०१

[प्रथम सर्ग]

भागसूचना

भगवान् रामके यहाँ अगस्त्यादि मुनीश्वरोंका आना और रावणादि राक्षसोंका पूर्वचरित्र सुनाना

विश्वास-प्रस्तुतिः

जयति रघुवंशतिलकः कौसल्याहृदयनन्दनो रामः।
दशवदननिधनकारी दाशरथिः पुण्डरीकाक्षः॥ १॥

मूलम्

जयति रघुवंशतिलकः कौसल्याहृदयनन्दनो रामः।
दशवदननिधनकारी दाशरथिः पुण्डरीकाक्षः॥ १॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकौसल्याजीके हृदयको आनन्दित करनेवाले, दशवदन रावणको मारनेवाले, रघुवंशतिलक दशरथकुमार कमलनयन भगवान् रामकी जय हो॥ १॥

मूलम् (वचनम्)

पार्वत्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ रामः किमकरोत् कौसल्यानन्दवर्धनः।
हत्वा मृधे रावणादीन् राक्षसान् भीमविक्रमः॥ २॥
अभिषिक्तस्त्वयोध्यायां सीतया सह राघवः।
मायामानुषतां प्राप्य कति वर्षाणि भूतले॥ ३॥
स्थितवान् लीलया देवः परमात्मा सनातनः।
अत्यजन्मानुषं लोकं कथमन्ते रघूद्वहः॥ ४॥

मूलम्

अथ रामः किमकरोत् कौसल्यानन्दवर्धनः।
हत्वा मृधे रावणादीन् राक्षसान् भीमविक्रमः॥ २॥
अभिषिक्तस्त्वयोध्यायां सीतया सह राघवः।
मायामानुषतां प्राप्य कति वर्षाणि भूतले॥ ३॥
स्थितवान् लीलया देवः परमात्मा सनातनः।
अत्यजन्मानुषं लोकं कथमन्ते रघूद्वहः॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

पार्वतीजी बोलीं—कौसल्याजीके आनन्दको बढ़ानेवाले महापराक्रमी श्रीरामचन्द्रजीने युद्धमें रावणादि राक्षसोंको मारकर अयोध्यापुरीमें सीताजीके सहित राज्याभिषिक्त होनेके अनन्तर कौन-सा कार्य किया? लीलाहीसे माया-मानव भावको प्राप्त हुए वे सनातन परमात्मा पृथ्वीतलपर कितने वर्ष रहे? तथा अन्तमें उन रघुनन्दनने इस मर्त्यलोकका किस प्रकार त्याग किया?॥ २—४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतदाख्याहि भगवन् श्रद्दधत्या मम प्रभो।
कथापीयूषमास्वाद्य तृष्णा मेऽतीव वर्धते।
रामचन्द्रस्य भगवन् ब्रूहि विस्तरशः कथाम्॥ ५॥

मूलम्

एतदाख्याहि भगवन् श्रद्दधत्या मम प्रभो।
कथापीयूषमास्वाद्य तृष्णा मेऽतीव वर्धते।
रामचन्द्रस्य भगवन् ब्रूहि विस्तरशः कथाम्॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे प्रभो! मुझ श्रद्धावतीको आप यह सब वृत्तान्त सुनाइये। हे भगवन्! श्रीरामकथामृतका आस्वादन करनेसे मेरी तृष्णा बहुत ही बढ़ती जाती है, इसलिये आप श्रीरामचन्द्रजीकी कथा विस्तारपूर्वक कहिये॥ ५॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहादेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

राक्षसानां वधं कृत्वा राज्ये राम उपस्थिते।
आययुर्मुनयः सर्वे श्रीराममभिवन्दितुम्॥ ६॥

मूलम्

राक्षसानां वधं कृत्वा राज्ये राम उपस्थिते।
आययुर्मुनयः सर्वे श्रीराममभिवन्दितुम्॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहादेवजी बोले—हे पार्वति! राक्षसोंका वध करनेके अनन्तर भगवान् रामके राजपदपर विराजमान होनेपर समस्त मुनिजन उनका अभिवादन करनेके लिये आये॥ ६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विश्वामित्रोऽसितः कण्वो दुर्वासा भृगुरङ्गिराः।
कश्यपो वामदेवोऽत्रिस्तथा सप्तर्षयोऽमलाः॥ ७॥
अगस्त्यः सह शिष्यैश्च मुनिभिः सहितोऽभ्यगात्।
द्वारमासाद्य रामस्य द्वारपालमथाब्रवीत्॥ ८॥

मूलम्

विश्वामित्रोऽसितः कण्वो दुर्वासा भृगुरङ्गिराः।
कश्यपो वामदेवोऽत्रिस्तथा सप्तर्षयोऽमलाः॥ ७॥
अगस्त्यः सह शिष्यैश्च मुनिभिः सहितोऽभ्यगात्।
द्वारमासाद्य रामस्य द्वारपालमथाब्रवीत्॥ ८॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय विश्वामित्र, असित, कण्व, दुर्वासा, भृगु, अंगिरा, कश्यप, वामदेव, अत्रि तथा निर्मल स्वभाव सप्तर्षिगण और अपने शिष्यों तथा अन्यान्य मुनिजनोंके सहित अगस्त्यजी आये। उन अगस्त्यजीने भगवान् रामके द्वारपर पहुँचकर द्वारपालसे कहा—॥ ७-८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रूहि रामाय मुनयः समागत्य बहिःस्थिताः।
अगस्त्यप्रमुखाः सर्वे आशीर्भिरभिनन्दितुम्॥ ९॥

मूलम्

ब्रूहि रामाय मुनयः समागत्य बहिःस्थिताः।
अगस्त्यप्रमुखाः सर्वे आशीर्भिरभिनन्दितुम्॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम महाराज रामसे जाकर कहो कि आपका आशीर्वादोंसे अभिनन्दन करनेके लिये अगस्त्य आदि समस्त मुनिगण आये हैं और बाहर खड़े हुए हैं॥ ९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतीहारस्ततो राममगस्त्यवचनाद् द्रुतम्।
नमस्कृत्याब्रवीद्वाक्यं विनयावनतः प्रभुम्॥ १०॥

मूलम्

प्रतीहारस्ततो राममगस्त्यवचनाद् द्रुतम्।
नमस्कृत्याब्रवीद्वाक्यं विनयावनतः प्रभुम्॥ १०॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब द्वारपाल अगस्त्यजीके कहनेसे तुरंत ही भगवान् रामको नमस्कार कर उनसे अति विनयपूर्वक यों कहने लगा॥ १०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृताञ्जलिरुवाचेदमगस्त्यो मुनिभिः सह।
देव त्वद्दर्शनार्थाय प्राप्तो बहिरुपस्थितः॥ ११॥

मूलम्

कृताञ्जलिरुवाचेदमगस्त्यो मुनिभिः सह।
देव त्वद्दर्शनार्थाय प्राप्तो बहिरुपस्थितः॥ ११॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह हाथ जोड़कर बोला—‘‘देव! आपके दर्शनोंके लिये मुनियोंके सहित श्रीअगस्त्यजी आये हैं और बाहर खड़े हुए हैं’’॥ ११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमुवाच द्वारपालं प्रवेशय यथासुखम्।
पूजिता विविशुर्वेश्म नानारत्नविभूषितम्॥ १२॥

मूलम्

तमुवाच द्वारपालं प्रवेशय यथासुखम्।
पूजिता विविशुर्वेश्म नानारत्नविभूषितम्॥ १२॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् रामने द्वारपालसे कहा—‘‘उन्हें आनन्दपूर्वक भीतर ले आओ।’’ तब मुनियोंने विधिवत् पूजित होकर नाना प्रकारके रत्नोंसे विभूषित महलमें प्रवेश किया॥ १२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्वा रामो मुनीन् शीघ्रं प्रत्युत्थाय कृताञ्जलिः।
पाद्यार्घ्यादिभिरापूज्य गां निवेद्य यथाविधि॥ १३॥

मूलम्

दृष्ट्वा रामो मुनीन् शीघ्रं प्रत्युत्थाय कृताञ्जलिः।
पाद्यार्घ्यादिभिरापूज्य गां निवेद्य यथाविधि॥ १३॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् राम मुनियोंको देखते ही तुरंत हाथ जोड़कर खड़े हो गये और अर्घ्य-पाद्यादिसे उनका पूजन कर उन्हें विधिपूर्वक एक-एक गौ भेंट की॥ १३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नत्वा तेभ्यो ददौ दिव्यान्यासनानि यथार्हतः।
उपविष्टाः प्रहृष्टाश्च मुनयो रामपूजिताः॥ १४॥

मूलम्

नत्वा तेभ्यो ददौ दिव्यान्यासनानि यथार्हतः।
उपविष्टाः प्रहृष्टाश्च मुनयो रामपूजिताः॥ १४॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर उन सबको नमस्कार कर यथायोग्य दिव्य आसन दिये। उनपर वे मुनिगण भगवान् रामसे पूजित होकर अति हर्षपूर्वक विराजमान हुए॥ १४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम्पृष्टकुशलाः सर्वे रामं कुशलमब्रुवन्।
कुशलं ते महाबाहो सर्वत्र रघुनन्दन॥ १५॥

मूलम्

सम्पृष्टकुशलाः सर्वे रामं कुशलमब्रुवन्।
कुशलं ते महाबाहो सर्वत्र रघुनन्दन॥ १५॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीद्वारा कुशल पूछे जानेपर सबने अपनी कुशल कही और उनसे बोले—‘‘हे रघुनन्दन! हे महाबाहो! तुम्हारे राज्यमें तो सर्वत्र कुशल है न?॥ १५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिष्ट्येदानीं प्रपश्यामो हतशत्रुमरिन्दम।
न हि भारः स ते राम रावणो राक्षसेश्वरः॥ १६॥

मूलम्

दिष्ट्येदानीं प्रपश्यामो हतशत्रुमरिन्दम।
न हि भारः स ते राम रावणो राक्षसेश्वरः॥ १६॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे शत्रुदमन! आज हम बड़े भाग्यसे आपको शत्रुहीन देख रहे हैं! हे राम! आपके लिये राक्षसराज रावण (-का मारना) कुछ भारी नहीं था॥ १६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सधनुस्त्वं हि लोकांस्त्रीन् विजेतुं शक्त एव हि।
दिष्ट्या त्वया हताः सर्वे राक्षसा रावणादयः॥ १७॥

मूलम्

सधनुस्त्वं हि लोकांस्त्रीन् विजेतुं शक्त एव हि।
दिष्ट्या त्वया हताः सर्वे राक्षसा रावणादयः॥ १७॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्योंकि आप धनुष धारण करनेपर तीनों लोकोंको जीतनेमें भी समर्थ हैं! (हमारे) सौभाग्यसे आपने रावण आदि सभी राक्षसोंको मार डाला॥ १७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सह्यमेतन्महाबाहो रावणस्य निबर्हणम्।
असह्यमेतत्सम्प्राप्तं रावणेर्यन्निषूदनम्॥ १८॥

मूलम्

सह्यमेतन्महाबाहो रावणस्य निबर्हणम्।
असह्यमेतत्सम्प्राप्तं रावणेर्यन्निषूदनम्॥ १८॥

अनुवाद (हिन्दी)

और हे महाबाहो! रावणका मारना तो फिर भी सुगम था परन्तु रावणके पुत्र मेघनादका वध करना तो बड़ा ही दुष्कर कार्य था॥ १८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्तकप्रतिमाः सर्वे कुम्भकर्णादयो मृधे।
अन्तकप्रतिमैर्बाणैर्हतास्ते रघुसत्तम॥ १९॥

मूलम्

अन्तकप्रतिमाः सर्वे कुम्भकर्णादयो मृधे।
अन्तकप्रतिमैर्बाणैर्हतास्ते रघुसत्तम॥ १९॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये कुम्भकर्णादि सभी राक्षस युद्धमें कालके समान थे! हे रघुश्रेष्ठ! वे सब आपके कालके समान कराल बाणोंसे मारे गये॥ १९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दत्ता चेयं त्वयास्माकं पुरा ह्यभयदक्षिणा।
हत्वा रक्षोगणान् सङ्ख्ये कृतकृत्योऽद्य जीवसि॥ २०॥

मूलम्

दत्ता चेयं त्वयास्माकं पुरा ह्यभयदक्षिणा।
हत्वा रक्षोगणान् सङ्ख्ये कृतकृत्योऽद्य जीवसि॥ २०॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपने हमें तो पहले ही अभयदान दे दिया था। अब आप स्वयं भी इन राक्षसोंको युद्धमें मारकर कृतकृत्य हुए जीवित हैं’’॥ २०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वा तु भाषितं तेषां मुनीनां भावितात्मनाम्।
विस्मयं परमं गत्वा रामः प्राञ्जलिरब्रवीत्॥ २१॥

मूलम्

श्रुत्वा तु भाषितं तेषां मुनीनां भावितात्मनाम्।
विस्मयं परमं गत्वा रामः प्राञ्जलिरब्रवीत्॥ २१॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन आत्मनिष्ठ मुनीश्वरोंका भाषण सुन श्रीरामचन्द्रजीने अत्यन्त विस्मित हो उनसे हाथ जोड़कर पूछा—॥ २१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रावणादीनतिक्रम्य कुम्भकर्णादिराक्षसान्।
त्रिलोकजयिनो हित्वा किं प्रशंसथ रावणिम्॥ २२॥

मूलम्

रावणादीनतिक्रम्य कुम्भकर्णादिराक्षसान्।
त्रिलोकजयिनो हित्वा किं प्रशंसथ रावणिम्॥ २२॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘हे मुनिगण! आपलोग त्रिलोकविजयी रावण और कुम्भकर्णादि राक्षसोंको छोड़कर रावणके पुत्र मेघनादकी ही प्रशंसा क्यों करते हैं?’’॥ २२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तद्वचनं श्रुत्वा राघवस्य महात्मनः।
कुम्भयोनिर्महातेजा रामं प्रीत्या वचोऽब्रवीत्॥ २३॥

मूलम्

ततस्तद्वचनं श्रुत्वा राघवस्य महात्मनः।
कुम्भयोनिर्महातेजा रामं प्रीत्या वचोऽब्रवीत्॥ २३॥

अनुवाद (हिन्दी)

महात्मा रघुनाथजीके ये वचन सुनकर परम तेजस्वी मुनिवर अगस्त्यजीने उनसे अति प्रीतिपूर्वक कहा— ॥ २३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृणु राम यथा वृत्तं रावणे रावणस्य च।
जन्म कर्म वरादानं सङ्क्षेपाद्वदतो मम॥ २४॥

मूलम्

शृणु राम यथा वृत्तं रावणे रावणस्य च।
जन्म कर्म वरादानं सङ्क्षेपाद्वदतो मम॥ २४॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘हे राम! तुम रावण और उसके पुत्रके जन्म, कर्म और वर-प्राप्ति आदिका वृत्तान्त सुनो; मैं उनका संक्षेपसे वर्णन करता हूँ॥ २४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरा कृतयुगे राम पुलस्त्यो ब्रह्मणः सुतः।
तपस्तप्तुं गतो विद्वान् मेरोः पार्श्वं महामतिः॥ २५॥

मूलम्

पुरा कृतयुगे राम पुलस्त्यो ब्रह्मणः सुतः।
तपस्तप्तुं गतो विद्वान् मेरोः पार्श्वं महामतिः॥ २५॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राम! पूर्वकालमें सत्ययुगमें ब्रह्माके पुत्र महामति विद्वान् पुलस्त्यजी तप करनेके लिये सुमेरु पर्वतपर गये॥ २५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तृणबिन्दोराश्रमेऽसौ न्यवसन् मुनिपुङ्गवः।
तपस्तेपे महातेजाः स्वाध्यायनिरतः सदा॥ २६॥

मूलम्

तृणबिन्दोराश्रमेऽसौ न्यवसन् मुनिपुङ्गवः।
तपस्तेपे महातेजाः स्वाध्यायनिरतः सदा॥ २६॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे महातेजस्वी मुनिश्रेष्ठ तृणबिन्दुके आश्रममें रहने लगे और वहाँ निरन्तर स्वाध्याय (प्रणव-जप)-में तत्पर रह तप करने लगे॥ २६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्राश्रमे महारम्ये देवगन्धर्वकन्यकाः।
गायन्त्यो ननृतुस्तत्र हसन्त्यो वादयन्ति च॥ २७॥
पुलस्त्यस्य तपोविघ्नं चक्रुः सर्वा अनिन्दिताः।
ततः क्रुद्धो महातेजा व्याजहार वचो महत्॥ २८॥

मूलम्

तत्राश्रमे महारम्ये देवगन्धर्वकन्यकाः।
गायन्त्यो ननृतुस्तत्र हसन्त्यो वादयन्ति च॥ २७॥
पुलस्त्यस्य तपोविघ्नं चक्रुः सर्वा अनिन्दिताः।
ततः क्रुद्धो महातेजा व्याजहार वचो महत्॥ २८॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस महारमणीय आश्रममें देवता और गन्धर्वोंकी सुन्दरी कन्याएँ गाती, बजाती और हँसती हुई नाचने तथा पुलस्त्यजीके तपमें विघ्न डालने लगीं तब महातेजस्वी पुलस्त्यजी अत्यन्त क्रुद्ध होकर बोले—॥ २७-२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

या मे दृष्टिपथं गच्छेत्सा गर्भं धारयिष्यति।
ताः सर्वाः शापसंविग्ना न तं देशं प्रचक्रमुः॥ २९॥

मूलम्

या मे दृष्टिपथं गच्छेत्सा गर्भं धारयिष्यति।
ताः सर्वाः शापसंविग्ना न तं देशं प्रचक्रमुः॥ २९॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘जिस (देव या गन्धर्व) कन्यापर मेरी दृष्टि पड़ जायगी वही गर्भवती हो जायगी।’’ तब उस शापसे भयभीत होकर उनमेंसे कोई भी उस स्थानपर न आयी॥ २९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तृणबिन्दोस्तु राजर्षेः कन्या तन्नाशृणोद्वचः।
विचचार मुनेरग्रे निर्भया तं प्रपश्यती॥ ३०॥

मूलम्

तृणबिन्दोस्तु राजर्षेः कन्या तन्नाशृणोद्वचः।
विचचार मुनेरग्रे निर्भया तं प्रपश्यती॥ ३०॥

अनुवाद (हिन्दी)

किन्तु राजर्षि तृणबिन्दुकी कन्याने ये वाक्य नहीं सुने; इसलिये वह मुनीश्वरके सामने निर्भयतापूर्वक उन्हें देखती हुई घूमती रही॥ ३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बभूव पाण्डुरतनुर्व्यञ्जितान्तःशरीरजा।
दृष्ट्वा सा देहवैवर्ण्यं भीता पितरमन्वगात्॥ ३१॥

मूलम्

बभूव पाण्डुरतनुर्व्यञ्जितान्तःशरीरजा।
दृष्ट्वा सा देहवैवर्ण्यं भीता पितरमन्वगात्॥ ३१॥

अनुवाद (हिन्दी)

इससे वह (गर्भावस्थाको प्राप्त होकर) पीली पड़ गयी, तथा उसके स्तन (स्थूल होकर) साफ प्रकट होने लगे। अपने शरीरको विवर्ण हुआ देख वह डरती हुई अपने पिताके पास आयी॥ ३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तृणबिन्दुश्च तां दृष्ट्वा राजर्षिरमितद्युतिः।
ध्यात्वा मुनिकृतं सर्वमवैद्विज्ञानचक्षुषा॥ ३२॥

मूलम्

तृणबिन्दुश्च तां दृष्ट्वा राजर्षिरमितद्युतिः।
ध्यात्वा मुनिकृतं सर्वमवैद्विज्ञानचक्षुषा॥ ३२॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब उसे महातेजस्वी राजर्षि तृणबिन्दुने देखा तो उन्होंने ध्यानद्वारा अपनी ज्ञानदृष्टिसे मुनिवर पुलस्त्यका सब कृत्य जान लिया॥ ३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तां कन्यां मुनिवर्याय पुलस्त्याय ददौ पिता।
तां प्रगृह्याब्रवीत्कन्यां बाढमित्येव स द्विजः॥ ३३॥

मूलम्

तां कन्यां मुनिवर्याय पुलस्त्याय ददौ पिता।
तां प्रगृह्याब्रवीत्कन्यां बाढमित्येव स द्विजः॥ ३३॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब पिता तृणबिन्दुने वह कन्या मुनिश्रेष्ठ पुलस्त्यको दी और उन्होंने ‘बहुत अच्छा’ कह उसे स्वीकार कर लिया॥ ३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुश्रूषणपरां दृष्ट्वा मुनिः प्रीतोऽब्रवीद्वचः।
दास्यामि पुत्रमेकं ते उभयोर्वंशवर्धनम्॥ ३४॥

मूलम्

शुश्रूषणपरां दृष्ट्वा मुनिः प्रीतोऽब्रवीद्वचः।
दास्यामि पुत्रमेकं ते उभयोर्वंशवर्धनम्॥ ३४॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसे अत्यन्त शुश्रूषापरायण देख मुनिवर पुलस्त्यने उससे प्रसन्न होकर कहा—‘‘मैं तुझे दोनों वंशों (मातृपक्ष और पितृपक्ष)-को बढ़ानेवाला एक पुत्र दूँगा’’॥ ३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रासूत सा पुत्रं पुलस्त्याल्लोकविश्रुतम्।
विश्रवा इति विख्यातः पौलस्त्यो ब्रह्मविन्मुनिः॥ ३५॥

मूलम्

ततः प्रासूत सा पुत्रं पुलस्त्याल्लोकविश्रुतम्।
विश्रवा इति विख्यातः पौलस्त्यो ब्रह्मविन्मुनिः॥ ३५॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब उस कन्याने पुलस्त्यजीद्वारा एक त्रिलोक-विख्यात पुत्रको जन्म दिया, जो पुलस्त्य-पुत्र ब्रह्मवेत्ता मुनिवर विश्रवाके नामसे प्रसिद्ध हुआ॥ ३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य शीलादिकं दृष्ट्वा भरद्वाजो महामुनिः।
भार्यार्थं स्वां दुहितरं ददौ विश्रवसे मुदा॥ ३६॥

मूलम्

तस्य शीलादिकं दृष्ट्वा भरद्वाजो महामुनिः।
भार्यार्थं स्वां दुहितरं ददौ विश्रवसे मुदा॥ ३६॥

अनुवाद (हिन्दी)

विश्रवाका शील-स्वभावादि देखकर महामुनि भरद्वाजने प्रसन्न होकर उन्हें अपनी पुत्री विवाह दी॥ ३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यां तु पुत्रःसञ्जज्ञे पौलस्त्याल्लोकसम्मतः।
पितृतुल्यो वैश्रवणो ब्रह्मणा चानुमोदितः॥ ३७॥

मूलम्

तस्यां तु पुत्रःसञ्जज्ञे पौलस्त्याल्लोकसम्मतः।
पितृतुल्यो वैश्रवणो ब्रह्मणा चानुमोदितः॥ ३७॥

अनुवाद (हिन्दी)

उससे पुलस्त्यनन्दन विश्रवाने एक त्रिलोकीमें प्रतिष्ठित पुत्र उत्पन्न किया। वह विश्रवाका पुत्र अपने पिताहीके समान था तथा ब्रह्माजीने भी उसकी प्रशंसा की थी॥ ३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ददौ तत्तपसा तुष्टो ब्रह्मा तस्मै वरं शुभम्।
मनोऽभिलषितं तस्य धनेशत्वमखण्डितम्॥ ३८॥

मूलम्

ददौ तत्तपसा तुष्टो ब्रह्मा तस्मै वरं शुभम्।
मनोऽभिलषितं तस्य धनेशत्वमखण्डितम्॥ ३८॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके तपसे प्रसन्न होकर ब्रह्माजीने उसे मनोवांछित श्रेष्ठ वर देकर अखण्डित धनेश्वरता दी॥ ३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो लब्धवरः सोऽपि पितरं द्रष्टुमागतः।
पुष्पकेण धनाध्यक्षो ब्रह्मदत्तेन भास्वता॥ ३९॥

मूलम्

ततो लब्धवरः सोऽपि पितरं द्रष्टुमागतः।
पुष्पकेण धनाध्यक्षो ब्रह्मदत्तेन भास्वता॥ ३९॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्माजीके वरदानसे धनाध्यक्ष होकर वह उन्हींके दिये हुए महातेजस्वी पुष्पक विमानपर चढ़कर अपने पितासे मिलनेके लिये आया॥ ३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नमस्कृत्याथ पितरं निवेद्य तपसः फलम्।
प्राह मे भगवान् ब्रह्मा दत्त्वा वरमनिन्दितम्॥ ४०॥

मूलम्

नमस्कृत्याथ पितरं निवेद्य तपसः फलम्।
प्राह मे भगवान् ब्रह्मा दत्त्वा वरमनिन्दितम्॥ ४०॥

अनुवाद (हिन्दी)

और उन्हें अपने तपका फल निवेदन कर प्रणाम करके बोला—‘‘भगवान् ब्रह्माजीने मुझे यह अत्युत्तम वर दिया है॥ ४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निवासाय न मे स्थानं दत्तवान् परमेश्वरः।
ब्रूहि मे नियतं स्थानं हिंसा यत्र न कस्यचित्॥ ४१॥

मूलम्

निवासाय न मे स्थानं दत्तवान् परमेश्वरः।
ब्रूहि मे नियतं स्थानं हिंसा यत्र न कस्यचित्॥ ४१॥

अनुवाद (हिन्दी)

किन्तु उन परमेश्वरने मुझे रहनेके लिये कोई स्थान नहीं दिया। अतः आप मुझे कोई ऐसा निश्चित स्थान बताइये जहाँ रहनेसे किसीकी हिंसा न हो’’॥ ४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विश्रवा अपि तं प्राह लङ्कानाम पुरी शुभा।
राक्षसानां निवासाय निर्मिता विश्वकर्मणा॥ ४२॥

मूलम्

विश्रवा अपि तं प्राह लङ्कानाम पुरी शुभा।
राक्षसानां निवासाय निर्मिता विश्वकर्मणा॥ ४२॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब विश्रवाने उससे कहा—‘‘(दानवोंके) विश्वकर्माने लंका नामकी एक सुन्दर पुरी राक्षसोंके रहनेके लिये बनायी है॥ ४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्यक्त्वा विष्णुभयाद्दैत्या विविशुस्ते रसातलम्।
सा पुरी दुष्प्रधर्षान्यैर्मध्येसागरमास्थिता॥ ४३॥

मूलम्

त्यक्त्वा विष्णुभयाद्दैत्या विविशुस्ते रसातलम्।
सा पुरी दुष्प्रधर्षान्यैर्मध्येसागरमास्थिता॥ ४३॥

अनुवाद (हिन्दी)

किन्तु दैत्यलोग विष्णुभगवान् के भयसे उसे छोड़कर रसातलको चले गये हैं। उस पुरीका किसी शत्रुसे आक्रान्त होना अत्यन्त कठिन है; क्योंकि वह समुद्रके बीचमें बसी हुई है॥ ४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र वासाय गच्छ त्वं नान्यैः साधिष्ठिता पुरा।
पित्रादिष्टस्त्वसौ गत्वा तां पुरीं धनदोऽविशत्॥ ४४॥

मूलम्

तत्र वासाय गच्छ त्वं नान्यैः साधिष्ठिता पुरा।
पित्रादिष्टस्त्वसौ गत्वा तां पुरीं धनदोऽविशत्॥ ४४॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम वहीं रहनेके लिये जाओ। उस पुरीपर इससे पहले और किसीका अधिकार नहीं हुआ।’’ तब धनपति कुबेरने पिताकी आज्ञासे जाकर उसी पुरीमें प्रवेश किया। वहाँ अपने पिताकी सम्मतिसे उन्होंने बहुत समयतक निवास किया॥ ४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तत्र सुचिरं कालमुवास पितृसम्मतः।
कस्यचित्त्वथ कालस्य सुमाली नाम राक्षसः॥ ४५॥
रसातलान्मर्त्यलोकं चचार पिशिताशनः।
गृहीत्वा तनयां कन्यां साक्षाद्देवीमिव श्रियम्॥ ४६॥

मूलम्

स तत्र सुचिरं कालमुवास पितृसम्मतः।
कस्यचित्त्वथ कालस्य सुमाली नाम राक्षसः॥ ४५॥
रसातलान्मर्त्यलोकं चचार पिशिताशनः।
गृहीत्वा तनयां कन्यां साक्षाद्देवीमिव श्रियम्॥ ४६॥

अनुवाद (हिन्दी)

किसी समय सुमाली नामक एक मांस-भोजी राक्षस साक्षात् लक्ष्मीदेवीके समान रूपवती अपनी कुँआरी पुत्रीको साथ लिये रसातलसे आकर मर्त्यलोकमें घूम रहा था॥ ४५-४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपश्यद्धनदं देवं चरन्तं पुष्पकेण सः।
हिताय चिन्तयामास राक्षसानां महामनाः॥ ४७॥

मूलम्

अपश्यद्धनदं देवं चरन्तं पुष्पकेण सः।
हिताय चिन्तयामास राक्षसानां महामनाः॥ ४७॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने भगवान् कुबेरको पुष्पक विमानपर चढ़कर विचरते देखा। तब महामति सुमाली राक्षसोंके हितका उपाय सोचने लगा॥ ४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उवाच तनयां तत्र कैकसीं नाम नामतः।
वत्से विवाहकालस्ते यौवनं चातिवर्तते॥ ४८॥

मूलम्

उवाच तनयां तत्र कैकसीं नाम नामतः।
वत्से विवाहकालस्ते यौवनं चातिवर्तते॥ ४८॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह कैकसी नामवाली अपनी कन्यासे बोला—‘‘बेटी! तेरे विवाहका समय और यौवनकाल बीता जा रहा है॥ ४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रत्याख्यानाच्च भीतैस्त्वं न वरैर्गृह्यसे शुभे।
सा त्वं वरय भद्रं ते मुनिं ब्रह्मकुलोद्भवम्॥ ४९॥
स्वयमेव ततः पुत्रा भविष्यन्ति महाबलाः।
ईदृशाः सर्वशोभाढ्या धनदेन समाः शुभे॥ ५०॥

मूलम्

प्रत्याख्यानाच्च भीतैस्त्वं न वरैर्गृह्यसे शुभे।
सा त्वं वरय भद्रं ते मुनिं ब्रह्मकुलोद्भवम्॥ ४९॥
स्वयमेव ततः पुत्रा भविष्यन्ति महाबलाः।
ईदृशाः सर्वशोभाढ्या धनदेन समाः शुभे॥ ५०॥

अनुवाद (हिन्दी)

किन्तु हे सुन्दरि! ‘तू छोड़ देगी’ इस भयसे तुझे कोई वर वरण नहीं करता। अतः तेरा कल्याण हो, तू स्वयं ही जाकर ब्रह्माजीके वंशमें उत्पन्न हुए मुनिवर विश्रवाको वरण कर। हे शुभे! उनसे तेरे इस कुबेरके समान सर्वशोभासम्पन्न महाबलवान् पुत्र उत्पन्न होंगे’’॥ ४९-५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथेति साश्रमं गत्वा मुनेरग्रे व्यवस्थिता।
लिखन्ती भुवमग्रेण पादेनाधोमुखी स्थिता॥ ५१॥

मूलम्

तथेति साश्रमं गत्वा मुनेरग्रे व्यवस्थिता।
लिखन्ती भुवमग्रेण पादेनाधोमुखी स्थिता॥ ५१॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब वह ‘बहुत अच्छा’ कह मुनीश्वरके आश्रमपर जाकर खड़ी हो गयी और नीचेको मुख किये चरण-नखसे पृथिवी कुरेदने लगी॥ ५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तामपृच्छन्मुनिःका त्वं कन्यासि वरवर्णिनि।
साब्रवीत्प्राञ्जलिर्ब्रह्मन् ध्यानेन ज्ञातुमर्हसि॥ ५२॥

मूलम्

तामपृच्छन्मुनिःका त्वं कन्यासि वरवर्णिनि।
साब्रवीत्प्राञ्जलिर्ब्रह्मन् ध्यानेन ज्ञातुमर्हसि॥ ५२॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनीश्वरने उससे पूछा—‘‘हे सुन्दरवर्णवाली! तू कौन और किसकी कन्या है? (तथा किसलिये यहाँ आयी है?)’’ कैकसीने हाथ जोड़कर कहा—‘‘ब्रह्मन्! आप ध्यानद्वारा सभी कुछ जान सकते हैं’’॥ ५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो ध्यात्वा मुनिः सर्वं ज्ञात्वा तां प्रत्यभाषत।
ज्ञातं तवाभिलषितं मत्तः पुत्रानभीप्ससि॥ ५३॥

मूलम्

ततो ध्यात्वा मुनिः सर्वं ज्ञात्वा तां प्रत्यभाषत।
ज्ञातं तवाभिलषितं मत्तः पुत्रानभीप्ससि॥ ५३॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब मुनिवरने ध्यानद्वारा सब बातें जानकर उससे कहा—‘‘मैं तेरी अभिलाषा जान गया, तू मुझसे पुत्रोंकी इच्छा करती है॥ ५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दारुणायां तु वेलायामागतासि सुमध्यमे।
अतस्ते दारुणौ पुत्रौ राक्षसौ सम्भविष्यतः॥ ५४॥

मूलम्

दारुणायां तु वेलायामागतासि सुमध्यमे।
अतस्ते दारुणौ पुत्रौ राक्षसौ सम्भविष्यतः॥ ५४॥

अनुवाद (हिन्दी)

किन्तु हे सुन्दरि! तू इस दारुण समयमें आयी है इसलिये तेरे पुत्र भी दो महाभयंकर राक्षस होंगे’’॥ ५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

साब्रवीन्मुुनिशार्दूल त्वत्तोऽप्येवंविधौ सुतौ।
तामाह पश्चिमो यस्ते भविष्यति महामतिः॥ ५५॥

मूलम्

साब्रवीन्मुुनिशार्दूल त्वत्तोऽप्येवंविधौ सुतौ।
तामाह पश्चिमो यस्ते भविष्यति महामतिः॥ ५५॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने कहा—‘‘हे मुनिश्रेष्ठ! क्या आपके द्वारा भी ऐसे पुत्र होने चाहिये?’’ तब मुनीश्वरने उससे कहा—‘‘उनके पश्चात् तेरे जो पुत्र होगा वह महाबुद्धिमान्, परम भगवद्भक्त श्रीसम्पन्न और एकमात्र रामभक्तिमें ही तत्पर होगा’’॥ ५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महाभागवतः श्रीमान् रामभक्त्येकतत्परः।
इत्युक्ता सा तथा काले सुषुवे दशकन्धरम्॥ ५६॥
रावणं विंशतिभुजं दशशीर्षं सुदारुणम्।
तद्‍रक्षोजातमात्रेण चचाल च वसुन्धरा॥ ५७॥

मूलम्

महाभागवतः श्रीमान् रामभक्त्येकतत्परः।
इत्युक्ता सा तथा काले सुषुवे दशकन्धरम्॥ ५६॥
रावणं विंशतिभुजं दशशीर्षं सुदारुणम्।
तद्‍रक्षोजातमात्रेण चचाल च वसुन्धरा॥ ५७॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनीश्वरके ऐसा कहनेपर उसने यथासमय दस सिर और बीस भुजाओंवाले अति भयंकर रावणको जन्म दिया। उस राक्षसके जन्म लेते ही पृथिवी काँपने लगी॥ ५६-५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बभूवुर्नाशहेतूनि निमित्तान्यखिलान्यपि।
कुम्भकर्णस्ततो जातो महापर्वतसन्निभः॥ ५८॥

मूलम्

बभूवुर्नाशहेतूनि निमित्तान्यखिलान्यपि।
कुम्भकर्णस्ततो जातो महापर्वतसन्निभः॥ ५८॥

अनुवाद (हिन्दी)

और संसारके नाशके समस्त कारण उपस्थित हो गये। उसके पश्चात् महापर्वतके समान बड़े डील-डौलवाला कुम्भकर्ण उत्पन्न हुआ॥ ५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः शूर्पणखा नाम जाता रावणसोदरी।
ततो विभीषणो जातः शान्तात्मा सौम्यदर्शनः॥ ५९॥
स्वाध्यायी नियताहारो नित्यकर्मपरायणः।
कुम्भकर्णस्तु दुष्टात्मा द्विजान् सन्तुष्टचेतसः॥ ६०॥
भक्षयन्नृषिसङ्घांश्च विचचारातिदारुणः।
रावणोऽपि महासत्त्वो लोकानां भयदायकः।
ववृधे लोकनाशाय ह्यामयो देहिनामिव॥ ६१॥

मूलम्

ततः शूर्पणखा नाम जाता रावणसोदरी।
ततो विभीषणो जातः शान्तात्मा सौम्यदर्शनः॥ ५९॥
स्वाध्यायी नियताहारो नित्यकर्मपरायणः।
कुम्भकर्णस्तु दुष्टात्मा द्विजान् सन्तुष्टचेतसः॥ ६०॥
भक्षयन्नृषिसङ्घांश्च विचचारातिदारुणः।
रावणोऽपि महासत्त्वो लोकानां भयदायकः।
ववृधे लोकनाशाय ह्यामयो देहिनामिव॥ ६१॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर रावणकी बहिन शूर्पणखाका जन्म हुआ और उसके पीछे अति शान्तचित्त सौम्यमूर्ति विभीषण उत्पन्न हुआ, जो अत्यन्त स्वाध्यायशील मिताहारी और नित्यकर्मपरायण था। अत्यन्त दारुण दुष्टात्मा कुम्भकर्ण सन्तुष्टचित्त ब्राह्मण और ऋषियोंके समूहोंको भक्षण करता हुआ पृथिवीपर घूमने लगा तथा सम्पूर्ण लोकोंको भयभीत करनेवाला महाबली रावण भी प्राणियोंका नाश करनेवाले रोगके समान त्रिलोकीको नष्ट करनेके लिये बढ़ने लगा॥ ५९—६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम त्वं सकलान्तरस्थमभितो
जानासि विज्ञानदृक्
साक्षी सर्वहृदि स्थितो हि परमो
नित्योदितो निर्मलः।
त्वं लीलामनुजाकृतिः स्वमहिमन्
मायागुणैर्नाज्यसे
लीलार्थं प्रतिचोदितोऽद्य भवता
वक्ष्यामि रक्षोद्भवम्॥ ६२॥

मूलम्

राम त्वं सकलान्तरस्थमभितो
जानासि विज्ञानदृक्
साक्षी सर्वहृदि स्थितो हि परमो
नित्योदितो निर्मलः।
त्वं लीलामनुजाकृतिः स्वमहिमन्
मायागुणैर्नाज्यसे
लीलार्थं प्रतिचोदितोऽद्य भवता
वक्ष्यामि रक्षोद्भवम्॥ ६२॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राम! आप सबके अन्तःकरणोंमें विराजमान हैं और साक्षीरूपसे अपनी ज्ञानदृष्टिद्वारा सबके हृदयस्थित विचारोंको भलीभाँति जानते हैं। आप परम श्रेष्ठ, नित्य-प्रबुद्ध और निर्मल हैं। हे अपनी महिमामें स्थित रहनेवाले परमेश्वर! आपने लीलासे ही यह मनुष्यरूप धारण किया है, किन्तु आप मायाके गुणोंसे लिप्त नहीं होते। आपने लीलावश मुझसे पूछा है, इसीलिये मैं यह राक्षसोंका जन्मवृत्तान्त सुना रहा हूँ॥ ६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जानामि केवलमनन्तमचिन्त्यशक्तिं
चिन्मात्रमक्षरमजं विदितात्मतत्त्वम्।
त्वां राम गूढनिजरूपमनुप्रवृत्तो
मूढोऽप्यहं भवदनुग्रहतश्चरामि॥ ६३॥

मूलम्

जानामि केवलमनन्तमचिन्त्यशक्तिं
चिन्मात्रमक्षरमजं विदितात्मतत्त्वम्।
त्वां राम गूढनिजरूपमनुप्रवृत्तो
मूढोऽप्यहं भवदनुग्रहतश्चरामि॥ ६३॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राम! मैं आपको एकमात्र, अनन्त, अचिन्त्यशक्ति, चिन्मात्र, अक्षर, अजन्मा और आत्मबोधस्वरूप जानता हूँ तथा (मायाके द्वारा) अपने स्वरूपको गुप्त रखनेवाले आपमें (भजनद्वारा) परायण हो मैं मूढ़ भी आपकी कृपासे स्वच्छन्द विचरता रहता हूँ॥ ६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं वदन्तमिनवंशपवित्रकीर्तिः
कुम्भोद्भवं रघुपतिः प्रहसन्बभाषे।
मायाश्रितं सकलमेतदनन्यकत्वा-
न्मत्कीर्तनं जगति पापहरं निबोध॥ ६४॥

मूलम्

एवं वदन्तमिनवंशपवित्रकीर्तिः
कुम्भोद्भवं रघुपतिः प्रहसन्बभाषे।
मायाश्रितं सकलमेतदनन्यकत्वा-
न्मत्कीर्तनं जगति पापहरं निबोध॥ ६४॥

अनुवाद (हिन्दी)

अगस्त्यजीके इस प्रकार कहनेपर सूर्यवंशके सुयशस्वरूप श्रीरघुनाथजीने अगस्त्यजीसे हँसकर कहा— ‘‘यह सम्पूर्ण संसार मायामय है; क्योंकि वास्तवमें यह मुझसे पृथक् नहीं है, हे मुने! तुम मेरे गुण-कीर्तनको ही इस संसारमें सम्पूर्ण पापोंका नाश करनेवाला जानो’’॥ ६४॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे उत्तरकाण्डे प्रथमः सर्गः॥ १॥