[षष्ठ सर्ग]
भागसूचना
लवण-वध, भगवान् रामके यज्ञमें कुश-लवके सहित महर्षि वाल्मीकिका पधारना और कुशको परमार्थोपदेश करना
मूलम् (वचनम्)
श्रीमहादेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकदा मुनयः सर्वे यमुनातीरवासिनः।
आजग्मू राघवं द्रष्टुं भयाल्लवणरक्षसः॥ १॥
मूलम्
एकदा मुनयः सर्वे यमुनातीरवासिनः।
आजग्मू राघवं द्रष्टुं भयाल्लवणरक्षसः॥ १॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमहादेवजी बोले—हे पार्वति! एक दिन यमुनातटपर रहनेवाले समस्त मुनिजन लवणराक्षससे भयभीत होकर श्रीरामचन्द्रजीका दर्शन करनेके लिये आये॥ १॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृत्वाग्रे तु मुनिश्रेष्ठं भार्गवं च्यवनं द्विजाः।
असङ्ख्याताः समायाता रामादभयकाङ्क्षिणः॥ २॥
मूलम्
कृत्वाग्रे तु मुनिश्रेष्ठं भार्गवं च्यवनं द्विजाः।
असङ्ख्याताः समायाता रामादभयकाङ्क्षिणः॥ २॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे अगणित मुनिगण भृगुपुत्र मुनिश्रेष्ठ च्यवनको आगे कर भगवान् रामसे अभय-लाभ करनेकी इच्छासे आये॥ २॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तान्पूजयित्वा परया भक्त्या रघुकुलोत्तमः।
उवाच मधुरं वाक्यं हर्षयन् मुनिमण्डलम्॥ ३॥
मूलम्
तान्पूजयित्वा परया भक्त्या रघुकुलोत्तमः।
उवाच मधुरं वाक्यं हर्षयन् मुनिमण्डलम्॥ ३॥
अनुवाद (हिन्दी)
रघुकुलश्रेष्ठ रामजीने उन मुनीश्वरोंका अत्यन्त भक्तिभावसे पूजन कर उन्हें प्रसन्न करते हुए मधुर वाणीसे कहा—॥ ३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
करवाणि मुनिश्रेष्ठाः किमागमनकारणम्।
धन्योऽस्मि यदि यूयं मां प्रीत्या द्रष्टुमिहागताः॥ ४॥
मूलम्
करवाणि मुनिश्रेष्ठाः किमागमनकारणम्।
धन्योऽस्मि यदि यूयं मां प्रीत्या द्रष्टुमिहागताः॥ ४॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘हे मुनिश्रेष्ठगण! आपके यहाँ पधारनेका क्या कारण है? (मुझे जो आज्ञा होगी) मैं वैसा ही करूँगा। यदि आपलोग मुझे प्रीतिपूर्वक देखनेके लिये ही यहाँ आये हैं, तो मैं धन्य हूँ॥ ४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुष्करं चापि यत्कार्यं भवतां तत्करोम्यहम्।
आज्ञापयन्तु मां भृत्यं ब्राह्मणा दैवतं हि मे॥ ५॥
मूलम्
दुष्करं चापि यत्कार्यं भवतां तत्करोम्यहम्।
आज्ञापयन्तु मां भृत्यं ब्राह्मणा दैवतं हि मे॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपका जो अत्यन्त दुष्कर कार्य होगा वह भी मैं अवश्य करूँगा। आप मुझ सेवकको आज्ञा दीजिये, ब्राह्मण ही मेरे इष्टदेव हैं’’॥ ५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छ्रुत्वा सहसा हृष्टश्च्यवनो वाक्यमब्रवीत्।
मधुनामा महादैत्यः पुरा कृतयुगे प्रभो॥ ६॥
आसीदतीव धर्मात्मा देवब्राह्मणपूजकः।
तस्य तुष्टो महादेवो ददौ शूलमनुत्तमम्॥ ७॥
मूलम्
तच्छ्रुत्वा सहसा हृष्टश्च्यवनो वाक्यमब्रवीत्।
मधुनामा महादैत्यः पुरा कृतयुगे प्रभो॥ ६॥
आसीदतीव धर्मात्मा देवब्राह्मणपूजकः।
तस्य तुष्टो महादेवो ददौ शूलमनुत्तमम्॥ ७॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् रामके ये वचन सुनकर महर्षि च्यवनने सहसा प्रसन्न होकर कहा—‘‘प्रभो! पहले सत्ययुगमें मधु नामक एक बड़ा ही धर्मात्मा और देवता तथा ब्राह्मणोंका भक्त महादैत्य था। उससे प्रसन्न होकर श्रीमहादेवजीने उसे एक अत्युत्तम त्रिशूल दिया॥ ६-७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राह चानेन यं हंसि स तु भस्मीभविष्यति।
रावणस्यानुजा भार्या तस्य कुम्भीनसी श्रुता॥ ८॥
मूलम्
प्राह चानेन यं हंसि स तु भस्मीभविष्यति।
रावणस्यानुजा भार्या तस्य कुम्भीनसी श्रुता॥ ८॥
अनुवाद (हिन्दी)
और कहा कि इससे तू जिसपर प्रहार करेगा वही भस्मीभूत हो जायगा। सुना जाता है, रावणकी छोटी बहिन कुम्भीनसी उसकी भार्या थी॥ ८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यां तु लवणो नाम राक्षसो भीमविक्रमः।
आसीद्दुरात्मा दुर्धर्षो देवब्राह्मणहिंसकः॥ ९॥
मूलम्
तस्यां तु लवणो नाम राक्षसो भीमविक्रमः।
आसीद्दुरात्मा दुर्धर्षो देवब्राह्मणहिंसकः॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
उससे उसके लवण नामक एक महापराक्रमी दुष्ट-चित्त, दुर्जय और देवता-ब्राह्मणोंको दुःख देनेवाला राक्षस उत्पन्न हुआ॥ ९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पीडितास्तेन राजेन्द्र वयं त्वां शरणं गताः।
तच्छ्रुत्वा राघवोऽप्याह मा भीर्वो मुनिपुङ्गवाः॥ १०॥
मूलम्
पीडितास्तेन राजेन्द्र वयं त्वां शरणं गताः।
तच्छ्रुत्वा राघवोऽप्याह मा भीर्वो मुनिपुङ्गवाः॥ १०॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राजेन्द्र! उससे अत्यन्त पीडित होकर हम आपकी शरण आये हैं।’’ यह सुनकर श्रीरघुनाथजीने कहा—‘‘हे मुनिश्रेष्ठ! आपलोग किसी प्रकारका भय न करें॥ १०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लवणं नाशयिष्यामि गच्छन्तु विगतज्वराः।
इत्युक्त्वा प्राह रामोऽपि भ्रातृॄन् को वा हनिष्यति॥ ११॥
लवणं राक्षसं दद्याद् ब्राह्मणेभ्योऽभयं महत्।
तच्छ्रुत्वा प्राञ्जलिः प्राह भरतो राघवाय वै॥ १२॥
मूलम्
लवणं नाशयिष्यामि गच्छन्तु विगतज्वराः।
इत्युक्त्वा प्राह रामोऽपि भ्रातृॄन् को वा हनिष्यति॥ ११॥
लवणं राक्षसं दद्याद् ब्राह्मणेभ्योऽभयं महत्।
तच्छ्रुत्वा प्राञ्जलिः प्राह भरतो राघवाय वै॥ १२॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप निश्चिन्त होकर पधारें, मैं लवणको अवश्य मार डालूँगा।’’ मुनीश्वरोंसे ऐसा कह भगवान् रामने अपने भाइयोंसे पूछा—‘‘तुममेंसे कौन लवण राक्षसको मारेगा और ब्राह्मणोंको महान् अभय देगा?’’ यह सुनकर भरतजीने श्रीरघुनाथजीसे हाथ जोड़कर कहा—॥ ११-१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहमेव हनिष्यामि देवाज्ञापय मां प्रभो।
ततो रामं नमस्कृत्य शत्रुघ्नो वाक्यमब्रवीत्॥ १३॥
मूलम्
अहमेव हनिष्यामि देवाज्ञापय मां प्रभो।
ततो रामं नमस्कृत्य शत्रुघ्नो वाक्यमब्रवीत्॥ १३॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘देव! लवणको मैं ही मारूँगा। प्रभो! इसके लिये मुझे ही आज्ञा दीजिये।’’ फिर शत्रुघ्नजीने श्रीरामचन्द्रजीको प्रणाम करके कहा—॥ १३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लक्ष्मणेन महत्कार्यं कृतं राघव संयुगे।
नन्दिग्रामे महाबुद्धिर्भरतो दुःखमन्वभूत्॥ १४॥
मूलम्
लक्ष्मणेन महत्कार्यं कृतं राघव संयुगे।
नन्दिग्रामे महाबुद्धिर्भरतो दुःखमन्वभूत्॥ १४॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘हे राघव! श्रीलक्ष्मणजी युद्धमें बड़ा भारी कार्य कर चुके हैं, महामति भरतजीने भी नन्दिग्राममें रहकर बहुत कष्ट सहा है॥ १४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहमेव गमिष्यामि लवणस्य वधाय च।
त्वत्प्रसादाद्रघुश्रेष्ठ हन्यां तं राक्षसं युधि॥ १५॥
मूलम्
अहमेव गमिष्यामि लवणस्य वधाय च।
त्वत्प्रसादाद्रघुश्रेष्ठ हन्यां तं राक्षसं युधि॥ १५॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब लवणका वध करनेके लिये तो मैं ही जाऊँगा। हे रघुश्रेष्ठ! आपकी कृपासे मैं उस राक्षसको युद्धमें अवश्य मार डालूँगा’’॥ १५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छ्रुत्वा स्वाङ्कमारोप्य शत्रुघ्नं शत्रुसूदनः।
प्राहाद्यैवाभिषेक्ष्यामि मथुराराज्यकारणात्॥ १६॥
मूलम्
तच्छ्रुत्वा स्वाङ्कमारोप्य शत्रुघ्नं शत्रुसूदनः।
प्राहाद्यैवाभिषेक्ष्यामि मथुराराज्यकारणात्॥ १६॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुघ्नके ये वचन सुनकर शत्रुदमन रघुनाथजीने उन्हें अपनी गोदमें उठा लिया और कहा—‘‘मैं आज ही तुम्हारा (लवणकी राजधानी) मथुराके राज्यपर अभिषेक करूँगा’’॥ १६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आनाय्य च सुसम्भाराल्ँलक्ष्मणेनाभिषेचने।
अनिच्छन्तमपि स्नेहादभिषेकमकारयत्॥ १७॥
मूलम्
आनाय्य च सुसम्भाराल्ँलक्ष्मणेनाभिषेचने।
अनिच्छन्तमपि स्नेहादभिषेकमकारयत्॥ १७॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कह लक्ष्मणजीसे अभिषेककी सामग्री मँगा शत्रुघ्नजीकी इच्छा न होनेपर भी श्रीरामचन्द्रजीने उनका प्रीतिपूर्वक अभिषेक कर दिया॥ १७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दत्त्वा तस्मै शरं दिव्यं रामः शत्रुघ्नमब्रवीत्।
अनेन जहि बाणेन लवणं लोककण्टकम्॥ १८॥
मूलम्
दत्त्वा तस्मै शरं दिव्यं रामः शत्रुघ्नमब्रवीत्।
अनेन जहि बाणेन लवणं लोककण्टकम्॥ १८॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर उन्हें दिव्य बाण देकर कहा— ‘‘तुम संसारके कण्टकरूप लवणको इस बाणसे मार डालना॥ १८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तु सम्पूज्य तच्छूलं गेहे गच्छति काननम्।
भक्षणार्थं तु जन्तूनां नानाप्राणिवधाय च॥ १९॥
मूलम्
स तु सम्पूज्य तच्छूलं गेहे गच्छति काननम्।
भक्षणार्थं तु जन्तूनां नानाप्राणिवधाय च॥ १९॥
अनुवाद (हिन्दी)
राक्षस लवण अपने घरमें ही उस त्रिशूलकी पूजाकर नाना प्रकारके जीवोंको खाने और मारनेके लिये वनको जाया करता है॥ १९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तु नायाति सदनं यावद्वनचरो भवेत्।
तावदेव पुरद्वारि तिष्ठ त्वं धृतकार्मुकः॥ २०॥
मूलम्
स तु नायाति सदनं यावद्वनचरो भवेत्।
तावदेव पुरद्वारि तिष्ठ त्वं धृतकार्मुकः॥ २०॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः जबतक वह लौटकर घर न आवे, वनहीमें रहे, उससे पूर्व ही तुम नगरके द्वारपर धनुष धारण कर खड़े हो जाना॥ २०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योत्स्यते स त्वया क्रुद्धस्तदा वध्यो भविष्यति।
तं हत्वा लवणं क्रूरं तद्वनं मधुसंज्ञितम्॥ २१॥
निवेश्य नगरं तत्र तिष्ठ त्वं मेऽनुशासनात्।
अश्वानां पञ्चसाहस्रं रथानां च तदर्धकम्॥ २२॥
गजानां षट् शतानीह पत्तीनामयुतत्रयम्।
आगमिष्यति पश्चात्त्वमग्रे साधय राक्षसम्॥ २३॥
मूलम्
योत्स्यते स त्वया क्रुद्धस्तदा वध्यो भविष्यति।
तं हत्वा लवणं क्रूरं तद्वनं मधुसंज्ञितम्॥ २१॥
निवेश्य नगरं तत्र तिष्ठ त्वं मेऽनुशासनात्।
अश्वानां पञ्चसाहस्रं रथानां च तदर्धकम्॥ २२॥
गजानां षट् शतानीह पत्तीनामयुतत्रयम्।
आगमिष्यति पश्चात्त्वमग्रे साधय राक्षसम्॥ २३॥
अनुवाद (हिन्दी)
लौटनेपर वह क्रोधपूर्वक तुमसे लड़ेगा और उसी समय मारा जायगा। इस प्रकार महाक्रूर लवणासुरको मारकर उसके मधुवनमें नगर बसाकर मेरी आज्ञासे वहीं रहो। तुम पहले जाकर उस राक्षसको ठीक करो, फिर तुम्हारे पीछे वहाँ पाँच हजार घोड़े, उनसे आधे (ढाई हजार) रथ, छः सौ हाथी और तीस हजार पैदल भी पहुँचेंगे’’॥ २१—२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा मूर्ध्न्यवघ्राय प्रेषयामास राघवः।
शत्रुघ्नं मुनिभिः सार्धमाशीर्भिरभिनन्द्य च॥ २४॥
मूलम्
इत्युक्त्वा मूर्ध्न्यवघ्राय प्रेषयामास राघवः।
शत्रुघ्नं मुनिभिः सार्धमाशीर्भिरभिनन्द्य च॥ २४॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कह श्रीरघुनाथजीने शत्रुघ्नका सिर सूँघकर तथा मुनियोंके सहित आशीर्वादसे उनका अभिनन्दन कर उन्हें विदा किया॥ २४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शत्रुघ्नोऽपि तथा चक्रे यथा रामेण चोदितः।
हत्वा मधुसुतं युद्धे मथुरामकरोत्पुरीम्॥ २५॥
स्फीतां जनपदां चक्रे मथुरां दानमानतः।
सीतापि सुषुवे पुत्रौ द्वौ वाल्मीकेरथाश्रमे॥ २६॥
मूलम्
शत्रुघ्नोऽपि तथा चक्रे यथा रामेण चोदितः।
हत्वा मधुसुतं युद्धे मथुरामकरोत्पुरीम्॥ २५॥
स्फीतां जनपदां चक्रे मथुरां दानमानतः।
सीतापि सुषुवे पुत्रौ द्वौ वाल्मीकेरथाश्रमे॥ २६॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुघ्नजीने भी भगवान् रामने जैसी आज्ञा दी थी वैसा ही किया। उन्होंने मधुपुत्र लवणासुरको मारकर मथुरापुरी बसायी और दान-मानसे (लोगोंको सन्तुष्ट कर) उन्होंने मथुराको एक समृद्धिशाली नगर बना दिया। इस बीचमें श्रीसीताजीके वाल्मीकि मुनिके आश्रममें दो पुत्र उत्पन्न हुए॥ २५-२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुनिस्तयोर्नाम चक्रे कुशो ज्येष्ठोऽनुजो लवः।
क्रमेण विद्यासम्पन्नौ सीतापुत्रौ बभूवतुः॥ २७॥
मूलम्
मुनिस्तयोर्नाम चक्रे कुशो ज्येष्ठोऽनुजो लवः।
क्रमेण विद्यासम्पन्नौ सीतापुत्रौ बभूवतुः॥ २७॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुनिने उनमेंसे बड़ेका नाम कुश और छोटेका लव रखा। धीरे-धीरे सीताजीके वे दोनों पुत्र विद्यासम्पन्न हो गये॥ २७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपनीतौ च मुनिना वेदाध्ययनतत्परौ।
कृत्स्नं रामायणं प्राह काव्यं बालकयोर्मुनिः॥ २८॥
मूलम्
उपनीतौ च मुनिना वेदाध्ययनतत्परौ।
कृत्स्नं रामायणं प्राह काव्यं बालकयोर्मुनिः॥ २८॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुनिके उपनयन-संस्कार करनेपर वे वेदाध्ययनमें तत्पर हुए। श्रीवाल्मीकिजीने उन दोनों बालकोंको सम्पूर्ण रामायणकाव्य पढ़ा दिया॥ २८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शङ्करेण पुरा प्रोक्तं पार्वत्यै पुरहारिणा।
वेदोपबृंहणार्थाय तावग्राहयत प्रभुः॥ २९॥
मूलम्
शङ्करेण पुरा प्रोक्तं पार्वत्यै पुरहारिणा।
वेदोपबृंहणार्थाय तावग्राहयत प्रभुः॥ २९॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूर्वकालमें इसे त्रिपुरविनाशक भगवान् शंकरने पार्वतीजीको सुनाया था। उसी आख्यानको समर्थ मुनि वाल्मीकिने वेदोंका विस्तृत ज्ञान करानेके लिये उन बालकोंको पढ़ाया॥ २९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुमारौ स्वरसम्पन्नौ सुन्दरावश्विनाविव।
तन्त्रीतालसमायुक्तौ गायन्तौ चेरतुर्वने॥ ३०॥
मूलम्
कुमारौ स्वरसम्पन्नौ सुन्दरावश्विनाविव।
तन्त्रीतालसमायुक्तौ गायन्तौ चेरतुर्वने॥ ३०॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे अश्विनीकुमारके समान अति सुन्दर कुमार उसे वीणा बजाकर स्वरसहित गाते हुए वनमें विचरा करते थे॥ ३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र तत्र मुनीनां तौ समाजे सुररूपिणौ।
गायन्तावभितो दृष्ट्वा विस्मिता मुनयोऽब्रुवन्॥ ३१॥
मूलम्
तत्र तत्र मुनीनां तौ समाजे सुररूपिणौ।
गायन्तावभितो दृष्ट्वा विस्मिता मुनयोऽब्रुवन्॥ ३१॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन देवस्वरूप बालकोंको जहाँ-तहाँ मुनियोंके समाजमें गाते देख वे मुनिगण अत्यन्त विस्मित हो आपसमें कहने लगते थे॥ ३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गन्धर्वेष्विव किन्नरेषु भुवि वा देवेषु देवालये
पातालेष्वथवा चतुर्मुखगृहे लोकेषु सर्वेषु च।
अस्माभिश्चिरजीविभिश्चिरतरं दृष्टा दिशः सर्वतो
नाज्ञायीदृशगीतवाद्यगरिमा नादर्शि नाश्रावि च॥ ३२॥
मूलम्
गन्धर्वेष्विव किन्नरेषु भुवि वा देवेषु देवालये
पातालेष्वथवा चतुर्मुखगृहे लोकेषु सर्वेषु च।
अस्माभिश्चिरजीविभिश्चिरतरं दृष्टा दिशः सर्वतो
नाज्ञायीदृशगीतवाद्यगरिमा नादर्शि नाश्रावि च॥ ३२॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘हम चिरजीवियोंने बहुत दिनोंसे सभी दिशाएँ देखीं, किन्तु गन्धर्व, किन्नर, भूर्लोक, देवलोक, देवालय, पाताल अथवा ब्रह्मलोक आदि किसी भी लोकमें गाने-बजानेकी ऐसी कुशलता न कभी जानी न देखी और न सुनी ही है’॥ ३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं स्तुवद्भिरखिलैर्मुनिभिः प्रतिवासरम्।
आसाते सुखमेकान्ते वाल्मीकेराश्रमे चिरम्॥ ३३॥
मूलम्
एवं स्तुवद्भिरखिलैर्मुनिभिः प्रतिवासरम्।
आसाते सुखमेकान्ते वाल्मीकेराश्रमे चिरम्॥ ३३॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार प्रतिदिन प्रशंसा करनेवाले समस्त मुनियोंके साथ वे दोनों बालक बहुत समयतक श्रीवाल्मीकिजीके एकान्त आश्रममें सुखपूर्वक रहे॥ ३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ रामोऽश्वमेधादींश्चकार बहुदक्षिणान्।
यज्ञान् स्वर्णमयीं सीतां विधाय विपुलद्युतिः॥ ३४॥
मूलम्
अथ रामोऽश्वमेधादींश्चकार बहुदक्षिणान्।
यज्ञान् स्वर्णमयीं सीतां विधाय विपुलद्युतिः॥ ३४॥
अनुवाद (हिन्दी)
इधर परम तेजस्वी श्रीरामचन्द्रजीने सुवर्णकी सीता बनाकर अश्वमेध आदि बहुत-से बड़ी-बड़ी दक्षिणाओंवाले यज्ञ किये॥ ३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन्विताने ऋषयः सर्वे राजर्षयस्तथा।
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः समाजग्मुर्दिदृक्षवः॥ ३५॥
मूलम्
तस्मिन्विताने ऋषयः सर्वे राजर्षयस्तथा।
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः समाजग्मुर्दिदृक्षवः॥ ३५॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस यज्ञशालामें यज्ञोत्सव देखनेके लिये उत्सुक होकर सभी ऋषि, राजर्षि, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य आदि आये थे॥ ३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाल्मीकिरपि सङ्गृह्य गायन्तौ तौ कुशीलवौ।
जगाम ऋषिवाटस्य समीपं मुनिपुङ्गवः॥ ३६॥
मूलम्
वाल्मीकिरपि सङ्गृह्य गायन्तौ तौ कुशीलवौ।
जगाम ऋषिवाटस्य समीपं मुनिपुङ्गवः॥ ३६॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुनिश्रेष्ठ वाल्मीकिजी भी गान करते हुए कुश और लवको साथ ले वहाँ आये और जहाँ मुनियोंके ठहरनेका स्थान था वहाँ उतरे॥ ३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्रैकान्ते स्थितं शान्तं समाधिविरमे मुनिम्।
कुशः पप्रच्छ वाल्मीकिं ज्ञानशास्त्रं कथान्तरे॥ ३७॥
मूलम्
तत्रैकान्ते स्थितं शान्तं समाधिविरमे मुनिम्।
कुशः पप्रच्छ वाल्मीकिं ज्ञानशास्त्रं कथान्तरे॥ ३७॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ एक दिन एकान्तमें शान्तभावसे बैठे हुए वाल्मीकि मुनिसे उनकी समाधि खुलनेपर कुशने कथाके बीचमें ही ज्ञानशास्त्रके विषयमें पूछा—॥ ३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगवञ्छ्रोतुमिच्छामि सङ्क्षेपाद्भवतोऽखिलम्।
देहिनः संसृतिर्बन्धः कथमुत्पद्यते दृढः॥ ३८॥
मूलम्
भगवञ्छ्रोतुमिच्छामि सङ्क्षेपाद्भवतोऽखिलम्।
देहिनः संसृतिर्बन्धः कथमुत्पद्यते दृढः॥ ३८॥
अनुवाद (हिन्दी)
(वह बोला)—‘‘भगवन्! मैं आपके मुखारविन्दसे संक्षेपमें यह बात सुनना चाहता हूँ कि जीवको यह सुदृढ़ संसारबन्धन किस प्रकार प्राप्त होता है?॥ ३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं विमुच्यते देही दृढबन्धाद्भवाभिधात्।
वक्तुमर्हसि सर्वज्ञ मह्यं शिष्याय ते मुने॥ ३९॥
मूलम्
कथं विमुच्यते देही दृढबन्धाद्भवाभिधात्।
वक्तुमर्हसि सर्वज्ञ मह्यं शिष्याय ते मुने॥ ३९॥
अनुवाद (हिन्दी)
और फिर इस संसार नामक दृढ़ बन्धनसे उसे छुटकारा कैसे मिलता है? हे मुने! आप सर्वज्ञ हैं, मुझ प्रणत शिष्यसे आप यह सम्पूर्ण रहस्य कहिये’’॥ ३९॥
मूलम् (वचनम्)
वाल्मीकिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शृणु वक्ष्यामि ते सर्वं सङ्क्षेपाद्बन्धमोक्षयोः।
स्वरूपं साधनं चापि मत्तः श्रुत्वा यथोदितम्॥ ४०॥
तथैवाचर भद्रं ते जीवन्मुक्तो भविष्यसि।
देह एव महागेहमदेहस्य चिदात्मनः॥ ४१॥
मूलम्
शृणु वक्ष्यामि ते सर्वं सङ्क्षेपाद्बन्धमोक्षयोः।
स्वरूपं साधनं चापि मत्तः श्रुत्वा यथोदितम्॥ ४०॥
तथैवाचर भद्रं ते जीवन्मुक्तो भविष्यसि।
देह एव महागेहमदेहस्य चिदात्मनः॥ ४१॥
अनुवाद (हिन्दी)
वाल्मीकिजी बोले—सुन, मैं तुझे संक्षेपसे साधनके सहित बन्ध और मोक्षका सम्पूर्ण स्वरूप सुनाता हूँ। मैं जैसा कहूँ वह सब सुनकर तू उसी प्रकार आचरण कर। इससे तेरा कल्याण होगा और तू जीवन्मुक्त हो जायगा। देहहीन चेतन आत्माका यह देह ही बड़ा भारी घर है॥ ४०-४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्याहङ्कार एवास्मिन् मन्त्री तेनैव कल्पितः।
देहगेहाभिमानं स्वं समारोप्य चिदात्मनि॥ ४२॥
तेन तादात्म्यमापन्नः स्वचेष्टितमशेषतः।
विदधाति चिदानन्दे तद्वासितवपुः स्वयम्॥ ४३॥
तेन सङ्कल्पितो देही सङ्कल्पनिगडावृतः।
पुत्रदारगृहादीनि सङ्कल्पयति चानिशम्॥ ४४॥
सङ्कल्पयन्स्वयं देही परिशोचति सर्वदा।
मूलम्
तस्याहङ्कार एवास्मिन् मन्त्री तेनैव कल्पितः।
देहगेहाभिमानं स्वं समारोप्य चिदात्मनि॥ ४२॥
तेन तादात्म्यमापन्नः स्वचेष्टितमशेषतः।
विदधाति चिदानन्दे तद्वासितवपुः स्वयम्॥ ४३॥
तेन सङ्कल्पितो देही सङ्कल्पनिगडावृतः।
पुत्रदारगृहादीनि सङ्कल्पयति चानिशम्॥ ४४॥
सङ्कल्पयन्स्वयं देही परिशोचति सर्वदा।
अनुवाद (हिन्दी)
इसमें उसने अहंकारको ही अपना मन्त्री बना रखा है। यह अहंकाररूप मन्त्री देहगेहाभिमानरूप अपने-आपको चेतन आत्मामें आरोपितकर उससे एकरूप होकर अपनी सारी चेष्टाओंका आरोप उस चिदानन्दरूप आत्मामें ही करता है। उस अहंकारसे व्याप्त हुआ देही (जीव) उसीके संकल्पसे प्रेरित होकर संकल्परूपी बेड़ियोंसे बँधता है और फिर रात-दिन पुत्र, स्त्री और गृह आदिके लिये संकल्प-विकल्प करता रहता है। संकल्प करनेसे जीव स्वयं ही सदा शोक करता है॥ ४२—४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रयस्तस्याहमो देहा अधमोत्तममध्यमाः॥ ४५॥
तमः सत्त्वरजःसंज्ञा जगतः कारणं स्थितेः।
तमोरूपाद्धि सङ्कल्पान्नित्यं तामसचेष्टया॥ ४६॥
अत्यन्तं तामसो भूत्वा कृमिकीटत्वमाप्नुयात्।
सत्त्वरूपो हि सङ्कल्पो धर्मज्ञानपरायणः॥ ४७॥
अदूरमोक्षसाम्राज्यः सुखरूपो हि तिष्ठति।
रजोरूपो हि सङ्कल्पो लोके स व्यवहारवान्॥ ४८॥
परितिष्ठति संसारे पुत्रदारानुरञ्जितः।
त्रिविधं तु परित्यज्य रूपमेतन्महामते॥ ४९॥
सङ्कल्पं परमाप्नोति पदमात्मपरिक्षये।
दृष्टीः सर्वाः परित्यज्य नियम्य मनसा मनः॥ ५०॥
सबाह्याभ्यन्तरार्थस्य सङ्कल्पस्य क्षयं कुरु।
यदि वर्षसहस्राणि तपश्चरसि दारुणम्॥ ५१॥
पातालस्थस्य भूस्थस्य स्वर्गस्थस्यापि तेऽनघ।
नान्यः कश्चिदुपायोऽस्ति सङ्कल्पोपशमादृते॥ ५२॥
मूलम्
त्रयस्तस्याहमो देहा अधमोत्तममध्यमाः॥ ४५॥
तमः सत्त्वरजःसंज्ञा जगतः कारणं स्थितेः।
तमोरूपाद्धि सङ्कल्पान्नित्यं तामसचेष्टया॥ ४६॥
अत्यन्तं तामसो भूत्वा कृमिकीटत्वमाप्नुयात्।
सत्त्वरूपो हि सङ्कल्पो धर्मज्ञानपरायणः॥ ४७॥
अदूरमोक्षसाम्राज्यः सुखरूपो हि तिष्ठति।
रजोरूपो हि सङ्कल्पो लोके स व्यवहारवान्॥ ४८॥
परितिष्ठति संसारे पुत्रदारानुरञ्जितः।
त्रिविधं तु परित्यज्य रूपमेतन्महामते॥ ४९॥
सङ्कल्पं परमाप्नोति पदमात्मपरिक्षये।
दृष्टीः सर्वाः परित्यज्य नियम्य मनसा मनः॥ ५०॥
सबाह्याभ्यन्तरार्थस्य सङ्कल्पस्य क्षयं कुरु।
यदि वर्षसहस्राणि तपश्चरसि दारुणम्॥ ५१॥
पातालस्थस्य भूस्थस्य स्वर्गस्थस्यापि तेऽनघ।
नान्यः कश्चिदुपायोऽस्ति सङ्कल्पोपशमादृते॥ ५२॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस अहंकारके सत्त्व, रज, तम नामक उत्तम, अधम और मध्यम तीन प्रकारके देह हैं। ये ही तीनों संसारकी स्थितिके कारण हैं। इनमेंसे तामस संकल्पसे नित्यप्रति तामसिक चेष्टाएँ करनेसे ही जीव अत्यन्त तमोगुणी होकर कीड़े-मकोड़े आदि योनियोंको प्राप्त होता है। जो सात्त्विक संकल्पवाला होता है वह धर्म और ज्ञानमें ही तत्पर रहनेके कारण मोक्ष-साम्राज्यके पास ही सुखपूर्वक रहता है। तथा राजस संकल्प होनेसे लोकव्यवहार करता हुआ संसारमें पुत्र, स्त्री आदिमें अनुरक्त रहता है। हे महामते! जो पुरुष इन तीनों प्रकारके संकल्पोंको छोड़ देता है वह चित्तके लीन होनेपर परमपद प्राप्त कर लेता है। इसलिये तू समस्त विचारोंको छोड़कर और अपने मनसे ही मनका संयम कर बाहर-भीतरके सम्पूर्ण संकल्पोंका क्षय कर दे। हे अनघ! यदि तू पाताल, पृथिवी अथवा स्वर्ग आदिमें कहीं भी रहकर हजारों वर्ष कठोर तपस्या भी करे तो भी (संसार-बन्धनसे मुक्त होनेका तो) तेरे लिये संकल्पनाशके अतिरिक्त और कोई उपाय है ही नहीं॥ ४५—५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनाबाधेऽविकारे स्वे सुखे परमपावने।
सङ्कल्पोपशमे यत्नं पौरुषेण परं कुरु॥ ५३॥
मूलम्
अनाबाधेऽविकारे स्वे सुखे परमपावने।
सङ्कल्पोपशमे यत्नं पौरुषेण परं कुरु॥ ५३॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये जो दुःखहीन, विकारहीन, स्वानन्दस्वरूप और परम पवित्र है उस संकल्पशान्तिके लिये तू पुरुषार्थपूर्वक पूर्ण प्रयत्न कर॥ ५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सङ्कल्पतन्तौ निखिला भावाः प्रोताः किलानघ।
छिन्ने तन्तौ न जानीमः क्व यान्ति विभवाः पराः॥ ५४॥
मूलम्
सङ्कल्पतन्तौ निखिला भावाः प्रोताः किलानघ।
छिन्ने तन्तौ न जानीमः क्व यान्ति विभवाः पराः॥ ५४॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे अनघ! ये जितने भाव पदार्थ हैं वे सब संकल्पके तागेमें पिरोये हुए हैं; जिस समय वह तागा टूट जाता है उस समय पता भी नहीं चलता कि संसारके ये परम वैभव कहाँ चले जाते हैं?॥ ५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निःसङ्कल्पो यथाप्राप्तव्यवहारपरो भव।
क्षये सङ्कल्पजालस्य जीवो ब्रह्मत्वमाप्नुयात्॥ ५५॥
मूलम्
निःसङ्कल्पो यथाप्राप्तव्यवहारपरो भव।
क्षये सङ्कल्पजालस्य जीवो ब्रह्मत्वमाप्नुयात्॥ ५५॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः संकल्प-विकल्पको छोड़कर प्रारब्ध-प्रवाहसे प्राप्त हुए व्यवहारमें तत्पर रह। संकल्पजालके क्षीण हो जानेपर जीवको ब्रह्मत्व प्राप्त हो जाता है॥ ५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधिगतपरमार्थतामुपेत्य
प्रसभमपास्य विकल्पजालमुच्चैः।
अधिगमय पदं तदद्वितीयं
विततसुखाय सुषुप्तचित्तवृत्तिः॥ ५६॥
मूलम्
अधिगतपरमार्थतामुपेत्य
प्रसभमपास्य विकल्पजालमुच्चैः।
अधिगमय पदं तदद्वितीयं
विततसुखाय सुषुप्तचित्तवृत्तिः॥ ५६॥
अनुवाद (हिन्दी)
परमार्थज्ञानसे सम्पन्न होकर तू हठपूर्वक सम्पूर्ण विकल्पजालको त्याग दे और पूर्ण आनन्दकी प्राप्तिके लिये चित्तवृत्तिको लीन करके उस अद्वितीय पदको प्राप्त कर ले॥ ५६॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे उत्तरकाण्डे षष्ठः सर्गः॥ ६॥