[नवम सर्ग]
मूलम् (वचनम्)
मेघनाद-वध
श्रीमहादेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
विभीषणवचः श्रुत्वा रामो वाक्यमथाब्रवीत्।
जानामि तस्य रौद्रस्य मायां कृत्स्नां विभीषण॥ १॥
मूलम्
विभीषणवचः श्रुत्वा रामो वाक्यमथाब्रवीत्।
जानामि तस्य रौद्रस्य मायां कृत्स्नां विभीषण॥ १॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमहादेवजी बोले—हे पार्वति! विभीषणके ये वचन सुनकर श्रीरघुनाथजीने कहा—‘‘विभीषण! उस महाभयंकर दैत्यकी मैं सारी माया जानता हूँ॥ १॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स हि ब्रह्मास्त्रविच्छूरो मायावी च महाबलः।
जानामि लक्ष्मणस्यापि स्वरूपं मम सेवनम्॥ २॥
ज्ञात्वैवासमहं तूष्णीं भविष्यत्कार्यगौरवात्।
इत्युक्त्वा लक्ष्मणं प्राह रामो ज्ञानवतां वरः॥ ३॥
मूलम्
स हि ब्रह्मास्त्रविच्छूरो मायावी च महाबलः।
जानामि लक्ष्मणस्यापि स्वरूपं मम सेवनम्॥ २॥
ज्ञात्वैवासमहं तूष्णीं भविष्यत्कार्यगौरवात्।
इत्युक्त्वा लक्ष्मणं प्राह रामो ज्ञानवतां वरः॥ ३॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह ब्रह्मास्त्र-विद्याका जाननेवाला, बड़ा शूरवीर, मायावी और महाबली है तथा लक्ष्मण मेरी जैसी सेवा करते हैं मैं उसका स्वरूप भी जानता हूँ (अर्थात् मुझे यह पता है कि मेरी सेवाके कारण उन्होंने निद्रा और आहार आदिको छोड़ रखा है)। किन्तु इस आगामी कार्यकी कठिनताका विचार करते ही मैंने यह सब जान-बूझकर भी अभीतक कुछ नहीं कहा’’। विभीषणसे इस प्रकार कह ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ भगवान् रामचन्द्र लक्ष्मणजीसे बोले—॥ २-३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गच्छ लक्ष्मण सैन्येन महता जहि रावणिम्।
हनूमत्प्रमुखैः सर्वैर्यूथपैः सह लक्ष्मण॥ ४॥
मूलम्
गच्छ लक्ष्मण सैन्येन महता जहि रावणिम्।
हनूमत्प्रमुखैः सर्वैर्यूथपैः सह लक्ष्मण॥ ४॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘भैया लक्ष्मण! तुम और हनुमान् आदि समस्त यूथपति, बहुत बड़ी सेनाके साथ जाओ और रावणके पुत्र मेघनादको मारो॥ ४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जाम्बवानृक्षराजोऽयं सह सैन्येन संवृतः।
विभीषणश्च सचिवैः सह त्वामभियास्यति॥ ५॥
मूलम्
जाम्बवानृक्षराजोऽयं सह सैन्येन संवृतः।
विभीषणश्च सचिवैः सह त्वामभियास्यति॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपनी सेनाके सहित ऋक्षराज जाम्बवान् और मन्त्रियोंके सहित विभीषण तुम्हारे साथ जायँगे॥ ५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभिज्ञस्तस्य देशस्य जानाति विवराणि सः।
रामस्य वचनं श्रुत्वा लक्ष्मणः सविभीषणः॥ ६॥
जग्राह कार्मुकं श्रेष्ठमन्यद्भीमपराक्रमः।
रामपादाम्बुजं स्पृष्ट्वा हृष्टः सौमित्रिरब्रवीत्॥ ७॥
मूलम्
अभिज्ञस्तस्य देशस्य जानाति विवराणि सः।
रामस्य वचनं श्रुत्वा लक्ष्मणः सविभीषणः॥ ६॥
जग्राह कार्मुकं श्रेष्ठमन्यद्भीमपराक्रमः।
रामपादाम्बुजं स्पृष्ट्वा हृष्टः सौमित्रिरब्रवीत्॥ ७॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये विभीषण उससे परिचित हैं और उसके छिपनेकी समस्त कन्दराओंको जानते हैं (अतः इनसे तुम्हें उसका पता लगानेमें बहुत सहायता मिलेगी)।’’ रामचन्द्रजीके वचन सुनकर महापराक्रमी लक्ष्मणजीने विभीषणको साथ ले अपना एक दूसरा उत्तम धनुष उठाया और अति प्रसन्नतापूर्वक भगवान् रामके चरणकमलका स्पर्श कर कहा—॥ ६-७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अद्य मत्कार्मुकान्मुक्ताः शरा निर्भिद्य रावणिम्।
गमिष्यन्ति हि पातालं स्नातुं भोगवतीजले॥ ८॥
मूलम्
अद्य मत्कार्मुकान्मुक्ताः शरा निर्भिद्य रावणिम्।
गमिष्यन्ति हि पातालं स्नातुं भोगवतीजले॥ ८॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘प्रभो! आज मेरे धनुषसे छूटे हुए बाण रावण-पुत्र इन्द्रजित् के शरीरको भेदकर भोगवती (पाताल-गंगा)-के जलमें स्नान करनेके लिये पाताल-लोकको चले जायँगे’’॥ ८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्त्वा स सौमित्रिः परिक्रम्य प्रणम्य तम्।
इन्द्रजिन्निधनाकाङ्क्षी ययौ त्वरितविक्रमः॥ ९॥
मूलम्
एवमुक्त्वा स सौमित्रिः परिक्रम्य प्रणम्य तम्।
इन्द्रजिन्निधनाकाङ्क्षी ययौ त्वरितविक्रमः॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
रघुनाथजीसे इस प्रकार कह सुमित्रानन्दन लक्ष्मणजीने उनकी परिक्रमा की और इन्द्रजित् को मारनेके लिये बड़ी तेजीसे चले॥ ९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वानरैर्बहुसाहस्रैर्हनूमान् पृष्ठतोऽन्वगात्।
विभीषणश्च सहितो मन्त्रिभिस्त्वरितं ययौ॥ १०॥
मूलम्
वानरैर्बहुसाहस्रैर्हनूमान् पृष्ठतोऽन्वगात्।
विभीषणश्च सहितो मन्त्रिभिस्त्वरितं ययौ॥ १०॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके पीछे हजारों वानरोंके साथ हनुमान् जी और मन्त्रियोंके सहित विभीषणने भी बड़ी शीघ्रतासे कूच किया॥ १०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जाम्बवत्प्रमुखा ऋक्षाः सौमित्रिं त्वरयान्वयुः।
गत्वा निकुम्भिलादेशं लक्ष्मणो वानरैः सह॥ ११॥
अपश्यद्बलसङ्घातं दूराद्राक्षससङ्कुलम्।
धनुरायम्य सौमित्रिर्यत्तोऽभूद्भूरिविक्रमः॥ १२॥
मूलम्
जाम्बवत्प्रमुखा ऋक्षाः सौमित्रिं त्वरयान्वयुः।
गत्वा निकुम्भिलादेशं लक्ष्मणो वानरैः सह॥ ११॥
अपश्यद्बलसङ्घातं दूराद्राक्षससङ्कुलम्।
धनुरायम्य सौमित्रिर्यत्तोऽभूद्भूरिविक्रमः॥ १२॥
अनुवाद (हिन्दी)
तथा जाम्बवान् आदि रीछ भी तुरंत ही श्रीलक्ष्मणजीके साथ चले। जिस समय वानरोंके सहित लक्ष्मणजी निकुम्भिलाके स्थानपर पहुँचे, उन्होंने दूरसे ही वहाँ राक्षसोंकी बड़ी भारी सेना एकत्रित देखी। तब महापराक्रमी लक्ष्मणजी धनुष चढ़ाकर सावधान हो गये॥ ११-१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अङ्गदेन च वीरेण जाम्बवान् राक्षसाधिपः।
तदा विभीषणः प्राह सौमित्रिं पश्य राक्षसान्॥ १३॥
यदेतद्राक्षसानीकं मेघश्यामं विलोक्यते।
अस्यानीकस्य महतो भेदने यत्नवान् भव॥ १४॥
मूलम्
अङ्गदेन च वीरेण जाम्बवान् राक्षसाधिपः।
तदा विभीषणः प्राह सौमित्रिं पश्य राक्षसान्॥ १३॥
यदेतद्राक्षसानीकं मेघश्यामं विलोक्यते।
अस्यानीकस्य महतो भेदने यत्नवान् भव॥ १४॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके साथ ही वीरवर अंगदके सहित जाम्बवान् भी सावधान हो गये। तब राक्षसराज विभीषणजीने लक्ष्मणजीसे कहा—‘‘लक्ष्मणजी! इन राक्षसोंको देखिये। सामने जो मेघके समान श्यामवर्ण राक्षस-सेना दिखायी दे रही है, इस प्रबल अनीकको नष्ट करनेका यत्न कीजिये॥ १३-१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राक्षसेन्द्रसुतोऽप्यस्मिन् भिन्ने दृश्यो भविष्यति।
अभिद्रवाशु यावद्वै नैतत्कर्म समाप्यते॥ १५॥
मूलम्
राक्षसेन्द्रसुतोऽप्यस्मिन् भिन्ने दृश्यो भविष्यति।
अभिद्रवाशु यावद्वै नैतत्कर्म समाप्यते॥ १५॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके नष्ट हो जानेपर राक्षसराज रावणका पुत्र इन्द्रजित् भी दिखायी देने लगेगा। इस कर्मके समाप्त होनेसे पहले ही तुरंत धावा कर दीजिये। हे वीर! इस हिंसापरायण दुरात्मा पापीको आप शीघ्र ही मार डालिये’’॥ १५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जहि वीर दुरात्मानं हिंसापरमधार्मिकम्।
विभीषणवचः श्रुत्वा लक्ष्मणः शुभलक्षणः॥ १६॥
ववर्ष शरवर्षाणि राक्षसेन्द्रसुतं प्रति।
पाषाणैः पर्वताग्रैश्च वृक्षैश्च हरियूथपाः॥ १७॥
निर्जघ्नुः सर्वतो दैत्यांस्तेऽपि वानरयूथपान्।
परश्वधैः शितैर्बाणैरसिभिर्यष्टितोमरैः॥ १८॥
निर्जघ्नुर्वानरानीकं तदा शब्दो महानभूत्।
स सम्प्रहारस्तुमुलः संजज्ञे हरिरक्षसाम्॥ १९॥
मूलम्
जहि वीर दुरात्मानं हिंसापरमधार्मिकम्।
विभीषणवचः श्रुत्वा लक्ष्मणः शुभलक्षणः॥ १६॥
ववर्ष शरवर्षाणि राक्षसेन्द्रसुतं प्रति।
पाषाणैः पर्वताग्रैश्च वृक्षैश्च हरियूथपाः॥ १७॥
निर्जघ्नुः सर्वतो दैत्यांस्तेऽपि वानरयूथपान्।
परश्वधैः शितैर्बाणैरसिभिर्यष्टितोमरैः॥ १८॥
निर्जघ्नुर्वानरानीकं तदा शब्दो महानभूत्।
स सम्प्रहारस्तुमुलः संजज्ञे हरिरक्षसाम्॥ १९॥
अनुवाद (हिन्दी)
विभीषणके वचन सुनकर शुभलक्षण लक्ष्मणने राक्षसराजकुमार मेघनादकी ओर बाण बरसाने आरम्भ किये तथा वानर-यूथपति भी सब ओरसे पत्थर, पर्वत-शिखर और वृक्षादिसे दैत्योंपर प्रहार करने लगे। इसी प्रकार राक्षसोंने भी वानरयूथपतियों और वानर-सेनापर परशु, तीक्ष्ण बाण, खड्ग, यष्टि और तोमरादि शस्त्रोंसे आक्रमण किया। तब वहाँ बड़ा भारी कोलाहल हुआ और राक्षस तथा वानरोंमें बड़ा घमासान युद्ध छिड़ गया॥ १६—१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रजित्स्वबलं सर्वमर्द्यमानं विलोक्य सः।
निकुम्भिलां च होमं च त्यक्त्वा शीघ्रं विनिर्गतः॥ २०॥
मूलम्
इन्द्रजित्स्वबलं सर्वमर्द्यमानं विलोक्य सः।
निकुम्भिलां च होमं च त्यक्त्वा शीघ्रं विनिर्गतः॥ २०॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपनी सेनाको इस प्रकार दलित होते देख इन्द्रजित् निकुम्भिला और होमको छोड़कर बाहर आया॥ २०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रथमारुह्य सधनुः क्रोधेन महतागमत्।
समाह्वयन् स सौमित्रिं युद्धाय रणमूर्धनि॥ २१॥
मूलम्
रथमारुह्य सधनुः क्रोधेन महतागमत्।
समाह्वयन् स सौमित्रिं युद्धाय रणमूर्धनि॥ २१॥
अनुवाद (हिन्दी)
और तुरंत ही रथपर चढ़ अत्यन्त क्रोधसे हाथमें धनुष ले रणभूमिमें सामने आया तथा लक्ष्मणजीको युद्धके लिये ललकारते हुए बोला—॥ २१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सौमित्रे मेघनादोऽहं मया जीवन्न मोक्ष्यसे।
तत्र दृष्ट्वा पितृव्यं स प्राह निष्ठुरभाषणम्॥ २२॥
मूलम्
सौमित्रे मेघनादोऽहं मया जीवन्न मोक्ष्यसे।
तत्र दृष्ट्वा पितृव्यं स प्राह निष्ठुरभाषणम्॥ २२॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘लक्ष्मण! मैं मेघनाद हूँ, अब तुम मुझसे जीवित नहीं बच सकते।’’ फिर वहाँ अपने चाचा विभीषणको देखकर वह कठोर शब्दोंमें कहने लगा—॥ २२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इहैव जातः संवृद्धः साक्षाद् भ्राता पितुर्मम।
यस्त्वं स्वजनमुत्सृज्य परभृत्यत्वमागतः॥ २३॥
मूलम्
इहैव जातः संवृद्धः साक्षाद् भ्राता पितुर्मम।
यस्त्वं स्वजनमुत्सृज्य परभृत्यत्वमागतः॥ २३॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘तुम इस लंकापुरीमें ही उत्पन्न हुए हो और इसीमें रहकर इतने बड़े हुए हो तथा मेरे पिताके सगे भाई हो, किंतु अब तुमने अपने स्वजनोंको छोड़कर शत्रुओंका दासत्व स्वीकार किया है!॥ २३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं द्रुह्यसि पुत्राय पापीयानसि दुर्मतिः।
इत्युक्त्वा लक्ष्मणं दृष्ट्वा हनूमत्पृष्ठतः स्थितम्॥ २४॥
मूलम्
कथं द्रुह्यसि पुत्राय पापीयानसि दुर्मतिः।
इत्युक्त्वा लक्ष्मणं दृष्ट्वा हनूमत्पृष्ठतः स्थितम्॥ २४॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं तुम्हारे पुत्रके समान हूँ, न जाने तुम कैसे मुझसे द्रोह कर रहे हो? अवश्य ही तुम बड़े पापी और दुरात्मा हो।’’ ऐसा कह उसने हनुमान् जी की पीठपर बैठे हुए लक्ष्मणजीकी ओर देखा॥ २४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उद्यदायुधनिस्त्रिंशे रथे महति संस्थितः।
महाप्रमाणमुद्यम्य घोरं विस्फारयन् धनुः॥ २५॥
मूलम्
उद्यदायुधनिस्त्रिंशे रथे महति संस्थितः।
महाप्रमाणमुद्यम्य घोरं विस्फारयन् धनुः॥ २५॥
अनुवाद (हिन्दी)
तथा जिसमें नाना प्रकारके तीक्ष्ण शस्त्र उपस्थित थे उस महान् रथमें बैठे हुए उस दैत्यने एक बड़ा लम्बा धनुष उठाकर उसकी भयंकर टंकार की॥ २५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अद्य वो मामका बाणाः प्राणान् पास्यन्ति वानराः।
ततः शरं दाशरथिः सन्धायामित्रकर्षणः॥ २६॥
ससर्ज राक्षसेन्द्राय क्रुद्धः सर्प इव श्वसन्।
इन्द्रजिद्रक्तनयनो लक्ष्मणं समुदैक्षत॥ २७॥
मूलम्
अद्य वो मामका बाणाः प्राणान् पास्यन्ति वानराः।
ततः शरं दाशरथिः सन्धायामित्रकर्षणः॥ २६॥
ससर्ज राक्षसेन्द्राय क्रुद्धः सर्प इव श्वसन्।
इन्द्रजिद्रक्तनयनो लक्ष्मणं समुदैक्षत॥ २७॥
अनुवाद (हिन्दी)
और बोला—‘‘अरे वानरो! आज मेरे बाण तुम्हारे प्राणोंको पियेंगे।’’ तब क्रोधसे सर्पके समान फुफकारते हुए, शत्रुका दमन करनेवाले दशरथकुमार लक्ष्मणजीने भी अपने धनुषपर एक बाण चढ़ाकर उसे मेघनादपर छोड़ा। इधर इन्द्रजित् ने भी क्रोधसे लाल-लाल नेत्र कर लक्ष्मणजीकी ओर देखा॥ २६-२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शक्राशनिसमस्पर्शैर्लक्ष्मणेनाहतः शरैः।
मुहूर्तमभवन्मूढः पुनः प्रत्याहृतेन्द्रियः॥ २८॥
ददर्शावस्थितं वीरं वीरो दशरथात्मजम्।
सोऽभिचक्राम सौमित्रिं क्रोधसंरक्तलोचनः॥ २९॥
मूलम्
शक्राशनिसमस्पर्शैर्लक्ष्मणेनाहतः शरैः।
मुहूर्तमभवन्मूढः पुनः प्रत्याहृतेन्द्रियः॥ २८॥
ददर्शावस्थितं वीरं वीरो दशरथात्मजम्।
सोऽभिचक्राम सौमित्रिं क्रोधसंरक्तलोचनः॥ २९॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीलक्ष्मणजीके छोड़े हुए इन्द्रवज्रके समान महाकठोर बाणोंके लगनेसे वह एक मुहूर्तके लिये अचेत हो गया। फिर चेत होनेपर उसने अपने सामने दशरथनन्दन वीरवर लक्ष्मणजीको खड़े देखा। उन्हें देखकर वह राक्षस क्रोधसे नेत्र लाल कर उनकी ओर दौड़ा॥ २८-२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरान् धनुषि सन्धाय लक्ष्मणं चेदमब्रवीत्।
यदि ते प्रथमे युद्धे न दृष्टो मे पराक्रमः॥ ३०॥
अद्य त्वां दर्शयिष्यामि तिष्ठेदानीं व्यवस्थितः।
इत्युक्त्वा सप्तभिर्बाणैरभिविव्याध लक्ष्मणम्॥ ३१॥
दशभिश्च हनूमन्तं तीक्ष्णधारैः शरोत्तमैः।
ततः शरशतेनैव सम्प्रयुक्तेन वीर्यवान्॥ ३२॥
क्रोधद्विगुणसंरब्धो निर्बिभेद विभीषणम्।
लक्ष्मणोऽपि तथा शत्रुं शरवर्षैरवाकिरत् ॥ ३३॥
मूलम्
शरान् धनुषि सन्धाय लक्ष्मणं चेदमब्रवीत्।
यदि ते प्रथमे युद्धे न दृष्टो मे पराक्रमः॥ ३०॥
अद्य त्वां दर्शयिष्यामि तिष्ठेदानीं व्यवस्थितः।
इत्युक्त्वा सप्तभिर्बाणैरभिविव्याध लक्ष्मणम्॥ ३१॥
दशभिश्च हनूमन्तं तीक्ष्णधारैः शरोत्तमैः।
ततः शरशतेनैव सम्प्रयुक्तेन वीर्यवान्॥ ३२॥
क्रोधद्विगुणसंरब्धो निर्बिभेद विभीषणम्।
लक्ष्मणोऽपि तथा शत्रुं शरवर्षैरवाकिरत् ॥ ३३॥
अनुवाद (हिन्दी)
तथा अपने धनुषपर बाण चढ़ाकर उनसे यों कहने लगा—‘‘यदि तूने पहले युद्धमें मेरा पराक्रम न देखा हो तो मैं तुझे अभी दिखाये देता हूँ; तू जरा स्थिरतापूर्वक खड़ा रह।’’ ऐसा कह उस महावीर्यवान् ने सात बाणोंसे लक्ष्मणजीको, बड़ी पैनी धारवाले दस बाणोंसे हनुमान् जी को और क्रोधसे दूने उत्साहके साथ भली प्रकार छोड़े हुए सौ बाणोंसे विभीषणको वेध डाला। इधर लक्ष्मणजी भी शत्रुपर बाणोंकी वर्षा-सी करने लगे॥ ३०—३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य बाणैः सुसंविद्धं कवचं काञ्चनप्रभम्।
व्यशीर्यत रथोपस्थे तिलशः पतितं भुवि॥ ३४॥
मूलम्
तस्य बाणैः सुसंविद्धं कवचं काञ्चनप्रभम्।
व्यशीर्यत रथोपस्थे तिलशः पतितं भुवि॥ ३४॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके बाणोंसे छिन्न-भिन्न होकर मेघनादका सुवर्णकी-सी आभावाला कवच तिल-तिल होकर रथके पिछले भागमें गिर पड़ा और फिर वहाँसे पृथ्वीपर जा गिरा॥ ३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः शरसहस्रेण सङ्क्रुद्धो रावणात्मजः।
बिभेद समरे वीरं लक्ष्मणं भीमविक्रमम्॥ ३५॥
मूलम्
ततः शरसहस्रेण सङ्क्रुद्धो रावणात्मजः।
बिभेद समरे वीरं लक्ष्मणं भीमविक्रमम्॥ ३५॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब रावणकुमार मेघनादने संग्राममें अत्यन्त क्रोधित हो महापराक्रमी लक्ष्मणजीको हजारों बाणोंसे बींध डाला॥ ३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्यशीर्यतापतद्दिव्यं कवचं लक्ष्मणस्य च।
कृतप्रतिकृतान्योन्यं बभूवतुरभिद्रुतौ॥ ३६॥
मूलम्
व्यशीर्यतापतद्दिव्यं कवचं लक्ष्मणस्य च।
कृतप्रतिकृतान्योन्यं बभूवतुरभिद्रुतौ॥ ३६॥
अनुवाद (हिन्दी)
इससे लक्ष्मणजीका दिव्य कवच भी छिन्न-भिन्न होकर गिर पड़ा। इस प्रकार वे दोनों ही एक-दूसरेकी क्रियाका प्रतिकार करते हुए आपसमें लड़ने लगे॥ ३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभीक्ष्णं निःश्वसन्तौ तौ युध्येतां तुमुलं पुनः।
शरसंवृतसर्वाङ्गौ सर्वतो रुधिरोक्षितौ॥ ३७॥
मूलम्
अभीक्ष्णं निःश्वसन्तौ तौ युध्येतां तुमुलं पुनः।
शरसंवृतसर्वाङ्गौ सर्वतो रुधिरोक्षितौ॥ ३७॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे दोनों ही बारम्बार दीर्घ निःश्वास छोड़ते हुए बड़ा घोर युद्ध करने लगे। उनके शरीरोंके अंग-प्रत्यंग सब ओरसे बाणोंसे छिन्न-भिन्न होकर लोहू-लुहान हो गये॥ ३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुदीर्घकालं तौ वीरावन्योन्यं निशितैः शरैः।
अयुध्येतां महासत्त्वौ जयाजयविवर्जितौ॥ ३८॥
मूलम्
सुदीर्घकालं तौ वीरावन्योन्यं निशितैः शरैः।
अयुध्येतां महासत्त्वौ जयाजयविवर्जितौ॥ ३८॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे दोनों महापराक्रमी वीर बड़ी देरतक एक-दूसरेपर तीखे-तीखे बाण छोड़कर लड़ते रहे। उनमेंसे किसीकी भी जय अथवा पराजय न हुई॥ ३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतस्मिन्नन्तरे वीरो लक्ष्मणः पञ्चभिः शरैः।
रावणेः सारथिं साश्वं रथं च समचूर्णयत्॥ ३९॥
मूलम्
एतस्मिन्नन्तरे वीरो लक्ष्मणः पञ्चभिः शरैः।
रावणेः सारथिं साश्वं रथं च समचूर्णयत्॥ ३९॥
अनुवाद (हिन्दी)
इतनेमें ही वीरवर लक्ष्मणने पाँच बाण छोड़कर मेघनादके सारथि और घोड़ोंके सहित रथको चूर्ण कर डाला॥ ३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चिच्छेद कार्मुकं तस्य दर्शब् हस्तलाघवम्।
सोऽन्यत्तु कार्मुकं भद्रं सज्यं चक्रे त्वरान्वितः॥ ४०॥
मूलम्
चिच्छेद कार्मुकं तस्य दर्शब् हस्तलाघवम्।
सोऽन्यत्तु कार्मुकं भद्रं सज्यं चक्रे त्वरान्वितः॥ ४०॥
अनुवाद (हिन्दी)
और अपने हाथकी सफाई दिखलाते हुए उसका धनुष भी काट डाला। तब मेघनादने तुरंत ही दूसरा उत्तम धनुष चढ़ाया॥ ४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्चापमपि चिच्छेद लक्ष्मणस्त्रिभिराशुगैः।
तमेव छिन्नधन्वानं विव्याधानेकसायकैः॥ ४१॥
मूलम्
तच्चापमपि चिच्छेद लक्ष्मणस्त्रिभिराशुगैः।
तमेव छिन्नधन्वानं विव्याधानेकसायकैः॥ ४१॥
अनुवाद (हिन्दी)
लक्ष्मणजीने तीन बाणोंसे उसे भी काट डाला और धनुषहीन हुए उस राक्षसको भी अनेक बाणोंसे बींध दिया॥ ४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुनरन्यत्समादाय कार्मुकं भीमविक्रमः।
इन्द्रजिल्लक्ष्मणं बाणैः शितैरादित्यसन्निभैः॥ ४२॥
बिभेद वानरान् सर्वान् बाणैरापूरयन्दिशः।
तत ऐन्द्रं समादाय लक्ष्मणो रावणिं प्रति॥ ४३॥
सन्धायाकृष्य कर्णान्तं कार्मुकं दृढनिष्ठुरम्।
उवाच लक्ष्मणो वीरः स्मरन् रामपदाम्बुजम्॥ ४४॥
मूलम्
पुनरन्यत्समादाय कार्मुकं भीमविक्रमः।
इन्द्रजिल्लक्ष्मणं बाणैः शितैरादित्यसन्निभैः॥ ४२॥
बिभेद वानरान् सर्वान् बाणैरापूरयन्दिशः।
तत ऐन्द्रं समादाय लक्ष्मणो रावणिं प्रति॥ ४३॥
सन्धायाकृष्य कर्णान्तं कार्मुकं दृढनिष्ठुरम्।
उवाच लक्ष्मणो वीरः स्मरन् रामपदाम्बुजम्॥ ४४॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर भीमविक्रम इन्द्रजित् ने एक और धनुष लेकर सूर्यके समान चमकीले और पैने बाणोंसे सम्पूर्ण दिशाओंको व्याप्त करते हुए लक्ष्मणजी तथा समस्त वानरोंको वेध डाला। तब लक्ष्मणजीने ऐन्द्र बाण निकालकर उसे मेघनादकी ओर लक्ष्य बाँधकर धनुषपर चढ़ाया और उस कठोर धनुषको कर्णपर्यन्त खींचकर वीरवर लक्ष्मणजी हृदयमें भगवान् रामके चरणकमलोंका स्मरण करते हुए बोले— ॥ ४२—४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मात्मा सत्यसन्धश्च रामो दाशरथिर्यदि।
त्रिलोक्यामप्रतिद्वन्द्वस्तदेनं जहि रावणिम्॥ ४५॥
मूलम्
धर्मात्मा सत्यसन्धश्च रामो दाशरथिर्यदि।
त्रिलोक्यामप्रतिद्वन्द्वस्तदेनं जहि रावणिम्॥ ४५॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘यदि दशरथनन्दन भगवान् राम परम धार्मिक, सत्यकी मर्यादा रखनेवाले और त्रिलोकीमें प्रतिद्वन्द्वी (मुकाबिला करनेवाले)-से रहित हैं तो हे बाण! तू इस मेघनादको मार डाल’’॥ ४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा बाणमाकर्णाद्विकृष्य तमजिह्मगम्।
लक्ष्मणः समरे वीरः ससर्जेन्द्रजितं प्रति॥ ४६॥
मूलम्
इत्युक्त्वा बाणमाकर्णाद्विकृष्य तमजिह्मगम्।
लक्ष्मणः समरे वीरः ससर्जेन्द्रजितं प्रति॥ ४६॥
अनुवाद (हिन्दी)
वीरवर लक्ष्मणजीने रणभूमिमें ऐसा कह उस सीधे जानेवाले बाणको कानतक खींचकर इन्द्रजित् की ओर छोड़ दिया॥ ४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स शरः सशिरस्त्राणं श्रीमज्ज्वलितकुण्डलम्।
प्रमथ्येन्द्रजितः कायात्पातयामास भूतले॥ ४७॥
मूलम्
स शरः सशिरस्त्राणं श्रीमज्ज्वलितकुण्डलम्।
प्रमथ्येन्द्रजितः कायात्पातयामास भूतले॥ ४७॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस बाणने शीर्षत्राणके सहित इन्द्रजित् के कान्तिमान् मस्तकको, जिसमें अति उज्ज्वल कुण्डल झिलमिला रहे थे, काटकर धड़से पृथ्वीपर गिरा दिया॥ ४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्रमुदिता देवाः कीर्तयन्तो रघूत्तमम्।
ववर्षुः पुष्पवर्षाणि स्तुवन्तश्च मुहुर्मुहुः॥ ४८॥
मूलम्
ततः प्रमुदिता देवाः कीर्तयन्तो रघूत्तमम्।
ववर्षुः पुष्पवर्षाणि स्तुवन्तश्च मुहुर्मुहुः॥ ४८॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार मेघनादके मारे जानेपर देवगण प्रसन्न होकर रघुश्रेष्ठ लक्ष्मणजीका गुण गाने और उनकी बारम्बार प्रशंसा कर पुष्प बरसाने लगे॥ ४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जहर्ष शक्रो भगवान् सह देवैर्महर्षिभिः।
आकाशेऽपि च देवानां शुश्रुवे दुन्दुभिस्वनः॥ ४९॥
मूलम्
जहर्ष शक्रो भगवान् सह देवैर्महर्षिभिः।
आकाशेऽपि च देवानां शुश्रुवे दुन्दुभिस्वनः॥ ४९॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवता और महर्षियोंके सहित भगवान् इन्द्र अति हर्षित हुए। उस समय आकाशमण्डलमें भी देवताओंके नगाड़ोंका शब्द सुनायी देने लगा॥ ४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विमलं गगनं चासीत् स्थिराभूद्विश्वधारिणी।
निहतं रावणिं दृष्ट्वा जयजल्पसमन्वितः॥ ५०॥
मूलम्
विमलं गगनं चासीत् स्थिराभूद्विश्वधारिणी।
निहतं रावणिं दृष्ट्वा जयजल्पसमन्वितः॥ ५०॥
अनुवाद (हिन्दी)
रावणके पुत्र मेघनादको मारा गया देख सर्वत्र जय-जयकार शब्द भर गया। आकाश निर्मल हो गया और जगद्धात्री धरणी स्थिर हो गयी॥ ५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गतश्रमः स सौमित्रिः शङ्खमापूरयद्रणे।
सिंहनादं ततः कृत्वा ज्याशब्दमकरोद्विभुः॥ ५१॥
मूलम्
गतश्रमः स सौमित्रिः शङ्खमापूरयद्रणे।
सिंहनादं ततः कृत्वा ज्याशब्दमकरोद्विभुः॥ ५१॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब लक्ष्मणजीकी थकान उतर गयी तो उन्होंने शंख बजाकर रणभूमिको गुंजायमान कर दिया और फिर भयंकर सिंहनाद कर अपने धनुषकी टंकार की॥ ५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेन नादेन संहृष्टा वानराश्च गतश्रमाः।
वानरेन्द्रैश्च सहितः स्तुवद्भिर्हृष्टमानसैः॥ ५२॥
लक्ष्मणः परितुष्टात्मा ददर्शाभ्येत्य राघवम्।
हनूमद्राक्षसाभ्यां च सहितो विनयान्वितः॥ ५३॥
ववन्दे भ्रातरं रामं ज्येष्ठं नारायणं विभुम्।
त्वत्प्रसादाद्रघुश्रेष्ठ हतो रावणिराहवे॥ ५४॥
मूलम्
तेन नादेन संहृष्टा वानराश्च गतश्रमाः।
वानरेन्द्रैश्च सहितः स्तुवद्भिर्हृष्टमानसैः॥ ५२॥
लक्ष्मणः परितुष्टात्मा ददर्शाभ्येत्य राघवम्।
हनूमद्राक्षसाभ्यां च सहितो विनयान्वितः॥ ५३॥
ववन्दे भ्रातरं रामं ज्येष्ठं नारायणं विभुम्।
त्वत्प्रसादाद्रघुश्रेष्ठ हतो रावणिराहवे॥ ५४॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस सिंहनादसे समस्त वानरगण अति आनन्दित और श्रमहीन हो गये। फिर प्रसन्नचित्त वानर-वीरोंसे प्रशंसित होते हुए श्रीलक्ष्मणजीने उन सबके साथ प्रसन्न-मनसे श्रीरघुनाथजीके पास आ उनका दर्शन किया। श्रीलक्ष्मणजीने हनुमान् और विभीषणके सहित अति विनयपूर्वक अपने ज्येष्ठ भ्राता साक्षात् नारायणस्वरूप भगवान् रामको प्रणाम कर कहा—‘‘हे रघुश्रेष्ठ! आपकी कृपासे इन्द्रजित् युद्धमें मारा गया’’॥ ५२—५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वा तल्लक्ष्मणाद्भक्त्या तमालिङ्ग्य रघूत्तमः।
मूर्ध्न्यवघ्राय मुदितः सस्नेहमिदमब्रवीत्॥ ५५॥
मूलम्
श्रुत्वा तल्लक्ष्मणाद्भक्त्या तमालिङ्ग्य रघूत्तमः।
मूर्ध्न्यवघ्राय मुदितः सस्नेहमिदमब्रवीत्॥ ५५॥
अनुवाद (हिन्दी)
लक्ष्मणजीके ये भक्तिमय वचन सुनकर श्रीरघुनाथजीने अति प्रसन्न होकर उनका आलिंगन किया और फिर प्रेमपूर्वक सिर सूँघकर कहा—॥ ५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधु लक्ष्मण तुष्टोऽस्मि कर्म ते दुष्करं कृतम्।
मेघनादस्य निधने जितं सर्वमरिन्दम॥ ५६॥
मूलम्
साधु लक्ष्मण तुष्टोऽस्मि कर्म ते दुष्करं कृतम्।
मेघनादस्य निधने जितं सर्वमरिन्दम॥ ५६॥
अनुवाद (हिन्दी)
लक्ष्मण! तुम धन्य हो। मैं तुम्हारे इस कार्यसे बहुत सन्तुष्ट हूँ, आज तुमने बड़ा ही कठिन कार्य किया है। हे शत्रुदमन! इस मेघनादके मारे जानेसे हमने मानो सभी कुछ जीत लिया॥ ५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहोरात्रैस्त्रिभिर्वीरः कथञ्चिद्विनिपातितः।
निःसपत्नः कृतोऽस्म्यद्य निर्यास्यति हि रावणः॥ ५७॥
पुत्रशोकान्मया योद्धुं तं हनिष्यामि रावणम्॥ ५८॥
मूलम्
अहोरात्रैस्त्रिभिर्वीरः कथञ्चिद्विनिपातितः।
निःसपत्नः कृतोऽस्म्यद्य निर्यास्यति हि रावणः॥ ५७॥
पुत्रशोकान्मया योद्धुं तं हनिष्यामि रावणम्॥ ५८॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुमने तीन दिन और तीन रात्रितक निरन्तर संग्राम कर किसी प्रकार उस महान् योद्धाको मार डाला। इससे आज तुमने मुझे शत्रुहीन कर दिया। अब पुत्र-शोकसे व्याकुल हुआ रावण मुझसे लड़ने आयेगा, सो उसे मैं मार डालूँगा’’॥ ५७-५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेघनादं हतं श्रुत्वा लक्ष्मणेन महाबलम्।
रावणः पतितो भूमौ मूर्च्छितः पुनरुत्थितः।
विललापातिदीनात्मा पुत्रशोकेन रावणः॥ ५९॥
मूलम्
मेघनादं हतं श्रुत्वा लक्ष्मणेन महाबलम्।
रावणः पतितो भूमौ मूर्च्छितः पुनरुत्थितः।
विललापातिदीनात्मा पुत्रशोकेन रावणः॥ ५९॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाबली मेघनादको लक्ष्मणजीद्वारा मारा गया सुन रावण मूर्च्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा और फिर मूर्च्छासे उठनेपर पुत्र-शोकसे अत्यन्त दीन होकर विलाप करने लगा॥ ५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुत्रस्य गुणकर्माणि संस्मरन् पर्यदेवयत्।
अद्य देवगणाः सर्वे लोकपाला महर्षयः॥ ६०॥
हतमिन्द्रजितं ज्ञात्वा सुखं स्वप्स्यन्ति निर्भयाः।
इत्यादि बहुशः पुत्रलालसो विललाप ह॥ ६१॥
मूलम्
पुत्रस्य गुणकर्माणि संस्मरन् पर्यदेवयत्।
अद्य देवगणाः सर्वे लोकपाला महर्षयः॥ ६०॥
हतमिन्द्रजितं ज्ञात्वा सुखं स्वप्स्यन्ति निर्भयाः।
इत्यादि बहुशः पुत्रलालसो विललाप ह॥ ६१॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुत्रके गुण और कर्मोंका स्मरण कर वह अत्यन्त शोक करने लगा। ‘आज समस्त देवता, लोकपाल और महर्षिगण इन्द्रजित् को मारा गया सुनकर निर्भयतापूर्वक सुखसे सोयेंगे’ इस प्रकार पुत्रकी आसक्तिवश वह भाँति-भाँतिसे विलाप करने लगा॥ ६०-६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः परमसंक्रुद्धो रावणो राक्षसाधिपः।
उवाच राक्षसान् सर्वान् निनाशयिषुराहवे॥ ६२॥
मूलम्
ततः परमसंक्रुद्धो रावणो राक्षसाधिपः।
उवाच राक्षसान् सर्वान् निनाशयिषुराहवे॥ ६२॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर राक्षसराज रावण अत्यन्त क्रुद्ध हो अपने शत्रुओंको युद्धमें नष्ट करानेकी कामनासे समस्त राक्षसोंसे बातचीत करने लगा॥ ६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स पुत्रवधसन्तप्तः शूरः क्रोधवशं गतः।
संवीक्ष्य रावणो बुद्ध्या हन्तुं सीतां प्रदुद्रुवे॥ ६३॥
मूलम्
स पुत्रवधसन्तप्तः शूरः क्रोधवशं गतः।
संवीक्ष्य रावणो बुद्ध्या हन्तुं सीतां प्रदुद्रुवे॥ ६३॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर शूरवीर रावण पुत्र-शोकसे व्याकुल हो अपनी बुद्धिसे कुछ सोचकर क्रोधपूर्वक सीताजीको मारनेके लिये दौड़ा (अर्थात् शोक और क्रोधके कारण वह ऐसे निन्द्य कर्मको ही अपना कर्तव्य मान बैठा)॥ ६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
खड्गपाणिमथायान्तं क्रुद्धं दृष्ट्वा दशाननम्।
राक्षसीमध्यगा सीता भयशोकाकुलाभवत्॥ ६४॥
मूलम्
खड्गपाणिमथायान्तं क्रुद्धं दृष्ट्वा दशाननम्।
राक्षसीमध्यगा सीता भयशोकाकुलाभवत्॥ ६४॥
अनुवाद (हिन्दी)
रावणको हाथमें खड्ग लिये क्रोधपूर्वक अपनी ओर आता देख राक्षसियोंके बीचमें बैठी हुई सीताजी भयभीत हो गयीं॥ ६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतस्मिन्नन्तरे तस्य सचिवो बुद्धिमान् शुचिः।
सुपार्श्वो नाम मेधावी रावणं वाक्यमब्रवीत्॥ ६५॥
मूलम्
एतस्मिन्नन्तरे तस्य सचिवो बुद्धिमान् शुचिः।
सुपार्श्वो नाम मेधावी रावणं वाक्यमब्रवीत्॥ ६५॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी समय रावणके सुपार्श्व नामक मन्त्रीने, जो परम बुद्धिमान्, शुद्धहृदय और विचारवान् था, उससे कहा—॥ ६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ननु नाम दशग्रीव साक्षाद्वैश्रवणानुजः।
वेदविद्याव्रतस्नातः स्वकर्मपरिनिष्ठितः॥ ६६॥
मूलम्
ननु नाम दशग्रीव साक्षाद्वैश्रवणानुजः।
वेदविद्याव्रतस्नातः स्वकर्मपरिनिष्ठितः॥ ६६॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘अहो दशानन! यह क्या? आप तो साक्षात् विश्रवानन्दन कुबेरजीके छोटे भाई हैं; वेदविद्यामें निपुण और यज्ञान्तमें स्नान करनेवाले एवं स्वधर्मपरायण हैं॥ ६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनेकगुणसम्पन्नः कथं स्त्रीवधमिच्छसि।
अस्माभिः सहितो युद्धे हत्वा रामं च लक्ष्मणम्।
प्राप्स्यसे जानकीं शीघ्रमित्युक्तः स न्यवर्तत॥ ६७॥
मूलम्
अनेकगुणसम्पन्नः कथं स्त्रीवधमिच्छसि।
अस्माभिः सहितो युद्धे हत्वा रामं च लक्ष्मणम्।
प्राप्स्यसे जानकीं शीघ्रमित्युक्तः स न्यवर्तत॥ ६७॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार अनेक गुणसम्पन्न होकर भी आप स्त्री-वध करना कैसे चाहते हैं? हम सबको साथ लेकर आप राम और लक्ष्मणको युद्धमें मारकर बहुत शीघ्र जानकीको प्राप्त कर लेंगे।’’ सुपार्श्वके इस प्रकार समझानेपर रावण लौट आया॥ ६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो दुरात्मा सुहृदा निवेदितं
वचः सुधर्म्यं प्रतिगृह्य रावणः।
गृहं जगामाशु शुचा विमूढधीः
पुनः सभां च प्रययौ सुहृद्वृतः॥ ६८॥
मूलम्
ततो दुरात्मा सुहृदा निवेदितं
वचः सुधर्म्यं प्रतिगृह्य रावणः।
गृहं जगामाशु शुचा विमूढधीः
पुनः सभां च प्रययौ सुहृद्वृतः॥ ६८॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर दुरात्मा रावण अपने बन्धुके कहे हुए धर्मानुकूल वाक्योंको ग्रहणकर शोकसे मूढ़बुद्धि हो तुरंत अपने घर गया और फिर दूसरे दिन अपने बन्धु-बान्धवोंके साथ सभामें आया॥ ६८॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे युद्धकाण्डे नवमः सर्गः॥ ९॥