१५

[पञ्चदश सर्ग]

भागसूचना

श्रीराम-राज्याभिषेक

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहादेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तु कैकयीपुत्रो भरतो भक्तिसंयुतः।
शिरस्यञ्जलिमाधाय ज्येष्ठं भ्रातरमब्रवीत्॥ १॥

मूलम्

ततस्तु कैकयीपुत्रो भरतो भक्तिसंयुतः।
शिरस्यञ्जलिमाधाय ज्येष्ठं भ्रातरमब्रवीत्॥ १॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहादेवजी बोले—हे पार्वति! फिर कैकेयीपुत्र भरतजीने शीश झुकाये अंजलि बाँधकर अति भक्तिपूर्वक ज्येष्ठ भ्राता रामजीसे कहा—॥ १॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

माता मे सत्कृता राम दत्तं राज्यं त्वया मम।
ददामि तत्ते च पुनर्यथा त्वमददा मम॥ २॥

मूलम्

माता मे सत्कृता राम दत्तं राज्यं त्वया मम।
ददामि तत्ते च पुनर्यथा त्वमददा मम॥ २॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘हे राम! आपने मुझे राज्य दिया था, इससे मेरी माताका सत्कार तो हो चुका। अब जैसे आपने मुझे दिया था वैसे ही मैं फिर आपहीको उसे सौंपता हूँ’’॥ २॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा पादयोर्भक्त्या साष्टाङ्गं प्रणिपत्य च।
बहुधा प्रार्थयामास कैकेय्या गुरुणा सह॥ ३॥

मूलम्

इत्युक्त्वा पादयोर्भक्त्या साष्टाङ्गं प्रणिपत्य च।
बहुधा प्रार्थयामास कैकेय्या गुरुणा सह॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कह उन्होंने चरणोंमें भक्तिपूर्वक साष्टांग प्रणाम कर (राज्य स्वीकार करनेके लिये) कैकेयी और गुरुजीके सहित बहुत कुछ प्रार्थना की॥ ३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथेति प्रतिजग्राह भरताद्‍राज्यमीश्वरः।
मायामाश्रित्य सकलां नरचेष्टामुपागतः॥ ४॥

मूलम्

तथेति प्रतिजग्राह भरताद्‍राज्यमीश्वरः।
मायामाश्रित्य सकलां नरचेष्टामुपागतः॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब अपनी मायाको आश्रय कर सब प्रकारकी मनुष्य-लीलाएँ करनेमें प्रवृत्त हुए भगवान् रामने ‘बहुत अच्छा’ कह भरतजीसे राज्य ले लिया॥ ४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वाराज्यानुभवो यस्य सुखज्ञानैकरूपिणः।
निरस्तातिशयानन्दरूपिणः परमात्मनः॥ ५॥
मानुषेण तु राज्येन किं तस्य जगदीशितुः।
यस्य भ्रूभङ्गमात्रेण त्रिलोकी नश्यति क्षणात्॥ ६॥

मूलम्

स्वाराज्यानुभवो यस्य सुखज्ञानैकरूपिणः।
निरस्तातिशयानन्दरूपिणः परमात्मनः॥ ५॥
मानुषेण तु राज्येन किं तस्य जगदीशितुः।
यस्य भ्रूभङ्गमात्रेण त्रिलोकी नश्यति क्षणात्॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिन्हें हर समय स्वर्गीय राज्यका अनुभव होता है उन एकमात्र सुख और ज्ञानस्वरूप समस्त विषयानन्दोंसे रहित परमानन्दमूर्ति परमात्मा जगदीश्वरको तुच्छ मानवी राज्यसे क्या काम है? जिनके भृकुटि-विलासमात्रसे तीनों लोक एक क्षणमें नष्ट हो जाते हैं॥ ५-६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्यानुग्रहमात्रेण भवन्त्याखण्डलश्रियः।
लीलासृष्टमहासृष्टेः कियदेतद्‍रमापतेः॥ ७॥

मूलम्

यस्यानुग्रहमात्रेण भवन्त्याखण्डलश्रियः।
लीलासृष्टमहासृष्टेः कियदेतद्‍रमापतेः॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनकी कृपासे इन्द्रकी राज्यलक्ष्मी प्राप्त होती है तथा जिन्होंने लीलासे ही यह महान् सृष्टि रची है उन लक्ष्मीपतिके लिये यह (अयोध्याका राज्य) कितना है?॥ ७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथापि भजतां नित्यं कामपूरविधित्सया।
लीलामानुषदेहेन सर्वमप्यनुवर्तते॥ ८॥

मूलम्

तथापि भजतां नित्यं कामपूरविधित्सया।
लीलामानुषदेहेन सर्वमप्यनुवर्तते॥ ८॥

अनुवाद (हिन्दी)

तथापि अपने भक्तोंकी कामनाओंको सदैव पूर्ण करनेके लिये वे माया-मानवदेहसे सर्वदा सभी कुछ अभिनय करते हैं॥ ८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः शत्रुघ्नवचनान् निपुणः श्मश्रुकृन्तकः।
सम्भाराश्चाभिषेकार्थमानीता राघवस्य हि॥ ९॥

मूलम्

ततः शत्रुघ्नवचनान् निपुणः श्मश्रुकृन्तकः।
सम्भाराश्चाभिषेकार्थमानीता राघवस्य हि॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब शत्रुघ्नजीकी आज्ञासे कुशल क्षौरकार (नाई) बुलाया गया और रघुनाथजीके अभिषेकके लिये सामग्री इकट्ठी की गयी॥ ९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूर्वं तु भरते स्नाते लक्ष्मणे च महात्मनि।
सुग्रीवे वानरेन्द्रे च राक्षसेन्द्रे विभीषणे॥ १०॥

मूलम्

पूर्वं तु भरते स्नाते लक्ष्मणे च महात्मनि।
सुग्रीवे वानरेन्द्रे च राक्षसेन्द्रे विभीषणे॥ १०॥

अनुवाद (हिन्दी)

पहले भरतजीने और फिर महात्मा लक्ष्मणजीने स्नान किया, तदुपरान्त वानरराज सुग्रीव और राक्षसराज विभीषण नहाये॥ १०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विशोधितजटः स्नातश्चित्रमाल्यानुलेपनः।
महार्हवसनोपेतस्तस्थौ तत्र श्रिया ज्वलन्॥ ११॥

मूलम्

विशोधितजटः स्नातश्चित्रमाल्यानुलेपनः।
महार्हवसनोपेतस्तस्थौ तत्र श्रिया ज्वलन्॥ ११॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर जटाजूटके कट जानेपर श्रीरघुनाथजीने स्नान किया और रंग-विरंगी मालाओं, अंगरागों तथा बहुमूल्य वस्त्रोंसे सुसज्जित हो वे अपनी कान्तिसे देदीप्यमान होकर विराजमान हुए॥ ११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतिकर्म च रामस्य लक्ष्मणश्च महामतिः।
कारयामास भरतः सीताया राजयोषितः॥ १२॥

मूलम्

प्रतिकर्म च रामस्य लक्ष्मणश्च महामतिः।
कारयामास भरतः सीताया राजयोषितः॥ १२॥

अनुवाद (हिन्दी)

महामति लक्ष्मण और भरतने श्रीरामचन्द्रजीको विभूषित कराया और राजमहिलाओंने सीताजीका शृंगार किया॥ १२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महार्हवस्त्राभरणैरलञ्चक्रुः सुमध्यमाम्।
ततो वानरपत्नीनां सर्वासामेव शोभना॥ १३॥
अकारयत कौसल्या प्रहृष्टा पुत्रवत्सला।
ततः स्यन्दनमादाय शत्रुघ्नवचनात्सुधीः॥ १४॥
सुमन्त्रः सूर्यसङ्काशं योजयित्वाग्रतः स्थितः।
आरुरोह रथं रामः सत्यधर्मपरायणः॥ १५॥

मूलम्

महार्हवस्त्राभरणैरलञ्चक्रुः सुमध्यमाम्।
ततो वानरपत्नीनां सर्वासामेव शोभना॥ १३॥
अकारयत कौसल्या प्रहृष्टा पुत्रवत्सला।
ततः स्यन्दनमादाय शत्रुघ्नवचनात्सुधीः॥ १४॥
सुमन्त्रः सूर्यसङ्काशं योजयित्वाग्रतः स्थितः।
आरुरोह रथं रामः सत्यधर्मपरायणः॥ १५॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने उस सुन्दरीको नाना प्रकारके बहुमूल्य वस्त्र और आभूषणोंसे सुसज्जित किया। तदनन्तर पुत्रवत्सला शोभामयी कौसल्याजीने अति प्रसन्न होकर समस्त वानरपत्नियोंका भी शृंगार कराया॥ ॥
इसी समय शत्रुघ्नजीकी आज्ञासे बुद्धिमान् सुमन्त्रने सूर्यके समान तेजस्वी रथ जोड़कर सामने ला खड़ा किया। तब सत्यधर्मपरायण भगवान् राम उस रथपर चढ़े॥ १३—१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुग्रीवो युवराजश्च हनुमांश्च विभीषणः।
स्नात्वा दिव्याम्बरधरा दिव्याभरणभूषिताः॥ १६॥
राममन्वीयुरग्रे च रथाश्वगजवाहनाः।
सुग्रीवपत्न्यः सीता च ययुर्यानैः पुरं महत्॥ १७॥

मूलम्

सुग्रीवो युवराजश्च हनुमांश्च विभीषणः।
स्नात्वा दिव्याम्बरधरा दिव्याभरणभूषिताः॥ १६॥
राममन्वीयुरग्रे च रथाश्वगजवाहनाः।
सुग्रीवपत्न्यः सीता च ययुर्यानैः पुरं महत्॥ १७॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय सुग्रीव, अंगद, हनुमान् और विभीषण स्नानादि कर दिव्य वस्त्राभूषणोंसे सुसज्जित हो रथ, घोड़े और हाथी आदि वाहनोंपर चढ़कर श्रीरामचन्द्रजीके आगे-पीछे चले तथा सुग्रीवकी पत्नियाँ और सीताजी सुन्दर पालकियोंपर बैठकर अति विशाल अयोध्यापुरीको चलीं॥ १६-१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वज्रपाणिर्यथा देवैर्हरिताश्वरथे स्थितः।
प्रययौ रथमास्थाय तथा रामो महत्पुरम्॥ १८॥

मूलम्

वज्रपाणिर्यथा देवैर्हरिताश्वरथे स्थितः।
प्रययौ रथमास्थाय तथा रामो महत्पुरम्॥ १८॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस प्रकार हरितवर्ण घोड़ोंके रथमें बैठकर वज्रपाणि इन्द्र देवताओंके साथ चलते हैं, उसी प्रकार भगवान् राम रथपर चढ़कर महापुरी अयोध्याको चले॥ १८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सारथ्यं भरतश्चक्रे रत्नदण्डं महाद्युतिः।
श्वेतातपत्रं शत्रुघ्नो लक्ष्मणो व्यजनं दधे॥ १९॥

मूलम्

सारथ्यं भरतश्चक्रे रत्नदण्डं महाद्युतिः।
श्वेतातपत्रं शत्रुघ्नो लक्ष्मणो व्यजनं दधे॥ १९॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब महातेजस्वी भरतजीने सारथी होकर रथ चलाया, शत्रुघ्नजीने रत्नजटित दण्डयुक्त श्वेत छत्र लिया और लक्ष्मणजीने व्यजन (पंखा) धारण किया॥ १९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चामरं च समीपस्थो न्यवीजयदरिन्दमः।
शशिप्रकाशं त्वपरं जग्राहासुरनायकः॥ २०॥

मूलम्

चामरं च समीपस्थो न्यवीजयदरिन्दमः।
शशिप्रकाशं त्वपरं जग्राहासुरनायकः॥ २०॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक ओर पास ही स्थित शत्रुदमन सुग्रीवने और दूसरी ओर राक्षसराज विभीषणने चन्द्रमाके समान कान्तियुक्त चँवर डुलाया॥ २०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिविजैः सिद्धसङ्घैश्च ऋषिभिर्दिव्यदर्शनैः।
स्तूयमानस्य रामस्य शुश्रुवे मधुरध्वनिः॥ २१॥

मूलम्

दिविजैः सिद्धसङ्घैश्च ऋषिभिर्दिव्यदर्शनैः।
स्तूयमानस्य रामस्य शुश्रुवे मधुरध्वनिः॥ २१॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय भगवान् रामकी स्तुति करते हुए दिव्यदर्शन देवताओं, सिद्धसमूहों और ऋषियोंकी सुमधुर ध्वनि सुनायी देने लगी॥ २१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मानुषं रूपमास्थाय वानरा गजवाहनाः।
भेरीशङ्खनिनादैश्च मृदङ्गपणवानकैः॥ २२॥
प्रययौ राघवश्रेष्ठस्तां पुरीं समलङ्कृताम्।
ददृशुस्ते समायान्तं राघवं पुरवासिनः॥ २३॥

मूलम्

मानुषं रूपमास्थाय वानरा गजवाहनाः।
भेरीशङ्खनिनादैश्च मृदङ्गपणवानकैः॥ २२॥
प्रययौ राघवश्रेष्ठस्तां पुरीं समलङ्कृताम्।
ददृशुस्ते समायान्तं राघवं पुरवासिनः॥ २३॥

अनुवाद (हिन्दी)

वानरगण मनुष्यरूप धारणकर हाथियोंपर सवार हुए। इस प्रकार रघुश्रेष्ठ भगवान् राम शहनाई, शंख, मृदंग, ताशे और नगाड़े आदि बाजोंके घोषके साथ भली प्रकार सजायी हुई अयोध्यापुरीमें गये। उस समय पुरवासी लोग श्रीरघुनाथजीको आते हुए देखने लगे॥ २२-२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दूर्वादलश्यामतनुं महार्ह-
किरीटरत्नाभरणाञ्चिताङ्गम्।
आरक्तकञ्जायतलोचनान्तं
दृष्ट्वा ययुर्मोदमतीव पुण्याः॥ २४॥
विचित्ररत्नाञ्चितसूत्रनद्ध-
पीताम्बरं पीनभुजान्तरालम्।
अनर्घ्यमुक्ताफलदिव्यहारै-
र्विरोचमानं रघुनन्दनं प्रजाः॥ २५॥
सुग्रीवमुख्यैर्हरिभिः प्रशान्तै-
र्निषेव्यमाणं रवितुल्यभासम्।
कस्तूरिकाचन्दनलिप्तगात्रं
निवीतकल्पद्रुमपुष्पमालम्॥ २६॥

मूलम्

दूर्वादलश्यामतनुं महार्ह-
किरीटरत्नाभरणाञ्चिताङ्गम्।
आरक्तकञ्जायतलोचनान्तं
दृष्ट्वा ययुर्मोदमतीव पुण्याः॥ २४॥
विचित्ररत्नाञ्चितसूत्रनद्ध-
पीताम्बरं पीनभुजान्तरालम्।
अनर्घ्यमुक्ताफलदिव्यहारै-
र्विरोचमानं रघुनन्दनं प्रजाः॥ २५॥
सुग्रीवमुख्यैर्हरिभिः प्रशान्तै-
र्निषेव्यमाणं रवितुल्यभासम्।
कस्तूरिकाचन्दनलिप्तगात्रं
निवीतकल्पद्रुमपुष्पमालम्॥ २६॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे महाभाग पुरजन दूर्वादलके समान श्याम-शरीर, महामूल्य मुकुट और रत्नजटित आभूषणोंसे विभूषित, कमलके समान कुछ अरुणवर्ण विशाल नयनोंवाले, रंग-विरंगे रत्नोंसे युक्त (सुनहरी) तारके कामका पीताम्बर धारण किये, विशाल वक्षःस्थलवाले, बहुमूल्य मोतियोंके दिव्य हारोंसे सुशोभित, सुग्रीवादि शान्तस्वभाव वानरोंसे सेवित, सूर्यके समान तेजस्वी, समस्त शरीरमें कस्तूरी और चन्दनका लेप किये तथा कल्पवृक्षके पुष्पोंकी माला धारण किये श्रीरघुनाथजीको देखकर परम आनन्दको प्राप्त हुए॥ २४—२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वा स्त्रियो राममुपागतं मुदा
प्रहर्षवेगोत्कलिताननश्रियः।
अपास्य सर्वं गृहकार्यमाहितं
हर्म्याणि चैवारुरुहुः स्वलङ्कृताः॥ २७॥

मूलम्

श्रुत्वा स्त्रियो राममुपागतं मुदा
प्रहर्षवेगोत्कलिताननश्रियः।
अपास्य सर्वं गृहकार्यमाहितं
हर्म्याणि चैवारुरुहुः स्वलङ्कृताः॥ २७॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब स्त्रियोंने भगवान् रामको आते सुना तो प्रसन्नतासे महान् हर्षके कारण उनके मुखकी कान्ति उज्ज्वल हो गयी और वे जिस गृहकार्यमें लगी हुई थीं, उसे छोड़ भली प्रकार सज-धजकर अपने-अपने घरोंके ऊपर चढ़ गयीं॥ २७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्वा हरिं सर्वदृगुत्सवाकृतिं
पुष्पैः किरन्त्यः स्मितशोभिताननाः।
दृग्भिः पुनर्नेत्रमनोरसायनं
स्वानन्दमूर्तिं मनसाभिरेभिरे॥ २८॥

मूलम्

दृष्ट्वा हरिं सर्वदृगुत्सवाकृतिं
पुष्पैः किरन्त्यः स्मितशोभिताननाः।
दृग्भिः पुनर्नेत्रमनोरसायनं
स्वानन्दमूर्तिं मनसाभिरेभिरे॥ २८॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुमधुर मुसकानसे जिनका मुख मनोहर हो रहा है, वे पुरनारियाँ सबके नयनानन्द-स्वरूप भगवान् रामको देखकर फूलोंकी वर्षा करने लगीं और फिर उन्होंने नेत्र और मनको प्रिय लगनेवाली उस आनन्दमयी मूर्तिको नेत्रोंद्वारा हृदयमें ले जाकर मनसे आलिंगन किया॥ २८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामः स्मितस्निग्धदृशा प्रजास्तथा
पश्यन् प्रजानाथ इवापरः प्रभुः।
शनैर्जगामाथ पितुः स्वलङ्कृतं
गृहं महेन्द्रालयसन्निभं हरिः॥ २९॥

मूलम्

रामः स्मितस्निग्धदृशा प्रजास्तथा
पश्यन् प्रजानाथ इवापरः प्रभुः।
शनैर्जगामाथ पितुः स्वलङ्कृतं
गृहं महेन्द्रालयसन्निभं हरिः॥ २९॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार विष्णुस्वरूप भगवान् राम दूसरे प्रजापतिके समान मुसकानयुक्त मनोहर दृष्टिसे अपनी प्रजाको देखते हुए धीरे-धीरे भली प्रकार सजाये हुए अपने पिताके इन्द्रभवनके समान महलमें गये॥ २९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रविश्य वेश्मान्तरसंस्थितो मुदा
रामो ववन्दे चरणौ स्वमातुः।
क्रमेण सर्वाः पितृयोषितः प्रभु-
र्ननाम भक्त्या रघुवंशकेतुः॥ ३०॥

मूलम्

प्रविश्य वेश्मान्तरसंस्थितो मुदा
रामो ववन्दे चरणौ स्वमातुः।
क्रमेण सर्वाः पितृयोषितः प्रभु-
र्ननाम भक्त्या रघुवंशकेतुः॥ ३०॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजमहलके भीतर जाकर श्रीरामचन्द्रजीने अतिप्रसन्न चित्तसे अपनी माता (कौसल्या)-के चरणोंकी वन्दना की और फिर उन रघुवंशशिरोमणि प्रभुने क्रमशः सभी विमाताओंको भक्तिपूर्वक प्रणाम किया॥ ३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो भरतमाहेदं रामः सत्यपराक्रमः।
सर्वसम्पत्समायुक्तं मम मन्दिरमुत्तमम्॥ ३१॥
मित्राय वानरेन्द्राय सुग्रीवाय प्रदीयताम्।
सर्वेभ्यः सुखवासार्थं मन्दिराणि प्रकल्पय॥ ३२॥

मूलम्

ततो भरतमाहेदं रामः सत्यपराक्रमः।
सर्वसम्पत्समायुक्तं मम मन्दिरमुत्तमम्॥ ३१॥
मित्राय वानरेन्द्राय सुग्रीवाय प्रदीयताम्।
सर्वेभ्यः सुखवासार्थं मन्दिराणि प्रकल्पय॥ ३२॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब सत्यपराक्रमी भगवान् रामने भरतजीसे कहा—‘‘मेरा सर्वसम्पत्तियुक्त श्रेष्ठ महल मेरे मित्र वानरराज सुग्रीवको दो तथा और सबके लिये भी सुखपूर्वक रहनेयोग्य महल बताओ’’॥ ३१-३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामेणैवं समादिष्टो भरतश्च तथाकरोत्।
उवाच च महातेजाः सुग्रीवं राघवानुजः॥ ३३॥

मूलम्

रामेणैवं समादिष्टो भरतश्च तथाकरोत्।
उवाच च महातेजाः सुग्रीवं राघवानुजः॥ ३३॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरघुनाथजीकी आज्ञा पाकर भरतजीने वैसा ही किया, फिर महातेजस्वी भरतजीने सुग्रीवसे कहा—॥ ३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राघवस्याभिषेकार्थं चतुःसिन्धुजलं शुभम्।
आनेतुं प्रेषयस्वाशु दूतांस्त्वरितविक्रमान्॥ ३४॥

मूलम्

राघवस्याभिषेकार्थं चतुःसिन्धुजलं शुभम्।
आनेतुं प्रेषयस्वाशु दूतांस्त्वरितविक्रमान्॥ ३४॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘श्रीरामचन्द्रजीके अभिषेकके लिये चारों समुद्रोंका मंगलमय जल लानेके लिये तुरंत ही शीघ्रगामी दूत भेजिये’’॥ ३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रेषयामास सुग्रीवो जाम्बवन्तं मरुत्सुतम्।
अङ्गदं च सुषेणं च ते गत्वा वायुवेगतः॥ ३५॥
जलपूर्णान् शातकुम्भकलशांश्च समानयन्।
आनीतं तीर्थसलिलं शत्रुघ्नो मन्त्रिभिः सह॥ ३६॥
राघवस्याभिषेकार्थं वसिष्ठाय न्यवेदयत्।
ततस्तु प्रयतो वृद्धो वसिष्ठो ब्राह्मणैः सह॥ ३७॥
रामं रत्नमये पीठे ससीतं संन्यवेशयत्।
वसिष्ठो वामदेवश्च जाबालिर्गौतमस्तथा॥ ३८॥
वाल्मीकिश्च तथा चक्रुः सर्वे रामाभिषेचनम्।
कुशाग्रतुलसीयुक्तपुण्यगन्धजलैर्मुदा॥ ३९॥

मूलम्

प्रेषयामास सुग्रीवो जाम्बवन्तं मरुत्सुतम्।
अङ्गदं च सुषेणं च ते गत्वा वायुवेगतः॥ ३५॥
जलपूर्णान् शातकुम्भकलशांश्च समानयन्।
आनीतं तीर्थसलिलं शत्रुघ्नो मन्त्रिभिः सह॥ ३६॥
राघवस्याभिषेकार्थं वसिष्ठाय न्यवेदयत्।
ततस्तु प्रयतो वृद्धो वसिष्ठो ब्राह्मणैः सह॥ ३७॥
रामं रत्नमये पीठे ससीतं संन्यवेशयत्।
वसिष्ठो वामदेवश्च जाबालिर्गौतमस्तथा॥ ३८॥
वाल्मीकिश्च तथा चक्रुः सर्वे रामाभिषेचनम्।
कुशाग्रतुलसीयुक्तपुण्यगन्धजलैर्मुदा॥ ३९॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब सुग्रीवने जाम्बवान् , हनुमान् , अंगद और सुषेणको भेजा। वे तुरंत ही वायुवेगसे जाकर सुवर्णकलशोंमें जल भरकर ले आये। उनके लाये हुए तीर्थजलको मन्त्रियोंके सहित शत्रुघ्नजीने भगवान् रामके अभिषेकके लिये वसिष्ठजीको निवेदन कर दिया। तब ब्राह्मणोंके सहित वयोवृद्ध जितेन्द्रिय वसिष्ठजीने सीताजीके सहित श्रीरामचन्द्रजीको रत्नसिंहासनपर बैठाया और फिर वसिष्ठ, वामदेव, जाबालि, गौतम तथा वाल्मीकि आदि समस्त महर्षियोंने अति प्रसन्न होकर कुश और तुलसीके सहित पवित्र गन्धयुक्त जलसे श्रीरामचन्द्रजीका अभिषेक किया॥ ३५—३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभ्यषिञ्चन् रघुश्रेष्ठं वासवं वसवो यथा।
ऋत्विग्भिर्ब्राह्मणैः श्रेष्ठैः कन्याभिः सह मन्त्रिभिः॥ ४०॥
सर्वौषधिरसैश्चैव दैवतैर्नभसि स्थितैः।
चतुर्भिर्लोकपालैश्च स्तुवद्भिः सगणैस्तथा॥ ४१॥

मूलम्

अभ्यषिञ्चन् रघुश्रेष्ठं वासवं वसवो यथा।
ऋत्विग्भिर्ब्राह्मणैः श्रेष्ठैः कन्याभिः सह मन्त्रिभिः॥ ४०॥
सर्वौषधिरसैश्चैव दैवतैर्नभसि स्थितैः।
चतुर्भिर्लोकपालैश्च स्तुवद्भिः सगणैस्तथा॥ ४१॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर ऋत्विजों, श्रेष्ठ ब्राह्मणों, कन्याओं और मन्त्रियोंके सहित उन महर्षियोंने आकाशस्थित देवताओं तथा अपने-अपने गणोंके सहित चारों लोकपालोंके स्तुति करते हुए सर्वौषधिके रसोंसे भी श्रीरघुनाथजीका इस प्रकार अभिषेक किया जैसे वसुओंने इन्द्रका किया था॥ ४०-४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

छत्रं च तस्य जग्राह शत्रुघ्नः पाण्डुरं शुभम्।
सुग्रीवराक्षसेन्द्रौ तौ दधतुः श्वेतचामरे॥ ४२॥

मूलम्

छत्रं च तस्य जग्राह शत्रुघ्नः पाण्डुरं शुभम्।
सुग्रीवराक्षसेन्द्रौ तौ दधतुः श्वेतचामरे॥ ४२॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय शत्रुघ्नजीने भगवान् रामके ऊपर अति सुन्दर श्वेत छत्र लगाया और सुग्रीव तथा विभीषणने श्वेत चामर धारण किये॥ ४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मालां च काञ्चनीं वायुर्ददौ वासवचोदितः।
सर्वरत्नसमायुक्तं मणिकाञ्चनभूषितम्॥ ४३॥
ददौ हारं नरेन्द्राय स्वयं शक्रस्तु भक्तितः।
प्रजगुर्देवगन्धर्वा ननृतुश्चाप्सरोगणाः॥ ४४॥

मूलम्

मालां च काञ्चनीं वायुर्ददौ वासवचोदितः।
सर्वरत्नसमायुक्तं मणिकाञ्चनभूषितम्॥ ४३॥
ददौ हारं नरेन्द्राय स्वयं शक्रस्तु भक्तितः।
प्रजगुर्देवगन्धर्वा ननृतुश्चाप्सरोगणाः॥ ४४॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रकी प्रेरणासे वायुने सुवर्णमयी माला दी और फिर स्वयं इन्द्रने भी अति भक्तिपूर्वक महाराज रामको एक सम्पूर्ण रत्नोंसे युक्त और मणि तथा सुवर्णसे विभूषित हार दिया। तदनन्तर देवता और गन्धर्वोंने गान आरम्भ किया और अप्सराएँ नृत्य करने लगीं॥ ४३-४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवदुन्दुभयो नेदुः पुष्पवृष्टिः पपात खात्।
नवदूर्वादलश्यामं पद्मपत्रायतेक्षणम्॥ ४५॥
रविकोटिप्रभायुक्तकिरीटेन विराजितम्।
कोटिकन्दर्पलावण्यं पीताम्बरसमावृतम्॥ ४६॥
दिव्याभरणसम्पन्नं दिव्यचन्दनलेपनम्।
अयुतादित्यसङ्काशं द्विभुजं रघुनन्दनम्॥ ४७॥
वामभागे समासीनां सीतां काञ्चनसन्निभाम्।
सर्वाभरणसम्पन्नां वामाङ्के समुपस्थिताम्॥ ४८॥
रक्तोत्पलकराम्भोजां वामेनालिङ्‍ग्य संस्थितम्।
सर्वातिशयशोभाढ्यं दृष्ट्वा भक्तिसमन्वितः॥ ४९॥
उमया सहितो देवः शङ्करो रघुनन्दनम्।
सर्वदेवगणैर्युक्तः स्तोतुं समुपचक्रमे॥ ५०॥

मूलम्

देवदुन्दुभयो नेदुः पुष्पवृष्टिः पपात खात्।
नवदूर्वादलश्यामं पद्मपत्रायतेक्षणम्॥ ४५॥
रविकोटिप्रभायुक्तकिरीटेन विराजितम्।
कोटिकन्दर्पलावण्यं पीताम्बरसमावृतम्॥ ४६॥
दिव्याभरणसम्पन्नं दिव्यचन्दनलेपनम्।
अयुतादित्यसङ्काशं द्विभुजं रघुनन्दनम्॥ ४७॥
वामभागे समासीनां सीतां काञ्चनसन्निभाम्।
सर्वाभरणसम्पन्नां वामाङ्के समुपस्थिताम्॥ ४८॥
रक्तोत्पलकराम्भोजां वामेनालिङ्‍ग्य संस्थितम्।
सर्वातिशयशोभाढ्यं दृष्ट्वा भक्तिसमन्वितः॥ ४९॥
उमया सहितो देवः शङ्करो रघुनन्दनम्।
सर्वदेवगणैर्युक्तः स्तोतुं समुपचक्रमे॥ ५०॥

अनुवाद (हिन्दी)

तथा आकाशसे देव-दुन्दुभियोंके घोषके साथ पुष्पोंकी वर्षा होने लगी। फिर नवीन दूर्वादलके समान श्यामवर्ण, कमलदलके समान विशालनयन, करोड़ों सूर्योंके समान प्रकाशयुक्त मुकुटसे सुशोभित, करोड़ों कामदेवोंके समान कमनीय, पीताम्बर-परिवेष्टित, दिव्याभरण-विभूषित, दिव्यचन्दन-चर्चित, हजारों सूर्योंके समान तेजस्वी, सबसे अधिक शोभायमान द्विभुज रघुनाथजीको अपनी बायीं ओर करकमलमें रक्तकमल धारण किये बैठी हुई सर्वाभूषणविभूषिता सुवर्णवर्णा सीताजीको अपनी बायीं भुजासे आलिंगन किये देख पार्वतीजीसहित भगवान् शंकर भक्तिभावसे भरकर समस्त देवताओंके सहित स्तुति करने लगे॥ ४५—५०॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहादेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नमोऽस्तु रामाय सशक्तिकाय
नीलोत्पलश्यामलकोमलाय।
किरीटहाराङ्गदभूषणाय
सिंहासनस्थाय महाप्रभाय॥ ५१॥

मूलम्

नमोऽस्तु रामाय सशक्तिकाय
नीलोत्पलश्यामलकोमलाय।
किरीटहाराङ्गदभूषणाय
सिंहासनस्थाय महाप्रभाय॥ ५१॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहादेवजी बोले—नीलकमलके समान सुकोमल श्यामशरीरवाले, किरीट, हार और भुजबन्ध आदिसे विभूषित तथा अपनी शक्ति (श्रीसीताजी)-के सहित सिंहासनपर विराजमान महातेजस्वी श्रीरामचन्द्रजी-को नमस्कार है॥ ५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वमादिमध्यान्तविहीन एकः
सृजस्यवस्यत्सि च लोकजातम्।
स्वमायया तेन न लिप्यसे त्वं
यत्स्वे सुखेऽजस्ररतोऽनवद्यः॥ ५२॥

मूलम्

त्वमादिमध्यान्तविहीन एकः
सृजस्यवस्यत्सि च लोकजातम्।
स्वमायया तेन न लिप्यसे त्वं
यत्स्वे सुखेऽजस्ररतोऽनवद्यः॥ ५२॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राम! आप आदि, अन्त और मध्यसे रहित अद्वितीय हैं, अपनी मायासे आप ही सम्पूर्ण लोकोंकी रचना, पालन और संहार करते हैं, तो भी उससे लिप्त नहीं होते; क्योंकि आप निरन्तर स्वानन्दमग्न और अनिन्द्य हैं॥ ५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लीलां विधत्से गुणसंवृतस्त्वं
प्रपन्नभक्तानुविधानहेतोः।
नानावतारैः सुरमानुषाद्यैः
प्रतीयसे ज्ञानिभिरेव नित्यम्॥ ५३॥

मूलम्

लीलां विधत्से गुणसंवृतस्त्वं
प्रपन्नभक्तानुविधानहेतोः।
नानावतारैः सुरमानुषाद्यैः
प्रतीयसे ज्ञानिभिरेव नित्यम्॥ ५३॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपनी मायाके गुणोंसे आवृत होकर आप अपने शरणागत भक्तोंको मार्ग दिखानेके लिये देव, मनुष्यादि नाना प्रकारके अवतार लेकर विचित्र लीलाएँ करते हैं। उस समय सदा ज्ञानीजन ही आपको जान पाते हैं॥ ५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वांशेन लोकं सकलं विधाय तं
बिभर्षि च त्वं तदधः फणीश्वरः।
उपर्यथो भान्वनिलोडुपौषधि-
प्रवर्षरूपोऽवसि नैकधा जगत्॥ ५४॥

मूलम्

स्वांशेन लोकं सकलं विधाय तं
बिभर्षि च त्वं तदधः फणीश्वरः।
उपर्यथो भान्वनिलोडुपौषधि-
प्रवर्षरूपोऽवसि नैकधा जगत्॥ ५४॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप अपने अंशसे सम्पूर्ण लोकोंकी रचना करके उन्हें शेषरूप होकर नीचेसे धारण करते हैं तथा सूर्य, वायु, चन्द्र, ओषधि और वृष्टिरूप होकर उनका नाना प्रकारसे ऊपरसे पालन करते हैं॥ ५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वमिह देहभृतां शिखिरूपः
पचसि भुक्तमशेषमजस्रम्।
पवनपञ्चकरूपसहायो
जगदखण्डमनेन बिभर्षि॥ ५५॥

मूलम्

त्वमिह देहभृतां शिखिरूपः
पचसि भुक्तमशेषमजस्रम्।
पवनपञ्चकरूपसहायो
जगदखण्डमनेन बिभर्षि॥ ५५॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप ही जठराग्निरूप होकर (प्राण, अपान आदि) पाँच प्राणोंकी सहायतासे प्राणियोंके खाये हुए अन्नको पचाकर उसके द्वारा सर्वदा सम्पूर्ण जगत् का पालन करते हैं॥ ५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चन्द्रसूर्यशिखिमध्यगतं यत्
तेज ईश चिदशेषतनूनाम्।
प्राभवत्तनुभृतामिव धैर्यं
शौर्यमायुरखिलं तव सत्त्वम्॥ ५६॥

मूलम्

चन्द्रसूर्यशिखिमध्यगतं यत्
तेज ईश चिदशेषतनूनाम्।
प्राभवत्तनुभृतामिव धैर्यं
शौर्यमायुरखिलं तव सत्त्वम्॥ ५६॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे ईश! चन्द्र, सूर्य और अग्निमें जो तेज है, समस्त प्राणियोंमें जो चेतनांश है तथा देहधारियोंमें जो धैर्य, शौर्य और आयुर्बल-सा दिखायी देता है वह आपहीकी सत्ता है॥ ५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं विरिञ्चिशिवविष्णुविभेदात्
कालकर्मशशिसूर्यविभागात्।
वादिनां पृथगिवेश विभासि
ब्रह्म निश्चितमनन्यदिहैकम्॥ ५७॥

मूलम्

त्वं विरिञ्चिशिवविष्णुविभेदात्
कालकर्मशशिसूर्यविभागात्।
वादिनां पृथगिवेश विभासि
ब्रह्म निश्चितमनन्यदिहैकम्॥ ५७॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राम! भिन्न-भिन्न ईश्वरवादियोंको एक आप ही ब्रह्मा, महादेव और विष्णुके तथा काल, कर्म, चन्द्रमा और सूर्यके भेदसे पृथक्-पृथक्-से भासते हैं? किन्तु इसमें सन्देह नहीं, वास्तवमें आप हैं एक अद्वितीय ब्रह्म ही॥ ५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मत्स्यादिरूपेण यथा त्वमेकः
श्रुतौ पुराणेषु च लोकसिद्धः।
तथैव सर्वं सदसद्विभाग-
स्त्वमेव नान्यद्भवतो विभाति॥ ५८॥

मूलम्

मत्स्यादिरूपेण यथा त्वमेकः
श्रुतौ पुराणेषु च लोकसिद्धः।
तथैव सर्वं सदसद्विभाग-
स्त्वमेव नान्यद्भवतो विभाति॥ ५८॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस प्रकार वेद, पुराण और लोकमें आप एक ही मत्स्यादि अनेक रूपोंसे प्रसिद्ध हैं, उसी प्रकार संसारमें जो कुछ सत-असत्-रूप विभाग है, वह आप ही हैं—आपसे भिन्न और कुछ नहीं है॥ ५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद्यत्समुत्पन्नमनन्तसृष्टा-
वुत्पत्स्यते यच्च भवच्च यच्च।
न दृश्यते स्थावरजङ्गमादौ
त्वया विनातः परतः परस्त्वम्॥ ५९॥

मूलम्

यद्यत्समुत्पन्नमनन्तसृष्टा-
वुत्पत्स्यते यच्च भवच्च यच्च।
न दृश्यते स्थावरजङ्गमादौ
त्वया विनातः परतः परस्त्वम्॥ ५९॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस अनन्त सृष्टिमें जो कुछ उत्पन्न हुआ है, जो उत्पन्न होगा और जो हो रहा है उस स्थावर-जंगमादिरूप सम्पूर्ण प्रपंचमें आपके बिना और कोई दिखायी नहीं देता। अतः आप (प्रकृति आदि) परसे भी पर हैं॥ ५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्त्वं न जानन्ति परात्मनस्ते
जनाः समस्तास्तव माययातः।
त्वद्भक्तसेवामलमानसानां
विभाति तत्त्वं परमेकमैशम्॥ ६०॥

मूलम्

तत्त्वं न जानन्ति परात्मनस्ते
जनाः समस्तास्तव माययातः।
त्वद्भक्तसेवामलमानसानां
विभाति तत्त्वं परमेकमैशम्॥ ६०॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राम! आपकी मायासे मोहित होनेके कारण सब लोग आपके परमात्मस्वरूपका तत्त्व नहीं जानते। अतः जिनका अन्तःकरण आपके भक्तोंकी सेवाके प्रभावसे निर्मल हो गया है, उन्हींको आपका अद्वितीय ईश्वररूप भासता है॥ ६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मादयस्ते न विदुः स्वरूपं
चिदात्मतत्त्वं बहिरर्थभावाः।
ततो बुधस्त्वामिदमेव रूपं
भक्त्या भजन्मुक्तिमुपैत्यदुःखः॥ ६१॥

मूलम्

ब्रह्मादयस्ते न विदुः स्वरूपं
चिदात्मतत्त्वं बहिरर्थभावाः।
ततो बुधस्त्वामिदमेव रूपं
भक्त्या भजन्मुक्तिमुपैत्यदुःखः॥ ६१॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनकी बाह्य पदार्थोंमें सत्यबुद्धि है वे ब्रह्मादि भी आपके चित्स्वरूपको नहीं जानते, (फिर औरोंका तो कहना ही क्या है?) अतः बुद्धिमान् पुरुष इस श्यामसुन्दरस्वरूपसे ही आपका भक्तिपूर्वक भजन करके दुःखोंसे पार होकर मोक्ष प्राप्त कर लेता है॥ ६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं भवन्नाम गृणन्कृतार्थो
वसामि काश्यामनिशं भवान्या।
मुमूर्षमाणस्य विमुक्तयेऽहं
दिशामि मन्त्रं तव राम नाम॥ ६२॥

मूलम्

अहं भवन्नाम गृणन्कृतार्थो
वसामि काश्यामनिशं भवान्या।
मुमूर्षमाणस्य विमुक्तयेऽहं
दिशामि मन्त्रं तव राम नाम॥ ६२॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! आपके नामोच्चारणसे कृतार्थ होकर मैं अहर्निश पार्वतीजीके सहित काशीमें रहता हूँ और वहाँ मरणासन्न पुरुषोंको उनके मोक्षके लिये आपके तारक मन्त्र ‘राम’ नामका उपदेश करता हूँ॥ ६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमं स्तवं नित्यमनन्यभक्त्या
शृण्वन्ति गायन्ति लिखन्ति ये वै।
ते सर्वसौख्यं परमं च लब्ध्वा
भवत्पदं यान्तु भवत्प्रसादात्॥ ६३॥

मूलम्

इमं स्तवं नित्यमनन्यभक्त्या
शृण्वन्ति गायन्ति लिखन्ति ये वै।
ते सर्वसौख्यं परमं च लब्ध्वा
भवत्पदं यान्तु भवत्प्रसादात्॥ ६३॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अब आपसे यही प्रार्थना है कि) जो लोग मेरे कहे हुए इस स्तोत्रको अनन्य भक्तिसे नित्यप्रति सुनें, कहें अथवा लिखें वे आपकी कृपासे सम्पूर्ण परमानन्द लाभ करके आपके निज-पदको प्राप्त हों॥ ६३॥

मूलम् (वचनम्)

इन्द्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

रक्षोऽधिपेनाखिलदेवसौख्यं
हृतं च मे ब्रह्मवरेण देव।
पुनश्च सर्वं भवतः प्रसादात्
प्राप्तं हतो राक्षसदुष्टशत्रुः॥ ६४॥

मूलम्

रक्षोऽधिपेनाखिलदेवसौख्यं
हृतं च मे ब्रह्मवरेण देव।
पुनश्च सर्वं भवतः प्रसादात्
प्राप्तं हतो राक्षसदुष्टशत्रुः॥ ६४॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्र बोले—हे देव! ब्रह्माजीके वरके प्रभावसे राक्षसराज रावणने मेरे समस्त देवोचित सुखको हर लिया था। अब उस दुष्ट शत्रु राक्षसराजके मारे जानेपर आपकी कृपासे मुझे वह सब सुख फिर प्राप्त हो गया॥ ६४॥

मूलम् (वचनम्)

देवा ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

हृता यज्ञभागा धरादेवदत्ता
मुरारे खलेनादिदैत्येन विष्णो।
हतोऽद्य त्वया नो वितानेषु भागाः
पुरावद्भविष्यन्ति युष्मत्प्रसादात्॥ ६५॥

मूलम्

हृता यज्ञभागा धरादेवदत्ता
मुरारे खलेनादिदैत्येन विष्णो।
हतोऽद्य त्वया नो वितानेषु भागाः
पुरावद्भविष्यन्ति युष्मत्प्रसादात्॥ ६५॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवगण बोले—हे मुरारे! हे विष्णो! इस दुष्ट आदिदैत्यने ब्राह्मणोंद्वारा दिये हुए हमारे समस्त यज्ञभागोंको हर लिया था। अब आपने उसे मार डाला। अतः आपकी कृपासे अब हमें फिर पहलेके समान ही यज्ञोंमें भाग मिलने लगेंगे॥ ६५॥

मूलम् (वचनम्)

पितर ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

हतोऽद्य त्वया दुष्टदैत्यो महात्मन्
गयादौ नरैर्दत्तपिण्डादिकान्नः।
बलादत्ति हत्वा गृहीत्वा समस्ता-
निदानीं पुनर्लब्धसत्त्वा भवामः॥ ६६॥

मूलम्

हतोऽद्य त्वया दुष्टदैत्यो महात्मन्
गयादौ नरैर्दत्तपिण्डादिकान्नः।
बलादत्ति हत्वा गृहीत्वा समस्ता-
निदानीं पुनर्लब्धसत्त्वा भवामः॥ ६६॥

अनुवाद (हिन्दी)

पितृगण बोले—हे महात्मन्! यह दुष्ट दैत्य गया आदि पुण्य-क्षेत्रोंमें मनुष्योंके दिये हुए हमारे पिण्डोदकादिको बलात् छीनकर खा लेता था; आज आपने इसे मार डाला। अतः अब अपना भाग प्राप्त करके हम फिर शक्ति प्राप्त कर लेंगे॥ ६६॥

मूलम् (वचनम्)

यक्षा ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

सदा विष्टिकर्मण्यनेनाभियुक्ता
वहामो दशास्यं बलाद्दुःखयुक्ताः।
दुरात्मा हतो रावणो राघवेश
त्वया ते वयं दुःखजाताद्विमुक्ताः॥ ६७॥

मूलम्

सदा विष्टिकर्मण्यनेनाभियुक्ता
वहामो दशास्यं बलाद्दुःखयुक्ताः।
दुरात्मा हतो रावणो राघवेश
त्वया ते वयं दुःखजाताद्विमुक्ताः॥ ६७॥

अनुवाद (हिन्दी)

यक्षगण बोले—हे रघुनाथजी! यह रावण हमें बलात् बेगारमें लगा देता था और हम इसकी पालकी आदिमें जुतकर बड़ा कष्ट मानकर इसे ले चलते थे। अतः आज इस दुरात्माको मारकर आपने हमें अनेकों दुःखोंसे छुड़ा दिया॥ ६७॥

मूलम् (वचनम्)

गन्धर्वा ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

वयं सङ्गीतनिपुणा गायन्तस्ते कथामृतम्।
आनन्दामृतसन्दोहयुक्ताः पूर्णाः स्थिताः पुरा॥ ६८॥

मूलम्

वयं सङ्गीतनिपुणा गायन्तस्ते कथामृतम्।
आनन्दामृतसन्दोहयुक्ताः पूर्णाः स्थिताः पुरा॥ ६८॥

अनुवाद (हिन्दी)

गन्धर्वगण बोले—प्रभो! हम संगीतकुशल लोग आपकी अमृततुल्य कथाओंका गान करते हुए पहले आनन्दामृतसमूहसे युक्त होकर मग्न रहते थे॥ ६८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पश्चाद्दुरात्मना राम रावणेनाभिविद्रुताः।
तमेव गायमानाश्च तदाराधनतत्पराः॥ ६९॥

मूलम्

पश्चाद्दुरात्मना राम रावणेनाभिविद्रुताः।
तमेव गायमानाश्च तदाराधनतत्पराः॥ ६९॥

अनुवाद (हिन्दी)

किन्तु फिर दुरात्मा रावणद्वारा आक्रान्त होकर हम उसीके गुणगान और उसीकी सेवामें तत्पर हो गये। इस दुष्ट राक्षसको मारकर अब आपने हमें भी बचा लिया॥ ६९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्थितास्त्वया परित्राता हतोऽयं दुष्टराक्षसः।
एवं महोरगाः सिद्धाः किन्नरा मरुतस्तथा॥ ७०॥
वसवो मुनयो गावो गुह्यकाश्च पतत्त्रिणः।
सप्रजापतयश्चैते तथा चाप्सरसां गणाः॥ ७१॥
सर्वे रामं समासाद्य दृष्ट्वा नेत्रमहोत्सवम्।
स्तुत्वा पृथक् पृथक् सर्वे राघवेणाभिवन्दिताः॥ ७२॥
ययुः स्वं स्वं पदं सर्वे ब्रह्मरुद्रादयस्तथा।
प्रशंसन्तो मुदा रामं गायन्तस्तस्य चेष्टितम्॥ ७३॥
ध्यायन्तस्त्वभिषेकार्द्रं सीतालक्ष्मणसंयुतम्।
सिंहासनस्थं राजेन्द्रं ययुः सर्वे हृदि स्थितम्॥ ७४॥

मूलम्

स्थितास्त्वया परित्राता हतोऽयं दुष्टराक्षसः।
एवं महोरगाः सिद्धाः किन्नरा मरुतस्तथा॥ ७०॥
वसवो मुनयो गावो गुह्यकाश्च पतत्त्रिणः।
सप्रजापतयश्चैते तथा चाप्सरसां गणाः॥ ७१॥
सर्वे रामं समासाद्य दृष्ट्वा नेत्रमहोत्सवम्।
स्तुत्वा पृथक् पृथक् सर्वे राघवेणाभिवन्दिताः॥ ७२॥
ययुः स्वं स्वं पदं सर्वे ब्रह्मरुद्रादयस्तथा।
प्रशंसन्तो मुदा रामं गायन्तस्तस्य चेष्टितम्॥ ७३॥
ध्यायन्तस्त्वभिषेकार्द्रं सीतालक्ष्मणसंयुतम्।
सिंहासनस्थं राजेन्द्रं ययुः सर्वे हृदि स्थितम्॥ ७४॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार महानाग, सिद्ध, किन्नर, मरुत् , वसु , मुनि, गौ, गुह्यक, पक्षी, प्रजापति और अप्सराओंके समूह सभी भगवान् रामके पास पृथिवीलोकमें आये और उन नयनानन्दवर्धन प्रभुके दर्शन कर उनकी पृथक्-पृथक् स्तुति की तथा उनसे प्रशंसित हो अपने-अपने लोकोंको चले गये। तदनन्तर ब्रह्मा और महादेव आदि भी आनन्दपूर्वक भगवान् रामकी प्रशंसा करते, उनकी लीलाओंका गान करते और सिंहासनपर विराजमान अभिषेकसे आर्द्र राजराजेश्वर श्रीरामचन्द्रजीका सीताजी और लक्ष्मणके सहित हृदयमें ध्यान करते वहाँसे विदा हुए॥ ६९—७४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

खे वाद्येषु ध्वनत्सु प्रमुदितहृदयै-
र्देववृन्दैः स्तुवद्भि-
र्वर्षद्भिः पुष्पवृष्टिं दिवि मुनिनिकरै-
रीड्यमानः समन्तात्।
रामः श्यामः प्रसन्नस्मितरुचिरमुखः
सूर्यकोटिप्रकाशः
सीतासौमित्रिवातात्मजमुनिहरिभिः
सेव्यमानो विभाति॥ ७५॥

मूलम्

खे वाद्येषु ध्वनत्सु प्रमुदितहृदयै-
र्देववृन्दैः स्तुवद्भि-
र्वर्षद्भिः पुष्पवृष्टिं दिवि मुनिनिकरै-
रीड्यमानः समन्तात्।
रामः श्यामः प्रसन्नस्मितरुचिरमुखः
सूर्यकोटिप्रकाशः
सीतासौमित्रिवातात्मजमुनिहरिभिः
सेव्यमानो विभाति॥ ७५॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय जब कि आकाशमें बाजे बज रहे थे, देवताओंका वृन्द स्वर्गमें प्रसन्न हृदयसे स्तुति करता हुआ पुष्प बरसा रहा था। तथा महर्षि-मण्डल चारों ओर स्थित होकर स्तुति कर रहा था, करोड़ों सूर्योंके समान प्रकाशमान प्रसन्नतायुक्त मुसकानसे मनोहर मुखवाले श्यामसुन्दर भगवान् राम सीता, लक्ष्मण, हनुमान्, मुनिजन तथा वानरगणोंसे सेवित होकर अत्यन्त सुशोभित हुए॥ ७५॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे युद्धकाण्डे पञ्चदशः सर्गः॥ १५॥