[त्रयोदश सर्ग]
भागसूचना
देवताओंका भगवान् रामकी स्तुति करना, सीताजीसहित अग्निदेवका प्रकट होना, अयोध्याके लिये प्रस्थान
मूलम् (वचनम्)
श्रीमहादेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः शक्रः सहस्राक्षो यमश्च वरुणस्तथा।
कुबेरश्च महातेजाः पिनाकी वृषवाहनः॥ १॥
ब्रह्मा ब्रह्मविदां श्रेष्ठो मुनिभिः सिद्धचारणैः।
ऋषयः पितरः साध्या गन्धर्वाप्सरसोरगाः॥ २॥
एते चान्ये विमानाग्र्यैराजग्मुर्यत्र राघवः।
अब्रुवन्परमात्मानं रामं प्राञ्जलयश्च ते॥ ३॥
मूलम्
ततः शक्रः सहस्राक्षो यमश्च वरुणस्तथा।
कुबेरश्च महातेजाः पिनाकी वृषवाहनः॥ १॥
ब्रह्मा ब्रह्मविदां श्रेष्ठो मुनिभिः सिद्धचारणैः।
ऋषयः पितरः साध्या गन्धर्वाप्सरसोरगाः॥ २॥
एते चान्ये विमानाग्र्यैराजग्मुर्यत्र राघवः।
अब्रुवन्परमात्मानं रामं प्राञ्जलयश्च ते॥ ३॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमहादेवजी बोले—हे पार्वति! इसी समय सहस्राक्ष इन्द्र, यम, वरुण, कुबेर, महातेजस्वी वृषभ-वाहन महादेवजी, मुनि, सिद्ध और चारणोंके सहित ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ ब्रह्माजी, पितृगण, ऋषि, साध्य, गन्धर्व, अप्सराएँ और नागगण—ये सब तथा और भी अन्यान्य देवगण श्रेष्ठ विमानोंपर चढ़कर जहाँ श्रीरघुनाथजी थे आये। और वे सब हाथ जोड़कर परमात्मा श्रीरामसे बोले—॥ १—३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्ता त्वं सर्वलोकानां साक्षी विज्ञानविग्रहः।
वसूनामष्टमोऽसि त्वं रुद्राणां शङ्करो भवान्॥ ४॥
मूलम्
कर्ता त्वं सर्वलोकानां साक्षी विज्ञानविग्रहः।
वसूनामष्टमोऽसि त्वं रुद्राणां शङ्करो भवान्॥ ४॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘आप समस्त लोकोंके कर्ता, सबके साक्षी और विशुद्ध विज्ञानस्वरूप हैं तथा वसुओंमें अष्टम वसु और रुद्रोंमें श्रीमहादेवजी हैं॥ ४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आदिकर्तासि लोकानां ब्रह्मा त्वं चतुराननः।
अश्विनौ घ्राणभूतौ ते चक्षुषी चन्द्रभास्करौ॥ ५॥
मूलम्
आदिकर्तासि लोकानां ब्रह्मा त्वं चतुराननः।
अश्विनौ घ्राणभूतौ ते चक्षुषी चन्द्रभास्करौ॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप ही समस्त लोकोंके आदिकर्ता चतुर्मुख ब्रह्माजी हैं, अश्विनीकुमार आपकी घ्राणेन्द्रिय हैं और सूर्य तथा चन्द्रमा नेत्र हैं॥ ५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोकानामादिरन्तोऽसि नित्य एकः सदोदितः।
सदा शुद्धः सदा बुद्धः सदा मुक्तोऽगुणोऽद्वयः॥ ६॥
मूलम्
लोकानामादिरन्तोऽसि नित्य एकः सदोदितः।
सदा शुद्धः सदा बुद्धः सदा मुक्तोऽगुणोऽद्वयः॥ ६॥
अनुवाद (हिन्दी)
सब लोकोंके आदि (उत्पत्तिस्थान) और अन्त (लयस्थान) आप ही हैं तथा आप नित्यस्वरूप, एक सदोदित (आविर्भाव-तिरोभावसे रहित नित्यप्रकाशस्वरूप), नित्यशुद्ध, नित्यबुद्ध, नित्यमुक्त, निर्गुण और अद्वितीय हैं॥ ६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वन्मायासंवृतानां त्वं भासि मानुषविग्रहः।
त्वन्नाम स्मरतां राम सदा भासि चिदात्मकः॥ ७॥
मूलम्
त्वन्मायासंवृतानां त्वं भासि मानुषविग्रहः।
त्वन्नाम स्मरतां राम सदा भासि चिदात्मकः॥ ७॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राम! जो लोग आपकी मायासे आच्छादित हैं उन्हें आप मनुष्यरूप प्रतीत होते हैं, किन्तु जो आपका नामस्मरण करते हैं उन्हें तो आप सर्वदा चैतन्य स्वरूप ही भासते हैं॥ ७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रावणेन हृतं स्थानमस्माकं तेजसा सह।
त्वयाद्य निहतो दुष्टः पुनः प्राप्तं पदं स्वकम्॥ ८॥
मूलम्
रावणेन हृतं स्थानमस्माकं तेजसा सह।
त्वयाद्य निहतो दुष्टः पुनः प्राप्तं पदं स्वकम्॥ ८॥
अनुवाद (हिन्दी)
रावणने हमारे तेजके सहित हमारा स्थान भी छीन लिया था, सो आज वह दुष्ट आपके हाथसे मारा गया और हमें फिर अपना पद प्राप्त हो गया’’॥ ८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं स्तुवत्सु देवेषु ब्रह्मा साक्षात्पितामहः।
अब्रवीत्प्रणतो भूत्वा रामं सत्यपथे स्थितम्॥ ९॥
मूलम्
एवं स्तुवत्सु देवेषु ब्रह्मा साक्षात्पितामहः।
अब्रवीत्प्रणतो भूत्वा रामं सत्यपथे स्थितम्॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवताओंके इस प्रकार स्तुति करनेपर साक्षात् पितामह ब्रह्माजी अति विनम्र होकर सत्यपथपर स्थित भगवान् रामसे बोले॥ ९॥
मूलम् (वचनम्)
ब्रह्मोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
वन्दे देवं विष्णुमशेषस्थितिहेतुं
त्वामध्यात्मज्ञानिभिरन्तर्हृदि भाव्यम्।
हेयाहेयद्वन्द्वविहीनं परमेकं
सत्तामात्रं सर्वहृदिस्थं दृशिरूपम्॥ १०॥
मूलम्
वन्दे देवं विष्णुमशेषस्थितिहेतुं
त्वामध्यात्मज्ञानिभिरन्तर्हृदि भाव्यम्।
हेयाहेयद्वन्द्वविहीनं परमेकं
सत्तामात्रं सर्वहृदिस्थं दृशिरूपम्॥ १०॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्माजी बोले—‘‘हे राम! सम्पूर्ण प्राणियोंकी स्थितिके कारण, आत्मज्ञानियोंद्वारा हृदयमें ध्यान किये जानेवाले, त्याज्य और ग्राह्यरूप द्वन्द्वसे रहित, सबसे परे अद्वितीय, सत्तामात्र, सबके हृदयमें विराजमान, साक्षीस्वरूप आप विष्णुभगवान् को मैं प्रणाम करता हूँ॥ १०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राणापानौ निश्चयबुद्ध्या हृदि रुद्ध्वा
छित्त्वा सर्वं संशयबन्धं विषयौघान्।
पश्यन्तीशं यं गतमोहा यतयस्तं
वन्दे रामं रत्नकिरीटं रविभासम्॥ ११॥
मूलम्
प्राणापानौ निश्चयबुद्ध्या हृदि रुद्ध्वा
छित्त्वा सर्वं संशयबन्धं विषयौघान्।
पश्यन्तीशं यं गतमोहा यतयस्तं
वन्दे रामं रत्नकिरीटं रविभासम्॥ ११॥
अनुवाद (हिन्दी)
मोहहीन संन्यासीगण निश्चित बुद्धिके द्वारा प्राण और अपानको हृदयमें रोककर तथा अपने सम्पूर्ण संशय-बन्धन और विषय-वासनाओंका छेदन कर जिस ईश्वरका दर्शन करते हैं उन रत्नकिरीटधारी सूर्यके समान तेजस्वी भगवान् रामको मैं प्रणाम करता हूँ॥ ११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मायातीतं माधवमाद्यं जगदादिं
मानातीतं मोहविनाशं मुनिवन्द्यम्।
योगिध्येयं योगविधानं परिपूर्णं
वन्दे रामं रञ्जितलोकं रमणीयम्॥ १२॥
मूलम्
मायातीतं माधवमाद्यं जगदादिं
मानातीतं मोहविनाशं मुनिवन्द्यम्।
योगिध्येयं योगविधानं परिपूर्णं
वन्दे रामं रञ्जितलोकं रमणीयम्॥ १२॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मायासे परे, लक्ष्मीके पति, सबके आदिकारण, जगत् के उत्पत्ति-स्थान, प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे परे, मोहका नाश करनेवाले, मुनिजनोंसे वन्दनीय, योगियोंसे ध्यान किये जानेयोग्य, योगमार्गके प्रवर्तक, सर्वत्र परिपूर्ण और सम्पूर्ण संसारको आनन्दित करनेवाले हैं उन परम सुन्दर भगवान् रामको मैं प्रणाम करता हूँ॥ १२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भावाभावप्रत्ययहीनं भवमुख्यै-
र्योगासक्तैरर्चितपादाम्बुजयुग्मम्।
नित्यं शुद्धं बुद्धमनन्तं प्रणवाख्यं
वन्दे रामं वीरमशेषासुरदावम्॥ १३॥
मूलम्
भावाभावप्रत्ययहीनं भवमुख्यै-
र्योगासक्तैरर्चितपादाम्बुजयुग्मम्।
नित्यं शुद्धं बुद्धमनन्तं प्रणवाख्यं
वन्दे रामं वीरमशेषासुरदावम्॥ १३॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो भाव और अभावरूप दोनों प्रकारकी प्रतीतियोंसे रहित हैं तथा जिनके युगलचरणकमलोंका योगपरायण शंकर आदि पूजन करते हैं और जो नित्य, शुद्ध, बुद्ध और अनन्त हैं, सम्पूर्ण दानवोंके लिये दावानलके समान उन ओंकार नामक वीरवर रामको मैं प्रणाम करता हूँ॥ १३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं मे नाथो नाथितकार्याखिलकारी
मानातीतो माधवरूपोऽखिलधारी।
भक्त्या गम्यो भावितरूपो भवहारी
योगाभ्यासैर्भावितचेतः सहचारी॥ १४॥
मूलम्
त्वं मे नाथो नाथितकार्याखिलकारी
मानातीतो माधवरूपोऽखिलधारी।
भक्त्या गम्यो भावितरूपो भवहारी
योगाभ्यासैर्भावितचेतः सहचारी॥ १४॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राम! आप मेरे प्रभु हैं और मेरे सम्पूर्ण प्रार्थित कार्योंको पूर्ण करनेवाले हैं, आप देश-कालादि मान (परिमाण)-से रहित, नारायणस्वरूप, अखिल विश्वको धारण करनेवाले, भक्तिसे प्राप्य, अपने स्वरूपका ध्यान किये जानेपर संसार-भयको दूर करनेवाले और योगाभ्याससे शुद्ध हुए चित्तमें विहार करनेवाले हैं॥ १४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वामाद्यन्तं लोकततीनां परमीशं
लोकानां नो लौकिकमानैरधिगम्यम्।
भक्तिश्रद्धाभावसमेतैर्भजनीयं
वन्दे रामं सुन्दरमिन्दीवरनीलम्॥ १५॥
मूलम्
त्वामाद्यन्तं लोकततीनां परमीशं
लोकानां नो लौकिकमानैरधिगम्यम्।
भक्तिश्रद्धाभावसमेतैर्भजनीयं
वन्दे रामं सुन्दरमिन्दीवरनीलम्॥ १५॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप इस लोक-परम्पराके आदि और अन्त (अर्थात् उत्पत्ति और प्रलयके स्थान) हैं, सम्पूर्ण लोकोंके महेश्वर हैं, आप किसी भी लौकिक प्रमाणसे जाने नहीं जा सकते, आप तो भक्ति और श्रद्धासम्पन्न पुरुषोंद्वारा ही भजन किये जानेयोग्य हैं, ऐसे नीलकमलके समान श्यामसुन्दर आप श्रीरामचन्द्रजीको मैं प्रणाम करता हूँ॥ १५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
को वा ज्ञातुं त्वामतिमानं गतमानं
मायासक्तो माधव शक्तो मुनिमान्यम्।
वृन्दारण्ये वन्दितवृन्दारकवृन्दं
वन्दे रामं भवमुखवन्द्यं सुखकन्दम्॥ १६॥
मूलम्
को वा ज्ञातुं त्वामतिमानं गतमानं
मायासक्तो माधव शक्तो मुनिमान्यम्।
वृन्दारण्ये वन्दितवृन्दारकवृन्दं
वन्दे रामं भवमुखवन्द्यं सुखकन्दम्॥ १६॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे लक्ष्मीपते! आप प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे परे तथा सर्वथा निर्मान हैं। मायामें आसक्त कौन प्राणी आपको जाननेमें समर्थ हो सकता है? आप महर्षियोंके माननीय हैं, तथा (कृष्णावतारके समय) वृन्दावनमें अखिल देवसमूहकी वन्दना करते हुए भी रामरूपसे शिव आदि देवताओंके स्वयं वन्दनीय हैं; ऐसे आप आनन्दघन भगवान् रामको मैं प्रणाम करता हूँ॥ १६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानाशास्त्रैर्वेदकदम्बैः प्रतिपाद्यं
नित्यानन्दं निर्विषयज्ञानमनादिम्।
मत्सेवार्थं मानुषभावं प्रतिपन्नं
वन्दे रामं मरकतवर्णं मथुरेशम्॥ १७॥
मूलम्
नानाशास्त्रैर्वेदकदम्बैः प्रतिपाद्यं
नित्यानन्दं निर्विषयज्ञानमनादिम्।
मत्सेवार्थं मानुषभावं प्रतिपन्नं
वन्दे रामं मरकतवर्णं मथुरेशम्॥ १७॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो नाना शास्त्र और वेदसमूहसे प्रतिपादित नित्य आनन्दस्वरूप निर्विकल्प ज्ञानस्वरूप और अनादि हैं तथा जिन्होंने मेरा कार्य करनेके लिये मनुष्यरूप धारण किया है उन मरकतमणिके समान नीलवर्ण मथुरानाथ* भगवान् रामको प्रणाम करता हूँ॥ १७॥
पादटिप्पनी
- यहाँ भगवान् रामको मथूरानाथ कहकर श्रीराम और कृष्णकी अभिन्नता प्रकट की है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रद्धायुक्तो यः पठतीमं स्तवमाद्यं
ब्राह्मं ब्रह्मज्ञानविधानं भुवि मर्त्यः।
रामं श्यामं कामितकामप्रदमीशं
ध्यात्वा ध्याता पातकजालैर्विगतः स्यात्॥ १८॥
मूलम्
श्रद्धायुक्तो यः पठतीमं स्तवमाद्यं
ब्राह्मं ब्रह्मज्ञानविधानं भुवि मर्त्यः।
रामं श्यामं कामितकामप्रदमीशं
ध्यात्वा ध्याता पातकजालैर्विगतः स्यात्॥ १८॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य इच्छित कामनाओंको पूर्ण करनेवाले श्याममूर्ति भगवान् रामका ध्यान करते हुए ब्रह्माजीके कहे हुए इस ब्रह्मज्ञान-विधायक आद्य स्तोत्रका श्रद्धापूर्वक पाठ करेगा वह ध्यानशील पुरुष सकल पापोंसे मुक्त हो जायगा’’॥ १८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वा स्तुतिं लोकगुरोर्विभावसुः
स्वाङ्के समादाय विदेहपुत्रिकाम्।
विभ्राजमानां विमलारुणद्युतिं
रक्ताम्बरां दिव्यविभूषणान्विताम्॥ १९॥
प्रोवाच साक्षी जगतां रघूत्तमं
प्रपन्नसर्वार्तिहरं हुताशनः।
गृहाण देवीं रघुनाथ जानकीं
पुरा त्वया मय्यवरोपितां वने॥ २०॥
मूलम्
श्रुत्वा स्तुतिं लोकगुरोर्विभावसुः
स्वाङ्के समादाय विदेहपुत्रिकाम्।
विभ्राजमानां विमलारुणद्युतिं
रक्ताम्बरां दिव्यविभूषणान्विताम्॥ १९॥
प्रोवाच साक्षी जगतां रघूत्तमं
प्रपन्नसर्वार्तिहरं हुताशनः।
गृहाण देवीं रघुनाथ जानकीं
पुरा त्वया मय्यवरोपितां वने॥ २०॥
अनुवाद (हिन्दी)
लोकगुरु भगवान् ब्रह्माजीकी यह स्तुति सुन लोकसाक्षी अग्निदेवने अपनी गोदमें निर्मल अरुण कान्तिसे सुशोभित और लाल वस्त्र तथा दिव्य आभूषणोंसे विभूषित विदेहपुत्री जानकीजीको लिये (प्रकट होकर) शरणागत दुःखहारी श्रीरघुनाथजीसे कहा—‘‘रघुवीर! पहले तपोवनमें मुझे सौंपी हुई देवी जानकीको अब ग्रहण कीजिये॥ १९-२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विधाय मायाजनकात्मजां हरे
दशाननप्राणविनाशनाय च।
हतो दशास्यः सह पुत्रबान्धवै-
र्निराकृतोऽनेन भरो भुवः प्रभो॥ २१॥
मूलम्
विधाय मायाजनकात्मजां हरे
दशाननप्राणविनाशनाय च।
हतो दशास्यः सह पुत्रबान्धवै-
र्निराकृतोऽनेन भरो भुवः प्रभो॥ २१॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे हरे! रावणका प्राणहरण करनेके लिये अपनी मायामयी सीता रचकर रावणको उसके पुत्र और बन्धु-बान्धवोंके सहित मार डाला। हे प्रभो! ऐसा करके आपने पृथिवीका भार उतार दिया॥ २१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिरोहिता सा प्रतिबिम्बरूपिणी
कृता यदर्थं कृतकृत्यतां गता।
ततोऽतिहृष्टां परिगृह्य जानकीं
रामः प्रहृष्टः प्रतिपूज्य पावकम्॥ २२॥
मूलम्
तिरोहिता सा प्रतिबिम्बरूपिणी
कृता यदर्थं कृतकृत्यतां गता।
ततोऽतिहृष्टां परिगृह्य जानकीं
रामः प्रहृष्टः प्रतिपूज्य पावकम्॥ २२॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह प्रतिबिम्बरूपिणी मायासीता, जिस कार्यके लिये रची गयी थी उसे पूरा करके अब अदृश्य हो गयी है।’’ अग्निदेवके ये वचन सुनकर श्रीरामचन्द्रजीने अति प्रसन्न हो उनका पूजन कर प्रसन्नवदना जानकीजीको ग्रहण किया॥ २२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वाङ्के समावेश्य सदानपायिनीं
श्रियं त्रिलोकीजननीं श्रियः पतिः।
दृष्ट्वाथ रामं जनकात्मजायुतं
श्रिया स्फुरन्तं सुरनायको मुदा।
भक्त्या गिरा गद्गदया समेत्य
कृताञ्जलिः स्तोतुमथोपचक्रमे॥ २३॥
मूलम्
स्वाङ्के समावेश्य सदानपायिनीं
श्रियं त्रिलोकीजननीं श्रियः पतिः।
दृष्ट्वाथ रामं जनकात्मजायुतं
श्रिया स्फुरन्तं सुरनायको मुदा।
भक्त्या गिरा गद्गदया समेत्य
कृताञ्जलिः स्तोतुमथोपचक्रमे॥ २३॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर लक्ष्मीपति भगवान् रामने अपनेसे कभी विलग न होनेवाली जगज्जननी जानकीको गोदमें बैठा लिया। उस समय जनकनन्दिनी सीताजीके सहित भगवान् रामको कान्तिसे सुशोभित देख देवराज इन्द्र अति प्रसन्नतापूर्वक हाथ जोड़कर भक्ति-गद्गद वाणीसे स्तुति करने लगे॥ २३॥
मूलम् (वचनम्)
इन्द्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
भजेऽहं सदा राममिन्दीवराभं
भवारण्यदावानलाभाभिधानम्।
भवानीहृदा भावितानन्दरूपं
भवाभावहेतुं भवादिप्रपन्नम्॥ २४॥
मूलम्
भजेऽहं सदा राममिन्दीवराभं
भवारण्यदावानलाभाभिधानम्।
भवानीहृदा भावितानन्दरूपं
भवाभावहेतुं भवादिप्रपन्नम्॥ २४॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्र बोले—जो नीलकमलकी-सी आभावाले हैं, संसाररूप वनके लिये जिनका नाम दावानलके समान है, श्रीपार्वतीजी जिनके आनन्दस्वरूपका हृदयमें ध्यान करती हैं, जो (जन्म-मरणरूप) संसारसे छुड़ानेवाले हैं और शंकरादि देवोंके आश्रय हैं उन भगवान् रामको मैं भजता हूँ॥ २४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुरानीकदुःखौघनाशैकहेतुं
नराकारदेहं निराकारमीड्यम्।
परेशं परानन्दरूपं वरेण्यं
हरिं राममीशं भजे भारनाशम्॥ २५॥
मूलम्
सुरानीकदुःखौघनाशैकहेतुं
नराकारदेहं निराकारमीड्यम्।
परेशं परानन्दरूपं वरेण्यं
हरिं राममीशं भजे भारनाशम्॥ २५॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो देवमण्डलके दुःखसमूहका नाश करनेके एकमात्र कारण हैं तथा जो मनुष्यरूपधारी, आकारहीन और स्तुति किये जानेयोग्य हैं, पृथिवीका भार उतारनेवाले उन परमेश्वर परानन्दरूप पूजनीय भगवान् रामको मैं भजता हूँ॥ २५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रपन्नाखिलानन्ददोहं प्रपन्नं
प्रपन्नार्तिनिःशेषनाशाभिधानम्।
तपोयोगयोगीशभावाभिभाव्यं
कपीशादिमित्रं भजे राममित्रम्॥ २६॥
मूलम्
प्रपन्नाखिलानन्ददोहं प्रपन्नं
प्रपन्नार्तिनिःशेषनाशाभिधानम्।
तपोयोगयोगीशभावाभिभाव्यं
कपीशादिमित्रं भजे राममित्रम्॥ २६॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो शरणागतोंको सब प्रकारका आनन्द देनेवाले और उनके आश्रय हैं, जिनका नाम शरणागत भक्तोंके सम्पूर्ण दुःखोंको दूर करनेवाला है, जिनका तप और योग एवं बड़े-बड़े योगीश्वरोंकी भावनाओंद्वारा चिन्तन किया जाता है तथा जो सुग्रीवादिके मित्र हैं, उन मित्ररूप भगवान् रामको मैं भजता हूँ॥ २६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सदा भोगभाजां सुदूरे विभान्तं
सदा योगभाजामदूरे विभान्तम्।
चिदानन्दकन्दं सदा राघवेशं
विदेहात्मजानन्दरूपं प्रपद्ये॥ २७॥
मूलम्
सदा भोगभाजां सुदूरे विभान्तं
सदा योगभाजामदूरे विभान्तम्।
चिदानन्दकन्दं सदा राघवेशं
विदेहात्मजानन्दरूपं प्रपद्ये॥ २७॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो भोगपरायण लोगोंसे सदा दूर रहते हैं और योगनिष्ठ पुरुषोंके सदा समीप ही विराजते हैं, श्रीजानकीजीके लिये आनन्दस्वरूप उन चिदानन्दघन श्रीरघुनाथजीको मैं सर्वदा भजता हूँ॥ २७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महायोगमायाविशेषानुयुक्तो
विभासीश लीलानराकारवृत्तिः।
त्वदानन्दलीलाकथापूर्णकर्णाः
सदानन्दरूपा भवन्तीह लोके॥ २८॥
मूलम्
महायोगमायाविशेषानुयुक्तो
विभासीश लीलानराकारवृत्तिः।
त्वदानन्दलीलाकथापूर्णकर्णाः
सदानन्दरूपा भवन्तीह लोके॥ २८॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे भगवन्! आप अपनी महान् योगमायाके गुणोंसे युक्त होकर लीलासे ही मनुष्यरूप प्रतीत हो रहे हैं। जिनके कर्ण आपकी इन आनन्दमयी लीलाओंके कथामृतसे पूर्ण होते हैं वे संसारमें नित्यानन्दरूप हो जाते हैं॥ २८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं मानपानाभिमत्तप्रमत्तो
न वेदाखिलेशाभिमानाभिमानः।
इदानीं भवत्पादपद्मप्रसादात्
त्रिलोकाधिपत्याभिमानो विनष्टः॥ २९॥
मूलम्
अहं मानपानाभिमत्तप्रमत्तो
न वेदाखिलेशाभिमानाभिमानः।
इदानीं भवत्पादपद्मप्रसादात्
त्रिलोकाधिपत्याभिमानो विनष्टः॥ २९॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! मैं तो सम्मान और सोमपानके उन्मादसे मतवाला हो रहा था, सर्वेश्वरताके अभिमानवश मैं अपने आगे किसीको कुछ भी नहीं समझता था। अब आपके चरणकमलोंकी कृपासे मेरा त्रिलोकाधिपतित्वका अभिमान चूर हो गया॥ २९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्फुरद्रत्नकेयूरहाराभिरामं
धराभारभूतासुरानीकदावम्।
शरच्चन्द्रवक्त्रं लसत्पद्मनेत्रं
दुरावारपारं भजे राघवेशम्॥ ३०॥
मूलम्
स्फुरद्रत्नकेयूरहाराभिरामं
धराभारभूतासुरानीकदावम्।
शरच्चन्द्रवक्त्रं लसत्पद्मनेत्रं
दुरावारपारं भजे राघवेशम्॥ ३०॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो चमचमाते हुए रत्नजटित भुजबन्ध और हारोंसे सुशोभित हैं, पृथिवीके भाररूप राक्षसोंके लिये दावानलके समान हैं, जिनका शरच्चन्द्रके समान मुख और अति मनोहर नेत्रकमल हैं तथा जिनका आदि-अन्त जानना अत्यन्त कठिन है उन रघुनाथजीको मैं भजता हूँ॥ ३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुराधीशनीलाभ्रनीलाङ्गकान्तिं
विराधादिरक्षोवधाल्लोकशान्तिम्।
किरीटादिशोभं पुरारातिलाभं
भजे रामचन्द्रं रघूणामधीशम्॥ ३१॥
मूलम्
सुराधीशनीलाभ्रनीलाङ्गकान्तिं
विराधादिरक्षोवधाल्लोकशान्तिम्।
किरीटादिशोभं पुरारातिलाभं
भजे रामचन्द्रं रघूणामधीशम्॥ ३१॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनके शरीरकी इन्द्रनील मणि और मेघके समान श्याम कान्ति है, जिन्होंने विराध आदि राक्षसोंको मारकर सम्पूर्ण लोकोंमें शान्ति स्थापित की है उन किरीटादिसे सुशोभित और श्रीमहादेवजीके परम धन रघुकुलेश्वर रामचन्द्रजीको मैं भजता हूँ॥ ३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लसच्चन्द्रकोटिप्रकाशादिपीठे
समासीनमङ्के समाधाय सीताम्।
स्फुरद्धेमवर्णां तडित्पुञ्जभासां
भजे रामचन्द्रं निवृत्तार्तितन्द्रम्॥ ३२॥
मूलम्
लसच्चन्द्रकोटिप्रकाशादिपीठे
समासीनमङ्के समाधाय सीताम्।
स्फुरद्धेमवर्णां तडित्पुञ्जभासां
भजे रामचन्द्रं निवृत्तार्तितन्द्रम्॥ ३२॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो तेजोमय सुवर्णके-से वर्णवाली और बिजलीके समान कान्तिमयी जानकीजीको गोदमें लिये करोड़ों चन्द्रमाओंके समान देदीप्यमान सिंहासनपर विराजमान हैं उन निर्दुःख और आलस्यहीन भगवान् रामको मैं भजता हूँ॥ ३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्रोवाच भगवान् भवान्या सहितो भवः।
रामं कमलपत्राक्षं विमानस्थो नभःस्थले॥ ३३॥
मूलम्
ततः प्रोवाच भगवान् भवान्या सहितो भवः।
रामं कमलपत्राक्षं विमानस्थो नभःस्थले॥ ३३॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर आकाशमें विमानपर बैठे हुए भवानीसहित भगवान् शंकरने कमलदललोचन श्रीरामचन्द्रजीसे कहा—॥ ३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आगमिष्याम्ययोध्यायां द्रष्टुं त्वां राज्यसत्कृतम्।
इदानीं पश्य पितरमस्य देहस्य राघवः॥ ३४॥
मूलम्
आगमिष्याम्ययोध्यायां द्रष्टुं त्वां राज्यसत्कृतम्।
इदानीं पश्य पितरमस्य देहस्य राघवः॥ ३४॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘हे रघुनन्दन! मैं आपको राज्याभिषिक्त होते देखनेके लिये अयोध्यापुरीमें आऊँगा; इस समय आप अपने इस शरीरके पिता (दशरथ)-का दर्शन कीजिये’’॥ ३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽपश्यद्विमानस्थं रामो दशरथं पुरः।
ननाम शिरसा पादौ मुदा भक्त्या सहानुजः॥ ३५॥
मूलम्
ततोऽपश्यद्विमानस्थं रामो दशरथं पुरः।
ननाम शिरसा पादौ मुदा भक्त्या सहानुजः॥ ३५॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब श्रीरामचन्द्रजीने अपने सामने विमानपर बैठे हुए महाराज दशरथको देखा। (उन्हें देखते ही) उन्होंने प्रसन्न होकर भाई लक्ष्मणके सहित भक्तिपूर्वक चरणोंमें सिर रखकर प्रणाम किया॥ ३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आलिङ्ग्य मूर्ध्न्यवघ्राय रामं दशरथोऽब्रवीत्।
तारितोऽस्मि त्वया वत्स संसाराद्दुःखसागरात्॥ ३६॥
इत्युक्त्वा पुनरालिङ्ग्य ययौ रामेण पूजितः।
रामोऽपि देवराजं तं दृष्ट्वा प्राह कृताञ्जलिम्॥ ३७॥
मूलम्
आलिङ्ग्य मूर्ध्न्यवघ्राय रामं दशरथोऽब्रवीत्।
तारितोऽस्मि त्वया वत्स संसाराद्दुःखसागरात्॥ ३६॥
इत्युक्त्वा पुनरालिङ्ग्य ययौ रामेण पूजितः।
रामोऽपि देवराजं तं दृष्ट्वा प्राह कृताञ्जलिम्॥ ३७॥
अनुवाद (हिन्दी)
दशरथजीने श्रीरामचन्द्रजीको हृदयसे लगा लिया और उनका सिर सूँघकर कहा—‘‘बेटा! तुमने मुझे संसाररूप दुःखसमुद्रसे पार कर दिया’’। ऐसा कह श्रीरामको फिर हृदयसे लगा और उनसे पूजित हो दशरथजी चले गये। तब श्रीरामचन्द्रजीने देवराज इन्द्रको हाथ जोड़े खड़ा देखकर कहा—॥ ३६-३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मत्कृते निहतान् सङ्ख्ये वानरान् पतितान् भुवि।
जीवयाशु सुधावृष्ट्या सहस्राक्ष ममाज्ञया॥ ३८॥
मूलम्
मत्कृते निहतान् सङ्ख्ये वानरान् पतितान् भुवि।
जीवयाशु सुधावृष्ट्या सहस्राक्ष ममाज्ञया॥ ३८॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘हे सहस्राक्ष! मेरी आज्ञासे तुम अमृत बरसाकर मेरे लिये युद्धमें मरकर पृथ्वीपर गिरे हुए वानरोंको तुरंत जीवित कर दो॥ ३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथेत्यमृतवृष्ट्या तान् जीवयामास वानरान्।
ये ये मृता मृधे पूर्वं ते ते सुप्तोत्थिता इव।
पूर्ववद्बलिनो हृष्टा रामपार्श्वमुपाययुः॥ ३९॥
नोत्थिता राक्षसास्तत्र पीयूषस्पर्शनादपि।
विभीषणस्तु साष्टाङ्गं प्रणिपत्याब्रवीद्वचः॥ ४०॥
मूलम्
तथेत्यमृतवृष्ट्या तान् जीवयामास वानरान्।
ये ये मृता मृधे पूर्वं ते ते सुप्तोत्थिता इव।
पूर्ववद्बलिनो हृष्टा रामपार्श्वमुपाययुः॥ ३९॥
नोत्थिता राक्षसास्तत्र पीयूषस्पर्शनादपि।
विभीषणस्तु साष्टाङ्गं प्रणिपत्याब्रवीद्वचः॥ ४०॥
अनुवाद (हिन्दी)
(ऐसा सुन देवराजने) ‘बहुत अच्छा’ कह अमृत बरसाकर उन सब वानरोंको जीवित कर दिया। जो-जो वानर पहले युद्धमें मारे गये थे वे सभी सोकर उठे हुएके समान पहलेकी भाँति ही बलवान् और प्रसन्न होकर भगवान् रामके पास चले आये, किन्तु वहाँ (युद्धमें मरकर गिरे हुए) राक्षसगण अमृतका स्पर्श होनेपर भी नहीं उठे*। इसी समय विभीषणने साष्टांग प्रणाम करके कहा—॥ ३९-४०॥
पादटिप्पनी
- अमृतका स्वाभाविक गुण जीवनदान करना है, अतः अमृतका स्पर्श होनेपर भी राक्षसोंके जीवित न होनेसे स्वभाव-विपर्ययका दोष आता है। परन्तु भगवदिच्छाका प्रभाव इतना प्रबल है कि उसके आगे कुछ भी असम्भव नहीं है; भगवान् की इच्छा न होनेसे अमृतका प्रभाव भी बाधित हो गया। इसके अतिरिक्त इसका दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि साक्षात् भगवान् रामके द्वारा मारे जानेके कारण राक्षस मुक्त हो गये थे। इसलिये अमृतका संसर्ग भी उन्हें फिर जीवित न कर सका।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देव मामनुगृह्णीष्व मयि भक्तिर्यदा तव।
मङ्गलस्नानमद्य त्वं कुरु सीतासमन्वितः॥ ४१॥
मूलम्
देव मामनुगृह्णीष्व मयि भक्तिर्यदा तव।
मङ्गलस्नानमद्य त्वं कुरु सीतासमन्वितः॥ ४१॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! आपकी मुझपर अत्यन्त प्रीति है; अतः इतनी कृपा कीजिये कि आज श्रीसीताजीके सहित मंगल-स्नान कीजिये॥ ४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अलङ्कृत्य सह भ्राता श्वो गमिष्यामहे वयम्।
विभीषणवचः श्रुत्वा प्रत्युवाच रघूत्तमः॥ ४२॥
मूलम्
अलङ्कृत्य सह भ्राता श्वो गमिष्यामहे वयम्।
विभीषणवचः श्रुत्वा प्रत्युवाच रघूत्तमः॥ ४२॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर कल भाई लक्ष्मणके सहित वस्त्राभूषणोंसे सुसज्जित हो हम सब चलेंगे।’’ विभीषणके ये वचन सुनकर श्रीरघुनाथजी बोले—॥ ४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुकुमारोऽतिभक्तो मे भरतो मामवेक्षते।
जटावल्कलधारी स शब्दब्रह्मसमाहितः॥ ४३॥
मूलम्
सुकुमारोऽतिभक्तो मे भरतो मामवेक्षते।
जटावल्कलधारी स शब्दब्रह्मसमाहितः॥ ४३॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘मेरा भाई भरत अति सुकुमार और मेरा भक्त है; वह जटा-वल्कल धारण किये भगवन्नाममें तत्पर हुआ मेरी बाट देखता होगा॥ ४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं तेन विना स्नानमलङ्कारादिकं मम।
अतः सुग्रीवमुख्यांस्त्वं पूजयाशु विशेषतः॥ ४४॥
पूजितेषु कपीन्द्रेषु पूजितोऽहं न संशयः।
मूलम्
कथं तेन विना स्नानमलङ्कारादिकं मम।
अतः सुग्रीवमुख्यांस्त्वं पूजयाशु विशेषतः॥ ४४॥
पूजितेषु कपीन्द्रेषु पूजितोऽहं न संशयः।
अनुवाद (हिन्दी)
उससे मिले बिना मैं कैसे स्नान अथवा वस्त्राभूषण धारण कर सकता हूँ? अतः अब तुम शीघ्र ही सुग्रीवादि वानरोंका ही विशेष सत्कार कर दो। इन वानर-वीरोंका सत्कार होनेसे मेरा ही सत्कार होगा—इसमें सन्देह नहीं’’॥ ४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तो राघवेणाशु स्वर्णरत्नाम्बराणि च॥ ४५॥
ववर्ष राक्षसश्रेष्ठो यथाकामं यथारुचि।
ततस्तान् पूजितान् दृष्ट्वा रामो रत्नैश्च यूथपान्॥ ४६॥
अभिनन्द्य यथान्यायं विससर्ज हरीश्वरान्।
विभीषणसमानीतं पुष्पकं सूर्यवर्चसम्॥ ४७॥
आरुरोह ततो रामस्तद्विमानमनुत्तमम्।
अङ्के निधाय वैदेहीं लज्जमानां यशस्विनीम्॥ ४८॥
लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा विक्रान्तेन धनुष्मता।
अब्रवीच्च विमानस्थः श्रीरामः सर्ववानरान्॥ ४९॥
सुग्रीवं हरिराजं च अङ्गदं च विभीषणम्।
मित्रकार्यं कृतं सर्वं भवद्भिः सह वानरैः॥ ५०॥
मूलम्
इत्युक्तो राघवेणाशु स्वर्णरत्नाम्बराणि च॥ ४५॥
ववर्ष राक्षसश्रेष्ठो यथाकामं यथारुचि।
ततस्तान् पूजितान् दृष्ट्वा रामो रत्नैश्च यूथपान्॥ ४६॥
अभिनन्द्य यथान्यायं विससर्ज हरीश्वरान्।
विभीषणसमानीतं पुष्पकं सूर्यवर्चसम्॥ ४७॥
आरुरोह ततो रामस्तद्विमानमनुत्तमम्।
अङ्के निधाय वैदेहीं लज्जमानां यशस्विनीम्॥ ४८॥
लक्ष्मणेन सह भ्रात्रा विक्रान्तेन धनुष्मता।
अब्रवीच्च विमानस्थः श्रीरामः सर्ववानरान्॥ ४९॥
सुग्रीवं हरिराजं च अङ्गदं च विभीषणम्।
मित्रकार्यं कृतं सर्वं भवद्भिः सह वानरैः॥ ५०॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरघुनाथजीके ऐसा कहनेपर राक्षसश्रेष्ठ विभीषणने वानरोंको उनकी इच्छा और रुचिके अनुसार बहुत-से रत्न और वस्त्रादि मुक्तहस्तसे दिये। इस प्रकार उन सब वानर-यूथपतियोंको रत्नादिसे सत्कृत देख श्रीरामचन्द्रजीने सबकी यथायोग्य बड़ाई की और उन्हें विदा किया। फिर वे सकुचाती हुई यशस्विनी जानकीजीको गोदमें ले महापराक्रमी धनुर्धर भाई लक्ष्मणके सहित, विभीषणके लाये हुए सूर्यके समान तेजस्वी अति उत्तम पुष्पक विमानपर आरूढ़ हुए। विमानपर बैठकर भगवान् रामने वानरराज सुग्रीव, अंगद, विभीषण और समस्त वानरोंसे कहा—‘‘आपलोगोंने अन्य समस्त वानर-वीरोंके सहित मित्रका जो कुछ कार्य होता है वह खूब निभाया है॥ ४५—५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुज्ञाता मया सर्वे यथेष्टं गन्तुमर्हथ।
सुग्रीव प्रतियाह्याशु किष्किन्धां सर्वसैनिकैः॥ ५१॥
मूलम्
अनुज्ञाता मया सर्वे यथेष्टं गन्तुमर्हथ।
सुग्रीव प्रतियाह्याशु किष्किन्धां सर्वसैनिकैः॥ ५१॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब मेरे आज्ञानुसार आप अपने-अपने इच्छित स्थानोंको जाइये। सुग्रीव! तुम अपने समस्त सैनिकोंके सहित शीघ्र ही किष्किन्धाको जाओ॥ ५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वराज्ये वस लङ्कायां मम भक्तो विभीषण।
न त्वां धर्षयितुं शक्ताः सेन्द्रा अपि दिवौकसः॥ ५२॥
अयोध्यां गन्तुमिच्छामि राजधानीं पितुर्मम।
मूलम्
स्वराज्ये वस लङ्कायां मम भक्तो विभीषण।
न त्वां धर्षयितुं शक्ताः सेन्द्रा अपि दिवौकसः॥ ५२॥
अयोध्यां गन्तुमिच्छामि राजधानीं पितुर्मम।
अनुवाद (हिन्दी)
विभीषण! तुम मेरी भक्तिमें तत्पर रहकर अपने राज्यपर लंकामें रहो। अब इन्द्रके सहित देवगण भी तुम्हारा बाल बाँका नहीं कर सकते। अब मैं अपने पिताजीकी राजधानी अयोध्यापुरीको जाना चाहता हूँ’’॥ ५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तास्तु रामेण वानरास्ते महाबलाः॥ ५३॥
ऊचुः प्राञ्जलयः सर्वे राक्षसश्च विभीषणः।
अयोध्यां गन्तुमिच्छामस्त्वया सह रघूत्तम॥ ५४॥
मूलम्
एवमुक्तास्तु रामेण वानरास्ते महाबलाः॥ ५३॥
ऊचुः प्राञ्जलयः सर्वे राक्षसश्च विभीषणः।
अयोध्यां गन्तुमिच्छामस्त्वया सह रघूत्तम॥ ५४॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामचन्द्रजीके इस प्रकार कहनेपर वे समस्त महाबली वानरगण तथा राक्षसराज विभीषण हाथ जोड़कर बोले—‘‘हे रघुश्रेष्ठ! हम सब आपके साथ अयोध्या चलना चाहते हैं॥ ५३-५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वा त्वामभिषिक्तं तु कौसल्यामभिवाद्य च।
पश्चाद्वृणीमहे राज्यमनुज्ञां देहि नः प्रभो॥ ५५॥
मूलम्
दृष्ट्वा त्वामभिषिक्तं तु कौसल्यामभिवाद्य च।
पश्चाद्वृणीमहे राज्यमनुज्ञां देहि नः प्रभो॥ ५५॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे प्रभो! हम आपको राज्याभिषिक्त हुआ देखकर और माता कौसल्याकी वन्दना कर फिर अपना राज्य ग्रहण करेंगे; आप हमें (साथ चलनेकी) आज्ञा दीजिये’’॥ ५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामस्तथेति सुग्रीव वानरैः सविभीषणः।
पुष्पकं सहनूमांश्च शीघ्रमारोह साम्प्रतम्॥ ५६॥
मूलम्
रामस्तथेति सुग्रीव वानरैः सविभीषणः।
पुष्पकं सहनूमांश्च शीघ्रमारोह साम्प्रतम्॥ ५६॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब रामचन्द्रजीने कहा—‘‘बहुत अच्छा, सुग्रीव! अब वानरोंके सहित तुम शीघ्र ही विभीषण और हनुमान् को साथ लेकर इस विमानपर चढ़ो’’॥ ५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तु पुष्पकं दिव्यं सुग्रीवः सह सेनया।
विभीषणश्च सामात्यः सर्वे चारुरुहुर्द्रुतम्॥ ५७॥
मूलम्
ततस्तु पुष्पकं दिव्यं सुग्रीवः सह सेनया।
विभीषणश्च सामात्यः सर्वे चारुरुहुर्द्रुतम्॥ ५७॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब सेनाके सहित सुग्रीव और मन्त्रियोंके सहित विभीषण—ये सभी बड़ी शीघ्रतासे दिव्य विमान पुष्पकपर चढ़ गये॥ ५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेष्वारूढेषु सर्वेषु कौबेरं परमासनम्।
राघवेणाभ्यनुज्ञातमुत्पपात विहायसा॥ ५८॥
मूलम्
तेष्वारूढेषु सर्वेषु कौबेरं परमासनम्।
राघवेणाभ्यनुज्ञातमुत्पपात विहायसा॥ ५८॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन सबके आरूढ़ हो जानेपर वह कुबेरका परम यान भगवान् रामकी आज्ञा पा आकाश-मार्गसे उड़ चला॥ ५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बभौ तेन विमानेन हंसयुक्तेन भास्वता।
प्रहृष्टश्च तदा रामश्चतुर्मुख इवापरः॥ ५९॥
मूलम्
बभौ तेन विमानेन हंसयुक्तेन भास्वता।
प्रहृष्टश्च तदा रामश्चतुर्मुख इवापरः॥ ५९॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस तेजस्वी विमानपर जाते हुए भगवान् राम बड़े प्रसन्न हुए और ऐसे सुशोभित हुए मानो दूसरे ब्रह्माजी हंसपर चढ़े जा रहे हों॥ ५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो बभौ भास्करबिम्बतुल्यं
कुबेरयानं तपसानुलब्धम्।
रामेण शोभां नितरां प्रपेदे
सीतासमेतेन सहानुजेन॥ ६०॥
मूलम्
ततो बभौ भास्करबिम्बतुल्यं
कुबेरयानं तपसानुलब्धम्।
रामेण शोभां नितरां प्रपेदे
सीतासमेतेन सहानुजेन॥ ६०॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय वह तपस्यासे प्राप्त हुआ कुबेरका यान सूर्यबिम्बके समान सुशोभित होने लगा तथा श्रीसीताजी और भाई लक्ष्मणके सहित भगवान् रामके कारण तो उसकी शोभा और भी अधिक बढ़ गयी॥ ६०॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे युद्धकाण्डे त्रयोदशः सर्गः॥ १३॥