०४

[चतुर्थ सर्ग]

भागसूचना

रामराज्यका वर्णन तथा सीता-वनवास

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहादेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकदा ब्रह्मणो लोकादायान्तं नारदं मुनिम्।
पर्यटन् रावणो लोकान् दृष्ट्वा नत्वाब्रवीद्वचः॥ १॥

मूलम्

एकदा ब्रह्मणो लोकादायान्तं नारदं मुनिम्।
पर्यटन् रावणो लोकान् दृष्ट्वा नत्वाब्रवीद्वचः॥ १॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहादेवजी बोले—हे पार्वति! लोकान्तरोंमें घूमते हुए रावणने एक दिन श्रीनारदजीको ब्रह्मलोकसे आते हुए देखकर उनसे नमस्कार करके पूछा—॥ १॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवन्ब्रूहि मे योद्धुं कुत्र सन्ति महाबलाः।
योद्धुमिच्छामि बलिभिस्त्वं ज्ञातासि जगत्त्रयम्॥ २॥

मूलम्

भगवन्ब्रूहि मे योद्धुं कुत्र सन्ति महाबलाः।
योद्धुमिच्छामि बलिभिस्त्वं ज्ञातासि जगत्त्रयम्॥ २॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘भगवन्! मैं बलवानोंके साथ युद्ध करना चाहता हूँ, आप तीनों लोकोंसे परिचित हैं। कृपया बतलाइये मुझसे लड़ने योग्य महाबली पुरुष कहाँ हैं?’’॥ २॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुनिर्ध्यात्वाह सुचिरं श्वेतद्वीपनिवासिनः।
महाबला महाकायास्तत्र याहि महामते॥ ३॥

मूलम्

मुनिर्ध्यात्वाह सुचिरं श्वेतद्वीपनिवासिनः।
महाबला महाकायास्तत्र याहि महामते॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब मुनीश्वरने बहुत देरतक सोचकर कहा—‘‘हे महामते! श्वेतद्वीपके रहनेवाले बड़े बलवान् और विशाल शरीरवाले हैं; तुम वहीं जाओ॥ ३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विष्णुपूजारता ये वै विष्णुना निहताश्च ये।
त एव तत्र सञ्जाता अजेयाश्च सुरासुरैः॥ ४॥

मूलम्

विष्णुपूजारता ये वै विष्णुना निहताश्च ये।
त एव तत्र सञ्जाता अजेयाश्च सुरासुरैः॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो लोग भगवान् विष्णुकी पूजामें तत्पर रहते हैं अथवा जो स्वयं विष्णुभगवान् के ही हाथसे मारे गये हैं वे ही वहाँ उत्पन्न हुए हैं। वे देवता या दानव आदि किसीसे भी नहीं जीते जा सकते’’॥ ४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वा तद्‍रावणे वेगान् मन्त्रिभिः पुष्पकेण तान्।
योद्धुकामः समागत्य श्वेतद्वीपसमीपतः॥ ५॥

मूलम्

श्रुत्वा तद्‍रावणे वेगान् मन्त्रिभिः पुष्पकेण तान्।
योद्धुकामः समागत्य श्वेतद्वीपसमीपतः॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुनकर रावण तुरंत ही अपने मन्त्रियोंके सहित पुष्पक विमानपर चढ़कर श्वेतद्वीपके निकट आया॥ ५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्प्रभाहततेजस्कं पुष्पकं नाचलत्ततः।
त्यक्त्वा विमानं प्रययौ मन्त्रिणश्च दशाननः॥ ६॥

मूलम्

तत्प्रभाहततेजस्कं पुष्पकं नाचलत्ततः।
त्यक्त्वा विमानं प्रययौ मन्त्रिणश्च दशाननः॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस द्वीपकी प्रभासे तेजोहीन हो जानेके कारण पुष्पक और आगे नहीं बढ़ सका। अतः विमान और मन्त्रियोंको छोड़कर रावण स्वयं ही चला॥ ६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रविशन्नेव तद्‍द्वीपं धृतो हस्तेन योषिता।
पृष्टश्च त्वं कुतः कोऽसि प्रेषितः केन वा वद॥ ७॥

मूलम्

प्रविशन्नेव तद्‍द्वीपं धृतो हस्तेन योषिता।
पृष्टश्च त्वं कुतः कोऽसि प्रेषितः केन वा वद॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस द्वीपमें घुसते ही एक स्त्रीने उसका हाथ पकड़कर पूछा—‘‘बता, तू कौन है? कहाँसे आया है? और यहाँ तुझे किसने भेजा है?’’॥ ७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तो लीलया स्त्रीभिर्हसन्तीभिः पुनः पुनः।
कृच्छ्राद्धस्ताद्विनिर्मुक्तस्तासां स्त्रीणां दशाननः॥ ८॥

मूलम्

इत्युक्तो लीलया स्त्रीभिर्हसन्तीभिः पुनः पुनः।
कृच्छ्राद्धस्ताद्विनिर्मुक्तस्तासां स्त्रीणां दशाननः॥ ८॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार वहाँ बहुत-सी स्त्रियोंने लीलापूर्वक हँसते-हँसते उससे वही बात कही और रावणको उन स्त्रियोंके हाथसे बड़ी कठिनतासे छुटकारा मिला॥ ८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आश्चर्यमतुलं लब्ध्वा चिन्तयामास दुर्मतिः।
विष्णुना निहतो यामि वैकुण्ठमिति निश्चितः॥ ९॥

मूलम्

आश्चर्यमतुलं लब्ध्वा चिन्तयामास दुर्मतिः।
विष्णुना निहतो यामि वैकुण्ठमिति निश्चितः॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह देखकर उसे असीम आश्चर्य हुआ और वह दुर्बुद्धि सोचने लगा— ‘मैं विष्णुभगवान् के हाथसे मरकर निस्सन्देह वैकुण्ठको जाऊँगा॥ ९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मयि विष्णुर्यथा कुप्येत्तथा कार्यं करोम्यहम्।
इति निश्चित्य वैदेहीं जहार विपिनेऽसुरः॥ १०॥

मूलम्

मयि विष्णुर्यथा कुप्येत्तथा कार्यं करोम्यहम्।
इति निश्चित्य वैदेहीं जहार विपिनेऽसुरः॥ १०॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः मुझे ऐसा कार्य करना चाहिये जिससे भगवान् विष्णु मुझपर कुपित हों, ऐसा सोचकर ही उस असुरने वनमें श्रीजानकीजीको हर लिया था॥ १०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जानन्नेव परात्मानं स जहारावनीसुताम्।
मातृवत्पालयामास त्वत्तःकाङ्क्षन्वधं स्वकम्॥ ११॥

मूलम्

जानन्नेव परात्मानं स जहारावनीसुताम्।
मातृवत्पालयामास त्वत्तःकाङ्क्षन्वधं स्वकम्॥ ११॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राम! आपके हाथसे अपना वध करानेकी इच्छासे ही रावणने आपको परमात्मा जानते हुए भी श्रीसीताजीको चुरा लिया और उनका माताके समान पालन किया॥ ११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम त्वं परमेश्वरोऽसि सकलं
जानासि विज्ञानदृग्
भूतं भव्यमिदं त्रिकालकलना-
साक्षी विकल्पोज्झितः।
भक्तानामनुवर्तनाय सकलां
कुर्वन् क्रियासंहतिं
त्वं शृण्वन्मनुजाकृतिर्मुनिवचो
भासीश लोकार्चितः॥ १२॥

मूलम्

राम त्वं परमेश्वरोऽसि सकलं
जानासि विज्ञानदृग्
भूतं भव्यमिदं त्रिकालकलना-
साक्षी विकल्पोज्झितः।
भक्तानामनुवर्तनाय सकलां
कुर्वन् क्रियासंहतिं
त्वं शृण्वन्मनुजाकृतिर्मुनिवचो
भासीश लोकार्चितः॥ १२॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राम! आप परमेश्वर हैं, आप त्रिकालदर्शी एवं विकल्पसे रहित होकर अपनी ज्ञानदृष्टिसे भूत, भविष्य और वर्तमान—ये सब कुछ जानते हैं, हे स्वामिन्! आप अपने भक्तोंको मार्ग दिखानेके लिये ही सारी लीलाएँ रचते हैं तथा आप सम्पूर्ण लोकोंसे पूजित होकर भी मनुष्यरूपसे हम-जैसे मुनियोंके वचन सुनते हुए दिखलायी दे रहे हैं॥ १२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्तुत्वैवं राघवं तेन पूजितः कुम्भसम्भवः।
स्वाश्रमं मुनिभिः सार्धं प्रययौ हृष्टमानसः॥ १३॥

मूलम्

स्तुत्वैवं राघवं तेन पूजितः कुम्भसम्भवः।
स्वाश्रमं मुनिभिः सार्धं प्रययौ हृष्टमानसः॥ १३॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार श्रीरघुनाथजीकी स्तुति कर और उनसे सत्कार पा श्रीअगस्त्यजी अन्य मुनीश्वरोंके साथ प्रसन्न-चित्तसे अपने आश्रमको चले गये॥ १३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामस्तु सीतया सार्धं भ्रातृभिः सह मन्त्रिभिः।
संसारीव रमानाथो रममाणोऽवसद्‍गृहे॥ १४॥

मूलम्

रामस्तु सीतया सार्धं भ्रातृभिः सह मन्त्रिभिः।
संसारीव रमानाथो रममाणोऽवसद्‍गृहे॥ १४॥

अनुवाद (हिन्दी)

लक्ष्मीपति भगवान् राम सीताजी, भाइयों तथा मन्त्रियोंके सहित संसारी पुरुषोंके समान रमण (आचरण) करते हुए घरमें रहने लगे॥ १४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनासक्तोऽपि विषयान् बुभुजे प्रियया सह।
हनुमत्प्रमुखैः सद्भिर्वानरैः परिवेष्टितः॥ १५॥

मूलम्

अनासक्तोऽपि विषयान् बुभुजे प्रियया सह।
हनुमत्प्रमुखैः सद्भिर्वानरैः परिवेष्टितः॥ १५॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने असंग होते हुए भी अपनी प्रियाके साथ नाना प्रकारके भोगोंको भोगा। वे सदा ही हनुमान् आदि श्रेष्ठ वानरोंसे घिरे रहते थे॥ १५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुष्पकं चागमद्‍राममेकदा पूर्ववत्प्रभुम्।
प्राह देव कुबेरेण प्रेषितं त्वामहं ततः॥ १६॥

मूलम्

पुष्पकं चागमद्‍राममेकदा पूर्ववत्प्रभुम्।
प्राह देव कुबेरेण प्रेषितं त्वामहं ततः॥ १६॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक बार पहलेहीके समान भगवान् रामके पास पुष्पक विमान आया और बोला—‘‘भगवन्! मुझे कुबेरजीने अपने यहाँसे फिर आपहीकी सेवामें भेजा है॥ १६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जितं त्वं रावणेनादौ पश्चाद्‍रामेण निर्जितम्।
अतस्त्वं राघवं नित्यं वह यावद्वसेद्भुवि॥ १७॥

मूलम्

जितं त्वं रावणेनादौ पश्चाद्‍रामेण निर्जितम्।
अतस्त्वं राघवं नित्यं वह यावद्वसेद्भुवि॥ १७॥

अनुवाद (हिन्दी)

(वे कहते हैं कि) पहले तुझे रावणने जीता था और फिर उससे श्रीरामचन्द्रजीने जीता है। अतः जबतक वे पृथिवीतलपर रहें तबतक तू उन्हींको धारण कर॥ १७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा गच्छेद्‍रघुश्रेष्ठो वैकुण्ठं याहि मां तदा।
तच्छ्रुत्वा राघवः प्राह पुष्पकं सूर्यसन्निभम्॥ १८॥

मूलम्

यदा गच्छेद्‍रघुश्रेष्ठो वैकुण्ठं याहि मां तदा।
तच्छ्रुत्वा राघवः प्राह पुष्पकं सूर्यसन्निभम्॥ १८॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस समय रघुनाथजी वैकुण्ठको चले जायँ उस समय तू मेरे पास आ जाना?’’ यह सुनकर श्रीरघुनाथजीने सूर्यके समान देदीप्यमान पुष्पकसे कहा—॥ १८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा स्मरामि भद्रं ते तदागच्छ ममान्तिकम्।
तिष्ठान्तर्धाय सर्वत्र गच्छेदानीं ममाज्ञया॥ १९॥

मूलम्

यदा स्मरामि भद्रं ते तदागच्छ ममान्तिकम्।
तिष्ठान्तर्धाय सर्वत्र गच्छेदानीं ममाज्ञया॥ १९॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘तेरा कल्याण हो, जिस समय मैं तेरा स्मरण करूँ उसी समय तू मेरे पास आ जाना, अब तू जा और मेरी आज्ञासे गुप्तरूपसे सर्वत्र रह’’॥ १९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा रामचन्द्रोऽपि पौरकार्याणि सर्वशः।
भ्रातृभिर्मन्त्रिभिः सार्धं यथान्यायं चकार सः॥ २०॥

मूलम्

इत्युक्त्वा रामचन्द्रोऽपि पौरकार्याणि सर्वशः।
भ्रातृभिर्मन्त्रिभिः सार्धं यथान्यायं चकार सः॥ २०॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुष्पकको इस प्रकार आज्ञा दे श्रीरामचन्द्रजी अपने भाइयों और मन्त्रियोंके साथ मिलकर पुरवासियोंके सम्पूर्ण कार्य यथायोग्य रीतिसे करने लगे॥ २०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राघवे शासति भुवं लोकनाथे रमापतौ।
वसुधा सस्यसम्पन्ना फलवन्तश्च भूरुहाः॥ २१॥

मूलम्

राघवे शासति भुवं लोकनाथे रमापतौ।
वसुधा सस्यसम्पन्ना फलवन्तश्च भूरुहाः॥ २१॥

अनुवाद (हिन्दी)

त्रिलोकीनाथ लक्ष्मीपति भगवान् रामके शासन-कालमें पृथिवी धनधान्यसे पूर्ण और वृक्ष फलादिसे सम्पन्न थे॥ २१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जना धर्मपराः सर्वे पतिभक्तिपराः स्त्रियः।
नापश्यत्पुत्रमरणं कश्चिद्राजनि राघवे॥ २२॥

मूलम्

जना धर्मपराः सर्वे पतिभक्तिपराः स्त्रियः।
नापश्यत्पुत्रमरणं कश्चिद्राजनि राघवे॥ २२॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरघुनाथजीके राज्यमें समस्त पुरुष धर्मपरायण थे, स्त्रियाँ पति-सेवामें तत्पर रहती थीं और किसीको भी अपने पुत्रका मरण नहीं देखना पड़ता था॥ २२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समारुह्य विमानाग्र्यं राघवः सीतया सह।
वानरैर्भ्रातृभिः सार्धं सञ्चचारावनिं प्रभुः॥ २३॥

मूलम्

समारुह्य विमानाग्र्यं राघवः सीतया सह।
वानरैर्भ्रातृभिः सार्धं सञ्चचारावनिं प्रभुः॥ २३॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् राम सीताजी, भाइयों और वानरोंके साथ विमानपर चढ़कर पृथिवीपर घूमा करते थे॥ २३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमानुषाणि कार्याणि चकार बहुशो भुवि।
ब्राह्मणस्य सुतं दृष्ट्वा बालं मृतमकालतः॥ २४॥
शोचन्तं ब्राह्मणं चापि ज्ञात्वा रामो महामतिः।
तपस्यन्तं वने शूद्रं हत्वा ब्राह्मणबालकम्॥ २५॥
जीवयामास शूद्रस्य ददौ स्वर्गमनुत्तमम्।
लोकानामुपदेशार्थं परमात्मा रघूत्तमः॥ २६॥
कोटिशः स्थापयामास शिवलिङ्गानि सर्वशः।
सीतां च रमयामास सर्वभोगैरमानुषैः॥ २७॥

मूलम्

अमानुषाणि कार्याणि चकार बहुशो भुवि।
ब्राह्मणस्य सुतं दृष्ट्वा बालं मृतमकालतः॥ २४॥
शोचन्तं ब्राह्मणं चापि ज्ञात्वा रामो महामतिः।
तपस्यन्तं वने शूद्रं हत्वा ब्राह्मणबालकम्॥ २५॥
जीवयामास शूद्रस्य ददौ स्वर्गमनुत्तमम्।
लोकानामुपदेशार्थं परमात्मा रघूत्तमः॥ २६॥
कोटिशः स्थापयामास शिवलिङ्गानि सर्वशः।
सीतां च रमयामास सर्वभोगैरमानुषैः॥ २७॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने संसारमें बहुत-सी अमानवीय लीलाएँ कीं। एक बार एक ब्राह्मण-पुत्रको बाल्यावस्थामें ही असमय मरा देख और उस ब्राह्मणको बहुत शोक करते जान रघुश्रेष्ठ परमात्मा महामति रामने वनमें तपस्या करते हुए शूद्रको (उसका कारण मानकर) मारा और उस बालकको जीवित किया तथा शूद्रको अत्युत्तम स्वर्गलोक दिया। उन्होंने लोगोंको उपदेश देनेके लिये जगह-जगह करोड़ों शिवलिंग स्थापित किये और सीताजीका सब प्रकारके अलौकिक भोगोंसे अनुरंजन किया॥ २४—२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शशास रामो धर्मेण राज्यं परमधर्मवित्।
कथां संस्थापयामास सर्वलोकमलापहाम्॥ २८॥

मूलम्

शशास रामो धर्मेण राज्यं परमधर्मवित्।
कथां संस्थापयामास सर्वलोकमलापहाम्॥ २८॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार परमधार्मिक भगवान् राम धर्मपूर्वक राज्यशासन करते रहे और उन्होंने सम्पूर्ण लोकोंके पाप दूर करनेवाली अपनी पवित्र कीर्ति-कथा संसारमें स्थापित की॥ २८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दशवर्षसहस्राणि मायामानुषविग्रहः।
चकार राज्यं विधिवल्लोकवन्द्यपदाम्बुजः॥ २९॥

मूलम्

दशवर्षसहस्राणि मायामानुषविग्रहः।
चकार राज्यं विधिवल्लोकवन्द्यपदाम्बुजः॥ २९॥

अनुवाद (हिन्दी)

तीनों लोक जिनके चरणकमलोंकी वन्दना करते हैं, उन माया-मानव-शरीरधारी श्रीरामचन्द्रजीने विधिपूर्वक दस हजार वर्ष राज्य किया॥ २९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकपत्नीव्रतो रामो राजर्षिः सर्वदा शुचिः।
गृहमेधीयमखिलमाचरन् शिक्षयन् जनान्॥ ३०॥

मूलम्

एकपत्नीव्रतो रामो राजर्षिः सर्वदा शुचिः।
गृहमेधीयमखिलमाचरन् शिक्षयन् जनान्॥ ३०॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजर्षि भगवान् राम एकपत्नीव्रतका पालन करनेवाले थे। वे पवित्र-चरित्र रामजी लोगोंको शिक्षा देते हुए गृहस्थाश्रमके समस्त धर्मोंका पालन करते रहे॥ ३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सीता प्रेम्णानुवृत्त्या च प्रश्रयेण दमेन च।
भर्तुर्मनोहरा साध्वी भावज्ञा सा ह्रिया भिया॥ ३१॥

मूलम्

सीता प्रेम्णानुवृत्त्या च प्रश्रयेण दमेन च।
भर्तुर्मनोहरा साध्वी भावज्ञा सा ह्रिया भिया॥ ३१॥

अनुवाद (हिन्दी)

साध्वी सीताजी भी उनके हृदयका रुख परखनेवाली थीं। उन्होंने अपने प्रेम, आज्ञापालन, नम्रता, इन्द्रियसंयम, लज्जा और भीरुता आदि गुणोंसे पतिका मन हर लिया था॥ ३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकदा क्रीडाविपिने सर्वभोगसमन्विते।
एकान्ते दिव्यभवने सुखासीनं रघूत्तमम्॥ ३२॥
नीलमाणिक्यसंकाशं दिव्याभरणभूषितम्।
प्रसन्नवदनं शान्तं विद्युत्पुञ्जनिभाम्बरम्॥ ३३॥
सीता कमलपत्राक्षी सर्वाभरणभूषिता।
राममाह कराभ्यां सा लालयन्ती पदाम्बुजे॥ ३४॥

मूलम्

एकदा क्रीडाविपिने सर्वभोगसमन्विते।
एकान्ते दिव्यभवने सुखासीनं रघूत्तमम्॥ ३२॥
नीलमाणिक्यसंकाशं दिव्याभरणभूषितम्।
प्रसन्नवदनं शान्तं विद्युत्पुञ्जनिभाम्बरम्॥ ३३॥
सीता कमलपत्राक्षी सर्वाभरणभूषिता।
राममाह कराभ्यां सा लालयन्ती पदाम्बुजे॥ ३४॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक दिन श्रीरघुनाथजी अपने क्रीडावनके सम्पूर्ण भोगोंसे सम्पन्न भवनमें एकान्तमें सुखपूर्वक बैठे थे। उनके शरीरकी आभा नीलमणिके समान थी, वे दिव्य भूषणोंसे भूषित थे, उनका मुख प्रसन्न और भाव गम्भीर था तथा वे विद्युत्पुंजके समान देदीप्यमान पीताम्बर धारण किये थे। उस समय सर्वालंकारसुसज्जिता कमलदललोचना श्रीसीताजीने अपने करकमलोंसे रघुनाथजीकी चरणसेवा करते हुए उनसे कहा—॥ ३२—३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवदेव जगन्नाथ परमात्मन् सनातन।
चिदानन्दादिमध्यान्तरहिताशेषकारण॥ ३५॥
देव देवाः समासाद्य मामेकान्तेऽब्रुवन्वचः।
बहुशोऽर्थयमानास्ते वैकुण्ठागमनं प्रति॥ ३६॥

मूलम्

देवदेव जगन्नाथ परमात्मन् सनातन।
चिदानन्दादिमध्यान्तरहिताशेषकारण॥ ३५॥
देव देवाः समासाद्य मामेकान्तेऽब्रुवन्वचः।
बहुशोऽर्थयमानास्ते वैकुण्ठागमनं प्रति॥ ३६॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘हे देवाधिदेव! हे जगन्नाथ! हे सनातन परमात्मन्! हे चिदानन्दस्वरूप! हे आदि, मध्य और अन्तसे रहित सबके कारण! हे देव! देवताओंने आकर मुझसे एकान्तमें बहुत कुछ प्रार्थना करते हुए आपके वैकुण्ठ पधारनेके विषयमें कहा है॥ ३५-३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वया समेतश्चिच्छक्त्या रामस्तिष्ठति भूतले।
विसृज्यास्मान्स्वकं धाम वैकुण्ठं च सनातनम्॥ ३७॥

मूलम्

त्वया समेतश्चिच्छक्त्या रामस्तिष्ठति भूतले।
विसृज्यास्मान्स्वकं धाम वैकुण्ठं च सनातनम्॥ ३७॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे कहते हैं कि ‘तुझ चिच्छक्तिसे युक्त होकर ही राम हम सबको और अपने सनातन स्थान वैकुण्ठको छोड़कर पृथिवीतलमें ठहरे हुए हैं॥ ३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आस्ते त्वया जगद्धात्रि रामः कमललोचनः।
अग्रतो याहि वैकुण्ठं त्वं तथा चेद्‍रघूत्तमः॥ ३८॥
आगमिष्यति वैकुण्ठं सनाथान्नः करिष्यति।
इति विज्ञापिताहं तैर्मया विज्ञापितो भवान्॥ ३९॥

मूलम्

आस्ते त्वया जगद्धात्रि रामः कमललोचनः।
अग्रतो याहि वैकुण्ठं त्वं तथा चेद्‍रघूत्तमः॥ ३८॥
आगमिष्यति वैकुण्ठं सनाथान्नः करिष्यति।
इति विज्ञापिताहं तैर्मया विज्ञापितो भवान्॥ ३९॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे जगद्धात्रि! कमलनयन राम सदा तेरे साथ ही रहते हैं। यदि तू पहले वैकुण्ठको चली जाय तो श्रीरघुनाथजी भी वहाँ आकर हमें सनाथ कर देंगे।’ मुझसे उन्होंने इस प्रकार कहा है सो मैंने आपको सुना दिया॥ ३८-३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद्युक्तं तत्कुरुष्वाद्य नाहमाज्ञापये प्रभो।
सीतायास्तद्वचः श्रुत्वा रामो ध्यात्वाब्रवीत्क्षणम्॥ ४०॥

मूलम्

यद्युक्तं तत्कुरुष्वाद्य नाहमाज्ञापये प्रभो।
सीतायास्तद्वचः श्रुत्वा रामो ध्यात्वाब्रवीत्क्षणम्॥ ४०॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे प्रभो! मेरा कोई आदेश तो है नहीं, अब आप जैसा उचित समझें वैसा करें। सीताजीके ये वचन सुनकर रघुनाथजीने कुछ देर सोचकर कहा—॥ ४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवि जानामि सकलं तत्रोपायं वदामि ते।
कल्पयित्वा मिषं देवि लोकवादं त्वदाश्रयम्॥ ४१॥
त्यजामि त्वां वने लोकवादाद्भीत इवापरः।
भविष्यतः कुमारौ द्वौ वाल्मीकेराश्रमान्तिके॥ ४२॥

मूलम्

देवि जानामि सकलं तत्रोपायं वदामि ते।
कल्पयित्वा मिषं देवि लोकवादं त्वदाश्रयम्॥ ४१॥
त्यजामि त्वां वने लोकवादाद्भीत इवापरः।
भविष्यतः कुमारौ द्वौ वाल्मीकेराश्रमान्तिके॥ ४२॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘देवि! मैं यह सब जानता हूँ। उसके लिये मैं तुम्हें उपाय बतलाता हूँ। मैं तुमसे सम्बन्ध रखनेवाले लोकापवादके मिषसे तुम्हें लोकनिन्दासे डरनेवाले अन्य पुरुषोंके समान वनमें त्याग दूँगा। वहाँ श्रीवाल्मीकिजीके आश्रमके पास तुम्हारे दो बालक होंगे॥ ४१-४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदानीं दृश्यते गर्भः पुनरागत्य मेऽन्तिकम्।
लोकानां प्रत्ययार्थं त्वं कृत्वा शपथमादरात्॥ ४३॥
भूमेर्विवरमात्रेण वैकुण्ठं यास्यसि द्रुतम्।
पश्चादहं गमिष्यामि एष एव सुनिश्चयः॥ ४४॥

मूलम्

इदानीं दृश्यते गर्भः पुनरागत्य मेऽन्तिकम्।
लोकानां प्रत्ययार्थं त्वं कृत्वा शपथमादरात्॥ ४३॥
भूमेर्विवरमात्रेण वैकुण्ठं यास्यसि द्रुतम्।
पश्चादहं गमिष्यामि एष एव सुनिश्चयः॥ ४४॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस समय तुम्हारे शरीरमें गर्भावस्थाके चिह्न दिखायी दे रहे हैं। (बालकोंके उत्पन्न होनेपर) तुम मेरे पास फिर आओगी और लोकोंकी प्रतीतिके लिये आदरपूर्वक शपथ करके तुरंत ही पृथिवीके (फटनेपर उसके) छिद्रद्वारा वैकुण्ठको चली जाओगी। पीछे मैं भी वहाँ आ जाऊँगा; बस अब यही निश्चय रहा’’॥ ४३-४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा तां विसृज्याथ रामो ज्ञानैकलक्षणः।
मन्त्रिभिर्मन्त्रतत्त्वज्ञैर्बलमुख्यैश्च संवृतः॥ ४५॥
तत्रोपविष्टं श्रीरामं सुहृदः पर्युपासत।
हास्यप्रौढकथासुज्ञा हासयन्तः स्थिता हरिम्॥ ४६॥

मूलम्

इत्युक्त्वा तां विसृज्याथ रामो ज्ञानैकलक्षणः।
मन्त्रिभिर्मन्त्रतत्त्वज्ञैर्बलमुख्यैश्च संवृतः॥ ४५॥
तत्रोपविष्टं श्रीरामं सुहृदः पर्युपासत।
हास्यप्रौढकथासुज्ञा हासयन्तः स्थिता हरिम्॥ ४६॥

अनुवाद (हिन्दी)

एकमात्र ज्ञानस्वरूप भगवान् रामने सीताजीसे ऐसा कह उन्हें अन्तःपुरको भेज दिया और स्वयं नीतिशास्त्रके जाननेवाले मन्त्रियों तथा मुख्य-मुख्य सेनापतियोंसे घिरकर वहाँ विराजमान हुए। सुहृद्‍गण वहाँ बैठे हुए रामकी परिचर्यामें लगे हुए थे और हास्योक्तिमें कुशल विदूषकगण उन्हें हँसा रहे थे॥ ४५-४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथाप्रसङ्गात्पप्रच्छ रामो विजयनामकम्।
पौरा जानपदा मे किं वदन्तीह शुभाशुभम्॥ ४७॥
सीतां वा मातरं वा मे भ्रातॄन् वा कैकयीमथ।
न भेतव्यं त्वया ब्रूहि शापितोऽसि ममोपरि॥ ४८॥

मूलम्

कथाप्रसङ्गात्पप्रच्छ रामो विजयनामकम्।
पौरा जानपदा मे किं वदन्तीह शुभाशुभम्॥ ४७॥
सीतां वा मातरं वा मे भ्रातॄन् वा कैकयीमथ।
न भेतव्यं त्वया ब्रूहि शापितोऽसि ममोपरि॥ ४८॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब भगवान् रामने प्रसंगवश विजय नामक एक दूतसे पूछा—‘‘मेरे, सीताके, मेरी माता और भाइयोंके अथवा कैकेयीके विषयमें पुरवासी लोग क्या कहते हैं? मैं तुम्हें अपनी शपथ कराता हूँ, तुम भय न करके सच-सच कहना’’॥ ४७-४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तः प्राह विजयो देव सर्वे वदन्ति ते।
कृतं सुदुष्करं सर्वं रामेण विदितात्मना॥ ४९॥

मूलम्

इत्युक्तः प्राह विजयो देव सर्वे वदन्ति ते।
कृतं सुदुष्करं सर्वं रामेण विदितात्मना॥ ४९॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् के इस प्रकार पूछनेपर विजयने कहा— ‘‘देव! सभी लोग कहते हैं कि आत्मज्ञानी महाराज रामने जो कार्य किये हैं वे सभी बड़े दुष्कर हैं॥ ४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किन्तु हत्वा दशग्रीवं सीतामाहृत्य राघवः।
अमर्षं पृष्ठतः कृत्वा स्वं वेश्म प्रत्यपादयत्॥ ५०॥

मूलम्

किन्तु हत्वा दशग्रीवं सीतामाहृत्य राघवः।
अमर्षं पृष्ठतः कृत्वा स्वं वेश्म प्रत्यपादयत्॥ ५०॥

अनुवाद (हिन्दी)

किन्तु उन्होंने रावणको मारकर सीताको बिना किसी प्रकारका सन्देह किये ही अपने साथ लाकर घर रख लिया (यह ठीक नहीं किया)॥ ५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कीदृशं हृदये तस्य सीतासम्भोगजं सुखम्।
या हृता विजनेऽरण्ये रावणेन दुरात्मना॥ ५१॥

मूलम्

कीदृशं हृदये तस्य सीतासम्भोगजं सुखम्।
या हृता विजनेऽरण्ये रावणेन दुरात्मना॥ ५१॥

अनुवाद (हिन्दी)

भला, जिस सीताको दुरात्मा रावणने निर्जन वनमें हर लिया था न जाने उसके साथ भोग भोगते हुए उन्हें क्या सुख मिलता है?॥ ५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्माकमपि दुष्कर्म योषितां मर्षणं भवेत्।
यादृग्भवति वै राजा तादृश्यो नियतं प्रजाः॥ ५२॥

मूलम्

अस्माकमपि दुष्कर्म योषितां मर्षणं भवेत्।
यादृग्भवति वै राजा तादृश्यो नियतं प्रजाः॥ ५२॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब हमें भी अपनी स्त्रियोंके दुश्चरित्रको सहन करना पड़ेगा, क्योंकि जैसा राजा होता है प्रजा भी निस्सन्देह वैसी ही होती है’’॥ ५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वा तद्वचनं रामः स्वजनान् पर्यपृच्छत।
तेऽपि नत्वाब्रुवन् राममेवमेतन्न संशयः॥ ५३॥

मूलम्

श्रुत्वा तद्वचनं रामः स्वजनान् पर्यपृच्छत।
तेऽपि नत्वाब्रुवन् राममेवमेतन्न संशयः॥ ५३॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके ये वचन सुनकर श्रीरामचन्द्रजीने अपने आत्मीयोंसे पूछा। उन्होंने भी रघुनाथजीको प्रणाम करके यही कहा कि निस्सन्देह ऐसी ही बात है॥ ५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो विसृज्य सचिवान् विजयं सुहृदस्तथा।
आहूय लक्ष्मणं रामो वचनं चेदमब्रवीत्॥ ५४॥
लोकापवादस्तु महान् सीतामाश्रित्य मेऽभवत्।
सीतां प्रातः समानीय वाल्मीकेराश्रमान्तिके॥ ५५॥
त्यक्त्वा शीघ्रं रथेन त्वं पुनरायाहि लक्ष्मण।
वक्ष्यसे यदि वा किञ्चित्तदा मां हतवानसि॥ ५६॥

मूलम्

ततो विसृज्य सचिवान् विजयं सुहृदस्तथा।
आहूय लक्ष्मणं रामो वचनं चेदमब्रवीत्॥ ५४॥
लोकापवादस्तु महान् सीतामाश्रित्य मेऽभवत्।
सीतां प्रातः समानीय वाल्मीकेराश्रमान्तिके॥ ५५॥
त्यक्त्वा शीघ्रं रथेन त्वं पुनरायाहि लक्ष्मण।
वक्ष्यसे यदि वा किञ्चित्तदा मां हतवानसि॥ ५६॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब श्रीरामचन्द्रजीने मन्त्रीगण, विजय और अपने सुहृदोंको विदाकर श्रीलक्ष्मणजीको बुलाया और उनसे इस प्रकार कहने लगे—‘‘भैया लक्ष्मण! सीताके कारण मेरी बड़ी लोकनिन्दा हो रही है। अतः तुम कल सबेरे ही सीताको रथपर चढ़ाकर वाल्मीकि मुनिके आश्रमके समीप छोड़ आओ। इस विषयमें यदि तुम कुछ कहोगे तो मानो मेरी हत्या ही करोगे’’॥ ५४—५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तो लक्ष्मणो भीत्या प्रातरुत्थाय जानकीम्।
सुमन्त्रेण रथे कृत्वा जगाम सहसा वनम्॥ ५७॥

मूलम्

इत्युक्तो लक्ष्मणो भीत्या प्रातरुत्थाय जानकीम्।
सुमन्त्रेण रथे कृत्वा जगाम सहसा वनम्॥ ५७॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् की ऐसी आज्ञा पाकर लक्ष्मणजी डर गये। उन्होंने सबेरे उठते ही सुमन्त्रसे रथ जुड़वाया और उसमें जानकीजीको चढ़ाकर तुरंत वनको चल दिये॥ ५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वाल्मीकेराश्रमस्यान्ते त्यक्त्वा सीतामुवाच सः।
लोकापवादभीत्या त्वां त्यक्तवान् राघवो वने॥ ५८॥

मूलम्

वाल्मीकेराश्रमस्यान्ते त्यक्त्वा सीतामुवाच सः।
लोकापवादभीत्या त्वां त्यक्तवान् राघवो वने॥ ५८॥

अनुवाद (हिन्दी)

वाल्मीकि मुनिके आश्रमपर पहुँचते ही उन्होंने सीताको उतार दिया और उनसे कहा—‘‘रघुनाथजीने लोकापवादसे डरकर तुम्हें त्याग दिया है॥ ५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दोषो न कश्चिन्मे मातर्गच्छाश्रमपदं मुनेः।
इत्युक्त्वा लक्ष्मणः शीघ्रं गतवान् रामसन्निधिम्॥ ५९॥

मूलम्

दोषो न कश्चिन्मे मातर्गच्छाश्रमपदं मुनेः।
इत्युक्त्वा लक्ष्मणः शीघ्रं गतवान् रामसन्निधिम्॥ ५९॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे मातः! इसमें मेरा कोई दोष नहीं है, अब तुम मुनीश्वरके आश्रमपर चली जाओ।’’ सीताजीसे इस प्रकार कह लक्ष्मणजी तुरंत श्रीरामचन्द्रजीके पास चले आये॥ ५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सीतापि दुःखसन्तप्ता विललापातिमुग्धवत्।
शिष्यैः श्रुत्वा च वाल्मीकिः सीतां ज्ञात्वा स दिव्यदृक्॥ ६०॥

मूलम्

सीतापि दुःखसन्तप्ता विललापातिमुग्धवत्।
शिष्यैः श्रुत्वा च वाल्मीकिः सीतां ज्ञात्वा स दिव्यदृक्॥ ६०॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय सीताजी अत्यन्त दुःखातुरा होकर अति मूर्खा स्त्रियोंके समान विलाप करने लगीं। महर्षि वाल्मीकिने जब शिष्योंके मुखसे यह बात सुनी (कि एक स्त्री रो रही है) तो उन्होंने दिव्यदृष्टिसे जान लिया कि वह सीताजी ही हैं॥ ६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्घ्यादिभिः पूजयित्वा समाश्वास्य च जानकीम्।
ज्ञात्वा भविष्यं सकलमर्पयन्मुनियोषिताम्॥ ६१॥

मूलम्

अर्घ्यादिभिः पूजयित्वा समाश्वास्य च जानकीम्।
ज्ञात्वा भविष्यं सकलमर्पयन्मुनियोषिताम्॥ ६१॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनि भविष्यमें होनेवाली सब बातें जानते थे। अतः उन्होंने अर्घ्यादिसे सीताजीका पूजन किया और उन्हें समझा-बुझाकर मुनिपत्नियोंको सौंप दिया॥ ६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तास्तां सम्पूजयन्ति स्म सीतां भक्त्या दिने दिने।
ज्ञात्वा परात्मनो लक्ष्मीं मुनिवाक्येन योषितः।
सेवां चक्रुः सदा तस्या विनयादिभिरादरात्॥ ६२॥

मूलम्

तास्तां सम्पूजयन्ति स्म सीतां भक्त्या दिने दिने।
ज्ञात्वा परात्मनो लक्ष्मीं मुनिवाक्येन योषितः।
सेवां चक्रुः सदा तस्या विनयादिभिरादरात्॥ ६२॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे मुनिपत्नियाँ मुनीश्वरके कहनेसे उन्हें साक्षात् परमात्माकी भार्या लक्ष्मीजी जानकर नित्यप्रति भक्ति-भावसे उनकी पूजा करतीं और सदा ही अत्यन्त आदरसे नम्रतापूर्वक उनकी सेवा करती थीं॥ ६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामोऽपि सीतारहितः परात्मा
विज्ञानदृक्केवल आदिदेवः।
सन्त्यज्य भोगानखिलान्विरक्तो
मुनिव्रतोऽभून्मुनिसेविताङ्घ्रिः॥ ६३॥

मूलम्

रामोऽपि सीतारहितः परात्मा
विज्ञानदृक्केवल आदिदेवः।
सन्त्यज्य भोगानखिलान्विरक्तो
मुनिव्रतोऽभून्मुनिसेविताङ्घ्रिः॥ ६३॥

अनुवाद (हिन्दी)

इधर सीताजीको त्याग देनेपर जिनके चरणकमलोंका मुनिजन सेवन करते हैं वे विज्ञानचक्षु, अद्वितीय, आदिदेव परमात्मा राम भी समस्त भोगोंको छोड़कर वैराग्यपूर्वक मुनियोंके समान रहने लगे॥ ६३॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे उत्तरकाण्डे चतुर्थः सर्गः॥ ४॥