०८

[अष्टम सर्ग]

भागसूचना

कालका आगमन, लक्ष्मणजीका परित्याग और उनका स्वर्गगमन

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहादेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ काले गते कस्मिन् भरतो भीमविक्रमः।
युधाजिता मातुलेन ह्याहूतोऽगात्ससैनिकः॥ १॥
रामाज्ञया गतस्तत्र हत्वा गन्धर्वनायकान्।
तिस्रः कोटीः पुरे द्वे तु निवेश्य रघुनन्दनः॥ २॥

मूलम्

अथ काले गते कस्मिन् भरतो भीमविक्रमः।
युधाजिता मातुलेन ह्याहूतोऽगात्ससैनिकः॥ १॥
रामाज्ञया गतस्तत्र हत्वा गन्धर्वनायकान्।
तिस्रः कोटीः पुरे द्वे तु निवेश्य रघुनन्दनः॥ २॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहादेवजी बोले—हे पार्वति! कुछ काल बीतनेपर उग्रपराक्रमी भरतजी अपने मामा युधाजित् द्वारा बुलाये जानेपर भगवान् रामकी आज्ञा लेकर सेनासहित उनके यहाँ गये। वहाँ पहुँचकर रघुकुलनन्दन भरतजीने तीन करोड़ प्रमुख गन्धर्वोंको मार कर दो नगर बसाये॥ १-२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुष्करं पुष्करावत्यां तक्षं तक्षशिलाह्वये।
अभिषिच्य सुतौ तत्र धनधान्यसुहृद्‍वृतौ॥ ३॥
पुनरागत्य भरतो रामसेवापरोऽभवत्।
ततः प्रीतो रघुश्रेष्ठो लक्ष्मणं प्राह सादरम्॥ ४॥

मूलम्

पुष्करं पुष्करावत्यां तक्षं तक्षशिलाह्वये।
अभिषिच्य सुतौ तत्र धनधान्यसुहृद्‍वृतौ॥ ३॥
पुनरागत्य भरतो रामसेवापरोऽभवत्।
ततः प्रीतो रघुश्रेष्ठो लक्ष्मणं प्राह सादरम्॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनमेंसे पुष्करावतीमें पुष्कर और तक्षशिलामें तक्ष नामक अपने दोनों पुत्रोंको अभिषिक्त कर और उन्हें धन-धान्य तथा मित्रमण्डलसे सम्पन्न कर वे लौट आये और भगवान् रामकी सेवामें तत्पर हो गये। तब रघुनाथजीने प्रसन्न होकर आदरपूर्वक लक्ष्मणजीसे कहा—॥ ३-४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उभौ कुमारौ सौमित्रे गृहीत्वा पश्चिमां दिशम्।
तत्र भिल्लान्विनिर्जित्य दुष्टान् सर्वापकारिणः॥ ५॥
अङ्गदश्चित्रकेतुश्च महासत्त्वपराक्रमौ।
द्वयोर्द्वे नगरे कृत्वा गजाश्वधनरत्नकैः॥ ६॥
अभिषिच्य सुतौ तत्र शीघ्रमागच्छ मां पुनः।
रामस्याज्ञां पुरस्कृत्य गजाश्वबलवाहनः॥ ७॥
गत्वा हत्वा रिपून् सर्वान् स्थापयित्वा कुमारकौ।
सौमित्रिः पुनरागत्य रामसेवापरोऽभवत्॥ ८॥

मूलम्

उभौ कुमारौ सौमित्रे गृहीत्वा पश्चिमां दिशम्।
तत्र भिल्लान्विनिर्जित्य दुष्टान् सर्वापकारिणः॥ ५॥
अङ्गदश्चित्रकेतुश्च महासत्त्वपराक्रमौ।
द्वयोर्द्वे नगरे कृत्वा गजाश्वधनरत्नकैः॥ ६॥
अभिषिच्य सुतौ तत्र शीघ्रमागच्छ मां पुनः।
रामस्याज्ञां पुरस्कृत्य गजाश्वबलवाहनः॥ ७॥
गत्वा हत्वा रिपून् सर्वान् स्थापयित्वा कुमारकौ।
सौमित्रिः पुनरागत्य रामसेवापरोऽभवत्॥ ८॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘हे सुमित्रानन्दन! तुम अपने दोनों कुमारोंको लेकर पश्चिम दिशामें जाओ और वहाँ सबका अपकार करनेवाले दुष्ट भीलोंको जीतकर दोनोंके लिये दो नगर बसाओ और उनमें महाबलवान् और पराक्रमी अंगद तथा चित्रकेतुका हाथी, घोड़े, धन और रत्नादि उपकरणोंसे राजतिलक कर फिर तुरंत ही मेरे पास लौट आओ।’’ भगवान् रामकी इस आज्ञाको शिरोधार्य कर लक्ष्मणजी हाथी-घोड़े आदि दल-बलके सहित गये और समस्त शत्रुओंको मारकर दोनों कुमारोंको राजपदपर नियुक्त कर लौट आये तथा फिर राम-सेवामें तत्पर हो गये॥ ५—८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तु काले महति प्रयाते
रामं सदा धर्मपथे स्थितं हरिम्।
द्रष्टुं समागादृषिवेषधारी
कालस्ततो लक्ष्मणमित्युवाच॥ ९॥

मूलम्

ततस्तु काले महति प्रयाते
रामं सदा धर्मपथे स्थितं हरिम्।
द्रष्टुं समागादृषिवेषधारी
कालस्ततो लक्ष्मणमित्युवाच॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर बहुत-सा काल व्यतीत होनेपर सर्वदा धर्म-मार्गका अवलम्बन करनेवाले भगवान् रामका दर्शन करनेके लिये ऋषिवेष धारण कर काल आया और लक्ष्मणजीसे यों बोला—॥ ९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निवेदयस्वातिबलस्य दूतं
मां द्रष्टुकामं पुरुषोत्तमाय।
रामाय विज्ञापनमस्ति तस्य
महर्षिमुख्यस्य चिराय धीमन्॥ १०॥

मूलम्

निवेदयस्वातिबलस्य दूतं
मां द्रष्टुकामं पुरुषोत्तमाय।
रामाय विज्ञापनमस्ति तस्य
महर्षिमुख्यस्य चिराय धीमन्॥ १०॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘हे बुद्धिमन्! तुम पुरुषोत्तम महाराज रामसे निवेदन करो कि महर्षि अतिबलका दूत आपके दर्शनकी इच्छासे आया है। मुझे उन्हें बहुत देरतक उन महर्षिश्रेष्ठका सन्देश सुनाना है’’॥ १०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य तद्वचनं श्रुत्वा सौमित्रिस्त्वरयान्वितः।
आचचक्षेऽथ रामाय स सम्प्राप्तं तपोधनम्॥ ११॥

मूलम्

तस्य तद्वचनं श्रुत्वा सौमित्रिस्त्वरयान्वितः।
आचचक्षेऽथ रामाय स सम्प्राप्तं तपोधनम्॥ ११॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके ये वचन सुनकर लक्ष्मणजीने बड़ी शीघ्रतासे श्रीरघुनाथजीको उन तपोधनके आनेकी सूचना दी॥ ११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं ब्रुवन्तं प्रोवाच लक्ष्मणं राघवो वचः।
शीघ्रं प्रवेश्यतां तात मुनिः सत्कारपूर्वकम्॥ १२॥

मूलम्

एवं ब्रुवन्तं प्रोवाच लक्ष्मणं राघवो वचः।
शीघ्रं प्रवेश्यतां तात मुनिः सत्कारपूर्वकम्॥ १२॥

अनुवाद (हिन्दी)

लक्ष्मणजीके ऐसा कहनेपर श्रीरघुनाथजीने उनसे कहा—‘‘भैया! मुनिराजको तुरंत ही बड़े सत्कारपूर्वक भीतर ले आओ’’॥ १२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लक्ष्मणस्तु तथेत्युक्त्वा प्रावेशयत तापसम्।
स्वतेजसा ज्वलन्तं तं घृतसिक्तं यथानलम्॥ १३॥

मूलम्

लक्ष्मणस्तु तथेत्युक्त्वा प्रावेशयत तापसम्।
स्वतेजसा ज्वलन्तं तं घृतसिक्तं यथानलम्॥ १३॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब लक्ष्मणजी ‘बहुत अच्छा’ कह घृताहुतिसे प्रज्वलित हुए अग्निके समान अपने तेजसे देदीप्यमान उस तपस्वीको भीतर ले आये॥ १३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽभिगम्य रघुश्रेष्ठं दीप्यमानः स्वतेजसा।
मुनिर्मधुरवाक्येन वर्धस्वेत्याह राघवम्॥ १४॥

मूलम्

सोऽभिगम्य रघुश्रेष्ठं दीप्यमानः स्वतेजसा।
मुनिर्मधुरवाक्येन वर्धस्वेत्याह राघवम्॥ १४॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपनी कान्तिसे प्रकाशमान उस मुनिने श्रीरघुनाथजीके पास पहुँचनेपर उनसे अति मधुर वाणीमें ‘आपका अभ्युदय हो’ इस प्रकार कहा॥ १४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मै स मुनये रामः पूजां कृत्वा यथाविधि।
पृष्ट्वानामयमव्यग्रो रामः पृष्टोऽथ तेन सः॥ १५॥

मूलम्

तस्मै स मुनये रामः पूजां कृत्वा यथाविधि।
पृष्ट्वानामयमव्यग्रो रामः पृष्टोऽथ तेन सः॥ १५॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब श्रीरामचन्द्रजीने उस मुनिकी विधिपूर्वक पूजा की और फिर शान्तभावसे रामचन्द्रजीने मुनिसे और मुनिने रामचन्द्रजीसे कुशल पूछी॥ १५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिव्यासने समासीनो रामः प्रोवाच तापसम्।
यदर्थमागतोऽसि त्वमिह तत्प्रापयस्व मे॥ १६॥

मूलम्

दिव्यासने समासीनो रामः प्रोवाच तापसम्।
यदर्थमागतोऽसि त्वमिह तत्प्रापयस्व मे॥ १६॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर दिव्यासनपर विराजमान महाराज रामने मुनिसे कहा—‘‘आप जिस लिये यहाँ पधारे हैं वह (सन्देश) मुझसे कहिये’’॥ १६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वाक्येन चोदितस्तेन रामेणाह मुनिर्वचः।
द्वन्द्वमेव प्रयोक्तव्यमनालक्ष्यं तु तद्वचः॥ १७॥

मूलम्

वाक्येन चोदितस्तेन रामेणाह मुनिर्वचः।
द्वन्द्वमेव प्रयोक्तव्यमनालक्ष्यं तु तद्वचः॥ १७॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् रामके इस वाक्यसे प्रेरित होकर मुनिने कहा—‘‘वह बात किसी दूसरेको प्रकट न करते हुए हम दोनोंके बीच ही कही जा सकती है॥ १७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नान्येन चैतच्छ्रोतव्यं नाख्यातव्यं च कस्यचित्।
शृणुयाद्वा निरीक्षेद्वा यः स वध्यस्त्वया प्रभो॥ १८॥

मूलम्

नान्येन चैतच्छ्रोतव्यं नाख्यातव्यं च कस्यचित्।
शृणुयाद्वा निरीक्षेद्वा यः स वध्यस्त्वया प्रभो॥ १८॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसे न तो कोई सुने और न वह किसीके प्रति कही जाय। यदि उसे कोई सुने अथवा देखे तो हे प्रभो! आपको उसे मारना होगा’’॥ १८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथेति च प्रतिज्ञाय रामो लक्ष्मणमब्रवीत्।
तिष्ठ त्वं द्वारि सौमित्रे नायात्वत्र जनो रहः॥ १९॥

मूलम्

तथेति च प्रतिज्ञाय रामो लक्ष्मणमब्रवीत्।
तिष्ठ त्वं द्वारि सौमित्रे नायात्वत्र जनो रहः॥ १९॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब रामचन्द्रजीने ‘बहुत अच्छा’ कह लक्ष्मणजीसे कहा—‘‘लक्ष्मण! तुम द्वारपर रहो, इस एकान्त स्थानमें मेरे पास कोई न आवे॥ १९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथागच्छति को वापि स वध्यो मे न संशयः।
ततः प्राह मुनिं रामो येन वा त्वं विसर्जितः॥ २०॥

मूलम्

यथागच्छति को वापि स वध्यो मे न संशयः।
ततः प्राह मुनिं रामो येन वा त्वं विसर्जितः॥ २०॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि यहाँ कोई भी आया तो इसमें सन्देह नहीं, वह अवश्य मेरे हाथसे मारा जायगा।’’ फिर उन्होंने मुनिसे कहा—‘‘तुम्हें जिसने भेजा है और तुम्हारे मनमें जो बात है वह सब मुझसे कहो’’॥ २०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्ते मनीषितं वाक्यं तद्वदस्व ममाग्रतः।
ततः प्राह मुनिर्वाक्यं शृणु राम यथातथम्॥ २१॥
ब्रह्मणा प्रेषितोऽस्मीश कार्यार्थे तेऽन्तिकं प्रभो।
अहं हि पूर्वजो देव तव पुत्रः परन्तप॥ २२॥

मूलम्

यत्ते मनीषितं वाक्यं तद्वदस्व ममाग्रतः।
ततः प्राह मुनिर्वाक्यं शृणु राम यथातथम्॥ २१॥
ब्रह्मणा प्रेषितोऽस्मीश कार्यार्थे तेऽन्तिकं प्रभो।
अहं हि पूर्वजो देव तव पुत्रः परन्तप॥ २२॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब मुनिने कहा—‘‘हे राम! जो वास्तविक बात है सो सुनिये। हे ईश! हे प्रभो! मुझे एक कार्यके लिये ब्रह्माजीने आपके पास भेजा है। हे देव! हे शत्रुदमन! मैं आपका ज्येष्ठ पुत्र हूँ॥ २१-२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मायासङ्गमजो वीर कालः सर्वहरः स्मृतः।
ब्रह्मा त्वामाह भगवान् सर्वदेवर्षिपूजितः॥ २३॥
रक्षितुं स्वर्गलोकस्य समयस्ते महामते।
पुरा त्वमेक एवासीर्लोकान् संहृत्य मायया॥ २४॥

मूलम्

मायासङ्गमजो वीर कालः सर्वहरः स्मृतः।
ब्रह्मा त्वामाह भगवान् सर्वदेवर्षिपूजितः॥ २३॥
रक्षितुं स्वर्गलोकस्य समयस्ते महामते।
पुरा त्वमेक एवासीर्लोकान् संहृत्य मायया॥ २४॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे वीर! मायाके साथ आपका संगम होनेपर मैं प्रकट हुआ था। मैं सबका नाश करनेवाला हूँ और काल नामसे प्रसिद्ध हूँ। समस्त देवर्षियोंसे पूजित भगवान् ब्रह्माजीने आपके लिये कहा है कि हे महामते! अब आपका स्वर्गलोककी रक्षा करनेका समय है। पूर्वकालमें समस्त लोकोंका संहार कर एकमात्र आप ही रह गये थे॥ २३-२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भार्यया सहितस्त्वं मामादौ पुत्रमजीजनः।
तथा भोगवतं नागमनन्तमुदकेशयम्॥ २५॥

मूलम्

भार्यया सहितस्त्वं मामादौ पुत्रमजीजनः।
तथा भोगवतं नागमनन्तमुदकेशयम्॥ २५॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर आपने अपनी भार्या मायाके संयोगसे सबसे पहले अपने पुत्र मुझको तथा जलमें शयन करनेवाले अनन्त नामक फणधारी शेषनागको रचा॥ २५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मायया जनयित्वा त्वं द्वौ ससत्त्वौ महाबलौ।
मधुकैटभकौ दैत्यौ हत्वा मेदोऽस्थिसञ्चयम्॥ २६॥
इमां पर्वतसम्बद्धां मेदिनीं पुरुषर्षभ।
पद्मे दिव्यार्कसङ्काशे नाभ्यामुत्पाद्य मामपि॥ २७॥
मां विधाय प्रजाध्यक्षं मयि सर्वं न्यवेदयत्।
सोऽहं संयुक्तसम्भारस्त्वामवोचं जगत्पते॥ २८॥

मूलम्

मायया जनयित्वा त्वं द्वौ ससत्त्वौ महाबलौ।
मधुकैटभकौ दैत्यौ हत्वा मेदोऽस्थिसञ्चयम्॥ २६॥
इमां पर्वतसम्बद्धां मेदिनीं पुरुषर्षभ।
पद्मे दिव्यार्कसङ्काशे नाभ्यामुत्पाद्य मामपि॥ २७॥
मां विधाय प्रजाध्यक्षं मयि सर्वं न्यवेदयत्।
सोऽहं संयुक्तसम्भारस्त्वामवोचं जगत्पते॥ २८॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार मायासे हमें उत्पन्न कर आपने महाबली और बड़े शूरवीर दो मधु-कैटभ नामक दैत्योंको मारा तथा उनके मेद और अस्थियोंके समूहरूप इस पर्वतादिसे युक्त पृथिवीको रचा। हे पुरुषश्रेष्ठ! फिर अपनी नाभिसे प्रकट हुए दिव्य सूर्यके समान तेजस्वी कमलसे मुझे उत्पन्न कर और मुझे ही प्रजापति बनाकर सृष्टि-रचनाका सारा भार मुझे ही सौंप दिया। हे जगत्पते! इस प्रकार भार ग्रहण करनेपर मैं आपसे बोला—॥ २६—२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रक्षां विधत्स्व भूतेभ्यो ये मे वीर्यापहारिणः।
ततस्त्वं कश्यपाज्जातो विष्णुर्वामनरूपधृक्॥ २९॥

मूलम्

रक्षां विधत्स्व भूतेभ्यो ये मे वीर्यापहारिणः।
ततस्त्वं कश्यपाज्जातो विष्णुर्वामनरूपधृक्॥ २९॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘जो प्राणी मेरे वीर्य (प्रजा)-का नाश करनेवाले हैं उनसे रक्षा कीजिये।’’ तब आप कश्यपजीके यहाँ वामनरूपधारी विष्णुभगवान् होकर प्रकट हुए॥ २९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हृतवानसि भूभारं वधाद्‍रक्षोगणस्य च।
सर्वासूत्सार्यमाणासु प्रजासु धरणीधर॥ ३०॥
रावणस्य वधाकाङ्क्षी मर्त्यलोकमुपागतः।
दशवर्षसहस्राणि दशवर्षशतानि च॥ ३१॥
कृत्वा वासस्य समयं त्रिदशेष्वात्मनः पुरा।
स ते मनोरथः पूर्णः पूर्णे चायुषि ते नृषु॥ ३२॥

मूलम्

हृतवानसि भूभारं वधाद्‍रक्षोगणस्य च।
सर्वासूत्सार्यमाणासु प्रजासु धरणीधर॥ ३०॥
रावणस्य वधाकाङ्क्षी मर्त्यलोकमुपागतः।
दशवर्षसहस्राणि दशवर्षशतानि च॥ ३१॥
कृत्वा वासस्य समयं त्रिदशेष्वात्मनः पुरा।
स ते मनोरथः पूर्णः पूर्णे चायुषि ते नृषु॥ ३२॥

अनुवाद (हिन्दी)

और राक्षसोंका नाश करके आपने पृथिवीका भार उतारा। हे धरणीधर! (इस समय भी) सारी प्रजाको उच्छिन्न होते देख आप रावणका वध करनेके लिये मर्त्यलोकमें पधारे थे। यहाँ रहनेके लिये आपने पूर्वकालमें देवताओंमें ग्यारह सहस्र वर्ष समय निश्चित किया था, सो आपकी मानव-शरीरकी आयु पूर्ण होनेके साथ ही आपका वह मनोरथ पूर्ण हो चुका है॥ ३०—३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कालस्तापसरूपेण त्वत्समीपमुपागमत्।
ततो भूयश्च ते बुद्धिर्यदि राज्यमुपासितुम्॥ ३३॥
तत्तथा भव भद्रं ते एवमाह पितामहः।
यदि ते गमने बुद्धिर्देवलोकं जितेन्द्रिय॥ ३४॥
सनाथा विष्णुना देवा भजन्तु विगतज्वराः।

मूलम्

कालस्तापसरूपेण त्वत्समीपमुपागमत्।
ततो भूयश्च ते बुद्धिर्यदि राज्यमुपासितुम्॥ ३३॥
तत्तथा भव भद्रं ते एवमाह पितामहः।
यदि ते गमने बुद्धिर्देवलोकं जितेन्द्रिय॥ ३४॥
सनाथा विष्णुना देवा भजन्तु विगतज्वराः।

अनुवाद (हिन्दी)

अब तापसरूपसे काल आपके पास आया है! यदि अभी आपका विचार कुछ दिन और राज्य करनेका हो तो आपका शुभ हो, वैसा ही कीजिये—ऐसा पितामह ब्रह्माजीने कहा है। हे जितेन्द्रिय! यदि आपका विचार देवलोक चलनेका हो तो (आप) विष्णुभगवान् से सनाथ होकर देवगण निश्चिन्त हो जायँ’’॥ ३३-३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चतुर्मुखस्य तद्वाक्यं श्रुत्वा कालेन भाषितम्॥ ३५॥
हसन् रामस्तदा वाक्यं कृत्स्नस्यान्तकमब्रवीत्।
श्रुतं तव वचो मेऽद्य ममापीष्टतरं तु तत्॥ ३६॥

मूलम्

चतुर्मुखस्य तद्वाक्यं श्रुत्वा कालेन भाषितम्॥ ३५॥
हसन् रामस्तदा वाक्यं कृत्स्नस्यान्तकमब्रवीत्।
श्रुतं तव वचो मेऽद्य ममापीष्टतरं तु तत्॥ ३६॥

अनुवाद (हिन्दी)

कालके मुखसे ब्रह्माजीके ये वचन सुनकर रामजी हँसे और सबका अन्त करनेवाले कालसे बोले—‘‘मैंने तुम्हारी सब बातें सुन लीं। वे मुझे भी अत्यन्त इष्ट हैं॥ ३५-३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सन्तोषः परमो ज्ञेयस्त्वदागमनकारणात्।
त्रयाणामपि लोकानां कार्यार्थं मम सम्भवः॥ ३७॥

मूलम्

सन्तोषः परमो ज्ञेयस्त्वदागमनकारणात्।
त्रयाणामपि लोकानां कार्यार्थं मम सम्भवः॥ ३७॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम्हारे आनेके कारण मुझे बड़ा सन्तोष हुआ है। मेरा अवतार तीनों लोकोंका कार्य करनेके लिये ही हुआ करता है॥ ३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भद्रं तेऽस्त्वागमिष्यामि यत एवाहमागतः।
मनोरथस्तु सम्प्राप्तो न मेऽत्रास्ति विचारणा॥ ३८॥

मूलम्

भद्रं तेऽस्त्वागमिष्यामि यत एवाहमागतः।
मनोरथस्तु सम्प्राप्तो न मेऽत्रास्ति विचारणा॥ ३८॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम्हारा कल्याण हो, अब मैं जहाँसे आया था वहीं फिर चला जाऊँगा; मेरा सारा मनोरथ पूर्ण हो गया, इसमें मुझे कुछ विचारना नहीं है॥ ३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मत्सेवकानां देवानां सर्वकार्येषु वै मया।
स्थातव्यं मायया पुत्र यथा चाह प्रजापतिः॥ ३९॥

मूलम्

मत्सेवकानां देवानां सर्वकार्येषु वै मया।
स्थातव्यं मायया पुत्र यथा चाह प्रजापतिः॥ ३९॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे पुत्र! देवगण मेरे सेवक हैं; मुझे जैसा कि ब्रह्माजीने कहा है, मायासे उनके सब कार्योंमें अवश्य तत्पर रहना चाहिये’’॥ ३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं तयोः कथयतोर्दुर्वासा मुनिरभ्यगात्।
राजद्वारं राघवस्य दर्शनापेक्षया द्रुतम्॥ ४०॥

मूलम्

एवं तयोः कथयतोर्दुर्वासा मुनिरभ्यगात्।
राजद्वारं राघवस्य दर्शनापेक्षया द्रुतम्॥ ४०॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके इस प्रकार वार्तालाप करते समय मुनिवर दुर्वासाजी रघुनाथजीका दर्शन करनेकी इच्छासे शीघ्रताके साथ राजद्वारपर पहुँचे॥ ४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुनिर्लक्ष्मणमासाद्य दुर्वासा वाक्यमब्रवीत्।
शीघ्रं दर्शय रामं मे कार्यं मेऽत्यन्तमाहितम्॥ ४१॥

मूलम्

मुनिर्लक्ष्मणमासाद्य दुर्वासा वाक्यमब्रवीत्।
शीघ्रं दर्शय रामं मे कार्यं मेऽत्यन्तमाहितम्॥ ४१॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ दुर्वासा मुनिने लक्ष्मणजीके पास आकर कहा—‘‘मुझे तुरंत ही महाराज रामसे मिलाओ, मेरा उनसे एक अत्यन्त आवश्यक कार्य आ पड़ा है’’॥ ४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तच्छ्रुत्वा प्राह सौमित्रिर्मुनिं ज्वलनतेजसम्।
रामेण कार्यं किं तेऽद्य किं तेऽभीष्टं करोम्यहम्॥ ४२॥

मूलम्

तच्छ्रुत्वा प्राह सौमित्रिर्मुनिं ज्वलनतेजसम्।
रामेण कार्यं किं तेऽद्य किं तेऽभीष्टं करोम्यहम्॥ ४२॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुन श्रीलक्ष्मणजीने उन अग्निके समान तेजस्वी मुनिसे कहा—‘‘इस समय महाराज रामसे आपको क्या काम है? आपकी क्या इच्छा है? उसे मैं ही पूरा करूँगा॥ ४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजा कार्यान्तरे व्यग्रो मुहूर्तं सम्प्रतीक्ष्यताम्।
तच्छ्रुत्वा क्रोधसन्तप्तो मुनिः सौमित्रिमब्रवीत्॥ ४३॥

मूलम्

राजा कार्यान्तरे व्यग्रो मुहूर्तं सम्प्रतीक्ष्यताम्।
तच्छ्रुत्वा क्रोधसन्तप्तो मुनिः सौमित्रिमब्रवीत्॥ ४३॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस समय महाराज एक और कार्यमें संलग्न हैं, कुछ देर ठहरिये।’’ यह सुनते ही मुनिने क्रोधसे व्याकुल होकर लक्ष्मणजीसे कहा—॥ ४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्मिन् क्षणे तु सौमित्रे न दर्शयसि चेद्विभुम्।
रामं सविषयं वंशं भस्मीकुर्यां न संशयः॥ ४४॥

मूलम्

अस्मिन् क्षणे तु सौमित्रे न दर्शयसि चेद्विभुम्।
रामं सविषयं वंशं भस्मीकुर्यां न संशयः॥ ४४॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘लक्ष्मण! यदि इसी क्षण तुमने मुझे भगवान् रामसे न मिलाया, तो इसमें सन्देह नहीं, मैं देशके सहित तुम्हारे वंशको अभी भस्म कर डालूँगा’’॥ ४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वा तद्वचनं घोरमृषेर्दुर्वाससो भृशम्।
स्वरूपं तस्य वाक्यस्य चिन्तयित्वा स लक्ष्मणः॥ ४५॥
सर्वनाशाद्वरं मेऽद्य नाशो ह्येकस्य कारणात्।
निश्चित्यैवं ततो गत्वा रामाय प्राह लक्ष्मणः॥ ४६॥

मूलम्

श्रुत्वा तद्वचनं घोरमृषेर्दुर्वाससो भृशम्।
स्वरूपं तस्य वाक्यस्य चिन्तयित्वा स लक्ष्मणः॥ ४५॥
सर्वनाशाद्वरं मेऽद्य नाशो ह्येकस्य कारणात्।
निश्चित्यैवं ततो गत्वा रामाय प्राह लक्ष्मणः॥ ४६॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्वासा ऋषिका यह भयंकर वाक्य सुनकर लक्ष्मणजीने उसके स्वरूपका भलीभाँति विचार किया और यह निश्चय कर कि एकके कारण सबके नाशसे तो (अकेले) मेरा नष्ट होना ही अच्छा है, उन्होंने रामचन्द्रजीके पास जाकर सारा वृत्तान्त कह सुनाया॥ ४५-४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सौमित्रेर्वचनं श्रुत्वा रामः कालं व्यसर्जयत्।
शीघ्रं निर्गम्य रामोऽपि ददर्शात्रेः सुतं मुनिम्॥ ४७॥

मूलम्

सौमित्रेर्वचनं श्रुत्वा रामः कालं व्यसर्जयत्।
शीघ्रं निर्गम्य रामोऽपि ददर्शात्रेः सुतं मुनिम्॥ ४७॥

अनुवाद (हिन्दी)

लक्ष्मणजीके वचन सुनकर रामचन्द्रजीने कालको विदा किया और शीघ्र ही बाहर आ अत्रिनन्दन दुर्वासाजीसे मिले॥ ४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामोऽभिवाद्य सम्प्रीतो मुनिं पप्रच्छ सादरम्।
किं कार्यं ते करोमीति मुनिमाह रघूत्तमः॥ ४८॥

मूलम्

रामोऽभिवाद्य सम्प्रीतो मुनिं पप्रच्छ सादरम्।
किं कार्यं ते करोमीति मुनिमाह रघूत्तमः॥ ४८॥

अनुवाद (हिन्दी)

रघुश्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजीने मुनिको प्रणामकर चित्तमें प्रसन्न हो उनसे आदरपूर्वक पूछा। रामने मुनिसे कहा—‘‘हे मुने! मैं आपका क्या कार्य करूँ?’’॥ ४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तच्छ्रुत्वा रामवचनं दुर्वासा राममब्रवीत्।
अद्य वर्ष सहस्राणामुपवाससमापनम्॥ ४९॥

मूलम्

तच्छ्रुत्वा रामवचनं दुर्वासा राममब्रवीत्।
अद्य वर्ष सहस्राणामुपवाससमापनम्॥ ४९॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामके ये वचन सुनकर दुर्वासाजीने कहा—‘‘आज मेरा एक हजार वर्षका उपवास समाप्त हुआ है॥ ४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतो भोजनमिच्छामि सिद्धं यत्ते रघूत्तम।
रामो मुनिवचः श्रुत्वा सन्तोषेण समन्वितः॥ ५०॥
स सिद्धमन्नं मुनये यथावत्समुपाहरत्।
मुनिर्भुक्त्वान्नममृतं सन्तुष्टः पुनरभ्यगात्॥ ५१॥

मूलम्

अतो भोजनमिच्छामि सिद्धं यत्ते रघूत्तम।
रामो मुनिवचः श्रुत्वा सन्तोषेण समन्वितः॥ ५०॥
स सिद्धमन्नं मुनये यथावत्समुपाहरत्।
मुनिर्भुक्त्वान्नममृतं सन्तुष्टः पुनरभ्यगात्॥ ५१॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये हे रघुश्रेष्ठ! आपके यहाँ जो भोजन तैयार हो मुझे उसीकी इच्छा है।’’ मुनिके ये वचन सुन रामचन्द्रजीने सन्तुष्ट हो उन्हें विधिपूर्वक सिद्ध (पकाया हुआ) अन्न दिया और मुनि उस अमृततुल्य अन्नको खाकर तृप्त होकर चले गये॥ ५०-५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वमाश्रमं गते तस्मिन् रामः सस्मार भाषितम्।
कालेन शोकदुःखार्तो विमनाश्चाति विह्वलः॥ ५२॥

मूलम्

स्वमाश्रमं गते तस्मिन् रामः सस्मार भाषितम्।
कालेन शोकदुःखार्तो विमनाश्चाति विह्वलः॥ ५२॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब दुर्वासा मुनि अपने आश्रमको चले गये तो रघुनाथजीको कालके कहे हुए वचनोंका स्मरण हुआ। इससे वे शोक और दुःखसे आर्त तथा अति उदास और व्याकुल हो गये॥ ५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवाङ्मुखो दीनमना न शशाकाभिभाषितुम्।
मनसा लक्ष्मणं ज्ञात्वा हतप्रायं रघूद्वहः॥ ५३॥

मूलम्

अवाङ्मुखो दीनमना न शशाकाभिभाषितुम्।
मनसा लक्ष्मणं ज्ञात्वा हतप्रायं रघूद्वहः॥ ५३॥

अनुवाद (हिन्दी)

रघुकुलभूषण रामने मन-ही-मन लक्ष्मणको मरा हुआ-सा मान लिया; किन्तु वे दीन चित्तसे नीचेको मुख किये बैठे रहे, उनसे कुछ कह न सके॥ ५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवाङ्मुखो बभूवाथ तूष्णीमेवाखिलेश्वरः।
ततो रामं विलोक्याह सौमित्रिर्दुःखसम्प्लुतम्॥ ५४॥
तूष्णीम्भूतं चिन्तयन्तं गर्हन्तं स्नेहबन्धनम्।
मत्कृते त्यज सन्तापं जहि मां रघुनन्दन॥ ५५॥

मूलम्

अवाङ्मुखो बभूवाथ तूष्णीमेवाखिलेश्वरः।
ततो रामं विलोक्याह सौमित्रिर्दुःखसम्प्लुतम्॥ ५४॥
तूष्णीम्भूतं चिन्तयन्तं गर्हन्तं स्नेहबन्धनम्।
मत्कृते त्यज सन्तापं जहि मां रघुनन्दन॥ ५५॥

अनुवाद (हिन्दी)

सर्वेश्वर भगवान् राम नीचा मुख किये चुपचाप रह गये। तब रघुनाथजीको अत्यन्त दुःखातुर, मौन, चिन्तित और स्नेहबन्धनकी निन्दा करते देख लक्ष्मणजीने कहा—‘‘हे रघुनन्दन! मेरे लिये सन्ताप न कीजिये, मुझे शीघ्र ही मार डालिये॥ ५४-५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गतिः कालस्य कलिता पूर्वमेवेदृशी प्रभो।
त्वयि हीनप्रतिज्ञे तु नरको मे ध्रुवं भवेत्॥ ५६॥

मूलम्

गतिः कालस्य कलिता पूर्वमेवेदृशी प्रभो।
त्वयि हीनप्रतिज्ञे तु नरको मे ध्रुवं भवेत्॥ ५६॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! मैंने पहले ही निश्चय कर लिया था, कालकी गति ऐसी ही है। आपके प्रतिज्ञा-भंग करनेसे तो मुझे भी अवश्य नरक भोगना पड़ेगा॥ ५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मयि प्रीतिर्यदि भवेद्यद्यनुग्राह्यता तव।
त्यक्त्वा शङ्कां जहि प्राज्ञ मा मा धर्मं त्यज प्रभो॥ ५७॥

मूलम्

मयि प्रीतिर्यदि भवेद्यद्यनुग्राह्यता तव।
त्यक्त्वा शङ्कां जहि प्राज्ञ मा मा धर्मं त्यज प्रभो॥ ५७॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः यदि आपकी मुझपर प्रीति है और यदि मैं अनुग्रह करनेयोग्य हूँ तो हे मतिमान् रामजी! शंका छोड़कर मुझे मार डालिये। प्रभो! धर्मका त्याग न कीजिये॥ ५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सौमित्रिणोक्तं तच्छ्रुत्वा रामश्चलितमानसः।
आहूय मन्त्रिणः सर्वान् वसिष्ठं चेदमब्रवीत्॥ ५८॥

मूलम्

सौमित्रिणोक्तं तच्छ्रुत्वा रामश्चलितमानसः।
आहूय मन्त्रिणः सर्वान् वसिष्ठं चेदमब्रवीत्॥ ५८॥

अनुवाद (हिन्दी)

लक्ष्मणजीका यह कथन सुनकर श्रीरघुनाथजीका चित्त चंचल हो गया। उन्होंने सब मन्त्रियोंको बुलाकर यह सब वृत्तान्त वसिष्ठजीको सुनाया॥ ५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुनेरागमनं यत्तु कालस्यापि हि भाषितम्।
प्रतिज्ञामात्मनश्चैव सर्वमावेदयत्प्रभुः॥ ५९॥

मूलम्

मुनेरागमनं यत्तु कालस्यापि हि भाषितम्।
प्रतिज्ञामात्मनश्चैव सर्वमावेदयत्प्रभुः॥ ५९॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभु रामने दुर्वासा मुनिका आगमन, कालका भाषण और अपनी प्रतिज्ञा—ये सब बातें उनसे कह दीं॥ ५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वा रामस्य वचनं मन्त्रिणः सपुरोहिताः।
ऊचुः प्राञ्जलयः सर्वे राममक्लिष्टकारिणम्॥ ६०॥

मूलम्

श्रुत्वा रामस्य वचनं मन्त्रिणः सपुरोहिताः।
ऊचुः प्राञ्जलयः सर्वे राममक्लिष्टकारिणम्॥ ६०॥

अनुवाद (हिन्दी)

रामचन्द्रजीका कथन सुन पुरोहित वसिष्ठजीके सहित समस्त मन्त्रियोंने अनायास ही सब कार्य करनेवाले भगवान् रामसे हाथ जोड़कर कहा—॥ ६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूर्वमेव हि निर्दिष्टं तव भूभारहारिणः।
लक्ष्मणेन वियोगस्ते ज्ञातो विज्ञानचक्षुषा॥ ६१॥

मूलम्

पूर्वमेव हि निर्दिष्टं तव भूभारहारिणः।
लक्ष्मणेन वियोगस्ते ज्ञातो विज्ञानचक्षुषा॥ ६१॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘प्रभो! पृथ्वीका भार उतारनेवाले आपका लक्ष्मणजीसे पहले ही वियोग होना निश्चित है—यह बात हमने ज्ञान-दृष्टिसे जान ली है॥ ६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्यजाशु लक्ष्मणं राम मा प्रतिज्ञां त्यज प्रभो।
प्रतिज्ञाते परित्यक्ते धर्मो भवति निष्फलः॥ ६२॥

मूलम्

त्यजाशु लक्ष्मणं राम मा प्रतिज्ञां त्यज प्रभो।
प्रतिज्ञाते परित्यक्ते धर्मो भवति निष्फलः॥ ६२॥

अनुवाद (हिन्दी)
विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मे नष्टेऽखिले राम त्रैलोक्यं नश्यति ध्रुवम्।
त्वं तु सर्वस्य लोकस्य पालकोऽसि रघूत्तम॥ ६३॥
त्यक्त्वा लक्ष्मणमेवैकं त्रैलोक्यं त्रातुमर्हसि।

मूलम्

धर्मे नष्टेऽखिले राम त्रैलोक्यं नश्यति ध्रुवम्।
त्वं तु सर्वस्य लोकस्य पालकोऽसि रघूत्तम॥ ६३॥
त्यक्त्वा लक्ष्मणमेवैकं त्रैलोक्यं त्रातुमर्हसि।

अनुवाद (हिन्दी)

अतः हे राम! तुरंत ही लक्ष्मणजीको त्याग दीजिये, प्रभो! अपनी प्रतिज्ञा भंग न कीजिये; क्योंकि प्रतिज्ञा भंग करनेसे सारा धर्म निष्फल हो जाता है और हे राम! सम्पूर्ण धर्मका नाश हो जानेपर निश्चय ही त्रिलोकीका नाश हो जाता है। हे रघुश्रेष्ठ! आप तो सम्पूर्ण लोकोंके रक्षक हैं। अतः अकेले लक्ष्मणजीको ही त्याग कर आपको त्रिलोकीकी रक्षा करनी चाहिये’’॥ ६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामो धर्मार्थसहितं वाक्यं तेषामनिन्दितम्॥ ६४॥
सभामध्ये समाश्रुत्य प्राह सौमित्रिमञ्जसा।
यथेष्टं गच्छ सौमित्रे मा भूद्धर्मस्य संशयः॥ ६५॥

मूलम्

रामो धर्मार्थसहितं वाक्यं तेषामनिन्दितम्॥ ६४॥
सभामध्ये समाश्रुत्य प्राह सौमित्रिमञ्जसा।
यथेष्टं गच्छ सौमित्रे मा भूद्धर्मस्य संशयः॥ ६५॥

अनुवाद (हिन्दी)

रघुनाथजीने सभामें उनके धर्मार्थयुक्त और निर्दोष वचन सुनकर तुरंत ही लक्ष्मणजीसे कहा—‘‘लक्ष्मण! तुम्हारी जहाँ इच्छा हो वहाँ जाओ, जिससे धर्ममें संशय उपस्थित न हो॥ ६४-६५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परित्यागो वधो वापि सतामेवोभयं समम्।
एवमुक्ते रघुश्रेष्ठे दुःखव्याकुलितेक्षणः॥ ६६॥
रामं प्रणम्य सौमित्रिः शीघ्रं गृहमगात्स्वकम्।
ततोऽगात्सरयूतीरमाचम्य स कृताञ्जलिः॥ ६७॥
नव द्वाराणि संयम्य मूर्ध्नि प्राणमधारयत्।
यदक्षरं परं ब्रह्म वासुदेवाख्यमव्ययम्॥ ६८॥
पदं तत्परमं धाम चेतसा सोऽभ्यचिन्तयत्।
वायुरोधेन संयुक्तं सर्वे देवाः सहर्षयः॥ ६९॥
साग्नयो लक्ष्मणं पुष्पैस्तुष्टुवुश्च समाकिरन्।
अदृश्यं विबुधैः कैश्चित्सशरीरं च वासवः॥ ७०॥
गृहीत्वा लक्ष्मणं शक्रः स्वर्गलोकमथागमत्।
ततो विष्णोश्चतुर्भागं तं देवं सुरसत्तमाः।
सर्वे देवर्षयो दृष्ट्वा लक्ष्मणं समपूजयन्॥ ७१॥

मूलम्

परित्यागो वधो वापि सतामेवोभयं समम्।
एवमुक्ते रघुश्रेष्ठे दुःखव्याकुलितेक्षणः॥ ६६॥
रामं प्रणम्य सौमित्रिः शीघ्रं गृहमगात्स्वकम्।
ततोऽगात्सरयूतीरमाचम्य स कृताञ्जलिः॥ ६७॥
नव द्वाराणि संयम्य मूर्ध्नि प्राणमधारयत्।
यदक्षरं परं ब्रह्म वासुदेवाख्यमव्ययम्॥ ६८॥
पदं तत्परमं धाम चेतसा सोऽभ्यचिन्तयत्।
वायुरोधेन संयुक्तं सर्वे देवाः सहर्षयः॥ ६९॥
साग्नयो लक्ष्मणं पुष्पैस्तुष्टुवुश्च समाकिरन्।
अदृश्यं विबुधैः कैश्चित्सशरीरं च वासवः॥ ७०॥
गृहीत्वा लक्ष्मणं शक्रः स्वर्गलोकमथागमत्।
ततो विष्णोश्चतुर्भागं तं देवं सुरसत्तमाः।
सर्वे देवर्षयो दृष्ट्वा लक्ष्मणं समपूजयन्॥ ७१॥

अनुवाद (हिन्दी)

सत्पुरुषोंके लिये त्याग और वध दोनों समान ही हैं।’’ रघुश्रेष्ठ भगवान् रामके ऐसा कहनेपर लक्ष्मणजीकी आँखें दुःखसे डबडबा आयीं और वे शीघ्र ही उन्हें प्रणामकर अपने घर आये। वहाँसे वे सरयूतटपर पहुँचे और आचमन करनेके अनन्तर उन्होंने हाथ जोड़ अपने नवों इन्द्रियगोलकोंको रोककर प्राणोंको ब्रह्मरन्ध्रमें स्थिर किया। फिर जो वासुदेव नामक अव्यय और अविनाशी परब्रह्म पद है उस परमधामका चित्तमें ध्यान किया। इस प्रकार प्राणनिरोध करनेपर ऋषियों तथा अग्निके सहित समस्त देवताओंने लक्ष्मणजीपर पुष्प बरसाये और उनकी स्तुति की। इसी समय इन्द्र किसी भी देवताको दिखायी न देते हुए उन्हें सशरीर लेकर स्वर्गलोकमें चले आये। तब विष्णुभगवान् के चतुर्थांशरूप उन लक्ष्मणदेवको देखकर समस्त देवताओं और देवर्षियोंने उनका पूजन किया॥ ६६—७१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लक्ष्मणे हि दिवमागते हरौ
सिद्धलोकगतयोगिनस्तदा।
ब्रह्मणा सह समागमन्मुदा
द्रष्टुमाहितमहाहिरूपकम्॥ ७२॥

मूलम्

लक्ष्मणे हि दिवमागते हरौ
सिद्धलोकगतयोगिनस्तदा।
ब्रह्मणा सह समागमन्मुदा
द्रष्टुमाहितमहाहिरूपकम्॥ ७२॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् लक्ष्मणजीके स्वर्ग पधारनेपर ब्रह्माजीके सहित सिद्धलोकनिवासी समस्त योगिजन अति प्रसन्न होकर महासर्प (शेष) रूपधारी श्रीलक्ष्मणजीका दर्शन करनेके लिये आये॥ ७२॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे उत्तरकाण्डेऽष्टमः सर्गः॥ ८॥