१६

[षोडश सर्ग]

भागसूचना

वानरोंकी विदा तथा ग्रन्थप्रशंसा

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहादेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामेऽभिषिक्ते राजेन्द्रे सर्वलोकसुखावहे।
वसुधा सस्यसम्पन्ना फलवन्तो महीरुहाः॥ १॥

मूलम्

रामेऽभिषिक्ते राजेन्द्रे सर्वलोकसुखावहे।
वसुधा सस्यसम्पन्ना फलवन्तो महीरुहाः॥ १॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहादेवजी बोले—हे पार्वति! समस्त लोकोंको सुख देनेवाले राजराजेश्वर भगवान् रामके राज्याभिषिक्त होनेपर पृथिवी धन-धान्यसे पूर्ण हो गयी और वृक्ष फलयुक्त हो गये॥ १॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गन्धहीनानि पुष्पाणि गन्धवन्ति चकाशिरे।
सहस्रशतमश्वानां धेनूनां च गवां तथा॥ २॥
ददौ शतवृषान्पूर्वं द्विजेभ्यो रघुनन्दनः।
त्रिंशत्कोटि सुवर्णस्य ब्राह्मणेभ्यो ददौ पुनः॥ ३॥

मूलम्

गन्धहीनानि पुष्पाणि गन्धवन्ति चकाशिरे।
सहस्रशतमश्वानां धेनूनां च गवां तथा॥ २॥
ददौ शतवृषान्पूर्वं द्विजेभ्यो रघुनन्दनः।
त्रिंशत्कोटि सुवर्णस्य ब्राह्मणेभ्यो ददौ पुनः॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

तथा जो पुष्प गन्धहीन थे वे भी सुगन्धयुक्त होकर शोभा पाने लगे। श्रीरघुनाथजीने (राज्याभिषिक्त होकर) पहले एक लाख घोड़े, एक लाख दूध देनेवाली गौएँ और सैकड़ों बैल ब्राह्मणोंको दिये और फिर उन्हें तीस करोड़ सुवर्णमुद्रा दिये॥ २-३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वस्त्राभरणरत्नानि ब्राह्मणेभ्यो मुदा तथा।
सूर्यकान्तिसमप्रख्यां सर्वरत्नमयीं स्रजम्॥ ४॥
सुग्रीवाय ददौ प्रीत्या राघवो भक्तवत्सलः।
अङ्गदाय ददौ दिव्ये ह्यङ्गदे रघुनन्दनः॥ ५॥

मूलम्

वस्त्राभरणरत्नानि ब्राह्मणेभ्यो मुदा तथा।
सूर्यकान्तिसमप्रख्यां सर्वरत्नमयीं स्रजम्॥ ४॥
सुग्रीवाय ददौ प्रीत्या राघवो भक्तवत्सलः।
अङ्गदाय ददौ दिव्ये ह्यङ्गदे रघुनन्दनः॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् उन्होंने प्रसन्न होकर नाना प्रकारके वस्त्र, आभूषण और रत्नादि भी ब्राह्मणोंको दिये। फिर भक्तवत्सल रघुनाथजीने सब प्रकारके रत्नोंसे युक्त एक सूर्यकी कान्तिके समान चमकती हुई माला अत्यन्त प्रीतिपूर्वक सुग्रीवको दी और अंगदको दो दिव्य अंगद (भुजबन्ध) दिये॥ ४-५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चन्द्रकोटिप्रतीकाशं मणिरत्नविभूषितम्।
सीतायै प्रददौ हारं प्रीत्या रघुकुलोत्तमः॥ ६॥

मूलम्

चन्द्रकोटिप्रतीकाशं मणिरत्नविभूषितम्।
सीतायै प्रददौ हारं प्रीत्या रघुकुलोत्तमः॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर रघुकुल-तिलक श्रीरामचन्द्रजीने अति प्रेमभावसे करोड़ों चन्द्रमाओंके समान प्रकाशमान अमूल्य मणि और रत्नोंसे विभूषित एक हार श्रीजानकीजीको दिया॥ ६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवमुच्यात्मनः कण्ठाद्धारं जनकनन्दिनी।
अवैक्षत हरीन् सर्वान् भर्तारं च मुहुर्मुहुः॥ ७॥

मूलम्

अवमुच्यात्मनः कण्ठाद्धारं जनकनन्दिनी।
अवैक्षत हरीन् सर्वान् भर्तारं च मुहुर्मुहुः॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीजनकनन्दिनी उस हारको अपने गलेसे उतारकर बारंबार अपने पतिदेव और वानरोंकी ओर देखने लगीं॥ ७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामस्तामाह वैदेहीमिङ्गितज्ञो विलोकयन्।
वैदेहि यस्य तुष्टासि देहि तस्मै वरानने॥ ८॥

मूलम्

रामस्तामाह वैदेहीमिङ्गितज्ञो विलोकयन्।
वैदेहि यस्य तुष्टासि देहि तस्मै वरानने॥ ८॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीने सीताजीका संकेत समझकर उनकी ओर देखते हुए कहा—‘‘हे सुमुखि! जनक-नन्दिनि! तुम जिससे प्रसन्न हो उसे यह हार दे दो’॥ ८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हनूमते ददौ हारं पश्यतो राघवस्य च।
तेन हारेण शुशुभे मारुतिर्गौरवेण च॥ ९॥

मूलम्

हनूमते ददौ हारं पश्यतो राघवस्य च।
तेन हारेण शुशुभे मारुतिर्गौरवेण च॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब सीताजीने श्रीरामचन्द्रजीके सामने ही वह हार हनुमान् जी को दे दिया। उस हारको पहन और गौरवान्वित हो श्रीहनुमान् जी अत्यन्त शोभाको प्राप्त हुए॥ ९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामोऽपि मारुतिं दृष्ट्वा कृताञ्जलिमुपस्थितम्।
भक्त्या परमया तुष्ट इदं वचनमब्रवीत्॥ १०॥

मूलम्

रामोऽपि मारुतिं दृष्ट्वा कृताञ्जलिमुपस्थितम्।
भक्त्या परमया तुष्ट इदं वचनमब्रवीत्॥ १०॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् रामने भी सामने हाथ जोड़े खड़े हुए हनुमान् जी से उनकी भक्तिके कारण अत्यन्त प्रसन्न होकर कहा—॥ १०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हनूमंस्ते प्रसन्नोऽस्मि वरं वरय काङ्क्षितम्।
दास्यामि देवैरपि यद्दुर्लभं भुवनत्रये॥ ११॥

मूलम्

हनूमंस्ते प्रसन्नोऽस्मि वरं वरय काङ्क्षितम्।
दास्यामि देवैरपि यद्दुर्लभं भुवनत्रये॥ ११॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘हनूमन्! मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ, तुम्हें जिस वरकी इच्छा हो माँग लो। जो वर त्रिलोकीमें देवताओंको भी मिलना कठिन है वह भी मैं तुम्हें अवश्य दूँगा’’॥ ११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हनूमानपि तं प्राह नत्वा रामं प्रहृष्टधीः।
त्वन्नाम स्मरतो राम न तृप्यति मनो मम॥ १२॥

मूलम्

हनूमानपि तं प्राह नत्वा रामं प्रहृष्टधीः।
त्वन्नाम स्मरतो राम न तृप्यति मनो मम॥ १२॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब हनुमान् जी ने अत्यन्त हर्षित होकर उनसे कहा— ‘‘हे रामजी! आपका नाम-स्मरण करते हुए मेरा चित्त तृप्त नहीं होता॥ १२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतस्त्वन्नाम सततं स्मरन् स्थास्यामि भूतले।
यावत्स्थास्यति ते नाम लोके तावत्कलेवरम्॥ १३॥
मम तिष्ठतु राजेन्द्र वरोऽयं मेऽभिकाङ्क्षितः।
रामस्तथेति तं प्राह मुक्तस्तिष्ठ यथासुखम्॥ १४॥

मूलम्

अतस्त्वन्नाम सततं स्मरन् स्थास्यामि भूतले।
यावत्स्थास्यति ते नाम लोके तावत्कलेवरम्॥ १३॥
मम तिष्ठतु राजेन्द्र वरोऽयं मेऽभिकाङ्क्षितः।
रामस्तथेति तं प्राह मुक्तस्तिष्ठ यथासुखम्॥ १४॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः मैं निरन्तर आपका नाम-स्मरण करता हुआ पृथ्वीपर रहूँ। हे राजेन्द्र! मेरा मनोवाञ्छित वर यही है कि जबतक संसारमें आपका नाम रहे तबतक मेरा शरीर भी रहे।’’ श्रीरामचन्द्रजीने कहा—‘‘ऐसा ही हो, तुम जीवन्मुक्त होकर संसारमें सुखपूर्वक रहो॥ १३-१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कल्पान्ते मम सायुज्यं प्राप्स्यसे नात्र संशयः।
तमाह जानकी प्रीता यत्र कुत्रापि मारुते॥ १५॥
स्थितं त्वामनुयास्यन्ति भोगाः सर्वे ममाज्ञया।
इत्युक्तो मारुतिस्ताभ्यामीश्वराभ्यां प्रहृष्टधीः॥ १६॥

मूलम्

कल्पान्ते मम सायुज्यं प्राप्स्यसे नात्र संशयः।
तमाह जानकी प्रीता यत्र कुत्रापि मारुते॥ १५॥
स्थितं त्वामनुयास्यन्ति भोगाः सर्वे ममाज्ञया।
इत्युक्तो मारुतिस्ताभ्यामीश्वराभ्यां प्रहृष्टधीः॥ १६॥

अनुवाद (हिन्दी)

कल्पका अन्त होनेपर तुम मेरा सायुज्य प्राप्त करोगे, इसमें सन्देह नहीं।’’ फिर जानकीजीने उनसे कहा—‘‘हे मारुते! तुम जहाँ कहीं भी रहोगे वहीं मेरी आज्ञासे तुम्हारे पास सम्पूर्ण भोग उपस्थित हो जायँगे।’’ अपने प्रभु भगवान् राम और सीताजीके इस प्रकार कहनेपर महामति हनुमान् जी अत्यन्त प्रसन्न हुए॥ १५-१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आनन्दाश्रुपरीताक्षो भूयो भूयः प्रणम्य तौ।
कृच्छ्राद्ययौ तपस्तप्तुं हिमवन्तं महामतिः॥ १७॥

मूलम्

आनन्दाश्रुपरीताक्षो भूयो भूयः प्रणम्य तौ।
कृच्छ्राद्ययौ तपस्तप्तुं हिमवन्तं महामतिः॥ १७॥

अनुवाद (हिन्दी)

और फिर नेत्रोंमें आनन्दाश्रु भर उन्हें बारंबार प्रणाम कर बड़ी कठिनतासे तपस्या करनेके लिये हिमालयपर चले गये॥ १७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो गुहं समासाद्य रामः प्राञ्जलिमब्रवीत्।
सखे गच्छ पुरं रम्यं शृङ्गवेरमनुत्तमम्॥ १८॥

मूलम्

ततो गुहं समासाद्य रामः प्राञ्जलिमब्रवीत्।
सखे गच्छ पुरं रम्यं शृङ्गवेरमनुत्तमम्॥ १८॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर श्रीरामचन्द्रजीने हाथ जोड़े खड़े हुए गुहके पास जाकर कहा—‘मित्र! अब तुम अपने परम रमणीय ग्राम शृंगवेरपुरको जाओ॥ १८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मामेव चिन्तयन्नित्यं भुङ्क्ष्व भोगान्निजार्जितान्।
अन्ते ममैव सारूप्यं प्राप्स्यसे त्वं न संशयः॥ १९॥

मूलम्

मामेव चिन्तयन्नित्यं भुङ्क्ष्व भोगान्निजार्जितान्।
अन्ते ममैव सारूप्यं प्राप्स्यसे त्वं न संशयः॥ १९॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ मेरा ही चिन्तन करते हुए अपने शुभ कर्मोंसे प्राप्त हुए भोगोंको भोगो। इसमें संदेह नहीं, अन्तमें तुम मेरा ही सारूप्य प्राप्त करोगे’’॥ १९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा प्रददौ तस्मै दिव्यान्याभरणानि च।
राज्यं च विपुलं दत्त्वा विज्ञानं च ददौ विभुः॥ २०॥

मूलम्

इत्युक्त्वा प्रददौ तस्मै दिव्यान्याभरणानि च।
राज्यं च विपुलं दत्त्वा विज्ञानं च ददौ विभुः॥ २०॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कह भगवान् रामने उसे दिव्य आभूषण, बहुत-सा राज्य और तत्त्वज्ञानका उपदेश दिया॥ २०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामेणालिङ्गितो हृष्टो ययौ स्वभवनं गुहः।
ये चान्ये वानराः श्रेष्ठा अयोध्यां समुपागताः॥ २१॥
अमूल्याभरणैर्वस्त्रैः पूजयामास राघवः।
सुग्रीवप्रमुखाः सर्वे वानराः सविभीषणाः॥ २२॥
यथार्हं पूजितास्तेन रामेण परमात्मना।
प्रहृष्टमनसः सर्वे जग्मुरेव यथागतम्॥ २३॥

मूलम्

रामेणालिङ्गितो हृष्टो ययौ स्वभवनं गुहः।
ये चान्ये वानराः श्रेष्ठा अयोध्यां समुपागताः॥ २१॥
अमूल्याभरणैर्वस्त्रैः पूजयामास राघवः।
सुग्रीवप्रमुखाः सर्वे वानराः सविभीषणाः॥ २२॥
यथार्हं पूजितास्तेन रामेण परमात्मना।
प्रहृष्टमनसः सर्वे जग्मुरेव यथागतम्॥ २३॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर रघुनाथजीसे आलिंगित होकर गुह अपने घरको गया और भी जो-जो वानरश्रेष्ठ अयोध्यामें आये थे, श्रीरामचन्द्रजीने उन सबका भी अमूल्य वस्त्र और आभूषणोंसे सत्कार किया। इस प्रकार विभीषणके सहित सुग्रीव आदि समस्त वानरगण परमात्मा रामसे यथोचित सत्कार पाकर अपने-अपने स्थानोंको चले गये॥ २१—२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुग्रीवप्रमुखाः सर्वे किष्किन्धां प्रययुर्मुदा।
विभीषणस्तु सम्प्राप्य राज्यं निहतकण्टकम्॥ २४॥
रामेण पूजितः प्रीत्या ययौ लङ्कामनिन्दितः।
राघवो राज्यमखिलं शशासाखिलवत्सलः॥ २५॥

मूलम्

सुग्रीवप्रमुखाः सर्वे किष्किन्धां प्रययुर्मुदा।
विभीषणस्तु सम्प्राप्य राज्यं निहतकण्टकम्॥ २४॥
रामेण पूजितः प्रीत्या ययौ लङ्कामनिन्दितः।
राघवो राज्यमखिलं शशासाखिलवत्सलः॥ २५॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुग्रीवादि समस्त वानरगण प्रसन्नचित्तसे किष्किन्धाको गये और भगवान् रामसे सत्कृत हो अनिन्दित विभीषण अपना निष्कण्टक राज्य पाकर प्रीतिपूर्वक लंकाको गये तथा सबके ऊपर दया करनेवाले श्रीरामचन्द्रजी अपने सम्पूर्ण राज्यका शासन करने लगे॥ २४-२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनिच्छन्नपि रामेण यौवराज्येऽभिषेचितः।
लक्ष्मणः परया भक्त्या रामसेवापरोऽभवत्॥ २६॥

मूलम्

अनिच्छन्नपि रामेण यौवराज्येऽभिषेचितः।
लक्ष्मणः परया भक्त्या रामसेवापरोऽभवत्॥ २६॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् रामने श्रीलक्ष्मणजीको उनकी इच्छा न होनेपर भी युवराजपदपर अभिषिक्त किया और वे भी अत्यन्त भक्तिपूर्वक रामजीकी सेवामें रहने लगे॥ २६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामस्तु परमात्मापि कर्माध्यक्षोऽपि निर्मलः।
कर्तृत्वादि विहीनोऽपि निर्विकारोऽपि सर्वदा॥ २७॥
स्वानन्देनापि तुष्टः सन् लोकानामुपदेशकृत्।
अश्वमेधादियज्ञैश्च सर्वैर्विपुलदक्षिणैः॥ २८॥
अयजत्परमानन्दो मानुषं वपुराश्रितः।
न पर्यदेवन्विधवा न च व्यालकृतं भयम्॥ २९॥
न व्याधिजं भयं चासीद्‍रामे राज्यं प्रशासति।
लोके दस्युभयं नासीदनर्थो नास्ति कश्चन॥ ३०॥

मूलम्

रामस्तु परमात्मापि कर्माध्यक्षोऽपि निर्मलः।
कर्तृत्वादि विहीनोऽपि निर्विकारोऽपि सर्वदा॥ २७॥
स्वानन्देनापि तुष्टः सन् लोकानामुपदेशकृत्।
अश्वमेधादियज्ञैश्च सर्वैर्विपुलदक्षिणैः॥ २८॥
अयजत्परमानन्दो मानुषं वपुराश्रितः।
न पर्यदेवन्विधवा न च व्यालकृतं भयम्॥ २९॥
न व्याधिजं भयं चासीद्‍रामे राज्यं प्रशासति।
लोके दस्युभयं नासीदनर्थो नास्ति कश्चन॥ ३०॥

अनुवाद (हिन्दी)

परमात्मा रामने समस्त कर्मोंके साक्षी, नित्य निर्मल स्वरूप, कर्तृत्वादिसे रहित, सर्वदा निर्विकार और स्वानन्दतृप्त होकर भी समस्त लोकोंको उपदेश करनेके लिये मनुष्यरूप धारण कर बड़ी-बड़ी दक्षिणाओंवाले अश्वमेधादि समस्त यज्ञोंका अनुष्ठान किया। महाराज रामके राज्य-शासन करते समय कभी विधवाओंका क्रन्दन नहीं हुआ; सर्पों, व्याधियों और लुटेरोंका भय नहीं था और न कोई अनर्थ ही होता था॥ २७—३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृद्धेषु सत्सु बालानां नासीन्मृत्युभयं तथा।
रामपूजापराः सर्वे सर्वे राघवचिन्तकाः॥ ३१॥

मूलम्

वृद्धेषु सत्सु बालानां नासीन्मृत्युभयं तथा।
रामपूजापराः सर्वे सर्वे राघवचिन्तकाः॥ ३१॥

अनुवाद (हिन्दी)

वृद्धोंके रहते हुए बालकोंकी मृत्युका भय नहीं था, सब लोग भगवान् रामकी पूजा और उनका स्मरण करनेवाले थे॥ ३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ववर्षुर्जलदास्तोयं यथाकालं यथारुचि।
प्रजाः स्वधर्मनिरता वर्णाश्रमगुणान्विताः॥ ३२॥

मूलम्

ववर्षुर्जलदास्तोयं यथाकालं यथारुचि।
प्रजाः स्वधर्मनिरता वर्णाश्रमगुणान्विताः॥ ३२॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेघ सर्वदा ठीक समयपर यथेष्ट जल बरसाते थे, प्रजा अपना-अपना धर्म पालन करनेवाली और वर्णाश्रमके गुणोंसे युक्त थी॥ ३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

औरसानिव रामोऽपि जुगोप पितृवत्प्रजाः।
सर्वलक्षणसंयुक्तः सर्वधर्मपरायणः॥ ३३॥
दशवर्षसहस्राणि रामो राज्यमुपास्त सः॥ ३४॥

मूलम्

औरसानिव रामोऽपि जुगोप पितृवत्प्रजाः।
सर्वलक्षणसंयुक्तः सर्वधर्मपरायणः॥ ३३॥
दशवर्षसहस्राणि रामो राज्यमुपास्त सः॥ ३४॥

अनुवाद (हिन्दी)

तथा श्रीरामचन्द्रजी भी अपनी प्रजाका सगे पुत्रोंके समान पितृवत् पालन करते थे, इस प्रकार सर्वलक्षणसम्पन्न, सर्वधर्मपरायण भगवान् रामने दस सहस्र वर्ष राज्य-शासन किया॥ ३३-३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं रहस्यं धनधान्यऋद्धिम-
द्दीर्घायुरारोग्यकरं सुपुण्यदम्।
पवित्रमाध्यात्मिकसंज्ञितं पुरा
रामायणं भाषितमादिशम्भुना॥ ३५॥

मूलम्

इदं रहस्यं धनधान्यऋद्धिम-
द्दीर्घायुरारोग्यकरं सुपुण्यदम्।
पवित्रमाध्यात्मिकसंज्ञितं पुरा
रामायणं भाषितमादिशम्भुना॥ ३५॥

अनुवाद (हिन्दी)

धन-धान्यादि समस्त वैभव देनेवाले तथा दीर्घायु, आरोग्य और पुण्यकी वृद्धि करनेवाले इस आध्यात्मिक रामायण नामक परम पवित्र और गोपनीय रहस्यको पूर्वकालमें श्रीआदिमहादेवने पार्वतीजीको सुनाया था॥ ३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृणोति भक्त्या मनुजः समाहितो
भक्त्या पठेद्वा परितुष्टमानसः।
सर्वाः समाप्नोति मनोगताशिषो
विमुच्यते पातककोटिभिः क्षणात्॥ ३६॥

मूलम्

शृणोति भक्त्या मनुजः समाहितो
भक्त्या पठेद्वा परितुष्टमानसः।
सर्वाः समाप्नोति मनोगताशिषो
विमुच्यते पातककोटिभिः क्षणात्॥ ३६॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य इसे भक्तिपूर्वक समाहितचित्तसे सुनता अथवा प्रसन्न-चित्तसे भक्तिपूर्वक पढ़ता है वह अपने मनकी समस्त कामनाओंको प्राप्त करता है और एक क्षणमें ही करोड़ों पापोंसे मुक्त हो जाता है॥ ३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामाभिषेकं प्रयतः शृणोति यो
धनाभिलाषी लभते महद्धनम्।
पुत्राभिलाषी सुतमार्यसम्मतं
प्राप्नोति रामायणमादितः पठन्॥ ३७॥

मूलम्

रामाभिषेकं प्रयतः शृणोति यो
धनाभिलाषी लभते महद्धनम्।
पुत्राभिलाषी सुतमार्यसम्मतं
प्राप्नोति रामायणमादितः पठन्॥ ३७॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो धनकी इच्छा रखनेवाला पुरुष इस रामाभिषेकका एकाग्र-चित्तसे श्रवण करता है वह महान् सम्पत्ति प्राप्त करता है और जो पुत्राभिलाषी इस ग्रन्थका आरम्भसे ही पाठ करता है वह सत्पुरुषोंद्वारा सम्मान पानेयोग्य पुत्र पाता है। ॥ ३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृणोति योऽध्यात्मिकरामसंहितां
प्राप्नोति राजा भुवमृद्धसम्पदम्।
शत्रून्विजित्यारिभिरप्रधर्षितो
व्यपेतदुःखो विजयी भवेन्नृपः॥ ३८॥

मूलम्

शृणोति योऽध्यात्मिकरामसंहितां
प्राप्नोति राजा भुवमृद्धसम्पदम्।
शत्रून्विजित्यारिभिरप्रधर्षितो
व्यपेतदुःखो विजयी भवेन्नृपः॥ ३८॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो राजा इस अध्यात्मरामायणका श्रवण करता है वह धन-धान्यसम्पन्न पृथिवी प्राप्त करता है और शत्रुओंसे अपमानित न होकर सब प्रकारके दुःखसे छूटकर विजय लाभ करता है॥ ३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्त्रियोऽपि शृण्वन्त्यधिरामसंहितां
भवन्ति ता जीविसुताश्च पूजिताः।
वन्ध्यापि पुत्रं लभते सुरूपिणं
कथामिमां भक्तियुता शृणोति या॥ ३९॥

मूलम्

स्त्रियोऽपि शृण्वन्त्यधिरामसंहितां
भवन्ति ता जीविसुताश्च पूजिताः।
वन्ध्यापि पुत्रं लभते सुरूपिणं
कथामिमां भक्तियुता शृणोति या॥ ३९॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्त्रियोंमें भी जो कोई इस आध्यात्मिक रामसंहिताको सुनती हैं उनकी सन्तान चिरजीवी होती है और वे स्वयं उनसे सम्मानित होती हैं तथा जो वन्ध्या भी इस कथाका भक्तिपूर्वक श्रवण करती है वह सुन्दर रूपवान् पुत्र प्राप्त करती है॥ ३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रद्धान्वितो यः शृणुयात्पठेन्नरो
विजित्य कोपं च तथा विमत्सरः।
दुर्गाणि सर्वाणि विजित्य निर्भयो
भवेत्सुखी राघवभक्तिसंयुतः॥ ४०॥

मूलम्

श्रद्धान्वितो यः शृणुयात्पठेन्नरो
विजित्य कोपं च तथा विमत्सरः।
दुर्गाणि सर्वाणि विजित्य निर्भयो
भवेत्सुखी राघवभक्तिसंयुतः॥ ४०॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य क्रोधको जीतकर ईर्ष्यारहित हो इसे श्रद्धापूर्वक सुनता या पढ़ता है वह समस्त अवगुणोंको जीतकर निर्भय, सुखी और रामभक्तिसे सम्पन्न हो जाता है॥ ४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुराः समस्ता अपि यान्ति तुष्टतां
विघ्नाः समस्ता अपयान्ति शृण्वताम्।
अध्यात्मरामायणमादितो नृणां
भवन्ति सर्वा अपि सम्पदः पराः॥ ४१॥

मूलम्

सुराः समस्ता अपि यान्ति तुष्टतां
विघ्नाः समस्ता अपयान्ति शृण्वताम्।
अध्यात्मरामायणमादितो नृणां
भवन्ति सर्वा अपि सम्पदः पराः॥ ४१॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस अध्यात्मरामायणका आरम्भसे ही श्रवण करनेवाले पुरुषोंसे समस्त देवगण प्रसन्न हो जाते हैं, उनके सम्पूर्ण विघ्न दूर हो जाते हैं और उन्हें सब प्रकारकी उत्तम सम्पत्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं॥ ४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रजस्वला वा यदि रामतत्परा
शृणोति रामायणमेतदादितः।
पुत्रं प्रसूते ऋषभं चिरायुषं
पतिव्रता लोकसुपूजिता भवेत्॥ ४२॥

मूलम्

रजस्वला वा यदि रामतत्परा
शृणोति रामायणमेतदादितः।
पुत्रं प्रसूते ऋषभं चिरायुषं
पतिव्रता लोकसुपूजिता भवेत्॥ ४२॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि रजस्वला स्त्री भगवान् रामका स्मरण करती हुई आदिसे ही इस रामायणका श्रवण करे तो अति उत्तम और दीर्घायु पुत्र उत्पन्न करती है और वह स्वयं संसारसे सम्मानित पतिव्रता होती है॥ ४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूजयित्वा तु ये भक्त्या नमस्कुर्वन्ति नित्यशः।
सर्वैः पापैर्विनिर्मुक्ता विष्णोर्यान्ति परं पदम्॥ ४३॥

मूलम्

पूजयित्वा तु ये भक्त्या नमस्कुर्वन्ति नित्यशः।
सर्वैः पापैर्विनिर्मुक्ता विष्णोर्यान्ति परं पदम्॥ ४३॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो लोग इसका भक्तिपूर्वक पूजन कर इसे नित्यप्रति नमस्कार करते हैं वे समस्त पापोंसे मुक्त होकर भगवान् विष्णुके परमधामको प्राप्त होते हैं॥ ४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अध्यात्मरामचरितं कृत्स्नं शृण्वन्ति भक्तितः।
पठन्ति वा स्वयं वक्त्रात्तेषां रामः प्रसीदति॥ ४४॥

मूलम्

अध्यात्मरामचरितं कृत्स्नं शृण्वन्ति भक्तितः।
पठन्ति वा स्वयं वक्त्रात्तेषां रामः प्रसीदति॥ ४४॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पुरुष इस सम्पूर्ण अध्यात्मरामायणको भक्तिपूर्वक सुनते अथवा स्वयं अपने मुखसे ही पढ़ते हैं उनसे भगवान् राम प्रसन्न होते हैं॥ ४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम एव परं ब्रह्म तस्मिंस्तुष्टेऽखिलात्मनि।
धर्मार्थकाममोक्षाणां यद्यदिच्छति तद्भवेत्॥ ४५॥

मूलम्

राम एव परं ब्रह्म तस्मिंस्तुष्टेऽखिलात्मनि।
धर्मार्थकाममोक्षाणां यद्यदिच्छति तद्भवेत्॥ ४५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् राम ही परब्रह्म हैं; अतः उन सर्वात्मा रामके प्रसन्न होनेपर धर्म, अर्थ, काम, मोक्षमेंसे जिसकी इच्छा हो वही मिल सकता है॥ ४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रोतव्यं नियमेनैतद्‍रामायणमखण्डितम्।
आयुष्यमारोग्यकरं कल्पकोट्यघनाशनम्॥ ४६॥

मूलम्

श्रोतव्यं नियमेनैतद्‍रामायणमखण्डितम्।
आयुष्यमारोग्यकरं कल्पकोट्यघनाशनम्॥ ४६॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये आयु और आरोग्यकी देनेवाली तथा करोड़ों कल्पोंके पापसमूहका नाश करनेवाली इस रामायणका निरन्तर नित्यप्रति नियमपूर्वक श्रवण करना चाहिये॥ ४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवाश्च सर्वे तुष्यन्ति ग्रहाः सर्वे महर्षयः।
रामायणस्य श्रवणे तृप्यन्ति पितरस्तथा॥ ४७॥

मूलम्

देवाश्च सर्वे तुष्यन्ति ग्रहाः सर्वे महर्षयः।
रामायणस्य श्रवणे तृप्यन्ति पितरस्तथा॥ ४७॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसका श्रवण करनेसे समस्त देवगण, सम्पूर्ण ग्रह एवं महर्षिगण प्रसन्न हो जाते हैं तथा पितृगण भी तृप्ति लाभ करते हैं॥ ४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अध्यात्मरामायणमेतदद्भुतं
वैराग्यविज्ञानयुतं पुरातनम्।
पठन्ति शृण्वन्ति लिखन्ति ये नरा-
स्तेषां भवेऽस्मिन्न पुनर्भवो भवेत्॥ ४८॥

मूलम्

अध्यात्मरामायणमेतदद्भुतं
वैराग्यविज्ञानयुतं पुरातनम्।
पठन्ति शृण्वन्ति लिखन्ति ये नरा-
स्तेषां भवेऽस्मिन्न पुनर्भवो भवेत्॥ ४८॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पुरुष ज्ञान-वैराग्यसे युक्त इस अति अद्भुत प्राचीन अध्यात्मरामायणको पढ़ते, लिखते अथवा सुनते हैं उनका इस संसारमें फिर जन्म नहीं होता॥ ४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आलोड्याखिलवेदराशिमसकृद्यत्तारकं ब्रह्म तद्‍रामो विष्णुरहस्यमूर्तिरिति यो
विज्ञाय भूतेश्वरः।
उद्‍धृत्याखिलसारसङ्ग्रहमिदं
संक्षेपतः प्रस्फुटं
श्रीरामस्य निगूढतत्त्वमखिलं
प्राह प्रियायै भवः॥ ४९॥

मूलम्

आलोड्याखिलवेदराशिमसकृद्यत्तारकं ब्रह्म तद्‍रामो विष्णुरहस्यमूर्तिरिति यो
विज्ञाय भूतेश्वरः।
उद्‍धृत्याखिलसारसङ्ग्रहमिदं
संक्षेपतः प्रस्फुटं
श्रीरामस्य निगूढतत्त्वमखिलं
प्राह प्रियायै भवः॥ ४९॥

अनुवाद (हिन्दी)

भूतनाथ भगवान् फ़य़ समस्त वेद-राशिका मन्थन करके यह निश्चय किया कि तारक मन्त्र ‘राम’ विष्णुभगवान् की गुप्त मूर्ति है। अतः उन्होंने समस्त वेदोंके सार (उपनिषदों)-का संग्रहरूप यह भगवान् रामका सम्पूर्ण गुप्त तत्त्व अपनी प्रिया श्रीपार्वतीजीको संक्षेपमें विशेष स्पष्ट रूपसे सुनाया॥ ४९॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे युद्धकाण्डे षोडशः सर्गः॥ १६॥
समाप्तमिदं युद्धकाण्डम्