[द्वादश सर्ग]
भागसूचना
विभीषणका राज्याभिषेक और सीताजीकी अग्नि-परीक्षा
मूलम् (वचनम्)
श्रीमहादेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामो विभीषणं दृष्ट्वा हनूमन्तं तथाङ्गदम्।
लक्ष्मणं कपिराजं च जाम्बवन्तं तथा परान्॥ १॥
परितुष्टेन मनसा सर्वानेवाब्रवीद्वचः।
भवतां बाहुवीर्येण निहतो रावणो मया॥ २॥
मूलम्
रामो विभीषणं दृष्ट्वा हनूमन्तं तथाङ्गदम्।
लक्ष्मणं कपिराजं च जाम्बवन्तं तथा परान्॥ १॥
परितुष्टेन मनसा सर्वानेवाब्रवीद्वचः।
भवतां बाहुवीर्येण निहतो रावणो मया॥ २॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमहादेवजी बोले—हे पार्वति! श्रीरामचन्द्रजीने विभीषण, हनुमान्, अंगद, लक्ष्मण, वानरराज सुग्रीव, जाम्बवान् तथा अन्यान्य वीरोंकी ओर देख सभी लोगोंसे प्रसन्नचित्तसे कहा—‘‘आपलोगोंके बाहुबलसे आज मैंने रावणको मार दिया॥ १-२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कीर्तिः स्थास्यति वः पुण्या यावच्चन्द्रदिवाकरौ।
कीर्तयिष्यन्ति भवतां कथां त्रैलोक्यपावनीम्॥ ३॥
मूलम्
कीर्तिः स्थास्यति वः पुण्या यावच्चन्द्रदिवाकरौ।
कीर्तयिष्यन्ति भवतां कथां त्रैलोक्यपावनीम्॥ ३॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप सब लोगोंकी पवित्र कीर्ति जबतक सूर्य और चन्द्र रहेंगे तबतक स्थिर रहेगी और जो लोग मेरेसहित आप सबकी कलि-कल्मष-नाशिनी त्रिलोकपावनी पवित्र कथाका कीर्तन करेंगे वे परमपदको प्राप्त होंगे’’॥ ३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मयोपेतां कलिहरां यास्यन्ति परमां गतिम्।
एतस्मिन्नन्तरे दृष्ट्वा रावणं पतितं भुवि॥ ४॥
मन्दोदरीमुखाः सर्वाः स्त्रियो रावणपालिताः।
पतिता रावणस्याग्रे शोचन्त्यः पर्यदेवयन्॥ ५॥
मूलम्
मयोपेतां कलिहरां यास्यन्ति परमां गतिम्।
एतस्मिन्नन्तरे दृष्ट्वा रावणं पतितं भुवि॥ ४॥
मन्दोदरीमुखाः सर्वाः स्त्रियो रावणपालिताः।
पतिता रावणस्याग्रे शोचन्त्यः पर्यदेवयन्॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी समय रावणको पृथिवीपर गिरा देख उससे सुरक्षित मन्दोदरी आदि समस्त स्त्रियाँ उसके पास (आकर) गिर गयीं तथा शोकसे विलाप करने लगीं॥ ४-५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विभीषणः शुशोचार्तः शोकेन महतावृतः।
पतितो रावणस्याग्रे बहुधा पर्यदेवयत्॥ ६॥
मूलम्
विभीषणः शुशोचार्तः शोकेन महतावृतः।
पतितो रावणस्याग्रे बहुधा पर्यदेवयत्॥ ६॥
अनुवाद (हिन्दी)
विभीषण भी महान् शोकाकुल हो आर्तभावसे चिन्ताग्रस्त हो गये और रावणके पास गिरकर नाना प्रकारसे विलाप करने लगे॥ ६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामस्तु लक्ष्मणं प्राह बोधयस्व विभीषणम्।
करोतु भ्रातृसंस्कारं किं विलम्बेन मानद॥ ७॥
मूलम्
रामस्तु लक्ष्मणं प्राह बोधयस्व विभीषणम्।
करोतु भ्रातृसंस्कारं किं विलम्बेन मानद॥ ७॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब श्रीरघुनाथजीने लक्ष्मणजीसे कहा—‘‘हे मानद! विभीषणको समझाओ कि वह भाईका (और्ध्वदैहिक) संस्कार करे, अब व्यर्थ देरी करनेसे क्या लाभ है?॥ ७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्त्रियो मन्दोदरीमुख्याः पतिता विलपन्ति च।
निवारयतु ताः सर्वा राक्षसी रावणप्रियाः॥ ८॥
मूलम्
स्त्रियो मन्दोदरीमुख्याः पतिता विलपन्ति च।
निवारयतु ताः सर्वा राक्षसी रावणप्रियाः॥ ८॥
अनुवाद (हिन्दी)
और मन्दोदरी आदि स्त्रियाँ पछाड़ खा-खाकर विलाप कर रही हैं, सो उन रावणकी प्रेयसी राक्षसियोंको (समझाकर) ऐसा करनेसे रोके’’॥ ८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तोऽथ रामेण लक्ष्मणोऽगाद्विभीषणम्।
उवाच मृतकोपान्ते पतितं मृतकोपमम्॥ ९॥
मूलम्
एवमुक्तोऽथ रामेण लक्ष्मणोऽगाद्विभीषणम्।
उवाच मृतकोपान्ते पतितं मृतकोपमम्॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् रामके इस प्रकार कहनेपर श्रीलक्ष्मणजी मृतक रावणके समीप मरे हुएके समान पड़े हुए विभीषणके पास आये और उससे कहने लगे॥ ९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शोकेन महताविष्टं सौमित्रिरिदमब्रवीत्।
यं शोचसि त्वं दुःखेन कोऽयं तव विभीषण॥ १०॥
मूलम्
शोकेन महताविष्टं सौमित्रिरिदमब्रवीत्।
यं शोचसि त्वं दुःखेन कोऽयं तव विभीषण॥ १०॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस समय विभीषण महान् शोकाकुल थे। उनसे श्रीलक्ष्मणजी इस प्रकार बोले—‘‘विभीषण! जिसके लिये तुम दुःखी होकर शोक कर रहे हो यह तुम्हारा कौन है?॥ १०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं वास्य कतमः सृष्टेः पुरेदानीमतः परम्।
यद्वत्तोयौघपतिताः सिकता यान्ति तद्वशाः॥ ११॥
संयुज्यन्ते वियुज्यन्ते तथा कालेन देहिनः।
यथा धानासु वै धाना भवन्ति न भवन्ति च॥ १२॥
एवं भूतेषु भूतानि प्रेरितानीशमायया।
त्वं चेमे वयमन्ये च तुल्याः कालवशोद्भवाः॥ १३॥
मूलम्
त्वं वास्य कतमः सृष्टेः पुरेदानीमतः परम्।
यद्वत्तोयौघपतिताः सिकता यान्ति तद्वशाः॥ ११॥
संयुज्यन्ते वियुज्यन्ते तथा कालेन देहिनः।
यथा धानासु वै धाना भवन्ति न भवन्ति च॥ १२॥
एवं भूतेषु भूतानि प्रेरितानीशमायया।
त्वं चेमे वयमन्ये च तुल्याः कालवशोद्भवाः॥ १३॥
अनुवाद (हिन्दी)
तथा तुम भी अपने जन्मसे पूर्व इस समय अथवा इससे आगे इसके क्या हो? जिस प्रकार जलके प्रवाहमें पड़ी हुई बालू उसके अधीन आती-जाती रहती है, उसी प्रकार देहधारी प्राणी कालके वशीभूत हुए ही संयोग और वियोगको प्राप्त होते हैं। जिस प्रकार बीजोंसे अन्य बीज उत्पन्न होते और नष्ट भी हो जाते हैं, उसी प्रकार भगवान् की मायासे प्रेरित समस्त प्राणी अन्य प्राणियोंसे उत्पन्न होते और मरते रहते हैं। तुम, हम, ये और अन्य सब भी समानभावसे कालके वशीभूत ही उत्पन्न हुए हैं॥ ११—१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जन्ममृत्यू यदा यस्मात्तदा तस्माद्भविष्यतः।
ईश्वरः सर्वभूतानि भूतैः सृजति हन्त्यजः॥ १४॥
आत्मसृष्टैरस्वतन्त्रैर्निरपेक्षोऽपि बालवत्।
देहेन देहिनो जीवा देहाद्देहोऽभिजायते॥ १५॥
बीजादेव यथा बीजं देहान्य इव शाश्वतः।
देहिदेहविभागोऽयमविवेककृतः पुरा॥ १६॥
मूलम्
जन्ममृत्यू यदा यस्मात्तदा तस्माद्भविष्यतः।
ईश्वरः सर्वभूतानि भूतैः सृजति हन्त्यजः॥ १४॥
आत्मसृष्टैरस्वतन्त्रैर्निरपेक्षोऽपि बालवत्।
देहेन देहिनो जीवा देहाद्देहोऽभिजायते॥ १५॥
बीजादेव यथा बीजं देहान्य इव शाश्वतः।
देहिदेहविभागोऽयमविवेककृतः पुरा॥ १६॥
अनुवाद (हिन्दी)
जन्म और मृत्यु जिस समय जिससे होनेवाले हैं; उस समय उसीके द्वारा हो जायँगे। अजन्मा ईश्वर ही, किसी प्रकारकी इच्छा न रहते हुए भी, बालकके समान (केवल विनोदार्थ) अपने रचे हुए अस्वतन्त्र प्राणियोंसे समस्त प्राणियोंको उत्पन्न करता और नष्ट कर देता है। जीव देह-संयोगके कारण ही देही कहलाता है और देह अन्य (माता-पिताके) देहसे ही उत्पन्न होता है, जैसे कि एक बीजसे दूसरा बीज। सनातन आत्मा तो देहसे पृथक्-सा है। वास्तवमें तो यह देह और देहीका विभाग भी पहलेहीसे अविवेकके ही कारण है॥ १४—१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानात्वं जन्म नाशश्च क्षयो वृद्धिः क्रिया फलम्।
द्रष्टुराभान्त्यतद्धर्मा यथाग्नेर्दारुविक्रियाः॥ १७॥
मूलम्
नानात्वं जन्म नाशश्च क्षयो वृद्धिः क्रिया फलम्।
द्रष्टुराभान्त्यतद्धर्मा यथाग्नेर्दारुविक्रियाः॥ १७॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस प्रकार अग्निमें लकड़ीके विकार दिखायी देते हैं उसी प्रकार साक्षी आत्मामें भिन्नता, जन्म, मरण, क्षय, वृद्धि, कर्म और कर्मफल आदि प्रतीत होते हैं, जो वास्तवमें उसके धर्म नहीं हैं॥ १७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त इमे देहसंयोगादात्मना भान्त्यसद्ग्रहात्।
यथा यथा तथा चान्यद्ध्यायतोऽसत्सदाग्रहात्॥ १८॥
मूलम्
त इमे देहसंयोगादात्मना भान्त्यसद्ग्रहात्।
यथा यथा तथा चान्यद्ध्यायतोऽसत्सदाग्रहात्॥ १८॥
अनुवाद (हिन्दी)
मिथ्या भ्रान्तिके कारण आत्माके साथ देहका संयोग माननेसे जिस प्रकार ये (सब धर्म) (सत्यवत्) भासते हैं वैसे ही सत्य (आत्मा)-का निश्चय कर उसीका ध्यान करते रहनेसे ये असत्य प्रतीत होने लगते हैं॥ १८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रसुप्तस्यानहम्भावात्तदा भाति न संसृतिः।
जीवतोऽपि तथा तद्वद्विमुक्तस्यानहङ्कृतेः॥ १९॥
मूलम्
प्रसुप्तस्यानहम्भावात्तदा भाति न संसृतिः।
जीवतोऽपि तथा तद्वद्विमुक्तस्यानहङ्कृतेः॥ १९॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस प्रकार गाढ़ निद्रामें सोये हुए पुरुषको अहंकारका अभाव हो जानेसे प्रपंचकी प्रतीति नहीं होती उसी प्रकार अहंकारहीन मुक्त पुरुषको जीते हुए ही प्रपंचका भान नहीं होता॥ १९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मान्मायामनोधर्मं जह्यहम्ममताभ्रमम्।
रामभद्रे भगवति मनो धेह्यात्मनीश्वरे॥ २०॥
सर्वभूतात्मनि परे मायामानुषरूपिणि।
बाह्येन्द्रियार्थसम्बन्धात्त्याजयित्वा मनः शनैः॥ २१॥
मूलम्
तस्मान्मायामनोधर्मं जह्यहम्ममताभ्रमम्।
रामभद्रे भगवति मनो धेह्यात्मनीश्वरे॥ २०॥
सर्वभूतात्मनि परे मायामानुषरूपिणि।
बाह्येन्द्रियार्थसम्बन्धात्त्याजयित्वा मनः शनैः॥ २१॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘अतः तुम अहंता-ममता एवं भ्रान्तिरूप मायामय-मनोधर्मोंको त्यागो और इन्द्रियोंके बाह्य विषयोंसे अपने मनका सम्बन्ध छुड़ाकर उसे धीरे-धीरे अपने आत्मस्वरूप सर्वभूतान्तर्यामी परमेश्वर माया-मानवरूप भगवान् राममें स्थिर करो॥ २०-२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र दोषान्दर्शयित्वा रामानन्दे नियोजय।
देहबुद्ध्या भवेद्भ्राता पिता माता सुहृत्प्रियः॥ २२॥
मूलम्
तत्र दोषान्दर्शयित्वा रामानन्दे नियोजय।
देहबुद्ध्या भवेद्भ्राता पिता माता सुहृत्प्रियः॥ २२॥
अनुवाद (हिन्दी)
(चित्तको) बाह्य विषयोंमें दोष दिखाकर उसे रामानन्दमें नियुक्त कर दो; ये माता, पिता, भ्राता, सुहृद् और स्नेहीजन तो देह-बुद्धिसे ही होते हैं॥ २२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विलक्षणं यदा देहाज्जानात्यात्मानमात्मना।
तदा कः कस्य वा बन्धुर्भ्राता माता पिता सुहृत्॥ २३॥
मूलम्
विलक्षणं यदा देहाज्जानात्यात्मानमात्मना।
तदा कः कस्य वा बन्धुर्भ्राता माता पिता सुहृत्॥ २३॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस समय अपने विशुद्ध अन्तःकरणद्वारा मनुष्य आत्माको देहसे पृथक् जान लेता है उस समय कौन किसका माता, पिता, भाई, बन्धु अथवा सुहृद् है?॥ २३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मिथ्याज्ञानवशाज्जाता दारागारादयः सदा।
शब्दादयश्च विषया विविधाश्चैव सम्पदः॥ २४॥
बलं कोशो भृत्यवर्गो राज्यं भूमिः सुतादयः।
अज्ञानजत्वात्सर्वे ते क्षणसङ्गमभङ्गुराः॥ २५॥
मूलम्
मिथ्याज्ञानवशाज्जाता दारागारादयः सदा।
शब्दादयश्च विषया विविधाश्चैव सम्पदः॥ २४॥
बलं कोशो भृत्यवर्गो राज्यं भूमिः सुतादयः।
अज्ञानजत्वात्सर्वे ते क्षणसङ्गमभङ्गुराः॥ २५॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये स्त्री और गृह आदि, शब्दादि विषय, नाना प्रकारकी सम्पत्ति, बल, कोष, सेवकगण, राज्य, पृथिवी और पुत्रादि तो सदा मिथ्या ज्ञानके कारण ही उत्पन्न हुए हैं और अज्ञानजन्य होनेके कारण वे सब क्षणभंगुर हैं॥ २४-२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथोत्तिष्ठ हृदा रामं भावयन् भक्तिभावितम्।
अनुवर्तस्व राज्यादि भुञ्जन्प्रारब्धमन्वहम्॥ २६॥
मूलम्
अथोत्तिष्ठ हृदा रामं भावयन् भक्तिभावितम्।
अनुवर्तस्व राज्यादि भुञ्जन्प्रारब्धमन्वहम्॥ २६॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः अब खड़े हो जाओ और हृदयमें भक्तिभावित भगवान् रामका स्मरण करते हुए निरन्तर प्रारब्धभोगोंमें तत्पर हो राज्यादिका पालन करो॥ २६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूतं भविष्यदभजन् वर्तमानमथाचरन्।
विहरस्व यथान्यायं भवदोषैर्न लिप्यसे॥ २७॥
मूलम्
भूतं भविष्यदभजन् वर्तमानमथाचरन्।
विहरस्व यथान्यायं भवदोषैर्न लिप्यसे॥ २७॥
अनुवाद (हिन्दी)
भूत और भविष्यत् की चिन्ता न करते हुए तथा वर्तमानका अनुगमन करते हुए न्यायानुकूल आचरण करो। इससे तुम संसार-दोषसे लिप्त न होगे॥ २७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आज्ञापयति रामस्त्वां यद्भ्रातुः साम्परायिकम्।
तत्कुरुष्व यथाशास्त्रं रुदतीश्चापि योषितः॥ २८॥
निवारय महाबुद्धे लङ्कां गच्छन्तु मा चिरम्।
मूलम्
आज्ञापयति रामस्त्वां यद्भ्रातुः साम्परायिकम्।
तत्कुरुष्व यथाशास्त्रं रुदतीश्चापि योषितः॥ २८॥
निवारय महाबुद्धे लङ्कां गच्छन्तु मा चिरम्।
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् राम तुम्हें आज्ञा देते हैं कि अपने भाईका जो कुछ और्ध्वदैहिक कर्म हो वह सब शास्त्रानुसार करो और हे महाबुद्धे! इन रोती हुई स्त्रियोंको यहाँसे अलग करो, ये सब लंकापुरीको जायँ इसमें देरी न हो’’॥ २८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वा यथावद्वचनं लक्ष्मणस्य विभीषणः॥ २९॥
त्यक्त्वा शोकं च मोहं च रामपार्श्वमुपागमत्।
विमृश्य बुद्ध्या धर्मज्ञो धर्मार्थसहितं वचः॥ ३०॥
रामस्यैवानुवृत्त्यर्थमुत्तरं पर्यभाषत।
नृशंसमनृतं क्रूरं त्यक्तधर्मव्रतं प्रभो॥ ३१॥
नार्होऽस्मि देव संस्कर्तुं परदाराभिमर्शिनम्।
श्रुत्वा तद्वचनं प्रीतो रामो वचनमब्रवीत्॥ ३२॥
मरणान्तानि वैराणि निवृत्तं नः प्रयोजनम्।
क्रियतामस्य संस्कारो ममाप्येष यथा तव॥ ३३॥
मूलम्
श्रुत्वा यथावद्वचनं लक्ष्मणस्य विभीषणः॥ २९॥
त्यक्त्वा शोकं च मोहं च रामपार्श्वमुपागमत्।
विमृश्य बुद्ध्या धर्मज्ञो धर्मार्थसहितं वचः॥ ३०॥
रामस्यैवानुवृत्त्यर्थमुत्तरं पर्यभाषत।
नृशंसमनृतं क्रूरं त्यक्तधर्मव्रतं प्रभो॥ ३१॥
नार्होऽस्मि देव संस्कर्तुं परदाराभिमर्शिनम्।
श्रुत्वा तद्वचनं प्रीतो रामो वचनमब्रवीत्॥ ३२॥
मरणान्तानि वैराणि निवृत्तं नः प्रयोजनम्।
क्रियतामस्य संस्कारो ममाप्येष यथा तव॥ ३३॥
अनुवाद (हिन्दी)
लक्ष्मणजीके यथार्थ वचन सुनकर विभीषण शोक और मोहको छोड़कर भगवान् रामके पास आये। धर्मज्ञ विभीषणने चित्तमें कुछ सोच-विचारकर श्रीरामचन्द्रजीका ही अनुवर्तन करनेके लिये यों धर्मार्थयुक्त उत्तर दिया—‘‘प्रभो! यह रावण बड़ा दुष्ट, मिथ्यावादी, क्रूर और समस्त धर्मव्रत आदिसे रहित था। हे देव! इस परस्त्रीगामीका संस्कार करनेमें मैं समर्थ नहीं हूँ।’’ उसके ये वचन सुनकर श्रीरामचन्द्रजीने प्रसन्न होकर कहा— ‘‘भैया! वैर तो मरनेतक ही होता है, सो अब हमारा काम हो चुका; अब तो यह जैसा तुम्हारा है वैसा ही मेरा है। अतः इसका संस्कार करो’॥ २९—३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामाज्ञां शिरसा धृत्वा शीघ्रमेव विभीषणः।
सान्त्ववाक्यैर्महाबुद्धिं राज्ञीं मन्दोदरीं तदा॥ ३४॥
सान्त्वयामास धर्मात्मा धर्मबुद्धिर्विभीषणः।
त्वरयामास धर्मज्ञः संस्कारार्थं स्वबान्धवान्॥ ३५॥
मूलम्
रामाज्ञां शिरसा धृत्वा शीघ्रमेव विभीषणः।
सान्त्ववाक्यैर्महाबुद्धिं राज्ञीं मन्दोदरीं तदा॥ ३४॥
सान्त्वयामास धर्मात्मा धर्मबुद्धिर्विभीषणः।
त्वरयामास धर्मज्ञः संस्कारार्थं स्वबान्धवान्॥ ३५॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब विभीषणने भगवान् रामकी आज्ञा सिरपर धारणकर तुरंत ही शान्त वचनोंसे महाबुद्धिशालिनी रानी मन्दोदरीको ढाढ़स बँधाया और तदनन्तर धर्मबुद्धि धर्मात्मा धर्मज्ञ विभीषणने अपने बन्धु-बान्धवोंसे संस्कारके लिये शीघ्रता करनेको कहा॥ ३४-३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चित्यां निवेश्य विधिवत्पितृमेधविधानतः।
आहिताग्नेर्यथा कार्यं रावणस्य विभीषणः॥ ३६॥
तथैव सर्वमकरोद्बन्धुभिः सह मन्त्रिभिः।
ददौ च पावकं तस्य विधियुक्तं विभीषणः॥ ३७॥
मूलम्
चित्यां निवेश्य विधिवत्पितृमेधविधानतः।
आहिताग्नेर्यथा कार्यं रावणस्य विभीषणः॥ ३६॥
तथैव सर्वमकरोद्बन्धुभिः सह मन्त्रिभिः।
ददौ च पावकं तस्य विधियुक्तं विभीषणः॥ ३७॥
अनुवाद (हिन्दी)
विभीषणने पितृमेधकी विधिसे शवको विधिपूर्वक चितापर रखा और जिस प्रकार अग्निहोत्रीका होना चाहिये उसी प्रकार अपने बन्धु-बान्धवोंके और मन्त्रियोंके साथ मिलकर उन्होंने रावणके सब (अन्त्येष्टि) संस्कार किये। तत्पश्चात् विभीषणने उसे विधिवत् अग्निदान दिया॥ ३६-३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्नात्वा चैवार्द्रवस्त्रेण तिलान् दर्भाभिमिश्रितान्।
उदकेन च सम्मिश्रान् प्रदाय विधिपूर्वकम्॥ ३८॥
मूलम्
स्नात्वा चैवार्द्रवस्त्रेण तिलान् दर्भाभिमिश्रितान्।
उदकेन च सम्मिश्रान् प्रदाय विधिपूर्वकम्॥ ३८॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर स्नानकर गीले वस्त्रसे तिल और कुश मिले जलसे विधिवत् जलांजलि दी॥ ३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रदाय चोदकं तस्मै मूर्ध्ना चैनं प्रणम्य च।
ताः स्त्रियोऽनुनयामास सान्त्वमुक्त्वा पुनः पुनः॥ ३९॥
मूलम्
प्रदाय चोदकं तस्मै मूर्ध्ना चैनं प्रणम्य च।
ताः स्त्रियोऽनुनयामास सान्त्वमुक्त्वा पुनः पुनः॥ ३९॥
अनुवाद (हिन्दी)
तथा जलांजलि देनेके अनन्तर पृथिवीपर सिर रखकर उसे प्रणाम किया और उन स्त्रियोंको बारम्बार सान्त्वनाके वचन कहकर ढाढ़स बँधाया॥ ३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गम्यतामिति ताः सर्वा विविशुर्नगरं तदा।
प्रविष्टासु च सर्वासु राक्षसीषु विभीषणः॥ ४०॥
रामपार्श्वमुपागत्य तदातिष्ठद्विनीतवत्।
रामोऽपि सह सैन्येन ससुग्रीवः सलक्ष्मणः॥ ४१॥
हर्षं लेभे रिपून्हत्वा यथा वृत्रं शतक्रतुः।
मूलम्
गम्यतामिति ताः सर्वा विविशुर्नगरं तदा।
प्रविष्टासु च सर्वासु राक्षसीषु विभीषणः॥ ४०॥
रामपार्श्वमुपागत्य तदातिष्ठद्विनीतवत्।
रामोऽपि सह सैन्येन ससुग्रीवः सलक्ष्मणः॥ ४१॥
हर्षं लेभे रिपून्हत्वा यथा वृत्रं शतक्रतुः।
अनुवाद (हिन्दी)
(और कहा कि) ‘अब तुम जाओ!’ तब वे सब लंकापुरीको चली गयीं। समस्त राक्षसियोंके नगरमें चले जानेपर विभीषण भगवान् रामके पास आकर अति विनीतभावसे खड़े हो गये। सेना, सुग्रीव और लक्ष्मणके सहित भगवान् रामको भी शत्रुओंका नाश कर चुकनेपर बड़ा आनन्द हुआ, जैसा कि वृत्रासुरको मारनेके अनन्तर इन्द्रको हुआ था॥ ४०-४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मातलिश्च तदा रामं परिक्रम्याभिवन्द्य च॥ ४२॥
अनुज्ञातश्च रामेण ययौ स्वर्गं विहायसा।
ततो हृष्टमना रामो लक्ष्मणं चेदमब्रवीत्॥ ४३॥
मूलम्
मातलिश्च तदा रामं परिक्रम्याभिवन्द्य च॥ ४२॥
अनुज्ञातश्च रामेण ययौ स्वर्गं विहायसा।
ततो हृष्टमना रामो लक्ष्मणं चेदमब्रवीत्॥ ४३॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर मातलिने श्रीरामचन्द्रजीकी परिक्रमा की और उन्हें प्रणाम कर उनकी आज्ञा पा आकाश-मार्गसे स्वर्गलोकको चला गया। तब श्रीरघुनाथजीने प्रसन्नचित्तसे श्रीलक्ष्मणजीसे इस प्रकार कहा—॥ ४२-४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विभीषणाय मे लङ्काराज्यं दत्तं पुरैव हि।
इदानीमपि गत्वा त्वं लङ्कामध्ये विभीषणम्॥ ४४॥
अभिषेचय विप्रैश्च मन्त्रवद्विधिपूर्वकम्।
इत्युक्तो लक्ष्मणस्तूर्णं जगाम सह वानरैः॥ ४५॥
लङ्कां सुवर्णकलशैः समुद्रजलसंयुतैः।
अभिषेकं शुभं चक्रे राक्षसेन्द्रस्य धीमतः॥ ४६॥
मूलम्
विभीषणाय मे लङ्काराज्यं दत्तं पुरैव हि।
इदानीमपि गत्वा त्वं लङ्कामध्ये विभीषणम्॥ ४४॥
अभिषेचय विप्रैश्च मन्त्रवद्विधिपूर्वकम्।
इत्युक्तो लक्ष्मणस्तूर्णं जगाम सह वानरैः॥ ४५॥
लङ्कां सुवर्णकलशैः समुद्रजलसंयुतैः।
अभिषेकं शुभं चक्रे राक्षसेन्द्रस्य धीमतः॥ ४६॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘मैंने तो पहले ही विभीषणको लंकाका राज्य दे दिया है, तथापि तुम इस समय भी लंकामें जाकर विभीषणका ब्राह्मणोंके द्वारा मन्त्र-पाठपूर्वक विधिवत् अभिषेक कराओ।’’ भगवान् रामकी ऐसी आज्ञा पा वानरोंके सहित श्रीलक्ष्मणजी तुरंत ही लंकापुरीको गये तथा समुद्रके जलसे भरे हुए सुवर्ण-कलशोंसे महाबुद्धिमान् राक्षसराज विभीषणका मंगलमय अभिषेक किया॥ ४४—४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः पौरजनैः सार्धं नानोपायनपाणिभिः।
विभीषणः ससौमित्रिरुपायनपुरस्कृतः॥ ४७॥
दण्डप्रणाममकरोद्रामस्याक्लिष्टकर्मणः।
रामो विभीषणं दृष्ट्वा प्राप्तराज्यं मुदान्वितः॥ ४८॥
कृतकृत्यमिवात्मानममन्यत सहानुजः।
सुग्रीवं च समालिङ्ग्य रामो वाक्यमथाब्रवीत्॥ ४९॥
मूलम्
ततः पौरजनैः सार्धं नानोपायनपाणिभिः।
विभीषणः ससौमित्रिरुपायनपुरस्कृतः॥ ४७॥
दण्डप्रणाममकरोद्रामस्याक्लिष्टकर्मणः।
रामो विभीषणं दृष्ट्वा प्राप्तराज्यं मुदान्वितः॥ ४८॥
कृतकृत्यमिवात्मानममन्यत सहानुजः।
सुग्रीवं च समालिङ्ग्य रामो वाक्यमथाब्रवीत्॥ ४९॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब पुरवासियोंके साथ हाथोंमें नाना प्रकारकी भेंटें लिये लक्ष्मणजीके सहित विभीषणने बहुत-सा उपहार आगे रख लीलाविहारी भगवान् रामको दण्डवत् प्रणाम किया। विभीषणको राज्य प्राप्त हुआ देख श्रीरामचन्द्रजी बड़े प्रसन्न हुए और भाई लक्ष्मणके सहित अपनेको कृतकृत्य-सा मानने लगे। तदनन्तर भगवान् रामने सुग्रीवको हृदयसे लगाकर कहा—॥ ४७—४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहायेन त्वया वीर जितो मे रावणो महान्।
विभीषणोऽपि लङ्कायामभिषिक्तो मयानघ॥ ५०॥
मूलम्
सहायेन त्वया वीर जितो मे रावणो महान्।
विभीषणोऽपि लङ्कायामभिषिक्तो मयानघ॥ ५०॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘हे वीर! तुम्हारी सहायतासे ही मैंने महाबली रावणको जीता है और हे अनघ! (उसीसे) विभीषणको भी लंकाके राज्यपर अभिषिक्त किया है’’॥ ५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्राह हनूमन्तं पार्श्वस्थं विनयान्वितम्।
विभीषणस्यानुमतेर्गच्छ त्वं रावणालयम्॥ ५१॥
मूलम्
ततः प्राह हनूमन्तं पार्श्वस्थं विनयान्वितम्।
विभीषणस्यानुमतेर्गच्छ त्वं रावणालयम्॥ ५१॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर पास ही बड़े विनीत भावसे खड़े हुए हनुमान् जी से कहा—‘‘तुम विभीषणकी सम्मतिसे रावणके महलमें जाओ॥ ५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जानक्यै सर्वमाख्याहि रावणस्य वधादिकम्।
जानक्याः प्रतिवाक्यं मे शीघ्रमेव निवेदय॥ ५२॥
मूलम्
जानक्यै सर्वमाख्याहि रावणस्य वधादिकम्।
जानक्याः प्रतिवाक्यं मे शीघ्रमेव निवेदय॥ ५२॥
अनुवाद (हिन्दी)
और जानकीजीको रावणके वध आदिका समस्त वृत्तान्त सुनाओ, फिर वह जो कुछ उत्तर दे वह मुझे सुनाना’’॥ ५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमाज्ञापितो धीमान् रामेण पवनात्मजः।
प्रविवेश पुरीं लङ्कां पूज्यमानो निशाचरैः॥ ५३॥
मूलम्
एवमाज्ञापितो धीमान् रामेण पवनात्मजः।
प्रविवेश पुरीं लङ्कां पूज्यमानो निशाचरैः॥ ५३॥
अनुवाद (हिन्दी)
बुद्धिमान् पवननन्दनने भगवान् रामकी ऐसी आज्ञा पा राक्षसोंसे पूजित हो, लंकापुरीमें प्रवेश किया॥ ५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रविश्य रावणगृहं शिंशपामूलमाश्रिताम्।
ददर्श जानकीं तत्र कृशां दीनामनिन्दिताम्॥ ५४॥
मूलम्
प्रविश्य रावणगृहं शिंशपामूलमाश्रिताम्।
ददर्श जानकीं तत्र कृशां दीनामनिन्दिताम्॥ ५४॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर रावणके महलमें जाकर शिंशपावृक्षके तले बैठी हुई अति दुर्बल और दुःखिनी अनिन्दिता जनकनन्दिनीको देखा॥ ५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राक्षसीभिः परिवृतां ध्यायन्तीं राममेव हि।
विनयावनतो भूत्वा प्रणम्य पवनात्मजः॥ ५५॥
मूलम्
राक्षसीभिः परिवृतां ध्यायन्तीं राममेव हि।
विनयावनतो भूत्वा प्रणम्य पवनात्मजः॥ ५५॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे राक्षसियोंसे घिरी हुई थीं और एकमात्र भगवान् रामका ही ध्यान कर रही थीं। पवनकुमारने अति विनयावनत होकर उन्हें प्रणाम किया॥ ५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृताञ्जलिपुटो भूत्वा प्रह्वो भक्त्याग्रतः स्थितः।
तं दृष्ट्वा जानकी तूष्णीं स्थित्वा पूर्वस्मृतिं ययौ॥ ५६॥
मूलम्
कृताञ्जलिपुटो भूत्वा प्रह्वो भक्त्याग्रतः स्थितः।
तं दृष्ट्वा जानकी तूष्णीं स्थित्वा पूर्वस्मृतिं ययौ॥ ५६॥
अनुवाद (हिन्दी)
और अत्यन्त नम्रतापूर्वक भक्तिभावसे हाथ जोड़कर सामने खड़े हो गये। उन्हें देखकर जानकीजी (पहले तो कुछ देर) चुप रहीं, फिर उन्हें पूर्वस्मृति हो आयी॥ ५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञात्वा तं रामदूतं सा हर्षात्सौम्यमुखी बभौ।
स तां सौम्यमुखीं दृष्ट्वा तस्यै पवननन्दनः।
रामस्य भाषितं सर्वमाख्यातुमुपचक्रमे॥ ५७॥
मूलम्
ज्ञात्वा तं रामदूतं सा हर्षात्सौम्यमुखी बभौ।
स तां सौम्यमुखीं दृष्ट्वा तस्यै पवननन्दनः।
रामस्य भाषितं सर्वमाख्यातुमुपचक्रमे॥ ५७॥
अनुवाद (हिन्दी)
और उन्हें रामका दूत जानकर उनका मुख हर्षसे खिल गया। हनुमान् जी ने उन्हें प्रसन्नमुखी देख उनसे रामका सारा सन्देश कहना आरम्भ किया॥ ५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवि रामः ससुग्रीवो विभीषणसहायवान्।
कुशली वानराणां च सैन्यैश्च सहलक्ष्मणः॥ ५८॥
मूलम्
देवि रामः ससुग्रीवो विभीषणसहायवान्।
कुशली वानराणां च सैन्यैश्च सहलक्ष्मणः॥ ५८॥
अनुवाद (हिन्दी)
(वे बोले—) ‘‘देवि! विभीषण जिनके सहायक हैं वे श्रीरामचन्द्रजी लक्ष्मण, सुग्रीव और वानर-सेनाके सहित कुशलपूर्वक हैं॥ ५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रावणं ससुतं हत्वा सबलं सह मन्त्रिभिः।
त्वामाह कुशलं रामो राज्ये कृत्वा विभीषणम्॥ ५९॥
मूलम्
रावणं ससुतं हत्वा सबलं सह मन्त्रिभिः।
त्वामाह कुशलं रामो राज्ये कृत्वा विभीषणम्॥ ५९॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन भगवान् रामने पुत्र, सेना और मन्त्रियोंके सहित रावणको मारकर तथा लंकाका राज्य विभीषणको देकर तुम्हें अपनी कुशल भेजी है’’॥ ५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वा भर्तुः प्रियं वाक्यं हर्षगद्गदया गिरा।
किं ते प्रियं करोम्यद्य न पश्यामि जगत्त्रये॥ ६०॥
समं ते प्रियवाक्यस्य रत्नान्याभरणानि च।
एवमुक्तस्तु वैदेह्या प्रत्युवाच प्लवङ्गमः॥ ६१॥
मूलम्
श्रुत्वा भर्तुः प्रियं वाक्यं हर्षगद्गदया गिरा।
किं ते प्रियं करोम्यद्य न पश्यामि जगत्त्रये॥ ६०॥
समं ते प्रियवाक्यस्य रत्नान्याभरणानि च।
एवमुक्तस्तु वैदेह्या प्रत्युवाच प्लवङ्गमः॥ ६१॥
अनुवाद (हिन्दी)
पतिका यह प्रिय सन्देश सुन श्रीसीताजी हर्षसे गद्गद वाणीसे बोलीं—‘‘भैया! मैं तुम्हारा क्या प्रिय करूँ? तुम्हारे प्रिय वाक्योंके समान मुझे त्रिलोकीमें कोई रत्न-आभूषणादि भी दिखायी नहीं देते। (जिन्हें देकर तुमसे उऋण होऊँ)।’’ जानकीजीके इस प्रकार कहनेपर वानरश्रेष्ठ हनुमान् जी बोले॥ ६०-६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रत्नौघाद्विविधाद्वापि देवराज्याद्विशिष्यते।
हतशत्रुं विजयिनं रामं पश्यामि सुस्थिरम्॥ ६२॥
मूलम्
रत्नौघाद्विविधाद्वापि देवराज्याद्विशिष्यते।
हतशत्रुं विजयिनं रामं पश्यामि सुस्थिरम्॥ ६२॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘मातः! मैं शत्रुके नष्ट होनेपर स्वस्थ-चित्तसे विराजमान विजयशाली श्रीरामका दर्शन करता हूँ—यह मेरे लिये नाना प्रकारकी रत्नराशि और देवराज्यसे भी बढ़कर है’’॥ ६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा मैथिली प्राह मारुतिम्।
सर्वे सौम्या गुणाः सौम्य त्वय्येव परिनिष्ठिताः॥ ६३॥
मूलम्
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा मैथिली प्राह मारुतिम्।
सर्वे सौम्या गुणाः सौम्य त्वय्येव परिनिष्ठिताः॥ ६३॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके ये वचन सुनकर मिथिलेशकुमारीने मारुतिसे कहा—‘‘हे सौम्य! जितने शुभ गुण हैं वे सब तुम्हींमें वर्तमान हैं॥ ६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामं द्रक्ष्यामि शीघ्रं मामाज्ञापयतु राघवः।
तथेति तां नमस्कृत्य ययौ द्रष्टुं रघूत्तमम्॥ ६४॥
मूलम्
रामं द्रक्ष्यामि शीघ्रं मामाज्ञापयतु राघवः।
तथेति तां नमस्कृत्य ययौ द्रष्टुं रघूत्तमम्॥ ६४॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब मैं रघुनाथजीके दर्शन करूँगी, वे शीघ्र ही मुझे भी आज्ञा दें।’’ तब हनुमान् जी ‘बहुत अच्छा’ कह उन्हें प्रणाम कर श्रीरघुनाथजीके दर्शनोंके लिये चल दिये॥ ६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जानक्या भाषितं सर्वं रामस्याग्रे न्यवेदयत्।
यन्निमित्तोऽयमारम्भः कर्मणां च फलोदयः॥ ६५॥
तां देवीं शोकसन्तप्तां द्रष्टुमर्हसि मैथिलीम्।
एवमुक्तो हनुमता रामो ज्ञानवतां वरः॥ ६६॥
मायासीतां परित्यक्तुं जानकीमनले स्थिताम्।
आदातुं मनसा ध्यात्वा रामः प्राह विभीषणम्॥ ६७॥
मूलम्
जानक्या भाषितं सर्वं रामस्याग्रे न्यवेदयत्।
यन्निमित्तोऽयमारम्भः कर्मणां च फलोदयः॥ ६५॥
तां देवीं शोकसन्तप्तां द्रष्टुमर्हसि मैथिलीम्।
एवमुक्तो हनुमता रामो ज्ञानवतां वरः॥ ६६॥
मायासीतां परित्यक्तुं जानकीमनले स्थिताम्।
आदातुं मनसा ध्यात्वा रामः प्राह विभीषणम्॥ ६७॥
अनुवाद (हिन्दी)
(वहाँ पहुँचकर) हनुमान् जी ने श्रीरामचन्द्रजीके आगे जानकीजीका सारा सम्भाषण कह सुनाया (और कहा—) ‘‘भगवन्! जिनके लिये यह युद्धादि सम्पूर्ण कर्म आरम्भ हुए थे और जो उन समस्त कर्मोंकी फलस्वरूपा हैं, अब उन शोकसन्तप्ता मिथिलेशनन्दिनी देवी जानकीको आप देखिये।’’ हनुमान् जी के इस प्रकार कहनेपर ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ भगवान् रामने माया-सीताको त्यागनेके लिये और अग्निस्थिता जानकीको ग्रहण करनेके लिये मनसे विचार करते हुए विभीषणसे कहा—॥ ६५—६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गच्छ राजन् जनकजामानयाशु ममान्तिकम्।
स्नातां विरजवस्त्राढ्यां सर्वाभरणभूषिताम्॥ ६८॥
मूलम्
गच्छ राजन् जनकजामानयाशु ममान्तिकम्।
स्नातां विरजवस्त्राढ्यां सर्वाभरणभूषिताम्॥ ६८॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘राजन्! तुम जाओ और तुरंत ही जानकीको स्नान करा, शुद्ध निर्मल वस्त्र पहना तथा सम्पूर्ण आभूषणोंसे सुसज्जित कर मेरे पास ले आओ’’॥ ६८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विभीषणोऽपि तच्छ्रुत्वा जगाम सहमारुतिः।
राक्षसीभिः सुवृद्धाभिः स्नापयित्वा तु मैथिलीम्॥ ६९॥
सर्वाभरणसम्पन्नामारोप्य शिबिकोत्तमे।
याष्टीकैर्बहुभिर्गुप्तां कञ्चुकोष्णीषिभिः शुभाम्॥ ७०॥
मूलम्
विभीषणोऽपि तच्छ्रुत्वा जगाम सहमारुतिः।
राक्षसीभिः सुवृद्धाभिः स्नापयित्वा तु मैथिलीम्॥ ६९॥
सर्वाभरणसम्पन्नामारोप्य शिबिकोत्तमे।
याष्टीकैर्बहुभिर्गुप्तां कञ्चुकोष्णीषिभिः शुभाम्॥ ७०॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सुनकर विभीषण हनुमान् जी को साथ ले तुरंत ही चले और शुभलक्षणा जानकीजीको बड़ी-बूढ़ी राक्षसियोंद्वारा स्नान करा, सम्पूर्ण वस्त्राभूषणोंसे सुसज्जित होनेपर एक सुन्दर पालकीपर चढ़ाया और फिर उन्हें, जामा-पगड़ी आदिसे बने-ठने बहुत-से छड़ीदारोंसे सुरक्षित कर ले चले॥ ६९-७०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां द्रष्टुमागताः सर्वे वानरा जनकात्मजाम्।
तान्वारयन्तो बहवः सर्वतो वेत्रपाणयः॥ ७१॥
कोलाहलं प्रकुर्वन्तो रामपार्श्वमुपाययुः।
दृष्ट्वा तां शिबिकारूढां दूरादथ रघूत्तमः॥ ७२॥
मूलम्
तां द्रष्टुमागताः सर्वे वानरा जनकात्मजाम्।
तान्वारयन्तो बहवः सर्वतो वेत्रपाणयः॥ ७१॥
कोलाहलं प्रकुर्वन्तो रामपार्श्वमुपाययुः।
दृष्ट्वा तां शिबिकारूढां दूरादथ रघूत्तमः॥ ७२॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय सीताजीको देखनेके लिये सब वानर दौड़ आये। उन्हें चारों ओरसे रोकते तथा (हटो-हटो कहकर) बड़ा कोलाहल करते बहुत-से छड़ीदार रामचन्द्रजीके पास ले आये। रघुनाथजीने दूरसे ही सीताजीको पालकीपर चढ़ी देखकर कहा—॥ ७१-७२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विभीषण किमर्थं ते वानरान् वारयन्ति हि।
पश्यन्तु वानराः सर्वे मैथिलीं मातरं यथा॥ ७३॥
पादचारेण सायातु जानकी मम सन्निधिम्।
मूलम्
विभीषण किमर्थं ते वानरान् वारयन्ति हि।
पश्यन्तु वानराः सर्वे मैथिलीं मातरं यथा॥ ७३॥
पादचारेण सायातु जानकी मम सन्निधिम्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘विभीषण! तुम्हारे ये छड़ीदार वानरोंको क्यों रोकते हैं? समस्त वानरगण जानकीका माताके समान दर्शन करें और जानकीजी मेरे पास पैदल चलकर आयें’’॥ ७३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वा तद्रामवचनं शिबिकादवरुह्य सा॥ ७४॥
पादचारेण शनकैरागता रामसन्निधिम्।
रामोऽपि दृष्ट्वा तां मायासीतां कार्यार्थनिर्मिताम्॥ ७५॥
अवाच्यवादान् बहुशः प्राह तां रघुनन्दनः।
अमृष्यमाणा सा सीता वचनं राघवोदितम्॥ ७६॥
लक्ष्मणं प्राह मे शीघ्रं प्रज्वालय हुताशनम्।
विश्वासार्थं हि रामस्य लोकानां प्रत्ययाय च॥ ७७॥
मूलम्
श्रुत्वा तद्रामवचनं शिबिकादवरुह्य सा॥ ७४॥
पादचारेण शनकैरागता रामसन्निधिम्।
रामोऽपि दृष्ट्वा तां मायासीतां कार्यार्थनिर्मिताम्॥ ७५॥
अवाच्यवादान् बहुशः प्राह तां रघुनन्दनः।
अमृष्यमाणा सा सीता वचनं राघवोदितम्॥ ७६॥
लक्ष्मणं प्राह मे शीघ्रं प्रज्वालय हुताशनम्।
विश्वासार्थं हि रामस्य लोकानां प्रत्ययाय च॥ ७७॥
अनुवाद (हिन्दी)
रामजीके ये वचन सुन श्रीसीताजी पालकीसे उतर पड़ीं और धीरे-धीरे पैदल ही श्रीरामचन्द्रजीके पास पहुँचीं। भगवान् रामने कार्यवश रची हुई मायासीताको देखकर उनसे बहुत-सी न कहनेयोग्य (उनके चरित्रके विषयमें सन्देहयुक्त) बातें कहीं। श्रीरघुनाथजीद्वारा कहे हुए उन वाक्योंको सहन न कर सकनेके कारण सीताजीने लक्ष्मणजीसे कहा—‘‘भगवान् रामके विश्वासके लिये और लोकोंको निश्चय करानेके लिये तुम शीघ्र ही मेरे लिये अग्नि प्रज्वलित करो’’॥ ७४—७७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राघवस्य मतं ज्ञात्वा लक्ष्मणोऽपि तदैव हि।
महाकाष्ठचयं कृत्वा ज्वालयित्वा हुताशनम्॥ ७८॥
रामपार्श्वमुपागम्य तस्थौ तूष्णीमरिन्दमः।
ततः सीता परिक्रम्य राघवं भक्तिसंयुता॥ ७९॥
मूलम्
राघवस्य मतं ज्ञात्वा लक्ष्मणोऽपि तदैव हि।
महाकाष्ठचयं कृत्वा ज्वालयित्वा हुताशनम्॥ ७८॥
रामपार्श्वमुपागम्य तस्थौ तूष्णीमरिन्दमः।
ततः सीता परिक्रम्य राघवं भक्तिसंयुता॥ ७९॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरघुनाथजीकी भी सम्मति समझकर शत्रुदमन लक्ष्मणजीने उसी समय बड़ा भारी काष्ठसमूह इकट्ठा किया और उसमें अग्नि प्रज्वलित कर चुपचाप रामजीके पास आकर खड़े हो गये। तब सीताजीने भक्तिपूर्वक श्रीरामचन्द्रजीकी परिक्रमा की॥ ७८-७९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्यतां सर्वलोकानां देवराक्षसयोषिताम्।
प्रणम्य देवताभ्यश्च ब्राह्मणेभ्यश्च मैथिली॥ ८०॥
बद्धाञ्जलिपुटा चेदमुवाचाग्निसमीपगा।
यथा मे हृदयं नित्यं नापसर्पति राघवात्॥ ८१॥
तथा लोकस्य साक्षी मां सर्वतः पातु पावकः।
एवमुक्त्वा तदा सीता परिक्रम्य हुताशनम्॥ ८२॥
विवेश ज्वलनं दीप्तं निर्भयेन हृदा सती॥ ८३॥
मूलम्
पश्यतां सर्वलोकानां देवराक्षसयोषिताम्।
प्रणम्य देवताभ्यश्च ब्राह्मणेभ्यश्च मैथिली॥ ८०॥
बद्धाञ्जलिपुटा चेदमुवाचाग्निसमीपगा।
यथा मे हृदयं नित्यं नापसर्पति राघवात्॥ ८१॥
तथा लोकस्य साक्षी मां सर्वतः पातु पावकः।
एवमुक्त्वा तदा सीता परिक्रम्य हुताशनम्॥ ८२॥
विवेश ज्वलनं दीप्तं निर्भयेन हृदा सती॥ ८३॥
अनुवाद (हिन्दी)
और फिर श्रीमिथिलेशकुमारीने समस्त लोकों तथा देव और राक्षसोंकी स्त्रियोंके देखते-देखते देवता और ब्राह्मणोंको नमस्कार कर अग्निके पास जा हाथ जोड़कर इस प्रकार कहा—‘‘यदि मेरा हृदय श्रीरघुनाथजीको छोड़कर कभी अन्यत्र नहीं जाता तो समस्त लोकोंके साक्षी अग्निदेव मेरी सब ओरसे रक्षा करें’’ ऐसा कह सतीशिरोमणि श्रीसीताजी अग्निकी परिक्रमा कर निर्भय चित्तसे उस प्रज्वलित अग्निमें घुस गयीं॥ ८०—८३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वा ततो भूतगणाः ससिद्धाः
सीतां महावह्निगतां भृशार्ताः।
परस्परं प्राहुरहो स सीतां
रामः श्रियं स्वां कथमत्यजज्ज्ञः॥ ८४॥
मूलम्
दृष्ट्वा ततो भूतगणाः ससिद्धाः
सीतां महावह्निगतां भृशार्ताः।
परस्परं प्राहुरहो स सीतां
रामः श्रियं स्वां कथमत्यजज्ज्ञः॥ ८४॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय सीताजीको महाप्रचण्ड अग्निमें प्रविष्ट हुई देख समस्त सिद्ध और भूतगण अत्यन्त व्याकुल हो गये और आपसमें कहने लगे—‘‘अहो! सब कुछ जानते हुए भी श्रीरामचन्द्रजीने अपनी लक्ष्मी सीताजीको कैसे छोड़ दिया?’’॥ ८४॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे युद्धकाण्डे द्वादशः सर्गः॥ १२॥