०६

[षष्ठ सर्ग]

भागसूचना

लक्ष्मण-मूर्च्छा, राम-रावण-संग्राम, हनुमान् जी का ओषधि लेने जाना और रावण-कालनेमि-संवाद

मूलम् (वचनम्)

श्रीमहादेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वा युद्धे बलं नष्टमतिकायमुखं महत्।
रावणो दुःखसन्तप्तः क्रोधेन महतावृतः॥ १॥

मूलम्

श्रुत्वा युद्धे बलं नष्टमतिकायमुखं महत्।
रावणो दुःखसन्तप्तः क्रोधेन महतावृतः॥ १॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमहादेवजी बोले—हे पार्वति! युद्धमें अतिकाय आदि राक्षसोंकी महती सेनाको नष्ट हुई सुन रावण अति दुःखातुर हो महान् क्रोधसे भर गया॥ १॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निधायेन्द्रजितं लङ्कारक्षणार्थं महाद्युतिः।
स्वयं जगाम युद्धाय रामेण सह राक्षसः॥ २॥

मूलम्

निधायेन्द्रजितं लङ्कारक्षणार्थं महाद्युतिः।
स्वयं जगाम युद्धाय रामेण सह राक्षसः॥ २॥

अनुवाद (हिन्दी)

और वह महातेजस्वी राक्षस लंकाकी रक्षाके लिये इन्द्रजित् को नियुक्त कर स्वयं रघुनाथजीसे लड़नेके लिये चला॥ २॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिव्यं स्यन्दनमारुह्य सर्वशस्त्रास्त्रसंयुतम्।
राममेवाभिदुद्राव राक्षसेन्द्रो महाबलः॥ ३॥

मूलम्

दिव्यं स्यन्दनमारुह्य सर्वशस्त्रास्त्रसंयुतम्।
राममेवाभिदुद्राव राक्षसेन्द्रो महाबलः॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाबली राक्षसराज समस्त शस्त्रास्त्रसे सुसज्जित एक दिव्य रथपर आरूढ़ हो श्रीरामचन्द्रजीकी ओर ही दौड़ा॥ ३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वानरान् बहुशो हत्वा बाणैराशीविषोपमैः।
पातयामास सुग्रीवप्रमुखान् यूथनायकान्॥ ४॥

मूलम्

वानरान् बहुशो हत्वा बाणैराशीविषोपमैः।
पातयामास सुग्रीवप्रमुखान् यूथनायकान्॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने अपने सर्पके समान उग्र बाणोंसे बहुत-से वानरोंको मारकर सुग्रीव आदि यूथपतियोंको भी पृथ्वीपर गिरा दिया॥ ४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गदापाणिं महासत्त्वं तत्र दृष्ट्वा विभीषणम्।
उत्ससर्ज महाशक्तिं मयदत्तां विभीषणे॥ ५॥

मूलम्

गदापाणिं महासत्त्वं तत्र दृष्ट्वा विभीषणम्।
उत्ससर्ज महाशक्तिं मयदत्तां विभीषणे॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर महापराक्रमी विभीषणको वहाँ गदा लिये खड़ा देख उसने उसकी ओर मयदानवकी दी हुई महान् शक्ति छोड़ी॥ ५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तामापतन्तीमालोक्य विभीषणविघातिनीम्।
दत्ताभयोऽयं रामेण वधार्हो नायमासुरः॥ ६॥
इत्युक्त्वा लक्ष्मणो भीमं चापमादाय वीर्यवान्।
विभीषणस्य पुरतः स्थितोऽकम्प इवाचलः॥ ७॥

मूलम्

तामापतन्तीमालोक्य विभीषणविघातिनीम्।
दत्ताभयोऽयं रामेण वधार्हो नायमासुरः॥ ६॥
इत्युक्त्वा लक्ष्मणो भीमं चापमादाय वीर्यवान्।
विभीषणस्य पुरतः स्थितोऽकम्प इवाचलः॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस शक्तिको विभीषणका नाश करनेके लिये बढ़ती देख ‘रामने इसे अभय दिया है, यह असुरकुमार वध किये जानेयोग्य नहीं है’ ऐसा कहते हुए महावीर्यवान् लक्ष्मणजी अपना प्रचण्ड धनुष लेकर विभीषणके आगे पर्वतके समान अचल होकर खड़े हो गये॥ ६-७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा शक्तिर्लक्ष्मणतनुं विवेशामोघशक्तितः।
यावन्त्यः शक्तयो लोके मायायाः सम्भवन्ति हि॥ ८॥
तासामाधारभूतस्य लक्ष्मणस्य महात्मनः।
मायाशक्त्या भवेत्किं वा शेषांशस्य हरेस्तनोः॥ ९॥

मूलम्

सा शक्तिर्लक्ष्मणतनुं विवेशामोघशक्तितः।
यावन्त्यः शक्तयो लोके मायायाः सम्भवन्ति हि॥ ८॥
तासामाधारभूतस्य लक्ष्मणस्य महात्मनः।
मायाशक्त्या भवेत्किं वा शेषांशस्य हरेस्तनोः॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस शक्तिकी सामर्थ्य अमोघ (कभी व्यर्थ न जानेवाली) थी, अतः वह लक्ष्मणजीके शरीरमें घुस गयी। संसारमें मायासे जितनी शक्तियाँ उत्पन्न होती हैं, महात्मा लक्ष्मणजी उन सबके आधार भगवान् विष्णुके स्वरूपभूत शेषनागके अंशावतार हैं। उनका उस मायाशक्तिसे क्या बिगड़ सकता था?॥ ८-९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथापि मानुषं भावमापन्नस्तदनुव्रतः।
मूर्च्छितः पतितो भूमौ तमादातुं दशाननः॥ १०॥
हस्तैस्तोलयितुं शक्तो न बभूवातिविस्मितः।
सर्वस्य जगतः सारं विराजं परमेश्वरम्॥ ११॥

मूलम्

तथापि मानुषं भावमापन्नस्तदनुव्रतः।
मूर्च्छितः पतितो भूमौ तमादातुं दशाननः॥ १०॥
हस्तैस्तोलयितुं शक्तो न बभूवातिविस्मितः।
सर्वस्य जगतः सारं विराजं परमेश्वरम्॥ ११॥

अनुवाद (हिन्दी)

तथापि इस समय मनुष्यभाव अंगीकार करनेसे उसका अनुकरण करते हुए वे मूर्च्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़े। लक्ष्मणजीको ले जानेके लिये रावण उन्हें अपने हाथोंसे उठानेमें सफल न हुआ, अतः उसे बड़ा ही विस्मय हुआ। भला, जो सम्पूर्ण जगत् का सार परमेश्वर विराट् पुरुष है उस निखिल लोकाधार विष्णुको एक क्षुद्र राक्षस कैसे उठा सकता था॥ १०-११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं लोकाश्रयं विष्णुं तोलयेल्लघुराक्षसः।
ग्रहीतुकामं सौमित्रिं रावणं वीक्ष्य मारुतिः॥ १२॥
आजघानोरसि क्रुद्धो वज्रकल्पेन मुष्टिना।
तेन मुष्टिप्रहारेण जानुभ्यामपतद्भुवि॥ १३॥

मूलम्

कथं लोकाश्रयं विष्णुं तोलयेल्लघुराक्षसः।
ग्रहीतुकामं सौमित्रिं रावणं वीक्ष्य मारुतिः॥ १२॥
आजघानोरसि क्रुद्धो वज्रकल्पेन मुष्टिना।
तेन मुष्टिप्रहारेण जानुभ्यामपतद्भुवि॥ १३॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब हनुमान् जी ने देखा कि रावण लक्ष्मणजीको ले जाना चाहता है तो उन्होंने अति क्रुद्ध होकर उसकी छातीमें एक वज्र-सदृश घूँसा मारा। उस घूँसेके आघातसे रावण घुटनोंके बल पृथ्वीपर गिर पड़ा॥ १२-१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आस्यैश्च नेत्रश्रवणैरुद्वमन् रुधिरं बहु।
विघूर्णमाननयनो रथोपस्थ उपाविशत्॥ १४॥

मूलम्

आस्यैश्च नेत्रश्रवणैरुद्वमन् रुधिरं बहु।
विघूर्णमाननयनो रथोपस्थ उपाविशत्॥ १४॥

अनुवाद (हिन्दी)

और अपने मुख, नेत्र और कानोंसे बहुत-सा रुधिर वमन करता हुआ घूमती हुई आँखोंसे रथके पिछले भागमें बैठ गया॥ १४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ लक्ष्मणमादाय हनूमान् रावणार्दितम्।
आनयद्‍रामसामीप्यं बाहुभ्यां परिगृह्य तम्॥ १५॥

मूलम्

अथ लक्ष्मणमादाय हनूमान् रावणार्दितम्।
आनयद्‍रामसामीप्यं बाहुभ्यां परिगृह्य तम्॥ १५॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर हनुमान् जी रावणद्वारा आहत लक्ष्मणजीको अपनी भुजाओंपर उठाकर श्रीरामचन्द्रजीके पास ले आये॥ १५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हनूमतः सुहृत्त्वेन भक्त्या च परमेश्वरः।
लघुत्वमगमद्देवो गुरूणां गुरुरप्यजः॥ १६॥

मूलम्

हनूमतः सुहृत्त्वेन भक्त्या च परमेश्वरः।
लघुत्वमगमद्देवो गुरूणां गुरुरप्यजः॥ १६॥

अनुवाद (हिन्दी)

हनुमान् जी के लिये, उनके सौहार्द और भक्तिभावके कारण वे अजन्मा और प्रकाश-स्वरूप परमेश्वर (लक्ष्मणजी) भारी-से-भारी होनेपर भी अत्यन्त लघु (हलके) हो गये॥ १६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा शक्तिरपि तं त्यक्त्वा ज्ञात्वा नारायणांशजम्।
रावणस्य रथं प्रागाद्‍रावणोऽपि शनैस्ततः॥ १७॥
संज्ञामवाप्य जग्राह बाणासनमथो रुषा।
राममेवाभिदुद्राव दृष्ट्वा रामोऽपि तं क्रुधा॥ १८॥
आरुह्य जगतां नाथो हनूमन्तं महाबलम्।
रथस्थं रावणं दृष्ट्वा अभिदुद्राव राघवः॥ १९॥

मूलम्

सा शक्तिरपि तं त्यक्त्वा ज्ञात्वा नारायणांशजम्।
रावणस्य रथं प्रागाद्‍रावणोऽपि शनैस्ततः॥ १७॥
संज्ञामवाप्य जग्राह बाणासनमथो रुषा।
राममेवाभिदुद्राव दृष्ट्वा रामोऽपि तं क्रुधा॥ १८॥
आरुह्य जगतां नाथो हनूमन्तं महाबलम्।
रथस्थं रावणं दृष्ट्वा अभिदुद्राव राघवः॥ १९॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीलक्ष्मणजीको साक्षात् नारायणका अंश जानकर वह शक्ति भी उन्हें छोड़कर फिर रावणके रथपर चली गयी। इधर रावणको भी जब धीरे-धीरे कुछ चेत हुआ तो उसने अत्यन्त क्रोधसे अपना धनुष उठाया और रामचन्द्रजीकी ओर दौड़ा। उसे (अपनी ओर आता) देख जगत्पति भगवान् राम अति क्रुद्ध होकर महाबली हनुमान् जी के कन्धेपर चढ़े और रावणको रथमें बैठा देख उसकी ओर दौड़े॥ १७—१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्याशब्दमकरोत्तीव्रं वज्रनिष्पेषनिष्ठुरम्।
रामो गम्भीरया वाचा राक्षसेन्द्रमुवाच ह॥ २०॥

मूलम्

ज्याशब्दमकरोत्तीव्रं वज्रनिष्पेषनिष्ठुरम्।
रामो गम्भीरया वाचा राक्षसेन्द्रमुवाच ह॥ २०॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् रामने अपने धनुषकी प्रत्यंचाका ऐसा कठोर शब्द किया जो मानो वज्रको भी चूर्ण करनेवाला था और फिर अति गम्भीर वाणीसे राक्षसराज रावणसे ऐसा कहा—॥ २०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राक्षसाधम तिष्ठाद्य क्व गमिष्यसि मे पुरः।
कृत्वापराधमेवं मे सर्वत्र समदर्शिनः॥ २१॥

मूलम्

राक्षसाधम तिष्ठाद्य क्व गमिष्यसि मे पुरः।
कृत्वापराधमेवं मे सर्वत्र समदर्शिनः॥ २१॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अरे राक्षसाधम! जरा ठहर तो, मुझ सर्वत्र समदर्शीका ऐसा अपराध करके तू कहाँ जा सकता है?॥ २१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

येन बाणेन निहता राक्षसास्ते जनालये।
तेनैव त्वां हनिष्यामि तिष्ठाद्य मम गोचरे॥ २२॥

मूलम्

येन बाणेन निहता राक्षसास्ते जनालये।
तेनैव त्वां हनिष्यामि तिष्ठाद्य मम गोचरे॥ २२॥

अनुवाद (हिन्दी)

अरे! तू तनिक मेरे सामने खड़ा रह, जिस बाणसे मैंने जनस्थानमें (खर-दूषणादिसे युद्ध करते समय) तेरे राक्षसोंको मारा था आज उसीसे तुझे भी मार डालूँगा’॥ २२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रीरामस्य वचः श्रुत्वा रावणो मारुतात्मजम्।
वहन्तं राघवं सङ्ख्ये शरैस्तीक्ष्णैरताडयत्॥ २३॥

मूलम्

श्रीरामस्य वचः श्रुत्वा रावणो मारुतात्मजम्।
वहन्तं राघवं सङ्ख्ये शरैस्तीक्ष्णैरताडयत्॥ २३॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीके ये वचन सुनकर रावणने उन्हें वहन करनेवाले हनुमान् जी के बड़े तीखे बाण मारे॥ २३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हतस्यापि शरैस्तीक्ष्णैर्वायुसूनोः स्वतेजसा।
व्यवर्धत पुनस्तेजो ननर्द च महाकपिः॥ २४॥

मूलम्

हतस्यापि शरैस्तीक्ष्णैर्वायुसूनोः स्वतेजसा।
व्यवर्धत पुनस्तेजो ननर्द च महाकपिः॥ २४॥

अनुवाद (हिन्दी)

किन्तु उन तीक्ष्ण बाणोंके लगनेपर भी पवनपुत्रका तेज अपने प्रभावसे बराबर बढ़ता ही गया और वे महान् कपीश्वर बड़े जोरसे गरजने लगे॥ २४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो दृष्ट्वा हनूमन्तं सव्रणं रघुसत्तमः।
क्रोधमाहारयामास कालरुद्र इवापरः॥ २५॥

मूलम्

ततो दृष्ट्वा हनूमन्तं सव्रणं रघुसत्तमः।
क्रोधमाहारयामास कालरुद्र इवापरः॥ २५॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब रघुनाथजीने हनुमान् जी को क्षत-विक्षत देखा तो दूसरे कालरुद्रके समान बड़ा भयंकर क्रोध धारण किया॥ २५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

साश्वं रथं ध्वजं सूतं शस्त्रौघं धनुरञ्जसा।
छत्रं पताकां तरसा चिच्छेद शितसायकैः॥ २६॥

मूलम्

साश्वं रथं ध्वजं सूतं शस्त्रौघं धनुरञ्जसा।
छत्रं पताकां तरसा चिच्छेद शितसायकैः॥ २६॥

अनुवाद (हिन्दी)

और अपने तीक्ष्ण बाणोंसे बड़ी फुर्तीके साथ सुगमतासे ही रावणके घोड़ेसहित रथ, ध्वजा, सारथी, शस्त्रसमूह, धनुष, छत्र और पताका आदि काट डाले॥ २६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो महाशरेणाशु रावणं रघुसत्तमः।
विव्याध वज्रकल्पेन पाकारिरिव पर्वतम्॥ २७॥

मूलम्

ततो महाशरेणाशु रावणं रघुसत्तमः।
विव्याध वज्रकल्पेन पाकारिरिव पर्वतम्॥ २७॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर इन्द्रने जैसे पर्वतोंपर आक्रमण किया था वैसे ही उन्होंने एक वज्रतुल्य महाबाणसे रावणको वेध डाला॥ २७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामबाणहतो वीरश्चचाल च मुमोह च।
हस्तान्निपतितश्चापस्तं समीक्ष्य रघूत्तमः॥ २८॥
अर्धचन्द्रेण चिच्छेद तत्किरीटं रविप्रभम्।
अनुजानामि गच्छ त्वमिदानीं बाणपीडितः॥ २९॥
प्रविश्य लङ्कामाश्वास्य श्वः पश्यसि बलं मम।

मूलम्

रामबाणहतो वीरश्चचाल च मुमोह च।
हस्तान्निपतितश्चापस्तं समीक्ष्य रघूत्तमः॥ २८॥
अर्धचन्द्रेण चिच्छेद तत्किरीटं रविप्रभम्।
अनुजानामि गच्छ त्वमिदानीं बाणपीडितः॥ २९॥
प्रविश्य लङ्कामाश्वास्य श्वः पश्यसि बलं मम।

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् रामका बाण लगनेसे वह वीर विचलित हो गया, उसे मूर्च्छा आ गयी और उसके हाथसे धनुष छूट गया। उसकी ऐसी दशा देखकर रघुनाथजीने एक अर्धचन्द्राकार बाणसे उसका सूर्यसदृश प्रकाशमान मुकुट काट डाला और कहा— ‘रावण! तुम मेरे बाणसे पीड़ित हो; अतः मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ, इस समय तुम जाओ। आज लंकामें जाकर विश्राम करो, फिर कल मेरा पराक्रम देखना’॥ २८-२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामबाणेन संविद्धो हतदर्पोऽथ रावणः॥ ३०॥
महत्या लज्जया युक्तो लङ्कां प्राविशदातुरः।
रामोऽपि लक्ष्मणं दृष्ट्वा मूर्च्छितं पतितं भुवि॥ ३१॥
मानुषत्वमुपाश्रित्य लीलयानुशुशोच ह।
ततः प्राह हनूमन्तं वत्स जीवय लक्ष्मणम्॥ ३२॥
महौषधीः समानीय पूर्ववद्वानरानपि।
तथेति राघवेणोक्तो जगामाशु महाकपिः॥ ३३॥
हनूमान् वायुवेगेन क्षणात्तीर्त्वा महोदधिम्।
एतस्मिन्नन्तरे चारा रावणाय न्यवेदयन्॥ ३४॥

मूलम्

रामबाणेन संविद्धो हतदर्पोऽथ रावणः॥ ३०॥
महत्या लज्जया युक्तो लङ्कां प्राविशदातुरः।
रामोऽपि लक्ष्मणं दृष्ट्वा मूर्च्छितं पतितं भुवि॥ ३१॥
मानुषत्वमुपाश्रित्य लीलयानुशुशोच ह।
ततः प्राह हनूमन्तं वत्स जीवय लक्ष्मणम्॥ ३२॥
महौषधीः समानीय पूर्ववद्वानरानपि।
तथेति राघवेणोक्तो जगामाशु महाकपिः॥ ३३॥
हनूमान् वायुवेगेन क्षणात्तीर्त्वा महोदधिम्।
एतस्मिन्नन्तरे चारा रावणाय न्यवेदयन्॥ ३४॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब श्रीरामचन्द्रजीके बाणसे विद्ध होनेके कारण सारा दर्प चूर्ण हो जानेपर रावणने लज्जित और व्याकुल हो लंकामें प्रवेश किया। इधर रामचन्द्रजी भी लक्ष्मणजीको मूर्च्छित-अवस्थामें पृथिवीपर पड़े देख मनुष्यभावका आश्रय ले लीलासे शोक करने लगे और हनुमान् जी से बोले—‘वत्स! पहली तरह ही (द्रोणाचलसे) महौषधि लाकर लक्ष्मण और वानरोंको जीवित करो।’ रघुनाथजीके इस प्रकार कहनेपर महाकपि हनुमान् जी ‘बहुत अच्छा’ कह एक क्षणमें ही महासागरको पार कर वायुवेगसे चले। इसी समय रावणके गुप्तचरोंने उससे कहा—॥ ३०—३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामेण प्रेषितो देव हनूमान् क्षीरसागरम्।
गतो नेतुं लक्ष्मणस्य जीवनार्थं महौषधीः॥ ३५॥

मूलम्

रामेण प्रेषितो देव हनूमान् क्षीरसागरम्।
गतो नेतुं लक्ष्मणस्य जीवनार्थं महौषधीः॥ ३५॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘स्वामिन्! रामने हनुमान् को क्षीर-समुद्रपर भेजा है और वह लक्ष्मणको जीवित करनेके लिये महौषधि लेने गया है’’॥ ३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वा तच्चारवचनं राजा चिन्तापरोऽभवत्।
जगाम रात्रावेकाकी कालनेमिगृहं क्षणात्॥ ३६॥

मूलम्

श्रुत्वा तच्चारवचनं राजा चिन्तापरोऽभवत्।
जगाम रात्रावेकाकी कालनेमिगृहं क्षणात्॥ ३६॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके ये वचन सुनकर राक्षसराज अति चिन्तातुर हुआ और उसी क्षण रात्रिमें ही अकेला कालनेमिके घर गया॥ ३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गृहागतं समालोक्य रावणं विस्मयान्वितः।
कालनेमिरुवाचेदं प्राञ्जलिर्भयविह्वलः।
अर्घ्यादिकं ततः कृत्वा रावणस्याग्रतः स्थितः॥ ३७॥

मूलम्

गृहागतं समालोक्य रावणं विस्मयान्वितः।
कालनेमिरुवाचेदं प्राञ्जलिर्भयविह्वलः।
अर्घ्यादिकं ततः कृत्वा रावणस्याग्रतः स्थितः॥ ३७॥

अनुवाद (हिन्दी)

रावणको घर आया देख कालनेमिको बड़ा आश्चर्य हुआ; वह उसे अर्घ्यादि दे उसके सामने खड़ा हो गया और अति भयभीत हो हाथ जोड़कर बोला—॥ ३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं ते करोमि राजेन्द्र किमागमनकारणम्।
कालनेमिमुवाचेदं रावणो दुःखपीडितः॥ ३८॥

मूलम्

किं ते करोमि राजेन्द्र किमागमनकारणम्।
कालनेमिमुवाचेदं रावणो दुःखपीडितः॥ ३८॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजराजेश्वर! आज किस निमित्तसे आना हुआ? कहिये, मैं आपकी क्या सेवा करूँ?’’ तब रावणने अति दुःखित होकर कालनेमिसे कहा—॥ ३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ममापि कालवशतः कष्टमेतदुपस्थितम्।
मया शक्त्या हतो वीरो लक्ष्मणः पतितो भुवि॥ ३९॥

मूलम्

ममापि कालवशतः कष्टमेतदुपस्थितम्।
मया शक्त्या हतो वीरो लक्ष्मणः पतितो भुवि॥ ३९॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘‘आज कालक्रमसे मुझे भी यह कष्ट उपस्थित हो गया। मेरी शक्तिसे आहत होकर वीर लक्ष्मण पृथिवीपर गिर पड़ा है॥ ३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं जीवयितुमानेतुमोषधीर्हनुमान् गतः।
यथा तस्य भवेद्विघ्नस्तथा कुरु महामते॥ ४०॥

मूलम्

तं जीवयितुमानेतुमोषधीर्हनुमान् गतः।
यथा तस्य भवेद्विघ्नस्तथा कुरु महामते॥ ४०॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसे जीवित करनेके लिये हनुमान् ओषधि लेने गया है। हे महामते! तुम कोई ऐसा उपाय करो जिससे उसके लानेमें विघ्न खड़ा हो जाय॥ ४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मायया मुनिवेषेण मोहयस्व महाकपिम्।
कालात्ययो यथा भूयात्तथा कृत्वैहि मन्दिरे॥ ४१॥

मूलम्

मायया मुनिवेषेण मोहयस्व महाकपिम्।
कालात्ययो यथा भूयात्तथा कृत्वैहि मन्दिरे॥ ४१॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम मायासे मुनि-वेष बनाकर हनुमान् को मोहित करो जिससे (उस ओषधिके प्रयोगका) समय निकल जाय। यह कार्य करके फिर अपने घर लौट आना’’॥ ४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रावणस्य वचः श्रुत्वा कालनेमिरुवाच तम्।
रावणेश वचो मेऽद्य शृणु धारय तत्त्वतः॥ ४२॥

मूलम्

रावणस्य वचः श्रुत्वा कालनेमिरुवाच तम्।
रावणेश वचो मेऽद्य शृणु धारय तत्त्वतः॥ ४२॥

अनुवाद (हिन्दी)

रावणके वचन सुनकर कालनेमिने उससे कहा— ‘महाराज रावण! मेरी बात सुनिये और उसे यथार्थ समझकर धारण कीजिये॥ ४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रियं ते करवाण्येव न प्राणान् धारयाम्यहम्।
मारीचस्य यथारण्ये पुराभून्मृगरूपिणः॥ ४३॥
तथैव मे न सन्देहो भविष्यति दशानन।
हताः पुत्राश्च पौत्राश्च बान्धवा राक्षसाश्च ते॥ ४४॥

मूलम्

प्रियं ते करवाण्येव न प्राणान् धारयाम्यहम्।
मारीचस्य यथारण्ये पुराभून्मृगरूपिणः॥ ४३॥
तथैव मे न सन्देहो भविष्यति दशानन।
हताः पुत्राश्च पौत्राश्च बान्धवा राक्षसाश्च ते॥ ४४॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं आपका प्रिय करूँगा ही, उसके लिये मैं अपने प्राणोंकी परवा नहीं करता, (तथापि उससे क्या लाभ होगा?) हे दशानन! इसमें सन्देह नहीं जो कुछ दण्डकारण्यमें मृगरूपधारी मारीचका हुआ था वही दशा मेरी भी होगी। देखिये, आपके पुत्र, पौत्र और अनेकों सगे-सम्बन्धी राक्षसलोग मारे गये॥ ४३-४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

घातयित्वासुरकुलं जीवितेनापि किं तव।
राज्येन वा सीतया वा किं देहेन जडात्मना॥ ४५॥

मूलम्

घातयित्वासुरकुलं जीवितेनापि किं तव।
राज्येन वा सीतया वा किं देहेन जडात्मना॥ ४५॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार राक्षस-वंशका नाश कराकर आपके जीवन, राज्य, सीता अथवा इस जड देहसे भी क्या लाभ है?॥ ४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सीतां प्रयच्छ रामाय राज्यं देहि विभीषणे।
वनं याहि महाबाहो रम्यं मुनिगणाश्रयम्॥ ४६॥

मूलम्

सीतां प्रयच्छ रामाय राज्यं देहि विभीषणे।
वनं याहि महाबाहो रम्यं मुनिगणाश्रयम्॥ ४६॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे महाबाहो! आप रामचन्द्रजीको सीता और विभीषणको राज्य देकर मुनिगणसेवित सुरम्य तपोवनको जाइये॥ ४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्नात्वा प्रातः शुभजले कृत्वा सन्ध्यादिकाः क्रियाः।
तत एकान्तमाश्रित्य सुखासनपरिग्रहः॥ ४७॥

मूलम्

स्नात्वा प्रातः शुभजले कृत्वा सन्ध्यादिकाः क्रियाः।
तत एकान्तमाश्रित्य सुखासनपरिग्रहः॥ ४७॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ प्रातःकाल शुद्ध जलमें स्नानकर तथा सन्ध्योपासनादि नित्य-कर्मोंसे निवृत्त हो एकान्त देशमें सुखमय आसनसे बैठिये॥ ४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विसृज्य सर्वतः सङ्गमितरान् विषयान् बहिः।
बहिःप्रवृत्ताक्षगणं शनैः प्रत्यक् प्रवाहय॥ ४८॥

मूलम्

विसृज्य सर्वतः सङ्गमितरान् विषयान् बहिः।
बहिःप्रवृत्ताक्षगणं शनैः प्रत्यक् प्रवाहय॥ ४८॥

अनुवाद (हिन्दी)

और सब ओरसे निःसंग हो बाह्य विषयोंको छोड़ अपनी बाह्य वृत्तिवाली इन्द्रियोंको धीरे-धीरे अन्तर्मुख कीजिये॥ ४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रकृतेर्भिन्नमात्मानं विचारय सदानघ।
चराचरं जगत्कृत्स्नं देहबुद्धीन्द्रियादिकम्॥ ४९॥
आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं दृश्यते श्रूयते च यत्।
सैषा प्रकृतिरित्युक्ता सैव मायेति कीर्तिता॥ ५०॥

मूलम्

प्रकृतेर्भिन्नमात्मानं विचारय सदानघ।
चराचरं जगत्कृत्स्नं देहबुद्धीन्द्रियादिकम्॥ ४९॥
आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं दृश्यते श्रूयते च यत्।
सैषा प्रकृतिरित्युक्ता सैव मायेति कीर्तिता॥ ५०॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे अनघ! अपने आत्माको सदा प्रकृतिसे भिन्न विचारिये। देह, बुद्धि और इन्द्रियादिसे युक्त सम्पूर्ण चराचर जगत् अर्थात् ब्रह्मासे लेकर स्तम्ब (कीटविशेष)-पर्यन्त जो कुछ दिखायी या सुनायी देता है वह सब प्रकृति है और वही माया भी कहलाती है॥ ४९-५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्गस्थितिविनाशानां जगद्‍वृक्षस्य कारणम्।
लोहितश्वेतकृष्णादिप्रजाः सृजति सर्वदा॥ ५१॥

मूलम्

सर्गस्थितिविनाशानां जगद्‍वृक्षस्य कारणम्।
लोहितश्वेतकृष्णादिप्रजाः सृजति सर्वदा॥ ५१॥

अनुवाद (हिन्दी)

वही सर्वदा संसाररूपी वृक्षकी उत्पत्ति, स्थिति और विनाशकी कारणरूप श्वेत (सात्त्विक), लोहित (राजस) और कृष्णवर्ण (तामस) प्रजा उत्पन्न करती है॥ ५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कामक्रोधादिपुत्राद्यान् हिंसातृष्णादिकन्यकाः।
मोहयत्यनिशं देवमात्मानं स्वैर्गुणैर्विभुम्॥ ५२॥

मूलम्

कामक्रोधादिपुत्राद्यान् हिंसातृष्णादिकन्यकाः।
मोहयत्यनिशं देवमात्मानं स्वैर्गुणैर्विभुम्॥ ५२॥

अनुवाद (हिन्दी)

तथा वही अपने गुणोंसे अहर्निश सर्वव्यापक आत्मदेवको मोहितकर काम-क्रोधादि पुत्रों और हिंसा-तृष्णादि कन्याओंको उत्पन्न करती है॥ ५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्तृत्वभोक्तृत्वमुखान् स्वगुणानात्मनीश्वरे।
आरोप्य स्ववशं कृत्वा तेन क्रीडति सर्वदा॥ ५३॥

मूलम्

कर्तृत्वभोक्तृत्वमुखान् स्वगुणानात्मनीश्वरे।
आरोप्य स्ववशं कृत्वा तेन क्रीडति सर्वदा॥ ५३॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह कर्तृत्व और भोक्तृत्व आदि अपने गुणोंको अपने प्रभु आत्मामें आरोपित कर उसे अपने वशीभूत कर उससे सदा खेलती रहती है॥ ५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुद्धोऽप्यात्मा यया युक्तः पश्यतीव सदा बहिः।
विस्मृत्य च स्वमात्मानं मायागुणविमोहितः॥ ५४॥

मूलम्

शुद्धोऽप्यात्मा यया युक्तः पश्यतीव सदा बहिः।
विस्मृत्य च स्वमात्मानं मायागुणविमोहितः॥ ५४॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिससे युक्त होकर आत्मा मायिक गुणोंसे मोहित होकर अपने स्वरूपको भूल जाता है और नित्य शुद्ध होता हुआ भी सदा बाह्य विषयोंको देखने लगता है॥ ५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा सद्‍गुरुणा युक्तो बोध्यते बोधरूपिणा।
निवृत्तदृष्टिरात्मानं पश्यत्येव सदा स्फुटम्॥ ५५॥
जीवन्मुक्तः सदा देही मुच्यते प्राकृतैर्गुणैः।
त्वमप्येवं सदात्मानं विचार्य नियतेन्द्रियः॥ ५६॥

मूलम्

यदा सद्‍गुरुणा युक्तो बोध्यते बोधरूपिणा।
निवृत्तदृष्टिरात्मानं पश्यत्येव सदा स्फुटम्॥ ५५॥
जीवन्मुक्तः सदा देही मुच्यते प्राकृतैर्गुणैः।
त्वमप्येवं सदात्मानं विचार्य नियतेन्द्रियः॥ ५६॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस समय सद्‍गुरुका साक्षात्कार होता है और वे उसे निर्मल ज्ञानदृष्टिसे जाग्रत् करते हैं उस समय वह बाह्य विषयोंसे अपनी दृष्टि हटाकर अपने-आपको ही स्पष्ट देखता है और फिर यह देहधारी जीव जीवन्मुक्त होकर प्राकृत गुणोंसे छूट जाता है। हे रावण! आप संयतेन्द्रिय होकर इसी प्रकार अपने वास्तविक आत्मस्वरूपका चिन्तन कीजिये॥ ५५-५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रकृतेरन्यमात्मानं ज्ञात्वा मुक्तो भविष्यसि।
ध्यातुं यद्यसमर्थोऽसि सगुणं देवमाश्रय॥ ५७॥

मूलम्

प्रकृतेरन्यमात्मानं ज्ञात्वा मुक्तो भविष्यसि।
ध्यातुं यद्यसमर्थोऽसि सगुणं देवमाश्रय॥ ५७॥

अनुवाद (हिन्दी)

इससे आत्माको प्रकृतिसे भिन्न जानकर आप मुक्त हो जायँगे और यदि आप इस प्रकार ध्यान करनेमें असमर्थ हों तो सगुण-भगवान् का आश्रय लीजिये॥ ५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हृत्पद्मकर्णिके स्वर्णपीठे मणिगणान्विते।
मृदुश्लक्ष्णतरे तत्र जानक्या सह संस्थितम्॥ ५८॥
वीरासनं विशालाक्षं विद्युत्पुञ्जनिभाम्बरम्।
किरीटहारकेयूरकौस्तुभादिभिरन्वितम् ॥ ५९॥
नूपुरैः कटकैर्भान्तं तथैव वनमालया।
लक्ष्मणेन धनुर्द्वन्द्वकरेण परिसेवितम्॥ ६०॥
एवं ध्यात्वा सदात्मानं रामं सर्वहृदि स्थितम्।
भक्त्या परमया युक्तो मुच्यते नात्र संशयः॥ ६१॥

मूलम्

हृत्पद्मकर्णिके स्वर्णपीठे मणिगणान्विते।
मृदुश्लक्ष्णतरे तत्र जानक्या सह संस्थितम्॥ ५८॥
वीरासनं विशालाक्षं विद्युत्पुञ्जनिभाम्बरम्।
किरीटहारकेयूरकौस्तुभादिभिरन्वितम् ॥ ५९॥
नूपुरैः कटकैर्भान्तं तथैव वनमालया।
लक्ष्मणेन धनुर्द्वन्द्वकरेण परिसेवितम्॥ ६०॥
एवं ध्यात्वा सदात्मानं रामं सर्वहृदि स्थितम्।
भक्त्या परमया युक्तो मुच्यते नात्र संशयः॥ ६१॥

अनुवाद (हिन्दी)

(उस सगुण ध्यानकी विधि इस प्रकार है) हृदयकमलकी कर्णिकाओंमें मणिगणजटित अति मृदुल और स्वच्छ सुवर्णसिंहासनपर जो जानकीजीसहित विराजमान हैं, जो वीरासनसे बैठे हैं, जिनके नेत्र अति विशाल और वस्त्र विद्युल्लताके समान तेजोमय हैं तथा जो किरीट, हार, केयूर और कौस्तुभमणि आदि आभूषणोंसे सुशोभित हैं; नूपुर, कटक और वनमाला आदिसे जिनकी अपूर्व शोभा हो रही है तथा लक्ष्मणजी अपने हाथोंमें दो धनुष (एक अपना और एक प्रभु रामका) लिये जिनकी सेवामें खड़े हैं, उन सबके हृदयमें विराजमान अपने आत्मरूप भगवान् रामका इस प्रकार सर्वदा अत्यन्त भक्तिपूर्वक ध्यान करनेसे आप मुक्त हो जायँगे—इसमें सन्देह नहीं॥ ५८—६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृणु वै चरितं तस्य भक्तैर्नित्यमनन्यधीः।
एवं चेत्कृतपूर्वाणि पापानि च महान्त्यपि।
क्षणादेव विनश्यन्ति यथाग्नेस्तूलराशयः॥ ६२॥

मूलम्

शृणु वै चरितं तस्य भक्तैर्नित्यमनन्यधीः।
एवं चेत्कृतपूर्वाणि पापानि च महान्त्यपि।
क्षणादेव विनश्यन्ति यथाग्नेस्तूलराशयः॥ ६२॥

अनुवाद (हिन्दी)

नित्य अनन्यबुद्धि होकर उनके भक्तोंके मुखारविन्दसे उनके पवित्र चरित्र सुनिये। ऐसा करनेसे आपके पूर्वकृत महान् पाप भी एक क्षणमें ही इस प्रकार भस्म हो जायँगे जैसे अग्निसे रूईका ढेर भस्म हो जाता है॥ ६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भजस्व रामं परिपूर्णमेकं
विहाय वैरं निजभक्तियुक्तः।
हृदा सदा भावितभावरूप-
मनामरूपं पुरुषं पुराणम्॥ ६३॥

मूलम्

भजस्व रामं परिपूर्णमेकं
विहाय वैरं निजभक्तियुक्तः।
हृदा सदा भावितभावरूप-
मनामरूपं पुरुषं पुराणम्॥ ६३॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो सर्वत्र परिपूर्ण हैं उन अद्वितीय भगवान् रामके साथ वैर छोड़कर आत्मप्रेमपूर्वक उन नाम-रूपरहित पुराणपुरुषकी हृदयमें सगुणभावसे भावना कर उनका सर्वदा भजन कीजिये’॥ ६३॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे युद्धकाण्डे षष्ठः सर्गः॥ ६॥