[द्वितीय सर्ग]
भागसूचना
राक्षसोंके राज्यस्थापनका विवरण
मूलम् (वचनम्)
श्रीमहादेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रीरामवचनं श्रुत्वा परमानन्दनिर्भरः।
मुनिः प्रोवाच सदसि सर्वेषां तत्र शृण्वताम्॥ १॥
मूलम्
श्रीरामवचनं श्रुत्वा परमानन्दनिर्भरः।
मुनिः प्रोवाच सदसि सर्वेषां तत्र शृण्वताम्॥ १॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमहादेवजी बोले—हे पार्वति! रघुनाथजीके ये वचन सुनकर अगस्त्य मुनि अत्यन्त आनन्दसे भर गये और उस सभामें सबके सुनते हुए फिर कहने लगे—॥ १॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ वित्तेश्वरो देवस्तत्र कालेन केनचित्।
आययौ पुष्पकारूढः पितरं द्रष्टुमञ्जसा॥ २॥
मूलम्
अथ वित्तेश्वरो देवस्तत्र कालेन केनचित्।
आययौ पुष्पकारूढः पितरं द्रष्टुमञ्जसा॥ २॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘हे राम! किसी समय धनपति कुबेरजी अकस्मात् अपने पितासे मिलनेके लिये पुष्पक विमानपर चढ़कर आये॥ २॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वा तं कैकसी तत्र भ्राजमानं महौजसम्।
राक्षसी पुत्रसामीप्यं गत्वा रावणमब्रवीत्॥ ३॥
मूलम्
दृष्ट्वा तं कैकसी तत्र भ्राजमानं महौजसम्।
राक्षसी पुत्रसामीप्यं गत्वा रावणमब्रवीत्॥ ३॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब राक्षसी कैकसीने महातेजस्वी कुबेरको पिताके पास विराजमान देखा तो वह अपने पुत्र रावणके पास जाकर बोली—॥ ३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुत्र पश्य धनाध्यक्षं ज्वलन्तं स्वेन तेजसा।
त्वमप्येवं यथा भूयास्तथा यत्नं कुरु प्रभो॥ ४॥
मूलम्
पुत्र पश्य धनाध्यक्षं ज्वलन्तं स्वेन तेजसा।
त्वमप्येवं यथा भूयास्तथा यत्नं कुरु प्रभो॥ ४॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘बेटा! अपने तेजसे प्रकाशमान इस धनपतिको देखो और हे समर्थ! तुम भी वही प्रयत्न करो जिससे ऐसे हो जाओ’’॥ ४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छ्रुत्वा रावणो रोषात् प्रतिज्ञामकरोद्द्रुतम्।
धनदेन समो वापि ह्यधिको वाचिरेण तु॥ ५॥
भविष्याम्यम्ब मां पश्य सन्तापं त्यज सुव्रते।
मूलम्
तच्छ्रुत्वा रावणो रोषात् प्रतिज्ञामकरोद्द्रुतम्।
धनदेन समो वापि ह्यधिको वाचिरेण तु॥ ५॥
भविष्याम्यम्ब मां पश्य सन्तापं त्यज सुव्रते।
अनुवाद (हिन्दी)
यह सुनकर रावणने तुरंत ही बड़े रोषसे प्रतिज्ञा की—‘‘हे शुभव्रतवाली! तुम खेद न करो, देखो, मातः! मैं शीघ्र ही कुबेरके समान अथवा इससे भी अधिक ऐश्वर्यशाली हो जाऊँगा’’॥ ५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा दुष्करं कर्तुं तपः स दशकन्धरः॥ ६॥
अगमत्फलसिद्ध्यर्थं गोकर्णं तु सहानुजः।
स्वं स्वं नियममास्थाय भ्रातरस्ते तपो महत्॥ ७॥
आस्थिता दुष्करं घोरं सर्वलोकैकतापनम्।
दशवर्षसहस्राणि कुम्भकर्णोऽकरोत्तपः॥ ८॥
मूलम्
इत्युक्त्वा दुष्करं कर्तुं तपः स दशकन्धरः॥ ६॥
अगमत्फलसिद्ध्यर्थं गोकर्णं तु सहानुजः।
स्वं स्वं नियममास्थाय भ्रातरस्ते तपो महत्॥ ७॥
आस्थिता दुष्करं घोरं सर्वलोकैकतापनम्।
दशवर्षसहस्राणि कुम्भकर्णोऽकरोत्तपः॥ ८॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कह भाइयोंके सहित रावण इच्छित फल-प्राप्तिके लिये गोकर्ण-क्षेत्रमें दुष्कर तपस्या करने चला गया। वहाँ वे तीनों भाई अपने-अपने व्रतमें दृढ़ रहकर समस्त लोकोंको तपानेवाला अति महान् तप करने लगे। उनमेंसे कुम्भकर्णने दस हजार वर्ष तप किया॥ ५—८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विभीषणोऽपि धर्मात्मा सत्यधर्मपरायणः।
पञ्चवर्षसहस्राणि पादेनैकेन तस्थिवान्॥ ९॥
मूलम्
विभीषणोऽपि धर्मात्मा सत्यधर्मपरायणः।
पञ्चवर्षसहस्राणि पादेनैकेन तस्थिवान्॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्य-धर्मपरायण धर्मात्मा विभीषण भी पाँच हजार वर्षतक एक ही पाँवसे खड़े रहे॥ ९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिव्यवर्षसहस्रं तु निराहारो दशाननः।
पूर्णे वर्षसहस्रे तु शीर्षमग्नौ जुहाव सः।
एवं वर्षसहस्राणि नव तस्यातिचक्रमुः॥ १०॥
मूलम्
दिव्यवर्षसहस्रं तु निराहारो दशाननः।
पूर्णे वर्षसहस्रे तु शीर्षमग्नौ जुहाव सः।
एवं वर्षसहस्राणि नव तस्यातिचक्रमुः॥ १०॥
अनुवाद (हिन्दी)
रावण एक हजार दिव्य वर्षतक निराहार रहा, फिर सहस्र वर्ष पूर्ण होनेपर उसने अपना एक मस्तक अग्निमें हवन कर दिया। इसी प्रकार उसे नौ हजार दिव्य वर्ष बीत गये॥ १०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ वर्षसहस्रं तु दशमे दशमं शिरः।
छेत्तुकामस्य धर्मात्मा प्राप्तश्चाथ प्रजापतिः।
वत्स वत्स दशग्रीव प्रीतोऽस्मीत्यभ्यभाषत॥ ११॥
मूलम्
अथ वर्षसहस्रं तु दशमे दशमं शिरः।
छेत्तुकामस्य धर्मात्मा प्राप्तश्चाथ प्रजापतिः।
वत्स वत्स दशग्रीव प्रीतोऽस्मीत्यभ्यभाषत॥ ११॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब दस हजार वर्ष बीतनेको हुए और जिस समय रावण अपना दसवाँ सिर भी काटनेको उद्यत हुआ तो धर्मात्मा ब्रह्माजी प्रकट हुए और बोले—‘‘बेटा रावण! मैं प्रसन्न हूँ॥ ११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वरं वरय दास्यामि यत्ते मनसि काङ्क्षितम्।
दशग्रीवोऽपि तच्छ्रुत्वा प्रहृष्टेनान्तरात्मना॥ १२॥
मूलम्
वरं वरय दास्यामि यत्ते मनसि काङ्क्षितम्।
दशग्रीवोऽपि तच्छ्रुत्वा प्रहृष्टेनान्तरात्मना॥ १२॥
अनुवाद (हिन्दी)
तू वर माँग, मैं तेरी जो इच्छा होगी वही पूर्ण करूँगा।’’ यह सुन रावणने अति प्रसन्न होकर कहा—॥ १२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अमरत्वं वृणोमीश वरदो यदि मे भवान्।
सुपर्णनागयक्षाणां देवतानां तथासुरैः।
अवध्यत्वं तु मे देहि तृणभूता हि मानुषाः॥ १३॥
मूलम्
अमरत्वं वृणोमीश वरदो यदि मे भवान्।
सुपर्णनागयक्षाणां देवतानां तथासुरैः।
अवध्यत्वं तु मे देहि तृणभूता हि मानुषाः॥ १३॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हे ईश्वर! यदि आप मुझे वर ही देना चाहते हैं तो मैं अमरता माँगता हूँ। मैं गरुड, सर्प, यक्ष, देव और दानव आदि किसीसे भी न मारा जा सकूँ। (बस, मैं यही वर माँगता हूँ) बेचारे मनुष्य तो तिनकोंके समान हैं—(उनसे मुझे भय नहीं है)॥ १३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथास्त्विति प्रजाध्यक्षः पुनराह दशाननम्।
अग्नौ हुतानि शीर्षाणि यानि तेऽसुरपुङ्गव॥ १४॥
भविष्यन्ति यथापूर्वमक्षयाणि च सत्तम॥ १५॥
मूलम्
तथास्त्विति प्रजाध्यक्षः पुनराह दशाननम्।
अग्नौ हुतानि शीर्षाणि यानि तेऽसुरपुङ्गव॥ १४॥
भविष्यन्ति यथापूर्वमक्षयाणि च सत्तम॥ १५॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब ब्रह्माजीने ‘ऐसा ही हो’ यह कहकर रावणसे फिर कहा—‘‘हे असुरश्रेष्ठ! तुमने अपने जो सिर अग्निमें होम दिये हैं, वे पहलेके समान फिर हो जायँगे तथा हे साधुश्रेष्ठ! उनका कभी नाश न होगा’’॥ १४-१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्त्वा ततो राम दशग्रीवं प्रजापतिः।
विभीषणमुवाचेदं प्रणतं भक्तवत्सलः॥ १६॥
मूलम्
एवमुक्त्वा ततो राम दशग्रीवं प्रजापतिः।
विभीषणमुवाचेदं प्रणतं भक्तवत्सलः॥ १६॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राम! रावणसे इस प्रकार कह फिर भक्तवत्सल ब्रह्माजीने अति विनीत विभीषणसे कहा—॥ १६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विभीषण त्वया वत्स कृतं धर्मार्थमुत्तमम्।
तपस्ततो वरं वत्स वृणीष्वाभिमतं हितम्॥ १७॥
मूलम्
विभीषण त्वया वत्स कृतं धर्मार्थमुत्तमम्।
तपस्ततो वरं वत्स वृणीष्वाभिमतं हितम्॥ १७॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘वत्स विभीषण! तुमने यह श्रेष्ठ तप धर्मसम्पादनके लिये किया है, इसलिये बेटा! तुम्हें जो हितकर वर अभीष्ट हो माँगो’’॥ १७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विभीषणोऽपि तं नत्वा प्राञ्जलिर्वाक्यमब्रवीत्।
देव मे सर्वदा बुद्धिर्धर्मे तिष्ठतु शाश्वती।
मा रोचयत्वधर्मं मे बुद्धिः सर्वत्र सर्वदा॥ १८॥
मूलम्
विभीषणोऽपि तं नत्वा प्राञ्जलिर्वाक्यमब्रवीत्।
देव मे सर्वदा बुद्धिर्धर्मे तिष्ठतु शाश्वती।
मा रोचयत्वधर्मं मे बुद्धिः सर्वत्र सर्वदा॥ १८॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब विभीषणने उन्हें नमस्कार कर उनसे हाथ जोड़कर कहा—‘‘भगवन्! मेरी बुद्धि सर्वदा निश्चलरूपसे धर्ममें ही रहे, उसकी कभी किसी अवस्थामें भी अधर्ममें रुचि न हो’’॥ १८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्रजापतिः प्रीतो विभीषणमथाब्रवीत्।
वत्स त्वं धर्मशीलोऽसि तथैव च भविष्यसि॥ १९॥
मूलम्
ततः प्रजापतिः प्रीतो विभीषणमथाब्रवीत्।
वत्स त्वं धर्मशीलोऽसि तथैव च भविष्यसि॥ १९॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसपर ब्रह्माजीने अति प्रसन्न होकर विभीषणसे कहा—‘‘बेटा! तुम बड़े धर्मनिष्ठ हो, जैसा चाहते हो वैसा ही होगा॥ १९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयाचितोऽपि ते दास्ये ह्यमरत्वं विभीषण।
कुम्भकर्णमथोवाच वरं वरय सुव्रत॥ २०॥
मूलम्
अयाचितोऽपि ते दास्ये ह्यमरत्वं विभीषण।
कुम्भकर्णमथोवाच वरं वरय सुव्रत॥ २०॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे विभीषण! यद्यपि तुमने माँगा नहीं है, फिर भी मैं तुम्हें अमरत्वका वर और देता हूँ।’’ तदनन्तर वे कुम्भकर्णसे बोले—‘‘हे सुव्रत! तुम वर माँगो’’॥ २०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाण्या व्याप्तोऽथ तं प्राह कुम्भकर्णः पितामहम्।
स्वप्स्यामि देव षण्मासान् दिनमेकं तु भोजनम्॥ २१॥
मूलम्
वाण्या व्याप्तोऽथ तं प्राह कुम्भकर्णः पितामहम्।
स्वप्स्यामि देव षण्मासान् दिनमेकं तु भोजनम्॥ २१॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब कुम्भकर्णने (देवताओंकी प्रेरणासे फैलायी हुई) सरस्वती देवीकी मायासे मोहित होकर ब्रह्माजीसे कहा—‘‘हे देव! मैं छः महीने सोऊँ और एक दिन भोजन करूँ’’॥ २१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमस्त्विति तं प्राह ब्रह्मा दृष्ट्वा दिवौकसः।
सरस्वती च तद्वक्त्रान्निर्गता प्रययौ दिवम्॥ २२॥
मूलम्
एवमस्त्विति तं प्राह ब्रह्मा दृष्ट्वा दिवौकसः।
सरस्वती च तद्वक्त्रान्निर्गता प्रययौ दिवम्॥ २२॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्माजीने उससे देवताओंकी ओर देखते हुए कहा— ‘‘ऐसा ही हो।’’ उनके ऐसा कहते ही सरस्वती तुरंत ही उसके मुखसे निकलकर स्वर्गलोकको चली गयीं॥ २२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुम्भकर्णस्तु दुष्टात्मा चिन्तयामास दुःखितः।
अनभिप्रेतमेवास्यात्किं निर्गतमहो विधिः॥ २३॥
मूलम्
कुम्भकर्णस्तु दुष्टात्मा चिन्तयामास दुःखितः।
अनभिप्रेतमेवास्यात्किं निर्गतमहो विधिः॥ २३॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब दुष्टचित्त कुम्भकर्णने मन-ही-मन दुःखित होकर सोचा—‘‘अहो! भाग्यका चक्र तो देखो, जिसकी मुझे इच्छा ही नहीं है ऐसी बात मेरे मुखसे क्यों निकल गयी?’’॥ २३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुमाली वरलब्धांस्तान् ज्ञात्वा पौत्रान् निशाचरान्।
पातालान्निर्भयः प्रायात् प्रहस्तादिभिरन्वितः॥ २४॥
मूलम्
सुमाली वरलब्धांस्तान् ज्ञात्वा पौत्रान् निशाचरान्।
पातालान्निर्भयः प्रायात् प्रहस्तादिभिरन्वितः॥ २४॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने नाती तीनों राक्षसोंको वर मिलनेका समाचार सुनकर सुमाली प्रहस्तादि राक्षसोंको साथ लिये निर्भयतापूर्वक पातालसे आया॥ २४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दशग्रीवं परिष्वज्य वचनं चेदमब्रवीत्।
दिष्ट्या ते पुत्र संवृत्तो वाञ्छितो मे मनोरथः॥ २५॥
मूलम्
दशग्रीवं परिष्वज्य वचनं चेदमब्रवीत्।
दिष्ट्या ते पुत्र संवृत्तो वाञ्छितो मे मनोरथः॥ २५॥
अनुवाद (हिन्दी)
और रावणको हृदयसे लगाकर बोला—‘‘बेटा! बड़े आनन्दकी बात है कि आज मेरा चाहा हुआ तुम्हारा मनोरथ पूर्ण हो गया॥ २५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद्भयाच्च वयं लङ्कां त्यक्त्वा याता रसातलम्।
तद्गतं नो महाबाहो महद्विष्णुकृतं भयम्॥ २६॥
मूलम्
यद्भयाच्च वयं लङ्कां त्यक्त्वा याता रसातलम्।
तद्गतं नो महाबाहो महद्विष्णुकृतं भयम्॥ २६॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसके भयसे हम लंकापुरीको छोड़कर पाताललोकको चले गये थे, हे महाबाहो! आज हमारा वह विष्णुका भय जाता रहा॥ २६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्माभिः पूर्वमुषिता लङ्केयं धनदेन ते।
भ्रात्राक्रान्तामिदानीं त्वं प्रत्यानेतुमिहार्हसि॥ २७॥
साम्ना वाथ बलेनापि राज्ञां बन्धुः कुतः सुहृत्।
इत्युक्तो रावणः प्राह नार्हस्येवं प्रभाषितुम्॥ २८॥
मूलम्
अस्माभिः पूर्वमुषिता लङ्केयं धनदेन ते।
भ्रात्राक्रान्तामिदानीं त्वं प्रत्यानेतुमिहार्हसि॥ २७॥
साम्ना वाथ बलेनापि राज्ञां बन्धुः कुतः सुहृत्।
इत्युक्तो रावणः प्राह नार्हस्येवं प्रभाषितुम्॥ २८॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस लंकापुरीमें जो अब तुम्हारे भाई कुबेरके अधिकारमें है, पहले हम रहा करते थे। अब तुम्हें इसे सामनीतिसे अथवा बलपूर्वक फिर लौटा लेना चाहिये; (बन्धुत्वका विचार न करना चाहिये) क्योंकि राजाओंके बन्धु उनके कब हितकारी हुए हैं? सुमालीके ऐसा कहनेपर रावणने कहा—‘‘आपको ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये॥ २७-२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वित्तेशो गुरुरस्माकमेवं श्रुत्वा तमब्रवीत्।
प्रहस्तः प्रश्रितं वाक्यं रावणं दशकन्धरम्॥ २९॥
मूलम्
वित्तेशो गुरुरस्माकमेवं श्रुत्वा तमब्रवीत्।
प्रहस्तः प्रश्रितं वाक्यं रावणं दशकन्धरम्॥ २९॥
अनुवाद (हिन्दी)
धनपति कुबेर हमारे बड़े हैं।’’ यह सुनकर प्रहस्तने रावणसे अति नम्रतापूर्वक कहा—॥ २९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शृणु रावण यत्नेन नैवं त्वं वक्तुमर्हसि।
नाधीता राजधर्मास्ते नीतिशास्त्रं तथैव च॥ ३०॥
मूलम्
शृणु रावण यत्नेन नैवं त्वं वक्तुमर्हसि।
नाधीता राजधर्मास्ते नीतिशास्त्रं तथैव च॥ ३०॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘हे रावण! मैं जो कुछ कहता हूँ सावधान होकर सुनो। तुम्हें ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये। अभी तुमने राजधर्म और नीतिशास्त्रका अध्ययन नहीं किया है॥ ३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शूराणां नहि सौभ्रात्रं शृणु मे वदतः प्रभो।
कश्यपस्य सुता देवा राक्षसाश्च महाबलाः॥ ३१॥
मूलम्
शूराणां नहि सौभ्रात्रं शृणु मे वदतः प्रभो।
कश्यपस्य सुता देवा राक्षसाश्च महाबलाः॥ ३१॥
अनुवाद (हिन्दी)
शूरवीरोंमें भ्रातृत्व नहीं हुआ करता। हे समर्थ! इस विषयमें मैं जो कुछ निवेदन करता हूँ सुनिये। महर्षि कश्यपजीकी सन्तान देवता और राक्षस बड़े शूरवीर थे॥ ३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परस्परमयुध्यन्त त्यक्त्वा सौहृदमायुधैः।
नैवेदानीन्तनं राजन् वैरं देवैरनुष्ठितम्॥ ३२॥
मूलम्
परस्परमयुध्यन्त त्यक्त्वा सौहृदमायुधैः।
नैवेदानीन्तनं राजन् वैरं देवैरनुष्ठितम्॥ ३२॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये वे बन्धुत्वको तिलांजलि देकर परस्पर अस्त्र-शस्त्रोंसे लड़ने लगे। हे राजन्! देवताओंके साथ हमारा वैर कुछ हालहीका नहीं है (यह तो आरम्भसे ही चला आता है)’’॥ ३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रहस्तस्य वचः श्रुत्वा दशग्रीवो दुरात्मनः।
तथेति क्रोधताम्राक्षस्त्रिकूटाचलमन्वगात्॥ ३३॥
मूलम्
प्रहस्तस्य वचः श्रुत्वा दशग्रीवो दुरात्मनः।
तथेति क्रोधताम्राक्षस्त्रिकूटाचलमन्वगात्॥ ३३॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुरात्मा प्रहस्तके ये वचन सुनकर रावणने कहा—‘तो ठीक है।’ उस समय उसके नेत्र क्रोधसे लाल हो गये और वह तुरंत ही त्रिकूट पर्वतपर पहुँचा॥ ३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दूतं प्रहस्तं सम्प्रेष्य निष्कास्य धनदेश्वरम्।
लङ्कामाक्रम्य सचिवै राक्षसैः सुखमास्थितः॥ ३४॥
मूलम्
दूतं प्रहस्तं सम्प्रेष्य निष्कास्य धनदेश्वरम्।
लङ्कामाक्रम्य सचिवै राक्षसैः सुखमास्थितः॥ ३४॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसने प्रहस्तको अपना दूत बनाकर भेजा और कुबेरको लंकापुरीसे निकालकर उसपर अपना अधिकार किया तथा अपने राक्षसमन्त्रियोंके सहित वहाँ सुखपूर्वक रहने लगा॥ ३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनदः पितृवाक्येन त्यक्त्वा लङ्कां महायशाः।
गत्वा कैलासशिखरं तपसातोषयच्छिवम्॥ ३५॥
तेन सख्यमनुप्राप्य तेनैव परिपालितः।
अलकां नगरीं तत्र निर्ममे विश्वकर्मणा॥ ३६॥
दिक्पालत्वं चकारात्र शिवेन परिपालितः।
मूलम्
धनदः पितृवाक्येन त्यक्त्वा लङ्कां महायशाः।
गत्वा कैलासशिखरं तपसातोषयच्छिवम्॥ ३५॥
तेन सख्यमनुप्राप्य तेनैव परिपालितः।
अलकां नगरीं तत्र निर्ममे विश्वकर्मणा॥ ३६॥
दिक्पालत्वं चकारात्र शिवेन परिपालितः।
अनुवाद (हिन्दी)
महायशस्वी कुबेरने लंकापुरीको छोड़कर पिताके कहनेसे कैलास पर्वतपर जाकर तपस्याद्वारा श्रीमहादेवजीको प्रसन्न किया तथा उनसे मित्रता स्थापित कर उन्हींसे सुरक्षित हो वहाँ विश्वकर्मासे अलका नामकी नगरी बनवायी। वहाँ वे भगवान् शंकरकी रक्षामें रहकर दिक्पालत्व (एक दिशाका अधिकार) भोगने लगे॥ ३५-३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रावणो राक्षसैः सार्धमभिषिक्तः सहानुजैः॥ ३७॥
राज्यं चकारासुराणां त्रिलोकीं बाधयन् खलः।
भगिनीं कालखञ्जाय ददौ विकटरूपिणीम्॥ ३८॥
विद्युज्जिह्वाय नाम्नासौ महामायी निशाचरः।
ततो मयो विश्वकर्मा राक्षसानां दितेः सुतः॥ ३९॥
सुतां मन्दोदरीं नाम्ना ददौ लोकैकसुन्दरीम्।
रावणाय पुनः शक्तिममोघां प्रीतमानसः॥ ४०॥
मूलम्
रावणो राक्षसैः सार्धमभिषिक्तः सहानुजैः॥ ३७॥
राज्यं चकारासुराणां त्रिलोकीं बाधयन् खलः।
भगिनीं कालखञ्जाय ददौ विकटरूपिणीम्॥ ३८॥
विद्युज्जिह्वाय नाम्नासौ महामायी निशाचरः।
ततो मयो विश्वकर्मा राक्षसानां दितेः सुतः॥ ३९॥
सुतां मन्दोदरीं नाम्ना ददौ लोकैकसुन्दरीम्।
रावणाय पुनः शक्तिममोघां प्रीतमानसः॥ ४०॥
अनुवाद (हिन्दी)
इधर महादुष्ट रावण राक्षसोंसे अभिषिक्त हो अपने भाइयोंके सहित तीनों लोकोंको कष्ट देता हुआ राक्षसोंका राज्य करने लगा। उस महामायावी राक्षसने अपनी विकरालवदना बहिन कालखंजके वंशमें उत्पन्न हुए विद्युज्जिह्व नामक राक्षसको विवाह दी। इसी समय राक्षसोंके विश्वकर्मा दितिपुत्र मयने अपनी त्रिलोकसुन्दरी कन्या मन्दोदरी रावणको दी और फिर उसे प्रसन्न-चित्तसे एक अमोघ शक्ति भी दी॥ ३७—४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वैरोचनस्य दौहित्रीं वृत्रज्वालेति विश्रुताम्।
स्वयंदत्तामुदवहत्कुम्भकर्णाय रावणः॥ ४१॥
मूलम्
वैरोचनस्य दौहित्रीं वृत्रज्वालेति विश्रुताम्।
स्वयंदत्तामुदवहत्कुम्भकर्णाय रावणः॥ ४१॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर रावणने, स्वयं लाकर दी हुई वैरोचनकी धेवती वृत्रज्वालाके साथ कुम्भकर्णका विवाह किया॥ ४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गन्धर्वराजस्य सुतां शैलूषस्य महात्मनः।
विभीषणस्य भार्यार्थे धर्मज्ञां समुदावहत्॥ ४२॥
सरमां नाम सुभगां सर्वलक्षणसंयुताम्।
ततो मन्दोदरी पुत्रं मेघनादमजीजनत्॥ ४३॥
मूलम्
गन्धर्वराजस्य सुतां शैलूषस्य महात्मनः।
विभीषणस्य भार्यार्थे धर्मज्ञां समुदावहत्॥ ४२॥
सरमां नाम सुभगां सर्वलक्षणसंयुताम्।
ततो मन्दोदरी पुत्रं मेघनादमजीजनत्॥ ४३॥
अनुवाद (हिन्दी)
तथा गन्धर्वराज महात्मा शैलूषकी पुत्री सरमाको, जो अति सुन्दरी सर्वसुलक्षणसम्पन्ना और समस्त धर्मोंको जाननेवाली थी, उसने पत्नीरूपसे विभीषणको विवाह दिया। तत्पश्चात् मन्दोदरीने मेघनाद नामक पुत्र उत्पन्न किया॥ ४२-४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जातमात्रस्तु यो नादं मेघवत्प्रमुमोच ह।
ततः सर्वेऽब्रुवन्मेघनादोऽयमिति चासकृत्॥ ४४॥
मूलम्
जातमात्रस्तु यो नादं मेघवत्प्रमुमोच ह।
ततः सर्वेऽब्रुवन्मेघनादोऽयमिति चासकृत्॥ ४४॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसने उत्पन्न होते ही मेघके समान शब्द किया। इसलिये सबने बारंबार यही कहा कि ‘यह मेघनाद है’॥ ४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुम्भकर्णस्ततः प्राह निद्रा मां बाधते प्रभो।
ततश्च कारयामास गुहां दीर्घां सुविस्तराम्॥ ४५॥
मूलम्
कुम्भकर्णस्ततः प्राह निद्रा मां बाधते प्रभो।
ततश्च कारयामास गुहां दीर्घां सुविस्तराम्॥ ४५॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर कुम्भकर्ण बोला— ‘‘प्रभो! मुझे निद्रा सता रही है।’’ फिर उसने एक बड़ी लंबी-चौड़ी गुहा बनवायी॥ ४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र सुष्वाप मूढात्मा कुम्भकर्णो विघूर्णितः।
निद्रिते कुम्भकर्णे तु रावणो लोकरावणः॥ ४६॥
ब्राह्मणान् ऋषिमुख्यांश्च देवदानवकिन्नरान्।
देवश्रियो मनुष्यांश्च निजघ्ने समहोरगान्॥ ४७॥
मूलम्
तत्र सुष्वाप मूढात्मा कुम्भकर्णो विघूर्णितः।
निद्रिते कुम्भकर्णे तु रावणो लोकरावणः॥ ४६॥
ब्राह्मणान् ऋषिमुख्यांश्च देवदानवकिन्नरान्।
देवश्रियो मनुष्यांश्च निजघ्ने समहोरगान्॥ ४७॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ मन्दमति कुम्भकर्ण खुर्राटे लेता हुआ सो गया। कुम्भकर्णके सो जानेपर समस्त लोकोंको रुलानेवाले रावणने ब्राह्मण, मुख्य-मुख्य ऋषि, देवता, दानव, किन्नर, सर्प और मनुष्य सभीको मारा तथा देवताओंकी सम्पत्ति नष्ट कर दी॥ ४६-४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनदोऽपि ततः श्रुत्वा रावणस्याक्रमं प्रभुः।
अधर्मं मा कुरुष्वेति दूतवाक्यैर्न्यवारयत्॥ ४८॥
मूलम्
धनदोऽपि ततः श्रुत्वा रावणस्याक्रमं प्रभुः।
अधर्मं मा कुरुष्वेति दूतवाक्यैर्न्यवारयत्॥ ४८॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् कुबेरने जब रावणकी उच्छृंखलताका समाचार सुना तो उन्होंने दूतके मुखसे यह सन्देश भेजकर कि ‘अधर्म मत करो’ उसे रोका॥ ४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः क्रुद्धो दशग्रीवो जगाम धनदालयम्।
विनिर्जित्य धनाध्यक्षं जहारोत्तमपुष्पकम्॥ ४९॥
मूलम्
ततः क्रुद्धो दशग्रीवो जगाम धनदालयम्।
विनिर्जित्य धनाध्यक्षं जहारोत्तमपुष्पकम्॥ ४९॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसपर रावण क्रोधित होकर कुबेरकी पुरीपर चढ़ आया और उन्हें परास्त कर उनका अति उत्तम पुष्पक विमान छीन लाया॥ ४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो यमं च वरुणं निर्जित्य समरेऽसुरः।
स्वर्गलोकमगात्तूर्णं देवराजजिघांसया॥ ५०॥
मूलम्
ततो यमं च वरुणं निर्जित्य समरेऽसुरः।
स्वर्गलोकमगात्तूर्णं देवराजजिघांसया॥ ५०॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर वह राक्षस युद्धमें यम और वरुणको भी जीतकर इन्द्रका वध करनेकी इच्छासे तुरंत ही स्वर्गलोकपर चढ़ आया॥ ५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽभवन्महद्युद्धमिन्द्रेण सह दैवतैः।
ततो रावणमभ्येत्य बबन्ध त्रिदशेश्वरः॥ ५१॥
मूलम्
ततोऽभवन्महद्युद्धमिन्द्रेण सह दैवतैः।
ततो रावणमभ्येत्य बबन्ध त्रिदशेश्वरः॥ ५१॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ इन्द्र और अन्य देवताओंके साथ उसका बड़ा घमासान युद्ध हुआ। इस समय देवराज इन्द्रने आगे बढ़कर रावणको बाँध लिया॥ ५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छ्रुत्वा सहसागत्य मेघनादः प्रतापवान्।
कृत्वा घोरं महद्युद्धं जित्वा त्रिदशपुङ्गवान्॥ ५२॥
इन्द्रं गृहीत्वा बध्वासौ मेघनादो महाबलः।
मोचयित्वा तु पितरं गृहीत्वेन्द्रं ययौ पुरम्॥ ५३॥
मूलम्
तच्छ्रुत्वा सहसागत्य मेघनादः प्रतापवान्।
कृत्वा घोरं महद्युद्धं जित्वा त्रिदशपुङ्गवान्॥ ५२॥
इन्द्रं गृहीत्वा बध्वासौ मेघनादो महाबलः।
मोचयित्वा तु पितरं गृहीत्वेन्द्रं ययौ पुरम्॥ ५३॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब यह समाचार महाप्रतापी मेघनादने सुना तो उसने अकस्मात् आकर देवताओंसे घोर युद्ध किया और उन्हें जीतकर इन्द्रको पकड़कर बाँध लिया। फिर महाबली मेघनादने अपने पिताको छुड़ाया और इन्द्रको अपने साथ लेकर लंकापुरीमें लौट आया॥ ५२-५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मा तु मोचयामास देवेन्द्रं मेघनादतः।
दत्त्वा वरान् बहूंस्तस्मै ब्रह्मा स्वभवनं ययौ॥ ५४॥
मूलम्
ब्रह्मा तु मोचयामास देवेन्द्रं मेघनादतः।
दत्त्वा वरान् बहूंस्तस्मै ब्रह्मा स्वभवनं ययौ॥ ५४॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर ब्रह्माजीने जाकर इन्द्रको मेघनादसे छुड़ाया और उसे बहुत-से वर देकर वे अपने लोकको चले गये॥ ५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रावणो विजयी लोकान् सर्वान् जित्वा क्रमेण तु।
कैलासं तोलयामास बाहुभिः परिघोपमैः॥ ५५॥
मूलम्
रावणो विजयी लोकान् सर्वान् जित्वा क्रमेण तु।
कैलासं तोलयामास बाहुभिः परिघोपमैः॥ ५५॥
अनुवाद (हिन्दी)
विजयी रावणने क्रमसे सब लोकोंको जीतकर अपने परिघके समान बड़ी-बड़ी भुजाओंसे कैलास पर्वतको उठा लिया॥ ५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र नन्दीश्वरेणैवं शप्तोऽयं राक्षसेश्वरः।
वानरैर्मानुषैश्चैव नाशं गच्छेति कोपिना॥ ५६॥
मूलम्
तत्र नन्दीश्वरेणैवं शप्तोऽयं राक्षसेश्वरः।
वानरैर्मानुषैश्चैव नाशं गच्छेति कोपिना॥ ५६॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ नन्दीश्वरने क्रोधित होकर राक्षसराज रावणको शाप दिया कि ‘तू मनुष्य और वानरोंके हाथसे मारा जायगा’॥ ५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शप्तोऽप्यगणयन् वाक्यं ययौ हैहयपत्तनम्।
तेन बद्धो दशग्रीवः पुलस्त्येन विमोचितः॥ ५७॥
मूलम्
शप्तोऽप्यगणयन् वाक्यं ययौ हैहयपत्तनम्।
तेन बद्धो दशग्रीवः पुलस्त्येन विमोचितः॥ ५७॥
अनुवाद (हिन्दी)
किन्तु रावणने इस शापको कुछ भी न गिना और वह तुरंत ही हैहयराज (सहस्रार्जुन)-की राजधानीको चल दिया। वहाँ सहस्रार्जुनने रावणको बाँध लिया। तब उसे पुलस्त्यजीने छुड़ाया॥ ५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽतिबलमासाद्य जिघांसुर्हरिपुङ्गवम्।
धृतस्तेनैव कक्षेण वालिना दशकन्धरः॥ ५८॥
मूलम्
ततोऽतिबलमासाद्य जिघांसुर्हरिपुङ्गवम्।
धृतस्तेनैव कक्षेण वालिना दशकन्धरः॥ ५८॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर वह अत्यन्त बली वानरराज वालीको मारनेके लिये उद्यत हुआ, किन्तु उलटे उन्हींने रावणको अपनी काँखमें दबा लिया॥ ५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भ्रामयित्वा तु चतुरः समुद्रान् रावणं हरिः।
विसर्जयामास ततस्तेन सख्यं चकार सः॥ ५९॥
मूलम्
भ्रामयित्वा तु चतुरः समुद्रान् रावणं हरिः।
विसर्जयामास ततस्तेन सख्यं चकार सः॥ ५९॥
अनुवाद (हिन्दी)
और फिर चारों समुद्रोंपर घुमाकर उसे छोड़ दिया। तब रावणने उनसे मित्रता कर ली॥ ५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रावणः परमप्रीत एवं लोकान् महाबलः।
चकार स्ववशे राम बुभुजे स्वयमेव तान्॥ ६०॥
मूलम्
रावणः परमप्रीत एवं लोकान् महाबलः।
चकार स्ववशे राम बुभुजे स्वयमेव तान्॥ ६०॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राम! इस प्रकार महाबली रावण सम्पूर्ण लोकोंको अपने अधीन कर उन्हें प्रसन्नतापूर्वक स्वयं ही भोगने लगा॥ ६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवम्प्रभावो राजेन्द्र दशग्रीवः सहेन्द्रजित्।
त्वया विनिहतः सङ्ख्ये रावणो लोकरावणः॥ ६१॥
मेघनादश्च निहतो लक्ष्मणेन महात्मना।
कुम्भकर्णश्च निहतस्त्वया पर्वतसन्निभः॥ ६२॥
मूलम्
एवम्प्रभावो राजेन्द्र दशग्रीवः सहेन्द्रजित्।
त्वया विनिहतः सङ्ख्ये रावणो लोकरावणः॥ ६१॥
मेघनादश्च निहतो लक्ष्मणेन महात्मना।
कुम्भकर्णश्च निहतस्त्वया पर्वतसन्निभः॥ ६२॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राजेन्द्र! ये दशानन और इन्द्रजित् ऐसे प्रभावशाली थे। (उनमेंसे) लोकोंको रुलानेवाले रावणको आपने मारा और मेघनादका वध महात्मा लक्ष्मणजीने किया तथा पर्वतके समान दीर्घकाय कुम्भकर्णका भी आपहीने संहार किया॥ ६१-६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवान्नारायणः साक्षाज्जगतामादिकृद्विभुः।
त्वत्स्वरूपमिदं सर्वं जगत्स्थावरजङ्गमम्॥ ६३॥
मूलम्
भवान्नारायणः साक्षाज्जगतामादिकृद्विभुः।
त्वत्स्वरूपमिदं सर्वं जगत्स्थावरजङ्गमम्॥ ६३॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप सब लोकोंके रचनेवाले साक्षात् सर्वव्यापक नारायणदेव हैं। यह सारा चराचर जगत् आपहीका स्वरूप है॥ ६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वन्नाभिकमलोत्पन्नो ब्रह्मा लोकपितामहः।
अग्निस्ते मुखतो जातो वाचा सह रघूत्तम॥ ६४॥
मूलम्
त्वन्नाभिकमलोत्पन्नो ब्रह्मा लोकपितामहः।
अग्निस्ते मुखतो जातो वाचा सह रघूत्तम॥ ६४॥
अनुवाद (हिन्दी)
लोकपितामह ब्रह्माजी आपकी नाभिसे प्रकट हुए कमलसे उत्पन्न हुए हैं तथा हे रघुश्रेष्ठ! वाणीके सहित अग्निदेवने आपके मुखसे जन्म लिया है॥ ६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाहुभ्यां लोकपालौघाश्चक्षुर्भ्यां चन्द्रभास्करौ।
दिशश्च विदिशश्चैव कर्णाभ्यां ते समुत्थिताः॥ ६५॥
मूलम्
बाहुभ्यां लोकपालौघाश्चक्षुर्भ्यां चन्द्रभास्करौ।
दिशश्च विदिशश्चैव कर्णाभ्यां ते समुत्थिताः॥ ६५॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपकी भुजाओंसे लोकपालोंके समूह, नेत्रोंसे चन्द्रमा और सूर्य तथा कानोंसे दिशा-विदिशाएँ उत्पन्न हुई हैं॥ ६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
घ्राणात्प्राणः समुत्पन्नश्चाश्विनौ देवसत्तमौ।
जङ्घाजानूरुजघनाद्भुवर्लोकादयोऽभवन्॥ ६६॥
मूलम्
घ्राणात्प्राणः समुत्पन्नश्चाश्विनौ देवसत्तमौ।
जङ्घाजानूरुजघनाद्भुवर्लोकादयोऽभवन्॥ ६६॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार आपकी घ्राणेन्द्रियसे प्राण और देवताओंमें श्रेष्ठ अश्विनीकुमार प्रकट हुए हैं तथा जंघा, जानु , ऊरु और जघनादि अंगोंसे भुवर्लोक आदि हुए हैं॥ ६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुक्षिदेशात्समुत्पन्नाश्चत्वारः सागरा हरे।
स्तनाभ्यामिन्द्रवरुणौ वालखिल्याश्च रेतसः॥ ६७॥
मूलम्
कुक्षिदेशात्समुत्पन्नाश्चत्वारः सागरा हरे।
स्तनाभ्यामिन्द्रवरुणौ वालखिल्याश्च रेतसः॥ ६७॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे हरे! आपकी कुक्षिसे चार समुद्र, स्तनोंसे इन्द्र और वरुण तथा वीर्यसे वालखिल्यादि मुनीश्वर हुए हैं॥ ६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेढ्राद्यमो गुदान्मृत्युर्मन्यो रुद्रस्त्रिलोचनः।
अस्थिभ्यः पर्वता जाताः केशेभ्यो मेघसंहतिः॥ ६८॥
ओषध्यस्तव रोमभ्यो नखेभ्यश्च खरादयः।
त्वं विश्वरूपः पुरुषो मायाशक्तिसमन्वितः॥ ६९॥
मूलम्
मेढ्राद्यमो गुदान्मृत्युर्मन्यो रुद्रस्त्रिलोचनः।
अस्थिभ्यः पर्वता जाताः केशेभ्यो मेघसंहतिः॥ ६८॥
ओषध्यस्तव रोमभ्यो नखेभ्यश्च खरादयः।
त्वं विश्वरूपः पुरुषो मायाशक्तिसमन्वितः॥ ६९॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपकी उपस्थेन्द्रियसे यम, गुदासे मृत्यु, क्रोधसे त्रिनयन महादेवजी, अस्थियोंसे पर्वतसमूह, केशोंसे मेघ, रोमोंसे ओषधियाँ तथा नखोंसे गधे आदि उत्पन्न हुए हैं। अपनी मायाशक्तिसे युक्त आप ही विश्वरूप परम पुरुष हैं॥ ६८-६९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानारूप इवाभासि गुणव्यतिकरे सति।
त्वामाश्रित्यैव विबुधाः पिबन्त्यमृतमध्वरे॥ ७०॥
मूलम्
नानारूप इवाभासि गुणव्यतिकरे सति।
त्वामाश्रित्यैव विबुधाः पिबन्त्यमृतमध्वरे॥ ७०॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रकृतिके गुणोंसे युक्त होनेपर आप ही नानारूप-से दिखायी देने लगते हैं; आपहीके आश्रयसे देवगण यज्ञोंमें अमृतपान करते हैं॥ ७०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वया सृष्टमिदं सर्वं विश्वं स्थावरजङ्गमम्।
त्वामाश्रित्यैव जीवन्ति सर्वे स्थावरजङ्गमाः॥ ७१॥
मूलम्
त्वया सृष्टमिदं सर्वं विश्वं स्थावरजङ्गमम्।
त्वामाश्रित्यैव जीवन्ति सर्वे स्थावरजङ्गमाः॥ ७१॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सम्पूर्ण स्थावर-जंगम जगत् आपहीने रचा है और समस्त चराचर प्राणी आपहीके आश्रयसे जीवित रहते हैं॥ ७१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वद्युक्तमखिलं वस्तु व्यवहारेऽपि राघव।
क्षीरमध्यगतं सर्पिर्यथा व्याप्याखिलं पयः॥ ७२॥
मूलम्
त्वद्युक्तमखिलं वस्तु व्यवहारेऽपि राघव।
क्षीरमध्यगतं सर्पिर्यथा व्याप्याखिलं पयः॥ ७२॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे रघुनाथजी! जिस प्रकार दूधमें मिला हुआ घी उसमें सर्वत्र व्याप्त रहता है, उसी प्रकार व्यवहारकालमें भी सम्पूर्ण वस्तुएँ आपहीसे व्याप्त रहती हैं॥ ७२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वद्भासा भासतेऽर्कादि न त्वं तेनावभाससे।
सर्वगं नित्यमेकं त्वां ज्ञानचक्षुर्विलोकयेत्॥ ७३॥
मूलम्
त्वद्भासा भासतेऽर्कादि न त्वं तेनावभाससे।
सर्वगं नित्यमेकं त्वां ज्ञानचक्षुर्विलोकयेत्॥ ७३॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूर्य-चन्द्रादि भी सब आपहीके प्रकाशसे प्रकाशित होते हैं, किन्तु आप उनसे प्रकाशित नहीं होते। आप सर्वगत, नित्य और एक हैं, जिस पुरुषको ज्ञानदृष्टि प्राप्त हो जाती है वही आपको देख सकता है॥ ७३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाज्ञानचक्षुस्त्वां पश्येदन्धदृग् भास्करं यथा।
योगिनस्त्वां विचिन्वन्ति स्वदेहे परमेश्वरम्॥ ७४॥
अतन्निरसनमुखैर्वेदशीर्षैरहर्निशम्।
त्वत्पादभक्तिलेशेन गृहीता यदि योगिनः॥ ७५॥
विचिन्वन्तो हि पश्यन्ति चिन्मात्रं त्वां न चान्यथा।
मया प्रलपितं किञ्चित्सर्वज्ञस्य तवाग्रतः।
क्षन्तुमर्हसि देवेश तवानुग्रहभागहम्॥ ७६॥
मूलम्
नाज्ञानचक्षुस्त्वां पश्येदन्धदृग् भास्करं यथा।
योगिनस्त्वां विचिन्वन्ति स्वदेहे परमेश्वरम्॥ ७४॥
अतन्निरसनमुखैर्वेदशीर्षैरहर्निशम्।
त्वत्पादभक्तिलेशेन गृहीता यदि योगिनः॥ ७५॥
विचिन्वन्तो हि पश्यन्ति चिन्मात्रं त्वां न चान्यथा।
मया प्रलपितं किञ्चित्सर्वज्ञस्य तवाग्रतः।
क्षन्तुमर्हसि देवेश तवानुग्रहभागहम्॥ ७६॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस प्रकार अन्धेको सूर्य नहीं दिखायी दे सकता, उसी प्रकार जो ज्ञाननेत्रसे रहित है वह आपका दर्शन नहीं कर सकता। योगिजन अनात्म-पदार्थोंका बाध करनेवाले उपनिषद्वाक्योंद्वारा अहर्निश आप परमात्माको अपने शरीरमें ही खोजते हैं। यदि उन योगियोंपर आपके चरणोंकी भक्तिका लेशमात्र भी प्रभाव होता है तभी वे खोजते-खोजते अन्तमें चिन्मात्रस्वरूप आपको देख पाते हैं और किसी प्रकार नहीं। मैंने आप सर्वज्ञके सामने कुछ प्रलाप (बकवाद) किया है, सो आप क्षमा करें; क्योंकि हे देवेश्वर! मैं आपकी कृपाका पात्र हूँ॥ ७४—७६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिग्देशकालपरिहीनमनन्यमेकं
चिन्मात्रमक्षरमजं चलनादिहीनम्।
सर्वज्ञमीश्वरमनन्तगुणं व्युदस्त-
मायं भजे रघुपतिं भजतामभिन्नम्॥ ७७॥
मूलम्
दिग्देशकालपरिहीनमनन्यमेकं
चिन्मात्रमक्षरमजं चलनादिहीनम्।
सर्वज्ञमीश्वरमनन्तगुणं व्युदस्त-
मायं भजे रघुपतिं भजतामभिन्नम्॥ ७७॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो दिशा, देश और कालसे रहित तथा अनन्य, एक, चिन्मात्र, अविनाशी, अजन्मा और चलनादि क्रियासे रहित हैं उन सर्वज्ञ, सर्वेश्वर, अनन्तगुणसम्पन्न, मायाहीन और अपने भक्तजनोंसे सदा अभिन्न रहनेवाले रघुनाथजीको मैं भजता हूँ॥ ७७॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे उत्तरकाण्डे द्वितीयः सर्गः॥ २॥