[सप्तम सर्ग]
भागसूचना
कालनेमिका कपट, हनुमान् जी द्वारा उसका वध, लक्ष्मणजीका सचेत होना और रावणका कुम्भकर्णको जगाना
मूलम् (वचनम्)
श्रीमहादेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कालनेमिवचः श्रुत्वा रावणोऽमृतसन्निभम्।
जज्वाल क्रोधताम्राक्षः सर्पिरद्भिरिवाग्निमत्॥ १॥
मूलम्
कालनेमिवचः श्रुत्वा रावणोऽमृतसन्निभम्।
जज्वाल क्रोधताम्राक्षः सर्पिरद्भिरिवाग्निमत्॥ १॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमहादेवजी बोले—हे पार्वति! जैसे अग्निसे तपाया हुआ घृत जल डालनेसे छुनछुनाने लगता है वैसे ही कालनेमिके ये अमृततुल्य वचन सुनकर रावण जल उठा और क्रोधसे उसके नेत्र लाल हो गये॥ १॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निहन्मि त्वां दुरात्मानं मच्छासनपराङ्मुखम्।
परैः किञ्चिद्गृहीत्वा त्वं भाषसे रामकिंकरः॥ २॥
मूलम्
निहन्मि त्वां दुरात्मानं मच्छासनपराङ्मुखम्।
परैः किञ्चिद्गृहीत्वा त्वं भाषसे रामकिंकरः॥ २॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह कहने लगा—‘‘अरे! मालूम होता है तू शत्रुसे कुछ लेकर ही इस प्रकार रामके दासकी भाँति बातें बनाता है। याद रख, मेरी आज्ञाका उल्लंघन करनेवाले तुझ दुष्टको मैं अभी मार डालूँगा’’॥ २॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कालनेमिरुवाचेदं रावणं देव किं क्रुधा।
न रोचते मे वचनं यदि गत्वा करोमि तत्॥ ३॥
मूलम्
कालनेमिरुवाचेदं रावणं देव किं क्रुधा।
न रोचते मे वचनं यदि गत्वा करोमि तत्॥ ३॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब कालनेमिने रावणसे कहा— ‘‘देव! क्रोधकी क्या बात है? यदि आपको मेरा कथन अच्छा नहीं लगता तो मैं अभी जाकर (आप जैसा कहते हैं) वही करता हूँ’’॥ ३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा प्रययौ शीघ्रं कालनेमिर्महासुरः।
नोदितो रावणेनैव हनूमद्विघ्नकारणात्॥ ४॥
मूलम्
इत्युक्त्वा प्रययौ शीघ्रं कालनेमिर्महासुरः।
नोदितो रावणेनैव हनूमद्विघ्नकारणात्॥ ४॥
अनुवाद (हिन्दी)
इतना कह महादैत्य कालनेमि रावणकी ही प्रेरणासे हनुमान् जी के कार्यमें विघ्न करनेके लिये वहाँसे तुरंत चल दिया॥ ४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स गत्वा हिमवत्पार्श्वं तपोवनमकल्पयत्।
तत्र शिष्यैः परिवृतो मुनिवेषधरः खलः॥ ५॥
गच्छतो मार्गमासाद्य वायुसूनोर्महात्मनः।
ततो गत्वा ददर्शाथ हनूमानाश्रमं शुभम्॥ ६॥
मूलम्
स गत्वा हिमवत्पार्श्वं तपोवनमकल्पयत्।
तत्र शिष्यैः परिवृतो मुनिवेषधरः खलः॥ ५॥
गच्छतो मार्गमासाद्य वायुसूनोर्महात्मनः।
ततो गत्वा ददर्शाथ हनूमानाश्रमं शुभम्॥ ६॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसने हिमालयकी तराईमें पहुँचकर उधरसे जाते हुए वायुपुत्र महात्मा हनुमान् के मार्गमें एक तपोवन बनाया और वहाँ वह दुष्ट स्वयं मुनिवेष बनाकर शिष्यवर्गसे घिरकर बैठ गया। जिस समय हनुमान् जी वहाँ पहुँचे तो उन्होंने वह सुन्दर आश्रम देखा॥ ५-६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चिन्तयामास मनसा श्रीमान् पवननन्दनः।
पुरा न दृष्टमेतन्मे मुनिमण्डलमुत्तमम्॥ ७॥
मूलम्
चिन्तयामास मनसा श्रीमान् पवननन्दनः।
पुरा न दृष्टमेतन्मे मुनिमण्डलमुत्तमम्॥ ७॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसे देखकर श्रीमान् पवननन्दन मन-ही-मन सोचने लगे— ‘मैंने पहले तो यह उत्तम मुनिमण्डल देखा नहीं था॥ ७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मार्गो विभ्रंशितो वा मे भ्रमो वा चित्तसम्भवः।
यद्वाविश्याश्रमपदं दृष्ट्वा मुनिमशेषतः॥ ८॥
पीत्वा जलं ततो यामि द्रोणाचलमनुत्तमम्।
इत्युक्त्वा प्रविवेशाथ सर्वतो योजनायतम्॥ ९॥
आश्रमं कदलीशालखर्जूरपनसादिभिः।
समावृतं पक्वफलैर्नम्रशाखैश्च पादपैः॥ १०॥
मूलम्
मार्गो विभ्रंशितो वा मे भ्रमो वा चित्तसम्भवः।
यद्वाविश्याश्रमपदं दृष्ट्वा मुनिमशेषतः॥ ८॥
पीत्वा जलं ततो यामि द्रोणाचलमनुत्तमम्।
इत्युक्त्वा प्रविवेशाथ सर्वतो योजनायतम्॥ ९॥
आश्रमं कदलीशालखर्जूरपनसादिभिः।
समावृतं पक्वफलैर्नम्रशाखैश्च पादपैः॥ १०॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्या मैं मार्ग भूल गया हूँ या मेरे चित्तमें कोई भ्रम हो गया है? अथवा चलो, इस आश्रममें चलकर सब मुनीश्वरोंका दर्शन करूँ और जल पीऊँ, तदुपरान्त पर्वतश्रेष्ठ द्रोणाचलपर चलूँगा।’ ऐसा विचार वे उस आश्रममें गये, वह सब ओरसे एक योजन विस्तारवाला था तथा उसमें सब ओर पके हुए फलोंसे जिनकी शाखाएँ झुकी हुई हैं ऐसे कदली, शाल, खजूर और कटहल आदिके वृक्ष लगे हुए थे॥ ८—१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वैरभावविनिर्मुक्तं शुद्धं निर्मललक्षणम्।
तस्मिन्महाश्रमे रम्ये कालनेमिः स राक्षसः॥ ११॥
इन्द्रयोगं समास्थाय चकार शिवपूजनम्।
हनूमानभिवाद्याह गौरवेण महासुरम्॥ १२॥
मूलम्
वैरभावविनिर्मुक्तं शुद्धं निर्मललक्षणम्।
तस्मिन्महाश्रमे रम्ये कालनेमिः स राक्षसः॥ ११॥
इन्द्रयोगं समास्थाय चकार शिवपूजनम्।
हनूमानभिवाद्याह गौरवेण महासुरम्॥ १२॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह शुद्ध और निर्मल आश्रम वैरभावसे सर्वथा रहित था। उस अति सुरम्य महाश्रममें राक्षस कालनेमि इन्द्रजाल विद्याका आश्रय कर शिवजीका पूजन कर रहा था। हनुमान् जी ने उस महादैत्यको बड़े गौरवसे नमस्कार कर कहा—॥ ११-१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगवन् रामदूतोऽहं हनूमान् नाम नामतः।
रामकार्येण महता क्षीराब्धिं गन्तुमुद्यतः॥ १३॥
मूलम्
भगवन् रामदूतोऽहं हनूमान् नाम नामतः।
रामकार्येण महता क्षीराब्धिं गन्तुमुद्यतः॥ १३॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘भगवन्! मैं भगवान् रामका दूत हूँ, मेरा नाम हनुमान् है और मैं श्रीरामचन्द्रजीके एक महान् कार्यसे क्षीरसागरको जा रहा हूँ॥ १३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तृषा मां बाधते ब्रह्मन् नुदकं कुत्र विद्यते।
यथेच्छं पातुमिच्छामि कथ्यतां मे मुनीश्वर॥ १४॥
मूलम्
तृषा मां बाधते ब्रह्मन् नुदकं कुत्र विद्यते।
यथेच्छं पातुमिच्छामि कथ्यतां मे मुनीश्वर॥ १४॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मन्! मुझे बहुत प्यास लगी हुई है, मैं खूब जल पीना चाहता हूँ। हे मुनीश्वर! कृपया बतलाइये यहाँ जल कहाँ है?’’॥ १४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छ्रुत्वा मारुतेर्वाक्यं कालनेमिस्तमब्रवीत्।
कमण्डलुगतं तोयं मम त्वं पातुमर्हसि॥ १५॥
मूलम्
तच्छ्रुत्वा मारुतेर्वाक्यं कालनेमिस्तमब्रवीत्।
कमण्डलुगतं तोयं मम त्वं पातुमर्हसि॥ १५॥
अनुवाद (हिन्दी)
हनुमान् जी के ये वचन सुनकर कालनेमिने कहा— ‘‘तुम मेरे कमण्डलुका जल पी सकते हो॥ १५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भुङ्क्ष्व चेमानि पक्वानि फलानि तदनन्तरम्।
निवसस्व सुखेनात्र निद्रामेहि त्वरास्तु मा॥ १६॥
मूलम्
भुङ्क्ष्व चेमानि पक्वानि फलानि तदनन्तरम्।
निवसस्व सुखेनात्र निद्रामेहि त्वरास्तु मा॥ १६॥
अनुवाद (हिन्दी)
यहाँ ये फल मौजूद हैं, इन्हें खाओ और फिर सुखपूर्वक यहाँ विश्राम लेकर कुछ सो लो, ऐसी जल्दी मत करो॥ १६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूतं भव्यं भविष्यं च जानामि तपसा स्वयम्।
उत्थितो लक्ष्मणः सर्वे वानरा रामवीक्षिताः॥ १७॥
मूलम्
भूतं भव्यं भविष्यं च जानामि तपसा स्वयम्।
उत्थितो लक्ष्मणः सर्वे वानरा रामवीक्षिताः॥ १७॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं अपने तपोबलसे भूत, भविष्यत् और वर्तमान तीनों कालोंकी बात जानता हूँ। इस समय रामचन्द्रजीके देखनेसे ही लक्ष्मणजी और समस्त वानरगण सचेत होकर उठ बैठे हैं’’॥ १७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छ्रुत्वा हनुमानाह कमण्डलुजलेन मे।
न शाम्यत्यधिका तृष्णा ततो दर्शय मे जलम्॥ १८॥
मूलम्
तच्छ्रुत्वा हनुमानाह कमण्डलुजलेन मे।
न शाम्यत्यधिका तृष्णा ततो दर्शय मे जलम्॥ १८॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सुनकर हनुमान् जी ने कहा—‘‘मुझे बड़े जोरकी प्यास लगी हुई है, इस कमण्डलुके जलसे वह शान्त नहीं हो सकती, अतः मुझे जलाशय ही दिखला दीजिये’’॥ १८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथेत्याज्ञापयामास वटुं मायाविकल्पितम्।
वटो दर्शय विस्तीर्णं वायुसूनोर्जलाशयम्॥ १९॥
मूलम्
तथेत्याज्ञापयामास वटुं मायाविकल्पितम्।
वटो दर्शय विस्तीर्णं वायुसूनोर्जलाशयम्॥ १९॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब ‘अच्छी बात है’ ऐसा कहकर उसने एक माया-कल्पित ब्रह्मचारीको आज्ञा दी, ‘‘ब्रह्मचारिन्! हनुमान् जी को वह विस्तृत जलाशय दिखला दो’’॥ १९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निमील्य चाक्षिणी तोयं पीत्वागच्छ ममान्तिकम्।
उपदेक्ष्यामि ते मन्त्रं येन द्रक्ष्यसि चौषधीः॥ २०॥
मूलम्
निमील्य चाक्षिणी तोयं पीत्वागच्छ ममान्तिकम्।
उपदेक्ष्यामि ते मन्त्रं येन द्रक्ष्यसि चौषधीः॥ २०॥
अनुवाद (हिन्दी)
(फिर हनुमान् जी से बोला—) ‘‘देखो, तुम आँखें मूँदकर जल पीना और फिर तुरंत मेरे पास चले आना। मैं तुम्हें एक मन्त्रका उपदेश करूँगा, जिससे तुम ओषधिको देख सकोगे’’॥ २०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथेति दर्शितं शीघ्रं वटुना सलिलाशयम्।
प्रविश्य हनुमांस्तोयमपिबन् मीलितेक्षणः॥ २१॥
मूलम्
तथेति दर्शितं शीघ्रं वटुना सलिलाशयम्।
प्रविश्य हनुमांस्तोयमपिबन् मीलितेक्षणः॥ २१॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब बटुने ‘जो आज्ञा’ कह तुरंत ही जलाशय दिखला दिया। उसमें घुसकर हनुमान् जी आँखें मूँदकर जल पीने लगे॥ २१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततश्चागत्य मकरी महामाया महाकपिम्।
अग्रसत्तं महावेगान् मारुतिं घोररूपिणी॥ २२॥
मूलम्
ततश्चागत्य मकरी महामाया महाकपिम्।
अग्रसत्तं महावेगान् मारुतिं घोररूपिणी॥ २२॥
अनुवाद (हिन्दी)
इतनेहीमें वहाँ एक महामायाविनी घोररूपिणी मकरी आकर बड़ी शीघ्रतासे महाकपि हनुमान् जी को निगलने लगी॥ २२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो ददर्श हनुमान् ग्रसन्तीं मकरीं रुषा।
दारयामास हस्ताभ्यां वदनं सा ममार ह॥ २३॥
मूलम्
ततो ददर्श हनुमान् ग्रसन्तीं मकरीं रुषा।
दारयामास हस्ताभ्यां वदनं सा ममार ह॥ २३॥
अनुवाद (हिन्दी)
हनुमान् जी ने उस मकरीको अपनेको निगलते देख अति क्रुद्ध हो अपने हाथोंसे उसका मुख फाड़ डाला, जिससे वह तत्काल मर गयी॥ २३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽन्तरिक्षे ददृशे दिव्यरूपधराङ्गना।
धान्यमालीति विख्याता हनूमन्तमथाब्रवीत्॥ २४॥
मूलम्
ततोऽन्तरिक्षे ददृशे दिव्यरूपधराङ्गना।
धान्यमालीति विख्याता हनूमन्तमथाब्रवीत्॥ २४॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी समय आकाशमें एक दिव्यरूपधारिणी स्त्री दिखलायी दी, उसका नाम धान्यमाली था। वह हनुमान् जी से बोली—॥ २४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वत्प्रसादादहं शापाद्विमुक्तास्मि कपीश्वर।
शप्ताहं मुनिना पूर्वमप्सराः कारणान्तरे॥ २५॥
मूलम्
त्वत्प्रसादादहं शापाद्विमुक्तास्मि कपीश्वर।
शप्ताहं मुनिना पूर्वमप्सराः कारणान्तरे॥ २५॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘हे कपीश्वर! आपकी कृपासे मैं आज शापमुक्त हो गयी। पहले मैं एक अप्सरा थी। किसी कारणवश मुझे एक मुनीश्वरने शाप दिया था। (इसीसे मैं मकरी हो गयी थी)॥ २५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आश्रमे यस्तु ते दृष्टः कालनेमिर्महासुरः।
रावणप्रहितो मार्गे विघ्नं कर्तुं तवानघ॥ २६॥
मूलम्
आश्रमे यस्तु ते दृष्टः कालनेमिर्महासुरः।
रावणप्रहितो मार्गे विघ्नं कर्तुं तवानघ॥ २६॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस आश्रममें आपने जिस पुरुषको देखा है, वह कालनेमि नामक महादैत्य है। हे अनघ! इसे रावणने आपके मार्गमें विघ्न डालनेके लिये भेजा है॥ २६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुनिवेषधरो नासौ मुनिर्विप्रविहिंसकः।
जहि दुष्टं गच्छ शीघ्रं द्रोणाचलमनुत्तमम्॥ २७॥
मूलम्
मुनिवेषधरो नासौ मुनिर्विप्रविहिंसकः।
जहि दुष्टं गच्छ शीघ्रं द्रोणाचलमनुत्तमम्॥ २७॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह मुनिवेष धारण करनेवाला वस्तुतः कोई मुनि नहीं है, बल्कि ब्राह्मणोंकी हिंसा करनेवाला है। इस दुष्टको शीघ्र ही मारकर आप पर्वतश्रेष्ठ द्रोणाचलको जाइये॥ २७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गच्छाम्यहं ब्रह्मलोकं त्वत्स्पर्शाद्धतकल्मषा।
इत्युक्त्वा सा ययौ स्वर्गं हनूमानप्यथाश्रमम्॥ २८॥
मूलम्
गच्छाम्यहं ब्रह्मलोकं त्वत्स्पर्शाद्धतकल्मषा।
इत्युक्त्वा सा ययौ स्वर्गं हनूमानप्यथाश्रमम्॥ २८॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं आपके स्पर्शसे निष्पाप होकर अब ब्रह्मलोकको जाती हूँ।’’ ऐसा कह वह स्वर्गलोकको चली गयी और हनुमान् जी भी आश्रमको चले॥ २८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आगतं तं समालोक्य कालनेमिरभाषत।
किं विलम्बेन महता तव वानरसत्तम॥ २९॥
मूलम्
आगतं तं समालोक्य कालनेमिरभाषत।
किं विलम्बेन महता तव वानरसत्तम॥ २९॥
अनुवाद (हिन्दी)
हनुमान् जी को आये देख कालनेमिने कहा—‘‘हे वानरश्रेष्ठ! अब बहुत विलम्ब करनेसे तुम्हें क्या लाभ है?॥ २९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गृहाण मत्तो मन्त्रांस्त्वं देहि मे गुरुदक्षिणाम्।
इत्युक्तो हनुमान् मुष्टिं दृढं बद्ध्वाह राक्षसम्॥ ३०॥
मूलम्
गृहाण मत्तो मन्त्रांस्त्वं देहि मे गुरुदक्षिणाम्।
इत्युक्तो हनुमान् मुष्टिं दृढं बद्ध्वाह राक्षसम्॥ ३०॥
अनुवाद (हिन्दी)
लो, मुझसे मन्त्र ग्रहण करो और मुझे गुरुदक्षिणा दो।’’ उसके इस प्रकार कहनेपर हनुमान् जी ने अपनी मुट्ठी कसकर बाँधी और उस राक्षससे कहा—॥ ३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गृहाण दक्षिणामेतामित्युक्त्वा निजघान तम्।
विसृज्य मुनिवेषं स कालनेमिर्महासुरः॥ ३१॥
युयुधे वायुपुत्रेण नानामायाविधानतः।
महामायिकदूतोऽसौ हनूमान् मायिनां रिपुः॥ ३२॥
जघान मुष्टिना शीर्ष्णि भग्नमूर्धा ममार सः।
मूलम्
गृहाण दक्षिणामेतामित्युक्त्वा निजघान तम्।
विसृज्य मुनिवेषं स कालनेमिर्महासुरः॥ ३१॥
युयुधे वायुपुत्रेण नानामायाविधानतः।
महामायिकदूतोऽसौ हनूमान् मायिनां रिपुः॥ ३२॥
जघान मुष्टिना शीर्ष्णि भग्नमूर्धा ममार सः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘लो दक्षिणा तो यह लो’’—ऐसा कह उसके एक मुक्का मारा। उसके लगते ही महादैत्य कालनेमि मुनिवेष त्याग कर नाना प्रकारकी मायाओंसे पवनपुत्रके साथ लड़ने लगा। किन्तु हनुमान् जी तो महामायावी (मायापति भगवान् राम)-के दूत और इन तुच्छ मायावी राक्षसोंके शत्रु थे, (उनपर इन तुच्छ मायाओंका क्या प्रभाव हो सकता था?) उन्होंने उसके सिरमें एक मुक्का मारा जिससे मस्तक फट जानेके कारण वह तुरंत मर गया॥ ३१-३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः क्षीरनिधिं गत्वा दृष्ट्वा द्रोणं महागिरिम्॥ ३३॥
अदृष्ट्वा चौषधीस्तत्र गिरिमुत्पाट्य सत्वरः।
गृहीत्वा वायुवेगेन गत्वा रामस्य सन्निधिम्॥ ३४॥
उवाच हनुमान् राममानीतोऽयं महागिरिः।
यद्युक्तं कुरु देवेश विलम्बो नात्र युज्यते॥ ३५॥
मूलम्
ततः क्षीरनिधिं गत्वा दृष्ट्वा द्रोणं महागिरिम्॥ ३३॥
अदृष्ट्वा चौषधीस्तत्र गिरिमुत्पाट्य सत्वरः।
गृहीत्वा वायुवेगेन गत्वा रामस्य सन्निधिम्॥ ३४॥
उवाच हनुमान् राममानीतोऽयं महागिरिः।
यद्युक्तं कुरु देवेश विलम्बो नात्र युज्यते॥ ३५॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर वे क्षीर-समुद्रपर पहुँचे और महापर्वत द्रोणाचलको देखा। किन्तु उन्हें वह ओषधि न मिली। अतः फौरन ही उस पर्वतको उखाड़ लिया और उसे वायुवेगसे रामचन्द्रजीके पास ले जाकर उनसे कहा—‘‘हे देवेश्वर! मैं इस महापर्वतको ले आया हूँ। आप जो उचित समझें शीघ्र ही करें, इस कार्यमें विलम्ब करना ठीक नहीं है’’॥ ३३—३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वा हनूमतो वाक्यं रामः सन्तुष्टमानसः।
गृहीत्वा चौषधीः शीघ्रं सुषेणेन महामतिः॥ ३६॥
चिकित्सां कारयामास लक्ष्मणाय महात्मने।
ततः सुप्तोत्थित इव बुद्ध्वा प्रोवाच लक्ष्मणः॥ ३७॥
मूलम्
श्रुत्वा हनूमतो वाक्यं रामः सन्तुष्टमानसः।
गृहीत्वा चौषधीः शीघ्रं सुषेणेन महामतिः॥ ३६॥
चिकित्सां कारयामास लक्ष्मणाय महात्मने।
ततः सुप्तोत्थित इव बुद्ध्वा प्रोवाच लक्ष्मणः॥ ३७॥
अनुवाद (हिन्दी)
हनुमान् जी का यह वचन सुनकर भगवान् राम अति प्रसन्न हुए और उन महामति प्रभुने तुरंत ही उस पर्वतसे ओषधि लेकर सुषेणसे महात्मा लक्ष्मणकी चिकित्सा करायी। तब नींदसे उठे हुएके समान लक्ष्मणजीने सचेत होकर कहा—॥ ३६-३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिष्ठ तिष्ठ क्व गन्तासि हन्मीदानीं दशानन।
इति ब्रुवन्तमालोक्य मूर्ध्न्यवघ्राय राघवः॥ ३८॥
मारुतिं प्राह वत्साद्य त्वत्प्रसादान्महाकपे।
निरामयं प्रपश्यामि लक्ष्मणं भ्रातरं मम॥ ३९॥
मूलम्
तिष्ठ तिष्ठ क्व गन्तासि हन्मीदानीं दशानन।
इति ब्रुवन्तमालोक्य मूर्ध्न्यवघ्राय राघवः॥ ३८॥
मारुतिं प्राह वत्साद्य त्वत्प्रसादान्महाकपे।
निरामयं प्रपश्यामि लक्ष्मणं भ्रातरं मम॥ ३९॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘अरे दुष्ट दशानन! खड़ा रह, खड़ा रह, तू जायगा कहाँ? मैं तुझे अभी मारे डालता हूँ।’’ उन्हें इस प्रकार कहते देख रघुनाथजीने उनका सिर सूँघकर हनुमान् जी से कहा—‘‘हे वत्स! हे महाकपे! आज तुम्हारी कृपासे ही मैं अपने भाई लक्ष्मणको सकुशल देख रहा हूँ’’॥ ३८-३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा वानरैः सार्धं सुग्रीवेण समन्वितः।
विभीषणमतेनैव युद्धाय समवस्थितः॥ ४०॥
मूलम्
इत्युक्त्वा वानरैः सार्धं सुग्रीवेण समन्वितः।
विभीषणमतेनैव युद्धाय समवस्थितः॥ ४०॥
अनुवाद (हिन्दी)
हनुमान् जी से इस प्रकार कह श्रीरामचन्द्रजी सुग्रीव और अन्यान्य वानरोंके साथ विभीषणकी सम्मतिसे युद्धकी तैयारी करने लगे॥ ४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाषाणैः पादपैश्चैव पर्वताग्रैश्च वानराः।
युद्धायाभिमुखा भूत्वा ययुः सर्वे युयुत्सवः॥ ४१॥
मूलम्
पाषाणैः पादपैश्चैव पर्वताग्रैश्च वानराः।
युद्धायाभिमुखा भूत्वा ययुः सर्वे युयुत्सवः॥ ४१॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब युद्धके लिये अत्यन्त उत्सुक समस्त वानरगण पाषाण, वृक्ष और पर्वतशिखर आदि लेकर लड़नेके लिये चले॥ ४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रावणो विव्यथे रामबाणैर्विद्धो महासुरः।
मातङ्ग इव सिंहेन गरुडेनेव पन्नगः॥ ४२॥
अभिभूतोऽगमद्राजा राघवेण महात्मना।
सिंहासने समाविश्य राक्षसानिदमब्रवीत्॥ ४३॥
मूलम्
रावणो विव्यथे रामबाणैर्विद्धो महासुरः।
मातङ्ग इव सिंहेन गरुडेनेव पन्नगः॥ ४२॥
अभिभूतोऽगमद्राजा राघवेण महात्मना।
सिंहासने समाविश्य राक्षसानिदमब्रवीत्॥ ४३॥
अनुवाद (हिन्दी)
इधर भगवान् रामके बाणोंसे विद्ध होकर महाराक्षस रावण ऐसा व्याकुल हो रहा था जैसे सिंहसे हाथी और गरुड़से सर्प हो जाता है। अतः वह राक्षसराज महात्मा रामसे परास्त होकर लंकापुरीमें गया और अपने राजसिंहासनपर बैठकर राक्षसोंसे इस प्रकार कहने लगा—॥ ४२-४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मानुषेणैव मे मृत्युमाह पूर्वं पितामहः।
मानुषो हि न मां हन्तुं शक्तोऽस्ति भुवि कश्चन॥ ४४॥
मूलम्
मानुषेणैव मे मृत्युमाह पूर्वं पितामहः।
मानुषो हि न मां हन्तुं शक्तोऽस्ति भुवि कश्चन॥ ४४॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘पूर्वकालमें पितामह ब्रह्माजीने मेरी मृत्यु मनुष्यके ही हाथसे बतलायी थी, किन्तु संसारमें ऐसा कोई मनुष्य नहीं है जो मुझे मार सके॥ ४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो नारायणः साक्षान्मानुषोऽभून्न संशयः।
रामो दाशरथिर्भूत्वा मां हन्तुं समुपस्थितः॥ ४५॥
मूलम्
ततो नारायणः साक्षान्मानुषोऽभून्न संशयः।
रामो दाशरथिर्भूत्वा मां हन्तुं समुपस्थितः॥ ४५॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः इसमें सन्देह नहीं साक्षात् नारायणहीने मनुष्यका अवतार लिया है और वे दशरथकुमार राम होकर मुझे मारनेके लिये आये हैं॥ ४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनरण्येन यत्पूर्वं शप्तोऽहं राक्षसेश्वर।
उत्पत्स्यते च मद्वंशे परमात्मा सनातनः॥ ४६॥
तेन त्वं पुत्रपौत्रैश्च बान्धवैश्च समन्वितः।
हनिष्यसे न सन्देह इत्युक्त्वा मां दिवं गतः॥ ४७॥
स एव रामः संजातो मदर्थे मां हनिष्यति।
कुम्भकर्णस्तु मूढात्मा सदा निद्रावशं गतः॥ ४८॥
मूलम्
अनरण्येन यत्पूर्वं शप्तोऽहं राक्षसेश्वर।
उत्पत्स्यते च मद्वंशे परमात्मा सनातनः॥ ४६॥
तेन त्वं पुत्रपौत्रैश्च बान्धवैश्च समन्वितः।
हनिष्यसे न सन्देह इत्युक्त्वा मां दिवं गतः॥ ४७॥
स एव रामः संजातो मदर्थे मां हनिष्यति।
कुम्भकर्णस्तु मूढात्मा सदा निद्रावशं गतः॥ ४८॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूर्वकालमें मुझे जो अनरण्यने शाप दिया था कि ‘हे राक्षसराज! मेरे वंशमें सनातन पुरुष परमात्मा अवतार लेंगे और उन्हींके हाथसे तुम निस्सन्देह अपने पुत्र, पौत्र और बान्धवोंके सहित मारे जाओगे’ और ऐसा कहकर वह स्वर्गको चला गया था, सो उन्हीं रामने मेरे लिये अवतार लिया है और ये मुझे अवश्य मारेंगे। हमारा भाई कुम्भकर्ण तो बड़ा ही मूढ है, वह सदा ही निद्राके वशीभूत रहता है॥ ४६—४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं विबोध्य महासत्त्वमानयन्तु ममान्तिकम्।
इत्युक्तास्ते महाकायास्तूर्णं गत्वा तु यत्नतः॥ ४९॥
विबोध्य कुम्भश्रवणं निन्यू रावणसन्निधिम्।
नमस्कृत्य स राजानमासनोपरि संस्थितः॥ ५०॥
मूलम्
तं विबोध्य महासत्त्वमानयन्तु ममान्तिकम्।
इत्युक्तास्ते महाकायास्तूर्णं गत्वा तु यत्नतः॥ ४९॥
विबोध्य कुम्भश्रवणं निन्यू रावणसन्निधिम्।
नमस्कृत्य स राजानमासनोपरि संस्थितः॥ ५०॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम उस महावीरको जगाकर मेरे पास ले आओ।’’ रावणके इस प्रकार कहनेपर वे महाकाय राक्षसगण तुरंत ही गये और प्रयत्नपूर्वक कुम्भकर्णको जगाकर रावणके पास ले आये। वहाँ पहुँचनेपर वह राजाको प्रणामकर आसनपर बैठ गया॥ ४९-५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमाह रावणो राजा भ्रातरं दीनया गिरा।
कुम्भकर्ण निबोध त्वं महत्कष्टमुपस्थितम्॥ ५१॥
मूलम्
तमाह रावणो राजा भ्रातरं दीनया गिरा।
कुम्भकर्ण निबोध त्वं महत्कष्टमुपस्थितम्॥ ५१॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब राजा रावणने अत्यन्त दीन-वाणीसे उस अपने भाईसे कहा—‘‘कुम्भकर्ण! इस समय हमारे ऊपर बड़ा संकट है, सो तुम सुनो॥ ५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामेण निहताः शूराः पुत्राः पौत्राश्च बान्धवाः।
किं कर्तव्यमिदानीं मे मृत्युकाल उपस्थिते॥ ५२॥
मूलम्
रामेण निहताः शूराः पुत्राः पौत्राश्च बान्धवाः।
किं कर्तव्यमिदानीं मे मृत्युकाल उपस्थिते॥ ५२॥
अनुवाद (हिन्दी)
रामने हमारे बड़े-बड़े वीर, पुत्र, पौत्र और बन्धु-बान्धवगण मार डाले हैं। भाई! इस समय मेरा मृत्युकाल आ गया है, अब मुझे क्या करना चाहिये॥ ५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष दाशरथी रामः सुग्रीवसहितो बली।
समुद्रं सबलस्तीर्त्वा मूलं नः परिकृन्तति॥ ५३॥
मूलम्
एष दाशरथी रामः सुग्रीवसहितो बली।
समुद्रं सबलस्तीर्त्वा मूलं नः परिकृन्तति॥ ५३॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह महाबली दशरथकुमार राम सुग्रीवके सहित दलबलके साथ समुद्र पारकर सब ओरसे हमारी जड़ काट रहा है॥ ५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये राक्षसा मुख्यतमास्ते हता वानरैर्युधि।
वानराणां क्षयं युद्धे न पश्यामि कदाचन॥ ५४॥
मूलम्
ये राक्षसा मुख्यतमास्ते हता वानरैर्युधि।
वानराणां क्षयं युद्धे न पश्यामि कदाचन॥ ५४॥
अनुवाद (हिन्दी)
हमारे जो मुख्य-मुख्य राक्षस थे वे सब युद्धमें वानरोंके हाथसे मारे गये, किन्तु इस युद्धमें हमें वानरोंका क्षय होता कभी दिखायी नहीं देता॥ ५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाशयस्व महाबाहो यदर्थं परिबोधितः।
भ्रातुरर्थे महासत्त्व कुरु कर्म सुदुष्करम्॥ ५५॥
मूलम्
नाशयस्व महाबाहो यदर्थं परिबोधितः।
भ्रातुरर्थे महासत्त्व कुरु कर्म सुदुष्करम्॥ ५५॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे महाबाहो! तुम इनका नाश करो, मैंने इसीलिये तुम्हें जगाया है। हे महावीर! अपने भाईके लिये इस दुष्कर कार्यको करो’’॥ ५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वा तद्रावणेन्द्रस्य वचनं परिदेवितम्।
कुम्भकर्णो जहासोच्चैर्वचनं चेदमब्रवीत्॥ ५६॥
मूलम्
श्रुत्वा तद्रावणेन्द्रस्य वचनं परिदेवितम्।
कुम्भकर्णो जहासोच्चैर्वचनं चेदमब्रवीत्॥ ५६॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा रावणके ये दुःखमय वचन सुनकर कुम्भकर्ण बड़े जोरसे ठट्ठा मारकर हँसा और इस प्रकार कहने लगा—॥ ५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरा मन्त्रविचारे ते गदितं यन्मया नृप।
तदद्य त्वामुपगतं फलं पापस्य कर्मणः॥ ५७॥
मूलम्
पुरा मन्त्रविचारे ते गदितं यन्मया नृप।
तदद्य त्वामुपगतं फलं पापस्य कर्मणः॥ ५७॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘राजन्! आपने जब पहले सम्मति की थी, उस समय मैंने जो कुछ कहा था आपके पापका वह फल आज उपस्थित हो ही गया॥ ५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूर्वमेव मया प्रोक्तो रामो नारायणः परः।
सीता च योगमायेति बोधितोऽपि न बुध्यसे॥ ५८॥
मूलम्
पूर्वमेव मया प्रोक्तो रामो नारायणः परः।
सीता च योगमायेति बोधितोऽपि न बुध्यसे॥ ५८॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैंने तो आपसे पहले ही कहा था कि राम साक्षात् परब्रह्म नारायण हैं और सीताजी योगमाया हैं, किन्तु आप तो समझानेपर भी नहीं समझते॥ ५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकदाहं वने सानौ विशालायां स्थितो निशि।
दृष्टो मया मुनिः साक्षान्नारदो दिव्यदर्शनः॥ ५९॥
मूलम्
एकदाहं वने सानौ विशालायां स्थितो निशि।
दृष्टो मया मुनिः साक्षान्नारदो दिव्यदर्शनः॥ ५९॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक दिन मैं रात्रिके समय वनमें एक विशाल शिलापर बैठा था। इसी समय मैंने दिव्यमूर्ति साक्षात् नारद मुनिको देखा॥ ५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमब्रवं महाभाग कुतो गन्तासि मे वद।
इत्युक्तो नारदः प्राह देवानां मन्त्रणे स्थितः॥ ६०॥
मूलम्
तमब्रवं महाभाग कुतो गन्तासि मे वद।
इत्युक्तो नारदः प्राह देवानां मन्त्रणे स्थितः॥ ६०॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्हें देखकर मैंने कहा—
‘‘हे महाभाग! कहिये, इस समय आप कहाँ जा रहे हैं।’’ मेरे इस प्रकार पूछनेपर नारदजीने कहा—‘‘मैं अभीतक देवताओंकी एक गुप्त गोष्ठीमें था॥ ६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्रोत्पन्नमुदन्तं ते वक्ष्यामि शृणु तत्त्वतः।
युवाभ्यां पीडिता देवाः सर्वे विष्णुमुपागताः॥ ६१॥
मूलम्
तत्रोत्पन्नमुदन्तं ते वक्ष्यामि शृणु तत्त्वतः।
युवाभ्यां पीडिता देवाः सर्वे विष्णुमुपागताः॥ ६१॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ जो कुछ हुआ वह मैं तुम्हें ज्यों-का-त्यों सुनाता हूँ। तुम दोनों भाइयोंसे अत्यन्त पीड़ित होकर समस्त देवगण विष्णुभगवान् के पास गये॥ ६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊचुस्ते देवदेवेशं स्तुत्वा भक्त्या समाहिताः।
जहि रावणमक्षोभ्यं देव त्रैलोक्यकण्टकम्॥ ६२॥
मूलम्
ऊचुस्ते देवदेवेशं स्तुत्वा भक्त्या समाहिताः।
जहि रावणमक्षोभ्यं देव त्रैलोक्यकण्टकम्॥ ६२॥
अनुवाद (हिन्दी)
और उन देवदेवेश्वरकी अत्यन्त भक्ति और एकाग्रतासे स्तुति कर कहने लगे—‘हे देव! इस रावणके आगे हमारी कुछ नहीं चलती। आप इस त्रिलोकीके काँटेका शीघ्र ही संहार कीजिये॥ ६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मानुषेण मृतिस्तस्य कल्पिता ब्रह्मणा पुरा।
अतस्त्वं मानुषो भूत्वा जहि रावणकण्टकम्॥ ६३॥
मूलम्
मानुषेण मृतिस्तस्य कल्पिता ब्रह्मणा पुरा।
अतस्त्वं मानुषो भूत्वा जहि रावणकण्टकम्॥ ६३॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूर्वकालमें ब्रह्माजीने उसकी मृत्यु मनुष्यके हाथसे निश्चित की है, अतः आप मनुष्य होकर इस रावणरूप कण्टकको नष्ट कीजिये॥ ६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथेत्याह महाविष्णुः सत्यसङ्कल्प ईश्वरः।
जातो रघुकुले देवो राम इत्यभिविश्रुतः॥ ६४॥
स हनिष्यति वः सर्वानित्युक्त्वा प्रययौ मुनिः।
अतो जानीहि रामं त्वं परं ब्रह्म सनातनम्॥ ६५॥
मूलम्
तथेत्याह महाविष्णुः सत्यसङ्कल्प ईश्वरः।
जातो रघुकुले देवो राम इत्यभिविश्रुतः॥ ६४॥
स हनिष्यति वः सर्वानित्युक्त्वा प्रययौ मुनिः।
अतो जानीहि रामं त्वं परं ब्रह्म सनातनम्॥ ६५॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब सत्यसंकल्प भगवान् विष्णुने ‘बहुत अच्छा’ कहा। अब वे रघुकुलमें अवतीर्ण होकर राम-नामसे विख्यात हुए हैं। वे तुम सबको मारेंगे।’’ ऐसा कहकर नारद मुनि चले गये। ‘‘अतः आप रामको सनातन परब्रह्म ही जानिये॥ ६४-६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्यज वैरं भजस्वाद्य मायामानुषविग्रहम्।
भजतो भक्तिभावेन प्रसीदति रघूत्तमः॥ ६६॥
मूलम्
त्यज वैरं भजस्वाद्य मायामानुषविग्रहम्।
भजतो भक्तिभावेन प्रसीदति रघूत्तमः॥ ६६॥
अनुवाद (हिन्दी)
और वैर छोड़कर उन मायामानवरूप भगवान् का भजन कीजिये। श्रीरघुनाथजी भक्तिभावसे भजन करनेवालेसे प्रसन्न हो जाते हैं॥ ६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भक्तिर्जनित्री ज्ञानस्य भक्तिर्मोक्षप्रदायिनी।
भक्तिहीनेन यत्किञ्चित्कृतं सर्वमसत्समम्॥ ६७॥
मूलम्
भक्तिर्जनित्री ज्ञानस्य भक्तिर्मोक्षप्रदायिनी।
भक्तिहीनेन यत्किञ्चित्कृतं सर्वमसत्समम्॥ ६७॥
अनुवाद (हिन्दी)
भक्ति ही ज्ञानकी जननी और मोक्षको देनेवाली है। भक्तिहीन पुरुष जो कुछ करता है वह सब न कियेके समान ही है॥ ६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवताराः सुबहवो विष्णोर्लीलानुकारिणः।
तेषां सहस्रसदृशो रामो ज्ञानमयः शिवः॥ ६८॥
मूलम्
अवताराः सुबहवो विष्णोर्लीलानुकारिणः।
तेषां सहस्रसदृशो रामो ज्ञानमयः शिवः॥ ६८॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् विष्णुके अनेकों अवतार हुए हैं और वे सभी अपने स्वरूपके अनुसार लीला करनेवाले थे। किन्तु यह शिवस्वरूप ज्ञानमय रामावतार वैसे एक सहस्र अवतारोंके समान है॥ ६८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामं भजन्ति निपुणा मनसा वचसानिशम्।
अनायासेन संसारं तीर्त्वा यान्ति हरेः पदम्॥ ६९॥
मूलम्
रामं भजन्ति निपुणा मनसा वचसानिशम्।
अनायासेन संसारं तीर्त्वा यान्ति हरेः पदम्॥ ६९॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो लोग रात-दिन मन और वचनसे भगवान् रामका भली प्रकार भजन करते हैं वे बिना प्रयास ही संसारको पारकर श्रीहरिके परम धामको जाते हैं॥ ६९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये राममेव सततं भुवि शुद्धसत्त्वा
ध्यायन्ति तस्य चरितानि पठन्ति सन्तः।
मुक्तास्त एव भवभोगमहाहिपाशैः
सीतापतेः पदमनन्तसुखं प्रयान्ति॥ ७०॥
मूलम्
ये राममेव सततं भुवि शुद्धसत्त्वा
ध्यायन्ति तस्य चरितानि पठन्ति सन्तः।
मुक्तास्त एव भवभोगमहाहिपाशैः
सीतापतेः पदमनन्तसुखं प्रयान्ति॥ ७०॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो शुद्धचित्त महानुभाव इस भूमण्डलमें निरन्तर रामका ही ध्यान करते और उन्हींके चरित्र पढ़ते हैं, वे ही सांसारिक विषयरूप महान् नागपाशसे छूटकर श्रीसीतापतिके अनन्त सुखमय चरणकमलोंको प्राप्त होते हैं’’॥ ७०॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे युद्धकाण्डे सप्तमः सर्गः॥ ७॥