१०

[दशम सर्ग]

भागसूचना

रावणका यज्ञ-विध्वंस तथा उसका मन्दोदरीको समझाना

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहादेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स विचार्य सभामध्ये
राक्षसैः सह मन्त्रिभिः।
निर्ययौ येऽवशिष्टास् तै
राक्षसैः सह राघवम्॥ १॥
शलभः शलभैर्युक्तः
प्रज्वलन्तम् इवानलम्।
ततो रामेण निहताः
सर्वे ते राक्षसा युधि॥ २॥

मूलम्

स विचार्य सभामध्ये राक्षसैः सह मन्त्रिभिः।
निर्ययौ येऽवशिष्टास्तै राक्षसैः सह राघवम्॥ १॥
शलभः शलभैर्युक्तः प्रज्वलन्तमिवानलम्।
ततो रामेण निहताः सर्वे ते राक्षसा युधि॥ २॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहादेवजी बोले—हे पार्वति! फिर रावण सभामें अपने राक्षस-मन्त्रियोंके साथ विचार कर पतंग जिस प्रकार अन्यान्य पतंगोंके साथ प्रज्वलित अग्निपर गिरता है, उसी प्रकार बचे-खुचे राक्षसोंको लेकर रघुनाथजीके पास चला; किन्तु श्रीरामचन्द्रजीने उन समस्त राक्षसोंको युद्धमें मार डाला॥ १-२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वयं रामेण निहतस्
तीक्ष्णबाणेन वक्षसि।
व्यथितस् त्वरितं लङ्कां
प्रविवेश दशाननः॥ ३॥

मूलम्

स्वयं रामेण निहतस्तीक्ष्णबाणेन वक्षसि।
व्यथितस्त्वरितं लङ्कां प्रविवेश दशाननः॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

और स्वयं रावण भी हृदयमें भगवान् रामका तीक्ष्ण बाण लगनेसे व्याकुल हो तुरंत लंकामें लौट आया॥ ३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्वा रामस्य बहुशः
पौरुषं चाप्यमानुषम्।
रावणो मारुतेश् चैव
शीघ्रं शुक्रान्तिकं ययौ॥ ४॥

मूलम्

दृष्ट्वा रामस्य बहुशः पौरुषं चाप्यमानुषम्।
रावणो मारुतेश्चैव शीघ्रं शुक्रान्तिकं ययौ॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् राम और हनुमान् जी के बहुत-से अतिमानुष पौरुष देखकर रावण अति शीघ्रतासे शुक्राचार्यजीके पास गया॥ ४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नमस्कृत्य दशग्रीवः
शुक्रं प्राञ्जलिरब्रवीत्।
भगवन् राघवेणैवं
लङ्का राक्षस-यूथ-पैः॥ ५॥
विनाशिता महादैत्या
निहताः पुत्रबान्धवाः।
कथं मे दुःख-सन्दोहस्
त्वयि तिष्ठति सद्‍गुरौ॥ ६॥

मूलम्

नमस्कृत्य दशग्रीवः शुक्रं प्राञ्जलिरब्रवीत्।
भगवन् राघवेणैवं लङ्का राक्षसयूथपैः॥ ५॥
विनाशिता महादैत्या निहताः पुत्रबान्धवाः।
कथं मे दुःखसन्दोहस्त्वयि तिष्ठति सद्‍गुरौ॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

और उन्हें नमस्कार कर वह हाथ जोड़कर कहने लगा—‘‘भगवन्! रामने समस्त राक्षस-यूथपोंके सहित लंकापुरी नष्ट कर दी और जितने बड़े-बड़े दैत्य और मेरे बन्धु-बान्धव थे वे सभी मार डाले। आप-जैसे सद्‍गुरुके रहते हमें यह महान् दुःख क्यों देखना पड़ा?’’॥ ५-६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति विज्ञापितो दैत्य-
गुरुः प्राह दशाननम्।
होमं कुरु प्रयत्नेन
रहसि त्वं दशानन॥ ७॥

मूलम्

इति विज्ञापितो दैत्यगुरुः प्राह दशाननम्।
होमं कुरु प्रयत्नेन रहसि त्वं दशानन॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

रावणके इस प्रकार प्रार्थना करनेपर दैत्यगुरु शुक्राचार्यजीने उससे कहा—‘‘हे दशानन! तुम जैसे हो सके वैसे किसी एकान्त देशमें हवन करो॥ ७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि विघ्नो न चेद्धोमे
तर्हि होमानलोत्थितः॥ ८॥
महान् रथश् च वाहाश् च
चाप-तूणीरसायकाः।
सम्भविष्यन्ति तैर् युक्तस्
त्वम् अजेयो भविष्यसि॥ ९॥

मूलम्

यदि विघ्नो न चेद्धोमे तर्हि होमानलोत्थितः॥ ८॥
महान् रथश्च वाहाश्च चापतूणीरसायकाः।
सम्भविष्यन्ति तैर्युक्तस्त्वमजेयो भविष्यसि॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि तुम्हारे हवनमें कोई विघ्न न हुआ तो उस होमाग्निसे एक बहुत बड़ा रथ, घोड़े, धनुष, तरकश और बाण उत्पन्न होंगे। उन्हें पाकर तुम अजेय हो जाओगे। मेरे दिये हुए मन्त्रोंको ग्रहण करो और इनसे तुरंत जाकर हवन करो’’॥ ८-९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गृहाण मन्त्रान् मद्दत्तान्
गच्छ होमं कुरु द्रुतम्।
इत्युक्तस्त्वरितं गत्वा
रावणो राक्षसाधिपः॥ १०॥
गुहां पातालसदृशीं
मन्दिरे स्वे चकार ह।
लङ्का-द्वार-कपाटादि
बद्‍ध्वा सर्वत्र यत्नतः॥ ११॥

मूलम्

गृहाण मन्त्रान् मद्दत्तान् गच्छ होमं कुरु द्रुतम्।
इत्युक्तस्त्वरितं गत्वा रावणो राक्षसाधिपः॥ १०॥
गुहां पातालसदृशीं मन्दिरे स्वे चकार ह।
लङ्काद्वारकपाटादि बद्‍ध्वा सर्वत्र यत्नतः॥ ११॥

अनुवाद (हिन्दी)

शुक्राचार्यजीके इस प्रकार कहनेपर राक्षसराज रावणने तुरंत ही जाकर अपने महलमें एक पातालके समान गम्भीर गुहा तैयार करायी और बड़ी सावधानीसे लंकाके सब द्वारोंके फाटक आदि बंद करा दिये॥ १०-११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

होमद्रव्याणि सम्पाद्य
यान्य् उक्तान्य् आभिचारिके।
गुहां प्रविश्य चैकान्ते
मौनी होमं प्रचक्रमे॥ १२॥

मूलम्

होमद्रव्याणि सम्पाद्य यान्युक्तान्याभिचारिके।
गुहां प्रविश्य चैकान्ते मौनी होमं प्रचक्रमे॥ १२॥

अनुवाद (हिन्दी)

तथा शास्त्रोंमें अभिचार कर्मोंकी जो-जो हवन-सामग्रियाँ बतायी गयी हैं वे सब एकत्रित कीं और गुहामें घुसकर एकान्तमें मौनावलम्बनपूर्वक होम करने लगा॥ १२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्थितं धूममालोक्य
महान्तं रावणानुजः।
रामाय दर्शयामास
होमधूमं भयाकुलः॥ १३॥

मूलम्

उत्थितं धूममालोक्य महान्तं रावणानुजः।
रामाय दर्शयामास होमधूमं भयाकुलः॥ १३॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब रावणके छोटे भाई विभीषणने बड़ा भारी धुआँ उठते देख अति भयभीत हो उसे श्रीरामचन्द्रजीको दिखाया॥ १३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पश्य राम दशग्रीवो
होमं कर्तुं समारभत्।
यदि होमः समाप्तः स्यात्
तद् आजेयो भविष्यति॥ १४॥

मूलम्

पश्य राम दशग्रीवो होमं कर्तुं समारभत्।
यदि होमः समाप्तः स्यात्तदाजेयो भविष्यति॥ १४॥

अनुवाद (हिन्दी)

(और कहा—) ‘‘हे राम! देखिये, दशशीशने हवन करना आरम्भ किया है; यदि यह हवन (निर्विघ्न) समाप्त हो गया तो वह अजेय हो जायगा॥ १४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतो विघ्नाय होमस्य
प्रेषयाशु हरीश्वरान्।
तथेति रामः सुग्रीव-
सम्मतेनाङ्गदं कपिम्॥ १५॥
हनूमत्-प्रमुखान् वीरान्
आदिदेश महाबलान्।
प्राकारं लङ्घयित्वा ते
गत्वा रावण-मन्दिरम्॥ १६॥

मूलम्

अतो विघ्नाय होमस्य प्रेषयाशु हरीश्वरान्।
तथेति रामः सुग्रीवसम्मतेनाङ्गदं कपिम्॥ १५॥
हनूमत्प्रमुखान् वीरानादिदेश महाबलान्।
प्राकारं लङ्घयित्वा ते गत्वा रावणमन्दिरम्॥ १६॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः इसमें विघ्न डालनेके लिये शीघ्र ही वानर-सेनापतियोंको भेजिये।’’ तब रघुनाथजीने ‘अच्छा’ कहकर सुग्रीवकी सम्मतिसे कपिवर अंगद और हनुमान् आदि महाबलवान् वानर-वीरोंको आज्ञा दी। वे सब नगरके परकोटेको लाँघकर रावणके महलपर पहुँचे॥ १५-१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दशकोट्यः प्लवङ्गानां
गत्वा मन्दिररक्षकान्।
चूर्णयामासुरश्वांश्च
गजांश्च न्यहनन् क्षणात्॥ १७॥

मूलम्

दशकोट्यः प्लवङ्गानां गत्वा मन्दिररक्षकान्।
चूर्णयामासुरश्वांश्च गजांश्च न्यहनन् क्षणात्॥ १७॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन दस करोड़ वानरोंने वहाँ पहुँचकर महलके द्वारपालोंको चूर्ण कर डाला और एक क्षणमें ही बहुत-से घोड़ों तथा हाथियोंका संहार कर दिया॥ १७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततश्च सरमा नाम
प्रभाते हस्तसंज्ञया।
विभीषणस्य भार्या सा
होमस्थानम् असूचयत्॥ १८॥

मूलम्

ततश्च सरमा नाम प्रभाते हस्तसंज्ञया।
विभीषणस्य भार्या सा होमस्थानमसूचयत्॥ १८॥

अनुवाद (हिन्दी)

(इस प्रकार लंकामें रातभर बड़ा भारी कोलाहल मचा रहा।) प्रातःकाल होते ही विभीषणकी भार्या सरमाने हाथके संकेतसे होमस्थान बतला दिया॥ १८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुहापिधानपाषाणमङ्गदः पादघट्टनैः।
चूर्णयित्वा महासत्त्वः प्रविवेश महागुहाम्॥ १९॥

मूलम्

गुहापिधानपाषाणमङ्गदः पादघट्टनैः।
चूर्णयित्वा महासत्त्वः प्रविवेश महागुहाम्॥ १९॥

अनुवाद (हिन्दी)

गुहाको ढँकनेके लिये उसके मुखपर रखे हुए पत्थरको महापराक्रमी अंगद पैरकी ठोकरसे चूर-चूरकर उस महाकन्दरामें घुस गये॥ १९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्वा दशाननं तत्र मीलिताक्षं दृढासनम्।
ततोऽङ्गदाज्ञया सर्वे वानरा विविशुर्द्रुतम्॥ २०॥

मूलम्

दृष्ट्वा दशाननं तत्र मीलिताक्षं दृढासनम्।
ततोऽङ्गदाज्ञया सर्वे वानरा विविशुर्द्रुतम्॥ २०॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ उन्होंने रावणको नेत्र मूँदे, दृढ़ आसन लगाये बैठे देखा। तदनन्तर अंगदजीकी आज्ञासे समस्त वानरगण तुरंत उस गुहामें घुस गये॥ २०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र कोलाहलं चक्रुस्ताडयन्तश्च सेवकान्।
सम्भारांश्चिक्षिपुस्तस्य होमकुण्डे समन्ततः॥ २१॥

मूलम्

तत्र कोलाहलं चक्रुस्ताडयन्तश्च सेवकान्।
सम्भारांश्चिक्षिपुस्तस्य होमकुण्डे समन्ततः॥ २१॥

अनुवाद (हिन्दी)

गुहामें घुसकर वे सेवकोंको पीटने और बड़ा भारी कोलाहल करने लगे तथा जहाँ-तहाँ रखी हुई यज्ञ-सामग्रीको उन्होंने हवनकुण्डमें डाल दिया॥ २१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्रुवमाच्छिद्य हस्ताच्च रावणस्य बलाद्‍रुषा।
तेनैव सञ्जघानाशु हनूमान् प्लवगाग्रणीः॥ २२॥

मूलम्

स्रुवमाच्छिद्य हस्ताच्च रावणस्य बलाद्‍रुषा।
तेनैव सञ्जघानाशु हनूमान् प्लवगाग्रणीः॥ २२॥

अनुवाद (हिन्दी)

वानराग्रणी हनुमान् जी ने अति रोषपूर्वक बलात् रावणके हाथसे स्रुवा छीनकर उसीसे उसपर आघात किया॥ २२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

घ्नन्ति दन्तैश्च काष्ठैश्च वानरास्तमितस्ततः।
न जहौ रावणो ध्यानं हतोऽपि विजिगीषया॥ २३॥

मूलम्

घ्नन्ति दन्तैश्च काष्ठैश्च वानरास्तमितस्ततः।
न जहौ रावणो ध्यानं हतोऽपि विजिगीषया॥ २३॥

अनुवाद (हिन्दी)

वानरगण रावणपर इधर-उधरसे दाँतों और लकड़ियोंसे प्रहार कर रहे थे; किन्तु उसने विजयकी कामनासे इस प्रकार आहत होनेपर भी अपना ध्यान नहीं छोड़ा॥ २३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रविश्यान्तःपुरे वेश्मन्यङ्गदो वेगवत्तरः।
समानयत्केशबन्धे धृत्वा मन्दोदरीं शुभाम्॥ २४॥

मूलम्

प्रविश्यान्तःपुरे वेश्मन्यङ्गदो वेगवत्तरः।
समानयत्केशबन्धे धृत्वा मन्दोदरीं शुभाम्॥ २४॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब अत्यन्त वेगवान् अंगदजी अन्तःपुरमें जाकर तुरंत ही शुभलक्षणा मन्दोदरीको चोटी पकड़कर ले आये॥ २४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रावणस्यैव पुरतो विलपन्तीमनाथवत्।
विददाराङ्गदस्तस्याः कञ्चुकं रत्नभूषितम्॥ २५॥

मूलम्

रावणस्यैव पुरतो विलपन्तीमनाथवत्।
विददाराङ्गदस्तस्याः कञ्चुकं रत्नभूषितम्॥ २५॥

अनुवाद (हिन्दी)

और रावणके सामने ही उन्होंने अनाथके समान विलाप करती हुई मन्दोदरीकी रत्नजटित कंचुकी (चोली) फाड़ डाली॥ २५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुक्ता विमुक्ताः पतिताः समन्ताद्‍रत्नसञ्चयैः।
श्रोणिसूत्रं निपतितं त्रुटितं रत्नचित्रितम्॥ २६॥

मूलम्

मुक्ता विमुक्ताः पतिताः समन्ताद्‍रत्नसञ्चयैः।
श्रोणिसूत्रं निपतितं त्रुटितं रत्नचित्रितम्॥ २६॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके मोती टूट-टूटकर रत्नसमूहके सहित सब ओर बिखर गये, (इसी प्रकार) मन्दोदरीकी रत्नजटित करधनी भी टूटकर पृथ्वीपर गिर पड़ी॥ २६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कटिप्रदेशाद्विस्रस्ता नीवी तस्यैव पश्यतः।
भूषणानि च सर्वाणि पतितानि समन्ततः॥ २७॥

मूलम्

कटिप्रदेशाद्विस्रस्ता नीवी तस्यैव पश्यतः।
भूषणानि च सर्वाणि पतितानि समन्ततः॥ २७॥

अनुवाद (हिन्दी)

रावणके देखते-देखते ही उसके अधोवस्त्रका बन्धन ढीला पड़कर कटि-प्रदेशसे खिसक गया और समस्त आभूषण जहाँ-तहाँ गिर गये॥ २७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवगन्धर्वकन्याश्च नीता हृष्टैः प्लवङ्गमैः।
मन्दोदरी रुरोदाथ रावणस्याग्रतो भृशम्॥ २८॥

मूलम्

देवगन्धर्वकन्याश्च नीता हृष्टैः प्लवङ्गमैः।
मन्दोदरी रुरोदाथ रावणस्याग्रतो भृशम्॥ २८॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसे ही अन्यान्य वानरगण भी कुतूहलवश देव और गन्धर्व आदिकी कन्याओंको (जो रावणकी पत्नियाँ थीं) पकड़ लाये। तब मन्दोदरी रावणके सामने अत्यन्त विलाप करने लगी॥ २८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्रोशन्ती करुणं दीना जगाद दशकन्धरम्।
निर्लज्जोऽसि परैरेवं केशपाशे विकृष्यते॥ २९॥
भार्या तवैव पुरतः किं जुहोषि न लज्जसे।
हन्यते पश्यतो यस्य भार्या पापैश्च शत्रुभिः॥ ३०॥
मर्तव्यं तेन तत्रैव जीवितान् मरणं वरम्।
हा मेघनाद ते माता क्लिश्यते बत वानरैः॥ ३१॥

मूलम्

क्रोशन्ती करुणं दीना जगाद दशकन्धरम्।
निर्लज्जोऽसि परैरेवं केशपाशे विकृष्यते॥ २९॥
भार्या तवैव पुरतः किं जुहोषि न लज्जसे।
हन्यते पश्यतो यस्य भार्या पापैश्च शत्रुभिः॥ ३०॥
मर्तव्यं तेन तत्रैव जीवितान् मरणं वरम्।
हा मेघनाद ते माता क्लिश्यते बत वानरैः॥ ३१॥

अनुवाद (हिन्दी)

और करुणावश अति दीन होकर रावणसे कहने लगी, ‘‘अहो! तुम बड़े निर्लज्ज हो। तुम्हारे सामने ही शत्रुगण तुम्हारी भार्याको चोटी पकड़कर खींच रहे हैं और फिर भी तुम हवन कर रहे हो! क्या तुम्हें लज्जा नहीं आती? जिसकी भार्याको उसीके सामने पापी शत्रुगण मारते हों उसे तो वहीं मर जाना चाहिये। उसके जीनेसे तो मरना ही अच्छा है। हा मेघनाद! आज तेरी माता वानरोंके हाथोंमें पड़कर क्लेश पा रही है?॥ २९—३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वयि जीवति मे दुःखमीदृशं च कथं भवेत्।
भार्या लज्जा च सन्त्यक्ता भर्त्रा मे जीविताशया॥ ३२॥

मूलम्

त्वयि जीवति मे दुःखमीदृशं च कथं भवेत्।
भार्या लज्जा च सन्त्यक्ता भर्त्रा मे जीविताशया॥ ३२॥

अनुवाद (हिन्दी)

बेटा! तेरे जीते रहनेपर मुझे यह दुःख क्यों देखना पड़ता? मेरे पतिने तो अपना जीवन बचानेके लिये अपनी स्त्री और लज्जासे भी मुँह मोड़ लिया है!’’॥ ३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वा तद्देवितं राजा मन्दोदर्या दशाननः।
उत्तस्थौ खड्गमादाय त्यज देवीमिति ब्रुवन्॥ ३३॥

मूलम्

श्रुत्वा तद्देवितं राजा मन्दोदर्या दशाननः।
उत्तस्थौ खड्गमादाय त्यज देवीमिति ब्रुवन्॥ ३३॥

अनुवाद (हिन्दी)

मन्दोदरीका यह विलाप सुनकर राक्षसराज रावण हाथमें खड्ग लेकर ‘अरे, देवीको छोड़ो’ यों कहता हुआ उठा॥ ३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जघानाङ्गदमव्यग्रः कटिदेशे दशाननः।
तदोत्सृज्य ययुः सर्वे विध्वंस्य हवनं महत्॥ ३४॥

मूलम्

जघानाङ्गदमव्यग्रः कटिदेशे दशाननः।
तदोत्सृज्य ययुः सर्वे विध्वंस्य हवनं महत्॥ ३४॥

अनुवाद (हिन्दी)

रावणने उठते ही अंगदजीकी कमरमें प्रहार किया। तब समस्त वानरगण उसका महायज्ञ विध्वंस कर वहाँसे चल दिये॥ ३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामपार्श्वमुपागम्य तस्थुः सर्वे प्रहर्षिताः॥ ३५॥

मूलम्

रामपार्श्वमुपागम्य तस्थुः सर्वे प्रहर्षिताः॥ ३५॥

अनुवाद (हिन्दी)

और सब-के-सब अति प्रसन्न हो रघुनाथजीके पास आ उपस्थित हुए॥ ३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रावणस्तु ततो भार्यामुवाच परिसान्त्वयन्।
दैवाधीनमिदं भद्रे जीवता किं न दृश्यते।
त्यज शोकं विशालाक्षि ज्ञानमालम्ब्य निश्चितम्॥ ३६॥

मूलम्

रावणस्तु ततो भार्यामुवाच परिसान्त्वयन्।
दैवाधीनमिदं भद्रे जीवता किं न दृश्यते।
त्यज शोकं विशालाक्षि ज्ञानमालम्ब्य निश्चितम्॥ ३६॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब रावण अपनी भार्या मन्दोदरीको ढाढ़स बँधाते हुए बोला—‘हे कल्याणि! ये सुख-दुःखादि दैवके अधीन हैं—जीता हुआ प्राणी क्या नहीं देखता? अतः हे विशालनयनि! इस निश्चित ज्ञानका आश्रयकर तुम शोक छोड़ दो॥ ३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अज्ञानप्रभवः शोकः शोको ज्ञानविनाशकृत्।
अज्ञानप्रभवाहन्धीः शरीरादिष्वनात्मसु॥ ३७॥

मूलम्

अज्ञानप्रभवः शोकः शोको ज्ञानविनाशकृत्।
अज्ञानप्रभवाहन्धीः शरीरादिष्वनात्मसु॥ ३७॥

अनुवाद (हिन्दी)

शोक अज्ञानसे होता है और वह ज्ञानको नष्ट कर देता है। शरीरादि अनात्म-पदार्थोंमें अहं-बुद्धि भी अज्ञानसे ही होती है॥ ३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तन्मूलः पुत्रदारादिसम्बन्धः संसृतिस्ततः।
हर्षशोकभयक्रोधलोभमोहस्पृहादयः॥ ३८॥

मूलम्

तन्मूलः पुत्रदारादिसम्बन्धः संसृतिस्ततः।
हर्षशोकभयक्रोधलोभमोहस्पृहादयः॥ ३८॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस मिथ्या अहंकारके कारण ही पुत्र, स्त्री आदिका सम्बन्ध होता है और इन सम्बन्धोंमें आस्था होनेसे ही, जन्म-मरणरूप संसार तथा हर्ष, शोक, भय, क्रोध, लोभ, मोह और स्पृहा आदि होते हैं॥ ३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अज्ञानप्रभवा ह्येते जन्ममृत्युजरादयः।
आत्मा तु केवलं शुद्धो व्यतिरिक्तो ह्यलेपकः॥ ३९॥

मूलम्

अज्ञानप्रभवा ह्येते जन्ममृत्युजरादयः।
आत्मा तु केवलं शुद्धो व्यतिरिक्तो ह्यलेपकः॥ ३९॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये जन्म, मृत्यु और जरा आदि अवस्थाएँ अज्ञानजन्य ही हैं। आत्मा तो एकमात्र, शुद्ध, सबसे पृथक् और असंग है॥ ३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आनन्दरूपो ज्ञानात्मा सर्वभावविवर्जितः।
न संयोगो वियोगो वा विद्यते केनचित्सतः॥ ४०॥

मूलम्

आनन्दरूपो ज्ञानात्मा सर्वभावविवर्जितः।
न संयोगो वियोगो वा विद्यते केनचित्सतः॥ ४०॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह आनन्दस्वरूप, ज्ञानमय और समस्त भावोंसे रहित है। उस सत्यस्वरूपका कभी किसीसे संयोग-वियोग नहीं होता॥ ४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं ज्ञात्वा स्वमात्मानं त्यज शोकमनिन्दिते।
इदानीमेव गच्छामि हत्वा रामं सलक्ष्मणम्॥ ४१॥
आगमिष्यामि नोचेन्मां दारयिष्यति सायकैः।
श्रीरामो वज्रकल्पैश्च ततो गच्छामि तत्पदम्॥ ४२॥

मूलम्

एवं ज्ञात्वा स्वमात्मानं त्यज शोकमनिन्दिते।
इदानीमेव गच्छामि हत्वा रामं सलक्ष्मणम्॥ ४१॥
आगमिष्यामि नोचेन्मां दारयिष्यति सायकैः।
श्रीरामो वज्रकल्पैश्च ततो गच्छामि तत्पदम्॥ ४२॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे अनिन्दिते! अपने आत्माका ऐसा स्वरूप जानकर तुम शोक छोड़ दो; मैं अभी जाता हूँ और या तो लक्ष्मणसहित रामको मारकर ही आऊँगा या श्रीराम ही अपने वज्रसदृश बाणोंसे मुझे छिन्न-भिन्न कर देंगे। तब मैं उनके पदको प्राप्त होऊँगा॥ ४१-४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदा त्वया मे कर्तव्या क्रिया मच्छासनात्प्रिये।
सीतां हत्वा मया सार्धं त्वं प्रवेक्ष्यसि पावकम्॥ ४३॥

मूलम्

तदा त्वया मे कर्तव्या क्रिया मच्छासनात्प्रिये।
सीतां हत्वा मया सार्धं त्वं प्रवेक्ष्यसि पावकम्॥ ४३॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे प्रिये! मेरी आज्ञासे तब तुम मेरे लिये एक काम करना; तुम सीताको मारकर मेरे [शवके] साथ अग्निमें प्रवेश कर जाना’’॥ ४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं श्रुत्वा वचस्तस्य
रावणस्यातिदुःखिता।
उवाच नाथ मे वाक्यं
शृणु सत्यं तथा कुरु॥ ४४॥

मूलम्

एवं श्रुत्वा वचस्तस्य रावणस्यातिदुःखिता।
उवाच नाथ मे वाक्यं शृणु सत्यं तथा कुरु॥ ४४॥

अनुवाद (हिन्दी)

रावणके ये वचन सुनकर मन्दोदरीने अति दुःखित होकर कहा—‘‘प्रभो! मैं आपसे ठीक-ठीक बात कहती हूँ, आप उसे सुनकर वैसा ही कीजिये॥ ४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शक्यो न राघवो जेतुं
त्वया चान्यैः कदाचन।
रामो देववरः साक्षात्
प्रधानपुरुषेश्वरः॥ ४५॥

मूलम्

शक्यो न राघवो जेतुं त्वया चान्यैः कदाचन।
रामो देववरः साक्षात्प्रधानपुरुषेश्वरः॥ ४५॥

अनुवाद (हिन्दी)

राम तुमसे अथवा और भी किसीसे कभी नहीं जीते जा सकते। देवाधिदेव भगवान् राम साक्षात् प्रकृति और पुरुषके नियामक हैं॥ ४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मत्स्यो भूत्वा पुरा कल्पे
मनुं वैवस्वतं प्रभुः।
ररक्ष सकलापद्‍भ्यो
राघवो भक्तवत्सलः॥ ४६॥

मूलम्

मत्स्यो भूत्वा पुरा कल्पे मनुं वैवस्वतं प्रभुः।
ररक्ष सकलापद्‍भ्यो राघवो भक्तवत्सलः॥ ४६॥

अनुवाद (हिन्दी)

भक्तवत्सल रघुनाथजीने ही कल्पके आरम्भमें मत्स्यरूप होकर वैवस्वतमनुकी समस्त आपत्तियोंसे रक्षा की थी॥ ४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामः कूर्मोऽभवत्पूर्वं
लक्षयोजनविस्तृतः।
समुद्रमथने पृष्ठे
दधार कनकाचलम्॥ ४७॥

मूलम्

रामः कूर्मोऽभवत्पूर्वं लक्षयोजनविस्तृतः।
समुद्रमथने पृष्ठे दधार कनकाचलम्॥ ४७॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् राम ही पूर्वकालमें एक लक्ष योजन विस्तारवाले कच्छप हुए थे और समुद्र-मन्थनके समय इन्हींने अपनी पीठपर सुमेरु पर्वतको धारण किया था॥ ४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हिरण्याक्षोऽतिदुर्वृत्तो
हतोऽनेन महात्मना।
क्रोडरूपेण वपुषा
क्षोणीमुद्धरता क्वचित्॥ ४८॥

मूलम्

हिरण्याक्षोऽतिदुर्वृत्तो हतोऽनेन महात्मना।
क्रोडरूपेण वपुषा क्षोणीमुद्धरता क्वचित्॥ ४८॥

अनुवाद (हिन्दी)

किसी समय वराहरूप धारण कर पृथ्वीका उद्धार करते समय इन्हीं महात्माने महादुराचारी हिरण्याक्ष दैत्यको मारा था॥ ४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिलोककण्टकं दैत्यं
हिरण्यकशिपुं पुरा।
हतवान् नारसिंहेन
वपुषा रघुनन्दनः॥ ४९॥

मूलम्

त्रिलोककण्टकं दैत्यं हिरण्यकशिपुं पुरा।
हतवान् नारसिंहेन वपुषा रघुनन्दनः॥ ४९॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन रघुनन्दनने ही नृसिंह-शरीरसे त्रिलोकीके कण्टकरूप हिरण्यकशिपु दैत्यको मारा था॥ ४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विक्रमैस्त्रिभिरेवासौ
बलिं बद्‍ध्वा जगत्त्रयम्।
आक्रम्यादात् सुरेन्द्राय
भृत्याय रघुसत्तमः॥ ५०॥

मूलम्

विक्रमैस्त्रिभिरेवासौ बलिं बद्‍ध्वा जगत्त्रयम्।
आक्रम्यादात्सुरेन्द्राय भृत्याय रघुसत्तमः॥ ५०॥

अनुवाद (हिन्दी)

और इन्हीं रघुश्रेष्ठने (वामन-अवतारमें) बलिको बाँधकर सम्पूर्ण त्रिलोकीको तीन ही पगोंसे मापकर अपने सेवक इन्द्रको दे दिया था॥ ५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राक्षसाः क्षत्रियाकारा
जाता भूमेर्भरावहाः।
तान्हत्वा बहुशो रामो
भुवं जित्वा ह्यदान्मुनेः॥ ५१॥

मूलम्

राक्षसाः क्षत्रियाकारा जाता भूमेर्भरावहाः।
तान्हत्वा बहुशो रामो भुवं जित्वा ह्यदान्मुनेः॥ ५१॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस समय राक्षसगण क्षत्रियरूपसे उत्पन्न होकर पृथ्वीके भाररूप हुए तब इन्हींने परशुरामरूपसे उन्हें कई बार संग्राममें मारा और पृथ्वीको जीतकर उसे कश्यपमुनिको दे दिया॥ ५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स एव साम्प्रतं
जातो रघुवंशे परात्परः।
भवदर्थे रघुश्रेष्ठो
मानुषत्वम् उपागतः॥ ५२॥

मूलम्

स एव साम्प्रतं जातो रघुवंशे परात्परः।
भवदर्थे रघुश्रेष्ठो मानुषत्वमुपागतः॥ ५२॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस समय वे ही परात्पर प्रभु रघुवंशमें रामरूपसे अवतीर्ण होकर आपके लिये मनुष्यरूप हुए हैं॥ ५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य भार्या किमर्थं वा
हृता सीता वनाद्‍बलात्।
मम पुत्रविनाशार्थं
स्वस्यापि निधनाय च॥ ५३॥

मूलम्

तस्य भार्या किमर्थं वा हृता सीता वनाद्‍बलात्।
मम पुत्रविनाशार्थं स्वस्यापि निधनाय च॥ ५३॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपने उनकी स्त्री सीताको मेरे पुत्रके नाशके लिये और अपनी भी मौत बुलानेके लिये भला, बलात् तपोवनसे क्यों चुरा लिया?॥ ५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इतः परं वा वैदेहीं
प्रेषयस्व रघूत्तमे।
विभीषणाय राज्यं तु
दत्त्वा गच्छामहे वनम्॥ ५४॥

मूलम्

इतः परं वा वैदेहीं प्रेषयस्व रघूत्तमे।
विभीषणाय राज्यं तु दत्त्वा गच्छामहे वनम्॥ ५४॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप अब भी जानकीको रघुनाथजीके पास भेज दीजिये; फिर विभीषणको राज्य देकर हम वनको चलेंगे’’॥ ५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन्दोदरीवचः श्रुत्वा रावणो वाक्यमब्रवीत्।
कथं भद्रे रणे पुत्रान् भ्रातॄ‍न् राक्षसमण्डलम्॥ ५५॥
घातयित्वा राघवेण जीवामि वनगोचरः।
रामेण सह योत्स्यामि रामबाणैः सुशीघ्रगैः॥ ५६॥
विदार्यमाणो यास्यामि तद्विष्णोः परमं पदम्।
जानामि राघवं विष्णुं लक्ष्मीं जानामि जानकीम्।
ज्ञात्वैव जानकी सीता मयानीता वनाद्‍बलात् ॥ ५७॥
रामेण निधनं प्राप्य यास्यामीति परं पदम्।
विमुच्य त्वां तु संसाराद्‍गमिष्यामि सह प्रिये॥ ५८॥

मूलम्

मन्दोदरीवचः श्रुत्वा रावणो वाक्यमब्रवीत्।
कथं भद्रे रणे पुत्रान् भ्रातॄ‍न् राक्षसमण्डलम्॥ ५५॥
घातयित्वा राघवेण जीवामि वनगोचरः।
रामेण सह योत्स्यामि रामबाणैः सुशीघ्रगैः॥ ५६॥
विदार्यमाणो यास्यामि तद्विष्णोः परमं पदम्।
जानामि राघवं विष्णुं लक्ष्मीं जानामि जानकीम्।
ज्ञात्वैव जानकी सीता मयानीता वनाद्‍बलात् ॥ ५७॥
रामेण निधनं प्राप्य यास्यामीति परं पदम्।
विमुच्य त्वां तु संसाराद्‍गमिष्यामि सह प्रिये॥ ५८॥

अनुवाद (हिन्दी)

मन्दोदरीके वचन सुनकर रावण बोला—‘‘अयि भद्रे! युद्धमें रघुनाथजीसे अपने पुत्र, भ्राता और राक्षस-समूहका नाश कराकर भला मैं वनवासी होकर कैसे जीवन काट सकता हूँ? अब तो मैं भी रामके साथ युद्ध करूँगा और उनके शीघ्रगामी बाणोंसे विद्ध होकर उन विष्णुभगवान् के परमधामको जाऊँगा। मैं रामको साक्षात् विष्णु और जानकीको भगवती लक्ष्मी जानता हूँ और यह जानकर ही कि ‘रामके हाथसे मरकर उनका परमपद प्राप्त करूँगा’ मैं जनकनन्दिनी सीताको बलात् तपोवनसे ले आया था। हे प्रिये! अब मैं तुम्हें छोड़कर अपने अन्यान्य राक्षस-वीरोंके साथ संसारसे कूच करूँगा॥ ५५—५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परानन्दमयी शुद्धा सेव्यते या मुमुक्षुभिः।
तां गतिं तु गमिष्यामि हतो रामेण संयुगे॥ ५९॥

मूलम्

परानन्दमयी शुद्धा सेव्यते या मुमुक्षुभिः।
तां गतिं तु गमिष्यामि हतो रामेण संयुगे॥ ५९॥

अनुवाद (हिन्दी)

और मुमुक्षुगण जिस परमानन्दमयी विशुद्ध गतिका सेवन करते हैं, संग्राममें भगवान् रामके हाथसे मरकर मैं उसी गतिको प्राप्त करूँगा॥ ५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रक्षाल्य कल्मषाणीह मुक्तिं यास्यामि दुर्लभाम्॥ ६०॥

मूलम्

प्रक्षाल्य कल्मषाणीह मुक्तिं यास्यामि दुर्लभाम्॥ ६०॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार अपने समस्त पाप-पुंजका प्रक्षालन कर मैं दुर्लभ मोक्ष-पद प्राप्त करूँगा॥ ६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्लेशादिपञ्चकतरङ्गयुतं भ्रमाढ्यं
दारात्मजाप्तधनबन्धुझषाभियुक्तम्।
और्वानलाभनिजरोषमनङ्गजालं
संसारसागरमतीत्य हरिं व्रजामि॥ ६१॥

मूलम्

क्लेशादिपञ्चकतरङ्गयुतं भ्रमाढ्यं
दारात्मजाप्तधनबन्धुझषाभियुक्तम्।
और्वानलाभनिजरोषमनङ्गजालं
संसारसागरमतीत्य हरिं व्रजामि॥ ६१॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसमें (अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश नामक) पाँच क्लेश ही तरंगें हैं, भ्रम ही भँवरें हैं, स्त्री, पुत्र, स्वजन, विभव और बन्धु आदि मत्स्य हैं, अपना क्रोध ही बड़वानल है तथा जिसके भीतर कामरूपी जाल फैला हुआ है, उस संसार-सागरको पार कर अब मैं श्रीहरिके निकट जाऊँगा’’॥ ६१॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे युद्धकाण्डे दशमः सर्गः॥ १०॥