११

[एकादश सर्ग]

भागसूचना

राम-रावण-संग्राम और रावणका वध

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहादेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा वचनं प्रेम्णा राज्ञीं मन्दोदरीं तदा।
रावणः प्रययौ योद्धुं रामेण सह संयुगे॥ १॥

मूलम्

इत्युक्त्वा वचनं प्रेम्णा राज्ञीं मन्दोदरीं तदा।
रावणः प्रययौ योद्धुं रामेण सह संयुगे॥ १॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहादेवजी बोले—हे पार्वति! महारानी मन्दोदरीको प्रेमपूर्वक इस प्रकार समझा-बुझाकर रावण श्रीरामचन्द्रजीके साथ युद्ध करनेके लिये रणभूमिको चला॥ १॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृढं स्यन्दनमास्थाय वृतो घोरैर्निशाचरैः।
चक्रैः षोडशभिर्युक्तं सवरूथं सकूबरम्॥ २॥

मूलम्

दृढं स्यन्दनमास्थाय वृतो घोरैर्निशाचरैः।
चक्रैः षोडशभिर्युक्तं सवरूथं सकूबरम्॥ २॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह महाभयंकर राक्षसोंसे घिरकर एक सुदृढ़ रथपर सवार हुआ। उस रथमें सोलह पहिये तथा वरूथ१ और कूबर२ लगे हुए थे॥ २॥

पादटिप्पनी

१. रथकी रक्षाके लिये बना हुआ लोहे आदिका आवरण।
२. रथका वह भाग जिसपर जूआ बाँधा जाता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पिशाचवदनैर्घोरैः खरैर्युक्तं भयावहम्।
सर्वास्त्रशस्त्रसहितं सर्वोपस्करसंयुतम्॥ ३॥
निश्चक्रामाथ सहसा रावणो भीषणाकृतिः।
आयान्तं रावणं दृष्ट्वा भीषणं रणकर्कशम्॥ ४॥
सन्त्रस्ताभूत्तदा सेना वानरी रामपालिता॥ ५॥

मूलम्

पिशाचवदनैर्घोरैः खरैर्युक्तं भयावहम्।
सर्वास्त्रशस्त्रसहितं सर्वोपस्करसंयुतम्॥ ३॥
निश्चक्रामाथ सहसा रावणो भीषणाकृतिः।
आयान्तं रावणं दृष्ट्वा भीषणं रणकर्कशम्॥ ४॥
सन्त्रस्ताभूत्तदा सेना वानरी रामपालिता॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह पिशाचके समान मुखवाले गधोंके जुते रहनेसे अति भयानक जान पड़ता था तथा सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंसे सुसज्जित एवं समस्त युद्ध-सामग्रीसे सम्पन्न था। इस प्रकार महाभयंकर राक्षसराज रावण लंकापुरीसे निकला॥ ३॥
युद्धमें अत्यन्त निष्ठुर भीषणाकार रावणको आता देख भगवान् रामसे सुरक्षित वानर-सेना भयभीत हो गयी॥ ३—५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हनूमानथ चोत्प्लुत्य रावणं योद्धुमाययौ।
आगत्य हनुमान् रक्षोवक्षस्यतुलविक्रमः॥ ६॥
मुष्टिबन्धं दृढं बद्‍ध्वा ताडयामास वेगतः।
तेन मुष्टिप्रहारेण जानुभ्यामपतद्‍रथे॥ ७॥

मूलम्

हनूमानथ चोत्प्लुत्य रावणं योद्धुमाययौ।
आगत्य हनुमान् रक्षोवक्षस्यतुलविक्रमः॥ ६॥
मुष्टिबन्धं दृढं बद्‍ध्वा ताडयामास वेगतः।
तेन मुष्टिप्रहारेण जानुभ्यामपतद्‍रथे॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब हनुमान् जी रावणसे युद्ध करनेके लिये उछलकर सामने आये। वहाँ आते ही अतुलित पराक्रमी पवनकुमारने कसकर मुट्ठी बाँधी और बड़े वेगसे उस राक्षसकी छातीमें प्रहार किया। उस घूँसेके लगते ही वह रथमें घुटनोंके बल गिर गया॥ ६-७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मूर्च्छितोऽथ मुहूर्तेन रावणः पुनरुत्थितः।
उवाच च हनूमन्तं शूरोऽसि मम सम्मतः॥ ८॥

मूलम्

मूर्च्छितोऽथ मुहूर्तेन रावणः पुनरुत्थितः।
उवाच च हनूमन्तं शूरोऽसि मम सम्मतः॥ ८॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक मुहूर्त मूर्च्छित रहनेके अनन्तर रावणको फिर चेत हुआ। तब उसने हनुमान् जी से कहा—‘‘मैं मानता हूँ, तू वास्तवमें बड़ा शूरवीर है’’॥ ८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हनूमानाह तं धिङ्मां यस्त्वं जीवसि रावण।
त्वं तावन्मुष्टिना वक्षो मम ताडय रावण॥ ९॥

मूलम्

हनूमानाह तं धिङ्मां यस्त्वं जीवसि रावण।
त्वं तावन्मुष्टिना वक्षो मम ताडय रावण॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

हनुमान् जी ने कहा—‘‘अरे रावण! मुझे धिक्कार है कि (मेरा घूँसा खाकर भी) तू जीता रह गया। अच्छा, अब तू मेरी छातीमें घूँसा मार॥ ९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पश्चान्मया हतः प्राणान् मोक्ष्यसे नात्र संशयः।
तथेति मुष्टिना वक्षो रावणेनापि ताडितः॥ १०॥

मूलम्

पश्चान्मया हतः प्राणान् मोक्ष्यसे नात्र संशयः।
तथेति मुष्टिना वक्षो रावणेनापि ताडितः॥ १०॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर मेरा घूँसा लगनेपर तू प्राण छोड़ देगा, इसमें सन्देह नहीं।’’ तब रावणने ‘अच्छा’ ऐसा कहकर उनकी छातीमें घूँसा मारा॥ १०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विघूर्णमाननयनः किञ्चित्कश्मलमाययौ।
संज्ञामवाप्य कपिराड् रावणं हन्तुमुद्यतः॥ ११॥

मूलम्

विघूर्णमाननयनः किञ्चित्कश्मलमाययौ।
संज्ञामवाप्य कपिराड् रावणं हन्तुमुद्यतः॥ ११॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके लगनेसे उनके नेत्र घूमने लगे और वे कुछ तिलमिला उठे। फिर चेत होनेपर कपिराज हनुमान् जी रावणको मारनेके लिये तैयार हुए॥ ११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽन्यत्र गतो भीत्या रावणो राक्षसाधिपः।
हनूमानङ्गदश्चैव नलो नीलस्तथैव च॥ १२॥
चत्वारः समवेत्याग्रे दृष्ट्वा राक्षसपुङ्गवान्।
अग्निवर्णं तथा सर्परोमाणं खड्गरोमकम्॥ १३॥
तथा वृश्चिकरोमाणं निर्जघ्नुः क्रमशोऽसुरान्।
चत्वारश्चतुरो हत्वा राक्षसान् भीमविक्रमान्।
सिंहनादं पृथक् कृत्वा रामपार्श्वमुपागताः॥ १४॥

मूलम्

ततोऽन्यत्र गतो भीत्या रावणो राक्षसाधिपः।
हनूमानङ्गदश्चैव नलो नीलस्तथैव च॥ १२॥
चत्वारः समवेत्याग्रे दृष्ट्वा राक्षसपुङ्गवान्।
अग्निवर्णं तथा सर्परोमाणं खड्गरोमकम्॥ १३॥
तथा वृश्चिकरोमाणं निर्जघ्नुः क्रमशोऽसुरान्।
चत्वारश्चतुरो हत्वा राक्षसान् भीमविक्रमान्।
सिंहनादं पृथक् कृत्वा रामपार्श्वमुपागताः॥ १४॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब राक्षसराज रावण भयभीत होकर कहीं अन्यत्र चला गया। हनुमान्, अंगद, नल और नील—इन चारोंने एकत्र होकर अपने सामने अग्निवर्ण, सर्परोमा, खड्गरोमा और वृश्चिकरोमा नामक चार राक्षसोंको खड़े देखा। तब उन चारोंने क्रमशः इन चारों महापराक्रमी राक्षसोंको मार डाला और फिर पृथक्-पृथक् गरजते हुए श्रीरघुनाथजीके पास आ खड़े हुए॥ १२—१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः क्रुद्धो दशग्रीवः सन्दश्य दशनच्छदम्॥ १५॥
विवृत्य नयने क्रूरो राममेवान्वधावत।
दशग्रीवो रथस्थस्तु रामं वज्रोपमैः शरैः॥ १६॥
आजघान महाघोरैर्धाराभिरिव तोयदः।
रामस्य पुरतः सर्वान् वानरानपि विव्यथे॥ १७॥

मूलम्

ततः क्रुद्धो दशग्रीवः सन्दश्य दशनच्छदम्॥ १५॥
विवृत्य नयने क्रूरो राममेवान्वधावत।
दशग्रीवो रथस्थस्तु रामं वज्रोपमैः शरैः॥ १६॥
आजघान महाघोरैर्धाराभिरिव तोयदः।
रामस्य पुरतः सर्वान् वानरानपि विव्यथे॥ १७॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर अत्यन्त क्रूर दशग्रीव (रावण) क्रुद्ध होकर दाँतोंसे ओठ चबाता हुआ आँखें फाड़कर श्रीरामचन्द्रजीकी ओर ही दौड़ा। रावण रथमें चढ़ा हुआ था (और श्रीरघुनाथजी रथहीन थे, तो भी) वह, मेघ जिस प्रकार जलकी धाराएँ बरसाता है वैसे ही महाभयंकर वज्र-सदृश बाणोंसे श्रीरामचन्द्रजीपर प्रहार करने लगा और भगवान् रामके सामने ही उसने समस्त वानरोंको भी व्यथित कर दिया॥ १५—१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः पावकसङ्काशैः शरैः काञ्चनभूषणैः।
अभ्यवर्षद्‍रणे रामो दशग्रीवं समाहितः॥ १८॥
रथस्थं रावणं दृष्ट्वा भूमिष्ठं रघुनन्दनम्।
आहूय मातलिं शक्रो वचनं चेदमब्रवीत्॥ १९॥

मूलम्

ततः पावकसङ्काशैः शरैः काञ्चनभूषणैः।
अभ्यवर्षद्‍रणे रामो दशग्रीवं समाहितः॥ १८॥
रथस्थं रावणं दृष्ट्वा भूमिष्ठं रघुनन्दनम्।
आहूय मातलिं शक्रो वचनं चेदमब्रवीत्॥ १९॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब श्रीरामचन्द्रजी भी सावधान होकर रणभूमिमें रावणपर अग्निके समान तेजस्वी सुवर्ण-भूषित बाणोंकी वर्षा करने लगे। इन्द्रने जब देखा कि रावण रथपर चढ़ा हुआ है और श्रीरघुनाथजी पृथिवीपर ही खड़े हैं तो उसने अपने सारथि मातलिको बुलाकर कहा—॥ १८-१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रथेन मम भूमिष्ठं शीघ्रं याहि रघूत्तमम्।
त्वरितं भूतलं गत्वा कुरु कार्यं ममानघ॥ २०॥

मूलम्

रथेन मम भूमिष्ठं शीघ्रं याहि रघूत्तमम्।
त्वरितं भूतलं गत्वा कुरु कार्यं ममानघ॥ २०॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘हे अनघ! देखो रघुनाथजी पृथिवीपर खड़े हैं, तुम तुरंत मेरा रथ लेकर भूर्लोकमें उनके पास जाओ और मेरा कार्य करो’’॥ २०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तोऽथ तं नत्वा मातलिर्देवसारथिः।
ततो हयैश्च संयोज्य हरितैः स्यन्दनोत्तमम्॥ २१॥
स्वर्गाज्जयार्थं रामस्य ह्युपचक्राम मातलिः।
प्राञ्जलिर्देवराजेन प्रेषितोऽस्मि रघूत्तम॥ २२॥

मूलम्

एवमुक्तोऽथ तं नत्वा मातलिर्देवसारथिः।
ततो हयैश्च संयोज्य हरितैः स्यन्दनोत्तमम्॥ २१॥
स्वर्गाज्जयार्थं रामस्य ह्युपचक्राम मातलिः।
प्राञ्जलिर्देवराजेन प्रेषितोऽस्मि रघूत्तम॥ २२॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रकी यह आज्ञा पाकर देवसारथि मातलिने उन्हें नमस्कार किया और उनके उत्तम रथमें हरे रंगके घोड़े जोतकर भगवान् रामकी विजयके लिये स्वर्गसे चलकर उनके पास उपस्थित हुआ तथा उनसे हाथ जोड़कर बोला—‘‘हे रघुश्रेष्ठ! मुझे देवराज इन्द्रने भेजा है॥ २१-२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रथोऽयं देवराजस्य विजयाय तव प्रभो।
प्रेषितश्च महाराज धनुरैन्द्रं च भूषितम्॥ २३॥
अभेद्यं कवचं खड्गं दिव्यतूणीयुगं तथा।
आरुह्य च रथं राम रावणं जहि राक्षसम्॥ २४॥
मया सारथिना देव वृत्रं देवपतिर्यथा।
इत्युक्तस्तं परिक्रम्य नमस्कृत्य रथोत्तमम्॥ २५॥

मूलम्

रथोऽयं देवराजस्य विजयाय तव प्रभो।
प्रेषितश्च महाराज धनुरैन्द्रं च भूषितम्॥ २३॥
अभेद्यं कवचं खड्गं दिव्यतूणीयुगं तथा।
आरुह्य च रथं राम रावणं जहि राक्षसम्॥ २४॥
मया सारथिना देव वृत्रं देवपतिर्यथा।
इत्युक्तस्तं परिक्रम्य नमस्कृत्य रथोत्तमम्॥ २५॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे प्रभो! यह रथ इन्द्रका ही है, इसे उन्होंने आपकी विजयके लिये भेजा है। हे महाराज! इसके साथ ही यह अति शोभायमान ऐन्द्र धनुष, अभेद्य कवच, खड्ग और दो दिव्य तूणीर भी भेजे हैं। हे राम! मुझ सारथिके साथ, इन्द्रने जिस प्रकार वृत्रासुरका वध किया था उसी प्रकार हे देव! आप इस रथपर आरूढ़ होकर राक्षस रावणका वध कीजिये’’। मातलिके इस प्रकार कहनेपर श्रीरामचन्द्रजीने उस रथकी परिक्रमा कर उसे नमस्कार किया॥ २३—२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आरुरोह रथं रामो लोकाल्ँलक्ष्म्या नियोजयन्।
ततोऽभवन्महायुद्धं भैरवं रोमहर्षणम्॥ २६॥
महात्मनो राघवस्य रावणस्य च धीमतः।
आग्नेयेन च आग्नेयं दैवं दैवेन राघवः॥ २७॥
अस्त्रं राक्षसराजस्य जघान परमास्त्रवित्।
ततस्तु ससृजे घोरं राक्षसं चास्त्रमस्त्रवित्।
क्रोधेन महताविष्टो रामस्योपरि रावणः॥ २८॥

मूलम्

आरुरोह रथं रामो लोकाल्ँलक्ष्म्या नियोजयन्।
ततोऽभवन्महायुद्धं भैरवं रोमहर्षणम्॥ २६॥
महात्मनो राघवस्य रावणस्य च धीमतः।
आग्नेयेन च आग्नेयं दैवं दैवेन राघवः॥ २७॥
अस्त्रं राक्षसराजस्य जघान परमास्त्रवित्।
ततस्तु ससृजे घोरं राक्षसं चास्त्रमस्त्रवित्।
क्रोधेन महताविष्टो रामस्योपरि रावणः॥ २८॥

अनुवाद (हिन्दी)

और सम्पूर्ण लोकोंको श्रीसम्पन्न करते हुए उसपर आरूढ़ हुए। फिर महात्मा राम और बुद्धिमान् रावणका महाभयानक और रोमांचकारी घोर युद्ध होने लगा। अस्त्र-विद्यामें परम कुशल श्रीरामचन्द्रजीने रावणके आग्नेयास्त्रको आग्नेयास्त्रसे और दैवास्त्रको दैवास्त्रसे काट डाला। तब अस्त्रविद्याविशारद रावणने अत्यन्त क्रोधाविष्ट हो श्रीरामचन्द्रजीपर महाभयंकर राक्षसास्त्र छोड़ा॥ २६—२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रावणस्य धनुर्मुक्ताः सर्पा भूत्वा महाविषाः।
शराः काञ्चनपुङ्खाभा राघवं परितोऽपतन्॥ २९॥

मूलम्

रावणस्य धनुर्मुक्ताः सर्पा भूत्वा महाविषाः।
शराः काञ्चनपुङ्खाभा राघवं परितोऽपतन्॥ २९॥

अनुवाद (हिन्दी)

रावणके धनुषसे छूटे हुए बाण, जो सुवर्णमय पंखसे भासमान हो रहे थे, महाविषधर सर्प होकर श्रीरघुनाथजीके चारों ओर गिरने लगे॥ २९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तैः शरैः सर्पवदनैर्वमद्भिरनलं मुखैः।
दिशश्च विदिशश्चैव व्याप्तास्तत्र तदाभवन्॥ ३०॥

मूलम्

तैः शरैः सर्पवदनैर्वमद्भिरनलं मुखैः।
दिशश्च विदिशश्चैव व्याप्तास्तत्र तदाभवन्॥ ३०॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनके मुखसे अग्निकी लपटें निकल रही थीं, रावणके उन सर्पमुख बाणोंसे उस समय सम्पूर्ण दिशा-विदिशाएँ व्याप्त हो गयीं॥ ३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामः सर्पांस्ततो दृष्ट्वा समन्तात् परिपूरितान्।
सौपर्णमस्त्रं तद्घोरं पुरः प्रावर्तयद्‍रणे॥ ३१॥

मूलम्

रामः सर्पांस्ततो दृष्ट्वा समन्तात् परिपूरितान्।
सौपर्णमस्त्रं तद्घोरं पुरः प्रावर्तयद्‍रणे॥ ३१॥

अनुवाद (हिन्दी)

रामने जब रणभूमिमें सब ओर सर्पोंको व्याप्त देखा तो महाभयंकर गारुडास्त्र छोड़ा॥ ३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामेण मुक्तास्ते बाणा भूत्वा गरुडरूपिणः।
चिच्छिदुः सर्पबाणांस्तान् समन्तात् सर्पशत्रवः॥ ३२॥

मूलम्

रामेण मुक्तास्ते बाणा भूत्वा गरुडरूपिणः।
चिच्छिदुः सर्पबाणांस्तान् समन्तात् सर्पशत्रवः॥ ३२॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीके छोड़े हुए वे बाण सर्पोंके शत्रु गरुड होकर जहाँ-तहाँ सर्परूप बाणोंको काटने लगे॥ ३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्त्रे प्रतिहते युद्धे रामेण दशकन्धरः।
अभ्यवर्षत्ततो रामं घोराभिः शरवृष्टिभिः॥ ३३॥

मूलम्

अस्त्रे प्रतिहते युद्धे रामेण दशकन्धरः।
अभ्यवर्षत्ततो रामं घोराभिः शरवृष्टिभिः॥ ३३॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार भगवान् रामद्वारा अपने शस्त्रको नष्ट हुआ देख रावणने उनके ऊपर भयंकर बाण-वर्षा की॥ ३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः पुनः शरानीकै राममक्लिष्टकारिणम्।
अर्दयित्वा तु घोरेण मातलिं प्रत्यविध्यत॥ ३४॥

मूलम्

ततः पुनः शरानीकै राममक्लिष्टकारिणम्।
अर्दयित्वा तु घोरेण मातलिं प्रत्यविध्यत॥ ३४॥

अनुवाद (हिन्दी)

और फिर लीला-विहारी भगवान् रामको अति तीव्र बाणावलीसे पीड़ित कर मातलिको वेध डाला॥ ३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पातयित्वा रथोपस्थे रथकेतुं च काञ्चनम्।
ऐन्द्रानश्वानभ्यहनद्‍रावणः क्रोधमूर्च्छितः॥ ३५॥

मूलम्

पातयित्वा रथोपस्थे रथकेतुं च काञ्चनम्।
ऐन्द्रानश्वानभ्यहनद्‍रावणः क्रोधमूर्च्छितः॥ ३५॥

अनुवाद (हिन्दी)

(इतना ही नहीं) क्रोधसे उन्मत्त हुए रावणने रथकी सुवर्णमयी ध्वजा काटकर उसके पृष्ठभागपर गिरा दी और इन्द्रके घोड़ोंको भी हताहत कर दिया॥ ३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विषेदुर्देवगन्धर्वाश्चारणाः पितरस्तथा।
आर्त्ताकारं हरिं दृष्ट्वा व्यथिताश्च महर्षयः॥ ३६॥

मूलम्

विषेदुर्देवगन्धर्वाश्चारणाः पितरस्तथा।
आर्त्ताकारं हरिं दृष्ट्वा व्यथिताश्च महर्षयः॥ ३६॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् को इस आपत्तिमें देखकर देवता, गन्धर्व, चारण और पितर आदि विषादग्रस्त हो गये तथा महर्षिगण मन-ही-मन दुःख मानने लगे॥ ३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यथिता वानरेन्द्राश्च बभूवुः सविभीषणाः।
दशास्यो विंशतिभुजः प्रगृहीतशरासनः॥ ३७॥
ददृशे रावणस्तत्र मैनाक इव पर्वतः।
रामस्तु भ्रुकुटिं बद्‍ध्वा क्रोधसंरक्तलोचनः॥ ३८॥
कोपं चकार सदृशं निर्दहन्निव राक्षसम्।
धनुरादाय देवेन्द्रधनुराकारमद्भुतम्॥ ३९॥
गृहीत्वा पाणिना बाणं कालानलसमप्रभम्।
निर्दहन्निव चक्षुर्भ्यां ददृशे रिपुमन्तिके॥ ४०॥

मूलम्

व्यथिता वानरेन्द्राश्च बभूवुः सविभीषणाः।
दशास्यो विंशतिभुजः प्रगृहीतशरासनः॥ ३७॥
ददृशे रावणस्तत्र मैनाक इव पर्वतः।
रामस्तु भ्रुकुटिं बद्‍ध्वा क्रोधसंरक्तलोचनः॥ ३८॥
कोपं चकार सदृशं निर्दहन्निव राक्षसम्।
धनुरादाय देवेन्द्रधनुराकारमद्भुतम्॥ ३९॥
गृहीत्वा पाणिना बाणं कालानलसमप्रभम्।
निर्दहन्निव चक्षुर्भ्यां ददृशे रिपुमन्तिके॥ ४०॥

अनुवाद (हिन्दी)

विभीषणके सहित समस्त वानर-यूथपतिगण अति चिन्तित हुए। उस समय हाथमें धनुष-बाण लिये दस मुख और बीस भुजाओंवाला रावण मैनाक पर्वतके समान दीख पड़ता था। भगवान् रामके नेत्र क्रोधसे लाल हो गये, उनकी त्यौरी चढ़ गयी और उस राक्षसको मानो जला डालेंगे ऐसा क्रोध करते हुए उन्होंने इन्द्र-धनुषके समान एक विचित्र धनुष उठाया तथा हाथमें एक कालाग्निके समान तेजोमय बाण लेकर अपने नेत्रोंसे समीपवर्ती शत्रुकी ओर इस प्रकार निहारा मानो भस्म कर देंगे॥ ३७—४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पराक्रमं दर्शयितुं तेजसा प्रज्वलन्निव।
प्रचक्रमे कालरूपी सर्वलोकस्य पश्यतः॥ ४१॥

मूलम्

पराक्रमं दर्शयितुं तेजसा प्रज्वलन्निव।
प्रचक्रमे कालरूपी सर्वलोकस्य पश्यतः॥ ४१॥

अनुवाद (हिन्दी)

कालरूपी भगवान् रामने अपने तेजसे प्रज्वलित-से हो सम्पूर्ण लोकोंके सामने अपना पराक्रम दिखाना आरम्भ किया॥ ४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विकृष्य चापं रामस्तु रावणं प्रतिविध्य च।
हर्षयन् वानरानीकं कालान्तक इवाबभौ॥ ४२॥

मूलम्

विकृष्य चापं रामस्तु रावणं प्रतिविध्य च।
हर्षयन् वानरानीकं कालान्तक इवाबभौ॥ ४२॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने अपना धनुष खींचकर रावणको बींध डाला और वे सम्पूर्ण वानरसेनाको आनन्दित करते हुए लोकान्तकारी कालके समान सुशोभित होने लगे॥ ४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्रुद्धं रामस्य वदनं दृष्ट्वा शत्रुं प्रधावतः।
तत्रसुः सर्वभूतानि चचाल च वसुन्धरा॥ ४३॥

मूलम्

क्रुद्धं रामस्य वदनं दृष्ट्वा शत्रुं प्रधावतः।
तत्रसुः सर्वभूतानि चचाल च वसुन्धरा॥ ४३॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुपर धावा करते हुए भगवान् रामका क्रोधयुक्त मुख देखकर समस्त प्राणी भयभीत हो गये और पृथिवी डगमगाने लगी॥ ४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामं दृष्ट्वा महारौद्रमुत्पातांश्च सुदारुणान्।
त्रस्तानि सर्वभूतानि रावणं चाविशद्भयम्॥ ४४॥

मूलम्

रामं दृष्ट्वा महारौद्रमुत्पातांश्च सुदारुणान्।
त्रस्तानि सर्वभूतानि रावणं चाविशद्भयम्॥ ४४॥

अनुवाद (हिन्दी)

रामको अति रौद्ररूप और इन दारुण उत्पातोंको देखकर समस्त जीवोंमें त्रास छा गया और रावणके अन्तःकरणमें भी आतंक समा गया॥ ४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विमानस्थाः सुरगणाः सिद्धगन्धर्वकिन्नराः।
ददृशुः सुमहायुद्धं लोकसंवर्तकोपमम्।
ऐन्द्रमस्त्रं समादाय रावणस्य शिरोऽच्छिनत्॥ ४५॥

मूलम्

विमानस्थाः सुरगणाः सिद्धगन्धर्वकिन्नराः।
ददृशुः सुमहायुद्धं लोकसंवर्तकोपमम्।
ऐन्द्रमस्त्रं समादाय रावणस्य शिरोऽच्छिनत्॥ ४५॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय देवता, सिद्ध, गन्धर्व और किन्नरगण विमानोंपर चढ़े हुए संसारके महाप्रलयके समान इस घोर युद्धको देख रहे थे। इसी बीचमें श्रीरामचन्द्रजीने ऐन्द्रास्त्र छोड़कर रावणके सिर काट डाले॥ ४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मूर्धानो रावणस्याथ बहवो रुधिरोक्षिताः।
गगनात्प्रपतन्ति स्म तालादिव फलानि हि॥ ४६॥

मूलम्

मूर्धानो रावणस्याथ बहवो रुधिरोक्षिताः।
गगनात्प्रपतन्ति स्म तालादिव फलानि हि॥ ४६॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब रावणके बहुत-से सिर रुधिरसे लथपथ हो आकाश-मण्डलसे इस प्रकार गिरने लगे जैसे ताल-वृक्षसे उसके फल गिरते हैं॥ ४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न दिनं न च वै रात्रिर्न सन्ध्या न दिशोऽपि वा।
प्रकाशन्ते न तद्रूपं दृश्यते तत्र सङ्गरे॥ ४७॥

मूलम्

न दिनं न च वै रात्रिर्न सन्ध्या न दिशोऽपि वा।
प्रकाशन्ते न तद्रूपं दृश्यते तत्र सङ्गरे॥ ४७॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय दिन, रात, सन्ध्या अथवा दिशाएँ आदि कुछ भी स्पष्ट नहीं जान पड़ती थीं तथा उस संग्राम-भूमिमें रावणका रूप भी दिखायी नहीं देता था (केवल कटे हुए सिर ही दीख पड़ते थे)॥ ४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो रामो बभूवाथ विस्मयाविष्टमानसः।
शतमेकोत्तरं छिन्नं शिरसां चैकवर्चसाम्॥ ४८॥

मूलम्

ततो रामो बभूवाथ विस्मयाविष्टमानसः।
शतमेकोत्तरं छिन्नं शिरसां चैकवर्चसाम्॥ ४८॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब तो श्रीरामचन्द्रजीको बड़ा ही विस्मय हुआ। (वे सोचने लगे) ‘मैंने समान-तेज-सम्पन्न एक सौ एक सिर काटे हैं॥ ४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चैव रावणः शान्तो दृश्यते जीवितक्षयात्।
ततः सर्वास्त्रविद्धीरः कौसल्यानन्दवर्धनः॥ ४९॥
अस्त्रैश्च बहुभिर्युक्तश्चिन्तयामास राघवः।
यैर्यैर्बाणैर्हता दैत्या महासत्त्वपराक्रमाः॥ ५०॥
त एते निष्फलं याता रावणस्य निपातने।

मूलम्

न चैव रावणः शान्तो दृश्यते जीवितक्षयात्।
ततः सर्वास्त्रविद्धीरः कौसल्यानन्दवर्धनः॥ ४९॥
अस्त्रैश्च बहुभिर्युक्तश्चिन्तयामास राघवः।
यैर्यैर्बाणैर्हता दैत्या महासत्त्वपराक्रमाः॥ ५०॥
त एते निष्फलं याता रावणस्य निपातने।

अनुवाद (हिन्दी)

किन्तु फिर भी रावण प्राणनाशसे शान्त हुआ दिखायी नहीं देता।’ तब अनेक अस्त्रोंसे युक्त सर्वास्त्रविशारद धीरवीर कौसल्यानन्दन रघुनाथजीने विचारा—‘‘मैंने जिन-जिन बाणोंसे बड़े-बड़े तेजस्वी और पराक्रमी दैत्योंको मारा था, इस रावणका वध करनेमें वे सभी निष्फल हो गये’’॥ ४९-५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति चिन्ताकुले रामे समीपस्थो विभीषणः॥ ५१॥
उवाच राघवं वाक्यं ब्रह्मदत्तवरो ह्यसौ।
विच्छिन्ना बाहवोऽप्यस्य विच्छिन्नानि शिरांसि च॥ ५२॥
उत्पत्स्यन्ति पुनः शीघ्रमित्याह भगवानजः।
नाभिदेशेऽमृतं तस्य कुण्डलाकारसंस्थितम्॥ ५३॥

मूलम्

इति चिन्ताकुले रामे समीपस्थो विभीषणः॥ ५१॥
उवाच राघवं वाक्यं ब्रह्मदत्तवरो ह्यसौ।
विच्छिन्ना बाहवोऽप्यस्य विच्छिन्नानि शिरांसि च॥ ५२॥
उत्पत्स्यन्ति पुनः शीघ्रमित्याह भगवानजः।
नाभिदेशेऽमृतं तस्य कुण्डलाकारसंस्थितम्॥ ५३॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् रामको इस प्रकार चिन्ताग्रस्त देख उनके पास खड़े हुए विभीषणने कहा—‘‘भगवन्! ब्रह्माजीने इसे एक वर दिया था। उन्होंने कहा था कि ‘इसकी भुजाएँ और सिर बारम्बार काट दिये जानेपर भी फिर तुरंत नये उत्पन्न हो जायँगे।’ इसके नाभिदेशमें कुण्डलाकारसे अमृत रखा हुआ है॥ ५१—५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तच्छोषयानलास्त्रेण तस्य मृत्युस्ततो भवेत्।
विभीषणवचः श्रुत्वा रामः शीघ्रपराक्रमः॥ ५४॥
पावकास्त्रेण संयोज्य नाभिं विव्याध रक्षसः।
अनन्तरं च चिच्छेद शिरांसि च महाबलः॥ ५५॥

मूलम्

तच्छोषयानलास्त्रेण तस्य मृत्युस्ततो भवेत्।
विभीषणवचः श्रुत्वा रामः शीघ्रपराक्रमः॥ ५४॥
पावकास्त्रेण संयोज्य नाभिं विव्याध रक्षसः।
अनन्तरं च चिच्छेद शिरांसि च महाबलः॥ ५५॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसे आप आग्नेयास्त्रसे सुखा डालिये, तभी इसकी मृत्यु हो जायगी।’’ विभीषणके वचन सुनकर शीघ्रपराक्रमी भगवान् रामने अपने धनुषपर आग्नेयास्त्र चढ़ाकर उस राक्षसकी नाभिमें मारा और फिर महाबली रघुनाथजीने क्रोधित होकर उसके सिर और भुजाएँ काट डालीं॥ ५४—५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाहूनपि च संरब्धो रावणस्य रघूत्तमः।
ततो घोरां महाशक्तिमादाय दशकन्धरः॥ ५६॥
विभीषणवधार्थाय चिक्षेप क्रोधविह्वलः।
चिच्छेद राघवो बाणैस्तां शितैर्हेमभूषितैः॥ ५७॥

मूलम्

बाहूनपि च संरब्धो रावणस्य रघूत्तमः।
ततो घोरां महाशक्तिमादाय दशकन्धरः॥ ५६॥
विभीषणवधार्थाय चिक्षेप क्रोधविह्वलः।
चिच्छेद राघवो बाणैस्तां शितैर्हेमभूषितैः॥ ५७॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसपर रावणने अत्यन्त क्रोधातुर हो विभीषणको मारनेके लिये एक महाभयानक शक्ति छोड़ी। किन्तु रघुनाथजीने उसे तुरंत ही सुवर्णमण्डित तीक्ष्ण बाणोंसे काट डाला॥ ५६-५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दशग्रीवशिरश्छेदात्तदा तेजो विनिर्गतम्।
म्लानरूपो बभूवाथ छिन्नैः शीर्षैर्भयङ्करैः॥ ५८॥

मूलम्

दशग्रीवशिरश्छेदात्तदा तेजो विनिर्गतम्।
म्लानरूपो बभूवाथ छिन्नैः शीर्षैर्भयङ्करैः॥ ५८॥

अनुवाद (हिन्दी)

रावणके सिर काटे जानेसे उसका तेज निकल गया और वह उन भयंकर सिरोंके कट जानेसे विरूप दिखायी देने लगा॥ ५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकेन मुख्यशिरसा बाहुभ्यां रावणो बभौ।
रावणस्तु पुनः क्रुद्धो नानाशस्त्रास्त्रवृष्टिभिः॥ ५९॥
ववर्ष रामं तं रामस्तथा बाणैर्ववर्ष च।
ततो युद्धमभूद्घोरं तुमुलं लोमहर्षणम्॥ ६०॥

मूलम्

एकेन मुख्यशिरसा बाहुभ्यां रावणो बभौ।
रावणस्तु पुनः क्रुद्धो नानाशस्त्रास्त्रवृष्टिभिः॥ ५९॥
ववर्ष रामं तं रामस्तथा बाणैर्ववर्ष च।
ततो युद्धमभूद्घोरं तुमुलं लोमहर्षणम्॥ ६०॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब रावणके एक मुख्य सिर और दो भुजाएँ रह गयी थीं। किन्तु फिर भी वह अत्यन्त क्रुद्ध होकर भगवान् रामपर नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्र बरसाने लगा। इसी प्रकार रामने भी उसपर भयंकर बाण-वर्षा की। फिर तो वहाँ अत्यन्त रोमांचकारी घमासान युद्ध छिड़ गया॥ ५९-६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ संस्मारयामास मातली राघवं तदा।
विसृजास्त्रं वधायास्य ब्राह्मं शीघ्रं रघूत्तम॥ ६१॥

मूलम्

अथ संस्मारयामास मातली राघवं तदा।
विसृजास्त्रं वधायास्य ब्राह्मं शीघ्रं रघूत्तम॥ ६१॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब मातलिने श्रीरामचन्द्रजीको स्मरण दिलाया कि ‘‘हे रघुश्रेष्ठ! इसका वध करनेके लिये आप शीघ्र ही ब्रह्मास्त्र छोड़िये॥ ६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विनाशकालः प्रथितो यः सुरैः सोऽद्य वर्तते।
उत्तमाङ्गं न चैतस्य छेत्तव्यं राघव त्वया॥ ६२॥

मूलम्

विनाशकालः प्रथितो यः सुरैः सोऽद्य वर्तते।
उत्तमाङ्गं न चैतस्य छेत्तव्यं राघव त्वया॥ ६२॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवताओंने इसके नाशका जो समय निश्चित किया है वह इस समय वर्तमान है। हे रघुनन्दन! आप इसका मस्तक न काटियेगा॥ ६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैव शीर्ष्णि प्रभो वध्यो वध्य एव हि मर्मणि।
ततः संस्मारितो रामस्तेन वाक्येन मातलेः॥ ६३॥
जग्राह स शरं दीप्तं निःश्वसन्तमिवोरगम्।
यस्य पार्श्वे तु पवनः फले भास्करपावकौ॥ ६४॥
शरीरमाकाशमयं गौरवे मेरुमन्दरौ।
पर्वस्वपि च विन्यस्ता लोकपाला महौजसः॥ ६५॥

मूलम्

नैव शीर्ष्णि प्रभो वध्यो वध्य एव हि मर्मणि।
ततः संस्मारितो रामस्तेन वाक्येन मातलेः॥ ६३॥
जग्राह स शरं दीप्तं निःश्वसन्तमिवोरगम्।
यस्य पार्श्वे तु पवनः फले भास्करपावकौ॥ ६४॥
शरीरमाकाशमयं गौरवे मेरुमन्दरौ।
पर्वस्वपि च विन्यस्ता लोकपाला महौजसः॥ ६५॥

अनुवाद (हिन्दी)

(क्योंकि) हे प्रभो! यह सिर काटनेसे नहीं मर सकता, बल्कि (हृदयरूप) मर्मस्थानके विद्ध होनेपर ही इसका अन्त हो सकता है।’’ मातलिके इन वाक्योंसे स्मरण दिलाये जानेपर भगवान् रामने फुफकारते हुए सर्पके समान एक परम तेजस्वी बाण निकाला। उसके पार्श्वभागमें पवनकी, नोंकपर सूर्य और अग्निकी, गुरुता (भारीपन)-में सुमेरु और मन्दराचलकी तथा गाँठोंमें महातेजस्वी लोकपालोंकी स्थापना की गयी थी एवं उसका स्वरूप आकाशमय था॥ ६३—६५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जाज्वल्यमानं वपुषा भातं भास्करवर्चसा।
तमुग्रमस्त्रं लोकानां भयनाशनमद्भुतम्॥ ६६॥
अभिमन्त्र्य ततो रामस्तं महेषुं महाभुजः।
वेदप्रोक्तेन विधिना सन्दधे कार्मुके बली॥ ६७॥

मूलम्

जाज्वल्यमानं वपुषा भातं भास्करवर्चसा।
तमुग्रमस्त्रं लोकानां भयनाशनमद्भुतम्॥ ६६॥
अभिमन्त्र्य ततो रामस्तं महेषुं महाभुजः।
वेदप्रोक्तेन विधिना सन्दधे कार्मुके बली॥ ६७॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसका आकार अत्यन्त देदीप्यमान होनेके कारण वह सूर्यके समान प्रकाशमान था। महाबाहु भगवान् रामने सम्पूर्ण लोकोंका भय दूर करनेवाले उस अत्यन्त उग्र और अद्भुत अस्त्रको धनुर्वेदोक्त विधिसे अभिमन्त्रित कर अपने धनुषपर चढ़ाया॥ ६६-६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन्सन्धीयमाने तु राघवेण शरोत्तमे।
सर्वभूतानि वित्रेसुश्चचाल च वसुन्धरा॥ ६८॥

मूलम्

तस्मिन्सन्धीयमाने तु राघवेण शरोत्तमे।
सर्वभूतानि वित्रेसुश्चचाल च वसुन्धरा॥ ६८॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् रामद्वारा उस उत्तम बाणके चढ़ाये जानेपर समस्त प्राणी भयभीत हो गये और पृथ्वी काँपने लगी॥ ६८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स रावणाय सङ्‍क्रुद्धो भृशमानम्य कार्मुकम्।
चिक्षेप परमायत्तस्तमस्त्रं मर्मघातिनम्॥ ६९॥

मूलम्

स रावणाय सङ्‍क्रुद्धो भृशमानम्य कार्मुकम्।
चिक्षेप परमायत्तस्तमस्त्रं मर्मघातिनम्॥ ६९॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी समय उन्होंने अत्यन्त क्रुद्ध हो धनुषको भली प्रकार खींच बड़ी सावधानीसे वह मर्मघातक बाण रावणपर छोड़ दिया॥ ६९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स वज्र इव दुर्द्धर्षो वज्रपाणिविसर्जितः।
कृतान्त इव घोरास्यो न्यपतद्‍रावणोरसि॥ ७०॥

मूलम्

स वज्र इव दुर्द्धर्षो वज्रपाणिविसर्जितः।
कृतान्त इव घोरास्यो न्यपतद्‍रावणोरसि॥ ७०॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह कालके समान अति भयंकर मुखवाला और वज्रपाणि इन्द्रद्वारा छोड़े हुए वज्रके समान अति असह्य बाण रावणके वक्षःस्थलमें लगा॥ ७०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स निमग्नो महाघोरः शरीरान्तकरः परः।
बिभेद हृदयं तूर्णं रावणस्य महात्मनः॥ ७१॥

मूलम्

स निमग्नो महाघोरः शरीरान्तकरः परः।
बिभेद हृदयं तूर्णं रावणस्य महात्मनः॥ ७१॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह शरीरान्तकारी महाभयंकर बाण उस महाकाय रावणके शरीरमें घुस गया और उसने तुरंत ही उसका हृदय फाड़ डाला॥ ७१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रावणस्याहरत्प्राणान् विवेश धरणीतले।
स शरो रावणं हत्वा रामतूणीरमाविशत्॥ ७२॥

मूलम्

रावणस्याहरत्प्राणान् विवेश धरणीतले।
स शरो रावणं हत्वा रामतूणीरमाविशत्॥ ७२॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने रावणके प्राणोंका अन्त कर दिया और फिर पृथ्वीमें घुस गया। इस प्रकार रावणका वध करनेके उपरान्त वह बाण फिर भगवान् रामके तरकशमें चला आया॥ ७२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य हस्तात्पपाताशु सशरं कार्मुकं महत्।
गतासुर्भ्रमिवेगेन राक्षसेन्द्रोऽपतद्भुवि॥ ७३॥

मूलम्

तस्य हस्तात्पपाताशु सशरं कार्मुकं महत्।
गतासुर्भ्रमिवेगेन राक्षसेन्द्रोऽपतद्भुवि॥ ७३॥

अनुवाद (हिन्दी)

बाणके लगते ही रावणका बड़ा भारी धनुष बाणसहित तुरंत उसके हाथसे गिर गया और वह राक्षसराज प्राणरहित हो चक्कर खाकर पृथ्वीपर गिर पड़ा॥ ७३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं दृष्ट्वा पतितं भूमौ हतशेषाश्च राक्षसाः।
हतनाथा भयत्रस्ता दुद्रुवुः सर्वतोदिशम्॥ ७४॥

मूलम्

तं दृष्ट्वा पतितं भूमौ हतशेषाश्च राक्षसाः।
हतनाथा भयत्रस्ता दुद्रुवुः सर्वतोदिशम्॥ ७४॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसे पृथ्वीपर गिरा देख मरनेसे बचे हुए राक्षसगण अनाथ हो जानेसे भयभीत होकर चारों ओर भाग गये॥ ७४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दशग्रीवस्य निधनं विजयं राघवस्य च।
ततो विनेदुः संहृष्टा वानरा जितकाशिनः॥ ७५॥
वदन्तो रामविजयं रावणस्य च तद्वधम्।
अथान्तरिक्षे व्यनदत्सौम्यस्त्रिदशदुन्दुभिः॥ ७६॥

मूलम्

दशग्रीवस्य निधनं विजयं राघवस्य च।
ततो विनेदुः संहृष्टा वानरा जितकाशिनः॥ ७५॥
वदन्तो रामविजयं रावणस्य च तद्वधम्।
अथान्तरिक्षे व्यनदत्सौम्यस्त्रिदशदुन्दुभिः॥ ७६॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब विजय-विभूषित वानरगण अति प्रसन्न होकर श्रीरामचन्द्रजीकी जय और रावणकी उस पराजयका बखान करते हुए ‘भगवान् रामकी जय और रावणका क्षय’ का घोष करने लगे। तथा आकाश-मण्डलमें दिव्य दुन्दुभियोंका गम्भीर नाद होने लगा॥ ७५-७६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पपात पुष्पवृष्टिश्च समन्ताद्‍राघवोपरि।
तुष्टुवुर्मुनयः सिद्धाश्चारणाश्च दिवौकसः॥ ७७॥

मूलम्

पपात पुष्पवृष्टिश्च समन्ताद्‍राघवोपरि।
तुष्टुवुर्मुनयः सिद्धाश्चारणाश्च दिवौकसः॥ ७७॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् रामपर सब ओरसे फूलोंकी वर्षा होने लगी तथा मुनि, सिद्ध, चारण और देवगण उनकी स्तुति करने लगे॥ ७७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथान्तरिक्षे ननृतुः सर्वतोऽप्सरसो मुदा।
रावणस्य च देहोत्थं ज्योतिरादित्यवत्स्फुरत्॥ ७८॥
प्रविवेश रघुश्रेष्ठं देवानां पश्यतां सताम्।
देवा ऊचुरहो भाग्यं रावणस्य महात्मनः॥ ७९॥

मूलम्

अथान्तरिक्षे ननृतुः सर्वतोऽप्सरसो मुदा।
रावणस्य च देहोत्थं ज्योतिरादित्यवत्स्फुरत्॥ ७८॥
प्रविवेश रघुश्रेष्ठं देवानां पश्यतां सताम्।
देवा ऊचुरहो भाग्यं रावणस्य महात्मनः॥ ७९॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर आकाशमें सब ओर अप्सराएँ प्रसन्नतापूर्वक नाचने लगीं। (इसी समय) रावणके देहसे एक सूर्यके समान प्रकाशमान ज्योति निकली और वह सब देवताओंके देखते-देखते श्रीरघुनाथजीमें प्रवेश कर गयी। यह देखकर देवगण कहने लगे—‘‘अहो! महात्मा रावणका बड़ा भाग्य है॥ ७८-७९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वयं तु सात्त्विका देवा विष्णोः कारुण्यभाजनाः।
भयदुःखादिभिर्व्याप्ताः संसारे परिवर्तिनः॥ ८०॥

मूलम्

वयं तु सात्त्विका देवा विष्णोः कारुण्यभाजनाः।
भयदुःखादिभिर्व्याप्ताः संसारे परिवर्तिनः॥ ८०॥

अनुवाद (हिन्दी)

हम देवगण सत्त्वगुणप्रधान हैं और श्रीविष्णुभगवान् के कृपापात्र हैं, फिर भी हम भय और दुःखादिसे व्याप्त होकर संसारमें भटका करते हैं॥ ८०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयं तु राक्षसः क्रूरो ब्रह्महातीव तामसः।
परदाररतो विष्णुद्वेषी तापसहिंसकः॥ ८१॥
पश्यत्सु सर्वभूतेषु राममेव प्रविष्टवान्।
एवं ब्रुवत्सु देवेषु नारदः प्राह सुस्मितः॥ ८२॥

मूलम्

अयं तु राक्षसः क्रूरो ब्रह्महातीव तामसः।
परदाररतो विष्णुद्वेषी तापसहिंसकः॥ ८१॥
पश्यत्सु सर्वभूतेषु राममेव प्रविष्टवान्।
एवं ब्रुवत्सु देवेषु नारदः प्राह सुस्मितः॥ ८२॥

अनुवाद (हिन्दी)

और यह रावण महाक्रूर राक्षस है, (यही नहीं) यह ब्रह्मघाती, अत्यन्त तमोगुणी, परस्त्रीपरायण, भगवद्-विरोधी और तपस्वियोंको पीड़ित करनेवाला भी है। किन्तु देखो, यह सबके देखते-देखते भगवान् राममें ही लीन हो गया’’। देवगणके इस प्रकार कहनेपर नारदजीने मुसकराते हुए कहा—॥ ८१-८२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृणुतात्र सुरा यूयं धर्मतत्त्वविचक्षणाः।
रावणो राघवद्वेषादनिशं हृदि भावयन्॥ ८३॥
भृत्यैः सह सदा रामचरितं द्वेषसंयुतः।
श्रुत्वा रामात् स्वनिधनं भयात् सर्वत्र राघवम्॥ ८४॥
पश्यन्ननुदिनं स्वप्ने राममेवानुपश्यति।
क्रोधोऽपि रावणस्याशु गुरुबोधाधिकोऽभवत्॥ ८५॥

मूलम्

शृणुतात्र सुरा यूयं धर्मतत्त्वविचक्षणाः।
रावणो राघवद्वेषादनिशं हृदि भावयन्॥ ८३॥
भृत्यैः सह सदा रामचरितं द्वेषसंयुतः।
श्रुत्वा रामात् स्वनिधनं भयात् सर्वत्र राघवम्॥ ८४॥
पश्यन्ननुदिनं स्वप्ने राममेवानुपश्यति।
क्रोधोऽपि रावणस्याशु गुरुबोधाधिकोऽभवत्॥ ८५॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘हे देवगण! तुमलोग धर्मके तत्त्वको भली प्रकार जाननेवाले हो, अतः (इस विषयमें मेरा मत) सुनो। रघुनाथजीसे द्वेष रहनेके कारण रावण अहर्निश अपने सेवकोंसहित द्वेषपूर्वक हृदयमें सदा श्रीरामचन्द्रजीके चरित्रकी ही भावना रखता था; तथा रामके हाथसे अपना वध सुनकर सर्वत्र रामहीको देखता हुआ स्वप्नमें भी उन्हींको देखता था। इस प्रकार रावणका क्रोध भी उसके लिये गुरुके उपदेशसे कहीं अधिक उपयोगी हुआ॥ ८३—८५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामेण निहतश्चान्ते निर्धूताशेषकल्मषः।
रामसायुज्यमेवाप रावणो मुक्तबन्धनः॥ ८६॥

मूलम्

रामेण निहतश्चान्ते निर्धूताशेषकल्मषः।
रामसायुज्यमेवाप रावणो मुक्तबन्धनः॥ ८६॥

अनुवाद (हिन्दी)

अन्तमें स्वयं भगवान् रामके हाथसे मारे जानेके कारण उसके समस्त पाप धुल गये थे। अतः बन्धनहीन हो जानेसे उसने राममें सायुज्य मोक्ष प्राप्त किया॥ ८६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पापिष्ठो वा दुरात्मा परधनपर-
दारेषु सक्तो यदि स्या-
न्नित्यं स्नेहाद्भयाद्वा रघुकुलतिलकं
भावयन्सम्परेतः।
भूत्वा शुद्धान्तरङ्गो भवशतजनिता-
नेकदोषैर्विमुक्तः
सद्यो रामस्य विष्णोः सुरवरविनुतं
याति वैकुण्ठमाद्यम्॥ ८७॥

मूलम्

पापिष्ठो वा दुरात्मा परधनपर-
दारेषु सक्तो यदि स्या-
न्नित्यं स्नेहाद्भयाद्वा रघुकुलतिलकं
भावयन्सम्परेतः।
भूत्वा शुद्धान्तरङ्गो भवशतजनिता-
नेकदोषैर्विमुक्तः
सद्यो रामस्य विष्णोः सुरवरविनुतं
याति वैकुण्ठमाद्यम्॥ ८७॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि कोई पुरुष (पहलेका) महापापी, दुराचारी तथा परधन और परस्त्रीमें आसक्त भी हो तथापि यदि नित्यप्रति प्रेमसे अथवा भयसे रघुकुलतिलक भगवान् रामका चिन्तन करता हुआ प्राणत्याग करता है तो वह शुद्ध-चित्त होकर सैकड़ों जन्मके उपार्जित नाना दुःखोंसे छूटकर शीघ्र ही विष्णुस्वरूप भगवान् रामके देवेन्द्रवन्दित आदिस्थान वैकुण्ठलोकको चला जाता है॥ ८७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हत्वा युद्धे दशास्यं त्रिभुवनविषमं
वामहस्तेन चापं
भूमौ विष्टभ्य तिष्ठन्नितरकरधृतं
भ्रामयन् बाणमेकम्।
आरक्तोपान्तनेत्रः शरदलितवपुः
सूर्यकोटिप्रकाशो
वीरश्रीबन्धुराङ्गस्त्रिदशपतिनुतः
पातु मां वीररामः॥ ८८॥

मूलम्

हत्वा युद्धे दशास्यं त्रिभुवनविषमं
वामहस्तेन चापं
भूमौ विष्टभ्य तिष्ठन्नितरकरधृतं
भ्रामयन् बाणमेकम्।
आरक्तोपान्तनेत्रः शरदलितवपुः
सूर्यकोटिप्रकाशो
वीरश्रीबन्धुराङ्गस्त्रिदशपतिनुतः
पातु मां वीररामः॥ ८८॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो त्रिलोकीके कण्टकस्वरूप रावणको युद्धमें मारकर अपने बायें हाथसे धनुषको पृथिवीपर टेके हुए खड़े हैं तथा दूसरे हाथमें एक बाण लेकर उसे घुमा रहे हैं, जिनके नेत्रोंके उपान्तभाग कुछ लाल हो रहे हैं, बाणोंसे छिन्न-भिन्न हुआ शरीर करोड़ों सूर्योंके समान प्रकाशित हो रहा है और उन्नत देह वीरश्रीसे सुशोभित है, वे देवराज इन्द्रद्वारा वन्दित वीरवर राम मेरी रक्षा करें॥ ८८॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे युद्धकाण्डे एकादशः सर्गः॥ ११॥