितरम्प्राह त्यज शोकं महामते॥
मयि स्थिते किमर्थं त्वं भाषसे दुःखितं वचः॥९१॥

तौ उनको आवते देखकरकेहनुमान् पहिलेकी तरह उसीलोहके खंभेकरके एकक्षणमात्र में सबोंकोमारके ८५ पहिलेई स्थानपै और राक्षसोंकी राहको निहारता स्थित हुआ तिसके उपरान्त बड़ाबलवान् और बड़े प्रताप करके युक्त अक्षकुमारनाम करके प्रसिद्ध रावणका पुत्र युद्धकरनेको जाता हुआ ८६ तब उसको आवते देखके पहिले तौ हनुमान् आकाशको जाके पीछे आकाश से उस अक्षकुमारके शिरके ऊपर गिरके उसी लोहके खम्भे करके उसकोभी मारताहुआ ८७ और उस अक्षकुमारको मारके फिर उसकी सब सेनाको भी मारताहुआ ८८ तिसके उपरान्त रावण अपने कुमारका वधसुनके बड़े क्रोध करके युक्त होकर इन्द्रजित् नामहै जिसका ऐसे पुत्र से बोलता हुआ ८९ कि हे पुत्र जहां मेरे पुत्रका मारने वाला रिपु अर्थात् बैरी है वहां मैं जाताहौंफिर उसको मारिकै अथवा बांधिकै तेरे समीपले आऊंगा ९० तब इन्द्रजित् पुत्र रावण से कहता हुआ कि हे महामते आप शोकको त्याग

दीजिये और मेरे होते ऐसे दुःखके वचन किसवास्ते कहते हो ९१॥

बध्वानेष्ये द्रुतं तात वानरं ब्रह्मपाशतः॥
इत्युक्त्वा रथमारुह्य राक्षसैर्बहुभिर्वृतः॥९२॥

जगाम वायुपुत्रस्य समीपं वीरविक्रमः॥
ततोऽतिगर्जितं श्रुत्वा स्तंभमुद्यम्य वीर्यवान्॥९३॥

उत्पात नभोदेशं गरुत्मानिव मारुतिः॥
ततो भ्रमंतं नभसि हनूमन्तं शिलीमुखैः॥९४॥

विध्वा तस्य शिरोभागमिषुभिश्चाष्टभिः पुनः॥
हृदयं पादयुगलं षड्भिरेकेन बालधिम्॥९५॥

भेदयित्वा ततो घोरं सिंहनादमथाकरोत्॥
ततोऽतिहर्षाद्धनुमांस्तंभमुद्यम्य वीर्यवान्॥९६॥

जघान सारथिं साश्वं रथं चाचूर्णयत्क्षणात्॥
ततोऽन्यं रथमादाय मेघनादो महाबलः॥९७॥

शीघ्रं ब्रह्मास्त्रमादाय बध्वा वानरपुंगवम्॥
निनाय निकटं राज्ञो रावणस्य महाबलः॥९८॥

** **हे तात ब्रह्मपाश से उस वानरको बांधिकै जल्द ले आताहौंऐसा मेघनाद कहिकै और रथके ऊपर चढ़के और बहुत से राक्षसोंको संग लिये ९२ बड़ा वरि मेघनाद हनुमान् के समीप जाता हुआ तितके उपरान्त मेघनादके शब्द को सुनके बड़ा पराक्रम युक्त जो हनुमान् सो लोहे के खम्भेको ले करके ९३ गरुड़ की तरह आकाशमें उछलके जाता हुआ फिर आकाशमें भ्रमणकररहा जो हनुमान् तिसके ९४ शिरको वाणों से ताड़न करके फिर मेघनाद आठ वाणकरके हनुमान् के हृदय को भेदनकर और छः वाण करके दोनों पावोंको विदारणकर और एक बाणसे पूंछको बेधके ९५ सिंहवत् गर्जताहुआ तब अत्यन्त हर्प से बड़ाबली जो हनुमान् सो उस लोह के खम्भे को उठाकर ९६ उस करके मेघनाद के सारथी को और घोड़ों सहित रथको एक क्षण भरे में चूर्ण चूर्ण कर डालता हुआ तौ महाबली जो मेघनाद सो और रथके ऊपर चढ़ करके ९७ शीघ्रही ब्रह्मास्त्रकरके हनुमान्को बांधिकै रावणके समीप लेजाता हुआ ९८॥

यस्य नाम सततं जपंति येऽः
ज्ञानकर्मकृतबंधनं क्षणात्॥
सद्य एव परिमुच्य तत्पदं
यांति कोटिरविभासुरं शिवम्॥९९॥

तस्यैव रामस्य पदांबुजं सदा
हृत्पद्ममध्ये सुनिधाय मारुतिः॥
सदैव निर्मुक्तसमस्तबंधनः
किं तस्य पाशैरितरैश्च बंधनैः॥१००॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे
सुन्दरकाण्डे तृतीयः सर्गः॥३॥

** **जिस रामचन्द्र के नामको जे निरन्तर जपते हैं ते अज्ञान से उत्पन्न हुआ

जो कर्म बन्धन तिससेछूट करके कड़ोरों सूर्योंका जिसमें प्रकाश ऐसे कल्याण रूप रामपदको प्राप्त होते हैं ९९ और तिसी राम के चरणारविन्द को जो हनुमान् सदा अपने हृदय कमल में स्थापन कर सदा सब बन्धनों से मुक्त हो रहाहै तिस हनुमान् को देखने में आनेवाले जो स्थूल पाशबन्धन तिनकरक क्या होनाहै १००॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे सुन्दरकाण्डे भाषाटीकायां तृतीय सर्गः॥३॥

यान्तं कपीन्द्रं धृतपाशबन्धनं
विलोकयन्तं नगरं विभीतवत्॥
अताडयन्मुष्टितलैः सुकोपनाः
पौराः समंतादनुयांत ईक्षितुम्॥१॥

ब्रह्मास्त्रमेनं क्षणमात्रसंगमं
कृत्वा गतं ब्रह्मवरेण सत्वरम्॥
ज्ञात्वा हनूमानपि फल्गुरज्जुभि-
र्धृतो ययौ कार्यविशेषगौरवात्॥२॥

सभांतरस्थस्य च रावणस्य तं
पुरो निधायाह बलारिजित्तदा॥
बद्धो मया ब्रह्मवरेण वानरः
समागतोऽनेन हता महासुराः॥३॥

यद्युक्तमत्रार्य विचार्य मंत्रिभि-
र्विधीयतामेष न लौकिको हरिः॥
ततो विलोक्याह स राक्षसेश्वरः
प्रहस्तमग्रे स्थितमंजनाद्रिभम्॥४॥

प्रहस्त पृच्छैनमसौ किमागतः
किमत्र कार्यं कुत एव वानरः॥
वनं किमर्थं सकलं विनाशितं
हताः किमर्थं मम राक्षसा बलात्॥५॥

ततः प्रहस्तो हनुमंतमादरा-
त्पप्रच्छकेन प्रहितोऽसि वानर॥
भयं च ते मास्तु विमोक्ष्यसे मया
सत्यं वदस्वाखिलराजसन्निधौ॥६॥

ततोऽतिहर्षात्पवनात्मजो रिपुं
निरीक्ष्य लोकत्रयकंटकासुरम्॥
वक्तुं प्रचक्रे रघुनाथसत्कथां
क्रमेण रामं मनसा स्मरन्मुहुः॥७॥

दो० चौथे सर्ग सुरेश जित पाशबँधे हनुमान॥
मिलिदशकंठहिस्रंकको छारकियोबलवान्॥१॥

अबश्रीमहादेजी पार्वती से कथा वर्णन करते हैं कि हे पार्वति अब धारण कियाहै अपनेही आप ब्रह्मपाशका बन्धन जिसने और भयभीतकी नाईं नगर को देखरहाहै इस प्रकार गमन कररहा जो हनुमान् तिसको देखनेको आये जे पुरबासी राक्षस ते क्रोध करके पीछेसे हनुमान्‌को मूठियों से मारतेहुये १ अब ब्रह्मास्य ब्रह्मा के वरदान करके इस हनुमान् से क्षणमात्र मिलाप करके चलाजाताहुआ और तुच्छ रस्सियों से बँधाहुआ हनुमान् मैं ब्रह्मपाश से छूट गयाहौंयह जानके भी रावणले वार्तालाप करनाहै इस हेतु जाताही हुआ इसका आशय यहहै कि जब बाहरसे रस्सीआदि बन्धन से कोई वांधैतौ मंत्र

काबंधन छूटजाताहै यह प्रसिद्ध है तो जब मेघनाद ब्रह्मास्रके मंत्र करके हनुमान्को बांधिकैले चला तौमूर्ख राक्षसों ने यह जाना कि यह वानर बिना बँधा मेघनादके संग चलाजाता है कहीं भाग न जावै और यह न जाना कि यह मन्त्रसे बँधाहै फिर उन मूहोंने हनुमान् को रस्सियों से भी बांधा तब उसी समय ब्रह्मपाश का बन्धन छूट गया यह जानिकै मेघनादको बड़ा खेदहुआ और यह कहा कि इन मुर्खोंने बुरा किया जो और बन्धन से बांधा और यह वानर भी नहीं जानता है इससे चला जाता है औरजो कदाचित् इसभेदको जानता होता तौ यह वानर ऐसा बलीहै कि इनसब रस्सियोंके बन्धनको तोड़के इनसब राक्षसों को मारडालता और हनुमान् तो यह विचार करताहुआ कि ब्रह्मपाशके बन्धनेसे तो मैं छूटगया हौंतो कदाचित् इन राक्षसोंको मारने लगौंतौरावणसे इससमयमें वार्तालाप करनेमें विघ्न होजायगा इससे अभी अज्ञवनने हीमे कार्यवनताहै और स्वामी के कार्य के लिये इन तुच्छ राक्षसोंका ताड़नादि तिरस्कारको भी सहोंगा तौ कुछ बुराई नहीं है इससे जैसे बनेतैसे रावणके पास जानाहीचाहिये यहयहां के प्रसंगका आशयहै २ तब मेघनाद सभाके मध्यमें स्थित जो रावण तिसके आगे हनुमान् को स्थापन करिकै बोलताहुआ कि ब्रह्माके वरदान के प्रभाव से बांधिकै यह बानर मैंने तुम्हारे समीप प्राप्त किया और इसीने बड़ेबड़े असुर मारे हैं ३ और हे आर्य जो उक्त होय सो मन्त्रियों के संग विचार करके विधान करिये परन्तु जैसे और वानर होते हैं तैसा यह नहीं है तौ रावण हनुमान् को देखके अगाड़ी खड़ा जो प्रहस्तराक्षस तिससे बोलताहुआ ४ कि हे प्रहस्त तुम इस बानरसे पूंछो यह किसवास्ते यहां आया और क्या इसका कार्य है और कहांसे आया और सबवन किसवास्ते नाशकरदिया और किस कारण बड़े बली मेरे राक्षस इसने अपने बलसे मारे ५ तब प्रहस्त मन्त्री आदर पूर्वक हनुमान् से पूंछताहुआ कि हे वानर किसने तुमको भेजाहै और भयतुमको कुछ नहीं है इससे राजाके समीप सत्यकहौगे तौछुड़ादिये जावोगे ६ तब हनुमान् प्रतिहर्ष से तीनोंलोकों का कंटक और असुर ऐसे वैरीको देखके रघुनाथजीका वारंवार स्मरण करते हुये श्रीरघुनाथ की जो सुन्दरिकथातिसको क्रमकरके कहनेको प्रारम्भ करतेहुये ७॥

शृणु स्फुटं देवगणाद्यमित्र हे
रामस्य दूतोऽहमशेषहृत्स्थितेः॥
यस्याखिलेशस्य हताधुना त्वया
भार्या स्वनाशाय शुनेव सद्धविः॥८॥

स राघवोभ्येत्य मतंगपर्वतं
सुग्रीवमैत्रीमनलस्य सन्निधौ॥
कृत्वैकबाणेन निहत्य बालिनं
सुग्रीवमेवाधिपतिं चकार तम्॥९॥

स वानराणामधिपो महाबली
महाबलैर्वानरयूथकोटिभिः॥
रामेण सार्द्धं सह लक्ष्मणेन भो
प्रवर्षणेऽम

** र्षयुतोऽवतिष्ठते॥१०॥**

संचोदितास्तेन महाहरीश्वरा
धरासुतां मार्गयितुं दिशो दश॥
तत्राहमेकः पवनात्मजः कपिः
सीतां विचिन्वन्शनकैः समागतः॥११॥
दृष्टा मया पद्मपलाशलोचना
सीता कपित्वाद्विपिनं विनाशितम्॥
दृष्ट्वा ततोऽहं रभसा समागता-
न्मां हंतुकामान्धूतचापसायकान्॥१२॥

मया हतास्ते परिरक्षितं वपुः
प्रियो हि देहोऽखिल देहिनां प्रभो॥
ब्रह्मास्त्रपाशेन निबध्य मां ततः
समागमन्मेघनिनादनामकः॥१३॥

स्पृष्ट्वैव मां ब्रह्मवरप्रभावत-
स्त्यक्त्वा गतं सर्वमवैमि रावण॥
तथाप्यहं बद्ध इवागतो हितं
प्रवक्तुकामः करुणारसार्द्रधीः॥१४॥

हे देवगणों के शत्रु तुममेरे वचन सुनो मैं सबके हृदयमें स्थित जो राम तिनका दूतहौंजिस सबके स्वामी रामकी स्त्री अपने नाशकेलिये जैसे कुत्ता यज्ञमें से हविर्द्रव्यको हरै तैसे तुमने इससमयमें हरी है ८ सो राम ऋष्यमूक पर्वतपै प्राप्त होके अग्निको साक्षी करके सुग्रीवसे मित्रता करके एक वाणसे बालीको मारके सुग्रीवको सब बानरोंका राज्यदैके सबका स्वामी करताहुआ ९ सो महाबली बानरोंका स्वामी सुग्रीव बड़ेबड़े बलयुक्त कड़ोरोंयूथपति वानरों करके सहित और रामलक्ष्मण करके सहित प्रवर्षण नामपर्वतपै क्रोधयुक्तही स्थित होरहा १० तिस सुग्रीवने सीताके ढूंढने को दशोंदिशों में बड़ेबड़े बलवान् वानर भेजे हैं तिनमेंका एक मैं पवनकापुत्र वानर सीताको ढूंढते ढूंढते धीरेधीरे यहां प्राप्तहुआ ११ सो कमलवत् हैं नेत्रजिसके ऐसीजो सीता सो मैंने देखी और वानरजातिके स्वभावसे बनकानाश किया तिसके उपरांत धनुषबाण लैके मेरे मारनेको वेग करिकै आयेजे राक्षस १२ तिनको देखके मैंने भी अपने शरीरकी रक्षाकरने को उनको मारा क्योंकि सब प्राणियों को अपनी देहप्रिय होती है तिसपै मेघनाद तुम्हारापुत्र ब्रह्मपाशसे मुझको बांधि कै लेआताहुआ १३ सो वह ब्रह्मपाश मेरे शरीरको स्पर्श करते ही ब्रह्माजीने जो मुझको वरदेरक्खा है तिसके प्रभावसे मुझको त्यागि चलागया यह मैं जानता भीथा तो तुम्हारे ऊपर दयाकी दृष्टिकरिकै तुम्हारे संग वार्त्तालाप करने को बँधेकी तरह प्राप्तहुआ यह सब तुमजानो १४॥

विचार्य लोकस्य विवेकतो गतिं
न राक्षसीं बुद्धिमुपैहि रावण॥
देवीं गतिं संसृतिमोक्षहेतुकीं
समाश्रयात्यंतहिताय देहिनः॥१५॥

त्वं ब्राह्मणो ह्युत्तमवंशसंभवः
पौलस्त्यपुत्रोऽसि कुवेरबांधवः॥
देहात्मबुद्ध्यापि च पश्य राक्षसो
नास्यात्मबुद्ध्या किमु राक्षसो नहि॥१६॥

शरीरबुद्धींद्रिय

** दुःखसन्तति-
र्न ते न च त्वं तव निर्विकारतः॥
अज्ञानहेतोश्च तथैव संतते-
रसत्त्वमस्याः स्वपतो हि दृश्यवत्॥१७॥**

इदं तु सत्यं तव नास्ति विक्रिया
विकारहेतुर्न च तेऽद्वयत्वतः॥
यथा नभः सर्वगतं न लिप्यते
तथा भवान्देहगतोऽपि सूक्ष्मकः॥
देहेन्द्रियप्राणशरीरसंगत-
स्त्वात्मेति बुद्ध्याखिलबन्धभाग्भवेत्॥१८॥

चिन्मात्रमेवाहमजोहमक्षरो
ह्यानन्दभावोहमिति प्रमुच्यते॥
देहोऽप्यनात्मा पृथिवीविकारजो
न प्राण आत्मानिलएष एव सः॥१९॥

मनोप्यहंकारविकार एव नो
न चापि बुद्धिः प्रकृतेर्विकारजा॥
आत्मा चिदानन्दमयोऽविकारवा-
न्देहादिसंघाद्व्यतिरिक्त ईश्वरः॥२०॥

निरंजनो मुक्त उपाधितः सदा
ज्ञात्वैवमात्मानमिताविमुच्यते॥
अतोहमात्यंतिकमोक्षसाधनं
वक्ष्ये शृणुष्वावहितो महामते॥२१॥

** **इससे हे रावण विवेक करके लोकगतिको विचार करके आसुरी राक्षसी संपत्तिकी बुद्धिको न प्राप्तहो अर्थात् त्यागदेवो और संसार के मोक्षमें कारण जो दैवी संपत्तिकी बुद्धि तिसको अपना हितमानिकै ग्रहणकरौ १५ और तुम ब्राह्मण जातिमें उत्पन्न तिसपै भी पुलस्त्य ऋषिके पौत्रहो इसीसे उत्तमकुल में तुम्हारा जन्म और कुबेरके तुमभाई सो कदाचित् देहात्म बुद्धिकरिकै देखो तौभी राक्षस नहींहों और आत्म विचार करके राक्षस नहीं हौयह कहनाही क्याहै १६ और स्थूलशरीर और बुद्धिप्रधान जो लिंग शरीर और सब इन्द्रिय इनसे उत्पन्न जो दुःखोंका समूह सो तुमको नहीं है और न वह दुःखके तुम आश्रयहौअर्थात् दुःख तुममें नहीं रहि सक्ताहै क्योंकि तुम निर्विकारहौइस से और जो वास्तव दुःखका संबन्ध आत्मामें होय तो निर्विकारता नहीं बन सक्ती है और जो में दुःख युक्तहौंइसको आदि लैके प्रतीतिहै तिसका तौ अज्ञान कारणहै इससे स्वप्नके तुल्य मिथ्याही है ऐसेही संसार भी मिथ्याहै क्योंकि सभीदृश्य पदार्थमें अज्ञान कारण और स्वप्नदृष्टान्त तुल्यहीहै १७ और तुम्हारा स्वरूप भूत जो आत्माहै सोतो सत्यहै तिससे उसमें कोई विकार नहीं है और विकार में हेतु जो अज्ञान सो मिथ्याहै क्योंकि वेदने अद्वैत आत्माकहाहै इस कारण से और चित्त संबन्ध से भी आत्मामें दुःखादिक नहीं संभव होते क्योंकि जैसे सब जगह व्याप्त भी आकाशहै परन्तु पृथिव्यादि विकारोंसे लिप्तनहीं होता ऐसे देहमें स्थितभी आत्माहै तौभी अतिसूक्ष्म होनेसे देहधर्मों करके नहीं लिप्तहोताहै ऐसा निश्चित सिद्धान्तहै तौअविवेक करकेदेह और इन्द्रिय और प्राण इनके संगसे यही मेरास्वरूपहै ऐसी मिथ्या बुद्धिकरकेदेहादिकोंसेउत्पन्न जो सुखदुःखादिक तिनको भोगताही है १८ औरविवेककरके

जबऐसा अपनाको देखताहै कि मैं चैतन्यमात्र हौंऔर मैं जन्मरहितहौंऔर मैं नाश रहित हौंऔर मैं आनन्दस्वरूपहौंतौ तौ मोक्षको प्राप्तहोता है और देहतौ इन धर्मों से विपरीत है क्योंकि पृथिवी का विकार जो अन्न है तिससे उत्पन्नहै इससे आत्मा नहीं होसक्ताऔर प्राणभी आत्मा नहीं है जिससे बाहिर का दृश्यपवन है सोई प्राणहै तौ दृश्य और जड़होने से आत्मा उसको नहीं कहिसक्ते १९ और मनभी आत्मा नहीं है जिससे वह मन अहंकार का विकार है और अहंकारभी आत्मा नहीं जिससे अहंकार प्रकृतिका विकार जो महतत्त्व से उत्पन्न हुआ है इससे जो चिदानन्दमय है और विकाररहित है और जो देहादि संगसे रहित है सो आत्माहै और वहीईश्वरहै २० और वह निरञ्जनहै निर्मलहै जिससे उपाधिरूप मलसे छूटाहै ऐसे आत्मा को जानि कै पुरुष मुक्तिको प्राप्तहोता है तिससे हे श्रेष्ठमति रावण इस मुक्तिका अत्यन्त उत्तम साधन मैं कहता हौं तिसको एकाग्रचित्तहो श्रवणकरौ २१॥

विष्णोर्हि भक्तिः सुविशोधनं धिय-
स्ततो भवेज्ज्ञानमतीव निर्मलम्॥
विशुद्धतत्त्वानुभवो भवेत्ततः
सम्यग्विदित्वा परमं पदं व्रजेत्॥२२॥

अतो भजस्वाद्य हरिं रमापतिं
रामं पुराणं प्रकृतेः परं विभुम्॥
विसृज्य मौर्ख्यं हृदि शत्रुभावनां
भजस्व रामं शरणागतप्रियम्॥
सीतां पुरस्कृत्य सपुत्रवांधवो
रामं नमस्कृत्य विमुच्यसे भयात्॥२३॥

रामं परात्मानमभावयन्जनो
भक्त्या हृदिस्थं सुखरूपमद्वयम्॥
कथं परं तीरमवाप्नुयाज्जनो
भवांबुधेर्दुःखतरंगमालिनः॥२४॥

नो चेत्त्वमज्ञानमयेन वह्निना
ज्वलंतमात्मानमरक्षितारिवत्॥
नयस्यधोधः स्वकृतैश्च पातकै-
र्विमोक्षशंकानचतेभविष्यति॥२५॥

श्रुत्वामृतास्वादसमानभाषितं
तद्वायुसूनोर्दशकन्धरोऽसुरः॥
अमृष्यमाणोऽतिरुषा कपीश्वरं
जगाद रक्तांतविलोचनो ज्वलम्॥२६॥

कथं ममाग्रेविलपस्य भीतवत्
प्लवं गमानामधमोऽसि दुष्टधीः॥
क एष रामः कतमो वनेचरो
निहन्मि सुग्रीवयुतं नराधमम्॥२७॥

त्वां चाद्य हत्वा जनकात्मजां ततो
निहन्मि रामं सहलक्ष्मणंततः॥
सुग्रीवमग्रे बलिनं कपीश्वरं
सवानरं हन्म्यचिरेण वानर॥
श्रुत्वा दशग्रीववचः स मारुति-
र्विवृद्धकोपेन दहन्निवासुरम्॥२८॥

** **विष्णुकी जो भक्तिहै सोई चित्तके शोधनकरनेका परमउपायहै और तिस भक्तिही से अतिनिर्मल ज्ञान होताहै और तिसज्ञानसे फिर आत्म साक्षात्कार होताहै फिर आत्म स्वरूपको जान के परमपदको प्राप्तहोता है अर्थात् ब्रह्मरूप

होजाता है २२ इसकारणसे लक्ष्मीकापति और प्रकृतिसे परे और व्यापक और पुराण पुरुष ऐसा जो राम तिसका इससमयमें भजनकरौऔर अपनी मूर्खताको और राममें शत्रुभावको त्यागकर शरणागतहै प्रिय जिसको ऐसे रामका भजनकरौ२२ और सीताको अगाड़ीकर पुत्र बांधव सहित रामको नमस्कार कर भयसे छूट जावोगे और हृदयमें स्थित और सदा सुख रूप और द्वैतभाव करके रहित ऐसे जो परमात्मा राम तिनको हृदय में जानिकै नहीं भावना करें तौमनुष्य दुःख रूप तरंगोंका है समूह जिसमें ऐसे संसार रूपी समुद्रके पार कैसे प्राप्त होताहै २४ और जो तुम मेरा कहा न मानोगे और अज्ञान रूपी अग्नि करके जलता हुआ जो आत्मा अपना अन्तःकरण तिसकी नहीं रक्षाकरोगे और अपने कियेहुये जे परस्त्रीहरण ऋषि मारणादि पातक तिन करके अपनाको नीचे नीचे लोकमेंप्राप्त करोगे तो कभी न छूटोगे २५ अब रावण अमृत कासास्वादु जिसमें ऐसा हनुमान् का वचन सुनिकै भी नहीं सहताहुआ और क्रोध करके लालहुये हैं नेत्रजिसके सो अग्निकीतरह प्रज्वलितहुधा हनुमान् से बोला २६ कि कैसे मेरे आगे निर्भयकी तरह बोलरहा हैं इससे वानरों के बीच में अधम और तू दुष्ट बुद्धिहै और कौन रामहै जिसकी प्रशंसा कररहा है और वनेचर सुग्रीव किनमें श्रेष्ठहैंइससे सुग्रीव युक्त जो नरों में अधम राम तिसको मारोंगा २७ और इससमय तुझको मारके फिर सीता को मारोंगा तिसके अनन्तर लक्ष्मण सहित रामको मारोंगा और हे वानर तिसके उपरान्त वानरोंकरके सहितवानरों के राजाबली सुग्रीवको मारोंगा अब पवनकापुत्र जो हनुमान् सो रावणके वचनसे बढ़ाहुआ जो क्रोधतिस करकेरावणको भस्म करता हुआ बोला २८॥

न मे समा रावणकोटयोऽधम
रामस्य दासोऽहमपारविक्रमः॥
श्रुत्वातिकोपेन हनूमतो वचो
दशाननो राक्षसमेकमब्रवीत्॥२९॥

पार्श्वे स्थितम्मारय खण्डशः कपिं
पश्यन्तु सर्वेऽसुरमित्रबांधवाः॥
निवारयामास ततो विभीषणो
महासुरं सायुधमुद्यतं वधे॥३०॥

राजन्वधार्हो न भवेत्कथंचन
प्रतापयुक्तैःपरराजवानरः॥
हतेस्मिन्वानरे दूते वार्तां को वा निवेदयेत्॥

रामाय त्वं यमुद्दिश्य वधाय समुपस्थितः॥३१॥

अतो बधसमं किंचिदन्यच्चिंतय वानरैः॥
सचिह्नो गच्छतु हरिर्यं दृष्ट्वायास्यति द्रुतम्॥३२॥

रामः सुग्रीवसहितस्ततो युद्धम्भवेत्तव॥
विभीषणवचः श्रुत्वा रावणोप्येतदब्रवीत्॥३३॥

वानराणां हि लांगूले महामानो भवेत्किल॥
अतो वस्त्रादिभिः पुच्छं वेष्टयित्वा प्रयत्नतः॥३४॥

कि कड़ोरोंअधमरावण मेरेसमान नहीं हैं और अपारहै विक्रम पराक्रम जिसका ऐसा मैंरामकादूतहौं २९ तब रावणहनुमान्का बचनसुनिकै अतिक्रोधयुक्तहो अपने समीप स्थित जो राक्षस तिससे बोलाकि टुकड़े टुकड़े करके इसबानरकोमार डालजिसमें मेरे भाई बन्धुराक्षससबदेखैं तबबिभीपण उससमयमें मारनेको उद्यतहुआ जोवहशस्त्रयुक्त राक्षस तिसको निवारणकर रावणसेबोला ३० कि हेराजन् प्रतापयुक्त जोराजा हैं तिनको शत्रुकी राज्यका यहबानरमारने के योग्य नहीं क्योंकि दूतकामारनानीति विरुद्धहै और मुख्य अभिप्रायती यहहै कि प्रतापयुक्त भी तुम इंन्द्रजित् आदि लेकेहौपरन्तु किसीकी सामर्थ्य इस बानरके मारने की नहीं है और दूसराकारण यह है कि यहदूत वानर माराजायगा तो राम से खबर कौन करेगा जिस रामके मारनेको तुम उद्यत होरहे हौ ३१ इससे बधके समान और कुछ दंड इसवानरको विचार कियाजाये और इसबानरके अंगमें कोई चिह्न होजाय तो चिह्नयुक्त वानर यह जाय तौ सुग्रीवसहित रामशीघ्रही आवैं३२ तो तुम्हारा युद्ध होय यह विभीषण के वचनसुनिकै रावण यह कहताहुआ ३३ कि वानरों की पूंछमें बड़ी प्रीति और ममता होती है इससे बड़े यत्नसे पूंछको बहुतसे बस्त्रोंसे लपेटकर के ३४॥

वह्निना योजयित्वैव भ्रामयित्वा पुरेऽभितः॥
विसर्जयत पश्यंतु सर्वे वानरयूथपाः॥३५॥

तथेति शणपट्टैश्चवस्त्रैरन्यैरनेकशः॥
तैलाक्तैर्वेष्टयामासुर्लांगूलं मारुेर्तदृढम्॥३६॥

पुच्छाग्रे किंचिदनलंदीपयित्वाथ राक्षसाः॥
रज्जुभिः सुदृढं बध्वा धृत्वा तं बलिनोऽसुराः॥३७॥

समंताद्भ्रामयामासुश्चोरोयमिरज्जुभिः तिवादिनः॥
तूर्यघोषैर्घोषयंतस्ताडयंतो मुहुर्मुहुः॥३९॥

हनूमतापि तत्सर्वं सोढंकिंचिच्चकीर्षुणा॥
गत्वा तु पश्चिमद्वारसमीपं तत्र मारुतिः ॥३९॥

सूक्ष्मो बभूव बंधेभ्यो निःसृतः पुनरप्यसौ॥
बभूव पर्वताकारस्तत उत्प्लुत्य गोपुरम्॥४०॥

तत्रैकं स्तंभमादाय हत्वा तान्रक्षिणः क्षणात्॥
विचार्य्य कार्य्यशेषं सः प्रासादाग्राद्गृहाद्गृहम्॥४१॥

** **फिर इसकी पूंछमें आगलगाकर और लंकापुरी में चारों तरफ घुमाकर छोडदेउ तौ सब वानरों के यूथपती इसको बिना पूंछकादेखैं३५ फिर तैसेही रावणकी आज्ञासे सनके वस्त्र और बहुतसे रुईके वस्त्रों करके और तेलसे डूवे हुये अनेक वस्त्रों करके राक्षस हनुमान् की पूंछको दृढ़ करके लपेटते हुये ३६ फिर वे बली राक्षस उस वानर की पूंछमें अग्नि जलाकरऔर रस्सियों से बहुत दृढ़ बांधि के नगर के चारोंतरफ उस बानरको घुमाते हुये ३७ और यह चोर है ऐसा कहते हुये और वाजेबजाते हुये बारम्बार उस वानरको ताडन

करतेहुये ३८ तौ हनुमान् भी कुछ कार्यके करने की इच्छा करके वह सब तिरस्कार सहते हुये फिर हनुमान लंकाके पश्चिम द्वारपै पहुँचके ३९ सूक्ष्म होजातेहुये अर्थात् शरीरको पतलाकर देतेहुये फिर जब वे रस्सी के बन्धनढीले हुये तो उनसे निकल जातेहुये फिर पर्वताकार हो एक लंकाके द्वारपर कूद के चढ़के ४० उसका एक खम्भा उखाड़के उस करके जितने रक्षाकरनेवाले राक्षस थे तिनको क्षणमात्र में मारके और जो कुछ कार्य करनेको बाकी रहा है तिसको विचार करके महल से महल के ऊपर ४१॥

उत्प्लुत्योत्प्लुत्य संदीप्तपुच्छेन महता कपिः॥
ददाह लंकामखिलां साट्टप्रादातोरणाम्॥४२॥

हा तात पुत्र नाथेति क्रंदमानाः समंततः॥
व्याप्ताः प्रासादशिखरेप्यारूढा दैत्ययोषितः॥४३॥

देवता इव दृश्यंते पतंत्यः पावकेऽखिलाः॥
विभीषणगृहं त्यक्त्वा सर्वं भस्मीकृतं पुरम्॥४४॥

तत उत्प्लुत्य जलधौ हनूमान्मारुतात्मजः॥
लांगूलं मज्जयित्वांतः स्वस्थचित्तो बभूव सः॥४५॥

वायोःप्रियसखित्वाच्च सीतया प्रार्थितोऽनलः॥
न ददाह हरेः पुच्छं बभूवात्यंतशतिलः॥४६॥

यन्नामसंस्मरणधूतसमस्तपापा-
स्तापत्रयानलमपीह तरंति सद्यः॥
तस्यैव किंरघुवरस्य विशिष्टदूतः
सन्तप्यते कथमसौ प्रकृतानलेन॥४७॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे सुन्दरकाण्डे चतुर्थस्सर्गः॥४॥

और घरसे घरके ऊपर कूदकूढ़के बलतीहुई जो पूंछ तिसकरके अटारी और महल औरद्वार इनकरके सहित सारी लंकापुरीको हनुमान् भस्म करताहुया अबमहलों की अटारियों के ऊपर चढ़ीहुई जो राक्षसोंकी स्त्रियां ते हा तात हा पुत्र हानाथ ऐसे वचन उच्चारण करती हुईं चारों तरफ से अग्नि के दाह करके चिचिया चिचियाके रोवतीहुई ४२।४३ बलतीहुई अग्निमें गिरती हुईं जैसे आकाशसे देवता गिरैं तैसे दिखाई पड़रही हैं इसप्रकार हनुमान् एक विभीषणके गृहको त्यागकर सब लंकापुरी को भस्म करता हुआ ४४ तब पवन कापुत्र हनुमान् कूदके समुद्रमें पूंछको बुझाके स्वस्थचित्तहोता हुआ ४५ पवन का प्रिय सखाहै इससे और पतिव्रता सीता करके प्रार्थना किया गया ऐसा जो अग्नि सो हनुमान की पूंछको नहीं जलाता हुआ और अत्यन्त शीतल हो गया ४६ जिस रामनामके स्मरणसे नष्ट होगये हैं संपूर्णपाप जिन्हों के ते अध्यात्म अधिदैव अधिभूत यह तीन प्रकारके अग्निके पार शीघ्रही प्राप्तहोते

हैं तिसही रामका प्रियदूत जो हनुमान् सो प्राकृत अग्नि करके कैसे संतप्त होय ४७॥

इति श्रीमदध्यात्ममायणे उमामहेश्वरसंवादे सुन्दरकाण्डे भाषाटीकायां चतुर्थस्सर्गः॥४॥

ततः सीतां नमस्कृत्य हनूमानब्रवीद्वचः॥
आज्ञापयतु मां देवि भवती रामसन्निधिम्॥१॥

गच्छामि रामस्त्वां द्रष्टुमागमिष्यति सानुजः॥
इत्युक्त्वा त्रिःपरिक्रम्य जानकीं मारुतात्मजः॥२॥

प्रणम्य प्रस्थितो गंतुमिदं वचनमब्रवीत्॥
देवि गच्छामि भद्रं ते तूर्णं द्रक्ष्यसि राघवम्॥३॥

लक्ष्मणं च स सुग्रीवं वानरायुतकोटिभिः॥
ततः प्राह हनूमंतं जानकी दुःखकर्शिता॥४॥

त्वां दृष्ट्वा विस्मृतं दुःखमिदानीं त्वं गमिष्यसि॥
इतः परं कथं वर्ते रामवार्ताश्रुतिं विना॥५॥

मारुतिरुवाच॥

यद्यैवं देवि मे स्कंधमारोह क्षणमात्रतः॥
रामेण योजयिष्यामि मन्यसे यदि जानकि॥६॥

सीतोवाच॥

रामः सागरमाशोष्य बध्वा वा शरपंजरैः॥
आगत्य वानरैः सार्द्धं हत्वा रावणमाहवे॥७॥

दो०। पंचम सर्ग विदेहजा करि प्रणाम हनुमान॥
पुनिसीताकी रामसों कहीकुशल बलवान॥१॥

अब श्री महादेवजी पार्वती से कथा वर्णन करते हैं कि हे पार्वति तिसके उपरान्त हनुमान् सीताको नमस्कार करके बचन बोला कि हे देवि मुझको रामके समीप जाने को आज्ञा दीजिये १ और लक्ष्मण सहित राम तुमको देखने को शीघ्रही द्यावेंगे यह कहिके हनुमान् सीताकी तीनवार परिक्रमा करके २ और प्रणाम करके यात्रा करने को उद्यत हुत्रा यह वचन बोला कि हे देवि जाता हूं और तेराकल्याण होय और तुम शीघ्रही ३ कड़ोरों वानरों करके सहित और सुग्रीव करके सहित रामको देखोगी और लक्ष्मण को देखोगी तब दुःख करके दुर्बल जो सीता सो हनुमान से बोलती हुई ४ कि हे हनुमन तुम को देखके मुझको दुःख विस्तृत होगया रहा और अब तुम जाते हो तो इसके उपरान्त कैसे रहौंगी बिना रामकी बार्त्ता सुने ५ तौ हनुमान् कहता हुआ कि देवि जो ऐसा वियोग तुमसे नहीं सहाजाता है तौ मेरे कंधे पे सवार हूजिये अभी क्षणमात्रमें मैं रामसे तुम्हें मिलाताह हे जानकि जो ऐसा मानोतौ ६ तब सीता कहती हुई कि हे हनुमन् जोराम बाणोंकर के समुद्रको सुखाके अथवा बाणोही समूहसे पुल बांधिकै वानरों करके सहित आके और संग्राममें रावणको मारिकै ७ ॥

मां नयेद्यदि रामस्य कीर्तिर्भवति शाश्वती॥
अतो गच्छ कथं चापि प्राणान्संधारयाम्यहम्॥८॥

इति प्रस्थापितो वीरः सीतया प्रणिपत्य ताम्॥
जगाम पर्वतस्याग्रे गंतुं पारं महोदधेः॥९॥

तत्र गत्वा महासत्वः पादाभ्यां पीडयन्गिरिम्॥
जगाम वायुवेगेन पर्वतश्च महीतलम्॥१०॥

ततो महीसमानत्वं त्रिंशद्योजनमुच्छ्रितः॥
मारुतिर्गगनांतस्थो महाशब्दंचकार सः॥११॥

तं श्रुत्वा वानराः सर्वे ज्ञात्वा मारुतिमागतम्॥
हर्षेण महताविष्टः शब्दं चक्रुर्महास्वनम्॥१२॥

शब्देनैव विजानीमः कृतकार्यःसमागतः॥
हनूमानेव पश्यध्वं वानरा वानरर्षभम्॥१३॥

एवं ब्रुवत्सु वीरेषु वानरेषु समारुतिः॥
अवतीर्य गिरेर्मूर्ध्नि वानरानिदमब्रवीत्॥१४॥

** **जो मुझको लेजायँ तौ रामकी बहुत कालतक कीर्ति होगी इससे तुम जावो मैं कैसेही तबतक प्राणोंको धारण करौंगी ८ इस प्रकार सीता करके भेजा गया जो बीर हनुमान् सो सीताको प्रणाम करके समुद्र के पार जाने को पर्वतके ऊपर चढ़ताहुआ ९ तब बड़ा बलवान् हनुमान् उस पर्वतपैजाके और पांवों से पर्वतको दबाके पवनके वेग करके चलताहुआ और पर्वत भी पृथिवीमें धसता हुआ १० तब तीस योजन ऊंचापर्वत हनुमान् के दबाने से पृथिवी के बराबर होगया और हनुमान् आकाश मार्ग में स्थितहो घोर शब्द करताहुना ११ उस शब्दको सुनिकै सब वानर आवते हुये हनुमान् को जानिकै बड़े आनन्द युक्तहो बड़े शब्दसे गर्जतेहुये १२ और सब वानर परस्पर कहतेहुये कि शब्दही करके हम जानते हैं कि यह हनुमान् कार्यको सिद्धकरके आयाहै और हे वानरो यह वानरोंमें श्रेष्ठ जो हनुमान् तिसको देखौ १३ इस प्रकार सबवीर वानरलोग वार्तालाप करतेये तबतक हनुमान् पर्वतके शिखर के ऊपर आकाश से उतरके यह वचन बोलता हुआ १४॥

दृष्टा सीता मया लंका धर्षिता च सकानना॥
सम्भाषितो दशग्रीवस्ततोऽहं पुनरागतः॥१५॥

इदानीमेव गच्छामो रामसुग्रीवसन्निधिम्॥
इत्युक्त्वा वानराः सर्वे हर्षेणालिंग्य मारुतिम्॥१६॥

केचिच्चुचुंबुर्लांगूलं ननृतुः केचिदुत्सुकाः॥
हनूमता समेतास्ते जग्मुः प्रस्रवणं गिरिम्॥१७॥

गच्छंतो ददृशुर्वीरा वनं सुग्रीवरक्षितम्॥
मधुसंज्ञं तदा प्राहुरंगदं वानरर्षभाः॥१८॥

क्षुधिताः स्मो वयं वीरदेह्यनुज्ञां महामते॥
भक्षयामः फलान्यद्य पिबामोऽमृतवन्मधु॥१९॥

सन्तुष्टा राघवं द्रष्टुं गच्छामोऽद्यैव सानुजम्॥२०॥

अङ्गद उवाच॥

हनूमान्कृतकार्योयं पिबतैतत्प्रसादतः॥
जक्षध्वं फलमूलानि त्वरितं हरिसत्तमाः॥२१॥

कि मैंने सीता देखी और लंकापुरी बनकर के सहित तिरस्कृत की अर्थात्उसको जीता और रावणसे बार्तालाप भी किया तिसके उपरान्त फिर मैं यहां प्राप्त हुआ १५ और इसीसमय में हम सब राम और सुग्रीव इनके समीप चलैंगे इसप्रकार हनुमान् ने कहा तौसबवानर बड़े आनन्द से हनुमान् को आलिंगनकरके १६ कोई तो हनुमान की पूँछको चूमतेहुये और कोई बड़ी प्रीतिसे नाचतेहुये फिर हनुमान् करके सहित सबवानर प्रवर्षणनाम पर्वत पै जातेहुये जहां राम औसुग्रीव स्थित हैं १७ अब मार्ग जातेहुये वानर सुग्रीव करके रक्षा कियागया एक मधुबन तिसको देखतेहुये और अंगद से यह कहते हुये १८ कि हे वीर हम सबोंको भूंख लगरही है इससे आज्ञाकरौ तौ इसबन में फलोंको खावैंऔर अमृत के तुल्य जो मधु है अर्थात् ताड़ी आदि मद्यहैं तिनको पीवैं१९ फिर खा पीके जब सन्तुष्ट होजावैंगे तब लक्ष्मण सहित रामके देखने को चलैंगे २० तब अंगद बोला कि यह हनुमान् कार्यकोकरि आयाहै इससे इसकेप्रसादसे तुम सब इसबनमें फलमूल भोजनकरौ २१॥

ततः प्रविश्य हरयः पातुमारेभिरे मधु॥
रक्षिणस्ताननादृत्य दधिवक्त्रेण मोदितान्॥२२॥

पिबतस्ताडयामासुर्वानरान्वानरर्षभाः॥
ततस्तान्मुष्टिभिःपादैश्चूर्णयित्वा पपुर्मधु॥२३॥

ततो दधिमुखः क्रुद्धः सुग्रीवस्य स मातुलः॥
जगाम रक्षिभिः सार्द्धं यत्र राजा कपीश्वरः॥२४॥

गत्वा तमब्रवीद्देव चिरकालाभिरक्षितम्॥
नष्टं मधूवनं तेद्य कुमारेण हनूमता॥२५॥

श्रुत्वा दधिमुखेनोक्तं सुग्रीवो हृष्टमानसः॥
दृष्ट्वागतो न संदेहः सीतां पवननंदनः॥२६॥

नो चेन्मधुवनं द्रष्टुं समर्थः को भवेन्मम॥
तत्रापि वायुपुत्रेण कृतं कार्यं न संशयः॥२७॥

श्रुत्वा सुग्रीववचनं हृष्टो रामस्तमब्रवीत्॥
किमुच्यते त्वया राजन्वचः सीताकथान्वितम्॥२८॥

** **तबतो सब वानर अंगदकी आज्ञाकरके उस बनमें प्रवेशकर के बनके रखवारों का अनादरकर के मधुके पानकरनेको प्रारम्भ करते हुये २२ और उसी समय में उस बनका मालिक सुग्रीव की तरफ से दधिमुखनाम वानर जो कि सुग्रीवका मामा था उसकी आज्ञासे उस बनके रक्षक जे वानर थे ते सब आकर उन वानरों को मनाकरतेहुये और जब उन्होंने नहीं माना तौ वे स्खवारे वानर उन्होंको ताड़न करतेहुये तवतौफिर अंगदकी आज्ञासे वे वानर रक्षाकरनेवाले वानरों को घूँसों और लातों से खूब मारतेहुये और अंगद

ने दधिमुखको उठाके देमारा भौर खूब लातों व घूँसोंसे मारा और उस बनमें जो उत्तमफल और मधुर रहे तिनकरके अपने हनुमान् आदि वानरों को खूब तृप्त किया २३ तवतौ दधिमुखनाम वानर अपने बनके रक्षाकरनेवाले सब वानरोंको संगले के सुग्रीवके पास जाताहुआ २४ और जाकर के यह कहा कि हे राजन् आपका बहुत कालका रक्षा कियागया मधुवन आज अंगद और हनुमान् ने नाश करवादिया और हम सबको मारा २५ तब यह दधिमुख वानर के वचन सुनिकै सुग्रीव बड़ा प्रसन्नहुआ और यह कहनेलगा कि यह निश्चयहै कि हनुमान् सीताको देखके आया है २६ और जो ऐसा नहोता तौ मेरे रक्षाकिये हुये मधुवन के देखनेको भी कौन समर्थ है तिसमें भी यह कार्य हनुमान्नेही कियाहै इसमें कुछ सन्देह नहीं २७ तब ये सुग्रीव के वचनसुनि कै राम प्रसन्नहोके सुग्रीव से बोले कि हे राजन् सीताकी कथा करके युक्त क्या वचन तुमने कहा २८॥

सुग्रीवस्त्वब्रवीद्वाक्यं देव दृष्टावनीसुता॥
हनूमत्प्रमुखाः सर्वे प्रविष्टा मधुकाननम्॥२९॥

भक्षयंति स्म सकलं ताडयंति स्म रक्षिणः॥
अकृत्वा देवकार्यं ते द्रष्टुं मधुवनं मम॥३०॥

न समर्थास्ततो देवीदृष्टा सीतेति निश्चितम्॥
रक्षिणो वो भयं मास्तु गत्वा ब्रूत ममाज्ञया॥३१॥

वानरानंगदमुखानानयध्वं ममांतिकम्॥
श्रुत्वा सुग्रीववचनं गत्वा ते वायुवेगतः॥३२॥

हनुमत्प्रमुखानूचुर्गच्छतेश्वरशासनात्॥
द्रष्टुमिच्छति सुग्रीवः सरामो लक्ष्मणाऽन्वितः॥३३॥

युष्मानतीव हृष्टास्ते त्वरयंति महाबलाः॥
तथेत्यम्बरमासाद्य ययुस्ते वानरोत्तमाः॥३४॥

हनूमंतं पुरस्कृत्य युवराजं तथांगदम्॥
रामसुग्रीवयोरग्रे निपेतुर्भुवि सत्वरम्॥३५॥

** **तबसुग्रीव वचनबोला कि हे देव सीता हनुमान्ने देखी क्यों कि हनुमान् को आदिलेकै वानर मधुवनमें प्रवेशकर फलोंको खारहे हैं २९ और उस वन के रक्षा करनेवालोंको ताडन कररहे हैं और हे राम बिना तुम्हारे कार्यकोकरे मेरे मधुवनके देखनेको कोई वानर समर्थ नहीं है ३० तिस कारणसे सीता देवीको देखके आये यह निश्चयहै अब वानरों से सुग्रीव बोला कि हे वनके रक्षा करनेवाले वानरो तुमको अब भय नहीं है और तुम मेरी आज्ञा करके जाके उन वानरों से कहो ३१ और अंगदको आदिलेके वानरोंको मेरे समीप शीघ्रही प्राप्तकरौतब सुग्रीवके वचन सुनिकै पवन के वेग करके वे सब वानर जाके ३२ हनुमान् को यदि लेके जे वानरहैं तिनसेकहतेहुये कि तुम शीघ्रही जाओराजाकी आज्ञासे और राम लक्ष्मण सहित सुग्रीव तुम सबको देखना

चाहते हैं ३३ और हे महा बलयुक्त वानरो रामलक्ष्मण और सुग्रीव ये अत्यन्त प्रसन्न हुये तुम्हारे देखनेको शीघ्रता कररहे हैं तब यह सुनिकै शीघ्रही हनुमान्आदि वानर आकाश मार्ग करके जाते हुये ३४ अब सब वानर हनुमान् को और अंगदको आगेकरके रामसुग्रीवके आगे दण्डवत् प्रणाम करते पृथिवी में पढ़तेहुये ३५॥

हनूमान्राघवं प्राह हृष्टा सीता निरामया॥
साष्टांग प्रणिपत्याग्रे रामं पश्चाद्धरीश्वरम्॥३६॥

कुशलं प्राह राजेंद्र जानकी त्वां शुचाऽन्विता॥
अशोकवनिकामध्ये शिंशपामूलमाश्रिता॥३७॥

राक्षसीभिः परिवृता निराहारा कृशा प्रभो॥
हा राम राम रामेति शोचंती मलिनाम्बरा॥३८॥

एकवेणी मया दृष्टा शनैराश्वासिता शुभा॥
वृक्षशाखांतरे स्थित्वा सूक्ष्मरूपेण ते कथाम्॥३९॥

जन्मारभ्य तवात्यर्थं दण्डकागमनं तथा॥
दशाननेन हरणं जानक्या रहिते त्वयि॥४०॥

सुग्रीवेण यथा मैत्री कृत्वा बालिनिबर्हणम्॥
मार्गपार्थं च वैदेह्याः सुग्रीवेण विसर्जिताः॥४१॥

महाबला महासत्वा हरयो जितकाशिनः॥
गताः सर्वत्र सर्वे वै तत्रैकोऽहमिहागतः॥४२॥

** **तब हनुमान्रामको प्रथम दण्डवत् प्रणामकर फिर सुग्रीवको प्रणाम कर के बोला कि दोष रहित सीता मैंने देखी ३६ और हे राजेन्द्र शोक करके युक्त जो सीताहै सो आपकी कुशलपूंछती हुई और अशोक बनिकाके मध्यमें शीशम वृक्षके जड़के समीप बैठी ३७ और राक्षसियों करके वेष्टित और आहार जिसने त्याग करदिया है इसीसे शरीर जिसका दुर्बल होरहाहै और हा राम हा राम हा राम ऐसा कहि कहिकै शोच करतीहुई और मलिन बस्त्रको धारणकरे ३८ और एक बेणी धारण करे ऐसी सीता मैंने देखी और फिर धीरे धीरे उसके चित्तको मैंने सावधान किया सूक्ष्म रूप धारण करके वृक्षकी शाखाके ऊपर स्थित हो जन्मसे लेकै आपकी कथा मैंने कही ३९ फिर दण्डकवनको जैसे आना हुआ, फिर शून्यस्थानमें से जैसे रावणने सीताको हरा ४० फिर सुग्रीव के साथ मित्रता करके जैसे आपने बालीका ब

थकिया फिर सीताके ढूंढनेको जैसे सुग्रीवने सब दिशाओं में बड़े बड़े बली वानर भेजे ४१ तिनवानरों में एक मैं यहां आके प्राप्तहुआ हौं ४२॥

अहं सुग्रीवसचिवो दासोऽहं राघवस्य हि॥
दृष्टा यज्जानकी भाग्यात्प्रयासः फलितोद्य मे॥४३॥

इत्युदीरितमाकार्ण्य सीता विस्फारितेक्षणा॥
केन वा कर्णपीयूषं श्रावितं शुभाक्षरम्॥४४॥

यदि सत्यं तदायातु मद्दर्शन

** पथं तु सः॥
तहोऽहं वानराकारः सूक्ष्मरूपेण जानकीम्॥४५॥**

प्रणम्य प्रांजलिर्भूत्वा दूरादेवस्थितः प्रभो॥
पृष्टोऽहं सीतया कस्त्वमित्यादि बहुविस्तरम्॥४६॥

मया सर्वं क्रमेणैव विज्ञापितमरिंदम॥
पश्चान्मयार्पितं देव्यै भवद्दत्तांगुलीयकम्॥४७॥

तेन मामतिविश्वस्ता वचनं चेदमब्रवीत्॥
यथा दृष्टास्मि हनुमन्पीड्यमाना दिवानिशम्॥४८॥

राक्षसीनां तर्जनैस्तत्सर्वं कथय राघवे॥
मयोक्तन्देविरामपि त्वच्चिन्तापरिनिष्ठितः॥४९॥

** **और मैं सुग्रीव का मन्त्री हौं और रामका दास हौंऔर जो भाग्य वशसे सीता मैंने देखी इससे मेरा प्रयास अर्थात् यत्न सफल हुआ ४३ यह मेरा कहा हुआ वचन सुनिकै सीता आंख खोलके यह कहतीहुई कि किसने मेरे कानोंको अमृत तुल्य यह वचन सुनाया ४४ जो सुनानेवाला कोई सत्यही होय तौ मेरे नेत्रोंके आगे आवै तौ मैंसूक्ष्म वानर के रूप करके सीता को प्रणाम करके ४५ और हाथ जोड़ के दूरही स्थित होता हुआ फिर सीता ने मुझसे विस्तार पूर्वर्क पूँछा तुम कौनहो ४६ अर्थात् मुझमें रावणकी शंकासे भय करती रही तब हे राम मैंने क्रमकरके सब अपना वृत्तान्त जताया पिछाड़ी से आपकी मुद्रिका मैंने सीताके अर्थ दी ४७ तिसकरके मेरमें विश्वास करके यह वचन बोलतीहुई कि हे हनुमन् जैसे मैं रात्रि दिवस राक्षसियोंके तर्जन अर्थात् डरपाना और ताड़नादिक करके पीड़ाको प्राप्त होरही हौं ४८ तैसे सब रघुनन्दनसे कहना तौमैंने यह कहा कि हे देवि राम भी तुम्हारी चिन्तामें मग्नरहते हैं ४९॥

परिशोचत्यहोरात्रं त्वद्वार्तां नाधिगम्य सः॥
इदानीमेव गत्वाहं स्थितिं रामाय ते ब्रुवे॥५०॥

रामः श्रवणमात्रेण सुग्रीवेप सलक्ष्मणः॥
वानरानीकपैः सार्द्धमागमिष्यति तेन्तिकम्॥५१॥

रावणं सकलं हत्वा नेष्यति त्वां स्वकं पुरम्॥
अभिज्ञां देहि मे देवि यथा मां विश्वसेद्विभुः॥५२॥

इत्युक्ता सा शिरोरत्नं चूडापाशे स्थितं प्रियम्॥
दत्त्वा काकेन यद्वृत्तं चित्रकूटगिरौ पुरा॥५३॥

तदप्याहाश्रुपूर्णाक्षी कुशलं ब्रूहि राघवम्॥
लक्ष्मणं ब्रूहि मे किंचिद्दुरुक्तं भाषितं पुरा॥५४॥

तत्क्षमस्वाज्ञभावेनभाषितं कुलनंदन॥
तारयेन्मां यथा रामस्तथा कुरु कृपान्वितः॥५५॥

इत्युक्त्त्वा रुदती सीता दुःखेन महतावृता॥
मयाप्याश्वासिता राम वदता सर्वमेव ते॥५६॥

** **और रात दिन शोच किया करते हैं और तुम्हारी वार्ताको अभी अच्छीतरह नहीं जानते हैं जिससमयमें मैं रामसे तुम्हारा वृत्तान्त सवसुनाऊँगा ५० तब

सुनतेही सुग्रीव और लक्ष्मणकरके सहित रामचन्द्र वानरों के सेनापतियों करके सहित तुम्हारे समीप आवेंगे ५१ और कुल सहित रावणको मारके तुमको अपने नगरको लेजावेंगे और हे देवि ऐसी कुछ पहिंचान की वस्तुदेवोजिससे राम मेरे में विश्वासकरें ५२ ऐसे जब मैंने सीतासे कहा तो अपने केशोंमें स्थित जो चूड़ामणि तिसको मुझको देके फिर चित्रकूट पै जयन्तकाक का जो पहिले वृत्तान्त आपका हुआथा तिसको कहतीहुई ५३ और नेत्रों सेजिसके आंशुओंकी धारा चलरही ऐसी सीता कहतीहुई कि रामसे मेरी कुशल कहना और लक्ष्मण से यह कहना कि हे कुलनन्दन जो मैंने तुमसे दुष्ट वचन कहे हैं ५४ तिनको क्षमा करने योग्यहौ कि मैंने अज्ञता से कहा इससे अब इस विपत्ति से जिसप्रकार करके राम मेरा उद्धार करैंतैसे कृपायुक्त होके करौगे ५५ यह कहिकै रोवती हुई जो सीता सो बड़े दुःखमें मग्न होगई तो हे राम मैंने आप के चरित्र सुनाके उनका चित्त सावधान किया ५६॥

ततः प्रस्थापितो रामत्वत्समीपमिहागतः॥
तदागमनवेलायाम शोकवनिकां प्रियाम्॥५७॥

उत्पाट्यरा क्षसांस्तत्र बहून्हत्वा क्षणादहम्॥
रावणस्य सुतं हत्वा रावणेनाभिभाष्य च॥५८॥

लंकामशेषतो दग्ध्वा पुनरप्यगमं क्षणात्॥
श्रुत्वा हनूमतो वाक्यं रामात्यंतप्रहृष्टधीः॥५९॥

हनुमंस्ते कृतं कार्यं देवैरपि सुदुष्करम्॥
उपकारं पश्यामि तव प्रत्युपकारिणः॥६०॥

इदानींते प्रयच्छामि सर्वस्वं मम मारुते॥
इत्यालिंग्य समाकृष्य गाढं वानरपुंगवम्॥६१॥

सार्द्रनेत्रो रघुश्रेष्ठः परां प्रीतिमवाप सः॥
हनुमंतमुवाचेदं राघवो भक्तवत्सलः॥६२॥

परिरंभो हि मे लोके दुर्लभः परमात्मनः॥
अतस्त्वं मम भक्तोसि प्रियोसि हरिपुंगव॥६३॥

यत्पादपद्मयुगलं तुलसीदलाद्यैः
संपूज्य विष्णुपदवीमतुलां प्रयांति॥
तेनैव किंपुनरसौ परिरब्धमूर्ती
रामेण वायुतनयः कृतपुण्यपुंजः॥६४॥

सुन्दरकाण्डे सर्गाः पञ्चैवाध्यात्मिकशब्दिते॥
प्रोक्ता स्त्रीणि शतानि श्लोका स्त्रिभुवनपापहराः॥

इत्यध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे सुन्दरकाण्डे पञ्चमस्सर्गः॥५॥

** **हे राम तिसके उपरान्त सीताका भेजाहुया मैंआपके समीप आया जब चलने लगा तब तो रावणकी बड़ी प्रिय जो अशोकवनिका तिसको उखाड़ के ५७ फिर रावणके भेजेहुये बहुत राक्षसों को क्षणमात्र में मार करिकै फिर रावणकापुत्र जो अक्षकुमार तिसको मारके और रावण से सम्भाषणकरके ५८

और सबलंकाको भस्मकरके फिर क्षणमात्रमें यहां आपके समीप प्राप्त हुआ हो तब ये हनुमान् के वचनसुनिकै अत्यन्त प्रसन्न जो श्रीराम सो हनुमान् से वाले ५९ किहेहनुमन् देवतोंसेभी जो कार्य दुःख करके भी न होसकै सो तुम ने किया इससे तुम्हारे उपकार के तुल्य ऐसी कोई वस्तुनहीं देखता जिसको देके मैं उद्धारहोउँ ६० इससे हे हनुमन् अपना सर्वस्वभूत जो आलिंगन तिस को मैंदेताहौं इसका आशययहहै कि ब्रह्मानन्दमें सब आनन्द अन्तर्गतहैं सो आनन्दराशि ब्रह्मरूपरामने अपने हृदयमेंलगाके अपने बराबर करलियातौ क्या आनन्द बाकीरहा इस हेतुसे श्रीरामचन्द्र हनुमान्को अपने हाथसे उठाके दृढ़ करके आलिंगन करतेहुये ६१ नेत्रोंसे जिनके अश्रुपात होरहाहै ऐसे जो रामसो उस समयमें परमप्रीतिसे आनन्दको प्राप्तहुये और भक्तहैं प्रिय जिनको ऐसे जो राम सो हनुमान् से बोले ६२ कि हे हनुमन् परमात्मा जो मैंहौं तिसका आलिंगन लोकमें दुर्लभहै और हे वानरोंमें श्रेष्ठ तू मेरा प्रियभक्त है इसकारण से अपना आलिंगन मैंने तुझको दिया ६३ जिस परमेश्वरके चरणारविन्द को तुलसीदलादिक करके भी पूजनकरकै अतुल जो विष्णुपदवी विष्णुके मिलने का मार्ग तिसको प्राप्तहोताहै और तिसीरामकरके आलिंगन कियाहै अंग जिसका ऐसा जो हनुमान् सो उत्तमपदको प्राप्तहोय यह क्या कहना है ६४

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे सुन्दरकाण्डे भाषाटीकायां पंचमस्सर्गः॥५॥

समाप्तश्चायं सुन्दरकाण्डः॥

श्रीगणेशायनमः॥

अथ अध्यात्मरामायण॥

युद्धकाण्ड॥

भाषा टीकासहित॥

_______

श्रीमहादेव उवाच ॥

यथावद्भाषितंवाक्यं श्रुत्वारा मोहनूमतः॥
उवाचानंतरं वाक्यं हर्षेण महता वृतः॥१॥

कार्यं कृतं हनुमता देवैरपि सुदुष्करम्॥
मनसापि यदन्येन स्मर्त्तुंशक्यन्न भूतले॥२॥

शतयोजनविस्तीर्णं लंघयेत्कः पयोनिधिम्॥
लंकां च राक्षसैर्गुप्तां को वा धर्षयितुं क्षमः॥३॥

भृत्यकार्यं हनुमता कृतं सर्वमशेषतः॥
सुग्रीवस्येदृशो लोके न भूतो न भविष्यति॥४॥

अहं च रघुवंशश्च लक्ष्मणश्च कपीश्वरः॥
जानक्या दर्शनेनाद्य रक्षिताः स्मो हनूमता॥५॥

सर्वथा सुकृतं कार्यं जानक्याः परिमार्गणम्॥
समुद्रं मनसा स्मृत्वा सीदतीव मनोमम॥६॥

कथं नक्रझषाकीर्णं समुद्रं शतयोजनम्॥
लंघयित्वा रिपुं हन्यां कथं द्रक्ष्यामिजानकीम्॥७॥

दो०। प्रथमसर्गमें युद्धके युद्धहेतुरघुवीर॥
वानरसेनसमेतचलिपहुंचेबारिधितीर॥१॥

अब श्री महादेव पार्वतीसेकथा वर्णन करते हैं कि हे पार्वति अबश्रीरामचन्द्रजी हनुमानका बचन सुनिकै बड़े आनन्द युक्तहो वचन बोलते हुये १ कि देवताओं से भी जो नहोसकैऐसा दुष्कर कर्म हनूमान्ने किया जो ओर करके मनसे स्मरण करने को भी पृथिवीमें अशक्य है करने की तो वातही क्याहै २ क्योंकि सौ योजन चौड़े समुद्रको कौन नांघिकै और राक्षसों करके रक्षित जो लंका तिसका नाश करने को सिवाय हनुमान् के कौन समर्थ है ३ जो भृत्यको करना चाहिये सो सब हनुमान् ने किया और सुग्रीव का हितकारी मंत्री ऐसा न कोई हुआ है मौन होगा ४ और रघुवंश में और लक्ष्मण और सुग्रीव इतने हम सब एक सीताकी खबरिके लानेसे हनुमान्ने रक्षा किये ५ और सब प्रकारसे सीताका ढूंढ़ना हनुमान्ने अच्छीतरह किया परन्तु इसके

अनन्तर जो करना चाहिये तिसमें समुद्रका जब में स्मरण करताहों तौ मेरा मन दुःखित होताहै ६ और कैसे नाक और मकर आदि जलकेजीवों करके व्याप्त जो सौ योजन समुद्र तिसको पारहोके रावणको मारूंगा और फिर सीताको देखूंगा ७॥

श्रुत्वा तु रामवचनं सुग्रीवः प्राह राघवम्॥
समुद्रं लंघयिष्यामो महानक्रझषाकुलम्॥८॥

लंकां च विधमिष्यामो हनिष्यामोद्य रावणम्॥
चिंतां त्यज रघुश्रेष्ठ चिंता कार्यविनाशिनी॥९॥

एतान्पश्य महासत्वान्शूरान् वानरपुंगवान्॥
त्वत्प्रियार्थं समुद्युक्तान् प्रवेष्टुमपि पावकम्॥१०॥

समुद्रतरणे बुद्धिं कुरुष्व प्रथमन्ततः॥
दृष्ट्वा लंकां दशग्रीवो हत इत्येव मन्महे॥११॥

नहि पश्याम्यहं कंचित्त्रिषु लोकेषु राघव॥
गृहीतधनुषो यस्ते तिष्ठेदभिमुखो रणे॥१२॥

सर्वथा नो जयो रामो भविष्यति न संशयः॥
निमित्तानि च पश्यामि तथा भूतानि सर्वशः॥१३॥

सुग्रीववचनं श्रुत्वा भक्तिवीर्यसमन्वितम्॥
अंगीकृत्याब्रवीद्रामो हनूमत्पुरतः स्थितम्॥१४॥

तब ये रामके वचन सुनिकै सुग्रीव राम से कहताहुआ कि बड़े बड़े मकरादियुक्त समुद्रको हम सबवानर नांघिजावेंगे ८ और लंकापुरीका नाशकरैंगे और अभी जाके रावणको मारैंगे और हे रघुश्रेष्ठ चिन्ताको त्यागिये जिससे चिन्ता कार्यके नाशकरने वाली है ९ और हे रामजे बड़े शूर वानरोंमें श्रेष्ठ जे महाभाग बानर तिनको देखिये ये आपकी प्रीतिकरके अग्निमें भी प्रवेशकरने को उद्यतहैं १० इससे प्रथमतौ समुद्रके पारहोनेकी बुद्धि करनी चाहिये फिर लंकापुरी जहां देखी तहां रावण मराही हुआहै यह हमजानते हैं ११ और हेराम तीनों लोकमें हम ऐसा किसीको नहीं देखते जोजिस समयमें आप धनुष हाथ में लवैंउस समयरणमें आपके आगे खड़ारहै १२ और राम सब प्रकारसे संग्रासमें हमारा जय होगा क्योंकि ऐसे ऐसे शकुनआदि निमित्त हम देखते हैं १३ तबश्रीरामभक्ति और पराक्रम करके युक्त ये सुग्रीवके वचन सुनिकै अगाड़ी बैठाहुआ जो हनुमान् तिससे कहतेहुये १४॥

येन केन प्रकारेण लंघयामो महार्णवम्॥
लंकास्वरूपम्मे ब्रूहि दुःसाध्यं देवदानवैः॥१५॥

ज्ञात्वा तस्य प्रतीकारं करिष्यामि कपीश्वर॥
श्रुत्वा रामस्य वचनं हनूमान्विनयान्वितः॥१६॥

उवाच प्राञ्जलिर्देव यथा दृष्टं ब्रवीमि ते॥
लंका दिव्या पुरी देव त्रिकूटशिखरे स्थिता॥१७॥

स्वर्णप्राकारसहिता स्वर्णट्टालकसंयुता॥
परिखाभिः परिवृतापूर्णाभिर्निर्मलो

** दकैः॥१८॥**

नानोपवनशोभाढ्या दिव्यवापीभिरावृता॥
गृहैर्विचित्रशोभाढ्यैर्मणिस्तम्भमयैः शुभैः॥१६॥

पश्चिमद्वारमासाद्य गजवाहाः सहस्रशः॥
उत्तरे द्वारि तिष्ठन्ति साश्ववाहाः सपत्तयः॥२०॥

तिष्ठन्त्यर्बुदसंख्याकाः प्राच्यामपि तथैव च॥
रक्षिणो राक्षसा वीर द्वारन्दक्षिणमाश्रिताः॥२१॥

** **कि हे हनुमान् जिस किसी प्रकार करके समुद्रके तो पार होवैंगे अब लंकापुरी का स्वरूप हमसे कहौजो देव दानवों करके भी प्रवेश करने को नहीं शक्यहै १५ हे हनुमत् तिसको जातिकै फिर हम उसका यत्नकरैंगे तब ये रामके वचन सुनिके बिनयकरके युक्त जो हनुमान् सो हाथ जोड़के बोला १६ कि हे देव जैसे मैंने देखाहै तैसा सब आपसे कहताहूं हे राम लंका जो है सो दिव्यपुरी है अर्थात् देवतोंकी रची हुई है कुछ मनुष्योंकी रचीनहीं है और चित्रकूट पर्वतके शिखरके ऊपर स्थितहै १७ और सोनेकी दीवाल चारों तरफ उसके हैं और सोनेहीकी अटारी जिसमें हैं और निर्मल जलों करके परिपूर्ण जो खाईं तिनकरिकै परिवेष्टित होरही है १८ और नानाप्रकारके जे बगीचे हैं तिनकी शोभाकरिकै युक्त है और देवताओं की रखीहुई जो बावली तिन करके युक्तहै और चित्र विचित्र शोभायुक्त और मणियों के जिनमें खम्भेहैं ऐसे जे बड़े सुन्दरगृह तिनकरके शोभितहै १९ और ऐसी जो लंका तिसके पश्चिम के द्वारपै हजारों हाथियोंपैचढ़ेहुये योधा स्थितहो रहेहैं और लंकाके उत्तरद्वार पै हज़ारों घोड़े के सवार और प्यादे हैं २० और लंकाके पूर्वके द्वारपै दश करोड़ योधा स्थित रहते हैं और तैसेही बड़ेबीर राक्षस लंकाके दक्षिण द्वारपैरक्षा कररहे हैं २१॥

मध्यकक्षेप्यसंख्याता गजाश्वरथपत्तयः॥
रक्षयन्ति सदा लंकां नानास्त्रकुशलाः प्रभो॥२२॥

संक्रमैर्विविधैर्लंका शतघ्नीभिश्च संयुता॥
एवं स्थितेपि देवेश शृणु मे तत्र चेष्टितम्॥२३॥

दशाननबलौघस्य चतुर्थांशो मया हतः॥
दग्ध्वा लंकां पूरीं स्वर्णप्रासादो धर्षितो मया॥२४॥

शतघ्न्यःसंक्रमाश्चैव नाशिता मे रघूत्तम॥
देव त्वद्दर्शनादेव लंका भस्मीकृता भवेत्॥२५॥

प्रस्थानं कुरु देवेश गच्छामो लवणांबुधेः॥
तीरं सह महावीरैर्वानरौघैःसमन्ततः॥२६॥

श्रुत्वा हनूमतो वाक्यमुवाच रघुनन्दनः॥
सुग्रीव सैनिकान्सर्वान् प्रस्थानायाभिनोदय॥२७॥

इदानीमेव विजयो मुहूर्त्तःपरिवर्त्तते॥
अस्मिन्मुहूर्ते गत्वाहं लंकां राक्षससंकुलाम्॥२८॥

और हे राम लंकाकी बचिकी ड्योढ़ी पै तौ जिनकी कुछ गिनतीही नहीं

होसक्ती इतने हाथी और घोड़े और रथ इनपै चढ़नेवाले शस्त्र अस्त्रमें कुशल वीर और प्यादे असंख्य सदास्थित रहते हैं २२ और जहां तहां पहरे खड़ेहुयेहैं ऐसे निकलने के जिसमें मार्गहैं तिन करके और जहां तहां चढ़ीहुई जो तोपैं है तिनकरके लंकायुक्तहै अर्थात् ऐसाकोई लंकामें मार्ग नहीं जहां अपनी इच्छासे कोई जासके हे देवेश ऐसी यद्यपि लंकापुरी है तो भी उसलंकामें मैंने जैसे अपना चरित्र किया है तिसको सुनिये २३ रावणकी जितनी सेना है तिलका चौथाभाग मैंने नाशकर दिया और लंकापुरीको भस्मकरके जो सुवर्णका बड़ाभारी मन्दिर अशोकवनिकामें रहा सोभी मैंने तोड़ डाला २४ और हे रघूत्तम जहां जहां तोपैंचढ़ीथीं वेभी मैंने तोड़डालीं और प्रथम लंकामें संक्रमरहे अर्थात् सिवाय दरवाजेकी राहकोई और मार्ग करके प्रवेश नहींकरने पावताथा सो अबमैंने लंकाके परकोटेकी दीवारको जहांतहां तोड़कैऔखाइयों को भी पाषाणादिकों करके बरावरकर बहुत जगहसे वानरों के जाने को मार्ग करदिया और हे देव अब जो लंका दिखाई पड़ती है सो सब आपको देखतेही नाशको प्राप्तहोगी २५ और हे देवेश अब यात्राकरिये और बड़ेवीर जे वानरों के समूहहैं तिनकरिकै सहित हमसब समुद्रके तीरजावैंगे २६ तब ये वचन हनुमान् के सुनिकैश्रीराम बोलते हुये कि हे सुग्रीव सब सेनाओंको यात्राके अर्थ आज्ञा करिये २७ और इसीसमयमें विजयनाम है मुहूर्त्त इसमुहूर्त्त मैं में जाके राक्षसों करके सहित २८॥

सप्राकारांसुदुर्धर्षांनाशयामिसरावणाम्॥
आनेष्यामिचसीतांमे दक्षिणाक्षिस्फुरत्यधः॥२९॥

प्रयातु वाहिनी सर्वा वानराणां तरस्विनाम्॥
रक्षन्तु यूथपाः सेनामग्रे पृष्ठे च पार्श्वयोः॥३०॥

हनूमन्तमथारुह्य गच्छाम्यग्रेंगदन्ततः॥
आरुह्य लक्ष्मणो यातु सुग्रीव त्वम्मया सह॥३१॥

गजो गवाक्षो गवयो मैंदो द्विविद एव च॥
नलो नीलः सुषेणश्च जांबवांश्च तथापरे॥३२॥

सर्वे गच्छन्तु सर्वत्र सेनायाः शत्रुघातिनः॥
इत्याज्ञाप्य हरीन्रामः प्रतस्थे सहलक्ष्मणः॥३३॥

सुग्रीव सहितो हर्षात्सेनामध्यगतो विभुः॥
वारणेन्द्रनिभाः सर्वे वानराः कामरूपिणः॥३४॥

क्ष्वेलन्तः परिगर्जन्तो जग्मुस्ते दक्षिणां दिशम्॥
भक्षयंतो ययुः सर्वे फलानि च मधूनि च॥३५॥

और प्राकार जो परकोटा तिसकरके युक्त और किसीको प्रवेशकरनेको अशक्य और रावणसहित ऐसी जोलंका तिसका नाशकरोंगा और सीताको लेआऊंगा और मेरा दक्षिणनेत्रभी इससमयमें नीचे से फरकता है २९ और बड़े बलवान् जे वानर हैं तिनकीसेनाचलैऔर सेनापति जे वानरहैं ते सेनाओंकी

अगाड़ी पिछाड़ी और दोनों बाजुओं पररक्षाकरतेहुये चलें ३० और हनुमान् के ऊपर सवार होकै आगे २ तो मैं चलताहूं तिसकेपीछे अंगदपै सवार होकै लक्ष्मणचलैंऔर हेसुग्रीव तुममेरे साथ साथचलो ३१ और गज और गवाक्ष और गवय और मैन्द और द्विविद और नल और नील और सुषेण और जाम्बवान् इनको आदि लैकै ३२ शत्रुओंके नाश करनेवाले जे सेनापति हैं ते अपनी अपनी सेनाकी रक्षा करतेहुये चलैंइसप्रकार राम सब वानरोंको आज्ञा देके लक्ष्मण सहित आप यात्राकरतेहुये ३३ अब सेनाके मध्यमें सुग्रीव सहित सबके स्वामी जो श्रीरामचन्द्र सो आनन्दयुक्त चलरहे हैं और गजराजों के तुल्य हैं स्वरूप जिनके और इच्छाही करकेचाहे जो रूपधारणकरलें ऐसे जेवानर हैं ३४ तेपैंतरा बदलतेहुये और गर्जतेहुये दक्षिणदिशाको जारहे हैं और मार्ग में फल और मधु इनका भोजन करते जातेहुये ३५॥

ब्रुवन्तो राघवस्याग्रे हनिष्यामोद्य रावणम्॥
एवन्ते वानरश्रेष्ठा गच्छन्त्यतुलविक्रमाः॥३६॥

हरिभ्यामुह्यमानौ तौ शुशुभाते रघूत्तमौ॥
नक्षत्रैः सेवितौ यद्वच्चन्द्रसूर्याविवांबरे॥३७॥

आवृत्त पृथिवीं कृत्स्नां जगाम महती चमूः॥
प्रस्फोटयन्तः पुच्छाग्रान्उद्वहंतश्च पादपान्॥३८॥

शैलानारोहयन्तश्च जग्मुर्मारुतवेगतः॥
असंख्याताश्चसर्वत्र वानराः परिपूरिताः॥३९॥

हृष्टास्ते जग्मुरत्यर्थं रामेण परिपालिताः॥
गता चमूर्दिवारात्रं क्वचित्नासज्जत क्षणम्॥४०॥

काननानि विचित्राणि पश्यन्मलयसह्ययोः॥
ते सह्यं समतिक्रम्य मलयं च तथा गिरिम्॥४१॥

आययुश्चानुपूर्व्वेण समूद्रं भीमनिःस्वनम्॥
अवतीर्य हनूमन्तं रामः सुग्रीवसंयुतः॥४२॥

** **और रामचन्द्र के आगे सब वानर यह कहिरहे हैं कि आजही जाके रावण को हम मारेंगे इसप्रकार अतुल पराक्रम जिन्हों के ऐसे जे वानरश्रेष्ठ हैं ते जा रहेहैं ३६ अब हनुमान् और अंगद करके अपने कंधेपै प्राप्त करेहुए जो राम लक्ष्मणते अत्यन्त शोभाको प्राप्त होरहे हैं जैसे नक्षत्रों करके सेवित चन्द्रमा और सूर्य आकाश में शोभित होवैं३७ संपूर्ण पृथिवी को आच्छादन करके वानरोंकी बड़ी भारी जो सेनाहै सो चलती हुई और अपने पूंछके अग्रभागा को पृथिवी में पटकते हुये और युद्धके लिये वृक्षोंको उखाड़ उखाड़कर धारण किये ३८ और पर्वतोंपै चढ़तेहुये पवनके तुल्य वेगकरके वानरजाते हुए और असंख्य वानर सब जगह परिपूर्णही मालूम पड़रहे हैं ३९ और राम करके रक्षा कियेगये वानर अति प्रीति करके जातेहुए और दिन रात्रि चलती हुई सेना क्षणमात्र कहीं नहीं ठहरती हुई ४० और मलय पर्वत और सह्यपर्वत

के समीप के जे वनहें तिनको देखते हुए ते सब मलय और सह्य पर्वतको उल्लंघन करके ४१ क्रम करके भयंकर शब्द जिसका ऐसे समुद्रके तटपै आते हुए फिर श्रीराम हनुमान से उत्तर के सुग्रीव को संग लेके ४२॥

सलिलाभ्यासमासाद्य रामो वचनमब्रवीत्॥
आगताः स्मो वयं सर्वे समुद्रं मकरालयम्॥४३॥

इतो गंतुमशक्यं नो निरूपायेन वानराः॥
अत्र सेनानिवेशोस्तु मंत्र्यामोऽस्य तारणे॥४४॥

श्रुत्वा रामस्य वचनं सुग्रीवः सागरांतिके॥
सेनान्यवेशयत्क्षिप्रं रक्षितां कपिकुंजरैः॥४५॥

ते पश्यंतो विषेदुस्तं सागरं भीमदर्शनम्॥
महोन्नततरंगाढ्यं भीमनक्रभयंकरम्॥४६॥

अगाधं गगनाकारं सागरं वीक्ष्य दुःखिताः॥
तरिष्यामः कथं घोरं सागरं वरुणालयम्॥४७॥

हंतव्योस्माभिरद्यैव रावणो राक्षसाधमः॥
इति चिन्ताकुलाः सर्वेरामपार्श्वेव्यवस्थिताः॥४८॥

रामः सीतामनुस्मृत्य दुःखेन महतावृत्तः॥
विलप्य जानकीं सीतां बहुधा कार्यमानुषः॥४९॥

** **समुद्रके जलके समीपजाके बचनबोलतेहुये कि हम सब मकरालय समुद्र के तटपै आगये हैं ४३ और हे बानरो इससे अगाड़ी बिना उपायके जानेको सामर्थ्य नहीं है इससे यहांहीं सेना का विश्राम होय और इस समुद्रके तरने की यहां तलाह करैंगे ४४ तब सुग्रीव यह राम का वचन सुनिके वानरश्रेष्ठों करके रक्षा की हुई सेनाको समुद्रके तटपै वास कराताहुआ ४५ भयंकरहै दर्शन जिसका ऐसे समुद्रको देखते हुए जे वानर ते परम विषादको प्राप्त होते हुए अर्थात् सबके मनका उत्साह भंग होगया कैसा समुद्रहै बड़ी ऊंची जे तरंगैं हैं तिन्हों करके युक्तहै और बड़े भय करने वाले नाके आदिजीवों करके भयं करहैं ४६ और अथाहहै और आकाशके तुल्यहै ऐसे समुद्रको देखके अत्यन्त दुःखित हुए और यह कहते हुए कि वरुण को आलय अर्थात् स्थान ऐसे घोरें समुद्रको हम कैसे पारहोवेंगे ४७ और राक्षसों में अधम जो रावणहै सो हम को इसीसमयमें मारने योग्य है इसीप्रकार चिन्ताकरके व्याकुलहो सब वानर रामके समीप स्थित होतेहुए ४८ और रावण बधादि कार्यके अर्थ जिनने मनुष्यरूपको धारण कियाहै ऐसे जो राम सो उससमयमें सीताको यादि करके बहुत प्रकार का विलाप करके बड़े भारी दुःखकरके व्याप्त होतेहुये ४९॥

अद्वितीयश्चिदात्मैकः परमात्मा सनातनः॥
यस्तु जानाति रामस्य स्वरूपं तत्त्वतो जनः॥५०॥

तन्न स्पृशति दुःखादि किमुतानंदमव्ययम्॥
दुःखहर्षभयक्रोधलोभमोहमदादयः॥५१॥

अज्ञानलिंगान्येतानि कुत

** स्संति चिदात्मनि॥
देहाभिमानिनो दुःखं नदेहस्य चिदात्मनः॥५२॥**

संप्रसादे द्वयाभावात्सुखमात्रं हि दृश्यते॥
बुद्ध्याद्यभावात्संशुद्धे दुःखं तत्र न दृश्यते॥
अतो दुःखादिकं सर्वं बुद्धेरेवन संशयः॥५३॥

रामः परात्मा पुरुषः पुराणो
नित्योदितो नित्यसुखो निरीहः॥
तथापि मायागुणसंगतोऽसौ
सुखीव दुःखीव विभाव्यतेबुधैः॥५४॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे युद्धकाण्डे प्रथमस्सर्गः॥१॥

और बास्तव में तो राम अद्वितीयहैं अर्थात् जिसका दुसरिहा कोई नहीं और चैतन्यरूपहैं और एकहैं और परमात्माहैं और सनातन हैं अर्थात् नित्य हैं और जो मनुष्य यथार्थ ऐसे रामके स्वरूप को जानताहै ५० उस पुरुषको कोई दुःखादिक स्पर्श नहीं करते हैं और अविनाशी आनन्दरूप जो राम तिनको दुःखादि होवें यह क्याकहना है क्योंकि दुःख और हर्ष और भय और क्रोध लोभ मोह मदादिक ५१ ये सब अज्ञान के चिह्नहैं ते चित्रूप राम में कैसे संभवहोसकेहैं और जितना दुःख है, सो सब देहाभिमानीही को होता है और देहाभिमान रहित जो चित्रूप आत्मा तिसको नहीं स्पर्श करता ५२ जैसे सुषुप्ति अवस्था में दूसरे के नहीं प्रतीत होनेसे सुखमात्र ही दिखाई पड़ता है क्योंकि बुद्ध्यादिकों के नहीं प्रतीत होने से दुःखादिक भी शुद्ध आत्मा में नहीं प्रतीत होताहै इससे जानागया कि दुःखादिक बुद्धिही के धर्म हैं आत्माकेनहीं हैं ५३ और राम तो प्रकृति से परे आत्माहैं और पुराणपुरुष हैं सबके अन्तर्यामी हैं और नित्यही उदयको प्राप्तहैंअर्थात् नाशरहितहैंनित्य सुखरूप हैं और क्रिया रहितहैंऔर तो भी अज्ञानियोंने मायाके गुणों के संग करके ये राम भी सुखी हैं और दुःखी हैं और इस प्रकार कल्पना किये गये प्रतीत होरहे हैं ५४॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे युद्धकाण्डे भाषाटीकायां प्रथमः सर्गः॥१॥

लंकायां रावणो दृष्ट्वा कृतं कर्म हनूमता॥
दुष्करन्दैवतैर्वापि ह्रिया किंचिदवाङ्मुखः॥१॥

आहूय मन्त्रिणः सर्वानिदं वचनमब्रवीत्॥
हनूमता कृतङ्कर्म भवद्भिर्दृष्टमेव तत्॥२॥

प्रविश्य लंकां दुर्धर्षां दृष्ट्वा सीतां दुरासदाम्॥
हत्वा च राक्षसान्वीरानक्षं मन्दोदरीसुतम्॥३॥

दग्ध्वा लंकामशेषेण लंघयित्वा च सागरम्॥
युष्मान्सर्वानतिक्रम्य स्वस्थोगात्पुनरेव

** सः॥४॥
किं कर्तव्यमितोऽस्माभिर्यूयम्मन्त्रविशारदाः॥
मन्त्रयध्वं प्रयत्नेन यत्कृतम्मे हितम्भवेत्॥५॥**

रावणस्य वचः श्रुत्वा राक्षसास्तमथाब्रुवन्॥
देव शंका कुतो रामात्तव लोकजितो रणे॥६॥

इन्द्रस्तु वध्वा निक्षिप्तः पुत्रेण तव पत्तने॥
जित्वा कुबेरमानीय पुष्पकम्भुज्यते त्वया॥७॥

दो० सर्गदूसरे सभामहँ लखि रावण अपमान॥
त्यागि विभीषण रामकी शरणगयोगतमान॥१॥

अबश्रीमहादेवजी पार्वतीसे कथा वर्णन करते हैं कि हे पार्वति अब रावण लंकामें देवतों से भी जो कर्म न होसकै ऐसा हनुमान्का किया कर्म देखके कुछ लज्जाकरके नीचेको मुख करताहुआ १और सब मन्त्रियोंको बुलाके यह बोला कि हे मन्त्रिय हनुमान् ने जो कर्म किया तिसको तुम सबोंने देखा ही है २ जो हनुमान् कोई जिसमें न प्रवेश करसकै ऐसी लंकामें प्रवेश कर और कोई जिसके पास न जासकै ऐसी सीताको देखके और बड़ेबीर राक्षसों को मारके और मंदोदरीका पुत्र जो अक्षकुमार तिसको मारके ३ और संपूर्ण लंकाको भस्म करके और फिर समुद्रको नांधके और तुम सबोंका तिरस्कार करके सावधान कोई घाउतक जिसके नहीं ऐसा फिर चलागया ४ इससे इसके उपरान्त अब हमको क्या करना चाहिये सो कहौक्योंकि आपसब सलाहमें बड़े कुशलहौऔर यत्नकरके तुमसब लोग सलाह करौजिसमें मेरा हितहोवै ५ तब ये रावणके बचन सुनके राक्षस लोग कहतेहुये कि हे देव सब लोकोंके जीतनेवाले जो आप तिनको संग्राममेंरामसे क्या शंकाहै ६ और तुम्हारे पुत्रने इन्द्रको बांधिकै लंकापुरीमें लाके ढाल दिया और कुबेरको जीतके उनका पुष्पक विमान छीनके तुम करके भोगाजाता है ७॥

यमो जितः कालदण्डाद्भयन्नामूत्तव प्रभो॥
वरुणो हुंकृतेनैव जितः सर्वेपि राक्षसाः॥८॥

मयो महासुरो भीत्या कन्यान्दत्वा स्वयन्तव॥
त्वद्वशे वर्ततेद्यापि किमुतान्ये महासुराः॥९॥

हनूमन्दर्षणं यत्तु तदवज्ञाकृतं च नः॥
वानरोयं किमस्माकमस्मिन्पौरुषदर्शने॥१०॥

इत्युपेक्षितमस्माभिर्धर्षणं तेन किं भवेत्॥
वयं प्रमत्ताः किं तेन वञ्चिताः स्मो हनूमता॥११॥

जानीमो यदि तं सर्वे कथं जीवन् गमिष्यति॥
आज्ञापय जगत्कृत्स्नमवानरममानुषम्॥१२॥

कृत्वायास्यामहे सर्वे प्रत्येकं वा नियोजय॥
कुम्भकर्णस्तदा प्राह रावणं राक्षसेश्वरम्॥१३॥

आरब्धं यत्त्वया कर्म स्वात्मनाशाय केवलम्॥
न दृष्टोसि तदा भाग्यात्त्वं रामेण महात्मना॥१४॥

और हे प्रभो यमराजको तुमने जीतलिया उनके कालदण्ड से कुछ भी भय तुमको नहीं हुआ और वरुणको तो अपने हुँकारही शब्द करके तुमने जीता और सब राक्षस भी जीतलिये ८ और महाअसुर जो मयदानव सो आपही भय करके अपनी कन्या तुमको देकै आज तक तुम्हारे वश होरहाहै रहे और असुर तिनकी तौ वातीही क्याहै ९ और जो हनुमान्ने हमारा तिरस्कारकिया सो तो हमींने हनुमान्का तिरस्कार किया तिससे हुआ क्योंकि हम लोग यह जानतेरहे कि यह वानरहै इसमें पराक्रम दिखाने से क्या हमारी बड़ाई होगी १० इसप्रकार जब हमने उपेक्षाकरदी तब तिरस्कार भी हुआ तौ तिस करके क्याहै और हमलोग भूलमें रहेतो हनुमान्ने हमको ठगलिया तोइससे हमाराहुआही क्या ११ जो हमजानते कि हनुमान् ऐसा है तो हमारे आगेसे जीवते कैसे भी नहीं जाने पाता और हमको अब आज्ञा करिये तो हम सब जगत् को वानर रहित और मनुष्य रहितकरदेवैं१२ और फिर लौट भी आवें अथवा एक एकको आज्ञा करिये तब उस समयमें कुंभकर्ण रावणसे कहताहुआ १३ हे रावण जो तुमने सीताहरणरूप कर्मकिया सो केवल अपने नाशहीके लिये किया और कोई भाग्यसे महात्मा जो राम तिसने तुमको नहीं देखा १४॥

यदि पश्यति रामस्त्वां जीवन्नायासि रावण॥
रामो न मानुषो देवः साक्षान्नारायणोऽव्ययः॥१५॥

सीता भगवती लक्ष्मी रामपत्नी यशस्विनी॥
राक्षसानां विनाशाय त्वया नीता सुमध्यमा॥१६॥

विषपिंडमिवागीर्य महामनो यथा तथा॥
आनीता जानकी पश्चात्त्वया किं वा भविष्यति॥१७॥

यद्यप्यनुचितं कर्म त्वया कृतमजानता॥
सर्वं समं करिष्यामि स्वस्थचित्तो भव प्रभो॥१८॥

कुम्भकर्णवचः श्रुत्वा वाक्यमिन्द्रजिदब्रवीत्॥
देहि देव ममानुज्ञां हत्वा रामं सलक्ष्मणम्॥१९॥

सुग्रीवं वानरांश्चैव पुनर्यास्यामि तेन्तिकम्॥
तत्रागतो भागवतप्रधानो
विभीषणो बुद्धिमतां वरिष्ठः॥

श्रीरामपादद्वय एकतानः
प्रणम्य देवारिमपोपविष्टः॥२०॥

विलोक्य कुंभश्रवणादिदैत्या-
न्मत्तप्रमत्तानतिविस्मयेन॥
विलोक्य कामातुरमत्त मत्तो
दशाननं प्राह विशुद्धबुद्धिः॥२१॥

और जो राम तुमको देखतेतौ हेरावण जीवते तुम लौटिकै नहीं आवते और राम मनुष्य नहीं हैं किन्तुसाक्षात् अविनाशी नारायणहैं १५ और राम की स्त्री जो सीता सो साक्षात् भगवती लक्ष्मी हैं सो सीता राक्षसोंके नाशके अर्थ तुमने लंकापुरी में प्राप्त करी है १६ और हे रावण जैसे कोई बड़ा मत्स्य

विषयुक्त पिण्डको अपने नाशके लिये निगलजाय तैसेही अपने नाशके अर्थ तुमने सीता प्राप्त करी है सो नहीं जानाजाताअब क्याहोगा १७ यद्यपि विना जाने तुमने बड़ा अनुचित भी कर्म किया है तौ भी अपने पराक्रम करके मैं तुम्हारी भूलको सम्हारदेवोंगा अब तुम स्वस्थचित्तहोउ १८ तब कुम्भकर्णका वचन सुनिकै इन्द्रजित् नाम जो रावणका पुत्रहै सो बोला कि हे देव मुझको आज्ञा दीजिये मैंअभी लक्ष्मण सहित रामको और सुग्रीव को और वानरों को मारके फिर तुम्हारे समीप आऊं १९ तब उस समयमें भगवद्भक्तोंमें प्रधान और बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ और रामके चरणारविन्दोंमें है एक चित्तकी वृत्ति जिसकी ऐसा नो विभीषण सो आवताहुआ और रावणको प्रणाम करके समीप बैठा २० फिर वहां विभीषण मतवालेसे भी अधिक मतवाले जेकुम्भकर्णादिक तिनको देख और पति कामातुर रावण को देखके निर्मल है बुद्धि जिसकी और सावधान ऐसा जो विभीषण सो रावणसे बोला २१॥

न कुंभकर्णेन्द्रजितौ च राजन्
तथा महापार्श्वमहोदरौ तौ॥
निकुंभकुंभौ च तथातिकायः
स्थातुं न शक्ताय युधि राघवस्य॥२२॥

सीताभिधाने नमहाग्रहेण
ग्रस्तोसि राजन् न च ते विमोक्षः॥
तामेव सत्कृत्य महाधनेन
दत्त्वाभिरामाय सुखी भव त्वम्॥२३॥

यावन्न रामस्य शिताः शिलीमुखा
लंकामभिव्याप्य शिरांसि रक्षसाम्॥
छिंदंति तावद्रघुनायकस्य भो
तां जानकीं त्वं प्रतिदातुमर्हसि॥२४॥

यावन्नगाभाः कपयो महाबला
हरीन्द्रतुल्या

नखदंष्ट्रयोधिनः॥
लंकां समाक्रम्य विनाशयति ते
तावद् द्रुतं देहि रघूत्तमाय ताम्॥२५॥

जीवन्न रामेण विमोक्ष्यसे त्वं
गुप्तः सुरेन्द्रैरपि शंकरेण
न देवराजांकगतो न मृत्योः
पाताललोकानपि संप्रविष्टः॥२६॥

शुभं हितं पवित्रं च विभीषणवचः खलः॥
प्रतिजग्राह नैवासौ म्रियमाण इवौषधम्॥२७॥

कालेन नोदितो दैत्यो विभीषणमथाऽब्रवीत्॥
मद्दत्तभोगैः पुष्टांगो मत्समीपे वसन्नपि॥२८॥

कि हे राजन् कुम्भकर्ण और इन्द्रजित् और महापार्श्वऔर महोदर और निकुम्भ और कुंभ और अतिकाय ये सब युद्धमें राम के आगे स्थित होने को समर्थ नहीं हैं २२ और हे राजन् सीतारूपी जो बड़ा भारी ग्राहहै तिसने तुमको ग्रसलियाहै अब उससे छूटना मुश्किलहै इससे बहुतसेरत्न और मणियों करके सहित उस सीताको रामके अर्थ दैकै तुम सुखीहोउ २३ और जबतक रामके पैनेवाण लंकाको व्याप्तकरके राक्षसों के शिरोंको न काटैंतबतक भयभीत जो

सीता तिसको रामके अर्थ देनेको योग्यहौ २४ और जबतक पर्वतके तुल्य हैं शरीर जिनके और बड़े बली और नख और दांतोसे युद्ध करनेवाले और सिंहोकासाहै पराक्रम जिन्होंका ऐसे बानर लंकापुरीमें प्रवेशकर राक्षसोंका नाश न करैंतबतक रामचन्द्रको सीता दैदेवो २५ और तुमचाहो सब देवतों करके रक्षित होवो अथवा चाहे महादेव तुम्हारी रक्षाकरैं अथवा इन्द्रके गोद में भी तुम बैठौ अथवा यमराजकी शरणभी तुमहोवो अथवा पाताललोकों में जाके चाहेरहो परन्तु राम से तुम जीवते नहीं छूटोगे २६ अब इस प्रकारधर्म युक्त और हितकरनेवाले और पवित्र ऐसे जो विभीषणके बचन तिनको खल जोरावण सो नहीं ग्रहणकरता हुआ जैसे मरनेवाला औषधको न ग्रहणकरै २७ फिर कालका प्रेशहुआ जो रावण लो यह वचन बोला कि मेरे दिये भोगों करके पुष्टहुआ है अंग जिसका और मेरेही समीप वासकरताहुआ २८॥

प्रतीपमाचरत्येष ममैव हितकारिणः॥
मित्रभावेन शत्रुर्मे जातो नांस्त्यत्र संशयः॥२९॥

अनार्येण कृतघ्नेन संगतिर्मे न युज्यते॥
विनाशमभिकांक्षति ज्ञातीनां ज्ञातयस्सदा॥३०॥

योन्यस्त्वेवंविधं ब्रूयाद्वाक्यमेकं निशाचरः॥
हन्मि तस्मिन्क्षणे एव धिक्त्वां रक्षः कुलाधमम्॥३१॥

रावणेनैवमुक्तः सन् परुषं स विभीषणः॥
उत्पपात सभामध्यात्गदापाणिर्महाबलः॥३२॥

चतुभिर्मंत्रिभिः सार्द्धं गगनस्थोब्रवीद्वचः॥
क्रोधेन महताविष्टो रावणं दशकंधरम्॥
मा विनाशमुपैहि त्वं प्रियवादिनमेव माम्॥३३॥

धिक्करोपि तथापि त्वं ज्येष्ठो भ्राता पितुःसमः॥
कालोराघवरूपेण जातो दशरथालये॥३४॥

काली सीताभिधानेन जाता जनकनंदिनी॥
तावुभावागतावत्र भूमेर्भारापनुतये॥३५॥

मैं जो हितकारी हौंतिसीका प्रतिकूल आचरण करताहै इससे मित्रभाव करके यह शत्रुही मेरा उत्पन्नहुना आहै इसमें कुछ संशय नहीं है २९ और कृतघ्न ऐसा जो बिभीषण तिसकासंग मेरा युक्त नहीं है और कुटुम्बीही लोग अपने कुटुम्बी के नाशकी सदा इच्छाकरते हैं ३० जो और राक्षस ऐसा वचन कहता तौ उसीसमय उसको मारडालता और तू भाई है इससे तुझको क्यामारौं परन्तु राक्षसों के कुल में अधम जो तू है तिसको धिक्कार है ३१ इसप्रकार रावणकेकठोरबचनसे संभाषण कियागया जो महाबली विभीषण सो गदाको हाथ में लेके चार मन्त्रियोंकरके सहित सभाके मध्यसे ऊपर आकाशमें जाताहुआ ३२ और आकाश में स्थितहोके वडेक्रोध से भरा रावणसे यहवचन

बोला कि हे रावण मेरे बिना अब तुम सुखकरौ और प्रियवादी जो मैं हूं तिस को ३३ जो धिक्कारकरते हौ तौ भी तुम ज्येष्ठभ्राताहौ इससे पिता के समान हो इससे मैं हितही करताहों दशरथकेगृहमें रामरूपकरके तुम्हाराकाल उत्पन्नहुआहै३४ और सीताके नामकरके संहारकरनेवाली परमात्माकी शक्ति काली जनककी पुत्री हुईहै ते दोनों राम औ सीता यहां पृथिवीके भारदूरकरने के लिये प्राप्तहुये हैं ३५॥

तेनैव प्रेरितस्त्वं तुन शृणोपि हितं मम॥
श्रीरामः प्रकृतेः साक्षात्परस्तात्सर्वदा स्थितः॥३६॥

बहिरंतश्च भूतानां समः सर्वत्र संस्थितः॥
नामरूपादिभेदेन तत्तन्मय वामलः॥३७॥

यथा नानाप्रकारेषु वृक्षेष्वेको महानलः॥
तत्तदाकृतिभेदेन भिद्यतेज्ञानचक्षुषाम् ॥३८॥

पंचकोशादिभेदेन तत्तन्मय इवाबभौ॥
नीलपीतादियोगेन निर्मलः स्फटिको यथा॥३६॥

स एव नित्यमुक्तोपि स्वमायागुतबिम्बितः॥
कालः प्रधानं पुरुषोऽव्यक्तं चेति चतुर्विधः॥४०॥

प्रधानपुरुषाभ्यां स जगत्कृत्स्नं सृजत्यजः॥
कालरूपेण कलनां जगतः कुरुतेव्ययः॥४१॥

कालरूपी स भगवान् रामरूपेण मायया॥४२॥

** **और तिसी रामकर के प्रेरित तुम मेरे हित वचन नहीं सुनते और श्रीराम सर्वदा साक्षात् प्रकृतिसे परे स्थित रहते हैं ३६ और सब भूतों के बाहर और भीतर सबजगह समरूपकरके राम स्थितहैंऔर नामरूपके भेड़करके तौन तौन रूपभी रामही हैं ३७ जैसे नानाप्रकार के वृक्षों में एकही अग्नि छोटे बड़ेकाष्ट के भेदसे न्यारा न्यारा अज्ञानियों को दिखाई पड़ता है ३८ तैसेही परमात्मा जो रामहैं सो भी अन्नमय प्राणमय मनोमय विज्ञानमय आनन्दमय ये पंच कोशके भेदकर के तैसा २ जाना जाता है और जैसे निर्मल जो स्फटिक मणि सो नीलपीतादि पुष्पों के समीप होने से तौन तौन रंगका प्रतीयमान होता है ३९ तैसेही दिसुक्त भी रामहैं परन्तु मायाके गुणों में प्रतिबिम्बित होके काल और प्रधान और पुरुष और अव्यक्त इन भेदोंकर के चारप्रकार के जाने जाते हैं १० तहां प्रधान पुरुप रूपकरके वह सबजगत् को रचता है और काल रूप करके वही परमात्मा सवजगत्‌का संहार करता है ४१ तहांविहकालरूपी भगवान् मायासे राम रूपकरके ४२॥

ब्रह्मणा प्रार्थितो देवस्त्वद्वधार्थमिहागतः॥
तदन्यथा कथं कुर्यात्सत्यसंकल्प ईश्वरः॥४३॥

हनिष्यति त्वां रामस्तु सपुत्रबलवाहनम्॥
हन्य
:

मानं न शक्नोमि द्रष्टुं रामेण रावण॥४४॥

त्वां राक्षसकुलं कृत्स्नं ततो गच्छामि राघवम्॥
मयि याते सुखीभूत्वा रमस्व भवने चिरम्॥४५॥

विभीषणो रावणवाक्यतः क्षणा-
द्विसृज्य सर्वं सपरिच्छदं गृहम्॥

जगाम रामस्य पदारविंदयोः सेवाभिकांक्षी परिपूर्णमानसः॥४६॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे युद्धकाण्डे द्वितीयस्सर्गः॥२॥

ब्रह्माकी प्रार्थना से तुम्हारे मारने को यहां आये हैं सो वह सत्यसंकल्प ईश्वर अपनी बातको अन्यथा कैसे करेंगे ४३ चौर पुत्र सेना वाहन इनकरके सहित तुमको राम अवश्य मारैंगे इसमें कुछ संदेह नहीं है इससे मूर्ख जो तू है तिसमें मैं स्वामीकी बुद्धिरक्खों और राक्षसों में अपने कुटुम्बियों की बुद्धि रक्खूंगा तौमरते हुये जो तुम सबहौ तिनको देख के मुझको भी बड़ा भारी दुःख होगा इससे अब से लेके राम में स्वामिबुद्धि करने को और वानरों में अपने ज्ञाति की बुद्धि करने को रामहीके समीप जाऊंगा ४४ इस आशय से बिभीषण कहताहै कि हे रावण तुझको और सब राक्षसों को अपने सामने मरते मैंनहीं देखा चाहताहों इससे राम के समीप जाताहों और मेरेगये पीछे तुम सुखपूर्वक अपने गृहमें बहुतकाल रमणकरौ ४५ अबयह कह के बिभीषण रावण के कठोर वाक्य से एक क्षणपत्रही में अपने धन पुत्र दारादियुक्त समृद्ध गृहको त्यागकरके श्रीरामके चरणारबिंदों की सेवामें है पूर्ण इच्छा जिसकी ऐसापरिपूर्ण मनोरथहो रामहीके समीप जाताहुआ ४६॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे युद्धकाण्डे भाषा टीकायां द्वितीयः सर्गः॥२॥

विभीषणो महाभागश्चतुर्भिर्मंत्रिभिः सह॥
आगत्य गगने रामसंमुखे समवस्थितः॥१॥

उच्चैरुवाच भोः स्वामिन्राम राजीवलोचन॥
रावणस्यानुजोऽहं ते दारहर्तुर्विभीषणः॥२॥

नाम्ना भ्रात्रा निरस्तोहं त्वामेव शरणं गतः॥
हितमुक्त्तं मया देव तस्य चाविदितात्मनः॥३॥

सीतां रामाय वैदेहीं प्रेषयेति पुनः पुनः॥
उक्तोपि न शृणोत्येषः कालपाशवशं गतः॥४॥

हंतुं मां खड्गमादाय प्राद्रवद्राक्षसाधमः॥
ततोचिरेण सचिवैश्चतुर्भिः सहितो भयात्॥५॥

त्वामेव भवमोक्षाय मुमुक्षुः शरणं गतः॥
विभीषणवचः श्रुत्वा सुग्रीवो वाक्यमब्रवीत्॥६॥

विश्वासार्हो न ते राम मायावी राक्षसाधमः॥
सीताहर्तुर्विशेषेण रावणस्यानुजो बली॥७॥

दो०। सर्ग तीसरे बन्धुकी त्यागि विभीषण चाह॥
शरणगयो रघुवीरकी तिन राखी गहिबांह॥१॥
स्तुतिकीन्हेगुणगाथतिहि वरदीन्होंरघुनाथ॥
पुनि शर खैंचत रामके बारिधनायो माथ॥२॥

अथ श्रीमहादेव जी पार्वती से कथा वर्णन करते हैं कि हेपार्वति अब महा भाग्य युक्त जो विभीषण तो चारि मन्त्रियों करके सहित आकरके आकाशमें रामके सम्मुख स्थित होताहुआ १ और उच्चस्वर करके बोला कि हे स्वामिन् हे कमल लोचन राम मैं आपकी भार्या हरनेवाला जो रावण तिसका छोटा भाईहौंऔर विभीषण मेरा नाम है २ भाई करके तिरस्कार कियागया आप की शरण आयाहौंऔर हे देव आपके स्वरूपको नहीं जानता हुआ जोरावण तिससे मैंने हित वचनकहा ३ कि सीता जो जनकनन्दिनी तिसको रामके अर्थभेजदेवो ऐसा बारम्बार मैंने कहा तौ भी रावण कालपाशके बरा होगया है इससे मेरे वचन नहीं सुनता ४ और वह राक्षसों में अधम रावण मेरे मारनेको खड्ग लेकै दौड़ा तो मैं शीघ्रही चार सन्त्रियों करके सहित भय ते मोक्षकी इच्छा करता हुआ ५. संसाररूपी बन्धनसे मोक्षके अर्थ आपही की शरण प्राप्तहुआतबयह विभीषणका वचन सुनके सुग्रीवबोला ६ कि हेराम यह राक्षसों में अधमसायावी विभीषण आपके विश्वास योग्य नहीं है और सीताका हरनेवाला जो रावण तिसका छोटाभाई है और बड़ा बलीहै इससे विशेष करके विश्वासके योग्य नहीं है ७॥

मंत्रिभिः सायुधैरस्मान्विवरे निहनिष्यति॥८॥

तदाज्ञापय मे देव वानरैर्हन्यतामयम्॥
ममैवं भाति ते राम बुद्ध्या किं निश्चितं वद॥
श्रुत्वा सुग्रीववचनं रामः सस्मितमब्रवीत्॥९॥

यदीच्छामि कपिश्रेष्ठ लोकान्सर्वान्सहेश्वरान्॥
निमिषार्द्धेन संहन्यां सृजामि निमिषार्द्धतः॥१०॥

अतो मयाभयं दत्तं शीघ्रमानय राक्षसम्॥११॥

सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते॥
अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्ये तद्व्रतं मम॥१२॥

रामस्य वचनं श्रुत्वा सुग्रीवो हृष्टमानसः॥
विभीषणमथानाय्य दर्शयामास राघवम्॥१३॥

विभीषणस्तु साष्टांग प्रणिपत्य रघूत्तमम्॥
हर्षगद्गदया वाचा भक्त्या च परयान्वितः॥१४॥

और यह छिद्रपाइकै शस्त्रोंकरके सहित जे मन्त्रीहैं तिनके द्वाराह मैंसबों को मारैगा इससे हे देव मुझको आप आज्ञाकरैंतौ वानरोंसे इसको मरवा डालों८ और हेराम मेरे समुझमें तो ऐसाआता है और अपनी बुद्धिकरके

क्या निश्चयकियाहै सो कहिये तवयह सुग्रीवका बचन सुनिकै श्रीराम मन्दमुसुकानि करके बोलतेहुये मन्दमुसुकानिका आशय यहहै कि मेरेमें स्नेह वशते सुग्रीव मेरे प्रभावको नहीं जानता और विभीषणकीभी निष्कपटता इसने नहींजानी इससे यह केवल बालबुद्धि है ९ अब श्रीराम सुग्रीवसे कहतेहैं कि हे वानरोंमें श्रेष्ठ सुग्रीव जो मैं इच्छाकरौंतो आधेक्षणमें इन्द्रादिलोकपालसहित सबलोकोंका संहारकरडालों और फिर अधेई क्षणकरके जैसेके तैसे रचि देवों १० इससे मैंने इसविभीषणको अभयदान दिया शीघ्रही विभीषणको समीप ल्यावो ११ कदाचित् कोई कहै शत्रुपक्षियों को अभयदानउचित नहीं है तिसकोखंडनकरते हुये श्रीराम सुग्रीवसे अपनाव्रत अर्थात् प्रणकहते हैं कि हेसुग्रीव जो प्राणी तुम्हारा मैंहों ऐसे एकबार भी मेरे शरण प्राप्तहोता है और अभय मुझ से मांगताहै तो कोई प्राणीहोय अर्थात् नचिसेभीनीच होय तौभी उसको अभय में देताहौंयह मेराव्रत है अर्थात् यह मैंने प्रणकर रक्खाहै तौइससमय में जो विभीषण की रक्षा न करौंतो मेराप्रण छूटाजाता है अर्थात् प्रतिज्ञाका भंगहोता है और जिसकी प्रतिज्ञा झूठीहुई तो व्यर्थ उसका जीवनहै उससे विभीषण को ल्यानाही चाहिये और इहां परमात्मा जोराम तिसके अभयदान की प्रतिज्ञा से यह सूचित होता है कि परमेश्वर के शरणआये मनुष्यको सकल संसारभयकी निवृत्ति होती है अर्थात् मुक्तिहोती है और मुक्ति बिनाज्ञान के नहीं होती है और परमेश्वरका कथनभी झूठा कैसेहोय इससे विदितहुआ कि परमेश्वर अपने शरणागत मनुष्यकी बुद्धि में प्रविष्टहो ऐसाज्ञान प्रकटकरता है जिससे वह संसार बंधनसे छूटिकै परमानन्दको प्राप्तहोता है १२ अब यह रामका वचन सुनिकै प्रसन्न है मन जिसका ऐसा जो सुग्रीव सो विभीषणको ल्या करके रामको दिखाताहुआ १३ और विभीषण तो रामचन्द्रको साष्टांग प्रणाम करिकै और परमभक्ति करिकै युक्तहो हर्ष करिकै गद्गद जोबाणी तिस करिकै रामकी स्तुति करनेको प्रारम्भ करता हुआ १४॥

रामं श्यामं विशालाक्षं प्रसन्नमुखपंकजम्॥
धनुर्बाणधरं शांतंलक्ष्मणेन समन्वितम्॥१५॥

कृतांजलिपुटो भत्वास्तोतं समुपचक्रमे॥१६॥

विभीषण उवाच॥

नमस्ते राम राजेन्द्र नमः सीतामनोरम॥
नमस्ते चण्डकोदंड नमस्ते भक्तवत्सल॥१७॥

नमोऽनंताय शांताय रामायामिततेजसे॥
सुग्रीवमित्राय च ते रघूणां पतये नमः॥१८॥

जगदुत्पत्तिनाशानां कारणाय महात्मने॥
त्रैलोक्यगुरवेऽनादिगृहस्थाय नमोनमः॥१९॥

त्वमादिर्जगतां राम त्वमेव स्थितिकारणम्॥
त्वमंते निधनस्थानं स्वेच्छा

      चार स्त्वमेव हि॥२०॥

चराचराणां भूतानां बहिरन्तश्च राघव॥
व्याप्यव्यापकरूपेण भवान्भाति जगन्मयः॥२१॥

कैसे राम है श्याम है वर्ण जिनका और विशालहैं नेत्र जिनके और प्रसन्नहैं मुखरूप कमल जिनका और धनुषवाणको धारणकरेहैं और शांतहै स्वभाव जिनका और लक्ष्मण करके युक्तहैं १५ ऐसे जे राम तिनको हाथजोड़के विभीषण स्तुति करताहुआ १६ कि हे राम हे राजेन्द्र हे सीताकेमनके रमण कराने वाले तुम्हारे अर्थ मेरा नमस्कार है और बड़ा प्रचण्ड है धनुष जिनका ऐसे जे आप तिनके अर्थ नमस्कार है और भक्तहैं प्रियजिनको ऐसे जो आप हैं तिनके अर्थ नमस्कार है १७ और नहींहै अन्त जिसका और शांतहै स्वरूप जिसका और अमित है तेज जिसका ऐसे जोराम हैं तिनके अर्थ नमस्कारहै और सुग्रीवके मित्र और रघुवंशियोंके पति जो आप हैं तिनके अर्थ नमस्कार है १८ और जगत् की उत्पत्ति और पालन और नाश इनके कारण रूप जो महात्मा आपतिन के अर्थ नमस्कार है और अन्तर्यामिरूप करके तीनोंलोकके हित के उपदेश करनेवाले और मायाही है गृहिणी जिसकी ऐसे सबसे प्रथम गृहस्थ रूपजो आप तिनके अर्थ नमस्कार है १९ और हे राम जगत् के उत्पत्ति कारण तुम्ह हौ औरस्थिति कारणभी तुम्हीहौ, और सबजगत्‌का लय स्थानभीतुम्हीहौ और स्वेच्छाचार परम स्वतन्त्र तुम्हींहौ २० और सब चर अचर भूतों के बाहिर और भीतर व्याप्यव्यापकरूप करके हे राम सब जगत्रूप आपही प्रकाशित होरहेहौ जैसे बड़े मत्स्यका छोटा मत्स्यव्याप्य होता है तैसेव्याप्यरूप आप हो और व्यपकरूपभी आपहीहौ २१ ॥

त्वन्मायया हृतज्ञाना नष्टात्मानो विचेतसः॥
गतागतं प्रपद्यते पापपुण्यवशात्सदा॥२२॥

तावत्सत्यं जगद्धाति शुक्तिकारजतं यथा॥
यावन्न ज्ञायते ज्ञानं चेतसानान्यगामिना॥२३॥

त्वदज्ञानात्सदा युक्ताः पुत्रदारगृहादिषु॥
रमंते विषयान्सर्वानंते दुःखप्रदान्विभो॥२४॥

त्वमिंद्रोग्निर्यमो रक्षो वरुणश्च तथानिलः॥

कुबेरश्च तथा रुद्रस्त्वमेव पुरुषोत्तम॥२५॥

त्वमणोरप्यणीयांश्च स्थूलात् स्थूलतरः प्रभो॥
त्वं पिता सर्वलोकानां माता धाता त्वमेव हि॥२६॥

आदिमध्यांतरहितः परिपूर्णोच्युतोऽव्ययः॥
त्वं पाणिपादरहितश्चक्षुःश्रोत्रविवर्जितः॥२७॥

श्रोता द्रष्टा ग्रहीता च जवनस्त्वं खरांतकः॥
कोशेभ्यो व्यतिरिक्तस्त्वं निर्गुणो निरुपाश्रयः॥२८॥

** **और जिन पुरुषों का तुम्हारी माया करके ज्ञान हरागयाहै अर्थात् सबजगत्

तुम्हारारूप है ऐसा नहीं जानतेहैं और इसीसे वे नष्टात्माहैंअर्थात् जैसे कंठमें मणिकोई पहिरेहोय और उसको भूलिकै फिर बाहर ढूंढता फिरे तैसेही जे अपने स्वरूपही को भूलिगये हैं और विरुद्ध जो प्रवृत्ति मार्ग तिस में हो रहाहै चित्त जिन्हों का ऐसे पुरुष पाप पुण्य बराते जन्म मरण रूप संसार को प्राप्त होते हैं २२ जबतक ज्ञान स्वरूप जो तुम तिसी में रहनेवाला और विषय में नहीं जानेवाला जो एकाग्रचित्त तिस करके आप नहीं जाने जाते हौ तबतक सब जगत् सत्य दिखाई पड़ता है और तुम्हारे जाने पीछे तौ सब जगह आपहीका रूप दिखाई पड़ताहै और तुमसे न्यारा जगत् मिथ्या भासमान होता है जैसे जबतक सिप्पी का रूप यथावत् नहीं जाना तबतक उस में चांदी सत्य मालूम पड़ती है और सिप्पी के जाने पीछे तो उस में चांदी झूठही जानी जाती है तैसे इहां भी जानना २३ और हे राम पुत्रदार गृहादिकों में आसक्त अर्थात् प्रीतियुक्त ऐसे जे पुरुष हैं ते आप के नहीं जानने से अन्त्य दुःखदेनेवाले जे विषय तिन्हों में सत्वबुद्धि करके रमण करते हैं २४ और हे राम इन्द्र तुम्हींहो और अग्नि तुम्हीं हो और यमराज तुम्हींहों और राक्षसरूप तुम्हींहों और वरुण तुम्हींहौऔर पवन तुम्हींहों और कुबेर तुम्हीं हो और पुरुषोत्तम रुद्रभी तुम्हींही २५ और हे राम सूक्ष्म से भी सूक्ष्म तुम हौनहीं जाने जातेहौइससे और स्थूलसे भी अत्यन्त स्थूल तुमहौ व्यापक होनेसे और सबलोकों के पिता तुम्हींहों और माता तुम्हींहौ और सबलोकों के पालन पोषण करनेवालेभी तुम्हींहौ२६ और हे राम तुम आदिमध्यन्तकरके रहित हो और सर्वत्र परिपूर्ण हो और तुम अच्युतहौअर्थात् किसीशक्ति करके रहित नहीं हौसर्वशक्तिमान् हौऔर अव्ययहौ वृद्धि और क्षय इन करके हीनहौऔर हे राम तुम हाथपांव और नेत्र और कान इनकरके रहित भी हौ२७ और सुननेवाले और देखनेवाले और ग्रहण करनेवाले और चलनेवाले और खर राक्षस के नाशकरनेवाले हौअर्थात् सब संसार बन्धनका मूल भूतजो खर राक्षस तुल्य अहंकार तिसके नाशकरनेवाले हौऔर अन्न मयादिक. जे पांच कोश तिनके दोषोंकरके नहीं स्पर्श करेगयेहौ तहां अन्नमय १ प्राणमय २ मनोमय ३ बिज्ञानमय ४ आनंदमय ५ ये पंचकोश हैं तिन में अन्नमय कोशस्थूल शरीरहैऔर प्राणमयादिककोश भीतर के चार सूक्ष्म शरीर हैं और हे राम आप अपने आपतौ निर्गुणहौऔर माया के सम्बन्ध से सगुणकी तरह प्रतीयमान हो रहे हो और आप सबके आश्रयहौऔर आपका आश्रय अर्थात् आधार कोई नहीं है इससे निरुपाश्रय हौ २८॥

निर्विकल्पो निर्विकारो निराकारो निरीश्वरः॥
षड्भावरहितोनादिः

       पुरुषः प्रकृतेः परः॥२९॥

मायया गृह्यमाणस्त्वं मनुष्य इव भाव्यसे॥
ज्ञात्वा त्वां निर्गुणमजवैष्णवामोक्षगामिनः॥३०॥

अहंत्वत्पादसद्भक्ति निश्रेणीं प्राप्य राघव॥
इच्छामि ज्ञानयोगाख्यं सौधमारोढुमीश्वर॥३१॥

नमः सीतापते राम नमःकारुणिकोत्तम॥
रावणारे नमस्तुभ्यं त्राहि मां भवसागरात्॥३२॥

ततः प्रसन्नः प्रोवाच श्रीरामो भक्तवत्सलः॥
वरं वृणीष्व भद्रं ते वाञ्छितं वरदोस्म्यहम्॥३३॥

विभीषण उवाच॥

धन्योऽस्मि कृतकृत्योऽस्मि कृतकार्योऽस्मि राघव॥
त्वत्पाददर्शनादेव विमुक्तोऽस्मि न संशयः॥३४॥

नास्ति मत्सदृशो धन्यो नास्ति मत्सदृशः शुचिः॥
नास्ति मत्सदृशो लोके राम त्वन्मूर्तिदर्शनात्॥३५॥

और विकल्प जो भेद तिलकरके रहितहौऔर बिकाररहित हो और आकार रहितहौ और कोई तुमको पूजनीय ईश्वर नहीं है इससे निरीश्वर हौ और छः जो भाव विकार हैं तिन करके रहितहौ तहां भाव बिकार जायते १ अस्ति २ विपरिणमते ३ बर्द्धते ४ अपक्षीयते ५ नश्यति ६ ये वेदान्त शास्त्र में कहे हैं तिनका अर्थ यह है कि उत्पन्नहोना यह पहिला विकारहै जैसे देह उत्पन्न होतीहै इससे विकारवान् है तैसे आप नहीं उत्पन्नहोते इससे निर्विकारहौऔर उत्पन्नहोके होना यह दूसराविकारहै जैसे देह में उत्पन्नहो के होनेकी प्रतीतिहोती है कुछ पहिले से नहीं है और आप तो पहिले से विद्यमानहौ इससे अस्तिरूप दूसराविकार भी आप में नहीं है और दूसरारूप बदल जाना यह तीसरा विकारहै जैसे दूधकादही होजानाऔर देहभीप्रथम और तरह की थी फिर और तरहकी होजाती हैं इससे विकारवान् है तैसे आपका और रूप नहीं होता इससेआपमें परिणामरूप तीसराविकार नहीं है और बढ़िजाना यह चौथाविकार है जैसे देह दिनदिन बढ़तीहै तैसे एकरस होनेसे आपनहीं बढ़ेइससे वृद्धिरूप विकारभी आपमेंनहीं है और दिनपैदिन क्षीणहोना पांचवां विकारहै जैसे रोगी की देह दिनदिन क्षीणहोती है तो वह विकारीहै और आपका कभी क्षय नहींहोता इससेनिर्विकारहो और नाशहोना छटाविकार है जैसे देह नष्टहोजाती है ऐसे आपका कभी नाशनहीं इससे आप निर्विकार हो और आपका कोई कारण नहीं इससे आप अनादिहौ और आपप्रकृति के प्रेरकभी हौ परन्तु प्रकृतिसेपरेहौअर्थात् प्रकृतिके दोनोंसे न्यारेहौ २९कदाचित् राम कहैं कि जो मैं प्रकृतिसे परे हौंतो नेत्रों से कैसेदिखाई देताहौंइसआशय से विभीषण कहता है कि हे राम मावाकरके तुम मनुष्यकी तरह दिखाई पड़ते हुये प्रतीयमान हो रहेहों और जे आपके भक्तहैं ते निर्गुण और जन्मादि विकार

रहितही आपको जानके मोक्षको प्राप्तहोते हैं ३० अब यह दिखाई पड़ता जो श्यामसुन्दर तुम्हारारूप तिसमें भक्ति के बिना निर्गुणरूपका ज्ञाननहीं होता है इस आशयसे विभीषण कहताहै कि हेराम मैं तो तुम्हारे चरणारबिन्दोंकी सद्भक्तिरूप जो सीढ़ी है तिलको प्राप्तहोके ज्ञान योगरूप जो महल है तिसके ऊपर चढ़ने की इच्छा करताहौं ३१ और दयालुऔंमें श्रेष्ठ और हे सीतापते और हेराम तुम्हारे अर्थ नमस्कारहै और हेरावणकेशत्रु अर्थात् हेगर्वरूपरावण के शत्रुरूप तुम्हारे अर्थ नमस्कारहै और संसाररूपी समुद्रसे मेरी रक्षाकरिये ३२ तब तौ भक्तवत्सल जो श्रीरामचन्द्र सो प्रसन्नहोके विभीषण से कहतेहुये कि हे विभीषण तेरी जैसी इच्छाहोय तैसा वरमांग में प्रसन्नहो वरदेने को उपस्थितहौं ३३ तत्र विभीषण बोलता हुआ कि हेराम अब मैं कृतकृत्य हुआ अर्थात् सब धर्मकृत्य करचुका क्योंकि जितने मनुष्य धर्म करते हैं उनकायही मुख्यफल है जो परमेश्वर प्रसन्न होयसो आप प्रसन्नहुये इससे मैं सबधर्मका कृत्य करचुका और इससे धन्यहों और सब पुण्य फल भी आजुमेरेको प्राप्त हुये और हेराम आपके चरणारबिन्दके दर्शन से बिसुलभी हुआ इसमें कुछ संशय नहींहै ३४ और हेराम मेरे समान धन्य कोई नहींहै और न मेरे समान कोई पवित्र और इसलोकमें आपके स्वरूप के देखने से न मेरे समान कोई भाग्यशाली है ३५॥

कर्मबंधविनाशाय त्वज्ज्ञानं भक्तिलक्षणम्॥
त्वद्ध्यानं परमार्थं च देहि मे रघुनन्दन॥३६॥

न याचे राम राजेंद्र सुखं विषयसम्भवम्॥
त्वत्पादकमले सक्ता भक्तिरेव सदास्तु मे॥३७॥

ओमित्युक्त्वा पुनः प्रीतो रामः प्रोवाच राक्षसम्॥
शृणुव क्ष्यामि ते भद्रं रहस्यं मम निश्चितम्॥३८॥

मद्भक्तानां प्रशांतानां योगिनां वीतरागिणाम्॥
हृदये सीतया नित्यं वसाम्यत्र न संशयः॥३६॥

तस्मात्त्वं सर्वदा शांतः सर्वकल्मषवर्जितः॥
मां ध्यात्वा मोक्ष्यसे नित्यं घोरसंसारसागरात्॥४०॥

स्तोत्रमेतत्पठेद्यस्तु लिखेद्यः शृणुयादपि॥
मत्प्रीतये ममाभीष्टं सारूप्यं समवाप्नुयात्॥४१॥

इत्युक्त्त्वा लक्ष्मणं प्राह श्रीरामो भक्तभक्तिमान्॥
पश्यत्विदानीमेवैष मम संदर्शने फलम्॥४२॥

** **और हे रघुनन्दन संपूर्ण कर्म बन्धोंके विनाश के अर्थ आपकी भक्तिहीसाधन जिसका ऐसा जो अपना ज्ञान तिसको दीजिये और परमार्थ जो अपना ध्यान है तिसको दीजिये ३६ और हे राम हे राजेन्द्र विषयोंसे उत्पन्न हुआ जो सुख तिलको मैं नहीं याचना करताहौंकेवल आपके चरणारविन्द

के विषे भक्तिही मुझको होय ३७ तब श्रीराम ऐसेही होगा यह कहके फिर प्रसन्न होके विभीषण से कहते हुये कि हे विभीषण अपना निश्चयकियाहुआ रहस्य तुझसे कहता हौं तिसको सुनु ३८ कि शान्तहै चित्त जिन्होंका और दूर हुआ विषयोंको राग जिन्होंका ऐसे जो योगीजन तिनके हृदयमें सीता करके सहित मैंवास करताहौंइसमें कुछ संशयनहीं है ३९तिससे तुम सब कालमें शान्तहो और संपूर्ण पापों करके रहित नित्य मेरा ध्यानकरके घोरसंसार सागरसे छूट जावागे ४० और इस स्तोत्रको नित्य जो कोई पढ़ैगा मेरी प्रीतिके अर्थ और जो कोई लिखैगा और जो कोई मेरे प्रिय स्त्रोत्रको सुनैगा सो मेरे समान रूपको प्राप्तहोगा ४१ अबभक्त जो विभीषण तिसमें प्रीतियुक्त जो श्रीराम सो यह वचन विभीषणसे कहिकै लक्ष्मणसे बोले कि हे लक्ष्मण यह विभीषण मेरे दर्शनका फल अभी देखे ४२॥

लंकाराज्यभिषेक्ष्यामि जलमानय सागरात॥
यावच्चंद्रश्च सूर्यश्च यावत्तिष्ठति मेदिनी॥४३॥

यावन्मम कथा लोके तावद्राज्यं करोत्वसौ॥
इत्युक्त्वा लक्ष्माणेनांबु ह्यानाय्य कलशेन तम्॥४४॥

लंकाराज्याधिपत्यार्थमभिषेकं रमापतिः॥
कारयामास सचिवैर्लक्ष्मणेन विशेषतः॥४५॥

साधुसाध्विति ते सर्वे वानरास्तुष्टुवुर्भृशम्॥
सुग्रीवोऽपि परिष्वज्य विभीषणमथाब्रवीत्॥४६॥

विभीषण वयं सर्वे रामस्य परमात्मनः॥
किंकरास्तत्र मुख्यस्त्वं भक्त्या रामपरिग्रहात्॥४७॥

रावणस्य विनाशे त्वं साहाय्यं कर्तुमर्हसि॥

विभीषणउवाच॥

अहं कियान्सहायत्वे रामस्य परमात्मनः
किं तु दास्यं करिष्येहं भक्त्या शक्त्या त्वमायया॥४८॥

दशग्रीवेण संदिष्टः शुको नाम महासुरः॥
संस्थितो ह्यम्बरे वाक्यं सुग्रीवमिदमब्रवीत्॥४९॥

** **इससे तुम समुद्रसे जल ल्यावो मैं लंका के राज्यमें अभिषेक इस विभीषणका अभी करताहों और जबतक चन्द्र सूर्य प्रकाशकरें और जबतक पृथिवीहै ४३ और जबतक लोकमें मेरी कथा रहै तबतक यह विभीषण लंका का राज्यकरैयह कहकरके श्रीरामचन्द्र लक्ष्मण से कलश में जल मंग वाइकै ४४ उस जल करके लक्ष्मी के पति श्री रामचन्द्र उस विभीषण को लंकाके राज्य के स्वामित्वके अर्थ मंन्त्रियों के द्वारा और विशेष करके लक्ष्मण के हाथसे अभिषेक करातेहुये ४५ और वे सब वानर अच्छा किया यह कहिकै स्तुति करतेहुये और सुग्रीव भी विभीषणको हृदयसे आलिंगन करके बोलता हुआ४६ कि हे विभीषण हम सब परमात्मा जो राम तितके किंकरहैं अर्थात् सेवकहैं तिन सबोंमें तुम भक्तिकरके और श्री राम के स्वीकार ते श्रेष्ठ हौ ४७

इससे रावणके मारने में तुम सहाय करने के योग्यहौ तब विभीषण बोलता हुआ कि हे सुग्रीव सर्व शक्तिमान् जो राम हैं तिनकी सहायतामें हम और तुम क्या कर सक्तेहैं हां भक्ति करके और जहांतक बनैतहांतक अपनी शक्ति करके और कपटको त्यागकरके केवल सेवकाई करैंगे ४८अब उसी समयमें रावणका भेजाहुआ एक शुकनाम महाअसुर आकाशमें स्थितहो सुवाका रूप धारणकिये सुग्रीवसे वचन बोलताहुआ ४९॥

त्वामाह रावणो राजा भ्रातरं राक्षसाधिपः॥
महाकुलप्रसूतस्त्वं राजासि वनचारिणाम्॥५०॥

मम भ्रातृसमानस्त्वं तव नास्त्यर्थविप्लवः॥
अहं यदहरं भार्यां राजपुत्रस्य किं तव॥५१॥

किष्किन्धां याहि हरिभिर्लंका शक्या न दैवतैः॥
प्राप्तुं किं मानवैरल्पसत्त्वैर्वानरयूथपैः॥५२॥

तं प्रापयंतं वचनं तूर्णमुत्यत्प्लुत्य वानराः॥
प्रापद्यंत तदा क्षिप्रं निहंतुंदृढमुष्टिभिः॥५३॥

वानरैर्हन्यमानस्तु शुको राममथाब्रवीत्॥
न दूतान्घ्नंति राजेंद्र वानरान्वारय प्रभो॥५४॥

रामः श्रुत्वा तदावाक्यं शुकस्य परिदेवितम्॥
मा वधिष्टेति रामस्तान्वारयामास वानरान्॥५५॥

पुनरम्बरमासाद्य शुकः सुग्रीवमब्रवीत्॥
ब्रूहि राजन्दशग्रीवं किं वक्ष्यामि व्रजाम्यहम्॥५६॥

** **कि हे सुग्रीव राक्षसोंका स्वामी जो रावण सो तुमको भाई जानके यह वचन कहताहुआहै तिसको सुनिये कि हे सुग्रीव तुम बड़े उत्तमकुलमें उत्पन्न हुये हो और वानरोंके राजाहौ ५० और तुम मेरे भाई के समानहौअर्थात् बालीके संग मेरी मित्रताथी इससे वह मेरा भाई रहा तिसके भाई तुमहौ तौ मेरे भाईहुये तुम्हारी द्रव्यका भी नाश मैंने नहीं किया और जो मैं राजपुत्र जो राम तिलकी भार्याको हरताहुआ तिसमें तुम्हारा क्या अपराधकिया ५१ इससे अपने वानरोंको संगलेकै किष्किन्धा नगरीको जावो और लंकापुरी देवतोंको भी प्राप्त होने को समर्थ नहीं है और थोड़ाहै पराक्रम जिनमें ऐसे मनुष्योंकरके और वानरोंकर के कैसे प्राप्तहो सक्तीहै ५२ ऐसावचन सुनता हुआ जो वह शुकनाम राक्षस तिसको वानर कूद करके उसको पकड़के घूंसों करके मारनेको उद्यत होतेहुये ५३ जब बानरों करके मारा गयातौ बढ़ादुःखितहोके रामसे वह राक्षस बोला कि हे राजेन्द्र दूतोंको कोई नहीं मारताहै इससे इन वानरोंको निवारण कीजिये ५४ तब राम शुक्र राक्षसके विलापका वचनसुनिकै वानरोंकोवारण करतेहुये और यह कहते हुये इसको मतमारौ ५५ तब वानरोंने जब छोड़ दिया तो फिर आकाशमें स्थितहोके सुग्रीवसे बोला कि हे राजन् अब मैं जाताहौं और रावण से क्याकहौं सो कहिये ५६॥

सुग्रीव उवाच॥

यथा बाली मम भ्राता तथा त्वं राक्षसाधम॥
हंतव्यस्त्वं मया यत्नात्सपुत्रबलवाहनः॥५७॥

ब्रूहि मे रामचन्द्रस्य भार्या हृत्वा क्व यास्यसि॥
ततो रामाज्ञया धृत्वा शुकं बध्वान्वरक्षयत्॥५८॥

शार्दूलोपि ततः पूर्वं दृष्ट्वा कपिबलं महत्॥
यथावत्कथयामास रावणाय स राक्षसः॥५९॥

दीर्घचिंतापरो भत्वा निःश्वासन्नास मंदिरे॥
ततः समुद्रमावेक्ष्य रामो रक्तांतलोचनः॥६०॥

पश्य लक्ष्मण दुष्टोसौ वारिधिर्मामुपागतम्॥
नाभिनंदति दुष्टात्मा दर्शनार्थं ममानघ॥६१॥

जानाति मानुषोऽयं मे किं करिष्यति वानरैः॥
अद्य पश्य महाबाहो शोषयिष्यामि वारिधिम्॥६२॥

पादेनैव गमिष्यंति वानराविगतज्वराः॥
इत्युक्त्त्वा क्रोधताम्राक्ष आरोपितधनुर्धरः॥६३॥

और सुग्रीव उस राक्षस से यह कहताहुआ कि हे शुक यह रावणसे कहना कि हे राक्षसाधम जैसे वाली मेरा भाई रहा तैसे तू भी पुत्र और सेना सहित मुझको मारने योग्य है ५७ और यह कहौकि मेरे स्वामी जो रामचन्द्र तिन की भार्याहरके कहां जायगा तिसके उपरान्त उस शुक्र राक्षसको रामचन्द्र की आज्ञासे बांधिकै सुग्रीव बानरों से रक्षा कराताहुआ अर्थात् जबतक फिर रामकी आज्ञा छोड़ने की न होय तबतक वानरों के पहरेसें उसको रखता हुआ इसका आशय यह है कि रामचन्द्र ने यह विचार किया कि जो कदाचित् अभी इस शुकको जाने देवैंतो रावण इसके मुखसे यह जानैगा कि सुग्रीव का भेद मैंने कराया भी और नहीं हुआ क्योंकि सुग्रीव की प्रीति राम में बहुत है यह जानिकै वानरोंके मारने में और कोई उपायरचैगा और वानर बिना समुद्र के पार हुये लंकामें राक्षसोंका नाश अभी करनहीं सकतेहैं इससे समुद्र के पार सब सेना पहुंचलेवै तब इसको छोड़ना चाहिये फिर इस दूतके जाते युद्धका प्रारम्भ भी होगा तो हमारी क्षति नहीं है ५८ अब शुकके पहिले शार्दूल राक्षस रावणने भेजाथा सो दूरहीसे सब बानरोंकी सेना देखके रावण से कहताहुआ ५९ तब रावण वानरोंकी बड़ीभारी सेना सुनिकै बड़ीभारी चिन्तामें मग्नहो गहिरे श्वास छोड़ता हुआ अपने मंदिर में उसदिन पड़ा रहा अर्थात् बाहर नहीं निकला तिसके उपरान्त रामचन्द्र समुद्रको देखके क्रोध करके लाल नेत्र करते हुये लक्ष्मणसे बोले ६० कि हे लक्ष्मण देखो यह समुद्र ऐसा दुष्टात्मा है जो मुझको अपने तटपै प्राप्त जानकेभी नहीं प्रसन्नहो ता जो अभी मेरे दर्शनको नहीं आया ६१ और यहसमुद्र अपने मनमें यह जानता होगा कि राम मनुष्यहैं यह वानरों करके मेरा क्याकरैगा सो हेलक्ष्मण

तुम देखो अभी मैं बाणोंकर के समुद्रको सुखाताहौं ६२ अब पांवों करकेही सब वानर सन्ताप रहित इसके पार जावैंगे यह कहिकै श्रीरामचन्द्र क्रोधसे रक्तनेत्र करके धनुषको चढ़ालेते हुये ६३॥

तूणीराद्बाणमादाय कालाग्निसदृशप्रभम्॥
संधाय चापमाकृष्य रामो वाक्यमथाब्रवीत्॥६४॥

पश्यंतु सर्वभूतानि रामस्य शरविक्रमम्॥
इदानीं भस्मसात्कुर्य्यां समुद्रं सरितां पतिम्॥६५॥

एवं ब्रुवति रामे तु सशैलवनकानना॥
चचाल वसुधा द्यौश्च दिशश्च तमसावृताः॥६६॥

चुक्षभे सागरो वेलां भयाद्योजनमत्यगात्॥
तिमिनक्रझषा मीनाः प्रतप्ताः परितत्रसुः॥६७॥

एतस्मिन्नंतरे साक्षात्सागरो दिव्यरूपधृक्॥
दिव्याभरणसंपन्नः स्वभासाभासयन्दिशः॥६८॥

स्वांतस्थदिव्यरत्नानि कराभ्यां परिगृह्य सः॥
पादयोः पुरतः क्षिप्त्वा रामस्योपायनं बहु॥६९॥

दंडवत् प्रणिपत्याह रामं रक्तांतलोचनम्॥
त्राहि त्राहि जगन्नाथ राम त्रैलोक्यरक्षक॥७०॥

** **और प्रलय काल के अग्नि के तुल्य है कान्ति जिसकी ऐसे वाणको तरकस से निकासिकै धनुषमें संधान करके और धनुषको खैंचके श्रीराम यहवचन बोलतेहुये ६४ कि सबभूत अर्थात् सब देव दानव गन्धवदिक प्राणी राम के बाणका पराक्रम देखैंइसी समयमें नदियोंका पति जो समुद्र तिसको भस्म करताहौं६५ ऐसे जब बचन रामने कहा तौ पर्वत और नद नदी बन सहित सारी पृथिवी चलायमान होतीहुई और आकाश औ दिशा ये अन्धकारकरके आच्छादित होती हुईं ६६ और समुद्र क्षोभ को प्राप्त होताहुआ और भयते एक योजनभर छोड़के हट जाता हुआ और नक्र और मत्स्य और शतयोजन तक के मत्स्य ये सब संतप्त होके त्रासको प्राप्त होतेहुये ६७ अब उसीसमय में साक्षात् समुद्र दिव्यरूप को धारण कर और दिव्य आभूषणों को धारण करे हुये और अपनी कान्ति करके सब दिशाओंको प्रकाश करता हुआ ६८ और अपने भीतर रहने वाले जेरत्न तिनको अपने हाथोंसे ग्रहणकरके श्रीराम के चरणों के समीप अगाड़ी बहुत सी भेंट स्थापन करके ६९ और दण्डवत् प्रणाम करके रक्तहैं नेत्रजिनके ऐसे जो रामचन्द्र तिनसे बोलताहुआ कि हे जगन्नाथ हे त्रैलोक्य के रक्षा करने वाले राम मेरी रक्षा करौ रक्षाकरौ ७०॥

जडोहं राम ते सृष्टःसृजता निखिलं जगत्॥
स्वभावमन्यथा कर्त्तुंकः शक्तो देवनिर्मितम्॥७१॥

स्थूलानि पंचभूतानि जडान्येव स्वभावतः॥

सृष्टानि भवतैतानि त्वदाज्ञां लंघयंति न॥७२॥

तामसादहमो राम भूतानि प्रभवंति हि॥
कारणानुगमात्तेषां जडत्वं तामसं स्वतः॥७३॥

निर्गुणस्त्वं निराकारो यदा मायागुणान्प्रभो॥
लीलयांगीकरोषि त्वं तदा वैराजनामवान्॥७४॥

गुणात्मनो विराजश्च सत्त्वाद्देवा बभूविरे॥
रजोगुणात्प्रजेशाद्या मन्योर्भूतपतिस्तव॥७५॥

त्वामहं मायया च्छन्नं लीलया मानुषाकृतिम्॥७६॥

जडबुद्धिर्जडो मूर्खः कथं जानामि निर्गुणम्॥
दंड एव हि मूर्खाणां सन्मार्गप्रापकः प्रभो॥७७॥

और हे राम जिस समयमें तुमने जगत् रचाउसी समयमें मुझको जड़ स्वभावरचा तौआपके रचेहुये स्वभावको अन्यथा करने को कौन समर्थहै ७१ क्योंकि स्थूल जे महाभूतहैंते स्वभावही करके जड़हैं और आपहीने ऐसे रचेहैं इससे आपकी आज्ञा कोई उल्लंघन नहीं करते हैं ७२ और हे रामतामस जो अहंकार तिससे आकाशादि पंच महाभूत उत्पन्न होते हैं और कारणका गुण कार्यमें स्वभावसे आया करताहै तब जब तामस अहंकार जो हमारा कारण वही जड़स्वभावहै तौहम पंचमहाभूत स्वभावसेही जड़हुयेही चाहें ७३ न कहौ निर्गुण जो मैंहौंतिससे तामस अहंकारही कैसे उत्पन्नहुआ इस आशय से समुद्र कहताहै कि निराकार निर्गुण जो तुम्हीहौ सो जब लीलाही करके माया के गुणोंको अंगीकार करतेहौतौतुम वैराजनाम करके युक्तहोते हौ ७४ तिसमें गुणात्मा सगुण स्वरूप वैराज जो आपहौ तिनसे सत्त्वगुण से सनकादि देवगण होतेहुये और रजोगुण से प्रजेश जे मन्वादिक और इन्द्रा दिक ते होतेहुये और तुम्हारे क्रोधसे रुद्र उत्पन्न होतेहुये ७५ और माया करके ढकेहुये और लीलाही करके मनुष्य कासा स्वरूपं जिसका ऐसे जो निर्गुण गुणों के प्रेरक ईश्वररूप तुमहौ तिसको ७६ जड़बुद्धि और स्वरूपकरकेभी जड़ ऐसा जो मूर्ख मैं सां कैसे जानसकौंइससे हे स्वामिन् मूर्खोंके वास्ते दण्डहीसन्मार्ग में प्रवृत्त करानेवाला है ७७॥

भूतानाममरश्रेष्ठ पशूनां लगुडो यथा॥
शरणं ते व्रजामीश शरण्यं भक्तवत्सल॥
अभयं देहि मे राम लंकामार्गं ददामि ते॥७८॥

राम उवाच॥

अमोघोऽयं महाबाणः कस्मिन्देशे निपात्यताम्॥
लक्षं दर्शय मे शीघ्रम्बाणस्यामोघपातिनः॥७९॥

रामस्य वचनं श्रुत्वा करे दृष्ट्वा महाशरम्॥
महोदधिर्महातेजा राघवं वाक्यमब्रवीत्॥८०॥

रामोत्तरप्रदेशे तु द्रुमकुल्य इति श्रुतः॥
प्रदेशस्तत्र बहवः पापात्मानो दिवानिशम्॥८१॥

बाधंते

** मां रघुश्रेष्ठ तत्र ते पात्यतां शरः॥
रामेण सृष्टो बाणस्तु क्षणादाभीरमंडलम्॥८२॥**

हत्वा पुनः समागत्य तूणीरे पूर्ववत्स्थितः॥
ततोब्रवीद्रघुश्रेष्ठं सागरो विनयान्वितः॥८३॥

नलः सेतुं करोत्वस्मिन् जले मे विश्वकर्मणः॥
सुतो धीमान्समर्थोऽस्मिन् कार्ये लब्धवरो हरिः॥८४॥

और हे देवतों में श्रेष्ठ जैसे पशुओं को लाठीही अच्छे मार्ग में प्रवृत्तकराती है तैसे अज्ञपुरुषों को ईश्वरका दण्डभी सन्मार्ग प्रवर्तक है और हे ईश भक्त हैं प्रिय जिसको और शरणागत के रक्षामेतत्पर ऐसे जो तुमहौ तिसके मैं शरण प्राप्त होता हौं और हे राम मुझको अभय दीजिये और मैं आपको लंका का मार्ग देता हौं ७८ तो राम बोले कि हे समुद्र अमोघ जो यह मेरा बाण है सो किस स्थान पै छोड़ाजावै क्योंकि इस बाणका गिरना कहीं निष्फल नहींहोता है अर्थात् जिस स्थानपै यह गिरता है वहां बिना संहारकरे नहीं रहता इससे इसका निशाना शीघ्रही दिखावो ७९ तब समुद्र राम के हाथमें उस घोर बाणको देखके और रामके बचन सुनिकै रामसे यहबोला कि हे राम ८० मेरे उत्तरके भागमें एकद्रुमकुल्य नाम करके स्थानहै तहां बहुत से पापीलोग वास करते हैं ८१ वो मुझको रातिदिन बाधतेही रहतेहैं उस स्थानपै इसवाण को गिराइये तो यह समुद्रका वचन सुनिकै रामने छोड़ा जो बाण ८२ सो वह बहुत से शूद्रों के समूहको एक क्षणमात्रही में नाश करके पहिले की तरह फिर रामके तरकसमें स्थित होताहुआ तब तौ बड़ी नम्रता करके युक्तसमुद्र रामसे बोला ८३ कि हे राम इस मेरे जल में बिश्वकर्मा का पुत्र बड़ा बुद्धि मान् जो नलनाम बानर है सो सेतुको करे अर्थात् पुल बनावै क्योंकि उस को इसकार्य करनेको ब्रह्मासे वर प्राप्तहुआहै इससे वहनल समुद्र के सेतुकर ने में समर्थहै ८४॥

कीर्त्तिं जानंतु ते लोकाः सर्वलोकमलापहाम्॥
इत्युक्त्वा राघवं नत्वा ययौ सिंधुरदृश्यताम्॥८५॥

ततो रामस्तु सुग्रीवलक्ष्मणाभ्यांसमन्वितः॥
नलमाज्ञापयच्छीघ्रं वानरैः सेतुबंधने॥८६॥

ततोतिहृष्टःप्लवगेंद्रयूथपै-
र्महानगेंद्रप्रतिमैर्युतो नलः॥
बबंध सेतुं शतयोजनायतं
सुविस्तृतं पर्वतपादपैर्दृढम्॥८७॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे युद्धकांडे तृतीयः सर्गः॥३॥

और सब लोकोंके पापों के दूरकरने वाली सेतु बंधन सेतुहुई जो आपकी कीर्तिहै तिसको सब लोकजानैंयह वचन कहिकै और रामको प्रणाम करके समुद्र अपने मनुष्य रूपको छिपालेता हुआ तब सुग्रीव और लक्ष्मण करके

युक्त जोराम सो शीघ्रहीं सेतुके बांधने में वानरों करके संहित नलको आज्ञा देतेहुये ८६ तिस के उपरान्त पर्वत के तुल्य है शरीर जिनका ऐसे जो बड़े बड़े यूथपति वानर तिन करके सहित जो नल सो बड़ा प्रसन्नहोके पर्वत और वृक्षोंकरके दृढ़ सौ योजन के विस्तारसेतुको करता हुआ ८७॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे युद्धकाण्डे भाषाटीकायां तृतीयः सर्गः॥३॥

सेतुमारभमाणस्तु तत्र रामेश्वरं शिवम्॥
संस्थाप्य पूजयित्वाह रामोलोकहिताय च॥१॥

प्रणमेत्सेतुबंधं यो दृष्ट्वा रामेश्वरं शिवम्॥
ब्रह्म हत्यादिपापेभ्यो मुच्यते मदनुग्रहात्॥२॥

सेतुबंधे नरः स्नात्वा दृष्ट्वा रामेश्वरं हरम्॥
संकल्पनियतो भूत्वा गत्वा वाराणसीं नरः॥३॥

आनीय गंगासलिलं रामेशमभिषिंच्य च॥
समुद्रे क्षिप्ततद्भारो ब्रह्म प्राप्नोत्यसंशयम्॥४॥

कृतानि प्रथमेनाह्ना योजनानि चतुर्दश॥
द्वितीयेन तथा चाह्ना योजनानि तु र्विंशतिः॥५॥

तृतीयेन तथा चाह्ना योजनान्येकविंशतिः॥
च तुर्थेन तथा चाह्ला द्वाविंशतिरिति श्रुतम्॥६॥

पंचमेन त्रयोविंशद्योजनानि समंततः॥
बबंध सागरे सेतुं नलो वानर सत्तमः॥७॥

दो० । तुर्य्यसर्ग महँ शंभुको स्थापनकरि भगवान॥
सेतुबँधायो रावणदि शुक उपदेशो ज्ञान॥१॥

अबमहादेवजी पार्वती से कथा वर्णन करैहैं हे पार्वति अब सेतुबांधने काप्रारम्भ करते हुये जो श्रीराम सो रामेश्वर नाम करके शिवहैं तिनकी, वेदकी विधिसे स्थापना और पूजा करके सबलोकों के हित के अर्थ यह बचन कहते हुये १ कि जो पुरुष रामेश्वर शिवका दर्शनकर के मेरे कियेहुये सेतुको प्रणाम करेगासो मेरी अनुग्रहसे ब्रह्महत्यादि पापोंसे छूटजायगा २ और सेतुबन्धन स्थानपै मनुष्य स्नानकरके और रामेश्वर कादर्शन करके फिरसंकल्प करके बीच में कुछकार्य नहीं करताहुआ वाराणसी पुररीकोजाके३ वहांसे गंगाजलला के रामेश्वर महादेवको स्नानकराके फिर जिन में जल भरिलायाहै उनपात्रादिकों को समुद्रमें डालकर के ब्रह्मको प्राप्तहोता है इसमें कुछ संशयनहीं है ४ अब सेतुबांधनेकाक्रम कहते हैं पहिले दिन तौ चौदह योजन सेतु बांधते हुये और दूतरेदिन बलियोजन सेतुवांयागया ५ और तीसरेदिन इक्कीस योजन बांधा गया और चौथेदिन वाईसयोजन बांधागया ६ और पांचवेंदिन तेईसयोजन बांधागया इसप्रकार करके समुद्रमें नलनामवानर श्रेष्ठ सेतुको वांचताहु आ ७॥

तेनैव जग्मुः कपयो योजनानां शतं द्रुतम्॥
असंख्याताः सुवेलाद्रिं रुरुधुः प्लवगोत्तमाः॥८॥

आरुह्य मारुतिं रामो लक्ष्मणोप्यंगदं तथा॥
दिदृक्षू राघवो लंकामारुरोहाचलं महत्॥९॥

दृष्ट्वा लंकां सुविस्तीर्णांनानाचित्रध्वजाकुलाम्॥
चित्रप्रासादसंबाधां स्वर्णप्राकारतोरणाम्॥१०॥

परिखाभिः शतघ्नीभिः संक्रमैश्च विराजिताम्॥
प्रासादोपरि विस्तीर्णप्रदेशे दशकंधरः॥११॥

मंत्रिभिः सहितो वीरैःकिरीटदशकोज्ज्वलः॥
नीलाद्रिशिखराकारः कालमेघसमप्रभः॥१२॥

रत्नदंडैःसितच्छत्रैरनेकैः परिशोभितः॥
एतस्मिन्नंतरे बद्धो मुक्तो रामेण वै शुकः॥१३॥

वानरैस्ताडितः सम्यक् दशाननमुपागतः॥
प्रहसन्रावणः प्राह पीडितः किं परैः शुक॥१४॥

अब उसीसेतुके मार्गकरके वानर सौयोजन समुद्रकेपार जातेहुये तिसके अनन्तर असंख्य बानर समुद्रके पारजा के सुबेलनामपर्वत को रोंक लेतेहुये ८ तब श्रीराम हनुमान् के ऊपरचढ़के और लक्ष्मण अंगदके ऊपरचढ़के दोनोंजनलंकाके देखनेको उस सुवेलपर्वतके ऊपर जातेहुये ९ अब उसपर्वतके ऊपर चढ़े हुये रामलक्ष्मण बड़े विस्तार युक्त जो लंका है तिसको देखते हुये कैसी लंकाहै नानाप्रकारकी चित्रविचित्र ध्वजा जिसमें फहरारही हैं और अनेक प्रकारके महलोंका जिसमें समूहहै और सुवर्णकी दीवालका जिसमें परकोटा है १० और खायिआंऔर तोपैं और फाटकबन्दी इनकरके शोभित है और उसलंकामें एक बड़ाभारी महल तिसके ऊपर वरिमन्त्रियों करके सहितबैठा हुआ जो रावण तिसको ११राम लक्ष्मण देखतेहुये कैलारावण है दशमुकुटों करके प्रकाश कर रहाहै औनील पर्वतके शिखरके तुल्यहै रूप जिसका और काले मेघकीसीहैकांतिजिसकी १२ औररत्नोंके दण्ड जिनमें ऐसे अनेक सुपेद छत्रोंकरके शोभित होरहाहै अब इसप्रकार राम रावणको देखके उसी समय में वह बँधाहुआ जो शुकराक्षसथा उसकोछुड़वादेते हुये १३ तौवानरों करके बहुत ताड़न कराहुआ जो वह शुक राक्षस सो छूटके रावणके समीप जाता हुआ तो हँस करके रावण बोला कि हे शुरू क्यातू शत्रुओं करके पीड़ितहुआहै १४॥

रावणस्य वचः श्रुत्वा शुको वचनमब्रवीत्॥
सागरस्योत्तरे तीरेऽब्रुवं ते वचनं यथा॥
तत उत्प्लुत्य कपयेा गृहीत्वा मां क्षणात्ततः॥१५॥

मुष्टिभिर्नखदंतैश्च हंतुं लोप्तुं प्रचक्रमुः॥
ततो मां राम रक्षेति क्रोशंतं रघुपुंगवः॥१६॥

विसृज्यतामिति प्राह विसृष्टोहं कपीश्वरैः॥
ततोहमागतो भीत्या दृष्ट्वा तद्वानरं बलम्॥१७॥

राक्षसानां बलौघस्य वानरेंद्रबलस्य च॥
नैतयोर्विद्यते संधिर्देवदानक्योरिव॥१८॥

पुरप्राकारमायांति क्षिप्रमेकतरं कुरु॥
सीतां वास्मै प्रयच्छाशु युद्धं वा दीयतां प्रभो॥१९॥

मामाह रामस्त्वं ब्रूहि रावणं मद्वचः शुक॥
यद्बलं च समाश्रित्य सीतां मे हृतवानसि॥२०॥

तद्दर्शय तथाकामं ससैन्यः सहबांधवः॥
श्वःकाले नगरीं लंकां सप्राकारां सतोरणाम्॥२१॥

तौरावण के वचन सुनिकै शुक वचनबोला कि हेराजन् समुद्रके उत्तरतटपै जाके मैंतुम्हारेकहेहुये वचन सुनाताहुआ तौवानर क्षणभरमें ही कूदके मुझको पकड़ के १५ फिरघूंसों से और नखोंसे और दांतों से मुझको मारनेको नोचनेखसोटनेलगे जब उन्होंने बहुत मारा मुझको तौमैंने पुकारके राम से कहा कि रघुनन्दन मेरी रक्षाकरिये १६ तौरघुत्रोंमें श्रेष्ठ जो रामहैं सो इस को छोड़देवा यह वानरोंसे कहते हुये फिर वानरों करके छोड़ाहुआ मैं उन वानरोंकी सेनाको देखके डराहुआयहांआके प्राप्तहुआ १७ सो हे रावण राक्षसोंकी सेनाके समूहका और वानरोंकी सेना के समूहका मिलाप कभी होनाही नहीं है जैसे देवदानवोंका नहोवै १८ और लंकाके परकोट के ऊपर वानर आयाही तौ चाहते हैं इससे दो बातमें एक करना चाहिये कितौ राम के अर्थ सीता को दीजिये शीघ्र अथवा युद्धही दीजिये १९ और राम मुझसे यह कहते हुये कि हे शुक तू मेरा वचन रावणसे यह कहु कि जिस बलके भरोसे मेरी सीताको तू हरताहुआहै २० उसबलको सेना औ भाई बन्धुओंकर के सहित दिखलाउ और कल्ह शहरपनाह और नगर के द्वारों करके सहितलंकाको २१॥

राक्षसं च बलं पश्य शरैर्विध्वंसितं मया॥
घोररोषमहं मोक्ष्ये बलं धारय रावण॥२२॥

इत्युक्त्वोपररामाथ रामः कमललोचनः॥
एकस्थानगता यत्र चत्वारः पुरुषर्षभाः॥२३॥

श्रीरामो लक्ष्मणश्चैव सुग्रीवश्च विभीषणः॥
एत एव समर्थास्ते लंकां नाशयितुं प्रभो॥२४॥

उत्पाट्य भस्मीकरणे सर्वे तिष्ठंतु वानराः॥
तस्य यादृग्बलं दृष्टं रूपं प्रहरणानि च॥२५॥

बधिष्यति पुरं सर्वं एकस्तिष्ठंतु ते त्रयः॥
पश्य वानरसेनां तामसंख्यांतां प्रपूरितम्॥२६॥

गर्जंति वानरास्तत्र पश्य पर्वतसन्निभाः॥
न शक्यास्ते गणायितुं प्राधान्येन ब्रवीमि ते॥२७॥

एष योभिमुखो लंकां नदन्तिष्ठति वानरः॥
यूथपानां सहस्राणां शतेन परिवारितः॥२८॥

ओर सबराक्षसोंकी सेना को मेरे बाणों करके नाशको प्राप्त देखैगा घोर जो अपना क्रोधहै तिसको मैं छोड़ताहौंऔर हे रावण अपने बलको धारण कर २२ यह वचन कहिकै कमल लोचन जो रामहैं सो मौन होतेहुये धौरहे रावण यहां ये चार जने एक स्थान पै स्थित होवैं२३ एक तौ श्रीराम और दूसरे लक्ष्मण और तीसरा सुग्रीव और चौथा विभीषण तौ ये चारही जने लंकाकोउखाड़िकै भस्म करने में और नाश करने में समर्थ हैं २४ वानर सब बैठेही रहैं और तिस राम का बल और रूप चोर शस्त्र जैसे मैंने देखे हैं २५ तिससे यह निश्चय होता है कि वे तीनों जनेभी बैठे रहैंअकेले रामही सब राक्षसोंके नाश करनेको समर्थ हैं और हेरावण सर्वत्र परिपूर्ण और गिनने में न आसकें ऐसी जो वानरोंकी सेना तिसको देखिये २६ और जिस सेना में पर्वतके तुल्य वानर गर्जरहेहैं ते वानर गिनने को अशक्यहैं प्राधान्य करके मैं कहताहौं २७ जो यह वानर लंकाके सम्मुख गर्जता हुआ स्थित है और जो सौ हजारयूथपति वानरों करके वेष्टित हैं २८॥

सुग्रीवसेनाधिपतिर्नीलो नामाग्निनंदनः॥
एष पर्वतशृङ्गाभः पद्मकिंजल्कसन्निभः॥२९॥

स्फोटयत्यभिसंरब्धो लांगूलं च पुनःपुनः॥
युवराजोंगदो नाम बालिपुत्रोऽतिवीर्यवान्॥३०॥

येन दृष्टा जनकजा रामस्यातीववल्लभा॥
हनुमानेष विख्यातो हतो येन तवात्मजः॥३१॥

श्वेतो रजतसंकाशो महाबुद्धिपराक्रमः॥
तूर्णं सुग्रीवमागम्य पुनर्गच्छति वानरः॥३२॥

यस्त्वेष सिंहसंकाशः पश्यत्यतुलविक्रमः॥
रंभो नाम महासत्वो लंकां नाशयितुं क्षमः॥३३॥

एष पश्यति वै लंकां दिधक्षन्निव वानरः॥
शरभो नाम राजेन्द्र कोटियूथपनायकः॥३४॥

पनसश्च महावीर्यो मैंदश्च द्विविदस्तथा॥
नलश्च सेतुकर्त्तासौ विश्वकर्मसुतो बली॥३५॥

** **यह सुग्रीव केलेनाका स्वामी नीलनाम करके अग्निका पुत्र वानर है और यहपर्वतके शृंगके तुल्य और कमलके केसरके तुल्य जिसकी कान्ति है २९ और बारम्बार क्रोध करके पूंछको पटक रहाहै सो यह युवराजहै और अंगद इसका नामहै और यह बालीका पुत्रहै और बड़े पराक्रम करके युक्त है ३० और जिसने रामकी प्रिया सीता देखी और तुम्हारे पुत्रका जिसने वध किया है यहहनुमान् नाम करके वानरहै ३१ और जिसकी रजतके तुल्यकांति है औ बड़ी बुद्धि और बड़ा पराक्रम जिसकाहै औजो शीघ्रही सुग्रीवके पास आके फिर लौटि जाताहै यह श्वेतनाम करके वानर सुग्रीवका सेनापति है ३२

और जो वानर सिंह के तुल्यहै और अतुलहै पराक्रम जिसका ऐसा जो देख रहाहैंसोरंभ इसकानामहै और बड़ा पराक्रमीहै और लंका के नाश करने को यह समर्थहै ३३ और जो यह वानर लंकाको ऐसे देखता है कि मानों भस्म करवेवैंगा सो हे राजेन्द्र इसका शरभनामऔ कड़ोर यूथपति वानरों का जो मालिकहै ३४ और बड़ापराक्रमी पनस नाम करके वानर है और तैसेही मैन्द और द्विविद नाम करके बानर हैं और जो नल नाम करके वानर है सो विश्व कर्माकापुत्र हैं और समुद्रका सेतु इसी ने बांधा है ३५॥

वानराणां वर्णने वा संख्याने वा क ईश्वरः॥
शूराः सर्वे महाकायाः सर्वे युद्धाभिकांक्षिणः॥३६॥

शक्ताः सर्वे चूर्णयितुं लंकां रक्षोगणैः सह॥
एतेषां बलसंख्यानं प्रत्येकं वच्मि ते शृणु॥३७॥

एषां कोटिसहस्राणि नव पंच च सप्त च॥
तथा शंखसहस्राणि तथार्बुदशतानि च॥३८॥

सुग्रीवसचिवानां ते बलमेतत्प्रकीर्तितम्॥
अन्येषां तु बलं नाहं वक्तुं शक्तोऽस्मि रावण॥३९॥

रामोन मानुषः साक्षादादिनारायणः परः॥
सीता साक्षाज्जगद्धेतुश्चिच्छक्तिर्जगदात्मिका॥४०॥

ताभ्यामेव समुत्पन्नं जगत्स्थावरजंगमम्॥
तस्माद्राश्च सीता च जगतस्तस्थुषश्च तौ॥४१॥

पितरौ पृथिवीपाल तयोर्वैरी कथं भवेत्॥
अजानता त्वयानीता जगन्मातैव जानकी ४२॥

** **और वानरोंके वर्णन करनेको अथवा गिननेको कौन समर्थ है ये वानरसब शूरहैं और बड़े बड़े जिनके शररिहें और सबयुद्धकी इच्छाकररहे हैं ३६ और राक्षसों के गणों करके सहित लंकाको चूर्णकरनेको सब समर्थ हैं इनकी सेनाकी संख्या एक एक सेनापतिकी में कहताहौं तिसको सुनिये ३७ इक्कीस हजार कड़ोर और हजारशंख और सौ अर्बुद ३८ इतनासेनाका प्रमाण तौ सुग्रीवके दशौ मन्त्री जे नलनील हनुमान् अंगद श्वेत रंभ शरभ पनसमैन्द द्विविद इनकी सेनाका है और हेरावण और ने केशरीजाम्बवान् गज गवाक्ष गवय सुषेणादिक वानरोंकी सेनाओंके अधिपतिहैंतिनकी सेनाका प्रमाण तौमैं कहनेको समर्थही नहीं हों ३९और राम मनुष्यनहीं हैं किंतु सबसे परे आदि नारायण साक्षा और सीता साक्षात् जगत्काहेतु और जगत्स्वरूप चिच्छक्तिहै ४० और इन्हीं दोनोंसे स्थावर जंगम सबजगत् उत्पन्न हुआ है तिससे हे राजन् राम और सीता ये दोनों स्थावरजंगमके ४१ माता पिता हैं फिर तिनदोनोंका वैरीहों के कोई कैसे रहिसके और तुमने तौ बिनाजानेही जगत् कीमाता जानकीहरिके लंकामें प्राप्तकी ४२॥

क्षणनाशिनि संसारे शरीरे क्षणभंगुरे॥
पंचभूतात्मके राजन्चतुर्विंशतितत्त्वके॥४३॥

मलमांसास्थिदुर्गंधभूयिष्ठेऽहंकृतालये॥
कैवास्था व्यतिरिक्तस्य काये तव जडात्मके॥४४॥

यत्कृते ब्रह्महत्यादिपातका निकृतानि ते॥
भोगभोक्ता तु यो देहः स देहोत्र पतिष्यति॥४५॥

पुण्यपापे समायातो जीवेन सुखदुःखयोः॥
कारणे देहयोगादिनात्मनः कुरुतोनिशम्॥४६॥

यावद्देहोस्मि कर्त्तास्मीत्यात्माहंकुरुतेवशः॥
अध्यासात्तावदेव स्याज्जन्मनाशादिसंभवः॥४७॥

तस्मात्त्वं त्यज देहादावभिमानं महामते॥
आत्मातिनिर्मलः शुद्धो विज्ञानात्माचलोव्ययः॥४८॥

स्वाज्ञानवशतो बंधं प्रतिपद्य विमुह्यति॥
तस्मात्त्वं शुद्धभावेन ज्ञात्वात्मानं सदा स्मर॥४९॥

और हे राजन् क्षणभरमें नाशहाने का स्वभाव जिसका ऐसा जो संसार तिसमें क्षणभंगुर जो शरीर और फिर पंचभूतों करके रचाहुआ और चौबीस तत्त्वोंका ४३ और मल मांस अस्थि दुर्गन्ध येई इसमें बहुत भरे हुये हैं और अहंकारका आलयस्थान ऐसे जड़रूपशरीरमें इससे न्यारे चेतनरूप जो तुम तिसको क्या विश्वाकरने योग्यहै ४४ जिस देहके लिये अनेक ब्रह्महत्यादिक पाप तुमने किये सो सुखोंके भोगनेवाला जो देह सो यहांहीं नाश को प्राप्त होगा ४५ और सुख दुःखके कारण भूत जे पुण्य पापते जविके संगही जातेहैं और तेपुण्यपाप देहसंयोगादि करकेही सुखदुःखों को निरन्तर उत्पन्न करते हैं और देहसंबन्धरहित केवल चिद्रूपआत्माको सुख दुःखादिक नहीं करसक्ते हैं ४६ और जबतक बुद्धिसंगसे आत्मामें देह हौं और मैकर्ताहों ऐसा अहंकार प्रकृति के वराहोके करताहै तबतक अध्यासके कारणा से अर्थात् जड़ और चेतन इनमें परस्पर मिथ्या एकाकार बुद्धि करने से जन्म नाशादिकों को प्राप्त होताहै इससे यह सूचनकिया कि सुख दुःखादिककी प्राप्तिमें देहसंबन्ध मात्र मुख्य कारण नहीं है किंतु अध्यासही मुख्य कारण है इसीसे ज्ञानीको प्रारब्धवशते देहसंबंध बना भी रहता है परंतु सुख दुःखादिक नहीं होते हैं अध्यास दूरहोगया है इसकारण से ४७ तिससे हे श्रेष्ठ मति रावण तुम देहादिकके विषे अभिमान को त्यागदेवो जिससे तुम्हारा आत्मा अति निर्मल है और शुद्ध विज्ञानस्वरूप है और अचलहै और अविनाशीहै ४८ और ऐसे अपने स्वरूपके नहीं जानने के कारणसे पुरुषबंधन को प्राप्तहोके मोह को प्राप्तहोता है अर्थात् बारंबारकर्ममें प्रवृत्तहोताहै तिससे तुमशुद्धबुद्ध मुक्त स्वभाव आत्माको जानके स्मरण करौ ४९॥

विरतिं भज सर्वत्र पुत्रदारगृहादिषु॥
निरयेष्वपि भोगः स्याच्छ्रवसूकरतनावपि॥५०॥

देहं लब्ध्वा विवेकाढ्यं द्विजत्वं च विशेषतः॥
तत्रापि भारते वर्षे कर्मभूमौ सुदुर्लभम्॥५१॥

को विद्वानात्मसात्कृत्वा देहं भोगानुगो भवेत्॥
अतस्त्वं ब्राह्मणो भूत्वा पौलस्त्यतनयश्च सन्॥५२॥

अज्ञानीव सदा भोगाननुधावसि किं मुधा॥
इतः परं वा त्यक्त्वा त्वं सर्वसंगं समाश्रय॥५३॥

राममेव परात्मानं भक्तिभावेन सर्वदा॥
सीतां समर्प्य रामाय तत्पादानुचरो भव॥५४॥

विमुक्तः सर्वपापेभ्यो विष्णुलोकं प्रयास्यसि॥
नोचेद्गमिष्यसेधोधः पुनरावृत्तिवर्ज्जितः॥
अंगीकुरुष्व मद्वाक्यं हितमेव वदामिते॥५५॥

सत्संगतिं कुरु भजस्व हरिं शरण्यं
श्रीराघवं मरकतोपलकांतिकांतम्॥
सीतासमेतमनिशं धृतचापबाणं
सुग्रीवलक्ष्मणविभीषणसेवितांघ्रिम्॥५६॥

इत्यध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे युद्धकांडे चतुर्थः सर्गः॥४॥

और सबजगह पुत्रदार गृहादिकों मैंवैराग्यको करो और भोगतौ नरक में भी होताहै औरकूकरशूकर देहादिकों में भी होताहै ५० औरविवेक योग्य इस मनुष्यदेहको प्राप्तहोकेतिसपै भी ब्राह्मणशरीरको प्राप्तहोके और तिसपै भी कर्मभूमि जो भारतवर्ष तहांदुर्लभ जन्म को प्राप्तहोके ५१ ऐसा कौन विद्वानहै जो दहको अपने आधीनमानंमानके देहकेभोगोंका दासकीतरह सेवन करै इससेतुम ब्राह्मणहोके तिसपैभी पौलस्त्यके पुत्र होके ५२ आज्ञानीकी तरह क्या झूंठे भोगोंके पिछाड़ी दौररहे हौ अब इसके उपरांत सबसंग को त्यागके परमात्मा जो रामहैंतिन्हींका भक्तिभावकरके सदासेवनकरो ५३ और सीता को रामके अर्थ समर्पण करके रामके चरणसेवक होउ इसप्रकार करोगे तौ सबपापोंसे छुटिके बिष्णुलोकको प्राप्तहोउगे ५४ औरजो ऐसा न करोगे तौ उत्तम लोकसे वर्जितहोके नीचे नीचे लोकोंको प्राप्तहोवोगे और मैं तुम्हारा हितीकताहौइससे मेरे वचनको अंगीकारकरो ५५ और हेरावण तुम सत्पुरुषका संगकरौ और मरकतमणिसेभी अत्यन्त कमनीय औरसीता करके सहित और धनुर्बाण हाथमें धारणकरे और सुग्रीव लक्ष्मण विभीषण इन करकेसेचितहें चरणारविन्द जिनके और शरणागतकी रक्षामें तत्पर ऐसे जो श्रीरामरूप हरिहैंतिनका निरन्तर भजनकरो ५६॥

इति श्रीसदध्यात्मरामायणे उमश्वेरसंवादे युद्धकांडे भाषाटीकायां चतुर्थस्सर्गः॥४॥

श्रुत्वा शुकमुखोद्गीतं वाक्यमज्ञाननाशनम्॥
रावणः क्रोधतम्राक्षो दहन्निव तमब्रवीत्॥१॥

अनुजीव्य सुदुर्बुद्धेः गुरुवद्भाषसे कथम्॥
शासिताहं त्रिजगतां त्वं मां शिक्षन्न लज्जसे॥२॥

इदानीमेव हन्मि त्वां किंतु पूर्वकृर्तं तव॥
स्मरामि तेन रक्षामि त्वां यद्यपि बंधोचितम्॥३॥

इतो गच्छ विमूढ त्वमेवं श्रोतुं न मे क्षमम्॥
महाप्रसाद इत्युक्त्वा वेपमानो गृहं ययौ॥४॥

शुकोपि ब्राह्मणः पूर्वं ब्रह्मिष्ठो ब्रह्मवित्तमः॥
वानप्रस्थविधानेन वने तिष्ठन्स्वकर्मकृत्॥५॥

देवानामभिवृद्ध्यर्थं विनाशाय सुरद्विषाम्॥

चकार यज्ञविततिमविच्छिन्नां महामतिः॥६॥

राक्षसानां विरोधोभूच्छुको देवहितोद्यतः॥
वज्रदंष्ट्र इति ख्यातस्तत्रैको राक्षसो महान्॥७॥

दो०॥ सर्वपांचवेशुकअसुर त्यागिगयो निजधाम॥
माल्यवान कोनिदरिहित कीन्होंखलसांग्रम॥१॥

अबमहादेवजी पार्वतीजी से कथावर्णनकरतेहैं कि पार्वति अबरावणशुकका कहाहुआ अज्ञानके नाशकरनेवाला वचनसुनिकै क्रोध करके लालहैं नेत्र जिसके ऐसा जोरावण सो मानों दृष्टिकरके भस्मकरदेवेगा ऐसे उसशुकसों वचनबोलताहुआ १ कि हे दुर्बुद्धे मेरा तू सेवक होके मुझीको गुरूकी तरह कैसे शिक्षाकरताहै और तीनलोकका शिक्षाकरनेवाला जो मैं तिसको शिक्षा करताहुआ तू लज्जाको प्राप्तनहींहोता २ और तुझको मारतौअभी डालता परन्तुपहिले तूने मेरेबड़े कामकिये हैं तिनको स्मरण करके मारने के योग्य भी तू है तिसको नहीं मारताहों ३ और हेमूढ तू यहांसे चलाजा क्योंकि तेरेबचन मुझसे नहीं सुने जाते तब वह शुकराक्षस आपका मेरेऊपर बड़ा अनुग्रहहुआ यह कहिकै कम्पितहो अपने गृहको जाताहुआ अर्थात् राक्षसभावको त्यागके शुद्धब्राह्मणहो अपने पहिले वानप्रस्थ आश्रमका जो तपकरने के योग्य गृहथातिसकोजाताहुआ ४ क्योंकि वह शुक पहिले ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ ब्रह्मविचार में तत्पर ब्राह्मणरहा और वानप्रस्थ के आश्रममें जैसा कुछ वेद में विधान कहाहै तिस करके वनमें स्थितहो अपने कर्मको करताहुआ ५ फिरवहशुक ब्राह्मण देवताओं की बुद्धिके अर्थ और राक्षसों के नाशके अर्थ निरंतर यज्ञों को करताहुआ ६ तवदेवतों के हित में उद्योगकरताहुआ जो वहशुरू ब्राह्मण तिसके संग राक्षसों काबड़ाभारी विरोध होता हुआा तहां वज्रदंष्ट्र नाम करके एक बड़ाभारी राक्षस ७॥

अन्तरं प्रेप्सुरातिष्ठच्छुकापकरणोद्यतः॥
कदाचिदागतोगस्त्य

** स्तस्याश्रमपदं मुनेः॥८॥**

तेन संपूजितोगस्त्यो भोजनार्थं निमंत्रितः॥
गते स्नातुं मुनौ कुम्भसंभवे प्राप्य चांतरम्॥९॥

अगस्त्यरूपधृक्सोपि राक्षसः शुकमब्रवीत्॥
यदि दास्यसि मे ब्रह्मन् भोजनं देहि सामिषम्॥१०॥

हुकालं न भुक्तं मे मांसं छागांगसंभवम्॥
तथेति कारयामास मांसभोज्यं सविस्तरम्॥११॥

उपविष्टे मुनौ भोक्तुं राक्षसोतीव सुन्दरम्॥
शुकभार्यवपुर्धृत्वा तां चांतर्मोहयन्खलः॥१२॥

नरमांसं ददौ तस्मै सुपक्वं बहुविस्तरम्॥
दत्त्वैवांतर्दधे रक्षस्ततो दृष्ट्वा चुकोप सः॥१३॥

अमेध्यं मानुषंमांसमगस्त्यः शुकमब्रवीत्॥
अभक्ष्यं मानुषं मांसं दत्तवानसि दुर्मते॥१४॥

उस शुक ब्राह्मणके तिरस्कार में छिद्रदेखनेमें तत्पर रहताहुआ अब किसी समयमें उन शुक ऋषि के आश्रम में अगस्त्यजी आतेहुये ८ तब उस शुक ब्राह्मणने अगस्त्यका पूजन किया और भोजनके अर्थ निमन्त्रणभी किया तब अगस्त्यजी महाराजतो स्नान करनेको गये और उसी अन्तरको देखके वह बज्र दंष्ट्र नाम करके राक्षस ९ अगस्त्य ऋषिका रूपधारण करके उन शुकऋऋषि से बचन बोला कि हे ब्रह्मन् जो तुम भोजन हमको दिया चाहतेहौ तौ मांस सहित भोजन दीजिये १० क्योंकि बहुत कालसे बकरेका मांस हमने भोजन नहीं किया तब वह शुक ब्राह्मण तैसेही भोजन के योग्य विस्तार पूर्वक मांस कराताहुआ ११ तब जब अगस्त्यमुनि भोजन करने को बैठे उसी समय में वह दुष्ट वज्रदंष्ट्र राक्षस शुककी स्त्रीकासा बड़ा सुंदररूप धारण करके और शुककी स्त्रीको ऐसा मोहकर दिया कि जिससे वह अगस्त्य ऋषिके सामने परोसने को न निकलिसकै १२ इसप्रकार मायाकरके वह वज्रदंष्ट्र राक्षस शुककी स्त्री के रूपसे अगस्त्यजीके आगे बहुत प्रकारका पकाहुआ मनुष्यका मांस परोस कै आप अन्तर्द्धान होजाता हुआ अर्थात् छिपजाताहुआ तब अगस्त्य ऋषि अपवित्र मनुष्यके मांस देखके क्रोध करके शुक ऋषिसे वचन बोलते हुये १३ किं हे दुष्टमते जिसकारणले अभक्ष्य मनुष्य मांसको मेरे अर्थ देता हुआ है १४॥

मह्यन्त्वं राक्षसो भूत्वा तिष्ठत्वं मानुषाशनः॥
इति शप्तः पुरो भीत्या प्राहागस्त्यं मुने त्वया॥१५॥

इदानीं भाषितं मेद्य मांसं देहीति विस्तरम्॥
तथैव दत्तम्मे देव किं मे शापं प्रदास्यसि॥१६॥

श्रुत्वा शुकस्य वचनं मुहूर्तं ध्यानमास्थितः॥
ज्ञात्वा रक्षःकृतं सर्वं ततः प्राह शुकं सुधीः॥१७॥

तवापकारिणा सर्वं राक्षसेन कृतं त्विदम्॥
अविचार्यैव मे दत्तः शापस्ते मुनिसत्तम॥१८॥

तथापि मे वचोमोघमेवमेव भविष्यति॥
राक्षसं वपुरास्थाय

   रावणस्य सहायकृत्॥१९॥

तिष्ठ तावद्यदा रामो दशाननवधाय हि॥
आगमिष्यति लंकायाः समीपं वानरैः सह॥२०॥

प्रेषितो रावणेन त्वं चारो भूत्वा रघूत्तमम्॥
दृष्ट्वा शापाद्विनिर्मुक्तो बोधयित्वा च रावणम्॥२१॥

ति

स कारणसेतूराक्षसहोर्के मनुष्य के मांसको भोजन करताहुआ स्थित

हो

उ अब इसप्रकार अगस्त्य करके शापको प्राप्त जो शुकऋषि सो भयकरके

अगस्त्य ऋषिके आगेस्थित होकै बोले १५ किहेमुने इस समयमें तो आापही ने मुझसे कहाथा कि बहुतप्रकारका मांस विस्तारपूर्वक हमको देवो और हे देव तैसेही आपकी आज्ञासे मैंने मांसदिया फिर किसवास्ते मुझको आापशाप देतेहुये १६ तब यह शुकका बचन सुनिकै अगस्त्य ऋषि दोघड़ीतक ध्यान में स्थितहोतेहुये फिर वह सब कृत्यराक्षसका किया जानिकै शुकऋषि से कहते हुये १७ कि हे मुनिसत्तम तुम्हारा तिरस्कार करनेवाला जो राक्षसतिसका कियाहुआ यह सब अपराधहै और बिनाही बिचारे मैंने तुमको शाप दिया १८ तौभी मेरा बचन अमोघ है इससे मिथ्या कभी नहीं होगा अर्थात् संत्यही होगा और तुम राक्षस शरीरको धारण करके रावणका सहायकरौगे १९ और तबतक तुम राक्षस शरीर को धारण करो जबतक राम रावण के मारने को वानरों करके सहित लंकाके समीप आवैंगे २० तौ रावण के भेजेहुये तुम हलकारा होके रामको देखके शापसे छूटिकै फिर रावणको तत्त्वज्ञान का उपदेश करके २१ ॥

तत्त्वज्ञानं ततो मुक्तःपरं पदमवाप्स्यसि॥
इत्युक्तोगस्त्यमुनिना शुको ब्राह्मणसत्तमः॥२२॥

बभूव राक्षसः सद्यो रावणं प्राप्य संस्थितः॥
इदानीं चाररूपेण दृष्ट्वा रामं सहानुजम्॥२३॥

रावणं तत्त्वविज्ञानं बोधयित्वा पुनर्द्रुतम्॥
पूर्ववद्ब्राह्मणो भूत्वा स्थितो वैखानसैः सह॥२४॥

ततः समागमद्वृद्धो माल्यवान् राक्षसो महान्॥
बुद्धिमान्नीतिनिपुणो राज्ञो मातुःप्रियः पिता॥२५॥

प्राह तं राक्षसं वीरं प्रशतिनांतरात्मना॥
शृणु राजन्वचो मेद्य श्रुत्वा कुरु यथेप्सितम्॥२६॥

यदा प्रविष्टा नगरीं जानकी रामवल्लभा॥
तदादि पुर्य्यां दृश्यंते निमित्तानि दशानन॥२७॥

घोराणि नाशहेतूनि तानि मे वदतः शृणु॥
खरस्तनितनिर्घोषा मेघा अतिभयंकराः॥२८॥

मुक्त होके परमपदको प्राप्तहोउगे इस प्रकार अगस्त्य मुनि करके कहा हुआ जो बह ब्राह्मणों में श्रेष्ट शुक्र २२ सोशीघ्रही राक्षस होजाता हुआ और रावण को प्राप्त होके तिसके समीप स्थित होता हुआ और इस समय में

चार रूप करके लक्ष्मण सहित रामको देखके २३ और रावण को तत्त्वज्ञान का उपदेश करके शीघ्रही पहिले के तरह ब्राह्मण होके वानप्रस्थ जो ब्राह्मण है तिसकरके सहित फिर तपमें स्थित होता हुआ २४ अब तिसके उपरान्त बड़ा बुद्धिमान् और नीतिमें निपुण और रावण की माताका पिता और रावण का प्रिय और बड़ा वृद्ध ऐसा माल्यवान् नामकरके राक्षस रावणके समीप प्राप्तहोताहुया २५ और वह माल्यवान् बड़े प्रशान्त चित्तसे रावणसे बोलाकि हे राजन् तुम मेरे वचन सुनौ और सुनिकै फिर जैसी इच्छाहोय तैसाकरियेगा २६ हे रावण नवसे रामकी प्रिया सीता लंका में प्रविष्ट हुई अर्थात् लंका में आती हुई तब से राक्षसों के नाश करने वाले बड़े घोर निमित्त दिखाई पडतेहैं २७ तिनको सुनिये मैं कहता हौं कठोरगर्जतेहुये और बिजुलियां जिन्होंसे गिररही हैं ऐसे अत्यतभयंकर मेघ २८॥

शोणितेनाभिवर्षंति लंकामुष्णेन सर्वदा॥
रुदंति देवलिंगानि स्विद्यन्ति प्रचलंति च॥२९॥

कालिका पांडुरैर्दन्तैः प्रहसन्त्यग्रतः स्थिता॥
खरा गोषु प्रजायंते मूषका नकुलैः सह॥३०॥

मार्जारेण तु युद्ध्यन्ति पन्नगा गरुडेनतु॥
करालो विकटो मुंडः पुरुषः कृष्णपिंगलः॥३१॥

कालो गृहाणि सर्वेषां काले काले त्ववेक्षते॥
एतान्यन्यानि दृश्यंते निमित्तान्युद्भवंति च॥३२॥

अतः कुलस्य रक्षार्थं शांतिं कुरु दशानन॥
सीतां सत्कृत्य सधनां रामायाशु प्रयच्छ भोः॥३३॥

रामं नारायणं विद्धि विद्वेषं त्यज राघवे॥
यत्पादपोतमाश्रित्य ज्ञानिनो भवसागरम्॥३४॥

तरंति भक्तिपूतांतास्ततो रामो न मानुषः॥
भजस्व भक्तिभावेन रामं सर्वहृदालयम्॥३५॥

गरम रुधिरकी लंकामें वृष्टि करतेहैं और सबकालमें देवतों की प्रतिमा रोवतीहैं और पसीना उनमें वारंवार आवताहै और कहीं स्थापन कीगयी हैं और कहीं दिखलाई देती हैं २९ और कालाहै वर्ण जिस का ऐसी कोई अपूर्व स्त्री का रूप धारण करे देवी सफेद दांतों को निकालि के राक्षसों के आगे हँसती है अर्थात् तुम सब राक्षसों को मैं भक्षण करौंगी इस आशय ते हँसती है और गर्दन गौओंमें उत्पन्न होते हैं और निउलों करके सहित ३० चूहे बिल्लियों से युद्ध करते हैं इसका आशय यह है कि जब चिल्लयों के खाये चूहे बिल्लियों को मारनेलगे तौ राक्षसों का भोजनरूप मानुषवानर भी राक्षसों को अवश्य मारेंगे ऐसेही सर्प भी गरुड़से युद्ध करते हैं और बड़ा भयंकर और मुडा हुआ जिसका शिर और काला और पीला जिसका वर्णऐसा पुरुष वेष धारण करे ३१ काल सब राक्षसों को घर घर दिखाई देता है समय २ में

सो. हे राजन् ये और और भी इसी तरह के निमित्त दिखाई देते हैं और हो भी रहेहैं. ३२ इससे हे रावणइसराक्षस कुलकी रक्षाके अर्थशांतिको करिये सो शान्ति यहीहै कि सीताको सत्कार करके धनसहित श्रीराम को शीघ्रही दीजिये ३३ और राम को तुम नारायण जानौ इसीसे रामके संगद्वेष को त्याग दीजिये और जिस रामके चरण कमलरूप पोतको अर्थात् स्वल्प नौ का को आश्रवण करके भक्ति करके पवित्र हुआ है अन्तःकरण जिन्हों का ऐसे ज्ञानी लोग भवसागर के पार होते हैं ३४ तिससे राम मनुष्य नहीं है इससे सबका हृदय है स्थान जिसका ऐसातो सबका अन्तर्यामी रामतिनको भक्तिभाव करके सेवन करो ३५॥

यद्यपि त्वं दुराचारो भक्त्या पूतो भविष्यसि॥
मद्वाक्यं कुरु राजेंद्र कुलकौशलहेतवे॥३६॥

तत्तु माल्यवतो वाक्यं हितमुक्तं दशाननः॥
न मर्षयति दुष्टात्मा कालस्य वशमागतः॥३७॥

मानवं कृपणं राममेकं शाखामृगाश्रयम्॥
समर्थं मन्यसे केन हीनं पित्रा मुनिप्रियम्॥३८॥

रामेण प्रेषितो नूनं भाषसे त्वमनर्गलम्॥
गच्छ वृद्धोसि बंधुस्त्वं सोढं सर्वं त्वयोदितम्॥३९॥

इतो मत्कर्णपदवीं दहत्येतद्वचस्तव॥
इत्युक्त्वा सर्वसचिवैः सहितः प्रस्थितस्तदा॥४०॥

प्रासादाग्रे समासीनः पश्यन्वानर सैनिकान्॥
युद्धायायोजयत्सर्वराक्षसान् समुपस्थितान्॥४१॥

रामोपि धनुरादाय लक्ष्मणोन समाहृतम्॥
दृष्ट्वा रावणमासीनं कोपेन कलुषीकृतः॥४२॥

और यद्यपि तुम दुराचार हौ तौभी भक्ति करके पवित्र होजावोगे इस से हे राजेन्द्र इस कुलके कल्याणके लिये मेरे बचनको करिये ३६ अब रावण तिस हितकारी माल्यवान् के बचनको नहीं ग्रहणकरता हुआ जिससेदुष्टात्मा है और कालकी फांसी से बधाहुआ है ३७ और रावणयह कहता हुआ कि हे राक्षस जो राम मनुष्यहैं और दुःखी और अकेला और वानरोंका जिसने आश्रय कियाहै और पिताने जिसको निकालदियाहै और मुनिलोगहैं प्रिय जिसको ऐसे रामको कौन कारण सेतुम समर्थ मानतेहौ ३८ औरमालूम परता है कि रामके भेजेहुये तुम अनर्गल वचन कहतेहौ इससे तुम जावो बूढेहौ और नातेनेंभी नाना लगतेहो इससे क्या कहौं जो कुछ कहासो मैंनेसहा३९ इसीसे तुम्हारे मुखसे निकला हुआ वचन मेरे कानोंको भस्म करताहै ऐसा कहिकै रावण मन्त्रियोंकरके सहित वहां से अन्यत्र चलाजाता हुआ ४० अब रावण महलके ऊपर चढ़कै वानरोंकी सेनाको देखता हुआ और देखके फिर समीप स्थितजे राक्षस तिनको युद्धकरनेको आज्ञादेता हुआ ४१

और रामचन्द्रभी लक्ष्मणने ल्याइकै दिया जोधनुष तिलकग्रहण करके सिंहासन के ऊपरबैठे और मन्त्रियों करके सहित और मुकुटको धारण किये जो रावण तिसकांदेखके बडेक्रोध युक्तहोके ४२॥

किरीटिनं समासीनं मंत्रिभिः परिवेष्टितम्॥
शशांकार्द्धनिमेनैव बाणेनैकेन राघवः॥४३॥

श्वेतच्छत्रसहस्राणि किरीटदशकं तथा॥
चिच्छेद निमिषार्द्धेन तदद्भुतमिवाभवत्॥४४॥

लज्जितो रावणस्तूर्णं विवेश भवनं स्वकम्॥
आहूय राक्षसान् सर्वान् प्रहस्तप्रमुखान् खलः॥४५॥

वानरैः सह युद्धाय नोदयामास सत्वरः॥
ततो भेरीमृदंगाद्यैः पणवानकगोमुखैः॥४६॥

महिषोष्ट्रैःखरैः सिंहैर्द्वीपिभिः कृतवाहनाः॥
खड्गशूलधनुःपाशयष्टितोमरशक्तिभिः॥४७॥

लक्षिताः सर्वतो लंकां प्रतिद्वारमुपाययुः॥
तत्पूर्वमेव रामेण नोदिता वानरर्षभाः॥४८॥

उद्यम्य गिरिशृङ्गाणि शिखराणिमहांति च॥
तरूंश्चोत्पाट्य विविधान्युद्धाय हरियूथपाः॥४९॥

अर्द्धचन्द्राकार वाणकरके रावण के हज़ारोंसफेद छत्र और दशमुकुट इनको आधेही छणमें काटिकै भूमिमें डालदेतेहुये यहबड़ा अद्भुत चरित्र होताहुआ ४३।४४ तवरावण लज्जितहोके शीघ्रही अपने मन्दिरमें प्रवेशकरता हुआ फिर वह खलरावण प्रहस्तको आदिलैके मन्त्रियोंको बुलाकर ४५ वानरों के संग युद्ध करनेको शीघ्रही भेजताहुआ तिसके उपरान्त भेरी और मृदंग और पणव और गोमुख इनको आदि लैके जे बाजे ४६ तिनको बजातेहुये और भैंसा और ऊंट और गदहा और सिंह और चीता इनके ऊपरसवार होके खड्ग और शूल और धनुष और फांसी और लाठी और तोमर और सांग इनको आदि लैके शस्त्रोंकरके युक्त ४७ जे राक्षस ते चारोंतरफले लंकाके सबद्वारों अर्थात् दरवाजों पै जातेहुये और तिसके पहिलेही रामनेभेजे जे श्रेष्ठवानर ते ४८ बड़े भारी पर्वतोंके शिखरोंको हाथमें लियेहुये और वृक्षोंको उखाड़ २ के हाथोंमें लियेहुये युद्धके अनेक यूथपति वानर स्थित होतेहुये ४९॥

प्रेक्षमाणा रावणस्य तान्यनीकानि भागशः॥
राघवप्रियकामार्थंलंकामारुरुहुस्तदा॥५०॥

ते द्रुमैः पर्वताग्रैश्च मुष्टिभिश्च प्लवंगमाः॥
ततः सहस्त्रयूथाश्च कोटियूथाश्च यूथपाः॥५१॥

कोटीशतयताश्चान्ये रुरुधुर्नगरं भृशम्॥
आप्लवन्तः प्लवन्तश्च गर्जन्तश्च प्लवंगमाः॥५२॥

रामो जयत्यतिबलो लक्ष्मणश्च महाबलः॥
राजा जयति सुग्रीवो राघवेणानुपालितः॥५३॥

इत्येवं घोषयंतश्च समं युयुधिरेऽरिभिः॥
हनूमानं

गदश्चैव कुमुदो नीलएव च॥५४॥

नलश्च शरभश्चैव मैन्दो द्विविद एव च॥
जाम्बवान्दधिवक्त्रश्च केशरी तार एव च॥५५॥

अन्ये च बलिनः सर्वे यूथपाश्च प्लवंगमाः॥
द्वाराण्युत्प्लुत्य लंकायाः सर्वतो रुरुधुर्भृशम्॥
तदा वृक्षैर्महाकायाः पर्वताग्रैश्च वानराः॥५६॥

और वेसब वानर रावणके सेनाकीराह देखरहेहैं और अपने अपने भाग करके सबदरवाजोंपै वानर पहुंचगये हैं और रामकी प्रीतिके अर्थ लंकाके ऊपरचढिरहेहैं ५० ते वानर वृक्षोंकरके और बड़ीभारी शिलाओं करके और घूसों करके राक्षसोंके मारनेको उद्यत होरहे हैं और कोई दरवाजे पै हजार यूथवानर हैं और किसी दरवाजेपर कड़ोर यूथवानरहैं ५१ और कहीं अनेक कड़ोर यूथ वानर हैं इसप्रकार कड़ोरों यूथपति वानर चारों तरफसे लंकाको रोंकलेतेहुयेअर्थात् ऐसी कहीं जगह नहींरक्खी जहांकोई राक्षस निकलजाय और कोईवानर ऊपर कूदतेहैं कोई नीचेको आतेहैं कोई गर्जरहे हैं ५२ और यह वचनकहिरहेहैं कि अतिबल जोरामहै सोजयको प्राप्तहोय और महाबल जोलक्ष्मणसो जयको प्राप्तहोवे और रामकर के रक्षित जो राजा सुग्रीव सो जयको प्राप्तहोय ५३ इसप्रकार शब्दकरते हुये वानर वैरियोंके संग युद्धकरते हुये अब हनुमान् और अंगद और कुमुद और नील ५४ और नल और शरभ औमैन्द और द्विविद और जांबवान् और दधिवक्त्र और केसरी और तार ५५ और इनको आदिलेके और भी जे यूथपति वानरते लंकाके दरवाजों पै कूदकरके चारों तरफ से लंकाको रोकते हुये ५६॥

निजघ्नुस्तानि रक्षांसि नखैर्दंतैश्च वेगिताः॥
राक्षसाश्च तदा भीमा द्वारेभ्यः सर्वतो रुषा॥५७॥

निर्गत्य भिंदिपालैश्च खड्गैः शूलैः परश्वधैः॥
निजघ्नुर्वानरानीकं महाकाया महाबलाः॥५८॥

राक्षसांश्च तथा जघ्नुर्वानरा जितकाशिनः॥
तथा बभूव समरो मांसशोणितकर्दमः॥५९॥

रक्षसांवानराणां च संबभूवाद्भुतोपमः॥
ते हयैश्च गजैश्चैव रथैः कांचनसन्निभैः॥६०॥

रक्षोव्याघ्रा युयुधिरे नादयंतो दिशो दश॥
राक्षसाश्च कपींद्राश्चपरस्परजयैषिणः॥६१॥

राक्षसान्वानरा जघ्नुर्वानरांश्चैवराक्षसाः॥
रामेण विष्णुना दृष्टा हरयो दिविजांशजाः॥६२॥

बभूवुर्बलिनो हृष्टास्तदा पीतामृता इव॥
सीताभिमर्षपापेन रावणेनाभिपालितान्॥६३॥

और बड़े बड़े हैं शरीर जिनके ऐसे जे वानर ते वृक्षों करके और पर्वतों करके और नखों करके और दांतोंकरके राक्षसोंको बड़ेवेगसे मारतेहुये और बड़ेभयं-

कर और बड़ेबलवान् औरबड़े जिनके शरीर ऐसेजेराक्षसहैं तेसब द्वारोंसे निकलके ५७ तलवारों करके और शूलों करके और फरसों करके और भिन्दिपालोंकरके वानरोंको मारतेहुये ५८ और जय करके शोभित जेवानरहैं तेराक्षसों कोमारतेहुये और उस समयमें मांस और रुधिर इनकी है कीचड़ जिसमें ऐसाघोर संग्राम होताहुआ ५९ और वानरोंका और राक्षसोंका बड़ी भद्भुतहै उपमाजिसकी ऐसा संग्राम होताहुआ अब तेराक्षस घोड़ों करके और हाथियों करके और सुवर्णकासाहै प्रकाश जिनमें ऐसे रथों करके ६० दशोंदिशाओंको शब्द युक्तकरते हुये और राक्षस और वानर ये परस्पर जयकी इच्छा करतेहुये ६१ राक्षसोंको तो वानर मारतेहुये और वानरोंको राक्षस मारतेहुये और देवतोंके अंशसे उत्पन्न हुये जे वानर ते विष्णुरूप रामके देखनेसे ६२ जैसे अमृत पानकिया होय तैसे बलवान् और प्रसन्न होके सीताके स्पर्शसे पापी जो रावणतिस करके रक्षित और नष्टहोगई है लक्ष्मी जिनकी और नष्टहुआ है बल जिनका ऐसे जे राक्षस तिनको ६३॥

हतश्रीकान् हतबलान् राक्षसाञ्जघ्नुरोजसा॥
चतुर्थांशावशेषेणनिहतं राक्षसं बलम्॥६४॥

स्वसैन्यं निहतं दृष्ट्वा मेघनादोथ दुष्टधीः॥
ब्रह्मदत्तवरः श्रीमानंतर्द्धानं गतोसुरः॥६५॥

सर्वास्त्रकुशलो व्योम्नि ब्रह्मास्त्रेण समंततः॥
नानाविधानि शस्त्राणि वानरानीकमर्दयन्॥६६॥

ववर्ष शरजालानि तदद्भुतमिवाभवत्॥
रामोऽपि मानयन्ब्राह्ममस्त्रमस्त्रविदाम्बरः॥६७॥

क्षणं तूष्णीमुवासाथ ददर्श पतितं बलम्॥
वानराणां रघुश्रेष्ठश्चुकोपानलसन्निभः॥६८॥

चापमानय सौमित्रे ब्रह्मास्त्रेणासुरं क्षणात्॥
भस्मीकरोमि मेपश्य बलमद्य रघुत्तम॥६९॥

मेघनादोपि तच्छ्रुत्वा रामवाक्यमतंद्रितः॥
तुर्णं जगाम नगरं मायया मायिकोऽसुरः॥७०॥

बड़े बलसे मारतेहुये इस प्रकार चौथ्याई तो राक्षसों की सेना बाकीरही और सब वानरोंने नाशको प्राप्तकरवी ६४ अब अपनी सेनाको मरीहुई देखकेदुष्टहै बुद्धि जिसकी और ब्रह्मासे जिसको वर प्राप्तहुआहै ऐसा जो लक्ष्मी युक्तमेघनाद सो अन्तर्द्धनको प्राप्त होताहुआ ६५ और सब अस्त्र विद्यामें कुशलजो मेघनाद सो आकाशमें छिपके ब्रह्मास्त्रके प्रभाव करके वानरोंकी सेनाको पीड़ित करताहुमा अनेक अस्त्र शस्त्रोंकीं आकाशसे वृष्टि करताहुआ ६६ औरे बाणोंके समूहको वर्षाताहुआ सोबड़ा अद्भुतचरित्रहुआ और अस्त्र विद्याके जानने वालोंमें श्रेष्ठ जोराम सोभी ब्रह्मास्त्रकामान करतेहुये क्षणमात्रमौन स्थित होतेहुये ६७ अब इसके उपरान्त श्रीरामचन्द्र ब्रह्मास्त्रके प्रभाव करके

वानरोंकी सेनाको गिरीहुई देखतेहुये और फिर देखके अग्निके तुल्य जोरामसो क्रोध करते हुये ६८ और लक्ष्मणसे यहकहते हुये कि हे लक्ष्मण मेराधनुषलावो मैं ब्रह्मास्त्र करके क्षण मात्रमें सब असुरोंको भस्म करताहौं अब मेरेबलको तुमदेखो ६९ अब मेघनादभी यहरामका वचन सुनिकै सावधान हो शीघ्रही मायाकरके अपने नगरको जाताहुआ और वहबड़ा मायावीहै ७०॥

पतितं वानरानीकं दृष्ट्वा रामोऽतिदुःखितः॥
उवाच मारुतिं शीघ्रं गत्वा क्षीरमहोदधिम्॥७१॥

तत्र द्रोणगिरिर्नाम दिव्यौषधिसमुद्भवः॥
तमानय द्रुतं गत्वा संजीवय महामते॥७२॥

वानरौघान्महासत्वान्कीर्तिस्ते सुस्थिरा भवेत्॥
आज्ञाप्रमाणमित्युक्त्वा जगामानिलनंदनः॥७३॥

आनीय च गिरिं सर्वान्वानरान्वानरर्षभः॥
जीवयित्वा पुनस्तत्र स्थापयित्वाययौ द्रुतम्॥७४॥

पूर्ववद्भैरवं नादं वानराणां बलौघतः॥
श्रुत्वाविस्मयमापन्नो रावणो वाक्यमब्रवीत्॥७५॥

राघवो मे महाञ्छत्रुः प्राप्तो देवविनिर्मितः॥
हंतुं तं समरे शीघ्रं गच्छंतु मम यूथपाः॥७६॥

मंत्रिणोबांधवाः शूरा ये च मत्प्रियकांक्षिणः॥
सर्वे गच्छन्तु युद्धाय त्वरितं मम शासनात्॥७७॥

अब श्रीराम पृथिवीमें पड़ीहुई अपनी वानरोंकी सेनाको देख के बड़ेदुःखित हो हनुमान् से बोले कि हे हनुमन् तुम शीघ्रही क्षीरसागर समुद्रकोजाके ७१ तहां दिव्य औषधियोंका उत्पत्ति करनेवाला एकद्रोण नामकरके पर्वतहै तिसको ल्याइकै शीघ्रही इसवानरोंकी सेनाको जिवाइये ७२ तो हे श्रेष्ठमति हनुमन् तुम्हारी बड़ी संसार में कीर्तिहोगी तबपवनका पुत्र हनुमान् आपकी आज्ञा मुझको अवश्यकरना चाहिये ऐसा रामसे कहिकै जाताहुआ ७३ फिर वानरोंमें में श्रेष्ठ जो हनुमान् सो द्रोणाचल पर्वतको ल्याइकरके सब वानरों को जिवाकर और फिर उस पर्वतको उसी स्थानपै स्थापन करके शीघ्रही आताहुआ ७४ अब पहिलेकी तरह वानरोंकी सेनाका घोरशब्द सुनिकै बड़ेआश्चर्यको प्राप्तहो रावण यह वचन बोलता हुआ ७५ कि देवतों करके रचाहुआ राममेरा बड़ाभारी शत्रु प्राप्तहुआ है इससे तिस रामके मारनेको संग्राम में शीघ्रही मेरे सेनापति जावैं ७६ और जे कोई मन्त्री लोगहैं और जे कोई भाई बन्धुओं में मेरी प्रीति करनेवाले शूरहैं ते सब शीघ्रही मेरी आज्ञासे युद्धकरनेको जायँ ७७ ॥

ये न गच्छन्ति युद्धाय भीरवः प्राणविप्लवात्॥
तानहनिष्याम्यहं सर्वा

   न्मच्छासनपराङ्मुखान्॥७८॥

तच्छ्रुत्वा भयसंत्रस्ता निर्जग्मू रणकोविदाः॥
अतिकायः प्रहस्तश्च महानादमहोदरौ॥७९॥

देवशत्रुर्निकुंभश्च देवांतकनरांतकौ॥
अपरे बलिनः सर्वे ययुर्युद्धाय वानरैः॥८०॥

एते चान्ये च बहवःशूराः शतसहस्रशः॥
प्रविश्य वानरं सैन्यं ममंथुर्बलदर्पिताः॥८१॥

भुशुंडैर्भिदिपालैश्च बाणैः खड्गैः परश्वधैः॥
अन्यैश्च विविधैरस्त्रैर्निर्जघ्नुर्हरियूथपान्॥८२॥

ते पादपैः पर्वताग्रैर्नखदंष्टैश्च मुष्टिभिः॥
प्राणैर्विमोचयामासुः सर्वराक्षसयूथपान्॥८३॥

रामेण निहताः केचित्सु ग्रीवेण तथापरे॥
हनूमता चांगदेन लक्ष्मणेन महात्मना॥८४॥

और जे कोई प्राणों के नाशके भयसे संग्रामसे डरेहुये युद्ध करनेको नहींजावेंगे तिन सबोंको मैं मार डालौंगा क्योंकि वे मेरी आज्ञाके उल्लंघन करने वाले हैं ७८ अवयह रावणका वचन सुनिकें रावणकी भयसे बड़े त्रासको प्राप्तहो के युद्धकरने में बड़े बड़े चतुर जे वीरथे ते निकलते हुये इसका आशय यहहै कि उन राक्षसोंने यह विचार किया कि मृत्युसे तौ बचिनहीं सक्ते तिस में रावणके हाथ मरने में तो यशकी हानि और नरककी प्राप्तिहै इससे राम होके हाथ मरना श्रेष्ठहै क्योंकि उसमें यश और सद्गति दोनों प्राप्तहोवेंगे अब जे राक्षस जाते हुये हैं तिनका नाम कहते हैं अतिकाय और प्रहस्त और महानाद और महोदर ७९ और देवशत्रु और निकुंभ और देवान्तक और नरान्तक और इनको आदिलेकै और भी जेबली राक्षसहैं ते सब वानरोंके संगयुद्ध करनेको जातेहुये ८० और जे इनके सिवाय बहुतसे हजारोंशूर बल करके गर्वित हुये वानरोंकी सेनामें प्रवेश करके वानरोंको दहीके तरह बिलोवते हुये ८३ और वे सब राक्षस भुगुण्डी औ भिन्दिपाल और बाण और फरसा इन शस्त्रों करके वानरोंको मारते हुये ८२ और वे वानर भी वृक्ष और शिला और नख और डाढ़ और घूंसे इन करके सब राक्षसों के सेना पतियोंको प्राणों से वियोग करादेते हुये अर्थात् मारते हुये ८३ तिसमें कितने राक्षस तौ राम ने मारे और कितनेही सुग्रीवने मारे और कितनेही हनुमान् और अंगदने मारे और कितने महात्मा जो लक्ष्मण तिसने मारे और बाकी राक्षस रहे ते वानरों के सेनापतियों करके मारेगये८४॥

यूथपैर्वानराणां ते निहताः सर्वराक्षसाः॥
रामतेजः समाविश्य वानरा बलिनोभवन्॥
रामशक्तिविहीनानामेवं शक्तिः कुतोभवेत्॥८५॥

सर्वेश्वरः सर्वमयो विधाता
मायामनुष्यत्वबिडंबनेन॥
सदाचिदानन्दमयोऽपि रामो
युद्धादिलीलां वितनोति मायाम्॥८६॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे युद्धकांडे पंचमःसर्गः॥५॥

क्योंकि रामके तेजको प्राप्तहोके बानर बलवान् होजाते हुये और वानरोंके शत्रु जो राक्षस तिनको राम शक्तिसे हीन होनेसे कैसे शक्ति होसक्ती है ८५ और सबका ईश्वर और सर्वस्वरूप और सबके रचनेवाला और सब कालमें चिदानन्दमय ऐसा जो राम सो मनुष्य भावकी नकल करके युद्धादिलीलारूप जो अपनी मायाहै तिसको विस्तार कररहाहै ८६॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे युद्धकाण्डे भाषाटीकायां पञ्चमः सर्गः॥५॥

श्रुत्वा युद्धे बलं नष्टमतिकायमुखं महत्॥
रावणो दुःखसंतप्तः क्रोधेन महता वृतः॥१॥

निधायेंद्रजितं लंकारक्षणार्थं महाद्युतिः॥
स्वयं जगाम युद्धाय रामे सह राक्षसः॥२॥

दिव्यं स्यंदनमारुह्य सर्वशस्त्रास्त्रसंयुतम्॥
राममेवाभिदुद्राव राक्षसेन्द्रो महाबलः॥३॥

वानरान् बहुशो हत्वा बाणैराशीविषोपमैः॥
पातयामास सुग्रीवप्रमुखान्यूथनायकान्॥४॥

गदापाणिंमहासत्वं तत्र दृष्ट्वा विभीषणम्॥
उत्ससर्ज महाशक्तिं मयदत्तां विभीषणे॥५॥

तामापतंतीमालोक्य विभीषणविघातिनीम्॥
दत्ताभयोयं रामेण बधार्हो नायमासुरः॥६॥

इत्युक्त्वा लक्ष्मणो भीमं चापमादाय वीर्यवान्॥
विभीषणस्य पुरतः स्थितोकंप इवाचलः॥७॥

दो०॥ छठे सर्गमें लषणके असुर शक्तिप्रण कीन्ह॥
तबरघुनन्दनविरथकर तासुतुरतफलदीन्ह॥१॥

अब श्रीमहादेवजी पार्वती से कथा वर्णन करैहैं हे पार्वति तिलके उपरान्त रावण अतिकाय आदि सेनापतियों करके रक्षित सेनाओं का बध सुनिकै बड़ा दुःखितहो और क्रोधयुक्तहोके १ इन्द्रजित् पुत्रको लंकाकी रक्षा के अर्थ स्थापनकर आपही राम के साथ युद्धकरने को जाता हुआ २ अवबड़ी कान्तियुक्त और बड़ा बलवान् जो रावण सो सब शस्त्र अस्त्रोंकर के युक्तदिव्य रथके ऊपर चढ़ करके रामके सम्मुख दौड़ताहुआ ३ औरसर्पके तालुके मध्य मेंजो दन्त होताहै उसका नाम आशी है तिसके विषके समान जे अपने बाण तिन करके रावण बहुत से वानरों को मारके और सुग्रीव आदिसेनापतियों को

संग्राम में गिरा देताहुआ ४ अब उस जगह गदाको हाथमें लिये और बड़ा बलवान् ऐसे विभीषण को रावण देखके उसके मारनेको मयनामदानव की दी हुई जो अमोघ शक्तितिसको छोड़ताहुआ ५ अब विभीषण के नाश करने वाली आतीहुई जो वह शक्ति अर्थात् सांग तिसको बड़े बलवान् जो लक्ष्मण जी सो देखके यह विचार करते हुयेकि रामने इसको अभय दे रक्खा है इस सेयह विभीषणबधके योग्यनहीं है ६ ऐसा कहिकै धनुष लैकै विभीषण के आगे आपही लक्ष्मण पर्वतकी नाईंस्थित होतेहुये ७॥

सा शक्तिर्लक्ष्मणतनुं विवेशामोघशक्तितः॥
यावंत्यः शक्तयो लोके मायायाः संभवति हि॥८॥

तासामाधारभूतस्य लक्ष्मणस्य महात्मनः॥
मायाशक्या भवेत्किं वा शेषांशस्य हरेस्तनोः॥९॥

तथापि मानुषं भावमापन्नस्तदनुव्रतः॥
मूर्च्छितः पतितो भूमौ तमादातुं दशाननः॥१०॥

हस्तैस्तोलयितुं शक्तो न बभूवातिविस्मितः॥
सर्वस्य जगतः सारं विराजं परमेश्वरम्॥११॥

कथं लोकाश्रयं विष्णुं तोलयेल्लघुराक्षसः॥
ग्रहीतुकामं सौमित्रिं रावणं वीक्ष्यमारुतिः॥१२॥

आजघानोरसि क्रुद्धो वज्रकल्पेन मुष्टिना॥
तेन मुष्टिप्रहारेण जानुभ्यामपतद्भुवि॥१३॥

आस्यैश्च नेत्रश्रवणैरुद्वमन् रुधिरं बहु॥
विघूर्णमाननयनो रथोपस्थ उपाविशत्॥१४॥

अब वहरावणकी चलाई हुईशक्ति अमोघथी इसकारणसे लक्ष्मणजीकी छाती को विदारण करके शररिमें प्रवेशकरती हुई है और लोकमेंजितनी शक्तियां हैं वे सब मायाहीसे प्रकट हुआ करती हैं ८ तिन सब शक्तियोंका आधार औरे शेषका अवतार ऐसा जोनारायणका तनु महात्मा लक्ष्मण तिसका मायारूप शक्ति करके क्या होनाहै ९ अर्थात् सब मायाओंका प्रेरणकरने वाले ईश्वरको माया कुछ नहीं करसक्ती है तौभी मनुष्य भावको मानते हुये जो लक्ष्मणहैं सो मूर्च्छित होके पृथिवीमें गिरपड़ते हुये तिन लक्ष्मणको रावण अपनी बीस भुजाओं से बहुतेरा उठावतारहा १० परन्तुनहीं उठासका इससे अत्यन्त विस्मित होताहुआ और सब जगत्‌का सारभूत विराटरूप जो विष्णुतिसको ११ लघु राक्षस कैसे उठासके अब लक्ष्मणको उठानेलगा जो रावण तिसको हनुमान् देखके १२ क्रोध करके उस रावणकी छातीमें वज्र तुल्य मुष्टिका करके प्रहार करता हुआ तिल मुष्टिका के प्रहार करके रावण घोटुओं को टेक करके पृथिवीमें गिरतापड़ता हुआ १३ फिर वहांसे उठकर दशमुखों से और नेत्रोंसे बहुतसे रुधिरको वसन करता हुआ और नेत्रोंको चलाता हुआ रथमें गिरपड़ता हुआ १४॥

अथ लक्ष्मणमादाय हनूमान् रावणार्दितम्॥
आनयद्रामसामीप्यं बाहुभ्याम्परिगृह्य तम्॥१५॥

हनूमतः सुहृत्त्वेन भक्त्या च परमेश्वरः॥
लघुत्वमगमद्देवो गुरूणां गुरुरप्यजः॥१६॥

सा शक्तिरपि तं त्यक्त्वा ज्ञात्वा नारायणांशजम्॥
रावणस्य रथं प्रागाद्रावणोपि शनैस्ततः॥१७॥

संज्ञामवाप्य जग्राह बाणासनमथो रुषा॥
राममेवाभिदुद्राव दृष्ट्वा रामोऽपि तं क्रुधा॥१८॥

आरुह्य जगतां नाथो हनूमंतं महाबलम्॥
रथस्थं रावणं दृष्ट्वा अभिदुद्राव राघवः॥१९॥

ज्याशब्दमकरोत्तीव्रं वज्रनिष्पेषनिष्ठुरम्॥
रामो गंभीरया वाचा राक्षसेंद्रमुवाचह॥२०॥

राक्षसाधम तिष्ठाद्य क्व गमिष्यसि मे पुरः॥
कृत्वापराधमेवं मे सर्वत्र समदर्शिनः॥२१॥

अब इसके उपरांत रावणकरके पीड़ित जो लक्ष्मण तिनको हनुमान् अपनी भुजाओं करके उठाकर रामके समीप प्राप्त करताहुआ १५ हनुमान् को तौ सुहृद् भावसे और भक्ति करके त्रैलोक्यभार रूपभी परमेश्वर है परन्तु हलका होजाता हुआ १६ और जो वह लक्ष्मणके शक्ति लगीथी सोभी लक्ष्मण को नारायण के अंशसे उत्पन्न जानिकै लक्ष्मणको त्यागके फिररावणके रथही में जाके प्राप्त हुई १७ और रावणभी धीरे धीरे सचेत होके धनुषवाण लैके और क्रोध करके रामके सन्मुख दौड़ता हुआ और जगत्के स्वामी जो रामहें सोभी क्रोध करके रथके ऊपर स्थित जो रावण तिसको देखके १८ महाबली जो हनुमान् तिसके ऊपरचढ़के रावण के सम्मुख दौड़तेहुये १९ और बिजुली के गिरने में जैसा शब्द होवै तैसा शब्द धनुषके प्रत्यंचाका करते हुये और फिर गंभीर वाणीकरके श्रीराम रावणसे बोलते हुये २० कि हे राक्षसों में अधम रावण सर्वत्र समदर्शी जो मैंहौं तिलका इतना बड़ाभारी अपराध करके तू कहां भागके जावेगा इससे मेरे आगे स्थितही रहना चाहिये अर्थात् ऐसा कोई स्थान नहीं है जहां तू जाय और मैं वहां न हो और यथोचित दण्डदेनाही मेरी समदर्शिताहै २१॥

येन बाणेन निहता राक्षसास्ते जनालये॥
तेनैव त्वां हनिष्यामि तिष्ठाद्य मम गोचरे॥२२॥

श्रीरामस्य वचः श्रुत्वा रावणो मारुतात्मजम्॥
वहंतं राघवं संख्ये शरैस्तीक्ष्णैरताडयत्॥२३॥

हतस्यापि शरैस्तीक्ष्णैर्वायुसूनोः स्वतेजसा॥
व्यवर्द्धत पुनस्तेजो ननर्द च महाकपिः॥२४॥

ततो दृष्ट्वा हनूमंतं सब्रणं रघुसत्तमः॥
क्रोधमाहारयामास कालरुद्र इवापरः॥२५॥

साश्वं रथं ध्वजं सूतं शस्त्रौघं धनुरंजसा॥
छत्रं पताकां तरसा चि

** च्छेद सितशायकैः॥२६॥**

ततो महाशरेणाशु रावणं रघुसत्तमः॥
विव्याध वज्रकल्पेन पाकारिवि पर्वतम्॥२७॥

रामबाणहतो वीरश्चचाल च मुमोह च॥
हस्तान्निपतितश्चापस्तं समीक्ष्य रघूत्तमः॥२८॥

और पंचवटी स्थान में जिस बाण करके मैंने राक्षस मारेहैं उसीवाणकरके तुझको भी सारूंगा अर्थात् विषके बुझेहुये वाणसे नहीं मारूंगा इससे तू संग्राम में मेरे आगे खड़ा रहू २२ अव रावण यह श्रीरामका बचन सुनिकै संग्राम में श्रीराम को लै चलनेवाला जो हनुमान् तिसको बड़े पैने बाणों करके ताड़न करताहुआ २३ अव रावणके पैने बाणकरके ताड़न कियाहुआ भी जो हनुमान् तिसका तेज अपने असाधारण रुद्रतेज करिकै और अधिक बढ़ताहुया और हनुमान् गर्जताहुआ२४ तब श्रीरामचन्द्र हनुमान्को घायल देखकर प्रलयकालके रुद्रके तुल्य बड़ाभारी क्रोध उत्पन्नकरतेहुये २५ फिर घोड़ों करके सहित रावणके रथको और ध्वजाको और सारथी और शस्त्रों के समूहको और धनुपको और रावणके छत्रको और पताकाओं को एकहीकाल सें श्रीराम अपने पैने बाणों करिकै काटिडालतेहुये २६ तिसके उपरान्त वज्र के तुल्य एक बड़ेभारी बाणकरिकै श्रीराम रावणको ताड़न करतेहुये जैसे इन्द्रवज्र करिकै पर्वतको भेदनकरै २७ अव रामके बाण करिकै विदारण किया हुआ जो रावण सो यद्यपि वीरहै तौभी चलायमान होताहुआ और मूर्च्छाको प्राप्तहोताहुत्रा और रावणके हाथसे धनुष भी छूटगया अब श्रीरामचन्द्र ऐसी दशा रावणकी देखकर २८॥

अर्द्धचन्द्रेण चिच्छेद तत्किरीटं रविप्रभम्॥
नुजानामि गच्छ त्वमिदानीं बाणपीडितः॥२९॥

प्रविश्य लंकामाश्वास्य श्वः पश्यसि बलं मम॥
रामबाणेन संविद्धो हतदर्पोथ रावणः॥३०॥

महत्या लज्जया युक्तो लंकां प्राविशदातुरः॥
रामोऽपि लक्ष्मणं दृष्ट्वा मूर्च्छितं पतितं भुवि॥३१॥

मानुषत्वमुपाश्रित्य लीलयालुशुशोच ह॥
ततः प्राह हनूमंतं वत्स जीवय लक्ष्मणम्॥३२॥

महौषधीः समानीय पूर्ववद्वानरानपि॥
तथेति राघणोक्तो जगामाशु महाकपिः॥३३॥

हनुमान्वायुवेगेन क्षणात्तीर्त्वा महोदधिम्॥
एतस्मिन्नंतरे चारा रावणाय न्यवेदयन्॥३४॥

रामेण प्रेषितो देव हनूमान्क्षीरसागरम्॥
गतो नेतुं लक्ष्मणस्य जीवनार्थं महौषधीः॥३५॥

प्राण हरनेवाले बाणको नहीं चलातेहुये क्या तौएकअर्द्धचन्द्राकार बाण

करिकै सूर्यके तुल्य जो उसका मुकुटहै तिसको काटके और यह कहते हुये कि इससमय में तू बाणसे पीड़ितहैं इससे तुझको मैं आज्ञादेता हौं कि यहां से चलाज़ा २९ और लंकामें प्रवेश करके और अपने मित्रजनोंके चित्त को सावधानकरके प्रातःकाल आके मेरे बलको देखेगा अब राम बाण करिकै ताड़ित इसीसे नष्ट हो गया है गर्वजिसका ऐसा जो रावण ३० सोबड़ीभारी लज्जाकरिकै युक्त और व्याकुलहो लंका में प्रवेश करताहुआ और श्रीरामचंद्र भी मूर्च्छित और पृथिवीमें पड़ाहुआ लक्ष्मणको देख के ३१ मनुष्यभावको प्राप्तहो लीलाही करिकै शोचकरते हुये तिसके उपरान्त हनुमान्से यह बचन बोले कि हे वत्सलक्ष्मणको जियाओ३२ और दिव्य औषधियोंको ल्याकै पहिले की तरह वानरोंको भी जियाओ अब तैसेई रामकरिकै आज्ञाको प्राप्त हनुमान् शीघ्रही जाताहुआ३३ और यह प्रतिज्ञा करताहुआ कि मैं पवनके वेग करिकै क्षण भरेमें समुद्रके पारहोकै औषधियोंको ल्याताहौं अब उससमयमें रावणके दूत जाके रावणसे खबरिकरतेहुये ३४ कि हेदेव रामका भेजाहुचा जोहनुमान् सोलक्ष्मणके जिवानेको औषधियों के लेनेकोक्षीरसागर समुद्रकोगयाहै ३५॥

श्रुत्वा तच्चारवचनं राजा चिंतापरोभवत्॥
जगाम रात्रावेकाकी कालनेमिगृहं क्षणात्॥३६॥

गृहागतं समालोक्य रावणं विस्मयान्वितः॥
कालनेमिरुवाचेदं प्रांजलिर्भयविह्वलः॥
अर्घ्यादिकं ततः कृत्वा रावणस्याग्रतः स्थितः॥३७॥

किं ते करोमि राजेंद्र किमागमनकारणम्॥
कालनेमिमुवाचेदं रावणो दुःखपीडितः॥३८॥

ममापि कालवशतः कष्टमेतदुपस्थितम्॥
मया शक्त्या हतो वीरो लक्ष्मणः पतितो भुवि॥३९॥

तं जीवयितुमानेतुमोषधीर्हनमान्गतः॥
यथा तस्य भवेद्विघ्नं तथा कुरु महामते॥४०॥

मायया मुनिवेषेण मोहयस्व महाकपिम्॥
कालात्ययो यथा मूयात्तथा कृत्वैहि मन्दिरे॥४१॥

रावणस्य वचः श्रुत्वा कालनेमिरुवाच तम्॥
रावणेश वचो मेद्य शृणु धारय तत्त्वतः॥४२॥

** **फिर येदूतोंके वचन सुनिकै रावण बढ़ीचिन्तायुक्त होताहुआ और रात्रिमें अकेला कालनेमि दैत्यके गृहको जाताहुआ ३६ अब अपनेघर आयेहुये रावण को कालनेसि देखिकैबड़े आश्चर्य युक्त हुआ और रावणको अर्धपाद्यादिकों करिकै पूजन कर भयकरके बिह्वलहो हाथ जोड़के रावण के आगे खड़े होकै यहवचन बोलता हुआ ३७ कि हेराजेन्द्र क्या मैं तुम्हारा कार्य करों सोकहिये और क्या तुम्हारे आनेका कारणहै तब दुःख करके पीड़ित रावण कालनेमि

से बोला ३८ किमित्रमुझकोभी कालवशसे वडाकष्ट उपस्थित हुआ है अर्थात् प्राप्तहुआकिमैंनेशक्तिकरके लक्ष्मण वीरकोमारा सो पृथिवीमें पड़ाहै ३९तिसके जिवानेको हनुमान् औषधी लेनेकोगयाहै सो हे श्रेष्ठमते जैसे उस हनुमान्को विघ्नहोवे तैसा उपाय तुमकरो ४० सोतुममाया करके मुनिके स्वरूपको धारणकर हनुमान्को मोहकरावो जिसमें रात्रि व्यतीतहोके प्रातःकाल हो जाय तैसा उपाय रचिकै फिर अपने मन्दिरमें प्राप्तहोउ ४१ अवयह रावणका वचनसुनिकै कालनेमि बोला कि हे ईश हेरावण इससमयमें मेरे वचन तुम सुनोऔर फिरउसका यथार्थमानिकै धारणकरो ४२॥

प्रियं ते करवाण्येव न प्राणान्धारयाम्यहम्॥
मारीचस्य यथारण्ये पुराभून्मृगरूपिणः॥४३॥

तथैव मे न संदेहो भविष्यति दशानन॥
हताः पुत्राश्च पौत्राश्च बांधवा राक्षसाश्च ते॥४४॥

घातयित्वा सुरकुलं जीवितेनापि किं तव॥
राज्येन वा सीतया वा किं देहेन जडात्मना॥४५॥

सीतां प्रयच्छ रामाय राज्यं देहि विभीषणे॥
वनं याहि महाबाहो रम्यं मुनिगणाश्रयम्॥४६॥

स्नात्वा प्रातःशुभजले कृत्वा संध्यादिकाः क्रियाः॥
तत एकान्तमाश्रित्य सुखासनपरिग्रहः॥४७॥

विसृज्य सर्वतः संगमितरान्विषयान्बहिः॥
बहिःप्रवृत्ताक्षगणं शनैः प्रत्यक्प्रवाहय॥४८॥

प्रकृतेर्भिन्नमात्मानं विचारय सदानघ॥
चराचरं जगत्कृत्स्नं देहबुद्धींद्रियादिकम्॥४९॥

और मैंतो तुम्हारा प्रिय करोंगा और प्राणोंको धारण नहीं करोंगा अर्थात् अपने प्राणों करकेभी तुम्हारा प्रिय करोंगा और जैसे पहिले वन में मृगरूप को धारणकरे मारीचकी दशाहुई तैसेमेरीभी होगी ४३ हेरावण इस में कुछ मुझको संदेह नहींहै परन्तुमैंतुमसे यह कहताहौंकिजब तुम्हारे पुत्रभीसव मरिगये और पौत्रभी मरिगये और भाई बन्धु राक्षसभी सब मारेगये ४४ तबसव असुरकुलको मरवाके अपने जीवनकरके क्याकरोगे और राज्यकरके और सीता करके और जड़रूप देह करकेभी तुम का क्याफल होना है ४५ इससे सीताको तौ रामके अर्थ दीजिये और राज्य विभीषण को देवो और, मुनिगण जिसमें वास करतेहैं ऐसे रमणीय वनको तुमजावो ४६ और फिर तिस वनमें प्रातःकाल तीर्थजलमें स्नान करके संध्योपासनादिक जो नित्य क्रियाहैं तिन्हों करके फिर एकांत स्थानमें सुख जनक जो आसन है तिसके ऊपर बैठिकै ४७ फिर सब जगहसे संगको अर्थात् आसक्ति को त्याग करके और बाहरके विषयजे वासना रूप करके हृदय में प्रविष्ट होरहे हैं तिनको

बाहर निकालिक और बाहर के विषयोंमें प्रवृत्त होरहा जो इन्द्रियों का समूह तिसको धीरेधीरे आत्मामें लगावो अर्थात् मनके अधीन सबइन्द्रियहैं इससे मनहीको सबजगह से खैंचिकै आत्मध्यान परायण करौ तबसब चक्षुरादि इन्द्रिय आपही आत्म विषयहोजावैंगी ४८ और हे अनघ आत्मरूप प्रकृति से भिन्न जुदाजोआत्माहै तिसका तुमसदा विचारकरौ और सम्पूर्ण चराअचरजो जगत्है और देहबुद्धि इन्द्रियादिक ४९॥

आब्रह्मस्तम्बपर्यंतं दृश्यते श्रूयते च यत्॥
सैषा प्रकृतिरित्युक्ता सैव मायेति कीर्तिता॥५०॥

सर्गस्थितिविनाशानां जगद्वृक्षस्य कारणम्॥
लोहितश्वेतकृष्णादिप्रजाः सृजति सर्वदा॥५१॥

कामक्रोधादिपुत्राद्यान् हिंसातृष्णादिकन्यकाः॥
मोहयत्यनिशं देवमात्मानं स्वैर्गुणैर्विभुम्॥५२॥

कर्तृत्वभोक्तृत्वमुखान्स्वगुणानात्मनश्विरे॥
आरोप्य स्ववशं कृत्वा तेन क्रीडति सर्वदा॥५३॥

शुद्धोप्यात्मा यया युक्तो पश्यतीव सदा बहिः॥
विस्मृत्य च स्वमात्मानं मायागुणविमोहितः॥५४॥

यदा सद्गुरुणा युक्तो बोध्यते बोधरूपिणा॥
निवृत्तदृष्टिरात्मानं पश्यत्येव सदा स्फुटम्॥५५॥

जीवन्मुक्तः सदा देही मुच्यते प्राकृतैर्गुणैः॥
त्वमप्येवं सदात्मानं विचार्य्य नियतेन्द्रियः॥५६॥

** **ब्रह्मासे लेके तृण पर्यंत जो कुछ देखने में आता है और सुननेमें आताहै उसको प्रकृति कहतेहैं और उसीको मायाभी कहते हैं ५० सो यह प्रकृति संसार रूपी जो वृक्षहै तिसकी उत्पत्ति और स्थिति और नाश इनका कारण है और लाल और सफेद और काला इसभेद करके तीन प्रकारकी जोप्रजा है तिसको सदा रचतीहै अर्थात् सात्विक राजस तामस भेदसे तीन प्रकारकी पूजाको प्रकृति रचतीहै तहां श्वेतसत्त्वगुणहै और रक्तरजोगुण है और काला तमोगुण जानना ५१ फिर वह प्रकृति कामक्रोधादिक जे पुत्रहैं तिनको रचरहीहै और हिंसा तृष्णादिक जो कन्याहैं तिनको रचतीहै और अपनेगुणोंकर के सर्वत्र व्यापक प्रकाश रूप जो आत्मा तिसको निरन्तर मोहकरारही है अर्थात् अपने रचेहुये जे पदार्थहैं तिनमें अहंमम यह मैं हौंयह मेराहै ऐसी बुद्धिकरके युक्त आत्मा को करतीहै ५२ और कर्तृत्व भोक्तृत्वादिक जे अपने गुणहैं तिनको आत्माजो ईश्वर तिसके विषे आरोपणकरके और आत्माको अपने आधीनकरके तिसके साथ प्रकृति सदा क्रीड़ा करती है इसका आशय यह है कि जबतक जीव अविवेककरके मैं करनेवालाहौंऔर मैं भोगनेवालाहौं ऐसा अपनाको मानता है तबतक प्रकृतिके आधीनहो जन्ममरणहीको प्राप्तहोताहै यही प्रकृतिका क्रीड़ा

करनाहुया ५३ और शुद्ध भी यह आत्माहै सो जब माया करके युक्त होताहै तब मायाके गुणों करके विमोहितहो अपने स्वरूपको भूलिकैबाहरके जे बिपयहैं तिनको देखताहोय ऐसा प्रतीत होताहै ५४ और जब ज्ञानी और परम दयालु सद्गुरु करके बोधको प्राप्त होताहै तब विषयोंसे दृष्टिको निवृत्तकर स्पष्ट अपने आत्मस्वरूपको देखताहै ५५ फिर उस गुरूकी कृपाते आत्मध्यान करताहुआ जीवन्मुक्तहो प्रकृतिके गुणोंसे छूटिजाताहै और हे रावण ऐसे तुम भी आत्माको विचारकर जितेंद्रिय होवो ५६॥

प्रकृतेरन्यमात्मानं ज्ञात्वा मुक्तो भविष्यसि॥
ध्यातुं यद्यसमर्थोसि सगुणं देवमाश्रय॥५७॥

हृत्पद्मकर्णिके स्वर्णपीठे मणिगणान्विते॥
मृदुश्लक्ष्णतरे तत्र जानक्या सह संस्थितम्॥५८॥

वीरासनं विशालाक्षं विद्युत्युंजनिभांवरम्॥
किरीटहारकेयूरकौस्तुभादिभिरन्वितम्॥५९॥

नूपुरैः कटकैर्भातं तथैव वनमालया॥
लक्ष्मणेन धनुर्द्वंद्वकरेण परिसेवितम्॥६०॥

एवं ध्यात्वा सदात्मानं रामं सर्वहृदि स्थितम्॥
भक्त्या परमया युक्तो मुच्यते नात्र संशयः॥६१॥

शृणु वै चरितं तस्य भक्तैर्नित्यममन्यधीः॥
एवं चेत्कृतपूर्वाणि पापानि च महांत्यपि॥
क्षणादेव विनश्यंति यथाऽग्नेस्तूलराशयः॥६२॥

भजस्व रामे परिपूर्णमेकं
विहाय वैरं निजभक्तियुक्तः॥
हृदा सदा भावितभावरूप-
मनामरूपं पुरुषं पुराणम्॥६३॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे युद्धकांडे षष्ठः सर्गः॥६॥

** **और प्रकृतिसे भिन्न आत्माको जानिकै तुम मुक्तहोजावोगे और मेरे कहे हुये प्रकार करके ध्यानकरनेको जो असमर्थ होउ तौ सगुण वेदका आश्रवण करि सगुण स्वरूपका ध्यानकरौ ५७ इस प्रकार करके हृदय रूप कमल की कर्णिकाके मध्यमें मणिगणों करके युक्त और कोमल और चिकना ऐसा जो सुवर्णका सिंहासन तिसके ऊपर स्थित सीता करके सहित ५८ श्रीराम का ध्यानकरो कैसे हैं श्रीराम वीर आतनकरके स्थितहैं और विशाल जिनके नेत्र है और विजुलियोंके समूहके तुल्य जिसकी कांलि ऐसा पीताम्बर धारणकरे हैं और किरीट औरहार औरकेयूर बहुंटा और कौस्तुभमणि आदि आभूषणोंकरके अलंकृतहैं ५९ औरनूपुर अर्थात् पवटे और कड़े इन्हों करके प्रकाशमान और वनमाला करके शोभित और धनुषको स्पर्श कररहे हैं दोहाथ जिनके ऐसे लक्ष्मण करके सेवितहें ६० इसप्रकार सबकालमें सबके हृदयमें स्थित परमात्मा जो राम तिनका ध्यान करके परमभक्ति करके युक्त जो पुरूष सो मुक्त

होताहै इसमें कुछ संशय नहीं है ६१ फिर तिसके उपरान्त भक्तोंकर के वर्णन कियाहुआ जो श्रीरामचरित्र तिसको हे रावण तुमएकाग्रचितहोकै श्रवणकरो इसप्रकार करनेसे संपूर्ण पूर्वजन्मके कियेहुये जे पापहैं ते रुई के समूहकी तरह नाशको प्राप्तहोजावेंगे इसमें कुछ संशय नहीं है ६२ इससे हे रावण तुम बैर भावकोत्यागकरके और भक्तियुक्तहो सदाहृदयमें ध्यानकराहुआ नामरूप रहित एक अद्वितीय सबजगहपरिपूर्ण पुराणपुरुषजो श्रीराम तिनकाभजनकरौ ६३॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे युद्धकाण्डे भाषाटीकायां षष्ठस्सर्गः॥६॥

कालनेमि वचः श्रुत्वा रावणोऽमृतसन्निभम्॥
जज्वाल क्रोधताम्राक्षः सर्पिरद्भिरिवाग्निमत्॥१॥

निहन्मि त्वां दुरात्मानं मच्छासनपराङ्मुखम्॥
परैः किंचित्गृहीत्वा त्वं भाषसे रामकिंकरः॥२॥

कालनेमिरुवाचेदं रावणं देव किं क्रुधा॥
न रोचते मे वचनं यदि गत्वा करोमि तत्॥३॥

इत्युक्त्वा प्रययौ शीघ्रं कालनेमिर्महासुरः॥
नोदितो रावणेनैव हनूमद्विघ्नकारणात्॥४॥

स गत्वा हिमवत्पार्श्वं तपोवनमकल्पयत्॥
तत्र शिष्यैः परिवृतो मुनिवेषधरः खलः॥५॥

गच्छतो मार्गमासाद्य वायुसूनोर्महात्मनः॥
ततो गत्वा ददर्शाथ हनूमानाश्रमं शुभम्॥६॥

चिंतयामास मनसा श्रीमान् पवननन्दनः॥
पुरा न दृष्टमेतन्मे मुनिमंडलमुत्तमम्॥७॥

दो०। सर्ग सातवें पवन सुत असुर हन्यो मुनिको॥
लषण जिवायो पुनिउठो कुंभकर्ण गतमोह १

अब श्रीमहादेवजी पार्वतीसे कथावर्णन करैहैं हेपार्वति अब रावण कालनेमके अमृततुल्य वचनसुनिकै क्रोधकरके लालहैं नेत्र जिसके ऐसाहो जैसे अग्निमें संतप्त घृतजलके विन्दु डारनेसे बरनेलगे ऐसा क्रोधाग्निकरके प्रज्वलि तहोताहुआ १ और यह बचनबोला कि मेरी आज्ञासे विमुखदुष्टात्मा जो तूहै तिसको मैं मारताहों जो तू शत्रुओंसे धनादिकलेके रामका किंकरहुआवचन बोलरहाहै २ तब कालनेमि रावणसे यह वचनबोलताहुआ कि हे देव क्रोध करके क्या प्रयोजनहै जो कदाचित् मेरावचन आपको नहीं रुचता है तो मैं जाकर आपकी आज्ञाकोकरताहौं ३ यह वचनकहिकै महाअसुर जो कालनेमि सो रावणकरके हनुमान् के विघ्नकरनेमें प्रेराहुआ शीघ्रही जाताहुत्रा ४ सोकालनेमि हिमालयपर्वतके समीपजाकर तपोवनकोरचताहुआ तिस तपोवनमें शिष्योंकरकेयुक्तमुनिवेषको धारणकरे दुष्टकालनेमि ५ गमनकरता हुआ जोमहात्मा हनुमान् तिसकेमार्ग में स्थितहोता हुआ तिसके अनन्तर हनुमान्

उस शुभआश्रमको देखताहुआ ६ और पवनकापुत्र हनुमान् उससमयमेंयह विचारकरता हुआ कि पहिले मैंने यहां इस ऋषिके आश्रमको नहीं देखाया ७॥

मार्गो विभ्रंशितो वा मे भ्रमो वा चित्तसंभवः॥
यद्वाऽविश्याश्रमपदं दृष्ट्वा मुनिमशेषतः॥८॥

पीत्वा जलं ततो यामि द्रोणाचलमनुत्तमम्॥
इत्युक्त्वाप्रविवेशाथ सर्वतो योजनायतम्॥९॥

आश्रमं कदलीशालखर्जूरपनसादिभिः॥
समावृतं पक्कफलैर्नम्रशाखैश्च पादपैः॥१०॥

वैरभावविनिर्मुक्तं शुद्धं निर्मललक्षणम्॥
तस्मिन्महाश्रमे रम्ये कालनेमिः स राक्षसः॥११॥

इन्द्रयोगं समास्थाय चकार शिवपूजनम्॥
हनूमानभिवाद्याह गौरेवेण महासुरम्॥१२॥

भगवन्रामदूतोऽहं हनूमान्नाम नामतः॥
रामकार्येण महता क्षीराब्धिं गन्तुमुद्यतः॥१३॥

तृषा मां बाधते ब्रह्मन्नुदकं कुत्र विद्यते॥
यथेच्छं पातुमिच्छामि कथ्यतां मे मुनीश्वर॥१४॥

** **सो क्या मेरेको वह मार्ग छूटि गया अथवा मेरे चित्तका भ्रम है अथवा इस विचार करके क्याहै अव में इस आश्रममें प्रवेशकर के औरमुनिका दर्शन करके ८ और जलपीके तब द्रोणाचलको जाउंगा यह कहिकै चारों तरफ से योजनभरेका है विस्तारजिसका ९ और पके हुयेहैं फल जिनके और झुकरहोहें डालियां जिन्होंकी ऐसे जे केले के वृक्ष और शाल के वृक्ष और कटहर औरखजूर आदि वृक्षोंकरके वेष्टित हो रहा है १० और वैरभाव करके रहित है और शुद्ध निर्मलहै स्वरूपजिसका ऐसा जो आश्रमतिसमें हनुमान् प्रवेश करताहुआ उसबड़ेशोभायमान आश्रममें वह महाअसुर कालनेमि ११ कपट योगकरके शिवपूजन करताहुआ तब हनूमान् उस महाअसुरको मुनिजानि के बड़ीगुरुतासे प्रणाम करके बोलते हुये १२ कि हे भगवन् मैं रामका दूतहौं और हनुमान् मेरानामहै सो रामकार्यके अर्थ क्षीरसागरको जायाचाहताहौं १३ और ब्रह्मन् प्यासमुझको वाधा करिरहीहै तो कहीं जलहोय तौ यथेष्ट में पानकरों सो कृपाकरके बताइये १४॥

तच्छ्रुत्वा मारुतेर्वाक्यं कालनेमिस्तमब्रवीत्॥
कमंडलुगतं तोयं मम त्वं पातुमर्हसि॥१५॥

भुंक्ष्व चेमानि पक्वानि फलानि तदनंतरम्॥
निवसस्व सुखेनात्र निद्रामेहि त्वरास्तु मा ॥१६॥

भूतं भव्यं भविष्यं च जानामि तपसा स्वयम्॥
उत्थितो लक्ष्मणः सर्वे वानरा रामवीक्षिताः॥१७॥

तच्छ्रुत्वा हनुमानाह कमंडलुजलेन मे॥
न शाम्यत्यधिका तृष्णा ततो दर्शय मे जलम्॥१८॥

तथेत्याज्ञापयामास वटुं मायाविकल्पितम्॥
वटो दर्शय

** विस्तीर्णं वायुसूनोर्जलाशयम्॥१९॥**

निमील्य चाक्षिणी तोयं पीत्वा गच्छ ममांतिकम्॥
उपदेक्ष्यामि ते मंत्रं येन द्रक्ष्यसि चौषधीः॥२०॥

तथेति दर्शितं शीघ्रं बटुना शलिलाशयम्॥
प्रविश्यहनुमान्तोयमपिबन्मीलितेक्षणः॥२१॥

** **यह हनुमान् के बचन सुनिकै कालनेबाला कि मेरे कमंडलुमें जो जल है तिसकोपीवो १५ तिसके अनन्तरपकेहुये जेफलहैं तिनका भोजनकरो और सुखपूर्वक यहां वासकरो और निद्राको प्राप्तहोवो और शीघ्रता मतकरो १६ क्योंकि अपने तपके प्रभावसे भूत अर्थात् जो होचुका है और भव्य अर्थात् जो होरहाहै और भविष्य जो होनेवाला है इस प्रकार तीनोंकालकी बातको मैं जानताहौंऔर रामके देखनेईसे लक्ष्मण और सब बानर उठतेहुये हैं १७ तौ हनुमान् बोले इस कमण्डलुके जलसे मेरी प्यास शांत न होगी इससे कहीं बहुतला जल दिखलाइये १८ तब तौ वह कालनेमि अपनी माया कर के एक ब्रह्मचारीको रचिकै उसको आज्ञाकी कि तुम इसहनुमान्को बढ़ाभारी जलाशय अर्थात् तालाब दिखादेवो १९ और हनुमान्से यह कहताहुआ कि हनुमन् तुम नेत्रोंको मूंदिकै जलपीके शीघ्रही मेरे समीप आवो फिर मैं तुमको ऐसे मन्त्रका उपदेशकरांगा जिस मन्त्रके प्रभाव से शीघ्रही औषधियोंको देखोगे २० फिर तैसेई उसब्रह्मचारीने दिखलाया जो जलाशय अर्थात् तालाब तिस में हनुमान् शीघ्रही प्रवेशकर के नेत्रमूंदिके जलपीवताहुआ २१॥

ततश्चागत्य मकरी महामाया महाकपिम्॥
अग्रसत्तं महावेगान्मारुतिं घोररूपिणी॥२२॥

ततो ददर्श हनुमान्यसंतीं मकरीं रुषा॥
दारयामास हस्ताभ्यां वदनं सा ममार ह॥२३॥

ततोंतरिक्षे ददृशे दिव्यरूपधरांगना॥
धान्यमालीति विख्याता हनूमंतमथाब्रवीत्॥२४॥

त्वत्प्रसादादहं शापाद्विमुक्तास्मि कपीश्वर॥
शप्ताहं मुनिना पूर्वमप्सरा कारणांतरे॥२५॥

आश्रमे यस्तु ते दृष्टः कालनेमिर्महासुरः॥
रावणप्रहितो मार्गे विघ्नं कर्तुंतवानघ॥२६॥

मुनिवेषधरो नासौ मुनिर्विप्रविहिंसकः॥
जहि दुष्टं गच्छशीघ्रं द्रोणाचलमनुत्तमम्॥२७॥

गच्छाम्यहं ब्रह्मलोकं त्वत्स्पर्शाद्धूतकल्मषा॥
इत्युक्त्वा सा ययौ स्वर्गं हनूमानप्यथाश्रमम्॥२८॥

** **फिर मगरकाहै रूप जिसका ऐसा एक भयंकर जलका जीव हनुमान् को निगलनेलगा २२ तौ हनुमान् निगलती हुई उस मगरकी स्त्री को देखके क्रोध करके अपने दोनों हाथोंसे उसके मुखको फाडडालते हुये फिर वह मरगई २३

फिर वह आकाशमें दिध्यरूप धारण करके धान्यमाली नामकरके विख्यात प्रसिद्ध अप्सरा दिखलाई देतीहुई और हनुमान् सों यह बचन कहती हुई २४ कि हे हनुमन् तुम्हारे प्रलादसे मैंशाप से छूटगई जो मैं अप्सरा पहिले किसी कारणसे मुनिके शापको प्राप्तहुईथी २५ और जो आश्रममें तुमने देखाहै सो महाअसुर कालनेमि है तुम्हारे विघ्न करनेको रावणका भेजा है २६ और यह मुनिनहीं है यह तौमुनिके वेषको बनाये हुये ब्राह्मणोंका मारनेवाला राक्षसहै इससे इसदुष्टका शीघ्रही मारो औ फिर द्रोणाचलको जावो २७ और तुम्हारे स्पर्शसे दूरहोगये हैं पाप जिसके ऐसी जो मैं हूं सो ब्रह्मलोक को जाती हूं यह कहके वह अप्सरा स्वर्गको जाती हुई और हनुमान्जी आश्रम को आते हुये २८॥

आगतं तं समालोक्य कालनेमिरभाषत॥
किं विलम्बेन महता तव वानरसत्तम॥२९॥

गृहाण मत्तो मंत्रांस्त्वं देहि मे गुरुदक्षिणाम्॥
इत्युक्तो हनुमान्मुष्टिं दृढ़ं बध्वाह राक्षसम्॥३०॥

गृहाण दक्षिणामेतामित्युक्त्वा निजघान तम्॥
विसृज्य मुनिवेषं सः कालनेमिर्महासुरः॥३१॥

युयुधे वायुपुत्रेण नानामायाविधानतः॥
महामायिकदूतोसौ हनूमान् मायिनां रिपुः॥३२॥

जघान मुष्टिना शीर्ष्णि भग्नमूर्द्धा ममार सः॥
ततः क्षीरनिधिं गत्वा दृष्ट्वा द्रोणं महागिरिम्॥३३॥

अदृष्ट्वा चौषधीस्तत्र गिरिमुत्पाट्य सत्वरः॥
गृहीत्वा वायुवेगेन गत्वा रामस्य सन्निधिम्॥३४॥

उवाच हनुमान् राममानीतोऽयं महागिरिः॥
यद्युक्तं कुरु देवेश विलम्बो नात्र युज्यते॥३५॥

तबआतेहुये हनुमान् को देखके कालनेमि बोला कि हे वानरश्रेष्ठ बहुत देर करके क्याहै २९ अबतुम मुझ से मन्त्रोंको ग्रहण करो और गुरुदक्षिणादेवो ऐसे जब उस कालनेमिने कहा तो हनुमान् अपनी मुष्टीको बहुत अच्छी तरह बांधिकै उस राक्षस से वोले ३० कि पहिले गुरु दक्षिणा लैलीजिये पछारी से मंत्रदेना यह कहिकै हनुमान् उस कपट मुनिके एक घूसामारतेहुये फिर वहभी मुनिके वेपको त्यागिकै महा असुररूप होगया ३१ फिर अनेक मायाओं करिकै हनुमान् के संग युद्ध करता हुआ फिर बड़ी माया करने वाले राम का दूत औमायावी राक्षसों का वैरी जो हनुमान् ३२ सो उस राक्षस के शिर में ऐसा एक घूंसा मारता हुआजिससे उसका शिर फटगया और वह कालनेमि असुर मरभी गया तिसके उपरान्त हनुमान् क्षीर सागरमें जाकर वहां द्रोणाचलको देखिके ३३ परंतु उसवै औषधियों को बिनादेखे उस पर्वत ही को शीघ्र उखाड़ कर और उठाकै पवनके वेग करिकै रामके समीप प्राप्त

होकै ३४ श्री रामजी से बोलते हुये कि हे राम यह पर्वत में ले माया हूं हे दे वेश इस समय में जो उचित समुझिये सो करिये विलम्ब का यह समय नहीं हैं ३५॥

श्रुत्वाहनूमतोवाक्यं रामः संतुष्टमानसः।

गृहीत्वा चौषधीः शीघ्रं सुषेणेनमहामतिः॥३६॥

चिकित्सांकारयामास लक्ष्मणाय महात्मने।
ततः सुप्तोत्थित इव बुद्धा प्रोवाच लक्ष्मणः॥३७॥

तिष्ठ तिष्ठ क्व गंतासिहन्मीदानीं दशानन।
इति ब्रुवन्तमालोक्य मूर्धन्यवघ्रायराघवः॥३८॥

मारुतिम्प्राहवत्साद्यत्वत्प्रसादान्महाकपे।
निरामयं प्रपश्यामि लक्ष्मणं भ्रातरं मम॥३९॥

इत्युक्त्वावानरैः सार्द्धं सुग्रीवेण समन्वितः।
विभीषणमतेनैवयुद्धाय समवस्थितः॥४०॥

पाषाणैः पादपैश्चैव पर्वताग्रैश्चवानराः।
युद्धायाभिमुखाभूत्वाययुः सर्वेयुयुत्सवः॥४१॥

रावणोविव्यथेरामबाणैर्विद्धोमहासुरः।
मातंग इव सिंहेनगरुडेनेवपन्नगः॥४२॥

तब श्रीरामचन्द्र यह हनुमान का वचन सुनिकै बड़े प्रसन्न होकै उस पर्वत पैसे सब औषधी लैके सुषेण वैद्यसे ३६ लक्ष्मणजी की चिकित्सा अर्थात् उपाय कराते हुये तब तौ जैसे कोई सो करके जागे ऐसे लक्ष्मण जी उठ करके बोलते हुये ३७ कि हे रावण खड़ा हो खड़ा हो कहां जाता है मैं मारता हों तुझको ऐसा वचन कहते हुये जो लक्ष्मण तिनको श्रीरामचन्द्र देखके और शिर में संघकै हनुमान् से बोले ३८ कि हे वत्स हे हनुमन् आजु तुम्हारे प्रसाद से रोग रहित लक्ष्मण भाई को मैं देखता हौं३९ अबविभीषण के मत में स्थित जो श्रीराम सो हनुमान्से यह पूर्वोक्त प्रीति वचन कहि बानरों करिकै सहित और सुग्रीव करिकै सहित युद्ध ही के अर्थ लंका में आतेहुये ४० और सब बानर पाषाणों करिकै और वृक्षों करिकै और पर्वतों करिकै राक्षसों के ऊपर प्रहार करने की इच्छा करिकै युद्ध करने को सम्मुख जाते हुये ४१ अब राम के बाणों करिकै घायल हुआ जो महा असुर रावण सो सिंह करिकै हाथी जैसे व्याकुल होय और गरुड के प्रहारकरिकै सर्प जैसे व्यथा को प्राप्तहोवे ४२॥

अभिभूतोऽगमद्राजा राघवेण महात्माना।
सिंहासने समाविश्य राक्षसानिदमब्रवीत्॥४३॥

मानुषेणैव मे मृत्युमाह पूर्वं पितामहः।
मानुषो हिनमांहंतु शक्तोस्तिभुविकश्चन॥४४॥

ततोनारायणः साक्षात्मानुषो भून्नसंशयः।
रामो दाशरथिर्भूत्वामांहंतुं समुपस्थितः॥४५॥

अनरण्येनयत्पूर्वंशप्ताहंराक्षसेश्वराः।
उत्पत्स्यते चमद्वंशे परमात्मासनात

नः॥४६॥

तेन त्वं पुत्रपौत्रैश्च बान्धवैश्च समन्वितः॥
हनिष्यसेनसंदेह इत्युक्ता मांदिवंगतः ॥४७॥

स एव रामः संजातोमदर्थेमां हनिष्यति॥
कुंभकर्णस्तुमूढात्मा सदानिद्रावशं गतः॥४८॥

तंविबोध्य महासत्त्वमानयंतुम मां तिकम्॥
इत्युक्तास्तेमहाकायास्तूणंर्गत्वा तु यत्नतः॥४९॥

** **तैसी दशा को राम करिकै प्राप्त हो और अपने मन में हारि मानिकै लंका में प्रवेश करता हुआ और यहां सिंहासन के ऊपर बैठिकै राक्षसों से यह कहता हुआ ४३ कि मनुष्य ही करके मेरी मृत्यु को पहिले ब्रह्मा कहते हुये हैं और मनुष्य कोई ऐसा पृथिवी पै नहीं है जो मुझ को मारने को समर्थ होइ ४४ तिससे साक्षात् नारायण ही मनुष्य होता हुआ है इसमें कुछ संदेह नहीं और सोई नारायण दशरथ का पुत्र होके मेरे मारने को उपस्थित हुआ है अर्थात् मेरे समीप प्राप्त हुआहैं ४५ और हे राक्षस श्रेष्ठो पहिले एक अयोध्या का राजा अनरण्यनाम करके हुआ उसने मुझको शाप दिया है कि मेरे वंश में सनातन जो परमात्मा है सो उत्पन्न होगा ४६ हे रावण उसकरके तू पुत्र पौत्र और भाई बन्धुओं करके सहित मृत्यु को प्राप्त होगा इसमें संशय नहीं है यह कहिकै वह राजा स्वर्ग को जाता हुआ ४७ सोई राम मेरे अर्थ प्रकट हुआ है सो अवश्य मुझको मारेगा और मूढ कुंभकर्ण तो सदा निद्रा के वश रहता है ४८ अर्थात् सोया ही करता है इससे तिसको शीघ्रही जगाके मेरे समीप लाओ ऐसे रावण को आज्ञा को प्राप्तहुये जे राक्षस शीघ्र ही बडे यत्नकरके ४९॥

विवोध्य कुंभश्रवणं निन्यूरावणसन्निधिम्।
नमस्कृत्यसराजानमासनो परिसंस्थितः॥५०॥

तमाहरावणोराजाभ्रातरं दीनयागिरा।
कुंभकर्णनिबोधत्वं महत्कष्टमुपस्थितम्॥५१॥

रामेण निहताः शूराः पुत्राः पौचाश्च बांधवाः॥
किंकर्तव्यमिदानीमे मृत्युकाल उपस्थिते॥५२॥

एष दाशरथी रामः सुग्रीव सहितो बली।
समुद्रं सबल स्तीर्त्त्वामूलं नः परिकृतंति॥५३

ये राक्षसामुख्यतमास्तेहतावानरैर्युधि।
वानराणां क्षयंयुद्धेन पश्याभिकदाचन॥५४॥

नाशयस्व महावाहो यदर्थं परिबोधितः।
भ्रातुरर्थेमहा सत्वकुरु कर्मसुदुष्करम्॥५५॥

श्रुत्वातद्रावणें द्रस्यवचनं परिदेवितम्।
कुंभकर्णो जहासोच्चैर्वचनं चेदमब्रवीत्॥५६॥

** **कुंभकर्ण को जगाकर रावण के समीप प्राप्त करते हुये और वह कुंभकर्ण रावण को नमस्कार करके आसन के ऊपर बैठता हुआ ५० अबतिस कुम्भकर्ण भाई से रावण जो राजा सो दीनवाणी करके बोलता हुआ कि हे कुम्भकर्ण बड़ा भारी कष्ट

उपस्थित हुआ है यहतुम जानो ५१ क्योंकि रामने बड़ेबड़े शूर मेरे पुत्र और पौत्र और भाई बन्धु मारडाले अब मेरा मृत्युकाल प्राप्तहुआ है मैं क्या करसक्ताहौं ५२ यह जो सुग्रीवकरके सहित दशरथ का पुत्र बड़ा बली राम सो सेना सहित समुद्र को उतरके हम सब राक्षसों को काटि रहा है ५३ और जे मुख्य मुख्य राक्षस थे ते तौ वानरों ने संग्राम में सब मार डाले और युद्ध में वानरों का क्षय कभी देखता नहीं हौं५४ इससे हे वीर रामकी सेना का तुम नाश करो जिसके लिये मैंने तुम्हैंजगाया है और हे महाबल युक्त भाई के अर्थ जो किसीने न करा होय ऐसा कर्मकरौ ५५ अब कुम्भकर्ण यह रावण का विलापयुक्त वचनसुनिकै बड़े उच्च स्वर करके हंसता हुआ और यह वचन बोला ५६॥

पुरामंत्र विचारे ते गदितं यन्मयानृप।
तदद्यत्वा मुगपतं फलं पापस्य कर्मणः॥५७॥

पूर्वमेव मया प्रोक्तोरामोनारायणः परः।
सीता च योगमायेति बोधितोऽपिनबुध्यसे॥५८॥

एकदाहं वने सानौविशालायांस्थितोनिशि।
दृष्टोमयामुनिः साक्षान्नारदोदिव्यदर्शनः॥५९॥

तमब्रुवंमहाभागकुतोगं तासिमेवद।
इत्युक्तो नारदः प्राह देवानां मंत्रणेस्थितः॥६०॥

तत्रोत्पन्नमुदंतंते वक्ष्यामि शृणुतत्त्वतः।
युवाभ्यां पीडिता देवाः सर्वेविष्णुमुपागताः॥६१॥

ऊचुस्ते देवदेवेशं स्तुत्वा भक्त्यासमाहिताः।
जहिरावण मक्षोभ्यं देव त्रैलोक्य कंटकम्॥६२॥

मानुषेणमृतिस्तस्य कल्पिता ब्रह्मणापुरा।
अतस्त्वं मानुषो भूत्वाजहिरावण कंटकम्॥६३॥

कि हे राजन् पहिले सलाह विचार के समय सभा में जो वचन मैंने कहा था सोई पाप कर्म का फल तुम को प्राप्तहुआ ५७ और मैंने पहिले ही कहा था राम साक्षात् परमात्मा नारायण हैं और सीता उनकी योगमाया शक्ति हैं इस प्रकार मैंने तुमको बहु तेरा बोध भी कराया परन्तु तुमको बोध न हुआ तिसी का यह फल है ५८ एकसमय विशाला नाम नगरी में पर्वत के शिखर के ऊपर रात्रि में दिव्य है दर्शन जिनका ऐसे जो नारद हैं सो मैंने दखे ५९ तिन नारदजीसे मैंने पूछा आप कहां गये थे सो कहिये तब देवताओं की सलाह में स्थित जो नारद सो मुझसे कहते हुये ६० कि हे कुम्भकर्ण देवताओं की सभा का वृत्तांत मैं तुमसे यथार्थ कहता हूं तिसको सुनो तुम दोनों भाइयों करिकै पीडित जे देवता ते विष्णु के समीप जाते हुये ६१ और वहां जाके एकाग्र चित्त हो भक्तिकरिकै सब देवों के स्वामी जो विष्णु तिनकी स्तुतिकर के बोलते हुये कि हे देव किसी करिकै नहीं चलायमान ऐसा जो तीनों लोक का कण्टक रावण तिसको मारिये ६२ और पहिले ब्रह्माजी के मनुष्य के हाथ से उस

की मृत्यु रची है इससे आप मनुष्य होकै उस लोक कण्टक रावण को मारिये ६३॥

तथेत्याह महाविष्णुःसत्यसंकल्पईश्वरः।
जातोरघुकुलेदेवोराम इत्यभिविश्रुतः॥६४॥

सहनिष्यतिवः सर्वानित्युक्त्वाप्रययौमुनिः।
अतो जानीहि रामं त्वं परं ब्रह्म सनातनम्॥६५॥

त्यजवैरं भजस्वाद्यमाया मानुष विग्रहम्।
भजतो भक्ति भावेन प्रसीदति रघुत्तमः॥६६॥

भक्तिर्जनित्री ज्ञानस्य भक्तिर्मोक्षप्रदायिनी।
भक्तिहीनेन यत्किंचित्कृतं सर्वमसत्समम्॥६७॥

अवताराः सुबहवो विष्णोर्लीलानुकारिणः।
तेषां सहस्र सदृशो रामोज्ञानमयः शिवः॥६८॥

रामं भजंति निपुणा मनसावचसानिशम्।
अनायासेन संसारं तीर्त्वायांतिहरे पदम्॥६९॥

ये राममेव सततं भुविशुद्धसत्वाध्यायंतितस्य चरितानि पठंति संतः।
मुक्ता स्तएव भव भोगमहाहि पाशैः सीतापतेः पदमनंत सुखंप्रयांति॥७०॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे युद्धकांडे सप्तमः सर्गः ७॥

तब सत्य संकल्प ईश्वर जो विष्णु सो देवतों से तैसे ही प्रतिज्ञाकर रघुवंश में रामनाम करके विख्यात प्रकट हुआ है ६४ सो राम तुम सब राक्षसों को मारैगा यह कहिके नारदमुनि चले जाते हुये इससे हे रावण राम को तुम सनातन परब्रह्मजानो ६५ और अब भी बैर को छोड़ देवो और मायाही करिकै है मनुष्यरूप जिसका ऐसा जो राम तिसका भजनकरौ और जो कोई भक्ति करिकै भजन करता है तिसके ऊपर राम प्रसन्न होते हैं ६६ और रामकी भक्ति ज्ञान के उत्पन्न करनेवाली है और मोक्ष देने वाली है और भक्ति हीन पुरुष जो कुछ करता है सो सब निष्फल होता है ६७ और तौ न जो प्राणियों के चरित्र की नकल करता हुआ विष्णु तिसके बहुत से अवतार हैं परंतु तिन हजारों अवतारों को एक जगह करैऔर एकजगह परमात्मा राम को करै तौ चाहै तुल्यहीय अर्थात् राम अवतारी है ६८ इससे जे जोई बुद्धिमान् पुरुष राम को मन करिकै और वचन करिकै और कर्म करिकै भजन करते हैं वे अनाया सही संसार के पार होकैं उसके पद को प्राप्त होते हैं ६६ और शुद्ध है अन्तःकरण जिनका ऐसे जे पुरुष निरन्तर राम ही का ध्यानकरते हैं और नित्य राम ही के चरित्रों को पढते हैं ते संसार रूपी बडेभारी सर्पों के बन्धनों से छूटिकै अनन्तसुख जो रामपद तिसको प्राप्त होते हैं ७०॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे युद्धकाण्डेभाषा-
टीकायां सप्तमस्सर्गः ७॥

कुंभकर्णवचः श्रुत्वा भृकुटीविकटाननः।
दशग्रीवोजगादेदमासनादुत्पतन्निव॥१॥

त्वमानीतोनमेज्ञानबोधनाय सुबुद्धिमान्।
मयाकृतं समीकृत्ययुध्यस्वयदिरोचते॥२॥

नोचेद्गच्छसुषुप्त्यर्थंनिद्वात्वां बाधते धुना।
रावणस्य वचः श्रुत्वा कुम्भकर्णोमहाबलः॥३॥

रुष्टोयमितिविज्ञायतूर्णं युद्धाय निर्ययौ।
सलंघयित्वा प्राकारं महापर्वतसन्निभः॥४॥

निर्ययौ नगरात्तूर्णं भीषयन्हरि सैनिकान्।
सननादमहानादं समुद्रमभिनादयन्॥५॥

वानरान्कालयामासबाहुभ्यां भक्षयन्रुषा।
कुंभकर्ण्ंतदादृष्ट्वा सपक्षमिव पर्वतम्॥६॥

दुद्रुवुर्वानराः सर्वे कालांतकमिवाखिलाः।
भ्रमंतं हरिवाहिन्यां मुद्गरेणमहाबलम्॥७॥

दो०

मारोभष्टमसर्ग में कुम्भकरणरघुबीर।
मेघनादकेनाशकोकियो मन्त्रसबबीर॥१॥

अब श्री महादेवजी पार्वतीजी से कथा वर्णन करै हैं है पार्वति कुंभकर्ण का वचन सुनिकै भौं ही करिकै भयंकर मुख जिसका ऐसा जो रावण सो आसन से उछल करिकै कुम्भकर्ण से बोला १ कि हे कुम्भकर्ण कुछ ज्ञान के उपदेश के लिये बड़े बुद्धिमान् जो तुमहौ सो नहीं बुलवाये गये हौयातौजो कुछ मैंने किया है तिसको अपना ही किया जानिकै जो तुमको रुचे तो युद्ध कीजिये २ और जो न इच्छा होय तौ फिर सोने के लिये जाइये क्योंकि नींद तुमको इससमय में बहुत बाधा कर रही है ३ तौ महाबली जो कुम्भकर्ण है सोरावण का वचन सुनि कैरावण को क्रोध युक्ता जानिकैयुद्ध हीके अर्थ जाताहुआ और बड़ा भारी पर्वत के समान जो कुम्भकर्ण सो लंका की छाल दिवाली उलांघकै ४ वानरों की सेना को डरपाता हुआशीघ्रही जाताहुआ और समुद्र को भी शब्दयुक्त करता हुआ घोर शब्द करिकै गर्जता हुआ ५ अब कुम्भकर्ण दोनों भुजा ओं से वानरों को उठाकर भक्षण करताहुया पीड़न करता हुआ अथवा भगा देता हुआ जैसे पंखों करिकै युक्त पर्वत आवे तैसे क्रोध करिकै आता हुआ जो कुम्भकर्ण तिसको आते हुये देख करिकै ६ सब वानर भागते हुये जैसे काल और मृत्यु इनको देखिकै सब प्रजाभय करिकै भागे तैसे वानर भागते हुये अब वानरों की सेना में मुद्गरलै कै घुमिरहा।

**कालयंतंहरीन्वेगाद्भक्षयंतंसमंततः।
चूर्णयतंमुद्गरेणपाणिपादैरनेकधा॥८॥ **

कुम्भकर्णं तदादृष्ट्वागदापाणिर्विभीषणः।
ननाम चरणौ तस्य भ्रातुर्ज्येष्ठस्य बुद्धिमान्॥९॥

विभीषणोहं भ्रातुर्मेदयां कुरु महामते।
रावणस्तुमयाभ्रातर्बहुधा परिबोधितः॥१०॥

सीतां देहीतिरा

मायरामः साक्षाज्जनार्द्दनः।

न शृणोति चमांहन्तुं खड्गमुद्यस्यचोक्तवान्॥११॥

धिक्त्वां गच्छति मांहत्वापदापापिभिरावृतः।
चतुर्भिर्मंत्रिभिः सार्द्धरामं शरणमागतः॥१२॥

तच्छ्रुत्वा कुम्भकर्णोऽपिज्ञात्वा भ्रातरमागतम्।

समालिंग्यचवत्सत्वंजीवरामं पदाश्रयः॥१३॥

कुलसं रक्षणार्थाय राक्षसानांहिताय च।
महाभागवतोसित्वंपुरा मे नारदाच्छुतम्॥१४॥

और वानरों को चारों तरफ से भगा रहा और भक्षण करता हुआ और बडा है बल जिसमें और मुद्गर करिकै और हाथों करिकै और पावों करिकै वानरों को चूर्ण करता हुआ जो कुम्भकर्ण तिसको ८ गदा है हाथ में जिसके ऐसा जो विभीषण सो देखिकै अपने जेठे भाई कुम्भकर्ण के चरणों को प्रणाम करता हुआ जिस से बड़ा बुद्धिमान् रहा इससे ९ और यह वचन बोला कि मैं विभीषण हों और हे श्रेष्ठम ते भाई जो मैंहूं तिसके ऊपर दयाकरौ और रावण जो भाई है तिसको बहुतेरा मैंने समुझाया १० कि सीता को राम को देवो और राम साक्षात् नारायण हैं सोमेरे वचन को नहीं सुनता हुआ और उलटाखड्ग लेके मेरे मारने को उद्यत हुआ ११ और पापियों करके युक्त जो रावण सो मुझको पांउसे ताड़नकरके अर्थात् लात मारके यह कहता हुआ कि तुझको धिक्कार है और तू यहां से जा तो मैं चार मन्त्रियों को साथ लेकै राम के शरण आता हुआ १२ तबयह वचन सुनिकै कुम्भकर्ण अपना भाई जो विभीषण तिसको प्राप्त जानिकै हृदय से आलिंगन करके यह बोला कि हे वत्स जिससे तू रामके चरण का आश्रयणकरता हुआ है इससे तू बहुतकाल जीवन को प्राप्त होउ १३ और कुलकी रक्षा के अर्थ और राक्षसों के कल्याण के अर्थ तुम महाभागवत उत्पन्न हुये हो यह मैंने नारद जी के मुखसे पहिले सुना है १४॥

गच्छता तममेदानीं दृश्यते न च किंचन।
मदीयोवापरोवापिमदमत्तविलोचनः॥१५॥

इत्युक्तो श्रुमुखोभ्रातुश्चरणावभिवंद्यसः।
रामपार्श्वमुपागत्यचिंतापर उपस्थितः॥१६॥

कुम्भकर्णोऽपिहस्ताभ्यां पादाभ्यां पिष्टयन्हरीन्।
चचार वानरीं सेनां कालयन्गधहस्तिवत्॥१७॥

दृष्ट्वा तं राघवः क्रुद्धोवायव्यं शस्त्रमादरात्।
चिक्षेप कुम्भकर्णायतेनवि च्छेदरक्षसः॥१८॥

समुद्गरंदक्षहस्तेतेन घोरंननादसः।
सहस्तःपतितोभूमावनेकानर्दयन्कपीन्॥१९॥

पर्यंतमाश्रिताः सर्वेवानराभयवे पिताः।
रामराक्षसयोर्युद्धम्पश्यंतः पर्यवस्थिताः॥२०॥

कुम्भकर्णः छिन्न

हस्तःशालमुद्यम्यवेगतः॥
समरेराघवं हंतुदुद्रावतमथोच्छिनत्॥२१॥

और हे तात अब तुम मेरे आगे से चले जाओ क्योंकि इस समय में मुझे अपना बिराना कुछ नहीं सूझता जिससे वीर मद करके मेरे नेत्र मतवाले हो रहे हैं १५ ऐसा जब कुंभकर्ण ने कहा तौ नेत्रों से अश्रुपात जिसके चले जाते हैं ऐसा जो विभीषण सो भाई के चरणों को प्रणाम करके फिर राम के समीप आकै चिन्ता में मग्न स्थित होता हुआ १६ अब कुम्भकर्ण भी अपने हाथों से औ पावों से वानरों को पीसताहुआ मतवाले हाथी की तरह वानरों की सेना को भगाता हुआसंग्राम में स्थित होता हुआ १७ तिस कुम्भकर्ण को देखि कै रामचन्द्र क्रोध करके वायव्य अस्त्र छोड़ते हुये कुम्भकर्ण के अर्थ तिस अस्त्र करके श्री रामचन्द्र मुद्गरकर के सहित कुम्भर्णके दक्षिण हाथको काटडालते हुये १८ तिस करके कुम्भकर्ण घोरशब्द करता हुआ सो हाथ अनेक वानरों का मर्दन करता हुआ पृथिवी में गिरपड़ा १९ और वानर भी उस कुम्भकर्णके हाथ के गिरने की भयकर के चारों तरफ से हट जाते हुये और राम और कुम्भकर्ण के युद्धको देखते हुये दूर स्थित होते हुये २० अब कटि गया है एक हाथ जिसका ऐसा जो कुम्भकर्ण सो दूसरे हाथ कर के शाल के वृक्षको उठाकर बड़े वेग से राम के मारने को दौड़ता हुआ तब राम ऐन्द्र अस्त्रकरके वृक्षसहित उसकी बामभुजा को काटिडालते हुये २१॥

शालेनसहितं वामहस्तमैंद्रेणराघवः।
छिन्नबाहुमथायांतंनर्द्दन्तं वीक्ष्यराघवः॥२२॥

द्वावर्द्धचंद्रौनिशितावादायास्य पदद्वयम्।
चिच्छेदपतितौपादौ लंकाद्वारिमहास्वनौ॥२३॥

निकृत्तपाणिपादोपि कुम्भर्णोऽतिभीषणः।
वडवामुखद्वक्तंव्यादायरघुनन्दनम्॥२४॥

अभिदुद्रावनिनदन्राहुश्चन्द्रमसंयथा।
अपूरयत्सिताग्रैश्चशायकैस्तद्रघूत्तमः॥२५॥

शरपूरित वक्रोसौ चक्रोशाति भयंकरः।
अथसूर्यप्रतीकाशमैंद्रंशरमनुत्तमम्॥२६॥

वज्राशमिसमंरामश्चिक्षेपासुरमृत्यवे।
सतत्पर्वत संकाशं स्फुरत्कुंडलदंष्ट्र्कम्॥२७॥

चकर्त्तरक्षाधिपतेः शिरोवृत्रमिवाशनिः।
तच्छिरः पतितं लंकाहारिका योमहोदधौ॥२८॥

तब कटि गई हैं दोनों भुजा जिसकी और गर्जता हुया सन्मुख आरहा है ऐसे कुम्भकर्ण को श्रीराम देखके २२ बड़े पैने दो अर्द्ध चन्द्राकार वाणों करके उस कुंभकर्ण के दोनों पावोंको काटि डालते हुये और फिर उन्हों को लंका के द्वार पै बाणों से पहुंचा देते हुये २३ अब कटिगये हैं हाथ पाँव जिसके ऐसा

जो अत्यन्त भयंकर कुम्भकर्ण सो वड़वा अग्नि के शतयोजन निवासस्थानके जो अपना मुख तिसको फैलाकरके रामके सन्मुख दौड़ता हुआ २४अर्थात्सरकता हुआ जैसे राहु शब्द करता हुआ चन्द्रमा को ग्रास करने को दौड़े तब श्रीराम पैने पैने बाणों करके उस कुम्भकर्ण के सुख को पूर्ण करते हुये २५ फिर वाणोंकरके पूर्णमुख जिसका ऐसा जो भयंकर कुम्भकर्ण सोचिल्लाताहुआ अब तिसके अनन्तर सूर्य के तुल्य है प्रकाश जिसका ऐसा जो ऐन्द्र अस्त्र करके युक्त २६ वज्रके तुल्य बाण तिसको श्रीरामचन्द्र कुम्भकर्ण की मृत्यु केचलाते हुये सो बाण देदीप्यमान है कुण्डल और डाढैंजिसमें ऐसा जो पर्वत के समान कुम्भकर्णका शिर २७ तिसको काटता हुआ जैसे इन्द्रका वज्र वृत्रासुर के शिर को काटैवह शिर लंका के द्वारपै गिरता हुआ और उसका धड़ समुद्र में गिरता हुआ २८॥

शिरोस्यरोधयद्वारंकायोनक्राद्यचूर्णयत्॥
ततोदेवाः सऋषयोगंधर्वाः पन्नगाः खगाः॥२९॥

सिद्धाक्षागृह्यकाश्च अप्सरोभिश्चराघवम्॥
ईडिरे कुसुमासारैर्वर्षंतश्चाभिनन्दिताः॥३०॥

आजगामतदारामं द्रष्टुंदेवमुनीश्वराः॥
नारदो गगनात्तूर्णंस्व भासाभासयन्दिशः॥३१॥

राममिंदीवरश्याममुदारांगंधनुर्धरम्॥
ईषत्ताम्रविशालाक्ष मैंद्रास्त्रांचितबाहुकम्॥३२॥

दयार्द्रदृष्ट्या पश्यन्तवानरान्शरपीडितान्॥
दृष्ट्वागद्गदयावाचाभक्तयास्तो तुं प्रचक्रमे॥३३॥

नारद उवाच॥

देवदेव जगन्नाथ परमात्मन् सनातन \।
नारायणाखिलधारविश्वसाक्षिन्नमोस्तुते॥३४॥

विशुद्धज्ञानरूपोपित्वं लोकानतिवंचयन्॥
माययामनुजाकारः सुखदुःखादिमानिव॥३५॥

सो कुम्भकर्ण का शिर तो लंका के द्वार को रोंकता हुआ और उसका धड़ नांके आदि जे समुद्र के जन्तु हैं तिनको चूर्ण चूर्ण करता हुआ तिसके उपरान्त ऋषियों करके सहित जो देवता और गन्धर्व और यक्ष और पन्नग और पक्षी २९ और सिद्ध और यक्ष अप्सराओं करके सहित गुह्यक ये सब राम की स्तुति करते हुये और बड़े आनन्दयुक्त हो पुष्पों की वृष्टि करते हुये ३० उसी समय में श्रीरामके दर्शन करने को देवर्षियों के स्वामी जो नारद सो अपनी कान्ति करके दिशाओं का प्रकाश करते हुये आकाश से उतरते हुये ३१ और श्यामसुन्दर है अंग जिनका और धनुषको धारणकरे और थोड़ी ललामी को लिये हुये विशाल हैं नेत्र जिनके और ऐन्द्र अस्त्रकरके शोभित हैं भुजा जिनकी ३२ और वाणोंकरके पीड़ित जे वानर तिनको दयायुक्त दृष्टिकरके देख रहे हैं ऐसे जो श्रीराम तिनको

नारद देखिके गद्गदवाणी से स्तुतिकरने लगे ३३ हे देवदेव देवताओं को भी पूजाकरने योग्य हे जगन्नाथ हे परमात्मन हे नारायण हे अखिलाधार अर्थात्सबके आश्रय हे विश्वसाक्षिन् हे विश्वके देखनेवाले तुम्हारे अर्थ नमस्कार है ३४ यद्यपि आपविशुद्धज्ञान रूप भी हौ तौ भी अपनी माया करके सबलोकों को ठगतेहुये मनुष्य का सा आकार जिनका ऐसे हुये सुख दुःखादि युक्त की नाईं प्रतीयमान होते हौ३५॥

त्वं माययागूह्यमानः सर्वेषां हृदिसंस्थितः।
स्वयं ज्योतिः स्वभावस्त्वंव्यक्त एवामलात्मनाम्॥३६॥

उन्मीलयन्सृजस्येतन्नेत्रे रामजगत्त्रयम्।
उपसंह्रियते सर्वं त्वया चक्षुर्निमीलनात्॥३७॥

यस्मिन् सर्वमिदं भाति यतश्चैतच्चराचरम्।
यस्मान्नकिंचिल्लोकेस्मिन् तस्मै ते ब्रह्मणे नमः॥३८॥

प्रकृतिं पुरुषं कालं व्यक्ताव्यक्तस्वरूपिणम्।
यंजानन्ति मुनिश्रेष्ठास्तस्मैरामायते नमः॥३९॥

विकाररहितं शुद्धं ज्ञानरूपं श्रुतिर्जगौ।
त्वां सर्व जगदाकारमूर्तिंचाप्याहसाश्रुतिः॥४०॥

विरोधो दृश्यते देववैदिकोवेदवादिनाम्।
निश्चयं नाधिगच्छंति त्वत्प्रसादंविनाबुधाः॥४१॥

माययाक्रीड़ तोदेवनविरोधोमनागपि।
रश्मिजालं रवेर्यहदूदृश्यतेजलवभ्रमात्॥४२॥

और तुमसबके हृदय में स्थित और स्वयंप्रकाश भी हौ तौ भी मायाकरिकै आच्छादित होने से सबको नहीं प्रतीयमान होते हौऔर निर्मल है अन्तःकरण जिनका ऐसे पुरुषोंको तो प्रकट ही प्रतीत होते हो ३६ और हे राम जब तुम नेत्र खोलते हौतौतीनों जगत्को रचते हो और जब नेत्रमूंदते हौतो सब लोकों कोसंहार करते हौ३७ और हेराम जिस आश्रय के बिषे संपूर्ण जगत् प्रतीयमान हो रहा है अर्थात् जिसकी सत्ता से प्रतीत होरहा है इस कहने से वर्तमान काल में ईश्वर की सत्ता दिखलाई और हे राम यतः नाम जिससे चराचर जगत् उत्पन्न होता है और जिसकरके जीवन को प्राप्तहोता है जिसमें फिर लयको प्राप्तहोता है यहां तीनोंकाल में सत्यता दिखलाई और जिसते परे और कोई कारण नहीं है ऐसे जो ब्रह्मरूप तुमहौ तिसके अर्थ नमस्कार है ३८ और हे राम मुनियों में श्रेष्ठ जे मुनि हैं ते जिस तुमको प्रकृति रूपकरके जानते हैं और पुरुषरूप तुमही को जानते हैं और व्यक्तनाम प्रकट जो निमेष घटिकादिरूपकाल और अव्यक्तनाम अप्रकट जो क्षणरूप काल तिस को भी तुमहीं में जानते हैं इसप्रकार करके सर्वत्ररमण करते हुये राम जो तुम हौ तिसके अर्थ नमस्कार है ३९ और हे राम बिकार रहित शुद्धज्ञान स्वरूप तुमको वेद प्रतिपादन करता है और सर्व जगदा

कार है मूर्ति जिनकी ऐसे तुमही यह भी वेद कहता है ४० इसप्रकार वेद वादियों का परस्पर विरोध दिखलाई पड़ता है इससे पण्डित भी आपके प्रसाद के विना निश्चय को नहीं प्राप्त होसक्ते हैं और जिनके ऊपर आपकी कृपा है वे तौ निश्चय को प्राप्त हो कुछ भी विरोध नहीं देखते क्योंकि जितना विकार है सो सब जगत्ही का है आपतो निर्विकार हैं ४१ और हे देव मायाकरके क्रीडाकरते हुये जो तुम ही तिसमें कुछ भी विरोध नहीं और जगदाकाररूप तौ मायिकही हैं जैसे निर्जलदेशमें मृगों को सूर्य की किरणें भ्रम से जलवत् प्रतीयमान हुआ करती हैं तैसे तुम भी जगदाकार प्रतीत होते हौ४२॥

भ्रांतिज्ञानात्तथारामत्वयि सर्वंप्रकल्प्यते।
मनसोविषयोदेवरूपं तेनिर्गुणं परम्॥४३॥

कथंदृश्यं भवेद्देवदृश्याभावभजेत्कथम्।
अतस्तवावतारेषु रूपाणिनिपुणाभुवि॥४४॥

भजंति बुद्धिसंपन्नास्तरंत्येव भवार्णवम्।
कामक्रोधादयस्तत्रवहवः परिपंथिनः॥४५॥

भीषयंति सदाचेतोमार्जारामूषकं यथा।
त्वन्नामस्मरतांनित्यत्वद्रूपमपिमानसे॥४६॥

त्वत्पूजानिरतानां तेकथामृत परात्मनाम्।
त्वद्भक्तसंगिनांराम संसारोगोपदायते॥४७॥

अतस्ते सगुणं रूपं ध्यात्वाहं सर्वदाहृदि।
मुक्तश्चरामिलोकेषुपूज्योहं सर्वदेवतैः॥४८॥

रामत्वया महत्कार्यं कृतं देवहितेच्छया।
कुम्भकर्णवधेनाद्यभूभारोयंगतः प्रभो॥४९॥

और हे राम भ्रांतिज्ञान से जैसे सिप्पी में रजत की कल्पना होती है तैसे ही तुम्हारे विषे सारा जगत् कल्पना किया जाता है और हे देव प्रकृति से परे निर्गुण जो तुम्हारारूप सो शुद्ध मन का विषयहै अर्थात् शुद्धमन ही से जाना जाताहै ४३ कदाचित् कोई है तौ सगुणरूपकाध्यान मायिक होने से क्या निष्फल है तिस के ऊपर नारदजी कहते हैं कि हे देव यह निर्गुणरूप आपका नेत्रों के गोचर कैसे होता है और विना देखे भक्ति कैसे हो सक्तीहै इसकारण से अवतारों के विषे जे तुम्हारे रूप तिनको बड़े चतुर भक्तलोग भजते हैं ४४ और उस भजन से संसारसागर के पार भी हो जाते हैं परन्तु उस भजन में भी काम क्रोधादिक बहुत से ढांकू चोर ४५ भक्त के चित्तको जैसे बिल्ली चूहे के ऊपर दौड़ाकरे ऐसे भय उत्पन्न कियाकरते हैं तिसभय के दूर करने का यह उपाय है कि नित्य जेआप के नाम का स्मरण करते हैं और नित्य ही आपके रूप को जो मनमें ध्यानकरते हैं २६ और आपकी प्रतिमा पूजन में से निरत हैंअर्थात् प्रीतियुक्त हैं और आपकी कथाही जो अमृत तिसमें तत्पर है मन जिन्होंका और जे तुम्हारे भक्तों के संग करने वाले हें ऐसे जो भक्त तिनको तो हेराम जैसे गाय के खुरमात्र भूमि में भरे

हुये जलको कोई अनायाससे नांघिजाइ तैसे संसारसागर होजाता है ४७ इस से सबकालमें अपने हृदयमें तुम्हारे सगुणरूप ही को ध्यान करता हुआ मैं सब देवताओंकरके पूजनीय मुक्तहो सबलोकों में विचरताहूं ४८ और हे राम जो देवताओं के हितकी इच्छाकरके तुमने कुंभकर्ण को मारा तिसकरके बढ़ाकार्य किया क्योंकि कुंभकर्ण के बधसे पृथिवीका भारही दूरहोगया ४९॥

श्वोहनिष्यति सौमित्रिरिन्द्रजेतारमाहवे॥
हनिष्यसेथरामस्त्वंपरश्वोदशकन्धरम्॥५०॥

पश्यामि सर्वंदेवेशसिद्धैः सहनभोगतः।
अनुग्रह्णीष्वमांदेवगमिष्यामिसुरालयम्॥५१॥

इत्युक्त्वाराममांमत्र्यनारदोभगवानृषिः।
ययौदेवैः पूज्यमानोब्रह्मलोकमकल्मषम्॥५२॥

भ्रातरं निहतंश्रुत्वाकुम्भकर्णं महाबलम्।
रावणः शोकसंतप्तोरामेणाक्लिष्टकर्मणा॥५३॥

मूर्च्छितः पतितोभूमावुत्थायविललापह।
पितृव्यं निहतं श्रुत्वापितरं चातिविह्वलम्॥५४॥

इन्द्रजित्प्राहशोकार्तं त्यजशोकं महामते।
मयि जीवति राजेन्द्र मेघनादे महाबले॥५५॥

दुःखस्यावसरःकुत्रदेवांतकमहामते।
व्येतुतेदुःखमखिलं स्वस्थो भवमहीपते॥५६॥

और कल्हिके दिन संग्राम में लक्ष्मण मेघनाद को मारेंगे और परसों के दिन हे राम तुम रावण को मारौगे ५० अब यहां नारद के कथन में कल्ह परसों के कहने का शीघ्र बध में तात्पर्य है और वाल्मीकीय और अग्निवेश्य रामायण के देखने से तौ तीनदिन निरन्तर संग्रामकरके लक्ष्मण जी ने मेघनाद को मारा है और अठारहदिन राम रावण का संग्राम हुआ है ऐसा विदित होता है अबनारदजी जाने को आज्ञामांगते हुये यह कहते हैं कि हे देवेश सिद्धोंकरके सहित आकाश में स्थितहोके मैं आपका संग्रामादि चरित्र सब देखता हूं और अबमेरे ऊपर अनुग्रह कीजिये मैं देवलोक को जाता हूं ५१ यह कहके और राम की आज्ञा लेकै नारद भगवान् देवताओं करके पूजित हो शुद्ध ब्रह्मलोक को जातेहुये ५२ अव रावण थोड़े ही परिश्रम करके श्रीरामचन्द्र के हाथ से महाबली कुम्भकर्ण भाई को मरा हुआआसुन के बड़े शोककर के संतप्तहोकर ५३ मूच्छित हुआ पृथिवी में गिर पड़ा और फिर उठकरके विलाप करता हुआ तब उससमय में इन्द्रजित् नाम जो रावण का पुत्र सो अपने चचा को मरा हुआ सुनके और पिताको अत्यन्त शोकमें व्याकुल देखके ५४ शोक पीड़ित रावण से यह कहता हुआ कि हे महामते आप शोक को त्याग करिये और मैं जो महावली मेघनाद तिसके जीवते हुये हे देवताओं के नाशकरनेवाले औ हे श्रेष्ठ बुद्धियुक्त आपको दुःखकरने का क्या समय है और हे राजन् तुम्हारा दुःखसबदूरहो और आप स्वस्थचित्त हू जिये ५६॥

सर्वं शमीकरिष्यामिहनिष्यामिचवैरिपून्।
गत्वानिकुम्भिलांसद्यस्तर्पयित्वाहुताशनम्॥५७॥

लब्ध्वारथादिकं तस्मादजेयोहंभवाम्यरेः।
इत्युक्त्वा त्वरितं गत्वा निर्दिष्टं हवनस्थलम्॥५८॥

रक्तमाल्यां वरधरोरक्त गंधानुलेपनः।
निकुम्भिलास्थलेमौनीहवनायोपचक्रमे॥
विभीषणोथतच्छ्रुत्वामेघनादस्यचेष्टितम्॥५९॥

प्राहरामायसकलं होमारंमंदुरात्मनः।
समाप्यतेचेद्धोमोयंमेघनादस्य दुर्मतेः॥
तदाऽजेयोभवेद्राममेघनादः सुरासुरैः॥६०॥

अतः शीघ्रं लक्ष्मणेन घातयिष्यामिरावणिम्।
आज्ञापयमयासार्द्धं लक्ष्मणं बलिनां वरम्॥
हनिष्यतिनसंदेहोमेघनादं तवानुजः॥६१॥

** श्रीरामचन्द्र उवाच।**

अहमेवागमिष्यामिहन्तुमिन्द्रजितंरिपुम्।
अग्नेयेनमहास्त्रेणसर्वराक्षसघातिना॥६२॥

विभीषणोपितं प्राहनासावन्यैर्निहन्यते।
यस्तुद्वादशवर्षाणि निद्राहारविवर्जितः॥६३॥

और मैंसब तुम्हारे दुःख को भस्मकर देऊंगा और सब तुम्हारे शत्रुओं का नाश करता हूं अबमैंनिकुंभिला नाम करके जो शिला है तहां जाके अग्नि को तृप्तकरके ५७ और तिस अग्नि से रथ आदि पदार्थो को प्राप्त हो शत्रु को अजेय हो जाऊंगा अर्थात् फिर नहीं कोई मुझ को जीत सकेगा यह रावण से कहि के इन्द्रजित् फिर शीघ्र ही निकुम्भिलापै जाके ५८ वहां रक्तपुष्पों की माला और रक्त चन्दन और रक्त बस्त्र इनको धारण करिकै हवन का प्रारम्भ करता हुआ अब इसके उपरान्त विभीषण इस मेघनाद के सब चरित्र को सुनिकै ५९ श्रीरामचन्द्र से दुष्टात्मा मेघनाद के होम के प्रारम्भ को कहता हुआ और यह भी कहा कि हे राम जो कदाचित् इस दुष्टमति मेघनाद का यह होम समाप्त हो गया तो यह मेघनाद सुर और असुर इन करके अजेय हो जायगा अर्थात् फिर नहीं जीता जायेगा ६० इससे शीघ्र ही लक्ष्मण के हाथ से में इस रावण के पुत्र को मरवा देऊंगा सो आप बलवानों में श्रेष्ठ जो लक्ष्मण तिनको मेरे साथ जाने की आज्ञा दीजिये ६१ औ लक्ष्मण अवश्य मेघनाद को मारेंगे इसमें कुछ सन्देह नहीं है तब राम बोले कि हे विभीषण में ही सबशस्त्रों के नाश करने वाले आग्नेय अस्त्र करके मेघनाद शत्रु के मारने को जाऊंगा ६२ परन्तु यह वचन वाल्मीकीय से विरुद्ध है वाल्मीकीय में अपनी इच्छा से राम ने लक्ष्मण ही को भेजा है और कोई रावण का पुत्र अपने हाथ से नहीं मारा है ऐसा लिखा है तौ राम का पूर्वोक्त-

वचन सुनि कैविभीषण राम से बोला कि हे राम यह मेघनाद और के हाथसे नहीं मरने का है क्योंकि जो बारह वर्षतक निद्रा और आहार इनको त्याग देवै ६३॥

तेनैव मृत्युर्निर्दिष्टोब्रह्मणास्यदुरात्मनः।
लक्ष्मणस्तु अयोध्याया निर्गम्यायात्त्वया सह

६४

तदादिनिद्राहारादीन्नजानातिरघूत्तम।
सेवार्थं तव राजेन्द्र ज्ञातं सर्वमिदं मया

६५

तदाज्ञापयदेवेशलक्ष्मणं त्वरयामया।
हनिष्यतिनसंदेहः शेषः साक्षाद्धराधरः

६६

त्वमेवसाक्षाज्जगतामधीशोनारायणो लक्ष्मण एव शेषः।
यवांधराभारनिवारणार्थं जातौजगन्नाटकसूत्रधारौ

६७

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादयुद्धकाण्डेऽष्टमः सर्गः

तिसी के हाथ से इसकी मृत्यु ब्रह्माने कही है और हे राम लक्ष्मण तौ अयोध्या से निकसिकै जबसे आपके सङ्ग बनको आये हैं ६४ तिस दिन से लेके हे राम निद्रादिकों को जानता ही नहीं है सो केवल आप की सेवा के कारण से यह वृतान्त मेरा सब जाना हुआ है ६५ तिस कारण से हे देवेश लक्ष्मण को मेरे संग जाने की आज्ञा कीजिये ये पृथ्वी के धारण करने वाले साक्षात् शेषरूप लक्ष्मण मेघनाद को मारेंगे इस में कुछसंशय नहीं है ६६ और हे राम तुमही सब जगत् के साक्षात् स्वामी हौ अर्थात् लक्ष्मण जो कार्य करेंगे उसमें भी तुम्हारी ही शक्ति है ऐसे नारायण आप हैं और लक्ष्मण शेषावतार हैं और तुम दोनों पृथिवी के भार दूर करने को प्रकट हुये हौ और साक्षात् जगत् का निर्माण रूप जो नाटक तिसके सूत्रधार हौअर्थात् मुख्य कारण रूप हौ ६७॥

इति श्रीमद्ध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसम्बादे युद्धकाण्डे
श्रीमदमादत्तकृत भाषाटीकायामष्टमः सर्गः॥

विभीषणवचः श्रुत्वारामोवाक्यमथाब्रवीत्।
जानामितस्यरौद्रस्यमायां कृत्स्नां विभीषण

॥१॥

सहिब्रह्मास्त्र विच्छूरोमायावीच महाबलः।
जानामिलक्ष्मणस्यापि स्वरूपममसेवनम्

॥२॥

ज्ञात्वेवासमहंतूष्णींभविष्यत्कार्यगौरवात्।
इत्युक्त्वा लक्ष्मणं प्राहरामो ज्ञानवतांवरः

गच्छलक्ष्मणसैन्येनमहताजहिरावणिम्।
हनुमत्प्रमुखैः सर्वैर्यूथपैः सह लक्ष्मण

जाम्बवानृक्षराजोयं सह सैन्येन संवृतः।

विभीषणश्चसचिवैःसह त्वामभियास्यति

अभिज्ञस्तस्य देशस्य जानातिविवराणि

सः।
रामस्य वचनं श्रुत्वां लक्ष्मणः सविभीषणः॥६॥

जग्राहकार्मुकं श्रेष्ठमन्यद्भीमपराक्रमः।
रामपादां बुजं स्पृश्यदृष्टः सौमित्रिरब्रवीत्॥७॥

दो०

नवमसर्गमहँ इन्द्रजितमारोलक्ष्मणवीर।
शोकाकुल दशकंठपुनि गयोजानकीतीर॥१॥

सीतामारन हेतु खलखड्गनग्नतिहिंलीन्ह।
तहां सुपारसमन्त्रिवरवरजिस्वस्थ मन कीन्ह॥२॥

अबमहादेव जी पार्वती से कथा वर्णन करें हैं कि हे पार्वति अब श्रीरामचन्द्र विभीषण के वचन सुनि बोलतेहुये कि हे विभीषण तिस तमोगुणी इन्द्रजित् की माया को मैंसब जानता हूं १ और सो इन्द्रजित् ब्रह्मास्त्र को जानता है और शूर है और मायावी है और बड़ा बली है और लक्ष्मण के स्वरूप को भी मैं जानता हूं और जैसे मेरी सेवा के हेतु लक्ष्मण ने निद्रा आहार आदि जीते हैं सो भी मैं जानता हूं २ और यह सब जान के ही होने वाले कार्यके गौरव से मैंमौन हो गया यह वचन विभीषण से कहिकै जानने वालों में श्रेष्ठ जो राम सो लक्ष्मण से बोले ३ कि हे लक्ष्मण हनुमान् को आदि लैके जे यूथपती तिन्हों करके सहित और बड़ी सेना को साथ लेके युद्धकरने को जावो और रावण के पुत्र को मारो ४ और जाम्बवान् जो ऋक्षराज सो अपनी सेनाकरके सहित तुम्हारे संग जायगा और मन्त्रियों करके सहित विभीषण भी तुम्हारे संग जायगा ५ क्योंकि यह विभीषण उस निकुम्भि लास्थान का जाननेवाला है और भी अलक्षित स्थानों को जानता है अब ये राम के वचन सुनिकै विभीषण सहित जो बड़े पराक्रमयुक्त लक्ष्मण सो ६ श्रेष्ठ धनुष को ग्रहणकरके और रामके चरणारविन्द कोस्पर्शकरके प्रसन्न हो लक्ष्मणजी बोलते हुये ७॥

अद्यमत्कार्मुकान्मुक्ताः शरानिर्भिद्यरावणिम्।
गमिष्यंति हि पातालं स्नातुं भोगवती जले॥८॥

एवमुक्त्वाससौमित्रिः परिक्रम्यप्रणम्यतम्।
इंद्रजिन्निधाकांक्षी ययौत्वरित विक्रमः॥९॥

वानरैर्बहुसाहसैर्हनमान्पृष्टतोन्वगात्।
विभीषणश्च सहितो मंत्रिभि स्त्वरितं ययौ॥१०॥

जांबवत्प्रमुखाऋक्षाः सौमित्रिं त्वरयान्वगुः।
गत्वानिकुंम्भिलादेशं लक्ष्मणोवानरैः सह॥११॥

अपश्यद्वल संघातं दूराद्राक्षससंकुलम्।
धनुरायम्य सौमित्रिर्यतोभूद्धरिविक्रमः॥१२॥

अंगदेन च वीरेण जांबवान्राक्षसाधिपः।
तदाविभीषणः प्राहसौमित्रिं पश्य राक्षसान्॥१३॥

यदेतद्राक्षसनीकंमेघश्यामंविलोक्यते।
अस्यानी कस्य महतो भेदने यत्नवान्भव॥१४॥

आज मेरे धनुष से छूटे हुये जे वाण हैं ते रावण के पुत्रको विदारण करके भोगवती गंगा के जल में अथवा जो भोगवती नागों की पुरी है तिसके जल में स्नान करने को पाताल लोक को जावैंगे ८ इसप्रकार लक्ष्मण वचन कहिकै और श्रीराम की परिक्रमाकरके और प्रणाम करके इन्द्रजित् के मारने की इच्छा करके शीघ्र ही जाते हुए ९ अब बहुत हजार बानरों को साथलेकै लक्ष्मण के पीछे पीछे हनुमान् जी जाते हुये और मन्त्रियों करके सहित जो विभीषण सो शीघ्रही जाता हुआ १० और जाम्बवान् को आदिलैके जे ऋक्ष हैं ते भी आकर के लक्ष्मण के पीछेपीछे जाते हुये अब बानरोंकरके सहित लक्ष्मण जहां निकुम्भिलास्था न रहा तहां जाके ११ दूर ही से राक्षसों करके व्याप्त राक्षसों की सेनाओं के समूह को देखते हुये और बड़े पराक्रम जिनके ऐसे जो लक्ष्मण सो धनुष को लेकै यत्न करके सहित स्थित होते हुये १२ और अंगदबीरकरके सहित जाम्बवान् भीयत्न युक्त स्थितहोता है और उससमय में राक्षसों का स्वामी जो विभीषण है सो लक्ष्मण से यह कहता हुआ कि हे लक्ष्मण अब राक्षसों को देखिये १३ और जो यह राक्षसों की सेना मेघवत् श्यामवर्ण दिखाई पड़ती है इस बड़ी सेना के भेदन में अर्थात् नाश करनेमें तुम यत्नकरौ १४

राक्षसेंद्रसुतोप्यस्मिन्भिन्नदृश्योभविष्यति।
अभिद्रवाशुयावद्वैनैतत्कर्मसमाप्यते॥१५॥

जहिवीरदुरात्मानं हिंसापरम धार्मिकम्।
बिभीषण वचःश्रुत्वा लक्ष्मणःशुभलक्षणः॥१६॥

ववर्षशरवर्षाणिराक्षसेंद्रसुतंप्रति।
पाषाणैःपर्वताग्रैश्चवृक्षैश्चहरियूथपाः॥१७॥

निर्जघ्नुःसर्वतोदैत्यान्तेपिवानरयूथपान्।
परश्वधैःसितैर्बाणैरसिभिर्यष्टितोमरैः॥१८॥

निर्जघ्नुर्वानरानीकंतदाशब्दोमहानभूत्।
ससंप्रहारस्तुमुलःसंजज्ञेहरिरक्षसाम्॥१९॥

इंद्रजित्स्वबलं सर्वमर्द्यमानं विलोक्यसः।
निकुम्भिलां चहोमंचत्यक्त्वाशीघ्रविनिर्गतः॥२०॥

रथमारुह्यसधनुःक्रोधेनमहतागमत्।
समाह्वयित्वासौमित्रिंयुद्धायरणमूर्द्धनि॥२१॥

और जब इस सेनाको तुम विदारणकरके भगाइदेवोगे तभी यहां निकुंभि कलास्थान में होम करता हुआ जो मेघनाद सो दिखलाई देगा अर्थात् होमछोड़ि कै युद्ध करनेको आवैगा इससे जबतक इसका होम समाप्त न होय तबतक सन्मुखजा के शीघ्र ही युद्ध का प्रारम्भ करिये १५ और हिंसा में परायण अधर्मिष्ठ जो दुरात्मा इन्द्रजित् तिसको हे वीर शीघ्र ही मारिये इसका तात्पर्य यह है कि होम समाप्त भये पीछे यह मारने को अशक्य हो जायगा अब ये विभीषण के वचन सुनिकै शुभ लक्षण जो लक्ष्मण जी १६ सो इन्द्रजित् के ऊपर वाणों की

वृष्टि करते हुये और पर्वतों के श्रृंगोंकरके अर्थात् शिलाओं करके औ वृक्षों करके १७ वानर राक्षसों की सेना को चारों तरफ से मारतेहुये और वे राक्षस भी फरसा ओंकरके और वाणों करके और तलवारों करके और लाठियों करके और तोमरों करके वानरों को मारतेहुये १८ और उससमय में बड़ाघोरशब्द होता हुआ और वह संग्राम वानर और राक्षस इनका परस्पर मिलके होता हुआ १९अब इन्द्रजित् अपनी सेना को अत्यन्त पीड़ितदेखके उस निकुम्भिलास्थान और होमको छोड़िकै वहां से निकलता हुआ २० अब मेघनाद धनुष को लेके और रथके ऊपर चढिकै बड़े क्रोध करके आताहुआ और संग्राम भूमिमें लक्ष्मण को युद्धकेअर्थ बुलाकरके यह बोला २१॥

सौमित्रेमेघनादोहंमयाजीवन्नमोक्ष्यसे।
तत्र दृष्ट्वा पितृव्यं सःप्राहनिष्ठुरभाषणम्॥२२॥

इहैवजातःसंवृद्धःसाक्षाद्धातापितुर्मम।
यस्त्वं स्वजनमुत्सृज्यपरभृत्यत्वमागतः॥२३॥

कथं द्रुह्यसिपुत्रायपापीयानसिदुर्मतिः।
इत्युक्त्वा लक्ष्मणं दृष्ट्वाहनुमत्पृष्ठतःस्थितम्॥२४॥

उद्यदायुधुनिस्त्रिंशेरथेमहतिसंस्थितः।
महाप्रमाणमुद्यम्यघोरं विस्फारयन्धनुः॥२५॥

अद्यवोमासकावाणाःप्राणान्यास्यंति वानराः।
ततः शरंदाशरथिःसंधायामित्रकर्षणः॥२६॥

ससर्जराक्षसें द्रायक्रुद्धःसर्पइवश्वसन्।
इन्द्रजिद्रक्तनयनोलक्ष्मणं समुदैक्षत॥२७॥

शक्राशनिसमस्पर्शौलक्ष्मणेनाहतः शरैः।
मुहूर्त्तमभवन्मूढःपुनःप्रत्याहृतेन्द्रियः॥२८॥

कि हे लक्ष्मण में मेघनाद हौंमेरे आगे जीवते तुमनहीं छूटसकोगे फिर तहां विभीषण को देखके मेघनाद कठोर वचन बोलता हुआ २२ कि हे विभीषण जो तू राक्षस कुल में उत्पन्न हुआ और यहां हीवृद्धि को प्राप्तहुआ और साक्षात् मेरेपिताका भाई होकै जो अपने भाई बन्धुओं को त्यागिकै वैरियों के दासभावकों प्राप्त हुआ इससे तुझको धिक्कार है २३ और पुत्र जो मैं हौं तिससे कैसे द्रोह करता है इससे तू बड़ा पापी और दुष्टमति है अब मेघनाद ऐसे कठोर वचन विभीषण से कहिकै और हनुमान्की पीठके ऊपर स्थित लक्ष्मण को देखके २४ प्रकाश मान हैंशस्त्र और अनेक खड्ग जिसमें ऐसे बड़ेभारी रथके ऊपर बैठा हुआ बड़े भारी धनुष को चढ़ाके उसके प्रत्यंचाके शब्दकों करता हुआ यह बोला २५ कि हे वानरो आज मेरे बाण तुम्हारे रुधिर को पानकरैंगे अब तिसके उपरान्त शत्रुओंके नाशकरने वाले जोलक्ष्मण सो २६ धनुष में वाणका सन्धानकरके सर्प की तरह क्रोध करके श्वास छोड़ते हुये इन्द्रजित् के विदारण करने कोबाणों को छोड़ते हुये और इन्द्रजित् जो मेघनाद सो भी लालनेत्र करके लक्ष्मण की

तरफ देखता हुआ २७ और इन्द्रके वज्र के समान है स्पर्श जिनका ऐसे जो बाण हैं तिनकरकें लक्ष्मण करके ताड़न कियागया दो घड़ीतक तौ मूर्च्छित होगया फिर सचेत हो २८॥

ददर्शावस्थितं वीरं वीरोदशरथात्मजम्।
सोभिचक्रामसौमित्रिक्रोधसंरक्तलोचनः॥२९॥

शरान्धनुषिसंधायलक्ष्मणं चेदमब्रवीत्।
यदि ते प्रथमे युद्धेनदृष्टोमेपराक्रमः॥३०॥

अद्य त्वां दर्शयिष्यामि तिष्ठेदानीं व्यवस्थितः।
इत्युक्त्वासप्तभिर्बाणैरभिविव्याधलक्ष्मणम्॥३१॥

दशभिश्चहनुमंतं तीक्ष्णधारैः शरोत्तमैः।
ततः शरशतेनैव संप्रयुक्तेन वीर्यवान्॥३२॥

क्रोधाद्विगुणसंरब्धोनिर्विभेदविभीषणम्।
लक्ष्मणोपितथाशत्रुंशरवर्षैरवाकिरत्॥३३॥

तस्यबाणैःसुसंबिद्धंकवचंकांचनप्रभम्।
व्यशीर्य्यतरथोपस्थेतिलशःपतितंभुवि॥३४॥

ततः शरसहस्रेण संक्रुद्धो रावणात्मजः।
विभेद समरे बीरं लक्ष्मणं भीमविक्रमम्॥३५॥

वीर जो मेघनाद सो अपने सामने स्थित लक्ष्मणबीर को देखता हुआ तौ क्रोध से रक्त हैं नेत्र जिसके ऐसा मेघवाद लक्ष्मण के सन्मुख जाता हुआ २९और बाणों को धनुषमें सन्धानकर के लक्ष्मण से यह बोला कि जो तुमने पहिले संग्राम में मेरा पराक्रम नहीं देखा है तौ अब मैं दिखलाता हौं३० तुम मेरे आगे संग्राम में खड़े रहो यह कहिकै मेघनाद सात बाणोंकरके लक्ष्मण को ताडन करता हुआ ३१ और पैनी है धार जिनकी ऐसे दशबाणों करके हनुमान्को ताडन करता हुआ तिसके उपरान्त बडा बलवान् जो मेघनाद सो सौ बाणोंकरके ३२ सब से अधिक दूना क्रोधकर विभीषण को विदारण करता हुआ और लक्ष्मण जी भी क्रोध करके बैरी जो मेघनाद तिसको बाणों की वृष्टिकरके आच्छादित करते हुये ३३ फिर तिस लक्ष्मण के बाणोंकरके वेधा हुआ जो मेघनाद का सुवर्ण का बख्तर सो रथके ऊपर तिल तिल खण्ड खण्ड हो पृथिवी में गिरपडता हुआ ३४ तिसके उपरान्त क्रोध करता हुआ जो रावण का पुत्र सो हजार बाणों करके भयंकर है पराक्रम जिसका ऐसा जो लक्ष्मण बीर तिसको विदारण करताहुआ ३५॥

व्यशीर्य्यतापतद्दिव्यं कवचं लक्ष्मणस्य च।
कृतप्रतिकृतान्योन्यं बभूवतुरभिद्रुतौ॥३६॥

अभीक्ष्णं निश्वसंतौतौयुद्धेतां तुमलंपुनः।
शरसंवृतसर्वांगौसर्वतोरुधिरोक्षितौ॥३७॥

सुदीर्घकालंतौबीरावन्योन्यंनिशितैश्शरैः।
अयुध्येतांमहासत्वोजयाजयविवर्जितौ॥३८॥

एतस्मिन्नन्तरेवीरोलक्ष्मणःपंचभिःशरैः।
रावणे स्सारथिं साश्वंरथं च समचूर्णयत्॥३९॥

चिच्छेदकार्मुकं तस्यदर्शयन्हस्तलाघवम्।
सोन्यत्तुकार्मुकं भद्रं सज्यं चक्रेत्वरान्वितः॥४०॥

तच्चापमपिचिच्छेदलक्ष्मणस्त्रिभिराशुगैः।
तमेवच्छिन्नधन्वानं विव्याधानकसायकैः॥४१॥

पुनरन्यत्समादायकार्मुकं भीमविक्रमः।
इन्द्रजिल्लक्ष्मणं बाणैःशतैरादित्यसन्निभैः॥४२॥

तब दिव्य जो लक्ष्मण का वख्तर सो टूटकरके पृथिवी में गिर पड़ता हुआ इसप्रकार मेघनाद जो शस्त्रों को चलाता है तिसके बदलेके लक्ष्मण छोड़ते हैंफिर मेघनाद उसके बदले पै छोड़ता है ऐसे परस्पर दोनों सन्मुखदौड़ते हुये बरावर युद्धकरते हुये ३६ और वारंवार दोनों क्रोधकरके श्वास लेते हुये जो किसी के समझ में भी न सके ऐसा आश्चर्ययुक्त युद्धकरते हुये और बाणों करके व्याप्त हो रहे हैं सब अंग जिनके और रुधिर सेडूब रहे हैं ऐसे लक्ष्मण और मेघनाद दोनों होते हुये ३७ अब बड़े पराक्रमयुक्त और जय और पराजय रहित दोनों वीर बहुतकाल तक बड़े बड़े पैने बाणों करिकै परस्पर युद्धकरते हुये ३८ उसी समय में लक्ष्मण वीर पांच बाणौंकरिकै मेघनाद के सारथी को और घोड़ों और रथको चूर्ण चूर्ण करतेहुये ३६ और अपने हस्त की लघुता को अर्थात् शीघ्रता को दिखाते हुये लक्ष्मणजी उस मेघनाद के धनुष को भी काटते हुये फिर वह मेघनाद शीघ्र ही और धनुष को ग्रहण करिकै चढ़ा लेता हुआ ४० फिर उस धनुष को भी लक्ष्मणतीन बाण करिकै काट डालते हुये फिर कटि गया है धनुष जिसका ऐसे मेघनाद को लक्ष्मण बहुत बाणों करिकै बेधन करते हुये ४१ फिर बड़ा भयंकर है पराक्रम जिसका ऐसा जो इन्द्रजित् सो और धनुष लेकैसूर्य के तुल्य प्रकाश जिनका ऐसे पैने २ बाणों करिकै लक्ष्मण को विदारण करता हुआ ४२॥

विभेदवानरान्सर्वान्वारापूरयन्दिशः।
तत ऐन्द्रं समादाय लक्ष्मणो रावणिं प्रति॥४३॥

संधायाकृष्यकर्णांतकार्मुकं दृढनिष्ठुरम्।
उवाच लक्ष्मणो वीरःस्मरन्रामपदां बुजम्॥४४॥

धर्मात्मासत्यसन्धश्चरामोदाशरथिर्यदि।
त्रिलोक्यामप्रतिद्वंद्वस्तदेनं जहिरावणिम्॥४५॥

इत्युक्तावासमाकर्णाद्विकृष्यतमजिह्मगम्।
लक्ष्मणःसमरेवीरःससर्जेन्द्रजितं प्रति॥४६॥

सशरःसशिरस्त्राणं श्रीमज्ज्वलितकुण्डलम्।
प्रमथ्येन्द्रजितःकायात्पातयामासभूतले॥४७॥

ततःप्रभुदितादेवाःकीर्त्तयन्तोरघुत्तमम्।
ववर्षुःपुष्पवर्षाणिस्तुवंतश्चमहुर्मुहुः॥४८॥

जहर्षशक्रोभगवान्सहदेवैर्महर्षिभिः।
आकाशेपिचदेवानांशुश्रुवेदुन्दुभिःस्वनः॥४९॥

और वाणों करिकै दिशाओंको पूर्ण करताहुआ सब वानरों को ताडन कर

ता हुआ तिसके उपरान्त लक्ष्मण जी ऐन्द्र अस्त्र करिकै अभिमन्त्रित बाणको मेघनाद के बध करने को ग्रहण करिकै ४३ और उसबाणको धनुष में संधान करिकै और बड़ा कठोर जो धनुष तिसको दृढ़ जैसे होय तैसे कर्ण पर्यन्त खैंचि कैश्रीरामचन्द्र के चरणारविन्दको स्मरण करते हुये यह बोले कि ४४ दशरथ के पुत्र श्रीरामचन्द्रजी जो धर्मात्मा होयँ और सत्य है मर्यादा जिनकी ऐसे होयं और तीनों लोक में जिनके समान कोई योद्धा नहीं है जो कदाचित् ऐसे होवैंतौ हे बाण तू इस रावण के पुत्र को नाश करु ४५ यह वचन लक्ष्मणजी कहिकै और उस बाण को कर्णपर्यंत खैंचिकै समर में इन्द्रजित् के ऊपर छोड़ते हुये ४६ तब वह बाण इन्द्रजित् के शिरके मुकुट करिकै सहित और देदीप्यमान है कुण्डल जिसमें ऐसा जो शिर तिसको काटिकै घड़ से पृथक् पृथिवी में डारि देता हुआ ४७ अब तिसके उपरांत बड़े हर्षयुक्त देवता श्रीरामचन्द्रके गुणों का कीर्तन करते हुये लक्ष्मण जी के ऊपर पुष्पों की वृष्टि करतेहुये और बारम्बार स्तुति करते हुये ४८ और देवताओं करिकै और ऋषियों करिकै सहित इन्द्र जो भगवान्हैं सो आनन्द को प्राप्त होते हुये और आकाश में देवताओं के नगाड़ों का शब्द सुनाई देता हुआ ४९ ॥

विमलंगगनं चासीत्स्थिराभूद्विश्वधारिणी।
निहतंरावणिंदृष्ट्वाजयजल्पसमन्वितः॥५०॥

गतश्रमःससौमित्रिः शंखमापूरयद्रणे।
सिंहनादंततः कृत्वाज्याशब्दमकरोद्विभुः॥५१॥

तेननादेनसंहृष्टावानराश्चगतश्रमाः।
वानरेन्द्रैश्चसहितःस्तुवद्भिर्हृष्टमानसैः॥५२॥

लक्ष्मणःपरितुष्टात्माददर्शाभ्येत्यराघवम्।
हनूमद्राक्षसाभ्यां च सहितोविनयान्वितः॥५३॥

बबंदेभ्रातरंरामंज्येष्टंनारायणंविभुम्।
त्वत्प्रसादाद्रघुश्रेष्ठहतोरावणिराहवे॥५४॥

श्रुत्वातल्लक्ष्मणाद्भक्त्यातमालिंग्यरघूत्तमः।
मूर्घ्न्यवप्रायमुदितः सस्नेहमिदमब्रवीत्॥५५॥

साधुलक्ष्मणतुष्टोस्मिकर्मतेदुष्करं कृतम्।
मेघनादस्य निधनेजितं सर्वमरिंदम॥५६॥

और उससमय में निर्मल आकाश होता हुआ और पृथ्वी स्थिर होती हुई और मरे हुये मेघनाद को देखिकै जय शब्दयुक्त ५० और श्रमरहित जो लक्ष्मण सो संग्राम में शंखको बजातेहुये फिर लक्ष्मणजी सिंहवत् गर्जके धनुष के प्रत्यंचा केशब्दको करते हुये ५१ तिस शब्दकरके वानर प्रसन्न हुये और श्रमरहित होते हुये फिर आनन्दयुक्त है मन जिनको और स्तुति करते हुये ऐसे ने श्रेष्ठ वानर तिन करके युक्त ५२ और प्रसन्न है चित्त जिनका और हनुमान् विभीषणकरके सहित ऐसे जो लक्ष्मण सो नम्रहो ५३ रामके सन्मुख आके

और रामको देखके साक्षात् नारायण ज्येष्ठ भ्राता जो राम तिनको प्रणाम करते हुये और यह कहते हुये कि हेराम तुम्हारे प्रसादते संग्राम में रावण का पुत्र मेघनादमारा गया ५४ तब श्रीराम लक्ष्मण के मुखसे यह वचन सुनिकै प्रीति करिकै लक्ष्मण को हृदय से आलिंगन करके और शिर में सूंघकर आनन्दयुक्त हो स्नेहपूर्वक यह कहते हुये ५५ कि हेलक्ष्मण मैंतुम्हारे ऊपर बड़ा प्रसन्न हौंऔर तुमने बड़ा दुष्करकर्म किया और हे शत्रु के नाश करने वाले मेघनाद के मारने से तुमने सब राक्षसों के कुल को जीत लिया ५६॥

अहोरात्रैस्त्रिभिर्वीरः कथंचिद्विनिपातितः।
निःसपत्नःकृतोस्म्यद्यनिर्यास्यतिहिरावणः॥५७

पुत्रशोकान्मयायोद्धुंतंहनिष्यामिरावणम्।
मेघनादं हतं श्रुत्वा लक्ष्मणेन महाबलम्॥५८॥

रावणःपतितोभूमौमूर्च्छितःपुनरुत्थितः।
विललापातिदीनात्मापुत्रशोकेनरावणः॥५९॥

पुत्रस्यगुणकर्माणिसंस्मरन्पर्यदेवयत्।
अद्यदेवगणाःसर्वेलोकपालामहर्षयः॥६०॥

हतमिंद्रजितंज्ञात्वासुखंस्वप्स्यंतिनिर्भयाः।
इत्यादिबहुशःपुत्रलालसोविललापह॥६१॥

ततः परमसंक्रुद्धोरावणोराक्षसाधिपः।
उवाच राक्षसान्सर्वान्विनाशयिषुराहवे॥६२॥

सपुत्रबधसंतप्तःशूरःक्रोधवशंगतः।
संवीक्ष्यरावसोबुद्ध्याहंतुंसीतांप्रदुद्रुवे॥६३॥

और तीनदिन रात्रों कर कैसे भी मारपाया और हे लक्ष्मण इससमय तुमने मुझको शत्रु रहितकरदिया और अबपुत्रशोक करके व्याकुल रावण शीघ्र हीनिकलेगा ५७ मेरे संग युद्धकरने को तो मैं उसको मारौंगा अबमहादेव कहते हैं हे पार्वति तिसके उपरान्त रावण लक्ष्मण करके महावली मेघनाद को मारा हुआसुनके ५८ मूर्च्छित होपृथिवीमें गिरपड़ता हुआ और फिर उठि करके पुत्र शोककर के दीन जो रावण सो विलाप करता हुआ ५९ पुत्र के जे गुण और कर्म तिनको यादिकरके बिलापकरता रावण यह कहता हुआ कि आजु सब देवता और लोकपाल और महर्षि ६० अर्थात् बड़ेबड़े ऋषिलोग सब मरे हुये इन्द्रजित्को सुनके निर्भय होके सुखपूर्वक सोवेंगे इसप्रकार पुत्रकी लालसा करके युक्त रावण बहुत विलाप करता हुआ ६१ तिसके उपरान्त परमक्रोध युक्त जो रावण सो शत्रुओंके नाशकरने की इच्छा करके सबराक्षसों से बोला कि हे राक्षसो तुमसबयुद्ध करने को जावो ६२ फिर पुत्रके वधकरके संतप्त क्रोध के वशीभूत हुआजो बडाशूर रावण सो बुद्धि सेविचार करके सीता के मारने को दौड़ता हुआ ६३॥

खड्गपाणिमथायांतंक्रुद्धंदृष्ट्वादशाननम्।
राक्षसी मध्यगासीताभयशोकाकुलाभवत्६४॥

एतस्मिन्नन्तरेतस्यसचिवोबुद्धिमान्शुचिः।

सुपार्श्वोनाममेधावीरावणं वाक्यमब्रवीत्॥६५॥

ननुनामदशग्रीवसाक्षाद्वैश्रवणानुजः।
वेदविद्याव्रतस्नातःस्वकर्मपरिनिष्ठितः॥६६॥

अनेकगुणसंपन्नःकथंस्त्रीबधमिच्छसि।
अस्माभिःसहितोयुद्धेहत्वारामं च लक्ष्मणम्॥

प्राप्स्यसे जानकीं शीघ्रमित्युक्तःसन्यवर्त्तत॥६७॥

ततोदुरात्मा सुहृदानिवेदितं वचःसुधर्म्यपरिगृह्यरावणः।

गृहंजगामाशुशुचाविमूढधीःपुनःसभां च प्रययौसुहृद्वृतः॥६८॥

इत्यध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे युद्धकाण्डेनवमः सर्गः ९॥

अब राक्षसियों के मध्य में स्थित जो सीता सो खड्ग को हाथ में लिये क्रोध युक्त रावण को आते देखके भय और शोक इनकरके व्याकुल होती हुई ६४ उसी समय में बड़ा बुद्धिमान् और पवित्र एक सुपाश्र्वनाम मन्त्री रावणसे वचन बोलता हुआ कि ६५ हे दुशग्रीव तुम प्रसिद्ध साक्षात् कुबेर के छोटे भाई होके और आपभी वेदविद्या और व्रत इनमें कुशल और अपने धर्ममें स्थित ६६ और अनेक गुणों करके युक्त हो कैसे स्त्री वध की इच्छा करते हो इससे हम सब राक्षसों करके युक्त युद्ध में राम और लक्ष्मण इनको मारिकै शीघ्रही सीताको प्राप्त होउगे ऐसा जब सुपार्श्वने समुझाया तौ रावण सीता के बधसे निवृत्त होता हुआ ६७ अब दुरात्मा जो रावण सो मित्र के कहे हुये जो धर्म युक्त बचन तिनको ग्रहणकर के शीघ्र हीअपने गृहको जाताहुआ और मूढ है बुद्धि जिस की ऐसा जो रावण सो फिर अपने मन्त्री आदि मित्र गणों करके वेष्टितसभा में प्रवेश करता हुआ ६८॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे युद्धकाण्डे
भाषाटीकायां नवमस्सर्गः९॥

सविचार्य्यसभामध्येराक्षसैःसहमंत्रिभिः।
निर्ययौयेवशिष्टास्तैराक्षसैःसहराघवम्॥१॥

शलभःशलभैर्युक्तःप्रज्वलं तमिवानलम्।
ततोरामेणनिहताःसर्वेतेराक्षसायुधि॥२॥

स्वयं रामेणनिहतस्तीक्ष्णबाणेनवक्षसि।
व्यथितस्त्वरितंलंकांप्रविवेशदशाननः॥३॥

दृष्ट्वारामस्यबहुशः पौरुषं चाप्य मानुषम्।
रावणोमारुतेश्चैवशीघ्रं शुक्रांतिकंययौ॥४॥

नमस्कृत्यदशग्रीवःशुक्रंप्रांजलिरब्रवीत्।
भगवन्रराघवेणैवं लंकांराक्षसयूथपैः॥५॥

विनाशितामहादैत्यानिहताःपुत्रबांधवाः।
कथंमेदुःखसंदोहस्त्वयितिष्ठतिसद्गुरो॥६॥

इतिविज्ञापितोदैत्यगुरुः प्राहदशाननम्।
होमंकुरुप्रयत्नेनरहसित्वंदशानन॥७॥

दशमसर्ग दशकगठरिपु दहन शुक्रमत लीन्ह

इहांविभीषणभालुकपि भेजिविघ्नबढ़कीन्ह॥१॥

अबमहादेवजी पार्वती सेकथा वर्णन करै हैं कि हे पार्वति अब रावण सभा के मध्यमें राक्षस और मन्त्रियों के साथ विचारकरके जे राक्षस बाकी रहे थे तिन करके सहित रामसे युद्धकरने को जाताहुआ १ कैसे जैसे पतंगा और पतंगाओं करके सहित जलती हुई अग्निमें प्रवेश करे तब रामने संग्राम में वे सबराक्षस मारडाले २ और राम ने छाती में बाणकरके जब घायल किया तौआप रावण भी बड़ी व्यथा को प्राप्त हो लंका ही में प्रवेश करता हुआ३ अब रावण बहुत सा रामका पराक्रम अमानुष अर्थात् जो मनुष्यों से न होसके ऐसा देखके और हनुमान का भी ऐसाही पराक्रमदेखके शीघ्रही शुक्राचार्य के समीप जाताहुआ ४अबरावण शुक्राचार्य को नमस्कार करके हाथ जोड़ के बोलता हुआ कि हे भगवन् राक्षसों करके सहित सब लंका रामने नाश करदी ५ और बड़े बड़े दैत्य मारे गये और मेरे पुत्र पौत्र और सब बांधव मारे गये सो आप जो सद्गुरु तिनके बैठे ऐसा मुझको दुःख समूह कैसे होय ६ ऐसा जब अपना अभिप्राय रावण ने जनाया तौ शुक्राचार्य रावण से कहते हुये कि हे रावण तुम यत्न कर एकान्त में हवन करौ ७ ॥

यदिविघ्नोन चेद्धोमेतर्हिहोमानलोत्थितः॥८॥

महान्रथश्चबाहाश्चचापतूणीरशायकाः।
संभविष्यंतितैर्युक्तस्त्वमजेयोभविष्यसि॥९॥

गृहाणमंत्रान्मद्दत्तान्गच्छहोमंकुरुद्रुतम्।
इत्युक्तस्त्वरितंगत्वारावपोराक्षसाधिपः॥१०॥

गुहांपातालसदृशींमंदिरेस्वेचकारह।
लंकाद्वारकपाटादिवध्वासर्वत्रयत्नतः॥११॥

होमद्रव्याणिसंपाद्ययान्युक्तान्याभिचारिके
गुहां प्रविश्यचैकांतेमौनीहोमंप्रचक्रमे॥१२॥

उत्थितं धूममालोक्यमहान्तं रावणानुजः।
रामायदर्शयामासहोमधूमं भयाकुलः॥१३॥

पश्यामदशग्रीवोहोमं कर्तुंसमारभत्।
यदिहोमः समाप्तः स्यात्तदाजेयोभविष्यति॥१४॥

जो कदाचित् होम में विघ्न न होवेगा तो होम की अग्निसे एक रथ निकलेगा ८ और घोड़े और तरकस और बाण जे उत्पन्न होवेंगे तिन करके युक्त तुम फिर शत्रुओं से अजय हो जावगे अर्थात् शत्रु कोई नहीं जीत सकेगा ९ और मेरे दिये हुये मन्त्रों को तुम ग्रहण करौऔर शीघ्र ही जाके होम करो ऐसा जब शुक्राचार्यजी ने कहा तौ रावण शीघ्र ही जाकर १० अपने मन्दिर में एक बड़ी गहिरी गुहा बनावता हुआऔर बड़े यत्नसे लंका के द्वारों के फाटक सब बन्द करवादि-

ये ११ और मारणकर्म में जौनसी होम की सामग्री कही हैं तिन सबको संपादन करके अर्थात् इकट्ठी करके और आप उस एकांत देशमें गुहामें प्रवेशकर मौन होके होमका प्रारम्भ करता हुआ १२ तब बिभीषण उस गुहासे उठा जो बड़ाभारी धूम तिसको देखके भय से व्याकुल हो रामको दिखाता हुआ १३ और यह कहता हुआ कि राम यह रावण होमकरने को प्रारम्भ करता हुआ है तिसको देखिये जो कदाचित् यह होम समाप्त हो गया तौ रावण जीतनेके योग्य नहीं रहैगा १४॥

अतोविघ्नायहोमस्यप्रेषयाशुहरश्विरान्।
तथेतिरामःसुग्रीवसंमतेनांगदंकपिम्॥१५॥

हनुमत्प्रमुखान्वीरान्आदिदेशमहाबलान्।
प्रकारं लंघयित्वा ते गत्वा रावणमंदिरम्॥१६॥

दशकोट्यःप्लवंगानांगत्वामंदिररक्षकान्।
चूर्णयामासुरश्वांश्चगजांश्चन्यहनन्क्षणात्॥१७॥

ततश्चसरमानामप्रभाते हस्तसंज्ञया

विभीषणस्य भार्यासाहोमस्थानमसूचयत्॥१८॥

गुहापिधानपाषाणमंगदःपादघट्टनैः

चूर्णयित्वा महासत्वःप्रविवेशमहागुहाम्॥१९॥

दृष्ट्वादशाननंतत्रमीलिताक्षंदृढ़ासनम्

ततोंऽगदाज्ञयासर्वेवानराविविशुर्द्रुतम्॥२०॥

तत्रकोलाहलं चक्रुस्ताडयंतश्चसेवकान्

संभारांश्चिक्षिपुस्तत्रहोमकुंडेसमंततः॥२१॥

इससे इसके होमके विघ्न के लिये वानरों को भेजिये तब राम तैसेही बिभीषण का वचन मानिकै सुग्रीव की सलाह से अंगद को १५ और हनुमान् को आदिलेके बड़े २ बलवान् बीर वानरों को आज्ञा देते हुये तो वे सब दश कडोर बानर लंकाकी दीवाल को नांघिकै १६ रावण के मन्दिर की रक्षा करने वाले जे राक्षस थे तिनको और घोड़ों को और हाथियों को मारके चूर्ण २ एक क्षणमात्र में ही करडालते हुये १७ फिर तिसके उपरान्त सरमानाम करके जो विभीषणकी स्त्री थी सो प्रातःकाल के समय में ही हाथ के इशारे से रावण के होम के स्थानको बतला देतीहुई १८ फिर महाबली जो अंगद सो उस गुहा के मूंदनेकी शिलाको अपनी लातों करके चूर्ण १ करके गुहा में प्रवेश करता हुआ१६ फिर अंगदकी आज्ञासे और भी सब वानर प्रवेश करते हुये फिर आंखों को मूंदे हुये और दृढआसन पैबैठे हुये रावण को देखके २० सब वानर बड़ा भारी कोलाहल शब्दकरतेहुये और रावण के सेवकों को मारने लगे और होम की सामग्रियों को चारों तरफ से कुण्ड में डारने लगे २१॥

स्रुवमाच्छिद्यहस्ताच्चरावणस्यवलाद्रुषा।
तेनैव संजघानाशुहनमान्प्लवगाग्रणीः

२२

घ्नन्तिदंतैश्चकाष्ठैश्चवानरास्तमितस्ततः।

नजहौरावणोध्यानंहतोपविजिगीषया॥२३॥

प्रविश्यांतःपुरेवेश्मन्यंगदोवेगवत्तरः।
समानयत्केशबंधेधृत्वामंदोदरीशुभाम्॥२४॥

रावणस्यैवपुरतोविलपंतीमनाथवत्।
विददारांगदस्तस्याःकञ्चुकैरत्नभूषितम्॥२५॥

मुक्ताविमुक्ताः पतिताः समंताद्रत्नसंचयैः।
श्रोणिसूत्रं निपतितं त्रुटितंरत्नचित्रितम्॥२६॥

कटिप्रदेशाद्विस्रस्तानीवीतस्यैवपश्यतः।
भूषणानिचसर्वाणिपतितानिसमंततः॥२७॥

देवगन्धर्वकन्याश्चनीतहृष्टैःप्लवंगमैः।
मन्दोदरीरुरोदाथरावणस्याग्रतोभृशम्॥२८॥

अब वानरों में श्रेष्ठजो हनूमान् सोरावण के हाथ से स्रुवाकोछीन के उसी स्रुवा करके रावणको ताड़न कर्ताहुआ २२ अव वानर इधर उधर से दांतों करके और लकड़ियों करके रावणको ताड़न भी करते हुये हैं तौभी विजय की इच्छा करके ताड़न किया हुआ भी रावण ध्यानको नहीं छोड़ता हुआ २३ तब तो बड़े वेग करके युक्त आंगदरावणके रनिवास में जाके रावणकी रानी जो मन्दोदरी तिसको जूरा पकरके घसीटता हुआ रावण के आगे ले आके २४ फिर अनाथकी नाईं विलाप कररही जो मन्दोदरी तिसकी रत्नोकर के जटित अर्थात् जड़ाऊ जो जरीके कामकी चोली तिसको अपने नखों से फाड डालता हुआ २५ फिर उस मन्दोदरी की चोली से रत्नों के समूह करके सहित अनेक मोती गिरते हुये फिर उसकी कमर में जो रनों से जड़ी हुई तागड़ी थी सो भी अंगद के हाथ सोंटूटी हुई पृथिवी में पड़ती हुई २६ फिर उसकी कमर में जो लहँगा बंधा था उसके नाले की गांठी ऐंचा खैंची में खुलगई तौ वह भी रावण के देखते देखते गिर गया ऐसे ही मन्दोदरी के अंगसे आभूषण टूटि टूटिकै पृथ्वी में चारों तरफ सेगिरते हुये २७ फिर उसी समय में जे देवतों की कन्या और गन्धर्वो की कन्या रावण की स्त्री हो गई थीं तिनको भी वानरों ने पकड़ि पकड़िकै रावण के सामने लाके वो ही दशा की जोअंगद ने मन्दोदरीकी की अब मन्दोदरी रावण के आगे अत्यन्त रोवती हुई २८ ॥

क्रोशंती करुणं दीनाजगाददशकन्धरम्।
निर्लज्जोसिपरैरेवंकेशपाशेविकृष्यते॥२९॥

भार्यातवैवपुरतःकिंजुहोषिनलज्जसे।
हन्यते पश्यतोयस्यभार्यापापश्चशत्रुभिः॥३०॥

मर्तव्यं तेन तत्रैव जीवतान्मरणंवरम्
हा मेघनादतेमाताक्लिश्यतेवतवानरैः॥३१॥

त्वयिजीवतिमेदुःखमीदृशंचकथंभवेत्।
भार्यालज्जाचसंत्यक्ताभर्त्रामेजीविताशया॥३२॥

श्रुत्वातद्देवितंराजामंदोदर्य्यादशाननः।
उत्तस्थौखड्गमादायत्यजदेवीमितिब्रुवन्॥३३॥

जघानांगदमव्यग्रंकटिदेशेदशाननः।

तोत्सृज्यययुःसर्वेविध्वंस्यहवनंमहत्॥३४॥

रामपार्श्वमुपागम्यतस्थुःसर्वेप्रहर्षिताः।
रावणस्तु ततोभार्यामुवाचपरिसांत्वयन्॥३५॥

और दया जैसे होइ ऐसे दीनहाकै दीर्घस्वर करके रोदनकरती मन्दोदरी रावणसे बोलती हुई कि हेदशकन्धर तूबडानिर्लज्ज है क्योंकि जिससे तेरी स्त्री तेरेई आगे बैरियोंकर केशपकड़िकै खैंचीजाय २९ अर्थात् कढेलीजावैऔर होम करता रहै और लज्जा को न प्राप्तहोय और जिसकिसी पुरुषके देखते देखते जिसकी स्त्री पापी जो शत्रु है तिन्होंकरके ताडन करी जाय ३० तो उस पुरुष को मर जाना चाहिये क्योंकि ऐसे जीवन से मरण ही श्रेष्ठ है अब मन्दोदरी मेघनाद की यादकर बिलापकरके कहती है कि हा मेघनाद बडेखेद की बात है जो तेरी माता वानरों करके ऐसे क्लेश को प्राप्त होइ ३१ और तेरेजीवते मुझको ऐसा दुःख कभी न होता और मेरे पति ने तो अपने जीवन की आशाकरके भार्या और लज्जा दोनों त्यागदी ३२ अब रावण जो है राजा सो यह मन्दोदरी के बिलाप को सुनिकै देवीजो मन्दोदरी तिसको छोडदे ऐसा अंगद से कहता हुआ और खड्गलेके उठताहुआ ३३ फिर सावधान होके रावण अङ्गदको कमर में खड्गकरके ताडन करता हुआ तिसके उपरान्त सब वानर रावण की स्त्रियों को त्यागकरके और रावणके होम को नाश करके चले जाते हुये ३४ फिर राम के समीप प्राप्त हो सब वानर आनन्दयुक्त स्थित होते हुये और रावण तो मन्दोदरी जो भार्या तिसके चित्तको सावधान करता हुआ बोला ३५॥

दैवाधीनमिदम्भद्रेजीवताकिन्नदृश्यते।
त्यजशोकंविशालाक्षिज्ञानमालंव्यनिश्चितम्॥३६॥

अज्ञानप्रभवःशोकःशोकोज्ञानविनाशकृत्।
अज्ञानप्रभवाहंधीःशरीरादिष्वनात्मसु॥३७॥

तन्मूलःपुत्रदारादिसम्बन्धःसंसृतिस्ततः।
हर्षशोकभयक्रोधलोभमोहस्टहादयः॥३८॥

अज्ञानप्रभवाह्येतेजन्ममृत्युजरादयः।
आत्मातुकेवलःशुद्धोव्यतिरिक्तोह्यलेपकः॥३९॥

आनंदरूपोज्ञानात्मासर्वभावविवर्जितः।
नसंयोगोवियोगोवाविद्यते केनचित्सतः॥४०॥

एवंज्ञात्वास्वमात्मानंत्यजशोकमनिन्दिते।
इदानीमेवगच्छामिहत्वारामंसलक्ष्मणम्॥४१॥

आगमिष्यामिनोचेन्मांदारयिष्यतिशायकैः।
श्रीरामोवज्रकल्पैश्चततोगच्छामितत्पदम्॥४२॥

कि हेभद्रेकल्याणरूपे यह सब जगत् दैवाधीन है इससे जीवते पुरुषकर के क्या नहीं दिखाई पड़ता है अर्थात् जबतक प्राणी जीवता है तबतक प्रारब्धवश

ते सुख दुःख सवी देखता है इससे हे विशाल नेत्रे जो कुछ होनहार है उसको उल्लंघन कोई नहीं करसक्ता है यह जानिकै शोक को त्यागिदे ३६ और यह शोक आत्मा और अनात्मपदार्थ के अविवेकसे उत्पन्न होता है और ज्ञानका नाशकरने वाला है और शरीरादिक जे अनात्मपदार्थ है तिनमें अज्ञान से ही अहं बुद्धि उत्पन्न होती है ३७ अर्थात् यह ब्राह्मणादिरूप मैंहौंऔर ये मेरे हैं ऐसी बुद्धि उत्पन्न होती है और यही अहंबुद्धिहै कारण जिसमें ऐसा पुत्र दारादि सम्बन्ध होता है और तिससे फिर संसारहेतु बन्धककर्मोकी उत्पत्ति होती है और तिन कर्मोंसे फिर हर्ष शोक भय क्रोध लोभ मोह स्पृहादिक होते हैं ३८ इसी प्रकार जन्म मृत्यु जरादि कभी सब अज्ञान से ही उत्पन्न होते हैं और आत्मा का तो वास्तवमें किसीसे संबन्ध नहीं है क्योंकि आत्मा तो केवल शुद्ध हैऔर सबसे व्यतिरिक्त है और न्यारा है और निर्लेप है ३९ और आनन्दरूप है और ज्ञान स्वरूप है और सुख दुःखादिभावों करके रहित है और सद्रूप आत्मा का न किसी से संयोग है न वियोग है४० अर्थात् बुद्धि ही मुख्यता करके हर्ष शोकादि में कारण है इससे हेअनिन्दिते मन्दोदरि इसप्रकार अपने आत्माको जानके शोकको त्याग दे और में अभी लक्ष्मण सहित रामको मारिकै आवता हाँ ४१ अथवा रामही अपने वज्रतुल्य जे बाण हैं तिन्होंकरके मुझको विदारण करैगा तोभी में रामके पदको प्राप्तहोऊंगा ४२॥

तदात्वयामे कर्त्तव्याक्रियामच्छासनात्प्रिये।
सीतांहत्वामयासार्द्धं त्वं प्रवेक्ष्यसिपावकम्॥४३॥

एवंश्रुत्वावचस्तस्यरावणस्यातिदुःखिता
उवाचनाथमेवाक्यंशृणसत्यंतथाकुरु॥४४॥

शक्योनराघवोजेतुंत्वयाचान्यैःकदाचन।
रामोदेववरःसाक्षात्प्रधानपुरुषेश्वरः॥४५॥

मत्स्योभूत्वापुराकल्पेमनुंवैवस्वतंप्रभुः।
ररक्षसकलापद्भ्योराघवोभक्तवत्सलः॥४६॥

रामःकूर्मोभवत्पूर्वंलक्षयोजनाविस्तृतः।
समुद्रमथनेपृष्ठेदधार कनकाचलम्॥४७॥

हिरण्याक्षोतिदुर्वृत्तोहतो नेनमहात्मना।
क्रोडरूपेणवपुषाक्षोणीमुद्धरताक्वचित्॥४८॥

त्रिलोक कंटकंदैत्यंहिरण्यकशिपुंपुरा।
हतवान्नारसिंहेनवपुषारघुनन्दनः॥४९॥

और हे प्रिये जब में रामके वाणों करके मारा जाउँ तो मेरी पारलौकिक क्रिया मेरी आज्ञासे तुझको करना योग्य है और सीताको मारके तू मेरे संग अग्नि में प्रवेश करजाना ४३ अबइसप्रकार रावणके वचनसुनिकै अतिदुःखित जो मन्दोदरी सो रावण से बोली कि हेनाथ मेरे सत्यवचन सुनौ और फिर तैसे ही करो ४४ तुमकरिके वा औरों करिकै रामजीतने को शक्य नहीं है क्योंकि

राम साक्षात् प्रकृतपुरुष का ईश्वर नारायण हैं ४५ और यही राम पहिले कल्प में मत्स्यरूप धारणकर वैवस्वतमनुको सब आपत्तियोंसे रक्षाकरताहुआ क्योंकि भक्तलोग उसको प्रिय हैं इसकारण से ४६ और यही राम पहिले समुद्र के मनथसमय में लक्ष योजन का है विस्तार जिसका ऐसा कच्छपरूप होता हुआ और उस कच्छपरूप करिकै मन्दराचलको पीठिपै धारण करता हुआ ४७ और बाराहरूप करिकै पृथिवी का उद्धारण करताहुआ जो यह महात्मा राम तिसने अतिदुर्वृत्त अतिदुराचार जो हिरण्याक्ष दैत्य तिसको मारा ४८ और यही श्रीराम पहिले नरसिंहरूपकरिकै तीनों लोकोंका कंटक जो हिरण्यकशिपुदैत्य तिसको मारतेहुये ४९॥

विक्रमैस्त्रिभिरेवासौबलिंबध्वाजगत्त्रयम्।
आक्रम्यादात्सुरेन्द्रायभृत्यायरघुसत्तमः॥५०॥

राक्षसाःक्षत्रियाकाराजाताभूमेर्भरावहाः।
तान्हत्वाबहुशोरामोभुवंजित्वाह्यदान्मुनेः॥५१॥

सएवसांप्रतंजातोरघुवंशेपरात्परः।
भवदर्थेरघुश्रेष्ठोमानुषत्वमुपागतः॥५२॥

तस्यभार्याकिमर्थंवाहृतासीतावनाद्बलात्।
ममपुत्रविनाशार्थंस्वस्यापिनिधनायच॥५३॥

इतःपरंवावैदेहीप्रेषयस्वरघूत्तमे।
विभीषणायराज्यंतुदत्त्वागच्छामहेवनम्॥५४॥

मंदोदरीवचःश्रुत्वारावणोवाक्यमब्रवीत्।
कथंभद्रेरणेपुत्रान्भ्रातृृन्राक्षसमण्डलम्॥५५॥

घातयित्वाराघवेणजीवामिवनगोचरः।
रामेणसहयोत्स्यामिरामबाणैःसुशीघ्रगैः॥५६॥

और यही राम बामनरूप धारण करिकै तीन पद अर्थात् तीन पैग करिकै तीनोंलोक को नापिकैऔर राजाबलि को बांधिकै तीनि हूं लोकों को अपना सेवक जो इन्द्र तिनके अर्थ देते हुये ५० और यही रामपरशुराम रूप धारण करके क्षत्रियों के रूप में उत्पन्न हुये जे बहुत से पृथिवी के भारभूत राक्षस तिनको इक्कीस बार संहार करके कश्यपमुनि को पृथिवी को देते हुये ५१और सोई पर से परे श्री राम तुम्हारे कारण से रघुवंश में इससमय में मनुष्य भावको प्राप्त हुआ है ५२ तिस रामकी भार्या जो सीता सो किस वास्तें बनसे जबरदस्ती तुमने हरी और विदित हुआ कि मेरे पुत्रके नाशके अर्थ और अपनी मृत्यु के अर्थ सीता को हरलाये हौ ५३ और अब भी सीता को राम के समीप भेजिदेवो और विभीषण के अर्थ राज्य को देके हम तुम दोनों वनको चलें ५४ तौ यह मन्दोदरी के वचन सुनिकै रावण बोला हे कल्याण रूपे संग्राम में पुत्रों को और भाइयों को और सब राक्षसों को ५५ रामसे मरवाके कैसे मैं वन

में जाके अपनाजीवन करौंइससे राम के संगयुद्धही करौंगा फिर शीघ्र चलने वाले जो राम के बाण तिन्होंकरके ५६॥

विदार्य्यमाणोयास्यामितद्विष्णोःपरमंपदम्।
जानामिराघवंविष्णुंलक्ष्मींजानामिजानकीम्॥
ज्ञात्वैवजानकीसीतामयानीतावनाद्बलात्॥५७॥

रामेणनिधनंप्राप्ययास्यामीतिपरम्पदम्।
विमुच्यत्वांतुसंसारात्गमिष्यामिसहप्रिये॥५८॥

परानंदमयीशुद्धासेव्यतेयामुमुक्षुभिः।
तांगतिंगमिष्यामिहतोरामेणसंयुगे॥५९॥

प्रक्षाल्य कल्मषाणीह मुक्तिं यास्यामिदुर्लभाम्॥६०॥

क्लेशादिपंचकतरंगयुगंभ्रमाढ्यंदारात्मजाप्तधनबंधुझषाभियुक्तम्।और्वनलाभनिजरोषमनंगजालंसंसारसागरमतीत्यहरिव्रजामि॥६१

इतिमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे युद्धकाण्डेदशमः सर्गः१०॥

विदीर्ण हुआ विष्णुका जो परमपद है तिसको प्राप्त होऊंगा और रामको में विष्णु जानता हौंऔर सीताको साक्षात् लक्ष्मी जानता हौंऔर जानही करके जनक नन्दिनी जो सीता है सो मैंने बनसे बलते यहां प्राप्तकी ५७ और हे प्रिये राम के हाथ से मृत्यु को प्राप्त होके तुझको और सब संसार को त्यागि के मरे हुये जे अपने बंधु तिन्होंकरके सहित परमपदको जाऊंगा ५८ और परमानन्दमयी जो वैकुण्ठरूप शुद्धगति मुमुक्षुओं करके प्रार्थनाकरी जाती है तिस गतिको में रामकर के संग्राम में बचको प्राप्तहोके प्राप्त होऊंगा ५९ और इस राक्षस शररि करके करे जे पाप है तिनको अन्तकाल में रामनाम के स्मरण से और राममूर्ति के दर्शन के प्रभाव से धोकरके दुर्लभजो मुक्ति है तिसको प्राप्त होऊंगा ६० और हैं मन्दोदरि संसाररूपी समुद्रको पार होके में हरिको प्राप्त होऊंगा कैसा संसाररूप समुद्र है औसमुद्र में तौतरंग होते हैं इसमें कौन तरंग है जो आपने वास्तवस्वरूप का मूलना और झूठे देहादिकों में आत्मबुद्धि करना और रागद्वेषहोना और मरण की त्रास होना ये हैं पांच तरंग जिसमें और संशयरूप है और जिसमें और स्त्री पुत्र मित्र धन कुटुम्बी ये हैं ग्राह जिसमें और क्रोधरूप है बडवानल अग्नि जिसमें और कामदेव है जालजिस में ऐसे संसाररूप समुद्र को उल्लंघन करके में रामको प्राप्त होऊंगा ६१॥

इतिश्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे युद्धकाण्डे
भाषाटीकायां दशमस्सर्गः १०॥

इत्युक्त्वावचनंप्रेम्णाराज्ञींमन्दोदरींतदा।
रावणः प्रययौयोद्धुंरा

मेणसहसंयुगे॥१॥

दृढंस्यंदनमास्थायवृतोघोरैर्निशाचरैः।
चक्रैःषोडशभिर्युक्तंसबरूथंसकूवरम्॥२॥

पिशाचवदनैर्घोरैःखरैर्युक्तंभयावहम्।
सर्वास्त्रशस्त्रसहितंसर्वोपस्करसंयुतम्॥३॥

निश्चक्रामाथसहसारावणोभीषणाकृतिः।
आयातंरावणंदृष्ट्वाभीषणंरणकर्कशम्॥४॥

संत्रस्ताभूत्तदासेनावानरीरामपालिता॥५॥

हनुमानथ चोत्प्लुत्यरावणंयोद्धुमाययौ।
आगत्यहनुमान्रक्षोवक्षस्यतुलविक्रमः॥६॥

मुष्टिवंधंदृढंबध्वाताडयामासवेगतः।
तेनमुष्टिप्रहारेणजानुभ्यामपतद्रथे॥७॥

दो० ।

सर्गग्यारहें घोर अति युद्ध दशाननकीन्ह।  
रामब्रह्मशरछोडिउर फारिप्राणहरिलीन्ह॥१॥

सोवतजागत चलतसगकहत सुनतसबकाल।
रावणसुमिरत रामको रामभयो ततकाल॥२॥

अब महादेवजी पार्वतीजी से कथावर्णन करै हैं हे पार्वति अब इसके उपरान्त रावण मन्दोदरी रानीसेपूर्वोक्त बचन कहिकै आप राम के संग संग्राम में युद्ध करने को जाता हुआ १ और घोर राक्षसों करके युक्त जो रावण सो सोलह पहिये जिसमें और रक्षाकरने वाला जो चर्म तिसकर के बेष्टित और जु अरि जिसमें लगी हुई है २ और पिशाचों केसे हैं मुख जिन्होंके ऐसे गर्दभों करके जुड़ा हुआ और बड़ाभयंकर और सब शस्त्रअस्त्रों करके युक्त और सब युद्ध की सामग्रियों करके युक्त ३ ऐसा जो बड़ापुष्टरथ तिसके ऊपर चढिकै भयंकर है स्वरूप जिसका ऐसा रावण नगरसे निकलता हुआ फिर युद्धकरने में कठोर उस अति भयंकर रावण को आवते देखके ४ रामकरके रक्षित जो वानरों की सेना सो बड़ीत्रासको प्राप्तहुई ५ अब इसके उपरान्त हनूमान् कूदिकै रावण से युद्ध करने को आते हुए फिर अतुल है पराक्रम जिसका ऐसा जो हनुमान् सो आकै अपनी मुट्ठीको दृढ़ बांधिकै ६ बड़े बेग से रावण की छाती में एकमुष्टिकमारतेहुये फिर उस मुष्टिका केप्रहारकर के रावण घुटुरुओं को टेकके रथके भीतर गिरपड़ता हुआ ७॥

मूर्च्छितोथमुहर्त्तेन रावणःपुनरुत्थितः

उवाचचहनुमंतंशूरोसिममसंमतः

॥८॥

हनुमानाहतंधिङ्मांयस्त्वंजीवसिरावण

त्वंतावन्मुष्टिनावक्षोममताडयरावण

॥९॥

पश्चान्मयाहतः प्राणान्मोक्षय सेनात्रसंशयः

तथेतिमुष्टिनावक्षेोरावणेनापिताड़ितः

१०

विघूर्णमाननयनः किंचित्कश्मलमाययौ

संज्ञामवाप्यकपिराट् रावणंहंतुमुद्य

तः॥११॥

ततोन्यत्रगतो भीत्यारावणोराक्षसाधिपः

हनूमानंगदश्चैव नलोनीलस्तथैवच॥१२॥

चत्वारः समवेताग्रेदृष्ट्वाराक्षसपुंगवान्

अग्निवर्णं तथासर्परोमाणंखड्गरोमकम्॥१३॥

तथावृश्चिकरोमाणंनिर्जघ्नुःक्रमशोसुरान्

चत्वारश्चतुरो हत्याराक्षसान् भीमविक्रमान्॥१४॥

फिर दो घड़ीभर मूच्छित हुआ रावण उठिके हनुमान से बोला कि मुझको संमत तुम बड़ेशूर हौ८ तो हनुमान् रावण से बोले कि धिक्कार मुझको है जो तू मेरे प्रहार से जीवता रहा और हे रावण तू भी अपनी मुष्टिकाकरके मेरी छाती प्रहार करु ९ पीछे मेरे प्रहार से मरा हुआ प्राणों को तू छोड़ देगा इसमें कुछ संशय नहीं फिर तैसेई मुष्टिकाकरके बक्षस्थल में रावण ने ताडन किया १० जो हनुमान् सो घूम रहे हैं नेत्र जिसके ऐसा हो कुछ थोड़े से काल मूर्च्छा को प्राप्त होता हुआ फिर होश मेंआके हनुमान् रावणके मारने को उद्यत होता हुआ ११ तो राक्षसों का स्वामी जो रावण सो भयंकरके हनुमान के भागे से और जगह युद्धकरने को जाताहुआ तिसके उपरान्त हनुमान् और अंगद और नल और नीलये १२ चारोंजन अपने आगे अग्निवर्ण और सर्परोमा और खद्गरोमा १३ और वृश्चिकरोमा इनचारों राक्षसों को देखके एक एक एक एक बड़ेबली राक्षस को मारता हुआ १४॥

सिंहनादं पृथक्कृत्वारामपार्श्वमुपागताः।
ततः क्रुद्धोदशग्रीवः संदष्टद शनच्छदम्

१५

विवृत्यनयनेक्रूरोराममेवान्वधावत।
दशग्रीवोरथस्थस्तुरामं वज्रोपमैः शरैः

१६

आजघान महाघोरैर्धाराभिरिवतोयदः।
रामस्य पुरतः सर्वान्वानरानपिविव्यथे

१७

ततः पवनसंकाशैःशरैः कांचनभूषणैः।
अभ्यवर्षद्रणेरामोदशग्रीवं समाहितः

१८

रथस्थंरावणंदृष्ट्वा भूमिस्थंरघुनन्दनम्।
आहूयमातलिंशक्रोवचनंचेदमब्रवीत्

१९

रथेनममभूयिष्ठंशीघ्रंयाहिरघूत्तमम्।
त्वरितं भूतलंगत्वा कुरुकार्यंममानघ

२०

एवमुक्तोथतं नत्वामातलिर्देवसारथिः।
ततो हयैश्च संयोज्यहरितैः स्यंदनोत्तमम्

२१॥

तहां हनुमान् तोअग्निवर्णराक्षस को मारतेहुये और अंगद सर्परोमनामक राक्षस को मारता हुआ और नल खड्गरोम राक्षस को मारता हुआ और नील वृश्चिकरोम राक्षस को मारता हुआ फिर सब हनुमान् कोआदिलेके चारों वानर पृथक २ सिंहवत् गर्जिकै रामके समीप आवते हुए तब रावण क्रोध करके अपने दांतों से ओठों को काटिकै १५ और नेत्रों को फैलाकर के राम ही के संमुख

युद्धकरने को दौड़ताहुआ अब रथपै स्थित जो रावण सो वज्र के तुल्य जो घोर बाण तिन्होंकरके रामको १६ ताड़न करता हुआ जैसे मेघ जल की धाराओं करके पर्वत के ऊपर वृष्टिंकरे और रामके अगाड़ी खड़े जे बानर तिनको भी ताड़न करता हुआ १७ तिसके उपरान्त अग्नि के तुल्य है प्रकाश जिनका और सुवर्ण करके भूषित ऐसे जे तीक्ष्णवाण तिनकरके श्रीराम सावधान हो रावण के ऊपर वृष्टिकरते हुये १८ अबइन्द्र रथ मेंस्थित रावण को देखके और भूमि में स्थित राम को देखके मातलिनामकरके जो सारथी तिसको बुलाके यह कहते हुये १९ कि हे मातले मेरे रथकरके पृथ्वी में स्थित जो राम तिनके समीप शीघ्रही प्राप्त हो और भूतलमें जाके रथपै रामको बैठाकर मेरे कार्य को कर २० ऐसा जब इन्द्रने वचन कहा तौ मातलिनाम सारथी इन्द्रको नमस्कार करके हरितवर्ण जे घोड़े हैं तिनकरके रथको जोड़के २१॥

स्वर्गाज्जयार्थंरामस्यह्युपचक्राम मातलिः॥

अब्रवीच्च ततोरामम प्रतर्क्यरथेस्थितः।
प्रांजलिर्देवराजेन प्रेषितोस्मिरघूत्तम॥२२॥

रथो यंदेवराजस्यविजयायतवप्रभो।
प्रेषितश्च महाराजधनुरैन्द्र च भूषितम्॥२३॥

अभेद्यंकवचंखड्गंदिव्य तूणीयुगंतथा।
आरुह्यचरथं रामरावणंजहिराक्षसम्॥२४॥

मयासारथिनादेववृत्रं देवपतिर्यथा।
इत्युक्तस्तंपरिक्रम्यनमस्कृत्यरथोत्तमम्॥२५॥

आरुरोहरथंरामोलोकान् लक्ष्म्यानियोजयन्।
ततोभवन्महायुद्धं भैरवं रोमहर्षणम्॥२६॥

महात्मनोराघवस्यरावणस्य च धीमतः।
आग्नेयेन च आग्नेयं देवदेवेन राघवः दैवेनराघवः॥२७॥

अस्त्रंराक्षसराजस्यजघान परमास्त्रवित्।
ततस्तुससृजेघोरंराक्षसंचास्त्रमस्त्रवित्॥२८॥

श्रीराम के जयके अर्थ स्वर्गसे रामके समीप आवताहुआ और किसीके मन में भी न आसकै ऐसे रथमें स्थितजी मातलि सो वचन बोलता हुआ हाथजोड़ के कि हे राम इन्द्रने मुझको भेजा है २२ और यह इन्द्रने रथ आपके विजयके अर्थ भेजा है और आभूषणयुक्त जो इन्द्रका धनुष २३ और किसी शस्त्र करके जिसका भेदन न होय ऐसा जो कवचनाम बख्तर और खड्ग और दिव्य जे दो तरकस अर्थात् जिनमें से बाणकभी घटैंनहीं यह सबबस्तु आपको इन्द्र ने भेजी है सो हे राम इसरथके ऊपर चढ़िकै रावण जो राक्षस तिसको मारिये २४ और मैं जो सारथी हौं तिसके सहायकरके जैसे इन्द्र वृत्रासुर को मारतेहुये तैसे आपभी रावणको मारिये इसप्रकार जबमातलि सारथी ने कहा तौ श्रीरामचन्द्र उस रथकी परिक्रमाकरके और नमस्कार करिकै २५ सबलोकों को

लक्ष्मी करके युक्तकरना है इस हेतु से उसरथ के ऊपर चढ़ते हुये तिसके उपरान्त श्रीरामका और रावणका बड़ा भयंकर रोमहर्षण युद्धहोता हुआ २६ अर्थात् जिसको देखके रोमखड़े हो जावें ऐसा युद्ध हुआ तौपरम अस्त्र विद्यामें कुशल जो श्रीरामचन्द्र सो आग्नेय अस्त्र करके रावणके आग्नेय अस्त्र को शांत करते हुये और इसीप्रकार करके जिस देवता के मन्त्र करके अभिमन्त्रित बाण रावण छोड़ता हुआ तौ श्रीराम भी उसीदेवताके मन्त्रकर के अभिमंत्रित अपने बाण करके उसको काटते हुये २७ तब तौ रावण राक्षस मन्त्रकरके अभिमंत्रित बाणों को रामके ऊपर बड़े क्रोधकरके छोड़ने लगा २८॥

क्रोधेनमहताविष्टोरामस्योपरिरावणः।
रावणस्य धनुर्मुक्ताः सर्पाभूत्वामहाविषाः॥
शराः कांचनपुंखाभाराघवं परितोपतन्॥२९॥

तेः शरैः सर्ववदनैर्वमद्भिरनलमुखैः।
दिशश्चविदिशश्चैवव्याप्तास्तत्र तदाभवन्॥३०॥

रामः सर्पांस्ततोदृष्ट्वासमंतात्परिपूरितान्।
सौपर्णमस्त्रंतत्घोरंपुरः प्रावर्तयद्रणे॥ ३१॥

रामेणमुक्तास्तेवाणा भूत्वागरुड रूपिणः।
चिच्छिदुःसर्पवाणांस्तान् समंतात्सर्पशत्रवः॥३२॥

अस्त्रेप्रतिहतेयुद्धेरामेणादशकन्धरः।
अभ्यवर्षत्ततोरामं घोराभिः शरवृष्टिभिः॥३३॥

ततःपुनःशरानीकराममक्लिष्टकारिणम्।
अर्द्दयित्वातुघोरेणमातलिंप्रत्यविध्यत॥३४॥

पातयित्वारथोपस्थेरथकेतुंचकांचनम्॥
ऐन्द्रानश्वानभ्यहनद्वावणः क्रोधमूर्च्छितः॥३५॥

तबतौ रावण के धनुषसे छूटे हुये जे सुवर्ण पुंखके बाणसे बड़े बड़े विषधर सर्परूप होकर रामके चारों तरफ से आके गिरतेहुये २९ फिरसर्प केसे मुख जिनके और मुखसे अग्निकोवमन कर रहे ऐसे जे रावण के सर्पाकार बाणतिन करके दिशा और विदिशा सबउससमय में व्याप्त हो जाती हुई ३० तबश्रीराम सबजगह परिपूर्ण उन सर्पो को देखके उन सर्पो का नाशकरने वाला जोबडाभयंकर गरुड़ास्त्र तिसको रावणके धागे छोड़ते हुये ३१ तब तौ गरुड़ के मंत्र करके अभिमन्त्रित जे रामके धनुष से छूटे हुये बाण ते गरुड़रूपी हो उन सर्परूप बाणों को काट डालते हुये जिससे वे सर्पों के शत्रुरूप हैं ३२ जबयुद्धमें रामने वह रावण का अस्त्र नष्ट करदिया तबतौ रावण वोरवाणोंकी वृष्टिकरके राम के ऊपर वर्षाकरता हुआ ३३ फिरभी रावणवाणों के समूहों करके राम को पीडितकरके एकबड़े भयंकर बाणकरके मातलि सारथी को बघता हुआ ३४ और सुवर्ण की जो की ध्वजा है तिसको एकबाण करके काटके रथके भीतर डाल देता हुआ

और फिर क्रोध करके मूर्च्छित जो रावण सो इन्द्रके घोड़ों को भी बाणोंकरके ताडन करता हुआ ३५॥

विषेदुर्देवगन्धर्वाश्चारणाः पितरस्तथा।
आर्ताकारं हरिदृष्ट्वाव्यथिताश्च महर्षयः॥३६॥

व्यथितावानरेन्द्राश्चबभूवुः सविभीषणाः।
दशास्योविंशतिभुजः प्रगृहीतशरासनः॥३७॥

ददृशेरावणस्तत्र मैनाक इव पर्वतः।
रामस्तुभृकुटिंबध्वाक्रोधसंरक्तलोचनः॥३८॥

कोपंचकारसदृशंनिर्दहन्निवराक्षसम्।
धनुरादाय देवेन्द्रधनुराकारमद्भुतम्॥३९॥

गृहीत्वा पाणिनाबाणंकालानलसमप्रभम्।
निर्द्दहन्निवचक्षुर्भ्यांददृशेरिपुमंतिके॥४०॥

पराक्रमं दर्शयितुं तेजसा प्रज्वलन्निव।
प्रचक्रमेकालरूपी सर्वलोकस्य पश्यतः॥४१॥

विकृष्यचापंरामस्तुरावणं प्रतिविध्य च।
हर्षयन्वानरानीककालांतकइवाबभौ॥४२॥

अब इसप्रकार रावणके पराक्रम करके राम को पीड़ित के तुल्य देखके देवता और गन्धर्व और चारण और पितर महर्षि ये बड़े विषाद को प्राप्तहुये ३६ और विभीषण सहित वानरों की सेना के स्वामी भी बड़े क्लेश युक्त होते हुये और दश हैं मुख जिसके और बीस भुजा हैं जिसके ऐसा जो रावण ३७ सो मैनाक पर्वत के तुल्य उससमय में दिखलाई पड़ता हुआ और रामभी उससमय में अपनी भौहों को चढ़ाके क्रोधकरके रक्त हैं नेत्र जिनके ऐसे हो ३८ रावण को मानों दृष्टिकर के भस्मकर देवैंगे ऐसा अपने स्वरूप के सदृश कोप करते हुये और जैसे वर्षाकाल में इन्द्र का धनुष निकलता है ऐसे स्वरूप के धनुष को हाथ में लैके ३९ और प्रलय काल के अग्नि के तुल्य है कान्ति जिसकी ऐसे बाण को ग्रहण करके अपने नेत्रों करके जलातेहुये समीप शत्रु को देखते हुये ४० और अब श्रीराम अपना पराक्रम दिखाने को तेजकरके अग्निकी तरह प्रकाशकरते हुये सब लोकों के देखते देखते कालकासा स्वरूप जिनका ऐसे हो युद्धका प्रारंभ करते हुये ४९ और धनुष को खैंचिकै बाणों करके रावण को ताड़न करके बानरों की सेना को हर्ष कराते हुये काल और मृत्यु के तुल्य प्रकाशित होते हुये ४२॥

क्रुद्धंरामस्यवदनं दृष्ट्वा शत्रुंप्रधावतः।
तत्रसुः सर्वभूतानिचचालचवसुन्धरा॥४३॥

रामंदृष्ट्वा महारौद्रमुत्पातांश्च सुदारुणान्।
त्रस्तानिसर्वभूतानिरावणंचाविशद्भयम्॥४४॥

विमानस्थाः सुरगणाः सिद्धगन्धर्वकिन्नराः।
ददृशुः सुमहायुद्धंलोकसंवर्तकोपमम्॥
ऐन्द्रमस्त्रं समादायरावणस्यशिरोच्छिनत्॥४५॥

मूर्द्धानोरावणस्याथ वहवो

रुधिरोक्षिताः॥
गगनात्प्रपतंतिस्मतालादिवफलानिहि॥४६॥

नदिनंनचरात्रिर्नसंध्यानदिशोपिवा।
प्रकाशंतेनद्रूपंद्रश्यते तत्रसंगरे॥४७॥

ततोरामोबभूवाथविस्मयाविष्टमानसः।
शतमेकोत्तरं छिन्नंशिरसांचैकवर्चसाम्॥४८॥

नचैवरावणः शांतो दृश्यते जीवितक्षयात्।
ततसर्वास्त्रविद्वीरः कौशल्यानंदवर्द्धनः॥४९॥

अबशत्रुके सन्मुख दौड़ते हुये जो राम तिनका क्रोध युक्तमुख देखके सब प्राणी त्रास को प्राप्त हुये और पृथिवी चलायमान होती हुई ४३ अब राम के भयंकर रूपको देखके और बड़ेबड़े भयंकर उत्पातों को देखके सबभूत भयभीत होते हुये और रावण के हृदय में भी भयप्रविष्ट होती हुई ४४ और अपने अपने विमानों में स्थित जेदेवताओंके समूह और सिद्ध और गंधर्व और किन्नर ये सब लोक के प्रलयकाल के तुल्य जो वह बड़ाभारी युद्ध तिसको देखते हुये ४५ अब ऐन्द्र अस्त्रको ग्रहणकरके श्रीराम रावण के शिरों को काटते हुये तब रुधिर से डूबे हुये रावण के बहुत से शिर आकाशसे गिरने लगे जैसे ताल के वृक्षसे पके हुये फल पृथ्वी में पड़ें ४६ अबउससमय में संग्राम के बिषे न तौ दिन और न रात्रि और न दिशा और न बिदिशा और न संध्या और न मस्तक रहित रावण का रूप ये कोई नहीं जाने जाते हुये अर्थात् बारम्बार शिरों के उत्पन्न होने से सब जगह शिर ही शिर दिखाई पड़ते हैं और दिन रात्रि इत्यादि कहने से अनेक दिन राम रावण का निरन्तर युद्ध हुआ यह सूचन किया ४७ तबतौ राम बड़े आश्चर्य युक्त मनमें होते हुये और यह विचार करते हुये कि एक ही सा तेज जिन का ऐसे एक सौएक शिर मैंने काटे औअभी बढ़ते जाते हैं ४८ और यह रावण भी अभी नहीं मरता ऐसा कहिकै तिसके उपरान्त सबअस्त्र विद्या के जानने वाले और बडेबीर और सबअस्त्रों करके सहित ऐसे जो कौशल्या के आनन्दके चढ़ानेवाले श्रीरामचन्द्र ४९॥

अस्त्रैश्च बहुभिर्युक्तश्चिंतंयामासराघवः।
यैर्यैर्बाणैर्हता दैत्यामहासत्वपराक्रमाः॥५०॥

तएतेनिष्फलं यातारावणस्यनिपातने।
इति चिन्ताकुलेरामेसमीपस्थोविभीषणः॥५१॥

उवाच राघवं वाक्यं ब्रह्मदत्तवरोह्यसौ।
विछिन्नावाहवोप्यस्यविच्छिन्नानिशिरांसि च॥५२॥

उत्पत्स्यंतिपुनः शीघ्रमित्याह भगवानजः।
नाभिदेशेमृतं तस्यकुण्डलाकारसंस्थितम्॥५३॥

तच्छोपयानलात्रेणतस्य मृत्युस्ततोभवेत्।
विभीषणवचश्रुत्वा रामः शीघ्रपराक्रमः॥५४॥

पावकास्त्रेणसंयोज्यनाभिविव्याधरक्षसः।
अनंतरंचचिच्छेदशिरांसि च महाबलः॥५५॥

बाहूनपिचसंरब्धो

रावणस्यरघूत्तमः।
ततो घोरां महाशक्तिमादाय दशकन्धरः॥५६॥

सो चिन्तवन करतेहुये कि जिनबाणों करके बड़ेबड़े पराक्रम युक्त दैत्य मैंने मारे ५० ते बाण रावण के मारने में निष्फल होगये ऐसे जब चिन्ता में व्याकुल राम हुये तब समीप स्थित जो बिभीषण ५१ सो श्रीरामसे वचन बोला कि हें राम यहरावण ब्रह्मासेऐसे वरको प्राप्त हुआ है कि भुजा और शिर ये संग्राम में तेरे कटभी जायँगे तौ फिर नवीन शीघ्रही उत्पन्न होवेंगे ५२ ऐसे भगवान् जो ब्रह्मासोकहते हुये और इस रावणके नाभिके ठिकाने पै एक अमृत का कुण्ड है ५३ सो हे राम आग्नेय अस्त्रकरके प्रथम उसको सुखादीजिये तब रावण की मृत्यु होवेगी तब ये विभीषण के वचनसुनिके शीघ्र पराक्रम जिनका ऐसे जो राम ५४ सो आग्नेय अस्त्रकरके अभिमन्त्रित जो बाण तिसकरके रावण की नाभि को बेधन करते हुये फिर तिसके अनन्तर महाबली जो श्रीराम सो उसके शिरों को काटते हुये ५५ और क्रोधयुक्तजो श्रीरामचन्द्रसो रावण की भुजाओं को भीकाटतेहुये तब बड़ी भयंकर जो सांग तिसको रावण ग्रहण करके ५६॥

विभीषणबधार्थायचिक्षेपक्रोधविह्वलः।
चिच्छेदराघवो बाणैस्तांशितैर्हेमभूषितैः॥५७॥

दशग्रीवशिरःछेदात्तदाते जोविनिर्गतम्।
म्लानरूपोचभूवाथच्छिन्नैः शीर्षेैर्भयंकरैः॥५८॥

एकेनमुख्य शिरसाबाहुभ्यां रावणोबभौ।
रावणस्तुपुनः क्रुद्धोनानाशस्त्रास्त्रदृष्टिभिः॥५९॥

बवर्षरामंतंरामस्तथाबाणैर्ववर्षच।
ततोयुद्धमभूत्घोरंतु मुलंलोमहर्षणम्॥६०॥

अथसंस्मारयामासमातली राघवंतदा।
विसृज्यास्त्रंबधायास्यब्राह्मंशीघ्रंरघूत्तम॥६१॥

विनाशकालः प्रथितोयः सुरैः सोद्यवर्त्तते।
उत्तमां गंन चैतस्यवेत्तव्यं राघवत्वया॥६२॥

दैवशीर्ष्णि प्रभोवध्योवध्यएवहिमर्मणि।
ततः संस्मारितोरामस्तेन वाक्येन मातलेः॥६३॥

क्रोधमें भरा हुआ बिभीषण के बधके लिये चलाता हुआ तिसशक्तिको सुवर्ण करिकै भूषित जे बड़े पैने २ बाण तिनकरके श्रीराम काट डालते हुये ५७ तब तौ रावण का तेज शिरों के कटने से नष्ट होगया और बड़े भयंकर शिरों के कटने से रावण कान्ति हीन हो गया और पुष्प की तरह कुम्हिलाय गया ५८ अब एकशिर और दो भुजाही करके दिखलाई पड़ता हुआ अब रावण फिर भी क्रोध करके नानाप्रकारके शस्त्र अस्त्रोंकरके रामके ऊपर वृष्टिकरता हुआ ५९ और राम रावणके ऊपर बाणों की वृष्टि करते हुये तबतौजिस युद्धकेदेखनेसे भयकर के रोमखड़े हो जायँ ऐसापरस्पर मिलिकै राम और रावण इनका घोरयुद्ध होता हुआ ६० तब तौ उससमय में मातलि जो सारथी सो रामको रावणके मृत्यु

समयकास्मरण करता हुआ यह वचन बोला कि हे राम अब शीघ्रही इसरावण के बधके लिये ब्रह्मास्त्रको छोड़िये ६१ क्योंकि जो देवताओं ने रावण का मरण समय कहा है सो इससमय में आगया है और हे राम इससमय में इसका शिर न काटिये ६२ क्यों कि हे स्वामिन् शिरके काटने से यह नहीं मरेगा इसकी मृत्यु हृदयमें बाण मारने से होवैगी तब उस मातलि सारथी के वचन करके स्मरणकराये हुये अर्थात् यादिकराये हुये जोराम ६३॥

जग्राहसशरं दीप्तंनिःश्वसंतमिवोरगम्।
यस्यपार्श्वे तु पवनः फले भास्करपावको॥६४॥

शरीरमाकाशमयं गौरवेमेरुमन्दरौ।
पर्वस्वपि चविन्यस्तालोकपाला महौजसा॥६५॥

जाज्वल्यमानंवपुषा भातं भास्करवर्चसा।
तमुग्रमस्त्रंलोकानां भयनाशनमद्भुतम्॥६६॥

अभिमन्त्र्ययततोरामस्तं महेषु महाभुजः।
वेदप्रोक्तेन विधिनासंदधे कार्मुकेबली॥६७॥

तस्मिन्संधीयमानेतुराघवेणशरोत्तमे।
सर्वभूतानिवित्रे सुश्च चालचवसुन्धरा॥६८॥

सरावणाय संक्रुद्धो भृशमानम्य कार्मुकम्।
चिक्षेपपरमायत्तस्तमस्त्रंमर्मघातिनम्॥६९॥

सवज्रइव दुर्द्धर्षोवज्रपाणिविसर्जितः।
कृतांतइवघोरास्योन्यपतद्रावणोरसि॥७०॥

सो जैसे सर्प इवास लेता होइऐसा प्रज्वलित जो वाण तिसको हाथ में लेते हुये जिसवाणके दोनों तरफ तौ पवनदेवता है और जिसके भालके ऊपर सूर्य अग्निवास करते हैं ६४ और जिसका शरीर आकाशमय है अर्थात् आकाशवत् व्यापक हिरण्यगर्भरूपहै और जिसकी गरुआई में मेरु और मन्दर पर्वत है और जिसकी गांठियों में इन्द्रआदि लोकपाल बसते हैं ६५ और जो अपने शरीरकरके सूर्यवत् प्रकाशकर रहा है ऐसा जो सबलोकों की भय का नाशकरने वाला बड़ा अद्भुतउग्र अस्त्र ६६ तिसकरके उस बाणको जैसे वेद में कहा है तैसे अभिमन्त्रित करके धनुषमें संधान करते हुये ६७ तब वह बाण धनुष में जब संधान कियागया तब सबभूतत्रासको प्राप्तहो और पृथ्वी चलायमान होती हुई ६८ फिर क्रोधयुक्त जो राम सो धनुषको खैंचिकै रावणकी मृत्युके अर्थ उसमर्मघाती वाणको छोड़ते हुये ६९ सो इन्द्रका छोड़ावज्र सरीखा और यमराजके तुल्य भयंकर है मुख जिसका ऐसा जो रामका बाणसो रावण की छाती में जाके प्रविष्ट होता हुआ ७०॥

सनिमग्नोमहाघोरः शरीरान्तकरः परः।
विभेदहृदयंतूर्णंरावणस्य महात्मनः॥७१॥

रावणस्याहरत्प्राणान्विवेशधरणीतले।
सशरोरावणंहत्वारामतूणीरमाविशत्॥७२॥

तस्यहस्तात्पपाताशुसशरं कार्मुकंम

हत्॥
गतासुर्भ्रमिवेगेणराक्षसेंद्रोऽपतद्भुवि॥ ७३॥

तंदृष्ट्वापतितं भूमौहतशेषाश्चराक्षसाः।
हतनाथाभयत्रस्तादुद्रुवः सर्वतोदिशम्॥७४॥

दशग्रीवस्यनिधनंविजयंराघवस्यच।
ततोविनेदुःसंहृष्टावानराजितकाशिनः॥७५॥

वदन्तोरामविजयंरावणस्यचतद्बंधम्।
अथान्तरिक्षेव्यनदत्सौम्यस्त्रिदशदुन्दुभिः॥७६॥

पपातपुष्पवृष्टिश्चसमंताद्राघवोपरि।
तुष्टुवुर्मुनयः सिद्धाश्चारणाश्चदिवौकसः॥७७॥

अब वह रावण के हृदय में प्रविष्ट जो शरीर के नाशकरने वाला घोर बाण सो शीघ्री रावणके हृदयको विदारण करता हुआ७१ और रावणके प्राणों को हरता हुआ फिर पृथ्वीतलमें प्रवेशकरता हुआ इसप्रकार वह बाण रावणको मारके फिर रामके तरकसमें आके प्रवेश करता हुआ ७२ फिर रावणके हाथसे बाण सहित धनुष शीघ्र ही गिरपड़ा और बाण केलगते ही घूमकरके मरा हुआरावण पृथ्वी में गिरपड़ता हुआ ७३ अबरावणको पृथ्वीमें पड़ा देखके मारागया है स्वामी जिनका ऐसे मारने से बचे हुये जे राक्षस तेभयकर के सब दिशाओं को भागते हुये ७४ अब रावण की मृत्यु और श्रीरामचन्द्र के विजयको वानर देख के बड़े प्रसन्न हुये जयकर के प्रकाशमान गर्जते हुये ७५ और रामके विजय को और रावण के बधको सबजगह कहते हुये सिंहवत् शब्दकरते हुये अब इसके उपरान्त आकाश में मंगलसूचक देवताओंके नगाड़े बजते हुये ७६ और चारों तरफ से श्रीरामके ऊपर पुष्पों की वृष्टिहोती हुई और मुनि और सिद्ध और चारण और देवता ये स्तुति करते हुये ७७॥

अथान्तरिक्षेननृतुः सर्वतोप्सरसोमुदा।
रावणस्यचदेहोत्थंज्योतिरादित्यवत्स्फुरत्॥७८॥

प्रविवेशरघुश्रेष्ठं देवानांपश्यतां सताम्।
देवाउचर होभाग्यंरावणस्य महात्मनः॥७९॥

वयंतसात्विकादेवाविष्णोःकारुण्यभाजनाः।
भयदुःखादिभिर्व्याप्ताः संसारे परिवर्त्तिनः॥८०॥

अयन्तु राक्षसः क्रूरो ब्रह्महातीवतामसः।
परदाररतोविष्णुद्वेषीतापसहिंसकः॥८१॥

पश्यत्सुसर्वभूतेषुराममेवप्रविष्टवान्।
एवंब्रुवत्सुदेवेषुनारदः प्राहसुस्मितः॥८२॥

शृणुतात्रसुरायूयं धर्म्मतत्वविचक्षणाः।
रावणो राघव द्वेषादनिशंहृदि भावयन्॥८३॥

भृत्यैः सहसदाराम चरित्रं द्वेषसंयुतः।
श्रुत्वारामात्स्वनिधनं भयात्सर्वत्रराघवम्॥८४॥

और आकाशमें चारों तरफ आनन्द करके अप्सरानृत्य करती हुई अबरावणके देहमें उठी हुई जो ज्योति सो सूर्य के तुल्यप्रकाश करती हुई ७८ सब

देवताओंके देखते २ राममें प्रवेश कर जाती हुई तौ देवता बोले कि बड़ा आश्चर्य्य हैै और इस महात्मा रावण का बडा भाग्य है ७९ देखिये विष्णु की दया के पात्र हम सब जे सत्वगुण से उत्पन्न हुये देवता ते भय दुःखादिकों करके युक्त संसार हीमें परिभ्रमण कर रहे हैं ८० और यहक्रूर राक्षस और ब्राह्मणों के मारने वाला और अत्यन्ततमोगुणी और बिरानी स्त्रियों में शासक और विष्णु का द्वेषीऔर तपस्वी पुरुषों का मारने वाला ८१ तो सबके देखते २ राम में प्रवेशकर गया ऐसे जबदेवताओं ने वचन कहे तब नारदजी मन्द मुसक्यान करतेहुये बोले ८२ कि हे धर्मतत्त्व के जानने में कुशल देवताओ इसविषय में जोकुछ मैं कहता हौंतिस को सुनिये रावणद्वेष बुद्धिकरके श्रीरामको निरन्तर हृदय में ध्यान करता हुआ ८३ द्वेषयुक्त भी हो शुकआदि राक्षसोंके मुखसे रामचरित्रको सुनिके और राम से अपनी मृत्युसुनके भय से राम ही को सबजगह नित्य देखता हुआ ८४॥

पश्यन्नतुदिनंस्वप्नेराममेवानुपश्यति।
क्रोधोपिरावणस्याशुगुरुवोधाधिकोभवत्॥ ८५॥

रामेण निहतः चांतेनिर्धूताशेषकल्मषः।
रामसायुज्यमेवा परावणोमुक्तबंधनः॥ ८६॥

पापिष्ठोबा दुरात्मापरधनपरदारेपुसक्तोयदिस्यान्नित्यं
स्नेहाद्भयाद्वारघुकुलतिलकं भावयन्संपरेतः।
भूत्वाशुद्धांतरंगोभवशतजनितानेकदोषैर्विमुक्तः
सद्योरामस्य विष्णोः सुरवरविनुतंयातिवैकुंठमाद्यम्॥८७॥

हत्वायुद्धेदशास्यंत्रिभुवनविषमंवामहस्तेनचापं
भूमौविष्टस्यतिष्ठन्नितरकरधृतं भ्रामयन्वाणमेकम्।
आरक्तोपांतनेत्रः शरदलितवपुः सूर्यकोटिप्रकाशो
वीरश्रीबंधुरांगः स्त्रिदशपतिनुतः पातुमांवीररामः॥८८॥

इत्यध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे युद्धकाण्डे
रावणवधानामैकादशः सर्गः ११॥

और स्वप्न में भी रावण रामहीको देखताथा इससे क्रोध भी रावणकागुरू की सेवा से हुआ जो ज्ञान तिससे अधिक होता हुआ ८५ और अन्त में रामके हाथ सेमृत्युको प्राप्तहो दूर हुये सबपाप जिसके और छूटिगये हैं सकल वन्धन जिसके ऐसा जो रावण सो राम के समान रूप हो उनके लोकको प्राप्तहुआ ८६ और इसीतरह और भी कोई पुरुष पापिष्ट भी हो और दुष्टचित्त भी हो और परधन और परस्त्री इनमें आसक्त भी होय परन्तु नित्य हीस्नेह से अथवा भय से श्रीराम के ध्यान में तत्पर होय सो अन्तमें शुद्ध अन्तःकरणहोके सैकड़ों जन्म के पापोंसे छूटिकै देवताओं करके स्तुतिकियागया जो रामका वैकुण्ठलोक तिसको शीघ्रही प्राप्त होता है ८७ अब श्रीमहादेवजी रामके उस समय का ध्यान

कहते हैं जो राम युद्ध में तीनोंलोकोका कंटक जो रावण तिसको मारिकै बाम हाथसे धनुषको पृथ्वीमें टेकके खडे हो रहे हैं और दूसरे हाथसे वाणको लिये घुमारहे हैं और थोडासारक्त है नेत्रोंका समीपभाग जिसका और रावणकेबाणों करके विदीर्णहोरहा है शरीर जिसका और कड़ोर सूर्येकासा है प्रकाश जिसका अथवा मध्याहूनकालका तीव्र जो सूर्य तिसके तुल्य है प्रकाशजिसका और यथा योग्य कहीं नम्र कहीं ऊंचा है अंग जिसका भौ इन्द्रादि देवताओंकरके स्तुति किये गये हैं ऐसे जो वीर शिरोमणि राम सो मेरी रक्षाको करौ ८८॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे युद्धकाण्डे
भाषाटीकायामेकादशः सर्गः ११॥

रामोविभीषणं दृष्टवाहनूमंततथांगदम्।
लक्ष्मणं कपिराजंचजास्वयंर्ततथापरान्॥१॥

परितुष्टेन मनसा सर्वानेवाब्रवीद्वचः।
भवतांबाहुवीर्येणनिहतोरावणेो मया॥२॥

कीर्त्तिः स्थास्यतिवः पुण्यायावच्चन्द्रदिवाकरौ।
कीर्तयिष्यंति भवतांकथांत्रैलोक्य पावनीम्॥३॥

ययोपेतांकलिहरांयास्यंति परमां गतिम्।
एतस्मिन्नन्तरेदृष्ट्वा रावणं पतितंभुवि॥४॥

मंदोदरीमुखाः सर्वाः स्त्रियोरावणपालिताः।
पतितारावणस्याग्रेशोचत्यः पर्यदेवयन्॥५॥

विभीषणः शुशोचार्तोशोकेन महता वृतः।
पतितोरावणस्याग्रे बहुधापर्यदेवयत्॥६॥

रामस्तुलक्ष्मणंप्राहबोधयस्वविभीषणम्।
करोतुभ्रातृसंस्कारं किं विलम्बेन मानद॥७॥

दो०

सर्ग बारहें शोकवश विकल विभीषण देखि।
विगतशोक लक्ष्मणकियो लोकवेदगतिदेखि॥१॥

पुनि लंकाको भूपकरि सीताकी सुधिलीन्ह।
आयजानकी रामलख गमनहुताशन कीन्ह॥२॥

अव श्रीमहादेवजी पार्वती से कथा बर्णन करे हैं हेपार्वति अब श्रीरामचन्द्र बिभीषण और हनुमान् और अंगद और लक्ष्मण और सुग्रीव और जांबवान्को आदिलैकै और सब वानरोंसे १ बड़े प्रसन्न मनसे वचन बोलते हुये कि तुम्हारे सबके भुजाओं के पराक्रमसे मैंने रावणको सारा २ जबतक चन्द्रमासूर्य हैं तबतक तुम्हारी सबकी पवित्र कीर्त्ति स्थितहोगी और तीनों लोकों की पवित्रकरनेवाली तुम्हारी कथाको कविलोग गान करेंगे ३ मोर कलियुग के दोष की हरनेवाली आपलोगोंकी सत्कीर्त्तियुक्त कथाका जे सेवन करेंगे ते परम गति को प्राप्तहोवेंगे अब उसीसमय में रावणको पृथ्वी में गिराहुधा देखके ४ मन्दोदरी आदिलैके जे रावणकीरानी ते रावणके आगे पृथ्वीमें पड़ी हुई छाती

कूटती हुईंबिलापकरती हुई ५और विभीषण बड़ेभारी शोककरके युक्त और दुःखितहो शोचकरता हुआ और रावणके आगे गिरके विलाप करता हुआ ६ तब श्रीराम लक्ष्मण से बोले कि हे लक्ष्मण इस विभीषणको बोध करावों और वह अपने भाई का संस्कारकरै बहुत विलम्बसे क्या प्रयोजन है ७॥

स्त्रियोमन्दोदरीमुख्याः पतिताविलपंतिच।
निवारयतुताः सर्वाराक्षसीरावणप्रियाः॥८॥

एवमुक्तोथरामेणलक्ष्मणोऽगाद्विभीषणम्।
उवाचमृतकोपांते पतितंमृतकोपमम्॥९॥

शोकेन महताविष्टंसौमित्रिरिदमब्रवीत्।
यंशोचसित्वं दुःखेन कोयंत वविभीषण॥१०॥

त्वंवास्यकतमःसृष्टेः पुरेदानीमतः परम्।
यद्वत्तोयौघपतिताः सिकतायांतितद्वशाः॥११॥

संयुज्यंते वियुज्यंते तथा कालेनदेहिनः।
यथाधानासुवैधानाभवंतिनभवंतिच॥१२॥

एवंभूतेषुभूतानिप्रेरितानीशमायया।
त्वंचेमेवयमन्येच तुल्याः कालवशोद्भवाः॥१३॥

जन्ममृत्यूयदायस्मात्तदातस्माद्भविष्यतः।
ईश्वरःसर्वभूतानिभूतैः सृजतिहंत्यजः॥१४॥

और मन्दोदरी को आदि लैके जे रावणकी स्त्रियां पृथ्वी में पड़ी हुई ये विलापकररहीं हैं तिनको यह विभीषण निवारणकरै ८ इसप्रकार राम करके आज्ञाकरेहुये जो लक्ष्मण सो विभीषण के समीप जातेहुये और मरेहुये रावण के समीप मरेके तुल्य पहुँचा और बड़े शोक करके युक्त जो विभीषण तिससे लक्ष्मणजी यह वचन बोले ९ कि हे विभीषण जिसको तुम दुःख करके शोच रहे हौ सो तुम्हारा यह कौन है १० और तुम इसके कौन हो क्योंकि आत्मको शुद्ध बुद्ध स्वभाव होने से किसीसे सम्बन्ध नहीं है और यह भी विचार करना चाहिये कि सृष्टिके पहिले तुम्हारा इसका कुछ सम्बन्ध न था और इसके मरने के अनन्तर अब भी कुछ सम्बन्ध नहीं है इसीसे मध्य में भी कुछ वास्तव सम्वन्ध न था किन्तु एक झूठा अभिमान ही करके सम्बन्धमान लिया था जैसे जल के समूह में गिरा हुआ जो रेणुका समूह सो प्रवाह के वशसे बहा हुआ चला जाता है ११ सो वह बालू कभी मिलजाती है कभी दूर वहिकै चली जाती है। तैसेई कालवशसे कभी प्राणी मिलजाते हैं और कभी वियोग को प्राप्त होते हैंऔर जैसे भूनेहुये जवोंके ऊपर कोई ठहरसक्ते हैं कोई सरक जाते हैं १२ ऐसे ईश्वरकी माया करके प्रेरे हुये जे प्राणी हैं ते कभी मिलते हैं कभी अलग हो जाते हैं और केवल रावण का ही तुमको संयोग वियोग हुआ होय सो नहीं है किन्तु तुम और हम और कोई और दिखाई पड़ते हैं ये सब कालके अधीन बराबरही हैं १३ और जिसकाल में जिससे अपने जन्म और मृत्यु ईश्वरने कर्म सहित

रचे हैं तब उसी समय में उससे अवश्य होवैंगे और बालक जैसे अपने सुखादिक की चाह नहीं करताहुआ स्वभावही से अपने आप मिट्टीके और काठके स्त्री पुरुषों को रचिकै फिर उनका विवाहादिक और पुत्रादिकों की कल्पना करके खेलता है और क्षणमात्र में बिगाड़ भी डालता है और हर्ष शोक युक्त नहीं होता ऐसेही ईश्वर भी अपनी मायाकरके रचे हुये जे स्त्री पुरुषरूप प्राणी तिनकेद्वारा पुत्रादिकों को रचता है और उन्हीं से पालन भी कराता है और कभी किसीसे मरवा भी देता है। १४ ॥

आत्मसृष्टैरस्वतन्त्रैरनपेक्षोऽपिबालवत्।
देहेनदेहिनोजीवादेहाद्देहोभिजायते॥१५॥

वीजादेवयथावीजन्देहान्यइवशाश्वतः।
देहीदेहबिभागोयमविवेककृतःपुरा॥१६॥

नानात्वंजन्मनाशश्चक्षयोवृद्धिःक्रियाफलम्।
द्रष्टुराभांत्यतद्धर्मायथाऽग्नेर्दारुविक्रियाः॥१७॥

तइमेदेहसंयोगादात्मनाभांत्यसद्ग्रहात्।
प्रथायथातथाचान्यद्ध्यायतोसत्सदाग्रहात्॥१८॥

प्रसुप्तस्यानहम्भावात्तदाभाति न संसृतिः।
जीवतोऽपितथातद्वद्विमुक्तस्यानहंकृतेः॥१९॥

तस्मान्मायामनोधर्मंजह्यहंममताभ्रमम्।
रामभद्रे भगवतिमनोधेह्यात्मनीश्वरे॥२०॥

सर्वभूतात्मनिपरेमायामानुषरूपिणि।
बाह्येन्द्रियार्थसम्बन्धात्याजयित्वामनःशनैः॥२१॥

नकहौ प्रसिद्ध माता पिताही को कर्तृत्व रहौं किसवास्ते ईश्वरकी कल्पना कीजाती है तिससे कहते हैं कि वे प्राणी अस्वतन्त्रहैं अर्थात् तृणमात्रके चलाने में भी स्वतन्त्र नहीं उत्पत्यादिक तो बार्त्ताही क्या हैं और माता पिता की देह से देहमात्रही उत्पन्न होता है और उस देहसे जीव देहधारी कहाता है कुछ आत्मा उत्पन्न नहीं होता है १५ और हे विभीषण जैसे बीज से वृक्ष होता है और उस वृक्ष से फिर बीज होता है फिर उससे वृक्ष होता है ऐसे संसार भी अनादि कालसे चला आता है इसका प्रकार यह है कि अविद्या काम कर्मरूप बीजसे देह होता है और उसदेह में फिर अविद्या वशते अहम्बुद्धि करता है तिससे फिर काम कर्मद्वारा और देह उत्पन्न होता है उससे फिर देहान्तरारम्भक अर्थात् और देहकाउत्पन्न करनेवाला जो और कर्म तिसको करता है इसप्रकार जब तक अविद्यारूप बीज नहीं नष्ट होता है तबतक संसार भी नहीं निवृत्त होता है और जीव तो देहसे अन्य है और नित्य है और देह के सम्बन्धही से यह देही कहाता है सो देह सम्बन्ध अविद्याकर के कल्पित है इससे झूठा है क्योंकि अंतः करणकरके आत्मा के अविवेकते देह गेहादिकों में अहम्मम ऐसी बुद्धि होती है तब यह विचार करनेसे जब देहही में ममता बुद्धिको झूँठापनाहै तो उससे

बहिरंग जो भ्रातादिक तिनमें ममता झूँठी है इसमें क्या कहना है १६ और वास्तवमें तो भाई आदि पदार्थों में स्वरूपसे अन्यबुद्धि और नाशादि बुद्धि अर्थात मेरे देखने के योग्य भाई आदि भी पदार्थ कोई थे तिनका नाश होगया यह बुद्धि भी झूँठी है इस आशय से लक्ष्मणजी कहते हैं हे विभीषण भेद और जन्म और नाश और क्षय और वृद्धि और सुखदुःखादिक ये भी देहादिकों के ही धर्म देखने में आते हैं और आत्म धर्म नहीं हैं जैसे जलते हुये काठमें टेढ़ापना सूयापना यह काठहीका धर्म है और अग्निका नहीं है जैसे १७ और हे बिभीषण ये जो नानात्व अर्थात् भेद और जन्म नाशादिक धर्म हैं ते अंतःकरण के संयोगते अहम्ममता बुद्धिकर के आत्मामें भी प्रतीयमान होते हैं जैसे कीटक भृंगीका ध्यानकरते वैसाही कहा जाता है तैसे अहम्बुद्धि करके भी वैसाही प्रतीत होता है १८ और जैसे सुषुप्ति अवस्था में अहंकार के नहीं होनेसे संसार नहीं प्रतीत होता है तैसेही तत्त्वज्ञान के माहात्म्यकर के जीवन्मुक्त जो पुरुष है तिसको जीवतेही अहंकार के प्रभावसे दुःखशोकादिरूप संसारकी निवृत्ति होती है १९ तिससे हे विभीषण मायाका विकार जो मन तिसकाधर्म जो महममतारूप भ्रम तिसको त्यागदेवो और राम रूप जो आत्मा ईश्वर तिसमें मनको स्थिर करौ अर्थात् जिस परमात्मा के मन में प्रतिबिम्ब होने से आत्मत्व व्यवहार प्रतीयमान होरहा है उस परम आत्मामें मनको धारणकरौ अर्थात् तदाकारवृत्ति को करौ २० और हे विभीषण बाहर इंद्रियोंके ने शब्दादिक विषयहैं तिनमें दोष दृष्टि करके धीरे धीरे उनके संबन्धसे मनको जुदाकरके मायाही करके है २१॥

तत्रदोषान्दर्शयित्वारामानंदेतियोजय।
देहबुद्ध्याभवेद्भातापितामातासुहृत्प्रियः॥२२॥

विलक्षणंयदादेहात्जानात्यात्मानमात्मना।
तदाकःकस्यवाबंधुर्भ्रातामातापितासुहृत्॥२३॥

मिथ्याज्ञानवशाज्जातादारागारादयःसदा।
शब्दादयश्चविषयाविविधाश्चैवसम्पदः॥२४॥

बलंकोशोभृत्यवर्गोराज्यंभूमिःसुतादयः।
अज्ञानत्वात्सर्वेक्षणसंगमभंगुराः॥२५॥

अथोत्तिष्ठहृदारामंभावयन्भक्तिभावितम्।
अनुवर्तस्वराज्यादिभुंजन्प्रराब्धमन्वहम्॥२६॥

भूतंभविष्यदभजन्वर्तमानमथाचरन्।
विहरस्वयथान्यायंभवदोषैर्नलिप्यसे॥२७॥

आज्ञापयतिरामस्त्वांयद्भातुःसांपरायिकम्।
तत्कुरुष्वयथाशास्त्रंरुदतीश्चापियोषितः॥२८॥

मनुष्यरूप जिसका और सब भूतों का आत्मा ऐसे जो प्रकृति से परे परमानन्दरूप राम तिसके विषेमनको लगावो न कहौ परमेश्वर में मन लगाने से

भी कैसे संसारकी निवृत्तिहोगी इससे उस प्रकारको कहते हैं कि देहकी बुद्धिकरके भाई और पिता और माता और मित्र और प्रिय यह बुद्धिहोती है २२ और परमेश्वर में मन लगाने से अन्तःकरण शुद्धद्वारा जब देह से विलक्षण न्यारा आत्माको जानता है तो कौन किसका भाई है कौन किसकी माता है कौन किसका पिता कौन किसका मित्र है २३ क्योंकि झूंठेही अज्ञानबशसे स्त्री और गृहादिक और नानाप्रकारके शब्दादिक विषय और धन संपदा २४ और सेना और खजाना और नौकर चाकर और राज्य और भूमि और पुत्रादिक ये सब अज्ञान से ऊत्पन्न क्षणभंगुर है ऐसी बुद्धि उत्पन्न होती है १५ और हे विभीषण इससे भक्तिकरके सदा स्मरण किया जो राम तिसको निरंतर हृदयके ध्यान करते उठो और बिना भोगके प्रारब्ध कर्मका क्षय नहीं होता यह जानिकै प्रारब्ध कर्मको भोगतेहुये राज्यादिका पालन करो २६ और कैसे ये बन्धु मित्रादिक नष्टहोगये और अब क्या होगा इसप्रकार करके जो व्यतीत होगया है और जो होनेवाला है तिसकी चिन्ता नहीं करतेहुये और जो कुछ वर्तमान समय में प्राप्त सुख दुःखादि तिसको भोगते हुये शास्त्र के अनुकूल विहार करो तौ संसार के दोषोंकरके नहीं लिप्तहोउगे २७ और रामकी तुम्हारे वास्ते यह आज्ञा है कि जो कुछ भाईका पारलौकिक कृत्य है अर्थात् मरे हुयेका जो कर्म किया जाता है तिलको शास्त्र की विधिपूर्वक करों औ हे श्रेष्ठबुद्धियुक्त रोवती हुई जे स्त्रियां हैं तिनको २८॥

निवारयमहाबुद्धेलंकांगच्छन्तुमाचिरम्।
श्रुत्वायथावद्वचनंलक्ष्मणस्यविभीषणः॥२९॥

त्यक्त्वाशोकंचमोहंचरामपार्श्वमुपागमत्।
विमृश्यबुद्ध्याधर्मज्ञोधर्मार्थसहितंवचः॥३०॥

रामस्यैवानुवृत्यर्थमुत्तरंपर्यभाषत।
नृशंसमनृतंक्रूरंत्यक्तधर्मब्रतम्प्रभो॥३१॥

नार्होऽस्मिदेवसंस्कर्तुम्परदाराभिमर्शिनम्।
श्रुत्वातद्वचनम्प्रीतोरामोवचनमब्रवीत्॥३२॥

मरणान्तानिवैराणिनिर्वृत्तन्नःप्रयोजनम्।
क्रियतामस्यसंस्कारोममाप्येषयथातव॥३३॥

रामाज्ञांशिरसाधृत्वाशीघ्रमेवविभीषणः।
सान्त्ववाक्यैर्महाबुद्धिराज्ञीम्मन्दोदरीन्तदा॥३४॥

सान्त्वयामासधर्मात्माधर्मबुद्धिर्विभीषणः।
त्वरयामासधर्मज्ञःसंस्कारार्थस्वबांधवान्॥३५॥

निवारणकरौ जिससे शीघ्रही लंकाको जावें अब बिभीषण जैसे कुछ लक्ष्मणजी ने वचन कहे तिनको सुनिकै २९ शोक और मोह इनको त्यागि कै रामके समीप जाताहुआ और धर्मज्ञ जो विभीषण सो उससमय के योग्यबुद्धि

से विचार करके ३० रामकी सम्मति के धर्म और अर्थ तिनकरके सहित जो वचन हैंतिनको बोलताहआ कि हे प्रभो हिंसा करनेवाला और झूंठ बोलनेवाला और क्रूर और त्यागकरा धर्म का संकल्प जिसने और बिरानी स्त्रियाओंका सेवन करनेवाला ऐसा जो रावण है तिसको मैं संस्कार करनेके योग्य नहीं हौं३१ तब यह विभीषण का वचन सुनिकै प्रसन्न होके श्रीराम बचन बोलते हुये ३२ कि हे विभीषण मरण पर्यंत वैर हुआ करते हैं सो रावण के मारने से मेरा प्रयोजन सिद्ध होगया अब तौ यह जैसा तेराभाई है तैसे मेरा भी है इससे मेरी सम्मति है कि इसका संस्कार करना चाहिये इसका अभिप्राय यह है कि रावण से मेरा वास्तवविरोध नहीं क्यातौ प्रकृतिमात्र का विरोध था जिस प्रकृति से रावणदेवता और ब्राह्मण और धर्म इनसे विरोध करता था सो अब वह रावण की आसुरी राक्षसी प्रकृति संग्राम में मेरे वाणों के मारने से और अंत समय में मेरे स्वरूप के दर्शन से शांत होगई और दैवीप्रकृति प्राप्त हुई तो कहां बैर विरोधका अवसर रहा ३३ अत्र विभीषण रामकी आज्ञा को शिरसे धारण करके शांति के वचनों करके श्रेष्ठबुद्धि जो मन्दोदरी रानी तिसको ३४ सावधान करता हुआ फिर वह धर्मात्मा विभीषण अपने बांधवों का दाहादि संस्कार करने को उद्यत होता हुआ ३५॥

चित्यांनिवेश्यविधिवत्पितृमेधविधानतः।
आहिताग्नेर्यथाकार्यंरावणस्यविभीषणः॥३६॥

तथैवसर्वमकरोद्वन्धुभिःसहमन्त्रिभिः।
ददौचपावकंतस्यविधियुक्तंविभीषणः॥३७॥

स्नात्वाचैवार्द्रवस्त्रेणतिलान्दर्भाभिमिश्रितान्।
उदकेन च संमिश्रान्प्रदायविधिपूर्वकम्॥३८॥

प्रदायचोदकंतस्मैमूर्ध्नाचैनंप्रणम्यच।
ताः स्त्रियोनुनयामाससांत्वमुक्त्वापुनः पुनः॥३९॥

गम्यतामितिताःसर्वाविविशुर्नगरंतदा।
प्रविष्टासुचसर्वासुराक्षसीषुविभीषणः॥४०॥

रामपार्श्वमुपागत्यतदातिष्ठद्विनीतवत्।
रामोपिसहसैन्येनसुग्रीवःसंहलक्ष्मणः॥४१॥

हर्षंलेभ्रेरिपून्हत्वायथावृत्रंशतक्रतुः।
मातलिश्चतदारामंपरिक्रम्याभिवंद्यच॥४२॥

फिर जैसे शास्त्र में कहा है तैसे रावण को चितामें स्थापनकर अग्निहोत्र यज्ञ करनेवाले का जैसाकर्महोता है तैसे विभीषण करता हुआ ३६ और मंत्री और बन्धुओंकरके सहित जो विभीषण सो रावणका अग्नि दाह करता हुआ ३७ फिर विभीषणस्नान करके वैसेई ओदेवस्त्रसहित मंत्रपूर्वक कुशतिलयुक्त जलांजली को विधिपूर्वक ३८ रावण के अर्थदेकै और शिरकरके उसको प्रणामकर के बारंबार शांति के वचनोंकरके मन्दोदरी आदि जे रावणकी रानियां हैंतिनको सम-

झाता हुआ ३९ फिर विभीषण की आज्ञा से सब वे स्त्रियां लंका में प्रवेश करती हुई फिर जब वे सबराक्षसी लंका में प्रविष्ट होगई तब विभीषण ४० राम के समीप आके नम्र हो स्थितहोता हुआअब श्रीरामभी सेना और सुग्रीव लक्ष्मणकर के सहित ४१ शत्रुओं को मारके परम आनन्द को प्राप्तहोतेहुये जैसे वृत्रासुर को मारके इन्द्र आनन्द को प्राप्तहुये अब उस समय में मातलि सारथी राम की परिक्रमा करके और प्रणाम करके ४२॥

अनुज्ञातश्चरामेययौस्वर्गंविहायसा।
ततोहृष्टमनारामोलक्ष्मणंचेदमब्रवीत्॥४३॥

विभीषणायमेलंकाराज्यंदत्तंपुरैवहि।
इदानीमपिगत्वात्वंलंकामध्येविभीषणम्॥४४॥

अभिषेचयविप्रैश्च मंत्रवद्विधिपूर्वकम्।
इत्युक्तोलक्ष्मणस्तूर्णंजगामसहवानरैः॥४५॥

लंकांसुवर्णकलशैःसमुद्रजलसंयुतैः।
अभिषेकंशुभंचकेराक्षसेंद्रस्यधीमतः॥४६॥

ततःपौरजनैःसार्द्धंनानोपायनपाणिभिः।
विभीषणःससौमित्रिरूपायनपुरस्कृतः॥४७॥

दण्डप्रणाममकरोद्रामस्याक्लिष्टकर्मणः।
रामोविभीषणंदृष्ट्वाप्राप्तराज्यंमुदान्वितः॥४८॥

कृतकृत्यमिवात्मानमामन्यतसहानुजः।
सुग्रीवं चसमालिंग्यरामोवाक्यमथाब्रवीत्॥४९॥

रामकी आज्ञालैकै आकाश मार्ग करके स्वर्गको जाताहुआ तब श्रीराम प्रसन्नमनहोके लक्ष्मणसे यहवचन कहते हुये ४३ कि लक्ष्मण विभीषणके अर्थ लंकाकाराज्य में पहिलेईदेचुकाहौं तौभी इस समय में तुमजाके लंकाकेमध्य में ४४ मंत्रों के जाननेवाले जे ब्राह्मण तिन करके विधिपूर्वक विभीषणका अभिषेक करावो इसप्रकार रामकी आज्ञाको प्राप्त जो लक्ष्मण सो बानरोंकर के सहित लंकाकोजाके ४५ समुद्र के जल से भरे हुये जे सुवर्णकलश तिन करके बुद्धिमान् जो विभीषण तिसका अभिषेक कराते हुये ४६ तिसके उपरांत नाना प्रकारकी भेंटैंहैं जिनके हाथों में ऐसे जे पुरवासी तिनको साथ लैकै और लक्ष्मणकरके सहित विभीषण आपभी भेंटलैकै रामके समीप आके ४७ श्रीरामको दण्डवत् प्रणाम करता हुआ और श्रीरामभी प्राप्तहुआहै राज्य जिसको ऐसेविभीषणको देखके आनंदयुक्तहोके ४८ लक्ष्मण करके सहित अपना को कृतकृत्य मानते हुये और सुग्रीव को आलिंगन करके वचन बोलते हुये ४९॥

सहायेनत्वयावीरजितोमेरावणोमहान्।
विभीषणोपिलंकायामभिषिक्तोमयानघ॥५०॥

ततःप्राहहनूमंतंपार्श्वस्थंविनयान्वितम्।
विभीषणस्यानुमतेगच्छत्वंरावणालयम्॥५१॥

जानक्यैसर्वमाख्या

हिरावणस्यवधादिकम्।
जानक्याःप्रतिवाक्यंमेशीघ्रमेवनिवेदय॥५२॥

एवमाज्ञापितोधीमान्रामेणपवनात्मजः।
प्रविवेशपुरीलंकांपूज्यमानोनिशाचरैः॥५३॥

प्रविश्यरावणगृहंशिंशपामूलमाश्रिताम्।
ददर्शजानकीं तत्रकृशांदीनामनिंदिताम्॥५४॥

राक्षसीभिःपरिवृतांध्यायंतींराममेवहि।
विनयावनतोभूत्वाप्रणम्यपवनात्मजः॥५५॥

कृतांजलिपुटोभूत्वाप्रङ्कोभक्त्याग्रतःस्थितः।
तंदृष्ट्वाजानकीतूष्णींस्थित्वापूर्वस्मृतिंययो॥५६॥

कि हे वीर तुम्हारे सहाय करके बड़ाभारी भी रावण मैंने जीता और तुम्हारे ही सहाय से विभीषण का लंकामें अभिषेक भी किया ५० अब तिसके उपरांत श्रीराम समीप स्थित विनययुक्तजो हनुमान् तिससे बोलते हुये कि हे हनुमन विभीषण की सम्मति सेअर्थात् सलाह से तुम रावण के गृहमें जावो ५१ फिर वहां जाके जो कुछ रावणवधादिक वृत्त है तिसको सीता से कहौ फिर सीता सुनिकै जोकुछ प्रत्युत्तर कहै उसको मुझसे आके कहौ ५२ इसप्रकार रामकी आज्ञाको प्राप्त जो बड़ाबुद्धिमान हनुमान् सो राक्षसों करके सत्कार कियागया लंकापुरीमें प्रवेश करताहुआ ५३ फिर हनुमान् रावण के गृहमें प्रवेश करके वहां शिंशपावृक्ष के मूलको आश्रयण करके स्थित अत्यन्त दुर्बल और दुःखित और दोषरहित ऐसी जो सीता तिसको देखते हुये ५४ और राक्षसियों करके वेष्टित और केवल राम ही का ध्यान करती हुई जो सीता तिसको नम्रहो के प्रणाम करके हनुमान् भक्तिकरके और हाथ जोड़े हुये अगाड़ी खड़े होते हुये ५५ फिर तिस हनुमान को सीतादेखके मौनबैठी हुई पहिले मैंने कभी देखा हैऐसा स्मरण करती हुई५६॥

ज्ञात्वातंरामदूतंसाहर्षात्सौम्यमुखीभवत्।
सतांसौम्यमुखींदृष्ट्वातस्याःपवननंदनः॥
रामस्य भाषितं सर्वमाख्यातुमुपचक्रमे॥५७॥

देविरामःससुग्रीवोविभीषणसहायवान्।
कुशलीवानराणांचसैन्यैश्चसहलक्ष्मणः॥५८॥

रावणंससुतंहत्वासबलंसहमंत्रिभिः।
त्वामाहकुशलंरामोराज्येकृत्वाविभीषणम्॥५९॥

श्रत्वाभर्त्तुःप्रियंवाक्यहर्षगद्गदयागिरा।
किंतेप्रियंकरोम्यद्यनपश्याभिजगत्त्रये॥६०॥

समंतेप्रियवाक्यस्यरत्नान्याभरणानि च।
एवमुक्तस्तुवैदेह्याप्रत्युवाचप्लवंगमः॥६१॥

रत्नोघाद्विविधाद्वापिदेवराज्याद्विशिष्यते।
हतशत्रुंविजयिनंरामंपश्यामिसुस्थिरम्॥६२॥

तस्यतद्वचनंश्रुत्वामैथिलीप्राहमारुतिम्।
सर्वेसौम्यागुणाःसौम्यत्वय्येवपरिनिष्ठिताः॥६३॥

फिर कुछकाल में हनुमान् को रामदूत जानिके आनन्दसे शोकरहित है मुख जिसका ऐसी सीता होती हुई तब हनुमान् सीताको प्रसन्न देखके उससेराम का बचन कहता हुआ ५७ कि हे देवि सुग्रीवसहित और विभीषण सहित और लक्ष्मण सहित और वानरोंकी सेनासहित जो रामहैं सोबड़ी कुशल पूर्वक हैं ५८ और पुत्र और सेना और मंत्रियों करके सहित रावणको मारके और विभीषण को राज्यमें स्थापन करके राम तुझसे कुशल पूंछते हैं ५९ अब सीता जी भर्त्ता जो श्रीराम तिसका कहा हुआ हनुमान के मुख से बचनसुनकै हर्षकरके गद्गद हुई जो बाणी तिसकरके बचन बोलती हुई कि हे हनुमन् जो तुमने इस समय में मुझको प्रियवचन सुनाया है इसकेसमान अर्थात् इसके बदले में तीनों लोकमें जेरत्न आभरणादिकवस्तु तिनको मैं देके उद्धार होउँ ६० यह नहीं देखती फिरक्या देवों अर्थात् तेरे इस प्रियवचन सुनाने के ऋणसे उद्धार नहीं होवोंगी अबयहां सकल लोकोंकी अधीश्वरी जो सीता तिसके यह बचन कहनेका यह आशय है कि जिस मेरे प्रभावकरके सब जगत् मोहित होरहा है तो मेरे प्रसादसे तुझको कोई संसार में बन्धन न करे और मेरे गुणोंसे परे जो परमानन्दसन्दोह राम तिसमें सदा मग्नरहैगा और मेरी कृपासे मेरे रचे हुये सबलोकों की संपदाओं के दैदेने की भी तेरीसामर्थ्य होगी यह सूचित किया अब ऐसा जब सीताजीने कहा तौ हनुमान् बोला ६१ कि हे मातः जो मैं मारे हैं रावणादिक शत्रुजिसने ऐसाजो विजययुक्त सदा एकरस राम तिसको देखता हूं सो रत्नों के समूह से और सब देवताओं की राज्यसे भी विशेष है अर्थात् मुझको रामसे अधिकप्रिय वस्तु नहीं देखपड़ती इस हनुमान के कहने का यह आशयहै कि ब्रह्मानन्दमें सब आनन्द अन्तर्गत होरहे हैं इससे जब सर्वआनन्दों का समूह परब्रह्म रामहीको परप्रेमास्पंदरूपकरके देखरहा हौंतो झूठे राज्य रत्नादिक मुझको क्या सुख देसक्तेहैं नहीं कहींसांचे रत्नोंके प्रभावको जानके और फिर उनको प्राप्तहोके फिरकूठे कांचादि रत्नोंकी इच्छा करता है ६२ अब हनुमान के येबचन सुनिकै सीता बचनबोलती हुई कि हे सौम्य हे चन्द्रतुल्य प्रियदर्शन येचन्द्रमाके तुल्य आनन्ददायक गुणतुम्हारे मेंही दिखाईदेते हैं ६३॥

रामं द्रक्ष्यामिशीघ्रम्मामाज्ञापयतुराघवः।
तथेतितांनमस्कृत्यययौद्रष्टुंरघूत्तमम्॥६४॥

जानक्याभाषितंसर्वंरामस्याग्रेनिवेदयत्।
यन्निमित्तोयमारंभःकर्म्मणांचफलोदयः॥६५॥

तांदेवीशोकसंतप्तद्रष्टुमर्हसिमैथिलीम्।
एवमुक्तोहनुमतारामोज्ञानवतांवरः॥६६॥

मायासीतांपरि

त्यक्तुंजानकीमनलेस्थिताम्।
आदातुंमनसाध्यात्वारामःप्राहविभीषणम्॥६७॥

गच्छराजन्जनकजामानयाशुममांतिकम्।
स्नातांविरजवस्त्राढ्यांसर्वाभरणभूषिताम्॥६८॥

विभीषणोऽपितच्छ्रुत्वाजगामसहमारुतिः।
राक्षसीभिःसुवृद्धाभिःस्नापयित्वातुमैथिलीम्॥६९॥

सर्वाभरणसम्पन्नामारोप्यशिविकोत्तमे।
याष्टिकैर्बहुभिर्गुप्तांकंचुकोष्णीषिभिःशुभाम्॥७०॥

अब राम के दर्शन करने की मेरी इच्छा है सो शीघ्रही राम आज्ञाकरैंयह कहौतब हनुमान् उसी समय में सीता को प्रणामकर के राम के देखने को गया ६४ फिर सीताजी का जो वचन है सो सब राम से हनुमान् कहते हुये और यह बोले कि हे राम जिस सीताके कारण से इसयुद्ध का आरम्भ किया गया था तिसके फल की सिद्धिरूप जो शोक संतप्त सीता है तिसको ६५ आप देखने के योग्य हौऐसे जब हनुमान् ने कहा तौ जाननेवालों में श्रेष्ठ जो श्री रामचन्द्र सो ६६ मायारूपिणी जो सीता तिसको परित्यागकरने को और अग्नि में स्थित जो सत्य सीता तिसको ग्रहण करने को मनसे ध्यान करके विभीषण से वोलते हुये ६७ कि हे राजन् शीघ्रही तुम जाओ और सीताको स्नान करवाके और नवीन वस्त्र और आभूषणों करके भूषित कर मेरे समीप शीघ्रही प्राप्त करो ६८ अब बिभीषण यह राम का वचन सुनि के हनुमान् करके सहित वहां जाते हुये और वृद्ध राक्षसियों करके सीता को स्नान करवा के ६९ फिर सम्पूर्ण वस्त्र और आभूषणों करके सूषित कर श्रेष्ठ पालकी पैसवार कराके और जामा और पगड़ियोंको धारणकरे जे आशा बल्लम छड़ीदार मनुष्य तिन्हों करके रक्षा करवाते हुये ७०॥

तांद्रष्टुमागताःसर्वेवानराजनकात्मजाम्।
तान्वारयंतोबहवःसर्वतोवेत्रपाणयः॥७१॥

कोलाहलंप्रकुर्वंतोरामपार्श्वमुपाययुः।
दृष्ट्वातांशिविकारूढांदूरादथरघूत्तमः॥७२॥

विभीषणकिमर्थं ते वानरान्वारयंतिहि।
पश्यन्तुवानराःसर्वेमैथिलीमातरंयथा॥७३॥

पादचारेणसायातुजानकीममसन्निधिम्।
श्रुत्वातद्रामवचनंशिविकाद्रवरुह्यसा॥७४॥

पादचारेणशनकैरागतारामसन्निधिम्।
रामोपिदृष्ट्वातांमायासीतांकार्यार्थनिर्मिताम्॥७५॥

अवाच्यवादान्वहुशःप्राहतांरघुनन्दनः।
अमृप्यमाणासासीतावचनंराघवोदितम्॥७६॥

लक्ष्मणंप्राहमेशीघ्रम्प्रज्वालयहुताशनम्।
विश्वासार्थंहिरामस्यलोकानांप्रत्ययायच॥७७॥

फिर जब सीता मनुष्यों करके रक्षित रामके समीप चलने लगी तौ बानर सीता के दर्शन करने को आतेहुये तिन बानरों को बेंत धारण करे बिभीषण मनुष्य चारों तरफ से वारण करतेहुये ७१ फिर वे वानर आदि सब परस्पर शब्द करते हुये राम के समीप आतेहुये तब श्रीरामचन्द्र दूरसे पालकी पै चढ़े हुये आते सीता को देखके विभीषण से बोले ७२ कि हे विभीषण किस वास्ते इन सब बानरों को सीता के देखने को मना करतेहौ सब वानर सीता को देखें जैसे कोई माता को देखता है ७३ और पांवों पांवों सीता मेरे समीप आ अब यह राम का बचन सुनि के सीता पालकी से उतर के ७४ धीरे २ पांवों ही से राम के समीप आती हुई अब राम भी रावण वधरूप कार्य के अर्थ निर्माण करी हुई मायारूपिणी जो सीता तिस को देख के ७५ बहुत से दुर्वचन अर्थात् जो कहनेयोग्य नहीं ऐसे कहते हुये फिर उन बचनों कोनहीं सहती हुई जो निर्दोष जगन्माता सीता ७६ सो लक्ष्मण से कहती हुई कि हे लक्ष्मण राम को जिस में विश्वास होवैइसकेलिये और सब लोकों की प्रतीति के अर्थ तुम शीघ्र ही अग्नि को प्रज्वलित करौ ७७॥

राघवस्यमतंज्ञात्वालक्ष्मणोपितदैवहि।
महाकाष्टचयंकृत्वाज्वालयित्वाहुताशनम्॥७८॥

रामपार्श्वमुपागम्य तस्थौतूष्णीमरिन्दमः।
ततःसीतापरिक्रम्यराघवम्भक्तिसंयुता॥७९॥

पश्यतांसर्वलोकानांदेवराक्षसयोषिताम्।
प्रणम्यदेवताभ्यश्चब्राह्मणेभ्यश्चमैथिली॥८०॥

बद्धांजलिपुटाचेदमुवाचाग्निसमीपगा।
यथामेहृदयंनित्यंनापसर्पतिराघवात्॥८१॥

तथालोकस्यसाक्षीमांसर्वतःपातुपावकः
एवमुक्त्वातदासीतापरिक्रम्यहुताशनम्॥८२॥

विवेशज्वलनंदीप्तन्निर्भयेनहृदासती॥८३॥

दृष्ट्वाततोभूतगणाःससिद्धाः सीतांमहावह्निगतांभृशार्ताः।
परस्परंप्राहुरहोससीतांरामः श्रियंस्वांकथमत्यजज्ज्ञः॥८४॥

इत्यध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे युद्धकांडे द्वादशःसर्गः १२॥

फिर लक्ष्मण भी उसीसमय में रामके मनका अभिप्राय जानके बड़ाभारी काष्ठ के समूहको करके और उसमें अग्नि प्रज्वलित करके ७८ रामके समीप आके मौनहो स्थितहोतेहुये तब भक्तियुक्तसीता श्रीरामकी परिक्रमाकरके ७९ सब लोकों के देखते देखते और सब देवता और राक्षस इनकी स्त्रियों के देखते २ सीता सब देवताओं के अर्थ और सबब्राह्मणों के अर्थ प्रणामकरके ८० बलती हुई अग्नि के समीप जाके हाथ जोड़ के खड़ीहुई सीता यह वचन बोलती हुई कि जो मेरामन श्रीराम से और में कभी न जाताहोय ८१ तौ सब

लोकका साक्षी जो यह अग्नि सो मुझको सब प्रकार से रक्षाकरै अर्थात् मेरा रोमक न भस्मकरै अर्थात् शीतल होजाय इसप्रकार सीता उससमय में कह के और अग्निकी परिक्रमा करके ८२ प्रज्वलित जो अग्नि तिसमें निर्भय हृदयसे प्रवेश करती हुई ८३ तव उस समय में सिद्धगणों करके सहित सब देव बानर राक्षसादि प्राणी सीताको अग्निमें प्रविष्ट देखके बहुत पीड़ित होके परस्पर यह कहते हुये कि बड़ा आश्चर्य है कि राम सर्वज्ञ होके कैसे अपनी नित्य लक्ष्मी जो सीता तिसको अग्नि में प्रवेशकरने की आज्ञा देतेहुये ८४॥

इतिश्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे युद्धकाण्डे
भाषाटीकायां द्वादशसर्गः॥१२॥

ततःशक्रःसहस्राक्षोयमश्चवरुणस्तथा।
कुबेरश्चमहातेजाःपिनाकीवृषवाहनः॥१॥

ब्रह्माब्रह्मविदांश्रेष्ठोमनिभिःसिद्धचारणैः।
पितरोऋषयःसाध्यागन्धर्वाप्सरसोरगाः॥२॥

एतेचान्येविमानाग्यैराजग्मुर्यवराघवः।
अब्रुवन्परमात्मानंरामंप्रांजलयश्चते॥३॥

कर्त्तात्वंसर्वलोकानांसाक्षीविज्ञानविग्रहः।
वसूनामष्टमोसित्वंरुद्राणांशंकरोभवान्॥४॥

आदिकर्त्तासिलोकानांब्रह्मात्वंचतुराननः।
अश्विनौघ्राणभूतौतेचक्षुषीचन्द्रभास्करौ॥५॥

लोकानामादिरंतोसिनित्यएकःसदोदितः।
सदाशुद्धःसदाबुद्धःसदामुक्तगुणोद्वयः॥६॥

त्वन्मायासंवृतानांत्वंभासिमानुषविग्रहः।
त्वन्नामस्मरतांरामसदाभासिचिदात्मकः॥७॥

सो० सर्ग तेरहें राम अग्निदत्त सीता सहित।
चलेस्वपुरसुखभामसुखवन्दितजीवितकटक॥१॥

अबश्रीमहादेवजी पार्वतीजी से कथा वर्णन करैहैं हे पार्वती फिर तिसके उपरांत सहस्र हैं नेत्र जिसके ऐसा जो इन्द्र और यमराज और वरुण और कुबेर और बड़े तेजस्वी जो वैलपै चढेमहादेव १ और वेदके जानने वालोंमें श्रेष्ठ जो सिद्धचारण और मुनियों करके सहित ब्रह्मा और पितृगण और ऋषि और साध्य और गन्धर्व और अप्सरा और उरग २ इनको आदि लेके सब देवगण श्रेष्ठ विमानोंपै चढ़िके जहां रामचन्द्र स्थितरहेतहां सब आवतेहुये और सब हाथ जोड़के परमात्मा जो राम तिनसे बोलते हुये ३ कि हे राम तुम सब लोकोंके रचनेवालेहौऔर अन्तर्य्यामि रूपकर के सबके देखनेवाले हौऔर विज्ञानस्वरूपों और वसुदेवताओं के मध्य में अष्टमवसुतुमही हौ और ग्यारह रुद्रोॆमें शंकर आपहीहौ ४ और सब लोकोंके आदि कर्त्ता चतुरानन ब्रह्मा तु-

महीहौऔर अश्विनीकुमार तुम्हारी घ्राण इन्द्रिय हैं और चन्द्रमा और सूर्यतुम्हारे नेत्रहैं ५ और सब लोकों के उत्पत्ति कर्त्ता और संहार कर्त्ता तुमहीं हौ और सदा उदयको प्राप्त अर्थात् रात्रि दिन व्यवहार रहितहौ और नित्य हौ और एक हौऔर सदा शुद्धहौ अर्थात् मायाके गुणों करके स्पर्श नहीं करे गये हौऔर इससे सदा बुद्धहौ ज्ञानस्वरूपहौऔर इसीसे सदा मुक्तहौ अर्थात् संसारी नहीं गुणों करके रहित हो और अद्वयहौ द्वैतभाव करके रहितहौ ६ औ जे कोई तुम्हारी माया करके आच्छादित हो रहे हैं तिनको मनुष्य विग्रह मालूम पड़ते हौऔर जे कोई तुम्हारे नामका स्मरण करते हैं तिनको शुद्ध ज्ञान स्वरूप विदित होते हो ७॥

रावणेनहृतंस्थानमस्माकंतेजसासह।
त्वयाद्यनिहतोदुष्टःपुनःप्राप्तम्पदंस्वकम्॥८॥

एवंस्तुवत्सुदेवेषुब्रह्मासाक्षात्पितामहः।
अब्रवीत्प्रणतोभूत्वारामंसत्यपथेस्थितम्॥९॥

ब्रह्मोवाच

वंदेदेवंविष्णुमशेषस्थितिहेतुंत्वामध्यात्मज्ञानिभिरंतर्हदिभाव्यम्।
हेयाहेद्वन्द्वविहीनंपरमेकंसत्तामात्रंसर्वहृदिस्थंदृशिरूपम्॥१०॥

प्राणापानौनिश्चयबुद्ध्याहृदिरुध्वाछित्वासर्वंसंशयबंधंविषयौघान्।
पश्यंतीशंयंगतमोहायतयस्तंवंदेरामंरत्नकिरीटंरविभासम्॥११॥

मायातीतंमाधवमाद्यंजगदादिमानातीतंमोहविनाशंमुनिवन्द्यम्।
योगिध्येयंयोगविधानंपरिपूर्णंवंदेरामंरंजितलोकंरमणीयम्॥१२॥

भावाभावप्रत्ययहीनंभवमुख्यैर्भोगाशक्तैरर्चित पादांबुजयुग्मम्।
नित्यंशुद्धंबुद्धमनंतंप्रणवाख्यंवंदेरामंवीरमशेषासुरदावम्॥१३॥

त्वंमेनाथोनाथितकार्याखिलकारीमानातीतोमाधवरूपोखिलधारी।
भक्त्यागम्योभावितरूपोभवहारी योगाभ्यासैभावितचेतः सहचारी॥१४॥

और हे भगवन् रावणने तेजकर के सहित हमारा स्थान हरलिया रहा सो दुष्ट अब आपनेमारा और फिर अपना स्थान और तेज हमको प्राप्त हुआ ८ जब इस प्रकार देवता स्तुति करते थे उसी समयमें लोक पितामह जो साक्षात् ब्रह्मा सो नम्र होके सत्यमार्ग में स्थित जो राम तिनसे बोलतेहुये ९ कि हे राम सबके पालन में कारणभूत विष्णुरूप जो तुमहौ तिसकी मैं वन्दना करता हों अर्थात् प्रणाम करता हौं कैसे हौजो तुम आत्म ज्ञानियोंकरके हृदय में भावना किये गये हो अर्थात् ध्यानद्वारा जानेगयेहौ और हेयाहेय अर्थात् त्याग करने योग्य और ग्रहणकरने योग्य जो दुःखसुख पाप पुण्यादिरूप द्वन्द्व तिस

करके रहित हौंऔर सबसे परे हौऔर अद्वितीयहौऔर कूटस्थहोनेसे सत्तामात्र हौऔर सबके हृदय में स्थित हौऔर ज्ञान स्वरूपहौ १० और हे राम प्राण जो नासिकाकेद्वारा निकसनेवाला पवन है और अपान जो गुदाके द्वारा निकसनेवाला पवन हैंइनको हृदयमें निश्चय बुद्धिकरके अर्थात् हठयोगकरके प्राणायामद्वारा हम ईश्वरका दर्शन करेंगे ऐसा निश्चयकरके प्राण और अपान वायु इनको हृदयमें रोंकके और है किंवा नहीं है और है भी तौज्ञान स्वरूप है अथवा शरीरी है ऐसा जो ईश्वर विषयक सर्वसन्देह तिसको श्रवण मननादि करके छेद करके और वैराग्यकरके सब विषयोंका छेदनकरके नष्टहुआहैं मोह जिनका ऐसे संन्यासीलोग जिस रामको देखते हैं तिसको मैं प्रणाम करता हूँ कैसा है जो रत्नोंकर के जटित जो मुकुट तिसको धारण करे है और सूर्य के तुल्य जिसका प्रकाश है अथवा सूर्यकाभी जो प्रकाशक है ११ और जो राम मायातीत अर्थात् मायाकेगुणों करके स्पर्श नहीं कियाजाता और लक्ष्मीका पति है और जो जगत्का परमकारण है और जो देशकालादि परिच्छेद करके रहित है अर्थात् इतनेही देश में है और इसीसमय में है ऐसेव्यवहारकर के रहित है और अपने सेवकों के मोहका नाशकरने वाला है और मुनियों करके बन्दनीय और योगियों के ध्यानकरने योग्य और योगशास्त्रका प्रवर्तक औरसर्वत्र परिपूर्ण और अपने गुणों करकेप्रीति युक्तकरा हैलोक जिसने ऐसा जोरमणीय अति सुन्दर राम तिसकीस्तुति मैं करताहूं १२ और जोभाव दृश्यपदार्थ और अभाव जोअति तुच्छ इनदोनों के ज्ञानका अविषय है और त्यागकरेहैं भोग जिन्होंने ऐसे जो शिवादिकतिनकरके पूजित हैचरणारविन्दजिसका और जो नित्य हैं तीनकालकरके अबाध्य हैअर्थात् सबकाल में एकसाही है और जोशुद्ध है मायारहित है और बुद्ध है ज्ञानरूप है और जो अनन्त है देशकालादि परिच्छेद रहित है और प्रणव ॐकार है नाम जिसका ऐसा जोसबअसुरोंका अग्नि तुल्य नाशकबीर राम तिसकी मैं वन्दना करता हूं १३ और हे भगवन तुम मेरे नाथहो और जो मैंने पृथिवीका भार दूर करने की प्रार्थना कीथी तिसके करने वाले हौऔर देशकाल वस्तु इन तीन परिच्छेद करके रहितहौ और लक्ष्मी के पतिहौऔर सबके धारणकरने वाले हौ औकेवल अनन्य भक्तिहीकरके प्राप्त होते हौऔर जो कोई तुम्हारारूप हृदय में ध्यान करता है उसके संसार दुःखके हरनेवाले हौऔर योगाभ्यासकर के शुद्ध कियागया जो चित्त तिसमें विचरनेवाले हौअर्थात् उसी में जाने जाते हौ१४॥

त्वामाद्यन्तंलोकततीनांपरमीशं लोकानांनोलौकिकमानैरधिगम्यम्।
भक्तिश्रद्धाभावसमेतैर्भजनीयंवन्देरामंसुन्दरमिंदीवरनीलम्॥१५॥

कोवाज्ञातुंत्वामतिमानंगतमानं मानासक्तोमाधवशक्तोमुनिमान्यम्।

वृन्दारण्येवन्दितवृन्दारकवृन्दंवन्देरामं भवमुखवन्द्यंसुखकन्दम्॥१६॥

नानाशास्त्रैर्वेद कदम्बैःप्रतिपाद्यं नित्यानन्दंनिर्विषयज्ञानमनादिम्।
मत्सेवार्थंमानुषभावम्प्रतिपन्नं वन्देरामम्मरकतवर्णंमथुरेशम्॥१७॥

श्रद्धायुक्तोयःपठतीमंस्तवमाद्यं ब्रह्मम्ब्रह्मज्ञानविधानम्भुविमर्त्यः।
रामंश्यामङ्कामितकामप्रदमीशंध्यात्वाध्यातापातकजालैर्विगतःस्यात्॥१८॥

श्रुत्वास्तुतिंलोकगुरोर्विभावसुःस्वांके समादायविदेहपुत्रिकाम्।
विभ्राजमानांविमलारुणद्युतिंरक्ताम्बरांदिव्यविभूषणान्विताम्॥१९॥

प्रोवाचसाक्षीजगतांरघूत्तमंप्रपन्नसर्वार्त्तिहरंहुताशनः।
गृहाणदेवींरघुनाथजानकींपुरात्वयामय्यवरोपितांवन्॥२०॥

विधायमायाजनकात्मजांहरेदशाननप्राणविनाशनायच।
हतोदशास्यःसहपुत्रबांधवैर्निराकृतोनेनभरोभुवःप्रभो॥२१॥

और जोलोकोंकी परम्पराका सृष्टिसंहार करने वाला है और जो लोकों का पालनका हेतु है और जो लौकिक प्रमाणों करके नहीं जानाजाता है अर्थात् शास्त्रही करके जानाजाता है और जो भक्ति श्रद्धादियुक्त पुरुषों के सेवन करिबे योग्य है ऐसा जो नीलकमल तुल्य सुन्दरराम तिसकी मैं स्तुति करता हूँ १५ और हेराम कौन इन्द्रियरूप प्रमाणों में आसक्त पुरुषसर्वव्यापक और इतने हौऐसे जानने को अशक्य जो तुम हौ तिसको जाननेको समर्थ होय और हे माधव मुनियों के माननीय और वृन्दावनमें कृष्णरूप करके बन्दना करे है देवताओं के समूह जिसने ऐसा जो शिवादिक करके स्तुति कियागया सुखकन्दराम तिसको मैं प्रणाम करता हूं १६ और नानाशास्त्रों करके निर्णय किया है अर्थ जिन्होंका ऐसे जो वेद समूह तिन्होंकरके जो प्रतिपादन करिबे योग्य और नित्यानन्द स्वरूप और विषयरहित ज्ञान का विषय और आदि रहित और मेरी सेवाके अर्थ मनुष्य भावको प्राप्त ऐसा जो मथुराका ईश मरकतमणि सदृशराम तिसकी मैं वंदना करता हूं १७ जो पृथिवी में श्रद्धायुक्त पुरुष सकल अभीष्टकामना के देनेवाले श्यामसुन्दर रामको ध्यान करके इसब्रह्मा के किये हुए ब्रह्मज्ञान के करनेवाले स्तोत्रको पढ़ता है सो संपूर्ण पातकजालों से रहित होता है १८ अवइसके उपरांत अग्नि स्वरूपको धारणकरके और ब्रह्माकी स्तुति सुनके प्रकाशमान निर्मल है कान्ति जिसकी औ रक्तबस्त्रोंको धारण करे और दिव्य आभूषणों को धारणकरे ऐसी जो जनकनन्दिनी तिसको गोदी मैले के १९ जगत्साक्षीजो हुताशन सो शरणागत पुरुषोंकी आर्तिहरनेवाले रामसे बचन बोलताहुआ कि हेरघुनाथ जो आपने पहिले बनमें मेरेको सौंपी थी उस अपनी सीतादेवी

को ग्रहणकीजिये २० और हेहरे रावण के नाशकेलिये मायारूपिणी सीताको रचिकैपुत्र बांधवों करके सहित रावणका बधकिया और इस रावणके बध करके पृथिवीका भार आपने दूरकिया २१ ॥

तिरोहितासाप्रतिविम्वरूपिणीकृतायदर्थं कृतकृत्यतांगता।
ततोतिहृष्टांपरिगृह्यजानकींरामःप्रहृष्टःप्रतिपूज्यपावकम्॥२२॥

स्वांकेसमावेश्यसदानपायनीश्रियंत्रिलोकीजननींश्रियःपतिः।
दृष्ट्वाथरामंजनकात्मजायुतंश्रियास्फुरंतंसुरनायकोमुदा॥२३॥

भक्त्यागिरागद्गदयासमेत्य कृतांजलिःस्तोतुमथोपचक्रमे।

** इन्द्रउवाच॥**

भजेहंसदाराममिन्दीवराभंभवारण्यदावानलाभाभिधानम्।
भवानीहृदाभावितानंदरूपं भवाभावहेतुं भवादिप्रपन्नम्॥२४॥

सुरानीकदुःखौघनाशैकहेंतुनराकारदेहंनिराकारमीड्यम्।
परेशं परानंदरूपंवरेण्यंहरिंराममीशंभजेभारनाशम्॥२५॥

प्रपन्नाखिलानन्ददोहंप्रपन्नम्प्रपन्नार्तिनिःशेषनाशाभिधानम्।
तपोयोगयोगीशभावाभिभाव्यंकपीशादिमित्रंभजेराममित्रम्॥२६॥

सदाभोगभाजांसुदूरेविभांतं सदायोगभाजामदूरेविभांतम्।
चिदानंदकन्दसदाराघवेशंविदेहात्मजानन्दरूपंप्रपद्ये॥२७॥

महायोगमायाविशेषानुयुक्तोविभासीशलीलानराकारवृत्तिः।
त्वदानंदलीलाकथापूर्णकर्णाःसदानंदरूपाभवंतीहलोके॥२८॥

और हेप्रभो जिसप्रयोजनके अर्थ प्रतिविम्वरूपिणी सीतारची थी सो अपनेकार्यको करके अन्तरहित होगई अबयह अग्निकावचन सुनिकै आनन्दयुक्त जो श्रीराम सो अग्निका पूजन करके २२ और अत्यन्त हर्षयुक्त जो जनकनन्दिनी सीता तिलको ग्रहणकरके और सर्वकाल निकट रहने वाली ऐसी जो तीनोंलोककी माता लक्ष्मीरूप सीता तिसको लक्ष्मीपति रामचन्द्र अपने वाम अंग में स्थापनकर अत्यन्त शोभितहोतेहुये अब सीतासहित प्रकाशमान श्रीरामको इन्द्रदेखके २३ बड़े हर्षकरके और गद्गद वाणीकरके भक्तिसहित हाथ जोड़के स्तुतिकरनेको प्रारंभ करताहुआ नीलकमलके तुल्य है आभा कान्ति जिसकी और संसाररूपी वनके भस्मकरने को अग्निके तुल्य है नाम जिसका और पार्वती के हृदयकरके ध्यानकिया है आनन्दरूप जिसका और संसार के दुःखके नाशका हेतु और शिवादिकोंकरके सेवित ऐसा जो राम तिसका मैंभजन करता हों २४ और देवताओं केसमूहका जो दुःखों का समूह तिसके नाशकाजो हेतु और मनुष्य के आकार हैं देहजिसका और वास्तव मेंजो निश-

कार है और स्तुतिकरने योग्य और ब्रह्मादिकों का भी जोईश ऐसाजो परमानन्दरूप भारनाशक सेवनयोग्य राम तिसका मैं भजनकरताहौं २५ और शरणागत मनुष्यों को सम्पूर्ण आनन्दका देनेवाला जोहै और भक्तोंकरके सदासेवित और भक्तों के सम्पूर्णदुःखों का नाशकरनेवाला है नाम जिसका और तपकरके और राम दमादिकों करके योग जिनका ऐसे योगीश्वर तिनको सद्रूपकर के जो ध्यानकरने के योग्य और जो सुग्रीवादिकों का मित्र ऐसा जो सूर्यरूप राम तिसको मैं भजता हौं २६ और जो संसारके विषय सेवन करनेवाले को दूरप्रतीयमान होरहा है और जो योगियोंको अत्यन्त निकट सदा प्रकाशकरता है और चिद्रूप जो आनन्द तिसका समूहहै और जो रघुवंशकास्वामी है ऐसाजो सीताको सबआनन्दों का देनेवाला राम तिसके मैं शरणप्राप्तहौं २७ और हे ईश आपकी जो बड़ीभारी योगमाया तिसके सत्त्वादिकगुण तिनमें आप जैसे शुद्ध स्फटिकमणिके समीप रक्त पुष्प रक्खाजावे और वह मणि जैसे रक्तसंप्रितीत होवे तैसे आपभी प्रकाशित हो रहे हो और उसी योगमायाकरके आपकी मनुष्य कीसी आकृति है और आपकी आनन्दलीलाकी कथाओं करके पूर्णहो रहे कान जिनके ऐसे जें मनुष्य ते सदा इसलोक में आनन्दयुक्तहो रहते हैं २८॥

अहंमानपानाभिमत्तप्रमत्तोनवेदाखिलेशाभिमानाभिमानः।
इदानीं भवत्पादपद्मप्रसादात्त्रिलोकाधिपत्याभिमानोविनष्टः॥२९॥

स्फुरद्रत्नकेयूरहाराभिरामंधराभारभूतासुरानीकदावम्

शरच्चंद्रवक्तंलसत्पद्मनेत्रं दुरावारपारंभजेराघवेशम्॥३०॥

सुराधीशनीलाभ्रनीलांगकांतिंविराधादिरक्षोवधाल्लोकशांतिम्

किरीटादिशोभंपुरारातिलाभंभजेरामचन्द्ररघूणामधीशम्॥३१॥

लसच्चंद्रकोटिप्रकाशादिपीठेसमासीनमंकेसमाधायसीताम्

स्फुरद्धेमवर्णान्तडित्पुंजभासांभजेरामचन्द्रंनिवृत्तार्तितंद्रम्॥३२॥

ततः प्रोवाचभगवान्भवान्यासहितोभवः

रामंकमलपत्राक्षंविमानस्थोनभस्थले॥३३॥

आगमिष्याम्ययोध्यायांद्रष्टुंत्वांराजसत्कृतम्

इदानींपश्यपितरमस्यदेहस्यराघच॥३४॥

ततोपश्यद्विमानस्थंरामोदशरथंपुरः

ननामशिरसापादौमुदाभक्त्यासहानुजः॥३५॥

और हे ईश अहंकाररूपी जो मद्यपान तिसकरके मतवारा इसीसे प्रमत्त तुमको भूलरहा ऐसा जो मैं हौं सो और चक्रवर्ती राजाओं को अपने ऐश्वर्य का अभिमान होता है तिसके तुल्य अभिमान युक्त हो रहा था सो इस समय में

आपके चरणारविंदके प्रसादसे मेरा तीनोंलोकके स्वामित्वका अभिमान नष्ट होगया २९ और देदीप्यमान जे रत्नों करके जटित केयूर अर्थात् बाहुभूषण और हार तिन करके अतिसुंदर और पृथिवीके भारभूत जो दैत्यों का समूह सोई हुआ तृणसमूह तिसको अग्नि के तुल्य जो है और शरदऋतुके चन्द्रतुल्य है मुखारविंद जिसका और कमलतुल्य हैं नेत्र जिसके और दुःखकरके अपार पार जिसका अर्थात् यह पार वह पारजिसका ऐसे जो राम तिसका मैं भजन करताहों ३० और जो देवताओंका अधीश है और इन्द्रनीलमणि और नील मेघके तुल्य अंगकी कांति जिसकी और बिराधादि जो राक्षस तिनके बधसे जो लोकका शांतिदेनेवाला और मुकुटादिकों करके शोभा जिसकी और महादेवजीको जो रत्न लाभतुल्य है ऐसा रघुवंशियों का स्वामी जो राम तिसका मैंभजन करता हौं ३१ और शोभायमान होरहा कडोरों चन्द्रमाओं का प्रकाश जिसमें ऐसा जो सिंहासन तिसके ऊपर देदीप्यमान जो सुवर्ण तिसकासा वर्ण जिसका और विजुलियों के समूहकीसी कांति जिसकी ऐसी जो सीता तिन को गोदमें स्थापनकर जो स्थित ऐसे जो दुःख आलस्य रहित राम तिसको में भजता हौं३२ अबतिसके उपरांत आकाशमें विमानके ऊपर स्थित जो भवानी करके सहित भगवान् महादेव सो कमलवत् विशाल हैं नेत्र जिसके ऐसे जो राम तिनसे वचन बोलतेहुये ३३ कि हे राम जब तुम अयोध्या में राज्य सिंहासन में स्थित होउगे तब तुमको देखने को मैं आऊंगा और इस समय में इस तुम्हारे देहका पिता जो यह दशरथ है तिसको देखिये ३४ तब श्रीरामचन्द्र विमानके ऊपर स्थित जो दशरथ तिसको आगे देखके लक्ष्मण करके सहितआप बड़ीभक्ति से शिरकर केदशरथ के चरणोंकाप्रणाम करते हुये ३५.

आलिंग्यमूर्ध्न्यवघ्राचरामंदशरथोब्रवीत्।
तारितोस्मित्वयावत्ससंसाराद्दुःखसागरात्॥३६॥

इत्युक्त्वापुनरालिंग्यययौरामेणपूजितः।

रामोपिदेवराजंतंदृष्ट्वाप्राकृतांजलिम्॥३७॥

मत्कृतेनिहतान्संख्येवानरान्पतितान्भुवि।

जीवयाशुसुधावृष्ट्यासहस्राक्षममाज्ञया॥३८॥

तथेत्यमृतवृष्ट्याताञ्जीवयामासवानरान्।

येयेमृतामृधेपूर्वंतेतेसुप्तोत्थिता इव।

पूर्ववत्वलिनोहष्टारामपार्श्वमुपाययुः॥३९॥

नोत्थिताराक्षसास्तत्रपीयूषस्पर्शनादपि।

विभीषणस्तु साष्टांगं प्रणिपत्याब्रवीद्वचः॥४०॥

देवमामनुगृह्णीष्वमयिभक्तिर्यदातव।

मङ्गलस्नानमद्यत्वंकुरुसीतासमन्वितः॥४१॥

अलंकृत्यसहभ्रात्राश्वोगमिष्यामहेवयम्।

विभीषणवचःश्रुत्वाप्रत्युवाचरघूत्तमः॥४२॥

तबदशरथ श्रीरामको हृदयसे आलिंगन करके और शिरको सूंधिकै यह कहते हुये कि हेवत्ससंसाररूपी जो दुःखसागर तिससे तुमने मुझको उद्धार किया ३६ यहबचन कहिकै और फिर आलिंगनकर के रामकरके सत्कार किये जातेहुये और श्रीरामभी हाथ जोड़े अगाड़ी स्थितजो इन्द्र तिससे यह कहते हुये ३७ कि हेइन्द्र मेरे अर्थ संग्राम में मारेगये पृथिवीमें पड़ेहुये जेमरे वानर तिनको शीघ्रही मेरी आज्ञासे अमृत वृष्टिकरके जिलाओ ३८ फिर तैसेई इन्द्रअमृत वृष्टिकरके मरे हुये जे वानर तिनको रामकी आज्ञासे जिवावता हुआ फिर वे वानर जैसे सोवतेसे कोईउठैतैसे उठकर के पहिलेई के तरहसे बलवान् और प्रसन्न वानर रामके समीप आतेहुये ३९और अमृतकी वृष्टिसे भी राक्षस नहीं उठते हुये इसमें कारण यह है कि सत्यसंकल्पजो राम तिनके बाणोंकर के दग्ध जे राक्षस तिनके जीवन देने को अमृत की सामर्थ्य नथी और जीवनसमय में भी वानरोंके जिवाने काही रामका संकल्पथा और राक्षसोंके जिवाने का नहीं था इसीसे वानरों केही जिवानेको अमृतकी वृष्टिकी इन्द्रको आज्ञाकी और भगवत्संकल्प से राक्षसोंके ऊपर अमृतकी वृष्टिनहोंवै इसमें कुछभी आश्चर्य नहींहै और कोई तोऐसा कहते हैं कि रावणने मरेहुये राक्षससमुद्रमें फिकवाय दिये थे इससे उनके शरीर ही वहां नहीं फिरउनका जीवन कैसे होय अबइसके अनन्तर विभीषण रामको साष्टांग दण्डवत् प्रणामकर के रामसे बोलता हुआ ४० कि हेदेवमेरे ऊपर अनुग्रहकरिये और मेरेमें जो आपकी प्रीति है तोमे यह प्रार्थना है कि आपवनवास के व्रत के समाप्तिका मंगलस्नान सीतासहित यहांकरिये ४१ फिर लक्ष्मणकरके सहित वस्त्रालंकारकरके भूषितहो अयोध्याको प्रातः काल हम सब जावेंगे तब यह बिभीषणका बचन सुनिकै श्रीराम बोलते हुये ४२

सुकुमारोतिभक्तोमेभरतोमामवेक्षते।
जटावल्कलधारीसशब्दबह्मसमाहितः॥४३॥

कथन्तेनविनास्नानमलंकारादिकम्मम।
अतःसुग्रीवमुख्यांस्त्वंपूजयाशुविशेषतः॥४४॥

पूजितेषुकपीन्द्रेषुपूजितोहन्नसंशयः।
इत्युक्तोराघवेणाशुस्वर्णरत्नाम्बराणिच॥४५॥

बवर्षराक्षसश्रेष्ठोयथाकामंयथारुचि।
ततस्तान्पूजितान्दृष्ट्वारामोरत्नैश्चयूथपान्॥४६॥

अभिनन्द्ययथान्यायंविससर्जहरीश्वरान्।
विभीषणसमानीतंपुष्पकंसूर्यवर्चसम्॥४७॥

आरुरोहततोरामस्तद्विमानमनुत्तमम्।
अंकेनिधायवैदेहीं लज्जमानांयशस्विनीम्॥४८॥

लक्ष्मणेन सह भ्रात्राविक्रांतेनधनुष्मताम्।
अब्रवीच्चविमानस्थःश्रीरामःसर्ववानरान्॥४९॥

कि हे विभीषण अतिसुकुमार और मेराभक्त और मेरेही तरह जटा और

वल्कलवस्त्रको धारणकरे और प्रणवकध्यान में तत्पर ४३ ऐसा जो भरत सो मेरे आगमनकी राहदेख रहा है अर्थात् अवधि के व्यतीतहोने में प्राणत्यागकरिंदेवेगा ऐसे भरतकेविना यहां मेरामंगलस्नान कैसे होता है इससे विभीषण सुग्रीवादिक जे वानर तिनका पूजनकरौ ४४ और ये श्रेष्ठवानरों का जो तुम पूजनकरोंगे तो मेंहीं पूजित होउंगा इसमें कुछ संशय नहीं है इसप्रकार कहा गया जो विभीपण सो शीघ्र ही नानाप्रकार के रत्न और सुवर्ण और वस्त्र इनकीवृष्टि करता हुआ ४५ और जैसी जिसकी कामनारही और जैसी रुचिथी तैसे तैसे सत्कारकरताहुआ तव श्रीरामरत्नों करके पूजितयूथपति वानरों को देख करके ४६ यथायोग्य प्रशंसा करके विदाकरतेहुये फिर विभीषणने मँगवाया जो सूर्यकेतुल्य प्रकाशमान पुष्पक विमान ४७ तिसमें लज्जायुक्त जो सीता तिसको गोद में बैठार के रामचद्रतेहुये ४८ और बडापराक्रमी धनुषको धारणकिये जो लक्ष्मण तिसकरके सहित उसपुष्पक विमानमें स्थित जो श्रीराम सो सब वानरोंसे बोलते हुये ४९ ॥

सुग्रीवंहरिराजंचअंगदंचविभीषणम्।
मित्रकार्यकृतंसर्वभवद्भिःसहवानरैः॥५०॥

अनुज्ञातामयासर्वेयथेष्टङ्गन्तुमर्हथ।
सुग्रीवप्रतियाह्याशुकिष्किन्धांसर्वसेनिकैः॥५१॥

स्वराज्येवसलंकायांममभक्तोविभीषण।
नत्वांधर्षयितुंशक्ताःसेन्द्रायपिदिवौकसः॥५२॥

अयोध्याङ्गतुमिच्छामिराजधानीपितुर्मम।
एवमुक्तास्तुरामेणवानरास्तेमहाबलाः॥५३॥

ऊचुःप्रांजलयःसर्वेराक्षसञ्चविभीषणः।
अयोध्यां गन्तुमिच्छामस्त्वयासहरघूत्तम॥५४॥

दृष्ट्रात्वामभिषिक्तन्तुकौशल्यामभिवाद्यच।
पश्चाद्वृणीमहोराज्यमनुज्ञान्देहिनःप्रभो॥५५॥

रामस्तथेतिसुग्रीववानरैःसविभीषणः।
पुष्पकंसहनूमांश्च शीघ्रमारोहसाम्प्रतम्॥५६॥

और वानरोंकाराजा जो सुग्रीव और अंगद और विभीषण इनसे भी कहते हुये कि आप सबने वानरोंकर के सहित जो कुछ मित्रका कार्य उचित है तैसा किया ५० अत्र में आज्ञा देताही इच्छापूर्वक अपने अपने गृहकोजावो और है. सुग्रीव तुम अपनी सेनासहित किष्किन्धाको जाओ ५१ और हेविभीषण तुम मेरीभक्तियुक्तहो लंका में राज्यका भोगकरतेहुये वासकरो और इन्द्रादि देवता भी तुम्हारा तिरस्कार करनेको समर्थ नहीं होवेंगे ५२ और में अपने पिताकी राजवानी जो अयोध्या है तिसके जानेकी इच्छाकरताहीँ अब इसप्रकार राम करके कद्देहुये जे महाबलीवानर ५३ ते और विभीषण ये सब हाथ जोड़केरामसे कहते हुये कि हे राम आपके संग हमसबभी अयोध्याके जानेकी इच्छा

करते हैं ५४ और राज्य में अभिषेकयुक्त आपकोदेखके और कौशल्या को प्रणाम करके फिर हम राज्यको करना चाहते हैं इससे हे स्वामिन अपने संग लेचलने की हमको आज्ञा दीजिये ५५ तब श्रीराम बोले कि हे सुग्रीव वानरों करके सहित और बिभीषणकरके सहित और हनुमान्करके सहित तुमशीघ्रही इस समय में पुष्पक विमान पै चढ़ौ ५६॥

ततस्तुपुष्पकंदिव्यंसुग्रीवःसहसेनया।

विभीषणश्चसामात्यःसर्वेचारुरुहुर्द्रुतम्॥५७॥

तेष्वारूढेषुसर्वेषुकौबेरंपरमासनम्।

राघवेणाभ्यनुज्ञातमुत्पपातविहायसा॥५८॥

वभौतेनविमानेनहंसयुक्तेनभास्वता।

प्रहृष्टश्चतदारामश्चतुर्मुखइवापरः॥५९॥

ततोब भौभास्करबिम्बतुल्यंकुबेरयानंतपसानुलब्धम्।

रामेणशोभांनितरांप्रपेदेसीतासमेतेनसहानुजेन॥६०॥

इत्यध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे युद्धकाण्डे त्रयोदशः सर्गः १३॥

तबतौ सेनाकरके सहितसुग्रीव और मन्त्रियोंकरके सहित बिभीषण ये शीघ्र ही दिव्य जोपुष्पक विमान तिसके ऊपर चढ़ते हुये ५७ जब सब उसमें बैठिलिये तौकुबेर सम्बन्धी जोवह पुष्पक विमान सोशीघ्रही रामकी आज्ञा करके आकाशमार्गकरके चलताहुआ ५८ अब हंसोंकर के युक्त प्रकाशमान जो पुष्पक विमान तिसकरके आनन्दयुक्त जोरामसो हंसवाहन ब्रह्माके सदृश शोभित होते हुये ५९ अबबड़े तपकरके प्राप्तहुआ जोवह कुबेरका पुष्पकविमान सो सूर्यके तुल्य प्रकाशमान होता हुआ और सीता लक्ष्मण सहित रामकरके तौ अत्यन्त शोभाको प्राप्तहोता हुआ ६० ॥

इतिश्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे युद्धकाण्डे
भाषानुवादेत्रयोदशःसर्गः॥१३॥

पातयित्वाततश्चक्षुःसर्वतोरघुनन्दनः।
अब्रवीन्मैथिलींसीतांरामःशशिनिभाननाम्॥१॥

त्रिकूटशिखराग्रस्थांपश्यलंकांमहाप्रभाम्।
एतांरणभुवंपश्यमांसकर्दमपंकिलाम्॥२॥

असुराणांप्लवंगानामत्रवैशसनंमहत्।
अत्रमेनिहतःशेतेरावणोराक्षसेश्वरः॥३॥

कुम्भकर्णेन्द्रजिन्मुख्याःसर्वेचात्रनिपातिताः।
एषसेतुर्मयाबद्धःसागरेसलिलाशये॥४॥

एतच्चदृश्यतेतीर्थंसागरस्यमहात्मनः।
सेतुबंधमितिख्यातंत्रैलोक्येनचपूजितम्॥५॥

एतत्पवित्रंपरमंदर्शनात्पातकापहम्।

अत्ररामे

स्वरोदेवोमयाशम्भुःप्रतिष्ठितः॥६॥

अत्रमांशरणंप्राप्तोमंत्रिभिश्चविभीषणः।
एषासुग्रीवनगरीकिष्किंधाचित्रकानना॥७॥

दो० ।सर्ग चौदहें विविध थल सीताको दरशाइ।
भरद्वाजपद देखि हरि भरत मिलेहियलाइ॥१॥

अबश्रीमहादेवजी पार्वतीजीसे कथा वर्णन करते हैं हे पार्वति जबपुष्पक विमान आकाशमार्ग करके अयोध्यानगरीको चला तब श्रीरामचन्द्र विमानके ऊपरसे चारोंतरफ नेत्रोंको चलातेहुये चन्द्रमाके तुल्य है मुख जिसका ऐसी जोसीता तिससे बोलते हुये १ कि हे सीते त्रिकूट पर्वत के ऊपर बसती हुई जो प्रकाशमान लंका तिसको देख और मांस रुधिरकी जिसमें कीचड़उठरही है ऐसी जोसंग्रामकी पृथ्वी तिसको देखो २ और इसीरण भूमि में असुरोंका और वानरोंका बढ़ाभारी नाशहुआ हैं और हे सीते इसजगह मुझकरके माराहुआ रावण शयन करता हुआ ३ और इस जगह कुम्भकर्ण और मेघनाद आदि लैके स्वराक्षस मारेगये हैं और यह मैंने समुद्र में सेतु बँधवाया है तिसको देख ४ और यह समुद्र के तीर परमपवित्र तीर्थ है और दर्शनही से पापका नाशकरने वाला है और इसी जगह रामेश्वर नामकरके ५ जो महादेवसो मैंने स्थापन किया है सो यह सेतुबन्ध नाम करके तीर्थ दिखाई पड़ता है जोतीनों लोकों करके पूजत है ६ और हे सीते इस जगह मन्त्रियों करके सहित बिभीषण मेरे शरण प्राप्तहुमा और चित्र विचित्र है वनजिसमें ऐसी यहसुग्रीव की नगरी किष्किन्धा दिखाई पड़ती है ७॥

तत्ररामाज्ञयाताराप्रमुखाहरियोषितः।
अनयामाससुग्रीवःसीतायाःप्रियकाम्यया॥८॥

ताभिःसहोत्थितंशीघ्रंविमानंप्रेक्ष्यराघवः।
प्राहचाद्रिंऋष्यमूकंपश्यचाल्यत्रमेहतः॥९॥

एषापंचवटीनामराक्षसायत्रमेहताः।
अगस्त्यस्यसुतीक्ष्णस्यपश्याश्रमपदेशुभे॥१०॥

एतेतेतापसाःसर्वेदृश्यंतेवरवर्णिनि।
असौशैलवरोदेविचित्रकूटःप्रकाशते॥११॥

अत्रमांकैकयीपुत्रःप्रसादयितुमागतः।
भरद्वाजाश्रमंपश्यदृश्यतेयमुनातटे॥१२॥

एषाभागीरथीगंगादृश्यतेलोकपावनी।
एषासाहयतेसीतेसरयूर्यूपमालिनी॥१३॥

एषासादृश्यतेऽयोध्याप्रणामंकुरुभामिनि।
एवंक्रमेणसंप्राप्तोभरद्वाजाश्रमंहरिः॥१४॥

अबमहादेव पार्वतीसे कहते हैं कि इसप्रकार राम सीताजीको मार्गदिखातेहुये वार्त्ता कररहेथे तबतक किष्किन्धानगरीके समीप जब विमान आयातव रामकी आज्ञाकर के सुग्रीव सीताजीकी प्रीतिकी इच्छा से ताराअदिक जेअपनी

स्त्रियां तिनको वहां बुलवाताहुआ ८ फिर उनस्त्रियों करके सहित पुष्पक विमान आकाशमार्ग करके चलनेलगा तौश्रीराम सीतासे कहने लगे किं हे सीते इसऋष्यमूक पर्वत को देखो और इस जगह पै मैंने बालीको माराथा९और यह पंचवटी नाम करके आश्रम दिखाई पड़ता है और इस जगह पर मैंने चौदहहजार राक्षस मारे हैं और ये अगस्त्य के और सुतीक्ष्ण ऋषिके दोनों आश्रमदिखाई पड़ते हैं १० मोरे हे सीते ये सबदण्डकवन के तपस्वीलोग दिखाई पड़ते हैं और हे देवि यहपर्वतों में श्रेष्ठ चित्रकूट दिखाई पड़ता है ११ और इस जगह मुकप्रसन्न करने को कैकेयीकापुत्र भरत आायाथा और यह यमुना के तटपै भरद्वाज ऋषिका आश्रम दिखाईदेता है १२ और हे सीते यहलोकों की पवित्र करनेवाली भागीरथी गंगा दिखाई पड़ती है और यहां रघुबंशियों के यज्ञोंके स्वम्भाओंकी मालासरीखी बनरही है और यहसरयू दिखाई पड़ती है १३ और हे सीते यह अयोध्यानगरी दिखाई पड़ती है इसको प्रणाम करो अब इसक्रमसे सीताजीको देशदिखाते हुये श्रीरामभरद्वाजऋषि के आश्रमको प्राप्त होते हुये १४॥

पूर्णेचतुर्दशेवर्षेपञ्चम्यांरघुनन्दनः।
भरद्वाजंमुनिंदृष्ट्वाववन्देसानुजःप्रभुः॥१५॥

पप्रच्छसुनिमासीनंविनयेनरघूत्तमः।
शृणोषिकच्चिद्भरतःकुशल्पास्तेसहानुजः॥१६॥

सुभिक्षावर्त्ततेऽयोध्याजीवंतिमममातरः।
श्रुत्वारामस्यवचनंभरद्वाजःप्रहृष्टधीः॥१७॥

प्राहसर्वेकुशलिनोभरतस्तुमहामनाः।
फलमूलकृताहारोजटावल्कलधारकः॥१८॥

पादुकेसकलंन्यस्यराज्यंत्वांसुप्रतीक्षते।
यद्यत्कृतंत्वयाकर्मदण्डकेरघुनन्दन॥१९॥

राक्षसानांविनाशंचसीताहरणपूर्वकम्।
सर्वज्ञातंमयारामतपसातेप्रसादतः॥२०॥

त्वंब्रह्मपरमंसाक्षादादिमध्यांतवर्जितः।
त्वमग्रेसलिलंदृष्ट्वातत्रसुप्तोसिभूतकृत्॥२१॥

जब चौदहवांबर्ष जिसदिन पूर्णहुआ उसीदिन पंचमीतिथिको श्रीरामचन्द्र भरद्वाज के आश्रम में प्राप्तहो लक्ष्मणसहित राम भरद्वाजमुनिका दर्शनकरिके प्रणाम करते हुये १५ और आश्रम में बैठे हुये जो भरद्वाजमुनि तिनसे नम्रतापूर्वक राम पूछते हुये कि हे भगवन् शत्रुघ्नकरके सहित भरत कुशलयुक्त है यह आपने सुना है १६ और अयोध्या धनधान्य समृद्धियुक्त है और मेरीमाता जीवती हैं तब ये रामके वचन सुनिकै प्रसन्न चित्तहो मुनि कहते हुये १७ हे राम सब कुशल युक्त हैं और शुद्ध मन जिसका ऐसा जो भरत सो तौ फलमूल भोजन करता है और जटावल्कलको धारणकरे रहताहै १८ और सब राज्य आपकी खड़ाउओंको समर्पणकर आप केवल तुम्हारी प्रतीक्षा किया करता है कि कब

रामके दर्शनहोंगे और हेराम दण्डकवनमें रहिकै जो जो कर्म आपने किया १९ और सीताहरण को आदि लैके जो राक्षसोंका विनाश किया सो मैंने तुम्हारे प्रसाद से तपकरके सबजाना २० और हे राम तुम आदि मध्य अन्तकर के रहित साक्षात परब्रह्म हौऔर सब भूतों के रचनेवाले जो तुमहौ सो अगाड़ी जलको रचिकै उसमें शयन करते हुये हौ २१ ॥

नारायणोसिविश्वात्मन्नराणामन्तरात्मकः।
त्वन्नाभिकमलोत्पन्नोब्रह्मालोकपितामहः॥२२॥

अतस्त्वञ्जगतामीशःसर्वलोकनमस्कृतः।
त्वंविष्णुर्जानकीलक्ष्मीःशेषोऽयंलक्ष्मणाभिधः॥२३॥

आत्मनासृजसीदंत्यमात्मन्येवात्ममायया।
नसज्जसेनभोवत्त्वंचिच्छक्त्यासर्वसाक्षिकः॥२४॥

बहिरंतश्चभूतानांत्वमेवरघुनंदन।
पूर्णेपिमूढ़दृष्टीनांविच्छिन्नइवलक्ष्यसे॥२५॥

जगत्त्वंजगदाधारस्त्वमेवपरिपालकः।
त्वमेवसर्वभूतानांभोक्ताभोज्यंजगत्पते॥२६॥

दृश्यतेश्रूयतेयद्यत्स्मर्यतेवारघुत्तम।
त्वमेवसर्वमखिलंत्वद्विनान्यन्नकिंचन॥२७॥

मायासृजतिलोकांश्चस्वगणैरेहमादिभिः।
त्वच्छक्तिप्रेरितारामतस्माच्चय्युपचर्यते॥२८॥

इससे तुम नारायण हौइसका अभिप्राय यह है कि नर जो पुरुष तिससे उत्पन्न होयँ जे ते नर कहिये अर्थात् जल वेजल हैंअयन आश्रय तिसके सो कहिये नारायण अथवा सब वानरोंके जीवोंके अन्तर्यामीहौ इससे नारायणहौइसपक्षमें नार जो जीवसमूह तिसका अयननाम प्रवृत्तिहोवैजिससे सो कहिये नारायण ये दोनों नारायण शब्द के अर्थ व्याकरणादिक से सिद्ध हैं और हेराम ऐसे जलशायी नारायण जो आप तिनहींके नाभिकमलसे लोकपितामह ब्रह्माहोता हुआ २२ और हे राम जिससे ब्रह्माकेभी पिता तुम हौइससे सवजगत् के स्वामी तुमहींहौऔर सबलोकों करके नमस्कार किये गयेहौ और आप साक्षात् विष्णुहौ और सीता लक्ष्मीरूपिणी है और लक्ष्मण शेषरूप है २३ और हे राम तुम अपने आत्माहीमें अपनी मायाकरके अपनेही रूपको जगत्पकरके आपही रचतेहौऔर अपनी चिच्छक्तिकरके आकाशवत् कहीं लिप्त नहीं होते और सबके साक्षी हौ२४ और रघुनन्दन सब प्राणियों के बाहर भीतर तुमहीं हौंऔर तुम सर्वत्र परिपूर्ण भी हौपरन्तु मूढदृष्टि पुरुषों को परिच्छिन्नकी तरह अर्थात् मनुष्यरूपकरके जानेजाते हौ २५ और जगत्रूपभी आपहीहौऔर जगत्के आधारभी तुमहींहौऔर जगत् के रक्षा करनेवाले भी तुमहीं हौऔर सबके भोक्ताभी तुम्हींहौऔर भोग्यरूप जो अन्नादिक सोभी तुमहींहौ२६ और जो कुछ सुनाई देता है और जो कुछ स्मरण

कियाजाता है सो सब तुमहीं हौ और हे राम ऐसा कुछ जगत् में पदार्थ नहीं जो तुम्हारे बिना होय अर्थात् सर्वस्वरूप तुमहौ २७ न कहो क्या परमार्थ करके सृष्ट्यादि कर्तृत्व मुझमें है तिससे भरद्वाज कहते हैं कि हे राम तुमकरके प्रेरित जो तुम्हारी शक्तिमाया सो अहंकारादिक जो अपने गुण तिन करके लोकोंको रचती है इससे तुम्हारे में जगत्कर्तृत्वादि व्यवहार प्रतीत होता है जैसे भृत्यकृत राजा में प्रतीत है २८ ॥

यथाचुम्बकसान्निध्याच्चलंत्येवायआदयः।
जडातथात्वयादृष्टामायासृजतिवैजगत्॥२९॥

देहद्वयमदेहस्यतवविश्वंरिरक्षिषोः।
विराट्स्थूलंशरीरंतेसूत्रंसूक्ष्ममुदाहृतम्॥३०॥

विराजःसम्भवत्येतेअवताराःसहस्रशः।
कार्यंतेप्रविशंत्येवविराजरघुनन्दन॥३१॥

अवतारकथांलोकेयेगायन्तिगृणन्तिच।
अनन्यमनसोमुक्तिस्तेषामेवरघूत्तम्॥३२॥

त्वंब्रह्मणापुराभूमेर्भारहारायराघव।
प्रार्थितस्तपसातुष्टस्त्वंजातोसिरघोःकुले॥३३॥

देवकार्यमशेषेणकृतंतेरामदुष्करम्।
बहुवर्षसहस्राणिमानुषंदेहमाश्रितः॥३४॥

कुर्वन्दुष्करकर्माणिलोकद्वयहितायच।
पापहारीणिभुवनंयशसापूरयिष्यसि॥३५॥

और प्रेरकत्व व्यवहार भी सन्निधिमात्र करके आरोपित है वास्तव नहीं है सो कहते हैं कि हे राम जैसे चुम्बक पत्थरके सन्निधिमात्र करकेही लोहादिक आपही चलते हैं तैसे जड़जो माया है सो तुमकरके देखी हुई जगत्‌को रचती है २९ और जगत्की रक्षाकरने की इच्छा करते हुये जोतुमहौ तिनके दोशरीर हैं बिराट् तौतुम्हारा स्थूल शरीर है और सूत्रात्मा हिरण्यगर्भ सूक्ष्म शरीर है तहां समस्त देवासुरनरतिर्यगादि नदी पर्वतादिस्थूल शरीरोंके समूहको विराट् कहते हैं और जिस ईशानवायुमें सबके प्राणादिलिंग शरीर प्रविष्ट हो रहे हैं ऐसा जोसूत्रात्मा उसको हिरण्यगर्भ कहतेहैं ३० और आपके विराट् शरीरसे हजारों अवतार होते हैं और कार्यके अन्त में फिर उसीमें प्रवेश करते हैं ३१ और जे कोई लोकमें आपके अवतारों की कथाओं को गानकरते हैं अथवा श्रवणद्वारा सराहना करते हैं एकाग्रचित्तहो हे रघुनन्दन वे पुरुष मुक्तिभागी होते हैं ३२ और हे राम तुम पहिले ब्रह्माके तपकरिकै प्रसन्न हुये ब्रह्माकरिकै प्रार्थना किये गये पृथिवी के भारको दूर करने के अर्थ रघुकुल में प्रकट हुये हौ ३३ सो हे राम दुष्कर अर्थात् औरों करनेको अशक्य यह देवताओंका कार्य तुमने सबकिया और बहुत हजार वर्षभर मनुष्यदेह को आश्रयण करेहुये ३४ दोनों लोकों के

कल्याण केमनुष्यों के पाप हरनेवाले दुष्करकर्म करते हुये लोकोंको अपने यशकरिकैपूर्ण करोगे ३५॥

प्रार्थयामिजगन्नाथपवित्रंकुरुमेगृहम्।
स्थित्वाद्यभुक्त्वासवलःश्वोगमिष्यसिपत्तनम्॥३६॥

तथेतिराघवोऽतिष्ठत्तस्मिन्नाश्रमउत्तमे।
ससैन्यःपूजितस्तेनसीतयालक्ष्मणेनच॥३७॥

ततोरामश्चितयित्वामुहूर्तंप्राहमारुतिम्।
इतोगच्छहनूमंस्त्वमयोध्याम्प्रतिसत्वरः॥३८॥

जानीहिकुरालीकञ्चिज्जनोनृपतिमन्दिरे।
शृङ्गवेरपुरङ्गत्वाब्रूहिमित्रंगुहम्मम॥३९॥

जानकीलक्ष्मणोपेतमागतम्मान्निवेदय।
नन्दिग्रामन्ततोगत्वाभ्रातरंभरतंम्म॥४०॥

दृष्ट्वाब्रूहिसभार्यस्यसभ्रातुःकुशलंमम।
सीतापहरणादीनिरावणस्यवधादिकम्॥४१॥

ब्रूहिक्रमेणमेभ्रातुःसर्वतत्रविचेष्टितम्।
हत्वाशत्रुगणान्सर्वान्सभार्यःसहलक्ष्मणः॥४२॥

और हे जगन्नाथ मैं यह आपसे प्रार्थना करता हूँ कि मेरा गृह पवित्र करिये आज यहां स्थितहोकर सेना सहित भोजनकरिकै प्रातःकाल अयोध्या नगरीको जाइये ३६ श्रीराम सुनिकी आज्ञाको स्वीकार करिकै रात्रिभर उस आश्रममें वासकरते हुये और सेनाकरिकै सहित और लक्ष्मण सीताकरिकै सहित बड़े सत्कारकोप्राप्त होतेहुये ३७ तव राम एक मुहूर्तभर चिन्तनकरिकै हनुमानू से बोलते हुये कि हे हनुमन् शीघ्रही तुम यहां से अयोध्याको जाउ ३८ और वहां जाके राजा दशरथ के गृह में सवजन कुशल हैं यह प्रथम ख़बर लेउघोर शृंगवेरपुर में जाके मेरा मित्र जो निषाद तिससे मेरी कुशल कहौ ३९और यह निषाद से कहो कि सीता लक्ष्मण सहित राम कुशलपूर्वक भरद्वाजके आश्रम में आगये हैं फिर नन्दिग्राममें जाकर मेरा भाई जो भरत तिसको देखिकै ४० कि सीता लक्ष्मण सहित मेरा आगमन कुशलपूर्वक सुनावो और सीता हरणको आदिलैके रावणवधादि चरित्र मेराक्रमकरिकै संपूर्ण भरतसेकहाौ४१ और संपूर्ण शत्रुत्रों को मारकरिकै सीता लक्ष्मण सहित ४२॥

उपयातिसमृद्धार्थःसहऋक्षहरीश्वरैः।
इत्युक्त्वातत्रवृत्तान्तंभरतस्यविचेष्टितम्॥४३॥

सर्वज्ञात्वापुनःशीघ्रमागच्छममसन्निधिम्।
तथेतिहनुमांस्तत्रमानुपंवपुरास्थितः॥४४॥

नन्द्रिग्रामंययौतूर्णवायुवेगेनमारुतिः।
गरुत्मानिववेगेनजिघृक्षन्भुजगोत्तमम्॥४५॥

शृङ्गवेरपुरम्प्रप्यगुहमासाद्यमारुतिः।
उवाचमधुरंवाक्यम्प्रहष्टेनान्तरात्मना॥४६॥

रामोदाशरथिःश्रीमान्सखातेसहसीतया।
सलक्ष्मणस्त्वां

धर्मात्माक्षेमीकुशलमब्रवीत्॥४७॥

अनुज्ञातोद्यमुनिनाभरद्वाजेनराघवः।
आगमिष्यतितन्देवंद्रक्ष्यसित्वंरघूत्तमम्॥४८॥

एवमुक्त्तामहातेजाःसम्प्रहृष्टतनूरुहम्।

उत्पपातमहावेगोवायुवेगेनमारुतिः॥४९॥

और ऋक्ष वानरों करिकै सहित परिपूर्ण मनोरथ राम आवतेहैं यह सब वृत्त भरतसे कहो और भरतके यहांका सब बृत्तांत और भरतका चरित्र ४३ सब जानिकै फिर शीघ्रही मेरे समीप आवो तब हनुमान् तैसेई श्रीरामकी आज्ञाको स्वीकारकर मनुष्यके रूपमें स्थित होतेहुये ४४ फिर हनुमान जैसे गरुड़ सर्पके ग्रहणकरने को शीघ्रगति करिकैचलै ऐसे पवन के वेगकरिकै शीघ्रही नन्दिग्रामको जाताहुआ ४५ तहां मार्ग में प्रथम हनुमान् शृङ्गवेरपुरको प्राप्त होके वहां गुह नाम जो निषाद तिसको मिलकै बड़े प्रसन्न मनसे मधुरवचन बोलताहुआ ४६ कि हेगुह बड़े शोभायमान सीता लक्ष्मण युक्त धर्मात्मा जो तुम्हारे संखा दशरथ के पुत्र राम सो कुशलयुक्त हैं और तुम्हारी कुशल पूछते हुये हैं ४७ और आज भरद्वाज मुनिकी आज्ञा को प्राप्तहोके आवैगे तिनरघुश्रेष्ठ देवको तुम देखोगे ४८ ऐसे वचन निषाद से कहिकै हनुमान् पवन के वेग से आकाश मार्गकरके जाते हुये और निषाद रामकी कुशल सुनके अत्यन्त आनन्दयुक्त होता हुआ ४९॥

सोपश्यद्रामतीर्थचसरयूंचमहानदीम्।
तामतिक्रम्यहनुमान्नंदिग्रामंययौमुदा

५०

क्रोशमात्रेत्वयोध्यायाश्चीरकृष्णाजिनाम्बरम्।
ददर्शभरतंदीनकृशमाश्रमवासिनम्

५१

मलपंकविदिग्धांगंजटिलंवल्कलांबरम्।
फलमूलकृताहारंरामचितापरायणम्

५२

पादुकेतेपुरस्कृत्यशासयंतंवसुन्धराम्।
मंत्रिभिःपौरमुख्यैश्चकाषायांबरधारिभिः

५३

वृतदेहंमूर्तिमंतंसाक्षाद्धर्ममिवस्थितम्।
उवाचप्रांजलिर्वाक्यंहनूमान्मारुतात्मजः

५४

यत्वंचिंतयसेरामतापसंदणडकेस्थितम्।
अनुशोचसिकाकुत्स्थःसत्वांकुशलमब्रवीत्

५५

प्रियमाख्यामितेदेवशोकंत्यजसुदारुणम्।
अस्मिन्मुहूर्तेभ्रात्रात्वंरामेणसहसंगतः

५६

सो अब आगे हनुमान् जाके राम तीर्थको देखते हुये और सरयू नदी को देखते हुये फिर सरयूके पारहो बड़े आनन्दपूर्वक नन्दिग्राम में प्राप्तहोते हुये ५० फिर अयोध्या नगरीसे एककोस भर पै चीर वस्त्र और मृगचर्मको धारण किये और अति दुर्बल और रामके वियोगसे दुःखित आश्रम में वास करते हुये जो भरत तिनको हनुमान देखते हुये ५१ फिर कैसे भरते हैं कमलरूपी जो पंकज

तिसकरिकै लिप्तहै अंग जिनका और जटा और वल्कल वस्त्र इनको धारण करे हैंऔर फल मूलका भोजन करते हैं और रामकी चिन्तामें परायण होरहे हैं ५२ और रामकी खड़ाउओं को आगे करके पृथिवीकी रक्षाकरते हैं और गेरू रंगे हुये वस्त्रोंको धारणकरे जे मन्त्री और पुरवासी तिन करिकै सेवित हैं ५३ और मानों मूर्तिको धारण किये साक्षात् धर्मही स्थितहोय ऐसा जो भरत तिसको हाथ जोड़के प्रणाम कर हनुमान् बोलते हुये ५४ कि हेभरत जिसदण्डक वनमें स्थित तपस्वी रामको तुम चिन्तन कररहे हो और शोच रहे हो सोईराम तुमसे कुशल पूछते हुये हैं ५५ और हे देव तुमको में प्रिय सुनाताहूं इससे दारुण जो यह शोक है तिसको त्यागकरिये इसी समय में भाई जो राम तिससे तुम मिलोगे ५६ ॥

समरेरावणंहत्वारामःसीतामवाप्यच।
उपयातिसमृद्धार्थःससीतःसहलक्ष्मणः॥५७॥

एवमुक्तोमहातेजाभरतोहर्षमच्छितः।
पपातमुविचास्वस्थःकैकेयीप्रियनन्दनः॥५८॥

आलिंग्यभरतःशीघ्रम्मारुतिंप्रियवादिनम्।
आनन्दजैरश्रुजलैःसिषेचभरतःकपिम्॥५९॥

देवोवामानुपोवात्वमनुकोशादिहागतः।
प्रियाख्यानस्यते सौम्यददामिब्रवतःप्रियम्॥६०॥

गवांशतसहस्रंचग्रामाणांचंशतंवरम्।
सर्वाभरणसंपन्नामुग्धाःकन्यास्तुषोड़श॥६१॥

एवमुक्त्वापुनःप्राहभरतोमारुतात्मजम्।
वहूनीमानिवर्षाणिगतस्यसुमहद्वनम्॥६२॥

शृणोम्यहंप्रीतिकरंममनाथस्यकीर्तनम्।
कल्याणीवतगाथेयंलौकिकीप्रतिभातिमे॥६३॥

और संग्राम में रावणको मारके और सीताको प्राप्तहोके और सबकार्य सिद्ध करके लक्ष्मण सहित राम समीप प्राप्त हैंइससे अब आते हैं ५७ ऐसा जब हनुमान्ने वचन कहा तो बडातेजस्वी जो भरत सो सुनतेई आनन्द समुद्र मेंऐसा मग्न हो गया कि कुछ कालतक पूंछनेका भी होश न रहा ५८ फिर उठि के प्रिय वचन कहने वाला जो हनुमान् तिसको हृदयसे प्रालिंगनकर आनन्द के नेत्र जल से सींचता हुआ ५९ और यह वचन भरतजी बोले कि तुम देवताहौ किंवा मनुष्यहौ जो मेरे ऊपर दया करके यहां प्राप्तहुये हो और हे सौम्य जो तुमने प्रिय वचन मुझको सुनाये हैं इसके बदले में कुछ पारितोषिक धन में देता हूँ ६० सो हजार तो गाइ देता हूँ और श्रेष्ठ सौ ग्राम देता हूँ और सम्पूर्ण माभूषणोंकरके युक्त और बड़ी सुन्दरी ऐसी सोलह कन्या देता हूँ ६१ अब ऐसा कहिकै फिर भरतजी हनुमान से बोले कि हे सौम्य बड़ेभारी दण्डक वनको गये ने बहुत वर्ष मेरे स्वामी को व्यतीत हुई ६२ आज मैंने आनन्द

दायक अपने स्वामीका कीर्त्तन सुना और आज यह कल्याण के देनेवाली लौकिक गाथा मेरेको सत्य विदित होती है ६३॥

एतिजीवन्तमानन्दोनरंवर्षशतादपि।
राघवस्यहरीणाञ्चकथमासीत्समागमः॥६४॥

तत्त्वमाख्याहिभद्रन्तेविश्वसेयंवचस्तव।
एवमुक्तोथहनुमान्भरतेनमहात्मना॥६५॥

आचचक्षेथरामस्यचरितंकृत्स्नशःक्रमात्।
श्रुत्वातुपरमानन्दम्भरतोमारुतात्मजात्॥६६॥

आज्ञापयच्छत्रुहणम्मुदायुक्तंमुदान्वितः।
दैवतानिचयावंतिनगरेरघुनन्दन॥६७॥

नानोपहारबलिभिःपूजयन्तुमहाधियः।
सुतावैतालिकाश्चैववन्दिनस्तुतिपाठकाः॥६८॥

वारमुख्याश्चशतशोनिर्यान्त्वद्यैवसंघशः।
राजदारास्तथामात्यासेनाहस्त्यश्वपत्तयः॥६९॥

ब्राह्मणाश्चतथापौराराजानोयेसमागताः।
निर्यान्तुराघवस्याद्यद्रष्टुंशशिनिभाननम्॥७०॥

कि लौकिक मनुष्य यह कहते हैं कि जीवते मनुष्यको सौवर्षतकभी आनन्द प्राप्त होता ही है सो यह मैंने अपने दृष्टान्तसेही निश्चित किया और हे सौम्य रामका और वानरोंका समागम कैसे हुआ ६४ यह सब निश्चयकर के कहौ तौ मैं तुम्हारे वचनमें श्रद्धाकरों ऐसा जब महात्मा भरत करके हनुमान् कहा गया अर्थात् जबभरतजीने ऐसा पूंछा ६५ तहनुमान्ने क्रमसेसव रामकाचरित्र वर्णन किया अब भरतजी हनुमानसे परम आनन्दकी वार्तासुनिकै ६६ बड़े आनन्दयुक्तहो शत्रुघ्नको आज्ञा करतेहुये कि हे शत्रुघ्न जितनी नगर में देवताओं की प्रतिमा तिनका ६७ गन्धधूपदीप नैवेद्यादि करके और बालियों करके बुद्धिमान मनुष्य पूजन करें और सूत मागध और बन्दीजन और स्तुति करनेवाले पुरुष ६८ और सैकड़ों वेश्या ये सब अभी अपने समूह बांधिकै पुरके बाहर निकलें और राजा दशरथकी सब रानियां और मन्त्री और हाथी घोड़े आदि सेना ६९ और ब्राह्मण और पुरवासीलोग और जे राजा जहांतहां से आये हैं ते सब इससमय में श्रीरामका चन्द्रमातुल्य जो मुख है तिसके देखने को आवें ७०॥

भरतस्यवचःश्रुत्वाशत्रुघ्नपरिचोदिताः।
अलंचक्रुश्चनगरींमुक्तारत्नमयोज्ज्वलैः

७१

तोरणैश्चपताकाभिर्विचित्राभिरनेकधा।
अलंकुर्वन्तिवेश्मानिनानाबलिविचक्षणाः

७२

निर्यान्तिवृन्दशःसर्वेरामदर्शनलालसाः।
हयानांशतसाहस्रजानामयुतन्तथा

७३

रथानांदशसाहस्रंस्वर्णसूत्रविभूषितम्।
पारमेष्ठीन्युपादाय द्रव्याण्युच्चावचा

निच॥७४॥

ततस्तुशिविकारूढानिर्ययूराजयोषितः।
भरतःपादुकेन्यस्यशिरस्येवकृतांजलिः॥७५॥

शत्रुघ्नसहितोरामम्पादचारेणनिर्ययौ।
तदैवदृश्यतेदूराद्विमानञ्चन्द्रसन्निभम्॥७६॥

पुष्पकंसूर्यसङ्काशंमनसाब्रह्मनिर्मितम्।
एतस्मिन्भ्रातरौवीरौवैदेह्यारामलक्ष्मणौ॥७७॥

अवये भरतकेवचनसुनिकै शत्रुघ्नकरके प्रेरितजे मनुष्यते मोती और रत्नों करके उज्ज्ल जे तोरण तिनकर और पताकाओं करके अयोध्या नगरी को अलंकृत करते हुये ७१ और नानाप्रकारकी रचना में प्रवीण जे मनुष्य हैं ते अपने अपने गृहों को अलंकृत करते हुये अर्थात् सजावते हुये ७२ अब सब पुरवासी आदि मनुष्य समूह समूहहो रामके दर्शनकी इच्छा करके चलतेहुये तिसमें सौ हजार तौघोड़ों के सवार चलते हुये और दशहजार हाथी ७३ और सुवर्णकरके भूषित दशहजाररथ और चक्रवर्ती राजाओं के योग्य उच्चनीच रत्नोंकोलैके घौर सब राजमनुष्य चलते हुये ७४ फिर तिसके उपरांत पालकियोंमें चढिकै राजादशरथकी रानियां चलती हुई और शत्रुघ्नसहित भरत हाथ जोड़ेहुये और रामके खड़ाउग्रोंको शिर धारणकरके ७५ पाउँपाउँही चलते हुये फिर उसी समय में दूरसे चन्द्रमाकेतुल्य पुष्पक विमान दिखाई पड़ा ७६ जो क्या सूर्य तुल्य प्रकाशमान विमान ब्रह्माने मनहीं करके रचा है तवहनुमान् बोले कि हे मनुष्यो यह विमान जो दिखाई पड़ रहा है इसी में सीतासहित वीर दोनों भाई रामलक्ष्मण बैठे हैं ७७ ॥

सुग्रीवश्चकपिश्रेष्ठोमन्त्रिभिश्चविभीषणः।
दृश्यतेपश्यतजनाइत्याहपवनात्मजः॥७८॥

ततोहर्षसमुद्भूतोनिश्वनोदिवमस्पृशत्।
स्त्रीवालयुवद्धानांरामोयमितिकीर्त्तनात्॥७९॥

रथकुञ्जरवाजिस्थाअवतीर्यमहीगतः।
ददृशुस्तेविमानस्थञ्जनाःसोममिवाम्बरे॥८०॥

प्राञ्जलिभरतोभूत्वाप्रहृष्टोराघवोन्मुखः।
ततोविमानाग्रगतम्भरतोराघवंमुदा॥८१॥

ववन्देप्रणतोरामंमेरुस्थमिवभास्करम्
ततोरामाभ्यनुज्ञातंविमानमपतद्भुवि॥८२॥

आरोपितोविमानन्तगरतःसानुजस्तदा।
राममासाद्यमुदितःपुनरेवाभ्यवादयत्॥८३॥

समुत्थाप्यचिरादृष्टंभरतंरघुनन्दनः।
भ्रातरंस्वांकमारोप्यमुदातम्परिषस्वजे॥८४॥

और वानरों करके सहित राजा सुग्रीव बैठा है और मन्त्रियों करके सहित विभीषण बैठा है ७८ तव तो बालक और स्त्री और जवान और बूढ़े इनसबों का जो रामहै ऐसाआनन्दकाशब्द उससमय में आकाशापर्यंत परिपूर्ण होता हुआ ७९ फिर रथोंमें और हाथियोंमें और घोड़ोंपै जे सवारथे ते सब उतरिकै पृथिवीं

में स्थितहोके विमानपैवढे जोराम तिनको देखते हुये जैसे आकाश में चन्द्रमा उदय हुआ होवे ऐसे प्रकाशमान रामहो रहे हैं ८० तबतौ राम के सम्मुख पृथिवी में खड़े बड़े आनन्दयुक्त जो भरत सो हाथजोड़ के विमान में स्थित जो राम तिनको बड़े हर्ष करके दण्डवत् प्रणाम करते हुये ८१ जैसे सुमेरु पर्वतपैस्थित जो सूर्य तिसको कोई प्रणाम करे फिर रामकी आज्ञा करके पृथिवी में विमान उतरता हुआ८२ रफिर उसविमानपै शत्रुघ्न सहित जोभरत तिसको रामचढ़ालेतेहुये फिर भरत रामको प्राप्तहो बड़े आनन्दकर के रामकेचरणोंमें पड़तेहुये ८३ फिर श्रीरामचन्द्रजी बहुत कालसें देखा जो भरत तिसको उठाकर हृदयसे लगाकर गोद में बैठाकर फिर आनन्द से आलिंगन करते हुये ८४॥

ततोलक्ष्मणमासाद्यवैदेहींनामकीर्त्तयन्।

अभ्यवादयतप्रीतोभरतःप्रेमविह्वलः॥८५॥

सुग्रीवंजांबवंतंचयुवराजंतथांगदम्।

मैंदद्विविदनीलांश्चऋषभंचैवसस्वजे॥८६॥

सुषेणंचनलंचैवगवाक्षगन्धमादनम्।

शरभंपनसंचैवभरतःपरिषस्वजे॥८७॥

सर्वेतेमानुषंरूपंकृत्वाभरतमादृताः।

पप्रच्छुःकुशलंसौम्याःप्रहृष्टाश्चलवंगमाः॥८८॥

ततःसुग्रीवमालिंग्यभरतःप्राहभक्तितः।

त्वत्सहायेनरामस्यजयोभूद्रावणोहतः॥८९॥

त्वमस्माकंचतुर्णान्तुभ्रातासुग्रीवपंचमः।

शत्रुघ्नश्चतदाराममभिवाद्यसलक्ष्मणम्॥९०॥

सीतायाश्चरणौपश्चाद्ववंदेविनयान्वितः।

रामोमातरमासाद्यविवर्णशोकविह्वलाम्॥९१॥

फिर भरत लक्ष्मण और सीता इनको प्राप्त हो अपना नाम उच्चारणकर प्रेम में बिह्वलहोकर प्रीतिकरके प्रणाम करते हुये ८५ फिर सुग्रीव और जाबवान और अंगद और मैंद और द्विविद और नील और ऋषभ इनको हृदय से आलिंगन करते हुये ८६ और सुषेण और नल और गवाक्ष और गन्धमादन और शरभ और पनस इन को भी भरत जी भेटते हुये ८७ और जेसवबानर मनुष्यका रूप धारण करके सौम्यरूप और आदरयुक्त होकर आनंन्दपूर्वक भरत से कुशल पूंछते हुये ८८ तब भरत सुग्रीव को आलिंगन करके प्रीति पूर्वक बोलते हुये कि हे सुग्रीव तुम्हारे सहाय करके राम को जयप्राप्तहुआ और रावण मारा गया ८९ और हे सुग्रीव हम चारों भाइयों के मध्य में पांचवें भाई तुम हो फिर तिसके उपरांत शत्रुघ्न रामचन्द्र को प्रणाम करके लक्ष्मण को प्रणाम करतेहुये ९० फिर बिनय पूर्वक सीता के चरणों को प्रणाम करते हुये अब रामचन्द्र शोक करके बिह्वल दुर्बल जो अपनी माता तिस को प्राप्त होके ९१॥

जग्राहप्रणतःपादौमनोमातुःप्रसादयन्।
कैकेयीं च सुमित्रांचननामेनरमातरः॥९२॥

भरतःपादुकेतेतुराघवस्यसुपूजिते।
योजयामासरामस्यपादयोर्भक्तिसंयुतः॥९३॥

राज्यमेतन्न्यासभूतंमयानिर्यातितंतव।
अद्यमेसफलंजन्मफलितोमेमनोरथः॥९४॥

यत्पश्यामिसमायातयोध्यांत्वामहंप्रभो।
कोष्ठागारंवलंकोशंकृतंदशगणंमया॥९५॥

त्वत्तेजसाजगन्नाथपालयस्वपुरंस्वकम्।
इतिब्रुवाणंभरतंदृष्ट्वासर्वेकपीश्वराः॥९९॥

मुमुचुर्नेत्रजंतोयंत्रशशंसुर्मुदान्विताः।
ततोरामःप्रहष्टात्माभरतंस्वांकगंमुदा॥९७॥

ययौतेनविमानेनभरतस्याश्रमंतदा।
आवरुह्यतदारामोविमानाग्य्रान्महीतलम्॥९८॥

नम्र हो माताको प्रसन्नकरते हुये उसके चरणों को ग्रहण करतेहुये अर्थात् प्रणाम करते हुये फिर कैकैयीऔर सुमित्रा इनको प्रणाम करतेहुये फिर और जो माता हैं तिन सबोंको प्रणाम करते हुये ९२ और भरत वो रामचन्द्र की पूजाकरी हुई जो खड़ाऊँ तिनको फिर भक्तियुक्तहो रामके पावों में पहिरादेते हुये ९३ और भरत यह कहतेहुये कि हे राम यह आप के धरोहर की तरह मेरे पास रक्खा हुआ जो राज्य तिनको मैं आप को सौंपता हूं सो ग्रहण करिये और आज मेरा जन्म सफल हुआ और मेरा मनोरथ परिपूर्ण हुआ ९४ जो मैंअयोध्या में प्राप्त जो आप हैं तिनको देखता हूं और हे जगन्नाथ हे स्वामिन आपही के प्रभाव करके मैं ने जितना खजाना और सिवाय उसके और भी वस्तु थीसो सवदश गुणित करदी है तिसको सँभारलीजिये ९५ और अपने पुरकी रक्षा करिये ऐसा कहता हुआ जो भरत है तिसको सब बानरेश्वर देखके नेत्रों से जल को छोड़ते हुये ९९ और आनन्दयुक्त हो भरत की बड़ी प्रशंसा करते हुये तब श्रीराम प्रसन्नहोके भरतको अपनी गोद में करके ९७ पुष्पक विमान करके जहां भरत का आश्रम था वहां जाते हुये फिर श्री राम विमान पैसे भूमि में उत्तरि कै ९८॥

अव्रवीत्पुष्पकंदेवोगच्छ्वैश्रवणंवह।
अनुगच्छानुजानामि कुबेरंधनपालकम्॥९९॥

रामोवशिष्ठस्यगुरोःपदाम्बुजंनत्वायथादेवगुरोःशतक्रतुः।
दत्त्वामहार्हासनमुत्तमंगुरोरुपाविवेशाथगुरोःसमीपतः॥१००॥

इतिश्रीमदध्यात्मरामायणेउमामहेश्वरसंवादेयुद्धकांडेचतुर्दशःसर्गः॥१४॥

पुष्पक विमान से श्रीराम कहते हुये कि हे पुष्पक मैं तुमको आज्ञा देता हौंतुम धनपालक जो कुबेर हैं तिसके पास जावो और कुबेर को प्राप्त किया करो अर्थात् लेचलाकरो ९९ अब श्रीराम जैसे इन्द्र बृहस्पति को प्रणाम करते हैं तैसे अपने गुरु जो वशिष्ठजी तिनकोप्रणाम करके और बडाश्रेष्ठ जो आसन तिसको देकै वशिष्ठ जी के समीप आप बैठते हुये १००॥

इतिश्रीमदध्यात्मरामायणेउमामहेश्वरसंवादेयुद्धकांडे
भाषाटीकायांचतुर्दशस्सर्गः१४॥

ततस्तुकैकयीपुत्रोभरतोभक्तिसंयुतः।
शिरस्यंजलिमाधायज्येष्ठंभ्रातरमब्रवीत्॥१॥

मातामेसत्कृतारामदत्तराज्यत्वयामम।
ददामितत्तेचपुनर्यथात्वमददामम॥२॥

इत्युक्त्वापादयोर्भक्त्या साष्टांग प्रणिपत्यच।
बहुधाप्रार्थयामासकैकेय्यागुरुणासह॥३॥

तथेतिप्रतिजग्राहभरताद्राज्यमीश्वरः।
मायामाश्रित्यसकलांनरंचेष्टामुपागतः॥४॥

स्वाराज्यामुभयोयस्यसुखज्ञानैकरूपिणः।
निरस्तातिशयानंदरूपिणःपरमात्मनः॥५॥

मानुषेणतुराज्येनकिंतस्यजगदीशितुः।
यस्यभ्रूभंगमात्रेणत्रिलोकी नश्यतिक्षणात्॥६॥

यस्यानुग्रहमात्रेणभवंत्याखंडलश्रियः।
लीलासृष्टिमहासृष्टिःकियदेतद्रमापतेः॥७॥

दो०। सर्गपन्द्रमें अनुजसखि वृन्दसमेत रमेश।
विविधवसन भूषण लसत कीन्हों नगर प्रवेश॥१॥

गुरुवशिष्ठपुनिरामको कियोराज अभिषेक।
सियाराममणिपीठमिलि भासितरूप अनेक॥२॥

अब श्रीमहादेवजी पार्वती से कथा वर्णन करते हैं कि हे पार्वति तिसके उपरान्त कैकेयी का पुत्र जो भरत सो भक्तिसंयुक्त हो हाथ जोड़कैश्रीराम से कहता हुआ १कि हे राम आपने मुझको राज्यदै करके चौदह वर्षक वनवास करनेसे मेरी माताका सत्कार किया परन्तु अब यहराज आपको मैं देता हूं जैसे आप पहिले मुझको देते हुये २ ऐसा कहिकै भरत श्रीराम के चरणों में साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करके कैकेयी और वशिष्ठकरके सहित बहुतप्रार्थना करतेहुये ३ फिर ईश्वर जो राम सो मनुष्यों कीसी चेष्टा जिसमें ऐसी माया का आश्रयण करके उस संपूर्ण राज्य को भरत से ग्रहण करतेहुये ४ और जो राम अपने आत्म सुखकर तृप्तहोरहे हैं और सुख और ज्ञान येही रूपजिसका और दूर हुआ है और कातिरस्कार कारणरूप अतिशय जिससे ऐसा जो आनन्द सोई है रूप जिसका ऐसा जो परमात्मा जगत्का

ईश राम तिसको ५ मनुष्य राज्यकरके क्या प्रयोजन है और जिसके भृकुटी चलाने मात्र से क्षणभरेमें त्रिलोकी नाशको प्राप्त होजाती है ६ और जिस अनुग्रहमान करके इन्द्रकी संपदा होती है और लीलाही करके रची है अनेक ब्रह्माण्डों की सृष्टि जिसने ऐसा जो लक्ष्मीकापति राम तितकोअयोध्याका राज्य कितना है ७॥

तथापिभजतांनित्यंकामपूरविधित्सया।
लीलामानुषदेहेनसर्वमप्यनुवर्तते॥८॥

ततःशत्रुघ्नवचनान्निपुणःश्मश्रुकृंतकः।
संभाराश्चाभिषेकार्थं आनीताराघवस्यहि॥९॥

पूर्वंतुभरतेस्नातेलक्ष्मणेचमहात्मनि।
सुग्रीवेवानरेंद्रेचराक्षसेंद्रे विभीषणे॥१०॥

विशोधितजटास्नातचित्रमाल्यानुलेपनः।
महार्हवसनोपेतस्तस्थौतत्रश्रियःज्वलन्॥११॥

प्रतिकर्मचरामस्यलक्ष्मणश्चमहामतिः।
कारयामासभरतःसीतायाराजयोषितः॥१२॥

महार्हवस्त्राभरणैरलंचक्रुःसुमध्यमाम्।
ततोवानरपत्नीनांसर्वासामेवशोभना॥१३॥

अकारयतकौशल्याप्रहृष्टापुत्रवत्सला।
ततःस्यंदनमादायशत्रुघ्नवचनात्सुधीः॥१४॥

तौभी भजन करनेवाले जोपुरुष तिनकी अभिलाषा पूर्ण करने की इच्छा करके लीलाही करके धारणकिया मनुष्य शरीर जिसने ऐसा जो राम तिस करके मनुष्य व्यवहारमात्र लोक शिक्षार्थ कियाजाता है ८ अब इसके उपरांत शत्रुघ्न की आज्ञासे बड़ा बुद्धिमान् नाई और अभिषेक के अर्थ जे सामग्रियां हैं ते सब राम के अर्थ मन्त्री लोगों करके संचित होती हुई ९ तिसमें प्रथमतो भरत क्षौरादि कराके स्नान करते हुये फिर लक्ष्मण स्नान करतेहुये फिर सुग्रीव और विभीषण स्नान करतेहुये १० तिसके उपरांत श्रीराम जटाओं को शुद्धकराके स्नान करके फिर चित्र विचित्र पुष्प और चन्दन केसर कस्तूरी आदि अनुलेपन को लगाके फिर बहुमूल्य बस्त्रों को धारणकर शोभाकरके प्रकाशमान वहां स्थितहोते हुये ११ तहां रामका उबटना आदि शरीर संस्कार को श्रेष्ठमति जो लक्ष्मण और भरत ये कराते हुये और सीता का दशरथकी स्त्री कराती हुंई १२ फिर बहुमूल्य जो वस्त्र और अलंकार तिन करके सीताको अलंकृत करती हुई तिसके उपरांत पुत्रवत्सला जो कौशल्या तो सब सुग्रीवादि वानरों की स्त्रियाओंका १३ उद्वर्तनादिक शरीर का संस्कार कराके वस्त्रालंकारादि करके भूषित कराती हुई फिरशत्रुघ्न के वचन सेसे श्रेष्ठबुद्धिजो सुमन्त्र १४॥

सुमंत्रः सूर्यसंकाशंयोजयित्वाग्रतस्थितः

आरुरोहरथंरामः स

त्यधर्मपरायणः॥१५॥

सुग्रीवोयुवराजश्चहनुमांश्चविभीषणः।
स्नात्वादिव्यांवरधरादिव्याभरणभूषिताः॥१६॥

राममन्वीयुरग्रेचरथाश्वराजवाहनाः।
सुग्रीवपत्न्यः सीताचययुर्यानैः पुरं महत्॥१७॥

वज्रपाणिर्यथादेवैर्हरिताश्वरथेस्थितः।
प्रययौरथमास्थायतथारामोमहत्पुरम्॥१८॥

सारथ्यंभरतश्चक्रेरत्नदंडंमहाद्युतिः।
श्वेतातपत्रंशत्रुघ्नोलक्ष्मणोव्यजनंदधे॥१९॥

चामरंचसमीपस्थोन्यवीजयदरिंदमः।
शशिप्रकाशंत्वपरं जग्राहासुरनायकः॥२०॥

दिविजैःसिद्धसंघैश्चऋषिभिर्दिव्यदर्शनैः।
स्तूयमानस्यरामस्यशुश्रुवेमधुरध्वनिः॥२१॥

सो सूर्य के प्रकाश तुल्य रथको जोड़के राम के आगे के स्थित होता हुआ तब सत्यधर्म परायण जो श्री रामचन्द्र सो उस रथके ऊपर चढ़तेहुये १५ फिर सुग्रीव और अंगद और हनुमान् और विभीषण ये सबस्नान करके दिव्य वस्त्र धारणकरके और दिव्याभाभूषणों को धारण करे ९६ रथ और हाथी और घोड़े इनपै चढ़के रामके पीछे चलते हुये और कोई आगाड़ी अगाड़ी चलते हुये और सुग्रीव की स्त्री और सीता ये सब शिविका आदि सवारियों पै सवार हो अयोध्या को जाती हुई १७ और जैसे बज्रपाणि जो इन्द्र सो हरित घोड़ों करके जुरा हुआ जो रथ तिसमें स्थित होके देवों करके सहित गमन करैंतैसे रामभी रथमें स्थितहोके अयोध्या को जाते हुये १८ तहां भरतजी सारथ्य कर्म करते हुये अर्थात् सारथी होके घोड़े चलाते हुये और रत्न का दण्ड जिस का ऐसा सपेदछत्र तिसको शत्रुघ्न धारण करते हुये और लक्ष्मण व्यजनजो पंखा तिसको धारण करते हुये १९ और समीप स्थित जो सुग्रीव सो चमर को दुलाता हुआ और चन्द्रमाकासा प्रकाश जिसका ऐसे दूसरे चमरको विभीषणग्रहण करता हुआ २० और देवता और सिद्धों का समूह और दिव्य दर्शन जो ऋषि तिन करके स्तुति किये जोरामतिनके स्तुतिवचनों का मधुर शब्दसुनाई देता हुआ २१॥

मानुषंरूपमास्थायवानरागजवाहनाः।
भेरीशंखनिनादैश्चमृदंगपणवानकैः॥२२॥

प्रययौराघवश्रेष्ठस्तांपुरींसमलंकृताम्॥
ददृशुस्तेसमायांतंराघवंपुरवासिनः॥२३॥

दूर्वादलश्यामतनुंमहार्हकिरीटरत्नाभरणांचितांगम्॥
आरक्तंकंजायतलोचनांतदृष्ट्वाययुर्मोदमतीवपुण्याः॥२४॥

विचित्ररत्नांचितसूत्रनद्धपीताम्बरंपीनभुजांतरालम्।
अनर्घ्यमुक्ताफलदिव्यहारौर्विरीचमानंरघुनंदनंप्रजाः॥२५॥

सुग्रीवमुख्यै

र्हरिभिःप्रशांतैर्निपेव्यमाणंरवितुल्यभासम्।
कस्तूरिकाचंदनलिप्तगात्रंनिवीतकल्पद्रुमपुष्पमालं॥२६॥

श्रुत्वास्त्रियोराममुपागतम्मुदाप्रहर्षवेगोत्कलिताननश्रियः।
अपास्य सर्वंगृहकार्यमाहितंहर्म्याणिचैवारुरुहुःस्वलंकृताः॥२७॥

दृष्ट्वाहरिंसर्वदृगुत्सवाकृतिंपुष्पैर्किरंत्यःस्मितशोभिताननाः।
दृग्भिःपुनर्नेत्रमनोरसायनस्वानन्दमूर्तिमनसाभिरेभिरे॥२८॥

और मनुष्य रूपको धारणकर वानर हाथियों के ऊपर चढ़करके चलतेहुये और भेरी और शंख और मृदंग और पणव आनक इनको बजाते हुये २२ बाजाओं करके श्रीराम अयोध्यापुरी में प्रवेशकरते हुये अब आवते हुये जो रघुनन्दन तिनको पुरवासी लोग देखते हुये २३ अब दूर्वादल के तुल्य श्याम है तनु जिसका और श्रेष्ठजो मुकुट और रत्नजटित जे आभूषण तिनकरके व्याप्त हैं अंग जिसका और थोड़ेरक्त जो कमल तद्वत् विशालहैं नेत्र जिसके ऐसे जो राम तिनको बड़े पुण्ययुक्त जे अयोध्यावासी ते देखके अत्यन्त आनन्द को प्राप्तहोते हुये २४ और चित्र विचित्र रत्नों करके युक्त जो कटिसूत्र तागड़ी तिसकरके बँधा हुआ है पीताम्बर जिसका और पुष्ट है भुजाओं का मध्यभागबक्षस्स्थल जिसका और बहुमौल्य मोतियों के जे दिव्यहार तिनकरके प्रकाशमान ऐसे रामको सब प्रजा देखती हुई २५ फिर कैसेरामहैं कि सुग्रीवादिकजेशांत चित्त वानर तिनकरिकै सेवन किये गये हैं और सूर्यकेतुल्य है कांतिजिनकी और कस्तूरीकरिके मिला हुआ जो चन्दन तितकरिकै लिप्त है अंगजिसका और कल्पवृक्ष के पुष्पों की मालाओंको धारण किये हैं ऐसे रामको श्रावतेहुये सब प्रजा देखती हुई २६ अव आवतेहुये रामको देखिकै आनन्दके वेगकरिकै वृद्धि को प्राप्त हुई है मुखकी शोभा जिनकी ऐसी जे अयोध्या नगरीकी स्त्रियां ते, आवश्य कभी गृहकार्यको त्यागि के और बस्त्रालंकारों को धारण करिकै श्रीराम के सुखारबिंद देखने को महलों के ऊपर चढ़ती हुई २७ अब सबकेनेत्रोंकी दृष्टिचौका जो उत्तव मंगल तिसी ने मानों स्वरूप धारण कियाहोय ऐसे जोराम तिनको सब स्त्रियां देखके मन्दमुसुकानि करके शोभित हैं मुख जिनके ऐसी हो पुष्पोंकीवृष्टि करती हुई और नेत्र और मन इनको रसायन के तुल्यग्राह्लाद बढ़ानेवाली जो अपनी मानन्दमूर्ति श्रीरामचन्द्र तिसको नेत्रों के द्वारा हृदय में प्रविष्ट करिके मन करिकै आलिंगन करती हुई २८ ॥

रामःस्मितस्निग्धदृशाप्रजास्तथापश्यन्प्रजानाथइवापरःप्रभुः।
शनैर्जगामाथपितुःस्वलंकृतंगृहंमहेंद्रालयसन्निभंहरिः॥२९॥

प्रविश्यवे

श्मांतरसंस्थितोमुदारामोववंदेचरणौस्वमातुः।
क्रमेणसर्वाःपितृयोषितःप्रभुर्ननाम भक्त्यारघुवंशकेतुः॥३०॥

ततोभरतमाहेदंरामःसत्यपराक्रमः।
सर्वसम्प्रत्समायुक्तंमममन्दिरमुत्तमम्॥३१॥

मित्रायवानरेंद्रायसुग्रीवायप्रदीयताम्।
सर्वेभ्यःसुखवासार्थमंदिराणिप्रकल्पय॥३२॥

रामेणैवसमादिष्टोभरतश्चतथाकरोत्।
उवाचचमहातेजाःसुग्रीवंराघवानुजः॥३३॥

राघवस्याभिषेकार्थंचतुःसिंधुजलंशुभम्।
आनेतुंप्रेषयस्वाशुदूतांस्त्वरितविक्रमान्॥३४॥

प्रेषयामाससुग्रीवोजाम्बवंतंमरुत्सुतम्।
अंगदंचसुषेणंचतेगत्वावायुवेगतः॥३५॥

फिर प्रसन्नमुख जो राम सो स्नेहयुक्त दृष्टिकरिकै ब्रह्माकीतरह अपनी प्रजाको देखते हुये धीरेधीरे इन्द्रके गृहके तुल्य जो अपने पिताका अलंकार युक्त गृह तिसको जातेहुये २९ फिर उस दशरथ के गृह में प्रवेश करिकै बीच की डेउढ़ी में स्थितहोंके राम अपनीमाता जो कौशल्या तिसके चरणों में प्रणाम करतेहुये फिर श्रीराम क्रमकरिकै सब दशरथकी स्त्रियाओंको प्रणाम करते हुये ३० फिर तिसके उपरान्त सत्य है पराक्रम जिसका ऐसे जो राम सो भरत से यहवचन कहते हुये कि हे भरत सम्पूर्ण सम्पत्तियों करिकैयुक्त जो मेरागृह तिसको ३१ मेरा मित्र जो बानरोंकास्वामी सुग्रीव तिसकोदेवो और सब बानरों को और विभीषणको सुखपूर्वक रहने को पृथक् स्थानदेवो ३२ फिर इसप्रकार रामकरिकै आज्ञाकोप्राप्त जो भरत सो जैसे रामने कहा तैसेई करता हुआ और फिर भरत सुग्रीव से यह कहता हुआ ३३ कि हे सुग्रीव श्रीराम के अभिषेक के लिये चारोंसमुद्रका जल लेने को बडेशीघ्र चलनेवाले बलवान् जे दूत तिनको भेजिये ३४ तब सुग्रीव भरतकावचन सुनतेई जाम्बवान् और हनुमान् और अंगद औ सुषेण इनको भेजताहुआ फिर वे सब पवन के बेग करके जाकर ३५॥

जलपूर्णाञ्छातकुम्भकलशांश्चसमानयन्।
आनीतंतीर्थसलिलंशत्रुघ्नोमंत्रिभिःसह॥३६॥

राघवस्याभिषेकार्थंवशिष्टायन्यवेदयत्।
ततस्तुप्रयतोवृद्धोवशिष्ठोब्राह्मणैःसह॥३७॥

रामंरत्नमये पीठेससीतंसंन्यवेशयत्।
वशिष्ठोवामदेवश्चजाबालिर्गौतमस्तथा॥३८॥

वाल्मीकिश्चतथाचक्रुःसर्वेरामाभिषेचनम्।
कुशाग्रतुलसीयुक्तंपुण्यगंधजलैर्मुदा॥३९॥

अभ्यषिंचनूरघुश्रेष्ठंवासवंवसवोयथा।
ऋत्विग्भिर्ब्रह्मणैःश्रेष्ठैःकन्याभिःसहमंत्रिभिः॥४०॥

सर्वौषधीरसैश्चैव दैवतैर्नभसिस्थि

तैः।
चतुर्भिलोकपालैश्चस्तुवद्भिःसगणैस्तथा॥४१॥

छत्रंचतस्यजग्राहशत्रुघ्नःपांडुरंशुभम्।
सुग्रीवराक्षसेंद्रौतौदधतुःश्वेतचामरे॥४२॥

समुद्रों के जलसे भरे हुये जे सुवर्ण के कलश तिनको लातेहुये फिर आया हुआ जो तीर्थंकाजल तिसको मन्त्रियोंकरिकै सहित शत्रुघ्न ३६ श्रीराम के अर्थ वशिष्ठजीको निवेदन करते हुये अर्थात् सौंपते हुये फिर तिसके उपरान्त जितेंद्रिय और वृद्ध ऐसे जो वशिष्ठ सो बामदेवादिक ब्राह्मणों करिकै सहित ३७ सीताकरिकै सहित रामको सुवर्ण की चौकी पै बैठाते हुये फिर वशिष्ठ और वामदेव और जावालि और गौतम ३८ और बाल्मीकि ये सब ऋषि लोग कुश और तुलसी इनसे मिला हुआ जो सुगन्ध द्रव्ययुक्त तीर्थोंकाजल तिस करिकै रामका अभिषेक बड़े आनन्द से करते हुये ३९ और जैसे बसुनाम करिके देवता इन्द्रका अभिषेक करतेहुये हैं तैसे ही वशिष्ठादिक श्रेष्ठ जे ऋत्विक् ब्राह्मण तिनकरके और ब्राह्मण की कन्याओं करके और मन्त्रियों करिकै ४० और आकाश में स्थित जे देवता और अपने गणोंकरिकै युक्त स्तुति करते हुये जे इन्द्रादि लोकपाल इन सबों करिकै सहित जे पूर्वोक्त वशिष्ठादिक ते सब ओषधियों के रसों करिकै सीतासहित रामको अभिषेक करते हुये अर्थात् ऋग्वेदादि वेदों के मन्त्रोंकरिकै स्नान कराते हुये ४१ और श्वेतवर्ण जो रामका छत्र तिसको शत्रुघ्न ग्रहण करते हुये भौर सुग्रीव और विभीषण ये दोनोंचमर रामके ऊपर बुलाते हुये ४२॥

मालांचकांचनींवायुर्दवासवचोदितः।
सर्वरत्नसमायुक्तम्मणिकांचनभूषितम्॥४३॥

ददौहारंनरेंद्रायस्वयंशक्रस्तुभक्तितः।
प्रजगुर्देवगन्धर्वाननृतुश्चाप्सरोगणाः॥४४॥

देवदुन्दुभयोनेदुःपुष्पवृष्टिःपपातखात्।
नवदूर्वादलश्यामंपद्मपत्रायतेक्षणम्॥४५॥

रविकोटिप्रभायुक्तकिरीटेनविराजितम्।
कोटिकन्दर्पलावण्यंपीताम्बरसमावृतम्॥४६॥

दिव्याभरणसम्पन्नंदिव्यचन्दनलेपनम्।
अयुतादित्यसंकाशंद्विभुजंरघुनन्दनम्॥४७॥

वामभागेसमासीनांसीतांकांचनसन्निभाम्
सर्वाभरणसम्पन्नांनामांकेसमुपस्थिताम्॥४८॥

रक्तोत्पलकरांभोजांवामेनालिंग्यसंस्थितम्।
सर्वातिशयशोभाढ्यंदृष्ट्वाभक्तिसमन्वितः॥४९॥

और इन्द्रके भेजे हुये पवनसुवर्ण निर्मित दिव्य मालाको रामके अर्थ देते हुये और सम्पूर्ण रत्नोंकरके जटित और मणि और सुवर्णकरके भूषित ऐसाजोहार तिसको १३ श्रीराजाधिराज जो राम तिनके अर्थ आपही इन्द्रभक्ति

करके देताहुआ और उससमय में देवताओं के गन्धर्व गानकरतेहुये औअप्सराओं के समूह नृत्य करते हुये ४४ और देवताओंके दुन्दुभी जे नगाड़े ते बजते हुये और आकाश से पुष्पोंकी वृष्टि होती हुई और उसी समय में दिव्य सिंहासन के ऊपर स्थित और नवीन दूर्वादल के तुल्य श्यामवर्ण और कमलपत्रके तुल्य विशालहै नेत्र जिसके ४५ और करोड़ों सूर्यों के तुल्य कांति है जिसकी ऐसे मुकुटकरके विराजित और करोड़ों कामदेवों के तुल्य है सौन्दर्य जिसका और पीताम्बर को धारणकरे ४६ और दिव्य आभूषणों को धारण करे और दिव्य चन्दनको लगाये हुये और अयुत सूर्योकासा प्रकाश जिसका और दोहैंभुजा जिसकी ऐसे जो राम सो ४७ सुवर्णके तुल्य है कांति जिस की और सम्पूर्ण आभूषणों करके भूषित और रक्त कमलहै हाथमें जिसके ऐसी जो सीता तिसको बामभागमें ४८ बामे हाथ करके आलिंगन करके स्थित और सबसे अधिक शोभायुक्त ऐसे जो रघुनन्दन तिसको ४९॥

उमयासहितोदेवःशंकरोरघुनन्दनम्।
सर्वदेवगणैर्युक्तःस्तोतुंससुपचक्रमे॥५०॥

श्रीमहादेवउवाच॥

नमोस्तुरामायसंशक्तिकायनीलोत्पलश्यामलकोमलाय।
किरीटहारांगदभूषणायसिंहासनस्थायमहाप्रभाय॥५१॥

त्वमादिमध्यान्तविहीनएकःसृजस्यवस्यत्सिचलोकजातम्।
स्वमाययातेननलिप्यसेत्वंयत्स्वेसखेजस्ररतोनवद्यः॥५२॥

लीलांविधत्सेगुणसंवृतस्त्वंप्रपन्नभक्तानुविधानहेतोः।
नानावतारैःसुरमानुषाद्यैःप्रतीयसेज्ञानिभिरेवनित्यम्॥५३॥

स्वांशेनलोकंसकलंविधायतंबिभर्षिचत्वंतदधःफणीश्वरः।
उपर्यथोभान्वनिलोडुपौषधीप्रवर्षरूपोवसिनैकधाजगत्॥५४॥

त्वमिहदेहभृतांशिखिरूपःपचसिमुक्तमशेषमजस्रम्।
पवनपञ्चकरूपसहायोजगदुखण्डमनेनबिभर्षि॥५५॥

चन्द्रसूर्यशिखिमध्यगतंयत्तेजईशचिदशेषतनूनाम्।
प्राभवत्तनुभृतामिहधैर्यंशौर्यमायुरखिलंतवसत्वम्॥५६॥

पार्वती करके सहित और सब देवगणों को संगलिये जो महादेव सो देखके स्तुति करने को प्रारम्भ करते हुये ५० कि अपनी असाधारण शक्ति योगमायाका अवतार रूप जो सीता तिस करके सहित और नील कमल के तुल्य कोमलहै स्वरूप जिसका और किरीट मुकुट और हार और अंग बाहु भूषणादि हैं आभूषण जिसके और सिंहासनके ऊपर स्थित कांति युक्त जो श्रीराम तिसके अर्थ नमस्कार है ५१ और हे राम आदि मध्य अन्त करके हीन जो एक तुम सो अपनी मायाकरके सब जगत् को रचते हो और पालन

करने हौ और संहार करते हौतो भी उन कमी करके लिप्त नहीं होते सदा निर्दोष ही रहते हौनहीं कभी ऐन्द्रजालके पुरुष अपनी माया करके रचेहुये पुरुषोंका बधकरके हिंसादि दोष करके लिप्त होता है और आप सदा निरन्तर अपने आनन्द में स्थित रहते हौ५२ और गुणमयी मायी करके आच्छादित जो तुम हौ सो शरणागत जो भक्त तिनके मोक्षके कारणसे सुर मनुप्यादि अपने अनेक अवतारोंकरके लीलाको धारण करते हौसो ज्ञानी पुरुषों कोही ऐसे प्रतीत होते हौकि जे परमेश्वर के अवतार हैं और अज्ञानी पुरुष तो यही जानते हैं कि रामकृष्णादिक भी कोई श्रेष्ठ पुरुष हैं५३ और हे राम अपने अंग करके सब जगत् को रचिकै शेष नागरूप होके फिर आपहीनीचे से पृथ्वीको धारण करते हो और ऊपर से सूर्य और पवन और चन्द्रमा और व्रीहि जवादिक औषधी और मेघइन सबोंका रूप होके सब जगत् को पालन करते हो ५४ और आपही प्राण अपान समान उदान व्यान इन पांचप्राणोंका सहाय जिसका ऐसे जाठराग्नि रूपहोके जे देहधारियों करके भोजन किये अन्नादिकका परिपाक करते हो इस प्रकार करके भी सब जगत् का पालन करते हौ५५ और हे ईश चन्द्रमा और सूर्य और अग्नि इनमें जो तेज है और सम्पूर्ण देह धारियों में जो चैतन्यशक्ति है और सब देह धारियों का जो धैर्य्यऔर शूरता और आयुर्वल तो सब तुम्हारी ही सत्ता तौन तौन रूप करके प्रकट होरही है ५६॥

त्वंविरंचिशिवविष्णुविभेदात्कालकर्मशशिसूर्यविभागात्।
वादिनांपृथगिवेशविभासिब्रह्मनिश्चितमनन्यदिहैकम्॥५७॥

मत्स्यादिरूपेणयथात्वमेकःश्रुतीपुराणेषुचलोकसिद्धः।
तथैवसर्वंसदसद्विभागस्त्वमेवनान्यद्भवतोविभाति॥५८॥

यद्यत्समुत्पन्नमनंतसृष्टौउत्पत्स्यतेयच्चभवच्चयच्च।
नदृश्यतेस्थावरजंगमादौत्वयाविनातःपरतःपरस्त्वम्॥५९॥

तत्त्वं नजानंतिपरात्मनस्तेजनाःसमस्तास्तवमाययातः।
त्वद्भक्तसेवामलमानसानांविभातितत्त्वंपरमेकमैशम्॥६०॥

ब्रह्मादयस्तेनविदुःस्वरूपंचिदात्मतत्त्वंबहिरर्थभावाः।
ततोबुधस्त्वामिदमेवरूपंभक्त्याभजन्मुक्तिमुपैत्यदुःखः॥६१॥

अहंभवन्नामगृणन्कृतार्थोवसामिकाश्यामनिशंभवान्या।
मुमूर्षमाणस्यविमुक्तयेहांदिशामिमंत्रन्तवरामनाम॥६२॥

इमंस्तवंनित्यमनन्यभक्त्याशृण्वंतिगायंतिलिखंतियेवै।
तेसर्वसौख्यंपरमंचलब्ध्वाभवत्पयांतुभवत्प्रसादात्॥६३॥

और हे ईश ब्रह्मादि भेद करके और कालादि भेद करके ईशवादी जो

मनुष्य तिनको तौन तौनरूप करके तुमहीं भजनीय हौअर्थात् कोई ब्रह्मा हीको ईश्वर जानिकै भजन करते हैं कोईशिवको कोईविष्णुको कोईकाल को कोई कर्म को कोई चन्द्र सूर्य को ईश मानिकै भजन करते हैं तिनमें तुम हीं भेदकर के ब्रह्मादिरूपसे प्रकाश कररहे हो और वास्तव में तौ भेदरहित एक अद्वितीय ब्रह्मही निश्चित हौ ५७ और जैसे तुमहीं एकअवतार धारण करिकै मत्स्य कच्छपादि अनेक रूपकरके वेद में और पुराणों में और लोकमें प्रसिद्धौ तैसे तुमहीं एक ब्रह्मसदसद्रूपकरिकै ब्रह्मादिरूप और मनुष्यादिरूप करिकै प्रतीत हो रहे हो और तुमसे अन्यकुछनहीं भानहोता है अर्थात् बिचार करके देखा जाता है तो तुमसे अन्य मिथ्याही प्रतीत होता है ५८ और यह अनादि काल से चली आती जो भनन्तसृष्टि तिसमें जोकुछ उत्पन्न हो चुका है और जोहोवैगा और जोहो रहा है तिसमें ऐसा कोई स्थावर जंगम में नहीं देख पड़ता जो तुम्हारेबिना होय इससे परेसे परेभी तुमहो ५९ और सबमनुष्य तुम्हारीही मायाकरिकै आच्छादित हैं इससे तुम्हारे परमार्थ स्वरूपको नहीं जानते हैं और तुम्हारे भक्तों की सेवा करके निर्मल है मनजिनका ऐसे मनुष्यों को तौ तुम्हारा ईश्वररूपप्रतीत होता है ६० और जो कदाचित् बाहर के बिपयों में ही है सत्य बुद्धिजिनकी ऐसे ब्रह्मादिकभी तुम्हाराचैतन्य जोमात्मतत्त्व स्वरूप तिसको नहीं जानसक्ते हैं औरोंकी तौ बार्त्ताही क्या है तिसकारणसे वि वेकी पुरुष यह जोश्यामसुन्दर तुम्हारास्वरूप तिसका भक्तिकर के भजन करता हुमा समदुःखों से निवृतिहो मुक्तिको प्राप्तहोता है ६१ और हे राममें जोशिव हो सो पार्वती करिकै सहित आपके नामको उच्चारणकरता कृतार्थ हो काशीपुरी में बासकरता हूं और जोकाशी में कोई पुरुष मरने लगता है तौ उसके मोक्ष के लिये आपके रामतारक मन्त्रका उपदेश करता हूं ६२ और हे भगवन् अब मेरी यह प्रार्थना है कि जे पुरुष इस मेरेकिये हुये आपके स्तोत्रको नित्य अनन्यभक्तिकरिकै पढ़ें अथवा सुनैं अथवा लिखें अथवा गानकरें तेपरम सुखको प्राप्तहोकै आपके प्रसादसे आपके पद को प्राप्त होवें ६३ ॥

इन्द्रउवाच॥

रक्षोधिपेनाखिलदेवसौख्यंहृतंचमेब्रह्मवरेणदेव।
पुनश्चसर्वभवतःप्रसादात्प्राप्तंहतोराक्षसदुष्टशत्रुः॥६४॥

देवाऊचुः॥

हतायज्ञभागाधरादेवदत्तामुरारेखलेनादिदैत्येनविष्णो।
हतोद्यत्वयानोवितानेषुभागापुरावद्भविष्यंतियुष्मत्प्रसादात्॥६५॥

पितरऊचुः॥

हतोद्यत्वयादुष्टदैत्योमहात्मन्गयादौनरैर्दत्तपिंडादिकान्नः।
बलादतिहत्वागृहीत्वासमस्तानिदानींपुनर्लब्धसत्वाभवामः॥६६॥

यक्षाऊ॥

** चुः॥**

सदाविष्टिकर्मण्यनेनाभियुक्तावहामोदशास्यंवलाद्दुखयुक्ताः।
दुरात्माहतोरावणोराघवेशत्वयातेवयंदुःखजाताद्विमुक्ताः॥६७॥

** गन्धर्वऊचुः॥**

वयंसंगीतनिपुणागायंतस्ते कथामृतम्।
आनंदामृतसदोहयुक्ताःपूर्णाःस्थिताःपुरा॥६८॥

पश्चाद्दुरात्मनारामरावणेनाभिविद्रुताः।
तमेवगायमानाश्चतदाराधनतत्पराः॥६९॥

स्थितास्त्वयापरित्राताहतोयंदुष्टराक्षसः।
एवं महोरगाःसिद्धाःकिन्नरामरुतस्तथा॥७०॥

अबमहादेव जी के अनन्तर इन्द्रकहते हुये कि हे देव इसरावण ने ब्रह्माजी के वरदान के प्रभाव करके मेरासबदेव राज्यका सुखहरिलिया था सो आप के प्रसाद से फिर मुझको प्राप्तहुआऔर यह दुष्ट शत्रुभी मारा गया यह बड़ा आनद है ६४ अबसवदेवता कहतेहुये कि हे विष्णो यज्ञों में ब्राह्मणोंकरके दियेहुये जे हमारेभाग ते उसदुष्ट रावणने हरिलियेथे सोवहदुष्टरावण आपने मारा इससे आपके प्रसाद से पहिले की तरह फिर हमको यज्ञभागमिला करैंगे ६५ अबपितृगणकहते हैं कि हेराम जो दुष्टरावण गयादिकतीर्थों में हमारे पुत्रोंकरके दिये हुये जे श्राद्धादि पिण्ड तिनको जबरदस्ती आपही खाता था सो दुष्ट आप ने मारा इससे अबहम अपने पिण्डों को प्राप्तहोके बलयुक्त होवैंगे ६६ फिर तिसके उपरांत यक्ष वोलते हुये कि हेराम हमलोग सबबडे दुःख करके युक्त इस रावणकी बेगार में प्रेरित हुये कर्म करतेथे सोहे ईश इससमय में आपने इस दुरात्माको मारा इससे हम सबको दुःखजाल से छुड़ादिया ६७ फिर तिसके उपरांत गन्धर्व अपना दुःख कहते हुये कि हेराम हमलोग गानादि विद्याओं में बड़े चतुर पहिले आपका कथारूप अमृतका गानकरतेहुये आनंद से परिपूर्ण होतेथे ६८ फिर इसके पीछे दुष्ट रावणने आपके गानसे छुड़ाके अपने गुणों काही गान कराया तबसे हम रावणके गुणों को गानकरते हुये उसीके आराधन में तत्पर रहे ६९ सो अब आपने उस दुष्टको मारा इससे हम सब रक्षाको प्राप्त हो बड़े आनन्दित हुये अबइसी प्रकार उरग अर्थात् सर्प्पऔर सिद्ध और किन्नर और मरुत्७०॥

वसवोमुनयोगावोगुह्यकाञ्चपतत्त्रिणः

सप्रजापतयश्चैतेतथाचाप्सरसांगणाः

७१

सर्वेरामंसमासाद्यदृष्ट्वानेत्रमहोत्सवम्

स्तुत्वापृथक्पृथक्सर्वेराघवेणाभिवंदिताः॥

७२

ययुःस्वंस्वंपदंसर्वेब्रह्मरुद्रादयस्तथा

प्रशंसंतोमुदारामं गायंतस्तस्यचेष्टितम्

७३

ध्यायंतस्त्यभिषेकार्द्रसीतालक्ष्मणसंयुतम्।
सिंहासनस्थंराजेंद्रंययुः

सर्वेहृदिस्थितम्॥७४॥

खेवाद्येषुध्वनत्सुप्रमुदितहृदयैर्देववृन्दैःस्तुवद्भिर्वर्षद्भिः
पुष्पवृष्टिंदिविमुनिनिकरैरीड्यमानंसमंतात्।
रामःश्यामःप्रसन्नस्मितरुचिरमुखःसूर्यकोटिप्रकाशः
सीतासौमित्रिवातात्मजमुनिहरिभिःसेव्यमानोविभाति॥७५॥

इत्यध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे युद्धकांडेपंचदशस्सर्गः॥१५॥

और बसुगण और मुनिलोग औ गौंयें और गुह्यक और पक्षियों के समूह और दक्षादिप्रजापति और अप्सराओंके समूह ७१ ये सब रामके पास आके नेत्रों को आनन्ददायक राम के स्वरूप का दर्शन करके और पृथक्पृथक् अर्थात् न्यारी न्यारी स्तुतिकरके श्रीराम करके प्रशंसित हुये ७२ ब्रह्म रुद्रादि गण आनन्द करके आपभी रामकी प्रशंसा करते हुये और रामचरित्रोंको गानकरते हुये ७३ और सिंहासनपैस्थित जो सीता लक्ष्मण युक्त राजराजेन्द्र परमानंदरूप तिस को हृदय में ध्यानकरते हुये अपने अपने लोकको जाते हुये ७४ अब उससमय श्रीरामका ध्येयरूप कविवर्णन करता है कि आकाश मेंअनेकप्रकारके बाजे बजते हुये और आनन्दयुक्तहो स्तुतिकरते हुये और पुष्पोंकी वृष्टिकरते हुये जे देवताओं के समूह और मुनिलोग तिन्होंकर के स्तुति किये गये जो कोटिसूर्यप्रकाश प्रसन्नमुख सीता लक्ष्मण हनुमदादि सेवित परमानन्ददायक श्यामसुन्दर राम सो रत्नसिंहासन के ऊपर प्रकाशकररहे हैं७५॥

इति श्रीमदध्यत्मरामायणेउमामहेश्वरसंवादेयुद्धकाण्डे
भाषानुवादेपंचदशःसर्गः॥१५॥

** श्रीमहादेवउवाच॥**

रामभिषिक्तेराजेन्द्रेसर्वलोकसुखावहे।
वसुधासस्यसम्पन्नाफलवंतोमहीरुहाः॥१॥

गन्धहीनानिपुष्पाणिगन्धवंतिचकाशिरे।
सहस्रशतमश्वानांधेननांचगवांतथा॥२॥

ददौशतवृषान्पूर्वंद्विजेभ्योरघुनन्दनः।
त्रिंशत्कोटिसुवर्णस्यब्राह्मणेभ्योददौपुनः॥३॥

वस्त्राभरणरत्नानिब्राह्मणेभ्योमुदातथा।
सूर्यकांतिसमप्रख्यांसर्वरत्नमयींस्रजम्॥४॥

सुग्रीवायददौप्रीत्याराघवोभक्तवत्सलः।
अंगदायददौदिव्येह्यंगदेरघुनंदनः॥५॥

चंद्रकोटिप्रतीकाशंमणिरत्नविभूषितम्।
सीतायैप्रददौहारंप्रीत्यारघुकुलोत्तमः॥६॥

अवमुच्यात्मनःकण्ठाद्धारंजनकनन्दिनी।
अवैक्षतहरीन्सर्वान्भर्त्तारं च मुहुर्मुहुः॥७॥

दो० । सर्ग सोल्हमें सखा सबसनमाने श्रीराम।
अनचाहतहूं राम के प्रेरितगे निजधाम॥१॥

अब श्रीमहादेवजी पार्वतीजीले कथावर्णनकरते हैं कि हे पार्वति जब सब लोकों को सुखके देनेवाले श्रीरामराज्याभिषेक को प्राप्तहो राज सिंहासनपैबैठके राज्य करने लगे तौसंपूर्णपृथिवी धनधान्य संपदाओं करके पूर्ण होती हुई और वृक्षफलोंकरके युक्त होते हुये १ और जे पुष्प सुगन्धि हीनभी थे वे भी सुगन्धि युक्तोप्रकाशकरतेहुये और उस समय में श्रीराम सौहजार घोड़े और सौ हजार गाय ब्राह्मणों को देते हुये २ और सैकड़ों बैल देते हुये और तीस करोड़ अशरफी ब्राह्मणों को देते हुये ३ और बस्त्र और आभूषण और रत्न इनको बहुत आनन्दपूर्वक देते हुये और सूर्यकीसी कांति जिसकी ऐसी जो रत्नोंकरके जटित माला तिसको ४ बड़ी प्रीतिसेभक्तवत्सल श्रीराम सुग्रीवको देते हुये और अंगदको बड़े प्रकाशयुक्त स्वर्गके बने हुये दोअंगद अर्थात् भुजाओं में पहिरने के आभूषण जे बहूटा तिनको देतेहुये ५ और करोड़ों चन्द्रमाओं का सा प्रकाश जिसका और मणि रत्नों करके भूषित ऐसा जो हार तिसको बड़ीप्रीति से राम सीताको देते हुये ६ तब उससमय में सीताजी अपनेगलेसे उसहारको उतारके देनेकेलिये सववानरों के तरफ देखती हुई और अपनाभर्त्ता जो राम तिसकोभी वारंबार देखती हुई ७॥

रामस्तामाहवैदेहीमिंगितज्ञोविलोकयन्।
वैदेहियस्यतुष्टासिदेहितस्मैवरानने॥८॥

हनुमतेददौहारंपश्यतोराघवस्यच।
तेनहारेणशुशुभेमारुतिर्गौरवेणच॥९॥

रामोपमारुतिंदृष्ट्वाकृतांजलिमुपस्थितम्।
भक्त्यापरमयातुष्टइदंवचनमब्रवीत्॥१०॥

हनूमंस्तेप्रसन्नोस्मिवरंवरयकांक्षितम्।
दास्यामिदेवैरपियत्दुर्लभम्भुवनत्रये॥११॥

हनूमानपितंप्राहनत्वारामंप्रहृष्टधीः।
त्वन्नामस्मरतोरामनतृप्यतिमनोमम॥१२॥

अतस्त्वन्नामसतत स्मरन्स्थास्यामिभूतले।
यवत्स्थास्यतितेनामलोकेतावत्कलेवरम्॥१३॥

ममतिष्ठतुराजेंद्रवरोऽयमेभिकांक्षितः।
रामस्तथेतितंप्राहमुक्तस्तिष्ठयथासुखम्॥१४॥

तब इशारेके जाननेवाले जो राम सो उससमय मेंसीतासे बोलते हुये कि हेसीते जिसकेऊपर तुमप्रसन्नहोवो तिसको यह दीजिये ८ तबश्रीरामको देखते सीता उपहारको हनुमान के अर्थ देती हुई फिर हनुमान् उसहारकरके और सीताजी के आदरकरके अत्यन्त शोभित होता हुआ ९ और श्रीरामचन्द्र भी हाथजोडेहुये समीप स्थित जो हनुमान तिलको देखिकै हनुमान की भक्तिकरके

प्रसन्न हो यह कहते हुये १० कि हनुमन मैं तेरेऊपर प्रसन्न हूं जो तेरीइच्छा होय सोवरमांग और तीनों लोकों में जो देवताओं को भी दुर्लभ सो मैं तुझको देऊँगा ११ तो हनुमान्भी प्रसन्नहो श्रीरामको नमस्कार करके बोलताहुआ कि हे राम तुम्हारेनामको स्मरणकरते करते मेरामन नहीं तृप्त होता है १२ इससे आपके नामको स्मरणकरतेई मैं पृथ्वी में स्थितरहों और हेराजेंद्र जबतक तुम्हारानाम लोकमें स्थित रहै तबतक मेराशरीर स्थितरहै यही वर मुझको अभीष्ट है १३ तब श्रीरामचन्द्रजीने कहा कि हे हनुमन् तैसे होगा और तुम जीवन्मुक्तहो पृथ्वी में स्थितरहोगे १४॥

कल्पांतेमनसायुज्यंप्राप्स्यसेनात्रसंशयः।
तमाहजानकीप्रीतायत्रकुत्रापिमारुते॥१५॥

स्थितंवामनुयास्यंतिभोगाःसर्वेममाज्ञया।
इत्युक्तोमारुतिस्ताभ्यामीश्वराभ्यांप्रहृष्टधीः॥१६॥

आनंदाश्रुपरीताक्षोभूयोभूयःप्रणम्यतौ।
कृच्छ्राद्ययौतपस्तप्तुंहिमर्वतंमहामतिः॥१७॥

ततोगुहंसमासाद्यरामःप्रांजलिमब्रवीत्।
सखेगच्छपुरंरम्यंशृंगिवेरमनुत्तमम्॥१८॥

मामेवचिंतयन्नित्यंभुंक्ष्वभोगान्निजार्जितान्।
अंतेममैवसारूप्यंप्राप्स्यसेत्वंनसंशयः॥१९॥

इत्युक्त्वाप्रददौतस्मैदिव्यान्याभरणानिच।
राज्यंचविपलंदत्त्वाविज्ञानंचददौविभुः॥२०॥

रामेणालिंगितोहृष्टोययौस्व भवनंगुहः।
येचान्येवानराः श्रेष्ठाअयोध्यांसमुपागताः॥२१॥

और कल्पके अन्त में मेरे सायुज्य मोक्षको तुम प्राप्त होउगे इसमें कुछसंदेह नहीं तब सीता प्रसन्नमनहो हनुमान् से बोली १५ कि हेपवनसुत जहां तुम स्थितरहौगे तहां सबभोग मेरी आज्ञा करके तुम्हारे समीप प्राप्तहुआ करैंगे इसप्रकार जगत्माता पिता जो सीता और राम इनकरके कहाहुआजोहनुमान् सो बड़ा प्रसन्न होता हुआ १६ और आनन्द के अशुभ करके भरे हुये हैंनेत्र जिसके ऐसा जो हनुमान् सो बारंबार सीता रामको प्रणाम करके बड़े कष्टसे तपकरनेको हिमालयपर्वतको जाताहुआ १७ तिसके उपरांत हाथजोड़े अगाढ़ीखड़ा जो गुह निषाद तिसको श्रीराम प्राप्तहोके अर्थात् देखिकै वचनबोले कि सखे तुम अपना श्रेष्ठ जो शृंगवेरपुर तिसको जाव १८और मेराही नित्य स्मरण करते हुये अपने पुण्यों करके उपार्जित किये जेभोग तिनको करौ और अंत में मेरेहीस्वरूपको प्राप्तहोउगे इसमें कुछसंशय नहीं है १९ यह वचनकहिकै श्रीराम उस गुहको दिव्य और देवलोकके जे आभूषण तिनको देतेहुये और राज्य बहुतसा देते हुये और ज्ञान देतेहुये २० फिर रामकरके

आलिंगन कियाइसी से बड़े आनन्दकरके युक्त ऐसा जो गुह सो अपने गृहकोजानाहुआऔर जे जे वानर श्रेष्ठअयोध्यापुरीमें आयेथे २१।

अमूल्याभरणैर्वस्त्रैःपूजयामासराघवः।
सुग्रीवप्रमुखाःसर्वेवानराःसविभीषणाः॥२२॥

यथार्हंपूजितास्तेनरामेणपरमात्मना।
प्रहृष्टमनसःसर्वेजग्मुरेवयथागतम्॥२३॥

सुग्रीवप्रमुखाःसर्वेकिष्किंधांप्रययुर्मदा।
विभीषणस्तुसंप्राप्यराज्यंनिहतकंटकम्॥२४॥

रामेणपूजितःप्रीत्याययौलंकामनिंदितः।
राघवोराज्यमखिलंशशासाखिलवत्सलः॥२५॥

अनिच्छन्नपिरामेणयौवराज्येभिषेचितः।
लक्ष्मणःपरयाभक्त्यारामसेवापरोभवत्॥२६॥

रामस्तुपरमात्मापिकर्माध्यक्षोऽपिनिर्मलः।
कर्तृत्वादिविहीनोपिनिर्विकारोपिसर्वदा॥२७॥

स्वानंदेनापितुष्टःसन्लोकानामपदेशकृत्।
अश्वमेधादियज्ञैश्चसर्वैर्विपुलदक्षिणैः॥२८॥

तिन सबोंका बहुत मूल्यके अथवा मूल्यरहित जे दिव्यवस्त्र और आभूषण तिन्होंकरके श्रीरामपूजन करते हुये और सुग्रीवको आदिलेके विभीषणसहित जे वानर आये थे तेसब परमात्मा करके यथायोग्य पूजितहुये आनन्दयुक्तहो अपने अपने गृहों को जातेहुये २३ तिसमें सुग्रीवादिक तौ किष्किन्धानगरी को आनन्दपूर्वक जाते हुये और विभीषण भी निष्कंटक राज्यको पाके २४ राम करके सत्कार कियागया लंकापुरीको जाताहुआ और रामकी कृपा से कुलक्षय मेंकारणभूत विभीषण कभी निन्दाको प्राप्त नहीं होता हुआ और सबको प्रियजोराम सो सबभूमण्डल की रक्षाकरतेहुये २५ और नहीं इच्छा करता हुआ भी लक्ष्मण रामने युवराज पदवी मेंअभिषेकको प्राप्त किया सो परम भक्ति करके रामहीकी सेवामें तत्पर होता हुआ २६ और राम यद्यपि सबको फलप्रदाता ईश्वरहें और निर्मल और परमात्माचौर कर्तृत्वादि दोषोंकरके रहित हैंऔर सर्वदानिर्विकार हैं२७ और अपने आनन्दकरके परिपूर्ण भी हैं तौभी मनुष्यवपुको आश्रवणकरके महात्मा पुरुषों को उपदेश करते हुये बहुत दक्षिणा जिन्होंमें ऐसे जे अश्वमेधादिक यज्ञ २८॥

अयजत्परमानन्दोमानुषंवपुराश्रितः।
नपर्यदेवन्विधवानचव्यालकृतंभयम्॥२९॥

नव्याधिजंभयंचासीद्रामेराज्यंप्रशासति।
लोकेदस्युभयंचासीदनर्थोनास्तिकश्चन॥३०॥

वृद्धेपुसत्सुवालानांनासीन्मृत्युभयंतथा।
रामपूजापराःसर्वेसर्वेराघवचिंतकाः॥३१॥

ववर्षुर्जलदारतोयंयथाकालंयथारुचि।
प्रजाःस्वधर्मनिरतावर्णाश्रमगुणान्वि

ताः३२॥

औरसानिवरामोऽपिजुगोपपितृवत्प्रजाः।
सर्वलक्षणसंयुक्तःसर्वधर्मपरायणः॥३३॥

दशवर्षसहस्राणिरामोराज्यमुपास्तसः॥३४॥

इदंरहस्यंधनधान्यऋद्धिमत्दीर्घायुरारोग्यकरंसुपुण्यदम्

पवित्रमाध्यात्मिकसंज्ञितंपुरारामायणंभाषितमादिशंभुना

३५

तिन्होंकरके यजन करतेहुये और श्रीरामचन्द्र के राज्यमें कोई विधवा स्त्री बिलाप नहीं करती हुई औन किसीको सर्पका भयहोता हुआ २९ और न किसीको रोगका भय होता हुआ और न किसीको रोगका भय होता हुआ और न किसी प्रकारका अनर्थ होता हुआ ३० और बूढ़े मनुष्यों के बैठे हुयेबालकों की मृत्युश्रीराम के राज्य में नहीं होती हुई और सबमनुष्य श्रीरामकी पूजा में परायण होतेहुये और सबश्रीरामहीका स्मरणकरते हुये ३१ और वर्षाकालमें जैसा जिसको अभीष्ट है तैसामेघ वर्षताहुया और वर्णाश्रमगुणों करके युक्तप्रजा अपने अपने धर्म में तत्परहोती हुई ३२ और सब शुभलक्षणों करके युक्त और सब धर्मो के आश्रयभूत जो श्रीरामतो औरसपुत्रों के तुल्यप्रजा की रक्षा करते हुये ३३ और दशहजार बर्षतक श्रीराम राज्यकरते हुये ३४और यह रहस्यनाम गोपनीय और धनधान्यका बढ़ानेवाला औरवड़ी आयुर्बल का करनेवाला और आरोग्यकरने वाला और पुण्यकादेनेवाला और अतिपवित्र ऐसा जो अध्यात्मरामायणसो श्रीमहादेवजीने प्रथम पार्वतीजी से कहा है ३५॥

शृणोतिभक्त्यामनुजःसमाहितोभक्त्यापठेद्वापरितुष्टमानसः

सर्वाःसमाप्नोतिमतोगताशिषोविमुच्यतेपातककोटिभिःक्षणात्॥३६॥

रामाभिषेकंप्रयतःशृणोतियोधनाभिलाषीलभतेमहद्धनम्

पुत्राभिलाषीसुतमार्यसंमतंप्राप्नोतिरामायणमादितःपठन्॥३७॥

शृणोतियोध्यात्मिकरामसंहितांप्राप्नोतिराजाभुवम्टद्धसंपदम्

शत्रून्विजित्यारिभिरप्रधर्षितोव्यपेतदुःखोविजयीभवेन्नृपः॥३८॥

स्त्रियोऽपिशृएवत्यधिरामसंहितांभवतिताजीवसुताश्चपूजिताः

बंध्याऽपिपुत्रलभतेसुरूपिणंकथामिमांभक्तियुताशृणोतिया॥३९॥

श्रद्धान्वितोयःशृणुयात्पठेन्नरोविजित्यकोपंचतथाविमत्सरः

दुर्गाणिसर्वाणिविजित्पतिर्भयोभवेत्सुखीराघवभक्तिसंयुतः॥४०॥

सुराःसमस्ताअपियांतितुष्टतांविघ्नाःसमस्ताआपयांतिशृण्वताम्

अध्यात्मरामायणमादितोनृणांभवंतिसर्वाअपिसंपदःपराः॥४१॥

रजस्वलावायदिरामतत्पराशृ

णेतिरामायणमेतदादितः।
पुत्रंप्रसूतेऋषभंचिरायुषंपतिव्रतालोकसुपूजिताभवेत्॥४२॥

सो जोमनुष्य भक्तिकरके और एकाग्रचित्त से इसको श्रवण करता है अथवा प्रसन्न मन करके भक्तिसेइसको पढ़ता है सो सब मनकी कामनाओं को प्राप्तहोता है और करोड़ों पातकों सेक्षणमात्र में छूटिजाता है ३६ और जो धनाभिलाषी पुरुष श्रीराम के अभिषेक चरित्रको एकाग्रचित्तहो श्रवणकरता है सो बहुत से धनको प्राप्त होता है और जो पुत्रकी अभिलाषा करके आदि से लेके रामायणको पढ़े तौ श्रेष्ठ पुरुषों को सम्मत अर्थात् माननीय पुत्रको प्राप्त होता है ३७ और जो राजा इस अध्यात्म रामायणको श्रवण करैतो समृद्धि युक्त पृथ्वी को प्राप्त होता है और शत्रुओं करके नहीं तिरस्कार किया गया शत्रुओंको जीत के सब दुःखों से रहितहो विजयको प्राप्त होता है ३८ और जिस स्त्री के पुत्र मरजाते होयँ सो मृतवत्सा स्त्री इस रामायण का श्रवण करैतौउसके पुत्र जीवने लगें अर्थात् वह स्त्री जीवत्पुत्राहोय और लोक मेंसत्कार को प्राप्त होय और जो बन्ध्या स्त्री इस रामायण को भक्तियुक्तहो श्रवण करैंतौ बड़े स्वरूपयुक्त पुत्र को प्राप्तहोवै ३९ और जो श्रद्धायुक्त मनुष्य इस रामायण को श्रवण करें अथवा क्रोधरहित और मत्सरदोष रहित होके इस को कहै तौसब क्लेशों से छूट कर के निर्भय और सुखी और रामकी भक्ति कर के युक्त होता है ४० और जे पुरुष अध्यात्म रामायण का श्रवण करते हैं तिनके ऊपर सब देवता और ब्राह्मण प्रसन्न होते हैं और सब विघ्न नाशको प्राप्तहोते हैं और संपूर्ण संपत्ति प्राप्ति होती है ४१ और जो रजस्वला स्त्री ऋतु स्नानकर बारह दिन तक आदिसे लेकैइस रामायण का श्रवण करे तो आयुर्बल युक्त और गुणयुक्त पुत्रको उत्पन्न करती है और पतिव्रता और लोकपूजितहोती है ४२॥

पूजयित्वातुयेभक्त्यानमस्कुर्वंतिनित्यशः।
सर्वैःपापैर्विनिर्मुक्ताविष्णोर्यातिपरंपदम्

४३

अध्यात्मरामचरितंकृत्स्नंशृण्वंतिभक्तितः।
पठंतिवास्वयंवक्तात्तेषांरामःप्रसीदति

४४

रामएवपरंब्रह्मतस्मिंस्तुष्टेऽखिलात्मनि।
धर्मार्थकाममोक्षाणांयद्यदिच्छतितद्भवेत्

४५

श्रोतव्यंनियमेनैतद्रामायणमखडितम्।
आयुष्यमारोग्यकरंकल्पकोट्यवनाशनम्

४६

देवाश्चसर्वेतुष्यंतुग्रहाःसर्वेमहर्षयः।
रामायणस्वाश्रवणेतुष्यंतिपितरस्तथा

४७

अध्यात्मरामायणमेतदद्भुतंवैराग्यविज्ञानयुतंपुरातनम्।
पठंतिशृण्वंत्तित्लिवंतियेनरास्तेषांभवेऽस्मि

न्नपुनर्भवोभवेत्॥४८॥

अलोड्याखिलवेदराशिमसकृद्यत्तारकं
ब्रह्मतद्रामोविष्णुरहस्य मूर्त्तिरितियोविज्ञायभूतेश्वरः।उद्धृत्याखिलसारसंग्रहमिदंसंक्षेपतःप्रस्फुटं
श्रीरामस्यनिगूढ़तत्त्वमखिलंप्राहप्रियायैभवः॥४६॥

काण्डेयुद्धात्मकेसर्गानवसप्तनीलकण्ठोक्ताः।
सार्द्धैकादशशतश्लोकामनसंख्यायुताः॥

इत्यध्यात्मरामायणेउमामहेश्वरसंवादेयुद्धकाण्डेषोडशःसर्गः॥१६॥

और जे पुरुष इस अध्यात्मरामायणकी पुस्तकको नित्य पूजनकरके भक्ति करके नमस्कार करते हैं ते संपूर्ण पापोंसे छूटिकै विष्णु के परमपदको प्राप्तहोते हैं ४३ जे पुरुष सम्पूर्ण अध्यात्मरामायण चरित्रको भक्ति करके श्रवण करते हैं अथवा अपने मुखसे कहते हैं तिनके ऊपर श्रीराम प्रसन्न होते हैं ४४ और रामही साक्षात् परब्रह्म हैं इससे सर्वात्मा जो राम हैंतिनके प्रसन्न होने से धर्म अर्थ काम मोक्ष इनकेमध्य में जिसजिस पदार्थ की इच्छा करता है वही वहीपदार्थ को प्राप्तहोता है ४५ और जिसकारण से यह रामायण आयुर्बलका बढानेवालाहैं और आरोग्यका करने वाला है और करोड़ों कल्पके पापों का नाश करनेवाला है इससे नियमकरके इससंपूर्ण रामायणका श्रवणकरनाचाहिये ४६ औररामायण के सुनने से सब देवता प्रसन्न होते हैं और सूर्यादिग्रहप्रसन्न होते हैं और सब महर्षि प्रसन्न होते हैं और सब पितर प्रसन्न होते हैं ४७ और वैराग्य और बिज्ञानकरके संयुक्त यह अद्भुत आश्चर्ययुक्त जो अध्यात्मरामायण तिसको जे पुरुष पढ़ते हैं और सुनते हैं और जे लिखते हैं तिनका इस संसार में फिर जन्मनहीं होता है ४८ और भूतेश्वर जो श्री महादेवजी सो सबवेदराशिको बारम्बार विचारकरके यह निश्चय करते हुये जो तारक ब्रह्म है सोई विष्णुकी रहस्य अर्थात् गुप्तमूर्ति है और सब उपनिषद् इसीतारक ब्रह्मका व्याख्यान भूत हैं यहजानके श्री महादेवजी उपनिषदों का जो सारभूत अर्थतिसको संक्षेपकरके श्रीरामका गुप्त जो तत्त्व स्वरूप सो प्रकटजैसे होय तैसे अध्यात्मरामायणकी द्वारा उसी तत्त्वको प्रिया जो पार्वती तिसके अर्थ कहते हुये ४९ ॥

इतिश्रीमदध्यात्मरामायणेउमामहेश्वरसंवादेयुद्धकांडेश्रीमद्रुक्मिणी
गर्भजत्रिपाठिकुलभूषणतुलारामसूनुधमिदुमादत्तविरचित
भाषाटीकायांषोडशस्सर्गः॥१६॥

समाप्तश्चायंयुद्धकाण्डः॥६॥

श्रीगणेशायनमः॥

अथ अध्यात्मरामायण॥

उत्तरकाण्ड॥

भाषा टीकासहित॥
__________

जयतिरघुवंशतिलकः कौशल्याहृदयनन्दनोरामः।
दशवदननिधनकारीदाशरथिः पुण्डरीकाक्षः॥

पार्वत्युवाच।

अथरामः किमकरोत्कौशल्यानन्दवर्द्धनः।
हत्वामृधेरावणादीन्राक्षसान्भीमविक्रमः॥१॥

अभिषिक्तस्त्वयोग्यायांसीतया सहराघवः।
मायामानुषतां प्राप्यकतिवर्षाणिभूतले॥२॥

स्थितवान्लीलयादेवः परमात्मासनातनः।
अत्यजन्मानुषंलोकंकथमंतेरघूद्वहः॥३॥

एतदाख्याहिभगवन् श्रद्दधत्याममप्रभो।

कथापीयूषमा स्वाद्यतृष्णामेतीववर्द्धते।
रामचंद्रस्यभगवन् ब्रूहिविस्तरशः कथाम्॥४॥

** श्रीमहादेवउवाच।**

राक्षसानां बधंकृत्वाराज्यंरामउपस्थिते।
आययुर्मुनयः सर्वे श्रीराममभिवंदितुम्॥५॥

विश्वामित्रोसितः कण्वोदुर्वासा भृगुरङ्गिराः।

कश्यपोवामदेवोत्रिस्तथासप्तर्पयोमलाः६॥

अगस्त्यः सहशिष्यैश्च मुनिभिः सहितोऽभ्यगात्।
द्वारमासाद्यरामस्वद्वारपालमथाब्रवीत्॥७॥

दो० । प्रथम सर्गमहँ राम के दर्शन हेतु मुनीश।
आयेकुम्भजमुनिसहित सनमाने जगदीश॥१॥
पुनि मुनि कथापुरातनी कहन लगेहरपाइ।
धनददशाननआदिलै जिमिजन मे सबभाइ॥२॥

अबश्रीपार्वती जी रामका उत्तर चरित्र श्रवणकरने को बढ़ी उत्कण्ठा से श्रीमहादेव जी से पूंछतीहुई कि हे भगवन् अब इसके उपरान्त कौशल्या को आनन्दके करनेवाले श्रीराम संग्राम में रावणादिक राक्षसों को मारके और अयोध्या मेंराज्यको प्राप्तहो क्या करते हुये १ और सनातन परमात्मा जोराम सोसीता सहित मनुष्यभाव को प्राप्तहो कितने वर्ष पर्यंत पृथ्वी में वास करते हुए २ और इसमनुष्य शरीरको लीलाही करके अन्त में कैसे त्यागकरते

हुये ३ हे भगवन् श्रद्धायुक्त जो मैं हौं तिससे यह सब वृत्तान्त कहिये और यह कथारूप अमृतका पान करती हुई मैं तृप्तिको नहीं प्राप्तहोती हौं इससे रामचन्द्रको कथाको विस्तारपूर्वक कहिये ४ अब ये पार्वतीजी के वचनसुनिकैमहादेव कहनेलगे कि हे पार्वति जब राक्षसों का बधकरके राम राज्यको प्राप्त हुये तौ श्रीराम को प्रणाम करने को मुनिलोग आवतेहुये ५ विश्वामित्र और असित औकण्व औदुर्वासा औ भृगु औ अंगिरा औ कश्यप औ बामदेव और अत्रि और अवशिष्टरहे जे सप्तर्षि ६ और शिष्यगणों करके सहित और मुनियों करके सहित अगस्त्य जी आवते हुये ये सब ऋषिलोग राम के द्वार प्राप्त हो द्वारपाल से बोलते हुये ७॥

ब्रूहिरामायमुनयःसमागत्यबहिःस्थिताः।
अगस्त्यप्रमुखाःसर्वेआशीर्भिरभिनंदितम्॥८॥

प्रतिहारस्ततोराममगस्त्यवचनाद्द्रुतम्।
नमस्कृत्वाब्रवीद्वाक्यंविनयावनतःप्रभुम्॥९॥

हीकृतांजलिरुवाचेदमगस्त्योमुनिभिःसह।
देवत्वदर्शनार्थाय प्राप्तो बहिरुपस्थितः॥१०॥

तमुवाचद्वारपालंप्रवेशययथासुखम् ।
पूजिताविविशुर्वेश्मनानारत्नविभूषितम्॥११॥

दृष्ट्वारामोमुनीनूशीघ्रंप्रत्युत्थायकृतांजलिः।
पाद्यार्घ्यदिभिरापज्यगानिवेद्ययथाविधि॥१२॥

नत्वातेभ्योददौदिव्यान्यासनानियथार्हतः।
उपविष्टाःप्रहृष्टाश्चमुनयोरामपूजिताः॥१३॥

संपृष्टकुशलाःसर्वेरामंकुशलमब्रुवन्।
कुशलंतेमहाबाहो सर्वत्ररघुनन्दन॥१४॥

कि हे द्वारपाल तुम रामसे जाकर यह कहो कि अगस्त्य को आदि लैके ये सब मुनिगण आपको आशीर्वाद देने को उपस्थित हुये हैं तब द्वारपाल अगस्त्य के बचन से शीघ्रही राम के समपि जाके श्रीरामको प्रणाम कर नम हो यह कहताहुआ ९ कि हेराम मुनियोंकरके सहित अगस्त्य मुनि आपके दर्शनाभिलाषी हाथ जोड़े यह कहते हुये कि हे देव हम आपके दर्शनके अर्थ बाहर खड़े१० तब श्री राम द्वारपालसे बोले कि सुखपूर्वक सब मुनियों को प्राप्त करोतब सब मुनिलोग रामकी आज्ञा से बड़े सत्कार पूर्वक अनेक प्रकार के रत्नों करके भूषित रामके मन्दिर में प्रवेश करते हुये ११ तब श्रीराम मुनियों को देखके शीघ्रही हाथजोडके आसनसे उठिकै पाद्यार्घादिक सामग्रियोंकरके पूजनकर के गौको निवेदनकरतेहुये १२ और सबमुनियोंको नमस्कार करके यथायोग्य दिव्य प्रासन बैठने को देते हुये फिर रामसे पूजाको प्राप्तहो सब ऋषि आनन्द पूर्वक आसनोंपे बैठते हुये १३ फिरकुशलप्रश्न पूछेहुये सबऋषि रामसे कुशल पूंछते हुये बोले कि हे महाबाहो हे रघुनन्दन तुम्हारे सबराज्योंके अंगोंमें कुशल है १४॥

दिष्ट्येदानींप्रपश्यामोहतशत्रुमरिंदम।
नहिभारःसतेरामरावणोराक्षसेश्वरः॥१५॥

सधनुस्त्वंहिलोकांस्त्रीन्विजेतुंशक्तएवहि।
दिष्ट्यात्वयाहताःसर्वेराक्षसारावणादयः॥१६॥

सह्यमेतन्महाबाहोरावणस्यनिवर्हणम्।
असह्यमेतत्संप्राप्तंरावणेर्यन्निषूदनम्॥१७॥

अंतकप्रतिमाःसर्वकुम्भकर्णादयोमृधे।
अंतकप्रतिमैर्वाणैहतास्तेरघुसत्तम॥१८॥

दत्ताचेयंत्वयाऽस्माकंपुराह्यभयदक्षिणा।
हत्वारक्षोगणान्संख्येकृतकृत्योजीवसि॥१९॥

श्रुत्वाभाषितंतेषांमुनीनांभावितात्मनाम्।
विस्मयंपरमंगत्वारामःप्रांजलिरब्रवीत्॥२०॥

रावणादीनतिक्रम्यकुम्भकर्णादिराक्षसान्।
त्रिलोकजयिनोहित्वाकिंप्रशंसथरावणिम्॥२१॥

और हे राम जो शत्रुओं को मारके राज्य में स्थितजो आप तिनको मैं देखता हौंसोवड़ा मानन्द और जो राक्षसोंका ईश्वर रावणको आपने मारासो कुछ भापको भारनहीं है १५ अर्थात् कठिन नहीं क्योंकि धनुषको हाथ में लिये अकेले आप तीनों लोकोंको नाश करने को समर्थहौ तौभी जोरावणादिक राक्षस आपने मारे इससे हमको आनन्द हुआ १६ तिसमें भी हे राम जोरावण का मारनाहुआ सोतौ सहजथा परन्तु जो रावणका पुत्र मेघनाद तिस का मारना बड़ा मुशकिल रहा १७ इससे मेघनाद के बध का हमको आश्चर्य हुआ और हे राम संग्राममें कालमृत्यु के तुल्य वली जे कुंभकर्णादि राक्षस तिनको वैसेही पराक्रम युक्त अपने वाणोंकरके आपने मारा १८ सो आपने हम सब ऋषियों को अभया दक्षिणादी और सब राक्षसों को मारिकै प्रापभी कतरुत्यहो जीवनको प्राप्तौ १९ अब श्रीरामचन्द्रजी ये सब अगस्त्य आदि मुनियों के वचन सुनिकै बड़े आश्चर्यको प्राप्तहो हाथ जोड़के बोलते हुये २० कि हे मुनीश्वरो भापलोग त्रैलोक्यविजयी अर्थात् तीनों लोकों के जीतनेवाले जे रावण कुंभकर्ण आदि राक्षस तिनको छोड़के क्याएक मेघनादद्दीकी तारीफ करते हो अर्थात् सबको छोड़के मेघनाद ही की प्रशंसा में आपका क्या आशय है सो कहिये २१।

ततस्तद्वचनंश्रुत्वाराघवस्यमहात्मनः।
कुम्भयोनिर्महातेजारामंत्रीत्यावचोऽब्रवीत्

२२

शृणुरामयथावृत्तंरावणेरावणस्यच।
जन्मकर्मवादानंसंक्षेपादतोमम

२३

पुराकृतयुगेरामपुलस्त्योब्रह्मणःसुतः।
तपस्ततुंगतोविद्वान्मेरोःपार्श्वेमहामतिः

२४

तृणविन्दोराश्रमेसौन्यवसन्मुनिपुंगवः।
तपस्तेपेमहातेजाःस्वाध्यायनिरतःसदा

२५

तत्राश्रमेमहारम्येदेवगन्धर्बकन्यकाः।
गायंत्योननृतुस्तत्रहसंत्योवादयंतिच॥२६॥

पुलस्त्यस्यतपोविघ्नंचक्रुःसर्वाअनिंदिताः॥
ततःक्रुद्धोमहातेजाव्याजहारवचोमहत्॥२७॥

यामेदृष्टिपथंगच्छेत्सागर्भंधारयिष्यति।
ताःसर्वाःशापसंविग्नानंतंदेशंप्रचक्रमुः॥२८॥

तो बड़े तेजस्वी जो अगस्त्यमुनि सो श्रीमहात्मा रामचन्द्रजी के बचनसुनिकै परम प्रीति से रामके प्रतिवचन बोले २२ कि हेराम जैसा कुछ मेघनादका और रावणका वृत्त हैं और जन्म औकर्म और बरदानकी प्राप्तिहुई तिससबको मैं संक्षेपसे कहता हूं सो आप सुनिये २३ पहिले एक ब्रह्माजीके पुत्र वेदादिकों के जाननेवाले पुलस्त्यमुनि तपकरने को सुमेरु पर्वत के समीप जाते हुये २४वहांएक तृणबिन्दु ऋषिका आश्रमया उसमें बासकरते हुये नित्यवेद के पाठ में परायणहो तपकरने लगे २५ फिर उस बड़े रमणीय आश्रम में देवता और गन्धर्वों की कन्या बहुतसी आनेलगीं और वहां गानभी करती हुई और कोई नाचकरने लगीं और कोई बाजा बजाया करें और कोईहास्य किया करें २६ इसप्रकार वे बड़ी बड़ी सुन्दरी कन्या पुलस्त्यजी महाराजके तपमें विघ्नकरती हुई तब तो बड़े तेजस्वी पुलस्त्य मुनि क्रोध करके कहते हुये २७ कि जो आज से कन्या मेरे नेत्रोंकेआगेआवेंगी सो गर्भको धारण करैंगी अर्थात् मेरीदृष्टि के पड़ते ही उसी समयउसके गर्भ होजायगा तबतो वहां शापकीभय से कोई कन्या नहींजाती हुई २८॥

तृणविन्दोस्तुराजर्षेःकन्यातन्नाशृणोद्वचः।
विचचारमुनेरग्रेनिर्भयातंप्रपश्यती॥२९॥

बभूवपांडुरतनुर्व्यंजितांतःशरीरजा।
दृष्ट्वासादेहवैवर्ण्यंभीतापितरमन्वगात्॥३०॥

तृणविंदुश्चतांदृष्ट्वाराजर्षिरमितद्युतिः।
ध्यात्वामुनिकृतंसर्वमवैद्विज्ञानचक्षुषा॥३१॥

तांकन्यांमुनिवर्यायपुलस्त्यायददौपिता।
तांप्रगृह्याब्रवीत्कन्यांवाढमित्येवसद्विजः॥३२॥

शुश्रूषणपरांदृष्ट्वामुनिःप्रीतोब्रवीद्वचः।
दास्यामिपुत्रमेकंतेउभयोर्वेशवर्द्धनम्॥३३॥

ततःप्रासूतसापुत्रंपुलस्त्याल्लोकविश्रुतम्।
विश्रवाइतिविख्यातःपौलस्त्योब्रह्मविन्मुनिः॥३४॥

तस्यशीलादिकंदृष्ट्वाभरद्वाजोमहामुनिः।
भार्यार्थस्वादुहितरं ददौविश्रवसेमुदा॥३५॥

परन्तु जिस तृणबिन्दुराजर्षिका वह आश्रमथा उनकी कन्याने यह मुनिका शाप नहीं सुनाथाइससे वह निर्भयहो पुलस्त्यजीकी दृष्टिकेसामने विचरती हुई मुनिको देखती हुई २९फिर वह उसीसमय में पीतवर्णहोगई और जैसे गर्भके चिह्न होते हैं तैसेही चिह्नोंको धारणकरे गर्भवती होगई फिर वह

कन्या अपने देहका वर्ग विपरीतदेखके भयपीड़ितो अपने पिता के समीपजाती हुई २० फिर तृणविन्दु राजर्षितैसी अवस्थाको प्राप्त अपनी कन्याको देखके ध्यानमार्ग में ज्ञानदृष्टि के प्रभावसे सब वहचरित्र पुलस्त्यका जानता ३१ फिर तृणविन्दुराजा उस कन्याको पुलस्त्यजीके अर्थ देता हुआ और पुलस्त्यमुनिभी उसको भार्यारूपकरके स्वीकार करते हुये ३२ फिर पतिशुश्रूपार्मेतत्पर उसको देखके मुनिप्रसन्नहोके एकसमय बोले कि हेकल्याणि दोनों वंशों की वृद्धिकरनेवाला ऐसा एकपुत्र तुझको देऊँगा ३३ तबतौ वहस्त्री पुलस्त्यजीके सकाशते विश्वानामकर के विख्यात पुत्रको उत्पन्न करती हुई फिरवह ववेदों का जाननेवाला पौलस्त्य और विभवानामकर के लोक में प्रसिद्ध होंताहुआ ३१ फिर तिस विश्रवाका शील और गुणदेखके भरद्वाजमुनि अपनी कन्याको विवाह करदेते हुये ३५॥

तस्यांतुपुत्रःसंजज्ञेपौलस्त्याल्लोकसम्मतः।
पितृतुल्योवैश्रवणोब्रह्मणाचानुमोदितः॥३६॥

ददौतत्तपसातुष्टोब्रह्मातस्मैवरंशुभम्।
मनोभिलपितंतस्यधनेशत्वमखंडितम्॥३७॥

ततोलब्धवरःसोपिपितरंद्रष्टुमागतः।
पुष्पकेनधनाध्यक्षोब्रह्मदत्तेनभास्वता॥३८॥

नमस्कृत्वाथपितरंनिवेद्यतपसःफलम्।
प्राहमेभगवान्ब्रह्मादत्त्वावरमनिंदितम्॥३९॥

निवासायनमेस्थानंदत्तवान्परमेश्वरः।
ब्रूहिमेनियतस्थानंहिंसायवनकस्यचित्॥४०॥

विश्रवाअपितंप्राहकानामपुरीशुभा।
राक्षसानांनिवासायनिर्मिताविश्वकर्मणा॥४१॥

त्यक्त्वाविष्णुभयाद्दैत्याविविशुस्तेरसातलम्।
सापुरीदुःप्रधर्षान्यैर्मध्येसागरमास्थिता॥४२॥

फिर उसी में विश्रवामुनि से वैश्रवण और कुबेरनाम करके ब्रह्मा कीसम्म तिसे प्रसिद्धपुत्र होता हुआ जो गुणोंसें पिताकेतुल्य है ३६ फिर तिसकुबेर के तपकरके प्रसन्न हुये ब्रह्मा मनोभिलपित वरदेते हुये जिससे अखंडित देवताओकेंधनकी स्वामिताप्राप्तहुई ३७ फिर इसप्रकार ब्रह्माजीसे वरको प्राप्त हो कुबेर एकसमय ब्रह्माकादिया सूर्यतुल्य प्रकाशमान पुष्पक विमान के ऊपर चढिकै अपने पिता के दर्शन करनेको चावताहुआ ३८ फिर वहां आके पिताको नमस्कार करके जो तपका फल प्राप्तहुआथा सोसव सुनाके कुबेर यह कहने लगा कि हेपितः ब्रह्माजी प्रसन्नहो मुझको धनकास्वामी तो करते हुये ३७ परन्तु रहनेको स्थान कोई नहींदिया सो आप कृपा करके मेरे रहनेको स्वाये बतलाइये जहां किसी की बाधा न होवे अर्थात् जहां मेरे रहने से किसी

प्राणीको क्लेश न होय ऐसा नियतस्थान दीजिये ४० तो विश्रवामुनि अपने पुत्र कुवेरसे बोले कि हे पुत्र लंका नाम कर के एक बड़ी अच्छी पुरी है जो प्रथम राक्षसोंके निवासकरनेको विश्वकर्माने रचीथी ४१ सो दैत्य राक्षस तो विष्णुकी भयसे उसपुरीको त्योगिकै पाताल में प्रवेश करणये इससे समुद्रके मध्य में स्थित उस लकां पुरीमें किसीके जानेतककी शक्तिनहीं है और जब दैत्य लोग पातालको चलेगये हैं तबसे कोई उसमें नहीं बसा है ४२।

तत्रवासायगच्छत्वंनान्यैःसाधिष्ठितापुरा।
पित्रादिष्टस्त्वसौगत्वातांपुरीधनदोविशत्॥४३॥

सतत्रसुचिरंकालमुवासपितृसम्मतः।
कस्यचित्त्वथकालस्यसमालीनामराक्षसः॥४४॥

रसातलान्मर्त्यलोकंचचारपिशिताशनः।
गृहीत्वातनयांकन्यांसाक्षाद्देवीमिवश्रियम्॥४५॥

अपश्यद्धनददेवंचरंतंपुष्पकेणसः।
हितायचिंतयामासराक्षसानांमहामनाः॥४६॥

उवाचतनयांतत्रकैकसींनामनामतः।
वत्सेविवाहकालस्तेयौवनंचातिवर्त्तते॥४७॥

प्रत्याख्यानाच्चभीतैस्त्वंनवरैर्गृह्यसेशुभे।
सात्वंवरयभद्रंतेमुनिब्रह्मकुलोद्भवम्॥४८॥

स्वयमेवततःपुत्राभविष्यंतिमहाबलाः
ईदृशाःसर्वशोभाढ्याःधनदेनसमाःशुभे॥४९॥

इससे उसी लंका में तुमवासकरौ इसप्रकार पिता की आज्ञा से कुबेर लंका पुरीमें जाके प्रवेशकरता हुआ ४३ वह कुबेर बहुतकालतक पिताकी सम्मतिसे उसलंकापुरी में वासकरताहुआ फिर किसी समय में सुमालीराक्षस ४४ लक्ष्मी के तुल्य प्रकाशमान अपनी कन्याकाल को लैकेपाताल लोकसे आके मनुष्यलोक में बिच रताहुआ ४५ और उसके यह अभिलाषथी कि कोई अच्छावर मिलै तौ इसका विवाह करदेवों तबतक उसीसमय में पुष्पक विमान के ऊपर चढ़कै विचरते हुये कुबेर को वह राक्षस देखता हुआ फिर सब राक्षसों के हित के लिये उसने ऐसा विचार किया ४६ कि मेरी इस कन्या का भी ऐसा ही सूर्य तुल्य तेजस्वी पुत्र होता तौआच्छा रहा ऐसाविचारकर अपनी कैकसीकन्यासे बचनबोला कि हेवत्से तेराबिवाह समयप्राप्त होरहा है तेरी यौवन अवस्था भीवृथाव्यतीत हुई जाती है ४७ औरतेरे मनाकरनेकी भयसे कोई तुझको बरता नहीं अर्थात् तेरे रूप और तेजकरिकै लज्जित हुआ कोई तेरी प्रार्थना नहीं करता इससे तू आपही जाके ब्रह्मकुल में उत्पन्न जो विश्रवा मुनि तिसको अपना पतिरूप करके स्वीकारकर ४८ तौ तेरेभी ऐसेही कुत्रेरके तुल्य पुत्र होवेंगे ४६।

तथेतिसाश्रमंगत्वामुनेरग्रेव्यवस्थिता।
लिखंतीभुवमग्रेणपादेनाधोमुखीस्थिता॥५०॥

तामपृछन्मुनिःकात्वंकन्यासिवरवर्णिनि।

साब्रवीत्प्रांजलिर्ब्रह्मन्ध्यानेनज्ञातुमर्हसि॥५१॥

ततोध्यात्वामुनिःसवैज्ञात्यातांप्रत्यभाषत।
ज्ञातंतत्त्वाभिलषितंमत्तःपुत्रानभीप्स्यसि॥५२॥

दारुणायांतुवेलायामागतासिसुमध्यमे।
अतस्तेदारुणौपुत्रौराक्षसौसंभविष्यतः॥५३॥

साब्रवीन्मुनिशार्दूलत्वत्तोप्येवंविधौसुतौ।
तामाहपश्चिमयस्तेभविष्यतिमहामतिः॥५४॥

महाभागवतःश्रीमान्रामभक्तैकतत्परः।
इत्युक्त्वासातथाकालेसुषवेदशकन्धरस्॥५५॥

रावणविंशतिभुजंदशशीर्षंसुदारुणम्।
तद्रक्षोजातमात्रेणचचालचवसुन्धरा॥५६॥

फिर वह कैकसी वैसेही पिताकीआज्ञासे विश्रवामुनि के आगेखड़ी हुई और पांवके अग्रभागसे पृथ्वीको खोदती हुई नीची गरदन करके स्थित होती हुई ५० तौ विश्रवामुनिउस कैकसीसे पूछते हुये हे स्त्रियाओं में श्रेष्ठ किसकी तू कन्या है तो वह हाथ जोड़िकैमुनिसे बोलती हुई कि हे ब्रह्मन् ध्यान के प्रभाव से मेरा अभिप्राय जान लीजिये तो ५१ विश्रवामुनि ध्यान करके उसके हृदयका आशय जानिकै बोलते हुये कि तू मुझसे पुत्रोंकी इच्छा करती है यह तेरामनोरथ मैंने जाना ५२ और हे सुमध्य में जो तू घोरसंध्यासमय में पुत्र की इच्छा तू करके मेरे समीप प्राप्तहुई है इसकारण से बड़े घोरराक्षसदो पुत्र तेरेहोवैंगे ५३ तौवह कैकसी राक्षसी बोली कि हेमुनियोंमें श्रेष्ठतुमसे भी क्या ऐसे पुत्रहोना योग्य है तौफिर मुनिवाले कि जो तेरे तीसरा पुत्र होगा सो सो श्री राम भक्ति करके परिपूर्ण बड़ा धर्मात्मा महाभागवत श्रेष्ठमति होगा ५४ ऐसाजब मुनिने कहा फिर तिसके उपरांत जब पुत्रोत्पत्तिका समय प्राप्तहुआ तबकैकसी दशहै शिर जिसके और बीस भुजा जिसके ऐसा घोर राक्षस पुत्रको उत्पन्न करती हुई ५५ और जिस समय में वह पुत्र उत्पन्न हुआ उससमय में पृथिवी चलायमान हुई ५६॥

बभूवुर्नाशहेतूनिनिमित्तान्यखिलान्यपि।
कुंभकर्णस्ततजातोमहापर्वतसन्निभः॥५७॥

ततःशूर्प्पणखानामजातारावणसोदरी।
ततोविभीषणोजातःशांतात्मासौम्यदर्शनः॥५८॥

स्वाध्यायीनियताहारोनित्यकर्मपरायणः।
कुंभकर्णस्तदष्टात्माद्विजान्संतुष्टचेतसः॥५९॥

भक्षयत्ऋषिसंघांश्चविचचारातिदारुणः।

रावणोऽपिमहासत्वोलोकानांभयदायकः।
ववृधेलोकनाशायह्यामयोदोहिनामिव॥६०॥

रामस्त्वंसकलांतरस्थमभितोजानासिविज्ञानदृक्
साक्षीसर्वहृदिस्थितोहिपरमो

नित्योदितोनिर्मलः।
त्वंलीलामनुजाकृतिःस्वमहिमामायागुणैर्नाज्यसेलीलार्थं प्रतिचोदितोद्यभवतोवक्ष्यामिरक्षोद्भवम्॥६१॥

जानामिकेवलमनंतमचिन्त्यशक्तिंचिन्मात्रमक्षरमजंविदितात्मतत्वम्।
त्वांरामगढ़निजरूपमनुप्रवृत्तोमढोप्यहंभवदनुग्रहतश्चरामि॥६२॥

एवंवदन्तमिनवंशपवित्रकीर्त्तिःकुम्भोद्भवंरघुपतिःप्रहसन्बभाषे।
मायाश्रितं सकलमेतदनन्यकृत्वान्मत्कीर्त्तनंजगतिषापहरंनिबोध॥६३॥

इतिमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे उत्तरकांडे प्रथमः सर्गः १ ॥

औरसंसार के नाशहेतु उत्पात होतेहुये फिर तिसके उपरांत कुम्भकर्णपुत्र उत्पन्न होता हुआ जो पर्वत के समान वृद्धिको प्राप्तहुआ ५७ फिर तिसके उपरान्तशूर्पणखा नामकन्या उत्पन्न होती हुई जो लोक में रावणकी सहोदरभगिनी प्रसिद्ध है फिर तिसके उपरान्त शांत स्वभाव जिसका और जिसके दर्शन ही से सुखहोय ऐसा विभीषण उत्पन्न हुआ ५८ और जो विभीषण वेदों को नित्य पढ़ता है और परमित भोजन करता है और संध्योपासनादि नित्य कर्म में परायण है और दुष्टात्मा अति निर्द्धय और भयंकर कुम्भकर्ण तौ महात्मा ब्राह्मणों को भक्षणकरता विचरताहुआ ५९ और वडाबली लोकों को भयदायक रावण भी उससमय में कैसे वृद्धि को प्राप्तहुआ जैसे प्राणियों के देह में रोगबढै६० अब अगस्त्यजी यह कहते हैं हेराम तुम सब प्राणियों के हृदय में साक्षिरूपकरिकै स्थित नित्यप्रकाशमान विज्ञानदृष्टिसे सब जानते हौ तौ भी आप मनुष्यलीला करके मुझसे जैसे पूछते हौ तैसे आपका प्रेराहुआ राक्षसों की उत्पत्ति कहता हूं और हेराम असाधारण है महिमाजिसकी ऐसे आप माया गुणों से लिप्त नहीं होते ६१ और हेराम मूढ भी मैं हौं तौ भी आपके अनुग्रह से आपको द्वितीय और अनन्त और अचिन्त्यशक्ति और चिन्मात्र और अक्षर जानता हूं और मनुष्य नाटककरिकै छिपाया है वास्तवरूप जिसने ऐसे जो श्यामसुन्दर धनुर्बाणको धारणकरे आप तिनका उपासक जो मैं हौं सोभगवत्प्रवृत्तिमार्ग में बिचर रहा हौं ६२ ऐसेवचन कहतेहुये जो अगस्त्यजी तिनसे श्रीरामचन्द्र हँसिकरके बोले कि हे मुने जो तुमने वर्णन किया सो सब मायाश्रित ही अर्थात् माया ही को लेकरके है क्योंकि मैं सब धर्मों से रहित हौंऔर मेरा कीर्तन संसार में सब पापों का हरनेवाला है यही मेरे अवतार का मुख्य प्रयोजन जानो ६३॥

इत्यध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे उत्तरकांडे भाषाटीकायां प्रथमसर्गः १॥

श्रीरामवचनंश्रुत्वापरमानन्दनिर्भरः

मुनिःप्रोवाचसदसिसर्वे

पांतत्रशृण्वताम्।

अथवितेश्वरीदेवस्तत्रकालेनकेनचित्।
आययौपुण्यकारूढःपितरं द्रष्टुमं जसा॥१॥

दृष्ट्वातंकैकसीतत्रभ्राजमानंमहौजसम्।
राक्षसीपुत्रसामीप्यं गत्वा रावणमब्रवीत्॥२॥

पुत्रपश्यधनाध्यक्षंज्वलंतंस्वेनतेजसा।
त्वमप्येवंयथाभूयास्तथायत्नंकुरुप्रभो॥३॥

तच्छुत्वारावणोरोपात्प्रतिज्ञामकरोद्द्रुतम्।
धनदेनसमोवापिह्यधिकोवाचिरेणतु॥४॥

भविष्याम्यस्वमांपश्यसंतापंत्यजसुव्रते।
इत्युक्तादुष्करंकर्तुन्तपःसदशकंधरः॥५॥

आगमत्फलसिद्ध्यर्थंगोकर्णंतुसहानुजः।
स्वंस्वंनियममास्थायभ्रातरस्तेतपोमहत्॥६॥

आस्थितादुष्करंघोरंसर्वलोकैकतापनम्।
दशवर्षसहस्राणि कुंभकर्णोऽकरोत्तपः॥७॥

दो ।

सर्ग दूसरे तपोबल ब्रह्माको वश कीन्ह।
पुनिरावणसुरजीतिकैलोकसवनकेलीन्ह॥१॥

पुनिशठकालअधीन हैकरतविप्र अपकार।
तबजगदीशमनुष्यवैह्न्योसहितपरिवार॥२॥

अब श्रीमहादेवजी पार्वती से कथा वर्णनकरे हैं कि हे पार्वति अबअगस्त्य मुनि श्रीराम के वचनसुनि परमानन्द युक्तहो सभा में सबके सुनते श्रीरामसे वचन कहते हुये ९ हेराम व इसके अनन्तर कुबेर किसीसमय में पुष्पकविमा नपैचढ़कैपिता के देखने को आवता हुआ २ तबउससमय में कैकसी राक्षसी विश्रवा मुनिके समीप जाकरके प्रकाशमान बड़े पराक्रम युक्त कुबेर को देखके अपने पुत्र रावण के समीप जाके कहती हुई ३ कि हे पुत्र अपने तेजसे प्रकाशमान इस कुबेर को देखो और तुमभी जिससे ऐसे हो जावो ऐसायत्नकुछकरो ४ यह माताका वचनसुनिके रावण क्रोधकर यह प्रतिज्ञा करताहुया कि हे मातः इस कुबेर के समान अथवा इससे भी अधिक में थोड़े हीकाल में हो जाउँगा तू संताप कोत्यागदे यहवचन रावण माता सेकहिकै दुष्कर तपकरने को ५ अपने भाइयों करकेसहित गोकर्णतीर्थको आवता हुआवहां सब भाई अपने अपने नियम मेंस्थितहोकर ६ सबलोकों को तपाने वाला घोरतप करतेहुये तहां दशहजार वर्ष तक तौ कुम्भकर्ण तपकरताहुआ ७॥

विभीषणोषिधर्मात्मासत्यधर्मपरायणः।
पञ्चवर्षसहस्राणिपादेनैकेनवस्थिवान्॥८॥

दिव्यवर्षसहस्रं तुनिराहारोदशाननः।
पूर्णेवर्षसहस्त्रेतु शीर्षमग्नौजुहावसः॥९॥

एवं वर्षसहस्राणिनवतस्यातिचक्रमुः।
अथवर्षसहस्रे तुदशमेदशमंशिरः॥१०॥

छेत्तुकासस्यधर्मात्माप्राप्तश्चाथप्रजप।

तिः।
वत्सवत्सदशग्रीवप्रीतोस्मीत्यभ्यभाषत॥१०॥

वरंवरयदास्यामियत्तेमनसिकांक्षितम्।
दशग्रीवोपितच्छ्रुत्वाप्रहृष्टेनांतरात्मना॥११॥

अमरत्वंवृणोमीशवरदोयदिमेभवान्।

सुपर्णनागयक्षाणांदेवतानांतथासुरैः।
अबध्यत्वंतुमेदेहितृणभूताहिमानुषाः॥१२॥

तथास्त्वतिप्रजाध्यक्षःपुनराहदशाननम्।
अग्नौहुतानिशीर्षाणियानितेसुरपुंगव॥१३॥

भविष्यंति यथापूर्वमक्षयाणिचसत्तम॥१४॥

और सत्य धर्म में परायण धर्मात्मा जो विभीषण सो एक पांउकर खडे होके पाँचहजार बर्षतक तप करता हुआ ८और देवताओं की हजारवर्षतक रावण निराहार होके तप करताहुआ जब हजारवर्ष व्यतीत होगये तो अपने शिरों को काटि काटि अग्निमें हवन रावण करताहुआ इसप्रकार नौहजारवर्ष व्यतीत हुये ९ जब दशहजारहें वर्ष में रावण अपने दशवें शिरको काटने की इच्छा करता हुआ तभी धर्मात्मा जो ब्रह्मा सो रावण के समीप बरदेने को प्राप्तहुये और यह कहते हुये कि हे वत्स रावण मैं तेरे तपसे प्रसन्न हौं१० और फिर ब्रह्माजी यह कहते हुये कि हे रावण जो वर तुझको अभीष्ट होय अर्थात् जो मन में स्थित होवै तिसको मांगु में देवोंगा तौ रावण यहवचन सुनिकै बड़े आनन्दयुक्त चित्तसे बोला ११ कि हे ईश जो आप मुझको वरदेनेको उपस्थित हो तो अमरपदवी मुझको दीजिये जिससे कभी सुपर्ण अर्थात् गरुडं औ नाग औ यक्ष और देवता इनकरके मैं अवय होवों अर्थात् ये कोई मुझको मार नसकें और मनुष्यतो तृण के समान हैं १२ तौ ब्रह्मा तथास्तु अर्थात् तैसे ही होगा यह कहिकै फिर रावण से बोले कि हे असुर श्रेष्ठ जे शिर तूने अग्निमें हवन कियेहैं १३ तेजैसे पहिलेये तसेही होजायेंगे और अक्षय होवेंगे अर्थात् कोईकाटेगा तोभी फिर उत्पन्न हो जाया करेंगे १४ ॥

एवमुक्त्वाततोरामदशग्रीवंप्रजाप्रतिः।
विभीषणमुवाचेदंप्रणतंभक्तवत्सलः

१५

विभीषणत्वयावत्सकृतंधर्मार्थमुत्तमम्
तपस्ततोवरंवत्सवृणीष्वाभिमतहितम्

१६

विभीषणोपितंनत्वाप्रांजलिर्वाक्यमब्रवीत्।
देवमेसर्वदाबुद्धिर्धर्मेतिष्ठतुशाश्वती।

मारोचयत्वधर्मेमेबुद्धिःसर्वत्रसर्वदा

१७

ततःप्रजापतिःप्रीतोविभीषणमथाब्रवीत्।
वत्सत्वंधर्मशीलोसितथैवचभविष्यसि

१८

अयाचितपितेदास्येह्यमरत्वंविभीषण।
कुम्भकर्णमथोवाचवरंवरयसुव्रत

१९

वाण्याव्याप्तोथतंप्राहकुम्भकर्णःपितामहम्।
स्वप्स्यामिदेवषण्मासान्दिनमेकं

तुभोजनम्॥२०॥

एवमस्त्वितितंप्राहब्रह्मादृष्ट्वादिवौकसः।
सरस्वतीचतकान्निर्गताप्रययौदिवम्॥२१॥

हे राम इसप्रकार ब्रह्माजी रावणसे कहिकै अबअगाड़ी हाथजोड़े नम्र खडा हुआजोविभीषण तिससे यह कहते हुये १५ कि हे वत्स विभीषण जिससे तूनेधर्मही केअर्थ उत्तमतप किया है इससे जोतेरी इच्छाहोय सोतूंमांग १६ तौविभीषणब्रह्माको प्रणाम करकेहाथ जोड़के वचनबोला कि हेदेव सबकाल में मेरी बुद्धिधर्मही में स्थित निरन्तर रहै और मेरी बुद्धिको अधर्मकभी नरुचै अर्थात की तरफ कभी बुद्धिनजावै १७ तब ब्रह्मा प्रसन्नहो विभीषण से बोले कि हे वत्सतूसदा धर्म शीलही होगा अर्थात् तेरीबुद्विकभी अधर्म में नहीं जायगी १८ और हे विभीषणविना मांगेभी मैं तुझको अमरपदवी देता हौं अब इसके अनन्तर कुम्भकर्ण से ब्रह्माजी कहते हुये कि हे शोभनव्रततूवर मांगु १९ तौ उससमय देवताओंकी प्रार्थनाकी हुई सरस्वती कुम्भकर्णकी बुद्धिमें प्रविष्टहुई इससे कुम्भकर्ण ब्रह्मासे यहवर मांगताहुआ कि हेदेव छः महीने तौभीसोयाकरों और एकदिन भोजन कियाकरौं२० तोब्रह्मा देवताओंके तरफदेखके उस कुम्भकर्णसे वोले कि ऐसे ही होगा तबतक सरस्वती उसकुम्भकर्णके मुखसेनिकलि कै स्वर्गको जाती हुई २१ ॥

कुम्भकर्णस्तुदुष्टात्माचिन्तयामासदुःखितः।
अनभिप्रेतमेवस्यात्किंनिर्गतमहोविधिः॥२२॥

सुमालीवरलब्धांस्ताज्ञात्वा पौत्रान्निशाचरान्।
पातालान्निर्भयःप्रायात्प्रहस्तादिभिरन्वितः॥२३॥

दशग्रीपरिष्वज्यवचनंचेदमब्रवीत्।
दिष्ट्यातेपुत्रसंवृत्तोवांछितोमेमनोरथः॥२४॥

यद्भयाच्चवयंलंकांत्यक्त्वायातारसातलम्।
तद्गतंनोमहाबाहोमहद्विष्णुकृतंभयम्॥२५॥

अस्माभिःपूर्वमुषितालंकेयंधनदेनते।
भ्रात्राक्रांतामिदानींत्वंप्रत्यानेतुमिहार्हसि॥२६॥

साम्नावाथवलेनापिराज्ञांबन्धुःकुतःसुहृत्।
इत्युक्तोरावणःप्राहनार्हस्येवंप्रभाषितुम्॥२७॥

वित्तेशोगुरुरस्माकमेवंश्रुत्वात्तमब्रवीत्।
प्रहस्तःप्रश्रितंवाक्यंरावदशकंधरम॥२८॥

फिर दुष्टात्मा कुम्भकर्ण दुःखितहो अपने मनमें यह विचार करता हुआकि बिना मनोरथ किया हुआ वरमेरे सुखसे यह कैसे निकलगया बड़े कष्टकी वार्ताहुई और प्रारब्ध किसीतरहनहीं उल्लंघन की जाती है २२ तबतक सुमाली राक्षसअपनी कन्याके पुत्रोंको ब्रह्मासेवरप्राप्तहुआ है यह निश्चय करके निर्भय हो प्रहस्नादिक राक्षसोंकर के सहित पातालसे निकलता हुआ २३ और रावण

को हृदयसे लगाके यहबोला कि हेपुत्र यहबड़ा आनन्दहुआ जोमेरा मनोरथ थासो तुमने वरप्राप्तहोके पूराकिया २४ और जिसभयसेहमसब राक्षसलोग लंकाको त्यागके पातालको चलेगयेथे वह विष्णु से बड़ा भयहमारा अबदूर हुआ २५ और यहलंकापुरी पहिले हमसब राक्षसोंकी बसाई हुई है और अबतुम्हारे भाई कुबेरने ले ली है इससे इसलंकापुरीको कुबेर से लै लेना चाहिये २६ चाहे अपनी राजीसे तुम्हारा भाई तुमकोदेदेवै चाहे तुमजबरदस्ती से छीनले ओऔर राजाओं का क्या कभी भाई मित्रहोता है ऐसाजब सुमालीनेकहातोरावण बोला ऐसा आपको कहना उचित नहीं है २७ क्योंकि कुबेर मेरा बड़ा भाई पिता के समान है तब यह रावण का वचन सुनि के प्रहस्त राक्षसनम्रता पूर्वक रावण से बोला २८ ॥

शृणुरावणयत्नेननेवत्वंवक्तुमर्हसि।
नाधीताराजधर्म्मास्तेनीतिशास्त्रंतथैवच॥२९॥

शूराणांनहिसौभ्रात्रं शृणुमेवदतःप्रभो।
कश्यपस्यसुतादेवाराक्षसाश्च महाबलाः॥३०॥

परस्परमयुध्यंतत्यक्त्वासौहृदमायुधैः।
नैवेदानींतनंराजन्वैरंदेवैरनुष्ठितम्॥३१॥

प्रहस्तस्यवचःश्रुत्वादशग्रीवोदुरात्मनः।
तथेतिक्रोधताम्राक्षस्त्रिकुटाचलमन्वगात्॥३२॥

दूतंप्रहस्तंसंप्रेष्यनिष्काश्यधनदेश्वरम्।
लंकामाक्रम्यसचिवैराक्षसैःसुखमास्थितः॥३३॥

धनदःपितृवाक्येनत्यक्त्वालंकांमहायशाः।
गत्वाकैलासशिखरंतपसातोषयच्छिवम्॥३४॥

तेनसख्यमनुप्राप्यतेनैवपरिपालितः।
अलकांनगरीतंत्रनिर्ममेविश्वकर्मणा॥

दिक्पालत्वंचकारात्रशिवेनपरिपालितः।
रावणोराक्षसैःसार्द्धमभिषिक्तःसहानुजैः॥३५॥

कि हे रावण सावधान हो मेरा वचन सुनिये और फिर आप उसका उत्तर दीजिये मुझ को विदित होता है कि अभी आपने राज धर्म नहीं पढ़े हैं और न कुछ राज नीति को जानते हो २९ और हे स्वामिन शूरों की कभी भाइयों के साथ प्रति नहीं होती है सो प्रकार मुझसे सुनिये कश्यपजी के पुत्र देवता और राक्षस दोनों तरह के बड़े बलवान् होते हुये ३० ते परस्पर प्रीति को त्याग के शस्त्रों से घोर युद्ध करते हुये इससे कुछ अभी देवताओं का और राक्षसों का बेर हुआ होय सो नहीं है पहिले से ही चला आता है २१ अब यह दुष्टात्मा प्रहस्त के बचन सुनि कै रावण की भी बुद्धि फिर जाती हुईं और क्रोध करके रक्तनेत्र हो जहां कुबेर का स्थान त्रिकूट पर्वत पै था वहां जाता हुआ ३२ और वहां जाके प्रहस्त राक्षस को दूत बना के कुबेर के पास

भेजि कै और कुबेर को लंकापुरी से निकाल के फिर राक्षसों कर के सहित पारायण सुखपूर्वक वास करता हुआ ३३ और कुबेर पिता की आज्ञा से लंकापुरी को त्यागि के कैलास पर्वत पैं जाके तप करके महादेवजी को प्रसन्न करता हुआ ३४ फिर महादेव जी के साथ मित्रता कर श्री महादेवजी के सहाय से रक्षा को प्राप्त कुबेर कैलास पर्वत पैविश्वकर्मा के द्वारा अलका नाम पुरी का निर्माण कराता हुआ ३५ ॥

राज्यंचकारासुराणांत्रिलोकींवावयन्खलः।
भगिनींकालखंजायददौविकटरुपिणीम्॥३६॥

विद्युज्जिह्वायनाम्नासौमहामायीनिशाचरः।
ततोमयोविश्वकर्माराक्षसानांदितेः सुतः॥३७॥

सुतांमन्दोदरींनास्नाददौलोकैकसुंदरीम्।
रावणायपुनःशक्तिममोघांप्रीतिमानसः॥३८॥

वैरोचनस्यदौहित्रींवृत्रज्वालेतिविश्रुताम्।
स्वयंदत्तःमुदवहत्कुम्भकर्णयरावणः॥३९॥

गन्धर्वराजस्यसुतांशैलूषस्यमहात्मनः।
विभीषपस्यभार्यार्थधर्मज्ञांसमुदावहन्॥४०॥

सरमांनामशुभगांसर्वलक्षणसंयुताम्।
ततोमन्दोदरीपुत्रंमेघनादमजीजनत्॥४१॥

जातमात्रस्तुयोनादमेववत्प्रसुमोचह।
ततःसर्वेब्रुवन्मेघनादोयमितिचासकृत्॥४२॥

और महादेव से रक्षा को प्राप्त हो कुबेर अपनी दिशा की रक्षा करता हुआ और भाइयों करके सहित रावण लंका के राज्य में राक्षसों करके अभिषेक को प्राप्त हो तीनों लोकों को दुःख देताहुआ दुष्ट असुरों का राज्य करताहुआ और फिर रावण भयंकर हैं रूप जिसका ऐसी अपनी शूर्पणखा भगिनी को काल खंज के वंश में उत्पन्न जो ३६ बड़ा मायावी विद्युज्जिह्न राक्षस तिसके अर्थ देता हुआ अर्थात् उस के साथ शूर्पणखा का विवाह कर देता हुआ फिर तिसके मनन्तर राक्षसीका विश्वकर्मा अर्थात् कारीगर दितिकापुत्रजो मय दैत्य सो ३७ सब लोकोंमें एकसुन्दरी जो मन्दोदरी अपनी कन्या तिसको रावणके देता और प्रसन्न मनसे एक अमोवशक्तिको देता हुआ ३८ फिरतिस के उपरान्त बलिक दोहती वृत्रज्वाला नाम से प्रसिद्ध और पिताने याके आपही जिस को दिया तिस के साथ कुम्भकर्णका विवाह रावण करता हुआ ३९ और महात्मा गन्धर्वराज शैलून की कन्या जो बड़े धर्म की जाननेवाली और सौनाग्य के चिह्नों करके युक्त ४० और सरमा जिस का नाम था तिस के शाय विभीषण का विवाह रावण करताहुआ फिर मन्दोदरी प्रथम मेघनाद नाम पुत्र की उत्पन्न करती हुई ११ जो उत्पन्न होते ही मेघके तुल्य शब्दको हुतिसमे सब राक्षस उस को मंबनाद नाम से पुकारते हुये ४२ ॥

कुम्भकर्णस्ततः प्राहनिद्रामांबाधते प्रभो।
ततश्च कारयामासगुहांदीर्घासुविस्तराम्॥४३॥

तत्र सुष्वापमूढात्मा कुम्भकर्णोविघूर्णितः।
निद्रिते कुम्भकर्णे तु रावणो लोकरावणः॥४४॥

ब्राह्मणान्ऋषिमुख्यांच देवदानवकिन्नरान्।
देवश्रियोमनुष्यांश्चनिजघ्ने समहोरगान्॥४५॥

धनदोपिततः श्रुत्वारावणस्याक्रमं प्रभुः।
अधर्ममाकुरुष्वेतिदूतवाक्यैर्न्यवारयत्॥४६॥

ततः क्रुद्धोदशग्रीवोजगामधनदालयम्।
विनिर्जि त्यधनाध्यक्षं जहारोत्तमपुष्पकम्॥४७॥

ततो यमंचवरुणंनिर्जित्य समरेसु रः।
स्वर्गलोकमगात्तूर्णं देवराजजिघांसया॥४८॥

ततोऽभवन्महद्युद्ध मिंद्रेणसहदैवतैः।
ततोरावणमभ्येत्यवबंधत्रिदशेश्वरः॥४६॥

फिर कुम्भकर्ण रावणसे यहबोला कि हे प्रभो निद्रा मुझको बहुत बाधा किया करती है तो रावण बड़ी लम्बी चौड़ी एकगुहा बनवाता हुआ ४३ फिर मूढात्मा कुम्भकर्ण उसमें पड़ा सोचता हुआ और कुम्भकर्ण जब निद्राको प्राप्त हुआतो लोकों का रुवाने वालारावण ४४ ब्राह्मण और ऋषिलोग और देवता और दानव और किन्नर और मनुष्य और नाग इनसबों को मारता हुआ और इनकी सम्पदाओं कों और स्त्रियाओं को हरताहुआ ४५ और कुबेर रावण के ऐसे अन्यायको सुनिकै दूतकेद्वारा खबर भेजता हुआ कि ऐसा दुराचार तुझको नहीं करना चाहिये ४६ फिर उसदूत के बचनसुनिकै क्रोधयुक्तरावण अलकापुरी में जाके कुबेरको जीत के उनके पुष्पक विमानको हरता हुआ ४७ तिसके उपरान्त रावण संग्राममें यमराज और बरुण इनको जीत केइन्द्र के जीत ने की इच्छासे शीघ्र ही स्वर्गलोक को जाता हुआ ४८ फिर वहां स्वर्ग में देवताओं करके सहित इन्द्रके साथ रावण का बड़ा घोर संग्रामहुआ फिर उस संग्राम में इन्द्र रावणको बांध लेता हुआ ४९॥

तच्छ्रुत्वा सहसागत्य मेघनादः प्रतापवान्।
कृत्वाघोरं महद्युद्धं जित्वात्रिदशपुंगवान्॥५०॥

इन्द्रंगृहीत्वाबध्वासौमेघनादो महाबलः।
मोचयित्वा तु पितरं गृहीत्वेंद्रययौपुरम्॥५१॥

ब्रह्मातुमोचयामास देवेंद्र मेघनादतः।
दत्त्वावरान्बहूंस्तस्मै ब्रह्मास्वभवनं ययौ॥५२॥

रावणोविजयी लोकान्सर्वान्जित्वा क्रमेण तु।
कैलासंतोलयामास बाहुभिः परिघोपमैः॥५३॥

तत्रनंदीश्वरेणैव शप्तोयं रावणेश्वरः।
वानरैर्मानुषैश्चैव नाशंगच्छेति कोपिना॥५४॥

शप्तोप्यगणयन् वाक्यं ययोहैहयपत्तनम्।

तेनबद्धो दशग्रीवः पुलस्त्येन विमोचितः॥५५॥

ततोपि बलमासाद्यजिघांसुर्हरिपुंगवम्।
धृतस्तेनैव कक्षेणबालिना दशकंधरः॥५६॥

यहवात्तीकोबड़ा प्रतापी मेघनाद सुनके शीघ्रही स्वर्गमें आके और बड़ा घोरयुद्ध करके श्रेष्ठ श्रेष्ठ देवताओंको जीति कै ५० महाबली जोमेघनाद सो अपने पिताको छुड़ाके और इन्द्रको पकड़ि मुसकबांधिकै अपने रथ में बांधि लंकापुरी को ल्याताहुत्रा ५१ फिर ब्रह्माजी आके मेघनादको बहुत से बर देके इन्द्रको छुड़वाके फिर अपने स्थानको आतेहुये ५२ अब रावण भी इसप्रकार सबलोकोंको क्रमले जीतिकै सवजगह विजयको प्राप्तहो परिघदण्ड समान अपनी भुजाओं करके कैलास पर्वतको उठाकेतोलता हुआ अर्थात् अजमाता हुआ५३ फिर वहां नन्दीश्वर जो महादेवजीका पार्षद तिसने क्रोध करके रावण कोशाप दिया कि तू वानर और मनुष्योंसे नाश को प्राप्त हो अव यहां शाप का कारण कैलास का उठाना ही सूचित होता है और वाल्मीक्यादि रामायण के देखने से तोनन्दीश्वरका वानर का मुख देख के रावण हँसा इससे शाप को प्राप्त हुआ यह विदित होता है ५४ अब इसप्रकार रावण शापको भी प्राप्त हुआ परन्तु उसको कुछ गिना नहीं अर्थात् ऐसा कौन पृथ्वी में वानरवा मनुष्य है जो मेरा जय कर सके इसगर्व्वसे रावण नन्दीश्वरजी के वाक्यमें विश्वास न करता हुआ और तभी कार्त्तवीर्य राजा के नगर में रावण युद्ध करने को गया वहां उस राजा ने इसरावण को बांधिकै अपने कारागृह में डाल दिया फिर पुलस्त्यजीने छुड़वादिया ५५तौभी अपने बल के गर्वसे वाली के मारने को रावण किष्किंधा नगरी को गया वहां बालीने रावण को बगल में दवालिया ५६॥

भ्रामयित्वा तु चतुरःसमुद्रान्रावणं हरिः।
विसर्जयामासततस्तेन सख्यंचकारसः॥५७॥

रावणः परमप्रीत एवं लोकान्महाबलः।
चकार स्ववशेरामबुभुजे स्वयमेवतान्॥५८॥

एवं प्रभावोराजेंद्र दशग्रीवः सहेंद्रजित्।
स्वयाविनिहतः संख्ये रावणो लोकरावणः॥५६॥

मेघनादश्च निहतो लक्ष्मणेन महात्मना।
कुम्भकर्णश्च निहतस्त्वया पर्वतसन्निभः॥६०॥

भवान्नारायणः साक्षाज्जगतामादिकृद्विभुः।
त्वत्स्वरूपमिदं सर्वं जगत्स्थावरजंगमम्॥६१॥

त्वन्नाभिकमलोत्पन्नो ब्रह्मा लोकपितामहः।
अग्निस्ते मुखतो जातो वाचा सह रघुत्तम॥६२॥

बाहुभ्यांलोकपालौघाश्चक्षुर्भ्यां चंद्रभास्करौ।
दिशश्चविदिशश्चैव कर्णाभ्यां तेसमुस्थिताः॥६३॥

अब इसप्रकार बाली काँख में दबाये हुये रावणको घुमाता हुआ चारों समुद्रों में गया फिर आप ही रावण को छोड़ दिया तो रावण उस बाली के संग मित्रता करता हुआ ५७ इस प्रकार परम प्रसन्न जो महाबली रावणसो अपने वशमें सब लोकों को करके आप ही सब लोकों को भोगता हुआ ५८ हे राजेन्द्र ऐसा प्रभावयुक्त इन्द्रजितसहित रावण हुआसो रावण आपने संग्राम में मारा ५९ और मेघनाद लक्ष्मण ने मारा और पर्वततुल्य जो कुम्भकर्ण सो भी आपने मारा ६० और सब लोकों के रचनेवाले और सर्वव्यापक आप साक्षातनारायण हौ और सब स्थावर जंगम जगत् तुम्हारा ही स्वरूप है ६१ और तुम्हारे ही नाभिकमलसे लोक पितामह ब्रह्मा उत्पन्न हुआ और हे रघूत्तमवाणी करके सहित अग्नि तुम्हारे मुखसे उत्पन्न हुआ है ६२ और तुम्हारी भुजाओं से सब इन्द्रादिक लोक पाल उत्पन्न हुये और तुम्हारे नेत्रोंसे चन्द्रमा औसूर्य उत्पन्न हुये और दिशा औ बिदिशा तुम्हारे कानोंसे उत्पन्न हुई हैं ६३॥

घ्राणात्प्राणः समुत्पन्नश्चाश्विनौ देवसत्तमौ।
जंघाजानूरुजघनाद्भुवर्लोकादयोऽभवन्॥६४॥

कुक्षिदेशात्समुत्पन्नाश्चत्वारः सागराहरेः।
स्तनाभ्यामिंद्रवरुणौबालखिल्याश्चरेतसः॥६५॥

मेढ्राद्यमो गुदान्मृत्युर्मन्योरुद्रस्त्रिलोचनः।
अस्थिभ्यः पर्वताजाताः केशेभ्योमेघसंहतिः॥६६॥

ओषध्यस्तवरोमभ्यो नखेभ्यश्च खरादयः।
त्वंविश्वरूपः पुरुषोमायाशक्तिसमन्वितः॥६७॥

नानारूप इवाभासिगुणव्यतिकरेसति।
त्वामाश्रित्यैवविबुधाः पिवंत्यमृतमध्वरे॥६८॥

त्वया सृष्टमिदं सर्वं विश्वं स्थावरजंगमम्।
त्वामाश्रित्यैवजीवंति सर्वेस्थावरजंगमाः॥६६॥

त्वद्युक्तमखिलं वस्तु व्यवहारेऽपिराघव।
क्षीरमध्यगतं सर्पिर्यथाव्याप्याखिलं पयः॥७०॥

और तुम्हारे घ्राण इन्द्रिय सेसबलोकोंका प्राण प्रकट हुआ और अश्विनी कुमार दोनों देव उत्पन्न हुये और तुम्हारी जंघा औजानु प्र ऊरू औजघन इन अंगों से अन्तरिक्षादि लोक उत्पन्न हुये हैं ६४ औ हे हरे तुम्हारी कोपि से चारों समुद्र उत्पन्न हुये और तुम्हारे दोनों स्तनों से इन्द्र औ वरुण उत्पन्न हुये और तुम्हारे वीर्य से बालखिल्या नामकरके सांठिहजार ऋषि उत्पन्न हुये ६५ और तुम्हारे मेढ्र्इन्द्रिय से अर्थात् लिंग से यमराज उत्पन्न होते हुये और गुदा से मृत्यु उत्पन्न हुई और तुम्हारे क्रोधसे रुद्र उत्पन्न हुये और तुम्हारे हाड़ों से पर्वत उत्पन्न होते हुये और केशों से मेघ उत्पन्न हुये ६६ और तुम्हारे रोमों से औषधी उत्पन्न हुई और तुम्हारे नखों से लोह आदि कठोर पदार्थ उत्पन्न हुये

इस प्रकारअपनी माया शक्ति करके संयुक्त आप विरारूप करके बहुत रूप के प्रतीयमान हो रहे हो ६७ और अपनी मायाके सत्त्वादिक गुणोंके न्यूनाधिक्य भाव करके परस्पर मिलने से ब्रह्मा विष्णु रुद्रादि रूपसे तुमहीं प्रकाशित हो ही भार अग्निरूप जो तुमहौतिसके द्वारा सवदेवता यज्ञमें हविरूप अमृत का पान करते है ६८ और है राम स्थावर जंगम भेद करके सवजगत् आपही ने रचाहै और तुम्हारेही आश्रयसेसबप्राणी जीवते हैं ६९ और हेराम व्यवहार में भी सब वस्तु तुम्हीं करके युक्तदेखपड़ती है अर्थात् तुम्हारी सत्तासे न्यारी सत्तकिसी की नहीं है जैसे सब दुग्ध के अंशोंको प्राप्तकर के घृत दुग्धमें रहता है ऐसेही सबको व्याप्त करके आप स्थित हौ७०॥

त्वद्भासाभासतेकीदिर्नत्वंतेनावभाससे।
सर्वगंनित्यमेकंत्वांज्ञानचक्षुर्विलोकयेत्॥७१॥

नाज्ञानचक्षुस्त्वां पश्येदंधदृक्भास्करं यथा।
योगिनस्त्यांविचिन्वंतिस्वदेहे परमेश्वरम्॥७२॥

अतन्निरसनमुखैर्वेदशीर्षैरहर्निशम्।
त्वत्पादभक्तिलेशेनगृहीतायद्वियोगिनः॥७३॥

विचिन्वंतोहि पश्यंतिचिन्मात्यांनचान्यथा।
मया प्रलपितं किंचित्सर्वज्ञस्वतवाग्रतः॥७४॥

क्षंतुमर्हसि देवेशतवानुग्रहभागहम्।
दिग्देशकालपरिहीनमनन्यमेकंचिन्मात्रमक्षरमजंचलनादिहीनं।
सर्वज्ञमीश्वरमनंनगुणव्युदस्तमायंभजे रघुपतिं भजतामभिन्नम्॥७५॥

इत्यध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे उत्तरकाण्डे द्वितीयस्सर्गः॥२॥

और तुम्हारे प्रकाशकरके सूर्य अग्नि चन्द्र तारागणादि प्रकाश करते हैं और तुम सूर्यादि करके नहीं प्रकाशितहो और ज्ञानदृष्टिपुरुषतुमको सर्व व्यापक नित्य अद्वितीय रूप से देखसक्ता है ७१ और अज्ञान दृष्टि कभी नहीं देखसक्ता जैसे अन्यपुरूष सूर्य्यको नहीं देखसक्ता और योगीजन अपने देहही में परमेश्वर रूप जो तुमहौतिसको ढूंढते हैं ७२ और योगीजन भी आपके चरणारविंदके भक्तिलेशकरके युक्त जो होवे ७३ तभी जड़वर्गको त्याग करतेहुये नेति नेति यह उपनिषद् में प्रसिद्ध उपायकरके तुमको ढूंढते हुये विद्रूप मात्र तुमको देखते है और प्रकारसे तो कभी नहीं देख सक्ते हें और हे भगवन् सर्वज्ञ जो आप हैंतिन के आगे जो कुछ मैंने कहा ७२ तिलको आप क्षमा करिवेयोग्य हैं क्योंकि मेरी बुद्धि आपहीके अनुग्रह से इस विषय में प्रवृत्त हुई है जो देश काल व्यावहार सेरहित और जो सजातीय भादि भेदकर के शून्य है और जो एक है औं चैतान्यमात्र है औनाश रहित हैऔजो कभी उत्पन्न नहीं होता औ चलनादि धर्मोंसे रहित हैऔजो सर्वज्ञ है औ जो ईश्व रहै और जिसके अनन्त

गुण हैं औजिसने अपनी चिच्छक्तिकरके माया के दोषदूरकरे हैं औजो भजन करनेवालेको अभेद बुद्धिके विषय हैं अर्थात् अपना से अभिन्नरूप करके जिस को देखते हैं ऐसा जो रामतिसका मैं भजन करताहौं७५॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे उत्तरकाण्डे भाषाठीकायां द्वितीयः सर्गः॥२॥

श्रीराम उवाच॥

बालिसुग्रीवयोर्जन्म श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः।
रवींद्रौवानराकारोजज्ञात इति नः श्रुतः॥१॥

अगस्त्य उवाच॥

मेरोः स्वर्णमयस्याद्रेर्मध्यशृंगे मणिप्रभे।
तस्मिन्त्सभास्तेविस्तीर्णा ब्रह्मणः शतयोजना॥२॥

तस्यांचतुर्मुखः साक्षात्कदाचिद्योगमास्थितः।
नेत्राभ्यां पतितं दिव्यमानंद सलिलंबहु॥३॥

तद्गृहीत्वाकरेब्रह्माध्यात्वाकिंचित्तदत्यजत्।
भूमौ पतितमात्रेण तस्माज्जातो महाकपिः॥४॥

तमाहद्रुहिणोवत्स किंचित्कालंवसात्रमे।
समीपे सर्वशोभाढ्ये ततः श्रेयो भविष्यति॥५॥

इत्युक्तोन्यवसत्तत्रब्रह्मणावानरोत्तमः।
एवंबहुतिथेकाले गतेऋक्षाधिपः सुधीः॥६॥

कदाचित्पर्यटन्नद्रौफलमूलार्थमुद्यतः।
अपश्याद्दिब्यसलिलां वापींमणिशिलान्विताम्॥७॥

दो० सर्ग तीसरे प्रकट भेबाली औ सुग्रीव।
राममहातममुनिकह्योरावण से अनमीव॥१॥

अब महादेवजी पार्वती से कथा बर्णन करे हैं हे पार्वती अब राम अगस्त्य जीसे फिर पूछते हुये हे भगवन् बालि सुग्रीव के जन्म के श्रवण करने को मैं इच्छा करता हूं और सूर्य और इन्द्र ये वानर के रूप में होते हुये यह हमने सुना है सो कैसे हुये तिसको आप कृपाकरके कहिये १ तब अगस्त्यजी कहते हुये कि हेराम सुवर्ण का जो सुमेरु पर्वत तिसका जो बीचका मणियों की कान्तियों करके युक्तशृंग तिसके ऊपर सौ योजनका है विस्तार जिसका ऐसी एक ब्रह्माजीकी सभा है २ उस सभा में एक समय में ब्रह्मा योगाभ्यास में स्थित होते हुये उससमय में ब्रह्माजीके नेत्रों से आनन्द का जल बहुत सा गिरता हुआ ३उस जलको ब्रह्मा हाथ में लेकर ध्यान करके कुछ उसमें से पृथिवी में डाल देते हुये फिर वह जल पृथ्वी में गिरतेही एक बड़ा भारी वानर हो गया ४ फिर उस वानर से ब्रह्मा बोले कि हे वत्स कछु काल मेरे समीप शोभायमान इस पर्वत के शृंग पै तुम बास करो तो तुम्हारा कल्याण होगा ५ ऐसा जब ब्रह्माजी ने कहा तो वह बानर वहां वास करता हुआ ऐसे बहुत समय व्यतीत हो गया तो श्रेष्ठबुद्धि ऋक्षों का स्वामी वह वानर ६ किसी

समय में उद्योगयुक्त हुआ उस पर्वतपै फल मूलादिकों के लिये पर्यटनकरताहुआ फिर निर्मलहैदिव्यजल जिसमें और मणियों से जटित ऐसी एक बाउलीको देखता हुआ ७॥

पानीयं पातुमागच्छत्तत्रछायामयंकपिं।
दृष्ट्वाप्रतिकपिंमत्वा निपपातजलांतरे॥८॥

तत्रादृष्ट्वाहरिंशीघ्रं पुनरुत्प्लुत्यवानरः।
अपश्यत्सुन्दरीरामात्मानं विस्मयं गतः॥९॥

ततः सुरेशो देवेशं पूजयित्वा चतुर्मुखम्।
गच्छन्मध्याह्नसमये दृष्टानारीमनोरमाम्॥१०॥

कंदर्पशरविद्धांगस्त्यक्तवान्वीर्यमुत्तमम्।
तामप्राप्यैवतद्बीजंवालदेशेपतद्भुवि॥११॥

बालीसमभवत्तत्रशक्रतुल्यपराक्रमः।
तस्यदत्त्वासुरेशानःस्वर्णमालांदिबंगतः॥१२॥

भानुरप्यागतस्तत्र तदानीमेवभामिनीम्।
दृष्ट्वाकामवशीभूत्वाग्रीवादेशसृजन्महत्॥१३॥

बीजंतस्यास्ततः सद्योमहाकायोऽभवद्धरिः।
तस्यदत्त्वाहनूमतं सहायार्थंगतोरविः॥१४॥

फिर उस बाउलीमें जब पानीपीनेको आया तब अपना प्रतिविम्बवानराकार देखके और दूसरेवानरको वहां स्थितजानिकै उसके पकड़ने को उस जल में कूदपड़ा ८ फिर उस जलमें वानर तो कोई थाहीनहीं जो मिलैइससे कुछढूंढके जब बाहर निकला तौसुन्दरस्त्री रूप अपनाको देखके बड़े आश्चर्य को प्राप्त हुआ९ उसीसमय में दैवयोगसे इन्द्र ब्रह्माजीका पूजन करनेको आयेथे सो जब इन्द्र ब्रह्माजीका पूजनकरिके लौटे तौ मार्ग में बड़ी सुन्दरी उस स्त्री को देखके १० कामदेव के वशहो अपने उत्तमवीर्यको छोड़ते हुये फिरवह इन्द्रका वीर्य उसस्त्री में विनाही प्राप्तहुये जहांबालपड़े थे वहां पृथिवीमें पढ़ता हुआ अथवा उस स्त्रीही बालोंको स्पर्शकर पृथिवीमें पड़ा ११ तौ उसी समय में इन्द्रकेतुल्य पराक्रमी वालीनाम वानर उत्पन्न हुआ फिर उसको इन्द्रसुवर्ण की माला देके आप स्वर्गको जाते हुये १२ फिर सूर्य भी उसीसमय में वहांआके उन स्त्रीको देखके कामपीडितहो उसस्त्रीकी गर्दन के ऊपर वीर्यको छोड़ते हुये १३ फिर तिससे बडाकाय शरीर जिसका ऐसा सुग्रीवनाम वानरहोता हुआ तिस सुग्रीव के सहाय के लिये हनुमान को नियुक्तकर सूर्य अपनेलोकको जाते हुये १४।

पुत्रद्वयंसमादायगत्वासानिद्रिताक्वचित्।
प्रभातेऽपश्यदात्मानंपूर्ववद्वानराकृतिम्॥१५॥

फलमूलादिभिः सार्द्धंपुत्राभ्यां सहितः कपिः।
नत्याचतुर्मुखस्यायेऋक्षराजःस्थितः सुधीः॥१६॥

ततोब्रवीत्समाश्वास्य

    बहुशः कपिकुंजरम्।  

तत्रैकं देवतादूतमाहूयामरसन्निभम्॥१७॥

गच्छदूतमयादिष्टोगृहीत्वावानरोत्तमम्।
किष्किंधांदिव्यनगरी निर्मितां विश्वकर्मणा॥१८॥

सर्वसौभाग्यबलितांदेवैरपि दुरासदाम्।
तस्यां सिंहासने वीरं राजानमभिषेचय॥१६॥

सप्तद्वीपगताये ये वानराः संतिदुर्जयाः।
सर्वेतेऋक्षराजस्य भविष्यंतिवशेऽनुगाः॥२०॥

यदानारायणः साक्षाद्रामोभूत्वा सनातनः।
भूभारासुरनाशाय संभविष्यति भूतले॥२१॥

फिर दोनों पुत्रों को साथ लेके वह स्त्री कहीं सो गई फिर प्रातःकाल जागकर के देखै तो पहिले ही के तरह अपना पुरुष वानरका स्वरूप देखती हुई १५ फिर वह वानर फल मूलादिकों को लेकै और दोनों पुत्रों करिकै सहित ब्रह्माजी के आगे जाके स्थित होता हुआ १६ फिर ब्रह्माजी बहुत प्रकार से उस बानर के चित्त को सावधान कर अर्थात् स्त्रीरूप हो जाने की ग्लानिको दूरकर फिर एक देव दूत को बुलाके यह कहते हुये १७ कि हे दूत तुम मेरी आज्ञा से इन बानरों को लेके पृथ्वी पर जाउ वहां एक किष्किन्धा नगरी विश्वकर्मा की रची हुई है १८ और संपूर्ण भोग बस्तुओं करिकै युक्त है और देवताओं को भी दुष्प्राप है तिसनगरी में सिंहासन पै इस बानर का अभिषेक करो १९ और सप्त द्वीप भरे में जें बड़े दुर्जय बान रहैं ते सब इस ऋक्षराज के बशमें रहेंगे २० और जब सनातन साक्षात् नारायण पृथिवी के भारभूत असुरों के नाशके अर्थ रामरूप कर पृथिवीमें प्रकट होंगे २१।

तदासर्वे सहायार्थेतस्यगच्छं तु वानराः।
इत्युक्तो ब्रह्मणादूतो देवानां समहामतिः॥२२॥

यथाज्ञप्तस्तथाचक्रेब्रह्मणा तं हरीश्वरम्।
देवदूतस्ततोगत्वा ब्रह्मणेतन्निवेदयत्॥२३॥

तदा दिवानराणां सा किष्किंधाऽभून्नृपाश्रयः।
सर्वेश्वरस्त्वमेवासीरिदानब्रह्मणाऽर्थितः॥२४॥

भूमेर्भारोहतः कृत्स्नस्त्वयालालानृदेहिना।
सर्वभूतांतरस्थस्यनित्यमुक्तचिदात्मनः॥२५॥

अखंडानंदरूपस्य कियानेषपराक्रमः।
तथापिवर्ण्यते सद्भिर्लीला मानुषरूपिणः॥२६॥

यशस्ते सर्वलोकानां पापहत्यैसुखायच।
य इदं कीर्त्तयेन्मर्त्यो बालिसुग्रीवयोर्महत्॥२७॥

जन्मत्वदाश्रयत्वात्समुच्य ते सर्वपातकैः।
अथान्यांसंप्रवक्ष्यामि कथां रामत्वदाश्रयाम्॥२८॥

तब उन रामके सहायके लिये सातों द्वीपके वानर जाइँगे ऐसा जब ब्रह्मा जी ने कहा तो वह श्रेष्ठमति देवताओं को दूत २२ जैसे ब्रह्माजी ने कहाथा वैसे ही सब कृत्यकर उस वानर को सब बानरों का राजा करता हुआ फिर वह

देवदूतब्रह्माजी के पास जाके अपना कृत्वसबनिवेदन करता हुआ २३ तबसे लेकरकिष्किन्धापुरी वानरोंकी राजधानी होती हुई और हेराम सबके ईश्वर तो आपहीहौसो इससमयमें ब्रह्माकरके प्रार्थना किये गयेहौ २४ इसकारणसे मनुष्यदेह धारणकरके आपने पृथ्वीकाभार दूरकिया और सब प्राणियों के अंतयामी भोर नित्यमुक्त चिद्रूप २५और अखण्डानन्दस्वरूप जो आप तिनका रावण कायरूप कितना पराक्रम तौभी लीलाहीकरके मनुष्यरूपधारी जो आप २६ तिनकायश सबलोकों के पापदूरकरनेके अर्थ और परमानन्दकी प्राप्ति के लिये महात्माओं करके वर्णन कियाजाता है और जोपुरुष आपके उपकार के लिये जो बालि सुग्रीवका श्रेष्ठजन्म तिसका कीर्तन करता है २७ सो सबपातकों से छूटजाताहै और हे राम अब जिसप्रयोजनसे दुष्टात्मा रावणने सीताको हरा है तिसको प्रकट करने को और भी आपके यशके बढानेवाली कथा मैं कहता हूं २८॥

सीताहृतायदर्थं सा रावणेनदुरात्मना।
पुराकृतयुगे रामप्रजापतिसुतंविभुम्॥२६॥

सनत्कुमारमेकांते समासीनंदशाननः।
विनयावनतोभूत्वा ह्यभिवाद्येदमब्रवीत्॥३०॥

कोन्वस्मिन्प्रवरो लोके देवानां बलवत्तरः।
देवाश्चयंसमाश्रित्य युद्धे शत्रुं जयंतिहि॥३१॥

कं यजंति द्विजानित्यं कंध्यायंतिचयोगिनः।

एतन्मेशंसभगवन्प्रश्नं प्रश्नविदांवर॥३२॥

ज्ञात्वा तस्य हृदिस्थं यत्तदशेषेणयोगदृक्।
दशाननमुवाचेदं शृणुवक्ष्यामिपुत्रक॥३३॥

भर्त्तायो जगतां नित्यं यस्यजन्मादिकं नहि।
सुरासुरैर्नुतोनित्यंहरिर्नारायणोऽव्ययः॥३४॥

यन्नाभिपंकजाज्जातो ब्रह्माविश्वसृजांपतिः।
सृष्टयेनैव सकलं जगत्स्थावरजंगमम्॥३५॥

तिसको सुनिये हेराम पहिले एकसमय सतयुग में एकांत में आसन के ऊपर स्थित जो ब्रह्माजीकापुत्र सनत्कुमार २९ तिनके समीप रावण जाके बहुत विनयसे नम्रहो प्रणाम करके वचन बोलता हुआ ३० कि हे भगवन् इसलोक में सब देवोंमें श्रेष्ठ और अधिक बलवान् देव कौन है जिसके बलको आश्रयण करके देवता शत्रुको जीतते हैं ३१ और ब्राह्मणादिक नित्य किसका यजनकरते हैं औ योगीलोग नित्य किसका ध्यानकरते हैं हे भगवन् यह मेरे प्रश्नका उत्तर आप कहिये जिससे आप जाननेवालों में ही ३२ अब परमयोगी जो सनत्कुमार भगवान् सो रावण के हृदयका सम्पूर्ण भाव जानके अर्थात् रावणका आशय यह कि ऐसे श्रेष्टदेव से मेरी मृत्युहोय यहसव अभिप्राय जानके रावण से बोले कि हे पुत्र तूश्रवणकरु में तुझसे कहताहूं ३३ हेरावण जो सवजगत्का भरण पोषणकरनेवाला औजिसकी कभी जन्मादिक की भय होती नहीं औजो

सुर और असुरों करके नित्य ही नमन किया जाता है अर्थात् सबदेव और असुर जिसको नित्य प्रणाम करके स्तुतिकिया करते हैं ऐसा अविनाशी नारायण है ३४ औ जिस नारायण के नाभिकमल से प्रजापतियों का पति ब्रह्मा प्रकट हुआ है औ सब स्थावर जंगम जगत् जिसने रचा है ३५॥

तं समाश्रित्य विबुधाजयंति समरेरिपून्।
योगिनोध्यानयोगेन तमेवानुजपंतिहि॥३६॥

महर्षेर्वचनं श्रुत्वा प्रत्युवाच दशाननः।
दैत्यदा नवरक्षांसि विष्णुना निहितानि च॥३७॥

कां वा गतिं प्रपद्यते प्रेत्यते मुनि पुंगव।
तमुवाच मुनिःश्रेष्ठो रावणं राक्षसाधिपम्॥३८॥

दैवतैर्निहतानित्यं गत्वा स्वर्गमनुत्तमम्।
भोगक्षये पुनस्तस्माद्भ्राष्टभूमौभवंतिते॥३६॥

पूर्वार्जितैः पुण्यपापैर्स्त्रियं तेचोद्भवंति च।
विष्णुनायेहतास्तेतु प्राप्नुवंति हरेर्गतिम्॥४०॥

श्रुत्वा मुनिमुखात्सर्वं रावणोहृष्टमानसः।
योत्स्येऽहंहरिणासार्द्धमिति चिंतापरोभवत्॥४१॥

मनःस्थितं परिज्ञात्या रावणस्य महामुनिः।
उवाचवत्सतेऽभीष्टं भविष्यति न संशयः॥४२॥

औ तिसीका आश्रयकर देवता संग्राम में शत्रुओं को जीतते हैं औयोगी लोग ध्यानयोग करके उसीका नित्य ध्यान करते हैं ३६ तब यह सनत्कुमार का बचन सुनिकै रावण फिर पूछता हुआ कि हे भगवन् विष्णुकर के मारेहुये दैत्य दानव और राक्षस ये कौन गति को प्राप्त होते हैं ३७ यह रावण का बचनसुनिकै सनत्कुमारमुनि बोले ३८ कि हे रावण देवताओं करके मारे हुये दैत्य दानव उत्तम स्वर्गलोकको प्राप्तहोते हैं फिर जब पुण्यभोग क्षीण हो जाता है तो स्वर्ग से गिरके पृथिवी में उत्पन्न होते हैं ३९ और फिर पूर्व्वजन्मके पुण्य पापों करके मरते हैं और जन्म लेते हैं और विष्णु भगवान् से जिनकी मृत्यु होती है वे तौ नारायण की गतिको प्राप्त होते हैं अर्थात् ब्रह्मलोक को प्राप्त हो मुक्ति को प्राप्त होते हैं ४० तब तो रावण यह सनत्कुमार के मुखसे बचनसुनिकै हर्षयुक्तहो यह विचार करता हुआ कि विष्णु के साथ में युद्ध करोंगा ४१ तब सनत्कुमारमुनि रावणकामनो रथजानि कै बोले कि हेवत्स तेरा मनोरथ सिद्ध होगा इसमें कुछ संदेह नहीं है ४२।

कंचित्कालं प्रतीक्षस्वसुखीभव दशानन।
एवमुक्त्वा महाबाहोमुनिः पुनरुवाचतम्

४३

तस्य स्वरूपं वक्ष्यामि ह्यरूपस्यापिमायिनः।
स्थावरेषु च सर्वेषु नदेषु च नदीषुच

४४

ॐकारश्चैवसत्यं च सावित्री पृथिवीचसः।
समस्तजगताधारः शेषरूपधरोहिसः

४५

सर्वेदेवाः समुद्राश्च कालःसूर्यश्च चन्द्रमाः।
सूर्योदयोदिवारात्री यमश्चैव त-

            थाऽनिलः॥४६॥

अग्निरिन्द्रस्तथामृत्युः पर्जन्यो वसवस्तथा।
ब्रह्मरुद्रादयश्चैव येचान्ये देवदानवाः॥४७॥

विद्योततिज्वलत्येषा पातिचात्तीनिविश्वकृत्।
क्रीड़ां करोत्यव्ययात्मासोऽयंविष्णुः सनातनः॥४८॥

तेनसर्वमिदं व्याप्तं त्रैलोक्यं सचराचरम्।
नीलोत्पलदलश्यामो विद्युद्वर्णाम्बरावृतः॥४६॥

परंतु कुछकाल प्रतीक्षा करौऔर हे रावण तुम सुखीहोउ अब अगस्त्य राम से कहते हैं कि हेराम ऐसा रावण से कहिकै सनत्कुमार फिर कहते हुये ४३ कि हे रावण हैं तो वह नारायण रूपरहित परंतु माया के आश्रयसे उसके अनेक रूप प्रतीत हो रहे हैं तिनको सुनिये सब स्थावरों में अर्थात् वृक्ष पाषाणादिकों में और नद नदियों में उसीका स्वरूप स्थित हो रहा है ४४ और शब्दों में प्रणवरूप करके स्थित और जो मनुष्य वचन बोलते हैं तिनमें सत्यवचन वह आप ही हैंऔर मंत्रों में गायत्री मंत्र आप ही हैं और शेषरूपहो सबजगत्‌का आधार आप हीहै ४५ और सब देवता औसमुद्र औकाल औ सूर्य औचंद्रमा औ दिन औ रात्रि औ यमराज औ पवन ४६ औ अग्नि औ इंद्र औ मृत्यु औ मेघऔ वसु औ ब्रह्मरुद्रादि औ देव दानव ये सबउसीका रूप हैं अर्थात् विराट्रूपकर आप ही हैं ४७ औ सुर्यादिकों में आप ही प्रकाश कर रहा यो अग्न्यादिकों में ज्वलन आप ही करता है और विश्व को रचता है और पालन करता है और अन्त में संहार भी आपही करता है आप अविनाशी इस प्रकार क्रीड़ा करता है वोही यह सनातन विष्णु है ४८ औ तिसी कर के सम्पूर्ण चराचर जगत् व्याप्त हो रहा है फिर वो नील कमल के दल के समान श्याम वर्ण है और बिजुली की तरह चमकते पति वस्त्रको धारण करे है ४९॥

शुद्धजाम्बूनदप्रख्यां श्रियंवामांक संस्थिताम्।
सदाऽनपायिनीं देवीं पश्यन्नालिंग्यतिष्ठति॥५०॥

द्रष्टुं न शक्यते कैश्चिद्देवदानवपन्नगैः।
यस्यप्रसादं कुरुते स चैनं द्रष्टुमर्हति॥५१॥

न च यज्ञतपोभिर्वानदानाध्यचनादिभिः।
शक्यते भगवान् द्रष्टुमुपायैरितरैरपि॥५२॥

तद्भक्तैस्तद्गत प्राणैस्तचित्तैर्वृत्तकल्मषैः।
शक्यते भगवान्विष्णुर्वेदांतामलदृष्टिभिः॥५३॥

अथवा द्रष्टुमिच्छतिशृणुत्वं परमेश्वरम्।
त्रेतायुगे सदेवेशो भविनानृपविग्रहः॥५४॥

हितार्थदेवमर्त्यानामिक्ष्वाकुणां कुले हरिः।
रामो दाशरथिर्भूत्वा महासत्यपराक्रमः॥५५॥

पितुर्नियोगात्सभ्रात्रा भार्यया दण्डकेवने।
विचरिष्यति धर्मात्मा जगन्मात्रास्वमायया॥५६॥

औ शुद्ध सुवर्ण के तुल्य जिसकी कांति ऐसी जो सदा बाम भाग में स्थित लक्ष्मी देवी तिस को देखता हुआ रत्न सिंहासन पै स्थित है ५० और किसी देव दानव की सामर्थ्य नहीं जो उस को देख सकै औ जिस के ऊपर उस की प्रसन्नता होवै वोही देख सक्ता है ५१ औ वह भगवान् नारायण तौ यज्ञ तप दान वेदाध्ययनादिकों कर के औ न और उपायों कर के देखा जाता है ५२ और उसी में है प्राण औ चित्त जिन्हों का ऐसे ये पापरहित भक्त हैं तिन को वेदांत शास्त्रज्ञान करके निर्मल दृष्टियों से देखने को शक्य है ५३ अथवा हे रावण जो तुझ को परमेश्वर को देखने की इच्छा होय तौसुनु वोही देवताओं का ईश नारायण त्रेतायुग में राजा के वेष में होगा ५४ देवता औ मनुष्य इन के कल्याण के अर्थ इक्ष्वाकुवंश में सो विष्णु बड़ा बली पराक्रमी दशरथ का पुत्र राम होके ५५ पिता की आज्ञा से भाई करके सहित औ अपनी शक्ति जो सीता तिस कर के सहित दण्डक वन में बिचरेगा ५६॥

एवं ते सर्वमाख्यातं मयारावणविस्तरात्।
भजस्वभक्तिभावेन तदारामं श्रियायुतम्॥५७॥

एवं श्रुत्वा सुराध्यक्षो ध्यात्वाकिंचिद्विचार्य्य च।
त्वया सहविरोधेप्सुर्मुमुदे रावणोमहान्॥५८॥

युद्धार्थी सर्वतोलोकान्पर्यटन् समवस्थितः।
एतदर्थंमहाराजरावणोऽतीव बुद्धिमान्॥
हतवान्जानकीं देवींत्वयात्मबधकांक्षया॥५९॥

इमां कथां यः शृणुयात्पठेद्वा संश्रावयेद्वाश्रवणार्थिनां सदा।
आयुष्यमारोग्यमनंतसौख्यं प्राप्नोति लाभं धनमक्षयं च॥६०॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणेउमामहेश्वरसंवादे उत्तरकाण्डे तृतीयःसर्गः ३॥

हे रावण यह सब वृतान्त मैंने विस्तार पूर्वक वर्णन किया औ तुम भक्ति भाव कर के लक्ष्मी युक्त जो राम तिसका भजन करो ५७ अब अगस्त्य कहते हैं है राम इस प्रकार रावण सनत्कुमार जी से वचन सुनि कैकुछ काल विचार कर आप के संग बिरोध की इच्छा कर के बड़े आनन्द को प्राप्त हुआ ५८ फिर युद्ध के अर्थ सब लोकों में बिचरता हुआ और हे महाराज इसीके लिये बड़ा बुद्धिमान् जो रावण सो तुम्हारे हाथ से अपनी मृत्यु की इच्छा कर के सीता देवी को हरता हुआ ५६ जो इस रहस्य कथाको सुनता है अथवा औरों को सुनावता है सो आयुर्बल और आरोग्य औअनन्त सुख को प्राप्त होता है और अक्षय धन को प्राप्त होता है ६०।

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसम्बादे उत्तरकाण्डे भाषाटीकायां तृतीयस्सर्गः ३॥

एकदा ब्रह्मणोलोकादायातं नारदंमुनिम्।
पर्यटन्रावणोलोकान्दृष्ट्वा नत्वाऽब्रवीद्वचः॥१॥

भगवन्ब्रूहिमेयोद्धुं कुत्र संतिमहाबलाः।
योद्धुमिच्छाभिबलिभिस्त्वंज्ञातासि जगत्त्रयम्॥२॥

मुनिर्ध्यात्वाऽऽहसुचिरं श्वेतद्वीपनिवासिनः।
नहावलामहाकायास्तत्रयाहि महामते॥३॥

विष्णुपूजारतायेवै विष्णुनानिहताञ्चये।
त एव तत्र संजाता अजेयाश्च सुरासुरैः॥४॥

श्रुत्वा तद्रावणोवेगान्मंत्रिभिः पुष्पकेणतान्।
योद्धुका सः समागत्य श्वेतद्वीपसमीपतः॥५॥

तत्प्रभाहततेजस्कं पुष्पकंनाचलनतः।
त्यक्त्वाविमानं प्रययौमंत्रिण्श्चदशाननः॥६॥

प्रविशन्नेवततद्द्वीपं धृतो हस्तेन योषिता।
ष्टष्टचत्वं कुतः कोऽसि प्रेषितः केनवावद॥७॥

चौथे सर्ग रमेश प्रभु सुनि सीता अपवाद।
त्यागतमेसोउमुनिनिरखि कहयोयथारथवाद१॥

अबश्रीमहादेवजी पार्वती से कथा वर्णन करते हुये कि हे पार्वति एक समय में ब्रह्मलोक आवते हुये नारदजी को पर्यटन करता हुआ रावण देखके नमस्कार कर बोलता हुआ १ कि हे भगवन् मुझसे युद्ध करने को बड़े बलवान् कहां वास करते हैं तिनको बतलाइये मेरे युद्ध करने की इच्छा है औआप तीनों लोकों कों के जाननेवाले हों २ तो नारदमुनि बहुतकाल ध्यानकर के रावण से बोले कि हे रावण श्वेतद्वीप के रहनेवाले बड़े बलवान् औबड़े बड़े शरीर वाले हैं इस से श्वेतद्वीप को तुम जाउ ३ और जे पुरुष विष्णुपूजा में परायण हैं औजे संग्रान में विष्णु नेमारे हें वे वहां उत्पन्न होते हैं ४ अबरावण यह नारदजी का वचन सुन के बड़े वेगसेमन्त्रियों को संगलिये पुष्पक विमान पै चद्विकै श्वेतद्वीप को जाता हुआ ५ फिर जब वहां श्वेतपि के समीप विमान पहुंचा तो उसकी गति मंद हो गई गाड़ी नहीं चलसका औन कोई मन्त्री जाने को समर्थ हुआ तबरावण विमान औमन्त्रियों को वहां ही छोड़के अकेला पांड पांउ जाता हुआ ६ और कोई यहां ऐसा कहते हैं कि मंत्रियों को भी संग वहां लेके प्रवेश किया तो तो सम्भव नहीं होता है अब रावण ने जब श्वेत द्वीप में प्रवेश किया तो उसी समय में एक स्त्री ने रावण को पकड़ लिया आगे नहीं जाने दिया और यह पूछा कि तू कौन और किसका भेजा आया है ७।

इत्युक्तो लीलयास्त्रीभिर्हसन्तीभिः पुनःपुनः।
कृच्छ्राद्धस्ताद्विनिर्मुक्तस्नासांस्त्रीणां दशानन॥८॥

आश्चर्यमतुलं लब्ध्वा चिन्तयामासदुर्मतिः।
विष्णुनानिहतोयामि वैकुंठामतिनिश्चितः॥९॥

मयिविष्णुर्यथा कु

    प्येत्तथाकार्यं करोम्यहम्।  

इति निश्चित्य वैदेहीं जहारविपिनेऽसुरः॥१०॥

जानन्नेवपरात्मानं सजहारावनीसुताम्।
मातृवत्पालयामासत्वत्तः कांक्षन्वधंस्वकम्॥११॥

रामत्वंपरमेश्वरोऽसिसकलं जानासि विज्ञानदृक्भूत-
भव्यमिदं त्रिकालकलनासाक्षीविकल्पोज्झितः।
भक्तानामनुवर्तनाय सकलां कुर्वन्क्रियासंहतिं
त्वाशृण्वन्मनुजाकृतिर्मुनिवचोभा सशिलोकार्चितः॥१२॥

स्तुत्वैवं राघवं तेन पूजितः कुंभसंभवः।
स्वाश्रमं मुनिभिः सार्द्धं प्रययौहृष्टमानसः॥१३॥

रामस्तु सीतया सार्द्धं भ्रातृभिः सहमंत्रिभिः।
संसारीवरमानाथोरममाणोव सद्गृहे॥१४॥

तौ रावण की सब हकचक भूल गई कुछभी जवाब न दिया गया तबतक बहुत स्त्रियाँ हँसने लगीं तौ रावण जैसे तैसे उनसे हाथ छुड़ाके भागता हुआ फिर रावण बड़े आश्चर्य को प्राप्त हो यह चिन्तवन करता हुआ कि विष्णु से मैं मृत्यु को प्राप्त होऊँ तौ वैकुण्ठ में ऐसे ही बास करौंऐसा बिचारकर ८१९ मेरे बिषे विष्णु जैसेकोप करें तैसा मुझ को करना चाहिये यह निश्चयकर के वन में सीताको हरता हुआ १० औ हे राम आपको परमात्मा जान ही करके आपसे अपनी मृत्यु चाहता हुआ सीता को हरके माता के तुल्य उसकी रक्षा करता हुआ १९ औ है राम तुम परमेश्वर हौऔअपनी विज्ञान दृष्टिसे जो कुछ हो आया है और होगा और हो रहा है इसप्रकार तीनों कालके पदार्थों को जानते हौऔर प्रपञ्च रहित सबके साक्षी हौऔ भक्तों के अनुग्रह के लिये मुनिवचनों को सुनते हुये यज्ञादिक्रियाको करते हो औ सर्व लोकों करके पूजित हौऔर सब में अन्तर्यामिरूपकरके प्रकाश भी करते हौ १२ अब इसप्रकार रामकी स्तुति करके रामसे पूजाको प्राप्तहुये जो अगस्त्य मुनिसो ऋषियों करके सहित अपने आश्रम को जाते हुये औ बड़े प्रसन्न हुये १३ औ लक्ष्मीनाथ जो श्रीराम सो सीता करके सहित औ भाई मन्त्रियों करके सहित रमण करते हुये गृहे में वास करते हुये १४।

अनासक्तोऽपिविषयान्बुभुजे प्रिययासह।
हनुमत्प्रमुखैः सद्भिर्वानरैः परिवेष्टितः॥१५॥

पुष्पकं चागमद्राममेकदा पूर्ववत्प्रभुम्।
प्राहदेव कुबेरेण प्रेषितत्वामहंततः॥१६॥

जितं त्वं रावणेनादौ पश्चाद्रामेणनिर्जितम्।
अतस्त्वं राघवं नित्यं वहयावद्वसेद्भुवि॥१७॥

यदागच्छेद्रघुश्रेष्ठो वैकुंठं याहिमां तदा।
तच्छ्रुत्वाराघवः प्राहपुष्पकं सूर्यसन्निभम्॥१८॥

यदा स्मरामि भद्रंते तदागच्छममांतिकम्।
तिष्टान्तर्द्धाय सर्वत्रगच्छेदानीं

             समाज्ञया॥१६॥

इत्युक्त्वारामचन्द्रोऽपि पौरकार्याणि सर्वशः।
भ्रातृभिर्मन्त्रिभिःसार्द्धंयथान्यायं चकारसः॥२०॥

राघवेशासति भुवं लोकनाथे रमापतौ।
वसुधा सस्यसंपन्ना फलवंतश्च भूरुहाः॥२१॥

और हनुमानको आदि लेके श्रेष्ठ वानरों करके सेवित औआसक्ति रहित ही श्रीरामप्रिया के साथ विषयों की सेवन करते हुये १५ अब एक समय पुष्पक विमान राम के समीप आके यह कहता हुआ कि हे राम मैं कुबेर का भेजा हुआ फिर आपके समपि प्राप्त हुआ हों १६ और हे राम कुबेर ने मुझ से यह वचन कहा कि हे पुष्पक पहिले तुमको रावण ने जीत लिया पीछे राम ने जीता इस से जब तक राम पृथ्वी में स्थित तबतक तुम राम ही को ले चला करो १७ और जबराम बैकुण्ठलोक को जावें तब मेरे समीप प्राप्त होउ अबराम यह पुष्पक विमान का वचन सुनिकै सूर्यतुल्य जो पुष्पक तिससे बोले १८ कि हे पुष्पक तुम्हारा कल्याण होय और जब मैंतुम्हारा स्मरण किया करौंतब प्राप्तहुआ करौ और मेरी आज्ञा से तुम जाउ औ अन्तर्द्धानहो अर्थात् छिपकर सब जगह स्थित रहा करो श्रीराम का आशय यह है कि सबलोग मेरे दिव्य ऐश्वर्य को न जानें इससे तुम छिपे हुये मेरे समीप स्थित रहौ और जो तुम प्रकट हो नित्यवास करोंगे तोये देवदेव नारायण हें ऐसासभी जानने लगेंगे सोमुझको करना नहीं इस से यह भी सूचित हुआ कि जब परमेश्वरका अवतार होता है तो उससमय में भी सबको परमेश्वररूपका ज्ञान नहीं होता है जिनके ऊपर कृपा है वो ही जानते हैं और राम कृष्णादि अवतार धारण कर कोई कोई चरित्र भी ऐसा करते हैं जिसमें राजस तामस मनुष्यों को निश्चय होता ही नहीं है इसीसे अभी असुर मनुष्य राम कृष्णको मनुष्य ही कहते हैं और यह वे अन्धे नहीं जानते कि हजारों श्रुति स्मृति जिनको ईश्वरत्व प्रतिपादन कर रही हैं और उनकी व्याख्या करनेवाले शंकाराचार्यादिकों ने अपने ग्रंथों में राम कृष्णादिकों में ईश्वरावतार जबस्पष्ट लिखा फिर सन्देह का अवकाश कहां है १९ अबश्रीरामचन्द्र यह पुष्पक विमान से कहिकैभाई औमन्त्रियों करके सहित जैसे शास्त्र में कहा है तैसे पुरवासियों का कार्य करते हुये २० जय साक्षात्लक्ष्मी के पति श्रीराम पृथिवी की रक्षाकरते हुये तब मन्त्रोकी वृद्धि सेशोभित सब पृथिवी होती हुई औ बहुत फल पुष्पयुक्त वृक्ष होतेहुये २१।

जनाधर्मपराःसर्वे पतिभक्तिपराःस्त्रियः।
नापश्यत्पुत्रमरणं कश्चिद्राजनिराघवे

२२

समारुह्यविमानाग्र्यंराघवःसीतया सह।
वानरैर्भ्रातृभिः सार्द्धंसंचचारावनिम्प्रभुः

२३

अमानुषाणिकार्याणि चकारव

               हुशोमुवि।  

ब्राह्मणस्य सुतं दृष्ट्वा बालं मृतमकालतः॥२४॥

शोचं तं ब्राह्मणं चापि ज्ञात्वारामोमहामतिः।
तपस्यन्तं वनेशूंद्रंहत्वाब्राह्मणबालकम्॥२५॥

जीवयामास शूद्रस्य ददौस्वर्गमनुत्तमम्।
लोकानामुपदेशार्थंपरमात्मा रघूत्तमः॥२६॥

कोटिशः स्थापयामास शिवलिंगानि सर्वशः।
सीतां चरमयामास सर्वभोगैरमानुषैः॥२७॥

शशासरामोधर्मे राज्यं परमधर्मवित्।
कथां संस्थापयामास सर्वलोकमलापहाम्॥२८॥

और मनुष्य सब अपने २ धर्म में परायण होते हुये औ अपने पतिभक्ति में तत्पर स्त्रियां होती हुई औराम जबराजा हुये तौ कोई अपने पुत्र की मृत्यु को न देखता हुआ २२ फिर श्रीराम भाई वानर औ सीता इन करके सहित पुष्पक विमान चढिकै पृथिवी में बिचरते हुये २३ भौ बहुत से अमानुषचरित्र अर्थात् जो मनुष्यों से न हो सकें ऐसे चरित्र पृथिवी में करते हुये और एकसमय में श्रीराम समय में किसी ब्राह्मण के पुत्र को मरा हुआ देखके २४ और उसपुत्र को शोचता हुआब्राह्मण को जानके श्रेष्ठ मति जो रामसो बन में तप करता हुआ जो शूद्र तिसको मारके उस ब्राह्मण के पुत्र को जिवा देते हुये १५ और उसशूद्र को भी उत्तम लोक देते हुये अर्थात् उससमय में उसशूद्रका तप कर नाही एक राम के राज्य में अधर्म था इसीसे ब्राह्मण का पुत्र मरगया था सो शूद्र के मार ने से पुत्र भी जिया उस शूद्र को स्वर्ग प्राप्त हुआ २६ भब परमात्मा जो रामसो लोकों के उपदेश के लिये कड़ोरों शिवलिंगों का स्थापन करते हुये सब जगह औ अमानुष भोगों करके सीता को रमण कराते हुये २७ औ परमधर्म के जाननेवाले जो श्रीरामसो धर्म करके राज्य की रक्षा करते हुये औ सब लोकों के पापनाश करनेवाली जो अपनी कथा तिसको लोकोंमें स्थापन करते हुये २८॥

दशवर्षसहस्राणि मायामानुषविग्रहः।
चकार राज्यं विधिवल्लोकवंद्यपदाम्बुजः॥२६॥

एकपत्नीव्रतोरामो राजर्षिः सर्वदाशुचिः।
गृहमेधीयमखिलमाचरन् शिक्षयन् जनान्॥३०॥

सीताप्रेम्णाऽनुवृत्त्याच प्रश्रयेण दमेन च।
भर्त्तुर्मनोहरा साध्वी भावज्ञासाह्रियाभिया॥३१॥

एकदा क्रीडविपिने सर्वभोगसमन्विते।
एकांतेदिव्यभवने सुखासीनं रघूत्तमम्॥३२॥

नीलमाणिक्यसंकाशं दिव्याभरणभूषितम्।
प्रसन्नवदनंशां तं विद्युत्पुंजनिभांवरम्॥३३॥

सीताकमलपत्राक्षसिर्वाभरणभूषिता।
राममाहकराभ्यां सालालयंतीं पदाम्बुजे॥३४॥

देवदेव जगन्नाथ परमात्मन्सनातन।
चिदानंदादि मध्यांतरहिताशेषकारण॥३५॥

औमाया हीकरके मनुष्य रूप हैजिनका औ सब लोकों को वन्दनीय हैं चरणारविन्द जिनके ऐसे जो राम जो दश हजार वर्ष विधिपूर्वक राज्यकरते हुये २६ औ एकपत्नी के व्रतको धारण करे अर्थात् सिवाय अपनी स्त्री के और स्त्री में स्वप्न मेंभी जिनका मन नहीं गया ऐसे जो राजर्षि श्रीराम सो सदा पवित्र आप सब मनुष्यों को शिक्षा करते हुये गृहस्थों के धर्मका आचरण करते हुये ३०। औ सीता प्रेमकरकेऔ अनुकूलाचरण करके औ नम्रता से औ इन्द्रियों के दमन से औ लज्जा से औ भय से सबकाल में प्रियतम राम का अभिप्राय जानती हुई और पातिव्रत में तत्पर हो श्रीराम के मनको हरती हुई अर्थात् वश करती हुई ३१ अब एक समय मेंविहार करने के बगीचे में सब भोगोंकी सामग्रियों करके युक्त जो एकान्त में मन्दिर तिसमें स्थित जो ३२ नील मणिके सदृश औ दिव्यआभरणों करके भूपित औ बिजुली के तुल्यप्रकाशमान पीत वस्त्रों को धारण करे प्रसन्न है मुखारविन्द जिसका औ शान्त है स्वरूप जिसका ऐसे जो श्रीराम तिनसे ३३ सब आभूषणों को धारण करे कमलनयनी सीता अपने हाथों से राम के चरण कमल पलोटती हुई बोली ३४ हे देव देव हे जगन्नाथ हे परमात्मन हे सनातन हे चिदानन्द हे आदि मध्य अन्तरहित हे अशेष कारण अर्थात् सबके कारण ३५॥

देवदेवाः समासाद्य मामेकांतेब्रुवन्वचः।
बहूशोऽर्थयमानास्ते वैकुंठागमनं प्रति॥३६॥

त्वयासमेतश्चिच्छक्त्यारामस्तिष्ठति भूतले।
विसृज्यास्मात्स्वकंधाम वैकुंठ च सनातनम्॥३७॥

आस्ते त्वया जगद्धात्रि रामः कमललोचनः।
अग्रतोया हि वैकुंठत्वं तथा चेद्रघूत्तमः॥३८॥

आगमिष्यति वैकुंठसनाथान्नः करिष्यात।
इति विज्ञापिता हंतैर्मया विज्ञापितोभवान्॥३६॥

यद्युक्तं तत्कुरुष्वाद्यनाहमाज्ञापयेत्प्रभो।
सीतायास्तद्वचः श्रुत्वा रामोध्यात्वाऽब्रवीत्क्षणम्॥४०॥

देविजानामिसकलं तत्रोपायं वदामिते।
कल्पयित्वामिषं देविलोकवादं त्वदाश्रयम्॥४१॥

त्यजामित्वांवनेलोकवादाद्धीति इवापरः।
भविष्यतःकुमारौ द्वौ वाल्मीकेराश्रमांतिके॥४२॥

सब इंद्रादि देव एकान्त में मेरे समीप आके आपके वैकुण्ठके गमन की बहुत प्रार्थना करते हुने मुझ से यह वचन कहते हैं ३६ कि हे सीते तू जो राम की अचिन्त्य अनादि अव्यक्तसकल कार्य केकरने वाली शक्ति है तिसके सहाय से राम हम सब देवताओं को औवैकुण्ठको त्यागके में स्थित हैं३७ इस से हे जगन्मातः तुम पहिले वैकुण्ठ लोक को जाउ तो राम भी वैकुण्ठ में

आकैहमको सनाथकरें इस प्रकार देवताओं ने अपना कार्य मुझसे निवेदन किया औ मैंने आपसे कहा ३९ और भब आप जैसाकुछ मुनासिब समझिये तैसा कीजिये हे स्वामिन् मैं कुछ आपको आज्ञा नहीं करती हौंमेरा तौइतना ही धर्म है जो कुछ कार्य होइ सो आपको निवेदन करना तब राम यह सीता का बेचनसनिकै क्षणमात्र ध्यानकरके बोलते हुये ४० कि हे देवि यह वृत्तांत सब मैं जानता हूं औतिसमें उपाय अब कहता हूं हे देवि तुही है कारण जिसमें ऐसा एक अपने ऊपर लोकापवाद का बहाना ४१ रचिकै जैसे कोई संसारी पुरुष होय तैसे लोकापवाद से भयभीतकी नाईं तुझको बनमें त्यागोंगा औ वाल्मीकि मुनि के आश्रम में तेरे दो पुत्र होवेंगे ४२॥

इदानीं दृश्यते गर्भः पुनरागत्यमेन्तिकम्।
लोकानां प्रत्ययार्थं त्वं कृत्वा शपथमादरात्॥४३॥

भूमेर्विवरमात्रेण वैकुंठं यास्यसिद्रुतम्।
पश्चादहं गमिष्यामि एष एव सुनिश्चयः॥४४॥

इत्युक्त्वा तां विसृज्याथ रामोज्ञानैकलक्षणः।
मंत्रिभिर्मंत्रतत्त्वज्ञै र्बलमुख्यैश्चसंवृतः॥४५॥

तत्रोपविष्टं श्रीरामं सुहृदः पर्युपासत।
हास्यप्रौढ़कथासुज्ञा हासयंतः स्थिताहरिम्॥४६॥

कथाप्रसंगात्पप्रच्छ रामो विजयनामकम्।
पौरा जानपदामे किंवदंतीह शुभाशुभम्॥४७॥

सीतां वा मातरं वा मे भ्रातॄन्वाकैकयीमथ।
नभेतव्यं त्त्वया ब्रूहि शापितोऽसिममोपरि॥४८॥

इत्युक्तः प्राह विजयो देवसर्वैवदन्तिते।
कृतं सुदुष्करं सर्वं रामेण विदितात्मना

४९

और हे सीते इस समय में जो तेरे उदर में गर्भ है इसीसे तेरे दो पुत्र होवेंगे फिरि पुत्रोपत्तिके अनन्तर कुछकाल में मेरे समीप आके सब लोकों के विश्वास के लिये शपथ करके ४३ पृथिवी के छिद्र के द्वारा तू बैकुंठको जावेगी फिर मैं भी तिसके पीछे वैकुंठको आऊंगा यह मेरा निश्चय है ४४ फिर बोध स्वरूप श्रीराम सीतासे यह वचन कहिकै उसको बिदाकर आप सभामें प्रवेश करते हुये वहां अच्छी सलाहके जानने वाले मंत्रियों करके आउ सेनाके मनुष्यों करके सेवित ४५ राज्य सिंहासन पै बैठे जो श्रीराम तिनको हास्य कथाके तत्त्व के जानने वाले मित्रलोग हँसाते सेवन करतेहुये ४६ फिरकथाके प्रसंग से राम विजय नाम मित्रसे पूछते हुये कि हे विजय पुरवासी औदेश के मनुष्य क्या मेरा शुभ अशुभ अर्थात् भलाई बुराई कहते हैं ४७ औसीताको औ माताको औ भाइयों को औकैकेयी को कैसा कहते हैं तुम भय न करना सत्य सत्य जैसा कुछ प्रजा के मनुष्य कहते होवें तैसा कहो औ मैं अपनी शपथ अर्थात्सौगन्द दिलाता हूं झूठ न कहना ४८ इस प्रकार श्रीराम अपनी माया के

मोहकताको हृदय में निश्चय करके बड़े आदर से उस विजय से पूछते हुये ४९॥

किन्तु हत्वादशग्रीवं सीतामाहृत्यराघवः।
अमर्षंष्टष्टतः कृत्वास्ववेश्मप्रत्यपादयत्॥५०॥

कीदृशं हृदये तस्यसीतासंभोगजंसुखम्।
याहृताविजनेऽरण्येरावणेनदुरात्मना॥५१॥

अस्माकमपि दुष्कर्मयोषितांमर्पणंभवेत्।
यादृक्भवति वैराजातादृश्योनियतं प्रजाः॥५२॥

श्रुत्वा तद्वचनं रामःस्वजनान्पर्यष्टच्छत।
तेऽपिनत्वाऽब्रुवन्राममेवमेतन्न संशयः॥५३॥

ततोविसृज्य सचिवान्विजयं सुहृदस्तथा।
आहूयलक्ष्मणरामो वचनंचेदमब्रवीत्॥५४॥

लोकापवादस्तुमहान्सीतामाश्रित्यमेऽभवत्।
सीतांप्रातःसमानीय वाल्मीकेराश्रमांतिके॥५५॥

त्यक्त्वा शीघ्रं रथेनत्वं पुनराया हि लक्ष्मण।
वक्ष्यसे यदिवा किंचित्तदामांहतवानसि॥५६॥

ऐसा जबरामचन्द्र ने पूछा तौ वह विजय यह कहता हुआ कि हे देव सबप्रजा के मनुष्य यह कहते हैं राम ने बहादुष्कर कर्म किया अर्थात् जो किसी से न हो सके ऐसा रावण का वधरूप कर्म किया ५० परन्तु एक अच्छा नहीं किया जो रावण को मारके फिर सीता को स्याकै अपने घर में प्रवेशकराया और सीता से कुछ भी क्रोधन किया और रामके हृदय में सीता के संभोग का सुख कैसा होता होगा जो सीता विजन वनमें दुष्टात्मा रावण ने हरी और रावण के घर रही और फिर उसको घर में दार लिया यह कुछ करने योग्य नहीं किया ५१ और जो ऐसा ही हुआतौ हम सबोंको भी अपनी स्त्रियाओं का ऐसा अपराध सहना पड़ेगा क्योंकि जैसा राजा होता है वैसी ही प्रजा भी होती हैं ५२ तबतौ उस विजयनाम सखा के बचन सुनके श्रीराम अपने मन्त्रियों से पूछते हुये कि यह कहता है सो इसका कथन के साहै तौ मन्त्री लोग नमस्कार करके श्रीरामचन्द्रजी से बोले कि हे राम जो वह कहता है इसमें कुछ संदेह नहीं है ५३ तव श्रीराम ऐसा वचन सुनि कै सबमन्त्रियों को औउस विजय को सब मित्रों को विदाकर लक्ष्मण को बुलाके कहते हुये ५४ कि हे लक्ष्मण सीता के कारण से मेरा बडा लोकापवाद हो रहा है इससे तुम प्रातःकाल सीता को रथपै चढ़ाके ले जावो ५५ और वाल्मीकि ऋषि केआश्रम के समीप छोड़ के शीघ्र ही रथ करके मेरे समीप आवो और जो इसमें कुछ कहोंगे तो मेरे मारने के पाप के भागी होउगे ५६।

इत्युत्को लक्ष्मणो भीत्या प्रातरुत्थाय जानकीम्।
सुमन्त्रेणरथे कृत्वा जगाम सहसावनम्॥५७॥

वाल्मीकेराश्रमस्यान्ते त्यक्त्वा सीतामुवाच

                  सः।  

लोकापवादभीत्या त्वांत्यक्तवान्राघवो वने॥५८॥

दोषोनकश्चिन्मेमातर्गच्छाश्रमपदं मुनेः।
इत्युक्त्वा लक्ष्मणः शीघ्रं गतवान्रामसन्निधिम्॥५६॥

सीताऽपि दुःखसन्तप्ताविललापातिमुग्धवत्।
शिष्यैः श्रुत्वा च वाल्मीकिः सीतां ज्ञात्वासदिव्यदृक्॥६०॥

अर्ध्यादिभिः पूजयित्वा समाश्वास्य च जानकीम्।
ज्ञात्वा भविष्यसकलमार्पयन्मुनियोषिताम्॥६१॥

तास्तां संपूजयन्तिस्म सीतां भक्त्या दिने दिने।
ज्ञात्वापरमात्मनो लक्ष्मीं मुनिवाक्येनयोषितः॥
सेवां चक्रुः सदातस्याविनयादिभिरादरात्॥६२॥

रामोपिसीतारहितः परात्माविज्ञानदृक्केवल आदिदेवः।
संत्यज्यभोगानखिलान् विरक्तोमुनिव्रतोभून्मुनिसेवितांघ्रिः॥६३॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे उत्तरकाण्डे चतुर्थस्सर्गः४॥

अब इस प्रकार राम से आज्ञा को प्राप्त लक्ष्मण बड़ी भय से प्रातःकाल ही उठिकै सुमन्त्र सारथी से रथ मँगवा के तिसपै जानकी जी को सवार कराके शीघ्र ही वन को जाते हुये ५७ फिर वाल्मीकि के आश्रम के समीप सीता को त्यागिकै यह लक्ष्मण बोले कि हे मातः लोकापवाद के भय से राम ने तुमको बन में त्यागा है ५८ कुछ मेरा दोष नहीं है तुम वाल्मीकि मुनि के आश्रम को जाउयह सीता से कहिकै लक्ष्मण शीघ्र ही राम के समीप आते हुये ५९ औ सीता भी दुःख से संतप्तहो अत्यन्त अज्ञकी नाईं विलाप करती हुई तब तक वाल्मीकि मुनि अपने शिष्यों से किसी स्त्री को विलाप करते सुनिके अपनी दिव्यदृष्टि से सीता को जानके ६० फिर वहां आके अर्ध आदि सामग्रियों से पूजन कर सीता के चित्त को सावधान करके आगे होने वाला सब वृत्त जानिकै उस सीता को मुनियों की स्त्रियाओं को सौंपते हुये ६१ अब वे मुनियों की भार्या वाल्मीकि जी के बचन से सीता को परमात्मा राम की लक्ष्मी जान के बड़ी प्रीति से दिनदिन पूजनकरती हुई ६२ अब सीता करके रहित आदिदेव विज्ञानदृष्टि परमात्मा रामचन्द्र भी सब भोगों को त्यागिकै सबसे विरक्त हो मुनियों के व्रत को धारण करते हुये और यद्यपि मुनियों करके सेवित हैं चरणकमल जिनके ऐसे आपही हैंतौ भी लोक शिक्षा के अर्थ मुनित्रत होते हुये ६३॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे उत्तरकाण्डे भाषाटीकायां चतुर्थःसर्गः ४॥

श्रीमहादेव उवाच॥

ततोजगन्मङ्गलमंगलात्मना विधाय रामायणकीर्तिमुत्तमाम्।
चचारपूर्वाचरितं रघूत्तमो राजर्षिवर्यैरभिसेवितंयथा॥१॥

सौमित्रिपाष्टष्टउदाबुद्धिना रामःकथाः प्राहपुरातनीः शुभाः।
राज्ञः प्रमत्तस्यनृगस्यशापतोद्विजस्य तिर्यक्त्वमथाहराघवः॥२॥

कदाचिदेकान्त उपस्थितं प्रभुं रामं रमालालितपादपंकजम्।
सौमित्रिरासादितशुद्धभावनः प्रणम्यभक्त्याविनयान्वितोब्रवीत्॥३॥

त्वंशुद्धबोधोऽसिहि सर्वदेहिनामात्मास्यऽधीशोऽसिनिराकृतिः स्वयम्।
प्रतीयसेज्ञानदृशां महामते पादाब्जभृङ्गाहितसंगसंगिनाम्॥४॥

अहंप्रपन्नोऽस्मिपदांबुजंप्रभो भवापवर्गंतवयोगिभावितम्।
यथांजसाज्ञानमपारवारिधिं सुखंतरिष्यामि तथाऽनुशाधिमाम्॥५॥

श्रुत्वाऽथसौमित्रिवचोऽखिलं तदा प्राहप्रपन्नार्त्तिहरः प्रसन्नधीः।
विज्ञानमज्ञानतमोपशांतये श्रुतिप्रपन्नक्षितिपालभूषणः॥६॥

आदौस्ववर्णाश्रमवर्णिताः क्रियाः कृत्वासमासादितशुद्धमानसः।
समाप्यतत्पूर्वमुपात्तसाधनःसमाश्रयेत्सद्गुरुमात्मलब्धये॥७॥

दो०।सर्गपांचमेंदयानिधि उपदेशो निज बोध।
जोनाशैभ्रममिहिरजिमि अथवास्वप्नप्रबोध१॥

अबश्रीमहादेवजी रामलक्ष्मण के संवाद के द्वारा परमतत्त्वके उपदेश करने को पार्वतीजी से कहते हुये कि हेपार्वति तिसके उपरांत श्रीराम जगत् के मंगलों का भी मंगल करनेवाला जो अपनास्वरूप अर्थात् जगत्संगल जे विषयानन्द तिनको सत्ता देने वाली जो ब्रह्मानन्दरूप अपनी मूर्ति तिसकरके वाल्मीक्यादि रामायणों की प्रवृत्ति कराने वाली जो अपनी निर्मलकीर्त्ति तिसको लोकों में विस्तारकरके अपने वंश के इक्ष्वाकु आदि राजाओं ने किया जो प्रजापालन धर्मानुष्ठान सत्कथा श्रवणादि सदाचार अर्थात् अच्छा चालचलन, तिसको आप भी जैसे और राजर्षियों नेसेवन किया है तैसे सेवन करते हुये १ फिर श्रेष्ठबुद्धि लक्ष्मण ने जब पूंछा तो श्रीराम पहिले राजाओं की धर्मविषयिणी कथाओं को लक्ष्मण से कहते हुये फिर प्रमत्त जो राजामृग अर्थात् भूलिकै एकगायको दो ब्राह्मणों कोदेता हुआ फिर दोनों झगडारूओंकी फिर बाद को भी नहीं सुनता हुआ जो राजानुग तिसको ब्राह्मण के शापसे जैसे गिरगिट की योनि प्राप्त हुई वो कथा भीलक्ष्मण को सुनाते हुये इसका अभिप्राय यह है कि राजा को विषयों मेंफसिकेंकार्यार्थियोंके कार्य को नहीं सुनने में बडाभारी दुःख होता है और दूसरा

आशय यह भी है कैसे भी ब्राह्मण के धन के अपहरण में दुःख होता ही है जैसे दानियों मे श्रेष्ठ जो राजानृग तिसको हुआ २ अब किसी समय में शुद्ध किया है अन्तःकरण जिसने ऐसे जो लक्ष्मण सो एकांत देश में बैठे हुये और लक्ष्मी जी ने लाड़लड़ाये हैं चरणकमल जिसके ऐसे जो श्रीरामचन्द्रजी तिनको गुरुबुद्धि से प्रणाम करके नम्रतापूर्वक वचन बोलते हुये ३ कि हे राम तुम निर्मल ज्ञान स्वरूप हौऔसब प्राणियों के आत्मा होऔ सबके प्रेरक हो अर्थात् अन्तर्यामी हौऔ जीवों के सदृश कर्माधीन देहरहि हौअर्थात् माया को बशकर अपनी इच्छा ही सेमनुष्य कासा माकार धारण करे हौ औ ऐसे ज्ञानस्वरूप आपको सब कोई नहीं जान सक्ते हैं किन्तु आपके चरणारविंदों में जिन्होंने मृङ्गकेसदृश अपना अन्तःकरण समर्पण किया है ऐसे जे एकांती भक्त तिनका हुआ है संग जिनको ऐसे जो ज्ञान दृष्टिपुरुष तिनको ही उक्तज्ञानस्वरूप प्रतीत होते हो अर्थात् ज्ञानी पुरुष ही आप के वास्तवस्वरूपको जान सक्ते हैं ४ औहे भगवन योगियों करके हृदय में ध्यान किया गया और संसार से छुडा देनेवाले ऐसे जो आपके चरणकमल तिनके मै शरणप्राप्तहुआ हों इससे हेपभो जैसे मैं अज्ञानरूपी समुद्र को साक्षात् सुखपूर्वक पार होउँ तैसे शिक्षा करिये ५ अब इसके उपरान्त राजाओं के भूषण और शरणागतभक्तों के दुःखके हरनेवाले श्रीराम पूर्वोक्त लक्ष्मण के वचन सुनके प्रसन्नचित्त हो (तमेव विदित्वाति मृत्युमेतिनान्यःपन्थाविद्यतेयनाय) उस परमात्मा ही को जानके संसाररूपी मृत्यु को पार होता है सिवाय ज्ञान के और कोई मार्ग आश्रय करने के योग्य नहीं है इत्यादि श्रुतियों करके बाधित जो आत्मतत्त्वज्ञान तिसको अज्ञानरूपी अन्धकार के नाश के लिये लक्ष्मण से कहते हुये ६ तहां प्रथम आत्मज्ञान के प्राप्ति के लिये परमदयालु श्रीरामचन्द्र क्रम सेबहिरंगसाधनों को कहते हैं कि है लक्ष्मण प्रथम मोक्षार्थी पुरुष अपने वर्णाश्रमों में विहित जो यज्ञदानादि निष्काम सत्कर्म तिनको करैफिर तिनके करने से जब अन्तःकरण शुद्ध हो जाय तब अन्तरंग शमदमादि साधनों में स्थित हो पूर्वोक्त सब कर्मोंको त्यागकर के आत्मज्ञानकी प्राप्ति के लिये ब्रह्मनिष्ठ अर्थात् ब्रह्मज्ञान में तत्पर औ श्रोत्रिय वेद के अर्थ के जानने बाला जो दयालु गुरु तिसका आश्रयणकरै शुश्रूषादिकरके प्रसन्नकरै७॥

क्रियाशरीरोद्भवहेतुरादृता प्रियाप्रियौतौभवतः सुरागिणः।
धर्मेतरौतत्र पुनःशरीरकं पुनः क्रियाचक्रवदीर्यतेभवः॥८॥

अज्ञानमेवास्य हि मूलकारणं तद्धानमेवात्रविधो विधीयते।
विद्यैवतन्नाशविधौ पटीयसीनकर्मतज्जंसविरोधमीरितम्॥९॥

नाज्ञानहानिर्न चरागसंक्षयो भवेत्ततःकर्मसदोषमुद्भवेत्।
ततः पुनः संसृतिरप्यवारिता तस्माद्वुधोज्ञानवि

                    चारवान्भवेत्॥१०॥

ननुक्रियावेदमुखेन चोदितायथैव विद्यापुरुषार्थसाधनम्।
कर्त्तव्यताप्राणभृतः प्रचोदिताविद्यासहायत्वमुपैतिसापुनः॥११॥

कर्मकृतौदोषमपिश्रुतिर्जगोतस्मात्सदा कार्यमिदं मुमुक्षुणा।
ननुस्वतंत्राध्रुवकार्यकारिणीविद्यानकिंचिन्मनसाऽप्यपेक्षते॥१२॥

नसत्यकार्योऽपिहियद्वदध्वरः प्रकांक्षते न्यानपिकारकादिकान्।
तथैवविद्याविधितःप्रकाशितैर्विशिष्यते कर्मभिरेवमुक्तये॥१३॥

केचिद्वदंतीतिवितकंवादिनस्तदप्यसदृष्ट विरोधकारणात्।
देहाभिमानादभिवर्द्धते क्रिया विद्यागताहंकृतितः प्रसिद्ध्यति॥१४॥

अबगुरु ही की कृपा से प्राप्त हुआ जो ज्ञान तिससे संसार चक्र से निवृत्ति होती है यह सूचन करने को संसाररूप चक्र को वर्णन करते हुये श्रीराम कहते हैं कि लक्ष्मण आदरपूर्वक अर्थात् प्रीतिपूर्वक पूर्वजन्म में किया हुआ जो कर्म तो इस शरीर के जन्म का कारण है फिर तिस जन्म में प्रीतियुक्त अर्थात् विषयों के सेवन की अभिलाषा करता हुआ जो पुरुष तिसको शास्त्र में प्रसिद्ध जे धर्म अधर्म सुख दुःख के उत्पन्न करने वाले होते हैं अर्थात् धर्मसुख का करने वाला होता है धर्म दुःख देनेवाला होता है अथवा अज्ञान के प्रभाव से अन्धदृष्टि पुरुष को कभी अधर्म ही में सुखबुद्धि से प्रवृत्ति होती है औधर्म में दुःख बुद्धि होती है किसी को कदाचित सुखबुद्धि भी होती है इससे धर्माधर्म दोनों सुख दुःख जनक होते है यह ग्रन्थकारक का आशय है इस प्रकार विषयों की अभिलाषा से इस विद्यमान शरीर में किया जो पुण्य पापरूपकर्म तिससे फिर शरीर उत्पन्न होता है फिर उस शरीर में भी पूर्व संस्कार वश से फिर कर्म करता है इस प्रकार गाड़ी के पहिया की तरह यहजन्ममरणं रूपसंसार चक्र भी वर्णन किया गया हैअर्थात् जैसे गाड़ी के पहिये का ऊपरला भाग कभी नीचे आता है और नीचे का भाग ऊपर जाता है तैसे ही इस संसार चक्र भी वर्तमान जीवक भी पुण्य वशसे ऊपर के लोक को जाता है कभी पापकर्म से नीचे लोक में और हे लक्ष्मण इस संसार का अज्ञान ही मूलकारण है इससे संसार की निवृतिरूप विधि में अज्ञान का नाशाही विधानकिया जाता है और उस अज्ञान के नाश विधि में विद्या ही अर्थात् ज्ञान ही समर्थ है औकर्म तो अज्ञान के नाश में नहीं समर्थ है जिससे कर्म अज्ञान से उत्पन्न हुआ है इससे आज्ञान के नाश में समर्थ नहीं न कहोंवृश्चिक कर्कटादि अर्थात् बीछी औ गिंगटा जिससे उत्पन्न होते हैं उसी का नाम करते हैतैसेअविद्यासे उत्पन्न हुआ भी कर्म अविद्या का नाश करेगा ही इस शंकाको दूरकरते हुये कहते हैं कि (सविरोधमीरितम्) इसका अर्थ यह है कि

नाश करने वाला पदार्थविरोध सहित शास्त्रकारों ने कहा है इसका आशय यह है कि जो जिससे उत्पन्न होय वह उसका नाश करता है जैसे वृश्चिक से उत्पन्न हुआ वृश्चिक अपनी माता का नाश करता है यहां नाश में उत्पत्ति हेतु नहीं है विरोध ही हेतु है अर्थात् जिसका जिससे विरोध है वही उसका नाश करता है तौयहां कर्म से और अज्ञान से विरोध नहीं है इससे कर्म अज्ञानका नाश नहीं कर सक्ता और विद्या तौ अज्ञानकी विरोधिनी है इससे उसके नाश करने में समर्थहै ९ और जिससे कर्म का और अज्ञान का विरोध का अभाव है इससे कर्म से न अज्ञान का नाशहोता है और न राग जो विषयप्रीति तिसका नाश होता है और उलटा कर्म करने से दोषयुक्त कर्म ही उत्पन्न होता है और फिर तिसकर्म से जन्ममरणरूप संसार होता है अर्थात् कर्म से कभी संसृति निवृत्त नहीं होती है फिर मोक्ष की कौन आशा है इससे हे लक्ष्मण विवेकी पुरुष सदा वेदांत वाक्यों के विचार में तत्पर रहैं १० अब जे कोई प्राचार्य ऐसा कहते हैं कि ज्ञान कर्म दोनों मिले हुये से मुक्ति होती है केवल ज्ञान से मुक्ति नहीं होती है तिन समुच्चयवादियों के मत के खण्डन के लिये श्रीरामचन्द्र पहिले तीन श्लोकों करके उनके मतका अनुवाद करते हैं अब यहां यह आशंका होती है कि जैसे विद्या अर्थात् ज्ञान (ब्रह्मविदाप्नोतिपरम्) ब्रह्म का जानने वाला ब्रह्म ही को प्राप्त होता है इत्यादि वेदमुख से मोक्षरूप पुरुषार्थ का साधन कहा है तैसे ही कर्म भी (यावज्जीवमग्निहोत्रं जुहोति) जबतक जीवै तबतक अग्निहोत्र कर्म करे इत्यादि वेदमुख से अवश्य करना चाहिये इस रीति से जीवों को कर्म विधान किया गया है इससे विद्या की अर्थात् ज्ञान की सहायता को प्राप्त होता है इससे यह सूचित होता है कि कर्म सहित ही विद्या मुक्ति में उपयोगिनी है औसमुच्चयवादियों ने और भी प्रमाण कहा है कि श्लोक॥ (उभाभ्यामेवपक्षाभ्यांयथाखेपक्षिणांगतिः॥ तथैवज्ञानकर्मभ्यां प्राप्यते ब्रह्म शाश्वतमिति) अर्थ कि जैसे दोनों पंखों से पक्षियों का आकाश में गमन होता है ऐसे ही ज्ञान औकर्म इन दोनों से ही सत्यब्रह्म प्राप्तहोता है ११ औकर्म के नहीं करने में दोष भी वेद ने कहा है कि (वीरहावाएष देवानांयोग्निमुद्धातयत इति) वहपुरुष देवताओं के वीर के नाशकरने वाला होता है जो अग्निहोत्र कुण्ड के अग्नि को बुझा देता है तिससे मुमुक्षुको अर्थात् मोक्षार्थी पुरुष को सदाकर्म करना चाहिये अब सिद्धांती ही पूर्वपक्षी होके आशंका करता है कि मोक्षरूप स्थिरकार्य्यको करने वाली जो विद्यासो अपने कार्य्यके सिद्धकरने में स्वतन्त्रा है अर्थात् सहायके विना ही समर्थ है जैसे सूर्य्य अन्धकार के नाशमें किसी सहायकी अपेक्षा नहीं रखते तैसे विद्यामन करके भी किसी पदार्थ की अपेक्षा नहीं करती है १२ अब

फिर समुच्चय वादी कहता है कि जो तुमने कहा कि विद्यामोक्षरूप परम पुरषार्थ साधनमें किसी कर्मादिक की सहायता नहीं चाहती है सो तुम्हारा मत ठीक नहीं हैक्योंकि चातुर्मास्य यज्ञ करने वाले का अक्षय अर्थात् नाशरहित सुकृत होता है इत्यादि वेद के प्रमाण सेस्थिरकार्य्यभी अध्वर है अर्थात् योग है परन्तु और भी कारकोकी अर्थात् प्रयाजादि भंगों की और देश कालादिकों की जैसे अपेक्षा करते हैं तैसेही जबतक जीवैतबतक अग्निहोत्र करै इत्यादि वेद के विधि वाक्यों से प्रकाशित जे अग्निहोत्रादि कर्म तिनकी सहायता ही सेविद्या मोक्षरूप फलको कर सकी है कुछस्वतन्त्र नहीं है १३ अबसिद्धांती यहां तक समुच्चय वादी के मत का अनुवादकरके उसका खण्डन करता है कि हे लक्ष्मण इस प्रकार वितर्कवादी अर्थात्समुच्चय वादी कहते हें सो असत् मिथ्या है क्योंकि सब जगह देखा हुआ जो विरोध तिसके कारण से अब उसी विरोध को कहते हैं कि देह के विषे अभिमान से अर्थात् अनात्म देहादिकों में आत्मत्व के अभिमान से अर्थात् मैं हूं ऐसे अभिमान से क्रिया वृद्धि को प्राप्त होती है अर्थात् कर्म सिद्ध होता है और सब देहाभिमाननष्ट हो जायतौविद्यासिद्ध होती है अर्थात् ज्ञान उदय को प्राप्तहोता है ।इसका आशय यह हैकि जब अहंकार तौ कर्मका कारण हुआऔ अहंकार नहीं हो मायाज्ञान का कारण हुआ तौ दिन रात्रिके तुल्य परस्पर विरुद्ध ज्ञानकर्म दोनों संगसंग एक किसी पुरुष में एकसमय में कैसे रहिसक्ते हैं और जो दोनों एकत्र इकट्ठे नहीं रहें तौसमुच्चय कैसे सिद्ध होसक्ता है क्योंकि समुच्चय उसी से कहते हैं कि ज्ञान कर्म दोनों एककाल में किसी एक पुरुष मेंरहें सोवन नहीं सका है इससे समुच्चयवादी का मत महा असंगत है यह सिद्धांतवादीका आशय है १४॥

विशुद्धविज्ञानविरोचनांचिता विद्याऽत्मवृत्तिश्चरमोतिभण्यते।
उदेति कर्माखिलकारकादिभिर्निहंति विद्याखिलकारकादिकम्॥१५॥

तस्मात्त्यजेत्कार्यमशेषतः सुधीर्विद्याविरोधान्न समुच्चयोभवेत्।
आत्मानुसंधानपरायणः सदानिवृत्त सर्वेन्द्रिय वृत्तिगोचरः॥१६॥

यावच्छरीरादिषु माययाऽऽत्मधीस्तावद्विधेयो विधिवादकर्मणाम्।
नेतीतिवाक्यैर

  •                             *
    

**

ॐ वेद में प्रजागमनुयाजादि अंगयाग कहेहैं तिनके विना कियेदर्श पौर्णमासादि अंगी बडेयागवननहीं हो सक्ते हैऐसे ही दर्शपौर्णमा सभी अग्निहोत्र का अंग है यह मुण्डकोपनिषद कहा [यस्याग्निहोत्रमदर्शमपौर्णमासमचातुर्मास्यमनाग्रयणमतिविवर्जितं च अहुतमवैश्चदेवमविधिनाहुत मासप्तमांस्तस्य लोकानाहनस्तीति मनसोवृत्तिशून्य स्वब्रह्माकारतयास्थितिः॥ यासंप्रज्ञातनाभासौसमाधिरविधीयत॥ इतियोगशास्त्रे॥

खिलंनिषिद्ध्य तत्ज्ञात्वा परात्मानमथत्यजेत्क्रियाः॥१७॥

यदा परात्मात्मविभेदभेदकं विज्ञानमात्मन्यवभातिभास्वरम्।
तदैव माया प्रविलीयतेंऽजसासकारका कारणमात्मसंसृतेः॥१८॥

श्रुतिप्रमाणाभिविनाशिताचसाकथं भविष्यत्यपिकार्यकारिणी।
विज्ञानमात्रादमलद्वितीयतस्तस्मादविद्यानपुनर्भविष्यति॥१६॥

यदिस्मनष्टानपुनःप्रसूयतेकर्ताऽहमस्येतिमतिः कथं भवेत्।
तस्मात्स्वतंत्रा न किमप्यपेक्षते विद्याविमोक्षाय विभातिकेवला॥२०॥

सा तैत्तिरीय श्रुतिराहसादरं न्यासं प्रशस्ताखिलकर्मणां स्फुटम्।
एतावदित्याहचवाजिनां श्रुतिर्ज्ञानं विमोक्षायनकर्मसाधनम्॥२१॥

अब जो पूर्व पक्षी ने अनुमान किया था कि प्रयाजादि अंगयागों के सहित ही दर्श पौर्णमासादि मुख्ययाग जैसे होता है तैसे ज्ञान भी कर्म करके सहित ही होताहै तिसका खण्डन करते हुये श्रीरामचन्द्रजी विद्याका स्वरूपवर्णन करते हैं कि हे लक्ष्मण विशुद्ध निर्मलज्ञान होता है जिनसे ऐसे जे वेदांतशास्त्र के वाक्य तिनके विचार करने से प्राप्त हुई जो चरम अन्त्य ब्रह्माकार अन्तःकरण की वृत्ति उसको विद्या कहते हैं कर्म जो यज्ञादि सोतौ कर्तृ कर्मादि अंगों करिकै सहित उत्पन्न होता है और विद्या तौ कर्तृ कर्मादिभेद बुद्धियों को नाश करती है अर्थात् सबव्यापार को त्याग के ब्रह्म में असंप्रज्ञात समाधि को विद्या कहते हैं इसका यह आशय है कि विद्या की प्राप्ति के लिये अन्तःकरण शुद्ध के अर्थ तो कर्म की अपेक्षा है क्योंकि विना अन्तःकरण शुद्ध हुए विद्याकी प्राप्ति दुर्लभ है और जो विद्या की प्राप्ति हो चुकी तो मोक्ष के अर्थ विद्या कर्म की सहायता नहीं चाहती और जो किसी सहायता की अपेक्षा करै तो विद्या के स्वरूप ही का नाश हो जाय क्योंकि चरमवृत्ति को विद्या कहते हैं और जो विरुद्धवृत्ति हो तो वह चरमवृत्ति कैसे हो सक्ती है और जो कर्म का कारण भी अहंकार ही नहीं रहा तो उस अवस्था में कर्म का संभव ही कहां है जिसकी अपेक्षा होय इससे प्रयाजादि याग का दृष्टान्त भी कर्म ही में संभव होता है ज्ञा नमें नहीं फिर पूर्व पक्षी का अनुमान भी कैसे संभव होता है इससे विद्या की स्वतन्त्रता में सूर्य तिमिर ही का दृष्टान्त ठीक है १५ और लक्ष्मण जिससे विद्या कर्म इनके विरोधते समुच्चय नहीं बन सक्ता तिस कारण से ज्ञानी संपूर्ण कर्म को त्यागदेय औ सब इन्द्रियों के विषयों से निवृत्त हो सच्चिदानंद स्वरूप परमात्मा के ध्यान में परायणर है १६ अब अधिकारी के भेद से कम करने नहीं करने की व्यवस्था को कहते हैं कि हे लक्ष्मण जबतक माया करके अर्थात् अविद्यावशसे शरीरादि

को में आत्मबुद्धि प्रतीयमान होवैअर्थात् में कर्त्ता हों ऐसा जाने तब तक वेदविहितजेत कर्मतिनको अन्तःकरण की शुद्धि के लिये करै और अन्तःकरण शुद्धि के अनन्तर प्रकृति सेपरेअपने स्वरुप को जान के नेति नेति इत्यादिवाक्यों से सबजगत् का निषेधकरके अर्थात् स्वप्नवत् मिथ्या है ऐसा निर्णयकर के अहंकार के अभाव से सब कर्मों कोत्यागदेवे १७ अबआत्मज्ञान के हुये पीछे अविद्या अवश्य निवृत्तिहोती है यह प्रतिपादन करते हैं हेलक्ष्मण जिसअवस्था में शुद्धअन्तःकरण बिपेईश औ जीव इन दोनों की भेदकराने वाली जो माया अन्तःकरण रूप दो उपाधी तिनका नाश करने वाला प्रकाश स्वभाव विज्ञान अर्थात् सबवृत्तियों के मर्दन करने वाली ब्रह्माकार अखण्डवृत्ति प्रकाश करती है तबजन्मान्तरप्रापक कर्मों के सहित अपनी संसृतिका कारण जो माया अर्थात् जीवोपाधिभूत अविद्या सोसाक्षात्विलय को प्राप्त होती है १८ औ लक्ष्मण श्रुतियों के प्रमाण से अर्थात् (तत्त्वमस्यादि) महावाक्यों के ज्ञान से विनाश को प्राप्त हुईं जो वह अविद्या सो कैसे भी फिर बन्धनरूप कार्य के करनेवाली होती है अर्थात् कैसे भी नहीं हो सक्ती क्योंकि जिससे शुद्ध अद्वितीय आत्म विषयज्ञान से नष्ट हुई है इससे फिर नहीं उदय को प्राप्त होने वाली होती है १६ औ हे लक्ष्मण जो नष्ट हुई अविद्या फिर नहीं उत्पन्न होती है तब कारण के अभाव से कर्म करने को अहंकर्त्ता ऐसी बुद्धि ही कैसे उत्पन्न होती है अर्थात् नहीं होती है फिर अहंमति के प्रभाव से कर्म का भी अभाव हुआ तिस कर्म के अभाव से उस समय में स्वतन्त्रविद्या मोक्ष के अर्थ किसी की अपेक्षा नहीं करती किन्तु केवल आप ही प्रकाश करती है २० और हे लक्ष्मण सो प्रसिद्ध तैत्तिरीय आरण्य की श्रुति आदरपूर्वक संपूर्णप्रशस्तकर्मों केत्यागको स्पष्ट कहती है कि [नकर्मणान प्रजयाधनेन त्यागेनैकेनामृतत्वमानशुः परेणनाकंनिहितं गुहायांविभ्राजते यद्यतयोविशन्तीति] तै० आ० प्र १० अ १०॥ अर्थ॥अग्निहोत्रादि कर्म करके औसंतानकरके औधन करके मोक्ष प्राप्तनहीं होता है किन्तु सबलौकिक वैदिक कर्मों के त्याग ही करके कोई अन्तर्मुख पुरुष अमृतत्व जो मोक्ष तिसको प्राप्त होते हैं जिस अमृतत्व में इन्द्रियों के वश करनेवाले संन्यासी लोगप्रवेश करते हैं और वह अमृतत्व स्वर्ग स भी उत्कृष्ट है और जो अपनी एकाग्र बुद्धिरूप गुहा में स्थित है और जो तत्त्व प्रकाशमान और अन्तर्मुख पुरुषों करके ही जानाजाता है औो यह श्रुति कर्म समुच्चयको नहीं कहती है और [एतावदरेखल्वमृतत्वम्] इत्यादि वाजसनेयि शाखा वालेकी श्रुति भी ज्ञान ही मोक्ष का सावन है कर्म नहीं यह कहती है २१॥

विद्यासमत्वे ननुदर्शिनस्त्वमाक्रतुर्नदृष्टांत उदाहृतः समः
फलैःपृथक्न्तादूबहुकारकैः क्रतुः संसाध्यतेज्ञानमतोविपर्ययम्॥२२॥

सप्रत्यवायो

ह्यहमित्यनात्मधीरज्ञप्रसिद्धानतुतत्त्वदर्शिनः।
तस्माद्बुधैस्त्याज्यमपिक्रियात्मभिर्विधानतः कर्मविधिप्रकाशितम्॥२३॥

श्रद्धान्वितस्तत्त्वमसीतिवाक्यतो गुरोः प्रसादादपिशुद्धमानसः।
विज्ञाय चैकात्म्यमथात्मजीवयोः सुखी भवेन्मेरुरिवाप्रकंपनः॥२४॥

आदौपदार्थावगतिर्हिकारवाक्यार्थ विज्ञानविधौ विधानतः।
तत्त्वं पदार्थौपरमात्मजीवकावसीतिचैकात्म्यमथानयोर्भवेत्॥२५॥

प्रत्यक्परोक्षादि विरोधमात्मनोर्विहाय संगृह्य तयोश्चिदात्मताम्।
संशोधितांलक्षणयाचलक्षितां ज्ञात्वास्वमात्मानमथाद्वयो भवेत्॥२६॥

एकात्मकत्वाज्जहतीनसंभवेतथाऽजहल्लक्षणताविरोधतः।
सोऽयंपदार्थाविवभागलक्षणायुज्येत तत्वंपदयोरदोषतः॥२७॥

रसादि पंचीकृतभूतसंभवं भोगालयं दुःखसुखादिकर्मणाम्।
शरीरमाद्यं तवदादिकर्मजं मायामयं स्थूलमुपाधिमात्मनः॥२८॥

अब श्री समुच्चयवादी से कहते हैं कि हे समुञ्चयवादिन् जो तुम ने विद्या के समान यज्ञ दिखाया परन्तु उसमें कोई सम दृष्टान्त नहीं कहा इससे तुम्हारा कथन ठीक नहीं क्योंकि यज्ञ तौ फलों के भेद से औ बहुत से कर्तृ कर्मादि कारकों करके औ बाह्य देशकालादि नियमों करके सिद्ध किया जाता है औज्ञान में तौ कर्तृत्वादि बुद्धि का त्याग होता है इससे कर्म से बिपरीत ही है फिर साम्य कैसे बन सक्ता है औ बिना साम्य के समुच्चय कहां २२ और इस कर्म के त्याग में मैं निश्चय करके प्रायश्चित्ती होऊंगा ऐसी जो अनात्म धर्म सम्बन्धिनी बुद्धि सो आत्मज्ञान रहित मूर्ख ही को होती है तत्त्वदर्शी को नहीं होती है तिससे फल में आसक्त है चित्त जिनका ऐसे पुरुषों को इस रीति से करना चाहिये इस प्रकार से आवश्यकत्व करके शास्त्र बोधित भी कर्म है परन्तु आत्मानात्म विवेकपूर्वक तत्त्वदर्शी जे पुरुष हैं तिनको त्याज्य ही है अर्थात्त्याग करिबे योग्य ही २३ औ निष्काम कर्मके करने से शुद्ध हुआअन्तःकरण जिसका ऐसा जो गुरुशास्त्र में विश्वासयुक्त पुरुष सो गुरुके प्रसाद से प्राप्त जो तत्त्वमस्यादि महावाक्य तिनके मननादिक करके जीव ईश्वर के ऐकात्म्य को जान के सुमेरु पर्वत के तुल्य कम्पा रहित हो अर्थात् विषयाभिलाष से नहीं चलायमान हुआ है चित्त जिसका ऐसा हो कै सुखीहोता है २४ अब महावाक्य के अर्थ काविचार करने को वाक्य के पदों का अर्थ क्रमसे कहते हैं हे लक्ष्मण भ्रम औ प्रमाद इनके नहीं होने से वाक्यार्थ ज्ञान की उत्पत्ति में प्रथम तौ

पदार्थज्ञानही कारण है तिस महावाक्य में तीन पद हैं (तत्त्वमसि) तहां सर्वज्ञत्वादि गुण विशिष्ट परमात्मा तत्पद का अर्थ है औ अल्पज्ञत्वादि विशिष्ट जीवत्वपदकाअर्थ है और इन दोनों तत्त्वपदों का अभेदबोधक असि पद है२५ फिर अहंबुद्धि करके जानने योग्य जो प्रत्यक्त्व अर्थात् अनेक पदार्थों को अपना मानना तो जीव धर्म हैं और परोक्षत्व अर्थात् इन्द्रियों का प्रत्यक्ष न होना यह ईश्वरधर्महै तिन दोनों धर्म को आदि लेके और भी धर्मोकरके किया जो जीव और परमात्मा का विरोध तिल को त्यागकरके तिन दोनों पदोंको सम्यक् प्रकार से शोध न गईअर्थात् अनेक युक्तियों करके सम्यक् विचार करी औ भागत्याग लक्षणा के लक्षिताअर्थात् ज्ञात जो चिद्रूपता तिसको संग्रहकरके अर्थात् तत्त्व पद से यह उपस्थित हैं ऐसा निश्चय से अपने स्वरूप को जानके द्वैतभाव से रहित होय अर्थात् चिद्रूपता को प्राप्त की नाई होय इसका आशय यह हैकि तत् पद के औत्वं पद के दो अर्थ हैं एकवाच्य और एकलक्ष्य तिसमें तत् पदका वाच्य अर्थ तो मायोपाधिक सर्वज्ञत्वादि विशिष्ट चैतन्य और उपाधि रहित शुद्ध चैतन्य लक्ष्य अर्थ है ऐसे ही त्वं पदकावाच्य अर्थ तो माया कार्य्य अविद्योपाधिक अल्पज्ञत्वादि विशिष्ट चैतन्य औउपाधि रहित शुद्धचैतन्यलक्ष्य अर्थ है तहां वाच्य अर्थोका तो विरुद्ध अर्थ होने से सामानाधिकरण्य अर्थात्एकता हो नहीं सक्ती क्योंकि जो सर्वज्ञ है सो अल्पज्ञ नहीं हो सक्ता और जोसो सर्वज्ञ नहीं हो सक्ताऔ शुद्धचैतन्य जो दोनों का लक्ष्य अर्थ है तिन्हों की एकता में कुछबाधनहीं इससे लक्ष्यार्थी ही की एकता होती है २६ अबश्रीराम लक्षणा का स्वरूप वर्णन करते हैं कि हे लक्ष्मण लक्षणा तनि प्रकार की होती है एक तौ जहल्लक्षणा दूसरी अजहल्लक्षणा तीसरी जहदजहल्लक्षणा तहां जहल्लक्षणा उसको कहते हैं जहां सम्पूर्ण वाच्य अर्थ का त्याग ही जैसे (गंगायाम्घोषः) अर्थात् गंगा में अहीरों का गृह है यह कहने में गंगा शब्द का वाच्यजो प्रवाहरूप अर्थ तिसमें अहीरका घर नहीं सम्भव होता है इससे गंगा की तट में लक्षणा की जाती है अर्थात गंगा शब्द से तटका बोध होता है तो गंगातट में अहीरका घर है ऐसे अर्थ होने में कोई दोष न हुआ परन्तु यहां गंगा शब्दका प्रवाहरूप वाच्य कुछ भी नहीं प्रतीत होता है सबका त्याग होके तब हीका ग्रहण होता है तैसे [तत्त्वमसि] यहां जहल्लक्षणा नहीं सम्भव होती क्योंकि तत्पद त्वं पत्र के अर्थो की एकता विवक्षित हैसो जहल्लक्षणामानने में चैतन्य केभी त्याग में एकता किसके साथ होगी और जिस में वाच्य अर्थ का त्याग न होयऔर अधिक कासंग्रह हो उसको अजहल्लक्षणाकहते हैं जैसे (काकेभ्योदधिरक्षताम्) यहां कौवों से दधिकी रक्षा करौ

इसवाक्य के कहने में यह अर्थ प्रतीत होता है कि कौओं से दधिकी रक्षाकरौ औ उसके उपघात अर्थात नाश करने वाले जे मार्जारादिक तिन्होंसे भी रक्षा करौ तो यहां काक पदके अर्थ का त्याग नहीं हुआ और उस दही के नाश करने वाले मार्जारादि अर्थात् बिल्ली आदि कों का भी लक्षण से ग्रहण हुआ सो इस अजहल्लक्षणाका भी यहां (तत्त्वमसि) इसवाक्य में ग्रहण का सम्भव नहीं होता क्योंकि जब तत्पद औत्वं पदका सर्वज्ञत्व अल्पज्ञत्वादिरूप वाच्य अर्थ का त्याग न हुआ तो बिरोध ज्यों का त्यों ही बना रहा तिससे दोष नहीं होने से तत्पदार्थ औइदं पदार्थों के सदृश तत्पदार्थ औ त्वं पदार्थ की भागत्याग लक्षणा ही युक्त है इसका आशय यह है कि जहां विशेषणांशका तौ त्याग होय औविशेष्य अंशका ग्रहणहोय उसको जहदजहल्लक्षणा कहते हैं उसी का नाम भागत्याग लक्षणा भी है जैसे [सोयं देवदत्तः] अर्थात् सो यह देवदत्त है इसवाक्य में किसी देश में स्थित कवच कुण्डलादि धारण करे पुष्ट शरीरवान् देवदत्त पहिले समय में जो देखा था सो (सोयं हिआं सः) इस का वाच्य अर्थ हुआ और अब इस देश में स्थित कवच कुण्डल रहित कुशशरीर देवदत्त अयं इसका वाच्य अर्थ है तौ पहिले जैसा देखा था तैसा अब नहीं है इस प्रकार विशेषणका परस्परभेद स्पष्टप्रतीत होता है और वही देवदत्त है कोई और नहीं है यह अभेद भी इसवाक्य से प्रतीत होता है तौ इस विरोध का परिहार तभी होता है जब दोनों जगह के विशेषणों को त्याग दिया जावे और विशेष्य देवदत्त के मांस पिण्डमात्रका ग्रहण होय तौ इस लक्षणा में पहिले देश के कवच कुण्डलादि विशिष्टपुष्टत्वादि धर्मका और इस देश सहित कृशत्वादि धर्म का तौ त्यागहुआ और देवदत्त मात्र का ग्रहण हुआ तौ यह जहदजहल्लक्षणा हुई और इसी से अभेद सिद्ध हुआ तैसे ही (तत्त्वमसि) इस वाक्य में भी तच्छब्दके अर्थ में तौ मायोपाधिक सर्वज्ञत्वादि धर्म का त्याग हुआ औ त्वं शब्द के अर्थ में अविद्योपाधिक अल्पज्ञत्वादि धर्म का त्याग हुआ फिर तिसके अनन्तर दोनों जगह के शुद्ध चैतन्य की एकता सिद्ध होती है + २७ औ हे लक्ष्मण पंचीकृत भूमि आदि महाभूतों से जो उत्पन्न हुआ औ सुखदुःखादिकों के कारण भूत जे पुण्यपापादिकर्म तिन्हों के भोग का एक आलय मन्दिर औ उत्पत्ति विनाश धर्मयुक्त प्राचीन कर्म से जो प्रकट हुआ ऐसा जो मायामय यह शरीर तिसको आत्मा का स्थूल उपाधि कहते हैं और पंचीकरणका प्रकार यह है कि पृथिव्यादि महाभूतों में एक एक के दो दो भाग किये तिसमें भी एक एक भाग के चार चार भाग किये फिर वह सबोंका आठवाँ आठवाँ भाग सबोंके अर्द्ध अर्द्ध भाग में मिलाया गया तो सब पृथिव्यादि कों में आधा आधाभाग तौ अपना हुआ

और आठवाँ आठवाँ भाग उन चारों का आकैमिला तो एक एक में जो पांचों के मिलने को पंचीकरण कहते हैं तिसमें अपने अपने भाग के अधिक होने से पृथिव्यादि व्यवहार भी बनारहा २८॥

सूक्ष्मं मनोबुद्धिदशेंद्रियैर्युतं प्राणैरपञ्चीकृतभूतसंभवम्।
भोक्तुःसुखादेरनुसाधनं भवेच्छरीरमन्यद्विदुरात्मनोबुधाः॥२६॥

अनाद्यनिर्वाच्यमपीहकारणं मायाप्रधानं तु परंशरीरकम्।
उपाधिभेदात्तुयतः पृथक्स्थितं स्वात्मानमात्मन्यवधारयेत्कमात्॥३०॥

कोशेष्वयं तेषु तु तत्तदाकृतिर्विभातिसंगात्स्फटिकोपलोयथा।
असंगरूपोऽयमजोऽद्वितीयो विज्ञायतेऽस्मिन्परितोविचारिते॥३१॥

बुद्धेस्त्रिधावृत्तिरपीहदृश्यते स्वप्नादिभेदेन गुणत्रयात्मनः।
अन्योऽन्यतोऽस्मिन्व्यभिचारितोमृपानित्ये परे ब्रह्मणि केवलेशिवे॥३२॥

देहेंद्रियप्राणमनश्चिदात्मनां संघादजस्रंपरिवर्त्ततेधियः।
वृत्तिस्तमोमूलतयाऽज्ञलक्षणा यावद्भवेत्तावदसोभवोद्भवः॥३३॥

नेतिप्रमाणेन निराकृताखिलोहृदासमास्वादितचिद्घनामृतः।
त्यजेदशेषंजगदात्तसद्रसंपत्विायथांभः प्रजहातितत्फलम्॥३४॥

कदाचिदात्मानमृतोनजायते न क्षीयते नापिविवर्द्धतेनवः।
निरस्तसर्वातिशयःसुखात्मकः स्वयं प्रभःसर्वगतोऽयमद्वयः॥३५॥

औहे लक्ष्मण जो शरीर सूक्ष्म है अर्थात् चक्षुरादि इन्द्रियों के अगोचर है औमन मेंऔ बुद्धि औ पांच ज्ञानेन्द्रिय औ पांच कर्मेन्द्रिय औ पांच प्राण इन्हों करके युक्त भी अपंचीकृत महाभूतों से उत्पन्न हुआ औ भोक्ता जो जीव तिसको सुखदुःखादि के जानने में जो साधन है अर्थात् इसी के भीतर प्रविष्ट होने से स्थूल शरीर भी भोगसाधन हो सक्ताहै इसके वियोग में तौ फिर मरण ही होता है ऐसा जो स्थल से अन्य सूक्ष्मशरीर तिसको आत्मा का लिंगोपाधि कहते हैं २९ इस प्रकार स्थूल सूक्ष्म भेद से जीव की दो उपाधी कहिकै अव ईश्वर की उपाधि को कहते हैं कि है लक्ष्मण जो अनादि अर्थात् उत्पत्ति रहित और जो सत् असत्रूपकरके कहने को अशक्य है और जो कारणरूप है अर्थात् सबप्रपंच के रचने वाली माया उसको उत्कृष्ट प्रधान शरीर कहते हैं और इस प्रकार से एक ही चैतन्य उपाधि भेद करके जीव ईश्वर भेद करके पृथक् स्थित हो रहा है अर्थात्स्थूल सूक्ष्मोपाधिजीव औ कारणोपाधि ईश्वर है इससे उपाधि का परित्याग करके श्रवणमननादि क्रमकरके अपने आत्मा ही में आत्मा का निश्चय करै अर्थात्आत्माको जाने ३० औ हे लक्ष्मण जैसे निर्मल भी स्फटिक मणि

जपाकुसुमादि संगते तैसा तैसा रक्तरूपादि प्रतीत होता है तैसे अन्नमयादि पांचकोशों में आत्मा भी आसक्ति वशते तैसा ही तैसा प्रतीत होता है औमहावाक्यार्थ का सम्यक् अर्थात् अच्छे प्रकार से विचार करने से तौ अन्नमयादि कोशों से न्यारा असंग अज अव्यय द्वैतभावरहित प्रकाशित यह आत्मा प्रतीत होता है ३१ और जो इस आत्मा में जाग्रत् स्वप्न सुषुप्ति भेद से तीन प्रकार की वृत्ति दिखाई पड़ती है सो भी सत्व रजस्तमोगुण त्रयात्मा अर्थात् गुण त्रय स्वरूप जो बुद्धि तिसीका धर्म है जाग्रदादि तीनों अवस्थाओं का साक्षी जो आत्मा तिस में तीनों अवस्थाओं का जो मान है सो झूठा जो बुद्धि का अध्यास अर्थात् ऐक्यभ्रम तिसके कारण सेवास्तव नहीं है क्योंकि इन तीनों अवस्थाओंका परस्पर व्यभिचार से अर्थात् स्वप्न अवस्था में जाग्रत सुषुप्ति के अभाव से औ जाग्रत अवस्था में स्वप्न सुषुप्ति के अभाव से औ सुषुप्ति में जाग्रत स्वप्न के अभाव से तीनों अवस्था ओं को स्वरूप से मिथ्यात्व होने से उनकी प्रतति को मिथ्यात्व है अर्थात् झूंठापना है औ नित्य अर्थात् उत्पत्ति विनाश रहित औ तीनों गुणों से परे भी व्यापक ऐसा असंग जो आनन्दरूप ब्रह्म तिसमें परस्पर व्यभिचारी धर्म कहां संभव हो सक्तेहैं ३२ अब त्याग करने के लिये संसार की मूलभूत प्रवृत्ती को कहते हैं कि हे लक्ष्मण जब तक अज्ञान के कारण से देहइंद्रिय प्राण मन चिदाभास बन के संगते समूहते अज्ञता केजताने वाली रजस्तमः प्रधान अर्थात् रजोगुण तमोगुण है प्रधान जिसमें ऐसी बुद्धि की वृत्ति हुआ करती है तबतक संसार की उत्पत्ति भी होती है अर्थात् तब तक जन्ममरणरूप संसृति निवृत्त नहीं होती ३३ अब जिसने महावाक्य का बिचार किया है उस ज्ञानी को क्या करना चाहिये तिसको कहते हैं कि हे लक्ष्मण नेति नेति इस वेदकेप्रमाणकरके खंडन किया है अर्थात् झूंठा जान लिया है सब जगत् जिस ने फिर सत्त्व प्रधान मन करके आस्वादन अनुभव किया है संसार दुःखों से रहित चैतन्य घन अमृत रूप सुख जिसने ऐसा जो ज्ञानी है सो संपूर्ण जगत् को त्याग देय न कहो जिस देहेन्द्रियादि द्वारा ज्ञान का लाभ हुआ है उसका त्याग कैसे उचित है यह आशंका करके दृष्टांत से उस शंका को निवृत्त करते हैं कि जैसे कोई तृषायुक्त पुरुष ग्रहणकिया अर्थात् खैच लिया है संपूर्ण माधुर्यरस जिसने ऐसा जो नारिकेल अर्थात् नारियल नारंगी आदि फलों का जल तिसको पीकै फिर नीरस फल को त्याग देता है अर्थात् फिर तिसकी इच्छा नहीं करता है ऐसे ही सब जगत्‌ का सारांश ब्रह्मसुख तिसको प्राप्त हो निस्सार जो दृश्य जगत्तिसको न ग्रहण करने योग्य देखता न त्याग करने योग्यक्योंकि जब तक भय की संभावना होती तभीतक हेयत्व बुद्धि रहती है भय निवृत्तिके अनन्तर तौ

उदासी नहीहो जाती है ३४ और हे लक्ष्मण कभी यह आत्मा मरता नहीं और न कभीउत्पन्न होयऔर न कभी क्षीण होता है अर्थात् घटता नहीं और न कभीवृद्धि को प्राप्त होय और नवीन नहीं है अबयहां नवीन नहीं है इस कहने से उत्पत्ति के अनन्तर एक अस्तित्वरूप विकार होता है उसका भी निषेध किया अर्थात् उत्पत्ति होकर जो होना वहविकार होता है सो आत्मा में नहीं है और यह भी सूचन किया कि जो नवीन नहीं है तो वृद्ध भी नहीं है क्योंकि जो नवीन हुआ वो ही पुराना हो सक्ताहै इससे और अवस्था ही को नहीं प्राप्त होने से रूपान्तरा पत्तिरूप परिणाम विकार भीआत्मा में नहीं है अब यहां जो वेदांत शास्त्रों में उत्पन्न होना १ औ होकर रहना २ औरूपका बदलना ३ औबढ़ना ४ औ घटना ५ औ नाश होना ६ ये छः विकार कहेहैं ते आत्मा में नहीं है और इससे भिन्न संपूर्णदेहादि इन विकारों करिकै युक्तहै इससे देहादि कोंसे विरक्तहोय यह सूचन किया अब यह प्रतिपादन करते हैं कि जिससे आत्मा विकार रहित है इसीसे दूर करा हैदेहइन्द्रियादि कों का महत्त्व जिसने अपने आत्म लाभ से ऐसा है औआनन्द स्वरुपहै औस्वयंप्रकाश हैयों सर्वव्यापक है औ यह में हीं ऐसीबुद्धि का विषय जो प्रत्यगात्मा जीव है सो भी ब्रह्म रूप हीहै तिससे न्यारा नहीं है क्योंकि [अयमात्माब्रह्मेतिश्रुतेः] यहसमीपवर्ती आत्मा ब्रह्म है इस श्रुति के प्रमाण से३५॥

एवंविधे ज्ञानमयेसुखात्मके कथं भवोदुःखमयः प्रतीयते।
अज्ञानतोऽध्यासवशात्प्रकाशते ज्ञानेविलीयेतविरोधतः क्षणात्॥३६॥

यदन्यदन्यत्रविभाव्यते भ्रमादध्यासमित्याहुरमुंविपश्चितः।
असर्पभूतेहि विभावनंयथा रज्ज्वादिकेतद्वदपीश्वरेजगत्॥३७॥

विकल्पमायारहितेचिदात्मकेऽहंकार एषःप्रथमः प्रकल्पितः।
अध्यासएवात्मनिसर्वकारणे निरामये ब्रह्मणिकेवलेपरे॥३८॥

इच्छादि रागादि सुखादि धर्मिकाः सदाधियः संसृतिहेतवः परे।
यस्मात्प्रसुप्तौतदभावतः परः सुखस्वरूपेणविभाव्यतेहिनः॥३६॥

अनाद्यविद्योद्भवबुद्धिबिंबितो जीवःप्रकाशोऽयामितीयतेचितः।
आत्माधियः साक्षितयाष्टथवस्थतो बुद्ध्या परिच्छिन्नपरः स एव हि॥४०॥

चिद्विम्वसाक्षात्मधियांप्रसंगतस्त्वेकत्रवासादनलाक्तलोहवत्।
अन्योऽन्यमध्यासवशात्प्रतीयते जड़ाजड़त्वंचचिदात्मचे तसोः॥४१॥

गुरोः सकाशादपिवेदवाक्यतः संजातविद्यानुभवोनिरीक्षितम्।
स्वात्मानमात्मस्थमुपाधिवर्जितं त्यजेदशेषं जड़मात्मगोचरम्॥४२॥

कदाचित कोई कहै ऐसा ज्ञानमय सुखस्वरूप जो आत्मा तिसमें दुःखमय संसार कैसे प्रतीत होता है तिसपै कहते हैं कि अज्ञान मूलक जो अध्यास अर्थात् देह और अन्तःकरणाविषे यह मैं हूं और यह मेरा है ऐसी भ्रमयुक्त बुद्धि तिस करके प्रतीत होता है सो ज्ञान के प्रकट होते ही विरोध के कारण से क्षणमात्र में लीन हो जाता है क्योंकि ज्ञान अज्ञान का विरोधी है इस कारण से ज्ञान के उदय समय में हीअज्ञान के नाश से उसका कार्य जो संसार सो भी रज्जु ज्ञान में रज्जु सर्प के सदृश लय को प्राप्त होता है ३६ औ हे लक्ष्मण जो और में और वस्तु जहां जहां भ्रम से प्रतीत होय उसीको ज्ञानीलोग अध्यास कहते हैं जैसे रज्जु सर्परूप नहीं है और उसमें सर्प की प्रतीति ज्ञान से होती है ऐसे ही ईश्वर में भी जगत् अज्ञान जनित भ्रम ही से प्रतीत हो रहा है ३७ औ हे लक्ष्मण वास्तव से तो सर्व विकल्प माया के संग से रहित चिद्रूप सर्वकारण औ दुःख स्पर्शरहित आनन्दमय च सब विकारों से रहित जो व्यापक आत्मा तिसमें प्रथम अहंकार जो कल्पना किया गया है वही अध्यास है अर्थात् अहंबुद्धिरूप अहंकार ही संसार का कारण है ३८ औ हे लक्ष्मण सबका साक्षी जो आत्मा तिसके बिषे इच्छा औउपेक्षा औ राग द्वेष औ सुख दुःखआदि द्वन्द्व ही धर्म जिन्हों के ऐसी, जो बुद्धि वृत्ति तेही सदा संसृतिका कारण है क्योंकि जिस हेतु सेसुषुप्ति अवस्था में बुद्धि की वृत्तियों के अभावसे अर्थात् नहीं होने से पर जो आत्मा है सो सुख रूपकरके हम सबको प्रतीत होता है निश्चयकरके जाना जाताहै और संसारी रूप से नहीं प्रतीत होता है क्योंकि जब सोइ करके पुरुष उठता है तो उसको ऐसा स्मरण होता है कि आजु मैं सुखपूर्वक ऐसा सोया मैंने कुछ नहीं जाना औ इससे यह निश्चय होता है कि केवल आत्मा ही का उस अवस्था में अनुभव होता है इससे यहां अन्वयव्यतिरेक से बुद्धि ही में संसार रहता है आत्मा में नहीं है यह सिद्ध हुआ३९ अब फिर त्वं पदार्थ का स्वरूप कहते हैं कि हे लक्ष्मण अनादि जो अविद्या तिससे उत्पन्न हुआ जो अन्तःकरण तिसमें प्रतिविम्ब को प्राप्त हुआ जो चैतन्य का प्रकाश सो जीव कहाता है और आत्मा तौबुद्धि का साक्षी रूप से न्यारा ही स्थित है औ बुद्धि के परिच्छद से रहित है सो जब ज्ञान करके बुद्धिरूप अन्तःकरणकालय होता हैतौ उपाधिके अभावसे प्रतिविम्ब के नहींहो ने से सोजीव प्रसिद्ध परमात्मरूपही होता है ४० और लक्ष्मण चिदात्मा अर्थात्चैतन्यरूप आत्मा और बुद्धि इनका जो परस्पर अध्यात अर्थात् परस्पर तदात्म्यारोप बुद्धि को चित्तरूप मानना औचिद्रूप आत्मा को बुद्धिमानना तिससे जड़ा जड़त्व प्रतीत होता है अर्थात् वास्तव में जड़ जो बुद्धि है तिसमें चिद्रूपज्ञान की प्रतीत होती है और चिद्रूप आत्मा में जड़त्व की प्रतीत होती है

इसीसे तार्किक ज्ञानाश्रय आत्मा को मानते हैं सो अध्यास चिदाभास और इन्द्रियों करके सहित मन औअन्तःकरण इनके परस्पर सन्निकर्ष से अर्थात्समीप होने से प्रतीत होता है जैसे अग्नि में तप्त जो लोहपिण्ड तिसमें अग्निका पृथक् विभाग नहीं होने से प्रकाशदाहादि अग्नि का धर्म प्रतीत होता है औ गुलाई मी चोखूंटपना लोह का धर्म अग्नि में प्रतीत होता है तैसे ही आत्मा औ बुद्धि इनके भी परस्पर धर्म प्रतीत होते हैं ४१ इससे गुरुके संकाश से प्राप्त हुआजो वेद वाक्य का श्रवण तिससे प्राप्त हुआ है मननपूर्वक विद्या का निदिध्यासन आत्माकार वृत्ति जिसको ऐसा जो पुरुष सो अपने आत्मा ही में स्थित उपाधिरहित अपने आत्मा को देखके अर्थात् साक्षात्कार करके भ्रान्ति करके प्रतीत हुआ रहा जो आत्मा में सम्पूर्ण जड़वर्ग अर्थात् दृश्यवर्ग तिसको त्यागदेय ४२॥

प्रकाशरूपोऽहमजोऽहमद्वयो सकृद्विभातोऽहमतीव निर्मलः।
विशुद्धविज्ञानघनोनिरामयः संपूर्णानन्दमयोऽहमक्रियः॥४३॥

सदैवमुक्तोऽहमचिंत्यशक्तिमानतींद्रियज्ञानमविक्रियात्मकः।
अनंतपारोऽहमहर्निशंबुधैर्विभावितोऽहं हृदिवेदवादिभिः॥४४॥

एवं सदात्मानमखंडिनात्मना विचारमाणस्य विशुद्धभावना।
हन्यादविद्यामचिरेणकारकैरसायनं यद्वदुपासितंरुजः॥४५॥

विविक्त आसीन उपारतेंद्रियो विनिर्ज्जितात्माविमलांतराशयः।
विभावयेदेकमनन्यसाधनो विज्ञानदृक्केवल आत्मसंस्थितः॥४६॥

विश्वं यदेतत्परमात्मदर्शनं विलापयेदात्मनिसर्वकारणे।
पूर्णश्चिदानन्दमयोवतिष्ठतेनवेदबाह्यन्न च किंचिदान्तरम्॥४७॥

पूर्वं समाधेरखिलं विचिन्तयेदोंकारमात्रं सचराचरं जगत्।
तदेववाच्यं प्रणवोहिवाचकोविभाव्यतेज्ञानवशान्नबोधतः॥४८॥

अकारसंज्ञः पुरुषोहिविश्वको ह्युकारकस्तैजसईर्य्यते क्रमात्।
प्राज्ञोमकारः परिपठ्यतेखिलैःसमाधिपूर्वं न तु तत्त्वतो भवेत्॥४६॥

अब निरुपाधिक आत्मस्वरूप का वर्णन दो श्लोक करके करते हैं हे लक्ष्मण ज्ञानी ऐसी भावना करें कि में प्रकाशस्वरूप अर्थात् मेरा ही सर्वत्र प्रकाश है औमें किसी करके प्रकाशित नहीं हों औ में जन्मादि विकार रहित हौऔ अद्वयहौंसजातीय विजातीय स्वगतभेद रहितों में असकृत् विभात हौ
*
*

१.तहां सजातीय भेदतों जैसे ब्राह्मणसब्राह्मण का भेद शुक्लत्रिपाठी इत्यादि प्रकार का और विजातीय भेद ब्राह्मण का क्षत्रियादि कों से औ स्वगतभेदहस्तपादादि अंगों से अपना सो ब्रह्म में कोई नहीं है।

जो वस्तु कभी दीपक सूर्यादि से प्रकाशित होय उसको सकृद्वि भात कहते हैं मैं तो तैसा नहीं हों किंतु सूर्यादि कों का भी सदा प्रकाश करने वाला हौंइसीसे (न तत्रसूर्यो भातिनचन्द्रतारकम्) तिस परमात्मा में सूर्य नहीं प्रकाश करसक्ता है और न चन्द्र तारकादि प्रकाश करसक्ते हैं ऐसाश्रुति में कहा है औमैं अत्यन्त निर्मल अर्थात् माया का किया हुआ आवरण विक्षेपादि मल रहित हौं औविशुद्ध चिद्रूप एक रस हौंऔ निरामय हौं कर्तृत्वाभिमान रहित हौं भौ संपूर्ण हों देशकालादि परिच्छेद रहित हों औ आनन्दम यहौंआनन्दस्वरूप हौं औ अक्रिय हौंक्रियारहित होने से परिणाम हीनहौं ४३ औ मैं सदैव तीनों काल में मुक्त हौंमैं अचिन्त्य शक्ति युक्त परमात्‌मा हों और इन्द्रियों से रहित जो ज्ञान है सोई हूं मैं अविक्रिय स्वरूपहूं अर्थात् बिकार रहित होने से मेरा रूप नहीं बदलता है औ मैं अनन्त पार हूं अर्थात् न कालकरकेमेरा अंत है और न देशकरके मेरा पार है ऐसा जो परमात्मा पंडितों करके सदा हृदय में ध्यान किया गया है सो मैं हूँ ४४ हे लक्ष्मण इसप्रकार एकाग्र चित्तकरके सदा आत्माका ध्यान करता हुआ जो पुरुष तिसको वह विशुद्धभावना अर्थात् ब्रह्माकार अन्तःकरण की वृत्ति उत्पन्न होती है जो और जन्मों के उत्पन्न करने वाले कर्म तिन्हों करके सहित अविद्या को शीघ्र ही नाश करती है जैसे उपासित अर्थात् सेवन करी हुई जो रसायन औषध सो संपूर्ण रोगों का नाश करे तैसे ४५ तहां आत्मध्यान संसार की निवृत्ति में कारण कहा तिसमें जो कुछ कृत्य हैतिसको कहते हैं हे लक्ष्मण निर्जन स्थान में यथा योग्य योगशास्त्र प्रसिद्ध आसन पैस्थित हो निवृत्त हुआ दर्शनादि व्यापार जिन्हों का ऐसी इन्द्रियों करके प्राणायामादि कों करके जीता है अन्तःकरण जिसने इसी से विशुद्ध हुआ चित्त जिसका और विज्ञान ही दृष्टि जिसकी अर्थात् में देखनेवाला हौं और यह देखने के योग्य है ऐसा भाव जिसको नहीं है ऐसी निर्विकल्प असंप्रज्ञात समाधि में स्थित औअनन्य साधन अर्थात् तत्त्वज्ञान को छोड़ के और नहीं है साधन का भ्रम जिसको औकेवल असंग और आत्मा ही में संस्था स्थिति जिसकी अर्थात् विषयान्तर में जिसका चित्त नहीं ऐसा हो करके ध्यान करै १६ और परमात्मा है प्रकाशक जिसका ऐसा जो चराचर विश्व तिसको माया सन्निधान से सबका उपादान कारण जो परमात्मा तिस में लय कर देय अर्थात् कारण से न्यारी कार्य्य सत्ता को न देखे ऐसा जब होता है तो पूर्ण हुये अर्थात्प्राप्त हुये हैं सब काम जिसके ऐसा चिदानंद रूप हो कै स्थित होता है और उस समय में बाहर भीतर सिवाय ब्रह्म के कुछ नहीं देखता है ४७ औ हे लक्ष्मण इस निर्विकल्पक समाधि की पूर्व अवस्था में संपूर्ण चराचर जगत् कोॐकार

मात्र देखें अर्थात ओंकार हैवाचक जिसका ऐसी भावना करै तिस में सब जगत् वाच्यहै औ ओंकार् वाचक है यह भावना भी अज्ञानवश से होती है ४८ ज्ञान के अनंतर नहीं होती है सो प्रकार दिखलाते हैं तहाँ ओंकार में अकार उकार मकार तीन वर्ण हैंतिनकी उपासना क्रम से कहते हैं हे लक्ष्मण जाग्रत अवस्था का स्वामी जो विश्व हैतिसको अकार जानैअर्थात् ॐकारका आदि अक्षर जो अकार तिसका वाच्य अर्थ जाग्रत अवस्था का अभिमानी जो मैं हूँ सो समष्टि स्थूल उपाधि का अभिमानी विराट् से अभिन्न हूं यह भावना प्रणव के प्रकार में करें फिर इसी प्रकार से स्वप्न अवस्था का स्वामी जो तैजस मैंहूं सां ॐकारका द्वितीयवर्ग जो उकार तिसका वाच्य हूं सूक्ष्म समष्ट्युपाधि जो हिरण्यगर्भ तिससे अभिन्न हूं अर्थात् तिसी का स्वरूप हीं ऐसी प्रणव केद्वितीयवर्ण उकार में पुरुषभावना करें और सुषुप्ति अवस्था का अभिमानी जो प्राज्ञ में हूं सो ओंकार के तृतीय अक्षर का वाच्यअर्थ जो मायोपाधिक ईश्वर तिससे अभिन्न हूंअर्थात् तिसीका रूपहूं ऐसी ओंकार के तृतीय अक्षर मकार मेंभावनाकरैपरंतु यह भिन्न भिन्नभावना समाधि के पूर्व हीकरैऔरन्यारी न्यारी भावनाओं का भी फलमाण्डूक्य उपनिषद में कहा है सो निम्नभाग के लेखते जानना ४९॥

विश्वं त्वकारं पुरुषं विलापयेदुकारमध्ये बहुधाव्यवस्थितम्।
ततोमकारे प्रविलाप्य तैजसं द्वितीयवर्णं प्रणवस्य चान्तिमे॥५०॥

मकारमप्यात्मनिचिद्घनेपरे विलापयेत्प्राज्ञमपहिकारणम्।
सोऽहं परं ब्रह्मसदाविमुक्तिमद्विज्ञानहमुक्त उपाधितोऽमलः॥५१॥

एवं सदाजातपरात्मभावनःस्थानन्दतुष्टः परिविस्मृताखिलः।
आस्तेसनित्यात्मसुखप्रकाशकः साक्षाद्विमुक्तोऽचलवारिसिन्धुवत्॥५२॥

एवं सदाऽभ्यस्तसमा

        *

१.औमाण्डूक्यउपनिषद में ऐसा कहा कि जाग्रत् अवस्था का स्वामी वैश्वानर पुरुष जैसे सबका आदि कारण है औसबजगत् कोव्याप्त करनेवाला है ऐसे ॐकारका आदि अक्षर अकार सव वर्णों का आदि हैं और सब अक्षरों को व्याप्तकरने वाला है इससे उस अकार में जो पुरुष वैश्वानर पुरुष का अभेद करके ध्यान करता है तो संपूर्ण कामोंको प्राप्त होता है औसबका आदिकारण होता हैइसी प्रकार उकार में तैजसकी उपासना करने वाला विद्या को प्राप्त होता है और प्राज्ञ की उपासना करनेवाला ईश्वरता को प्राप्त होता है औ मात्रा के विभाग रहित ॐकार में ब्रह्मका अभेदकरके ध्यान करता हुआ निष्कल ब्रह्म को प्राप्त होता हे॥

धियोगिनोनिवृत्तसर्वेन्द्रियगोचरस्यहि।
विनिर्जितः शेषरिपोरहंसदादृश्यभवेयंजितषड्गुणात्मनः॥५३॥

ध्यात्वैवमात्मानमहर्निशंमुनिस्तिष्ठेत्सदामुक्त समस्तबन्धनः।
प्रारब्धमश्नन्नभिमानवर्जितो मय्येवसाक्षात्प्रविलीयतेततः॥५४॥

आदौ च मध्ये च तथैव चांततोभवंविदित्वाभयशोककारणम्।
हित्वासमस्तं विधिवादचोदितं भजेत्स्वमात्मानमथाखिलात्मनाम्॥५५॥

आत्मन्यभेदेन विभावयन्निदं भवत्यभेदेनमयात्मनातदा।
यथाजलं वारिनिधौयथापयः क्षीरेवियद्व्योम्न्यनिलेयथाऽनिलः॥५६॥

अब फिर नित्य समाधि कहने को लय का प्रकार वर्णन करते हैं हे लक्ष्मण अकार वाच्य जो विराट्रूप बहुतप्रकार का स्थितविश्व तिसका उकारवाच्य जो हिरण्यगर्भरूप तैजस तिसमें लयकरै अर्थात् तिसी का रूप देखे तैसे ही उकार वाच्य जो हिरण्यरूप तैजस तिसको मकार वाच्य ईश्वररूप प्राज्ञ में लयकरै अर्थात् तिसीका रूप देखैऔर यहां वाचक जे अकारादिवर्ण तिनका भी लय विवक्षित है परन्तु सर्वत्र यहां लय उपाधियों का ही जानना चेतन का लय कहीं वेदान्तशास्त्र में नहीं कहा है ५० फिर तिसके उपरान्त मकार जो ॐकारका तीसरा वर्ण तिसको औ मकार का वाच्य अर्थ जो ईश्वररूप प्राज्ञ अर्थात् कारण तिसका भी शुद्ध चैतन्य जो परब्रह्म तिसमें लयकरै अर्थात् ब्रह्मरूप ही करके देखैफिर सो उपाधि रहित निर्मल विज्ञानरूप सदा मुक्त परब्रह्म मै हूँ ऐसी भावना करै ५१ इसप्रकार उत्पन्न हुई है परमात्मा की भावना जिसको इसी से अपने स्वरूपानन्द ही करके जो तुष्ट हो रहा कुछ विषयानन्द करके नहीं क्यों कि उसको परिणाम में दुःखरूपत्व है इससे उससे विरक्त रहै और विस्मृत हुआ पुत्रादिवर्ग जिसको औसाक्षात् नित्य सुख प्रकाशस्वरूप आत्म रूप ही जो हो रहा है ऐसा जीवन्मुक्तपुरुष अचल समुद्र के तुल्य रहता है अर्थात् जैसे समुद्र की लहरी न चलायमान होयँ वह स्थिर होयँ तैसे ही विषयसम्बन्धरूप जिस चित्त की लहरी निवृत्त हुई हैं ऐसे स्थिरचित्त रहता है ५२ ऐसे को मेरी प्राप्ति होती है सो कहते हैं औहे लक्ष्मण इस प्रकार सदा अभ्यास किया है समाधि में जिसने ऐसा योगयुक्त औनिवृत्त हुये हैं सब शब्दादि इन्द्रियों के विषय जिससे औ जीते हैं कामादिक शत्रु जिसने औ सर्वज्ञ होना १ और नित्य तृप्त रहना २ औ ज्ञान स्वरूप होना ३ औ स्वतन्त्र होना ४ औसब कालमें रहना ५ औअनन्त रूप होना ६ ये छः हैं गुण जिसमें ऐसा परमात्मा जिस भक्त ने वश किया है ऐसे भक्त को मैं सदा दर्शन देता हूँ अर्थात् जो मेराभक्त योगी है उसी को मैं

दिखाई देता हूँ विमुख को नहीं ५३ औलक्ष्मण इस प्रकार रात्रि दिन आत्मा को ध्यान करने से छूट गये हैं सब कर्मबन्धन जिसके ऐसा जो मुनि सो अभिमान रहित प्रारब्ध कर्म को भोगता हुआ स्थित होता है सो प्रारब्ध भोगके अनन्तर मेरे ही विषे लीन होता है अर्थात् मेरा ही रूप हो जाता है ५४ अब सब धर्मोंमेंयही धर्म श्रेष्ठ हैइस आशय से कहते हैं कि हे लक्ष्मण आदि में औमध्य में औ अन्त्य में सबसंसार भयशोक का कारण है यह जानके और (स्वर्गकामोयजेत) स्वर्ग की जिसको कामना होय सो यज्ञकरैइसको आदि लेके ये वेद में विवाद तिन्हों करके प्रेरित जो सम्पूर्ण जाल तिसको त्यागि कै सब जीवों का स्वरूप भूत जो परमेश्वर तिसका भजन करै ५५ अब मेरे विषे अभेद भावना सेसबजगत् मेरा ही रूप होता है यह दृष्टान्त सहित वर्णन करते हैं कि हे लक्ष्मण सबका आश्रय जो मैं हूँ तिसके विषेयह अपना स्वरूप जो जीव तिस को अभेद करके ध्यान करता हुआ जब कोई प्राणी स्थित होता है तब मैं जो परमेश्वर तिसके साथ अभिन्न हो जाता हूँ कैसे इसमें दृष्टान्त कहते हैं कि जैसे नद्यादि कों का जल समुद्र में प्रविष्ट होने से समुद्र ही हो जाता है और जैसे दूध में जल मिलने से दुग्ध रूप ही हो जाता है और जैसे महाकाश में घटादि कों का आकाश महाकाश ही हो जाता है जैसे लुहार की धौकनी का पवन बहुत पवन में मिलके वैसा ही हो जाता है तैसे मेरे स्वरूप मिलिकै मोहीसा हो जाता है अर्थात्जैसे नदी आदिकों को समुद्रादि2 कों में मिलने के अनन्तर नामरूपादि भेद कुछ नहीं रहता सब समुद्र ही कहा जाता है तैसे ही ज्ञान की महिमा से मेरे विषे मिलने से भी जीवों का पृथक् नामरूप नहीं रहता है ५६॥

इत्थं यदिक्षेतहिलोकसंस्थितो जगन्मृषैवेतिविभावयन्मुनिः।
निराकृतत्वाच्छुतियुक्तिमानतो यथेन्दुभेदोदिशिदिग्भ्रमादयः॥५७॥

यावन्नपश्येदखिलंमदात्मकं तावन्मदाराधनतत्परोभवेत्।
श्रद्धालुरत्यूर्जितभक्तिलक्षणो यस्तस्यदृश्योऽहमहर्निशंहृदि॥५८॥

रहस्यमेतच्छुतिसारसंग्रहं मयाविनिश्चित्यतवोदितंप्रिय।
यस्त्वेतदालोचयतीहबुद्धिमान्समुच्यते पातकराशिभिःक्षणात्॥५६॥

भ्रातर्यदीदं परिदृश्यतेजगन्मायैव सर्वं परिहत्य चेतसा।
मद्भावनाभावितशुद्धमानसः सुखीभवानंदमयोनिरामयः॥६०॥

यः सेवते मामगुणं गुणात्परं हृदाकदावायदिवागुणात्मकम्॥
सोहं स्वपादांचितरेणुभिः स्पृशन्पुनातिलोक

त्रितयं यथारविः॥६१॥

विज्ञानमेतदखिलं श्रुतिसारमेकं वेदांतवेद्यचरणेन मयैवगीतम्।
यः श्रद्धयापरिपठेद्गुरुभक्तियुक्तोमद्रूपमेतियदिमद्वचनेषुभक्तिः॥६२॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे उत्तरकाण्डे श्रीरामगीतानाम पंचमसर्गः५॥

और हे लक्ष्मण लोक में स्थित भी मुनि इसप्रकार जीवन्मुक्त अवस्था में १ लोक व्यवहार करता हुआ भी श्रुति औ युक्ति इनके प्रमाण से खण्डित हो चुका है इस हेतु से जगत् मिथ्या है ऐसा निश्चय करता हुआ जो इसप्रकार जीव ब्रह्मके ऐक्य को जाने तो निवृत्त हुआ है जगत् की सत्यता का भ्रम जिसको ऐसा हो जाता है हां दृष्टान्त कहते हैं जैसे एक चन्द्रमा में दो चन्द्रमाओं को जो भ्रम सो एकत्व ज्ञान ही से निवृत्त होता है और जैसे पूर्वकी दिशा में पश्चिम दिशा का भ्रम अथवा घूमता हुआ जो पुरुष तिसको दिशाओं में निकटवर्ती वृक्षादिकों में घूमने का भ्रम होता है तो सब यथार्थ ज्ञान ही से निवृत्त होता है तैसे ही जगत् भ्रम भी तत्त्व ज्ञान ही से निवृत्त होता है ५७ औ हे लक्ष्मण जबतक महीं हों आधार जिसका ऐसे सबजगत् कोनहीं देखैतबतक श्रद्धाभक्ति युक्त होके अर्थात् परमेश्वर की भक्ति ही से ऐसा ज्ञान होता है और कोई उपाय से नहीं इस दृढविश्वास से जो मेरे आराधन में तत्पर होता है तिसको हृदय में राति दिन मैंदिखाई देता हूँ अर्थात् उस भक्त के हृदय में स्थित हो ऐसी बुद्धि देता हूँ जिससे मुझको प्राप्त होय ५८ और हे प्रिय लक्ष्मण यह सब वेदों के सार का संग्रहरूप रहस्य अति गोपनीयज्ञान मैंने निश्चय करके तुमसे कहा है तिसको जो बुद्धिमानपुरुष विचार करैगा सोक्षणमात्र में संपूर्ण पापों की राशि से छूटि जायगा अर्थात् जे पाप सकल पुरुषार्थ साधन भूत मेरे आराधनही को नहीं होने देते हैं जिन्होंसे छूटने का राम गीता का अर्थानुसन्धानपूर्वक पाठ करना ही परम उपाय है ५९ अब श्री भगवान् रामचन्द्र कहे हुये सब गीता के अर्थ को दृढ़ता के लिये संक्षेप से एक श्लोक करके फिर कहते हैं कि हे भ्रातः यह सब जगत् जो दिखाई देता है सो सब माया ही है यह जानके चित्तले सब त्याग के मेरी भावना से अर्थात् ध्यान से शुद्धहुआ अन्तःकरण जिसका ऐसे हो के सब दुःखों से निवृत्त और उपद्रव रहित परमानन्द स्वरूप हुये तुम सो सदा रहौयह आशीर्वाद श्रीराम लक्ष्मण को देते हैंइससे ग्रन्थ के अन्त में मंगल सूचन किया ६० औहे लक्ष्मण जो पुरुष जब कभी अर्थात् पुण्य समूहों की विपाक दशामें मायाके गुणों करके रहित औ गुणवती माया से परे सच्चिदानन्द विग्रह जो मेंहूँ तिसको अथवा सर्वज्ञत्व

भक्त बालल्यादि अनन्तकल्याण युतश्यामसुन्दर सगुणस्वरूप जो मैं हूँ तिसको भक्ति करके सेवन करता है तो मेरा ही स्वरूप है और वह पुरुष अपने चरणों की रेणुकरके जिसको स्पर्श करता है तिसका अज्ञानरूपी अन्धकार से पवित्र करता है जैसे सूर्य अपनी किरणों करके तीनों लोकों को पवित्र करते हैं ६१ और हेलक्ष्मण सब श्रुतियों का सार एक अद्वितीय विज्ञान अर्थात् विज्ञान जनक गीताशास्त्र सो वेदान्तशास्त्रकरके वेद्य है जगत्सृजनादि कर्म जिसका ऐसा जो में हूंह तिसीने गान किया है तिसको जो गुरुभक्तियुक्त पुरुष श्रद्धाकरके पढ़ता है वह मेरे रूपको प्राप्त होता है जो मेरे वचनों में भक्ति अर्थात् विश्वास होय तो इससे यह सूचन किया कि गुरुवाक्य में विश्वासयुक्त पुरुष को ही वेदान्तशास्त्र प्रसिद्ध फल की प्राप्ति होती है और श्रुति भी इसी3 अर्थको कहती है कि जिसकी परमेश्वर में परमभक्ति होय औजैसे परमेश्वर में होय तैसे ही गुरूमें भी होय उसपुरुषको वेदान्त शास्त्रमें कहे हुये अर्थ प्रकाश करते हैं ६२॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे उत्तरकाण्डे भाषाटीकायां रामगीतानाम पंचमःसर्गः५॥

श्रीमहादेव उवाच॥

एकदा मुनयस्सर्वेयमुनातीरवासिनः।
आजग्मूराघवं द्रष्टुं भयाल्लवणरक्षसः॥१॥

कृत्वाग्रेतमुनिश्रेष्ठंभार्गवंच्यवनंद्विजाः।
असंख्याताः समायातारामाद्भयकांक्षिणः॥२॥

तान्पूजयित्वापरयाभक्तया रघुकुलोत्तमः।
उवाच मधुरं वाक्यं हर्षयन्मुनिमंडलम्॥३॥

करवाणिमुनिश्रेष्ठाः किमागमनकारणम्।
धन्योस्मियदियूयंमांप्रीत्याद्रष्टुमिहागताः॥४॥

दुष्करं चापियत्कार्यं भवतां तत्करोम्यहम्।
आज्ञापयंतु मां भृत्यं ब्रह्मणादैवतंहिमे॥५॥

तच्छ्रुत्वा सहसाहृष्टश्च्यवनो वाक्यमब्रवीत्।
मधुनामा महादैत्यः पुराकृतयुगे प्रभो॥६॥

आसीदतीव धर्मात्मा देवब्राह्मणपूजकः।
तस्यतुष्टोमहादेवो ददौ शूलमनुत्तमम्॥७॥

दो० छठेसर्ग शत्रुघ्न को मुनि कारण रघुनाथ।
** भेजिलवणरिपुघातिपुनिमखसाजोनिजहाथ**

अब श्रीमहादेव जी पार्वती जी से कथा वर्णन करते हैं हे पार्वति एकसमय यमुना तटवासी मुनिलोग लवणासुर की भय से राम के देखने को आते हुये १

ते सब असंख्यक मुनि अर्थात् बहुत से मुनीश्वर श्रीराम सेअभयकी इच्छा से भार्गवों में श्रेष्ठच्यवन मुनि को आगे कर राम के समीप आवते हुये २ अब रघुकुल में श्रेष्ठ श्रीराम आये हुये उन यमुना तटबासी मुनियों को बड़ी प्रीति से पूजन करके सब मुनियों को प्रसन्न करते हुये मधुरवचन बोले ३ हे सुनि श्रेष्ठो मैं क्या आपका कार्य करूं सो कहिये और अपने आगमन का कारण कहि ये और जो आप लोग केवल प्रीति से देखने ही को आये हों तो मैं बड़ा धन्य हौं४ और दुःख कर भी अर्थात् बड़ा कठिन भी आपका कार्य होगा तिसको मैं करूंगा भृत्त्य जो मैं हूं तिसको आप आज्ञा करिये क्योंकि ब्राह्मण मेरे परम इष्टदेव हैं ५ यह राम का बचन सुनिकै परमप्रसन्न च्यवन ऋषि बचन बोले कि हे विभो पहिले सतयुग मेंमधुनाम बड़ा बली दैत्य होता हुआ ६ सो मधुदैत्य अत्यन्त धर्मात्मा औ देव ब्राह्मणों का पूजन करने वाला होता हुआ तिसके ऊपर महादेव प्रसन्न होके बड़ा श्रेष्ठ त्रिशूल देते हुये ७॥

प्राहचानेन यंहंसिसतुभस्मी भविष्यति।
रावणस्यानुजाभार्या तस्य कुंभीनसीश्रुता॥८॥

तस्यांतुलवणोनामराक्षसो भीमविक्रमः।
आसीद्दुरात्मा दुर्धर्षो देवब्राह्मणहिंसकः॥९॥

पीडितास्तेन राजेन्द्रवयं त्वांशरणं गताः।
तच्छ्रुत्वा राघवोप्याहमाभीर्वो मुनिपुंगवाः॥१०॥

लवणं नाशयिष्यामि गच्छंतुविगतज्वराः।
इत्युक्त्वा प्राहरामोपि भ्रातॄन्कोवा हनिष्यति॥११॥

लवणं राक्षसं दद्याद् ब्राह्मणेभ्यो भयं महत्।
तच्छ्रुत्वा प्रांजलिः प्राह भरतोराघवायवै॥१२॥

अहमेवहनिष्यामि देवाज्ञापयमांप्रभो।
ततोरामं नमस्कृत्य शत्रुघ्नो वाक्यमब्रवीत्॥१३॥

लक्ष्मणेनमहत्कार्यंकृतं राघवसंयुगे।
नंदिग्रामे महाबुद्धिर्भरतोदुःखमन्वभूत्॥१४॥

और यह बचन बोले कि इस शूलकरके जिसको तू मारेगा सो भस्म हो जाया करैगा और कुंभीनसीनामसे प्रसिद्ध जो रावण की छोटी भैन सो उसकी भार्या थी ८ तिसमें बड़ाभयकर पराक्रमी लवणनाम राक्षस उत्पन्न होता हुआ जो बड़ादुरात्मा और दुस्सह औ देवब्राह्मणों का मारने वाला था ९ औहे राजेन्द्र तिसराक्षस करके पीड़ित हमलोग आपके शरण प्राप्त हुये हैं यह मुनियों का वचन सुनि के श्रीराम बोले हे मुनि श्रेष्ठो अब तुम को भय नहीं होगी १० लवणदैत्य का मैं नाशकराऊंगा इससे आपलोग संताप रहित अपने गृह को जावो ऐसा वचन राम मुनियों से कहिकै फिर भाइयों से बोले कि तुमसबों में कौन लवणराक्षस का बधकरैगा ११ औ जो ब्राह्मणों को अभय दान देवै सो कहै तब यह वचन रामचन्द्रजी का सुनिकै भरत हाथ जोड़के रामसे बोलते हुये १२ कि हे देव हे

प्रभो मुझकोआज्ञा दीजिये में ही लवणा सुर का बध करोंगा फिर तिसके अनन्तर शत्रुघ्नरामको नमस्कार करके बोले १३ कि हे राम लक्ष्मण ने तौ संग्राम में आपके साथ बडाकार्य किया और श्रेष्ठबुद्धि जो भरत सो नन्दिग्राम में बड़ा दुःख भोगते हुये १४॥

अहमेव गमिष्यामि लवणस्य वधाय च।
त्वत्प्रसादाद्रघुश्रेष्ठ हन्यां तंराक्षसयुधि॥१५॥

तच्छ्रुत्वा स्वांकमारोप्यशत्रुघ्नं शत्रुसूदनः।
प्राहाद्यैवाभिपेक्ष्यामि मथुराराज्यकारणात्॥१६॥

आनाय्य च सुसंभारांल्लक्ष्मणेनाभिषेचने।
अनिच्छं तमपिस्नेहादभिषेकमकारयत्॥१७॥

दत्त्वातस्मैशरंदिव्यं रामः शत्रुघ्नमब्रवीत्।
अनेनजहिबाणेन लवणं लोककंटकम्॥१८॥

सतुसंपूज्यतच्छलं गेहे गच्छतिकाननम्।
भक्षणार्थं तु जंतूनां नाना प्राणिबधाय च॥१६॥

स तु नायाति सदनं यावद्वनचरोभवेत्।
तावदेवपुरद्वारि तिष्टत्वं धृतकार्मुकः॥२०॥

योत्स्यते सत्वया क्रुद्धस्तदाबध्योभविष्यति।
तं हत्वा लवणं क्रूरंतद्वनं मधुसंज्ञितम्॥२१॥

इससे लवणासुर के वध के लिये मैंही जाऊंगा औहे रघुश्रेष्ठ आपकेप्रसाद से उस राक्षस को में संग्राम में मारोंगा १५ तबशत्रुओं के नाशक श्रीराम शत्रुघ्न का वचन सुनिकै पो शत्रुघ्न को अपने गोद में बिठालके यह बोले कि शत्रुघ्न अभी तेरा मथुरा के राज्य के लिये अभिषेक करता हूं १६ फिर श्रीराम लक्ष्मण के द्वारा अभिषेक की सामग्रियों को मँगाके नहीं इच्छा करता हुआ जो शत्रुघ्न तिसका राज्याभिषेक स्नेहवश से करते हुये १७ फिर श्रीराम शत्रुघ्न को एक दिव्यबाण देके यह बोले कि हेशत्रुघ्न इस बाणकरके लोककंटक जो लवणराक्षस तिसको मारौ१८ और सो लवणराक्षस उस शूल को अपने गृह में पूजनकरके फिर अपने भोजन के लिये नाना प्रकार के प्राणियों को मारने के लिये व्न को जाया करता है १९ सो वह लवणराक्षसजबतक अपने घर में प्रवेश न करने पावै और वन ही में रहैतबतक तुम उसके पुरके द्वारपै धनुषलेके स्थित रहौ २० अर्थात् जिसमें त्रिशूल लेने को अपने गृह न जाने पावैतबतक पहिले से तुम उसके द्वार खडे होउ फिर क्रोधकर के वह राक्षस तुम्हारे साथ युद्ध करैगा तब तुम्हारे मारने के योग्य होगा इस प्रकार से उस क्रूर लवण राक्षस को मारके फिर जहां मधुवन है२१॥

निवेश्यनगरं तत्रतिष्ठत्वंमेऽनुशासनात्।
अश्वानांपंचसाहस्रंरथानांचतदर्धकम्॥२२॥

राजानां षट्शतानीहपत्तीनामयुतत्रयम्।

गमिष्यति पश्चात्त्वमग्रेसाधयराक्षसम्॥२३॥

इत्युक्तामूर्ध्न्यघ्राय प्रेषयामासराघवः।
शत्रुघ्नम्मुनिभिः सार्द्धमाशीर्भिरभिनंद्य च॥२४॥

शत्रुघ्नोपितथाचक्रे यथारामेण चोदितः।
हत्वामधुसुतं युद्धे मथुरामकरोत्पुरीम्॥२५॥

स्फीतांजनपदांचक्रे मथुरां दानमानतः।
सीतापिसुषुवे पुत्रौ द्वौवाल्मीकेरथाश्रमे॥२६॥

मुनिस्तयोर्नामचक्रे कुशोज्येष्ठोनुजोलवः।
क्रमेण विद्यासम्पन्नौ सीतापुत्रबभूवतुः॥२७॥

उपनीतौचमुनिनावेदाध्ययनतत्परौ।
कृत्स्नं रामायणं प्राह काव्यं बालकयोर्मुनिः॥२८॥

वहां नगर बसाके अर्थात् मथुरा को बसाय कै फिर मेरी आज्ञा से उसमें तुम राज्यकरौऔर पांच हजार घोड़े और ढाई हजार रथ २२ और छः सै हाथी और तीस हजार प्यादे इतनी सेना तुम्हारे पीछे आवेगी और तुम आगे जाके उस राक्षस को मारो २३ यह कहिकै श्रीरामचन्द्र शत्रुघ्न को शिर में सूंघके और आशीर्वाद देके मुनियों के साथ भेजते हुये २४अब शत्रुघ्न भी जैसे रामचन्द्र ने आज्ञा की तैसे ही करते हुये उस लवणासुर को युद्ध में मारके वहां मथुरापुरी को बसाते हुये २५ और समृद्ध हैं देश जिसके ऐसी मथुरापुरी को शत्रुघ्न करते हुये अब इसके अनन्तर सीता वाल्मीकि के आश्रम में दो पुत्र उत्पन्न करती हुई २६ फिर वाल्मीकि मुनि उन पुत्रों का नामकरण करते हुये ज्येष्ठ का नाम कुश और छोटे का नाम लव रक्खा फिर क्रम करके वे सीताजी के दोपुत्र सब विद्याओं करके पूर्ण होते हुये २७ जब मुनीश्वर ने उनका यज्ञोपवीत किया तब वेदाध्ययन में तत्पर होते हुये फिर संपूर्ण वाल्मीकि रामायण काव्य उन दोनों को मुनि पढ़ाते हुये २८॥

शंकरेण पुराप्रोक्तं पार्वत्यै पुरहारिणा।
वेदोपबृंहणार्थाय तावद्ग्राहयतप्रभुः॥२६॥

कुमारौस्वरसम्पन्नौ सुन्दरावश्विनाविव।
तंत्रीतालसमायुक्तौगायंतौ चेरतुर्बने॥३०॥

तत्र तत्र मुनीनां तौ समाजे सुररूपिणौ।
गायं तावभितोदृष्ट्वाविस्मितामुनयो ब्रुवन्॥३१॥

गंधर्वेष्विह किन्नरेषु भुविवादेवेषु देवालये
पातालेष्वथवाचतुर्मुखगृहे लोकेषु सर्वेषु च।
स्माभिश्चिरजीविभिश्चिरतरंदृष्टादिशःसर्वतो-
नाज्ञायीदृशगीतवाद्यगरिमानादर्शिनाश्राविच॥३२॥

एवंस्तुवद्भिरखिलैर्मुनिभिः प्रतिवासरम्।
साते सुखमेकान्ते वाल्मीकेराश्रमेचिरम्॥३३॥

अथरामोश्वमेधादींश्चकार बहुदक्षिणान्।
यज्ञान्स्वर्णमयींसीतां विधायविपुलद्यु

तिः॥३४॥

तस्मिन्वितानेॠपयः सर्वेराजर्षयस्तथा।
ब्राह्मणाःक्षत्रियावेश्यासमाजमुर्दिदृक्षवः॥३५॥

जो रामायण प्रथम महादेवजीने पार्वतीजी को उपदेश किया उसी रामायण को बाल्मीकिमुनि वेद के अर्थ की वृद्धिकरने के लिये कुश, लवको ग्रहणकराते हुये २९ फिर वे दोनों कुमार स्वर विद्या में कुशल और अश्विनीकुमार के सदृशसुंदर और वीणाके मूर्च्छना आलाप में बड़ेप्रवीण गानकरते उस वनमें विवरते हुये ३० और देवताओं कासा रूप जिनका और मुनियों के समाज में गान करते हुये तिन दोनों कुमारों को मुनिलोग चारों तरफ से देखके बड़े आश्चर्य युक्तहोके बोलते हुये ३१ कि गन्धर्वोमें और किन्नरों में भूलोक में जितने गानकरने वाले तिन्होंमें अथवा स्वर्ग में जे देवतालोंग तिन्होंमें और पाताल लोक में जे गानकरने वाले तिन्हों में अथवा ब्रह्मलोक में अथवा सब लोकों में ऐसा गानकरनेवाला बजाने वाला बहुतकाल जीवनेवाले जे हमलोग तिन्होंने न देखा न सुना और दिशा भी सब देखी तिन्हों में भी कोई नहीं देखा जैसे ये राजकुमार दोनों गान करनेवाले हैं ३२ इसप्रकार प्रतिदिन स्तुति करते हुये जो मुनि लोग तिन्होंकर के सहित बाल्मीकि के आश्रम में एकान्त में सुखपूर्वक बहुत काल तक दोनों रहते हुये ३३ अब इसके उपरान्त बड़ी कान्ति जिसकी ऐसे श्रीरामचन्द्र सुवर्ण की सीता को बनाकर बहुत है दक्षिणा जिन्होंमें ऐसे अश्वमेधादि यज्ञोंको करते हुये ३४ उन रामचन्द्रजी के यज्ञमें सब ऋषि लोग और राजर्षि और ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य ये सबबहुतसे देखने को आते हुये ३५॥

वाल्मीकिरपि संग्राह्य गायंतीतोकुशीलवौ।
जगामऋषिवाटस्य समीपं मुनिपुंगवः॥३६॥

तत्रैकांतेस्थितंशांतं समाधिविरमेमुनिम्।
कुशः पप्रच्छ वाल्मीकिज्ञानशास्त्रं कथांतरे॥३७॥

भगवन् श्रोतुमिच्छामि संक्षेपाद्भवतोखिलम्।
देहिनः संसृतिर्बंधःकथमुत्पद्यते दृढ़ः॥३८॥

कथं विमुच्यते देही दृढबंधावाभिधात्।
वक्तुमर्हसि सर्वज्ञमाशिष्यायतेमुने॥३०॥

वाल्मीकिरुवाच।

शृणुवक्ष्यामि ते सर्वं संक्षेपाद्बन्धमोक्षयोः।
स्वरूपसाधनं चापिमत्तः श्रुत्वायथोदितम्॥४०॥

तथैवाचरभद्रंते जीवन्मुक्तो भविष्यसि।
देह एवमहागेहमदेहस्य चिदात्मनः॥४१॥

तस्याहंकार एवास्मिन्मंत्रीतेनैवकल्पितः।
देहगेहाभिमानं स्वंसमारोप्यचिदात्मनि॥४२॥

और बाल्मीकि ऋषि भी रामायणके गानकरने वाले येदोनों कुश लवकुमार तिनको संगलैके जहां यज्ञमें ऋषियोंका समुदायथा तहां आतेहुये ३६ तह किसी एकान्त स्थान में समाधिके अन्त में स्थितशान्त स्वभाव जो बाल्मीकि मुनि तिनसे किसी कथाके प्रसंग में कुश जो कुमारसो ज्ञानशास्त्रको पूंछता हुआ ३७ कि हे भगवन आपसे संपूर्ण में संक्षेप से यहसुना चाहता हूं कि काहे से संसार में दृढबन्ध उत्पन्न होता है ३८ और कैसे इस संसार बन्धन से प्राणी छूटता है सो हे सर्वज्ञ आपका शिष्य जो मैंहूं तिसके अर्थ आपकहनेको योग्य हौ ३९ तब बाल्मीकि मुनि कहते हुये कि हे कुश अब संक्षेप से बन्धमोक्षका स्वरूप औ प्रसाधन मैं तुझसे कहता हूं तिसको सुन ४० फिर सुनिके जैसे मैं कहूं तैसे आचरण कर तब जीवन्मुक्त पदवीको प्राप्तहोगा और तेरा कल्याण होय औहे कुरा देहरहित जो चिद्रूप आत्मा तिसका यहदेह जो सोई एकबड़ा घर है ४१ तिस देहमें अहंकाररूप मन्त्री तिसी आत्माने कल्पना किया अर्थात् चिद्रूप आत्मा के संनिधि से मायाका अहंकाररूप परिणाम नाम रूपान्तर हुआहै इससे ऐसा कहा जाता है सोअहंकार देहरूपी गृहका अभिमान अर्थात् यहमेरा हैं इसप्रकारका अभिमान उस चिद्रूप आत्मा में आरोपण करके ४२॥

तेनतादात्म्यमापन्नः स्वचेष्टितमशेषतः।
विदधाति चिदानन्देतद्भासितवपुः स्वयम्॥४३॥

तेनसंकल्पितो देही संकल्पनिगडावृतः।
पुत्रदारगृहादीनि संकल्पयतिचानिशम्॥४४॥

संकल्पयन्स्वयं देहीपरिशोचतिसर्वदा।
त्रयस्तस्याहमोदेहाय अधमोत्तममध्यमाः॥४५॥

तमःसत्वरजःसंज्ञा जगतःकार संस्थितेः।
तमोरूपाद्धिसंकल्पान्नित्यं तामसचेष्टया॥४६॥

अत्यन्तं तामसो भूत्वाकृमिकीटत्वमाप्नुयात्।
सत्यरूपोहिसंकल्पो धर्मज्ञानपरायणः॥४७॥

अदूरमोक्षसाम्राज्यः सुखरूपोहितिष्ठति।
रजोरूपोहिसंकल्पोलोकेसव्यवहारवान्॥४८॥

परितिष्ठतिसंसारेपुत्रदारानुरञ्जितः।
त्रिविधन्तु परित्यज्यरूपमेतन्महामते॥४६॥

जिससे उस आत्मा के साथ तादात्म्य को प्राप्त है अर्थात् अभेद को प्राप्त होरहा है इससे अपना चेष्टित अर्थात् व्यापार चिदानन्द में विधान करता है न कहौ जड़ अहंकार में चेष्टा कैसे तिससे कहते हैं कि (तद्भासितवपुः) उस चिद्रूप आत्माही के संपर्कसेही प्रकाशित हुआ बपुशरीर जिसका ऐसा अहंकार है अर्थात् उसीके संपर्कसे उसमें ऐसीसामर्थ्य हुई जो चेष्टा करै ४३ फिर उस अहंकारही करके संकल्पको प्राप्तहुआ जोदेहाभिमानी आत्मासो संकल्प रूपबेड़ी से बँधा हुआ पुत्रदार गृहादिकों का संकल्प करता है अर्थात् ये मेरे होयँ ऐसी

चाहकरता है इसका आशय यह है कि यद्यपि संकल्प करना यह अहंकारहीका धर्म हैकुछ असंग अविकारी चिद्रूप आत्माका नहीं है तो भी परस्पर अभ्यास का अहंकाररूप उपाधिमें प्रतिबिम्वित जो आत्मा तिसमें अविवेककरके जलस्य चन्द्रादि प्रतिविम्बमें कम्पादिकके सदृश झूठाही प्रतीत होता तितकी निवृत्तिका उपाय मागे कहाजायगा अभीतौ चारिश्लोककर के अहंकार किये हुये संसाररूपमनर्थको कहते हैं ४४ फिर देहाभिमानी जो पुरुष सो संकल्प करता है औ जिसपदार्थ का संकल्प हुआ उसपदार्थ की प्राप्ति नहीं हुई अथवा लब्धहुभाही नष्टहोगया तो सर्वदासव काल में शोचकरता है और अहंकारके तीन देह हैं एक प्रथम एकउत्तमएक मध्यम ४५ तिसमें तमोगुण है संज्ञा जिसकी ऐसा जो देहहै सो अधम है में सत्वगुण उत्तम है और जो गुण मध्यम हैऔर ये तीनोंदेह जगत् के कारण हैं तिसमें तमोगुण प्रधानसंकल्पसे नित्यही तामसचेष्टा करके ४६ अर्थात् अज्ञानकी वृद्धिसे पश्चादितुल्य विवेकरहित आचरणोंकर के अत्यन्ततामसहो कृमिकीटादि योनियोंको प्राप्तहोता है और जब सत्वगुणप्रधान संकल्पहोताहैतौ पुरुषधर्म और ज्ञान इनमें तत्पर होता है ४७ और समीपही है मोक्षरूपचक्रवर्त्तित्वपद जिसके ऐसाहो के सुखरूपही स्थितरहता है और जिसका रजोगुण प्रधान संकल्पहोता है वह पुरुष लौकिक व्यवहार में बडाचतुर होता है ४८ और पुत्र दारादिकों की प्रीति से रँगाहुआसंसार में स्थितरहता है औ हे श्रेष्ठबुद्धियुक्त जब वह संकल्पकरनेवाला अहंकार त्रिगुणरूप तीनप्रकार के स्वरूपको परित्यागकरके ४९॥

संकल्पः परमाप्नोति पदमात्मपरिक्षये।
दृष्टीः सर्वाः परित्यज्यनियम्यमनसामनः॥५०॥

सवाह्याभ्यंतरार्थस्य संकल्पस्य क्षयंकुरु।
यदिवर्षसहस्राणि तपश्चरसिदारुणम्॥५१॥

पातालस्थस्य भूस्थस्य स्वर्गस्थस्यापितेनघ।
नान्यःकश्चिदुपायोस्ति संकल्पोपशमावृते॥५२॥

अनावाधेविकारेस्वे सुखे परमपावने।
संकल्पोपशमे यत्नम्पौरुषेणपरं कुरु॥५३॥

संकल्पतन्तौनिखिला भावाः प्रोक्ताः किलानघ।
छिन्नेतंतौनजानीमः क्वयान्तिविभवाः पराः॥५४॥

निःसंकल्पो यथा प्राप्तव्यवहारपरोभव।
क्षयेसंकल्पजालस्य जीवोब्रह्मत्वमाप्नुयात्॥५५॥

अधिगतपरमार्थतामुपेत्य प्रसभमपास्यविकल्पजालमुच्चैः।
अधिगमयपदं तदद्वितीयंवितत सुखायसुषुप्तचित्तवृत्तिः॥५६॥

इत्यध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे उत्तरकाण्डे षष्ठःसर्गः६॥

अपने रूपके क्षयमें अर्थात् संकल्प के क्षय में परमपदको प्राप्त होता है इससे हे कुश तुम अपने शुद्ध मनकरके विषयासक्त जो मन है तिसका नियम न करके अर्थात् विषयोंसे निवृत्तकरके ५० बाहर भीतर के पदार्थोंका जो संकल्प तिस का क्षयकरो और जो कदाचित् तुम हज़ारोंवर्ष तपकरौ ५१ और चाहो पातालमें जाके वासकरौ चाहो स्वर्ग में और चाहो पृथिवी लोकमें परन्तु संकल्प के क्षयके बिना कोई दूसरा उपाय मोक्षकेलिये नहीं है ५२ और उत्पत्ति विनाशादि विकाररहित परमपवित्र आत्मसुख के लिये संकल्पके उपशममें अर्थात् निवृत्ति में पुरुषार्थ करके परमयत्नकरौ ५३ औ हे अनघ निष्पाप संकल्परूप धागा में जितने सांसारिक पदार्थ हैं तेसब पुहे हुये हैं तौसंकल्प रूपधागे के टूटनेमें विगत नष्टहुआजन्ममरण संसार जिन्हों का ऐसे हुये कहां जाएँगे यहहम नहीं जानते अर्थात् सर्वथा विलयको प्राप्तहोंगे ५४इससे तू संकल्प रहित होके दैवइच्छा से प्राप्त व्यवहार में स्थितहो क्योंकि संकल्पजालके क्षयमेंजीव ब्रह्मभाव को प्राप्त होता है ५५ और प्राप्त हुई जो परमार्थता अर्थात् जीव ब्रह्मकाऐक्य तिसको प्राप्तहोके बड़ाभारी संकल्पजालको बल से काट के सुपुप्ति अवस्थाके तुल्य हुई है चित्तवृत्ति जिसकी ऐसाहो के निरन्तर सुख के लिये अद्वितीय पदको प्राप्तहो ५६॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे उत्तरकांडे भाषाटीकायांषष्ठःसर्गः ६॥

वाल्मीकिना बोधितोसोकुशः सद्योगतभ्रमः।
अंतर्युक्तो बहिः सर्वमनुकुर्वंश्चचारसः॥१॥

वाल्मीकिरपितौप्राह सीतापुत्रौ महाधियो।
तत्रतत्रचगायन्तौपुरे वीथिषसर्वतः॥२॥

रामस्याग्रेप्रगायतांशुश्रूषुर्यदिराघवः।
नग्राह्यंवैयुवाभ्यांतद्यदिकिञ्चित्प्रदास्यति॥३॥

इति तौ चोदितौ तत्रगायमानौ विचेरतुः।
यथोक्तं ऋषिणापूर्वं तत्रतत्राभ्यगायताम्॥४॥

तांसशुश्राव काकुत्स्थः पूर्वचर्यांततस्ततः।
अपूर्वपाठजातिं च गेयेनसमभिप्लुताम्॥५॥

बालयोराघवः श्रुत्वा कौतुहलमुपेयिवान्।
अथकर्मांतरे राजा समाहूय महामुनीन्॥६॥

राज्ञश्चैवनरव्याघ्रः पण्डितांश्चैवनैगमान।
पौराणिकाञ्छब्दविदये चवृद्धद्विजातयः॥७॥

दो० । सर्ग सात में जानकी शपथ सभा में कीन्ह।
पुनिधरणीहि जानकि हि अन्तर्हितजगकीन्ह १।

अब श्रीमहादेव पार्वतीजी से कथावर्णनकरते हैं कि हे पार्वति वाल्मीकि ऋषिकरके बोधको प्राप्तहुये जो कुश सो शीघ्रही नष्ट हो गया है संसाररूप भ्रम

जिसका और इसीसे भीतर तौमुक्ति अवस्थाको प्राप्तहुत्रा और बाहर से लोकके देखने में नकल सरीखी करता व्यावहारिक कर्मोंको करता हुआ १ वाल्मीकि ऋषिभी श्रेष्ठ बुद्धिहें जिन्होंकी और जहां तहां पुरकी वीथियों में रामचरित्रको गानकरते हुये जोसीताजी के पुत्र कुश लव तिनसे कहते हुये २ कि जोरामको श्रवण करने की इच्छाहोय तो रामके आगे जाके इसचरित्रको गानकरौ और जो गम कुछधनदेवें तो कुछ नहीं ग्रहण करना ३ इसप्रकार ऋषिकरके प्रेरित जेकुश लब ते तहां तहां गानकरते विचरतेहुये जहां जहां के लिये जैसे कुछ ऋषिने कहा तहां तहां गानकरते हुये ४ तब इसवार्त्ता को रामचन्द्रभी पुरवासियों के मुखसे श्रवण करते हुये कि अपूर्व एक पाठकरने की दोबालकों को रीतिआती है जो गानकरके युक्त हैं ५ यहश्रवणकरके बड़े आश्चर्य युक्तहुये और जब यज्ञकर्म में विश्रामहुआकरता था उससमय में बड़े बड़े श्रेष्ठमुनियोंको ६ और राजा लोगों को और जे वेदशास्त्र के जाननेवाले पण्डितलोगों को और पुराणके जाननेवाले पंडितोंको और व्याकरणशास्त्र के जाननेवाले थे और जे और भी ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्च वृद्धये तिनसबोंको ७॥

एतान्सर्वान्समाहूय गायकौ संप्रवेशयत्।
ते सर्वे हृष्टमनसो राजानो ब्राह्मणादयः॥८॥

रामं तौ दारकौ दृष्ट्वा विस्मिताह्यनिमेषणाः।
अवोचन्सर्व एवैते परस्परमथागताः॥९॥

इमौ रामस्य सदृशौ बिम्बाद्विम्बमिवोदितौ।
जटिलौ यदिनस्यातां न च वल्कलधारिणौ॥१०॥

विशेषं नाधिगच्छामो राघवस्यानयोस्तदा।
एवं संवदत्तांतेषां विस्मितानां परस्परम्॥११॥

उपचक्रमतुर्गातुं तावुभौ मुनिदारकौ।
ततः प्रवृत्तं मधुरं गांधर्वमतिमानुषम्॥१२॥

श्रुत्वा तन्मधुरं गीतमपराह्णे रघूत्तमः।
उवाच भरतंचाभ्यां दीयतामयुतंवसु॥१३॥

दीयमानं सुवर्णं तु नतज्जग्रहतुस्तदा।
किमनेन सुवर्णेन राजन्नौवन्यभोजनौ॥१४॥

बुलाके रामायण के गानकरनेवाले जो कुश लव तिनको सभामें बैठालते हुये तब बड़े प्रसन्नचित्त राजालोग और ब्राह्मणादिक ८ रामको और दोनों बालकों को पलकरहित नेत्रोंसे देखके परस्पर बोलते हुये ९ कि ये दोनों बालक जैसे सूर्य के विम्ब से दूसरा विम्व उदयको प्राप्तहोय तैसे रामकेसदृश है जो कदाचित् जटा वल्कलवारी में दोनों न होते १० तो राम और इन बालकों की विशेषता कुछ नदेखते इसप्रकार बड़े आश्चर्ययुक्त सब आपसमें वार्त्तालापकर रहेंगे ११ उसी समयमें दोनों मुनिबालक गाने का प्रारम्भ करते हुये तब तौ अतिमधुर ऐसागान होता हुआ जो कभी किसीमनुष्य में किसीने न सुनाथा१२

तब श्रीरामचन्द्र मध्याह्न के उत्तरकाल में अर्थात् दिन के तीसरे पहरमें उस अतिमधुर गानको सुनके प्रसन्न हो भरतसे यह बोले कि इन गानेवालेबालकों को दशहजार अशरफी देनाचाहिये १३ तब उसीसमय में भरतजीने लाकेदिया जो सुवर्ण तिसको वे बालक नहीं ग्रहणकरतेहुये और यहवचन बोले कि हे राजन् बनके कन्दमूल फलादि भोजन करनेवाले जो हम तिनको इस धनते क्या प्रयोजन है १४॥

इति संत्यज्य संदत्तं जग्मतुर्मुनि सन्निधिम्।
एवं श्रुत्वा तु चरितं रामस्स्वस्यैवविस्मितः॥१५॥

ज्ञात्वा सीताकुमारौ तौ शत्रुघ्नं चेदमब्रवीत्।
हनूमंतं सुखेणं च विभीषणमथांगदम्॥१६॥

भगवन्तं महात्मानं वाल्मीकिं मुनिसत्तमम्।
आनयध्वं मुनिवरं ससीतं देवसंमितम्॥१७॥

अस्यास्तुपर्षदोमध्ये प्रत्ययं जनकात्मजा।
करोतुशपथं सर्वेजानंतु गतकल्मषाम्॥१८॥

सीतां तद्वचनं श्रुत्वा गताः सर्वेतिविस्मिताः।
ऊचुर्यथोक्तं रामेण वाल्मीकिं रामपार्षदाः॥१६॥

रामस्य हृद्गतंसर्वं ज्ञात्वा वाल्मीकिरब्रवीत्।
श्वः करिष्यति वैसीता शपथं जनसंसदि॥२०॥

योषितां परमं दैवं पतिरेवनसंशयः।
तच्छ्रुत्वा सहसागत्वा सर्वेप्रोचुमुनेर्वचः॥२१॥

यहकहिकैऔर उस दिये हुये सुवर्णको त्यागके वाल्मीकिजी के समीपजाते हुये इसप्रकार श्रीरामचन्द्र अपना ही चरित्र श्रवणकर के आश्चर्ययुक्त होते हुये १५ फिर श्रीराम उन दोनों को सीता के कुमार जानके शत्रुघ्न औहनुमान् औसुग्रीव औ बिभीषण और अङ्गद इनसेकहतेहुये कि १६ सीताकरके सहित देवसदृश मुनियों में श्रेष्ठ जो भगवान् वाल्मीकि तिनको ल्यावो १७ और इस सभाके मध्यमें जनकनन्दिनी सीता सबजनोंको निश्चय करनेवाली शपथको करैजिससे सबजानैंकि सीता कल्मषरहित है अर्थात् निर्दोष है १८ तब ये रामके वचन सुनिकै शत्रुघ्नआदि सब परमविस्मित हो, जैसे कुछ रामचन्द्रजीने काहाथा तैसेही बाल्मीकिमुनिसे कहते हुये १९ तब रामके हृदय का आशय बाल्मीकि जानके बचनबोले कि कल्हके दिन सीता सभा में शपथ करैगी २० क्योंकि स्त्रियोंका पतिही परमदेव है इसमें कुछ संशयनहीं तब शत्रुघ्नादिक यह मुनिकावचन सुनिकै श्रीरामसे जाके कहते हुये २१॥

राघवस्यापि रामोपि श्रुत्वा मुनिवचस्तथा।
राजानोमुनयः सर्वे शृणुध्वमिति चाब्रवीत्॥२२॥

सीतायाः शपथं लोकाविजानंतु शुभाशुभम्।
इत्युक्ता राघवेणाथलोकाः सर्वेदिदृक्षवः॥२३॥

ब्राह्मणाःक्षत्रियावैश्याः शू

द्राश्चैवमहर्षयः।
वानराश्च समाजग्मुः कौतूहलसमन्विताः॥२४॥

ततो मुनिवरस्तूर्णंससीतः समुपागमत्।
अग्रतस्तमृषिं कृत्वा यांती किंचिदवाङमुखी॥२५॥

कृतांजलिर्बाष्पकण्ठासीतायज्ञं विवेशतम्।
दृट्ष्वा लक्ष्मीमिवायांती ब्रह्माणमनुयायिनीम्॥२६॥

वाल्मीकेपृष्टतः सीतां साधूवादोमहानभूत्।
तदा मध्ये जनौघस्य प्रविश्य मुनिपुंगवः॥२७॥

सीतासहायो वाल्मीकिरिति प्राह च राघवम्।
इयं दाशरथे सीता सुव्रता धर्मचारिणी॥२८॥

तबश्रीराम मुनिके वचन सुनके यह सब सभासदों से वोले कि हे राजा लोगो हे मुनियो मेरावचन तुमसबसुनो २२ कि सीता जोप्रातः काल शपथकरै तिसका शुभ वा अशुभ तुमजानौ ऐसा वचन जब रामनेकहा तौ २३ ब्राह्मण औक्षत्रिय औ वैश्यऔशूद्रऔसबलोक देखने की इच्छा करके परम आश्चर्य युक्तहोते हुये २४ तिसके उपरान्त मुनियों में श्रेष्ठ जो वाल्मीकिजी सो सीतासहित शीघ्र ही आते हुये अबबाल्मीकिमुनिको आगेकरके गमन करती औ नीचे को मुखकरे २५ औ हाथजोड़े हुये और अश्रुपातकरती सीता रामके यज्ञमें प्रवेश करती हुई अब जैसे ब्रह्माजी के पीछे स्थिरलक्ष्मी आतीहोय तैसे वाल्मीकि ऋषिके पीछेपीछे आईहुई सीताकोदेखके २६ सब मनुष्यों का साधुवाद होता हुआ अर्थात् धन्यवाद होता हुआ तब उससमय में सीतासहित वाल्मीकिमुनि मनुष्य समूह के मध्य में प्रवेश करतेहुये २७ और फिर रामचन्द्र से यह कहते हुये कि हेराम शोभन पातिव्रत्ययुक्त धर्मके करनेवाली पापरहित यह सीता २८॥

अपापाते पुरात्यक्ताममाश्रम समीपतः।
लोकापवादभीतेन त्वया राममहावने॥२६॥

प्रत्ययं दास्यते सीता तदनुज्ञातुमर्हसि।
इमौ तुसीतातनयौ इमौ यमलजातकौ॥३०॥

सुतौतु तवदुधर्षौतथ्यमेतद्ब्रवीमि ते।
प्रचेतसोहंदशमः पुत्रो रघुकुलोद्वह॥३१॥

प्रवर्तनस्मराम्युक्तं यथेमौतवपुत्रको।
बहून्वगणान्सम्यक्तपश्चर्यामयाकृता॥३२॥

नोपाश्नीयांफलं तस्या दुष्टयंयदि मैथिली।
वाल्मीकिनैवमुक्तस्तु राघवः प्रत्यभाषत॥३३॥

एवमेतन्महाप्राज्ञ यथावदसिसुव्रत।
प्रत्ययोजनितोमह्यं तववाक्यैकल्विषैः॥३४॥

लंकायामपिदत्तोमेवैदेह्याप्रत्ययोमहान्।
देवानां परतस्तेन मंदिरेसप्रवेशिता॥३५॥

लोकापवाद की भयसे मेरे द्याश्रम के समीप महावनमें तुमने त्याग करी थी सोयह २९ अबशपथ करती है जिसमें तुमको प्रतीतहोय सो तुम आज्ञा

देनेके योग्य हौऔर ये सीतामें उत्पन्न हुये कुश लव ३० दोनों तुम्हारेही पुत्र हैं यह मैं सत्यही कहताहूं और हेराम प्रचेताका मैं दशम पुत्रहौं ३१ सो अब तक अपना कोई बचन झूठा नहीं स्मरण करताहूं अर्थात् बाल्यावस्था में भी कभी झूठ नहीं बोला हौंइससे मैं सत्यकहता हूं ये तुम्हारेही पुत्र हैं और बहुत वर्षतक जो मैंने तप कियाहै ३२ तिस तपके फलको मैं न प्राप्तहोउं जो दोष युक्त सीताहोय अब इसप्रकार मुनीश्वर करके कहे हुये जो रामचन्द्र ३३ सो वचन बोलते हुये हेमहाप्राज्ञ पंडितों में श्रेष्ठ जैसे आप कहते हो सो सब ऐसे है और पापरहित अर्थात् सत्य जे आपके वाक्य तिन्होंकरके मुझको निश्चय हुआ ३४ और लंकामें भी सब देवताओंके आगे इन्द्रादिक लोकपालोंने और अग्निने प्रत्यक्षमुझसे कहा कि सीतानिर्दोष है तो मैंने गृह में प्रवेश करायाथा३५॥

सेयं लोकभयाब्रह्मन् पापापिसतीपुरा।
सीतामया परित्यक्ता भवान्तत्क्षंतुमर्हसि॥३६॥

ममैव जातजानामि पुत्रावेतौ कुशीलवौ।
शुद्धायां जगतीमध्ये सीतायां प्रीतिरस्तुमे॥३७॥

देवाः सर्वे परिज्ञाय रामाभिप्रायमुत्सुकाः।
ब्रह्माणमग्रतः कृत्वा समाजग्मुः सहस्रशः॥३८॥

प्रजाःसमागमन्हृष्टाः सीता कौशेयवासिनी।
उदङ्मुखीह्यधोदृष्टिः प्रांजलिर्वाक्यमब्रवीत्॥३६॥

रामादन्यं यथाहं वैमनसापिनचिंतये।
तथा मेघरणीदेवीविवरं दातुमर्हति॥४०॥

तथा शपंत्याः सीतायाः प्रादुरासीन्महाद्भुतम्।
भूतलाद्दिव्यमत्यर्थं सिंहासनमनुत्तमम्॥४१॥

नागेन्द्रैर्ध्रीयमाणंचदिव्यदेहैरविप्रभम्।
भूदेवीजानकी दोर्भ्यां गृहीत्वा स्नेहसंयुता॥४२॥

हेब्रह्मन् सो यह सीता पापरहिता और पतिव्रता है यह मैं जानता भी रहापरन्तु लोकापवादकी भयसे मैंने इसको त्याग किया सो अपराध आप क्षमा करने के योग्यहो ३६ और मेरेही ये दोनों कुश लव पुत्र उत्पन्न हुये हैं यह मैं जानता हूं परंतु इस लोक में शुद्ध जो सीता है तिसमें मेरी प्रीति होय इसी आशय से मैंने फिर शपथ करने को कहा ३७ अव इसके उपरांत सब देवता रामका अभिप्राय जानके बड़ी उत्कंठायुक्तहो ब्रह्माको आकरके अयोध्या को आतेहुये ३८ और हजारों प्रजाके मनुष्य जहां तहां से उस कौतुक देखने को आतेहुये और उससमय में नवीन रेशमीवस्त्र धारणकरे और उत्तर दिशा को जिसका मुख और नीची दृष्टिकरके भूमिको देखती हुई सीता हाथ जोड़ के यहवचन बोलती हुई ३९ जोरामसे अन्य किसीको मन से भी मैं न चिंतन करती होउ तौतुम सत्यकरके पृथ्वीदेवीमुक्तको विवरदेने के योग्यहौअर्थात् फटकरके मुझको ग्रहणकरौ ४० ऐसा जबसीताने वचनकहातौपरमअद्भुत अर्थात् अ-

त्यन्त आश्चर्ययुक्त ४१ और दिव्य अलौकिक अतिउत्तमरत्न जटित और नागेन्द्र अर्थात् बड़े प्रतापीनाग दिव्यरूप धारण करके जिसको अपने मस्तकपै धारणकरें औ सूर्य तुल्य जिसका प्रकाश ऐसा सिंहासन पृथ्वीको विदारण करके प्रकट होता हुआ और उससमय में दिव्यरूपको धारण करे और बड़े स्नेह करके चुक्त पृथ्वी देवी अपनीभुजादओंसे सीताजीको ग्रहणकर ४२॥

स्वागतं तामुवाचैनामासने संन्यवेशयत्।
सिंहासनस्थां वैदेहीं प्रविशन्तीरसातलम्॥४३॥

निरंतरापुष्पदृष्टिर्दिव्यासीतामवाकिरत्।
साधुवादश्च सुमहान् देवानां परमाद्भुतः॥४४॥

ऊचुश्च बहुधावाचो अंतरिक्षगताः सुराः।
अन्तरिक्षे च भूमौ च सर्वेस्थावर जंगमाः॥४५॥

वानराश्च महाकायाः सीताशपथकारणात्।
केचिञ्चिन्तापरास्तस्याः केचिद्ध्यानपरायणाः॥४६॥

केचिद्रासनिरीक्षन्तः केचित्सीतामचेतसः।
मूहूर्त्तमात्रं तत्सर्वं तृष्णींभूतमचेतनम्॥४७॥

सीताप्रवेशनं दृष्ट्रा सर्वंसंमाहितंजगत्।
रामस्तु सर्वं ज्ञात्वैव भविष्यत्कार्यगौरवम्॥४८॥

अजानन्निवदुःखेनशुशोचजनकात्मजाम्।
ब्रह्मणा ऋषिभिः सार्द्धंबोधितो रघुनन्दनः॥४६॥

अच्छातेरा आगमन हुआ यह कहिके उस दिव्य सिंहासन पे बैठालती हुई इसप्रकार सिंहासन पै स्थित रसातललोक में प्रवेश करती हुई सीताके ऊपर ४३ निरन्तर देवताओंकी कीहुई दिव्य पुष्पोंकी वृष्टिहोती हुई और देवताते का परम अद्भुत धन्यवादभी होता हुआ ४४ और आकाश में स्थितजे देवताते बहुत प्रकारकी वाणियोंको कहते हुये और आकाश में और पृथ्वीमें जितने स्थावर जंगमजीवरहे १५ और बड़ेबड़े शरीरके वानरये सब सीताके शपथ के कारणसे कोई तौ चिंता में परायण होगये और कोई सीताके स्वरूपके ध्यानमें स्थित होतेहुये ४६ और कोईरामको देखरहे हैं और कोई सीताको विना देखे मूर्च्छितहोजाते हुये इसप्रकार उससमयमें एक मुहूर्तमात्र अर्थात् दोघड़ीतक सम्पूर्ण जगत् अचेतन के सदृश अर्थात् जडसदृश होताहुआ४७ अबसीताका भूमिमें प्रवेश देखकरके सम्पूर्णजगत् मोहित होता हुआ और राम तौ सम्पूर्ण होनेवाले कार्यका निश्चयज्ञान करकेभी ४८ मनुष्य नाटकतासे अज्ञके सदृश दुःखकरके जनक नंदिनीका शोव करते हुये फिर ऋषियोंकरके सहित ब्रह्मा करके बोध कराये हुये जोराम ४९।

प्रतिबुद्ध्य इव स्वप्ताञ्चकारानंतरः क्रियाः।
विससर्जऋषीन्सर्वा

नृत्विजोयेसमागताः॥५०॥

तान्सर्वान्धनरत्नाद्यैस्तोषयामासभूरिशः।
उपादाय कुमारौतावयोध्यामगमत्प्रभुः॥५१॥

तदादिनिस्पृहोरामः सर्वभोगेषु सर्वदा।
आत्मचिन्तापरोनित्यमेकान्ते समुपस्थितः॥५२॥

एकांते ध्याननिरते एकदाराघवेसति।
ज्ञात्वा नारायणं साक्षात्कौशल्याप्रियवादिनी॥५३॥

भक्त्यागत्यप्रसन्नं तं प्रणताप्राहहृष्टधीः।
रामत्वं जगतामादिरादिमध्यांतवर्जितः॥५४॥

परमात्मा परानंदः पूर्णः पुरुषईश्वरः।
जातोसिमेगर्भगृहेममपुण्यातिरेकतः॥५५॥

अवसानममाप्यद्यसमयोभूद्रघूत्तम।
नाद्याप्यबोधजः कृत्स्नो भवबंधो निवर्तते॥५६॥

सो निद्रा से कोई जैसे जाग्रत अवस्थाको प्राप्तहोय तैसे फिर अपने स्वरूप के बोधको प्राप्तहो उत्तरकालमें होनेके योग्य जे यज्ञक्रिया तिनको करते हुये ५० फिर जे यज्ञमें ऋषि लोग ऋत्विज् अर्थात् यज्ञकराने वाले आयेथे तिन सबोंको बहुत धनरत्नादिकोंसे प्रसन्न करके बिदाकरते हुये ५१ फिर दोनों सीता के कुमारों को लेकर अयोध्या में प्रवेश करते हुये तबसे लेकर के राम सब राज भोगों से निस्पृह होते हुये ५२ अपने स्वरूपही के ध्यान में परायण नित्य एकांत देश में स्थितहोते हुये एक समय में एकांत देश में स्थित ध्यान में परायण श्रीरामचन्द्रजीथे उसी समय में प्रियवचन कहने वाली कौशल्या ५३ रामको साक्षात्नारायण जानके और समीप आके प्रसन्नस्वरूप जोराम तिनको भक्ति से प्रणामकरके प्रसन्नबुद्धिहो वचन बोलती हुई कि हे राम तुमसब जगत्के आदि कारण हो और आप आदि मध्य अन्तकरके रहित हो ५४ और तुमपरमामाहौ सबके अन्तर्यामी हौऔ परमानन्द स्वरूपौ औ आप्तकाम होनेसे पूर्ण पुरुषहौइसीसे ईश्वर ही सबके नियंताहाँसो बहुत पुण्यों की वृद्धिसे मेरे उदर में प्रकट हुये हो ५५ और हे रघुत्तम इसवृद्धावस्था में मुझको प्रश्नकरने का समय मिला है और अभीतक अज्ञानसे उत्पन्न संसारका बंधन संपूर्ण नहीं निवृत्त हुआ है ५६॥

इदानीमपि मे ज्ञानम्भवबन्धनिवर्त्तकम्।
यथा संक्षेपतो भूयात्तथा बोधयमांविभो॥५७॥

निर्वेदवादिनीमेव मातरम्मातृवत्सलः।
दयालुः प्राहधर्मात्माजराजर्जरितां शुभाम्॥५८॥

मार्गास्त्रयोमया प्रोक्ताः पुरामोक्षाप्तिसाधकाः।
कर्मयोगोज्ञानयोगो भक्तियोगश्च शाश्वतः॥५६॥

भक्तिर्विभिद्यते मातस्त्रिविधागुणभेदतः।
स्वभावोयस्ययस्तेन तस्यभक्तिर्विभिद्यते॥६०॥

यस्तु हिंसां समुद्दिश्य दम्भम्मात्सर्यमेववा।
भेददृ

ष्टिश्चसंरम्भी भक्तोमेतामसः स्मृतः॥६१॥

फलाभिसन्धिर्भोगार्थी धनकामो यशस्तथा।
अर्चादौभेदबुद्धयामाम्पूजयेत्सतुराजसः॥६२॥

परस्मिन्नर्पितं यस्तु कर्मनिर्हरणायवा।
कर्तव्यमितिवाकुर्याद्भेदबुद्ध्याससात्विकः॥६३॥

इससे इससमय में भी संसार वन्धनका निवृत्त करनेवाला ज्ञान मुझको जैसे होय तैसे संक्षेपसे कृपाकरके कहिये ५७ इसप्रकार विषयों से वैराग्य के कारणसे वचन कहती हुई और वृद्धावस्था करके जीर्ण होरहा है निष्कल्मषशरीर जिसका ऐसी जो कौशल्या माता तिससे परम दयालु धर्मात्मा जो श्रीरामचन्द्र सो वचन कहते हुये ५८ कि हे मातः पहिले मैंने मोक्ष के प्राप्ति के साधक तीन उपाय कहे हैं कर्मयोग और ज्ञानयोग और निरन्तर भक्तियोग इसका आशय यह है कि यद्यपि (ऋतेज्ञानान्नमुक्तिः) ज्ञान के बिना मुक्तिनहीं है इस सिद्धान्त से ज्ञानयोगही मुक्तिकासाधकहै तौ भी अधिकारियों के भेदसे तीन उपाय कहे हैं तिसमें जो पुरुष अत्यन्त विषयासक्त है अनेकप्रकार के उपदेशों से भी जिसको विषयोंसे विराग नहीं होता उसकेलिये मैंने निष्कामकर्म योग उपाय कहा क्योंकि उसकी यह विधि है कि हम वेद पुरुषरूप परमेश्वर की आज्ञा से उसकी प्रसन्नता के लिये जो वर्णाश्रम विहित नित्य नैमित्तिकर्म तिसका करते हैं इसका फल सिद्ध होउ वा न होउ हमारी कुच चाहनानहीं और जो कुछ होईभी सो ईश्वरके अर्पण है ऐसीबुद्धिसे जो कर्म किया जाता है उसको निष्काम कर्म योग कहते हैं इसके करनेसे अन्तःकरण की शुद्धिद्वारा ज्ञानका अधिकारी वा भक्तिका अधिकारी होता है तहां जब पूर्ण अन्तःकरणकी शुद्धि होती हैं तो सब विषयोंसे तीव्र वैराग्यको प्राप्तहो वेदांतशास्त्र प्रसिद्ध शमदमादि साधनद्वारा गुरुमुखसे महावाक्यश्रवण करतेही शुद्ध अन्तःकरण की महिमासे शीघ्रही मनन निदिध्यासन द्वारा आत्मसाक्षात्कार होतेही कृतार्थ ताको प्राप्त होता है और जो कुछ न्यून अन्तःकरण की शुद्धिहुई और उसीअवस्था में भक्तोंका सत्संग होगया तो नित्यनैमित्तिक कर्मोंसे भी चित्तको पृथक्करिकै भगवतगुणानुवाद श्रवण और भगवन्नामोच्चारणे में प्रीति और सर्वजीवों के ऊपर दया औरपरोपकारता और सत्यभाषण और अहर्निश यथा रुचि शरणागत रक्षण भक्तवात्सल्यादि अनन्तकल्याणगुणयुक्त भगवत्स्वरूपके ध्यानकी महिमासे शीघ्रही ब्रह्मात्मैक्य ज्ञानको प्राप्तहो मुक्तहोता है और जो विषयासक्तपुरुषों को जो ज्ञानयोगहीका उपदेश कियानावै तौ आत्मा संग अकर्त्ता हैं ऐसे ज्ञान से कर्म में श्रद्धा के अभाव से कर्मछुटिजाय और अन्तःकरणकीशुद्धि के अभावसे आत्म साक्षात्कारके नहीं होनेसे धनादिपदार्थों में आसक्ति और

विषयानन्द में नीरसताके अनुभव के अभावसे संसाररूप आत्यन्तिकदुःख की निवृत्ति दुर्लभही होजायगी और अन्तःकरणकी शुद्धिके नहीं होनेसे बहुत से कलियुग के वेदान्ती लोग औरों को ब्रह्मज्ञानका उपदेशकरते हैं आप कामक्रोध लोभ से भरे हुये धनादिकन की आशासे विविध उपाय रचते डोलते हैं औ जिस पुरुष की पुण्य विशेष से भगवच्चरणकमल में प्रीति तौ उत्पन्न हुई परन्तु संसारबन्धन कात्याग भी नहीं हो सक्ता है अर्थात् तीव्र वैराग्य नहीं तौ वह भक्तियोगका अधिकारी और जो पूर्ण अन्तःकरणंकी शुद्धिसे जिसको तीव्र वैराग्य हुआ होय वह ज्ञानयोगका अधिकारी है और जहाँ मुक्ति से भी भक्तिको स्वतन्त्र कहा है वहां ज्ञान और भक्तिके अभेद में तात्पर्य है इससे कहीं विरोध नहीं आसक्ता और कर्म और ज्ञानकी तौ कभी एकत्र स्थिति होनहींसक्ती क्योंकि उन दोनों का दिन रात्रिके तुल्य परम विरोध इससे केवल कर्म से मुक्तिहोती है यह कथन केवल मनोरथही मात्र है तिससे श्रीरामचन्द्रजीने अधिकारीके भेद करकेही तीन उपाय मोक्ष के कहे कुछ तीनों के स्वातन्त्र्य कहने में तात्पर्य नहीं और जो ऐसा न कहोगे तौ वेदांतशास्त्रोंका विरोध आवेगा और इस अध्यात्म रामायणही में परस्पर वचनों से विरोधहोगा क्योंकि रामगीता में ब्रह्मविद्याही का स्वातंत्र्य वर्णन किया है कर्म्मकी स्वतन्त्रताका खण्डन किया है ५९ अब श्रीरामचन्द्रजी भक्तियोगकी श्रेष्ठता वर्णन करते हैं कि हे मातः इनतीनों मार्गो में भक्तियोग सुलभ है औ श्रेष्ट है परन्तु वह भक्ति सत्व रज तम इनतीनगुणों के भेदसे भेदको प्राप्त होती है क्योंकि जिसका जैसा स्वभाव होगा उसको भक्ति भी वैसेही होगी जैसे सात्विक स्वभाव पुरुषको भक्तिसात्विकी होती है औ रजो गुण स्वभावको राजसी और तामस स्वभाव युक्त पुरुषको तामसीभक्ति होती है औगुणातीत स्वभावको निर्गुण भक्तिहोती है ६० तिसका स्वरूपन्यारा न्यारा कहते हैं कि जो पुरुष किसी शत्रुकी हिंसाको और दम्भको अर्थात् लोकमें सत्कारको औ अन्य पुरुषके गुणों के नहीं सहने से उसको नीचादिखाने को मनमें विचारिक भेददृष्टि से अर्थात् शत्रु मित्रादि दृष्टि से औ संरंभकरके ग्रह बसे क्रोधकरके परमेश्वर की भक्तिकरें वह तामसभक्त कहाता है तौ उसकी भक्ति भी तामसी हुई ६१ और जो स्वर्ग राज्यादि फलकी इच्छा से औइस लोक में इन्द्रियों के भोग के लिये और जो धनकी और यशकी कामनाले प्रतिमादिक में भेद बुद्धि करके उपास्य उपासक भावसे मेरा पूजन करे वहअ राजस भक्त है और उसकी भक्ति राजती है ६२ और जो पुरुष जोकुछ करै सो परमेश्वरही के अर्पणकरे और संसाररूप बन्धनकी निवृति के लिये भगव द्भजन हमको अवश्य करना है ऐसे मनमें रखिकै दास स्वामि भावसे पूर्वोक्त

पूजनादिकरैवह सात्विक भक्त होता है और उसकी भक्ति सात्विकी है ६३॥

मद्गुणाश्रयणादेव मय्यनंतगुणालये।
अविच्छिन्नामनोवृत्तिर्यथागंगाम्बुनोम्बुधौ॥
तदेव भक्तियोगस्य लक्षणं निर्गुणस्यहि॥६४॥

अहैतुक्यव्यवहिताया भक्तिर्मयिजायते।
सामेसालोक्यसामीप्य सार्ष्टिसायुज्यमेव वा॥६५॥

ददात्यपि न गृह्णंति भक्तामत्सेवनंविना।
स एवात्यंतिकोयोगो भक्तिमार्गस्यभामिनि॥६६॥

मद्भावं प्राप्नुयात्तेन अतिक्रम्यगुणत्रयम्।
महताकामहीनेन स्वधर्माचरणेन च॥६७॥

कर्मयोगेनशस्तेन वर्जितेन विहिंसनम्।
मद्दर्शनस्तुति महापूजाभिः स्मृतिबंदनैः॥६८॥

भूतेषुमद्भावनयासंगेनासत्यवर्जनैः।
बहुमानेन महतां दुःखिनामनुकम्पया॥६९॥

स्वसमानेषु मैत्र्या च यमादीनां निषेवया।
वेदान्तवाक्यश्रवणान्ममनामानुकीर्तनात्॥७०॥

और हेमातः मेरे गुणों के श्रवणमात्रहीसेअर्थात् सुनतेही जिसपुरुष की मनोवृति अनन्त कल्याणगुणालय अर्थात् अनंतकल्याण गुणों का आश्रय जो में हूं तिस में विच्छेदरहित कभी नहीं छूटनेवाली जैसे गंगा के जलका समुद्र से बड़ी उमंग से प्रवेश होता है तैसे स्वभावहासे प्रवेश करै सो निर्गुण भक्ति4योगका लक्षणहै यद्यपि अनन्तकल्याण गुणालयसगुणस्वरूपहीमें गंगा प्रवाह सदृश भक्तकी चित्तवृत्तिका निरंतर प्रवाह यहां वर्णन किया तो भी भक्तके चित्त वृत्ति कामादि कपटकेनहीं होनेसे औ भेदबुद्धिके अभावसे सगुण निर्गुण की एकरूप ताकी भावनासेनैर्गुण्यफलही इसकाहोना इससे इसको निर्गुण भक्ति कहते हैं ६४ इसी आशय से अब श्रीरामचन्द्रजी कहते हैं कि हेमातः प्रयोजन रहित और निरन्तर जो मेरेविषे अर्थात् परमानन्द स्वरूप जो मैं तिस में भक्तिनाम प्रीतिहोती है तो उस भक्तको सालोक्य औसामीप्य औसारूप्य औसायुज्यइसप्रकार से चारप्रकारकी मुक्तिको देती भी है ६५ परन्तु मेरेभक्त सिवाय मेरे सेवन के उसकी नहीं चाहकरते हैं अर्थात् परमानन्दस्वरूप में चित्तवृत्ति के रमणसे किसी पदार्थकी अपेक्षा होतीही नहीं और हे मातः यही उसभक्ति योगका पूर्ण योग है जो किसी पदार्थकी इच्छा न होना ६६ और इसी भक्ति योग करके तीनों गुणों को अति क्रमणकरके अर्थात् उल्लंघन करके मेरे भाव को प्राप्तहोता है व इस भक्ति योग के साधन कहते हैं कि कामना और प्राणि-

यों की हिंसा तिस करके रहित जो बड़ाभारी अपने धर्म्मका आचरण ६७ सो हुआ क्रियायोग तिस करके और मेरा दर्शन औ स्तुति औ प्रणाम इन्हों करके ६८ औ सब प्राणियों में मेरी भावना करनेसे और दुष्टों के संगको परित्याग करनेसे अथवा वैराग्य करके और झूठके त्यागसे और महात्मा पुरुषों के बहुत मानकरने से और दुःखित पुरुषोंके ऊपर दयाकरनेसे ६९ और अपने समान में मैत्री करने से और यम नियमादिकों के सेवन करनेसे और वेदांत वाक्योंके श्रवण करनेसे और मेरे नामके कीर्तन से ७०॥

सत्संगेनार्जवेणैवह्यहमः परिवर्जनात्।
कांक्षयाममधर्मस्य परिशुद्ध्यांतरोजनः॥७१॥

मद्गुणश्रवणादेव यातिमामंजसाजनः।
यथावायुवशात् गंधःस्वाश्रयाद् घ्राणमाविशेत्॥७२॥

योगाभ्यासरतं चित्तमेवमात्मानमाविशेत्।
सर्वेषु प्राणिजातेषु ह्यहमात्माव्यवस्थितः॥७३॥

तमज्ञात्वा विमूढात्मा कुरुते केवलं बहिः।
क्रियोत्पन्नैर्नैकभेदैर्द्रव्यैर्मेनाम्बतोषणम्॥७४॥

भूतावमानिनाचार्यामर्चितोहं न पूजितः॥७५॥

तावन्मामर्चयेद्देवं प्रतिमादौ स्वकर्मभिः।
यावत्सर्वेषु भूतेषु स्थितं चात्मनिनस्मरेत्॥७६॥

यस्तुभेदं प्रकुरुते स्वात्मनश्च परस्य च।
भिन्नदृष्टेर्भयंमृत्युस्तस्यकुर्यान्नसंशयः॥७७॥

और धर्मनिष्ठ सत्पुरुषों के संग से औ कोमल स्वभावसे और देहादिक अनात्म पदार्थों में अहंकार के त्यागसे और शुद्ध सात्विक भगवद्ध में इच्छा करने से इनसब साधनों से शुद्धहुआ अन्तःकरण जिसका ऐसा जो पुरुष ७१ तिसकामन मेरे गुणों के सुनतेमेरे में आता है अर्थात् ब्रह्माकर उसकी चित्त वृत्ति होती है फिर वह मेराही स्वरूप होजाता है और हे मातः जैसे पवनकेवश से कमलादिकों का सुगन्धघ्राण इन्द्रियमें आइकै प्राप्तहोता है ७२ ऐसेही योगाभ्यास करके वशीकृत जो चित्तसो बिकार रहितहुआ आत्मामें प्रवेश करता है और सब प्राणियों में मैंही आत्मरूपकरके स्थितहों ७३ तिस आत्माको बिना जाने देहबुद्धिसे सबप्राणियों में द्वेषकरता हुआ विमूढात्मा पुरुष केवल बाहिरकी क्रिया करके उत्पन्न हुये जे गन्ध पुष्पाक्षतादि द्रव्यतिन्होंकरके बहिर्दृष्टिसे भक्तिरहित प्रतिमाके बिषे मेरा पूजन करता है ७४ तौतिस प्राणियों के अवमान करनेवाले देहदृष्टि पुरुष के ऊपर नमैंप्रसन्न होता हूं और न उनकी पूजा करके मैं पूजित होता हूं इसका आशय यह है किसब जीवों को मेरी दृष्टि से सत्कार करने वाला जोपुरुष सो मेरी सर्व व्यापकता के निश्चयसे प्रतिमा में मेरी बुद्धिसे प्रेमकरके पूजन करता है वहीपूजन मुझको पहुंचता है और

जो भिन्नदर्शीपुरुषभक्ति श्रद्धारहित मेरापूजन करता है उससे मैं प्रसन्ननहीं होता है इससे भेदबुद्धिका त्यागके सब जीवोंमें दयामैत्री सत्कारादि यथोचित करें इसमें भगवानका तात्पर्य है और प्रतिमा पूजन के निषेध में तात्पर्य नहीं है अन्यथा यहांहीं रामके आगमन के उत्सवमें भरतजीने शत्रुघ्नसे कहाकि कोई पवित्रपुरुषपुष्पदीपोपहारादिकों करके नगरभरे के देवमन्दिरों में सब देव मूर्तियों का पूजन करे इत्यादि वाक्योंसे विरोध पड़ेगा और वास्तव में तौकर्म लक्षणा साधन भक्तिहीमें प्रतिमा आदि बाह्य आधारोंमें अन्तःकरणकी शुद्धि केलिये गन्धमाल्यादि बाह्यसामग्रियों करके भगवत्पूजनकी आवश्यकता है और ज्ञान लक्षणा भक्तिमेंतौसबजीवों में दया और शमदसादि साधन पूर्वक ध्यान धारणा समाध्यादि जे अन्तरंग साधन है तिन्होंकी आवश्यकता है इसी आशय से श्रीराम कौशल्या से कहते है ७५ कि हे मातः तबतक वर्णाश्रम धर्मोकरके प्रतिमा आदिमें मेरा पूजनकरै जबतक सब प्राणियों में और अपने हृदय में स्थित जो मेंहूं तिसको निश्चय करके न जानै७६ अर्थात् हृदयमें जब ठीकठीक मुझको जानिलेवैतौध्यानादिकरके हृदिस्थ जो मैंहं तिसीका पूजन करें और जोपुरुष अपना विराना ऐसा भेदकरके देखता है उस भेद देखने वाले पुरुषको मृत्युरूप होकर के मैं भयकरताहूं इसमें कुछ संशय नहीं है ७७॥

मामतः सर्वभूतेषु परिच्छिन्नेषु संस्थितम्।
एकंज्ञानेन मानेन मैत्र्याचाचैदभिन्नवीः॥७८॥

चेतसैवानिशं सर्वभूतानि प्रणमेत्सुधीः।
ज्ञात्वा सां चेतनं शुद्धं जीवरूपेण संस्थितम्॥७६॥

तस्मात्कदाचिन्नेक्षेतभेदमीश्वरजीवयोः।
भक्तियोगो ज्ञानयोगो मयामातरुदीरितः॥८०॥

आलम्व्यैकतरं वापि पुरुषः शमपृच्छति।
ततो मां भक्तियोगेन मातः सर्वहृदिस्थितम्॥८१॥

पुत्ररूपेण वा नित्यं स्मृत्वाशांतिमवाप्स्यसि।
श्रुत्वारामस्य वचनं कौशल्यानंदसंयुता॥८२॥

रामं सदाहृदिध्यात्वा द्वित्वा संसारबन्धनम्।
अतिक्रम्यगतीस्तित्रोप्यवापपरमांगतिम्॥८३॥

कैकेयीचापियोगं रघुपतिगदितंपूर्वमेवाधिगम्य
श्रद्धाभक्तिप्रशांताहृदि रघुतिलकं भावयंतीगतासुः।
गत्वास्वर्गं स्फुरंती दशरथसहिता मोदमानावतस्थे
माताश्रीलक्ष्मणस्याप्यतिविमलमतिःप्रापभर्त्तुःसमीपम्॥८४॥

इति श्रीमद्रव्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे उत्तरकाण्डे मातॄस्वर्गप्रस्थानं नाम सप्तमस्सर्गः७॥

और हे मातः इस कारण सेसबन्यारेन्यारे भूतों में मैं हीएक परमात्मास्थि-

तहूं ऐसे ज्ञानकर के सबप्राणियोंका सत्कार और मित्रताकरके अभेददृष्टिसे मेरा पूजनकरै ७८ और ज्ञानीपुरुष सबमें जीवरूपकरके स्थितजो चेतनरूप मैं तिसकोजानके मनहीसे सब प्राणियों को प्रणामकियाकरै क्योंकि निर्गुण परमात्मामें कार्यव्यापारका असंभव इस हेतु से ७९ जिससे मैहीं सर्वत्रजीवरूप करके स्थितहौंइसकारणसे कभीजीव ईश्वरके भेदको न देखै अब इसप्रकार हेमातः भक्तियोग और ज्ञानयोग मैंने तुझसे कहा ८० सो इनदोनोंमें एकको जो आश्रयकरै तौ वह पुरुष शांतिरूप सुखको प्राप्तहोता है इससे हे मातः जो मैंने कहा भक्तियोग तिसकरके सब प्राणियों के हृदय में स्थितजो मैं तिसको ईश्वर रूपकरके ८१ वा पुत्ररूप करके स्मरणकरती हुई शांतिको प्राप्तहोगी अर्थात्सब दुःखोंकी निवृत्तिको प्राप्तहोगी यहरामका बचन सुनके आनन्द युक्त कौशल्या ८२ सो राम को सदाहृदयमें ध्यानकरके संसाररूप बन्धनको काटिकै सात्विकी राजसी तामसी इनतीनों गतियों को उल्लंघनकरके परमगतिको प्राप्त होती हुई अर्थात् मोक्षको प्राप्तहोती हुई ८३ और कैकेयीभी जो चित्रकूट पर्वत पै रामने पहिले योगका उपदेश कियाथा उसको जानके श्रद्धा औ भक्ति इन्होंकरके प्रशांत हुआ हृदय जिसका ऐसीहो रामको हृदय में ध्यान करती हुई प्राणों को त्यागकर स्वर्गको प्राप्तहो दिव्यरूप करके प्रकाशमान दशरथकरके सहित आनन्द करती हुई स्थितहोती हुई और अत्यन्त निर्मल है मति जिसकी ऐसी जो श्रीलक्ष्मणजी की माता सुमित्रा सो भी दशरथ के समीप प्राप्तहोती हुई ८४॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे उत्तरकाण्डे भाषाटीकायां
मातॄणांस्वर्गप्रस्थापनो नाम सप्तमःसर्गः ७॥

श्रीमहादेव उवाच॥

अथकालेगते कस्मिन् भरतोभीमविक्रमः।
युधाजितामातुलेन ह्याहूतोगात्ससैनिकः॥१॥

रामाज्ञयागतास्तत्र हत्वा गंधर्वनायकान्।
तिस्रः कोटीःपरे द्वेतनिवेश्य रघुनंदनः॥२॥

पुष्करं पुष्करावत्यां तक्षतक्षशिलाह्वये।
अभिषिच्यसुतौतत्र धनधान्यसुहृद्वृतौ॥३॥

पुनरागत्य भरतो रामसेवापरोभवत्।
ततः प्रीतो रघुश्रेष्ठो लक्ष्मणं प्राहसादरम्॥४॥

उभौ कुमारौ सौमित्रे गृहीत्वा पश्चिमांदिशम्।
तत्र भिल्लान्विनिर्जित्यदुष्टान् सर्वापकारिणः॥५॥

अंगदचित्रकेतुश्च महासत्वपराक्रमौ।
द्वयोर्द्वेनगरेकृत्वा गजाश्व धनरत्नकैः॥६॥

अभिषिच्यसुतौतत्र शीघ्रमागच्छमां पुनः।
रामस्याज्ञां पुरस्कृत्य गजाश्वबलवाहनः॥७॥

दो०।सर्गआठमें लपणको त्यागकियों रघुनाथ।
सोपुनियोगसमाधि निजलोकगयो अहिनाथ१॥

अबश्रीमहादेव जी पार्वतीजी सेकथा वर्णनकरते हैं कि हेपार्वति अब इसके उपरांत कुछसमय व्यतीत हुआ तौ युधाजित नाम अपने मामा करके बुलाये हुये बहुपराक्रमी भरतजी सेनाकरके सहित रामकी आज्ञासे केकय देशको जाते हुये १ फिर वहां उस देशके समीप गन्धर्व वासकरतेथे तिनकेसंग युद्ध करके तीन कढोर गन्धर्वोकोमारके भरतजीदोनगर बसातेहुये २ तिसमें पुष्करावती नगरी में पुष्करको और तक्षशिलनाम नगरमें तक्षपुत्रको राज्याभिषेक करके फिर उन दोनों पुत्रों को धनधान्य ते परिपूर्ण करके ३ फिर भरत अयोध्या में आके रामसेवाही में तत्पर होतेहुये फिर प्रसन्नहोके रामचन्द्र आदर पूर्वक लक्ष्मणसे बोले ४ कि लक्ष्मण दोनों अपने पुत्रोंको लेकै पश्चिम दिशाको तुम जाउ तहां बड़ेदुष्ट भीलरहते हैं तिनको तुमजीतिकै ५ हाथी घोड़े धन रत्नोंकर के पूर्ण दो नगर तहां बसाकर के अंगदऔर चित्रकेतु इन दोनों पुत्रोंका अभिषेककरके ६ अर्थात् एकएकनगरका राज्यदैके फिर तुमशीघ्रही मेरे समीपआवो तब लक्ष्मण रामकी आज्ञाको ग्रहणकरके हाथी घोड़े आदि सेनाको लैके ७॥

गत्वाहत्वारिपून् सर्वान् स्थापयित्वा कुमारकौ।
सौमित्रिः पुनरागत्य रामसेवा परोभवत्॥८॥

ततस्तुकाले महतिप्रयाते रामं सदाधर्मपथेस्थितेहरिम्।
द्रष्टुंमागादृषिवेषधारीकालस्ततो लक्ष्मणमित्युवाच॥९॥

निवेदयस्वातिबलस्यदृतं मां द्रष्टुकामं पुरुषोत्तमाय।
रामायविज्ञापनमस्तुतस्य महर्षिमुख्यस्य चिरायधीमन्॥१०॥

तस्यतद्वचनं श्रुत्वा सौमित्रस्त्वरयान्वितः।
आचचक्षेथ रामाय ससंप्राप्तन्तपोधनम्॥११॥

एवं ब्रुवतं प्रोवाच लक्ष्मणं राघवोवचः।
शीघ्रम्प्रवेश्यतांतातमुनिःसत्कारपूर्वकम्॥१२॥

लक्ष्मणस्तुतथेत्युक्त्वा प्रावेशयततापसम्।
स्वतेजसाज्वलंतं तं घृतसिक्तं यथानलम्॥१३॥

सोभिगम्यरघुश्रेष्ठं दीप्यमानः स्वतेजसा।
मुनिर्मधुरवाक्येन वर्धस्वेत्याहराघवम्॥१४॥

वहांजाके उन शत्रुओं को मारके और दोनों पुत्रोंको राज्य में स्थापन करके फिरआके रामसेवामें परायण होतेहुये ८ फिर तिसके उपरांत बहुत काल व्यतीत हुआ तब सदा धर्ममार्ग में स्थित और सबके हृदय में स्थित जो राम तिनको देखने को कालही साक्षात् ऋपिरूपको धारणकर आके लक्ष्मणसे यह वचन बोलता हुआ ९ कि हेलक्ष्मण सबमहर्षियोंमें श्रेष्ठ अतिबलका मैंदूत हो औराम देखने की इच्छा करके आयाहों और उनमहर्षिका संदेशा देरतक

मुझको कहना है यह सब पुरुषोत्तम जो राम तिनसे जाके खबरि करौ १० तब तौ यह उसकाल पुरुषका वचन सुनके बड़ी शीघ्रतायुक्त होके प्राप्तहुआ जो तपोधन तिसको रामसे कहतेहुये ११ ऐसे वचन कहते हुये जो लक्ष्मण तिनसे राम बोले कि हे तात शीघ्रही उस मुनिको सत्कारपूर्वक मेरेपास ल्यावो १२ तब लक्ष्मण घृतकी आहुति से प्रज्वलित जो अग्नि तिसके तुल्य तेज करके प्रकाशमान जो वह तपस्वी तिसको रामकेसमीप प्रवेश कराते हुये १३ तौ वह मुनि अपने असाधारण अर्थात् जो किसी और में न पायाजाय ऐसे तेजकरके प्रकाशमान जो राम तिनसे मधुरवचन करके बर्द्धस्व अर्थात् इससे भी अधिक ऐश्वर्य करके वृद्धि को प्राप्तहोउ यह कहताहुआ १४॥

तस्मैसमुनयेरामः पूजां कृत्वा यथाविधि।
पृष्टानामयमव्यग्रोरामःपृष्टोतथेनसः॥१५॥

दिव्यासने समासीनोरामः प्रोवाचतापसम्।
यदर्थमागतोसित्वमिहतत्प्रापयस्वमे॥१६॥

वाक्येन चोदितस्तेनरामेणाहमुनिर्वचः।
द्वन्द्वमेवप्रयोक्तव्यमनालक्ष्यंतुतद्वचः॥१७॥

नान्येनचैतच्छ्रोतव्यंनाख्यातव्यंचकस्यचित्।
शृणुयाद्वानिरीक्ष्येद्वायः सबध्यस्त्वयाप्रभो॥१८॥

तथेतिचप्रतिज्ञायरामोलक्ष्मणमब्रवीत्।
तिष्ठत्वंद्वारिसौमित्रेनायात्वत्रजनोरहः॥१६॥

यद्यागच्छतिकोवापिसबध्योमेनसंशयः।
ततः प्राहमुर्निरामोयेनवात्वंविसर्जितः॥२०॥

यत्ते मनीषितंवाक्यंतद्वदस्वममाग्रतः।
ततः प्राहमुनिर्वाक्यं शृणुरामयथातथम्॥२१॥

फिर उस तपस्वी करके कुशल प्रश्न पूछेगये जो रामसो उस तपस्वीका विधि पूर्वक पूजन करके १५ और कुशल पूछिकै बचन बोलते हुये कि हे मुने जिसकारण से आप आये हैं सो कहिये १६ जब रामने ऐसा कहातौ वह मुनि बोला कि हेराम मैं और आप दोई जनेहोयँ तीसरा कोईनहोय तो मैं आपसे वार्त्ताकरौंक्योंकि वहबचन किसी और के जानने के योग्य नहीं है अर्थात्अतिरहस्य है १७ जो मैं वचन आपसे कहीं तिसको और न कोई सुनैऔर न और के आगे आप कहैंऔर हमारे आपके वार्तालाप करने में जो कोई सुने अथवा देखै सो मापका वध्यहोगा अर्थात् वह माराजावे १८ फिर श्री राम तैसेही उस मुनिसे प्रतिज्ञाकर के लक्ष्मण से बचन बोले कि हे लक्ष्मण तुम द्वार स्थित रहौ जिसमें कोई पुरुष मेरे समीप न आने पावै १९ और जो कोई आवैगा उसको मैं मारडालोंगा इसमें कुछ संदेह नहीं है फिर तिसके अनन्तर राम मुनिसे कहते हुये कि जिसने तुमको भेजा है तिसकाजासंदेशाहोय अथ-

वा तुमको जो कुछ अभीष्टहोय सो मेरे प्रागेकहौ २० तब वह मुनि बोला है राम में सत्य आपसे कहता हूं तिसको सुनिये २१॥

ब्रह्मणाप्नपितोस्मीशकार्यार्थतेतिकंप्रभो।
अहंहिपूर्वजोदेवतवपुत्रः परंतप॥२२॥

मायासंगमजोवीरकालःसर्वहरःस्मृतः।
ब्रह्मात्वामाहभगवान्सर्वदेवर्षिपूजितः॥२३॥

रक्षितुंस्वर्गलोकस्यसमयस्तेमहामते।
पुरात्वमेक एवासीर्लोकान् संहत्यमायया॥२४॥

भार्य्ययासहितस्त्वंमा मादौपुत्रमजीजनः।
तथाभोगवतंनागमंनतमुदकेशयम्॥२५॥

माययाजनयित्वा त्वंद्वौससत्वो महाबलौ।
मधुकैटभकौदैत्यौहत्वामेदोस्थि संचयम्॥२६॥

इमां पर्वतसंबद्धां मेदिनींपुरुषर्षभ।
पद्मदिव्यार्कसंकाशेनाभ्यामुत्पाद्यमामपि॥२७॥

मांविधायप्रजाध्यक्षंमयि सर्वंन्यवेदयत्।
सोहं संयुक्तसंभारस्त्वामवोचं जगत्पते॥२८॥

हे ईश में ब्रह्माका भेजा हुआ कुछ ब्रह्माका अभीष्ट कार्य के अर्थ आयाहूं और हे राम आपका जब मायासे संयोगहुआ तो सब से ज्येष्ठ आपका पुत्र सबके संहार करनेवाला काल नामकरके मैं हूं २२ औ हे भगवन् सब देवर्षियों करके पूजित जो ब्रह्मा सो जो कहते हुये हैं तिसको सुनिये हे महामते अबयह स्वर्गलोकके रक्षाकरनेका तुम्हारासमय है २३ तुम मायाकरके सब लोकोंका संहारकर के पहिले तुम्हीं एक होतेहुये फिर अपनी मायारूप भार्या करके सहित तुम में जो ब्रह्मातिसको सृष्टि की याद में अपनापुत्र रूपकरके उत्पन्न करतेहुये २४ तैसेई बहुत हैं फणजिसके और जल में शयन करने वाला ऐसा जो अनन्त नाग तिसको मायाकरके उत्पन्न करते हुये इसप्रकार शेषनागओ मैं ये दोनों बड़े बल पराक्रम युक्तहोते हुये २५ भी पुरुषर्षभपुरुषों में श्रेष्ठ पहिले आप मधु कैटभ इन दैत्योंको मारके इनके मेदा अर्थात् चरबी अस्थिसमूह इन्हींकरके पर्वत सहित पृथिवीको रचतेहुये २६ और सूर्य के तुल्य है प्रकाश जिसका ऐसा दिव्य अपने नाभि कमल तिसके ऊपर सब प्रजाओं का स्वामी जोमें हूं तिसको रचिकै फिर सब प्रजाका भार मेरेविषे स्थापन करते हुये २७ फिर अंगीकार किया प्रजाका पालनादि भारजिसने ऐसाजो मैं सो हेजगत्पते तुमसे प्रार्थना करता हुआ कि जो मेरे पराक्रम के नाशकरनेवाले अर्थात् मेरी पूजाके नाशकरने वाले भूतहें तिनसे मेरी रक्षाका विधानकरिये २८॥

रक्षाविधत्स्व भूतेभ्योयेमेवीर्यापहारिणः।
ततस्त्वं कश्यपाज्जातोविष्णु वार्मनरूपधृक्॥२९॥

हतवानसिभूभारंवधाद्रक्षोगणस्यच।

र्वासूत्सार्यमाणासुप्रजासुधरणीधर॥३०॥

रावणस्य वधाकांक्षी मर्त्यलोकमुपागतः।
दशवर्षसहस्राणि दशवर्षशतानि च॥३१॥

कृत्वावासस्यसमयांत्रदशेष्वात्मनः पुरा।
सतेमनोरथः पूर्णः पूर्णेचायुषितेनृषु॥३२॥

कालस्तापसरूपेणत्वत्समीपमुपागमत्।
ततोभूयश्चते बुद्धिर्यदिराज्यमुपासितम्॥३३॥

तत्तथाभवभद्रं ते एवमाहपितामहः।
यदि ते गमने बुद्धिर्देवलोकजितेन्द्रिय॥३४॥

सनाथाविष्णुनादेवाभवं तुविगतज्वराः।
चतुर्मुखस्यतद्वाक्यं श्रुत्वा कालेनभाषितम्॥३५॥

तौ विष्णुरूप आप कश्यपऋषि से अदिति में वामनरूप को धारणकरे प्रकट होते हुये फिर राक्षसों के समूहको मारके पृथ्वी के भारको हरतेहुये २९ और हेधरणीधर अब जब प्रजासब दुःखकरके पीड़ित हुई ३० तो रावणके बध की इच्छा से मनुष्य लोक में आके प्राप्तहुये सो दशहजार और दशशतबर्ष पृथिवी में अपने वासका समय अर्थात् संकेत देवताओं में करतेहुये ३१ सो तुम्हारा मनोरथ पूराहुआ और मनुष्यों की आयुभी पूर्णहुई ३२ और काल जो है सो तपस्वी के बेषकरकेआपके समीप प्राप्त होता है और हेराम तिससंकेत से अधिक पृथिवी के राज्यकरनेकी जो तुम्हारीबुद्धिहो तो तैसेही करिये अब यह कालपुरुष कहता है कि हेराम इतनेवचन ब्रह्मा कहिकै फिर यह कहते हुये ३३ और हेजितेन्द्रिय जो तुम्हारे स्वर्गलोकजानेकी इच्छाहोय तौ बिष्णु करके सबदेवता संतापरहित औसनाथहोयँ ३४ अब राम कात केकहुये ये ब्रह्माकेबचन सुनिकै हँसकरके काल से यहबोले ३५।

हसन्रामस्तदावाक्यंकृत्स्नास्यांतकमब्रवीत्।
श्रुतं तववचोमेद्यममापीष्टतरंतुतम्

३६

संतोषः परमोज्ञेयस्त्वदागमनकारणात्।
त्रयाणामपिलोकानांकार्यार्थंसमसंभवः

३७

भद्रंतेस्त्वागमिष्यामियतयेवाहमागतः।
मनोरथस्तु संप्राप्तोनमेत्रास्तिविचारणा

३८

मत्सेवकानांदेवानांसर्वकार्येषुवैमया।
स्थातव्यंमाययापुत्रयथाचाहप्रजापतिः

३६

एवंतयोः कथयतोदुर्वासामुनिरभ्यगात्।
राजद्वारंराघवस्यदर्शनापेक्षयादृतम्

४०

मुनिर्लक्ष्मणमासाद्यदुर्वासावाक्यमब्रवीत्।
शीघ्रंदर्शयरामंमेकार्यमेत्यंतमाहितम्

४१

तच्छुत्वाप्राहसौमित्रिर्मुनिंज्वलनतेजसम्।
रामेणकार्यकिंतेद्यकिन्तेभीष्टंकरोम्यहम्

४२

कि हेकाल मैंने तुम्हारे येवचनसुने और मुझको भी यही अभीष्टरहा सो तुम्हारे आगमन के कारणसे मुझको परम संतोषहुआ ३६ और तीनों लोकों

के कार्य के अर्थ मेरा आविर्भाव है और काल तुम्हारा कल्याणहोय और मैं जहांसे आयाहों तहांहीं जाऊंगा ३७ और जो मेरामनोरथ था सो प्राप्तहुआ और इसमें कुछमुझको विचारकरना नहीं ३८ और मेरे सेवकजे देवतातिन के कार्य में है पुत्र सदा मुझको स्थित होनाचाहिये इससे जैसे ब्रह्माने कहा तैसे में करोंगा इसप्रकार राम और काल दोनों वार्त्ताकररहेथे तबतक दुर्वासा ऋषि आतेहुये ३९ अबदुर्वासामुनि शीघ्रही राम के दर्शनकी इच्छासे द्वारपै स्थित जो लक्ष्मण तिनको प्राप्तहोके यह कहते हुये ४० कि हे लक्ष्मण शीघ्र ही रामको मुझे दिखाओ मेरा कुछकार्य्यआवश्यक है वह सुनके लक्ष्मण अग्निके तुल्य जो दुर्वासा तिनसे वचन बोलतेहुये ४१ कि हे मुने राम से आपका क्याकार्य्य है तिसको कहिये और जो आपका अभीष्ट है तिसको मैं अभीकरों और राजा तो किसी कार्य्यं में व्यग्रहैं इससे एक मुहूर्त्तभर प्रतीक्षा करिये अर्थात् परखिये ४२॥

राजाकार्यांतरेव्यग्रोमुहूर्तंसंप्रतीक्ष्यताम्।
तच्छ्रुत्वाक्रोधसंतप्तोमुनिः सौमित्रिमब्रवीत्॥४३॥

अस्मिन्क्षणे सौमित्रनदर्शयसि चेद्विभुम्।
रामंसविषयंवंशं भस्मीकुर्य्यान्नसंशयः॥४४॥

श्रुत्वातद्वचनंघोरमृषेदुर्वाससोभ्रंशम्।
स्वरूपं तस्यवाक्यस्यचिन्तयित्वासलक्ष्मणः॥४५॥

सर्वनाशाद्वरंमेद्यनाशोह्येकस्यकारणात्।
निश्चित्यैवंततोगत्वारामाय प्राहलक्ष्मणः॥४६॥

सौमित्रेर्वचनं श्रुत्वारामः कालंव्यसर्जयत्।
शीघ्रनिर्गम्यरामोविददर्शात्रेः सुतंमनिम्॥४७॥

रामोभिवाद्यसंप्रीतोमुनिंपप्रक्षसादरम्।
किं कार्यंते करोमीति मुनिमाहरघूत्तमः॥४८॥

तच्छ्रुत्वारामवचनं दुर्वासाराममब्रवीत्।
अद्यवर्षसहस्राणामुपवाससमापनम्॥४९॥

यहवचन सुनिकै दुर्वासा क्रोधकरके संतप्तहोके लक्ष्मण से बोले ४३ कि हे लक्ष्मण जो इससमय में रामको नहीं दर्शन कराते हौ तौ राज्य कुलसहित रामको भस्मकर देऊंगा इसमें कुछ संशय नहीं है ४४ तौ लक्ष्मण यह घोर वचन दुर्वासाका सुनिकै उस वचन के अर्थको विचारकरके यह निश्चय करते हुये १५ कि दुर्वासा के कारणसे सबके नाश से मेरे एकका नाशहोना श्रेष्ठ हैं यह निश्चयकर रामकेसमीप जाके लक्ष्मण वचन बोलतेहुये ४६ तब राम लक्ष्मणके वचन सुनके कालको तो विदा करते हुये और शीघ्रही उसस्थान से निकलिकैअत्रिकेपुत्र जो दुर्वासामुनि तिनको देखते हुये ४७ फिर राम प्रसन्न होके मुनिको प्रणाम करके मुनिसेपूछतेहुये कि हे मुने क्याकार्य्यआपका

मैं करौं तिसको कहिये ४८ तब यह वचन सुनके दुर्वासा बोले कि हे राम आजहजार वर्षका उपवास मेरा समाप्त हुआ है ४९॥

अतोभोजनमिच्छामि सिर्द्धयत्तेरघूत्तमा।
रामोमुनिवचः श्रुत्वा संतोषेणसमन्वितः॥५०॥

ससिद्धमन्नं मुनयेयथावत्समुपाहरत्।
मुनिर्भुक्तान्नममृतंसंतंष्टः पुनरभ्यगात्॥५१॥

स्वमाश्रमंगते तस्मिन् रामः सस्मारभाषितम्।
कालेनशोकदुःखात्तोविमनाइचातिविङ्कलः॥५२॥

अवाङ्मुखोदीनमनानशशाकाभिभाषितुम्।
मनसालक्ष्मणंज्ञात्वाहतप्रायंरघुद्वहः॥५३॥

अवाङ्मुखोबभूवाथतूष्णीमेवाखिलेश्वरः।
ततोरामंविलोक्याहसौमित्रिर्दुःखसंप्लितम्॥५४॥

तूष्णींभूतंचिंतयतंगर्हंतंस्नेहबन्धनम्।
मत्कृतेत्यजसंतापंजहिमांरघनन्दन॥५५॥

गतिः कालस्यकलितापूर्वमेवेदृशप्रभो।
त्वयिहीन प्रतिज्ञेतुनरकोमेध्रुवंभवेत्॥५६॥

इससे जो भोजन सिद्ध अर्थात् पाककिया तैयारतुम्हारे गृह में होय तिस के भोजन करने की इच्छा करता हूं ५० अब श्रीरामचन्द्र सुनिके वचन सुनिकै परम संतोषयुक्तहो सिद्ध अन्नको सुनि के भोजन के लिये समीप प्राप्त करते हुये ५१ और मुनि उस अमृततुल्य अन्नको भोजन करके तृप्त होकर अपने आश्रम को फिर जातेहुये जब मुनि अपने आश्रमको चलेगये तब राम अपने वचन को स्मरणकरते हुये औ उस काल पुरुषके बचन स्मरणकर के बड़े उदास मन अति विह्वल शोक दुःखकरके पीडितहोते हुये ५२ नीचेको मुख करके दुःखित है मन जिनका ऐसे होकर कुछ लक्ष्मणसे सन्मुख वचन कहने को न समर्थ होते हुये ५३ अब श्रीरामचन्द्र मनकरके लक्ष्मणको मरेकेतुल्य जानके क्योंकि अपनी प्रतिज्ञाको अन्यथाकरनेको भी अशक्त हैं और स्नेह वश से लक्ष्मण के बधकरनेको भी अशक्त इसहेतुसे सबके ईश्वर जो राम सो नीचेको मुखकरके मौन होजाते हुये ५४ तब लक्ष्मण दुःखमें निमग्न और मौन और निन्दित जो स्नेह बन्धन तिसको स्मरणकरते हुये ऐसी अवस्थाको प्राप्त रामको देखिकै बचनवोलते हुये ५५ कि हे रघुनन्दन मेरे निमित्त से जो संताप तिसको त्यागदेउ और मुझको मारों क्योंकि हे प्रभो काल की गति ऐसी ही है यह पहिलेही विचाररक्खी है ५६।

मयिप्रीतिर्यदिभवेद्यद्यनुग्राह्यतातव।
त्यक्त्वाशंकांजहिप्राज्ञमामाधर्मंत्यजप्रभो॥५७॥

सौमित्रिणोक्तंतच्छ्रुत्वारामइचलितमानसः।
आहूयमंत्रिणः सर्वान्वसिष्ठंचेदमब्रवीत्॥५८॥

मुनेरागमनंयत्तुकालस्यापिहिभाषितम्।
प्रतिज्ञामात्मनश्चैव सर्वमावेदयत्प्रभुः॥५६॥

श्रु

त्वारामस्यवचनंमंत्रिणः सपुरोहिताः।
ऊचुः प्रांजलयः सर्वे राममक्लिष्टकारिणम्॥६०॥

पूर्वमेवहिनिर्दिष्टं तव भूभारहारिणः।
लक्ष्मणेनवियोगस्तेज्ञातोविज्ञानचक्षुषा॥६१॥

त्यजाशुंलक्ष्मणराममाप्रतिज्ञांत्यजप्रभो।
प्रतिज्ञानेपरित्यक्तेधर्मोभवतिनिष्फलः॥६२॥

धर्मेनष्टेऽखिले रामत्रैलोक्यं नश्यति ध्रुवम्।
त्वं तुसर्वस्यलोकस्य पालकोसि रघूत्तम॥६३॥

और जो आपकी प्रतिज्ञा मिथ्याहुई तौ सुझको भी नरक होगा इससे मेरे में आपकी प्रीति हैं और अनुग्रह है तौ हे स्वामिन् शंकाकोत्यागिकै मुझकोमारो और धर्मको त्याग न करो ५७ अबऐसा लक्ष्मणका वचनसुनिकैभाई के स्नेहसे चलितचित्त अर्थात् त्यागदिया भ्रातृस्नेह जिसने ऐसे जो श्रीरामचन्द्र सो सब मन्त्रियोंकोबुलाकर वशिष्ठसे यह वचन बोलते हुये ५८ कि जैसे दुर्व्वासामुनिका आगमन हुआ और जैसे कालपुरुषसे समागमहुआ और जैसे आपने प्रतिज्ञाकीथी यह सब वशिष्टसुनिसे कहते हुये ५९ तब पुरोहितसहित सब सन्त्री रामकावचन सुनके हाथजोड़ के रामसे वचन बोलते हुये ६० कि हे राम पृथिवीभारके दूर करनेको अवतार धारणकरते हुये जो आप तिनको लक्ष्मणकावियोग पहिले ही से होनेवालाथा सो हमने ज्ञानदृष्टिसे जानाहीथा ६१ इससे हे राम लक्ष्मणको शीघ्रहीत्यागकरिये और अपनी प्रतिज्ञाको त्याग न करिये क्योंकि आपकी प्रतिज्ञाकेत्यागमें धर्मही निष्फल हो जायगा ६२ और हे राम धर्म के नाशहोने में तीनों लोक नाशको प्राप्त हो जायँगे जिससे हे रघूत्तम तुम सब धर्म के रक्षक हौ ६३।

त्यक्तालक्ष्मणमेवैकंलोक्यंत्रातुमर्हसि।
रामोधर्मार्थसहितंवाक्यंतेषामनिन्दितम्॥६४॥

सभामध्ये समाश्रुत्यप्राहसौमित्रिमञ्जसा।
यथेष्टंगच्छसौमित्रेमाभूर्द्धर्मस्यसंक्षयः॥६५॥

परित्यागोवधोवापिसतामेवोभयंसमम्।
एवमुक्तेरघुश्रेष्ठेदुःखव्याकुलितेक्षणः॥६६॥

रामंप्रणम्यसौमित्रिः शीघ्रं गृहमगात्स्वकम्।
ततोगात्सरयूतीरमाचम्यसकृतांजलिः॥६७॥

नवद्वाराणिसंयम्य मूर्ध्नि प्राणमधारयत्।
यदक्षरंपरंब्रह्मवासुदेवाख्यमव्ययम्॥६८॥

पदंतत्परमंधामचेतसासोभ्यचिंतयत्।
वायुरोधेनसंयुक्तंसर्वेदेवाः सहर्षयः॥६६॥

साग्नयोलक्ष्मणंपुष्पैस्तुष्टुवुश्चसमाकिरन्।
अदृश्यंविबुधैः कैश्चित्सशरीरंसवासवः॥७०॥

इससे एक लक्ष्मणको त्यागके तीनों लोकों की रक्षाकरने के योग्यहौ तबश्री राम धर्मार्थसहित उनमन्त्रियों के पक्षपातरहित वचनसुनिकै ६४ सभाकेमध्य में सबके प्रत्यक्ष वचनवोलते हुये हे लक्ष्मण जहां तुम्हारी इच्छाहोय तहां जाउँ

जिससे धर्मका नाश न होय ६५ इससे मैंने तुमकोत्याग किया क्योंकि परित्याग और बध ये दोनों सत्पुरुषोंको समानही हैं ऐसा वचन जब रामनेकहा तौ राम वियोगके दुःखकरके व्याकुल हैं इन्द्रिय जिसकी ऐसा जो लक्ष्मण ६६ सोशीघ्रही रामको प्रणाम करके अपनेगृहको जाते हुये फिर तिसके उपरान्त सरयूतीर जाके वहां आचमन करके और हाथजोड़के ६७ सो लक्ष्मण जब जो पवन के निकलने केद्वार तिनको रोंकके ब्रह्माण्ड में प्राणों को धारण करते हुये फिर जो अक्षरनाशरहित और वासुदेव है नाम जिसका ऐसा जो परब्रह्म सबका आधार परमपद ६८ तिसको शुद्ध मन से चिन्तवन करते हुये अर्थात् सो परब्रह्म मैं हूं ऐसी भावनासे मनोवृत्तिको तदाकार करतेहुये इसप्रकार जब प्राण निरोधयुक्त लक्ष्मण योगयुक्तहुये तब अग्निकरकेसहित सब देवता और महर्षि ६९ ये सब लक्ष्मणकेऊपर पुष्पों की दृष्टि और स्तुतिकरतेहुये और किसी देवता के देखने में नहीं आये ऐसे जोशरीरसहितलक्ष्मणतिसकोइन्द्रस्वर्गलोक में प्राप्त करते हुये ७०॥

गृहीत्वालक्ष्मणंशकःस्वर्गलोकमथागमत्।
ततोविष्णोश्चतुर्भागन्तन्देवंसुरसत्तमः॥
सर्वेदेवर्षयोदृष्ट्वा लक्ष्मणसमपूजयन्॥७१॥

लक्ष्मणेहिदिवमागतेहरौसिद्धलोकगतयोगिनस्तदा।
ब्रह्मणासहसमागमन्मुदाद्रष्टुमाहितमहाहिरूपकम्॥७२॥

इत्यध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे उत्तरकाण्डे अष्टमस्सर्गः८॥

तब प्राप्तहुआ जो विष्णुकाचौथाभाग लक्ष्मण तिसकोसब देवता और महर्षि देखके पूजन करते हुये ७१ जब लक्ष्मणरूप विष्णु स्वर्ग में प्राप्तहुये तब सिद्धलोक में रहने वाले जे योगीजन ते ब्रह्माकरकेसहित पूर्वदेहको बड़ा भारी सर्परूपकरने वाले जो लक्ष्मण तिसको अर्थात् शेषरूपधारी लक्ष्मणके देखने को आते हुये ७२॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे उत्तरकाण्डे भाषाटीकायामष्टमःसर्गः८॥

श्रीमहादेव उवाच॥

लक्ष्मणन्तुपरित्यज्यरामोदुःखसमन्वितः।
मन्त्रिणो नैगमांश्चैव वशिष्ठञ्चेदमब्रवीत्॥१॥

अभिषेक्ष्यामि भरतमधिराज्येमहामतिम्।
अद्यचाहङमिष्यामिलक्ष्मणस्यपदानुगः॥२॥

एवमुक्त्तेरघुश्रेष्ठेपौरजानपदास्तदा।
द्रुमाइवच्छिन्नमूलादुःखार्ताः पतिताभुवि॥३॥

मूच्छितो भरतोवापिश्रुत्वारामाभिभाषितम्।
गर्हयामास राज्यं सप्राहेदंरामसन्निधौ॥४॥

सत्येन च शपेनाहन्त्वांविनादिविवाभुवि।
कांक्षेराज्यंरघुश्रेष्ठशपेत्वत्पादयोः प्रभो॥५॥

इमौकुशलवौराजन्अभिषिंचस्वराघ

व।
कोशलेपुकुरांचीरमुत्तरे पुलवंतथा॥६॥

गच्छन्तुदूतास्त्वरितंशत्रुघ्नानयनाहि।
अस्माकमेतद्मनंस्वर्वासायशृणोतुसः॥७॥

दो० ।निर्मल यश विस्तारिकै नवमसर्ग घनश्याम॥
जो नाशेकलिदोष सब राम गये निजधाम १्

श्रीमहादेवजी पार्वतीजीसेकथावर्णन करें हैं कि हे पार्वति अब लक्ष्मण। को परित्यागकरके दुःखयुक्त जो श्रीराम सो मन्त्री और नगर के बनिये लोग और वशिष्ट इनसबोंसे यह वचन कहते हुये १ कि श्रेष्ठमति जो भरत तिसको सब पृथिवीके राज्यका अभिषेक में करोंगा और अभी में लक्ष्मणका अनुगमनकरौंगा अर्थात् जहां लक्ष्मणगयेहें तहां मैं भी जाउँगा २ऐसेवचन श्रीरामचन्द्र ने जबकहे तत्र पुरवासीऔर देशकेमनुष्य जैसे जड़जिनकी कटिजाय और वे वृक्षपृथिवी से पढ़े तेसे दुःखकरके पीड़ित सब पृथिवी में गिरपड़ते हुये ३ और राम के वचनसुनके भरत भी मूर्च्छित हो जाते हुये औ राज्यकी निन्दा करते हुये राम के समीप यह बोले ४ कि हे रघुवंशियों में श्रेष्ठ और हे स्वामिन् सत्यको और आपके चरणोंकी शपथकरके कहता हूं कि आपके बिना न स्वर्ग के राज्यकी इच्छाकरता हूं और न पृथिवीके राज्यकी ५ औ हेराम ये दोनों कुश लव जो पुत्र हैंतिनका अभिषेक करिये तिसमें कोशलापुरी में कुशका औ उत्तर दिशामें लवका अभिषेक करिये ६ और शत्रुघ्न के लिवाने को शीघ्रही दूत मथुराकोजाय और स्वर्गकेलिये हमारे सबकागमन शत्रुघ्न जिसमें सुनै ७॥

भरतेनोदितंश्रुत्वापतितास्ताः समीक्ष्यतम्।
प्रजाश्च भयसंविग्नारामविलेपकातराः॥८॥

वशिष्ठो भगवान्राममुवाचसदयंवचः।
पश्यतानादरात्सर्वाःपतिताभूतलेप्रजाः॥९॥

तासां भावानुगंरामप्रसादङ्कर्तुमर्हसि।
श्रुत्वावशिष्ठवचनन्ताः समुत्थाप्यपूज्य च॥१०॥

सस्नेहोरघुनाथस्ताकिंकरोमीतिचाब्रवीत्।
ततः प्रांजलयः प्रोचुः प्रजाभक्त्यारघुद्वहम्॥११॥

गन्तुमिच्छसियत्रत्वमनुगच्छामहेयवम्।
अस्माकमेषापरमाप्रीतिर्धौर्मोयमक्षयः॥१२॥

तवानुगमनेरामहद्गतानो दृढ़ामतिः।
पुत्रदारादिभिः सार्द्धमनुग्रामोद्य सर्वथा॥१३॥

तपोवनंवास्वर्गवापुरंवारघुनंदन।
ज्ञात्वातेपांमनोदायकालस्यवचनंयथा॥१४॥

ऐसे भरत के वचन सुनिकें सब प्रजा रामकेवियोगसे भयभीत हो पृथिवीमें गिरपड़ती हुई ८ तब वशिष्टमुनि दया जिससेहोय ऐसावचनराम से बोलते हुये कि हे तात तुम्हारे स्नेहसे ये सबप्रजापृथिवी में पढ़ी तिनको देखिये ९ और

प्रेम के अनुसारइनकेऊपर अपनाप्रसाद करने के योग्यहौ तब राम यह वशिष्ठ का वचन सुनके उन सबप्रजाओं को उठाकर के औसत्कार करके १० स्नेह युक्तहो यह कहतेहुये कि मैं तुम्हारा क्या उपकारकरौंतब सबप्रजा हाथजोड़ के बड़ीभक्ति पूर्वक श्रीराम से बोलती हुईं ११ कि हेनाथ जहां आपजायाचाहते हौतहाँ हम सब भी आपके पीछे २ गमन करैंगे यहीहमारी परम प्रीतिहोगी और यही आपका अक्षय अर्थात् नाशरहित धर्म है १२ औहेराम तुम्हारे अनुगमनमें अर्थात् संगचलने में हमारी दृढ़मति है और अपने पुत्रदारादिकों करके सहित सर्वथा हमआपके संग चलेंगे १३ चाहैंआप तपोबनको जायँ चाहो स्वर्ग को और चाहौ किसीनगर को परन्तु हम आपके संगही जावेंगे तब परमदयालु श्रीरामचन्द्र उन सबकी मनकी दृढ़ता को देखके और कालके वचनको भी स्मरण करके १४॥

भक्तम्पौरजनं चैववाढमित्याह राघवः।
कृत्वैवनिश्चयंरामस्तस्मिन्नेवाहनिप्रभुः॥१५॥

प्रस्थापयामासचतौरामभद्रः कुशीलवौ।
अष्टौरथसहस्राणिसहस्रं चैवदंतिनाम्॥१६॥

षष्टिंचाश्व सहस्राणामेकैकस्मैददौबलम्।
बहुरत्नौबहुधनौहृष्टपुष्टजनावृतौ॥१७॥

अभिवाद्यगतौरामकृच्छ्रेण तु कुशीलवौ।
शत्रुघ्नानयनेदूतान्प्रेषयामासराघवः।
तेदूतास्त्वरितं गत्वा शत्रुघ्नायन्यवेदयन्॥१८॥

कालस्यागमनं पश्चादत्रिपुत्रस्यचेष्टितम्।
लक्ष्मणस्यचनिर्याणंप्रतिज्ञांराघवस्य च॥१९॥

पुत्राभिषेचनं चैव सर्वरामचिकीर्षितम्।
श्रुत्वातद्दूतवचनं शत्रुघ्नः कुलनाशनम्॥२०॥

व्यथितोपिधृतिं लब्ध्वापुत्रावाहूयसत्वरः।
अभिषिच्यसुबाहुंवैमथुरायांमहाबलः॥२१॥

स्नेहयुक्त जो पुरवासी तिनका अनुगमन अंगीकार करते हुये और ऐसा निश्चय करके राम उसीदिन १५ कुश लव जो पुत्र तिनको राज्य धनादिकदेकै वहांसे विदा करते हुये और आठहजार रथ और एकहजार हाथी १६ औ साठि हजार घोड़े इतनी इतनी सेना एक एकको देते हुये फिर बहुतसेरत्न और धन इन करकेयुक्त और बहुत से प्रसन्न और बलवान् पुरुषोंकर के वेष्टित दोनों कुश लव १७ श्रीरामको प्रणाम करके रामके वियोग के कारणसे बड़े कष्टसे जाते हुये फिर शत्रुघ्न के बुलानेको श्रीराम दूतों को भेजते हुये वे दूत शीघ्रही जाकर शत्रुघ्नसे सब वृत्तान्त कहते हुये १८ जैसे काल पुरुपका आगमन हुआ फिर दुर्वासा ऋषिने आकर जो लक्ष्मणसे कहा और लक्ष्मणका परलोक गमन और फिर रामको भी परमधाम जानेकी प्रतिज्ञा १९ और पुत्रोंको राज्य का

अभिषेक यह सब रामको करनेका अभीष्ट और कुलनाश दूतोंके मुखसे शत्रुघ्नसुनके २० बड़े व्यथायुक्त भी हुये परन्तु धैर्य्यको धारणकर अपने पुत्रोंको बुलाकर शीघ्रही सुवाहुनाम पुत्रको मथुराके राज्यका अभिषेककर २१॥

यूपकेतुं चविदिशानगरेशनसूदनः।
अयोध्यांत्वरितं प्रागात्स्वयंरामदिदृक्षाया॥२२॥

ददर्श च महात्मानं तेजसाज्वलनप्रभम्।
दुकूलयुगसंवीतंऋपिभिचाक्षयैर्वृतम्॥२३॥

अभिवाद्यरमानाथंशत्रुघ्नोरघुपुंगवम्।
प्रांजलिर्धर्मसहितंवाक्यंप्राहमहामतिः॥२४॥

अभिषिच्यसुतोतत्रराज्येराजीवलोचन।
तवानुगमनेराजन्विद्धिमांकृतनिश्चयम्॥२५॥

त्यक्तुंनार्हसिमांवीर भक्तंतवविशेषतः।
शत्रुघ्नस्पदृढ़ांबुद्धिंविज्ञायरघुनन्दनः॥२६॥

सज्जीभवतुमध्याह्ने भवानित्यत्रवीद्वचः
अथक्षणात्समुत्पेतुर्वानराः कामरूपिणः॥२७॥

ऋक्षाश्चराक्षसाश्चैवगोपुच्छाश्चसहस्रशः।
ऋषीणां देवतानांचपुत्रारामस्यनिर्गमम्॥२८॥

और यूपकेतु पुत्रको विदिशानगर के राज्यका अभिषेक करके शीघ्रही आप शत्रुघ्न रामके देखने की इच्छाकर अयोध्याको आवतेहुये २२ और वहां तेज करके अग्निकेतुल्य प्रकाशमान और दो वस्त्रोंको धारणकरे और चिरजीवी वशिष्ठादि ऋषियों कहके वेष्टित २३ ऐसे महात्मा लक्ष्मीनाथ रामको शत्रुघ्न दर्शन करता हुआ और फिर प्रणामकर के महामति शत्रुघ्न धर्म सहित वचन बोलताहुआ २४ कि हे राजीवलोचन राम मैंअपने राज्य में पुत्रोंका अभिषेक करके आपके पश्चात् गमनमें किया निश्चय जिसने ऐसा मुझको जानिये २५ इससे हे वीरमुझको त्यागकरनकेयोग्य नहींहों और आपका भक्तहों इससे विशेषकरके त्यागकेयोग्य नहीं हौंतब श्रीरामचन्द्र शत्रुघ्नकी दृढबुद्धिको जानके २६ हे शत्रुन मध्याह्नसमय में तैयार रही ऐसा वचन कहते हुये अब उसी समय में इच्छारूपधारी जे वानर ते बहुतसे आतेहुये २७ औऋक्ष औ राक्षस और गोपुच्छ जातिके हजारोंवानर जे ऋषियों के और देवताओं के पुत्र ते सब वानर राक्षस रामकी यात्राको सुनिके २८॥

श्रुत्वाप्रोचूरघुश्रेष्ठंसर्वेवानरराक्षसाः।
तवानुगमनेविद्धिनिश्चितार्थान्हिनः प्रभो॥२९॥

एतस्मिन्नन्तरेरामसुग्रीवोपमहाबलः।
यथावदभिवाद्याहराघवंभक्तवत्सलम्॥३०॥

अभिषिच्यांगदंराज्येआगतोस्मिमहाबलम्।
तवानुगमनेरामविद्धिमांकृतनिश्चयम्॥३१॥

श्रुत्वातेषांदढंवाक्यंऋक्षवानररक्षसाम्।
विभीषणमुवाचेदंवचनंमृदुसाद

रम्॥३२॥

धरिष्यति धरायावत्प्रजास्तावत्प्रशाधिमे।
वचनाद्राक्षसं राज्यं शापितोसिममोपीर॥३३॥

न किंचिदुत्तरं वाच्यं त्वयामत्कृत कारणात्।
एवंविभीषणंतूक्वाहनूमन्तमथाब्रवीत्॥३४॥

मारुते त्वं चिरंजीवममाज्ञांमामृषाकृथाः।
जाम्बवन्तमथप्राह तिष्ठत्वं द्वापरांतरे॥३५॥

बचन बोलते हुये कि हे प्रभो आपके अनुगमन में निश्चय करके हम आये हैं अर्थात् आपके संगजानेका निश्चय करके यहां प्राप्तहुये हैं यह जानिये २९ अब उसी समय में महाबली जो सुग्रीव सो प्राप्तहोके और भक्तवत्सल जो श्रीराम तिनको यथावत्प्रणाम करके बोलताहुआ ३० कि हे राम महाबली जो अंगद तिसको राज्य में अभिषेककर के आपके संगका निश्चय कर के प्राप्तहुभा हौसो जानिये ३१ अब श्रीरामचन्द्र सब ऋक्ष बानर राक्षसोंका दृढ़वचन सुनके तिनमें प्रथम बिभीषण से आदरपूर्वक मधुरवचन बोलते हुये ३२ हे बिभीषण जबतक पृथिवी है तबतक राक्षस राज्यकी प्रजाओंकी तू रक्षाकर अर्थात् तबतक लंकाका राज्यकर और तुझको मेरी शपथ है ३३ इससे कुछ उत्तर न देना और तेरी राज्यकी इच्छा नहीं भी होय तौ मेरी प्रीतिकेकारण से राज्यकर अब श्रीराम इसप्रकार विभीषण से कहके फिर हनुमान् से बोले ३४ हे पवनपुत्र तुम बहुतकालजीवो मेरी आज्ञा को कंठामतकरो फिर जाम्बवान से कहते हुये कि हे जाम्बवान् तुमभी यहांपृथिवीमें अभी स्थितरहौ और द्वापरयुग के अन्तमें ३५।

मयासार्द्धंभवेद्युर्द्धयत्किञ्चित्कारणान्तरे।
ततः तान्राघवः प्राहऋक्षराक्षसवानरान्॥३६॥

सर्वानेवमयासार्द्धंप्रयातेतिदयान्वितः।
ततः प्रभातेरघुवंशनाथोविशालवक्षासितकंजनेत्रः।
पुरोधसंप्राहवशिष्ठमार्यंयांत्वग्निहोत्राणिपुरोगुरोमे॥३७॥

ततोवशिष्टोपिचकारसर्वंप्रास्थानिकंकर्ममहद्विधानात्।
क्षौमांबरोदर्भपवित्रपाणिर्महाप्रयाणायगृहीतबुद्धिः॥३८॥

निष्क्रम्यरामोनगरात्सिताभ्राच्छशीवयातःशशिकोटिकांतिः।
रामस्यसव्येसितपद्महस्तापद्मागतापद्मविशालनेत्रा॥३९॥

पाश्र्वेथदक्षेरुणकंजहस्ताश्यामाययौभूरपिदीप्यमाना।
शास्त्राणिशस्त्राणिधनुश्चबाणाजग्मुः पुरस्ताद्धृतविग्रहास्ते॥४०॥

वेदाश्चसर्वेधृतविग्रहाश्चययुश्च सर्वे मुनयश्चदिव्याः।
माताश्रुतीनांप्रणवेनसाध्वीययौहरिंव्याहृतिभिः समेता॥४१॥

गच्छन्तमेवानुगता

सदानंदनयोसिपूर्णोजानासितत्त्वंनिजमैशमेकस्॥५३

तथापिदासस्यममाखिलेशकृतंत्र चोभक्तपरोसिविद्वन्।
त्वंभ्रातृभिर्वैष्णवमेकमाद्यंप्रविश्यदेहं परिपाहिदेवान्॥५४॥

यद्वापरोवायदिरोचतेतंप्रविश्यदेहंपदिपाहिनस्त्वम्।
त्वमेवदेवाधिपतिश्चविष्णुर्जानन्तिनत्वांपरुषाविनामाम्॥५५॥

सहस्रकृत्वस्तुनमोनमस्तेप्रसीददेवेशपुनर्नमस्ते।
पितामहप्रार्थनयासरामः पश्यत्सुदेवेषुमहाप्रकाशः॥५६॥

और उससमय में सूर्य के तुल्य कड़ोरोंदेव विमानों करके आकाश आच्छादित होता हुआ और उनविमानोंकी कांतियों करके प्रकाशित आकाश प्रकाशमय होता हुआ ५० और जे कोई इसलोक में पुण्यकर के ऊपरके लोकोंको गये हैं तिनकै समूहकरके भी आकाश आवृत होता हुआ और सुगन्ध युक्त पवन उस समयमें चलते हुये और पुष्पों की वृष्टिहोती हुई ५१ और देवताओंके मृदंग बजते हुये और विद्याधर और किन्नर ये गान करते हुये और रामचन्द्र उस समय में पाऔकरके एक बार तो सरयू नदी के जल को स्पर्श करके फिर अनन्तशक्ति राम जैसे कोई पृथिवी में चलै ऐसे जलके ऊपर चलते हुये ५२ उस समय में ब्रह्माजी हाथ जोड़ के रामसे बोलते हुये कि हे राम हेपरमात्मन् तुम परमेश्वरही और सदानन्दमय सब जगह परिपूर्ण जो विष्णु सो तुमहौ और एक अपने ऐश्वर्य रूपको यथार्थ आपही जानसक्तेहो ५३ और हेअखिलेश तौ भी दास जो मेंहूं तिसका वचन करते हुये और हेविद्वन् सबके जानने वाले जिससे तुम भक्तवत्सल हौ तिसते भाइयों करके सहित एक अद्वितीयसर्वकारण वैष्णव शरीर में प्रविष्ट होके सब देवताओं की रक्षा कीजिये ५४ अथवा और जो कोई देह आपको रुचै उसदेह में प्रविष्टहो हमारी सबकी रक्षा कीजिये और सब देवताओंके अधिपति विष्णु तुम्हींहो और सिवाय मेरे और कोई पुरुष तुमको नहीं जानता है ५५ और देवेश तुम प्रसन्न होउ और हजारवार मेरा नमस्कार है और तिससे भी अधिक नमस्कार है अब इस प्रकार ब्रह्माजीकी प्रार्थना से राम सब देवताओं के देखते देखते सब के नेत्रों को चुराते हुये ५६।

मुप्णंचचक्षूंषिदिवौकसांतदाब भूवचक्रादियुतश्चतुर्भुजः।
शेषोबभूवेश्वरतल्पभूतः सौमित्रिरत्यद्भुतभोगधारी॥५७॥

बभूवतुश्चकदरौचदिव्योकैकेयिसूनुर्लत्रणांत कञ्च।
सीताचलक्ष्मीरभवत्पुरैवरामोहिविष्णुः पुरुषः पुराणः॥५८॥

सहानुजः पूर्वशरीरकेनवभूव तेजोमयदिव्यमूर्ति।
माविम्बुसमासाद्यसुरेन्द्र सुख्या देवाश्च सिवामुनयश्चयक्षाः॥५६॥

पितामहाद्याः परितः परेशं स्तवैर्गृणंतः परिपूजयंतः।
आनंदसंप्लावितपूर्णचित्ता बभूविरेप्राप्तमनोरथास्ते॥६०॥

तदाहविष्णुर्द्रुहिणंमहात्मा एते हि भक्तामयिचानुरक्ताः।
यां तं दिवं मामनुयांतिसर्वेतिर्यक्शरीराअपिपुण्ययुक्ताः॥६१॥

वैकुंठसाम्यं परमं प्रयांतुसमाविशस्वाशुममाज्ञयात्वम्।
श्रुत्वाहरेर्वाक्यमथाब्रवीत्कःसांतानिकान्यांतुविचित्रभोगान्॥६२॥

लोकान्मदीयोपरिदप्यमानांस्तद्भावयुक्ताः कृतपुण्यपुंजाः।
येचापितेरामपवित्र नामगृणंतिमर्त्यलयकाल एव॥६३॥

उसी राम रूप करके चतुर्भुज चक्रादियुक्त विष्णुरूप होते हुये और अत्यंत अद्भुत योग को धारण करने वाले जो लक्ष्मण सो उसीरूप करके ईश्वर तल्प रूप शेषरूप होते हुये ५७ और भरत शत्रुघ्न ये दोनों उसी रूप से शंख चक्र रूप होते हुये और सीता तौ लक्ष्मी रूप प्रथम ही हो जाती हुई और राम जो हैं सो साक्षात् पुराण विष्णु प्रसिद्ध ही हैं ५८ इसप्रकार श्रीरामचन्द्र अनुजों करके सहित पूर्वरूप करके तेजोमय दिव्य मूर्ति होते हुये अब उस समय में इन्द्रको आदि लेके सब देवता और सिद्ध औ मुनि भो यक्ष ५९ और ब्रह्मादिक सब देवता ये सब सबसे परे ईश जो विष्णु तिसको प्राप्त होके स्तोत्रों करके स्तुति करते हुये और पूजन करते हुये और आनन्द में मग्न हैं संपूर्ण चित्त जिन्होंके ऐसे सब प्राप्त मनोरथ होतेहुये अर्थात् सबका मनोरथ परिपूर्ण होता हुआ ६० अब उस समय में विष्णु भगवान ब्रह्मा सेकहते हुये कि येसब अयोध्यावासी मेरे भक्त हैं और मेरे में परमप्रीति युक्त हैंऔर जब मैं चलता हूं तो मेरे संग संग पीछे चलते हुये हैं इनमें जे तिर्यक् शरीर हैं अर्थात्कूकर आदि जे हैं ते भी पुण्ययुक्त हैं ६१ इससे बैकुण्ठ के समान जो लोक है तिसमें मेरी आज्ञा से तुम इनको प्राप्त करो ऐसे हरिके बचन सुनके ब्रह्मा बोले कि चित्रविचित्र हैं भोग जिन्हों में ऐसे सांतानिक नामकरके जे लोक हैं तिनको ये प्राप्त होयँ ६२ और जे लोक मेरे लोकों से भी ऊपर प्रकाशमान हैं तिनको ये सब प्राप्त होंगे औकरे हैं पुरायोंक समूह जिन्होंने ऐसे जो आपकी भक्ति करके युक्त हैं और ये पुरुष मरणसमय मेंही आपके अतिपवित्र नामको उच्चारण करते हैं ६३।

अज्ञानतोवापिभजं तु लोकांस्तानेवयोगैरपिचाधिगम्यान्।
ततोतिहृष्टाः हरिराक्षसाद्यास्ष्टष्ट्रवाजलंत्यक्तकलेवरास्ते॥६४॥

प्रपेदिरेप्रा क्तनमेवरूपंयदंशजाऋक्ष हरीश्वरास्ते।
प्रभाकरं प्रापहरिप्रवीरः सुग्रीवआदित्यजवीर्यवत्वात्॥६५

ततोविमग्नासरयूजलेषु नराः परित्य

ज्यमनुप्यदेहम्।
आरुह्यदिव्याभरणाविमानंप्रापुश्चतेसांतनिका स्वलोकान्॥६६॥

तिर्यक् प्रजाता अपिरामदृष्टाजलं प्रविष्टादिवमेवयाताः।
दिदृक्षवोजानपदाश्च लोकारामं समालोक्यविमुक्त संगाः॥६७॥

स्मृत्वाहरिं लोकगुरुम्परेशं स्टष्ट्वाजलं स्वर्गमवापुरंजः।
एतावदेवोत्तरमाहशम्भुः श्रीरामचन्द्रस्यकथावशेषम्॥६८॥

यः पादमप्यत्रपठेत्सपापाद्विमुच्यते जन्मसहस्रजातात्।
दिनेदिने पापचयं प्रकर्वन्पठेन्नरः लोकमपीह भक्तया॥६९॥

विमुक्तसर्वाघचयः प्रयातिरामेतिसालोक्यमनन्यलभ्यम्।
आख्यानमेतद्रघुनायकस्यकृतंपुराराघव चोदितेन॥७०॥

औजे जानके वा बिना जाने भी आपका अनन्य होके भजन करते हैं ते भी योगियों करके प्राप्त होने के योग्य जो लोक तिन को प्राप्त होते हैं भब तिसके उपरान्त अत्यन्त प्रसन्न जे वानर और राक्षसादि ते सरयू के जलको स्पर्श करते ही शरीर का त्याग करके ६४ जिस जिस देवता के अंश से जो जो वानर और ऋक्ष उत्पन्न हुये थे उस उस देवता ही के स्वरूप को प्राप्त होते हुये तिसमें सूर्य के वीर्य सेउत्पन्न हुआजो सुग्रीव सो सूर्यको प्राप्त होता हुआ अर्थात् सूर्य ही का रूप हो जाता हुआ ६५ फिर तिसके उपरान्त सरयूजल में स्नान करते ही अयोध्यावासी मनुष्य देहको त्याग करके दिव्य आभूषणवस्त्रादिकों करके युक्त दिव्य अर्थात् देवताओं का रूपधारणकरके विमान के ऊपर चढ़के सान्तानिक लोकों को प्राप्त होते हुये ६६ और तिर्यग्योनि में भी अर्थात् कूकर शूकरादि योनि में उत्पन्न हुये जीव जे राम ने देखेथे ते भी सरयू जल में स्नान करते ही शरीर त्याग करके स्वर्ग लोक को जाते हुये और उससमय में राम के देखने की इच्छाकरके जे मनुष्य देश देशान्तरके आये थे ते भी सव गृहादिकों की प्रीतिको त्यागकै ६७ परेश जो लोकका गुरु राम तिसकास्मरणकर सरयूजल में स्नान करि स्वर्गलोक को प्राप्त होते हुये अब इतना श्रीमहादेवजी श्री रामचन्द्रकी कथा का अवशिष्टभाग अर्थात् बाकीरदाभाग इस उत्तरकाण्ड में कहते हुये हैं ६८ अबजो पुरुष चौथाई इलोक भी अध्यात्मरामायण का पढ़ता है सो हज़ार जन्मों के पापों से छूट जाता है और जो दिन दिन नियम से एकश्लोक भी भक्ति करके पढ़ता है तो नित्य किये हुये पापसे छूट जाता है ६९ और जब पापों से छूटके शुद्ध शरीर हुआ तौ राम के लोक को प्राप्त होता है और श्रीरामचन्द्र की प्रेरणास श्रीमहादेवजी ने ७०।

महेश्वरेणाप्तभविष्यदर्थं श्रुत्वातुरामः परितोषमेति।
रामायणंका

व्यमनं तं पुण्यं श्रीशं करेणाभिहितं भवान्यै॥७१॥

भक्त्यापठेद्यः शृणुयात्सपापैर्विमुच्यतेजन्मशतोद्भवैश्च।
अध्यात्मरामं पठतश्च नित्यंश्रोतुश्चभक्त्या लिखितश्चरामः॥७२॥

अतिप्रसन्नश्च सदासमीपेसीता समेतः श्रियमातनोति॥७३॥

रामायणं जनमनोहरमादि काव्यं ब्रह्मादिभिःसुरवरैरपि संस्तुतंच।
श्रद्धान्वितः पठतियः शृणुयात्तुनित्यं विष्णोः प्रयातिसदनं सविशुद्धदेहः॥७४॥

इत्यध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे उत्तरकाण्डे नवमःसर्गः ९॥

अध्यात्मोत्तरकांडेसर्गाग्रहसंख्यया परिक्षिप्ताः।
ऋतुशतसंख्याश्लोकाः पुराणसंख्याश्च पुरहरेणोक्ताः॥१॥

पार्वत्यैपरमेश्वरेणगदितेह्यध्यात्मरामायणे
कांडैःसप्तभिरन्वितेतिशुभदेसर्गाश्चतुःषष्टिकाः।
श्लोकानां तु शतद्वयेनसहितान्युक्तानिचत्वारिवै
साहस्राणिसमाप्तितश्रुतिशतेषूक्तानितत्त्वार्थतः

समाप्तम्

यह भविष्यदर्थयुक्त अर्थात् होनेवाला जो उत्तर रामचरित्र तिस करके युक्त आदि से ले के संपूर्ण अध्यात्मरामायण रूप रामचरित्र कहा तिसकोसुनके रामप्रसन्न होते हैं अर्थात् सर्वव्यापकजो राम तिसको यह रामायण हम सुनाते हैं ऐसे मनसे संकल्पकरके जो रामकी प्रीतिके अर्थ जो संपूर्ण रामायण को बचता है उसके ऊपर राम प्रसन्न होते हैं और श्रीमहादेव जी ने पार्वती के अर्थ कहा ७१ जो परमपुण्यका देनेवाला उत्तम काव्य अध्यात्मरामायण तिसको भक्ति से जो सुनता है सो सैकड़ों जन्मों के पापों से छूट जाता है और जो अध्यात्मरामायण को नित्यपढ़ता है अथवा जो कोई भक्तिकरके सुनता है अथवा जो कोई लिखता है ७२ तिसके ऊपर राम अतिप्रसन्न होकर सदा समीप बास करते हुये लक्ष्मी का बिस्तार करते हैं अर्थात् उस पुरुष को कभी लक्ष्मी परित्याग नहीं करती ७३ ब्रह्मादि देवों करके स्तुति किया गया और मनुष्यों के मनके हरनेवाला ऐसा जो अत्युत्तम आदि काव्य रामायण तिसको श्रद्धा युक्त जो पुरुष नित्य पढ़ता है अथवा सुनता है सो शुद्ध चित्त होके बिष्णु के लोकको प्राप्त होता है ७४।

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे उत्तरकाण्डे श्रीमद्रुक्मिणीगर्भज
बुधतुलारामसूनु त्रिपठ्युमादत्तकृतौभाषाटीकायाम्नवमः सर्गः ९॥
समाप्तश्चायमुत्तरकाण्डः ॐ तत्सदिति।

मुंशी नवलकिशोर (सी, आई, ई) के छापखाने में छपी एप्रिल सन् १८९३ ई०।

विज्ञापनम्॥

  •    *
    

दोहा॥

चन्द्र निगम अरु अङ्क शशि संवत विक्रम भूप।
कातिक सुदिहरितिथिसुभग भृगुदिन पूरणरूप॥१॥

चिरजीवो यह जगत में मुन्शी नवलकिशोर।
निहि निदेश ते कीन्ह मैंरामचरित चितचोर॥२॥

यद्यपि कविवर भणित बहु नाना छन्द प्रबन्ध।
तदपि रामगुण कथन में कौन करै मतिबन्ध॥३॥

जैसे कामी कामिनी गुण गण सुनि हुलसात।
तैसे हरिगुण कथन में हरिजन नहिं अलसात॥४॥

यदपि मन्दमति मोर अति गुणगण सागर राम।
तदपि ढिठाई दीनहित लखि हरषे हैं श्वाम॥५॥

देव गिरामय शिव कह्योअध्यातम प्रति गूढ।
नर भाषामय कियो सुख लहें प्रेम आरूढ़॥६॥

यद्यपि वेद त्रिकाण्ड हैं सबजीवन सुख हेतु।
तदपि ज्ञानतिन महँ प्रबलनित्यात्तम सुखहेतु॥७॥

तिहि ते मैं वेदान्त रस शङ्कर मत अनुसार।
अवगाहन कर रच्यो यह भाषामयसब सार॥८॥

यदपि ज्ञान सुख हेतु है सकलशास्त्रयह शोर।
तदपि भक्तबिन सुलभ नहिं यहमतसर्वनिचोर॥९॥

ताते प्रतिपद राम की भक्ति कही बहु बार।
शंकर ने सोइ मैं कहीं बोध हेतु सुखसार॥१०॥

अध्यातम भाषा रची उमादत्त भूदेव।
तिहिते सबजन लहौ सुख सो पुरवो रघुदेव॥११॥

इति

  •       *
    

को भाषा और संस्कृत भी पढ़ने की शक्ति अच्छी तरह से हो जावे तिस पीछे अनुभूतिस्वरूपाचार्य्यं कृत सारस्वत पुस्तकको इस भांतिसेकि जिस तरह फर्रुखाबाद निवासि स्वर्गवासि पण्डितवर उमादत्तशास्त्री और उन्नाम प्रदेशान्तर्गत मुरादाबादनिवासि पं० शक्तिधरजी ने इसका अर्थ किया है प्रारम्भ करावें इसमें उक्त पण्डित जनों ने प्रथम मूल, पदच्छेङ, अन्वयकरके भाषा में इस भांति से अर्थ किया है कि जिसमें बालकों को सहजहीमें ज्ञानहोकर पूर्ण बोध हो जावे इस भांति संज्ञाप्रक्रिया, स्वरसन्धि, प्रकृतिभाव, व्यञ्जनसन्धि, विसर्गसन्धि, स्वरान्तपुल्ँलिंग, स्वरान्त स्त्रीलिंग, स्वरान्तनपुंसकलिंग, हसान्तपुल्ँलिंग, हसान्तस्त्रीलिंग, हसान्तनपुंसकलिंग, युष्मद् अस्मद् शब्द, अव्यय, स्त्रीप्रत्यय, कारक, समास और तद्धितको पढ़ाकर तिस पीछे सिद्धान्तचन्द्रिका और रघुवंश औरकुमारसम्भवादि काव्यों को पढ़ावें इस भांति के पढ़ाने से बहुतशीघ्र विद्वान हो सक्ते हैं यही सोचकर श्रीभार्गववंशावतंश मुंशी नवल किशोर (सी, आई,ई) ने बहुत सा द्रव्यव्ययकर उक्त पण्डितों से टीका रचाया है आशा है कि जो विद्यार्थी इस पुस्तक को क्रमसे पढ़ेंगे वे शीघ्र ही पूर्ण बोधहोकर विद्वान् हो जायेंगे. अन्यथा पढ़ाने से बहुत समय लगकर बोध नहीं होता है- क्योंकि बहुधा यहीं पण्डितों की रीति है कि वे स्वर व्यञ्जन नाममात्र को बालकों को पढ़ाकर व्याकरणका प्रारम्भ करा देते थे और बालकों को तोते की तरहसे कण्ठ ही कराते थे जब उन बालकों को अच्छीभांति अक्षर पहिचानका ज्ञान नहीं है तो वे कैसे पूर्ण विद्वान् रट २ के पढ़ने से हो सक्तेथे- आशा है कि जो लोग इस पुस्तक के क्रम से व्याकरण का अध्ययन करेंगे वे थोड़े ही समय में स्वल्प परिश्रम सेविद्वान हो जावेंगे—जब व्याकरण में विद्वान हो जावेंगे तो उनको ज्योतिष वैद्यक और अठारहो पुराण काव्यादि में कुछ भी परिश्रम न करना पड़ेगा थोडे ही परिश्रम करने में महान विद्वान हो जायेंगे-

केनिंगकालेज के संस्कृताध्यापक श्रीपण्डित गंगाधरशास्त्री ने भी इसपुस्तक को अवलोकनकर सार्टीफिकट के तौरपर अपनी सम्मति प्रकट की है कि निश्चय यह पुस्तक उत्तम और बालकों को हितैषी है।

मिताक्षरा सटीक का विज्ञापन ।


संसार में मर्यादा स्थितरखने के अभिप्राय और सर्वसाधारण के उपकार दृष्टि से भगवान् याज्ञवल्क्य ने अनेक प्राचीन आचार्यो और महर्षियों के मत लेकर मिताक्षरानामक धर्मशास्त्र “आचार” “व्यवहार" और “प्रायश्चित्त नामक तीनभागों में निर्माण किया था । यह “याज्ञवल्क्यस्मृति” भारतवासी

मात्र वसुवेणोंका मुख्य धर्मशास्त्र है और इसीके अनुसार यहां के निवासियों के धर्मसम्बन्धीसमस्तकार्य होते चले आते हैं।

आधाराध्याय नामक प्रथमखण्ड में गर्भाधान से लेकर मरणपर्यन्त के समस्त संस्कार चतुर्वर्णी और विविध जातियों की उत्पत्ति ब्राह्मण आदि चतृर्वर्णौऔर ब्रह्मचर्यादि चतुराश्रमों के धर्माचरण, साधारण शिक्षा, आठप्रकार के विवाहों के लक्षण, भक्ष्याभक्ष्य पदार्थोका विवेक, दान लेने देनेकी विधि सर्वप्रकार के श्राद्धोंका निर्णय, नवग्रहों की शांति राजाओं के धर्म आचारादि अनेक विषय विस्तारपूर्वक वर्णन किये गये हैं।

“व्यवहारकाण्ड” में न्यायसभा निरूपण, सबप्रकार के दीवानी और फ़ौजदारी मुकद्दमोंके निर्णय करने की विधि;भूमिसम्बन्धी झगड़ों का विस्तार; ऋणलेने, देने, गिरवीरखने और व्याज लगाने की विधि, धरोहरका विवाद; साक्षियों के सत्यासत्यका विचार और दण्ड; दस्तावेजों का विचार, खरे, खोटे और कमतौल वस्तुओं का विचार, विपदेने वाले का विचार; नातेदारीकावृत्तान्त; हिस्तावांटकी विधि, संस्कार विहीन भाई-बहिनों के संस्कार के अधिकार और और विधिः २१ प्रकार के पुत्रों का वर्णन; वारिस होने का विचार; दत्तक लेने की विधि;स्त्रीधन और कन्याधनका निर्णय सीमा के झगड़ों का निपटारा; पशु व्यतिक्रम विचार, परधन, परस्त्रीहरण आदिका विचार; देय अदेय दानों का विचार, वस्तु क्रय विक्रय विचार; सेवाधर्म विचार; राजसम्बन्धी गूढसंवित समय संकेतों के व्यतिक्रमका ? विचार वेतन, मजूरी, किराया आदि विषयक झगड़ों का विचार, युवारी आदि दुराचारियोंका विचार, गाली-गलौज तथा मार-पीट का विचार, चोर, डाकू, लुटेरे आदिकों का विचार और नाना अपराधों और कुकर्मों तथा राजाश्रय नाना व्यवहारों का अति विस्तार पूर्वक वर्णन है।

प्रायश्चित्तकाण्ड में जलदान प्रकार व अशौचसूतक दिनावधि कथन व सद्यः शौच व्यवस्था जगदुत्पत्ति प्रपंच विस्तार व बुद्धयादि समवाय व प्रायश्चित्तकरणदोष व नरकादिनामस्वरूप व अतिपातक और पातकादिलक्षणभेद व सकास सुरापानादि महापातक प्रायश्चित्तकथन व स्वर्णापहारादिप्रायश्चित व अवकृष्टवधप्रायश्चित्त कथन और प्रत्येक वातों के स्वरूप व नियमादि वर्णन किये गये हैं परन्तु यह विस्तृतग्रन्थ संस्कृत में होने के कारण सर्वसाधारण के देखने में न आता थाइसकारण भारतवासी पुरुषों के उपकारार्थ यन्त्रालयाध्यक्ष श्रीमान् मुन्शी नवलकिशोर ने बहुतसाधन पारितोषिककी रीतिपर देकर आगरा निवासी मर्यादा प्रिय पण्डित दुर्गाप्रसाद शुक्ल सेसरलसाधारण भाषा में अनुवाद कराय स्वयन्त्रालय में मुद्रितकराया आशा है कि जो कोई मर्य्यादा प्रिय पुरुष इसको दृष्टिगोचर करेंगे वह प्रसन्न होकर इसको ग्रहण करेंगे और यन्त्रालयाध्यक्षको धन्यवाद देंगे-

____________

]


  1. “पञ्चीकृत महाभूत अर्थात् आकाश १वायु २ अग्नि २ जल ४ पृथ्वी ५ ये महाभूत हैं इनमें आधा आधा अंश तौअपना होय औ आठवां आठवां भाग औरौं का मिला होय उस को पंचीकृतभूत कहते हैं जैसे आकाश ने अपने दो भाग किये आ धातो अपने पास रक्खा और आधे के चार भाग करिकै एक एक भाग पवन आदिकों को दिया तोसवों में आधा भाग अपना और संभाग औरौंका मिलता है।” ↩︎

  2. “यथानद्यः स्यन्दमानाः समुद्रे अस्तंगच्छन्ति नामरूपविहायतथाविद्वान्ना मल्पादिमुक्तः परात्परं पुरुषमुपैतिदिव्यमितिमुण्डकश्रुतिः १० ॥” ↩︎

  3. “यस्यदेवे पराभक्तिः यथादेवेतथागुरौ ॥ तस्यैते कथिताः प्रकाशन्तेमहात्मनः ॥ इतिश्रुतेः १५ ॥” ↩︎

  4. “इसी को योगशास्त्र में संप्रज्ञात समाधि कहते हैं परंतु वहां अभ्यास करके होती है यह सहज है इतना अन्तर २८ ॥ .” ↩︎