[अष्टम सर्ग]
भागसूचना
कुम्भकर्ण-वध
मूलम् (वचनम्)
श्रीमहादेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुम्भकर्णवचः श्रुत्वा भ्रुकुटीविकटाननः।
दशग्रीवो जगादेदमासनादुत्पतन्निव॥ १॥
मूलम्
कुम्भकर्णवचः श्रुत्वा भ्रुकुटीविकटाननः।
दशग्रीवो जगादेदमासनादुत्पतन्निव॥ १॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमहादेवजी बोले—हे पार्वति! कुम्भकर्णके ये वचन सुनकर रावणका मुख और भृकुटि (क्रोधसे) विकराल हो गये। और उसने मानो आसनसे उछलते हुए इस प्रकार कहा—॥ १॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वमानीतो न मे ज्ञानबोधनाय सुबुद्धिमान्।
मया कृतं समीकृत्य युध्यस्व यदि रोचते॥ २॥
नोचेद्गच्छ सुषुप्त्यर्थं निद्रा त्वां बाधतेऽधुना।
मूलम्
त्वमानीतो न मे ज्ञानबोधनाय सुबुद्धिमान्।
मया कृतं समीकृत्य युध्यस्व यदि रोचते॥ २॥
नोचेद्गच्छ सुषुप्त्यर्थं निद्रा त्वां बाधतेऽधुना।
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं जानता हूँ तुम बड़े बुद्धिमान् हो, किन्तु इस समय मैंने तुम्हें ज्ञानोपदेश करनेके लिये नहीं बुलाया है। यदि तुम्हें अच्छा लगे तो मेरे कृत्यको ठीक मानकर युद्ध करो। नहीं तो जाओ शयन करो; तुम्हें इस समय नींद सता रही होगी’॥ २॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रावणस्य वचः श्रुत्वा कुम्भकर्णो महाबलः॥ ३॥
रुष्टोऽयमिति विज्ञाय तूर्णं युद्धाय निर्ययौ।
स लङ्घयित्वा प्राकारं महापर्वतसन्निभः॥ ४॥
निर्ययौ नगरात्तूर्णं भीषयन् हरिसैनिकान्।
स ननाद महानादं समुद्रमभिनादयन्॥ ५॥
मूलम्
रावणस्य वचः श्रुत्वा कुम्भकर्णो महाबलः॥ ३॥
रुष्टोऽयमिति विज्ञाय तूर्णं युद्धाय निर्ययौ।
स लङ्घयित्वा प्राकारं महापर्वतसन्निभः॥ ४॥
निर्ययौ नगरात्तूर्णं भीषयन् हरिसैनिकान्।
स ननाद महानादं समुद्रमभिनादयन्॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
रावणके ये वचन सुनकर महाबली कुम्भकर्ण, यह जानकर कि रावण रुष्ट हो गया है, तुरंत युद्धके लिये चल पड़ा। वह महापर्वतके समान विशालकाय राक्षस नगरके परकोटेको लाँघकर बाहर आया (क्योंकि अत्यन्त दीर्घकाय होनेके कारण वह नगरके संकुचित द्वारोंमें होकर नहीं निकल सकता था।) और सम्पूर्ण वानर सैनिकोंको भयभीत करते हुए उसने बड़ा घोर शब्द किया जिससे समुद्र भी गूँज उठा॥ ३—५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वानरान् कालयामास बाहुभ्यां भक्षयन् रुषा।
कुम्भकर्णं तदा दृष्ट्वा सपक्षमिव पर्वतम्॥ ६॥
दुद्रुवुर्वानराः सर्वे कालान्तकमिवाखिलाः।
मूलम्
वानरान् कालयामास बाहुभ्यां भक्षयन् रुषा।
कुम्भकर्णं तदा दृष्ट्वा सपक्षमिव पर्वतम्॥ ६॥
दुद्रुवुर्वानराः सर्वे कालान्तकमिवाखिलाः।
अनुवाद (हिन्दी)
फिर वह अत्यन्त क्रुद्ध हो अपनी भुजाओंसे वानरोंको निगल-निगलकर नष्ट करने लगा। तब तो जिस प्रकार समस्त प्राणी यमराजको देखकर भागते हैं उसी प्रकार सपक्ष पर्वतके समान विशालकाय कुम्भकर्णको देखकर समस्त वानरगण भागने लगे॥ ६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भ्रमन्तं हरिवाहिन्यां मुद्गरेण महाबलम्॥ ७॥
कालयन्तं हरीन् वेगाद्भक्षयन्तं समन्ततः।
चूर्णयन्तं मुद्गरेण पाणिपादैरनेकधा॥ ८॥
कुम्भकर्णं तदा दृष्ट्वा गदापाणिर्विभीषणः।
ननाम चरणं तस्य भ्रातुर्ज्येष्ठस्य बुद्धिमान्॥ ९॥
मूलम्
भ्रमन्तं हरिवाहिन्यां मुद्गरेण महाबलम्॥ ७॥
कालयन्तं हरीन् वेगाद्भक्षयन्तं समन्ततः।
चूर्णयन्तं मुद्गरेण पाणिपादैरनेकधा॥ ८॥
कुम्भकर्णं तदा दृष्ट्वा गदापाणिर्विभीषणः।
ननाम चरणं तस्य भ्रातुर्ज्येष्ठस्य बुद्धिमान्॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी समय महाबली कुम्भकर्णको मुद्गर धारण कर वानरसेनामें घूमते; ठौर-ठौर वानरोंको मारते, उन्हें अत्यन्त वेगसे भक्षण करते और अपने मुद्गर तथा लात और घूँसोंसे नाना प्रकार कुचलते देख परम बुद्धिमान् गदापाणि विभीषणने उस अपने ज्येष्ठ भ्राताके चरणोंमें प्रणाम किया॥ ६—९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विभीषणोऽहं भ्रातुर्मे दयां कुरु महामते।
रावणस्तु मया भ्रातर्बहुधा परिबोधितः॥ १०॥
सीतां देहीति रामाय रामः साक्षाज्जनार्दनः।
न शृणोति च मां हन्तुं खड्गमुद्यम्य चोक्तवान्॥ ११॥
धिक् त्वां गच्छेति मां हत्वा पदा पापिभिरावृतः।
चतुर्भिर्मन्त्रिभिः सार्धं रामं शरणमागतः॥ १२॥
मूलम्
विभीषणोऽहं भ्रातुर्मे दयां कुरु महामते।
रावणस्तु मया भ्रातर्बहुधा परिबोधितः॥ १०॥
सीतां देहीति रामाय रामः साक्षाज्जनार्दनः।
न शृणोति च मां हन्तुं खड्गमुद्यम्य चोक्तवान्॥ ११॥
धिक् त्वां गच्छेति मां हत्वा पदा पापिभिरावृतः।
चतुर्भिर्मन्त्रिभिः सार्धं रामं शरणमागतः॥ १२॥
अनुवाद (हिन्दी)
और कहा—‘‘हे महामते! मैं आपका भाई विभीषण हूँ, आप मुझपर दया करें। भाई! मैंने रावणको बारम्बार समझाया कि राम साक्षात् विष्णुभगवान् हैं, तुम उन्हें सीताजीको सौंप दो, किन्तु उन्होंने मेरी बात नहीं सुनी और मुझे मारनेके लिये तलवार खींचकर कहा कि ‘तुझे धिक्कार है, तू यहाँसे टल जा।’ पापी मन्त्रियोंसे घिरे हुए भाई रावणने ऐसा कहकर मेरे लात मारी तब मैं अपने चार मन्त्रियोंके सहित भगवान् रामकी शरणमें चला आया’’॥ १०—१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छ्रुत्वा कुम्भकर्णोऽपि ज्ञात्वा भ्रातरमागतम्।
समालिङ्ग्य च वत्स त्वं जीव रामपदाश्रयात्॥ १३॥
कुलसंरक्षणार्थाय राक्षसानां हिताय च।
महाभागवतोऽसि त्वं पुरा मे नारदाच्छ्रुतम्॥ १४॥
मूलम्
तच्छ्रुत्वा कुम्भकर्णोऽपि ज्ञात्वा भ्रातरमागतम्।
समालिङ्ग्य च वत्स त्वं जीव रामपदाश्रयात्॥ १३॥
कुलसंरक्षणार्थाय राक्षसानां हिताय च।
महाभागवतोऽसि त्वं पुरा मे नारदाच्छ्रुतम्॥ १४॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा सुन कुम्भकर्णने भी अपने भाईको आया जान उन्हें हृदयमें लगाया और कहा—‘‘वत्स! भगवान् रामके चरणका आश्रय पाकर अपने कुलकी रक्षा और राक्षसोंके कल्याणके लिये तुम चिरकालतक जीवित रहो। पूर्वकालमें मैंने नारदजीसे सुना था कि तुम बड़े ही भगवद्भक्त हो॥ १३-१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गच्छ तात ममेदानीं दृश्यते न च किञ्चन।
मदीयो वा परो वापि मदमत्तविलोचनः॥ १५॥
मूलम्
गच्छ तात ममेदानीं दृश्यते न च किञ्चन।
मदीयो वा परो वापि मदमत्तविलोचनः॥ १५॥
अनुवाद (हिन्दी)
भैया! अब तुम जाओ, मेरे नेत्र मदसे मतवाले हो रहे हैं, अतः इस समय मुझे अपना-पराया कुछ नहीं सूझता’’॥ १५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तोऽश्रुमुखो भ्रातुश्चरणावभिवन्द्य सः।
रामपार्श्वमुपागत्य चिन्तापर उपस्थितः॥ १६॥
मूलम्
इत्युक्तोऽश्रुमुखो भ्रातुश्चरणावभिवन्द्य सः।
रामपार्श्वमुपागत्य चिन्तापर उपस्थितः॥ १६॥
अनुवाद (हिन्दी)
भाई कुम्भकर्णके इस प्रकार कहनेपर विभीषणके नेत्रोंमें जल भर आया और वे उसके चरणोंमें प्रणाम कर चिन्ताग्रस्त हो भगवान् रामके पास आकर खड़े हो गये॥ १६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुम्भकर्णोऽपि हस्ताभ्यां पादाभ्यां पेषयन् हरीन्।
चचार वानरीं सेनां कालयन् गन्धहस्तिवत्॥ १७॥
मूलम्
कुम्भकर्णोऽपि हस्ताभ्यां पादाभ्यां पेषयन् हरीन्।
चचार वानरीं सेनां कालयन् गन्धहस्तिवत्॥ १७॥
अनुवाद (हिन्दी)
इधर कुम्भकर्ण भी मदमत्त गजराजके समान अपने हाथ और पैरोंसे वानरोंको रौंदता हुआ समस्त वानर-सेनामें घूमने लगा॥ १७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वा तं राघवः क्रुद्धो वायव्यं शस्त्रमादरात्।
चिक्षेप कुम्भकर्णाय तेन चिच्छेद रक्षसः॥ १८॥
समुद्गरं दक्षहस्तं तेन घोरं ननाद सः।
स हस्तः पतितो भूमावनेकानर्दयन् कपीन्॥ १९॥
मूलम्
दृष्ट्वा तं राघवः क्रुद्धो वायव्यं शस्त्रमादरात्।
चिक्षेप कुम्भकर्णाय तेन चिच्छेद रक्षसः॥ १८॥
समुद्गरं दक्षहस्तं तेन घोरं ननाद सः।
स हस्तः पतितो भूमावनेकानर्दयन् कपीन्॥ १९॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुम्भकर्णको देखकर श्रीरघुनाथजीने क्रुद्ध हो वायव्यास्त्र चढ़ाया और उसे सावधानीसे उसकी ओर छोड़ दिया। उस अस्त्रसे उन्होंने उस राक्षसका मुद्गरसहित दाहिना हाथ काट डाला। इससे वह महाभयंकर गर्जना करने लगा। उसका वह (कटा हुआ) हाथ अनेकों वानरोंको कुचलता हुआ पृथ्वीपर गिर पड़ा॥ १८-१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पर्यन्तमाश्रिताः सर्वे वानरा भयवेपिताः।
रामराक्षसयोर्युद्धं पश्यन्तः पर्यवस्थिताः॥ २०॥
मूलम्
पर्यन्तमाश्रिताः सर्वे वानरा भयवेपिताः।
रामराक्षसयोर्युद्धं पश्यन्तः पर्यवस्थिताः॥ २०॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब, इधर-उधर खड़े हुए समस्त वानरगण भयसे काँपते हुए भगवान् राम और राक्षस कुम्भकर्णका युद्ध देखने लगे॥ २०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुम्भकर्णश्छिन्नहस्तः शालमुद्यम्य वेगतः।
समरे राघवं हन्तुं दुद्राव तमथोऽच्छिनत् ॥ २१॥
शालेन सहितं वामहस्तमैन्द्रेण राघवः।
छिन्नबाहुमथायान्तं नर्दन्तं वीक्ष्य राघवः॥ २२॥
द्वावर्धचन्द्रौ निशितावादायास्य पदद्वयम्।
चिच्छेद पतितौ पादौ लङ्काद्वारि महास्वनौ॥ २३॥
मूलम्
कुम्भकर्णश्छिन्नहस्तः शालमुद्यम्य वेगतः।
समरे राघवं हन्तुं दुद्राव तमथोऽच्छिनत् ॥ २१॥
शालेन सहितं वामहस्तमैन्द्रेण राघवः।
छिन्नबाहुमथायान्तं नर्दन्तं वीक्ष्य राघवः॥ २२॥
द्वावर्धचन्द्रौ निशितावादायास्य पदद्वयम्।
चिच्छेद पतितौ पादौ लङ्काद्वारि महास्वनौ॥ २३॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने दायें हाथके कट जानेपर कुम्भकर्ण युद्धमें रघुनाथजीको मारनेके लिये एक शाल-वृक्ष उठाकर बड़े वेगसे दौड़ा। किन्तु रघुनाथजीने ऐन्द्र शस्त्रसे शालसहित उसका बायाँ हाथ भी काट डाला। दोनों भुजाओंके कट जानेपर भी जब श्रीरामचन्द्रजीने उसे गर्ज-गर्जकर अपनी ओर आते देखा तो दो अत्यन्त तीक्ष्ण अर्द्धचन्द्राकार बाण चढ़ाकर उसके दोनों चरण भी काट डाले। वे दोनों चरण बड़ा शब्द करते हुए लंकाके द्वारपर गिरे॥ २१—२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निकृत्तपाणिपादोऽपि कुम्भकर्णोऽतिभीषणः।
वडवामुखवद्वक्त्रं व्यादाय रघुनन्दनम्॥ २४॥
अभिदुद्राव निनदन् राहुश्चन्द्रमसं यथा।
अपूरयच्छिताग्रैश्च सायकैस्तद्रघूत्तमः॥ २५॥
मूलम्
निकृत्तपाणिपादोऽपि कुम्भकर्णोऽतिभीषणः।
वडवामुखवद्वक्त्रं व्यादाय रघुनन्दनम्॥ २४॥
अभिदुद्राव निनदन् राहुश्चन्द्रमसं यथा।
अपूरयच्छिताग्रैश्च सायकैस्तद्रघूत्तमः॥ २५॥
अनुवाद (हिन्दी)
हाथ-पाँवोंके कट जानेपर भी महाभयानक कुम्भकर्ण राहु जैसे चन्द्रमाकी ओर दौड़ता है वैसे ही घोड़ीके समान मुख फाड़कर चिग्घाड़ता हुआ भगवान् रामकी ओर दौड़ा। किन्तु रघुनाथजीने उसे अत्यन्त तीक्ष्ण बाणोंसे भर दिया॥ २४-२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरपूरितवक्त्रोऽसौ चुक्रोशातिभयङ्करः।
अथ सूर्यप्रतीकाशमैन्द्रं शरमनुत्तमम्॥ २६॥
वज्राशनिसमं रामश्चिक्षेपासुरमृत्यवे।
स तत्पर्वतसङ्काशं स्फुरत्कुण्डलदंष्ट्रकम्॥ २७॥
चकर्त रक्षोऽधिपतेः शिरो वृत्रमिवाशनिः।
तच्छिरः पतितं लङ्काद्वारि कायो महोदधौ॥ २८॥
मूलम्
शरपूरितवक्त्रोऽसौ चुक्रोशातिभयङ्करः।
अथ सूर्यप्रतीकाशमैन्द्रं शरमनुत्तमम्॥ २६॥
वज्राशनिसमं रामश्चिक्षेपासुरमृत्यवे।
स तत्पर्वतसङ्काशं स्फुरत्कुण्डलदंष्ट्रकम्॥ २७॥
चकर्त रक्षोऽधिपतेः शिरो वृत्रमिवाशनिः।
तच्छिरः पतितं लङ्काद्वारि कायो महोदधौ॥ २८॥
अनुवाद (हिन्दी)
बाणोंसे मुख भर जानेपर वह अति भयंकर राक्षस चिल्लाने लगा। तब रघुनाथजीने सूर्यके समान देदीप्यमान अति उत्तम ऐन्द्र बाण चढ़ाया और वह वज्रके समान कठोर बाण उस राक्षसका वध करनेके लिये छोड़ा। इन्द्रके वज्रने जिस प्रकार वृत्रासुरका सिर काटा था, उसी प्रकार उस बाणने उसका पर्वत-सदृश सिर, जिसमें कुण्डल और दाढ़ें चमक रही थीं, काट डाला। कुम्भकर्णका सिर लंकाके द्वारपर और उसका धड़ समुद्रमें गिरा॥ २६—२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शिरोऽस्य रोधयद्द्वारं कायो नक्राद्यचूर्णयत्।
ततो देवाः सऋषयो गन्धर्वाः पन्नगाः खगाः॥ २९॥
सिद्धा यक्षा गुह्यकाश्च अप्सरोभिश्च राघवम्।
ईडिरे कुसुमासारैर्वर्षन्तश्चाभिनन्दिताः॥ ३०॥
मूलम्
शिरोऽस्य रोधयद्द्वारं कायो नक्राद्यचूर्णयत्।
ततो देवाः सऋषयो गन्धर्वाः पन्नगाः खगाः॥ २९॥
सिद्धा यक्षा गुह्यकाश्च अप्सरोभिश्च राघवम्।
ईडिरे कुसुमासारैर्वर्षन्तश्चाभिनन्दिताः॥ ३०॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस मस्तकने लंकाके द्वारको रोक लिया और धड़ने बहुत-से नाक आदि जलजन्तुओंको कुचल डाला। इस प्रकार कुम्भकर्णके मारे जानेपर ऋषियोंके सहित देवगण तथा अप्सराओंके सहित गन्धर्व, नाग, पक्षी, सिद्ध, यक्ष और गुह्यक आदि अति प्रसन्न होकर श्रीरघुनाथजीपर पुष्पावली बरसाते हुए उनकी स्तुति करने लगे॥ २९-३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आजगाम तदा रामं द्रष्टुं देवमुनीश्वरः।
नारदो गगनात्तूर्णं स्वभासा भासयन् दिशः॥ ३१॥
राममिन्दीवरश्याममुदाराङ्गं धनुर्धरम्।
ईषत्ताम्रविशालाक्षमैन्द्रास्त्राञ्चितबाहुकम्॥ ३२॥
दयार्द्रदृष्ट्या पश्यन्तं वानराञ्छरपीडितान्।
दृष्ट्वा गद्गदया वाचा भक्त्या स्तोतुं प्रचक्रमे॥ ३३॥
मूलम्
आजगाम तदा रामं द्रष्टुं देवमुनीश्वरः।
नारदो गगनात्तूर्णं स्वभासा भासयन् दिशः॥ ३१॥
राममिन्दीवरश्याममुदाराङ्गं धनुर्धरम्।
ईषत्ताम्रविशालाक्षमैन्द्रास्त्राञ्चितबाहुकम्॥ ३२॥
दयार्द्रदृष्ट्या पश्यन्तं वानराञ्छरपीडितान्।
दृष्ट्वा गद्गदया वाचा भक्त्या स्तोतुं प्रचक्रमे॥ ३३॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी समय अपने प्रकाशसे सम्पूर्ण दिशाओंको प्रकाशित करते हुए देवर्षि नारद भगवान् रामका दर्शन करनेके लिये तुरंत ही आकाशसे आये॥ ३१॥ जो नीलकमलके समान श्यामवर्ण, अति मनोहरमूर्ति और धनुष धारण किये हुए हैं, जिनके नेत्र अति विशाल और कुछ अरुणवर्ण हैं तथा भुजाएँ ऐन्द्रास्त्रसे सुशोभित हैं, जो अपनी दयामयी दृष्टिसे बाणोंसे पीड़ित वानरोंकी ओर देख रहे हैं, उन भगवान् रामका दर्शन कर श्रीनारदजी भक्तिसे गद्गदकण्ठ हो इस प्रकार स्तुति करने लगे॥ ३२-३३॥
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवदेव जगन्नाथ परमात्मन् सनातन।
नारायणाखिलाधार विश्वसाक्षिन् नमोऽस्तु ते॥ ३४॥
मूलम्
देवदेव जगन्नाथ परमात्मन् सनातन।
नारायणाखिलाधार विश्वसाक्षिन् नमोऽस्तु ते॥ ३४॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजी बोले—हे देवाधिदेव! हे जगत्पते! हे परमात्मन्! हे सनातन पुरुष! हे नारायण! हे सर्वाधार! हे विश्वसाक्षिन्! आपको नमस्कार है॥ ३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विशुद्धज्ञानरूपोऽपि त्वं लोकानतिवञ्चयन्।
मायया मनुजाकारः सुखदुःखादिमानिव॥ ३५॥
मूलम्
विशुद्धज्ञानरूपोऽपि त्वं लोकानतिवञ्चयन्।
मायया मनुजाकारः सुखदुःखादिमानिव॥ ३५॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप विशुद्ध विज्ञानस्वरूप हैं, तथापि लोकोंकी वंचना करनेके लिये आप अपनी मायासे मनुष्याकार धारणकर सुखी-दुःखी-से दिखायी देते हैं॥ ३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं मायया गुह्यमानः सर्वेषां हृदि संस्थितः।
स्वयंज्योतिः स्वभावस्त्वं व्यक्त एवामलात्मनाम्॥ ३६॥
मूलम्
त्वं मायया गुह्यमानः सर्वेषां हृदि संस्थितः।
स्वयंज्योतिः स्वभावस्त्वं व्यक्त एवामलात्मनाम्॥ ३६॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप अपनी मायासे आच्छादित होकर (अन्तर्यामीरूपसे) सबके अन्तःकरणोंमें स्थित हैं। आप स्वभावसे ही स्वयंप्रकाश हैं और शुद्धचित्त व्यक्तियोंको ही आपका साक्षात्कार होता है॥ ३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उन्मीलयन् सृजस्येतन्नेत्रे राम जगत्त्रयम्।
उपसंह्रियते सर्वं त्वया चक्षुर्निमीलनात्॥ ३७॥
मूलम्
उन्मीलयन् सृजस्येतन्नेत्रे राम जगत्त्रयम्।
उपसंह्रियते सर्वं त्वया चक्षुर्निमीलनात्॥ ३७॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राम! आप नेत्र खोलकर ही इस सम्पूर्ण त्रिलोकीकी रचना कर देते हैं और आपके नेत्र मूँदते ही इस सबका लय हो जाता है॥ ३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्मिन् सर्वमिदं भाति यतश्चैतच्चराचरम्।
यस्मान्न किञ्चिल्लोकेऽस्मिंस्तस्मै ते ब्रह्मणे नमः॥ ३८॥
मूलम्
यस्मिन् सर्वमिदं भाति यतश्चैतच्चराचरम्।
यस्मान्न किञ्चिल्लोकेऽस्मिंस्तस्मै ते ब्रह्मणे नमः॥ ३८॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसमें यह सम्पूर्ण चराचर जगत् भास रहा है, जिससे इसकी उत्पत्ति हुई है तथा जिसके अतिरिक्त संसारमें और कुछ भी नहीं है, वह ब्रह्म आप ही हैं; आपको नमस्कार है॥ ३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रकृतिं पुरुषं कालं व्यक्ताव्यक्तस्वरूपिणम्।
यं जानन्ति मुनिश्रेष्ठास्तस्मै रामाय ते नमः॥ ३९॥
मूलम्
प्रकृतिं पुरुषं कालं व्यक्ताव्यक्तस्वरूपिणम्।
यं जानन्ति मुनिश्रेष्ठास्तस्मै रामाय ते नमः॥ ३९॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिन्हें मुनिश्रेष्ठगण प्रकृति, पुरुष, काल और व्यक्ताव्यक्तस्वरूप जानते हैं उन्हीं श्रीरामरूप आपको नमस्कार है॥ ३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विकाररहितं शुद्धं ज्ञानरूपं श्रुतिर्जगौ।
त्वां सर्वजगदाकारमूर्तिं चाप्याह सा श्रुतिः॥ ४०॥
मूलम्
विकाररहितं शुद्धं ज्ञानरूपं श्रुतिर्जगौ।
त्वां सर्वजगदाकारमूर्तिं चाप्याह सा श्रुतिः॥ ४०॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रुतिने विकाररहित, शुद्ध और ज्ञानस्वरूप कहकर आपका वर्णन किया है और वही आपको सम्पूर्ण जगद्रूप भी बतलाती है॥ ४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विरोधो दृश्यते देव वैदिको वेदवादिनाम्।
निश्चयं नाधिगच्छन्ति त्वत्प्रसादं विना बुधाः॥ ४१॥
मूलम्
विरोधो दृश्यते देव वैदिको वेदवादिनाम्।
निश्चयं नाधिगच्छन्ति त्वत्प्रसादं विना बुधाः॥ ४१॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे देव! इस प्रकार वेदवादियोंको यह वैदिक (वेद-वचनोंमें) विरोध दिखायी देता है; किन्तु आपकी कृपाके बिना तो विज्ञजन भी किसी निश्चयपर नहीं पहुँचते॥ ४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मायया क्रीडतो देव न विरोधो मनागपि।
रश्मिजालं रवेर्यद्वद्दृश्यते जलवद् भ्रमात् ॥ ४२॥
भ्रान्तिज्ञानात्तथा राम त्वयि सर्वं प्रकल्प्यते।
मनसोऽविषयो देव रूपं ते निर्गुणं परम्॥ ४३॥
मूलम्
मायया क्रीडतो देव न विरोधो मनागपि।
रश्मिजालं रवेर्यद्वद्दृश्यते जलवद् भ्रमात् ॥ ४२॥
भ्रान्तिज्ञानात्तथा राम त्वयि सर्वं प्रकल्प्यते।
मनसोऽविषयो देव रूपं ते निर्गुणं परम्॥ ४३॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे देव! आप मायासे ही लीला कर रहे हैं, अतः इन वेदवाक्योंमें कुछ भी विरोध नहीं है। जिस प्रकार सूर्यका किरणसमूह भ्रमसे जलके समान प्रतीत होता है, हे राम! उसी प्रकार यह सम्पूर्ण जगत् अज्ञानसे ही आपमें कल्पित हुआ है; आपका वास्तविक निर्गुण रूप तो मनका अविषय है॥ ४२-४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं दृश्यं भवेद्देव दृश्याभावे भजेत्कथम्।
अतस्तवावतारेषु रूपाणि निपुणा भुवि॥ ४४॥
भजन्ति बुद्धिसम्पन्नास्तरन्त्येव भवार्णवम्।
कामक्रोधादयस्तत्र बहवः परिपन्थिनः॥ ४५॥
मूलम्
कथं दृश्यं भवेद्देव दृश्याभावे भजेत्कथम्।
अतस्तवावतारेषु रूपाणि निपुणा भुवि॥ ४४॥
भजन्ति बुद्धिसम्पन्नास्तरन्त्येव भवार्णवम्।
कामक्रोधादयस्तत्र बहवः परिपन्थिनः॥ ४५॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे देव! वह किस प्रकार किसीको दिखायी दे सकता है? और दिखायी न देनेसे कोई उसका भजन भी कैसे कर सकता है? अतः संसारमें बुद्धिमान् और निपुणलोग आपके अवतार-स्वरूपोंका ही चिन्तन करते हैं और वे ज्ञानसम्पन्न होकर संसार-सागरको पार कर ही लेते हैं। इस भक्तिमार्गमें काम, क्रोध आदि बहुत-से विघ्न भी होते हैं॥ ४४-४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीषयन्ति सदा चेतो मार्जारा मूषकं यथा।
त्वन्नाम स्मरतां नित्यं त्वद्रूपमपि मानसे॥ ४६॥
त्वत्पूजानिरतानां ते कथामृतपरात्मनाम्।
त्वद्भक्तसङ्गिनां राम संसारो गोष्पदायते॥ ४७॥
मूलम्
भीषयन्ति सदा चेतो मार्जारा मूषकं यथा।
त्वन्नाम स्मरतां नित्यं त्वद्रूपमपि मानसे॥ ४६॥
त्वत्पूजानिरतानां ते कथामृतपरात्मनाम्।
त्वद्भक्तसङ्गिनां राम संसारो गोष्पदायते॥ ४७॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे बिल्ली जिस प्रकार चूहेको डराती है उसी प्रकार चित्तको सर्वदा भयभीत करते रहते हैं, हे राम! जो लोग निरन्तर आपका नाम-स्मरण करते हैं, आपके रूपका हृदयमें ध्यान करते हैं, आपकी पूजामें तत्पर रहते हैं, आपके कथामृतका पान करते रहते हैं तथा आपके भक्तोंका संग करते हैं उनके लिये यह संसार (जो कि समुद्रके समान दुस्तर है) गोखुरके समान तुच्छ हो जाता है ॥ ४६-४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतस्ते सगुणं रूपं ध्यात्वाहं सर्वदा हृदि।
मुक्तश्चरामि लोकेषु पूज्योऽहं सर्वदैवतैः॥ ४८॥
मूलम्
अतस्ते सगुणं रूपं ध्यात्वाहं सर्वदा हृदि।
मुक्तश्चरामि लोकेषु पूज्योऽहं सर्वदैवतैः॥ ४८॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः मैं हृदयमें सर्वदा आपके सगुण रूपका ध्यान करता हुआ जीवन्मुक्त होकर लोकान्तरोंमें विचरता हूँ और समस्त देवताओंसे पूजित होता हूँ॥ ४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम त्वया महत्कार्यं कृतं देवहितेच्छया।
कुम्भकर्णवधेनाद्य भूभारोऽयं गतः प्रभो॥ ४९॥
मूलम्
राम त्वया महत्कार्यं कृतं देवहितेच्छया।
कुम्भकर्णवधेनाद्य भूभारोऽयं गतः प्रभो॥ ४९॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राम! आपने देवहितकी कामनासे यह बहुत बड़ा काम किया है; हे प्रभो! इस कुम्भकर्णके वधसे आज पृथिवीका (बहुत कुछ) भार उतर गया॥ ४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्वो हनिष्यति सौमित्रिरिन्द्रजेतारमाहवे।
हनिष्यसेऽथ राम त्वं परश्वो दशकन्धरम्॥ ५०॥
मूलम्
श्वो हनिष्यति सौमित्रिरिन्द्रजेतारमाहवे।
हनिष्यसेऽथ राम त्वं परश्वो दशकन्धरम्॥ ५०॥
अनुवाद (हिन्दी)
कल लक्ष्मणजी युद्धमें इन्द्रजित् को मारेंगे और परसों आप रावणका वध करेंगे॥ ५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्यामि सर्वं देवेश सिद्धैः सह नभोगतः।
अनुगृह्णीष्व मां देव गमिष्यामि सुरालयम्॥ ५१॥
मूलम्
पश्यामि सर्वं देवेश सिद्धैः सह नभोगतः।
अनुगृह्णीष्व मां देव गमिष्यामि सुरालयम्॥ ५१॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे देवेश्वर! मैं सिद्धोंके साथ आकाशमें स्थित होकर यह सब चरित्र देखूँगा।
हे देव! आप मुझपर दयादृष्टि रखें, अब मैं स्वर्गलोकको जाता हूँ॥ ५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा राममामन्त्र्य नारदो भगवानृषिः।
ययौ देवैः पूज्यमानो ब्रह्मलोकमकल्मषम्॥ ५२॥
मूलम्
इत्युक्त्वा राममामन्त्र्य नारदो भगवानृषिः।
ययौ देवैः पूज्यमानो ब्रह्मलोकमकल्मषम्॥ ५२॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कह मुनिवर भगवान् नारदजी श्रीरामचन्द्रजीकी आज्ञा पा देवताओंसे पूजित हो पापहीन ब्रह्मलोकको चले गये॥ ५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भ्रातरं निहतं श्रुत्वा कुम्भकर्णं महाबलम्।
रावणः शोकसन्तप्तो रामेणाक्लिष्टकर्मणा॥ ५३॥
मूर्च्छितः पतितो भूमावुत्थाय विललाप ह।
पितृव्यं निहतं श्रुत्वा पितरं चातिविह्वलम्॥ ५४॥
इन्द्रजित्प्राह शोकार्तं त्यज शोकं महामते।
मयि जीवति राजेन्द्र मेघनादे महाबले॥ ५५॥
दुःखस्यावसरः कुत्र देवान्तक महामते।
व्येतु ते दुःखमखिलं स्वस्थो भव महीपते॥ ५६॥
मूलम्
भ्रातरं निहतं श्रुत्वा कुम्भकर्णं महाबलम्।
रावणः शोकसन्तप्तो रामेणाक्लिष्टकर्मणा॥ ५३॥
मूर्च्छितः पतितो भूमावुत्थाय विललाप ह।
पितृव्यं निहतं श्रुत्वा पितरं चातिविह्वलम्॥ ५४॥
इन्द्रजित्प्राह शोकार्तं त्यज शोकं महामते।
मयि जीवति राजेन्द्र मेघनादे महाबले॥ ५५॥
दुःखस्यावसरः कुत्र देवान्तक महामते।
व्येतु ते दुःखमखिलं स्वस्थो भव महीपते॥ ५६॥
अनुवाद (हिन्दी)
बिना प्रयास ही अद्भुत कर्म करनेवाले भगवान् रामद्वारा महाबली भाई कुम्भकर्णको मारा गया सुन रावण अत्यन्त शोकाकुल हुआ और मूर्च्छित होकर पृथिवीपर गिर पड़ा तथा (मूर्च्छा निवृत्त होनेपर) उठकर विलाप करने लगा। तब इन्द्रजित् ने अपने चाचाको मारा गया और पिताको अति विह्वल सुन अपने शोकाकुल पितासे कहा—‘‘हे महामते! शोक दूर कीजिये। हे राजेन्द्र! मुझ महाबली मेघनादके जीते हुए आपके दुःखका कारण ही कहाँ है? हे देवताओंके कालस्वरूप महाबुद्धिमान् पृथिवीपते! अपना समस्त दुःख छोड़कर आप शान्त होइये॥ ५३—५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वं समीकरिष्यामि हनिष्यामि च वै रिपून्।
गत्वा निकुम्भिलां सद्यस्तर्पयित्वा हुताशनम्॥ ५७॥
लब्ध्वा रथादिकं तस्मादजेयोऽहं भवाम्यरेः।
इत्युक्त्वा त्वरितं गत्वा निर्दिष्टं हवनस्थलम्॥ ५८॥
मूलम्
सर्वं समीकरिष्यामि हनिष्यामि च वै रिपून्।
गत्वा निकुम्भिलां सद्यस्तर्पयित्वा हुताशनम्॥ ५७॥
लब्ध्वा रथादिकं तस्मादजेयोऽहं भवाम्यरेः।
इत्युक्त्वा त्वरितं गत्वा निर्दिष्टं हवनस्थलम्॥ ५८॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं अभी सब कुछ ठीक किये देता हूँ, इन शत्रुओंको मैं अवश्य मार डालूँगा। इस समय मैं निकुम्भिला गुफामें जाता हूँ, वहाँ अग्निको तृप्तकर रथ आदि प्राप्त करूँगा, इससे मैं शत्रुओंके लिये अजेय हो जाऊँगा।’’ ऐसा कह वह निर्दिष्ट यज्ञशालामें गया॥ ५७-५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रक्तमाल्याम्बरधरो रक्तगन्धानुलेपनः।
निकुम्भिलास्थले मौनी हवनायोपचक्रमे॥ ५९॥
मूलम्
रक्तमाल्याम्बरधरो रक्तगन्धानुलेपनः।
निकुम्भिलास्थले मौनी हवनायोपचक्रमे॥ ५९॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस निकुम्भिला (नामकी देवी)-के स्थानमें उसने रक्तवर्ण वस्त्र, रक्त पुष्पोंकी माला और रक्त चन्दनका लेप धारण कर हवन करना आरम्भ किया॥ ५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विभीषणोऽथ तच्छ्रुत्वा मेघनादस्य चेष्टितम्।
प्राह रामाय सकलं होमारम्भं दुरात्मनः॥ ६०॥
मूलम्
विभीषणोऽथ तच्छ्रुत्वा मेघनादस्य चेष्टितम्।
प्राह रामाय सकलं होमारम्भं दुरात्मनः॥ ६०॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब विभीषणको मेघनादके इस कार्यका पता लगा तब उन्होंने उस दुरात्माके होमारम्भका सारा समाचार श्रीरामचन्द्रजीको सुनाया॥ ६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समाप्यते चेद्धोमोऽयं मेघनादस्य दुर्मतेः।
तदाजेयो भवेद्राम मेघनादः सुरासुरैः॥ ६१॥
मूलम्
समाप्यते चेद्धोमोऽयं मेघनादस्य दुर्मतेः।
तदाजेयो भवेद्राम मेघनादः सुरासुरैः॥ ६१॥
अनुवाद (हिन्दी)
(और कहा—) ‘‘हे राम! यदि दुरात्मा मेघनादका यह होम निर्विघ्न समाप्त हो गया तो वह देवता या असुर किसीसे भी नहीं जीता जा सकेगा॥ ६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतः शीघ्रं लक्ष्मणेन घातयिष्यामि रावणिम्।
आज्ञापय मया सार्धं लक्ष्मणं बलिनां वरम्।
हनिष्यति न सन्देहो मेघनादं तवानुजः॥ ६२॥
मूलम्
अतः शीघ्रं लक्ष्मणेन घातयिष्यामि रावणिम्।
आज्ञापय मया सार्धं लक्ष्मणं बलिनां वरम्।
हनिष्यति न सन्देहो मेघनादं तवानुजः॥ ६२॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः मैं शीघ्र ही लक्ष्मणजीके द्वारा उस रावणकुमारका वध कराये देता हूँ। आप बलवानोंमें श्रेष्ठ श्रीलक्ष्मणजीको मेरे साथ जानेकी आज्ञा दीजिये। इसमें सन्देह नहीं, आपके छोटे भाई लक्ष्मणजी मेघनादको अवश्य मार डालेंगे’’॥ ६२॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीरामचन्द्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहमेवागमिष्यामि हन्तुमिन्द्रजितं रिपुम्।
आग्नेयेन महास्त्रेण सर्वराक्षसघातिना॥ ६३॥
मूलम्
अहमेवागमिष्यामि हन्तुमिन्द्रजितं रिपुम्।
आग्नेयेन महास्त्रेण सर्वराक्षसघातिना॥ ६३॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामचन्द्रजी बोले—समस्त राक्षसोंको मारनेवाले महान् आग्नेय-अस्त्रसे अपने शत्रु इन्द्रजित् को मारनेके लिये मैं स्वयं ही आऊँगा॥ ६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विभीषणोऽपि तं प्राह नासावन्यैर्निहन्यते।
यस्तु द्वादश वर्षाणि निद्राहारविवर्जितः॥ ६४॥
तेनैव मृत्युर्निर्दिष्टो ब्रह्मणास्य दुरात्मनः।
लक्ष्मणस्तु अयोध्याया निर्गम्यायात्त्वया सह॥ ६५॥
तदादि निद्राहारादीन् न जानाति रघूत्तम।
सेवार्थं तव राजेन्द्र ज्ञातं सर्वमिदं मया॥ ६६॥
मूलम्
विभीषणोऽपि तं प्राह नासावन्यैर्निहन्यते।
यस्तु द्वादश वर्षाणि निद्राहारविवर्जितः॥ ६४॥
तेनैव मृत्युर्निर्दिष्टो ब्रह्मणास्य दुरात्मनः।
लक्ष्मणस्तु अयोध्याया निर्गम्यायात्त्वया सह॥ ६५॥
तदादि निद्राहारादीन् न जानाति रघूत्तम।
सेवार्थं तव राजेन्द्र ज्ञातं सर्वमिदं मया॥ ६६॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब विभीषणने कहा—‘यह राक्षस किसी औरसे नहीं मारा जा सकता। जिसने बारह वर्षतक निद्रा और आहारको छोड़ दिया हो, ब्रह्माजीने इस दुरात्माकी मृत्यु उसीके हाथ निश्चित की है। हे रघुनाथजी! ये लक्ष्मणजी जबसे अयोध्यासे निकलकर आपके साथ आये हैं तभीसे आपकी सेवामें लगे रहनेके कारण ये निद्रा और आहारादि तो जानते ही नहीं। हे राजेन्द्र! मैं ये सब बातें जानता हूँ॥ ६४—६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदाज्ञापय देवेश लक्ष्मणं त्वरया मया।
हनिष्यति न सन्देहः शेषः साक्षाद्धराधरः॥ ६७॥
मूलम्
तदाज्ञापय देवेश लक्ष्मणं त्वरया मया।
हनिष्यति न सन्देहः शेषः साक्षाद्धराधरः॥ ६७॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः हे देवेश्वर! आप शीघ्र ही लक्ष्मणजीको मेरे साथ जानेकी आज्ञा दीजिये। ये साक्षात् धराधारी शेषनाग हैं, इसमें सन्देह नहीं, उस राक्षसको ये अवश्य मार डालेंगे॥ ६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वमेव साक्षाज्जगतामधीशो
नारायणो लक्ष्मण एव शेषः।
युवां धराभारनिवारणार्थं
जातौ जगन्नाटकसूत्रधारौ॥ ६८॥
मूलम्
त्वमेव साक्षाज्जगतामधीशो
नारायणो लक्ष्मण एव शेषः।
युवां धराभारनिवारणार्थं
जातौ जगन्नाटकसूत्रधारौ॥ ६८॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप ही साक्षात् जगत्पति नारायण हैं और लक्ष्मणजी ही शेषनाग हैं। आप दोनों इस संसाररूपी नाटकके सूत्रधार हैं और पृथिवीका भार उतारनेके लिये ही आपने जन्म लिया है’’॥ ६८॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे युद्धकाण्डेऽष्टमः सर्गः॥ ८॥