[तृतीय सर्ग]
भागसूचना
वाली और सुग्रीवका पूर्वचरित्र तथा रावण-सनत्कुमार-संवाद
मूलम् (वचनम्)
श्रीराम उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
वालिसुग्रीवयोर्जन्म श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः।
रवीन्द्रौ वानराकारौ जज्ञात इति नः श्रुतम्॥ १॥
मूलम्
वालिसुग्रीवयोर्जन्म श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः।
रवीन्द्रौ वानराकारौ जज्ञात इति नः श्रुतम्॥ १॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामचन्द्रजी बोले—हे मुने! मैं वाली और सुग्रीवके जन्मका यथावत् वृत्तान्त सुनना चाहता हूँ। मैंने सुना है कि ये इन्द्र और सूर्य ही वानररूपसे उत्पन्न हुए थे॥ १॥
मूलम् (वचनम्)
अगस्त्य उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरोः स्वर्णमयस्याद्रेर्मध्यशृङ्गे मणिप्रभे।
तस्मिन्सभास्ते विस्तीर्णा ब्रह्मणः शतयोजना॥ २॥
मूलम्
मेरोः स्वर्णमयस्याद्रेर्मध्यशृङ्गे मणिप्रभे।
तस्मिन्सभास्ते विस्तीर्णा ब्रह्मणः शतयोजना॥ २॥
अनुवाद (हिन्दी)
अगस्त्यजी बोले—हे राम! मेरुपर्वतके मणिके समान प्रकाशमान सुवर्णमय मध्यशिखरपर ब्रह्माजीकी सौ योजन विस्तारवाली सभा है॥ २॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यां चतुर्मुखः साक्षात् कदाचिद्योगमास्थितः।
नेत्राभ्यां पतितं दिव्यमानन्दसलिलं बहु॥ ३॥
मूलम्
तस्यां चतुर्मुखः साक्षात् कदाचिद्योगमास्थितः।
नेत्राभ्यां पतितं दिव्यमानन्दसलिलं बहु॥ ३॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसमें चतुर्मुख ब्रह्माजी किसी समय ध्यानस्थ हुए बैठे थे, उस समय उनके नेत्रोंसे बहुत-से दिव्य आनन्दाश्रु गिरे॥ ३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद्गृहीत्वा करे ब्रह्मा ध्यात्वा किञ्चित्तदत्यजत्।
भूमौ पतितमात्रेण तस्माज्जातो महाकपिः॥ ४॥
मूलम्
तद्गृहीत्वा करे ब्रह्मा ध्यात्वा किञ्चित्तदत्यजत्।
भूमौ पतितमात्रेण तस्माज्जातो महाकपिः॥ ४॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्हें अपने हाथमें लेकर ब्रह्माजीने कुछ चिन्तन कर पृथिवीपर डाल दिया। पृथिवीपर गिरते ही उनसे एक बहुत बड़ा वानर उत्पन्न हुआ॥ ४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमाह द्रुहिणो वत्स किञ्चित्कालं वसात्र मे।
समीपे सर्वशोभाढ्ये ततः श्रेयो भविष्यति॥ ५॥
मूलम्
तमाह द्रुहिणो वत्स किञ्चित्कालं वसात्र मे।
समीपे सर्वशोभाढ्ये ततः श्रेयो भविष्यति॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
उससे ब्रह्माजीने कहा—‘‘वत्स! तू कुछ समय यहाँ मेरे पास इस सर्वशोभासम्पन्न स्थानमें रह, इससे तेरा कल्याण होगा’’॥ ५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तो न्यवसत्तत्र ब्रह्मणा वानरोत्तमः।
एवं बहुतिथे काले गते ऋक्षाधिपः सुधीः॥ ६॥
कदाचित्पर्यटन्नद्रौ फलमूलार्थमुद्यतः।
अपश्यद्दिव्यसलिलां वापीं मणिशिलान्विताम्॥ ७॥
मूलम्
इत्युक्तो न्यवसत्तत्र ब्रह्मणा वानरोत्तमः।
एवं बहुतिथे काले गते ऋक्षाधिपः सुधीः॥ ६॥
कदाचित्पर्यटन्नद्रौ फलमूलार्थमुद्यतः।
अपश्यद्दिव्यसलिलां वापीं मणिशिलान्विताम्॥ ७॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्माजीके इस प्रकार कहनेपर वह वानरश्रेष्ठ वहीं रहने लगा। इस प्रकार बहुत समय बीत जानेपर एक दिन उस परम बुद्धिमान् ऋक्षराजने फल-मूलादिके लिये पर्वतपर घूमते-घूमते एक दिव्य जलपूर्ण और रत्नजटित शिलाओंसे सुशोभित बावड़ी देखी॥ ६-७॥
पादटिप्पनी
- यह उस वानरका नाम था।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पानीयं पातुमागच्छत्तत्रच्छायामयं कपिम्।
दृष्ट्वा प्रतिकपिं मत्वा निपपात जलान्तरे॥ ८॥
मूलम्
पानीयं पातुमागच्छत्तत्रच्छायामयं कपिम्।
दृष्ट्वा प्रतिकपिं मत्वा निपपात जलान्तरे॥ ८॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब वह वहाँ पानी पीनेके लिये गया तो उसने जलमें एक छायामय वानर देखा। उसे अपना प्रतिद्वन्द्वी वानर समझकर वह जलमें कूद पड़ा॥ ८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्रादृष्ट्वा हरिं शीघ्रं पुनरुत्प्लुत्य वानरः।
अपश्यत्सुन्दरीं रामामात्मानं विस्मयं गतः॥ ९॥
मूलम्
तत्रादृष्ट्वा हरिं शीघ्रं पुनरुत्प्लुत्य वानरः।
अपश्यत्सुन्दरीं रामामात्मानं विस्मयं गतः॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
किन्तु वहाँ कोई भी वानर न मिलनेपर वह तुरंत ही उछलकर बाहर निकल आया और अपनेको एक अति सुन्दरी रमणीके रूपमें देखकर बड़ा ही चकित हुआ॥ ९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सुरेशो देवेशं पूजयित्वा चतुर्मुखम्।
गच्छन्मध्याह्नसमये दृष्ट्वा नारीं मनोरमाम्॥ १०॥
कन्दर्पशरविद्धाङ्गस्त्यक्तवान् वीर्यमुत्तमम्।
तामप्राप्यैव तद्बीजं वालदेशेऽपतद्भुवि॥ ११॥
मूलम्
ततः सुरेशो देवेशं पूजयित्वा चतुर्मुखम्।
गच्छन्मध्याह्नसमये दृष्ट्वा नारीं मनोरमाम्॥ १०॥
कन्दर्पशरविद्धाङ्गस्त्यक्तवान् वीर्यमुत्तमम्।
तामप्राप्यैव तद्बीजं वालदेशेऽपतद्भुवि॥ ११॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय देवराज इन्द्र मध्याह्न कालमें ब्रह्माजीकी पूजा करके लौट रहे थे। उस परमसुन्दरी स्त्रीको देखकर वे कामदेवके बाणोंसे बिंध गये और उनका उत्तम वीर्य स्खलित हो गया। वह वीर्य उस स्त्रीको प्राप्त न होकर उसके बालोंको छूता हुआ पृथिवीपर गिर पड़ा॥ १०-११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाली समभवत्तत्र शक्रतुल्यपराक्रमः।
तस्य दत्त्वा सुरेशानः स्वर्णमालां दिवं गतः॥ १२॥
मूलम्
वाली समभवत्तत्र शक्रतुल्यपराक्रमः।
तस्य दत्त्वा सुरेशानः स्वर्णमालां दिवं गतः॥ १२॥
अनुवाद (हिन्दी)
उससे इन्द्रके समान पराक्रमी वालीका जन्म हुआ। देवराज इन्द्र उसे एक सुवर्णमयी माला देकर स्वर्गलोकको चले गये॥ १२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भानुरप्यागतस्तत्र तदानीमेव भामिनीम्।
दृष्ट्वा कामवशो भूत्वा ग्रीवादेशेऽसृजन्महत्॥ १३॥
बीजं तस्यास्ततः सद्यो महाकायोऽभवद्धरिः।
तस्य दत्त्वा हनूमन्तं सहायार्थं गतो रविः॥ १४॥
मूलम्
भानुरप्यागतस्तत्र तदानीमेव भामिनीम्।
दृष्ट्वा कामवशो भूत्वा ग्रीवादेशेऽसृजन्महत्॥ १३॥
बीजं तस्यास्ततः सद्यो महाकायोऽभवद्धरिः।
तस्य दत्त्वा हनूमन्तं सहायार्थं गतो रविः॥ १४॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसी समय वहाँ सूर्यदेव भी आये। उस सुन्दरीको देखकर वे कामवश हो गये तथा उसकी ग्रीवापर अपना उग्र वीर्य छोड़ा। उससे उसी समय एक बहुत बड़े शरीरवाला वानर उत्पन्न हुआ। सूर्यदेव उसकी सहायताके लिये उसे हनुमान् जी को देकर चले गये॥ १३-१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुत्रद्वयं समादाय गत्वा सा निद्रिता क्वचित्।
प्रभातेऽपश्यदात्मानं पूर्ववद्वानराकृतिम्॥ १५॥
मूलम्
पुत्रद्वयं समादाय गत्वा सा निद्रिता क्वचित्।
प्रभातेऽपश्यदात्मानं पूर्ववद्वानराकृतिम्॥ १५॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन दोनों पुत्रोंको लेकर वह स्त्री कहीं जाकर सो गयी। दूसरे दिन सबेरे (उठनेपर) उसने पहलेके समान अपनेको फिर वानररूप ही देखा॥ १५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
फलमूलादिभिः सार्धं पुत्राभ्यां सहितः कपिः।
नत्वा चतुर्मुखस्याग्रे ऋक्षराजः स्थितः सुधीः॥ १६॥
मूलम्
फलमूलादिभिः सार्धं पुत्राभ्यां सहितः कपिः।
नत्वा चतुर्मुखस्याग्रे ऋक्षराजः स्थितः सुधीः॥ १६॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर वह परम बुद्धिमान् ऋक्षराज फल-मूलादि लेकर अपने पुत्रोंके सहित ब्रह्माजीकी सभामें आया और उन्हें नमस्कार कर उनके आगे खड़ा हो गया॥ १६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽब्रवीत्समाश्वास्य बहुशः कपिकुञ्जरम्।
तत्रैकं देवतादूतमाहूयामरसन्निभम्॥ १७॥
मूलम्
ततोऽब्रवीत्समाश्वास्य बहुशः कपिकुञ्जरम्।
तत्रैकं देवतादूतमाहूयामरसन्निभम्॥ १७॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब ब्रह्माजीने उस वानर-वीरको बहुत कुछ समझाया और एक देवतुल्य देवदूतको बुलाकर उससे कहा—॥ १७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गच्छ दूत मयादिष्टो गृहीत्वा वानरोत्तमम्।
किष्किन्धां दिव्यनगरीं निर्मितां विश्वकर्मणा॥ १८॥
मूलम्
गच्छ दूत मयादिष्टो गृहीत्वा वानरोत्तमम्।
किष्किन्धां दिव्यनगरीं निर्मितां विश्वकर्मणा॥ १८॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘हे दूत! तू मेरी आज्ञासे इस वानरश्रेष्ठको लेकर विश्वकर्माकी बनायी हुई किष्किन्धा नामकी दिव्य पुरीको जा॥ १८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वसौभाग्यवलितां देवैरपि दुरासदाम्।
तस्यां सिंहासने वीरं राजानमभिषेचय॥ १९॥
मूलम्
सर्वसौभाग्यवलितां देवैरपि दुरासदाम्।
तस्यां सिंहासने वीरं राजानमभिषेचय॥ १९॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह सम्पूर्ण ऐश्वर्यसे सम्पन्न है और देवताओंके लिये भी दुर्जय है। उसके सिंहासनपर इस वीरका राज्याभिषेक कर दे॥ १९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सप्तद्वीपगता ये ये वानराः सन्ति दुर्जयाः।
सर्वे ते ऋक्षराजस्य भविष्यन्ति वशेऽनुगाः॥ २०॥
मूलम्
सप्तद्वीपगता ये ये वानराः सन्ति दुर्जयाः।
सर्वे ते ऋक्षराजस्य भविष्यन्ति वशेऽनुगाः॥ २०॥
अनुवाद (हिन्दी)
सातों द्वीपोंमें जो-जो बड़े दुर्जय वानर-वीर हैं वे सब ऋक्षराजके अधीन रहेंगे॥ २०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा नारायणः साक्षाद्रामो भूत्वा सनातनः।
भूभारासुरनाशाय सम्भविष्यति भूतले॥ २१॥
तदा सर्वे सहायार्थे तस्य गच्छन्तु वानराः।
इत्युक्तो ब्रह्मणा दूतो देवानां स महामतिः॥ २२॥
यथाज्ञप्तस्तथा चक्रे ब्रह्मणा तं हरीश्वरम्।
देवदूतस्ततो गत्वा ब्रह्मणे तन्न्यवेदयत् ॥ २३॥
तदादि वानराणां सा किष्किन्धाभून्नृपाश्रयः॥ २४॥
मूलम्
यदा नारायणः साक्षाद्रामो भूत्वा सनातनः।
भूभारासुरनाशाय सम्भविष्यति भूतले॥ २१॥
तदा सर्वे सहायार्थे तस्य गच्छन्तु वानराः।
इत्युक्तो ब्रह्मणा दूतो देवानां स महामतिः॥ २२॥
यथाज्ञप्तस्तथा चक्रे ब्रह्मणा तं हरीश्वरम्।
देवदूतस्ततो गत्वा ब्रह्मणे तन्न्यवेदयत् ॥ २३॥
तदादि वानराणां सा किष्किन्धाभून्नृपाश्रयः॥ २४॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस समय साक्षात् सनातन पुरुष नारायणदेव पृथिवीका भार उतारनेके लिये भूलोकमें रामरूपसे अवतीर्ण हों उस समय समस्त वानरगण उनकी सहायताके लिये जायँ!’’ ब्रह्माजीके इस प्रकार कहनेपर उस महाबुद्धिमान् देवदूतने जिस प्रकार उनकी आज्ञा हुई थी उसी प्रकार उस वानरराजकी सब व्यवस्था कर दी और फिर ब्रह्माजीके पास जाकर उन्हें सब समाचार सुना दिया। तबसे वह किष्किन्धापुरी वानरोंकी राजधानी हो गयी॥ २१—२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वेश्वरस्त्वमेवासीरिदानीं ब्रह्मणार्थितः।
भूमेर्भारो हृतः कृत्स्नस्त्वया लीलानृदेहिना।
सर्वभूतान्तरस्थस्य नित्यमुक्तचिदात्मनः॥ २५॥
अखण्डानन्तरूपस्य कियानेष पराक्रमः।
तथापि वर्ण्यते सद्भिर्लीलामानुषरूपिणः॥ २६॥
यशस्ते सर्वलोकानां पापहत्यै सुखाय च।
य इदं कीर्तयेन्मर्त्यो वालिसुग्रीवयोर्महत्॥ २७॥
जन्म त्वदाश्रयत्वात्स मुच्यते सर्वपातकैः॥ २८॥
मूलम्
सर्वेश्वरस्त्वमेवासीरिदानीं ब्रह्मणार्थितः।
भूमेर्भारो हृतः कृत्स्नस्त्वया लीलानृदेहिना।
सर्वभूतान्तरस्थस्य नित्यमुक्तचिदात्मनः॥ २५॥
अखण्डानन्तरूपस्य कियानेष पराक्रमः।
तथापि वर्ण्यते सद्भिर्लीलामानुषरूपिणः॥ २६॥
यशस्ते सर्वलोकानां पापहत्यै सुखाय च।
य इदं कीर्तयेन्मर्त्यो वालिसुग्रीवयोर्महत्॥ २७॥
जन्म त्वदाश्रयत्वात्स मुच्यते सर्वपातकैः॥ २८॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राम! आप सबके स्वामी हैं। ब्रह्माजीकी प्रार्थनासे अब माया-मानव-रूप धारण कर आपने पृथिवीका सब भार उतार दिया। जो सब भूतोंके भीतर विराजमान नित्यमुक्त और चेतनस्वरूप हैं उन अखण्ड और अनन्तरूप आपके लिये यह ऐसा कौन बड़ा पराक्रम है? तथापि सम्पूर्ण लोकोंके पापोंका नाश करनेके लिये और उन्हें सुख देनेके लिये साधुजन आप माया-मानुष-रूप भगवान् का सुयश वर्णन करते ही हैं। जो मनुष्य वाली और सुग्रीवके इस महान् चरित्रका कीर्तन करेगा वह आपके आश्रित होनेके कारण सब पापोंसे छूट जायगा॥ २५—२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथान्यां सम्प्रवक्ष्यामि कथां राम त्वदाश्रयाम्।
सीता हृता यदर्थं सा रावणेन दुरात्मना॥ २९॥
मूलम्
अथान्यां सम्प्रवक्ष्यामि कथां राम त्वदाश्रयाम्।
सीता हृता यदर्थं सा रावणेन दुरात्मना॥ २९॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राम! अब आपसे सम्बन्ध रखनेवाली एक वह कथा और सुनाता हूँ जिस कारण कि दुरात्मा रावणने सीताजीको हरा था॥ २९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरा कृतयुगे राम प्रजापतिसुतं विभुम्।
सनत्कुमारमेकान्ते समासीनं दशाननः।
विनयावनतो भूत्वा ह्यभिवाद्येदमब्रवीत्॥ ३०॥
मूलम्
पुरा कृतयुगे राम प्रजापतिसुतं विभुम्।
सनत्कुमारमेकान्ते समासीनं दशाननः।
विनयावनतो भूत्वा ह्यभिवाद्येदमब्रवीत्॥ ३०॥
अनुवाद (हिन्दी)
पहले एक बार रावणने एकान्तमें बैठे हुए ब्रह्माजीके पुत्र श्रीसनत्कुमारजीसे अति नम्रतापूर्वक प्रणाम करके कहा—॥ ३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
को न्वस्मिन्प्रवरो लोके देवानां बलवत्तरः।
देवाश्च यं समाश्रित्य युद्धे शत्रुं जयन्ति हि॥ ३१॥
मूलम्
को न्वस्मिन्प्रवरो लोके देवानां बलवत्तरः।
देवाश्च यं समाश्रित्य युद्धे शत्रुं जयन्ति हि॥ ३१॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘जिसका आश्रय पाकर देवगण संग्राममें शत्रुको जीतते हैं इस संसारमें सब देवताओंमें श्रेष्ठ और अधिक बलवान् वह कौन देव है?॥ ३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कं यजन्ति द्विजा नित्यं कं ध्यायन्ति च योगिनः।
एतन्मे शंस भगवन् प्रश्नं प्रश्नविदांवर॥ ३२॥
मूलम्
कं यजन्ति द्विजा नित्यं कं ध्यायन्ति च योगिनः।
एतन्मे शंस भगवन् प्रश्नं प्रश्नविदांवर॥ ३२॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणगण किसका पूजन करते हैं और योगीगण किसका ध्यान धरते हैं? भगवन्! आप सब प्रकारके प्रश्नोंका उत्तर जाननेवालोंमें श्रेष्ठ हैं, अतः मेरे इस प्रश्नका उत्तर दीजिये’’॥ ३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञात्वा तस्य हृदिस्थं यत्तदशेषेण योगदृक्।
दशाननमुवाचेदं शृणु वक्ष्यामि पुत्रक॥ ३३॥
मूलम्
ज्ञात्वा तस्य हृदिस्थं यत्तदशेषेण योगदृक्।
दशाननमुवाचेदं शृणु वक्ष्यामि पुत्रक॥ ३३॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् सनत्कुमारने योगदृष्टिसे रावणके अन्तःकरणकी सब बात जानकर उससे कहा—‘‘वत्स! मैं तुम्हारे प्रश्नका उत्तर देता हूँ, सुनो॥ ३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भर्ता यो जगतां नित्यं यस्य जन्मादिकं न हि।
सुरासुरैर्नुतो नित्यं हरिर्नारायणोऽव्ययः॥ ३४॥
मूलम्
भर्ता यो जगतां नित्यं यस्य जन्मादिकं न हि।
सुरासुरैर्नुतो नित्यं हरिर्नारायणोऽव्ययः॥ ३४॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सर्वदा सम्पूर्ण संसारका पोषण करनेवाले हैं, जिनके जन्म-मृत्यु आदि नहीं होते, जो देवता और दैत्योंसे सदा वन्दित अविनाशी नारायण श्रीहरि कहलाते हैं॥ ३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यन्नाभिपङ्कजाज्जातो ब्रह्मा विश्वसृजां पतिः।
सृष्टं येनैव सकलं जगत्स्थावरजङ्गमम्॥ ३५॥
तं समाश्रित्य विबुधा जयन्ति समरे रिपून्।
योगिनो ध्यानयोगेन तमेवानुजपन्ति हि॥ ३६॥
मूलम्
यन्नाभिपङ्कजाज्जातो ब्रह्मा विश्वसृजां पतिः।
सृष्टं येनैव सकलं जगत्स्थावरजङ्गमम्॥ ३५॥
तं समाश्रित्य विबुधा जयन्ति समरे रिपून्।
योगिनो ध्यानयोगेन तमेवानुजपन्ति हि॥ ३६॥
अनुवाद (हिन्दी)
सृष्टि-कर्ताओंके स्वामी श्रीब्रह्माजी भी जिनके नाभिकमलसे उत्पन्न हुए हैं तथा जिन्होंने यह स्थावर-जंगमरूप सारा संसार भी रचा है उन्हींके आश्रयसे देवगण संग्राममें शत्रुओंको जीतते हैं तथा योगिजन भी ध्यानयोगके द्वारा उन्हींका जप करते हैं’’॥ ३५-३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महर्षेर्वचनं श्रुत्वा प्रत्युवाच दशाननः।
दैत्यदानवरक्षांसि विष्णुना निहतानि च॥ ३७॥
कां वा गतिं प्रपद्यन्ते प्रेत्य ते मुनिपुङ्गव।
तमुवाच मुनिश्रेष्ठो रावणं राक्षसाधिपम्॥ ३८॥
मूलम्
महर्षेर्वचनं श्रुत्वा प्रत्युवाच दशाननः।
दैत्यदानवरक्षांसि विष्णुना निहतानि च॥ ३७॥
कां वा गतिं प्रपद्यन्ते प्रेत्य ते मुनिपुङ्गव।
तमुवाच मुनिश्रेष्ठो रावणं राक्षसाधिपम्॥ ३८॥
अनुवाद (हिन्दी)
महर्षि सनत्कुमारके ये वचन सुनकर रावणने फिर पूछा—‘‘हे मुनिश्रेष्ठ! उन विष्णुभगवान् द्वारा मारे हुए दैत्य, दानव और राक्षसगण मरकर किस गतिको प्राप्त होते हैं?’’ तब मुनिवर सनत्कुमारने राक्षसराज रावणसे कहा—॥ ३७-३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दैवतैर्निहता नित्यं गत्वा स्वर्गमनुत्तमम्।
भोगक्षये पुनस्तस्माद् भ्रष्टा भूमौ भवन्ति ते॥ ३९॥
मूलम्
दैवतैर्निहता नित्यं गत्वा स्वर्गमनुत्तमम्।
भोगक्षये पुनस्तस्माद् भ्रष्टा भूमौ भवन्ति ते॥ ३९॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘अन्य साधारण देवताओंके हाथसे मरकर तो वे अति उत्तम स्वर्गलोकको ही जाते हैं और अपना भोग क्षीण होनेपर वहाँसे गिरकर फिर भूर्लोकमें उत्पन्न होते हैं॥ ३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूर्वार्जितैः पुण्यपापैर्म्रियन्ते चोद्भवन्ति च।
विष्णुना ये हतास्ते तु प्राप्नुवन्ति हरेर्गतिम्॥ ४०॥
मूलम्
पूर्वार्जितैः पुण्यपापैर्म्रियन्ते चोद्भवन्ति च।
विष्णुना ये हतास्ते तु प्राप्नुवन्ति हरेर्गतिम्॥ ४०॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर पूर्वजन्मोंमें किये हुए अपने पाप-पुण्योंके अनुसार जन्मते-मरते रहते हैं, किन्तु जो भगवान् विष्णुके हाथसे मारे जाते हैं वे तो विष्णुपद ही प्राप्त कर लेते हैं’’॥ ४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वा मुनिमुखात्सर्वं रावणो हृष्टमानसः।
योत्स्येऽहं हरिणा सार्धमिति चिन्तापरोऽभवत्॥ ४१॥
मूलम्
श्रुत्वा मुनिमुखात्सर्वं रावणो हृष्टमानसः।
योत्स्येऽहं हरिणा सार्धमिति चिन्तापरोऽभवत्॥ ४१॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीसनत्कुमारजीके मुखसे ये सब बातें सुनकर रावण मन-ही-मन अति प्रसन्न हुआ और वह सोचने लगा कि मैं श्रीहरिके साथ अवश्य युद्ध करूँगा॥ ४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनःस्थितं परिज्ञाय रावणस्य महामुनिः।
उवाच वत्स तेऽभीष्टं भविष्यति न संशयः॥ ४२॥
कञ्चित्कालं प्रतीक्षस्व सुखी भव दशानन।
एवमुक्त्वा महाबाहो मुनिः पुनरुवाच तम्॥ ४३॥
मूलम्
मनःस्थितं परिज्ञाय रावणस्य महामुनिः।
उवाच वत्स तेऽभीष्टं भविष्यति न संशयः॥ ४२॥
कञ्चित्कालं प्रतीक्षस्व सुखी भव दशानन।
एवमुक्त्वा महाबाहो मुनिः पुनरुवाच तम्॥ ४३॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुनिवरने रावणके चित्तकी बात जानकर कहा—‘‘वत्स! इसमें सन्देह नहीं तेरी इच्छा अवश्य सफल होगी। हे दशानन! अभी चैनसे रह, कुछ काल और प्रतीक्षा कर’’। हे महाबाहो रघुनाथजी! रावणसे ऐसा कह मुनि उससे फिर बोले—॥ ४२-४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य स्वरूपं वक्ष्यामि ह्यरूपस्यापि मायिनः।
स्थावरेषु च सर्वेषु नदेषु च नदीषु च॥ ४४॥
मूलम्
तस्य स्वरूपं वक्ष्यामि ह्यरूपस्यापि मायिनः।
स्थावरेषु च सर्वेषु नदेषु च नदीषु च॥ ४४॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘रावण! वे रूपरहित हैं, तथापि मैं तुझे उन मायावीके (मायासे धारण किये हुए) रूप बतलाता हूँ। वे नद और नदी आदि समस्त स्थावरोंमें व्याप्त हैं॥ ४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ओङ्कारश्चैव सत्यं च सावित्री पृथिवी च सः।
समस्तजगदाधारः शेषरूपधरो हि सः॥ ४५॥
मूलम्
ओङ्कारश्चैव सत्यं च सावित्री पृथिवी च सः।
समस्तजगदाधारः शेषरूपधरो हि सः॥ ४५॥
अनुवाद (हिन्दी)
ओंकार, सत्य, सावित्री, पृथ्वी तथा सम्पूर्ण जगत् के आधार शेषनाग भी वे ही हैं॥ ४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वे देवाः समुद्राश्च कालः सूर्यश्च चन्द्रमाः।
सूर्योदयो दिवारात्री यमश्चैव तथानिलः॥ ४६॥
अग्निरिन्द्रस्तथा मृत्युः पर्जन्यो वसवस्तथा।
ब्रह्मा रुद्रादयश्चैव ये चान्ये देवदानवाः॥ ४७॥
मूलम्
सर्वे देवाः समुद्राश्च कालः सूर्यश्च चन्द्रमाः।
सूर्योदयो दिवारात्री यमश्चैव तथानिलः॥ ४६॥
अग्निरिन्द्रस्तथा मृत्युः पर्जन्यो वसवस्तथा।
ब्रह्मा रुद्रादयश्चैव ये चान्ये देवदानवाः॥ ४७॥
अनुवाद (हिन्दी)
सम्पूर्ण देवगण, समुद्र, काल, सूर्य, चन्द्रमा, सूर्योदय, दिन, रात्रि, यम, वायु, अग्नि, इन्द्र, मृत्यु, मेघ, वसुगण, ब्रह्मा और रुद्र आदि तथा और भी जितने देव या दानव हैं वे सब भी उन्हींके रूप हैं॥ ४६-४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विद्योतते ज्वलत्येष पाति चात्तीति विश्वकृत्।
क्रीडां करोत्यव्ययात्मा सोऽयं विष्णुः सनातनः॥ ४८॥
मूलम्
विद्योतते ज्वलत्येष पाति चात्तीति विश्वकृत्।
क्रीडां करोत्यव्ययात्मा सोऽयं विष्णुः सनातनः॥ ४८॥
अनुवाद (हिन्दी)
सम्पूर्ण विश्वको रचनेवाले वे सनातन विष्णुभगवान् निर्विकार होकर भी (अपनी मायाके आश्रयसे) नाना प्रकारकी लीलाएँ करते हैं। वे (विद्युत् होकर) चमकते हैं, (अग्नि होकर) प्रज्वलित होते हैं, (विष्णुरूपसे) रक्षा करते हैं और (रुद्ररूपसे) सबको भक्षण कर जाते हैं॥ ४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेन सर्वमिदं व्याप्तं त्रैलोक्यं सचराचरम्।
नीलोत्पलदलश्यामो विद्युद्वर्णाम्बरावृतः॥ ४९॥
मूलम्
तेन सर्वमिदं व्याप्तं त्रैलोक्यं सचराचरम्।
नीलोत्पलदलश्यामो विद्युद्वर्णाम्बरावृतः॥ ४९॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह स्थावर-जंगम सम्पूर्ण त्रिलोकी एकमात्र उन्हींसे व्याप्त है। वे नीलकमलदलके समान श्यामवर्ण और बिजलीकी-सी आभावाला पीताम्बर धारण किये हुए हैं॥ ४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुद्धजाम्बूनदप्रख्यां श्रियं वामाङ्कसंस्थिताम्।
सदानपायिनीं देवीं पश्यन्नालिङ्ग्य तिष्ठति॥ ५०॥
मूलम्
शुद्धजाम्बूनदप्रख्यां श्रियं वामाङ्कसंस्थिताम्।
सदानपायिनीं देवीं पश्यन्नालिङ्ग्य तिष्ठति॥ ५०॥
अनुवाद (हिन्दी)
तथा अपने वाम भागमें बैठी हुई शुद्ध सुवर्णकी-सी कान्तिवाली, कभी नष्ट न होनेवाली भगवती लक्ष्मीजीकी ओर निहारते हुए उन्हें आलिंगन किये विराजमान हैं॥ ५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रष्टुं न शक्यते कैश्चिद्देवदानवपन्नगैः।
यस्य प्रसादं कुरुते स चैनं द्रष्टुमर्हति॥ ५१॥
मूलम्
द्रष्टुं न शक्यते कैश्चिद्देवदानवपन्नगैः।
यस्य प्रसादं कुरुते स चैनं द्रष्टुमर्हति॥ ५१॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे किसी भी देव, दानव या नागसे देखे नहीं जा सकते, जिसपर उनकी प्रसन्नता होती है वही उनका दर्शन कर सकता है॥ ५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न च यज्ञतपोभिर्वा न दानाध्ययनादिभिः।
शक्यते भगवान् द्रष्टुमुपायैरितरैरपि॥ ५२॥
मूलम्
न च यज्ञतपोभिर्वा न दानाध्ययनादिभिः।
शक्यते भगवान् द्रष्टुमुपायैरितरैरपि॥ ५२॥
अनुवाद (हिन्दी)
यज्ञ, तप, दान, अध्ययन अथवा और किसी भी उपायसे भगवान् नहीं देखे जा सकते॥ ५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद्भक्तैस्तद्गतप्राणैस्तच्चित्तैर्धूतकल्मषैः।
शक्यते भगवान् विष्णुर्वेदान्तामलदृष्टिभिः॥ ५३॥
मूलम्
तद्भक्तैस्तद्गतप्राणैस्तच्चित्तैर्धूतकल्मषैः।
शक्यते भगवान् विष्णुर्वेदान्तामलदृष्टिभिः॥ ५३॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो उनके भक्त हैं, जिनके प्राण और मन उन्हींमें लगे रहते हैं तथा वेदान्त-विचारसे जिनकी दृष्टि मलहीन हो गयी है उन निष्पाप महात्माओंको ही भगवान् विष्णुके दर्शन हो सकते हैं॥ ५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथवा द्रष्टुमिच्छा ते शृणु त्वं परमेश्वरम्।
त्रेतायुगे स देवेशो भविता नृपविग्रहः॥ ५४॥
हितार्थं देवमर्त्यानामिक्ष्वाकूणां कुले हरिः।
रामो दाशरथिर्भूत्वा महासत्त्वपराक्रमः॥ ५५॥
मूलम्
अथवा द्रष्टुमिच्छा ते शृणु त्वं परमेश्वरम्।
त्रेतायुगे स देवेशो भविता नृपविग्रहः॥ ५४॥
हितार्थं देवमर्त्यानामिक्ष्वाकूणां कुले हरिः।
रामो दाशरथिर्भूत्वा महासत्त्वपराक्रमः॥ ५५॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब यदि तुझे भी (बिना किसी उपायके ही) उन परमेश्वरके दर्शनोंकी इच्छा है तो सुन—वे देवाधिदेव श्रीहरि त्रेतायुगमें देव और मनुष्योंके कल्याणके लिये, राजवेषसे, इक्ष्वाकुके वंशमें दशरथजीके पुत्र महावीर और पराक्रमी भगवान् राम होकर अवतीर्ण होंगे॥ ५४-५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पितुर्नियोगात्स भ्रात्रा भार्यया दण्डके वने।
विचरिष्यति धर्मात्मा जगन्मात्रा स्वमायया॥ ५६॥
मूलम्
पितुर्नियोगात्स भ्रात्रा भार्यया दण्डके वने।
विचरिष्यति धर्मात्मा जगन्मात्रा स्वमायया॥ ५६॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे परम धार्मिक रघुनाथजी पिताकी आज्ञासे अपने भाई (लक्ष्मण) और अपनी स्त्री जगज्जननी मायाके सहित दण्डक वनमें विचरेंगे॥ ५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं ते सर्वमाख्यातं मया रावण विस्तरात्।
भजस्व भक्तिभावेन सदा रामं श्रिया युतम्॥ ५७॥
मूलम्
एवं ते सर्वमाख्यातं मया रावण विस्तरात्।
भजस्व भक्तिभावेन सदा रामं श्रिया युतम्॥ ५७॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे रावण! इस प्रकार यह सारा तत्त्व मैंने तुझे विस्तारसे सुना दिया। अब तू लक्ष्मीजीसहित भगवान् रामका सदा भक्तिपूर्वक भजन कर’’॥ ५७॥
मूलम् (वचनम्)
अगस्त्य उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं श्रुत्वासुराध्यक्षो ध्यात्वा किञ्चिद्विचार्य च।
त्वया सह विरोधेप्सुर्मुमुदे रावणो महान्॥ ५८॥
मूलम्
एवं श्रुत्वासुराध्यक्षो ध्यात्वा किञ्चिद्विचार्य च।
त्वया सह विरोधेप्सुर्मुमुदे रावणो महान्॥ ५८॥
अनुवाद (हिन्दी)
अगस्त्यजी बोले—हे राम! यह सुनकर राक्षसराज रावणने कुछ देर सोच-विचार करनेके अनन्तर आपके साथ विरोध करना निश्चित किया और ऐसा निश्चयकर वह मन-ही-मन बड़ा प्रसन्न हुआ॥ ५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युद्धार्थी सर्वतो लोकान् पर्यटन् समवस्थितः।
एतदर्थं महाराज रावणोऽतीव बुद्धिमान्।
हृतवान् जानकीं देवीं त्वयात्मवधकाङ्क्षया॥ ५९॥
मूलम्
युद्धार्थी सर्वतो लोकान् पर्यटन् समवस्थितः।
एतदर्थं महाराज रावणोऽतीव बुद्धिमान्।
हृतवान् जानकीं देवीं त्वयात्मवधकाङ्क्षया॥ ५९॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह युद्धकी इच्छासे सम्पूर्ण लोकोंमें घूमने लगा। हे महाराज! आपके हाथसे मारे जानेकी इच्छासे ही महाबुद्धिमान् रावणने देवी जानकीजीको चुरा लिया था॥ ५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इमां कथां यः शृणुयात्पठेद्वा
संश्रावयेद्वा श्रवणार्थिनां सदा।
आयुष्यमारोग्यमनन्तसौख्यं
प्राप्नोति लाभं धनमक्षयं च॥ ६०॥
मूलम्
इमां कथां यः शृणुयात्पठेद्वा
संश्रावयेद्वा श्रवणार्थिनां सदा।
आयुष्यमारोग्यमनन्तसौख्यं
प्राप्नोति लाभं धनमक्षयं च॥ ६०॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो पुरुष इस कथाको सुने या पढ़ेगा अथवा सुननेकी इच्छावालोंको सदा सुनावेगा वह दीर्घ आयु, आरोग्य, अनन्तसुख, इच्छित लाभ और अक्षय धन प्राप्त करेगा॥ ६०॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे उत्तरकाण्डे तृतीयः सर्गः॥ ३॥