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[चतुर्दश सर्ग]

भागसूचना

अयोध्या-यात्रा, भरद्वाज मुनिका आतिथ्य तथा भरत-मिलाप

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहादेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पातयित्वा ततश्चक्षुः सर्वतो रघुनन्दनः।
अब्रवीन्मैथिलीं सीतां रामः शशिनिभाननाम्॥ १॥

मूलम्

पातयित्वा ततश्चक्षुः सर्वतो रघुनन्दनः।
अब्रवीन्मैथिलीं सीतां रामः शशिनिभाननाम्॥ १॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहादेवजी बोले—हे पार्वति! तदनन्तर सब ओर दृष्टि डालकर श्रीरघुनाथजीने मिथिलेशकुमारी चन्द्रमुखी सीताजीसे कहा—॥ १॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिकूटशिखराग्रस्थां पश्य लङ्कां महाप्रभाम्।
एतां रणभुवं पश्य मांसकर्दमपङ्किलाम्॥ २॥

मूलम्

त्रिकूटशिखराग्रस्थां पश्य लङ्कां महाप्रभाम्।
एतां रणभुवं पश्य मांसकर्दमपङ्किलाम्॥ २॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘प्रिये! त्रिकूट पर्वतकी चोटीपर बसी हुई यह परम प्रकाशमयी लंकापुरी देखो और यह मांसमयी कीचड़से भरी हुई रणभूमि देखो॥ २॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असुराणां प्लवङ्गानामत्र वैशसनं महत्।
अत्र मे निहतः शेते रावणो राक्षसेश्वरः॥ ३॥

मूलम्

असुराणां प्लवङ्गानामत्र वैशसनं महत्।
अत्र मे निहतः शेते रावणो राक्षसेश्वरः॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

यहाँ राक्षसों और वानरोंका बड़ा भारी संहार हुआ है। यहीं मेरे हाथसे मरकर राक्षसराज रावण गिरा था॥ ३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुम्भकर्णेन्द्रजिन्मुख्याः सर्वे चात्र निपातिताः।
एष सेतुर्मया बद्धः सागरे सलिलाशये॥ ४॥

मूलम्

कुम्भकर्णेन्द्रजिन्मुख्याः सर्वे चात्र निपातिताः।
एष सेतुर्मया बद्धः सागरे सलिलाशये॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

और यहीं कुम्भकर्ण, इन्द्रजित् आदि समस्त राक्षस-वीर मारे गये हैं। यह मैंने जलपूर्ण समुद्रपर पुल बाँधा था॥ ४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतच्च दृश्यते तीर्थं सागरस्य महात्मनः।
सेतुबन्धमिति ख्यातं त्रैलोक्येन च पूजितम्॥ ५॥

मूलम्

एतच्च दृश्यते तीर्थं सागरस्य महात्मनः।
सेतुबन्धमिति ख्यातं त्रैलोक्येन च पूजितम्॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

देखो, इस विशाल समुद्रपर यह सेतुबन्ध नामसे विख्यात तीर्थ दिखायी देता है, जो तीनों लोकोंसे पूजनीय है॥ ५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतत्पवित्रं परमं दर्शनात्पातकापहम्।
अत्र रामेश्वरो देवो मया शम्भुः प्रतिष्ठितः॥ ६॥

मूलम्

एतत्पवित्रं परमं दर्शनात्पातकापहम्।
अत्र रामेश्वरो देवो मया शम्भुः प्रतिष्ठितः॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह अत्यन्त पवित्र है और दर्शनमात्रसे ही सम्पूर्ण पापोंको नष्ट करनेवाला है। यहाँ मैंने श्रीरामेश्वर महादेवकी स्थापना की है॥ ६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र मां शरणं प्राप्तो मन्त्रिभिश्च विभीषणः।
एषा सुग्रीवनगरी किष्किन्धा चित्रकानना॥ ७॥

मूलम्

अत्र मां शरणं प्राप्तो मन्त्रिभिश्च विभीषणः।
एषा सुग्रीवनगरी किष्किन्धा चित्रकानना॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

यहीं मन्त्रियोंके सहित विभीषण मेरी शरणमें आया था। (और देखो) यह विचित्र उपवनोंवाली सुग्रीवकी राजधानी किष्किन्धापुरी है’’॥ ७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र रामाज्ञया ताराप्रमुखा हरियोषितः।
आनयामास सुग्रीवः सीतायाः प्रियकाम्यया॥ ८॥

मूलम्

तत्र रामाज्ञया ताराप्रमुखा हरियोषितः।
आनयामास सुग्रीवः सीतायाः प्रियकाम्यया॥ ८॥

अनुवाद (हिन्दी)

किष्किन्धामें पहुँचनेपर भगवान् रामकी आज्ञासे सीताजीको प्रसन्न करनेके लिये सुग्रीव अपनी तारा आदि स्त्रियोंको ले आये॥ ८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ताभिः सहोत्थितं शीघ्रं विमानं प्रेक्ष्य राघवः।
प्राह चाद्रिमृष्यमूकं पश्य वाल्यत्र मे हतः॥ ९॥

मूलम्

ताभिः सहोत्थितं शीघ्रं विमानं प्रेक्ष्य राघवः।
प्राह चाद्रिमृष्यमूकं पश्य वाल्यत्र मे हतः॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब रघुनाथजीने विमानको तुरंत ही उन सबको लेकर चलते देखा तो वे (फिर सीताजीसे) कहने लगे—‘‘यह ऋष्यमूक पर्वत देखो, यहाँ मैंने वालीको मारा था॥ ९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एषा पञ्चवटी नाम राक्षसा यत्र मे हताः।
अगस्त्यस्य सुतीक्ष्णस्य पश्याश्रमपदे शुभे॥ १०॥

मूलम्

एषा पञ्चवटी नाम राक्षसा यत्र मे हताः।
अगस्त्यस्य सुतीक्ष्णस्य पश्याश्रमपदे शुभे॥ १०॥

अनुवाद (हिन्दी)

इधर पंचवटी है जहाँ मैंने (खर-दूषणादि) राक्षसोंका संहार किया था। देखो, ये मुनिवर अगस्त्य और सुतीक्ष्णके अति पवित्र आश्रम हैं॥ १०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एते ते तापसाः सर्वे दृश्यन्ते वरवर्णिनि।
असौ शैलवरो देवि चित्रकूटः प्रकाशते॥ ११॥

मूलम्

एते ते तापसाः सर्वे दृश्यन्ते वरवर्णिनि।
असौ शैलवरो देवि चित्रकूटः प्रकाशते॥ ११॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे सुन्दर वर्णवाली! देखो, ये वे सब तपस्वीगण दिखायी दे रहे हैं और हे देवि! यह पर्वतश्रेष्ठ चित्रकूट दीख रहा है॥ ११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र मां कैकयीपुत्रः प्रसादयितुमागतः।
भरद्वाजाश्रमं पश्य दृश्यते यमुनातटे॥ १२॥

मूलम्

अत्र मां कैकयीपुत्रः प्रसादयितुमागतः।
भरद्वाजाश्रमं पश्य दृश्यते यमुनातटे॥ १२॥

अनुवाद (हिन्दी)

यहीं मुझे मनानेके लिये कैकेयीके पुत्र भरत आये थे और देखो, वह यमुनाजीके तटपर भरद्वाज मुनिका आश्रम दिखलायी दे रहा है॥ १२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एषा भागीरथी गङ्गा दृश्यते लोकपावनी।
एषा सा दृश्यते सीते सरयूर्यूपमालिनी॥ १३॥

मूलम्

एषा भागीरथी गङ्गा दृश्यते लोकपावनी।
एषा सा दृश्यते सीते सरयूर्यूपमालिनी॥ १३॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये त्रिलोकपावनी भागीरथी गंगाजी दीख रही हैं और हे सीते! (सूर्यवंशी राजाओंके किये हुए यज्ञोंके) यूपों (यज्ञस्तम्भों)-से युक्त यह सरयू नदी दिखायी दे रही है॥ १३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एषा सा दृश्यतेऽयोध्या प्रणामं कुरु भामिनि।
एवं क्रमेण सम्प्राप्तो भरद्वाजाश्रमं हरिः॥ १४॥

मूलम्

एषा सा दृश्यतेऽयोध्या प्रणामं कुरु भामिनि।
एवं क्रमेण सम्प्राप्तो भरद्वाजाश्रमं हरिः॥ १४॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे सुन्दरि! देखो, वह अयोध्यापुरी दीख रही है, उसे प्रणाम करो।’’ इस प्रकार भगवान् राम क्रमसे भरद्वाज मुनिके आश्रमपर पहुँचे॥ १४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूर्णे चतुर्दशे वर्षे पञ्चम्यां रघुनन्दनः।
भरद्वाजं मुनिं दृष्ट्वा ववन्दे सानुजः प्रभुः॥ १५॥

मूलम्

पूर्णे चतुर्दशे वर्षे पञ्चम्यां रघुनन्दनः।
भरद्वाजं मुनिं दृष्ट्वा ववन्दे सानुजः प्रभुः॥ १५॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरघुनाथजीने चौदहवें वर्षके समाप्त होनेपर पंचमी तिथिको मुनिवर भरद्वाजके दर्शन कर उन्हें भाई लक्ष्मणसहित प्रणाम किया॥ १५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पप्रच्छ मुनिमासीनं विनयेन रघूत्तमः।
शृणोषि कच्चिद्भरतः कुशल्यास्ते सहानुजः॥ १६॥
सुभिक्षा वर्ततेऽयोध्या जीवन्ति च हि मातरः।

मूलम्

पप्रच्छ मुनिमासीनं विनयेन रघूत्तमः।
शृणोषि कच्चिद्भरतः कुशल्यास्ते सहानुजः॥ १६॥
सुभिक्षा वर्ततेऽयोध्या जीवन्ति च हि मातरः।

अनुवाद (हिन्दी)

फिर आश्रममें विराजमान मुनिवरसे रघुश्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजीने अति नम्रतापूर्वक पूछा—‘‘आपने कुछ सुना है, भाई शत्रुघ्नसहित भरत कुशलसे हैं न? अयोध्यामें सुकाल तो है? और हमारी माताएँ अभी जीवित हैं न?’’॥ १६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वा रामस्य वचनं भरद्वाजः प्रहृष्टधीः॥ १७॥
प्राह सर्वे कुशलिनो भरतस्तु महामनाः।
फलमूलकृताहारो जटावल्कलधारकः॥ १८॥
पादुके सकलं न्यस्य राज्यं त्वां सुप्रतीक्षते।
यद्यत्कृतं त्वया कर्म दण्डके रघुनन्दन॥ १९॥
राक्षसानां विनाशं च सीताहरणपूर्वकम्।
सर्वं ज्ञातं मया राम तपसा ते प्रसादतः॥ २०॥

मूलम्

श्रुत्वा रामस्य वचनं भरद्वाजः प्रहृष्टधीः॥ १७॥
प्राह सर्वे कुशलिनो भरतस्तु महामनाः।
फलमूलकृताहारो जटावल्कलधारकः॥ १८॥
पादुके सकलं न्यस्य राज्यं त्वां सुप्रतीक्षते।
यद्यत्कृतं त्वया कर्म दण्डके रघुनन्दन॥ १९॥
राक्षसानां विनाशं च सीताहरणपूर्वकम्।
सर्वं ज्ञातं मया राम तपसा ते प्रसादतः॥ २०॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् रामके ये वचन सुनकर भरद्वाज मुनिने प्रसन्न होकर कहा—‘‘आपके यहाँ सब कुशल हैं। महामना भरतजी तो जटा-वल्कल धारण किये फल-मूलादिसे निर्वाह करते हुए राज्यका सारा भार आपकी पादुकाओंको सौंपकर आपहीकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। हे रघुनन्दन! आपने दण्डकारण्यमें जो-जो कार्य किये हैं तथा सीता-हरण होनेपर जैसे-जैसे राक्षसोंका वध किया है वह सब आपकी कृपासे मैंने तपोबलसे जान लिया है॥ १७—२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं ब्रह्म परमं साक्षादादिमध्यान्तवर्जितः।
त्वमग्रे सलिलं सृष्ट्वा तत्र सुप्तोऽसि भूतकृत्॥ २१॥
नारायणोऽसि विश्वात्मन् नराणामन्तरात्मकः।
त्वन्नाभिकमलोत्पन्नो ब्रह्मा लोकपितामहः॥ २२॥

मूलम्

त्वं ब्रह्म परमं साक्षादादिमध्यान्तवर्जितः।
त्वमग्रे सलिलं सृष्ट्वा तत्र सुप्तोऽसि भूतकृत्॥ २१॥
नारायणोऽसि विश्वात्मन् नराणामन्तरात्मकः।
त्वन्नाभिकमलोत्पन्नो ब्रह्मा लोकपितामहः॥ २२॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप आदि, अन्त और मध्यसे रहित साक्षात् परब्रह्म हैं। आप समस्त भूतोंको रचनेवाले हैं। आपने सबसे पहले जल रचकर उसपर शयन किया था। हे विश्वात्मन्! आप समस्त मनुष्योंके अन्तरात्मा हैं, अतः आप नारायण हैं। आपके नाभिकमलसे उत्पन्न हुए ब्रह्माजी सम्पूर्ण लोकोंके पितामह हैं॥ २१-२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतस्त्वं जगतामीशः सर्वलोकनमस्कृतः।
त्वं विष्णुर्जानकी लक्ष्मीः शेषोऽयं लक्ष्मणाभिधः॥ २३॥

मूलम्

अतस्त्वं जगतामीशः सर्वलोकनमस्कृतः।
त्वं विष्णुर्जानकी लक्ष्मीः शेषोऽयं लक्ष्मणाभिधः॥ २३॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः आप समस्त लोकोंसे वन्दित और सम्पूर्ण जगत् के स्वामी हैं। आप साक्षात् विष्णुभगवान् हैं, जानकीजी लक्ष्मी हैं और ये लक्ष्मणजी शेषनाग हैं॥ २३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्मना सृजसीदं त्वमात्मन्येवात्ममायया।
न सज्जसे नभोवत्त्वं चिच्छक्त्या सर्वसाक्षिकः॥ २४॥

मूलम्

आत्मना सृजसीदं त्वमात्मन्येवात्ममायया।
न सज्जसे नभोवत्त्वं चिच्छक्त्या सर्वसाक्षिकः॥ २४॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप अधिष्ठानरूपसे अपने भीतर ही अपनी मायाके द्वारा स्वयं अपने-आपसे ही इस सम्पूर्ण जगत् को रचते हैं, किन्तु आकाशके समान किसीसे भी लिप्त नहीं होते। आप अपनी चित्-शक्तिसे सबके साक्षी हैं॥ २४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहिरन्तश्च भूतानां त्वमेव रघुनन्दन।
पूर्णोऽपि मूढदृष्टीनां विच्छिन्न इव लक्ष्यसे॥ २५॥

मूलम्

बहिरन्तश्च भूतानां त्वमेव रघुनन्दन।
पूर्णोऽपि मूढदृष्टीनां विच्छिन्न इव लक्ष्यसे॥ २५॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे रघुनन्दन! समस्त प्राणियोंके भीतर और बाहर आप ही व्याप्त हैं, इस प्रकार पूर्ण होनेपर भी आप मूढ़-बुद्धियोंको परिच्छिन्न-(एकदेशी)-से दिखायी देते हैं॥ २५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जगत्त्वं जगदाधारस्त्वमेव परिपालकः।
त्वमेव सर्वभूतानां भोक्ता भोज्यं जगत्पते॥ २६॥

मूलम्

जगत्त्वं जगदाधारस्त्वमेव परिपालकः।
त्वमेव सर्वभूतानां भोक्ता भोज्यं जगत्पते॥ २६॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे जगत्पते! आप ही जगत् , जगत् के आधार और उसका पालन करनेवाले हैं; तथा आप ही समस्त प्राणियोंके (कालरूपसे) भोक्ता और (अन्नरूपसे) भोज्य हैं॥ २६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृश्यते श्रूयते यद्यत्स्मर्यते वा रघूत्तम।
त्वमेव सर्वमखिलं त्वद्विनान्यन्न किञ्चन॥ २७॥

मूलम्

दृश्यते श्रूयते यद्यत्स्मर्यते वा रघूत्तम।
त्वमेव सर्वमखिलं त्वद्विनान्यन्न किञ्चन॥ २७॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे रघुश्रेष्ठ! जो कुछ भी दिखायी देता है तथा जो कुछ सुना और स्मरण किया जाता है वह सब आप ही हैं; आपके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है॥ २७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

माया सृजति लोकांश्च स्वगुणैरहमादिभिः।
त्वच्छक्तिप्रेरिता राम तस्मात्त्वय्युपचर्यते॥ २८॥

मूलम्

माया सृजति लोकांश्च स्वगुणैरहमादिभिः।
त्वच्छक्तिप्रेरिता राम तस्मात्त्वय्युपचर्यते॥ २८॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राम! आपकी शक्तिसे प्रेरित होकर ही माया अपने अहंकारादि गुणोंसे सम्पूर्ण लोकोंको रचती है, इसीलिये इन सबकी रचनाका आपहीमें आरोप किया जाता है॥ २८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा चुम्बकसान्निध्याच्चलन्त्येवायसादयः।
जडास्तथा त्वया दृष्टा माया सृजति वै जगत्॥ २९॥

मूलम्

यथा चुम्बकसान्निध्याच्चलन्त्येवायसादयः।
जडास्तथा त्वया दृष्टा माया सृजति वै जगत्॥ २९॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस प्रकार चुम्बककी सन्निधिसे लोहा आदि जड पदार्थ भी चलायमान हो जाते हैं उसी प्रकार आपकी दृष्टि पड़नेसे ही माया सम्पूर्ण जगत् की रचना करती है॥ २९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देहद्वयमदेहस्य तव विश्वं रिरक्षिषोः।
विराट् स्थूलं शरीरं ते सूत्रं सूक्ष्ममुदाहृतम्॥ ३०॥

मूलम्

देहद्वयमदेहस्य तव विश्वं रिरक्षिषोः।
विराट् स्थूलं शरीरं ते सूत्रं सूक्ष्ममुदाहृतम्॥ ३०॥

अनुवाद (हिन्दी)

विश्वकी रक्षा करनेके इच्छुक आप देहहीन होकर भी दो देहवाले हैं। आपका स्थूल शरीर ‘विराट्’ और सूक्ष्म शरीर ‘सूत्र’ कहलाता है॥ ३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विराजः सम्भवन्त्येते अवताराः सहस्रशः।
कार्यान्ते प्रविशन्त्येव विराजं रघुनन्दन॥ ३१॥

मूलम्

विराजः सम्भवन्त्येते अवताराः सहस्रशः।
कार्यान्ते प्रविशन्त्येव विराजं रघुनन्दन॥ ३१॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे रघुनन्दन! आपके विराट् शरीरसे ही ये सहस्रों अवतार उत्पन्न होते हैं और अपना कार्य समाप्त कर फिर उसीमें लीन हो जाते हैं॥ ३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवतारकथां लोके ये गायन्ति गृणन्ति च।
अनन्यमनसो मुक्तिस्तेषामेव रघूत्तम॥ ३२॥

मूलम्

अवतारकथां लोके ये गायन्ति गृणन्ति च।
अनन्यमनसो मुक्तिस्तेषामेव रघूत्तम॥ ३२॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे रघुश्रेष्ठ! संसारमें जो लोग अनन्य चित्तसे आपके अवतारोंकी कथा गाते और सुनते हैं उनकी तो मुक्ति अवश्य ही हो जाती है॥ ३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं ब्रह्मणा पुरा भूमेर्भारहाराय राघव।
प्रार्थितस्तपसा तुष्टस्त्वं जातोऽसि रघोः कुले॥ ३३॥

मूलम्

त्वं ब्रह्मणा पुरा भूमेर्भारहाराय राघव।
प्रार्थितस्तपसा तुष्टस्त्वं जातोऽसि रघोः कुले॥ ३३॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राघव! पूर्वकालमें ब्रह्माजीने आपसे पृथ्वीका भार उतारनेके लिये प्रार्थना की थी। उनकी तपस्यासे सन्तुष्ट होकर ही आपने रघुकुलमें अवतार लिया है॥ ३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवकार्यमशेषेण कृतं ते राम दुष्करम्।
बहुवर्षसहस्राणि मानुषं देहमाश्रितः॥ ३४॥
कुर्वन्दुष्करकर्माणि लोकद्वयहिताय च।
पापहारीणि भुवनं यशसा पूरयिष्यसि॥ ३५॥

मूलम्

देवकार्यमशेषेण कृतं ते राम दुष्करम्।
बहुवर्षसहस्राणि मानुषं देहमाश्रितः॥ ३४॥
कुर्वन्दुष्करकर्माणि लोकद्वयहिताय च।
पापहारीणि भुवनं यशसा पूरयिष्यसि॥ ३५॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे राम! जो अत्यन्त दुष्कर था, देवताओंका वह सब काम आपने कर दिया। अब कई सहस्र वर्षतक मनुष्य-देहमें स्थित रहकर दोनों लोकोंके कल्याणके लिये बहुत-से कठिन और पाप-नाशक कार्य करते हुए आप सम्पूर्ण लोकोंको अपने सुयशसे परिपूर्ण करेंगे॥ ३४-३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रार्थयामि जगन्नाथ पवित्रं कुरु मे गृहम्।
स्थित्वाद्य भुक्त्वा सबलः श्वो गमिष्यसि पत्तनम्॥ ३६॥

मूलम्

प्रार्थयामि जगन्नाथ पवित्रं कुरु मे गृहम्।
स्थित्वाद्य भुक्त्वा सबलः श्वो गमिष्यसि पत्तनम्॥ ३६॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे जगन्नाथ! मेरी यह प्रार्थना है कि आज सेनासहित यहाँ ठहरकर और भोजन कर मेरा घर पवित्र कीजिये। फिर कल अपनी राजधानीमें पधारें॥ ३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथेति राघवोऽतिष्ठत्तस्मिन्नाश्रम उत्तमे।
ससैन्यः पूजितस्तेन सीतया लक्ष्मणेन च॥ ३७॥

मूलम्

तथेति राघवोऽतिष्ठत्तस्मिन्नाश्रम उत्तमे।
ससैन्यः पूजितस्तेन सीतया लक्ष्मणेन च॥ ३७॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब रघुनाथजी ‘बहुत अच्छा’ कह मुनिवर भरद्वाजसे सत्कृत हो सेना, सीताजी और लक्ष्मणजीके सहित उस अत्युत्तम आश्रममें ठहर गये॥ ३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो रामश्चिन्तयित्वा मुहूर्तं प्राह मारुतिम्।
इतो गच्छ हनूमंस्त्वमयोध्यां प्रति सत्वरः॥ ३८॥

मूलम्

ततो रामश्चिन्तयित्वा मुहूर्तं प्राह मारुतिम्।
इतो गच्छ हनूमंस्त्वमयोध्यां प्रति सत्वरः॥ ३८॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस समय एक मुहूर्त विचारकर भगवान् रामने श्रीमारुतिसे कहा—‘‘हनुमन्! तुम शीघ्र ही यहाँसे अयोध्याको जाओ॥ ३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जानीहि कुशली कश्चिज्जनो नृपतिमन्दिरे।
शृङ्गवेरपुरं गत्वा ब्रूहि मित्रं गुहं मम॥ ३९॥

मूलम्

जानीहि कुशली कश्चिज्जनो नृपतिमन्दिरे।
शृङ्गवेरपुरं गत्वा ब्रूहि मित्रं गुहं मम॥ ३९॥

अनुवाद (हिन्दी)

और यह मालूम करो कि राजमन्दिरमें सब कुशलसे तो हैं? शृंगवेरपुरमें जाकर मेरे मित्र गुहसे बातचीत करना॥ ३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जानकीलक्ष्मणोपेतमागतं मां निवेदय।
नन्दिग्रामं ततो गत्वा भ्रातरं भरतं मम॥ ४०॥
दृष्ट्वा ब्रूहि सभार्यस्य सभ्रातुः कुशलं मम।
सीतापहरणादीनि रावणस्य वधादिकम्॥ ४१॥
ब्रूहि क्रमेण मे भ्रातुः सर्वं तत्र विचेष्टितम्।
हत्वा शत्रुगणान् सर्वान् सभार्यः सहलक्ष्मणः॥ ४२॥
उपयाति समृद्धार्थः सह ऋक्षहरीश्वरैः।
इत्युक्त्वा तत्र वृत्तान्तं भरतस्य विचेष्टितम्॥ ४३॥
सर्वं ज्ञात्वा पुनः शीघ्रमागच्छ मम सन्निधिम्।
तथेति हनुमांस्तत्र मानुषं वपुरास्थितः॥ ४४॥
नन्दिग्रामं ययौ तूर्णं वायुवेगेन मारुतिः।
गरुत्मानिव वेगेन जिघृक्षन् भुजगोत्तमम्॥ ४५॥

मूलम्

जानकीलक्ष्मणोपेतमागतं मां निवेदय।
नन्दिग्रामं ततो गत्वा भ्रातरं भरतं मम॥ ४०॥
दृष्ट्वा ब्रूहि सभार्यस्य सभ्रातुः कुशलं मम।
सीतापहरणादीनि रावणस्य वधादिकम्॥ ४१॥
ब्रूहि क्रमेण मे भ्रातुः सर्वं तत्र विचेष्टितम्।
हत्वा शत्रुगणान् सर्वान् सभार्यः सहलक्ष्मणः॥ ४२॥
उपयाति समृद्धार्थः सह ऋक्षहरीश्वरैः।
इत्युक्त्वा तत्र वृत्तान्तं भरतस्य विचेष्टितम्॥ ४३॥
सर्वं ज्ञात्वा पुनः शीघ्रमागच्छ मम सन्निधिम्।
तथेति हनुमांस्तत्र मानुषं वपुरास्थितः॥ ४४॥
नन्दिग्रामं ययौ तूर्णं वायुवेगेन मारुतिः।
गरुत्मानिव वेगेन जिघृक्षन् भुजगोत्तमम्॥ ४५॥

अनुवाद (हिन्दी)

और उसे जानकी और लक्ष्मणके सहित मेरे आनेकी सूचना देना। तत्पश्चात् नन्दिग्राममें जाकर मेरे भाई भरतसे मिलकर उसे स्त्री और भाईसहित मेरी कुशल सुनाना। वहाँ भैया भरतको सीता-हरणसे लेकर रावणके वध आदिपर्यन्त मेरी समस्त लीलाएँ क्रमसे सुनाना और कहना कि रामचन्द्रजी समस्त शत्रुओंको मारकर सफल-मनोरथ हो स्त्री और लक्ष्मणके सहित रीछ और वानरोंके साथ आ रहे हैं। यह सब वृत्तान्त उसे सुनाकर और भरतकी सभी चेष्टाओंका पता लगाकर शीघ्र ही मेरे पास लौट आना’’। तब हनुमान् जी ‘बहुत अच्छा’ कह मनुष्य-शरीर धारण कर तुरंत ही वायुवेगसे नन्दिग्रामको चले, मानो किसी श्रेष्ठ सर्पको पकड़नेके लिये गरुड़जी जाते हों॥ ४०—४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृङ्गवेरपुरं प्राप्य गुहमासाद्य मारुतिः।
उवाच मधुरं वाक्यं प्रहृष्टेनान्तरात्मना॥ ४६॥

मूलम्

शृङ्गवेरपुरं प्राप्य गुहमासाद्य मारुतिः।
उवाच मधुरं वाक्यं प्रहृष्टेनान्तरात्मना॥ ४६॥

अनुवाद (हिन्दी)

शृंगवेरपुर पहुँचनेपर श्रीमारुतिने गुहके पास जाकर अति प्रसन्न चित्तसे मीठी बोलीमें कहा—॥ ४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामो दाशरथिः श्रीमान् सखा ते सह सीतया।
सलक्ष्मणस्त्वां धर्मात्मा क्षेमी कुशलमब्रवीत्॥ ४७॥

मूलम्

रामो दाशरथिः श्रीमान् सखा ते सह सीतया।
सलक्ष्मणस्त्वां धर्मात्मा क्षेमी कुशलमब्रवीत्॥ ४७॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘तुम्हारे मित्र परम धार्मिक एवं क्षेमयुक्त दशरथकुमार श्रीमान् रामचन्द्रजीने सीता और लक्ष्मणके सहित अपनी कुशल कही है॥ ४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुज्ञातोऽद्य मुनिना भरद्वाजेन राघवः।
आगमिष्यति तं देवं द्रक्ष्यसि त्वं रघूत्तमम्॥ ४८॥

मूलम्

अनुज्ञातोऽद्य मुनिना भरद्वाजेन राघवः।
आगमिष्यति तं देवं द्रक्ष्यसि त्वं रघूत्तमम्॥ ४८॥

अनुवाद (हिन्दी)

आज मुनिवर भरद्वाजकी आज्ञा लेकर श्रीरघुनाथजी आयेंगे तब तुम्हें भी उन रघुश्रेष्ठ भगवान् रामका दर्शन होगा’’॥ ४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा महातेजाः सम्प्रहृष्टतनूरुहम्।
उत्पपात महावेगो वायुवेगेन मारुतिः॥ ४९॥

मूलम्

एवमुक्त्वा महातेजाः सम्प्रहृष्टतनूरुहम्।
उत्पपात महावेगो वायुवेगेन मारुतिः॥ ४९॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसे हर्षसे रोमांच हो रहा था ऐसे गुहसे इस प्रकार कह महातेजस्वी और अत्यन्त वेगशाली हनुमान् जी फिर वायुवेगसे उड़े॥ ४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽपश्यद रामतीर्थं च सरयूं च महानदीम्।
तामतिक्रम्य हनुमान् नन्दिग्रामं ययौ मुदा॥ ५०॥

मूलम्

सोऽपश्यद रामतीर्थं च सरयूं च महानदीम्।
तामतिक्रम्य हनुमान् नन्दिग्रामं ययौ मुदा॥ ५०॥

अनुवाद (हिन्दी)

(कुछ दूर जानेपर) उन्होंने रामतीर्थ (अयोध्या) और महानदी सरयूके दर्शन किये। उसे भी पार कर हनुमान् जी अति प्रसन्न चित्तसे नन्दिग्रामको चले॥ ५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्रोशमात्रे त्वयोध्यायाश्चीरकृष्णाजिनाम्बरम्।
ददर्श भरतं दीनं कृशमाश्रमवासिनम्॥ ५१॥
मलपङ्कविदिग्धाङ्गं जटिलं वल्कलाम्बरम्।
फलमूलकृताहारं रामचिन्तापरायणम्॥ ५२॥
पादुके ते पुरस्कृत्य शासयन्तं वसुन्धराम्।
मन्त्रिभिः पौरमुख्यैश्च काषायाम्बरधारिभिः॥ ५३॥
वृतदेहं मूर्तिमन्तं साक्षाद्धर्ममिव स्थितम्।
उवाच प्राञ्जलिर्वाक्यं हनूमान् मारुतात्मजः॥ ५४॥

मूलम्

क्रोशमात्रे त्वयोध्यायाश्चीरकृष्णाजिनाम्बरम्।
ददर्श भरतं दीनं कृशमाश्रमवासिनम्॥ ५१॥
मलपङ्कविदिग्धाङ्गं जटिलं वल्कलाम्बरम्।
फलमूलकृताहारं रामचिन्तापरायणम्॥ ५२॥
पादुके ते पुरस्कृत्य शासयन्तं वसुन्धराम्।
मन्त्रिभिः पौरमुख्यैश्च काषायाम्बरधारिभिः॥ ५३॥
वृतदेहं मूर्तिमन्तं साक्षाद्धर्ममिव स्थितम्।
उवाच प्राञ्जलिर्वाक्यं हनूमान् मारुतात्मजः॥ ५४॥

अनुवाद (हिन्दी)

अयोध्यासे एक कोसकी दूरीपर भरतजीको अति दीन और दुर्बल अवस्थामें चीरवस्त्र और कृष्णमृगचर्म धारण किये, आश्रममें निवास करते, शरीरमें भस्म रमाये, जटाजूट और वल्कलवस्त्र धारण किये, फल-मूलादि भोजनकर भगवान् रामके ध्यानमें तत्पर हुए, रामचन्द्रजीकी उन दोनों पादुकाओंको आगे रखकर पृथिवीका शासन करते तथा काषायवस्त्रधारी मन्त्रियों और मुख्य-मुख्य पुरवासियोंसे घिरे हुए साक्षात् मूर्तिमान् धर्मके समान देखकर पवनकुमार हनुमान् जी हाथ जोड़कर बोले—॥ ५१—५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यं त्वं चिन्तयसे रामं तापसं दण्डके स्थितम्।
अनुशोचसि काकुत्स्थः स त्वां कुशलमब्रवीत्॥ ५५॥

मूलम्

यं त्वं चिन्तयसे रामं तापसं दण्डके स्थितम्।
अनुशोचसि काकुत्स्थः स त्वां कुशलमब्रवीत्॥ ५५॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘हे भरतजी! जिन दण्डकारण्यवासी तपोनिष्ठ भगवान् रामका आप चिन्तन करते हैं तथा जिनके लिये आप इतना अनुताप करते हैं उन ककुत्स्थनन्दन रामने तुम्हें अपनी कुशल कहला भेजी है॥ ५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रियमाख्यामि ते देव शोकं त्यज सुदारुणम्।
अस्मिन्मुहूर्त्ते भ्रात्रा त्वं रामेण सह सङ्गतः॥ ५६॥

मूलम्

प्रियमाख्यामि ते देव शोकं त्यज सुदारुणम्।
अस्मिन्मुहूर्त्ते भ्रात्रा त्वं रामेण सह सङ्गतः॥ ५६॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे देव! आप यह दारुण शोक त्यागिये। मैं आपको अति प्रिय समाचार सुनाता हूँ। आप इसी मुहूर्तमें अपने भाई रामसे मिलेंगे॥ ५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समरे रावणं हत्वा रामः सीतामवाप्य च।
उपयाति समृद्धार्थः ससीतः सहलक्ष्मणः॥ ५७॥

मूलम्

समरे रावणं हत्वा रामः सीतामवाप्य च।
उपयाति समृद्धार्थः ससीतः सहलक्ष्मणः॥ ५७॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् राम युद्धमें रावणको मारकर और सीताजीको प्राप्तकर सफल-मनोरथ हो सीता और लक्ष्मणजीके सहित आ रहे हैं’’॥ ५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तो महातेजा भरतो हर्षमूर्च्छितः।
पपात भुवि चास्वस्थः कैकयीप्रियनन्दनः॥ ५८॥

मूलम्

एवमुक्तो महातेजा भरतो हर्षमूर्च्छितः।
पपात भुवि चास्वस्थः कैकयीप्रियनन्दनः॥ ५८॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीहनुमान् जी के इस प्रकार कहनेपर कैकेयीके प्रिय पुत्र महातेजस्वी भरतजी हर्षसे मूर्च्छित हो अपनी सुध-बुध भुला पृथिवीपर गिर पड़े॥ ५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आलिङ्‍ग्य भरतः शीघ्रं मारुतिं प्रियवादिनम्।
आनन्दजैरश्रुजलैः सिषेच भरतः कपिम्॥ ५९॥

मूलम्

आलिङ्‍ग्य भरतः शीघ्रं मारुतिं प्रियवादिनम्।
आनन्दजैरश्रुजलैः सिषेच भरतः कपिम्॥ ५९॥

अनुवाद (हिन्दी)

(फिर सँभलकर उठनेके अनन्तर) भरतजीने तुरंत ही प्रियवादी हनुमान् जी को हृदयसे लगा लिया और आनन्दके कारण उमड़े हुए अश्रुजलसे उन वानरश्रेष्ठको सींचने लगे॥ ५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवो वा मानुषो वा त्वमनुक्रोशादिहागतः।
प्रियाख्यानस्य ते सौम्य ददामि ब्रुवतः प्रियम्॥ ६०॥
गवां शतसहस्रं च ग्रामाणां च शतं वरम्।
सर्वाभरणसम्पन्ना मुग्धाः कन्यास्तु षोडश॥ ६१॥

मूलम्

देवो वा मानुषो वा त्वमनुक्रोशादिहागतः।
प्रियाख्यानस्य ते सौम्य ददामि ब्रुवतः प्रियम्॥ ६०॥
गवां शतसहस्रं च ग्रामाणां च शतं वरम्।
सर्वाभरणसम्पन्ना मुग्धाः कन्यास्तु षोडश॥ ६१॥

अनुवाद (हिन्दी)

(और बोले—) ‘‘भैया! तुम कोई देवता हो या मनुष्य हो जो दया करके यहाँ आये हो?
हे सौम्य! इस प्रिय समाचारके सुनानेके बदले मैं तुम्हें एक लक्ष गौ, अच्छे-अच्छे सौ गाँव और समस्त आभूषणोंसे युक्त परम सुन्दरी सोलह कन्याएँ देता हूँ’’॥ ६०-६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा पुनः प्राह भरतो मारुतात्मजम्।
बहूनीमानि वर्षाणि गतस्य सुमहद्वनम्॥ ६२॥
शृणोम्यहं प्रीतिकरं मम नाथस्य कीर्तनम्।
कल्याणी बत गाथेयं लौकिकी प्रतिभाति मे॥ ६३॥
एति जीवन्तमानन्दो नरं वर्षशतादपि।
राघवस्य हरीणां च कथमासीत्समागमः॥ ६४॥
तत्त्वमाख्याहि भद्रं ते विश्वसेयं वचस्तव।
एवमुक्तोऽथ हनुमान् भरतेन महात्मना॥ ६५॥

मूलम्

एवमुक्त्वा पुनः प्राह भरतो मारुतात्मजम्।
बहूनीमानि वर्षाणि गतस्य सुमहद्वनम्॥ ६२॥
शृणोम्यहं प्रीतिकरं मम नाथस्य कीर्तनम्।
कल्याणी बत गाथेयं लौकिकी प्रतिभाति मे॥ ६३॥
एति जीवन्तमानन्दो नरं वर्षशतादपि।
राघवस्य हरीणां च कथमासीत्समागमः॥ ६४॥
तत्त्वमाख्याहि भद्रं ते विश्वसेयं वचस्तव।
एवमुक्तोऽथ हनुमान् भरतेन महात्मना॥ ६५॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कह श्रीभरतजीने हनुमान् जी से फिर कहा—‘‘आज भयंकर वनमें जानेके कितने ही वर्ष बीतनेपर मैं अपने प्रभुका यह प्रिय समाचार सुन रहा हूँ। आज मुझे यह कल्याणमयी लौकिक कहावत बहुत ठीक मालूम होती है कि ‘जीवित रहनेपर सौ वर्षमें भी मनुष्यको आनन्द मिल सकता है।’ तुम्हारा शुभ हो, तुम यह सच-सच बताओ कि श्रीरघुनाथजीके साथ वानरोंका समागम कैसे हुआ? जिससे मैं तुम्हारे वचनका पूर्ण विश्वास करूँ’’॥ ६२-६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आचचक्षेऽथ रामस्य चरितं कृत्स्नशः क्रमात्।
श्रुत्वा तु परमानन्दं भरतो मारुतात्मजात्॥ ६६॥

मूलम्

आचचक्षेऽथ रामस्य चरितं कृत्स्नशः क्रमात्।
श्रुत्वा तु परमानन्दं भरतो मारुतात्मजात्॥ ६६॥

अनुवाद (हिन्दी)

महात्मा भरतजीके इस प्रकार कहनेपर हनुमान् जी ने श्रीरामचन्द्रजीका क्रमशः सम्पूर्ण चरित्र सुना दिया।
मारुतिसे वह चरित्र सुनकर श्रीभरतजीको अत्यन्त आनन्द हुआ॥ ६५-६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आज्ञापयच्छत्रुहणं मुदा युक्तं मुदान्वितः।
दैवतानि च यावन्ति नगरे रघुनन्दन॥ ६७॥
नानोपहारबलिभिः पूजयन्तु महाधियः।
सूता वैतालिकाश्चैव बन्दिनः स्तुतिपाठकाः॥ ६८॥
वारमुख्याश्च शतशो निर्यान्त्वद्यैव सङ्घशः।
राजदारास्तथामात्याः सेना हस्त्यश्वपत्तयः॥ ६९॥
ब्राह्मणाश्च तथा पौरा राजानो ये समागताः।
निर्यान्तु राघवस्याद्य द्रष्टुं शशिनिभाननम्॥ ७०॥

मूलम्

आज्ञापयच्छत्रुहणं मुदा युक्तं मुदान्वितः।
दैवतानि च यावन्ति नगरे रघुनन्दन॥ ६७॥
नानोपहारबलिभिः पूजयन्तु महाधियः।
सूता वैतालिकाश्चैव बन्दिनः स्तुतिपाठकाः॥ ६८॥
वारमुख्याश्च शतशो निर्यान्त्वद्यैव सङ्घशः।
राजदारास्तथामात्याः सेना हस्त्यश्वपत्तयः॥ ६९॥
ब्राह्मणाश्च तथा पौरा राजानो ये समागताः।
निर्यान्तु राघवस्याद्य द्रष्टुं शशिनिभाननम्॥ ७०॥

अनुवाद (हिन्दी)

और उन्होंने अति प्रसन्न होकर आनन्दमग्न शत्रुघ्नजीको आज्ञा दी कि ‘‘हे रघुनन्दन! नगरमें जितने देवता हैं महाबुद्धि पण्डितजन उन सबका नाना प्रकारकी भेंट और बलि आदि देकर पूजन करें। सूत, वैतालिक, स्तुति-गान करनेवाले वन्दीजन और मुख्य-मुख्य वारांगनाएँ आज ही सैकड़ोंकी संख्यामें टोली बनाकर नगरके बाहर निकलें। इनके अतिरिक्त राजमहिलाएँ, मन्त्रिगण, हाथी-घोड़े और पदाति आदि सेना, ब्राह्मणलोग, पुरवासी और यहाँ आये हुए समस्त राजालोग भी श्रीरघुनाथजीका मुखचन्द्र निहारनेके लिये नगरके बाहर चलें॥ ६७—७०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भरतस्य वचः श्रुत्वा शत्रुघ्नपरिचोदिताः।
अलञ्चक्रुश्च नगरीं मुक्तारत्नमयोज्ज्वलैः॥ ७१॥
तोरणैश्च पताकाभिर्विचित्राभिरनेकधा।
अलङ्कुर्वन्ति वेश्मानि नानाबलिविचक्षणाः॥ ७२॥

मूलम्

भरतस्य वचः श्रुत्वा शत्रुघ्नपरिचोदिताः।
अलञ्चक्रुश्च नगरीं मुक्तारत्नमयोज्ज्वलैः॥ ७१॥
तोरणैश्च पताकाभिर्विचित्राभिरनेकधा।
अलङ्कुर्वन्ति वेश्मानि नानाबलिविचक्षणाः॥ ७२॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतजीके वचन सुनकर शत्रुघ्नजीकी प्रेरणासे नाना प्रकारकी रचनाओंमें कुशल पुरवासियोंने अपने घरोंको सजाना आरम्भ किया तथा अनेक प्रकारके उज्ज्वल मोतियों और रत्नोंकी वन्दनवारोंसे एवं चित्र-विचित्र पताकाओंसे अयोध्यापुरीको सजा दिया॥ ७१-७२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निर्यान्ति वृन्दशः सर्वे रामदर्शनलालसाः।
हयानां शतसाहस्रं गजानामयुतं तथा॥ ७३॥
रथानां दशसाहस्रं स्वर्णसूत्रविभूषितम्।
पारमेष्ठीन्युपादाय द्रव्याण्युच्चावचानि च॥ ७४॥

मूलम्

निर्यान्ति वृन्दशः सर्वे रामदर्शनलालसाः।
हयानां शतसाहस्रं गजानामयुतं तथा॥ ७३॥
रथानां दशसाहस्रं स्वर्णसूत्रविभूषितम्।
पारमेष्ठीन्युपादाय द्रव्याण्युच्चावचानि च॥ ७४॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब भगवान् रामके दर्शनोंकी लालसासे सब लोग अनेकों टोलियाँ बनाकर उनकी भेंटके लिये एक लाख घोड़े, दस सहस्र हाथी और सुनहरी बागडोरोंसे विभूषित दस सहस्र रथ आदि बहुत-सी ऐश्वर्य-सूचक छोटी-बड़ी वस्तुएँ लेकर नगरके बाहर निकलने लगे॥ ७३-७४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तु शिबिकारूढा निर्ययू राजयोषितः।
भरतः पादुके न्यस्य शिरस्येव कृताञ्जलिः॥ ७५॥
शत्रुघ्नसहितो रामं पादचारेण निर्ययौ।
तदैव दृश्यते दूराद्विमानं चन्द्रसन्निभम्॥ ७६॥
पुष्पकं सूर्यसङ्काशं मनसा ब्रह्मनिर्मितम्।
एतस्मिन् भ्रातरौ वीरौ वैदेह्या रामलक्ष्मणौ॥ ७७॥
सुग्रीवश्च कपिश्रेष्ठो मन्त्रिभिश्च विभीषणः।
दृश्यते पश्यत जना इत्याह पवनात्मजः॥ ७८॥

मूलम्

ततस्तु शिबिकारूढा निर्ययू राजयोषितः।
भरतः पादुके न्यस्य शिरस्येव कृताञ्जलिः॥ ७५॥
शत्रुघ्नसहितो रामं पादचारेण निर्ययौ।
तदैव दृश्यते दूराद्विमानं चन्द्रसन्निभम्॥ ७६॥
पुष्पकं सूर्यसङ्काशं मनसा ब्रह्मनिर्मितम्।
एतस्मिन् भ्रातरौ वीरौ वैदेह्या रामलक्ष्मणौ॥ ७७॥
सुग्रीवश्च कपिश्रेष्ठो मन्त्रिभिश्च विभीषणः।
दृश्यते पश्यत जना इत्याह पवनात्मजः॥ ७८॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके पीछे पालकीमें चढ़कर राजमहिलाएँ चलीं और फिर श्रीरघुनाथजीसे मिलनेके लिये भाई शत्रुघ्नके सहित भरतजी सिरपर भगवान् की पादुकाएँ रखकर हाथ जोड़े हुए पैरों-पैरों चले। इसी समय दूरहीसे ब्रह्माजीका मनोनिर्मित चन्द्रमाके समान कान्तिमान् और सूर्यके समान तेजस्वी पुष्पक विमान दिखायी दिया। उसे देखकर श्रीहनुमान् जी ने कहा—‘‘अरे लोगो! देखो, इसी विमानमें श्रीजानकीजीके सहित दोनों वीर भ्राता राम और लक्ष्मण तथा कपिश्रेष्ठ सुग्रीव और मन्त्रियोंके सहित विभीषण दिखायी दे रहे हैं’’॥ ७५—७८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो हर्षसमुद्भूतो निःस्वनो दिवमस्पृशत्।
स्त्रीबालयुववृद्धानां रामोऽयमिति कीर्तनात्॥ ७९॥

मूलम्

ततो हर्षसमुद्भूतो निःस्वनो दिवमस्पृशत्।
स्त्रीबालयुववृद्धानां रामोऽयमिति कीर्तनात्॥ ७९॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब तो ‘राम ये हैं, राम ये हैं’ ऐसा कहनेसे स्त्री, बालक, युवा और वृद्धोंका हर्षके कारण ऐसा शब्द हुआ कि जिससे आकाश गूँज उठा॥ ७९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रथकुञ्जरवाजिस्था अवतीर्य महीं गताः।
ददृशुस्ते विमानस्थं जनाः सोममिवाम्बरे॥ ८०॥

मूलम्

रथकुञ्जरवाजिस्था अवतीर्य महीं गताः।
ददृशुस्ते विमानस्थं जनाः सोममिवाम्बरे॥ ८०॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो लोग रथ, हाथी और घोड़ोंपर चढ़े हुए थे वे उतरकर पृथिवीपर खड़े हो गये। उस समय वे सभी लोग विमानपर चढ़े हुए भगवान् रामको आकाशमें चन्द्रमाके समान देखने लगे॥ ८०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राञ्जलिर्भरतो भूत्वा प्रहृष्टो राघवोन्मुखः।
ततो विमानाग्रगतं भरतो राघवं मुदा॥ ८१॥
ववन्दे प्रणतो रामं मेरुस्थमिव भास्करम्।
ततो रामाभ्यनुज्ञातं विमानमपतद्भुवि॥ ८२॥

मूलम्

प्राञ्जलिर्भरतो भूत्वा प्रहृष्टो राघवोन्मुखः।
ततो विमानाग्रगतं भरतो राघवं मुदा॥ ८१॥
ववन्दे प्रणतो रामं मेरुस्थमिव भास्करम्।
ततो रामाभ्यनुज्ञातं विमानमपतद्भुवि॥ ८२॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर प्रसन्नचित्त भरतजीने विमानपर बैठे हुए श्रीरघुनाथजीके सम्मुख हो उन्हें सुमेरु पर्वतपर प्रकट हुए सूर्यके समान अति विनीतभावसे हर्षपूर्वक प्रणाम किया। तब श्रीरामचन्द्रजीकी आज्ञासे विमान पृथिवीपर उतरा॥ ८१-८२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आरोपितो विमानं तद्भरतः सानुजस्तदा।
राममासाद्य मुदितः पुनरेवाभ्यवादयत्॥ ८३॥

मूलम्

आरोपितो विमानं तद्भरतः सानुजस्तदा।
राममासाद्य मुदितः पुनरेवाभ्यवादयत्॥ ८३॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर भगवान् रामने भाई शत्रुघ्नके सहित भरतजीको भी विमानपर चढ़ा लिया; रामचन्द्रजीके निकट पहुँचनेपर भरतजीने अति आनन्दित हो उन्हें फिर प्रणाम किया॥ ८३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समुत्थाप्य चिराद्दृष्टं भरतं रघुनन्दनः।
भ्रातरं स्वाङ्कमारोप्य मुदा तं परिषस्वजे॥ ८४॥

मूलम्

समुत्थाप्य चिराद्दृष्टं भरतं रघुनन्दनः।
भ्रातरं स्वाङ्कमारोप्य मुदा तं परिषस्वजे॥ ८४॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब बहुत दिनोंमें देखे हुए भाई भरतको रघुनाथजीने तुरंत ही उठाकर प्रसन्नतासे गोदमें लेकर आलिंगन किया॥ ८४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो लक्ष्मणमासाद्य वैदेहीं नाम कीर्तयन्।
अभ्यवादयत प्रीतो भरतः प्रेमविह्वलः॥ ८५॥

मूलम्

ततो लक्ष्मणमासाद्य वैदेहीं नाम कीर्तयन्।
अभ्यवादयत प्रीतो भरतः प्रेमविह्वलः॥ ८५॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर प्रेमसे विह्वल हुए भरतजीने लक्ष्मणजीसे मिलकर श्रीसीताजीको अपना नाम उच्चारण करते हुए प्रीतिपूर्वक प्रणाम किया॥ ८५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुग्रीवं जाम्बवन्तं च युवराजं तथाङ्गदम्।
मैन्दद्विविदनीलांश्च ऋषभं चैव सस्वजे॥ ८६॥
सुषेणं च नलं चैव गवाक्षं गन्धमादनम्।
शरभं पनसं चैव भरतः परिषस्वजे॥ ८७॥

मूलम्

सुग्रीवं जाम्बवन्तं च युवराजं तथाङ्गदम्।
मैन्दद्विविदनीलांश्च ऋषभं चैव सस्वजे॥ ८६॥
सुषेणं च नलं चैव गवाक्षं गन्धमादनम्।
शरभं पनसं चैव भरतः परिषस्वजे॥ ८७॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् भरतजीने सुग्रीव, जाम्बवान्, युवराज अंगद, मैन्द, द्विविद, नील और ऋषभको तथा सुषेण, नल, गवाक्ष, गन्धमादन, शरभ और पनसको भी हृदयसे लगाया॥ ८६-८७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वे ते मानुषं रूपं कृत्वा भरतमादृताः।
पप्रच्छुः कुशलं सौम्याः प्रहृष्टाश्च प्लवङ्गमाः॥ ८८॥

मूलम्

सर्वे ते मानुषं रूपं कृत्वा भरतमादृताः।
पप्रच्छुः कुशलं सौम्याः प्रहृष्टाश्च प्लवङ्गमाः॥ ८८॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार भरतजीसे सत्कार पाकर प्रसन्न हुए उन सौम्य वानरोंने मनुष्यरूप धारणकर उनकी कुशल पूछी॥ ८८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सुग्रीवमालिङ्‍ग्य भरतः प्राह भक्तितः।
त्वत्सहायेन रामस्य जयोऽभूद्‍रावणो हतः॥ ८९॥
त्वमस्माकं चतुर्णां तु भ्राता सुग्रीव पञ्चमः।
शत्रुघ्नश्च तदा राममभिवाद्य सलक्ष्मणम्॥ ९०॥
सीतायाश्चरणौ पश्चाद्ववन्दे विनयान्वितः।
रामो मातरमासाद्य विवर्णां शोकविह्वलाम्॥ ९१॥
जग्राह प्रणतः पादौ मनो मातुः प्रसादयन्।
कैकेयीं च सुमित्रां च ननामेतरमातरौ॥ ९२॥

मूलम्

ततः सुग्रीवमालिङ्‍ग्य भरतः प्राह भक्तितः।
त्वत्सहायेन रामस्य जयोऽभूद्‍रावणो हतः॥ ८९॥
त्वमस्माकं चतुर्णां तु भ्राता सुग्रीव पञ्चमः।
शत्रुघ्नश्च तदा राममभिवाद्य सलक्ष्मणम्॥ ९०॥
सीतायाश्चरणौ पश्चाद्ववन्दे विनयान्वितः।
रामो मातरमासाद्य विवर्णां शोकविह्वलाम्॥ ९१॥
जग्राह प्रणतः पादौ मनो मातुः प्रसादयन्।
कैकेयीं च सुमित्रां च ननामेतरमातरौ॥ ९२॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब भरतजीने सुग्रीवको हृदयसे लगाकर अति प्रेमपूर्वक कहा—‘‘सुग्रीव! तुम्हारी सहायतासे ही श्रीरामचन्द्रजीकी विजय हुई और रावण मारा गया; अतः हम चारोंके तुम पाँचवें भाई हो।’’ तदनन्तर शत्रुघ्नजीने लक्ष्मणजीके सहित श्रीरामचन्द्रजीको प्रणामकर अति विनीत भावसे सीताजीके चरणोंकी वन्दना की। फिर श्रीरामचन्द्रजीने शोकके कारण अति व्याकुल और कृश हुई माता कौसल्याके पास जाकर अति विनीत भावसे उनके चरण छुए और उनके चित्तको प्रसन्न किया तथा अपनी विमाता कैकेयी और सुमित्राको भी नमस्कार किया॥ ८९—९२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भरतः पादुके ते तु राघवस्य सुपूजिते।
योजयामास रामस्य पादयोर्भक्तिसंयुतः॥ ९३॥

मूलम्

भरतः पादुके ते तु राघवस्य सुपूजिते।
योजयामास रामस्य पादयोर्भक्तिसंयुतः॥ ९३॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदुपरान्त भरतजीने श्रीरामचन्द्रजीकी भली प्रकार पूजा की हुई पादुकाओंको भक्तिपूर्वक उनके चरणोंमें पहना दिया॥ ९३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राज्यमेतन्न्यासभूतं मया निर्यातितं तव।
अद्य मे सफलं जन्म फलितो मे मनोरथः॥ ९४॥
यत्पश्यामि समायातमयोध्यां त्वामहं प्रभो।
कोष्ठागारं बलं कोशं कृतं दशगुणं मया॥ ९५॥
त्वत्तेजसा जगन्नाथ पालयस्व पुरं स्वकम्।
इति ब्रुवाणं भरतं दृष्ट्वा सर्वे कपीश्वराः॥ ९६॥
मुमुचुर्नेत्रजं तोयं प्रशशंसुर्मुदान्विताः।

मूलम्

राज्यमेतन्न्यासभूतं मया निर्यातितं तव।
अद्य मे सफलं जन्म फलितो मे मनोरथः॥ ९४॥
यत्पश्यामि समायातमयोध्यां त्वामहं प्रभो।
कोष्ठागारं बलं कोशं कृतं दशगुणं मया॥ ९५॥
त्वत्तेजसा जगन्नाथ पालयस्व पुरं स्वकम्।
इति ब्रुवाणं भरतं दृष्ट्वा सर्वे कपीश्वराः॥ ९६॥
मुमुचुर्नेत्रजं तोयं प्रशशंसुर्मुदान्विताः।

अनुवाद (हिन्दी)

(और कहा—) ‘‘प्रभो! मुझे धरोहररूपसे सौंपे हुए आपके इस राज्यको मैं फिर आपहीको सौंपता हूँ; आज मैं आपको अयोध्यामें आया हुआ देखता हूँ—इससे मेरा जन्म सफल हो गया और मेरी सारी कामनाएँ पूरी हो गयीं। हे जगन्नाथ! आपके प्रतापसे मैंने अन्न-भण्डार, सेना और कोशादि पहलेसे दसगुने कर दिये हैं। अब आप अपने नगरका स्वयं पालन कीजिये।’’ भरतजीको इस प्रकार कहते देख सभी मुख्य-मुख्य वानर हर्षसे आँसू गिराते हुए उनकी प्रशंसा करने लगे॥ ९४—९६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो रामः प्रहृष्टात्मा भरतं स्वाङ्कगं मुदा॥ ९७॥
ययौ तेन विमानेन भरतस्याश्रमं तदा।
अवरुह्य तदा रामो विमानाग्र्यान्महीतलम्॥ ९८॥
अब्रवीत्पुष्पकं देवो गच्छ वैश्रवणं वह।
अनुगच्छानुजानामि कुबेरं धनपालकम्॥ ९९॥

मूलम्

ततो रामः प्रहृष्टात्मा भरतं स्वाङ्कगं मुदा॥ ९७॥
ययौ तेन विमानेन भरतस्याश्रमं तदा।
अवरुह्य तदा रामो विमानाग्र्यान्महीतलम्॥ ९८॥
अब्रवीत्पुष्पकं देवो गच्छ वैश्रवणं वह।
अनुगच्छानुजानामि कुबेरं धनपालकम्॥ ९९॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब श्रीरामचन्द्रजी अति हर्षपूर्वक भरतजीको गोदमें लिये उसी विमानपर चढ़े हुए भरतजीके आश्रमको गये। वहाँ विमानश्रेष्ठ पुष्पकसे नीचे पृथिवीपर उतरकर भगवान् रामने उससे कहा—‘‘जाओ, मैं आज्ञा देता हूँ—अब तुम धनपति कुबेरका अनुसरण करते हुए उन्हींको वहन करो’’॥ ९७—९९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामो वसिष्ठस्य गुरोः पदाम्बुजं
नत्वा यथा देवगुरोः शतक्रतुः।
दत्त्वा महार्हासनमुत्तमं गुरो-
रुपाविवेशाथ गुरोः समीपतः॥ १००॥

मूलम्

रामो वसिष्ठस्य गुरोः पदाम्बुजं
नत्वा यथा देवगुरोः शतक्रतुः।
दत्त्वा महार्हासनमुत्तमं गुरो-
रुपाविवेशाथ गुरोः समीपतः॥ १००॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर, इन्द्र जैसे बृहस्पतिजीकी वन्दना करते हैं वैसे ही श्रीरामचन्द्रजी गुरु वसिष्ठजीके चरणकमलोंमें प्रणाम कर और उन्हें एक अति सुन्दर बहुमूल्य आसन दे स्वयं भी उन्हींके पास बैठ गये॥ १००॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे युद्धकाण्डे चतुर्दशः सर्गः॥ १४॥