०९

[नवम सर्ग]

भागसूचना

महाप्रयाण

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहादेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

लक्ष्मणं तु परित्यज्य रामो दुःखसमन्वितः।
मन्त्रिणो नैगमांश्चैव वसिष्ठं चेदमब्रवीत्॥ १॥

मूलम्

लक्ष्मणं तु परित्यज्य रामो दुःखसमन्वितः।
मन्त्रिणो नैगमांश्चैव वसिष्ठं चेदमब्रवीत्॥ १॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहादेवजी बोले—हे पार्वति! लक्ष्मणजीको त्याग देनेपर रघुनाथजीने अत्यन्त दुःखातुर हो मन्त्रियों, वेदवेत्ताओं और वसिष्ठजीसे इस प्रकार कहा—॥ १॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिषेक्ष्यामि भरतमधिराज्ये महामतिम्।
अद्य चाहं गमिष्यामि लक्ष्मणस्य पदानुगः॥ २॥

मूलम्

अभिषेक्ष्यामि भरतमधिराज्ये महामतिम्।
अद्य चाहं गमिष्यामि लक्ष्मणस्य पदानुगः॥ २॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘आज महामति भरतको राजतिलककर मैं भी लक्ष्मणके मार्गका अनुसरण करूँगा’’॥ २॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्ते रघुश्रेष्ठे पौरजानपदास्तदा।
द्रुमा इवच्छिन्नमूला दुःखार्ताः पतिता भुवि॥ ३॥

मूलम्

एवमुक्ते रघुश्रेष्ठे पौरजानपदास्तदा।
द्रुमा इवच्छिन्नमूला दुःखार्ताः पतिता भुवि॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

रघुनाथजीके इस प्रकार कहनेपर पुरवासी तथा देशवासी लोग दुःखातुर होकर जड़से कटे हुए वृक्षके समान पृथिवीपर गिर पड़े॥ ३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मूर्च्छितो भरतो वापि श्रुत्वा रामाभिभाषितम्।
गर्हयामास राज्यं स प्राहेदं रामसन्निधौ॥ ४॥

मूलम्

मूर्च्छितो भरतो वापि श्रुत्वा रामाभिभाषितम्।
गर्हयामास राज्यं स प्राहेदं रामसन्निधौ॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

रामजीका कथन सुनकर भरतजीको भी मूर्च्छा आ गयी। उन्होंने रघुनाथजीके निकट राज्यकी निन्दा करते हुए इस प्रकार कहा—॥ ४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्येन च शपे नाहं त्वां विना दिवि वा भुवि।
काङ्क्षे राज्यं रघुश्रेष्ठ शपे त्वत्पादयोः प्रभो॥ ५॥

मूलम्

सत्येन च शपे नाहं त्वां विना दिवि वा भुवि।
काङ्क्षे राज्यं रघुश्रेष्ठ शपे त्वत्पादयोः प्रभो॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘हे रघुश्रेष्ठ! मैं सत्यकी शपथ करके कहता हूँ, हे प्रभो! मुझे आपके चरणोंकी सौगन्ध है, मैं आपके बिना स्वर्गलोक या भूर्लोक कहींके भी राज्यकी इच्छा नहीं करता॥ ५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमौ कुशलवौ राजन्नभिषिञ्चस्व राघव।
कोशलेषु कुशं वीरमुत्तरेषु लवं तथा॥ ६॥

मूलम्

इमौ कुशलवौ राजन्नभिषिञ्चस्व राघव।
कोशलेषु कुशं वीरमुत्तरेषु लवं तथा॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे महाराज राम! इन कुश और लवको ही राजतिलक कीजिये—अवधमें वीरवर कुशको और उत्तरमें लवको राजा बनाइये॥ ६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गच्छन्तु दूतास्त्वरितं शत्रुघ्नानयनाय हि।
अस्माकमेतद्‍गमनं स्वर्वासाय शृणोतु सः॥ ७॥

मूलम्

गच्छन्तु दूतास्त्वरितं शत्रुघ्नानयनाय हि।
अस्माकमेतद्‍गमनं स्वर्वासाय शृणोतु सः॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

शीघ्र ही शत्रुघ्नको लानेके लिये दूत जाने चाहिये, जिससे वह भी हमारे स्वर्गवासके लिये जानेका वृत्तान्त सुन ले’’॥ ७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भरतेनोदितं श्रुत्वा पतितास्ताः समीक्ष्य तम्।
प्रजाश्च भयसंविग्ना रामविश्लेषकातराः॥ ८॥

मूलम्

भरतेनोदितं श्रुत्वा पतितास्ताः समीक्ष्य तम्।
प्रजाश्च भयसंविग्ना रामविश्लेषकातराः॥ ८॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतजीका कथन सुन उनकी ओर देखकर सम्पूर्ण प्रजा भयभीत तथा रामजीके वियोगसे व्याकुल हो पृथिवीपर गिर पड़ी॥ ८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वसिष्ठो भगवान् राममुवाच सदयं वचः।
पश्य तातादरात्सर्वाः पतिता भूतले प्रजाः॥ ९॥

मूलम्

वसिष्ठो भगवान् राममुवाच सदयं वचः।
पश्य तातादरात्सर्वाः पतिता भूतले प्रजाः॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब भगवान् वसिष्ठजीने रघुनाथजीसे करुणायुक्त वचन कहा—‘‘हे तात! सारी प्रजा पृथिवीपर पड़ी हुई है उसे कृपा-दृष्टिसे देखो॥ ९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तासां भावानुगं राम प्रसादं कर्तुमर्हसि।
श्रुत्वा वसिष्ठवचनं ताः समुत्थाप्य पूज्य च॥ १०॥
सस्नेहो रघुनाथस्ताः किं करोमीति चाब्रवीत्।
ततः प्राञ्जलयः प्रोचुः प्रजा भक्त्या रघूद्वहम्॥ ११॥

मूलम्

तासां भावानुगं राम प्रसादं कर्तुमर्हसि।
श्रुत्वा वसिष्ठवचनं ताः समुत्थाप्य पूज्य च॥ १०॥
सस्नेहो रघुनाथस्ताः किं करोमीति चाब्रवीत्।
ततः प्राञ्जलयः प्रोचुः प्रजा भक्त्या रघूद्वहम्॥ ११॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राम! इनके प्रेम-भावानुसार तुम्हें भी इनपर कृपा करनी चाहिये।’’ वसिष्ठजीके ये वचन सुनकर रघुनाथजीने उन सबोंको उठाया और उनका सत्कार कर उनसे प्रेमपूर्वक पूछा—‘‘कहो, मैं तुम्हारे लिये क्या करूँ?’’ तब प्रजाजन हाथ जोड़कर रघुनाथजीसे भक्तिपूर्वक बोले—॥ १०-११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गन्तुमिच्छसि यत्र त्वमनुगच्छामहे वयम्।
अस्माकमेषा परमा प्रीतिर्धर्मोऽयमक्षयः॥ १२॥

मूलम्

गन्तुमिच्छसि यत्र त्वमनुगच्छामहे वयम्।
अस्माकमेषा परमा प्रीतिर्धर्मोऽयमक्षयः॥ १२॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘आप जहाँ जाना चाहते हैं हम भी वहीं आपका अनुगमन करेंगे। यही हमारी सबसे बड़ी प्रसन्नता और अक्षय धर्म है॥ १२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तवानुगमने राम हृद्‍गता नो दृढा मतिः।
पुत्रदारादिभिः सार्धमनुयामोऽद्य सर्वथा॥ १३॥
तपोवनं वा स्वर्गं वा पुरं वा रघुनन्दन।
ज्ञात्वा तेषां मनोदार्ढ्यं कालस्य वचनं तथा॥ १४॥
भक्तं पौरजनं चैव बाढमित्याह राघवः।
कृत्वैवं निश्चयं रामस्तस्मिन्नेवाहनि प्रभुः॥ १५॥
प्रस्थापयामास च तौ रामभद्रः कुशीलवौ।
अष्टौ रथसहस्राणि सहस्रं चैव दन्तिनाम्॥ १६॥
षष्टिं चाश्वसहस्राणामेकैकस्मै ददौ बलम्।
बहुरत्नौ बहुधनौ हृष्टपुष्टजनावृतौ॥ १७॥

मूलम्

तवानुगमने राम हृद्‍गता नो दृढा मतिः।
पुत्रदारादिभिः सार्धमनुयामोऽद्य सर्वथा॥ १३॥
तपोवनं वा स्वर्गं वा पुरं वा रघुनन्दन।
ज्ञात्वा तेषां मनोदार्ढ्यं कालस्य वचनं तथा॥ १४॥
भक्तं पौरजनं चैव बाढमित्याह राघवः।
कृत्वैवं निश्चयं रामस्तस्मिन्नेवाहनि प्रभुः॥ १५॥
प्रस्थापयामास च तौ रामभद्रः कुशीलवौ।
अष्टौ रथसहस्राणि सहस्रं चैव दन्तिनाम्॥ १६॥
षष्टिं चाश्वसहस्राणामेकैकस्मै ददौ बलम्।
बहुरत्नौ बहुधनौ हृष्टपुष्टजनावृतौ॥ १७॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राम! हमारे हृदयमें आपका अनुगमन करनेका ही दृढ़ विचार है। अतः हे रघुनन्दन! आप तपोवन, नगर, स्वर्ग आदि कहीं भी जायँ अब हम स्त्री-पुत्रादिके सहित सर्वथा आपका ही अनुसरण करेंगे।’’ तब रघुनाथजीने उनके मनकी दृढ़ता और कालका वचन समझकर उन भक्त पुरवासियोंसे ‘बहुत अच्छा, (ऐसा ही करो)’ यह कह दिया। फिर ऐसा निश्चयकर प्रभु रामने उसी दिन कुश और लवको (अपने-अपने राज्यपर) भेजा। उनमेंसे प्रत्येकको आठ हजार रथ, एक हजार हाथी और साठ हजार घोड़े दिये तथा बहुत-से रत्न, धन और हृष्ट-पुष्ट मनुष्योंको साथ कर दिया॥ १३—१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिवाद्य गतौ रामं कृच्छ्रेण तु कुशीलवौ।
शत्रुघ्नानयने दूतान् प्रेषयामास राघवः॥ १८॥
ते दूतास्त्वरितं गत्वा शत्रुघ्नाय न्यवेदयन्।
कालस्यागमनं पश्चादत्रिपुत्रस्य चेष्टितम्॥ १९॥
लक्ष्मणस्य च निर्याणं प्रतिज्ञां राघवस्य च।
पुत्राभिषेचनं चैव सर्वं रामचिकीर्षितम्॥ २०॥

मूलम्

अभिवाद्य गतौ रामं कृच्छ्रेण तु कुशीलवौ।
शत्रुघ्नानयने दूतान् प्रेषयामास राघवः॥ १८॥
ते दूतास्त्वरितं गत्वा शत्रुघ्नाय न्यवेदयन्।
कालस्यागमनं पश्चादत्रिपुत्रस्य चेष्टितम्॥ १९॥
लक्ष्मणस्य च निर्याणं प्रतिज्ञां राघवस्य च।
पुत्राभिषेचनं चैव सर्वं रामचिकीर्षितम्॥ २०॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन दूतोंने तुरंत ही जाकर कालका आगमन, दुर्वासाजीकी करतूत, लक्ष्मणजीका महाप्रयाण, रघुनाथजीकी प्रतिज्ञा, पुत्रोंका अभिषेक और अब राम क्या करना चाहते हैं—ये सब समाचार शत्रुघ्नजीसे निवेदन कर दिये॥ १९-२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वा तद् दूतवचनं शत्रुघ्नः कुलनाशनम्।
व्यथितोऽपि धृतिं लब्ध्वा पुत्रावाहूय सत्वरः।
अभिषिच्य सुबाहुं वै मथुरायां महाबलः॥ २१॥
यूपकेतुं च विदिशानगरे शत्रुसूदनः।
अयोध्यां त्वरितं प्रागात्स्वयं रामदिदृक्षया॥ २२॥

मूलम्

श्रुत्वा तद् दूतवचनं शत्रुघ्नः कुलनाशनम्।
व्यथितोऽपि धृतिं लब्ध्वा पुत्रावाहूय सत्वरः।
अभिषिच्य सुबाहुं वै मथुरायां महाबलः॥ २१॥
यूपकेतुं च विदिशानगरे शत्रुसूदनः।
अयोध्यां त्वरितं प्रागात्स्वयं रामदिदृक्षया॥ २२॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार दूतोंके मुखसे अपने कुलके नाशका समाचार सुनकर शत्रुघ्नजी अति व्याकुल हुए, किन्तु फिर धैर्य धारण कर तुरंत ही अपने दोनों पुत्रोंको बुलाया और उनमेंसे महाबली सुबाहुको मथुराके और यूपकेतुको विदिशा नगरीके राज्यपर अभिषिक्त कर स्वयं बड़ी शीघ्रतासे रघुनाथजीके दर्शनके लिये अयोध्याको चले॥ २१-२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ददर्श च महात्मानं तेजसा ज्वलनप्रभम्।
दुकूलयुगसंवीतं ऋषिभिश्चाक्षयैर्वृतम्॥ २३॥

मूलम्

ददर्श च महात्मानं तेजसा ज्वलनप्रभम्।
दुकूलयुगसंवीतं ऋषिभिश्चाक्षयैर्वृतम्॥ २३॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ पहुँचनेपर उन्होंने अपने तेजसे अग्निके समान देदीप्यमान महात्मा रामको दो वस्त्र धारण किये और चिरजीवी ऋषियोंसे घिरे हुए देखा॥ २३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिवाद्य रमानाथं शत्रुघ्नो रघुपुङ्गवम्।
प्राञ्जलिर्धर्मसहितं वाक्यं प्राह महामतिः॥ २४॥

मूलम्

अभिवाद्य रमानाथं शत्रुघ्नो रघुपुङ्गवम्।
प्राञ्जलिर्धर्मसहितं वाक्यं प्राह महामतिः॥ २४॥

अनुवाद (हिन्दी)

महामति शत्रुघ्नजीने लक्ष्मीपति श्रीरघुनाथजीको प्रणाम किया और फिर हाथ जोड़कर ये धर्मयुक्त वाक्य कहे—॥ २४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिषिच्य सुतौ तत्र राज्ये राजीवलोचन।
तवानुगमने राजन् विद्धि मां कृतनिश्चयम्॥ २५॥

मूलम्

अभिषिच्य सुतौ तत्र राज्ये राजीवलोचन।
तवानुगमने राजन् विद्धि मां कृतनिश्चयम्॥ २५॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘हे कमलनयन! मैं अपने राज्यपर दोनों पुत्रोंका अभिषेक कर आया हूँ; हे राजन्! अब मैंने भी आपहीका अनुगमन करनेका निश्चय कर लिया है—ऐसा आप जानें॥ २५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्यक्तुं नार्हसि मां वीर भक्तं तव विशेषतः।
शत्रुघ्नस्य दृढां बुद्धिं विज्ञाय रघुनन्दनः॥ २६॥
सज्जीभवतु मध्याह्ने भवानित्यब्रवीद्वचः।

मूलम्

त्यक्तुं नार्हसि मां वीर भक्तं तव विशेषतः।
शत्रुघ्नस्य दृढां बुद्धिं विज्ञाय रघुनन्दनः॥ २६॥
सज्जीभवतु मध्याह्ने भवानित्यब्रवीद्वचः।

अनुवाद (हिन्दी)

हे वीर! मैं आपका भक्त हूँ; अतः आपको मुझे छोड़ना न चाहिये।’ शत्रुघ्नका दृढ़ निश्चय जान श्रीरघुनाथजीने कहा—‘तुम आज दोपहरके समय तैयार रहो’॥ २६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ क्षणात्समुत्पेतुर्वानराः कामरूपिणः॥ २७॥
ऋक्षाश्च राक्षसाश्चैव गोपुच्छाश्च सहस्रशः।
ऋषीणां देवतानां च पुत्रा रामस्य निर्गमम्॥ २८॥
श्रुत्वा प्रोचू रघुश्रेष्ठं सर्वे वानरराक्षसाः।
तवानुगमने विद्धि निश्चितार्थान्हि नः प्रभो॥ २९॥

मूलम्

अथ क्षणात्समुत्पेतुर्वानराः कामरूपिणः॥ २७॥
ऋक्षाश्च राक्षसाश्चैव गोपुच्छाश्च सहस्रशः।
ऋषीणां देवतानां च पुत्रा रामस्य निर्गमम्॥ २८॥
श्रुत्वा प्रोचू रघुश्रेष्ठं सर्वे वानरराक्षसाः।
तवानुगमने विद्धि निश्चितार्थान्हि नः प्रभो॥ २९॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी समय इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले वानर, रीछ, राक्षस और गोपुच्छ वानर हजारोंकी संख्यामें आ कूदे तथा ऋषि और देवताओंके पुत्ररूप वे समस्त वानर और राक्षसगण रघुनाथजीका निर्याण सुनकर उनसे कहने लगे—‘प्रभो! आप हमें भी अपने पीछे चलनेके लिये कटिबद्ध समझें॥ २७—२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतस्मिन्नन्तरे रामं सुग्रीवोऽपि महाबलः।
यथावदभिवाद्याह राघवं भक्तवत्सलम्॥ ३०॥

मूलम्

एतस्मिन्नन्तरे रामं सुग्रीवोऽपि महाबलः।
यथावदभिवाद्याह राघवं भक्तवत्सलम्॥ ३०॥

अनुवाद (हिन्दी)

इतनेहीमें महाबली सुग्रीवने भी यथावत् प्रणाम करके भक्तवत्सल रघुनाथजीसे कहा—॥ ३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिषिच्याङ्गदं राज्ये आगतोऽस्मि महाबलम्।
तवानुगमने राम विद्धि मां कृतनिश्चयम्॥ ३१॥

मूलम्

अभिषिच्याङ्गदं राज्ये आगतोऽस्मि महाबलम्।
तवानुगमने राम विद्धि मां कृतनिश्चयम्॥ ३१॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘हे राम! मैं महाबली अंगदको राजतिलक कर आपके साथ चलनेका निश्चय करके आया हूँ—ऐसा आप जानें॥ ३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वा तेषां दृढं वाक्यं ऋक्षवानररक्षसाम्।
विभीषणमुवाचेदं वचनं मृदु सादरम्॥ ३२॥

मूलम्

श्रुत्वा तेषां दृढं वाक्यं ऋक्षवानररक्षसाम्।
विभीषणमुवाचेदं वचनं मृदु सादरम्॥ ३२॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब उन रीछ, वानर और राक्षसोंके ऐसे दृढ़ वाक्य सुनकर श्रीरघुनाथजीने विभीषणसे आदरपूर्वक इस प्रकार मधुर वचन कहा—॥ ३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धरिष्यति धरा यावत्प्रजास्तावत्प्रशाधि मे।
वचनाद्‍राक्षसं राज्यं शापितोऽसि ममोपरि॥ ३३॥

मूलम्

धरिष्यति धरा यावत्प्रजास्तावत्प्रशाधि मे।
वचनाद्‍राक्षसं राज्यं शापितोऽसि ममोपरि॥ ३३॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं तुम्हें अपनी शपथ कराता हूँ, जबतक पृथ्वी प्रजा धारण करे तबतक मेरे कहनेसे तुम राक्षसोंका राज्य करो॥ ३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न किञ्चिदुत्तरं वाच्यं त्वया मत्कृतकारणात्।
एवं विभीषणं तूक्त्वा हनूमन्तमथाब्रवीत्॥ ३४॥

मूलम्

न किञ्चिदुत्तरं वाच्यं त्वया मत्कृतकारणात्।
एवं विभीषणं तूक्त्वा हनूमन्तमथाब्रवीत्॥ ३४॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब तुम मेरी की हुई इस व्यवस्थाके विषयमें कुछ और उत्तर न देना।’ विभीषणसे इस प्रकार कह फिर वे हनुमान् जी से बोले—॥ ३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मारुते त्वं चिरञ्जीव ममाज्ञां मा मृषा कृथाः।
जाम्बवन्तमथ प्राह तिष्ठ त्वं द्वापरान्तरे॥ ३५॥

मूलम्

मारुते त्वं चिरञ्जीव ममाज्ञां मा मृषा कृथाः।
जाम्बवन्तमथ प्राह तिष्ठ त्वं द्वापरान्तरे॥ ३५॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘हे मारुते! तुम चिरकालतक जीवित रहो, मेरी (पूर्व) आज्ञाको मिथ्या मत करो।’ फिर जाम्बवान् से कहा—‘तुम द्वापरके अन्ततक रहो॥ ३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मया सार्धं भवेद्युद्धं यत्किञ्चित्कारणान्तरे।
ततस्तान् राघवः प्राह ऋक्षराक्षसवानरान्।
सर्वानेव मया सार्धं प्रयातेति दयान्वितः॥ ३६॥

मूलम्

मया सार्धं भवेद्युद्धं यत्किञ्चित्कारणान्तरे।
ततस्तान् राघवः प्राह ऋक्षराक्षसवानरान्।
सर्वानेव मया सार्धं प्रयातेति दयान्वितः॥ ३६॥

अनुवाद (हिन्दी)

किसी कारणवश मेरे साथ तुम्हारा युद्ध होगा।’ फिर श्रीरघुनाथजीने शेष सब रीछ, वानर और राक्षसोंसे दयापूर्वक कहा—‘तुम सब लोग मेरे साथ चलो’॥ ३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रभाते रघुवंशनाथो
विशालवक्षाः सितकञ्जनेत्रः।
पुरोधसं प्राह वसिष्ठमार्यं
यान्त्वग्निहोत्राणि पुरो गुरो मे॥ ३७॥

मूलम्

ततः प्रभाते रघुवंशनाथो
विशालवक्षाः सितकञ्जनेत्रः।
पुरोधसं प्राह वसिष्ठमार्यं
यान्त्वग्निहोत्राणि पुरो गुरो मे॥ ३७॥

अनुवाद (हिन्दी)

दूसरे दिन सबेरे ही विशालहृदय कमलनयन भगवान् रामने पूज्य पुरोहित वसिष्ठजीसे कहा—
‘हे गुरो! मेरे आगे अग्निहोत्रकी आहवनीयादि अग्नियाँ चलें’॥ ३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो वसिष्ठोऽपि चकार सर्वं
प्रास्थानिकं कर्म महद्विधानात्।
क्षौमाम्बरो दर्भपवित्रपाणि-
र्महाप्रयाणाय गृहीतबुद्धिः॥ ३८॥
निष्क्रम्य रामो नगरात्सिताभ्रा-
च्छशीव यातः शशिकोटिकान्तिः।
रामस्य सव्ये सितपद्महस्ता
पद्मा गता पद्मविशालनेत्रा॥ ३९॥

मूलम्

ततो वसिष्ठोऽपि चकार सर्वं
प्रास्थानिकं कर्म महद्विधानात्।
क्षौमाम्बरो दर्भपवित्रपाणि-
र्महाप्रयाणाय गृहीतबुद्धिः॥ ३८॥
निष्क्रम्य रामो नगरात्सिताभ्रा-
च्छशीव यातः शशिकोटिकान्तिः।
रामस्य सव्ये सितपद्महस्ता
पद्मा गता पद्मविशालनेत्रा॥ ३९॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब वसिष्ठजीने बड़े विधिपूर्वक समस्त प्रास्थानिक कर्म किये। उस समय करोड़ों चन्द्रमाओंके समान कान्तिमान् भगवान् राम रेशमी वस्त्र धारण किये, कुशाकी पवित्री हाथमें पहने तथा महाप्रयाणमें चित्त लगाये नगरसे इस प्रकार निकले जैसे श्वेत बादलोंमेंसे चन्द्रमा निकलता हो। उनके बायीं ओर हाथमें श्वेत कमल लिये कमलके समान विशाल नेत्रवाली लक्ष्मीजी चलीं॥ ३८-३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पार्श्वेऽथ दक्षेऽरुणकञ्जहस्ता
श्यामा ययौ भूरपि दीप्यमाना।
शास्त्राणि शस्त्राणि धनुश्च बाणा
जग्मुः पुरस्ताद् धृतविग्रहास्ते॥ ४०॥

मूलम्

पार्श्वेऽथ दक्षेऽरुणकञ्जहस्ता
श्यामा ययौ भूरपि दीप्यमाना।
शास्त्राणि शस्त्राणि धनुश्च बाणा
जग्मुः पुरस्ताद् धृतविग्रहास्ते॥ ४०॥

अनुवाद (हिन्दी)

तथा दायीं ओर हाथमें लाल कमल लिये अत्यन्त दीप्तिशालिनी श्यामवर्णा पृथ्वी चली। भगवान् के आगे सम्पूर्ण शास्त्र, शस्त्र और उनके धनुष-बाण मूर्तिमान् होकर चले॥ ४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेदाश्च सर्वे धृतविग्रहाश्च
ययुश्च सर्वे मुनयश्च दिव्याः।
माता श्रुतीनां प्रणवेन साध्वी
ययौ हरिं व्याहृतिभिः समेता॥ ४१॥

मूलम्

वेदाश्च सर्वे धृतविग्रहाश्च
ययुश्च सर्वे मुनयश्च दिव्याः।
माता श्रुतीनां प्रणवेन साध्वी
ययौ हरिं व्याहृतिभिः समेता॥ ४१॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार समस्त वेद, समस्त दिव्य मुनिजन तथा ॐकार और व्याहृतियोंके सहित वेदमाता गायत्री—ये सब भी शरीर धारणकर श्रीहरिके साथ चले॥ ४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गच्छन्तमेवानुगता जनास्ते
सपुत्रदाराः सह बन्धुवर्गैः।
अनावृतद्वारमिवापवर्गं
रामं व्रजन्तं ययुराप्तकामाः।
सान्तःपुरः सानुचरः सभार्यः
शत्रुघ्नयुक्तो भरतोऽनुयातः॥ ४२॥

मूलम्

गच्छन्तमेवानुगता जनास्ते
सपुत्रदाराः सह बन्धुवर्गैः।
अनावृतद्वारमिवापवर्गं
रामं व्रजन्तं ययुराप्तकामाः।
सान्तःपुरः सानुचरः सभार्यः
शत्रुघ्नयुक्तो भरतोऽनुयातः॥ ४२॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार रघुनाथजीके चलनेपर अपने बन्धु-बान्धव और स्त्री-पुत्रादिके सहित समस्त पुरजन इस प्रकार चले मानो सफलमनोरथ हो मोक्षके खुले द्वारको जाते हों। फिर रनिवास, सेवकगण, स्त्री और शत्रुघ्नके सहित भरतजी भी चले॥ ४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गच्छन्तमालोक्य रमासमेतं
श्रीराघवं पौरजनाः समस्ताः।
सबालवृद्धाश्च ययुर्द्विजाग्र्याः
सामात्यवर्गाश्च समन्त्रिणो ययुः॥ ४३॥

मूलम्

गच्छन्तमालोक्य रमासमेतं
श्रीराघवं पौरजनाः समस्ताः।
सबालवृद्धाश्च ययुर्द्विजाग्र्याः
सामात्यवर्गाश्च समन्त्रिणो ययुः॥ ४३॥

अनुवाद (हिन्दी)

रघुनाथजीको लक्ष्मीजीके सहित जाते देख बालक और वृद्धोंके सहित समस्त पुरजन तथा अमात्य और मन्त्रियोंके सहित समस्त ब्राह्मणगण चले॥ ४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वे गताः क्षत्रमुखाः प्रहृष्टा
वैश्याश्च शूद्राश्च तथा परे च।
सुग्रीवमुख्या हरिपुङ्गवाश्च
स्नाता विशुद्धाः शुभशब्दयुक्ताः॥ ४४॥

मूलम्

सर्वे गताः क्षत्रमुखाः प्रहृष्टा
वैश्याश्च शूद्राश्च तथा परे च।
सुग्रीवमुख्या हरिपुङ्गवाश्च
स्नाता विशुद्धाः शुभशब्दयुक्ताः॥ ४४॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके पश्चात् मुख्य-मुख्य क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और अन्य अन्त्यजादि सभी लोग अति हर्षपूर्वक चले। फिर सुग्रीवादि श्रेष्ठ वानरगण स्नानादिसे शुद्ध हो (‘श्रीरामचन्द्रजीकी जय’ आदि) मंगलमय शब्द करते हुए चले॥ ४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न कश्चिदासीद्भवदुःखयुक्तो
दीनोऽथवा बाह्यसुखेषु सक्तः।
आनन्दरूपानुगता विरक्ता
ययुश्च रामं पशुभृत्यवर्गैः॥ ४५॥

मूलम्

न कश्चिदासीद्भवदुःखयुक्तो
दीनोऽथवा बाह्यसुखेषु सक्तः।
आनन्दरूपानुगता विरक्ता
ययुश्च रामं पशुभृत्यवर्गैः॥ ४५॥

अनुवाद (हिन्दी)

(उनमेंसे) कोई भी संसार-दुःखसे दुःखी, दीन अथवा बाह्य विषयोंमें आसक्त नहीं था। वे सभी परमानन्दस्वरूप भगवान् रामके अनुगामी संसारसे उपराम होकर अपने पशु और नौकर-चाकरोंके सहित रघुनाथजीके साथ चले गये॥ ४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूतान्यदृश्यानि च यानि तत्र
ये प्राणिनः स्थावरजङ्गमाश्च।
साक्षात्परात्मानमनन्तशक्तिं
जग्मुर्विरक्ताः परमेकमीशम्॥ ४६॥

मूलम्

भूतान्यदृश्यानि च यानि तत्र
ये प्राणिनः स्थावरजङ्गमाश्च।
साक्षात्परात्मानमनन्तशक्तिं
जग्मुर्विरक्ताः परमेकमीशम्॥ ४६॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो प्राणी कभी दिखलायी नहीं पड़ते थे तथा जितने स्थावर और जंगम जीव थे—वे सभी संसारसे विरक्त होकर एकमात्र परमेश्वर अनन्तशक्ति साक्षात् परमात्मा रामके साथ चले॥ ४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नासीदयोध्यानगरे तु जन्तुः
कश्चित्तदा राममना न यातः।
शून्यं बभूवाखिलमेव तत्र
पुरं गते राजनि रामचन्द्रे॥ ४७॥

मूलम्

नासीदयोध्यानगरे तु जन्तुः
कश्चित्तदा राममना न यातः।
शून्यं बभूवाखिलमेव तत्र
पुरं गते राजनि रामचन्द्रे॥ ४७॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय अयोध्यामें ऐसा कोई जीव नहीं था जो भगवान् राममें चित्त लगाकर उनका अनुगामी न हुआ हो। महाराज रामचन्द्रके कूच करते ही वह सारा नगर सूना हो गया॥ ४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽतिदूरं नगरात्स गत्वा
दृष्ट्वा नदीं तां हरिनेत्रजाताम्।
ननन्द रामः स्मृतपावनोऽतो
ददर्श चाशेषमिदं हृदिस्थम्॥ ४८॥

मूलम्

ततोऽतिदूरं नगरात्स गत्वा
दृष्ट्वा नदीं तां हरिनेत्रजाताम्।
ननन्द रामः स्मृतपावनोऽतो
ददर्श चाशेषमिदं हृदिस्थम्॥ ४८॥

अनुवाद (हिन्दी)

नगरसे बहुत दूर निकल जानेपर श्रीरघुनाथजीने विष्णुभगवान् के नेत्रसे प्रकट हुई (सरयू) नदी देखी। स्मरण करते ही पवित्र करनेवाले भगवान् रामचन्द्रजी उसे देखकर बड़े प्रसन्न हुए और फिर इस सम्पूर्ण जगत् को अपने हृदयमें देखने लगे॥ ४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथागतस्तत्र पितामहो महान्
देवाश्च सर्वे ऋषयश्च सिद्धाः।
विमानकोटीभिरपारपारं
समावृतं खं सुरसेविताभिः॥ ४९॥
रविप्रकाशाभिरभिस्फुरत्स्वं
ज्योतिर्मयं तत्र नभो बभूव।
स्वयम्प्रकाशैर्महतां महद्भिः
समावृतं पुण्यकृतां वरिष्ठैः॥ ५०॥

मूलम्

अथागतस्तत्र पितामहो महान्
देवाश्च सर्वे ऋषयश्च सिद्धाः।
विमानकोटीभिरपारपारं
समावृतं खं सुरसेविताभिः॥ ४९॥
रविप्रकाशाभिरभिस्फुरत्स्वं
ज्योतिर्मयं तत्र नभो बभूव।
स्वयम्प्रकाशैर्महतां महद्भिः
समावृतं पुण्यकृतां वरिष्ठैः॥ ५०॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी समय वहाँ पितामह ब्रह्माजी तथा अन्य समस्त देवता, ऋषि और सिद्धगण आये। उस समय जिनमें देवगण विराजमान थे ऐसे सूर्यके समान तेजस्वी करोड़ों विमानोंसे अनन्तपार आकाश खचाखच भर गया। (उनके प्रकाशसे) प्रज्वलित होकर वह स्वयं भी देदीप्यमान हो उठा। (इनके अतिरिक्त पुण्यलोकोंसे आये हुए) पुण्यवानोंमें श्रेष्ठ तथा महात्माओंमें महान् स्वयंप्रकाशमय दिव्य पुरुषोंसे भी आकाश मानो ढक गया॥ ४९-५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ववुश्च वाताश्च सुगन्धवन्तो
ववर्ष वृष्टिः कुसुमावलीनाम्।
उपस्थिते देवमृदङ्गनादे
गायत्सु विद्याधरकिन्नरेषु॥ ५१॥
रामस्तु पद्‍भ्यां सरयूजलं सकृत्
स्पृष्ट्वा परिक्रामदनन्तशक्तिः।
ब्रह्मा तदा प्राह कृताञ्जलिस्तं
रामं परात्मन् परमेश्वरस्त्वम्॥ ५२॥
विष्णुः सदानन्दमयोऽसि पूर्णो
जानासि तत्त्वं निजमैशमेकम्।
तथापि दासस्य ममाखिलेश
कृतं वचो भक्तपरोऽसि विद्वन्॥ ५३॥

मूलम्

ववुश्च वाताश्च सुगन्धवन्तो
ववर्ष वृष्टिः कुसुमावलीनाम्।
उपस्थिते देवमृदङ्गनादे
गायत्सु विद्याधरकिन्नरेषु॥ ५१॥
रामस्तु पद्‍भ्यां सरयूजलं सकृत्
स्पृष्ट्वा परिक्रामदनन्तशक्तिः।
ब्रह्मा तदा प्राह कृताञ्जलिस्तं
रामं परात्मन् परमेश्वरस्त्वम्॥ ५२॥
विष्णुः सदानन्दमयोऽसि पूर्णो
जानासि तत्त्वं निजमैशमेकम्।
तथापि दासस्य ममाखिलेश
कृतं वचो भक्तपरोऽसि विद्वन्॥ ५३॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय सुगन्धमय वायु चलने लगा और कुसुमसमूहोंकी (निरन्तर) वर्षा होने लगी। तब देवताओंका मृदंगनाद और विद्याधर तथा किन्नरोंका गान होते समय अनन्तशक्ति भगवान् रामने एक बार सरयूजलका स्पर्श (आचमन) कर चरणोंसे उसकी परिक्रमा की। उस समय ब्रह्माजी हाथ जोड़कर भगवान् रामसे कहने लगे—‘‘हे परमात्मन्! आप सबके स्वामी, नित्यानन्दमय, सर्वत्र परिपूर्ण और साक्षात् विष्णुभगवान् हैं। अपने एकमात्र ईश्वरीय तत्त्वको आप ही जानते हैं। तथापि हे अखिलेश्वर! आपने मुझ दासका निवेदन पूर्ण कर दिया, (सो ठीक ही है, क्योंकि) हे विद्वन्! आप भक्तवत्सल हैं॥ ५१-५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं भ्रातृभिर्वैष्णवमेवमाद्यं
प्रविश्य देहं परिपाहि देवान्।
यद्वा परो वा यदि रोचते तं
प्रविश्य देहं परिपाहि नस्त्वम्॥ ५४॥

मूलम्

त्वं भ्रातृभिर्वैष्णवमेवमाद्यं
प्रविश्य देहं परिपाहि देवान्।
यद्वा परो वा यदि रोचते तं
प्रविश्य देहं परिपाहि नस्त्वम्॥ ५४॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे प्रभो! अब आप भाइयोंसहित अपने आदिविग्रह विष्णुदेहमें प्रविष्ट होकर देवताओंकी रक्षा कीजिये अथवा यदि आपको कोई और शरीर प्रिय हो तो उसीमें प्रवेश करके हम सबका पालन कीजिये॥ ५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वमेव देवाधिपतिश्च विष्णु-
र्जानन्ति न त्वां पुरुषा विना माम्।
सहस्रकृत्वस्तु नमो नमस्ते
प्रसीद देवेश पुनर्नमस्ते॥ ५५॥

मूलम्

त्वमेव देवाधिपतिश्च विष्णु-
र्जानन्ति न त्वां पुरुषा विना माम्।
सहस्रकृत्वस्तु नमो नमस्ते
प्रसीद देवेश पुनर्नमस्ते॥ ५५॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप ही देवाधिपति विष्णुभगवान् हैं। इस बातको मेरे सिवा और कोई पुरुष नहीं जानता। हे देवेश! आपको हजारों बार नमस्कार है, आप प्रसन्न होइये, आपको पुनः-पुनः नमस्कार है’’॥ ५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पितामहप्रार्थनया स रामः
पश्यत्सु देवेषु महाप्रकाशः।
मुष्णंश्च चक्षूंषि दिवौकसां तदा
बभूव चक्रादियुतश्चतुर्भुजः॥ ५६॥

मूलम्

पितामहप्रार्थनया स रामः
पश्यत्सु देवेषु महाप्रकाशः।
मुष्णंश्च चक्षूंषि दिवौकसां तदा
बभूव चक्रादियुतश्चतुर्भुजः॥ ५६॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब पितामह ब्रह्माजीकी प्रार्थनासे महातेजोमय भगवान् राम सब देवताओंके देखते-देखते उनकी दृष्टिको चुराते हुए चक्रादि आयुधोंसे युक्त चतुर्भुजरूप हो गये॥ ५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शेषो बभूवेश्वरतल्पभूतः
सौमित्रिरत्यद्भुतभोगधारी।
बभूवतुश्चक्रदरौ च दिव्यौ
कैकेयिसूनूर्लवणान्तकश्च॥ ५७॥

मूलम्

शेषो बभूवेश्वरतल्पभूतः
सौमित्रिरत्यद्भुतभोगधारी।
बभूवतुश्चक्रदरौ च दिव्यौ
कैकेयिसूनूर्लवणान्तकश्च॥ ५७॥

अनुवाद (हिन्दी)

लक्ष्मणजी अद्भुत फण धारण कर भगवान् की शय्यारूप शेषनाग हो गये तथा कैकेयीपुत्र भरत और लवणान्तक शत्रुघ्न दिव्य चक्र और शंख हो गये॥ ५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सीता च लक्ष्मीरभवत्पुरेव
रामो हि विष्णुः पुरुषः पुराणः।
सहानुजः पूर्वशरीरकेण
बभूव तेजोमयदिव्यमूर्तिः॥ ५८॥

मूलम्

सीता च लक्ष्मीरभवत्पुरेव
रामो हि विष्णुः पुरुषः पुराणः।
सहानुजः पूर्वशरीरकेण
बभूव तेजोमयदिव्यमूर्तिः॥ ५८॥

अनुवाद (हिन्दी)

सीताजी तो पहले ही लक्ष्मीजी हो गयी थीं। भगवान् राम पुराणपुरुष विष्णुभगवान् ही हैं। वे भाइयोंके सहित अपने पूर्वशरीरसे तेजोमय दिव्यस्वरूपवाले हो गये॥ ५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विष्णुं समासाद्य सुरेन्द्रमुख्या
देवाश्च सिद्धा मुनयश्च यक्षाः।
पितामहाद्याः परितः परेशं
स्तवैर्गृणन्तः परिपूजयन्तः॥ ५९॥
आनन्दसम्प्लावितपूर्णचित्ता
बभूविरे प्राप्तमनोरथास्ते।
तदाह विष्णुर्द्रुहिणं महात्मा
एते हि भक्ता मयि चानुरक्ताः॥ ६०॥

मूलम्

विष्णुं समासाद्य सुरेन्द्रमुख्या
देवाश्च सिद्धा मुनयश्च यक्षाः।
पितामहाद्याः परितः परेशं
स्तवैर्गृणन्तः परिपूजयन्तः॥ ५९॥
आनन्दसम्प्लावितपूर्णचित्ता
बभूविरे प्राप्तमनोरथास्ते।
तदाह विष्णुर्द्रुहिणं महात्मा
एते हि भक्ता मयि चानुरक्ताः॥ ६०॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर उन विष्णुभगवान् के पास चारों ओरसे इन्द्रादि देवता, सिद्ध, मुनि, यक्ष और ब्रह्मा आदि प्रजापतिगण आकर उन परमेश्वरकी स्तोत्रोंद्वारा स्तुति करते हुए पूजा करने लगे और अपना मनोरथ पूर्ण हो जानेसे मन-ही-मन आनन्दमग्न हो गये। तब महात्मा विष्णुभगवान् ने ब्रह्माजीसे कहा—‘‘ये सब मेरे भक्त और मुझमें प्रीति रखनेवाले हैं॥ ५९-६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यान्तं दिवं मामनुयान्ति सर्वे
तिर्यक्शरीरा अपि पुण्ययुक्ताः।
वैकुण्ठसाम्यं परमं प्रयान्तु
समाविशस्वाशु ममाज्ञया त्वम्॥ ६१॥

मूलम्

यान्तं दिवं मामनुयान्ति सर्वे
तिर्यक्शरीरा अपि पुण्ययुक्ताः।
वैकुण्ठसाम्यं परमं प्रयान्तु
समाविशस्वाशु ममाज्ञया त्वम्॥ ६१॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे साथ ये सब भी स्वर्ग-लोकको जाना चाहते हैं। इनमें जो तिर्यक्शरीरधारी हैं वे भी बड़े पुण्यात्मा हैं। ये सब वैकुण्ठके समान उत्तम लोकोंको प्राप्त हों; मेरी आज्ञासे तुम शीघ्र वहाँ इनका प्रवेश करा दो’’॥ ६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वा हरेर्वाक्यमथाब्रवीत्कः
सान्तानिकान् यान्तु विचित्रभोगान्।
लोकान् मदीयोपरि दीप्यमानां-
स्त्वद्भावयुक्ताः कृतपुण्यपुञ्जाः॥ ६२॥

मूलम्

श्रुत्वा हरेर्वाक्यमथाब्रवीत्कः
सान्तानिकान् यान्तु विचित्रभोगान्।
लोकान् मदीयोपरि दीप्यमानां-
स्त्वद्भावयुक्ताः कृतपुण्यपुञ्जाः॥ ६२॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् के ये वचन सुनकर ब्रह्माजीने कहा— ‘‘भगवन्! आपकी भक्तिसे युक्त ये महापुण्यशाली लोग मेरे लोकसे भी ऊपर अत्यन्त दीप्तिशाली और विचित्र भोगोंसे सम्पन्न सान्तानिक लोकोंको प्राप्त हों॥ ६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये चापि ते राम पवित्रनाम
गृणन्ति मर्त्या लयकाल एव।
अज्ञानतो वापि भजन्तु लोकां-
स्तानेव योगैरपि चाधिगम्यान्॥ ६३॥

मूलम्

ये चापि ते राम पवित्रनाम
गृणन्ति मर्त्या लयकाल एव।
अज्ञानतो वापि भजन्तु लोकां-
स्तानेव योगैरपि चाधिगम्यान्॥ ६३॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राम! और भी जो लोग मरनेके समय ही आपका पवित्र नाम लेंगे अथवा जो भूलकर भी आपका भजन करेंगे वे भी योगियोंको प्राप्त होनेयोग्य उन्हीं लोकोंको जायँगे’’॥ ६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽतिहृष्टा हरिराक्षसाद्याः
स्पृष्ट्वा जलं त्यक्तकलेवरास्ते।
प्रपेदिरे प्राक्तनमेव रूपं
यदंशजा ऋक्षहरीश्वरास्ते॥ ६४॥

मूलम्

ततोऽतिहृष्टा हरिराक्षसाद्याः
स्पृष्ट्वा जलं त्यक्तकलेवरास्ते।
प्रपेदिरे प्राक्तनमेव रूपं
यदंशजा ऋक्षहरीश्वरास्ते॥ ६४॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुनकर समस्त वानर और राक्षसादि अति प्रसन्न हुए और जलस्पर्श करके शरीर छोड़ने लगे। वे रीछ और वानर आदि जिस-जिसके अंशसे उत्पन्न हुए थे उस-उस देवताके पूर्वरूपको ही प्राप्त हो गये॥ ६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभाकरं प्राप हरिप्रवीरः
सुग्रीव आदित्यजवीर्यवत्त्वात्।
ततो विमग्नाः सरयूजलेषु
नराः परित्यज्य मनुष्यदेहम्॥ ६५॥
आरुह्य दिव्याभरणा विमानं
प्रापुश्च ते सान्तनिकाख्यलोकान्।
तिर्यक्प्रजाता अपि रामदृष्टा
जलं प्रविष्टा दिवमेव याताः॥ ६६॥

मूलम्

प्रभाकरं प्राप हरिप्रवीरः
सुग्रीव आदित्यजवीर्यवत्त्वात्।
ततो विमग्नाः सरयूजलेषु
नराः परित्यज्य मनुष्यदेहम्॥ ६५॥
आरुह्य दिव्याभरणा विमानं
प्रापुश्च ते सान्तनिकाख्यलोकान्।
तिर्यक्प्रजाता अपि रामदृष्टा
जलं प्रविष्टा दिवमेव याताः॥ ६६॥

अनुवाद (हिन्दी)

वानरराज सुग्रीव सूर्यके वीर्यसे उत्पन्न हुए थे, अतः वे सूर्यमें लीन हो गये, तदनन्तर अयोध्या-निवासी लोग सरयूके जलमें डूब-डूबकर मनुष्य-देहको त्याग दिव्य आभूषणोंसे विभूषित हो विमानोंपर चढ़कर सान्तनिक नामक लोकोंमें पहुँच गये। जो तिर्यक् योनियोंमें उत्पन्न हुए थे वे (कूकर-शूकर आदि) भी भगवान् रामकी दृष्टि पड़नेसे जलमें डूबकर स्वर्गलोकको ही चले गये॥ ६५-६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिदृक्षवो जानपदाश्च लोका
रामं समालोक्य विमुक्तसङ्गाः।
स्मृत्वा हरिं लोकगुरुं परेशं
स्पृष्ट्वा जलं स्वर्गमवापुरञ्जः॥ ६७॥

मूलम्

दिदृक्षवो जानपदाश्च लोका
रामं समालोक्य विमुक्तसङ्गाः।
स्मृत्वा हरिं लोकगुरुं परेशं
स्पृष्ट्वा जलं स्वर्गमवापुरञ्जः॥ ६७॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो देशवासी लोग यह सब कौतुक देखनेके लिये आये थे वे भी श्रीरामचन्द्रजीका दर्शन कर संसारकी आसक्तिको छोड़ लोकगुरु परमेश्वर भगवान् विष्णुका स्मरण करते हुए जलस्पर्श कर अनायास स्वर्गको चले गये॥ ६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतावदेवोत्तरमाह शम्भुः
श्रीरामचन्द्रस्य कथावशेषम्।
यः पादमप्यत्र पठेत्स पापा-
द्विमुच्यते जन्मसहस्रजातात्॥ ६८॥

मूलम्

एतावदेवोत्तरमाह शम्भुः
श्रीरामचन्द्रस्य कथावशेषम्।
यः पादमप्यत्र पठेत्स पापा-
द्विमुच्यते जन्मसहस्रजातात्॥ ६८॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहादेवजीने भगवान् रामकी कथाका परिशिष्टरूप यह इतना ही उत्तरकाण्ड कहा है। जो पुरुष इसका एक पाद (चौथाई श्लोक) भी पढ़ता है वह अपने हजारों जन्मोंके पापोंसे मुक्त हो जाता है॥ ६८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिने दिने पापचयं प्रकुर्वन्
पठेन्नरः श्लोकमपीह भक्त्या।
विमुक्तसर्वाघचयः प्रयाति
रामस्य सालोक्यमनन्यलभ्यम्॥ ६९॥

मूलम्

दिने दिने पापचयं प्रकुर्वन्
पठेन्नरः श्लोकमपीह भक्त्या।
विमुक्तसर्वाघचयः प्रयाति
रामस्य सालोक्यमनन्यलभ्यम्॥ ६९॥

अनुवाद (हिन्दी)

नित्यप्रति अनेकों पाप करनेवाला पुरुष यदि भक्तिपूर्वक इसका एक श्लोक भी पढ़े तो सम्पूर्ण पापराशिसे छूटकर श्रीरामके सालोक्यपदको प्राप्त हो जाता है, जो दूसरोंके लिये अलभ्य है॥ ६९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आख्यानमेतद्‍रघुनायकस्य
कृतं पुरा राघवचोदितेन।
महेश्वरेणाप्तभविष्यदर्थं
श्रुत्वा तु रामः परितोषमेति॥ ७०॥

मूलम्

आख्यानमेतद्‍रघुनायकस्य
कृतं पुरा राघवचोदितेन।
महेश्वरेणाप्तभविष्यदर्थं
श्रुत्वा तु रामः परितोषमेति॥ ७०॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरघुनाथजीकी प्रेरणासे उनकी इस कथाको, जिसमें भविष्य चरित्रोंका ही वर्णन किया गया है, पहले श्रीमहादेवजीने रचा था। इसको सुनकर श्रीरामचन्द्रजी बड़े प्रसन्न होते हैं॥ ७०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामायणं काव्यमनन्तपुण्यं
श्रीशङ्करेणाभिहितं भवान्यै।
भक्त्या पठेद्यः शृणुयात्स पापै-
र्विमुच्यते जन्मशतोद्भवैश्च॥ ७१॥

मूलम्

रामायणं काव्यमनन्तपुण्यं
श्रीशङ्करेणाभिहितं भवान्यै।
भक्त्या पठेद्यः शृणुयात्स पापै-
र्विमुच्यते जन्मशतोद्भवैश्च॥ ७१॥

अनुवाद (हिन्दी)

रामायण नामक यह अनन्त पुण्यप्रद काव्य श्रीशंकरभगवान् ने पार्वतीजीसे कहा है। जो पुरुष इसे भक्तिपूर्वक पढ़ता अथवा सुनता है वह अपने सैकड़ों जन्मोंके पापपुंजसे मुक्त हो जाता है॥ ७१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अध्यात्मरामं पठतश्च नित्यं
श्रोतुश्च भक्त्या लिखितुश्च रामः।
अतिप्रसन्नश्च सदा समीपे
सीतासमेतः श्रियमातनोति॥ ७२॥

मूलम्

अध्यात्मरामं पठतश्च नित्यं
श्रोतुश्च भक्त्या लिखितुश्च रामः।
अतिप्रसन्नश्च सदा समीपे
सीतासमेतः श्रियमातनोति॥ ७२॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस अध्यात्मरामायणको नित्यप्रति पढ़ने, सुनने अथवा भक्तिपूर्वक लिखनेवालेसे अत्यन्त प्रसन्न होकर भगवान् राम सीताजीके सहित उसके पास रहकर उसकी श्रीवृद्धि करते हैं॥ ७२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामायणं जनमनोहरमादिकाव्यं
ब्रह्मादिभिः सुरवरैरपि संस्तुतं च।
श्रद्धान्वितः पठति यः शृणुयात्तु नित्यं
विष्णोः प्रयाति सदनं स विशुद्धदेहः॥ ७३॥

मूलम्

रामायणं जनमनोहरमादिकाव्यं
ब्रह्मादिभिः सुरवरैरपि संस्तुतं च।
श्रद्धान्वितः पठति यः शृणुयात्तु नित्यं
विष्णोः प्रयाति सदनं स विशुद्धदेहः॥ ७३॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मा आदि सुरश्रेष्ठोंसे प्रशंसित और मनुष्योंके मनको हरनेवाले इस आदिकाव्य रामायणको जो पुरुष नित्यप्रति श्रद्धापूर्वक पढ़ता या सुनता है, वह विशुद्ध शरीर धारणकर भगवान् विष्णुके धामको प्राप्त होता है॥ ७३॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे उत्तरकाण्डे नवमः सर्गः॥ ९॥
समाप्तमिदमुत्तरकाण्डम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

पार्वत्यै परमेश्वरेण गदिते ह्यध्यात्मरामायणे
काण्डैः सप्तभिरन्वितेऽतिशुभदे सर्गाश्चतुःषष्टिकाः।
श्लोकानां तु शतद्वयेन सहितान्युक्तानि चत्वारि वै
साहस्राणि समाप्तितः श्रुतिशतान्युक्तानि तत्त्वार्थतः।

मूलम्

पार्वत्यै परमेश्वरेण गदिते ह्यध्यात्मरामायणे
काण्डैः सप्तभिरन्वितेऽतिशुभदे सर्गाश्चतुःषष्टिकाः।
श्लोकानां तु शतद्वयेन सहितान्युक्तानि चत्वारि वै
साहस्राणि समाप्तितः श्रुतिशतान्युक्तानि तत्त्वार्थतः।

अनुवाद (हिन्दी)

साक्षात् परमेश्वर (श्रीमहादेवजी)-द्वारा पार्वतीजीके प्रति कहे हुए सात काण्डोंसे युक्त इस शुभप्रद अध्यात्मरामायणमें चौंसठ सर्ग हैं। इसकी समाप्तिपर्यन्त कुल चार हजार दो सौ श्लोक कहे गये हैं तथा तत्त्वार्थका विवेचन करते हुए सैकड़ों श्रुतियाँ कही गयी हैं।